शुक्रवार, 15 मई 2009

१ सामयिक

हिमालय और कांक्रीट के पहाड़
एन्न. केथरिन शिडलर
जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप हिमालय का क्षेत्र दुनिया के सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र में परिवर्तित हो गया है । इसकी वजह है दक्षिण एशिया में पानी की आपूर्ति के संग्रहण खाते हेतु अनिवार्य नदियों के स्त्रोत विशाल हिमखंड (ग्लेशियर) तेजी से पिघल रहे हैं । चीन की समाचार एजेंसी झिन्हुआ ने फरवरी ०९ के आरंभ में बताया था कि चीनी वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि तिब्बत में हिमखंड चिंताजनक तेजी से पिघल रहेहैं । इन नाटकीय घटनाक्रमों के बावजूद भारत, पाकिस्तान, नेपाल और भूटान की सरकारें हिमालय की नदियों को दक्षिण एशिया के बिजलीघर में परिवर्तित करने पर तुली हुई हैं । ये हिमालय के उन्मुक्त जल से विद्युत उत्पादन हेतु बड़े-बड़े बांध बनाने की इच्छुक हैं । इन चारों देशों द्वारा अगले २० वर्षोंा में जलविद्युत के द्वारा १,५०,००० मेगावाट से अधिक विद्युत उत्पादन प्रस्तावित है । इस रफ्तार से हिमालय का क्षेत्र विश्व में सर्वाधिक बांधो वाला क्षेत्र बन जाएगा । यहां प्रस्तावित बांधों में से कुछ हैं, भारत में ३,००० मेगावाट क्षमता वाली डिबांग परियोजना, भूटान में ताला परियोजना और पाकिस्तान में १२.६ अरब डालर की लागत से बनने वाला दुनिया के सबसे बड़े और अधिकतम लागत वाले बांधों में से एक डिमेर भाषा बांध । यह आश्चर्य का विषय है कि बांधों के निर्माण का हमारे समय की सबसे विकराल समस्या जलसंकट, जो कि ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप सामने आ रहा है की दृष्टि से विश्लेषण नहीं किया गया है । कांक्रीट के पहाड़-हिमालय क्षेत्र में बांध निर्माण (माउंटेन ऑफ कांक्रीट-डेम बिल्डिंग इन हिमालयाज) के लेखक श्रीपाद धर्माधिकारी का कहना है कि, इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन प्रभाव आकलन अब तक न तो किसी को किसी बांध विशेष अथवा सामुहिक तौर पर बांधों को लेकर किया है । जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हिमालय क्षेत्र में बांधों के निर्माण में करोड़ो डालर का निवेश अत्यधिक जोखिम भरी संपत्ति एवं अकार्यशील पूंजी में निवेश ही कहा जाएगा । तिब्बती पठारों का अध्ययन कर रहे चीनी दल के एक वरिष्ठ इंजीनियर युआन होंग का कहना है कि हिमाल के हिमखंडों के पिघलने से नदियां में अल्प अवधि के लिए तो भरपूर पानी आ जाएगा परंंतु दीर्घकाल में ये नदियां सूख जाएगी । जल विद्युत परियोजनाएं दोनों ही स्थितियों में जब नदियों में भरपूर पानी होगा और बाद में जब पानी कमी होगी, संकटग्रस्त ही रहेंगी । इस विरोधाभास की ओर इशारा करते हुए श्री धर्माधिकारी कहते हैं, अधिकांश बांंधों का डिजाइन नदियों के ऐतिहासिक प्रवाह के आंकड़ों पर आधारित है । इतना ही नहीं यह भी मान लिया गया है कि इन नदियों में जलप्रवाह पूर्ववत बना रहेगा । इस बात की पूरी संभावना है कि भविष्य में या तो इनमें अत्यधिक जलप्रवाह होगा जिससे इनकी सुरक्षा को खतरा हो सकता है । इसके अलावा बाढ़ और डूब के क्षेत्र में भी वृद्धि हो सकती है अथवा न्यूनतम जलप्रवाह के परिणामस्वरूप इतने विशाल निवेश पर प्रतिकूल असर पड़ सकताहै । नेपाल स्थित अंतर्राष्ट्रीय समेकित पर्वत विकास केंद्र (आईसीआईएमओडी) एवं जलवायु परिवर्तन हेतु अंतर्सरकार पेनल ने भी स्वीकार किया है कि जलवायु परिवर्तन से पर्वतीय व ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में अत्यधिक तूफान और बाढ़ की स्थिति निर्मित होगी। हिमालय के हिमखंडो पर अपनी रिपोर्ट में आईसीआईएमओडी ने कहा है कि सन् २१०० तक भारतीय उप महाद्वीप के तापमान में ३.५ सेल्सियस से लेकर ५.५ सल्सियस तक की वृद्धि संभावित है । तिब्बत के पठारोंमें तो तापमान में और भी अधिक वृद्धि की आशंका जताई गई है । जलवायु परिवर्तन न्यूनतम व अधिकतम दोनों ही तापमानों को प्रभावित करेगा जिसके परिणामस्वरूप वर्षा और तूफान दोनों ही अधिक तीव्रता लिए हुए होंगे । इन भारी तूफानों ओर बाढ़ से न केवल इन जलविद्युत परियोजना के आर्थिक लाभ पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा बल्कि कांक्रीट के इन पहाड़ों की सुरक्षा भी खतरे में पड़ा जाएगी । हिमखंडो से बनी हुई इन झीलों का एकाएक फट जाना भी इन प्रस्तावित बांधों और अंतत: हिमालय की नदियों और निवासियों के लिए बड़ा खतरा है । हिमखंड झीलों का फटना एक नई स्थिति है । हिमालय के अत्यधिक ऊँचाई वाले क्षेत्र के हिमखंड पिघलने के बाद बरफ ओर चट्टानों के इन अस्थायी बांधों के पीछे बड़ी झीलों का निर्माण हो जाएगा । बर्फ बने इन बांधों के ढहने से लाखों लिटर पानी एकाएक छूटेगा जिससे बड़े पैमाने पर बाढ़ की संभावनाएं पैदा होंगी । सन् १९८५ में नेपाल के माउंट एवरेस्ट के पास स्थित दि डिग तोशो हिमझील के ढहने से ५ व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी । इसके अलावा एक जलविद्युत केन्द्र, हजारों एकड़ उपजाऊ भूमि और १४ पुल भी नष्ट हो गए थे । भूटान के भू-विज्ञान और खनन विभाग के येशी डोरजी के अनुसार जनवरी २००९ में भूटान सरकार ने २६०० हिम झीलें चिन्हित की हैं । इनमें से २५ खतरनाक रूप से ढहने के कगार पर है । हिमझीलों के जोखिम के प्रति जागरूक भूटान सरकार अपने पूर्व चेतावनी प्रणाली में सुधार भी कर रही है । वहीं दूसरी और यह देश वर्तमान में भरत के साथ मिलकर इस क्षेत्र में सबसे बड़े बांधों मे से एक ९० मीटर ऊँची ताला परियोजना का निर्माण भी वांगचु नदी पर कर रहाहै । दक्षिण एशिया के एक अरब और लाखों चीनी नागरिक इन हिमालय नदियों पर आश्रित हैं । हम वैश्विक तापमान को नियंत्रित करने वाली इन जीवनरेखाआें के प्रति कोई भविष्यवाणी भी नहीं कर सकते। साथ ही हम यहां मानकर भी नहीं चल सकते कि हिमालय क्षेत्र में बर्फ और हिमखंड इसी तरह हमेशा बने रहेंगे । परंतु हिमालय क्षेत्र के देशों की सरकारें इसकी बावजूद यदि बांधों के निर्माण की अपनी योजना पर कायम रहती हैं तो इसका यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे इस तथ्य को नकार रहीं है कि बढ़ता वैश्विक तापमान इस क्षेत्र और पृथ्वी ग्रह में परिवर्तन ला रहा है । हिमालय क्षेत्र के देशों के लिए समझदारीपूर्ण निर्णय यही होगा कि वे उपलब्ध जलस्त्रोतों का विकास इस तरह से करें जिससे कि जलवायु परिवर्तन के इस दौर में इस क्षेत्र के निवासियों का जोखिम कम हो सके । परंतु बांध निर्माण की योजनाएं तो इसमें विपरीत है । ***
पाठकों से देश में चुनावों के चलते पत्रिका का अप्रेल अंक समय पर नहीं निकल पाया, उसका हमें खेद हैं । अब यह अप्रेल-मई का संयुक्त पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है प्र. संपादक

