शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

१ सामयिक

वृक्ष सिर्फ इमारती लकड़ी नहीं
अपर्णा पल्लवी
यह त्रासदायी सच्चई है कि जिन आदिवासियों ने पीढ़ियों से वनों को न केवलबचाए रखा है बल्कि उनका विस्तार किया है उन्हें बिना विश्वास में लिए वनों का प्रबंधन (?) किया जा रहा है । क्षितिज की ओर देखते हुए नानकी बाई कहती हैं `` हमारे इलाके में लोग अक्सर कहा करते थे , कि क्या जंगल गायब होंगें ? पर मैंने अपनी आंखों के सामने पहले सिन्हार की बेल और उसके बाद बांस गायब होते देखें । परन्तु जब ``साल'' के वृक्ष लुप्त् होना प्रारंभ हुए तो लोगों को समझ आया कि अगर अब भी सुरक्षा नहीं की गई तो जंगल मिट जाएगें । मध्यप्रदेश के डिंडोरी जिले के सामनापुर, करंजिआ और बजांग विकास खंड के बैगाचक क्षेत्र के ५२ गांवों में निवास कर रही बैगा जनजाति हजारों वर्षोंा से बहुत सजगता से वनों का संरक्षण कर रही है । ३०-३५ हजार व्यक्तियों वाले इस समुदाय की मान्यता है कि `` वन लोगो की रक्षा करते हैं , न कि लोग वनों की । '' यहां वन संरक्षण को एक धार्मिक अनुष्ठान माना जाता है । वन अधिकारियों ने `बहुमूल्य' जंगल लगाने के व्यावसायिक दृष्टिकोण से जहां ग्रामवासियों को जंगल की सफाई हेतु भुगतान किया वहीं व्यापारियों ने उन्हें आंवला और छार या चिरौंजी जैसे फलों एवं औषधीय जड़ी बूटियां निकालने के लिए धन दिया । पोंडी गांव की एक अस्सी वर्षीय गृहणी का कहना है कि , ` हमसे कहा गया था कि जंगल तो सरकार के हैं ।'' लाभकारी लताआें और जड़ी बूटियों के लुप्त् होने से स्थानीय समुदाय भी गरीब होने लगा । लोग वन विभाग और व्यापारियो द्वारा दी गई मजदूरी पर अधिकाधिक निर्भर होने लगे । १९९५ में साल वृक्षों को खा जाने वाली महामारी फैलने के बाद असंतोष अपने चरम पर पहुंच गया । अजगर गांव निवासी गोंडी सिंह रथूरिया का कहना है कि , ` हमसे स्वस्थ वृक्षों को भी काटने को कहा गया। संक्रमित वृक्षों से दुगने स्वस्थ वृक्ष काट डाले गए । हमने अपने पूरे जीवन में इतने बड़े स्तर पर कटाई नहीं देखी थी । इस दौरान अनेक गांवों में असंतोष भड़क उठा परन्तु उसे दबा दिया गया । परन्तु ग्रामवासी सतर्क हो गए थे और उन्होंने वनों के विनाश पर विमर्श आरंभ कर दिया । शीघ्र ही उन्हें यह भान भी हो गया कि लताआें के लुप्त् हो जाने से क्या हानि हुई है । एक स्थानीय वृद्ध वैद्य (चिकित्सक) वीर सिंह सरोदिया का कहना है कि लताएं मिट्टी और हवा की नमी बरकरार रखती हैं , जानवरों को छिपने का स्थान उपलब्ध करवाती हें , वृक्षों को इस तरह जकड़लेती है कि उनका गिरना रूक जाता है । परन्तु सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वनों को अभेद्य बनाती हैं । '' सिन्हार, कानियाकंद, गीथ और किरची जैसी लताएं , अनाज के स्थानापन्न के रूप में फल, बीज, फाईबर व कंद जैसे पौष्टिक पदार्थ भी उपलब्ध करवाती हें । सिन्हार की पत्तियों का उपयोग पत्तल बनाने व छत को ढंकने के काम में भी किया जाता है । लताआें के विलुप्त् होने से इस क्षेत्र के दलदल भी सूख गए । क्षेत्र में अनेक बड़े व छोटे दलदल थे । ये दलदल तेजराज, भृंगराज, कामराज व मूसली जैसी अनेक औषधीय जड़ी बूटियों के भंडार थे । प्रत्येक बीमारी का उपचार यहां उपलब्ध था । जहांपहले औषधीय जड़ी बूटी की६१ किस्में उपलब्घ थीं अब केवल १०-१२ बची है । सेरझार गांव के सरपंच धनसिंह कुसराम का कहना है कि` अन्य उपयोगी पौधें जैसे आंवला, हरेड़ा, सुरेई , आम व बांस भी विलुप्त् होते जा रहे हैं । हमारा जंगल मिश्रित जंगल था । यहां ५० प्रकार के विशाल वृक्ष पाए जाते थे अब इसमें से २३ ही बचे हैं । वहीं प्रत्येक १००० वृक्षों में से ९२० वृक्ष साल के हैं। वनों के संरक्षण के नियम बनाना एक अन्य आवश्यक कवायद थी। इसके अंतर्गत वृक्षों और लताआें के काटने पर प्रतिबंध , जब तक वन उत्पाद पूरीतरह से तैयार न हो जाएं तब तक उनके एकत्रीकरण पररोक, वनों की आग व चोरी रोकने के लिए चौकसी व व्यापारियों द्वारा बाहर से मजदूर लाने पर प्रतिबंध लगाया गया । वन में आवंला, आम , बांस और छार के पौधे लगाए गए । इसके उत्साहवर्धक नतीजे समाने आए । जिन १२ गांवों में संरक्षण का कार्य प्रारंभ हुआ था उसमें से तीन गांवों के पानी के स्त्रोत पहले तीन वर्षोंा में ही पुनर्जीवित हो गए । विलुप्त् हुए छार, तेंदूफल, मुसली और कादा जैसे मसाले ३२०० हेक्टेयर के उस जंगल में , जिसे गांववासियों ने संरक्षित किया था, पुर्नउत्पादित होने लगे । परन्तु समस्या का पूर्ण निराकरण अभी भी नहीं हो पाया है । पिछले कुछ वर्षोंा में ग्रामवासियों का वन विभाग के अधिकारियों से अनेकों बार आमना - सामना हुआ है । इसकी मुख्य वजह है, समान्य तौर पर गिरे वृक्षों के बजाए सरकारी तौर पर अधिक वृक्षों को काटकर बड़ी मात्रा में इमारती लकड़ी निकाल लेना । धाबा गांव में २००४ में कुल ४००० वृक्ष काटने हेतु चिन्हित किए गए। गांव वालों ने जब यह मांग की कि उन्हें उन वृक्षों का निरीक्षण करने दिया जाए तो अधिकारी बाहर से मजदूर ले आए । तब उत्पन्न विवाद में एक राजस्व धिकारी ने हस्तक्षेप किया और २०० वृक्ष काटे गए । पछले वर्ष रजनीसराय में नी चिन्हित वृक्षों में से आधे को ही काटने दिया गया। २००७ में रंजरा गांव में ३००० वृक्षों को काटने हेतु चिन्हित किया गया । ग्रामवासियेा के विरोध व लम्बे तनावपूर्ण संघर्ष के बाद हुए समझौते में बहुत कम पेड़ काटे गए । अक्टूबर -नवम्बर २००८ में अफसरों ने चुपचाप सरकारी कटाई के लिए वृक्षों को चिन्हित कर देने के फलस्वरूप अनेक गांवों में झड़पे हुई हैं । वैसे वन विभाग ने ऐसी मुठभेड़ों से इन्कार किया है । वरिष्ठ वन अधिकारी कहते हैं कि २००८ में रजनीसराय के अलावा कहीं भी विवाद की स्थिति नहीं बनी । वहीं सेराझर, धाबा, रजनीसराय और रंजरा की ग्रामसभाओं के दस्तावेज बताते हैं कि दोनों पक्षों के बीच अनेक समझौता वार्ताएं हुई हैं । वहीं रजरा गांव की फूलवती निनगुनिया का कहना है कि ,``विवाद की स्थिति पैदा होते ही अफसर कहने लगते हैं कि तुम्हें कौन भड़का रहा है ? वे यह स्वीकार ही नहीं करना चाहते कि ये जंगल `हमारा है इसलिये यह हमारी चिंता का विषय है ।' अधिवक्ता अनिल गर्ग जिन्होंने क्षेत्र के भूमि- अभिलेख और सरकारी कटाई का अध्ययन भी किया है के अनुासर वन विभाग अभी भी अंग्रेजों के तरीकों से ही वन प्रबंधन कर रहा है और उसने स्वयं को इमारी लकड़ी के उत्पादन तक सीमित कर लिया है । मध्यप्रदेश के सभी जिलों की वन संबंधी कार्ययोजनाआें में वर्र्षोंां से मिश्रित वनों को `घटिया या निकृष्ट वन' की संज्ञा दी जाती रही है । सरकारी अधिकारी यह भी स्वीकार करते हैं कि उनकी कार्ययोजना में ऐसी लताआें और अन्य निकृष्ट किस्मों की सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं है । जबकि जैव विविधता और बेआगों की जीविका के लिए यह एक अनिावार्यता है । अपवादस्वरूप कार्ययोजना में कुछ हिस्सों मे ंजैव विविधता बनाए रखने की अनुशंसा की गइ्र है । वैसे सामान्य निर्देश हैं कि लताआें और बेकार झाड़ियों को नष्ट कर देना चाहिए, क्योंकि इससे साल और सागौन के वृक्षों की `वृदि्घ' में रूकावट आती है । सरकारी अधिकारी दावा करते हैं कि वे वैज्ञानिक तरीकों से पेड़ कटाई कर रहे हैं । वहीं दूसरी ओर बैगाआें का कहना है कि सरकारी कटाई बहुत ही नुकसानदायी है । रंजरा के सरपंच और वन अध्ययन समूह के अध्यक्ष जुगल निनगुनिया का कहना है कि `` जब एकपेड़ गिरता है तो उस पर आश्रित लताएं भी मर जाती हैं , जड़ी बूटियां और बीज भी नष्ट हो जाते हैं तथा इससे चिड़ियां और वन्यजीव भी विचलित हो जाते हैं । जिसके फलस्वरूप वन के पुनरूद्घार में भी विलंब होता है । '' ग्रामीणों का मानना है कि साल के वृक्षों की कटाई के लिए १२५ सेमी गोलाई तय करना भी उचित नहीं है । इतना तो वह २५ वर्षोंा में बढ़ जाता है । इसे स्वीकारता हुए छिंदवाड़ा स्थित वन विभाग के मानव संसाधन केंद्र के निदेशक सुनील बक्षी कहते हैं कि, `` वैसे तो साल वृक्ष सौ वर्ष तक जिंदा रह सकता है परन्तु इस गोलाई (३० सेे ३५ वर्ष में ) तक पहुंचने के बाद वह खोखला होने लगता है और उसका मूल्य भी घटता जाता है ।'' उत्पीड़न के भय से बैगा सरकारी कटाई को पूर्णतया रोकने की चुनौती नहीं दे रहे हैं , परन्तु उनका आग्रह है कि वृक्ष कटाई उनसे सलाह मशविरे के बाद ही हो । ***मच्छर नहीं फैलापाएंगे डेंगू ! मच्छरों को डेंगू व मलेरिया सहित कई खतरनाक बीमारियों का वाहक माना जाता है । लेकिन यदि मच्छर को ही संक्रमित कर दिया जाए तो यह हमारी जिंदगी के लिए खासा फायदेमंद साबित हो सकता है । एक वैज्ञानिक शोध के मुताबिक मच्छर को एक खास बैक्टीरिया वोल्बाशिया से संक्रमित कर दिया जाना न केवल उसके जीवनकाल को कम कर देगा, बल्कि उसके डेंगू व अन्य घातक बीमारियों के फैलाने पर रोक लगाने में कारगर साबित होगा । आनुवांशिक इंजीनियरिंग से बनाया गया बैक्टीरिया वोल्बाशिया से संक्रमित एडीस एजिप्टी(डेंगू को फैलाने वाला मच्छर) की उम्र सामन्य मच्छर की तुलना में आधी देखी गई। ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ताआें के मुताबिक यह बैक्टीरिया मच्छर के डेंगू फैलाने की क्षमता को कम कर देगा । उल्लेखनीय है कि एडीस मच्छर में पलने वाला डेंगू का वायरस होने में दो हफ्ते का समय लेता है और उसके बाद संक्रमण फैलाने के काबिल हो जाता है । क्वींसलैंड यूनिवर्सिटी के स्काटओ `नील के अनुसार बूढ़ी मादा एडीस एजिप्टी के द्वारा ही डेंगू फैलता है । यदि वोल्बाशिया से मच्छर को संक्रमित कर दिया जाए तो यह डेंगु की रोकथाम में काफी हद तक मददगार साबित हो सकता है ।

