गुरुवार, 19 नवंबर 2009

आवरण




१ सामयिक

सूखे में डूबती आधुनिक सभ्यता
एलेक्स बेल
पर्यावरण आंदोलन अब उस रोचक दौर में पहुंच चुका है और इसके बारे में तकरीबन सभी तक जानकारी पहुंच चुकी है सिवाय राजनीतिक हलके के जहां यह अभी भी एक बाहरी तत्व है । वैसे हरियाली की बात (ग्रीन्स) करने वाले अभी एक अनजान व्यक्ति की तरह आपके दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं और दुनिया इस दुविधा में है कि उन्हें घर में प्रवेश दें या नहीं । जलवायु परिवर्तन के विचार की ओर लम्बे-लम्बे डग भरते हुए हम यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि हमें इस दिशा में त्वरित कार्यवाही करना ही होगी । हालांकि हममें से बहुतों के लिए यह दूसरों की समस्या है या वे सोचते हैं कि इस खतरे को बड़ा-चढ़ा कर बताया जा रहा है । लेकिन यह दौर भी अब समािप्त् की ओर है । पिछले दो साल वैश्विक जलसंकट पर शोध करते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि विश्व के कई भागों में अब इतनी अधिक मात्रा में जमीन से पानी निकाला जा रहा है जितनी कि प्रकृति द्वारा आपूर्ति नहीं की जा सकती । ये पानी बड़े शहरों के निर्माण में और बढ़ती जनसंख्या की भरपाई में लग रहा है परंतु यह स्थिति अनंत तक नहीं चल सकती । जब हम पानी की चरम उपलब्धता को पार कर लेंगें तक खेत सूख जाएंगे, शहर असफल या नष्ट हो जाएंगे और इससे समाज को जबरदस्त चोट पहुंचेंगी । भारतीयों के लिए यह कोई आश्चर्य नहीं होगा । पिछले कुछ वर्षोंा में भारतीय यह जान गए हैं कि इस उपमहाद्वीप में खेती के लिए निकाले जाने वाले भू-जल की दर पुनर्भरण की दर से कही ज्यादाहै । मानसून की वर्षा का बदला मिजाज भी अब नई बात नहीं रह गई है । इसी के साथ असफल बांध परियोजनाआें एवं सूखी नदियों की त्रासदी भी अब वास्तव में पुरानी कहानी हो गई है । भीगे-भीगे से रहने वाले उत्तरी यूरोप मे रहते हुए लोग इस सूचना से अभी तक बहुत परिचित नहीं है । ये भीगा-भीगा सा विश्व कल्पना करता है कि पानी की समस्या तो गरीबों के लिए ही है । यहां की कुछ सरकारें मदद का वायदा करती हैं। कुछ और हैं जो इसके भंडार के लिए धन उपलब्ध करवा रही हैंऔर कुछ की समझ टेलीविजन पर अगला अकाल देखने की संभावना पर ही टिकी हुई है । परंतु हर एक दिमाग में यह तो है ही, कि जल को लेकर युद्ध तो होगा मगर वह उनकी अपनी धरती पर नहीं, बल्कि सुदूर किसी विदेशी भूमि पर होगा । जब भारत में पानी की समस्या और भी गंभीर हो जाएगी तब स्वीडन, कनाडा और ब्रिटेन के लोगों को न केवल इसकी जानकारी होगी बल्कि वे इसे गहराई से महसूस भी करेंगे । अगर विश्व के किसी एक हिस्से में फसलें नष्ट होंगी और उत्पादन घटेगा तो समृद्ध विश्व की अर्थव्यवस्थाएं भी डांवाडोल हो जाएगीं । अगर व्यापक जनसमुदाय प्यासा रहेगा तो समाज टूटेगा और हर कोई संकट में आ जाएगा । हम अधिकतम पानी या चरम की स्थिति को पार कर चुके हैं क्योंकि आज सभ्यता प्यासी दिखाई दे रही है । हजारों साल पहले इस ग्रह पर रहने की जिस संगठित व सुगठित जीवनशैली का आविष्कार इराक और सिंधु नदी के किनारे पर किया गया था । वह ताजे जल के अधिकार पर ही आश्रित थी । हरेक के पीने के लिए भरपूर पानी की अनिवार्यता से इंकार नहीं है परंतु पानी पर अधिकार और सभ्यताआें का अंर्तसंबंध इससे कहीं अधिक गहरा है । हमने यह विश्व इस परिकल्पना पर निर्मित किया है कि पानी को मनुष्य की सनक के अनुरूप हमेशा निर्देशित किया जा सकता है । जबकि इतिहास बताता है कि जब भी पानी का प्रवाह थमा तब -तब सभ्यता धराशाही हो गई । हमारे सामने चुनौती है कि विश्व यह जाने कि भारत के जलसंकट से पेरिस और न्यूयार्क के निवासियों के जीवन स्तर में भी गिरावट आएगी क्योंकि इससे वैश्विक खाद्य व अन्य वस्तुआें के व्यापार में मूलभूत परिवर्तन आएगा । इससे भी बढ़कर विश्व को यह जानने की आवश्यकता है कि पानी मात्र राष्ट्रीय सीमाआें ओर सरकारों को समर्पित नहींहैं तथा इस संकट का हल युद्ध संबंधी किसी बंधे-बंधाए विचार या संरक्षणवाद में भी निहित नहीं है । पानी एक वैश्विक संसाधन है और इसका प्रबंधन भी वैश्विक नजरिए से होना चाहिए । इस हेतु ऐसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाआें की जरूरत हैं जिनमें विश्व बैंक से ज्यादा कल्पनाशक्ति और इच्छा शक्ति हो । क्यों कि विश्व बैंक तो अभी बड़ी योजनाआें और मुक्त बाजार के मोहपाश में जकड़ा हुआ है । अतएव मेरा सोचना है कि हम पर्यावरणीय जागरूकता के इस नए चरण के ऐसे मुहाने पर खड़े हैं जब हर तरफ लोगों ने अपने कार्योंा एवं उससे इस ग्रह पर पड़ रहे प्रभावों के परिणामों के बीच गहन संबंधों को समझना प्रारंभ कर दिया हैं । इससे हमें सभ्य शब्द के अर्थ के संबंध में अपने विचारों में मूलभूत परिवर्तन लाने में भी मदद मिलेगी । सबकुछ झपट लेने के पश्चिमी विचार के अंधानुकरण को सफलता समझ लेने के बजाए हमें यह समझना होगा कि सफलता का पैमाना यह है कि हमारे स्थानीय संसाधनों पर न केवल न्यूनतम भार पड़े बल्कि यह भी देखना होगा कि हम उनका संरक्षण किस प्रकार से करते हैं । हमंे अपने घरों, कार्यालयों, शहरों और खेतों का निर्माण नए तरीकों से कराना चाहिए जो कि हमारे स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल हो । जब हम चरम पर पहुंच जाते हैं तो हमारे सामने चुनाव का क्षण आता है । अतएव इस परिस्थिति में हमें चुनाव करना होगा कि या तो हम इसे अंत समझे या एक नई कहानी की शुरूआत ।***केन्द्र सरकार पाउचों पर प्रतिबंध लगायेगी केन्द्र सरकार ने पाउच पर प्रतिबंध लगाने का मन बना लिया है। पाउच पर्यावरण पर मंडराते उस संकट का नाम है, गुटखा, शैंपू सहित अनेक खाद्य पदार्थ, जिसमें काफी करीने से पैक करके बाजार में उतारे जाते हैं । इनमें मौजूद सामग्री तो उपभोक्ता इस्तेमाल कर लेते हैं, पर पाउचों को फेंक दिया जाता है, क्योंकि उस विनाशकारी कचरे को अपने घर में रखा भी तो नहीं जा सकता । बहरहाल, हम कचरा अपने घर से भले ही निकाल फेंके, पर पर्यावरण के लिए तो फिर भी वह खतरनाक ही होता है । अत: कायदे से होना तो यह चाहिए था कि चूंकि पाउच हमारी सेहत और हमारे पर्यावरण के लिए नुकसानदायक हैं, इसीलिए हमें उनका इस्तेमाल स्वत: बंद कर देना चाहिए । यानी, जो लोग पाउच बनाते हैं, वे बनाना बंद कर दें तथा जो उनको खरीदते-बेचते हैं, वे लोग खरीदना-बेचना बंद कर दें पर साफ यह भी है कि हम भारतीय स्वप्रेरणा से ऐसे समाज-हितैषी निर्णय कभी नहीं ले पाते, इसीलिए रास्ता यही था कि सरकार कानूनबनाकर पाउचों की बिक्री रोके ।