२ आवरण कथा

भूख का भयानकहो जाना
डॉ. सुमन सहाय
विश्व के गरीब देशों में भूख का फैलाव तेजी से हो रहा है । नवीनतम आंकड़ो से पता चलता है कि विश्व में भूख से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हुई है । जनवरी २००९ में यह संख्या ९६.३ करोड़ थी जो इस महीने बढ़कर १ अरब पर पहुंच गई है । इसका अर्थ हुआ विश्व में पिछले तीन महीनों में ४ करोड़ अतिरिक्त लोग भूख से पीड़ित हो गए है । वर्तमान आर्थिक संकट की वजह से खाद्यस्थिति और भी बदतर हुई है क्योंकि इसकी वजह से कीमतों में नाटकीय उछाल आया है और विश्व समुदाय की ओर से ऐसा कोई संकेत अभी तक सामने नहीं आया है कि इस भयावह स्थिति से निपटने के कोई प्रयास निकट भविष्य में सामने आएंगे । सन् २००७ में खाद्य संकट के प्रारंभ होने के पूर्व विश्व भर में गंभीर रूप से भूख से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या ८५ करोड़ से कुछ कम थी और यह १९९० के आरंभ से कमोवेश स्थिर बनी हुई थी २००७ और ०८ में अंतरराष्ट्रीय खाद्य एवं तेल के मूल्यों में हुई अचानक वृद्धि से कई देशों में खाद्य दंगे भी हुए जिसके परिणामस्वरूप भूख को मिटाने के शताब्दी विकास लक्ष्य को भी खतरा पैदा हो गया । वैश्विक बाजारों में अनाजों की कीमतों में कमी के बावजूद गरीब देशों में या तो इनकी ऊँची कीमते यथावत बनी हुई हैं अथवा उनमें बढ़ोत्तरी ही हुई है । अनेक अध्ययनों ने यह तो स्पष्ट किया है कि खाद्य पदार्थोंा की ऊँची कीमतों के कारण २००८ में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गंभीर कुपोषण में एकाएक वृद्धि तो दर्ज नहीं की गई है परंतु इसने गरीबों की जीविका और भोजन के वैविध्यता पर लगातार प्रभाव डाला है । यह भी स्पष्ट हो गया है कि वर्तमान खाद्य संकट के फलस्वरूप विकासशील देशों में २५ वर्षोंा से जारी उस प्रवृत्ति पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा है जिसके अंतर्गत धीमी गति से ही सही परंतु कुपोषित व्यक्तियों की संख्या के कुल जनसंख्या के अनुपात में गिरावट आ रही थी । नब्बे के दशक के प्रारंभ में भूख से पीड़ित व्यक्तियों का प्रतिशत कुल जनसंख्या के २० प्रतिशत पर पहुंचने के पीछे का कारण कृषि में घटता निवेशथा जिसकी वजह से खाद्य पदार्थोंा के उत्पादन में कमी आई और मूल्यों में वृद्धि हुई । इसी प्रवृत्ति ने २००७ में गंभीर रूप ले लिया । खाद्य वस्तुआें के बढ़ते वैश्विक मूल्य ने कई अन्य समस्याआें को भी जन्म दिया । इसके परिणामस्वरूप घरेलू खाद्य मूल्यों में भी तेजी आई और २००५ में जहां अल्पपोषित व्यक्तियों की संख्या ८५ करोड़ थी वह २००८ से बढ़कर ९६.३० करोड़ हो गई । खाद्य पदार्थ की बढ़ती कीमतें जहां खाद्य निर्यातक देशों के लिए लाभकारी सिद्ध होगी वही दूसरी ओर ऐसे अधिकांश देश जो कि खाद्य पदार्थ खरीदते हैं के लिए वैश्विक स्तर पर बढ़ती कीमतों के परिणामस्वरूप इन देशों के छोटे किसानों, ग्रामीण श्रमिकों और शहरी गरीबों पर अतिरिक्त संकट आ जाएगा । अध्ययनों से यह भी पता चला है कि वार्षिक मंदी के काल में बढ़ते खाद्य मूल्यों के आत्मघाती परिणाम निकलेंगे क्योंकि परिवारों को जिंदा रहने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा, जिससे मौसमी कुपोषण की मार में भी अतिरिक्त वृद्धि होगी । इससे भूख और कुपोषण का दुष्चक्र भी प्रारंभ हो जाएगा । ग्रामीण गरीबोंके लिए मंदी का समय और भूख पर्यायवाची हैं । मौसमी मंदी वह समय होता है जबकि जमा किया हुआ अनाज समाप्त् हो जाता है और नई फसल आने में थोड़ा समय होता है और खाद्य पदार्थो के मूल्य में उतार चढ़ाव, संस्थागत ऋण तक पहुंच का न होना और भंडारण की अपर्याप्त् सुविधा के कारण किसानों को बाध्य होना पड़ता है कि वे पूर्व में लिए गए ऋण की अदायगी और फसल को काीड़ों इत्यादि से नष्ट होने से बचाने के लिए अपनी पैदावार (फसल) को कम कीमत पर बेच दें । इसी किसान को कुछ महीनों बाद बाजार में अधिक दाम चुकाकर पुन: अनाज खरीदना पड़ता है । विकासशील विश्व में हर तरफ गरीब मौसमी वंचन के इस वार्षिक चक्र का शिकार बने रहते हैं । खाद्य पदार्थोंा की बढ़ती कीमतों का सामना वैश्विक तौर पर गरीब परिवार पहले तो भोजन की गुणवत्ता को कमतर करके और बाद में उसकी मात्रा घटा कर करते हैं । भोजन की मात्रा को बनाए रखने के लिए उन्हें फलियों, सब्जियंा बेच देना पड़ती है और इससे उनके शरीर में न केवल पोषक तत्वों की कमी हो जाती है बल्कि उनका प्रतिरोधी तंत्र भी कमजोर हो जाता है । यह स्थिति अगर दीर्घावधि तक चलती है तो वजन में कमी आती है और व्यक्ति कुपोषण का शिकार हो जाता है । खाद्य असुरक्षा कृषक परिवारों को नुकसानदेह और स्थायी हानि वाले तरीके अपनाने जैसे संपत्ति या पशुआें को बेचना या ऊँची ब्याज दर पर ऋण लेना या अपनी भूमि और भविष्य की पैदावार को रेहन या गिरवी रखने का जोखिम उठाने को बाध्य कर देती है । इस तरह से ग्रामीण गरीब अपने आज के लिए अपने भविष्य को दाव पर लगाने की जीविका पर भी असर पड़ता है । अच्छी पैदावार के बावजूद उसकी सामान्य स्थिति में सुधार नहीं आता क्योंकि उसे अपना पिछला घाटा पूरा करना होता है । अतएव परिवार पर भविष्य के प्रति जोखिम बना ही रहता है । इस बात में कोई शक शुबहा नहीं है कि वैश्विक खाद्य मूल्य अभी भी चरम पर नहीं पहुंचे हैं । इससे भूख और कुपोषण की वर्तमान स्थिति पर और भी गंभीर प्रभाव पड़ेगा । इतना ही नहीं यदि इसे समाप्त् करने के तुरंत प्रयत्न नहीं किए गए तो वैश्विक संकट खड़ा हो जाएगा । बिगड़ैल और लापरवाह पश्चिम को समझना चाहिए की अंतहीन भूख की इस समस्या से पैदा हुई राजनीतिक अस्थिरता से वह भी बच नहीं पाएगा । हम वैश्विक भूचाल के मुहाने पर खड़े हैं और भूख की इस त्रासदी और खौफनाक स्थिति से बाहर आने के लिए तत्कालिक मदद की आवश्यकता है । इस दिशा मेंअब तक की वैश्विक प्रतिक्रिया अच्छी नहीं रही है । इस समस्या से मिशनरी भावना से ही निपटा जा सकता है । विश्व खाद्य सुरक्षा हेतु जून २००८ में हुए एक उच्च् स्तरीय सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ समेकित प्रयास (यूएनसीएफए) का अनुमान था कि वैश्विक खाद्य एवं पोषण सुरक्षा की बहाली के लिए प्रतिवर्ष २५ से ४० अरब अमेरिकी डालर की आवश्यकता है । वहीं संरक्षणवादी अनुमानों के अनुसार प्रभावशाली ढंग से भूख से विश्वव्यापी संघर्ष के लिए अनिवार्य न्यूनतम पैकेज हेतु प्रतिवर्ष ६० से ७० अरब अमेरिकी डालर की आवश्यकता होगी । उच्च्स्तरीय सम्मेलनों के बावजूद वैश्विक नेताआें ने खाद्य समस्या से निपटने के लिए मात्र १२.३ अरब डालर के अनुदान के लिए हामी भरी और उसमें से अब तक केवल एक अरब डालर का दान ही प्राप्त् हो पाया है । हाल के इतिहास में किसी अन्य वैश्विक अपील में वादा किए गए और वास्तविक रूप से प्राप्त् धन में कभी भी इतना अंतर नहीं दिखाई पड़ा था । इन निराशाजनक राशि ने एक बार पुन: दर्शा दिया है कि वैश्विक कार्यसूची में भूख कहीं नहीं है और आज भी अंतराष्ट्रीय समुदाय अस्थायी खाद्य मदद देकर मात्र हस्तक्षेप करने का ही इच्छुक है । इससे यह खतरनाक संदेश भी जा रहा है कि अमीर देश भूख के प्रति गंभीर नहींहै । वैश्विक भूख से निपटने के लिए गंभीर प्रयत्न और प्रभावशील हस्तक्षेप हेतु पर्याप्त् धन और अंतराष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है । सिविल सोसाईटी के अंतरराष्ट्रीय दबाव समूहों का कर्तव्य है कि वे राजनीतिक नेताआें और नीति निर्धारकों का ध्यान इस ओर दिलाते रहें कि भूख और कुपोषण का भार सभी प्रकार के विकास पर पड़ेगा और इसके परिणामस्वरूप वैश्विक स्तर पर राजनीतिक अस्थिरता भी पैदा होगी । अतएव वैश्विक नेतृत्व के लिए आवश्यक है कि वह भूख से निपटने के लिए तत्काल प्रभाशाली एवं सामुहिक प्रयासों की गंभीर तात्कालिक आवश्यकता को समझे । यह आज के समय की नैतिक अनिवार्यता भी है । *** जलस्तर गिरने से ताज की सुरक्षा को खतरा आगरा में यमुना नदी का जल स्तर काफी हद तक गिर जाने से विश्वप्रसिद्ध ताज महल की सुरक्षा के लिए हाल ही में तैयार की गई नीतियां अधर में पड़ती दिखाई दे रही हैं । इस नीति के तहत ताज महल के पीछे के हिस्से में पुलिस को रोजाना मोटरबोट के जरिए नश्त करना है । इसका कारण यह है कि इस क्षेत्र में रोजाना हजारों पर्यटका आते हैं । पानी का स्तर काफी कम होने के कारण मोटर बोट ताज के पीछेे के हिस्से तक पहुंच नहीं पा रही है । आगरा के जिलाधिकारी आशीष गोयल ने बताया कि उन्होंने सुरक्षा का जायजा लेेने के लिए ताज के पीछे के हिस्से का दौरा करने का फैसला किया था लेकिन पानी कम होने के कारण इस काम के लिए विशेष तौर पर खरीदी गई मोटर बोट नियत स्थान तक पहुंच ही नहीं सकी । अधिकारीयों ने बताया कि पानी का स्तर तीन फुट ही रह गया है जबकि इस बोट के लिए कम से कम पांच से छह फुट पानी की जरूरत होती है । मोटरबोट के ताज के पीछे के हिस्से तक नहीं पहुच पाने के कारण इस स्मारक की सुरक्षा को खतरा हो सकता है।

४ जनजीवन

कचरे से सोना निकालने वाले लोग
प्रो. रामप्रताप गुप्ता
मध्यप्रदेश के नीमच जिले के रामपुरा कस्बे में न्यारगर समाज के४०-४५ परिवार निवास करते हैं । इस समाज के लोगों की धूलधोया और मुल्तानी भी कहा जाता है । इन परिवारों का व्यवसाय देश के विभिन्न नगरों के सराफों, स्वर्णकारों द्वारा उनके परिसर की वर्ष भर में एकत्रित धूल को क्रय कर उसका शोधन कर उसमें जो भी सोनें तथा चांदी के कण रहते हैं उन्हें वापिस प्राप्त् करके नष्ट होने से बचाना है। धूलधोया नाम भी इन्हें इसी व्यवसाय के कारण मिला है । पूर्व में यह समाज एक घुमक्कड़ समाज था । परंतु २००-२५५ वर्ष पूर्व तत्कालीन होल्कर नरेश ने इन्हें रामपुरा में बस जाने के लिए प्रेरित किया और इस हेतु सुविधाएं भी प्रदान की । न्यारगर समाज के लोग रामपुरा के अतिरिक्त मंदसौर, कोटा, पाटन, नीमच जैसे नगरों में भी बसे हुए हैं । परंतु अब वे इस व्यवसाय को छोड़कर अन्य कार्य करने लगे हैं । मंदसौर में तो इनका पूरा एक मोहल्ला बस हुआ है जिसे मुल्तानी मोहल्ला कहा जाता है । न्यारगर समाज के लोग देश के विभिन्न गगरों के स्वर्णकारों, सराफों की वर्षभर में एकत्रित इस धूल की उसमें सोने चांदी के कण होने की संभावना के आधार पर वे ५ से ४० हजार तक की कीमत चुकाते हैं । धूल में सोने, चांदी के कणोका अनुमान ये उसके वजन, परिसर में वर्षभर होने वाले क्रय, विक्रय, गहनों के निर्माण व कार्य के आधार पर लगाते हैं । इस धूल को क्रय किए गए नगर में ही धोकर, उसमें से कम धनत्व वाले अंश को वहीं फेंक देते हैं तथा भारी भाग को रामपुरा ले आते हैं । फिर उसका शोधन कर उसमें से सोना, चांदी निकाल लेतेहैं । सोने चांदी के अतिरिक्त इस धूल में निकिल और केडमियम भी रहता है । केडमियम तो शोधन प्रक्रिया में ही नष्ट हो जाता हैै । इनका कहना है कि ये लोग इस धूल में प्रतिवर्ष नष्ट होने जा रहा ५ किलो सोना तथा २५० किलोग्राम चांदी निकाल कर राष्ट्र को आपूर्ति करते हैं । इस तरह राष्ट्र का ७५ लाख का सोना तथा ५० लाख की चांदी बचा लेते हैं । न्यारगर समाज के लोगों को धूल क्रय करने के लिए धन की आवश्यकता होती है । अत: वे साहूकारों से २.५ से ५.० प्रतिशत की ब्याज दर पर उधार लेते हैं । अगर हमारे व्यवसायिक अथवा सहकारी बैंक उन्हें कार्यशील पूंजी के लिए ऋण सुविधा प्रदान कर दें तो उन्हें साहूकारों के शोषण से मुक्ति मिल सकती है । जिस तरह किसानों के लिए क्रेडिट कार्ड की व्यवस्था की गई है, जिसके माध्यम से वे एक निश्चित मात्रा में राशि बैंक से कभी भी निकाल सकते हैं ऐसी ही व्यवस्था इस समाज के लिए भी कर दी जाए तो अपने इस कचरे से कंचन निर्माण के व्यवसाय में बड़ी सुविधा होगी । अनेक परिवार जो धन के अभाव में सराफों-स्वर्णकारों के परिसर की धूल क्रय ही नहीं कर सकते हैं वे श्हारों की नालियां साफ कर उसमें से धातुएं निकालते हैं । इस प्रक्रियामें उन्हें कभी-कभी सोना चांदी भी मिल जाता है । वर्षा ऋतु के दौरान इस तरह की चीजें मिलने की अधिक संभावना रहती हैं । परंतु इस कार्य को करने वालों की आय बड़ी अनिश्चित रहती है । कभी अच्छी कीमत की वस्तु मिल जाती है तो कभी कई दिनों तक उन्हें कुछ भी नहीं मिल पाता है । ये यथासंभव नष्ट हो रही संपदा को बचाकर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान देते हैं । ये लोग वर्ष के अधिकांश समय रामपुरा से बाहर रहते हैं । अत: उनके बच्च्े पढ़ नहीं पाते हैं और शीघ्र ही विद्यालय जाना छोड़ देते है । अनेक परिवारों की महिलाएं भी परिवार की निम्नस्तरीय आर्थिक स्थिति के कारण मजदूरी करने को बाध्य हो जाती है । यह समाज शराब, जुए जैसे व्यसनों से मुक्तहै । इनके अधिकांश वैवाहिक संबंध मंदसौर कोटा व पाटन के न्यारगर लोगों के साथ ही है । अगर सरकार इस कचरे से कंचन बनाने वाले समाज को समुचित प्रोत्साहन दे, इन्हें व्यावसायिक बैंकों से चालू पूंजी दिलाने की व्यवस्था कर दी जाए, इस व्यवसाय को कुटीर उद्योग की मान्यता देकर उद्योग जैसा संरक्षण दिया जाए तो इस समाज के लोग तो प्रगति करेंगे ही, साथ ही राष्ट्र की नष्ट हो रही संपदा को अधिक बेहतर ढंग से बचा सकेंगे । सोने जैसी बहुमूल्य धातुआें को कचरे से पुन: खोजकर निकालना धूरे से सोना जैसे मुहावरों को पूरी तरह से चरितार्थ करता है । ***