२ हमारा भूमण्डल

दुनिया का प्रथम हरित संविधान
गार समिथ
छोटे से लातिनी अमेरिकी देश `इक्वाडोर' जिसकी अर्थव्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर ही आश्रित है, द्वारा अपने यहां `पर्यावरणीय संविधान' की स्थापना कर `प्रकृति को कानूनी अधिकार प्रदान' किए हैं । जहां पूरी मानव सभ्यता आत्महत्या कीओर प्रवृत्त है ऐसे समय में प्रकृति को सजीव मानकर उसे कानूनी अधिकार प्रदान करने की २१ वीं शताब्दी का अब तक का सबसे महत्तवपूर्ण , गरिमामय व दूरन्देशी कदम कहा जा सकता है । हम भारतवासी जो अनन्तकाल से प्रकृति को जीवंत व अपना सहयात्री मानते आए हैं उन्हें भी हमसे सबक लेकर, पर्यावरणीय अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद करना चाहिए । गत सितम्बर में एसोसिएटेड प्रेस (एपी) ने एक समाचार प्रकाशित किया था कि इक्वाडोर का नया संविधान `वामपंथी राष्ट्रपति राफेल कोरिया के अधिकारों में काफी वृद्धि करेगा । एपी ने अपने १५ अनुच्छेद वाले इस लेख के अंत में जिक्र किया है कि जिस नए संविधान को देश के ६५ प्रतिशत मतदाताआें ने सहमति दी है , उसके अंतर्गत विश्वविद्यालय स्तर प तक मुफ्त शिक्षा और घर पर ही रहने वाली माताआें को सुरक्षा की गारंटी दी गई है । एपी की इस रिपोर्ट में इस संविधान से संबंधित एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य की पूर्णतया अनदेखी की गई है यह तथ्य है , इक्वाडोर के मतदाताआेंने विश्व के पहले `पर्यावरण संविधान' नाम के दस्तावेज पर अपनी मोहर लगाकर मानव इतिहास में प्रथम बार प्रकृति को `अहस्तांतरणीय अधिकार' प्रदान किए हैं । कुछ समय पूर्व तक कहीं से भी ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा था कि इक्वाडोर पृथ्वी के प्रथम ` हरित संविधान ' की जन्मस्थली बनेगा । अमेरिकी ऋणदाताआें, विश्वबैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के विशाल ऋण से दबे इक्वाडोर को इस बात के लिए मजबूर किया गया कि वह अपने प्राचीन अमेजन वनों को विदेशी तेल कंपनियों के लिए खोल दे । तकरीबन ३० वर्ष तक यहां से तेल निकालकर अमीर हुई शेवरान टेक्साको नाम तल कंपनी ने जहां उत्तरी अमेजान को अपवित्र कर दिया वहीं वह लाखों गरीब इक्वारोडवासियों े जीवन को बेहतर बनाने में भी असफल सिद्घ हुई । अमेजन वॉच का अनुमान है कि टेक्साको ने २५ लख एकड़ वर्षा वनां को नुकसान पहुंचाया है और इस इलाके में ६०० जहरीले तालाब खोदकर क्षेत्र की नदियें और नालों को भी प्रदूषित कर उन पर निर्भर ३० हजार रहवायियों का जीवन भी दूभर कर दिया है । टेक्साको जिन इलाकों में कार्य कर रही थी वहां पर कैेंसर की दर राष्ट्रीय औसत से १३० प्रतिशत अधिक है और बच्चें में रक्त कैंसर का अनुपात इक्वोडोर के अन्य क्षेत्रों के मुकाबले चार गुना अधिक है । १९९० में सिओना, सीकोया, अचुर , हुआओरानी एवं अन्य कई मूल वन निवासियों ने तीस लाख एकड़ पारम्परिक वनभूमि का स्वामित्व हासिल कर लिया था । परन्तु सरकार ने खनिजों और तेल पर अपना पूर्ववत् अधिकार कायम रखा थ । नवम्बर ९३ में इन्होंने टेक्साको के खिलाफ एक अरब डॉलर का पर्यावरणीय मुकदमा दायर किया और इसके बाद मूल निवासियों ने १५ वर्षोंा के लिये तेल निकालने पर रोक, पर्यावरण सुधार, कारपोरेट द्वारा क्षतिपूर्ति और तेल व्यापार के लाभ में हिस्सेदारी की मांग की। अमेरिका की पक्षधर तत्कालीन इक्वाडोर सरकार ने १९९७ में जब तेल उत्पादन में एक तिहाई बढ़ोतरी की घोषणा की तो सभी की निगाहें यासुनी वर्षावनों की ओर मुड़ गई जहां पर देश के सबसे बड़े तेल भंडार मौजूद हैं । जहां एक अरब बैरलतेल के भंडार हैं । यासुनी न केवल दुर्लभ चीतों, विलुप्त् प्राय सफेद पेट वाले मकड़ी बंदरों, विस्मित कर देने वाले भालुआें का ही नहंी बल्कि ऐसे मूल निवासियों का निवास भी है जिन्हें अंतरार्ष्ट्रीय संधियेां के माध्यम से सुरक्षा प्राप्त् है । राष्ट्रपति राफेल कोरिया की नई सरकार द्वारा २००७ में यासुनी में तेल निकालने पर रोक की घेाषणा को अमेजन वाच ने इक्वाडोर द्वारा तेल पर निर्भरता समाप्त् करने की दिशा े ंउठाया गया पहला कदम बताया । कोरिया के प्रस्ताव में इक्वाडोर के आर्थिक भविष्य के नए पथ के रूप में नवीकरण (रिन्युबल) ऊर्जा की ओर झुकाव की अनुशंसा की गई थी। नए संविधान की भाषा ने इस नई नीति को और भी आगे बढ़ाया है । इक्वाडोर के नए सुधारवादी संविधान में प्रकृति के अधिकार के नाम से जो अध्याय है वह देशज विचार `सुमक कवासे'अर्थात अच्छा जीवन और भूमि की देवी एन्डीअन के आह्वान से प्रारंभ होता है । इसे आरंभिक कथन में कहा गया है, ` प्रकृति या पंचामामा जहां पर जीवन पुनर्उत्पादित होता है और अस्तित्व में रहता है,उसे इसे बनाए रखने के लिए आवश्यक , अनिवार्य आवर्तन,संरचनाएं, कायों एवं क्रमविकास की ्रक्रियाआें को पूर्ण करने हेतु उसे अपने अस्तित्व,रख -रखाव व पुनरूत्पादन का पूरा अधिकार है। संविधान में `प्रकृति के कानूनी अधिकार भी समाहित किए गए हैं जिसके अंतर्गत `समग्र जीर्णोद्घार के अधिकार एवं `शोषण से मुक्ति' और हानिकर पर्यावरणीय परिणामों को भी सम्मिलित किया गया है । आश्चर्यजनक बात यह है कि इस पूरी घटना का अमेरिका से भी संबंध है । पेंसिलवेनिया स्थित `कम्यूनिटि इनवायरमेंटल लीगल डिफेंस फंड (सीईएलडीएफ) ने सान फ्रांसिस्को स्थित पंचामामा एलाइंस' के साथ संयुक्त रूप से इक्वाडोर की १३० सदस्यीय संविधान समिति के साथ एक वर्ष तक कार्य कर के नए संविधान के अंतर्गत `पर्यावरणीय अधिकार' से संबंधित भाषा का निर्माण किया है । सीईएलडीएफ की वेबसाईट पर लिखा है, `आज पर्यावरणीय कानून असफल होते जा रहे हैं । किसी भी पैमाने पर मापें तो हम पाएगें कि आज पर्यावरण की स्थिति अमेरिका द्वारा ३० वर्ष पूर्व पर्यावरणीय कानूनों को अपनाए जाने से भी बदतर है । सीईएलडीएफ का आकलन है कि इन कानूनों के अंतर्गत प्रकृति के साथ सम्पत्ति जैसा व्यवहार किया गया है। इन कानूनों के माध्यम से पर्यावरण को हानि पहुंचाने को वैधानिकता प्रदान करते हुए यह बताया गया है कि प्रकृति को किस हद तक प्रदूषित किा जा सकता है अथवा कितना नष्ट किया जा सकता है । कानूनों के द्वारा प्रदूषण का निषेध नहीं किया है, उसे सिर्फ सुव्यवस्थित भर कर दिया गया है । इसके ठीक विपरीत `प्रकृति के कानूनी अधिकार ' सम्पत्ति कानून को चुनौती देते हुए कहता है कि `अस्तित्वमान इको सिस्टम की कार्यप्रणाली में संपत्तिधारक के हस्तक्षेप के अधिकारों को समाप्त् कर यह सुनिश्चित किया गया है कि इको सिस्टम अपने अस्तित्व व फलने-फूलने के लिए जिन सम्पत्तियों पर निर्भर है उन्हें चिरस्थायी बनाया जाए । इस विचार ने अब गति पकड़ ली है । अमेरिका की पेंसिलवेनिया, केलिफोर्निया, न्यू हेम्पशायर और वर्जीनिया की नगरपालिकों ने भी हाल के वर्षों में `प्रकृति के कानूनी अधिकारों' को अपनाया है । ग्लोबल एक्सचेंज के शानोन बिग्स का कहना है कि `अमेरिकियों द्वारा कदम उठाए जाने के पूर्व एक समय तक गुलामों को भी कानूनन संपत्ति ही समझा जाता था सांस्कृतिक वातावराण को बदलने के लिए भी हमें नए कानून लिखने की आवश्यकता है । तोतों से भरे जंगल, जिसमें प्रति हेक्टेयर ३०० से अधिक तरह के वृक्षों की प्रजातियां हैं, अद्भुत जैव विविधता वाले वर्षावन और गालापागोस द्वीप तक फैली सीमाआें वाला यह देश `इक्वाडोर' दुनिया के पहले हरित संविधान के लिए आदर्श स्थिति निर्मित करता है । इक्वाडोर ने उस जंजीर पर हथोड़े से चोट कर दी है जिसे वाणिज्य ने प्रकृति को अपनी दासता में रखने के लिए बनाया था । अब समय आ गया है कि अन्य राष्ट्र भी उसी हथौड़े को उठाएं । ***म.प्र. में देश का पहला डायनासोर म्यूजियम म.प्र. में धार में डायनोसोर के अंडे मिलने के बाद पुरातत्व विभाग जल्द ही करीबन डेढ़ करोड़ की लागत से डायनासोर म्युजियम तैयार करने जा रहा है। देश में इस तरह का यह पहला डायनासोर म्यूजियम होगा । इसके लिए केंद्रीय पुरातत्व विभाग धनराशि देगा । सूत्रों के अनुसार डायनासोर के अलावा इसमें वन्य प्राणी से जुड़े सभी धरोहर को रखने की योजना है। धार जिले के मनावर में खुदाई के समय डायनासोर अंडे प्राप्त् हुए थे । ये अंडे अब पत्त्थर के रूप में परिणत हो चुके हैं । पुरातत्व अधिकारियों के अनुसार करीबन लाखों साल जमीन के अंदर दबे रहने के कारण यह अंडे पत्थर का रूप धारण कर चुके हैं । इसके बाद विदेशी और देशी सहित शोधकर्ता इसको लेकर रिसर्च कर रहे हैं । इसी वर्ष म्युजियम निर्माण का कार्य भी शुरू कर दिया जाएगा । वर्ष २०१० में यह म्यूजियम बनकर तैयार हो जाने की उम्मीद है । यहां विलुप्त् वन्य प्राणी के बारे में जानकारी उपलब्ध कराई जाएगी ।

३ आवरण कथा

कल्पतरू की कल्पना
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
हर वृक्ष का अपना विशिष्ट आकार प्रकार एवं संस्कार होता है । वह सूक्ष्म बीज से विराट रूप संजोता है । वृक्ष ही भूमि पर शोभायमान प्रसार से पर्यावरण को अमरत्व देते है । वृक्ष ही पर्यावरण की नीरसता दूर कर उसे शीतलता एवं नीरव शांति देते हैं । धरती को स्थायित्व देते हैं । वृक्ष ही सौंदर्य को अपने पत्ती-पत्ती, बूटे-बूटे और फल में समेट लेते है। वहीं तो हमें हरापन देते है । पर्यावरण का मर्म उनकी शिराआें में रस बनकर बहता है । सदा ही परोपकार करूँगा, हर पेड़ यहाँ कहता है । वह धरती से जुड़े रहकर आकाश को ताकते है और हमारे लिए सूर्य देव से प्रकाश और ताप माँगते है । वृक्ष ही रूप रंग और रस के पारखी है । वह हमें सब कुछ प्रदान करते है जिसकी हमे अपने अस्तित्व के लिए जरूरत है । अत: हमारे लिए हर वृक्ष कल्प वृक्ष है । वह हमको मनवांछित देता है, बदले में हमसे कुछ नहीं लेता है । अगर हम उसपर कुल्हाड़ी नहीं चलायें तो देता ही रहता है हर वनस्पति का औषधीय महत्व भी है जो हमारी देह को कायाकल्प में योगदान करती है । हमारे वेद-पुराणों में रूपकमयी शैली में सुर एवं असुर शक्तियों द्वारा आहूत समुद्र मंथन का मिथक निरूपित है । मंथन के परिणाम स्वरूप समुद्र से निर्मित चौदह रत्नों में कल्पवृक्ष का विशेष महत्व है । कल्पवृक्ष का मिथक हमको वृक्षों के प्रति आत्मीय बनाता है एवं उनके प्रति हमारे अंदर कर्तव्य भावना जगाता है । कल्पवृक्ष अर्थात सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करने वाला वृक्ष । जों कुछ हमारी कल्पना में जन्म लें, वह सत्य-सार्थक हो जाये । कल्पतरू का मिथक यदि मात्र कल्पना भी है तब भी है कथा बड़ा अनुरंजक एवं पर्यावरण सचेतक । पुराण प्रसंग के अनुसार -``ततोडभवत् पारिजात: सुरलोक विभूषणम्।पूरयत्यर्थिनो यो%र्थे शश्वद् भुवि यथा भवान।।''(श्रीमद् भागवत् महापूराण ८/८/६)अर्थात-परीक्षित! इसके बाद स्वर्ग लोक की शोभा बढ़ाने वाला कल्पवृक्ष निकला । वह याचको की इच्छाएं, उनकी इच्छित वस्तु देकर वैसे ही पूर्ण करता रहता है, जैसे पृथ्वी पर तुम सबकी इच्छाएँ पूर्ण करते हो । समुद्र से प्राप्त् इस विलक्षण वृक्ष को देवताआें ने देवलोक के विशेष उद्यान में प्रतिष्ठित किया । कल्प वृक्ष केे सुन्दर फूलों का धारक ह्ी चिरयौवन पा जाता था । देवी देवता अपनी विशेष पूजा अर्चना आदि में इसके पुष्प प्रयोग करते थे । एक दिवस पार्वती ने भोलेनाथ से अपने विशेष यज्ञ के प्रयोजन से कल्पवृक्ष पारिजात को स्वर्ग लोक से कैलाश पर्वत पर ले आने का आग्रह किया । भोले बाबा को पूर्ण विश्वास था कि देवराज इन्द्र उन्हे पारिजात अवश्य ही दे देंगे अत: वह माँगने गए भी किन्तु देवराज ने नीलकण्ठ से यह कहकर साफ इंकार कर दिया कि कल्पवृक्ष पारिजात देव लोक का प्रतीक बन चुका है । देवराज की इस अहंमन्यता को भोले भण्डारी ने तो सहज भाव से लिया किन्तु भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र का अहंकार तोड़ने हेतु कौतुक रचा । श्रीकृष्ण एक असुर का पीछा करते करते देवलोक पहुँचे उनके साथ सत्यभामा भी थी उस असुर ने देवमाता अदिति के कुण्डल बलात हथिया रखे थे। श्रीकृष्ण और देवी सत्यभामा ने असुर को परास्त किया तो खुश होकर देवमाता ने सत्यभामा को चिरयौवन का आर्शीवाद दिया। देवराज ने श्री कृष्ण को कल्पवृक्ष पारिजात का पुष्प भेंट किया । श्री कृष्ण ने द्वारिका लौटने पर वह पुष्प देवी रूक्मणी को दे दिया । इस प्रसंग से सत्यभामा दर्प से भर उठी और उन्होने श्री कृष्ण से अपने विशेष यज्ञ की पूर्ति हेतु कल्प वृक्ष पारिजात को ही शपथ भरवा कर माँग लिया । देवराज ने श्री कृष्ण द्वारा पारिजात के आग्रह को भी ठुकरा दिया तो श्री कृष्ण ने देवराज को युद्ध में परास्त कर पारिजात को द्वारिका लाकर यज्ञ को पूर्णता प्रदान की और यज्ञ की सम्पन्नता के पश्चात् उसे पुन: देवलोक में ही प्रतिष्ठित किया । यह तो ज्ञात नहीं है कि देवलोक के विलक्षण कल्प वृक्ष पारिजात के संततियों के रूप में वर्तमान काल में पृथ्वी लोक में फलीभूत एण्डसोनिया डिजिटाटा नामक पारिजात वृक्ष ही वह मिथकीय कल्पवृक्ष है जिसके विलुप्त् प्राय होने से वन विभाग चिंतित है तथा क्लोनिंग की यह विधि एयर लेयरिंग बतलाई जाती है । इस विधि से केवल दुर्लभ पारिजात ही नही वरन रूद्राक्ष तथा चंदन के पेड़ो को बचाने की मुहिम भी जारी है । कुछ लोगोें का मत है कि जिस अश्वत्थ वृक्ष में स्वयं को निरूपित करते हुए श्री कृष्ण ने गीता में कहा है - ``अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम्'' अर्थात सब वृक्षो में अश्वत्थ हॅू वह अश्वत्थ, वही कल्पवृक्ष परिजात ही है । यदि यह मान भी लिया जायें कि वह वही कल्पवृक्ष है तो उसमें मनोरथों को पूर्ण करने का गुण कहाँ है ? क्या वह वांछित को प्रदान करता है ? नहीं, इसका कारण यह माना जा सकता है कि युगान्तरकारी परिवर्तनों के कारण उसका यह दिव्य गुण क्षीण हो चुका हो।यूँ भी देव लोक और मृत्यु लोक में कल्पवृक्ष की आधारभूत स्थितियों में जमीन आसमान का अंतर होगा । यह भी हो सकता है कि जिसे हम आज अपनी धरती पर पारिजात समझते हैं वह समुद्रमंथन द्वारा प्राप्त् मूल कल्पतरू न होकर उसका प्रतिरूप हो । क्योंकि पुराण प्रसंग के अनुसार भी जब शंकर भगवान को देवी पार्वती के यज्ञ की पूर्णता हेतु देवराज इन्द्र ने कल्पवृक्ष पारिजात को देने से इंकार कर दिया था तो सदाशिव ने अपनी शक्ति के बल पर कैलाश पर्वत पर पारिजात का जंगल ही अस्तित्वमान कर दिया था । हो सकता है कि यह पुराण प्रसंग आधुनिक क्लोनिंग (एयर लेयरिंग विधि) का ही कोई रूप रहा हो । अभी तो हमारे समक्ष पारिजात के विषय में भेद की गुत्थी भी है , प्रश्न यह भी है कि जस आिश्वत्थ का वर्णन पुराणों तथा गीता में है वही हमारे आसपास उग आने वाला पीपल है या कि काई अन्य पेड़ है । लोकजीवन में हम सदा सदा से पीपल को विष्णु रूप में तथा वट को शिव रूप में पूजते आये हैं-`` अश्वत्थ रूपी भगवानवटरूपी सदाशिव'' स्कन्द पुराण में भी यही बात लिखी है - अश्वत्थ रूपी विष्णु स्यादूट रूपी शिवोयत: `` शास्त्रों में ही लिखा है-`` पुमापुस पारिजातोडश्वत्थ खदिरादधि'' अर्थात् जिस प्रकार खादिर '(खैर) के वृक्ष के ऊपर अश्वत्थ उत्पन्न होता है उसी प्रकार वीर पुरूष पैदा होते हैं और शत्रुआें का वध कर देते हैं । पीपल में सम्पूर्ण देवाधिष्ठान है । उसकी जड़ में विष्णु, तने में केशव, शाखाआें में नाराण, पत्तों मे ंश्री हरि और फूलों में विविध देवताआें के साथ अच्युत सदा निवास करते हैं अश्वत्थ का वनस्पति विज्ञानी फाइकस रिलीजियोसा नाम बतलाते हैं जो स्वयं वृक्ष को धर्म से जोड़ता है । संस्कृत में अश्वत्थ को `पिप्पल' कहते हैं । पीपल के लिए वाड़्गमय में ही लिखा है -मूले ब्रह्मा त्वचा विष्णु शाखायाम महेश्वर।निवसन्ति पत्रे-पत्रे सर्वानिदेवा वृक्षराज नमोस्तुते ।। नि:संदेह वृक्ष चाहे किसी भी प्रजाति के हों हमें हरित विश्वास तो देते ही हैं अपने आंचल से हमको छाया देते हैं स्वयंधूप में निडर खड़े रहते हें उनके हर पत्ते में प्रेम छिपा होता है । वृक्ष में ही देवताअमूर्त ेस मूर्तमान होते हैं । वृक्ष ही सम्पूर्ण सृष्टि की विकसन प्रक्रिया और विकास के विस्तार के साक्षी हें । पेड़ों पर पक्षियों का कलरव किसी पूजा अर्चना की आरती से कम नहीं होता है । वृक्षारोपण से मनचाहे फल की बात कल्पित नहीं वरन् यथार्थ है । वृक्ष लगाईये और मनवांछित फल पाईये । कोई भी मिथक मिथ्या नहंी होता है वह सत्य का बीज ही संजोता है । वृक्ष हमें बहुत कुछ देते हैं साथ ही हमारे मन की मुराद भी पूरी करते हैं । विभिन्न कामनाआें की पूर्ति हेतु तथा ग्रहों की शांति के लिए हम मुद्रिकाआें में कीमती रत्नों के रूप में हीरे पन्ना मोती मूंगा पुखराज नीलम सुनहला या अन्य रत्न धारण करते हैं । हमारे आर्ष ग्रन्थ इसका सस्ता एवं सरल विकल्प बतलाते हैं जिससे हमारे पर्यावरण को भी अमरत्व मिलता है प्राचीन ग्रंथों के अनुसार किसी व्यक्ति की जन्मकुण्डली के नक्षत्र ग्रह प्रााव के आधार पर विशेश प्रजाति के पेड़ रोपने से शांति एवं लाभ मिलता है । मन की मुरादें पूरी होती हैं विभिन्न ग्रहों के दोष निवारण हेतु अलग-अलग पेड़-पौधों का निर्धारण है उदाहरणार्थ राहु की शांति के लिए दूब रोपण तथा केतु की शंाति के लिए कुश रोपण का विधान है । शनि की शांति के लिए पीपल का रोपण तथा प्रदक्षिणा का प्रावधान है । विशेष वृक्ष लगाने से विशेष फल मिलता है। वृक्ष हमेंकभी भी निराश नहीं करते हैं । वह हमें हरित विश्वास ही देते हैं । अनुमान के मुताबिक एक सरसब्ज पेड़ अपने जीवनकाल में तथा जीवन के बाद भी लाखों रूपये का मूल्य देकर हमें मालामाल करता है । कई लाख रूपया मूल्यकी ऑक्सीजन हमें देता हे । प्रदूषकों की रोकथाम अवशोषण द्वारा कर कई लाख का लाभ पहुंचाता है । लकड़ी पत्र पुष्प फल जलचक्र, जमीन की उर्वरा शक्ति तथा अन्य योगदान मिलाकर २५-३० लाख का आकलित होता है । ऐसे वृक्षों को छोड़कर, उनके फूल तोड़कर और अन्य देवों के शीर्ष चढ़ाकर हम भला क्यों रिझाते हैं ? तरू देवता में सब देवता समा जाते हैं । एक ही पौधे में ब्रह्मा , विष्णु, महेश की प्रतिष्ठा मानते हुए कबीर दासजी कहते हैं कि पत्ती में ब्रह्मा,पुष्प में विष्णु तथा फल में महादेव निवास करते हैं फिर तुम इसे तोड़कर किस देवता की सेवा करना चाहते हो ?`पाती ब्रह्म पुहुयें विष्णु, फूल- फल महादेवा।तिनि देवौ एक मूर्ति, करै किसकी सेवा ।।'संत मलूक दासजी भी कहते हैं कि जो हरी टहनी अपने सजीव जीवंत होने का परिचय स्वयमेव दे रही है उसे मत तोड़ो। तोड़ने पर उसे वैसी ही पीड़ा होती है जैसे मानव को छुरा या बाण लग जाने से होती है । पेड़ों को हमें अपने समान सप्राण मानना चाहिए । ` हरी डार मत छोड़िये ,लागे छूरा बाण ।दास मलूका यों कहें, अपना-सा जीव जान ।।'हमारे धर्म ग्रंथ बार- बारे पेड़ों को अक्षुण्ण बनाये रखने का संदेश देते हैं और कहते हैं कि वृक्षों का सम्मान करने से दारिद्र्य नष्ट होता है सम्पदा और सुख शांति मिलती है । क्या अब भी हम कहेंगें कि हर वृक्ष कल्पवृक्ष नहीं है ? शास्त्रोक्ति देखिये - ``एकोहरि: सकल वृक्षागतो विभाति नानारसेन परिमादित मूर्ति देव ।वृक्षा दिवा समगमत्कमला च देवी दुखादि नाशनकरी संतत स्मृतापि ।।''(स्कन्दपुराण १७-१९) अर्थात् - भगवान विष्णु का निवास प्रत्येक वृक्ष में है । जिसके सम्मान से लक्ष्मीजी (कमला)प्रसन्न होती हैं जो हमारी निर्धनता ही नहीं अपितु हमारे सभी दु:खों को हरने की क्षमता रखती है । हमारे आर्षग्रंथों मे सृष्टि सृजन के समय वनस्पतियों की उत्पत्ति का वर्णन है । जब सृष्टि के उद्भव काल में विष्णु की नाभि से कमल प्रकट हुआ जिस पर ब्रह्मा आसीन हुए तब अन्य देवताआें से भी विभिन्न वनस्पतियां जन्मीं । यक्षों के राजा मणिभद्र से वट वृक्ष उत्पन्न हुआ इसे यज्ञ तरू भी कहते हैं । हमारे पुराणों में अनेक प्रतिकात्मक मिथकीय कथाएँ पेड़ - पौधों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में वर्णित हैं श्री हरिवंश पुराण में विशाल वट वृक्ष का वर्णन है जिसको भाण्डीरवट के नाम से जाना जाता है उसकी छाया में भगवान ने भी विश्राम किया -योग्राध पर्वतोग्रामं भाण्डीरनाम नामत: ।दृष्ट्वा तत्र मतिं चके निवासाय तत:प्रभु।। केवल हिन्दू धर्म ही कल्पतरू के रूप में वनस्पतियों को निरूपित नहीं करता है । इस्लाम में भी पेड़- पौधों को अल्लाह की नियामत बतलाया गया है तथा बंजर जमीन पर पेड़ लगा कर उसे सरसब्ज करने की ताकीद दी गई है । इस्लाम धर्म में खजूर े पेड़ की विशेष इबादत है। बौद्धधर्म में वृक्षों को काटना जघन्य अपराध बतलाया गया है । गौतम बुद्ध को तो बोधिसत्व ही पीपल के वृक्ष के नीचे मिला था । जैन धर्म के प्रणेता भगवान महावीर ने कहा किपेड़ और आदमी मे ंकोई अंतर नहीं है। आदमी की तरह वनस्पतियां भी जीवन की विभिन्न अवस्थाएँ धारण करती हैं । ईसाई धर्म तो`` क्रिसमस ट्री'' के रूप में उपहारों की सौगात `` क्रिसमस डे'' पर बांटता ही है । यह कल्प वृक्ष के प्रतीक का ही एक रूप है जो हमें प्रभु यीशू के आशीर्वाद के रूप में मिलता है। पवित्र बाईबिल (१:११-१२) कहती है कि - आरम्भ के दिनों में परमेश्वर ने पृथ्वी पर हरी-हरी घास और समस्त प्रकार के पेड़ पौघों को बनाया और फिर परमेश्वर ने कहा , पृथ्वी से हरी घास और बीज वाले छोटे- छोटे पेड़ और फलदायी वृक्ष भी जिनके बीज उन्हीं में एक- एक कीजाति के अनुसार होते हैं पृथ्वी पर उगें और वैसा ही हो गया, तो पृथ्वी से हरी घास और छोटे - छोटे पेड़ जिनमें अपनी - अपनी जाति के अनुसार बीज आते हैं और फलदायी वृक्ष जिनके बीज एक- एक की जाति के अनुसार होते हैं , उगे और परमेश्वर ने देखा कि यह अच्छा था ।'' अत: हमारा कर्त्तव्य है कि हम पीपल (अश्वत्थ), वट (न्योग्रोथ) , पाखड़ (पिलखन), गूलर के पेड़ तो लगायें ही साथ ही नीम , आम, जामुन, कदम्ब, गुलमोहर, अमलताश, अर्जुन, मौलश्री, इमली आदि का रोपण करें । फल, फूल लकड़ी, चारा, रेशे और औषधि प्रदायक पेड़ भी लगायें । बांज (ओक), बुरांश, बांस, देवदार, शीशम,साल, टीक, बेल, बबूल, सेमल, चन्दन, कुरियाल, तनु, निगाल, रोबीनिया, नारियल, रूद्राक्ष आदि को भी रोपें । जिन पेड़ों की जड़े मजबूती के साथ धरती में गहराई तक जाती हैं उनहें अधिक से अधिक लगायें जाकि मृदा संरक्षित रहे । श्री रामजी ने वनवास में पंचवटी में पर्णकुटी बनाई वहां पर बड़, पीपल, पाखड़ , गूलर और आम के पेड़ थे, जिन्हें `पंच पल्लभ' कहा जाता है । अग्नि पुराण में उल्लेख है कि उत्तर दिशा में शुभ प्लक्ष अर्थात् पिलखन लगाना चाहिए पिलखन को ही पाखड़ भी कहते है, पूर्व दिशा में वट अर्थात् न्यग्रोथ लगाना चाहिए, दक्षिण दिशा में गूलर तथा पश्चिम दिशा में अश्वत्थ उत्तम होता है ।उत्तरेण शुभ: प्लक्षो वट:प्राक्स्याद् गहादित:।उदुम्बरश्च चायमेन पश्चिमेडश्वत्थ उत्तम: ।। उक्त चारों प्रकार के वृक्षों के अलावा कटहल भी फाइकस कुल का वृक्ष होता है इन पाँचों को क्षीर वृक्ष कहते हैं क्योकि इनकी शाखाआें से दूध के जैसा द्रव पदार्थ निकलता है । वृक्षों की महिमा का गुणगान साधु-संतों, ऋषि महर्षियों, अवतारी देवों तथा मनीषियों ने स्थान - स्थान पर किया है । महात्मा गौतम बुद्ध ने कहा कि पत्ती फूल फल छाया जड़ छाल, लकड़ी गन्ध और राख से संसार की सेवा करने वाले तरू की जय हो -`पत्र पुष्प फलच्छाया मूल वल्कल दारूभि:।गन्ध निर्यास भस्मास्थि तोक्ये: कामान्वितन्वते।।' श्रीमद् भागवत गीता के अनुसर प्रलय काल में जब सम्पूर्ण सृष्टि जल में समा गई तब स्वयं परमात्मा ने माया शिशु के रूप में दिव्य दर्शन दिया - `` विश्व युगन्ति वट पत्र एक: शेते स्म मायाशिशुरड़्धिपान'' वट पत्र पर नन्हा शिशु निश्चिंत होकर अपना अंगूठा चूस रहा था । यह संकेत ध्वंस के बाद सृजन का , विनाश के बाद नवनिर्माण का है । वट में जीवन की अपार क्षमता है । वह प्रतिकूल परिस्थितिया में भी उग जाता है। वृक्ष महात्म्य चर्चा के बाद अब हम पुन: अपनी चर्चा के प्रस्थान बिन्दु पर आते हैं कि क्या आज भी हमारी धरतीपर कल्पवृक्ष उपलब्ध है ? और यदि है तो क्या वह पीपल है ? अथवा कोई अन्य वृक्ष । लोककजीवन में तो पीपल को ही अश्वत्थ माना जाता है किन्तु कछ चिंतकों के अनुसार तथ्य कुछ और ही संकेत दे रहे हैं । गीता में श्री कृष्ण ने कहा है -`` उर्ध्वमूलमध: शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।द्दंदांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।(गीता १५/१)अर्थात् - ऊपर की ओर मूलवाले तथा नीचे की ओर शाखावाले जिस संसाररूप अश्वत्थ वृक्ष को (प्रवाह रूप से) अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसार - वृक्ष को जो जाता है, वह सम्पूर्ण वेदों को जाने वाला है । यहां अश्वत्थ का अर्थ यह है कि संसा में परिवर्तनों के पश्चात् भी कुछ व्यय नहीं हाता अर्थात् अन्त नहीं होता । गीता के उक्त श्लोक को आधार मानकर ही मनीषी यह कह रहे हैं कि पीपल की उर्ध्व मूल नहीं होती तथा मूल मजबूत नहीं होती । अर्थात् न तो पीपल उर्ध्व मूल है और न ही दृढ़मूल है । उनके अनुसर अश्वत्थ, शाल्मली द्वीप अफ्रीकी मूल का वृक्ष बाओबाब है जिसे गोरख इमली भी कहा जाता है । किन्त अब विलुप्त् होने लगा है । यह दीर्घजीवी भी है जो हमारों वर्षोंा तक जीवित रहता है । कल्पवृक्ष की अस्तित्व मानता पर दरअसल भ्रम एवं संशय की स्थिति है । हो सकता है कल्पवृक्ष लुप्त हो और हम मिलते जुलते वृक्षों में उस पौराणिक मिथकीय वृक्ष को तलाश रहे हों । हो सकता है कि श्री कृष्ण ने गीता में जिस उर्ध्वमूलक वृक्ष का जिक्र किया वह केवल उनकी कल्पना में हो । इलाहाबाद में संगत तट पर ६ मीटर तने की मोटाई वाले वृक्ष को जिसका वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने किया है कुछ पीपल कहते हैं तो कुछ बाओबाब बतलाते हैं । संशय तो श्री कृष्ण ने स्वयं पंद्रहवें अध्याय में तीसरे श्लोक में व्यक्त कर दिया है - `` न रूपम स्येह तथोपलश्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा'' अर्थात् इस संसार वृक्ष का जैसा रूप देखने में आत है , वैसा यहंा (विचार करने पर मिलता नहीं, क्योकि इसका न तो आदि है, न अन्त है और न स्थिति ही है ।'' अर्थात् यह तो श्री कृष्ण की कल्पना ही जान पड़त है हमे ंतो यही स्वीकारना चाहिए कि हर वृक्ष ही कल्पवृक्ष ही है । । ***पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी संयुक्तराष्ट्र महासचिव बान की मून की भारत, चीन और ब्राजील जैसे विकासशील देशों से विकसित राष्ट्रों के साथ मिलकर पर्यावरण संरक्षण के लिए मोर्चा संभालने की अपील निस्संदेह स्वागत योग्य है । बढ़ते प्रदूषण और प्रकृति के बेतरतीब दोहन की वजह से पृथ्वी पर जीवन और मानव सभ्यता के लिए खतरा बढ़ता जा रहा है, इसलिए इस पर पूरी दुनिया को एकजुट होकर काम करना होगा । जब मून ने कहा कि पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी सभी देशों की है, तब विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने उचित ही कहा कि भारत पर्यावरण में होने वाले बदलावों को लेकर बेहत गंभीर है, क्योंकि इसका सबसे बुरा असर विकासशील देशों पर ही पड़ रहा है, जिसमें भारत भी शामील है । मुखर्जी का यह कहना भी सही है कि औद्योगिक देशों ने पिछले कई बरसों से वातावरण प्रदूषित किया है, जबकि आज भी एशिया, योरप और अफ्रीका के उन देशों में प्रकृति और पर्यावरण ज्यादा सुरक्षित है, जिन्हें विकास की दौड़ में पीछे माना जाता है, लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि मानव विकास की गति को ही रोक दें । आवश्यकता विकास के ऐसे मॉडल को विकसित करने की है, जो पर्यावरण को बिगाड़े बिना उन्नति के दरवाजे खोले ।