५ वन्य प्राणी

प्राणी हैं अनमोल
अरनब प्रतीम दत्ता
राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड (एन.बी.डब्ल्यू.एल.) ने राजस्थान सरकार के उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया है जिसमें उसने चम्बल नदी पर चार जल विद्युत परियोजनाआें के निर्माण का अनुरोध किया था । बोर्ड ने अपने दो सदस्यीय दल की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा है कि बांध घड़ियाल और डॉल्फिन के अंतिम आश्रयस्थली को भी समाप्त् कर देंगें । ये चारो परियोजनाएं राष्ट्रीय चंबल जल अभ्यारण्य के अंतर्गत संरक्षित ४२४ कि.मी. लम्बे हिस्से में आ रही हैं । वन्य जीव बोर्ड के दल का कहना है कि बांध के फलस्वरूप एक ऐसे ठहरे जलाशय का निर्माण होगा जो कि घड़ियाल व डॉल्फिन के निवास हेतु अनुपयुक्त है । घड़ियालों और डॉल्फिनों के लिए बहते पानी की आवश्यकता होती है, जबकि मगरमच्छर रूके पानी में भी रह लेते हैं । ये बांध मध्यप्रदेश और राजस्थान की सीमा प स्थित मध्यप्रदेश के मुरैना के निकट निर्मित होना थे । चंबल विकास योजना -खख कहलाने वाली ये परियोजनाएं वर्ष २००५ में मध्यप्रदेश व राजस्थान के मध्य हुए साझा समझौते का हिस्सा है। इन जल विद्युत परियोजनाआें की संयुक्त क्षमता २७० मेगावाट है । वन्य जीव बोर्ड की स्थायी समिति ने १९ फरवरी ०८ को पहली बार इन परियोजनाआें पर चर्चा की थी । राजस्थान के मुख्य वन्य जीव संरक्षक ने परियोजना निर्माण स्थल हेतु पर्यावरण प्रभाव आकलन के लिए सर्वेक्षण एवं निगरानी के वास्ते आवेदन किया था । समिति ने इस प्रार्थना को स्वीकार करते हुए कहा कि वह तब तक इस मसले पर गौर नहीं करेगी तब तक कि यह पूर्व अध्ययन नहीं किया जाएगा कि पर्यावरणीय स्वास्थ्य हेतु कितने न्यूनतम जलप्रवाह की आवश्यकता है एवं इसपरियोजना से जलचरों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? दिस.०७ एवं फरवरी ०८ के मध्य हुई ९० घड़ियालों की मौत ने भी समिति के निर्णय को प्रभावित किया है । चंबल में हाल ही में घड़ियालों की बड़े पैमाने पर हुई मौतों के मद्द्न्ेनजर समिति ने प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया है । राजस्थान ने राजस्थान राज्य विद्युत प्रसारण निगम लिमिटेड के माध्यम से बोर्ड की स्थाई समिति की २२ मई २००८ में होने वाली बैठक में सर्वेक्षण व जांच की पुन: अपील की । निगम का दावा है कि परियोजना की वजह से नदी में घड़ियालों और अन्य जलचरों को कोई खतरा नहीं है । जवाब में कहा गया है कि इससे घड़ियालों और मगरमच्छों के बचे रहने के अवसर और बढ़ जाएेंगें क्योंकि इससे नदी में साल भर न्यूनतम जल स्तर बना रहेगा । साथ ही यह भी दावा किया गया है कि पूर्व में उत्तरप्रदेश, जम्मू - कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश के संरक्षित क्षेत्रों में जलविद्युत परियोजनाआें की अनुमति दी गई है । विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ.) भारत के घड़ियाल संरक्षण के समन्वयक ध्रुव ज्योति बसु का कहना है कि यह परियोजना सरिसर्प की आखिरी बसाहट को भी समाप्त् कर देगी । राजस्थान सरकार द्वारा समिति को दिए गए लिखित ज्ञापन की समीक्षा करते हुए उन्होंने कहा है कि `` हीराकुण्ड एवं रामगंगा जलविद्युत परियोजनाआें जैसे अनेक उदाहरण हैं जहां पर निर्माण स्थलों के आसपास घड़ियाव व अन्य जलचरों का समूल नाश हो गया है । बांधों की वजह से नदी के ऊपरी हिस्से में पानी का जमाव हो गया है जो कि युगों से इस भौगोलिक क्षेत्र में निवास कर रहे जलचरों के निवास के लिए अनुपयुक्त हो गया है। इसका प्रमुख कारण है कि ये प्राणी बहने पानी में रहने के आदी हैं । '' बसु का कहना है कि - `मछलियों के आव्रजन हेतु बांध में बनाई जाने वाली सीढ़ियों से भी किसी प्रकार का हल नहीं निकलेगा। क्योंकि बांधों के कारण पानी की गहराई, बहाव व सूर्य की किरणों के भेदन में आए अंतर की वजह से पानी में भौतिक व जैव रासायनिक परिवर्तन आएेंगें । वन्य जीव बोर्ड ने अपनी बैठक में अपने पूर्व निदेशक एम.के.रंजीत सिंह एवं वैज्ञानिक बी.सी. चौधरी का दो सदस्यीय दल का गठन,योजना निर्माण स्थल की जांच हेतु किया । इस दल ने भी अपनी जांच रिपोर्ट में इन परियोजनाआें के खिलाफ अनुशंसा की है । श्री रंजीतसिंह ने बताया कि चंबल पर पिछले ५० वर्ष में निर्मित तीन बांधों के कारण जलचरों की दो प्रजातियंा विलुप्त् हो चुकी है । समिति का निष्कर्ष है कि प्रस्तावित परियोजना से मिलने वाले लाभ विलुप्त् हो जाने वाली जो प्रजातियों की हानि के मुकाबले नगण्य हैं। अतएव प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया गया । *

६ प्रदेश चर्चा

केरल : गुफा में रहता अंतिम समुदाय
एम.सुचित्रा/अजीब कोमाची
केरल के घने जंगलों में एक ऐसा आदिम समुदाय निवास करता है जिसने अपने पारंपरिक गुुफा निवास को अभी तक नहंी छोड़ा है । एशिया में यह आिख्ररी समुदाय है जो कि अभी भी गुफा में निवास कर रहा है । अपनी पारंपरिक जीवनशैली से उनका अद्भुत जुड़ाव है और तथाकथित आधुनिक सभ्यता उन्हें रास नहंी आई है । कोझीकोड से १०० कि.मी. का बस का सफर तय करके मैं और अजीब केरल के मालाप्पुरम जिले के छोटे से नगर निलांबर पहुंचे । कोझीकोड-ऊटी मार्ग पर स्थित इस नगर से कृष्णन जो कि राज्य के आदिवासी विभाग में अधिकारी हैं , भी हमारे साथ करूलाई संरक्षित वन में जाने के लिए साथ हो लिए । हम सब चोलानाईकन , एशिया में बची ऐसी एकमात्र जनजाति शेष है जो कि अभी भी गुफाआें में ही रहती है ,से मिलने जा रहे थे । करूलाई वर्षा वन पश्चिमी घाट स्थित उस नीलगिरि जीवनमंडल संरक्षित वन का हिस्सा है जो अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है । हमें बताया गया था कि इस घने वन क्षेत्र में ११ `अलाई' (गुफा, बसाहटें) बिखरी हुई हैं । उबड़ - खाबड़ कच्ची सड़क जो कि २० किमी. लम्बे इमारती लकड़ियों के जंगल से गुजरती है, ने हमें मंजीरी तक पहुंचाया । यहां के स्थानीय निवासी मोईनकुट्टी हमारे साथ हो लिए जो पिछले २५ वर्षोंा से निलांबर जनजाति विकास सहकारी समिति के अंतर्गत वन उत्पाद संग्रहण केन्द्र संचालित कर रहे हैं । मोईनकुट्टी इस जनजाति की बोली से भी भलीभांति परिचित थे । यहां से हमने पैदल चलना शुरू किया । सबसे नजदीकी की अलाई ६ किमी पर करीमप्झा में स्थित है । नमीवाले, पर्णपानी व हमेशा हरे-भरे रहने वाले इस घन वन में सुबह ११ बजे भी बहुत थोड़ी सी धूप जमीन तक पहुंच पाती है । हमने अपना रास्ता घनी बेलों, बांस के झुरमुटों, चमकदार फूलों और चित्तीदार चिड़ियाआें के बीच से गुजरते हुए पार किया । इससे पहले हमनें कभी भी यह सबकुछ नहीं देखा था । नीचे गहराई में सुनहरी नदी झिलमिलाती सी दिखाई पड़ी । एकाएक मोईनकुट्टी ने हमें रोक। फुसफुसाती आवाज में उसने कहा `कृपया शांत रहिए' । उन्होंने कहा ` समीप ही हाथियों का झुंड है और तेज आवाजों और अपरिचित गंध से वे उत्तेजित हो सकते हैं । इसके बाद मोईनकुट्टी हमें नजदीकी रास्ते से आगे ले गए । हमनें एक पहाड़ पर चढ़ना प्रांरभ किया । इसके बाद हम बेलों, खुली जड़ों और बांस के झुरमुटों के सहारे नीचे उतरे । जरा सा गलत कदम हमें नीचे ढुलका सकता था। अचानक हमनें स्वयं को एक चट्टान के ऊपर पाया और सामने देखा कि अनेक चोलनाईकन हमें अचंभित होकर देख रहे हैं । हम एक प्राकृतिक गुफा बसाहट के नजदीक पहुंच गए थे । उस वक्त वहां पर केवल दो परिवार मौजूद थे। करीमबुझा मथान और उसकी पत्नी करिक्का और करीमबुझा रवि और उसकी पत्नी,माँ और चार बच्च्े । वे सब अंगीठी के पास बैठे थे । रवि की पत्नी खाना बना रही थी और बच्च्े को अपना दूध भी पिलाती जा रही थी । पास बैठी करिक्का टोकनी बुन रही थी । गुफा में टंगी टोकनियों को देखते ही मुझे ध्यान आया कि कई घरों के ड्राइंर्ग रूम में मैने ऐसी टोकनियां देखी हैं । तभी मेरा एकाएक ध्यान गुफा के प्रवेश द्वार पर गया । वहंा पर मलयालम फिल्मों के सुपर स्टार ममूटी का चित्र चिपका हुआ था जिसे किसी पत्रिका से काटा गया था । मोईनकुट्टी का कहना है किये बसाहटें तुलनात्मक रूप से छोटी है । इन गुफाआें में सात परिवार एक साथ रहते हैं। कुछ समय पूर्व तक चेलानाईकन को कुट्टूनाईकन जनजाति की शाखा माना जाता था जो इसी घाटी में स्थित पड़ौस के वायनाड वन में निवासकरती है । २००२ में केरल सरकार ने इन्हें आदिम समुदाय के रूप में मान्यता दी । केरल अनुसूचित जाति जनजाति शोध, प्रशिक्षण और विकास संस्थान के हाल के अध्ययन के अनुसार इस जनजाति की कुल आबादी ३६३ है और इसमें से महिलाआें की संख्या १६१ ही है । मोईनकुट्टी का कहना था कि इस विपरीत लिंग अनुपात का अर्थ है कि चेालानाईकुट्टी या तो कुट्टुनाईकनों से विवाह करें या फिर कुंवारे ही रहें । यह जनजाति कन्नड़, तमिल और मलयालम की मिश्रित बोली बोलती है । दो से पांच परिवार एक समूह के रूप में रहते हैं , जिसे चेम्मन कहा जाता है । वृक्ष, नदियों और चट्टानों से सीमा का निर्धारण होता है । बारिश के मौसम में यह समुदाय स्वयं को गुफा में समेट लेता है । ठंड और गर्मी में वे बाहर आकर कंद, जड़ें, सूखे मेवे, फल, शहद, अदरक, जंगली काली मिर्च और रीठा इकट्ठा करके इसे मंजीरी स्थित सहकारी समिति कोदेकर इसके बदले में चावल, नमक, तेल और मिर्ची ले आते हैं । मोईनकुट्टी ने बताया कि ` ये अपने राशन कार्ड भी संग्रह केन्द्र में ही रखे रहते हैं । अधिकांश ने अपने मतदाता परिचय पत्र फेंक दिये हैं । इनमें से कुछ को २४० रू. प्रतिमाह वृद्धावस्था पेंशन भी मिलती है । वे पैसों के लिए २० कि.मी. पैदल चलकर निलांबर जाते हैं और ६५० रू. देकर जीप में लौटते हैं। सन् २००२ में निलांबर में इस आदिम जनजाति के लिए ही एक विशेषकर रहवासी विद्यालय खोला गया था । चोलानाईकन समुदाय ने अपने बच्चें को इसमें पढ़ने भी भेजा था । मोईनकुट्टी का कहना था कि आधे बच्च्े तो प्राथमिक शिक्षा पूरी होने से पहले ही वापस लौट गए । उनका कहना है कि जब वे जंगल में अपनी आदिम जीवनशैली में लौटेंगें तो इस विद्यालय की पढ़ाई उनके किसी काम नहीं आएगी। अब चूंकि वन की अर्थव्यवस्था भी बाजार आधारित व्यवस्था में बदल रही है तो ये भी मजदूरी करने लगे हैं । इस व्यवस्था का मकड़जाल, बर्तनों, कपड़ों और शराब के रूप में स्पष्ट रूप से दिखाई भी देने लगा है । पहले ये न तो कभी शराब पीते थे और न ही कर्जे में रहते थे । इस समुदाय के अठारह परिवारों को जंगल के छोर पर बसाया गया था । परंतु केवल पांच ही वहां पर बसे और बाकी के अपने गुफा घरों में लौट आए। लौटने का कारण हाथियों द्वारा लगातार किए जा रहे हमलों को बताते हैं । परंतु सच्चई यही है कि उन्हें अपने प्राकृतिक आवास में ही अच्छा लगता है । हालांकि आधुनिक समाज के प्रति उनमें कुछ आकर्षण भी पैदा हुआ है । लौटते हुए हमनें चोलानाईकनों को अभिवादनस्वरूप हाथ हिलाया, वे हमें अचंभित हो देखते रहे । लेकिन किसी ने भी यहां तक कि बच्चें ने भी हमारे अभिवादन का प्रत्युत्तर नहीं दिया । *** पत्र, एक पाठक का पानी पर लोगों के हक का सवाल पिछले दिनों उच्च्तम न्यायालय ने लोगों के दिल की बात कही है जो सरकार लोगों को पानी नहीं दे सकती, उसे सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है लेकिन हमारे राजनीतिक दलों के लिए लोकसभा चुनावों में यह कोई मुद्दा नहीं है । लगभग पूरे देश में पीने के पानी की समस्या गंभीरतम हो चुकी है । यह भविष्यवाणी सही हो या न हो कि अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर होगा, मगर लोगों के बीच पानी को लेकर शहर-शहर बस्ती पानी युद्ध जारी है । मालवांचल, छत्तीसगढ़ आदि तमाम क्षेत्रों के लोग पानी के लिए बुरी तरह तरस रहे हैं । न्यायमूर्ति काटजू और न्यायमूर्ति एचएल दत्तू को यह स्थिति परेशान करती है जिन्होंने दो महीने के अंदर विज्ञान तथा तकनॉलाजी सचिव के अंतर्गत एक समिति बनाने का सुझाव दिया है जो देश में जल समस्या के निवारण पर विचार करेगा । यह कितनी दुखद बात है कि हमारी तमाम सरकारें पेयजल की उपलब्ध्ता के बारे में इस बीच कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बना पाई हैं , न लागू कर पाई हैं । इस बीच तालाबों और कुआें को सूखने-बर्बाद होने दिया गया । बरसाती जल के संरक्षण के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाने के अलावा-जिनसे कि तमाम लोगों का मोटा कमीशन बनाता है - कोई गंभीर काम नहीं किया गया । समुद्रों के खारे पानी को मीठे जल में तब्दील करने की तकनॉलाजी के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं ली गई, नदियों को सूखने दिया गया, उन्हें गंदगी से भर जाने दिया गया । जमीन से पानी खींचने के लिए हैंडपंप तथा ट्यूबवेल खोदने की निर्बाध छूट दी गई । यह उस देश में हुआ, जहाँ नदियाँ ही नहीं, कुआें तक की पूजा होती है, जहाँ प्यासे को पानी पिलाना धर्म माना जाता है । हमारी विशाल ग्रामीण आबादी पानी के संकट से कैसे जूझ रही है, इसकी कहीं से कोई खबर नहीं आती । किस तरह कारखानों का प्रदूषित कचरा जलस्रोतों को प्रदूषित कर रहा है, इसकी किसी को परवाह नहीं है । न्यायमूर्ति काटजू को निर्णय देते हुए रहीम का दोहा याद आया, रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे, मोती, मानस, चून । यह दोहा पानी की बात एक अलग स्तर पर कहता है, मगर हमारे अपने समय के बड़े कवि रघुवीर सहाय ने पानी और इसकी राजनीति पर कोई तीन दशक पहले कविता लिखी थी । वह पानी के लिए तरसने की राजनीति की परतें उघाड़ते हुए कहती है कि जिस धरती को पानी नहीं मिला, उस धरती को आजाद नहीं कहा जा सकता है ।एस.एन. शर्मादक्षिण साकेत, नई दिल्ली -३०