५ प्रदेश चर्चा

महाराष्ट्र : सिंचाई योजनाआें का निजीकरण
निधि जामवाल
महाराष्ट्र ने सिंचाई योजनाआें के निजीकरण के लिए योजनाआें के क्रियान्वयन में हुई असाधारण विलम्ब को अपना हथियार बनाया है । विलम्ब के लिए जिम्मेदार अधिकारियों/कर्मचारियों को दंडित करने के बजाए इन योजनाआें का निजीकरण कर उपभोक्ताआें को ही दंडित किया जा रहा है । सन् १९८४ मेें प्रारंभ होकर अभी तक अधूरी महाराष्ट्र की निरा देवघर सिंचाई परियोजना एक बार पुन: संकट में फस गई है । महाराष्ट्र जल नियामक प्राधिकरण के तीन सदस्यों ने अपने हाल के निर्णय में पूना जिले की भोर तालुका स्थित इस परियोजना के निजीकरण पर स्थगन लगा दिया है । इस ४५ हजार हेक्टेयर भूमि की सिंचाई को लक्ष्य कर आकल्पित परियोजना की अनुमानित लागत ६२ करोड़ रू. थी । जबकि राज्य सरकार इस अधूरी परियोजना पर २००७ तक ४५० करोड़ रू. का व्यय कर चुकी है । ताजा आधिकारिक अनुमानों के अनुसार इस परियोजना को पूर्ण करने के लिए अभी भी ८७० करोड़ रू. की और आवश्यकता है । जो कार्य बकाया है उनमें ५ प्रतिशत बांध निर्माण और १६४ कि.मी. की नहरों के निर्माण के अतिरिक्त जल वितरण का ताना-बाना बुना जाना है । एक ओर जहां राज्य का खजाना खाली होता जा रहा हैंवहीं महाराष्ट्र को अपनी अधूरी पड़ी १२०० परियोजनाआें को पूरा करने के लिए ३६,६३० करोड़ रू. की आवश्यकता है । इस स्थिति के चलते सरकार ने गत सितम्बर में एक शासकीय इकाई, महाराष्ट्र कृष्णा घाटी विकास प्राधिकरण (एमकेवीडीसी) के माध्यम से विज्ञापन जारी कर निजी भागीदारी को आमंत्रण दिया । हालिया निर्णय से मजबूर निगम को १७ दिसम्बर को अपना उक्त विज्ञापन वापस लेना पड़ा । परन्तु नियामक प्राधिकरण का आदेश उस सरकारी प्रस्ताव के विपरीत है जो कि इस तरह की परियोजनाआें में निजी क्षेत्र की भागीदारी की अनुमति देता है । निरा देवघर परियोजना में निजी निवेषक की भूमिका थी । बांध का निर्माण पूरा करना, नहर का निर्माण करना और जल वितरण तंत्र तैयार करना। बदले में निजी निवेशक को बांध और इसके जल पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त् हो जाता है । विज्ञापन के प्रकाशन के बाद पूना की एक गैर सरकारी संस्था `प्रयास' ने महाराष्ट्र जल संसाधन नियामक प्राधिकारी से हस्तक्षेप की मांग की । जनवरी २००८ की अपनी याचिका में प्रयास ने इस विज्ञापन को चुनौती देते हुए कहा था कि यह विज्ञापन प्राधिकारी को सम्मिलित (प्रकिया में) किये बिना जारी हुआ है, जो कि महाराष्ट्र जल संसाधन नियामक अधिनियम २००५ के अंतर्गत एक अनिवार्यता है । इसमें अन्य हितग्रहियों जैसे जल उपभोक्ता समितियों किसानों और गैर सरकारी संगठनों को भी सम्मिलित किए जाने को भी कहा गया था, जिसे प्राधिकरण ने अस्वीकार कर दिया । प्रयास के शोध सहायक सचिन वारघाड़े का कहना है ``इस तरह की परियोजनाआें में पारदर्शिता का अभाव होता है और सरकार की ओर से भी स्पष्टता की कमी रहती है । साथ में इस बात पर पशोपेश भी है कि नियामक इकाई को अधिकार सम्पन्न किया जा रहा है या उसकी भूमिका सीमित की जा रही है ? नियामक प्राधिकारी ने सुनवाई के बाद एमकेवीडीसी को आदेश दिया कि वह उक्त विज्ञापन वापस ले एवं इसे तब तक पुनर्प्रकाशित न करे जब तक कि २००३ के प्रस्ताव में संशोधन नहीं हो जाता । वहीं निगम के अधिकारियों ने प्राधिकारी को सौंपी अपनी लिखित रिपोर्ट में इसे वर्तमान प्रचलित कानूनों के अनुरूप बताया और अपनी कार्यवाही को उचित ठहराते हुए कहा कि रूचि `प्रदर्शन' (ईओआई) विज्ञापन को अल्प टेंडर नोटिस ही मानना चाहिए जिसमेें केवल एमकेवीडीसी ही सम्मिलित है । रूचि प्रदर्शन विज्ञापन में में रद्दोबदल/परिवर्तन किया जा सकता है । बोली हेतु अंतिम दस्तावेज सभी शंकाआें से मुक्त होगा । रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि चूँकि परियोजना को १९८४ में ही प्रशासनिक स्वीकृति मिल चुकी थी, अतएव इसे नई परियोजना नहीं माना जा सकता है । इसी कारण से इसे प्राधिकारी की समीक्षा से भी बाहर रखा गया । प्राधिकारी ने निगम के विचारों से असहमति जताते हुए कहा कि एक `नए घटक' के यप में निजी विकासकर्ता के जुड जाने से नवीन आर्थिक समीक्षा की आवश्यकत है। क्योकि यह (निजी निवेशक) लागत वहन करेगा और लाभ भी कमाएगा । प्राधिकारी का कहना था कि इसका जलदरों सहित संपूर्ण परियोजना पर प्रभाव पड़ेगा । श्री वारघाड़े का कहना है ``प्राधिकारी ने एकदम सही बात को लक्ष्य किया है कि इससे जल दरों में वृद्धि हो सकती है । निर्माण कंपनी परियोजना में अपने द्वारा किए गए निवेश की वापसी के साथ ही साथ इसके लाभ भी कमाना चाहेगी । ऐसे किसी भी राजस्व प्रस्ताव को स्वीकृत करने के पूर्व उसकी खोजबीन तो होनी ही चाहिए।'' राज्य सरकार इस संदर्भ में २००३ की राज्य जल नीति का हवाला दे रही है जिसमें अधूरी परियोजनाआें को निजी भागीदारी से पूर्ण करने की बात कही गई है । इसमें निजी क्षेत्र हेतु बी.ओटी (निर्माण, संचालन व हस्तांतरण) से संबंधित मार्गदर्शिका का प्रस्ताव भी दर्शाया गया है ।'' शासकीय रिकार्डो के अनुसार मार्च २००७ तक १२४६ परियोजनाएं अधूरी थी । ***विशाल अमीबा की खोज समुद्र तल में जो जीवाश्म चिन्ह मिलते हें, वे शायद विशालकाय अमीबाआें की करतूत हैं । ऐसे अमीबा १.८ अरब वर्ष पूर्व समुद्र के पेंदे में रहा करते थे । यहां विशालकाय शब्द का प्रयोग सिर्फ आजकल के अन्य अमीबाआें को देखते हुए किया जा रहा है । हाल ही में टेक्सास विश्वविद्यालय के मिखैल मैट्ज़ ने बहामास के समुद्र की छानबीन करते हुए अमीबा की एक नई प्रजाति की खोज की है । इस प्रजाति को ग्रोमिया स्फेरिका नाम दिया गया है । अंगूर की साईज का यह अमीबा जब समुद्र के पेंदे में लुढ़कता है , तो यह मिट्टी को निगलता है और वापिस थूकता है । इस प्रक्रिया में यह अपने पीछे क्यारियां सी छोड़ता जाता है । प्राचीन काल के कीचड़ में भी इस तरक की क्यारियां मिलती हं जो पूरा जीव वैज्ञानिकों को चक्कर में डालती रही हैं । वैज्ञानिकों का मानना था कि इस तरह की क्यारियां बनाने की क्षमता सिर्फ कुछ बहु - कोशिकीय जंतुआें में रही होगी, जो करीब साढ़े बावन करोड़ साल पहले, केम्ब्रियन युग मेंरहे होंगें । मगर इस तरह के जीवों के कोई जीवाश्म नहीं मिले हैं जो इन क्यारियों से मेल खाएं । इसकी व्याख्या के लिए यह सोचा गया कि शायद ये जीव मुलायम शरीर वाले रहें होंगें , जिनके जीवाश्म आम तौर पर नहीं मिलते या बहुत कम मिलते हैं ।