७ पर्यावरण परिक्रमा

पर्यावरण प्रभाव आकलन में संशोधन का विरोध
दुनियाभर के ५०० से अधिक पर्यावरणविदों, जनआंदोलनों, सामाजिक कार्यकर्ताआें, सामाजिक नेटवर्क, गैर सरकारी संगठन, भारत एवं विश्व भर के प्रबुद्ध नागरिकों ने भारत सरकार से अपील की है कि वह पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना - २ ००६ में प्रस्तावित संशोधन से संबंधित सारी कार्रवाई पर रोक लगाए । प्रधानमंत्री जिनके पास पर्यावरण व वन मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी है को लिखे पत्र में कहा गय है कि इन संशोधनों के लिए चुना गया समय और प्रस्तावित संशोधनों का मसौदा अनेक औद्योगिक इकाईयों को सहयोग पहुंचाने वाला प्रतीत होता है यह शोचनीय है कि इसके अनेक लाभार्थी यू.पी.ए. को बड़ी मात्रा में चुनावी चंदा भी देते हैं । ऐसे में चुनावों के समय इस तरक की कार्रवाई शंका पैदा करती है । संशोधनों का मसौदा १९ जनवरी ०९ को अधिसूचित किया गया और इस पर ६० दिनों के भीतर सिर्फ मंत्रालय की वेबसाईट पर ही जवाब देना है । इन संशोधनों से प्रदूषण फैलाने वाली अनेक औद्योगिक इकाईयों जैसे टाटा, महिन्द्रा, टोयोटा व अन्य विशाल वाहन कंपनियां लाभान्वित होंगीं । बैंगलोर स्थित पर्यावरण समर्थन समूह और केम्पेन फोर इन्वायरमेंटल जस्टिस की भारत शाखा ने इसे भारतीय संविधान की मूल भावना के विरूद्ध बताया है । साथ ही इसका विरोध करने की अपील की है । चुनाव में भोपाल गैस त्रासदी को भूल गए भोपाल गैस त्रासदी की यादें भले ही उसके शिकार बनें लोगों के परिवारों की नींद उड़ा देने वाली हो , मगर जनता का हमदर्द होने का दावा करने वाले नेताआें के लिए वह कोई अहमियत नहंी रखती है । यही वजह है कि अभी सम्पन्न लोकसभा चुनाव के घोषणापत्रों से लेकर प्रचार अभियानों में गैस त्रासदी का कहीं जिक्र नहीं था । इस त्रासदी को २४ बरस बीत चुके हैं ।दो और तीन दिसम्बर १९८४ की रात को याद करते ही लोग कांप उठते हैं। त्रासदी के पहले सप्तह में जहां आठ हजार से ज्यादा लोगों ने दम तोड़ा था , वहीं दीर्घकालिक प्रभाव सहित मौतों का कुल आंकड़ा अब १५ हजार को पार कर चुका है । त्रासदी में कुल प्रभावितों की संख्या ५ लाख ७४ हजार के करीब है । बीते २४ वर्षोंा में इन प्रभावितों की जिंदगी बद से बदतर होती जा रही है । लेकिन राजनीतिक दल और उनसे जुड़े नेता इसे पूरी तरह भूला चुके हैं । गैस त्रासदी के शिकार बने लोगों की बात करें तो उन्हें न तो अब तक समुचित मुआवजा मिला है और न ही वे शोध आधारित इलाज का लाभ पा सके हैं । इतना हीनहीं पीड़ितों को कार्यक्षमता घटने के अनुरूप रोजगर के अवसर भी उपलब्ध कराने की दिशा में पहल नहीं हुईहै । यूनियन कार्बाइड कारखाने के ईद गिर्द बसी बस्तियों के लोगों को पीने का स्वच्छ पानी तक मयस्सर नहीं है । भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के मुखिया और गैस पीड़ितों की लड़ाई के अगुआ अब्दुल जब्बार तमाम राजनीतिक दलों तथा सरकारों के रवैये से नाउम्मीद हो चुके हैं। वे कहते हैं कि वक्त गुजरने के साथ ही नेताआें ने गैस पीड़ितों के दर्द को भुला दिया है । यही वजह है कि पार्टियों के घोषणापत्रों से लेकर नेताआें के भाषणों तक में गैस पीड़ितों की समस्याआें को जगह नहीं मिली । कांग्रेस राज्य इकाई के प्रवक्ता मानक अग्रवाल मानते हैं कि वक्त गुजरने के साथ गैस पीड़ितों की समस्याआें पर तमाम दलों का ध्यान पहले की तुलना में कम हो चला है । भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता उमाशंकर गुप्त गैस पीड़ितों को उनका हक न मिल पाने के लिए केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं । उनका कहना है कि एक ओर प्रदेश सरकार गैस पीड़ितों को सुविधाएं दिलाने के लिए प्रयासरत हैं वहंी केन्द्र से आवश्यक सहयोग नहंी मिल पा रहा है । इको फ्रेंडली लेपटॉप बनेगा ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए अब लेपटॉप को भी अब इको फ्रेंडली बनाने का प्रयास किया जा रहा है । इसी कोशिश के परिणामस्वरूप एक इको फ्रेंडली लेपटॉप बनाने में वैज्ञानिकों को सफलता भी हाथ लगी है । हालंाकि इस उत्पाद का अभी प्रोटोटाइप ही बना है और कंपनी के इंजीनियर अब यह पता लगा रहे हैं कि क्या बांस की बॉडी लेपटॉप के लिए उपयुक्त रहती है या नहीं । निजी कम्प्यूटींग की शुरूआत ७० के दशक में शुरू हुई थी जब एपल के सर्वेसर्वा स्टीव जॉब्स और उनके मित्र स्टीव वो नैल ने एपल १ नामक निजी कम्प्यूटर बनाया था । उस कम्प्यूटर में एक सर्किट बोर्ड था जिसे एक लकड़ी के बक्से में लगाया गया था ।आज दुनिया काफी आगे निकल गई है और निजी कम्प्यूटिंग लेपटॉप से होते हुए पामटोप और अब मोबाईल कम्प्यूटिंग तक आ गई है । बहरहाल इस समय भारत में लेपटॉप की बिक्री जोरों पर है और कंपनियां ग्राहकों को रिझाने के लिए तरह- तरह के नए - नए मॉडल बाजार में उतार रही हैं । ताइवान की आसुस्टेक कम्प्यूटर ने बीते हुए जमाने को फिर से याद करते हुए इको फ्रेंडली बम्बू लेपटॉप का एक सीमित स्टॉक जारी किया है । बम्बू यानी कि बांस जाहिर तौर पर बहुत ही लचीला होता है और साथ ही लम्बे समय तक खराब भी नहीं होता है तथा इसमें प्लास्टिक में पाए जाने वाले खतरनाक टोक्सीन भी नहीं होते हैं जिससे कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचे । इस इको फ्रेंडली लेपटॉप का अधिकतर हिस्सा बांस की सिल्लियों को जोड़कर बनाया गया है । कंपनी का दावा है कि यह लेपटॉप दुनिया का सबसे अधिक इको फ्रैंडली उत्पाद है । हालांकि वह यह भी मानती है कि बांस की सिल्लियों को जोड़ने के लिए तथा उनपर लेकिनेशन करने के लिए इस्तेमाल किए गए गोंद में सीमित मात्रा में टॉक्सिन जरूर है । हालांकि यह उत्पाद का अभी प्रोटोटाईप ही बना है और कंपनी के डिजाइनर अब यह पता लगा रहे हैं कि क्या बांस की बॉडी लेपटॉप के लिए उपयुक्त रहती है या नहंी । लेकिन पर्यावरण की सुरक्षा के लिए नए पदार्थोंा का उपयोग करने में आसुस के अलावा अन्य कई कंपनियां भी आगे आ रही है । एपल का दावा है कि वह अगले साल के अंत तक अपने सभी उत्पादों में पीवीसी और बी.एफ.आर. का उपयोग बंद कर देगी । इसी प्रकार डेल और लेनोवो भी पी.वी.सी. के उपयोग पर पाबंदी लाने की वकालत करती है । गौरतलब है कि वर्तमान समय में लेपटॉप का खाका जिस प्लास्टिक और पीवीसी की कोटिंग से तैयार होता है । उनमें पाए जाने वाले टोक्सीन से पर्यावरण को बहुत हानिक पहुँचती है । आसुस और अन्य उत्पादक यदि इस मामले में थोड़ी बहुत भी जागरूकता बरतते है तो वह दुनिया के पर्यावरण संतुलन पर काफी सकारात्मक असर डाल सकती है । सात जिलों में होगी कच्च्े तेल की खोज मध्यप्रदेश, हरियाण में कच्च्े तेल व प्राकृतिक गैस के भंडार होने के अनुमान पर पेट्रोलियम मंत्रालय की कवायद तेज हो गई है । म.प्र. के तीन और हरियाणा के चार जिलों के कुल ६,१४७ वर्ग किमी क्षेत्र में जल्द ही कच्च्े तेल के भंडार की खोज की जाएगी । पेट्रोलियम मंत्रालय के सचिव आर.एम. पांडे ने यह जानकारी दी । श्री पांडे ने बताया कि इन क्षेत्रों का चयन न्यू एक्सप्लोरेशन एंड लाइसेंसिंग पॉलिसी (नेल्प) के आठवें चरण के लिए किया गया है । इस चरण में करीब ७० ब्लॉकों की बोली की प्रक्रिया शुरू की जा रही है । इसके तहत मध्यप्रदेश के तीन जिलों-पन्ना, दमोह और छतरपुर के ४,२१७ वर्ग किमी के क्षेत्र तथा हरियाणा के चार जिलों-पंचकूला, अंबाला, यमुनानगर ओर कुरूक्षेत्र का १,९३० वर्ग किमी का क्षेत्र तेल की खोज करने वाली कंपनियों के दियाजाएगा । मप्र में तेल व गैस मिलने से राज्य की आय में इजाफा होगा । नेल्प के तहत होने वाली खोज के तहत राज्य में उत्पादित तेल व गैस की करीब पचास फीसदी रायल्टी पर राज्य का अधिकार होता है । खनन संबंधित गतिधियों के शुरू होने से रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे । अगर पंचकूला से लेकर कुरूक्षेत्र में तेल व प्राकृतिक गैस की खोज में सफलता मिलती है तो हरियाणा को सालाना अरबों रूपए की रॉयल्टी मिलेगी । राज्य में तेल की खोज शुरू होने के साथ ही आर्थिक गतिविधियां भी बढ़ जाएंगी और रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे । बंजर जमीन पर लगेंगे पौधे म.प्र. में जल्द ही बंजर धरती पर भी हरे-भरे पौधे लहलहाते नजर आएँगे । बंजर जमीन पर हरियाली लाने के लिए राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मलाजखंड में किए गए एक प्रयोग के अच्छे नतीजे मिले हैं । यहाँ तांबे की खानों से निकले अनुपजाऊ रेतीले अपशिष्ट पर एक कवक (फंजाई) के माध्यम से पौधे उगाए गए हैं । बोर्ड से प्राप्त् जानकारी के अनुसार इस प्रोजेक्ट के तहत मलाजखंड में नवंबर २००८ में पौधे रोपे गए थे, जिनमें से ८० फीसदी अभी तक जीवित हैं । इससे साबित हो गया है कि एक कवक की मदद से बंजर जमीन को भी उपजाऊ बनाया जा सकता है। नॉर्दर्न कोल फील्ड्स लिमिटेड की मलाजखंड खानों के आसपास मीलों क्षेत्र में अनुपजाऊ रेत (ओबीडी) बिछी हुई है । इसमें कोई भी पोषक तत्व न होने के कारण कुछ भी नहीं उगता है । बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष प्रो.एसपी गौतम की पहल पर सीपीसीबी के सहयोग से बंजर जमीन को हरा-भरा प्रोजेक्ट शुरू किया गया था । इस प्रोजेक्ट के तहत मलाजखड के ५०० हैक्टेयर के रेतीले इलाके में से १ हैक्टेयर का चुनाव पौधारोपण के लिए किया गया था । यहाँ पर अरबस्कुलर माइकोराइजा नामक कवक को ग ों में डालकर उसके ऊ पर पेड़-पौधे लगाए थे । प्रोजेक्ट के निरीक्षण में नवंबर २००८ में यहाँ रोपे गए शीशम, नीम, जेट्रोफा, बाँस, आँवला, जामुन आदि के पौधों में से ८० फीसद जीवित पाए गए हैं । ***