६ पर्र्यावरण परिक्रमा

ताज की रक्षा करेगी तुलसी
भारत के हर घर-आँगन की शोभा बढ़ाने वाली और चमत्कारी औषधि मानी जाने वाली तुलसी अब प्रेम की यादगार इमारत ताजमहल की रक्षा भी करेगी । अपने औषधीय गुणों के लिए विख्यात तुलसी अब ताजमहल को पर्यावरण प्रदूषण से पड़ने वाले दुष्प्रभावों से बचाएगी । पुराणों में `हरिप्रिया' के रूप में जानी जाने वाली तुलसी का भारतीय संस्कृति में विशेष महत्व है । असाध्य रोगों को दूर करने में तुलसी का औषधीय महत्व बरसों पहले सिद्ध हो चुका है । भारतीय कृषि का पाँच हजार वर्ष पुराना इतिहास भी देखें तो तुलसी का स्थान `औषधीय पौधों की रानी' के रूप में सामने आता है । यही कारण है कि अब इसके अवशोषण गुण को देखते हुए पर्यावरण प्रदूषण हटाने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाएगा । उत्तरप्रदेश के वन विभाग और लखनऊ स्थित ऑर्गेनिक इंडिया प्राइवेट लिमिटेड की संयुक्त बैठक में यह निर्णय लिया गया । इसके तहत तुलसी के लगभग दस लाख पौधों को ताजमहल के आसपास लगाया जाएगा । कंपनी के प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी (विश्व) कृष्ण गुप्त ने कहा कि अभी तक ताज के समीप लगभग बीस हजार पौधे लगाये जा चुके है । ये पौधारोपण ताज के आसपास के पार्क से लेकर पूरे आगरा तक करने का अभियान है । इस कार्य के लिए `तुलसी' को ही क्यों चुना गया तो इस संदर्भ में श्री गुप्त ने कहा कि यही एक मात्र ऐसा पौधा है, जो पर्यावरण को पूरी तरह से शुद्ध रखता है । उच्च् मात्रा में ऑक्सीजन छोड़ने के गुणधर्म के कारण सफाई की प्रक्रिया तीव्र होती है, जिसके कारण यह उद्योगों और रिफाइनरी से निकलने वाले उत्सर्ग से ताज पर पड़ने वाले प्रतिकुल प्रभावों को कम करने में भी सहायक होगी । श्री गुप्त ने कहा कि तुलसी के अलावा नीम और पीपल भी इस स्मारक की सुरक्षा में अपनी उपयुक्त भूमिका निभा सकते है । इनके रोपण पर विचार किया जा रहा है । पुरातत्वविद् देवकीनंदन दिमरी ने कहा कि तुलसी अपने गुण के कारण वायु प्रदुषण को कम करने में मदद करेगी और ताज के आसपास का माहौल स्वच्छ बना रहेगा । आगरा के क्षेत्रीय वन संरक्षक आरपी भारती ने कहा कि पौधारोपण की प्रक्रिया बड़े स्तर पर की जाएगीर । हमने इस अभियान के तहत अगले २ माह में २० लाख पौधे लगाने का लक्ष्य रखा है। इसमें ग्राम पंचायतों व विद्यालयों को भी शामिल किया गया है । दिल्ली में बंद होंगे मैटेलिक पाउच दिल्ली सरकार प्लास्टिक के बाद अब देश की राजधानी को मैटेलिक पाउच से भी मुक्त करना चाहती है । मैटेलिक पाउच का इस्तेमाल गुटका, शैंपु, चिप्स आदि की पैकिंग में किया जाता है । इन पर रोक लगाने के लिए दिल्ली सरकार के पर्यावरण विभाग ने केंद्रीय पर्यावरण तथा वन मंत्रालय से अपील करके अपनी शुभइच्छा का इजहार तो किया है, लेकिन साथ ही यह बात भी सही है कि सवाल सिर्फ दिल्ली का नहीं है, पूरे देश का है। ऐसा कोई भी प्लास्टिक या पाउच जो रिसाइकिल न किया जा सके, वह पूरे देश के लिए खतरा है । रोज ही न जाने कितनी छोटी-बड़ी खबरें आती हैं कि दुधारू गाय-भैंस तथा अन्य जानवरों की प्लास्टिक खाने से मौत हो गई । शहरों के लिए अगर ये प्लास्टिक या पाउच खतरनाक कचरा हैं तो गाँव-देहात के लिए यह मौत का सामन। तेजी से बाजार के फैसले के साथ-साथ उन खतरनाक पाउचों का चलन इतना बढ़ गया है कि रोजमर्रा की चीजें इसमें मिलने लगी हैं । इस पर रोक सिर्फ दिल्ली के स्तर पर नहीं लग सकती। इस पर केंद्र के स्तर पर पहल करने की जरूरत है । मैटेलिक उत्पादन बेचने वाली कंपनियोंे पर नियंत्रण राष्ट्रीय स्तर पर ही लग सकता है, किसी क्षेत्र विशेष मेंइन पर रोक लगाना संभव नहीं है। वैसे भी चूँकि यह मामला पूरे देश के पर्यावरण से जुड़ा हुआ है, इसलिए इस बारे में राष्ट्रीय नीति बनाना वक्त की जरूरत है । ग्लोबल वार्मिंग रोकने तथा पर्यावरण रक्षा के लिए भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कई वायदे कर रखे हैं । जिन्हें खतरनाक प्लास्टिक और मैटेलिक पाउच पर रोक लगाकर ही पूरा किया जा सकता है । इससे जुड़ा हुआ एक अहम मुद्दा है विकल्प का । इनका सुरक्षित-सस्ता विकल्प खोजना जरूरी है । सरकारों को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए । कई बार सिर्फ इतना लोकलुभावन फैसले कर तो लिए जाते हैं, पर उनसे होने वाले संकट से निपटारे के बारे में नहीं सोचा जाता । ऐसे मेंे आमजन सुविधा के लिए चोर दरवाजे निकाल देते हैं । प्लास्टिक और मैटेलिक पाउच पर कारगर रोक के लिए जरूरी है उनका कारगर विकल्प तैयार करना ।पर्यावरण बचाने को लिखी वृक्ष चालीसा अभी तक तो देवी देवताआें की चालीसा तो सभी ने पढ़ी होगी लेकिन अब वृक्ष चालीसा भी लोगों को पढ़ने को मिलेगी । इससे पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए वृक्षों के महत्व का घर-घर में संदेश जाएगा । यह अनूठी पहल नर्मदापुर (होशंगाबाद) के निजी स्कूल के शिक्षक मनोज दूबे ने की है । उन्होंने प्रारंभिक रूप से स्व रचित वृक्ष चालीसा छपवाई है । दो दोहों और ४० चौपाइयों में सिमटी इस चालिका का विमोचन अभी होना है । ये चालीसा निशुल्क बांटी जाएगी इसकी छपाई का खर्चा खुद शिक्षक ने ही उठाया है । प्रदूषित वातावरण, ग्लोबल वार्मिंग, सूखा, जलवायु असंतुलन से पर्यावरण संकट में है । इन्ही से निपटने के लिए शिक्षक दुबे ने चालीसा लिखी । चालीसा में संदेश दिया है कि वृक्ष देवताआें के समान पूजनीय है । उन्होंने कहा वे आगे भी इस चालीसा को नि:शुल्क बांटकर पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाएंगे । वृक्ष चालीसा पुस्तक में ४० चौपाईयों में कहा गया है कि वृक्ष से अन्न-फल, जड़ी-बूटी, औषधी मिलती है वृक्ष से समस्त पदार्थ मिलते हैं वृक्ष पर ही सभी जीव निर्भर रहते हैं । पंछी-कीट वन्य जीव का वृक्ष ही आसरा होते है । पथिक थकने पर विश्राम इन्ही वृक्ष की छाया में कर मन ही अुनपम शांति पाते हैं । वृक्ष शीत, वर्षा, ग्रीष्म ऋतु सहते हुए भी प्रसन्नचित दिखाई देते हैं । दुर्जन के द्वारा पत्थर मारने पर भी वह फल ही प्रदान करते हैं । वृक्षों में सभी देव वास है । वृक्ष कंद मूल फल से कृपा निधान भी रीझ जाते हैं । वृक्ष नव गृह की गति के निर्धारक व गृह दुष्प्रभाव को शांत करते हैं ।राष्ट्रपति भवन बन रहा है पर्यावरण हितैषी राष्ट्रपति भवन अब पर्यावरण हितैषी बनने जा रहा है । राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील की पहल राष्ट्रपति भवन में ऊर्जा संरक्षण की दिशा में पहला कदम उठाते हुए वहाँ लगे परंपरागत बल्बों के स्थान पर सौर ऊर्जा प्रकाश बल्ब लगाए जा रहे हैं। इसके साथ ही ऊर्जा बचत के लिए चरणबद्ध ढंग से अनेक कदम उठाए जाने की महत्वकांक्षी योजना शुरू की गई है । पिछले वर्ष राष्ट्रपति भवन से निकलने वाले कचरे को पुनर्शोधित करने का कार्य शुरू किया था । इसके तहत बायोगैस संयंत्र का निर्माण कराया जा रहा है जिससे कि अस्तबलों से निकलने वाले गोबर से बायोगैस बनाई जा सके । इस गैस का प्रयोग अस्तबलों में ही इंर्धन के रूप में किया जाएगा । राष्ट्रपति भवन उद्यान से निकली पत्तियों आदि को गढ्ढे में डालकर खाद बनाई जाती है, जिसका प्रयोग पौधों में ही होता है । राष्ट्रपति भवन के प्रवक्ता के अनुसार नवीकरण ऊर्जा मंत्रालय ने राष्ट्रपति भवन में नए बल्ब लगाने के लिए ३ करोड़ ४० लाख रूपए स्वीकृत किए हैं। इसके साथ ही राष्ट्रपति भवन में सौर ऊर्जा से पानी गर्म करने की प्रणाली भी लगाई जाएगी । उन्होंने कहा-इस दिशा में सबसे पहले ऊर्जा संरक्षण ब्यूरो द्वारा राष्ट्रपति कार्यालय, राष्ट्रपति निवास सहित पूरे राष्ट्रपति भवन की ऊर्जा खपत का आकलन कराया जाएगा । इसके बाद ऊर्जा संरक्षण की सिफारिश करने के बाद इन्हें लागू करने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी ।अब मोबाईल चलेगा सौर ऊर्जा से सैमसंग ने दुनिया का पहला सौर ऊर्जा से चलने वाला मोबाईल फोन पेश किया है । मोबाइल उद्योग को उम्मीद है कि नई तकनीक से वैश्विक मंदी के दौर में मांग में इजाफा होगा । दक्षिण कोरिया की कंपनी द्वारा पेश सौर ऊर्जा मोबाईल की पिछली तरफ मिनी सोलर पैनल लगा है । डायरेक्ट २ मोबाईल के मुख्य अनुसंधानकर्ता निक लेन का कहना था कि यह उपकरण उन विकासशील अर्थव्यवस्थाआें के लिए बेहद फायदेमंद साबित होगा , जहां श्रमिकों को कई- कई घंटे काम करना पड़ता है और उनको बिजली की सुविधा भी नहीं मिलती है। इस मोबाईल से इन श्रमिकों को भी आसानी हो जाएगी तथा वे हमेशा अपनों के सम्पर्क में रह सकेंगें । कंपनी शीघ्र ही इसको दुनिया के सभी देशों में लांच करने की योजना बना रही है । भारत जैसे देश में जहां विद्युत की काफी समस्या है यह यकीनन क्रांतिकारी साबित हो सकता है ।***

७ वातावरण

कार्बन ट्रेडिंग एवं वैश्विक तापमान
डॉ. राम प्रताप गुप्त
इस समय विश्व के सभी राष्ट्रों में समय के साथ वैश्विक तापमान में वृद्धि की प्रवृत्ति तथा तद्जनित जलवायुपरिवर्तन केदुष्परिणामों पर नियंत्रण की आवश्यकता के बारे में व्यापक सहमति है । इसी सहमति के परिणाम स्वरूप सन् १९९७ में तापमान वृद्धि पर रोक लगाने संबंधी क्योटो समझौता भी हुआ था । चूंकि तापमान वृद्धि के लिए वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों (कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, मीथेन आदि) का उत्सर्जन प्रकृति की शोधन क्षमता से कहीं अधिक मात्रा में किया जाना जिम्मेदार है, अत: यह तय किया गया कि विकसित राष्ट्र अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन मे ंवर्ष १९९० के उत्सर्जन स्तर की तुलना में २०२० तक २०-३०प्रतिशत की कमी करेंगें तथा सन् २०५० तक ८० प्रतिशत की कमी लाएंगें । चूंकि विश्व के वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों के अधिकांश उत्सर्जन के लिए विकसित राष्ट्र ही ज़िम्मेदार हैं अत: उनमें कमी लाने का दायित्व भी उन्हींं पर डाला गया है । जहां तक विकासशील राष्ट्रों का प्रश्न है, सन् २०२० तकउनके लिए किसी प्रकार की कमी का कोई लक्ष्य निर्धारित नहंी किया गया था ताकि उनके विकास पर किसी प्रकरका प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। परन्तु सन् २०२० से २०५० की अवधि मेंउन पर भी अपने ग्रीन हाउस गैसउत्सर्जन में ३० प्रतिशत की कमी का दायित्व डाला गया है । अपेक्षा यह की गई थी कि इन प्रावधानों के माध्यम से विश्व की तपमान वृदि्घ और जलवायु परिवर्तन की समस्या से काफी हद तक मुक्ति मिल सकेगी । यहां एक और तथ्य उल्लेखनीय है कि विश्व के वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन तो मुख्यत: विकसित राष्ट्रों द्वारा किया जाता है परन्तु उसके दुष्परिणाम के मुख्य शिकार विकासशील राष्ट्र ही होते हैं । उदाहरण के लिए वैश्विक तापमान में वृद्धि से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के कुछ भागों में जहां अतिवर्षा होगी, वहीं अन्य में सूखे की प्रवृत्ति बढ़ जाएगी । इस तरह भारत दोनों तरह के दुष्परिणामों का शिकार होगा । जब क्योटो समझौते पर चर्चा चल रही थी , तो विकसित राष्ट्रों की बहुराष्ट्रीय कंपनियेां में खलबली मची हुई थी, क्योंकि अगर विकसित राष्ट्रों पर ग्रीन हाउस गैसो के उत्सर्जन में कमी की शर्त लागू हो जाती है तो उनके लिए कठिनाई पैदा हो जाएगी । पिछली एक शताब्दी से तेल , गैस और कोयले यानी जीवाश्म स्रोतों से प्राप्त् सस्ती ऊर्जा पर आधारित उद्याोगों के माध्यम से ही तो वे भारी मात्रा में लाभ अर्जित कर रहे थे । अगर जीवाश्म ऊर्जा के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो उनके मुनाफे का स्रोत ही समाप्त् हो जाएगा । ऐसे मे इन कंपनियों ने विकसित राष्ट्रों विशेषकर अमरीकी सरकार के माध्यम से क्योटो समझौते में यह प्रावधान डलवा दिया कि वे चाहें तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में स्वयं कमी करे या उनके हिस्से की कमी विकासशील राष्ट्रों की किसी कंपनी से करवा लें । चूंकि विकसित राष्ट्रों की कंपनियों के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी की लागत अधिक आती थी, अत: उन्होंने इसमें कमी हेतु स्वयं प्रयास करने के स्थान पर कुछ पैसा देकर विकासशील राष्ट्रों की कंपनियों से उनके हिस्से की कमी करवा लेना अधिक लाभदायक समझा । इस व्यवस्था को उचित ठहराने के पीछे तर्क यह दिया गया था कि ग्रीन हाउस गैसो के उत्सर्जन में कमी चाहे विकसित राष्ट्रों द्वारा की जाए या विकासशील राष्ट्रों द्वारा , वायुमंडल में उत्सजर्जित होनेे वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्जर्सन की कुल मात्रा में तो कमी आएगी ही और वैश्विक तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन की समस्या को हल करने में मदद मिलेगी । जब विकसित राष्ट्रों की कंपनियां पैसा देकर विकासशील राष्ट्रों से ग्रीन हाउस गैसों के उनके हिस्से मे ंकमी करवाती हैं तो इसे कार्बन का व्यापार यानी कार्बन ट्रेडिंग कहते हैं । प्रश्न है कि क्या कार्बन ट्रेडिंग की यह व्यवस्था क्योटो समझौतो की मूल भावना के अनुरूप है और क्या यह विकसित और विकासशील राष्ट्र,दोनो के लिए समान रूप से लाभदायक है ? चूंकि विकसित राष्ट्रों की कंपनियों की तुलना में विकासशील राष्ट्रों की कंपनियों के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाना अपेक्षाकृत सस्ता हेाता है , अत: उन्होंने विकसित राष्ट्रों के दायत्व को अपने ऊपर लेकर व्याार तथ विदेशी मुद्रा कमाने के एक नए अवसर के रूप में इसका स्वागत किया है । कार्बन ट्रेडिंग का यह स्वागत इस व्यापार की बढ़ती मात्रा से भीप्रकट होता है । कार्बन ट्रेडिंग की मात्रा वर्ष २००५ में १० अरब डॉलर के बराबर थी और वर्ष २००६ में ३० अरब डालर हो गई थी ।अनमुान है इस वर्ष यह व्यापार लगभग १०० अरब डालर तक पहुंच जाागा । भारत भी इस व्यापार में अग्रणी रहा है । १६ जुलाई २००८ के टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार भारत के पास बेचने के लिए उस समय ४.६० करोड़ प्रमाणित उत्सर्जन इकाइयां उपलब्ध थी जो विश्व मेंउपलब्ध कुल प्रमाणित उत्सर्जन इकाइयों के ४०प्रतिशत के बराबर है । प्रमाणित उत्सर्जन इकाई से आशय वर्ष १९९० के स्तर की तुलना में कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन में १ टन की कमी से है । इस समय विश्व बाजार में १ प्रमाणित उत्सर्जन इकाई की कीमत २० यूरो के बराबर है । विकासशील राष्ट्र कार्बन ट्रेडिंग को विदेशी मुद्रा अर्जित करने के माध्यम के रूप में उसका स्वागत कर रहे हैं । विश्व बैंक ने भी कार्बन ट्रेडिंग योजना को काफी सराहा है । उसने स्वयं भी वन कार्बन भागीदारी सुविधा (ऋिशीीीं उरीलिि झरीींशिीीहळि ऋरलळश्रळींू) के नाम से एक योजना शुरू की है इस योजना के अंतर्गत विश्व बैंक वनों के विनाश तथा उनकी सघनता में कमी के कारण वायुण्डल की कार्बन डाईऑक्साइड की शोधन क्षमता में जो कमी आ जाती है , उस पर रोक लगाने की दिशा में ंप्रयासरत है । इसके अंतर्गत जो राष्ट्र वन लगाने तथा वनों की सघनता में वृद्धि की दिशा में प्रयास करते हैं, उन्हें विश्व बैंक की अतिरिक्त सुविधाएं प्रदान करता है । इस योजना में अभी तक १४ राष्ट्र शामिल हुए हैं । यह योजना कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी लाने के अन्य प्रयासों के साथ वायुमंडल द्वारा कार्बन डाईऑक्साइड के शोधन की क्षमता में वृद्धि की है । लक्ष्य दोनेां का एक ही है वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में कमी करके तापमान वृद्धि की प्रक्रिया को धीमा करना । ऊपरी तौर पर चाहे विकासशील राष्ट्र कार्बन ट्रेडिंग की प्रक्रिया को अपने हित में समझे, परंतु जब हम इस बात का विश्लेषण करते हैं कि इस प्रक्रिया का इन देशों पर क्या प्रभाव पड़ेगा , तो हम पाते हैं कि इस योजना के माध्यम से विकसित राष्ट्र वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड के ्रपमुख उत्सर्जक होते हुए भी उसमें कमी लाने के सारे दायित्वों से मुक्ति पा गए हैं तथा दूसरी ओर विकासशील राष्ट्रों के द्वारा बहुत कम उत्सर्जन होते हुए भी उन पर कमी करने का दायित्व आ गया है । जहां क्योटो समझौते के अंतर्गत विकासशील राष्ट्रों को कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन मेंवृद्धि की अनुमति दी गई है, वहीं दूसरी ओर कार्बन ट्रेडिंग के माध्यम जो व्यवस्था बनी है उसके चलते उत्सर्जन में कमी का दायित्व भी उन्हीं पर आ गया है । यह तो मुल्जिम को ही निर्णायक भूमिका निभाने जैसी स्थिति हो गई है । जिस तरह विश्व की मौद्रिक स्थिरता को वित्तिय संस्थाआें के भरोसे छोड़ देने से हम इस समय तीस के दशक के बाद की सबसे गंभीर मंदी के दौर से गुजर रहे हैं , उसी तरह वैश्विक तापमान में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा कार्बन ट्रेडिंग से विदेशी मुद्रा कमाने को लालायित विकासशील राष्ट्रों के भरोसे छोड़ दिए जाने से आने वाले समय में विश्व निश्चित रूप से व्यापक जलवायु संकट में फंस जाने वाला है । वर्तमान समय में विश्व ग्रीन हाउस गैसों के भारी मात्रा में उत्सर्जन के कारण तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है । इस गंभीर खतरे से सीधे- सीधे निपटना आवश्यक हो गया है । जिन राष्ट्रों की कंपनियंा भारी मात्रा में ग्रीन हाउस गैसें का उत्सर्जन कर रही है,ं उन्हें कार्बन ट्रेडिंग जैसी सुविधा देने के स्थान पर उन पर इन गैसो के उत्सर्जन मेंएक निश्चित मात्रा में कमी करने का दायित्व डाला जाना चाहिए। कार्बन ट्रेडिंग के चलते तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की वर्तमान गैर - बराबर व्यवस्था ही सुदृढ़ हुई है । यह क्योटो समझौते की मूल भावना के साथ खिलवाड़ है । अगर विकसित राष्ट्रों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर ही कार्बन डाइ ऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी लाने का लक्ष्य निर्धारित कर दिया जाता तो निश्चित ही वे अपनी उन्नत शोध क्षमताआें का उपयोग साफ सुथरी टेक्नॉलोजी के विकास में करती और पूरा विश्व उससे लाभान्वित होता । जहां तक विश्व बैंक की `वन कार्बन भागीदारी सुविधा' का प्रश्न है , इसका लाभ लेने के लिए अनेक राष्ट्रों ने अपने यहां वनारोपण योजनाएं शुरू की हैं, वनों की सघनता में वृद्धि के प्रयास किए हें । ये योजनाएं व्यापक दृष्टि से तो विकासशील राष्ट्रों सहित पूरे विश्व के हित में हैं , परंतु इन योजनाआें के क्रियान्वयन में अनेक बार मानव अधिकारों के उल्लंघन के मामले सामने आये हैं और युगों से जंगलों में रह रहे वनवासियों को उजाड़ा जा रहा है । इस संदर्भ में एक मत यह भी है कि अगर विकासशील राष्ट्र समता और न्याय के आधार पर वायुमंडल में समान मात्रा में ग्रीन हाउस गैसों के अधिकर की मांग करते हैं तो उन्हें अपने अंदर सभी नागरिकों को भी समान मात्रा में इन गैसों के उत्सर्जन का अधिकार देना चाहिए । इन राष्ट्रों की वास्तविकता तो यह है कि इनमें राष्ट्रीय आय का वितरण विकसित राष्ट्रों की तुलना में अधिक विषम है । इस स्थिति पर भी रोक लगाई जानी चाहिए । निष्कर्ष यही निकलता है कि कार्बन ट्रेडिंग की व्यवस्था क्योटो समझौते की मूल भावना के विरूद्ध है । इस व्यवस्था से तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को विश्व के वायुमंडल, समुद्र और वनस्पति जगत को प्रदूषित करने का लायसेंस मिल गया है । क्योटो समझौते को संपन्न हुए ११ वर्ष गुजर चुके हैं और सन् २०२० तक निर्धारित लक्ष्य की प्रािप्त् के लिए इतने ही वर्ष और शेष बचे हैं । आधी अवधि गुजर जाने के बावजूद विश्व में तापमा वृदि्घ में रोक लगता तो दूर, उसमें वृद्धि की प्रवृत्ति यथावत बनी हुई है । पिछले २०० वर्षोंा मे ंसर्वाधिक गरम वर्ष भी इन्हीं वर्षोंा में केन्द्रित रहे हैं । अगर हम विश्व तापमान में वृद्धि पर रोक तथा जलवायु परिवर्तन की समस्या का हल चाहते हैं तो विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कार्बन ट्रेडिंग की सुविधा समाप्त् करके उनके ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की सीमा निर्धारित करना होगी । तभी जाकर हम इस दिशा में कुछ प्रगति की अपेक्षा कर सकेंगें । ***ब्लड बैंक से रक्त खरीदना खतरनाक हो सकता है देश के कई ब्लड बैकों में `एलिजा' और `वेस्टर्न ब्लॉट टेस्ट'की सुविधा न होने के कारण यहां से खरीदा गया रक्त जानलेवा भी साबित हो सकता है । जांच सुविधा के अभाव में ऐसे खून में ह्यूमन एम्युनो डिफिशिंएसी वायरस हो सकते हैं । इन दोनों बातों की जांच एचआईवी स्क्रीनिंग के सिलसिले में की जाती है ं लेकिन इससे तीन हफ्ते से पहले इस वायरस का का पता लगाना असंभव होता है , क्योकि इस अवधि (विंडो पिरियड)के बाद ही ये खून में दिखाई पड़ते हैं ।

८ खास खबर

जहरीले कचरे का संकट
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)
भोपाल में हजारों लोगों की जन लेने वाले गैस कांड को लोग अब तक नहंी भुला पाए हैं । यूनियन कार्बाइड नामक जिस रासायनिक उद्योग से गैस रिसी थी, उसमें अब तक घातक रासायनिक पदार्थ पड़े हुए हैं । इन्हें वहां से हटाकर इंदौर के निकट पीथमपुर मेंलाकर पटका जा रहा है । इस घातक कचरे को नष्ट करने के लिए गुजरत (अंकलेश्वर) भेजा जाना था लेकिन गुजरात सरकार ने साफ मना कर दिया । इसके बाद कचरे को पीथमपुर में लाकर जमीन में गाड़ दिया गया है । यह सब काम गोपनीयता से हुआ । इससे होने वाले प्रदूषण की जानकारी न तो पीथमपुर क्षेत्र के औद्योगिक संगठनोंऔर न ही स्थानीय लोगों को दी गयी । कहा जाता है कि छ: महीने पहले ४० टन जहरीले कचरे की एक खेप भोपाल से पीथमपुर भेजी गई । यह काम रात में किया गया था । इसलिए किसी को पता नहीं चला । बाद मे कुछ संगठनेां की आपत्ति के बाद काम रोक दिया गया । दिल्ली से आई रसायन एवं उर्वरक की स्थायी संसदीय समिति ने पिछले दिनों को पीथमपुर का दौरा किया, समिति के अध्यक्ष सुनील खान हैं । पीथमपुर के सेक्टर दो में टेकरी पर घातक कचरे (ठोस अपशिष्ट डंपिंग) को निपटाने के लिए जगह तय की गई है । समिति के सदस्यों ने अब तक जमीन में दफनाए गए रासायनिक कचरे के बारे में जानकारी ली। समिति को हैदराबाद की रेमकी के अधिकारियों ने निरीक्षण कराया । सदस्यों ने यूनियन कार्बाइड कारखाने के जहरीले रसायन को जलाने के लिए तैयार किए जा रहे भस्मक के बारे में जानकारी ली । यूनियन कार्बाईड कारखान के जहरीले कचरे को जलाने के लिए पीथमपुर में तैयार किया जा रहा भस्मक पास के एक गांव वालों की जिंदगी में जहर घोल सकता है । कचरा जलाने के दौरान उठने वाला धुंआ इनके स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा बनेगा । भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के घातक रसायनों को जलाने के लिए पीथमपुर में भस्मक लगाया जा रहा है । दुखद पहलू यह है कि भस्मक ऐसी जगह बनाया जा रहा है जहां से तारापुरा गांव की दूरी २०० मीटर से भी कम है । पीथमपुरा नगर पालिका के वार्ड क्रमांक १ में आने वाले इस गांव की आबादी करीब ३ हजार है । यहां के रहवासियों को तो प्लांट तैयार हो जाने तक पता भी नहीं था कि यहां क्या हो रहा है । भस्मक में प्रदेश भर के उद्योगों के घातक कचरे को १४०० डिग्री सेंटीग्रेट तापमान पर जलाया जाएगा । फिर उसकी राख को वहीं पास की जमीन में दफना दिया जाएगा ।कचरा जलने के दौरान वातावरण में पारा, डायऑक्सिन तथाअन्य रसायन फैलेंगें जो हवा के माध्यम से स्वास्थ्य के लिए खतरा बनेंगें ।इस बात का खतरा गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी अपनी रिपोर्ट में जाहिर किया था। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड कंपनी के परिसर में पड़े साढ़े तीन सौ टन से अधिक जहरीले रासायनिक अपशिष्ट (कचरे ) का निपटान इंदौर के निकट पीथमपुर में ही क्येां किया जा रहा है । इस सवाल का भी अभी तक विश्वसनीय जवाब नहीं दिया गया है कि ऐसे रासायनिक अपशिष्ट को जलाने या नष्ट करने की जो पद्धति अपनाई जा रही है, क्या वह पूरी तरह सुरक्षित है । भोपाल गैस त्रासदी को गुजरे पच्चीस वर्ष पूरे हो रहे हैं, लेकिन ऐसे सवालों का अनुत्तरित बने रहना बताता है कि व्यवस्था ऐसे गंभीर खतरों के प्रति भी कितनी लापरवाह है । प्रक्रिया के तौर पर इस मामले में बहुत कुछ किया गया, लेकिन परिणामों के स्तर पर स्थिति बहुत संतोषप्रद नहीं है । अदालत के आदेश पर बने एक कार्यबल की तकनीकी उपसमिति को तय करने का जिम्मा सौंपा गया था कि भोपाल स्थित कंपनी परिसर में ही इस अपशिष्ट के निपटान की व्यवस्था की जाए या पीथमपुर (इंदौर) में बन चुकी ट्रीटमेंट स्टोरेज एंड डिस्पोजल फेसिलिटी में । कुछ कचरे को जला देने और कुछ को दफन कर देने की राय बन रही थी, इस बीच गुजरात सरकार ने निपटान में हिस्सेदारी से मना कर दिया । फिर मध्यप्रदेश सरकार ने इस जोखिम को कैसे स्वीकार कर लिया वह भी चोरी-चोरी ?क्षेत्रीय जनता को विश्वास में लिए बिना? क्या राज्य सरकार की कोई जवाबदारीनहंी बनती है ? ***जल बचाईये, सूखे रंगों से होली खेलिए