८ कविता

वृक्ष
-डॉ. स्वदेश मलहोत्रा `रश्मि'
निस्वार्थ देते छाँवठाँव-ठाँवजाति भेद से परे ।कृष्ण का अनुरागी स्वाभाव से त्यागी,हर युग में समदेने का दमसदा ही भरे ।जन-जन का प्रेमीप्रकृति से नेमी,प्रतिशोधो से परेनिरन्तर दे रहा सन्देशदेना सीखो-विष पीके भीजीना सीखोदीर्घायु तक-मेरी तरहरहोगे - रश्मि'तुम - हरे भरे ।
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९ ज्ञान विज्ञान



मच्छरों से निपटने में नकली फूलोंकी मदद

मच्छर वैसे तो खून चूसने के लिए मशहूर हैं लेकिन वे ज्यादातर समय फूलों का रस ही चूसते हैं । जॉर्जिया सदर्न विश्वविद्यालय के थॉमस कोलार्स मच्छरों की इस आदत और फूलों के आकर्षण का इस्तेमाल मलेरिया, डेंगू पीत, ज्वर जैसे रोग फैलाने वाले मच्छरों को पकड़न का प्रयास कर रहे हैं । इसके लिए कोलार्स ने नीले, हरे, लाल, पीलें रंगों के फूलों के आकार के प्लास्टिक के पिंजरे तैयार किए हैं । ये रंग आम तोर पर मच्छरों को लुभाते हैं । पिंजरे के बीच में एक तश्तरी पर मीठा द्रव रखा जाता है जिसमें एक बैक्टीरिया (बीटी) का विष घोल दिया गया है । बीटी विष वास्तव में एक कीटाणु नाशी है जो मच्छरों को मारने के लिए विशेष रूप से तैयार किया गया है । एक पतली जाली की मदद से बन्य कीटों को अंदर आने से रोका जाता है और सिर्फ मच्छरों की सूंड ही अंदर घुस पाती है । प्रयोगशाला में किए गए प्रयोग के दौरान यह यंत्र मच्छरों को मारने में सफल रहा । कोलार्स अब इसका परीक्षण प्रयोगशाला के बाहर मैदानी परिस्थिति में करने जा रहे हैं ।




खून का मलबा पकड़वाएगा खिलाड़ियों को




खेलकूद प्रतिस्पर्धाआें में प्रदर्शन बेहतर बनाने के लिए कुछ एथलीट्स दवाईयों का सेवन करते हैं । प्रतिस्पर्धा के आयोजक इस तरह के तौर-तरीकों पर अंकुश लगाने और इन्हें पकड़ने के लिए तरह-तरह की जांच का सहारा लेते हैा । मगर एक नाजायज़ तरीका ऐसा है जिसे पकड़ने के लिए परीक्षण विकसित करना खासा मुश्किल रहा है । अब लगता है कि यह तरीका भी जांच के दायरे में आ ही जाएगा । खिलाड़ी करते यह हैं कि प्रतिस्पर्धा से कुछ समय पहले अपना कुछ खून निकालकर अलग रख देते हैं । शरीर इस खून की पूर्ति कर लेता है । फिर प्रतिस्पर्धा से पहले खिलाड़ी वह निकालकर रखा गया खून वापिस अपने शरीर में डाल लेते हैं । इस तरह से उनके शरीर में अतिरिक्त खून हो जाता है और उनकी मांसपेशियों को अतिरिक्त ऑक्सीजन मिलती है, जिससे वे बेहतर काम कर पाती हैं । चूंकि डाला गया खून स्वयं का होता है, इसलिए इसकी जांच नहीं हो पाती। मगर जर्मनी के फ्राइबर्ग विश्वविद्यालय के ओलफ शूमाकर और उनके साथियों ने इस धोखाधड़ी को पकड़ने का एक तरीका खोज निकाला है । शूमाकर व साथियों ने ६ सामान्य लोगों के शरीर से कुछ खून निकालकर अलग रख दिया और ३५ दिन बाद उसे वापिस उनके शरीर में डाल दिया। एक और दो दिन बाद इन लोगों के रक्त के नमूनों की जांच करने पर पता चला कि उनके खून की सफेद रक्त कोशिकाआें में वह जीन अधिक सक्रिय था जो क्षतिग्रस्त कोशिकाआें को पहचानने व उनका सफाया करने में भूमिका निभाता है। शूमाकर के मुताबिक शरीर से निकालकर भंडारण के दौरान लाल रक्त कोशिकाएँ टूटने लगती हैं और उनकी कोशिका झिल्लियों वगैरह का मलबा जमा हो जाता है । जब इस खून को वापिस शरीर में डाला जाता है तो सफेद रक्त कोशिकाएँ इस मलबे को साफ करने सक्रिय हो उठती है । इस प्रक्रिया को देखा जा सकता है क्योंकि जीन के सक्रिय होने पर उसका परिणाम सफेद रक्त कोशिकाआें की सतह पर नजर आता है । वैसे अभी यह नहीं कहा जा सकता कि यह परीक्षण अगले ओलंपिक खेलों (२०१२) तक इस रूप में विकसित हो जाएगा कि इसका इस्तेमाल किया जा सके क्योंकि किसी भी परीक्षण को अपनाने से पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि कहीं उसमें बेगुनाह एथलीट्स तो नहीं फंसेंगे । यानी अभी काफी शोध कार्य की जरूरत होगी । फिर भी इस खोज में एक दिशा तो मिली ही है ।




चेतना पूरे दिमाग में फैली है




वैज्ञानिक इस बात पर लंबे समय से शोध करते आए हैं कि क्या मनुष्य के मस्तिष्क में चेतना का कोई विशेष स्थान है या यह पूरे दिमाग के समन्वय का परिणाम है। यहां चेतना से आशय भावनाआें के अलावा खास तौर से इस बात से है कि क्या व्यक्ति स्वयं को एक स्वतंत्र इकाई मानती है और क्या उसे यह भान है कि अन्य व्यक्तियों की भी उसी की तरह स्वतंत्र मंशाएं और इरादे हैं । मस्तिष्क में यह चेतना कहां स्थित है, इस बात का पता लगाना आसान काम नहीं है । हाल ही में मिर्गी ग्रस्त कुछ मरीजों के अध्ययन से इस दिशा में कुछ संकेत मिले है। चेतना की प्रक्रिया का अन्वेषण करने में दिक्कत यह आ रही है कि हमारे पास तकनींके है उनमें दिमाग में इलेक्ट्रोड वगैरह फिट करने होते हैं । यदि इनके बगैर अनुसंधान की कोशिश की जाए तो पूरी जानकारी नहीं मिलती । अब यह तो संभव नहीं है कि अच्छे-खासे स्वस्थ लोगों के दिमाग में इलेक्ट्रोड लगाकर शोध कार्य किया जाए । मगर फ्रांस के इलेक्ट्रोड लगाकर शोध कार्य किया जाए । मगर फ्रांस के इनसर्म के तंत्रिका वैज्ञानिक राफेल गैलार्ड और उनके साथियों ने एक अनोखे अवसर का लाभ उठाकर यह काम करने का प्रयास किया है । उन्हें १० ऐसे मरीज़ मिल गए जो दवा-प्रतिरोधी मिर्गी से पीड़ित हैं और इसलिए उपचार हेतु उनके दिमाग में वैसे ही इलेक्ट्रोड लगाए गए हैं। गैलार्ड ने इन मरीजों में चेतना संबंधी प्रयोग किए । उक्त इलेक्ट्रोड्स से प्राप्त् संकेतो का निरीक्षण करते हुए गैलार्ड व साथियों ने इन लोगों के सामने २९ मिलीसेकंड के लिए कुछ शब्द चमकाए । ये शब्द या तो डराने वाले थे (जैसे हत्या, गुस्सा) या भावात्मक दृष्टि से उदासीन थे (जैसे रिश्तेदार, देखना)। कभी-कभी इन शब्दों के बाद दृश्य `नकाब' होती थी, जिसकी वजह से शब्द को सचेत रूप से पकड़ पाना मुश्किल हो जाता था । कई बार ऐसा भी होता था कि इस `नकाब' का उपयोग नहीं किया जाता था । मरीज़ को उस शब्द की प्रकृति बतानी होती थी । इससे शोधकर्ताआें को यह पता चल जाता था कि व्यक्ति उसके प्रति सचेत है या नहीं। इस तरह से शोधकर्ताआें को इन व्यक्तियों के जवाब और साथ में इलेक्ट्रोड के ज़रिए मस्तिष्क के विभिन्न भागों की गतिविधि की जानकारी प्राप्त् हो गई । इस अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि जब व्यक्ति शब्द के प्रति सचेत होता है, तो मस्तिष्क से उत्पन्न संकेतों का वोल्टेज बढ़ जाता है । दूसरा यह भी पता चला कि सचेत प्रयास में दिमाग के विभिन्न हिस्सों के संकेत आपस में तालमेल बनाते हैं । इसका मतलब है कि दिमाग के अलग-अलग हिस्सों में तंत्रिकाएं तालमेल से सक्रिय होती है ।और इस तरह की समन्वित गतिविधि तभी देखने को मिली जब व्यक्ति शब्द के प्रति सचेत हो। इसके आधार पर गैलार्ड का निष्कर्ष है कि चेतना का दिमाग में कोई एक निर्धारित स्थान हैं बल्कि वह पूरे दिमाग की समन्वित क्रिया का नतीजा है ।




वैम्पायर का कंकाल मिला




वेनिस मेें एक कब्र की खुदाई करने पर एक कंकाल मिला है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वह एक वैम्पायर का है ावैम्पायर यूरोप में बहुत प्रसिद्ध रहे हैं और उनके बारे में कहा जाता था कि वे इंसानों का खून पीते थे । मध्य युग में जब यूरोप में प्लेग फैला था तब हजारों लोग मारे गए थे । कई जगहों पर इन्हें सामूहिक रूप से दफनाया गया था । इटली के फ्लोरेंस विश्वविद्यालय के मैटियो बोरिनी वेनिस में लेज़रेंटो नुओवो द्वीप पर ऐसी ही सामूहिक कब्र खोद रहे थे । यहां से उन्हें एक महिला का कंकाल मिला जिसके मुंह में एक इंर्ट फंसी हुई है । यह इंर्ट फंसा कंकाल एक दंतकथा का प्रमाण पेश करता है । जिस समय इस महिला की मृत्यु हुई थी, उस समय कई लोग मानते थे कि प्लेग वैम्पायरों द्वारा फैलाई जाने वाली बीमारी है । ये वैम्पायर लोगों का खून पीने क ी बजाए मरने के बाद अपने कफन को चबाते हैंऔर बीमारी को फैलाते हैं। प्रचलित मान्यता के चलते कब्र तैयार करने वाले ऐसे संदिग्ध वैम्पायरों के मंुह में एक इंर्ट फंसा देते थे ताकि वे कफन न चबा सकें । वैम्पायरों के बारे में इस मान्यता का आधार शायद यह था कि कभी कभी शव के मुंह से खून टपकता है जिसके कारण कफन मुंह में धंस जाता है और फट जाता है। ***