९ वन्य जीव

शेरों में जीन शुद्धता
डॉ. चन्द्रशीला गुप्त
एशियाई सिंहों के संरक्षण में जुटे संरक्षणवादियों से यह पूछना गलत नहीं होगा कि क्या जीन शुद्धता बनाए रखने के नाम पर एशियाई सिंह (पेंथरा लियो पर्सिका) व उनके अफ्रीकी एशियाई संकरों को चिड़ियाघरों में पृथक रखना जरूरी है ? क्या दोनों उप प्रजातियों की आकारिकी, आकारमिती, अस्थियों व अनुवांशिकी का गहन अध्ययन दोनों में समानताआें से ज़्यादा असमानताएं दर्शाता है ? निश्चित ही जवाब नहीं में होगा। हालांकि अक्सर ये बातें ज़ोर देकर कही जाती है कि एशियाई सिंह की दाढ़ी व नीचे की ओर की त्वचा की सिलवटें छोटी होते हैं एवं ये छोटे-छोटे झुंड में रहते है। कुछ वैज्ञानिकों का यह दृढ़ मत है कि जब इन दो उप - प्रजातियों का इतिहास व जातिवृत्त देखा जाए तो इनका पृथक विकास सिद्घ होता है । लेकिन यहां प्रजातिकरण का तर्क कुछ ठीक नहीं लगता संरक्षण के लिए किसी प्रजाति का समग्र रूप से संरक्षण ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होना चाहिए, न कि साधारण से अंतरों की वजह से उप- प्रजातियों में बांटे और ज़रूरत होने पर भी एक न होने दें । हमारे देश में बारहसिंगों का ही उदाहरण देखें - वर्तमान में तीन उप प्रजातियां है जो छोटे -छोटे बाह्य व आवासीय अंतरों की वजह से पृथक मानी गई है । यदि इन तीनों आबादियो को घुलने मिलने का मौका दिया जाए तो उनके अस्तित्व का खतरा एक हद तक टल जाएगा । विकासवाद के अनुसार संकरण से अनुवांशिक भिन्नताएं बढ़ती हैं जिससे किसी प्रजाति के फलने - फूलने की संभावना भी बढ़ती है । नए जीन्स के प्रवेश से पुनर्गठन होता है व वातावरण में बदलाव के अनुरूप जीनों का भिन्न नियमन होता है । भारतीय चिड़ियाघरों के संकर सिंह इसके जीते जागते प्रमाण हैं । हमारे देश में सिंहों का संकरण भारतीय सर्कसों में अफ्रीकी सिंह के आने के साथ से ही शुरू हो गया था । बाद में प्रशासन ने पिंजरों में कैद इन पशुआें को अपने आध्पित्य में लेकर विभिन्न चिड़ियाघरों को भेजा, जहां एशियाई सिंहों के साथ इनका संकरण हुआ । वर्तमान में चिड़ियाघरों में करीब ५०० सिंह है जो कि गिर वन में ३५९ की संख्या से लगभग दुगने हैं । इन ६०० सिंहों में से अधिकतर संकर हैं और भारतीय परिस्थितियमें अच्छी तरह अनुकूलित हैं । केन्द्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण के अनुसार ये अच्छी तरह प्रजनन कर रहे हैं । अपवाद में पंजाब का छतबीर चिड़ियाघर है जहां कुछ सिंह तंत्रिका समस्याआें से ग्रस्त पाए गए हैं । वैसे विशेषज्ञों का कहना है कि तंत्रिका रोग संकरण की वजह से हो , ऐसा जरूरी नहीं है । गुजरात में सक्करबाग चिड़ियाघर में गिरवन से लाए गए शुद्ध नस्ल के एशियाई सिंहों में भी यह रोग देखा गया है । दूसरी ओर, गिर सिंहों को चिड़ियाघरों में प्रजनन कराने के प्रयासों में कोई सफलता नहीं मिल रही है । अब एक अन्य समस्या यह है कि क्या चिड़ियाघरों में उनकी बढ़ती संख्या सरकार पर भार नहीं होगी । सरकारी आंकड़ों के अनुसार सिंहों (शुद्ध व संकर दोनों के रखा रखाव ) पर करीब ६ करोड़ रूपए प्रतिवर्ष खर्च होते हैं । अतिरिक्त सिंहों को चिन्हित अभ्यारण्यों में भेजा जा सकता है, जैसे मध्यप्रदेश के कूनो या उत्तर प्रदेश के चन्द्रप्रभा अभ्यारण्य । यहां तकनीकी बाधा यह है कि किसी संकर का प्रवेश आईयूसीएन के निर्देशों के अनुसर मान्य नहंी है । साथ ही वे संकर सिंहों को लुप्त्प्राय प्रजाति में शुमार नहीं करते हैं । करण्ट साइन्स के अक्टूबर २००८ में छपे आलेख में ज़वियर्स का कहना है कि प्रचुरता में आ रहे इन सिंहों के सक्षम प्रबंधन के लिए इन जंतुआें को एक ही प्रजाति के दो पृथक आबादियेां का संकर मानना चाहिए ,ऐसे संकर जिनमें अभी भी काफी समानताएं हैं । इसके अलावा संकर सिंहों की आगामी पीढ़ियों में माता-पिता से प्राप्त् बाह्य अंतरों का धीरे-धीरे खत्म होना भी यह दर्शाता है कि भौगोलिक रूप से पृथक्कृत इन सिंहों में विकास दर न्यूनतम है व अपेक्षा से धीमी गति से है या फिर इनका पृथक्करण इतना पुराना नहीं होगा जितना मान लिया गया है । नए अभयारण्यों में इनका प्रवेश छोटे- छोटे समूहों में किया जा सकता है। वैसे यह अभी सुनिश्चित किया जाना बाकी है कि क्या प्राकृतवास में भेजने पर ये संकर पशु स्वतंत्र रूप से एशियाई सिंहों के साथ घुल-मिल जाएेंगें। यदि ऐसा होता है , तो यह पक्का हो जाएगा कि भौगोलिक पृथक्करण के बावजूद ये अलग- अलग उप प्रजातियां नहीं बने हैं। बेहतर होगा कि इन संकर सिंहों को प्रयोगात्मक तौर पर नए अभयारण्यों में भेजा जाए व इनकी सख्त निगरानी की जाए । वैसे तो नए अभयारण्यों के प्रस्ताव के साथ चिड़ियाघरों के लिए भी अनुदान रखा गया है । लेकिन प्रकृति में संख्या अधिकाधिक होते रहने की आशंका निराधार है क्योंकि जनसंख्या के साथ- साथ वातावरणीय प्रतिरोध भी बढ़ जाएंगे व जनसंख्या वहन क्षमता के आसपास भी बनी रहेगी । वैसे वर्तमान में हमारे जंगलों में सिंह क्षमता से कम हैं । इसके अलावा चिड़ियाघरों में गर्भनिरोधी उपायों से अत्यधिक वृद्धि को रोका ज सकता है । कभी- कभी संकर सिंहों को छांटकर मारने की सलाह भी दी जाती ह। अनुवांशिक रूप से स्वस्थ सिंहों की छंटनी उचित नहीं ठहराई जा सकती । हमारे यहां सिंह को पूजनीय माना जाता है व पौराणिक कथाआें, लोक कथाआें व राज्य के शौर्य का प्रतीक रहा है । एक ओर चिड़ियाघरो में प्रजनन तकनीकों की बदौलत अस्तित्व में लाए गए लाइगॉर व टाइगॉन जैसे अनुपयुक्त व वन्घ्य संकर प्राणियों की भी छंटनी भारतीय नैतिकता में नहीं आती, उन्हें भी उदारतापूर्वक अपनी उम्र पूरी करने दिया जाता है । संकर प्राणियों का पूर्ण खात्मा करने की सिफारिश निश्चित ही अवैज्ञानिक होगी । कुछ मान्यताआें के अनुसार जैव विविधता संरक्षण में मानवीय हस्तक्षेप जारा भी नहीं होना चाहिए तथा अफ्रीकी व एशियाई सिंहों के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए । लेकिन ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जहंा जीन पूल को संरक्षित करने में मानवीय हस्तक्षेप कारगर सिद्ध हुआ है। यह ज्ञात ही है कि कभी अमेरिकी सरकार ने लाल भेड़िए को बचाने के लिए प्राकृतिक संकरण में हस्तक्षेप किया था, यहां तक कि संकर भेड़िए को भी संरक्षण कार्यक्रम में शामिल किया गया था । प्राकृतिक आपदाएं जैसे बाढ़, दावानल, सूखा आदि में भी मानव संकटग्रस्त प्राणियों का संरक्षण करता ही है । हमारे यहां उत्तर - पूर्वी भारत में बरसात में वन्य जीवों के आश्रय के लिए कृत्रिम आवास निर्मित किए गए हैं, जहां ब्रह्मपुत्र का पानी बढ़ने पर गेंडे भी शरण ले सके । अब आज जब प्राकृतवास नष्ट हो रहे हैं , सरकार को वन्य गलियारे बनाना चाहिए जो विभिन्न आवास खण्डों को जोड़ें ताकि संकरण संभव हो सके । मानव के स्वयं की अस्तिव् रक्षा के सिलसिले में प्रकृति में लाभप्रद हस्तक्षेप अपरिहार्य है । गौरतलब है कि विभिन्न मानव आबादियों में जिनेटिक, शारीरिक व व्यवहार संबंधी भिन्नताआें के बावजूद इन्हें पृथक उप- प्रजातियों नहीं माना जाताा है।जिनेटिक शुद्धता बनाए रखने के लिएइन पर प्रजनन पृथकता थोपी नहंी गई है। तो क्या प्राणियों के लिए अलग पैमाने रखें जाएं जबकि मानवस्वयं एक प्राणी है।**

१० ज्ञान विज्ञान

राजस्थान में जल पिरामिड

अभी तक सभी ने पानी बचाने के कोई नए - नए तरीके तो सुने होंगें लेकिन `जल पिरामिड' का विचार सुनने में शायद ही आया होगा । वर्तमान में जहां पानी की समस्या विकराल रूप धारण कर रही है,वहीं `जल पिरामिड' मरूभूमि में वरदान जैसा साबित होगा । यह न केवल वर्षा जल का संचय करेगा अपितु शुद्ध जल को सौर ऊर्जा से शोधित भी करेगा। एक स्वयंसेवी संगठन ने बाड़मेर जिले के रूपजी राजा बेरी गाँव में जल पिरामिड के जरिए जल संग्रह करनेकी संकल्पना को साकार किया है । जल भागीरथी फाउंडेशन (जेबीएफ) नामक इस संगठन ने दावा किया है कि यह देश का पहला और विश्व का दूसरा `जल पिरामिड' है । इस तरह का पहला `जल पिरामिड' गाम्बिया में बनाया गया है और दूसरे को सौगात भारत के राजस्थान राज्य को मिली है । गुजरात में भी इसी तर्ज पर जल पिरामिड बनाने की कवायद जारी है। जेबीएफ प्रोजेक्ट डायरेक्टर सुश्री कनुप्रिया का कहना है कि यह एक अनोखी पिरामिड संरचना है, जिसकी ऊपरी सतह चमकदार पन्नी की बनी होती है । पूरे पिरामिड का व्यास ३० मीटर और ऊँचाई ९ मीटर है । चमकदार सतह ासौर ऊर्जा अवशोषित करती है और ीचे की ओर एकत्रित खारे पानी को वापत करती है । इसके बाद संघनन की क्रिया से यह पानी पीये योग्य डिस्टिल वॉटर क रूप में परिवर्तित हो जाता है । यह डिस्टिल वॉटर पिरामिड के अंदर एक चैनल में एकत्रित होता है और यहंा से यह भूमिगत टेंक में चला जाता है, जहां से पंप द्वारा वितरण टेंक में जाता है।इस टेंक की क्षमता दस हजार लीटर है । मानसून के समय वर्षा का जल जब पिरामिड और आसपास गिरता है, तो यह सीधे वर्षा जल एकत्रित करने वाले टैंक में इकट्ठा हो जाता है । इसकी क्षमता ६ लाख लीटर है । यहाँ से इसे शोधित कर पम्प द्वारा वर्षा जल वितरण टैंक में जमा कर उन स्थानों पर भेजा जाता है जहाँ जल की आवश्यकता है । सुश्री कनुप्रिया ने बताया कि रूपजी राजा बेरी ग्रामीणों ने ग्राम पंचायत की मदद से `जलसभा' का निर्माण भी किया है, जहाँ पानी बचाने की नई - नई तरकीबों पर विचार किया जाता है ।यादें किस चीज़ से बनती हैं ? चूहों पर किए गए कुछ प्रयोगों से पता चला है कि हमारी यादें हमारे ही डी.एन.ए. पर लगी कुछ टोपियेां की मदद से सहेजी जाती हैं । किसी खास घटना को याद करने के लिए तंत्रिकाआें की एक विशेष लड़ी सही समय पर सक्रिय होती है । इन सारी तंत्रिकाआें के एक क्रम में सक्रिय होने के लिए जरूरी है कि वे आपस में रासायनिक सेतुआें (साइनेप्स) के जरिए एक खास ढंग से जुड़ी हों । सवाल यह है कि एक बार इस तरह जुड़ जाने के बाद ये जुड़ाव दशकों तक कैसे बने रहते हैं । अब नए शोध के आधार पर अलाबामा विश्वविद्यालय के कोर्टनी मिलर और डेविड स्वेट का निष्कर्ष है कि दीर्घावधि यादें डी.एन.ए. पर जगह-जगह मिथाइल समूह की टोपियां लगती हें । कई जीन्स तो पहले से मिथाइल समूहों से घिरे होते हैं ।यह ऐसी कोशिकाएं विभाजित होती हैं, तो इस बात की जानकारी (कोशिकीय स्मृति)संतान कोशिकाआें को मिलती है । मिलर व स्वेट ने पाया कि तंत्रिकाआें में मिथइल समूहों की मदद से ही यह बय करने मेंददमिलती है कि कौन- कौन से प्रोटीन बनेंगें ताकि सायनेस को सुरक्षित रखा जा सके । प्रयोग मे ंचूहों को एक पिंजरे में रखकर बिजली का झटका दिया गया । आम तौर पर ऐसा करने पर वे पिंजरे में लौटाए जाने पर सहम जाते हैं । मगर जब इन चूहों को एक ऐसी दवाई का इंजेक्शन दिया गया जो मिथाईल समूह का जुड़ना रोकती है तो उनमें बिजली के झटके की स्मृति पुंछ गई । यह भी पता चला कि अनुपचारित चूहों में बिजली के झटके के एक घंटे के बाद तक दिमाग हिप्पोकैप्स क्षेत्र में जीन का मिथायलेशन तेज़ी से चलता है कि अल्पावधि स्मृतियां निर्मित करने में मिथायलेशन की भूमिकाहै। मगर अभी यह देखना बाकी था कि क्या दीर्घावधि स्मृतियों में मिथायलेशन की कोई भूमिका है या नहीं । इसके लिए प्रयोग को दोहराया गया और दिमाग के कार्टेक्स नामक हिस्से पर ध्यान दिया गया शोधकर्ताआें ने देखा कि झटके के एक दिन बाद तक मिथाईल समूह एक जीन पर से हटाए जा रहे थे और किसी अन्य जीन पर जोड़े जा रहे थे । मिथायलेशन का पेटर्न धीरे- धीरे स्थिर हो गया और सात दिन बाद तक वैसा ही बना रहा । इसके आधार पर मिलर और स्वेट का कहना है कि मिथाइल समूह का जुड़ना स्मृति संजोने व बनाए रखने की प्रक्रिया का अंग होना चाहिए । मज़ेदार तर्क यह है कि मिथायलेशन की प्रक्रिया का उपयोग भ्रूण के विकास के दौरान कोशिका - स्मृति के हस्तांतरण के लिए होता है । लगता है दिमाग इसी प्रक्रिया का उपयोग यादें सहेजने के लिए कर रहा है । हम कितना तेज भाग सकते हैं ? महिला धावकों , रेस के घोड़ों और शिकारी कुत्तों में क्या समानता है ? समानता यह है कि शायद ये सभी अपने सर्वोत्तम प्रदर्शन पर पहुंच चुके हैं । दूसरे ओर महिला मैराथन धावक और हर दूरी के पुरूष धावक अभी भी अपने रिकार्डोंा में सुधार कर रहे है । मार्क डेनी का यही निष्कर्ष है । स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के मार्क डेनी १९२० के दशक से एथलेटिक्स प्रतिस्पर्धाआें, घोड़ों की रेस और शिकारी कुत्तों की दौड़ के रिकार्ड का अवलोकन कर रहे हैं । ये वह देखना चाहते हैं कि क्या इन आंकड़ों से यह दिखता है कि इन्सानों और जानवरों की रफ्तार की कोई सीमा है । यह सवाल कई बार पूछा जाता है कि क्या ओलंपिक रिकार्ड टूटते ही जाएंगे । विजेता शिकारी कुत्तों और घोड़ों की रफ्तार १९७० के दशक तक बढ़ती रही लेकिन फिर उनें स्थिरता - सी आ गई । डेनी की राय है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ये जानवर अपनी प्रजाति की अधिकतम सीमा तक ही जा सकते हैं । और वैसे भी मनुष्य ने इनका चयन अनुकूलतम शारीरिक बनावट के लिहाज़ से ही किया है। कम दूरी की महिला धावकों की रफ्तार में भ्ज्ञी १९७० केदश में एक स्थिरता सी आने लगी थी । उसके बाद रिकार्ड्स में बहुत कम और यदा - कदा ही सुधार हुए हैं । जबकि महिला मैराथन धावकों और समस्त पुरूष धावकों में सुधार अभी भी जारी है । इन आंकड़ों का प्रयोग कर डेनी ने एक मॉडल विकसित किया है । इसके आधार पर लगता है कि पुरूष धावक १०० मीटर की दौड़ में ९.४८ सेकण्ड का सर्वोत्तम समय निकाल सकते हैं । यह उसैन बोल्ट के वर्तमान रिकार्ड से ०.२१ सेकण्ड बेहतर है । महिला मैराथन धावक पौला रेडक्लिफ के वर्तमान मैराथन रिकार्ड (२ घंटे १५ मिनिट २५ सेकण्ड) में २ मिनट ४४ सेकण्ड की और कटौती कर सकती है चमगादड़ों से सीखें रात की ड्राइविंग चमगादड़ अंधी होती हैं लेकिन अपने कान की मदद से सब कुछ देख पाती हैं। वैज्ञानिक प्रयासरत हैं कि मनुष्य भी ऐसा कर सकेंं । चमगादड़ उड़ते समय उच्च् आवृत्ति वाली ध्वनि तरंगे छोड़ती हैं औरउनकीप्रतिध्वनि से वे रास्ते की रूकावटों को चिन्हित करती है । प्रतिध्वनि की तीव्रता और अपने दोनों कानों की क्षमताआें का उपयोग कर चमगादड़ रास्ते की रूकावआें और शिकार की स्थिति का ठीक- ठाक अंदाजा लगा लेती है । लीड्स विश्वविद्यालय में हाल ही में किए गए एक अध्ययन के दौरान चमगादड़ द्वारा प्रयुक्त आवृत्ति की तरंगें सृजित की गई और उनसे उत्पन्न प्रतिध्वनि को मानवीय परास में परिवर्तित किया गया इस ध्वनि को ईयर फोन में डाला गया । इस प्रकार से उद्दीपन की सहायता से लोग वस्तुआें की दिशा तेज़ी से पहचानने मे ंसफल हुए । इस तरह की क्षमताआें काउपयोग कई जगहों पर किया जा सकता है । जैसे नक्श देखते समय वाहन चालक अपने का उका उपये गहेहतर कर सकता है । इसके साथ ही चालक को मंद रोशनी में गाड़ी चलाने में भी इसका उपयोग किया जा सकता है । ***