बुधवार, 13 मई 2009

११ प्राणी जगत

वन्य जीव विनाश: ज़िम्मेदार कौन ?
- सुनील
वन्य प्राणियों की घटती संख्या आधुनिक दुनिया की एक प्रमुख चिंता है । कुछ प्रजातियां लुप्त् होने की कगार पर है ओर उनके संरक्षण के लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं । भारत में १९७३ से प्रोजक्ट टाइगर चलाया जा रहा है । शेरों और अन्य वन्य प्राणियों को बचाने के लिए राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य एवं टाइगर रिज़र्व बनाए जा रहे हैं । देश में अभी तक लगभग ६०० राष्ट्रीय उद्यान एवं अभयारण्य अधिसूचित किए जा चुके हैं । इनमें से कई को प्रोजेक्ट टाइगर में शामिल करके करीब ३० टाइगर रिजर्व बना गए हैं । इन तमाम क्षेत्रों में स्थानीय गांववासियों द्वारा जंगल के उपयोग - वनोपज संग्रह, चराई, निस्तार, खेती और निवास पर तरह-तरह की पाबंदियां लगाई जा रही हैं । साल-दर-साल यहां के नियम कानूनों को और सख्त बनाकर ये पाबंदियां बढ़ाई जा रही हैं । इन क्षेत्रों के अंदर बहुत सारे गांव भी हैं । करीब ४० लाख लोग यहां रहते हैं जिनमें से ज़्यादातर आदिवासी हैं । इन गांवों को हटाकर बाहर बसाने की भी मुहिम चल रही हैं । इन पाबंदियों और विस्थापन से गांववासियों पर काफी बड़ी मुसीबत आ गई है । कई जगह वे विरोध भी कर रहे हैं । लगभग हर संरक्षित क्षेत्र में वन विभाग और स्थानीय गांववासियों के बीच टकराव और असंतोष के हालात बने हुए हैं । वन्य प्राणियों के संरक्षण की इन योजनाआें और नियम कानूनों के पीछे यह सोच एवं मान्यता है कि उनके नष्ट होने के प्रमुख कारण वहां पर गांवों की मौजूदगी, उनके द्वारा जंगल का उपयोग और इसके कारण पैदा होने वाला दबाव हैं, यदि उन्हें हटा दिया जाए और जंगल मे घुसने से रोक दिया जाए, तो वन्य प्राणी बच जाएंगे । इस मान्यता की कभी ज़मीनी जांच नहीं हुई । वैज्ञानिक अध्ययन एवं शोध भी इसकी पुष्टि नहीं करते । आलोचकों का कहना है कि आदिवासी तो हज़ारों सालों से जंगलों में रह रहे हैं, जंगल एवं वन्य प्राणियों के साथ उनका सहअस्तित्व रहा है । यदि उनके रहने से और उनके द्वारा जंगल के उपयोग से शेर एवं अन्य वन्य प्राणी नष्ट होते तो कई सदियों पहले ही नष्ट हो जाने चाहिए थे । जंगलों एवं वन्य जीवन के नष्ट होने के दूसरे बाहरी कारण हैं, जिन्हें खोजा जाना चाहिए और दूर किया जाना चाहिए । पिछले कुछ समय में ऐसे अध्ययन एवं जानकारियां सामने आई हैं, जिनसे इस बहस का अंतिम फैसला हो जाना चाहिए । एक महत्वपूर्ण किताब भारत का वन्य जीवन इतिहास कुछ साल पहले छपकर आई है । इसके लेखक वनों के एक प्रसिद्ध अध्येता महेश रंगराजन है । श्री रंगराजन ने अच्छी तरह से बताया है कि भारत में जंगलों एवं जंगली जानवरों का सबसे बड़ा, व्यवस्थित और योजनाबद्ध विकास अंग्रेजों के राज में हुआ था । ज़्यादा से ज़्यादा राजस्व कमाने के चक्कर में अंगे्रज़ शासकों ने जंगल जमकर कटवाया, बेचा और खेती का विस्तार किया। खेती और पशु पालन के विस्तार में शेरों व अन्य जंगली जावरों को एक रूकावट माना गया । श्री रंगराजन के अनुसार अंग्रेज़ी राज ने शेरों व जंगलों के खिलाफ एक तरह का युद्ध छेड़ दिया था । शेरों एंव अन्य हिस्र पशुआें का मारने के लिए उन्होंने तथा उनकी देखादेखी देशी राजाओं ने इनाम घोषित किए थे । स्वयं अंग्रेज़ सरकार के रिकॉर्ड के मुताबिक १८७५ से १९२५ के बीच ८०,००० से ज़्यादा शेर, १,५०,००० तेंदुए और २,००,००० भेडिए मारे गए थे । ये वे संख्याएं है, जिनके लिए इनाम दिए गए थे । श्री रंगराजन का मानना है कि वास्तविक शिकार इससे तीन गुना ज़्यादा हुए होंगे । इसी अवधि में भारतीय चीता हमेशा के लिए लुप्त् हो गया । शिकार को मनोरंजन और मौज-मस्ती के एक खेल के रूप में भी इस काल मे बहुत बढ़ावा मिला । विशेषकर राजा-महाराजाआें, नवाबों ओर जागीरदारों-जमींदारों ने इस काल में शिकार के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए । अंग्रेजों के पराधीन होने के बाद ये सब लोग फुरसत में थे । उनकी बहादुरी की परीक्षा जंगलों में शिकार में ही होने लगी । हर राजमहल में शेरों व बारहसिंगों के मस्तक शोभा बढ़ाते टंगे रहते थे । सरगुजा के महाराजा रामानुजशरण सिंहदेव सबसे बड़े शूरवीर साबित हुए । उन्होंने अकेले ११८० शेरोंओर २००० तेंदुआें का शिकार किया । उदयपुर महाराजा ने भी अपने जीवनकाल में एक हज़ार से अधिक शेरों को मारा । ग्वालियर के सिंधिया महाराजा और उनके मेहमानों ने ९०० से अधिक शेर मारे । गौरीपुर और रीवा के राजा ने पांच-पांच सौ शेर मारे । रीवा रियासत के जंगलों में तो दुर्लभ सफेद शेर पाए जाते थे, जो अब लगभग लुप्त् हो गए हैं । पिछले डेढ़ सौ सालों में ३६४ सफेद शोरों का शिकार हुआ है । बीकानेर के महाराजकुमार सार्दुल सिंह की शिकार डायरी प्रकाशित हुई हैं, जिसके मुताबिक उन्होंने अपनी रियासत के अलावा भरतपुर, सौराष्ट्र, मध्यभारत और नेपाल की तराई तक और अफ्रीका के जंगलों में भी जाकर शिकार का शौक पूरा किया । सार्दुल सिंह ने कुल लगभग ५०,००० जानवरों ओर ४६०० पक्षियों को शिकार किया, जिनमें एक सिंह और ३३ शेर शामिल थे । टोंक के नवाब ने कुल ६०० शेर मारेथे । जयपुर के कर्नल केसरी सिंह का दावा था कि उन्होंने शेरों के एक हज़ार से ज़्यादा शिकार में भाग लिया है । जयपुर की महारानी गायत्री देवी भी शिकार करने जाती थी । वे शादी से पहले कूचबिहार की राजकुमारी थी, जहां उन्होंने ५ वर्ष की उम्र में पहला शिकार किया था और १२ वर्ष की उम्र में एक तेंदआ मार गिराया था । शेरों और वन्य प्राणियों के इस कत्लेआम में अंगे्रज़अफसर भी पीछे नहीं रहे । शिकार के लिए अंगे्रजी शब्द गेम और पशु के सिर के लिए ट्राफी शब्द इसी समय से भारत में प्रचलित हुए । वर्ष १९०० से पहले ४०० शरों कों मारने वाल जॉर्ज मूल और २२७ शेर मारने वाले मोन्टेग्यू गेरार्ड बड़े शिकारी थे । विलियम राइस ने १८५० से १८५४ के बीच १५८ शेरों का शिकार किया था । कर्नल नाईटेन्गल ने हैदराबाद रियासत में ३०० से ज़्यादा शेरों को मारा । गार्डन कमिंग ने लगभग १०० शेर मारे । ब्रिटेन वायसरायों ने भी भारत में शेरों का शिकार किया । जिम कॉर्बेट के नाम से आज उत्तर भारत का एक प्रमुख राष्ट्रीय उद्यान है। उन्हें भारत में शेरों के शिकार के किस्सों की उनकी किताब ने उन्हें अंग्रेजी पाठकों में बहुत लोकप्रिय बनाया । देश आज़ाद होने के बाद भी शेरों और अन्य जंगली जानवरों का शिकार खुलेआम चलता रहा । वर्ष १९७२ में वन्य प्राणी संरक्षण कानून बनने के बाद यह गैर कानूनी घोषित हुआ और रूका । एक अनुमान के मुताबिक १९०० में देश में लगभग ४० हज़ार शेर थे । अंधाधुध शिकार के चलते १९७२ तक उनकी संख्या घटकर १८०० रह गई थी । ज़ाहिर है, इस देश केे शेरों व अन्य वन्य प्राणियों के विनाश के असली गुनहार राजा-महाराजा-नवाब हैं जिन्हें १९७२ के पहले वन्य प्राणियों को बचाने की सुध नहीं आई थी । शेरों और अन्य जंगली जानवरों पर संकट आने का एक और बड़ा कारण जंगलों का सिमटते जाना है । बड़े बांधों, खदानों, कारखानों, राजमार्गोंा, शहरीकरण और ,खेती के विस्तार ने काफी जंगल निगल लिया है । वन्य प्राणियों के रहने की जगह व भोजन कम होता जा रहा है । वे खेतों और गांवों की ओर रूख कर रहें हैं तथा गांववासियों से उनका टकराव बढ़ता जा रहा है । जंगल कम होते जाएंगे और जंगली जानवर बच जाएंगे, यह उम्मीद करना फिज़ूल है । विकास की पूरी दिशा बदले बगैर मात्र कुछ राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य या टाइगर रिज़र्व बनाकर वन्य प्राणियोंको बचाने की कोशिश अपने आप में विसंगतिपूर्ण है, जिसके कारण कई समस्याएं पैदा हो रहीहैं । इसके चलते वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों एंव अन्य वनवासियों पर काफी अत्याचार हो रहे हैं । वे पहले से देश के सबसे दलित, वंचित, उपेक्षित और गरीब समुदाय हैं । जंगल और ज़मीन उनकी जिंदगी की प्रमुख सहारा हैं । उसे भी छीना जा रहा है । जिस गुनाह में उनकी कोई भागीदारी नहीं रही, उसकी सज़ा उन्हें दी जा रही है । विडंबना यह है कि देश के जिस शासक वर्ग और अभिजात्य वर्ग ने शरों का शिकार किया और जो आधुनिक विकास का भरपूर फायदा उठा रहा है, वही आज वन्य प्राणी संरक्षण का चैम्पियन बन गयाहै । एक.के.रणजीतसिंह स्वयं राजपरिवार से थे, १९७२ के कानून का मसविदा तैयार करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही । वन्य जीव संरक्षण की बढ़-चढ़कर हिमायत करने वाले कई लोग स्वयं महंगे वातानुकूलित घरों, दफ्तरो व गाड़ियों में रहते हैं, हवाई यात्राएं करते हैं, जंगलों की लकड़ी का बढ़िया से बढ़िया फर्नीचर इस्तेमाल करते हैं, लेकिन जंगलों में रहने वाले लोगों को कोई रियायत ओर अधिकार नहीं देना चाहते । विडंबना यह भी है इन सारे राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों एवं टाइगर-रिज़र्वोंा में इको-पर्यटन के नाम पर देशी-विदेशी सैलानियों को बुलाया जाता है और मौज-मस्ती की पूरी सुविधाएं दी जाती हैं । वे गाड़ियों से घने जंगलों हैं । इससे वन्य प्राणियों के जीवन में कोई व्यवधान नहीं होता है, लेकिन हज़ारों सालों से वहां रहने वाले आदिवासियों की पारंपरिक गतिविधियों से वन्य जीवन पर संकट आ जाता है, यह तर्क समझ से परे है । मध्यप्रदेश का पचमढ़ी हिल स्टेशन एवं कस्बा, सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व में पहाड़ों और जंगलों की बीचों-बीच स्थित है । टाइगर रिज़र्व को खाली कराने की मुहिम चल रही है । उनके जीवन पर कई पाबंदिया लगा दी गई हैं । लेकिन पचमढ़ी कस्बे, वहां के होटलों एवं वहां स्थित फौजी अड्डों को हटाने या वहां प्रति वर्ष आने वाले लाखों सेलानियों पर नियंत्रण की कोई चर्चा भी नही हैं । आदिकाल से वहां रहने वाले मूल निवासियों का कोई हक नहीं, और बाहर से आकर व्यवसाय और मौज मस्ती करने वालों का पूरा हक बन गया ? यद शेर और वन्य प्राणियों को बचाना पूरे मानव समाज की जरूरत एवं प्राथमिकता है, तो सबसे पहले उन बड़े बांधो, खदानों, कारखानों, राजमार्गो, फोजी छावनियों, शहरो, होटलो और पर्यटन अड्डो को हटाना चाहिए । जिन्होने पिछले १००-१५० सालों में जंगलों व शहरों के आवास पर अतिक्रमण किया है । इसकी बजाय निरपराध आदिवासी को हटाने-मिटाने पर तुले हैं क्या इसलिए कि वे आज की व्यवस्था में सबसे नीचे की पायदान पर स्थित सबसे गरीब एवं नीरीह लोग है जिनकी कोई आवाज एवं ताकत नहीं है ? यह भी एक प्रकार का नस्ल भेद और साम्राज्यवाद है । पिछले दिनों पारित वन अधिकार कानून से भी वन वासियों को कोई विशेष राहत नहीं मिल पाई । सरकारी प्रतिष्ठानों में बेठे पर्यावरणीय कट्टरतावादी तत्वों ने इस कानून मे यह प्रावधान डाल दिया है कि राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभयारण्यों में संकट पूर्ण वनजीव आवासो या कोर एरिया में ग्राम वासियों के अधिकार खत्म किये जा सकते हैं । इस कानून के नियम बनाने में जान बूझकर देरी की गई । १ जनवरी २००८ को नियम बनाने के बाद लागू होने से पहले के डेढ़ महिनों में देश के सारे टायगर रिजर्वो में ताबा तोड़ कोर एरिया की अधिसूचनाएं जारी कर दी गई । इनके निर्धारण के लिए न तो कोई वैज्ञानिक अध्ययन या सर्वेक्षण कराया गया और न स्थानीय ग्रामवासियों को अपना पक्ष रखने का मौका दिया गया । किसी आदिवासी नेता या मंत्री ने भी इसका विरोध नहींकिया । वन क्षेत्रों के आदिवासियों पर दबाव, अत्याचार, अनिश्चितता एवं विस्थापन का कहर जारी है । मुम्बई के ताज ओर ऑबेराय पांच सितारा होटलों से अलग यह एक लगातार चलने वाली आतंकी प्रक्रिया है, जिसकी चर्चा कोई टीवी चैनल या अखबार का मुखपृष्ठ नहीं करता । आप चाहे तो इसे पर्यावरणीय आतंकवाद कह सकते हैं । लेकिन इसकी चर्चा न केवल मीडिया में बल्कि जन सामान्य के बीच भी होनी चाहिये, जिससे वन विनाश के जिम्मेदार तत्वों की पहचान हो सके ।***

१२ विकास दर

आर्थिक उम्मीदें और प्राकृतिक संसाधन
- डॉ. टी.एन. नरसिंहन
वैश्विक व्यापार के इस दौर में भारत भविष्य में एक स्थिर दर से मज़बूत आर्थिक विकास की उम्मीद कर रहा है । व्यापार की दृष्टि से इस प्रकार की अपेक्षा को उचित माना जा सकता है, लेकिन भारत के जल और भूमि संसाधनों को लेकर किए गए एक अध्ययन से साफ होता है कि अगले कुछ दशकों में घटते जल संसाधनों और पर्यावरण व इकोसिस्टम में गिरावट के चलते सामान्य विकास दर को हासिल करना भी मुश्किल हो जाएगा । आजादी के छह दशकों के बाद आज भारत एक बेहतर आर्थिक भविष्य की ओर टकटकी लगाए देख रहा है । बीते एक दशक में देश में विदेशी पूंजी के अभूतपूर्व प्रवाह से भारत ने २००६-०७ में ९.६ फीसदी की शानदार विकास दर हासिल की । यदि भारत ६ फीसदी की विकास दर भी बनाए रखे तो प्रत्येक बारह साल में देश की अर्थव्यवस्था का आकार दुगना हो जाना चाहिए । इसलिए उम्मीद तो यही है कि भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) २००७ के एक ट्रिलियन डॉलर से बढ़कर २०३१ तक चार ट्रिलियन डॉलर और २०५५ तक पूरे १६ ट्रिलियन डॉलर तक हो जाना चाहिए । इन अपेक्षाआें को समझा जा सकता है, क्योंकि इनमें भारी-भरकम संख्याएं दांव पर लगी हुई हैं । इसका असर निश्चित रूप से आम आदमी की ज़िन्दगी परपड़ेगा । लेकिन क्या इस आर्थिक भविष्यवाणी को वाणिज्य और व्यापार से इतर अन्य पहलुआें के आधार पर नहीं परखा जाना चाहिए ? शायद हां । वाणिज्य और व्यापार से परे आर्थिक विकास दर का आकलन जल और भूमि के पैमानोंपर किया जा सकता है । इसकी एक वजह तो यह है कि समाज अपने अस्तित्व के लिए अंतत: प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल, भूमि, खनिजों और इंर्धन पर निर्भर है । जिस गति से इन संसाधनों का दोहन किया जा रहा है, उससे ये बड़ी तेज़ी से खत्म होते जा रहे हैं । प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से इनके समाप्त् होने का खतरा तो है ही लेकिन साथ ही खनन कार्य से मनुष्य और अन्य प्राणियों के प्राकृतिक आवास पर भी गंभीर असर पड़ता है । मीठे पानी के संसाधनों की क्षति, ज़मीन में लवण की मात्रा बढ़ना, रेगिस्तानों का प्रसार, प्रकृतिक वास खत्म होना और कई प्रजातियों के अस्तित्व पर खतरे की तलवार लटकना ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं जो गंभीर असर के द्योतक हैं । ऐसे में यह जानना उचित होगा कि पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों के इसी गति के दोहन के मद्देनज़र भारत की आर्थिक विकास की संभावना क्या रहेगी । भारत के आर्थिक विकास के दो बड़े परिणाम निकलेंगे । एक, समाज के सभी लोगों के जीवन स्तर में सुधार की अपेक्षाएं बढ़ जाएंगी और दूसरा, व्यापार की ब़़ढती ज़रूरतों के मद्देनज़र वस्तुआें व सामग्री के उत्पादन में भी इज़ाफा हो जाएगा । इसका नतीजा यह निकलेगा कि धरती के प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव और भी बढ़ जाएगा । ऐसे में हमें देखना होगा कि भारत के प्राकृतिक संसाधनों का अभी कितना इस्तेमाल हो रहा है और प्रत्येक बारह साल में अर्थव्यवस्था को दुगना करने के लिए जिस आर्थिक विकास दर की ज़रूरत है, उसके मद्देनज़र वे कब तक दबाव को झेल सकते हैं । आज ही प्रौद्योगिकी दुनिया में भारत का आर्थिक विकास काफी हद तक धरती से सम्बंधित संसाधनों पर निर्भर करता है । इनमें जीवाश्म इंर्धन, रेडियोएक्टिव खनिज, लौह अयस्क, पानी, जंगल, मृदा और निर्माण सामग्री शामिल हैं । इस पूरे मुद्दे को समझने के लिए यहां हम बात को पानी और ज़मीन तक ही सीमित रखेंगे । भारत के ३२.८ लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में हर साल औसतन ११७० मि.मी. बारिश होती है । घन किलोमीटर में देखें तो वर्षजनित पानी की मात्रा सालाना ३८४० घन किलोमीर होगी । इसमें से एक बड़ा हिस्सा सूर्य की गमी से होने वाले वाष्पीकरण और पौधों के वाष्पोत्सर्जन के फलस्वरूप वातावरण में चला जाता है । एक अनुमान के अनुसार विभिन्न महाद्वीपों में कुल बारिश का ६० से ८० फीसदी हिस्सा वाष्पीकरण के कारण वापस वातावरण में पहुं जाता है। भारत में वर्षा जल के ६९.५ फीसदी हिस्से का वाष्पीकरण हो जाता है । अगर ६० फीसदी के हिसाब से भी देखें तो यहां होेने वाली बारिश में से २३०० घन किलोमीटर पानी वातावरण द्वारा सोख लिया जाता है । शेष १५४० घन किलोमीट पानी या तो नदियों में बह जाता है या फिर ज़मीन के भीतर चला जाता है । मनुष्य के इस्तेमाल (कृषि कार्य, उद्योगों व घरेलू इस्तेमाल) के लिए जलापूर्ति ज़मीन के ऊपर बहने वाले पानी और भू-जल दोनों से होती है । चूंकि धरती पर रहने वाले तमाम जीव-जंतु और वनस्पतियां भी पानी केे लिए इन्हीं स्त्रोतों पर निर्भर रहते हैं, इसलिए मनुष्य को पानी का इस तरह से संतुलित वितरण करना होगा कि वनस्पतियां और जीव-जंतु उससे वंचित न रह जाएं । उपलब्ध अनुमानों के अनुसार भारत में वर्तमान में धरती के भीतर के ६३४ से ६४५ घन किलोमीटर पानी का दोहन किया जा रहा है जो पुनर्भरण क्षमता के लगभग बराबर है । दूसरे शब्दों मेंकहे तो भारत अपने जल संसाधनों का इस्तेमाल उनकी लगभग पूर्ण क्षमता तक कर रहा है । यदि अगले २५ सालों की अर्थव्यवस्था को चार गुना करना है तो इसका मतलब यही होगा कि पानी का इस्तेमाल भी इसी अनुपात में बढ़ेगा । औद्योगिक विकास और शहरीकरण के साथ-साथ प्रचंड आर्थिक विकास के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार प्रकार के अपशिष्ट पदार्थोंा में भी भरी बढ़ोतरी होगी। इनमें ज़हरीले और गैर ज़हरीले दोनों प्रकार के अपशिष्ट होंगे । भारत के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली सूचना प्रौद्योगिकी भी इलेक्ट्रॉनिक सामग्री के रूप में भारी मात्रा में ठोस व तरल कचरा पैदा कर रही है । कुछ दशक पहले तक ऐसे कचरे के बारे में कोई जानकारी नहीं थी । हालांकि अभी घरेलू व औद्योगिक कचरे की मात्रा को लेकर कोई विश्वसनीय अनुमान उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन देश के आर्थिक विकास के साथ ही इसमें भी बहुत ज्यादा बढ़ोतरी होना लाज़मी है । कचरे को ठिकाने लगाने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए उसे धरती पर या धरती में किए गए ग ों में डाल दिया जाता है जहां वे आने वाली सदियों तक ऐसे ही पड़ा रहेगा । ग ों में डाले गए कचरे का एक दुष्परिणाम यह होगा कि इससे ज़मीन के भीतर कीमती जल प्रदुषित होता जाएगा । कचरा फेंकने के लिए स्थलों का चयन भू-वैज्ञानिक और जल विज्ञान सम्बंधी परिस्थितियों के आधार पर किया जाना चाहिए और स्थानीय लोगों की अनुमति भी ज़रूरी होनी चाहिए । ऐसी जगह पाना बहुत मुश्किल होगा । आर्थिक विकास के साथ सड़कों, पुलों, भवनोंे और अन्य सिविल इंजीनियरिंग निर्माणों में भी बढ़ोतरी होती है । निर्माण कार्य मुख्य तौर पर मिट्टी, रेत, बजरी और चूना पत्थर इत्यादि पर निर्भर करते हैं । यह सामग्री नदियों के तलों व तलछट और चट्टानों से हासिल की जाती है । इन पदार्थोंा के बड़ी मात्रा में दोहन से जल की प्रकृति में बदलाव आएगा, मिट्टी का कटाव बढ़ेगा और अंतत: मछलियों व वन्य जीवों के आवास स्थलों पर भारी असर पड़ेगा, वे नष्ट होते जाएंगे । पर्यावरणीय खतरों के मद्देनज़र निर्माण सामग्री का दोहन उस गति से नहीं किया जा सकता, जो अर्थव्यवस्था की गति को बनाए रखने के लिए जरूरी है । कचरे के निपटान और निर्माण सामग्री के खनन के इन उदाहरणों से पता चलता है कि जल संसाधन का प्रबंधन, भू-निर्माण योजना और इकोसिस्टम का संरक्षण तीनों परस्पर संबंधित हैं । १९९१ में देश में आर्थिक उदारीकरण के बाद से निर्माण कार्यो को अंधाधुंध गति से आगे बढ़ाया गया और इस बात की कोई परवाह नहीं की गई कि जल संसाधन, पर्यावरण और इकोसिस्टम पर इसका क्या प्रतिकुल असर पड़ेगा । निकट भविष्य में इस प्रवृत्ति पर विराम लगने का कोई संकेत भी नज़र नहीं आता । संक्षेप में कहे तो भारत अपने आर्थिक विकास के साथ जल संसाधन की संपूर्ण क्षमता का इस्तेमाल कर रहा है । लेकिन किसी समन्वित योजना और समग्र राष्ट्रीय जल नीति क अभाव में समाज के विभिन्न वर्गोंा के बीच जल संसाधन का वितरण बेहत असंतुलित है । जल वितरण की मौजूदा असंतोषजनक स्थिति में सुधार के मामले मेें भारत को नीति, प्रशासन और सामाजिक नज़रिए के स्तर पर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है । प्रकृति द्वारा मनुष्य को उपलब्ध है, वह भी अनियंत्रित इस्तेमाल व प्रदूषण की वजह से बर्बाद हो रहा है । इन तथ्यों की रोशनी में कोई भी इस बात की उम्मीद नहीं कर सकता कि भारत के जल संसाधन उभरती अर्थव्यवस्था की बढ़ती मांग के साथ कदम मिलाकर चल सकेंगे। यह तो साफ है कि भारत अपने महत्वकांक्षी आर्थिक विकास के लिए विज्ञान और प्रोद्योगिकी का इस्तेमाल कर रहा है । ऐसे में आर्थिक विकास में भूमि-विज्ञान की भूमिका की उपेक्षा कैसे की जा सकती है ? इसकी एक वजह तो यह मुगालता हो सकता है कि समसामयिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में विकास के अलावा प्रतिस्पर्धा, वैश्विक बाज़ार व बौद्धिक संपदा अधिकार की वजह से मिलने वाले वित्तीय लाभ आर्थिक विकास की राह में आने वाली किसी भी बाधा से निपट लेंगे । लेकिन धरती के मामले में प्रौद्योगिकी पर इस भरोसे को थोड़ा कम करना चाहिए। हालांकि भौतिकी व रसायन शास्त्र के सिद्धांत धरती को समझने में अहम भूमिका निभाते हैं, लेकिन धरती और उसकी जैविक प्रणालियों के ऐसे भी कई पहलू हैं जो भौतिकी व रसायन शास्त्र से परे हैं । धरती और उसकी जैविक प्रणालियों की जटिलताआें व उनके बीच पारस्परिक संबंधों की वजह से उनके व्यवहार की भविष्यवाणी करने और कार्य प्रणालियों पर नियंत्रण करने में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की अपनी सीमा है । विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पानी की उपलब्धता को नहीं बढ़ा सकते, क्योंकि यह जलवायु पर निर्भर करती है । हां, अगर विज्ञान का इस्तेमाल समझदारी से किया जाए तो पानी का प्रभावी ढंग से उपयोग करने में सहायता ज़रूर मिल सकती है । यदि वैश्विक तापमान वृद्धि की वजह से सघन आबादी वाले निचले क्षेत्र डूब जाते हैं या सालों चलने वाले सूखों की वजह से वर्षा की मात्रा में कमी आती है, तो आर्थिक विकास से अपेक्षाएं और भी बेमानी हो जाएगी । भारत की आर्थिक सेहत मुख्य तौर पर जल एवं भूमि संसाधनों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल करने की उसकी क्षमता पर निर्भर करेगी । इस समय भारत भू-जल के अत्यधिक दोहन, जल स्त्रोतों के प्रदूषण ओर अंधाधुंध भू-विकास की वजह से जल संकट के दौर से गुज़र रहा है । आर्थिक और राजनीतिक समस्याआें के तदर्थ समाधानोंकी वजह से दीर्घकालीन सोच का अभाव नज़र आता है । ऐसा मुगालता हर जगह है कि प्रौद्योगिकी और बाज़ार की ताकतों के बल पर पानी और प्राकृतिक संसाधनों की समस्या का समाधान निकाल लिया जाएगा। हालांकि धरती को लेकर हमार ज्ञान बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों की समस्या का कोई आसान या तकनीकी समधान नहीं है । अभी जो पानी उपलब्ध है, उसके प्रभावी व समान वितरण के लिए भारत को गंभीरता के साथ ध्यान देना होगा और ऐसे नीतियां बनानी होगी जो प्राकृतिक संसाधन तंत्रों के महत्व को मान्यता प्रदान करें । अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारत के शानदार प्रदर्शन के बावजूद भारतीय सोच में उस संतुलन का अभाव है जो धरती को समझ सके । इस धरती पर ही समाज निर्भर है और इस पर केंद्रित मानव मूल्यों की परिधि के भीतर ही विज्ञान, प्रौद्योगिकी और धन संपदा को कार्य करना होगा । इस संतुलन के अभाव में आने वाले दशकों में भारत की आर्थिक विकास की अपेक्षाआें के कोई मायने नहीं रह जाएंगे । ***क्या है जंगल के उपकारमिट्टी पानी और बयार, मिट्टी पानी और बयार ये हैं जिंदा रहने के आधार