११ विश्व वानिकी दिवस पर विशेष

वन है मानव जीवन के आधार
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
प्रतिवर्ष २१ मार्च को विश्व वानिकी दिवस मनाया जाता है । यह परंपरा सन् १८७२ में नेबरास्का (अमेरिका) में शुरू हुई । इसका श्रेय जे-स्टर्लिंग मार्टिन को जाता है, जिन्होेंने पेड़ों की खूबसूरती से वंचित नेबरास्का में अपने घर के आस-पास बड़ी संख्या में पौधें लगाए थे । एक समाचार पत्र के संपादक बनने के बाद उन्होंने अन्य नगरवासियों को भूमि संरक्षण, इंर्धन, इमारती लकड़ी, फल-फूल, छाया और खूबसूरती हेतु पौधे लगाने की सलाह दी । उन्होंने राष्ट्रीय कृषि बोर्ड को भी पौधें लगाने के लिए एक अलग दिन रखने को मना लिया । इस प्रकार विश्व वानिकी दिवस की शुरूआत हुई । प्रथम वानिकी दिवस पर एक लाख से ज्यादा पौधे लगाए गए । धीरे-धीरे पूरी दुनिया में यह दिवस मनाया जाने लगा । मानव जीवन के ३ बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी और उपजाऊ मिट्टी मुख्य रूप से वनों पर ही आधारित हैं । इसके साथ ही वनों से कई प्रत्यक्ष लाभ भी हैं। इनमें खाद्य पदार्थ, औषधीयाँ, फल-फूल, ईधन, पशु आहार, इमारती लकड़ी, वर्षा संतुलन, भू-जल संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख हैं । प्रसिद्ध वन विशेषज्ञ प्रो.तारक मोहनदास ने अपने शोध अध्ययन में बताया है कि ५० साल के जीवन में पैदा की गई एक ५० टन वजनी मध्यम आकार के वृक्ष से प्राप्त् वस्तुआें एवं अन्य प्रदत्त सुविधाआें की कीमत लगभग १५.७० लाख रूपये होती है । वन विनाश आज समूचे विश्व की प्रमुख समस्या है । सभ्यता के विकास और तीव्र औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप आज दुनिया वन विनाश के कगार पर खड़ी है । वनों के विनाश का सवाल इस सदी का सर्वाधिक चिंता का विषय बन गया है । पिछले २-३ दशकों से इस पर बहस छिड़ी हुई है और वनों का विनाश रोकने के प्रयास भी तेज हुए हैं । देश में पर्यावरण और वनों के प्रति जागरूकता आई है, लेकिन हरित पट्टी में किसी तरह का विस्तार कम ही हुआ है । पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में औद्योगिक विकास की गति काफी धीमी रही, किंतु स्वतंत्रता के बाद तीन गुना बढ़ी जनसंख्या का दबाव वन एवं वन्य प्राणियों पर पड़ना स्वाभाविक ही था । यही कारण है कि हमारे समृद्ध वन क्षेत्र सिकुड़ते गए और वन्य प्राणियोंं की अनेक जातियाँ धीरे-धीरे समात्ति की और कदम बढ़ाने लगीं । हमारे देश के संबंध में यह सुखद बात है कि प्रकृति के प्रति प्रेम का संदेश हमारे धर्मग्रंथों और नीतिशतकों में प्राचीनकाल से ही रहा है । पूजा-पाठ में तुलसी पत्र और वृक्ष पूजा के विभिन्न पर्व की हमारी समृद्ध परंपरा रही है । यह लोक मान्यता रही है कि साँझ हो जाने पर पेड़ पौधों से छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए, क्योंकि पौधों में प्राण हैं और वे संवेदनशील होते हैं । हमारे देश में एक तरफ तो वनों के प्रति श्रद्धा और आस्था का यह दौर चलता रहा और दूसरी ओर बड़ी बेरहमी से वनों को उजाड़ा जाता रहा ह्ै । यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है । अनुमान है कि प्रति वर्ष १५ लाख हेक्टेयर वन कटते हैं । हमारी राष्ट्रीय वन नीति में कहा गया था कि देश के एक तिहाई हिस्से को हरा-भरा रखेंगे लेकिन पिछले वर्षो में भू-उपग्रह के छाया चित्रों से स्पष्ट है कि देश में ३३ प्रतिशत के बजाए १३ प्रतिशत ही वन क्षेत्र रह गया है । भारत में जैव-विविधता की समृद्ध परंपरा रही है । वर्तमान में भारत की जैव-विविधता दुनिया के ३.४ प्रतिशत प्राणियों एवं ७ प्रतिशत वनस्पतियों का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि हमारा वन क्षेत्र विश्व के २ प्रतिशत से भी कम है और इसे विश्व की १५ प्रतिशत से अधिक जनसंख्या का दबाव झेलना पड़ता है । भारत में कुल ८१ हजार प्राणी-प्रजातियाँ एवं ४५ हजार वनस्पति प्रजातियाँ पाई जाती हैं । प्राणियों में सर्वाधिक ५६ हजार प्रजातियाँ कीट पतंगों की हैं । इनमें सबसे कम ३७२ प्रजातियाँ स्तनधारी प्राणियों की हैं । वनस्पतियाँ प्रजातियों का एक तिहाई यानी १५ हजार प्रजातियाँ उच्च् वर्गीय पौधों की हैं । शेष प्रजातियों में २३ हजार फफूंद, १२ हजार कवक और ३ हजार ब्रायोफाइट शामिल हैं । जैव विविधता की समृद्धि की प्रसन्नता के साथ ही यह कम दुखद नहीं है कि हमारे देश में १५०० वनस्पति प्रजातियाँ, ८९ स्तनधारी प्राणी प्रजातियाँ, १५ सरीस्त्रप, ४७ पक्षी, ३ उभयचर और अनेक कीट-पतंगों की प्रजातियाँ विलुिप्त् की कगार पर हैं । वन महत्वपूर्ण प्राकृतिक संपदा है, जो न केवल देश की समृद्धि को बढ़ाते है, वरन देश के पर्यावरण संतुलन को भी बनाए रखते हैं। आज विश्व की जलवायु में आश्चर्य परिवर्तन हो रहे हैं । इसमें वन कटाई प्रमुख कारण है । इस विषय पर अब तक अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बहस हो चुकी है । जलवायु परिवर्तन वर्तमान में महत्वपूर्ण मुद्दा है । जलवायु परिवर्तन और स्थायी विकास के मुद्दों में गहरा संबंध है । हमारे देश में जलवायु परिवर्तन से सामाजिक संकट आने की संभावना बनी रहती है, क्योंकि भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था जलवायु संतुलन से ही संतुलित रहती है। भारतीय संस्कृति मूलत: अरण्य संस्कृति रही है । हमारे मनीषियों ने वनों के सुरम्य, शांत और स्वच्छ परिवेश में चिंतन-मनन कर अनेक महान ग्रंथों की रचना की, जो आज भी विश्व मानवता का मार्गदर्शन कर रहे है । भारत में पर्यावरण संरक्षण से संबंधित २०० से ज्यादा कानून हैं । सन् १९७३ में ४२ वें संविधान संशोधन के जरिए संविधान में पर्यावरण संबंधी मुद्दे शामिल किए गए । राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में अनुच्छेद ४८ `अ' जोड़ा गया, जिसमें कहा गया है कि राज्य देश के प्राकृतिक पर्यावरण वनों एवं वन्य जीवों की सुरक्षा तथा विकास के लिए उपाय करेगा । मौलिक कर्तव्यों से संबंधित अनुच्छेद ५१ `अ' में कहा गया है कि वनों, झीलों, नदियों और वन्य जीवन की सुरक्षा व विकास तथा सभी जीवों के प्रति सहानुभूति हरेक नागरिक का कर्तव्य होगा। इसके साथ ही वन एवं वन्य जीवन से जुड़े सवालों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में शामिल कर दिया गया लेकिन इतना होने के बाद भी देश को हरा भरा करने के लिए एक जन- आंदोलन की आवश्यकता अभी शेष है । ***अंटार्कटिका में है दफन पहाड़ों की श्रृंखला अंटार्कटिका को लेकर हुए हालिया खुलासे से ग्लोबल वार्मिंग और उससे बर्फ पिघलने की प्रक्रिया से बढ़ने वाले समुद्र जल स्तर के प्रति दुनिया भर के विशेषज्ञों के बीच चिंता का दौर शुरू हो गया है । इसका सबब बनी है एक नई खोज जो बताती है कि अंटार्कटिका में सैकड़ों साल पुरानी पर्वत श्रृंखला बर्फ में धंसी पड़ी है । बर्फ में दबे पहाड़ों के बारे में जानने के लिए विशेषज्ञों को रडार और ग्रेविटी सेंसर्स का इस्तेमाल करना पड़ा । अचंभित करने वाली बात यह है कि ढूंढे गए पहाड़ एल्प्स पर्वत श्रृंखला के आकार के हैं, जिसमें बड़ी - बड़ी चोटियां भी हैं। बर्फ के नीचे मिले पहाड़ सहत से करीबन दो मील अंदर दफन हैं । वैज्ञानिक यह भी बताते हैं कि बर्फ धीरे - धीरे जमने की स्थिति में दफन पहाड़ों की चोटियां टूटकर समतल हो सकती थीं, लेकिन बहुत जल्दी जमने से चोटियां यथावत रहीं ।

१२ पर्यावरण समाचार

`थाली में जहर' जीएम खाद्य के खिलाफ फिल्म'
आनुवांशिकी रूप से परिवर्तित ख़ाद्य पदार्थ (जीएम) के खिलाफ देश भर में विरोध और बहस छिड़ी हुई है । ऐसे में फिल्मकार महेश भट्ट इस विषय पर फिल्म पेश कर रहे हैं, `पॉइजन ऑन द प्लैट' (थाली में जहर) । हम जिस सामंती समाज में रहते हैं, वहाँ हमेशा से ही चेतावनी देने वालों के स्वर दबा दिए जाते हैं । जीएम खाद्य पदार्थोंा के खिलाफ सचेत होने का यही सही समय है । ये उत्पाद एक नस्ल की जीन को दूसरी में रोपित कर बनाए जाते हैं । सारी प्रक्रिया कृत्रिम और कुदरत के विरूद्ध होती है । फिल्म उन लोगों के लिए बनाई है, जो इस मुद्दे पर लड़ाई लड़ रहे हैं । यह मुद्दा एचआईवी, चक्रवात आतंकवाद और भारत में मुस्लिम के मुद्दे से कही बड़ा है । श्री भट्ट का कहना है कि अनुवांशिकी रूप से परिवर्तित खाद्य पदार्थ एक तरह से जैविक आतंकवाद की श्रेणी में आता है । इसलिए लोगों तक इसकी जानकारी पहुँचाना बेहद जरूरी है । जीएम खाद पदार्थो के परीक्षण से पता चलता है कि ये मस्तिष्क, फेफड़े, लीवर, किडनी, आँते सभी को प्रभावित कर सकते हैं, वैज्ञानिक प्रभावित कर सकते है, वैज्ञानिक देविंदर शर्मा का कहना है कि केवलअमेरिका, ब्राजील और अर्जेटीना में इसकी खपत है । भारत में इसके आयात की अनुमति नहीं है, लेकिन फिर भी अधिकांश पश्चिमी आउटलेट से यह भारत में प्रवेश करता सकता है ।सेब के छिलके से तैयार हुई खाद हिमाचल प्रदेश में सेब अब जूस, जैम और शराब तैयार करने के बाद भी काम आएगा । हिमाचल प्रदेश मार्केटिंग कारपोरेशन (एचपीएमसी) ने एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी पालमपुर और पंजाब के लुधियाना की ईस्ट लैंड ऑर्गेनिक कंपनी के सहयोग से सेब के वेस्ट वर्मी कंपोस्ट खाद तैयार करने में सफलता हासिल की है । यह सब्जी की पैदावार बढ़ाने में सहायक है । पहले चरण में सेब वेस्ट से वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन एचपीएमसी के युनिट में किया जा रहा है । एक वर्ष में १२०० से १५०० मीट्रिक टन उत्पादन का लक्ष्य है । अगले चरण में शिमला के गुम्मा और अन्य केंन्द्रो में वर्मी कम्पोस्ट तैयार की जाएगी । ***