१३ वानिकी जगत

वन , जल और कल
- डॉ. किशोर पंवार
हमारे पास उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों में हवा और पानी के बाद सबसे महत्वपूर्ण स्थान जंगल का है । सच पूछा जाए तो ये तीनों आपस में जुड़े हैं । चिपको आंदोलन से निकला नारा क्या है जंगल के उपकार- मिट्टी पानी और बयार बिलकुल सटीक है । जंगल यानी ऐसा वनस्पति समूह जहां पेड़ों की अधिकता हो, जहां पेड़ो के शीर्ष आपस में मिल-जुलकर घनी छाया प्रदान करते हों, जहां तक नज़र जाए लंबे, घने पेड़ ही पेड़ दिखाई दें । खाद्य व कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार दुनिया का लगभग २९ प्रतिशत क्षेत्र जंगलों से ढंका है । इसमें वे स्थान भी शामिल हैं जिन्हें हम घने वन कहते हैं जहां वृक्षाच्छादन जमीन के २० प्रतिशत अधिक है और वे भी जिन्हें हम विरल वन कहते हैं जहां यह प्रतिशत २० से कम है । हमारे देश का लगभग १९ प्रतिशत क्षेत्र जंगल है । यहां लगभग ६,३७,२९३ वर्ग कि.मी. में जंगल हैं । हमारे देश में १६ प्रकार के जंगल हैं। इनमें सूखे पतझड़ी वन ३८ प्रतिशत और नम कंटील जंगल की श्रेणी में आते हैं । पर्वतीय स्थानों जैसे उत्तराखंड, हिमाचल पर सदाबहार वन और वर्षा वन भी मिलते हैं । वन सदियों से हमारे जीवन का आधार रहे हैं । इनसे हमें भोजन, इमारती लकड़ी, इंर्धन और दवाइयां मिलती हैं । हमारा पूरा हर्बल चिकित्सा तंत्र वनों से प्राप्त् होने वाली विभिन्न जड़ी-बूटियों पर ही टिकाहै । जंगल वन्य जीवों के प्राकृतवास हैं । जगल है तो जंगल का राजा शेर है । शेर, बाघ आदि का पाया जाना एक अच्छे जंगल की निशानी है । जंगल ज़हरीले प्रदूषकों को सोखते हैं और हमें स्वच्छ वायु प्रदान करते हैं । ये पृथ्वी की जलवायु को नियंत्रित रखते हैं, वैश्विक तपन को कम करते हैं । जंगल बारिश के पानी को रोककर नदियों को बारहमासी बनाते हैं, भूमि के क्षरण को रोककर बाढ़ की आपदा घटाते हैं । ये दुनिया की २५ प्रतिशत औषधियों को सक्रिय तत्व उपलब्ध कराते हैं । परंतु खेद की बात है कि इतना उपकार करने वाले वन दिनों दिन सिकुड़ते जा रहे हैं । मुख्य कारण है बढ़ती जनसंख्या, उपभोक्ताबाद और शहरीकरण । वर्ष १९०० में विश्व में कुल वन क्षेत्र ७०० करोड़ हैक्टर था जो १९७५ तक घटकर केवल २८९ करोड़ हैक्टेअर रह गया । वर्ष २००० में यह २३० करोड़ हैक्टर था । वनों के घटने की यह रफ्तार पर्यावरणविदों के लिए चिंता का विषय है । इन्हीं कारणों से चिपको एवं अपिको आंदोलनों की शुरूआत हुई थी । इस संदर्भ में जोधपुर की अमृता देवी का बलिदान नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने खेजड़ी वृक्षों को बचाया था । वनों के घटने से वर्षा कम होती है, वर्षा का पैटर्न बदल जाता है, उपजाऊ मिट्टी कम हो जाती है, भूक्षरण बढ़ता है, पहाड़ी स्थानों पर भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती है, भूमिगत जल का स्तर नीचे चला जाता है और जैव विविधता में कमी आती है । पूरा विश्व इस चिंता से अवगत है। अत: पूरी दुनिया में पिछले ४० वर्षोंा से २१ मार्च को विश्व वानिकी दिवस मनाया जाता है । इसका मुख्य उद्देश्य जनता को वनों के महत्व से अवगत कराना है । यह विचार युरोपियन कान्फेडरेशन ऑफ एग्रीकल्चर की २३ वीं आम सभा (१९७१) में आया था । तभी से इसे पूरी दुनिया मंे मनाया जा रहा है । ज़रा इस पर विचार करें कि विश्व वानिकी दिवस के उपलक्ष्य में आम जन क्या कर सकते हैं । वनों को बचाने के लिए इन बातों पर आज से ही अमल करना शुरू कर दें अपने आसपास फूलों वाले पेड़-पौधे लगाएं । इससे आपका पर्यावरण सुंदर लगेगा और साफ भी रहेगा । नीम,पीपल, बरगद, अमलतास जैसे पेड़ लगाएं । ये आपके घर के आसपास ठंडक बनाए रखेंगे । इससे आप कम बिजी खर्च करेंगे । गर्मियों में घर के आसपास लगे पेड़ पौधों को पानी देकर बचाने का प्रयास करें । कागज़के दोनों ओर लिखें । इससे आप ५० प्रतिशत कागज़बचा सकते है । कागज़ बचाएंगे तो भी वन बचेगा । रीसायकल्ड कागज से बने बधाई कार्ड, लिफाफों आदि का प्रयोग करें । लिफाफों को बार-बार उपयोग करें । स्कूल कॉलेज में इस दिन जंगलों के बारे में अधिक जाएं । उनके ताने-बाने को समझें, पेड़-पौधों एंव जंतुआें के नाम पता करें । उनके उपयोग के बारे में आदिवासियों या अन्य जानकारों से पताकरें । संरक्षण की पहली शर्त है जीवों से जान पहचान । विश्व वानिकी दिवस पर यह प्रण लें कि लकड़ी से बने फर्नीचर नहीं खरीदेंगे । आजकल स्टील एवं प्लास्टिक के चौखट मिलते हैं इनके उपयोग को बढ़ावा दें, इससे जंगलों पर दबाव कम होगा । विश्व वानिकी दिवस २१ मार्च के दूसरे ही दिन २२ मार्च को विश्व जल दिवस भी मनाया जाता है । पीने के पानी की स्थिति किसी से छिपी नहीं है । इस वर्ष देश के कई हिस्सों में पानी बहुत कम गिरा है जिससे पानी की भयावह समस्या पैदा हो गई है । पानी को लेकर लड़ाई झगड़ा आम हो चला है । इस समस्या से निपटने के लिए पानी के स्रोतों को बचाकर और उपलब्ध पानी का उचित प्रबंधन ही एकमात्र उपाय है । इस मामले में भी आप काफी कुछ कर सकतेहैं । जैसे स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल, में पानी बचाने का अभियान चलाएं, सफाई का काम पानी से नहीं झाडू से करें , नहाते एवं ब्रश करते समय नल को खुला न छोड़े मोटे तौलिए की बजाय पतले तौलिए का उपयोग करें, अपने वाहन फव्वारें की बजाय गीले कपड़े से साफ करें, धोने का पानी अपने बगीचे में पेड़-पौधों को दें । इससे आपके पौधे गर्मियों में भी बचे रहेंगे और साफ पानी की बचत भी होगी । इसके अलावा अपने घरों में वर्षा जल संग्रहण तकनीक को अपनाएं । इससे भूमिगत जल स्तर बढ़ता है । अपने मुसीबत के कुएं, बावड़ियाँ, तालाबों को गंदा नाकरें । मुसीबत में ये परंपरागत जल स्रोत ही काम आते हैं, इनकी उपेक्षा न करें । याद रखें जल है तो कल है और वन है तो जल है । दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं, जीवन का आधार हैं । एक बार फिर जंगल के उपकारों को याद करके वन रक्षा का संकल्प करें । ***हर साल दूषित सीरिंज के इस्तेमाल से १३ लाख मौत देश में इंजेक्शन की सुई के दौबारा इस्तेमाल से विश्व में हर साल करीब १३ लाख मौतें होती हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के निर्देशों के मुताबिक सीरिंज जो एक बार इस्तेमाल के बाद नष्ट कर देना चाहिए । वह भारत में नई पैकिंग में दोबारा बाजार में आ जाती है । इससे होने वाला संक्रमण घातक होता है और व्यक्ति अनजाने में काल के गाल में समा जाता है । कई लोग अनजाने मेंं एचआईवी इन्फेक्शन और हेपेटाईटिस की चपेट में आ रहे हैं । यह तथ्य पिछले साल ब्रिटेन की सेफपाइंट संस्था द्वारा भारत में चलाए जा रहे जागरूकता कार्यक्रम में सामने आए हैं । विश्व की नामी सीरिंज कंपनियां इस बात से परिचित हैं कि उनके द्वारा बनाई गई सीरिंज बाजार में दोबारा इस्तेमाल के लिए सहज ढंग से आ जाती है ।

१४ पर्यावरण समाचार

साँस के लिए खरीदना पड़ेगी हवा
हवा को घातक रूप से प्रदूषित करने वाला एक पदार्थ है सीसा, यह हवा, मिट्टी, धूल, सतही पानी, रंग-रोगनों, प्रसाधन सामग्री व औद्योगिक कचरे आदि में मौजूद होता है और इन्हीं स्रोतों से हमारे शरीर में पहँचाता हैं । दो दशक पूर्व प्रत्येक डेसीलीटर रक्त से ४० माइक्रोग्राम सीसे की मात्रा बच्चें के लिए निरापद मानी गई थी, लेकिन फिर यह मात्रा २५ माइक्रोग्राम तक पहुंच गई । अब तो वैज्ञानिकों का मानना है कि सीसा युक्त रोगन वाली खिड़की की रगड़ से पैदा हुई धूल भी बच्चें के लिए विषाक्त हो सकती है । कई देशों में सीसे पर विस्तृत अध्ययन हुएं हैं या हो रहे हैं । प्रदूषण नियंत्रण के लिए उद्योगों में सीसे को पूरी तरह समाप्त् करना बहुत अधिक खर्चीला कार्य है । इसलिए कई देश अभी तक इसकी अपेक्षा करते रहे हैं । अधिकांश देशों में सीसे के पुराने अवशेषों को समाप्त् करने के लिए व्यापक कदम नहीं उठाए गए हैं । नए शोधों से पता चला है कि शरीर के अंदर जाने वाले सीसे का ६० प्रतिशत हिस्सा स्थायी तौर पर शरीर में ही रह जाती है । सीसे का सबसे ज्यादा असर यकृत, गुर्दे और बच्चें के दिमाग पर जाता है । इसकी अधिक मात्रा से शरीर की आनुवंशिक संरचना भी बदल सकती है । सल्फर डाई ऑक्साइड ओर नाइट्रोजन के ऑक्साइड और बीमारियों के अलावा आँखों में जलन पैदा करते हैं । इन गैसों के वायुमंडल में अधिक मात्रा में जमा होने से अम्लीय वर्षा (एसिड) का खतरा पैदा हो जाता है । देश के कई शहरों में एसिड रेन की संभावना से शोधकर्ता इंकार नहीं कर रहे हैं । होता यह है कि सल्फर डाईऑक्साइड और नाइट्रोजन के ऑक्साइड वायुमंडल में जाकर अम्लों में बदल जातेे हैं। इससे फसलों की उपज, संगमरमर तथा धातु से बनी चीजों के क्षरण पर उनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । वाहनों के बाद वायु को प्रदूषित करने में विभिन्न उद्योगों का हाथ है । दरअसल, उद्योगों से प्रदूषणकारी तत्व और गैसें निकलती हैं । स्लेट से सिलिका, एल्यूमिनीयम से फ्लोराइड, कार्बन से हाइड्रोजन सल्फाइड, क्लोर अल्कली से फ्लोरीन व पारा कीटनाशक से कीटनाशक व अन्य रसायन, ताप बिजली घरों से धूल कण, विभिन्न प्राकर के हाईड्रोकार्बन और ऑक्साइड वायुंडल को निरंतर प्रदूषित कर रहे हैं । सीएफसी (क्लोरो फलोरो कार्बन) वर्ग के रसायन वायुमंडल की ऊपरी परत में स्थित ओजोन गैस को भारी क्षति पहुँचाते हैं । आज वायु प्रदूषण से निपटना बड़ी चुनौती है । यदि शहरों में प्रदूषण की मात्रा कम करना है तो सड़को पर दौड़ते वाहनों की संख्या मे बढ़ोतरी को रोकना होगा । निजी वाहनों की बजाय सार्वजनिक वाहनों को प्रोत्साहन देना होगा ओर सड़कों की दशा भी सुधारना होगी । यदि तत्काल ठोस कदम नहीं उठाए गए तो वाहनों और उद्योगों से निकलने वाली विषैली गैसों नगरीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा कर देंगी तब साँस लेने के लिए हवा भी खरीदना पड़ेगी । साइकलिंग करके मनेगा कारफ्री-डे मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल मे ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस पर पर्यावरण को वाहनों के प्रदूषण से बचाने को संदेश देने और जनता में साइकलिंग के प्रति जागृति पैदा करने के लिए कार फ्री डे मनाने का निर्णय लिया गया है । इस आयोजन की जिम्मेदारी लेने वाली ग्रीन प्लेनेट बाइसिकल राइडर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष सत्यप्रकाश ने बताया कि कार फ्री डे के तहत ५ जून को राजधानी में विशाल एवं प्रभावी साइकल रैली निकाली जाएगी । इस दिन राजधानी के न्यू मार्केट, बिठ्ठन मार्केट, दस नंबर स्टाप, चौक बाजार जैसे प्रमुख व्यापारिक इलाकों को कार फ्री रखने का प्रयास किया जा रह है । इस दिन इन इलाकों के व्यापारी रैली में कार, मोटरसाइकल को छोड़कर साइकल के साथ शामिल होंगे और इसी से अपनी दुकान जाएँगे । उन्होंने बताया कि इस रैली में ज्यादा से जयादा आम लोगों को जोड़ने के लिए १-२ मई को साइकलिंग से लोगों को मिलने वाले फायदे और पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए संगोष्ठी आयोजित की जाएगी । इसमें विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जा रहा है । विश्व की दस नदियां खतरे मेंवर्ल्ड वाइल्उ लाइफ फंड नाम के गैर सरकारी संगठन के अनुसार गंगा समेत दुनिया की १० नदियां खतरे में हैं । सरकार ने गंगा में पद्रूषण की समस्या से निपटने के लिए राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का गठन करने का निर्णय लिया है ।