२ बाल दिवस पर विशेष

बच्चें के कुपोषण के लिए क्या करें ?
वंदना प्रसाद/राधा होल्ला/अरूण गुप्त
भारत में इस समय कुपोषण से पीड़ित बच्चें की संख्या बेहद निराशा और राष्ट्रीय शर्म का विषय है । यह स्थिति न केवल लंबे अर्सेंा से बरकरार हैं, बल्कि देश में जारी तेज़ आर्थिक विकास के दौर में भी इसमें कोई सुधार नहीं आया है । हाल तक इस बात पर काफी चर्चा हुई है कि कुपोषण की स्थिति से निपटने के लिए ऐसे क्या प्रयास किए जाएँ कि वे टिकाऊ हों, विशेषज्ञों के कईसमूहों ने नीतिकारों के समक्ष ऐसी रणनीतियाँ पेश की हैं जिनमें कुपोषण को रोकने के उपाय सुझाए गए हैं । यहां उस विशेष नीति के पड़ताल की गई है जो विभिन्न राज्यों में उसके अच्छे-बुरे प्रभावों पर समुचित चर्चा किए बगैर ही लागू कर दी गई ह। देश के कई राज्यों में अत्यंत गंभीर कुपोषण से निपटने के लिए रेडी टु यूज़ थेराप्युटिक फूड्स (आरयूटीएफ) नीति लागू की गई है । मौजूदा स्थिति इस प्रकार है : गंभीर कुपोषण से पीड़ित बच्चें के लिए मध्यप्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, बिहार और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में यूनिसेफ के बैनर तले और पोषण पुनर्वास केन्द्रों (एनआरसी) के माध्यम से वितरित करने के लिए एलम्पी नट नामक एक खाद्य पदार्थ का आयात किया जाता है । गंभीर कुपोषण के लिए इसे मानक उपचार बनाने का प्रस्ताव है । इस उत्पाद को फ्रांस की एक कंपनी न्यूट्रीसेट से आयात किया जाता है। यदि इसे भारत में ही तैयार किया जाए तो एक बच्च्े के उपचार पर ४० डॉलर (२००० रूपए) खर्च आएगा । एलम्पी नट की प्रभाविता का प्रदर्शन मलावी, नाइजीरिया, इथियोपिया, कांगो और मोज़ाम्बिक में आपदाआें व अकाल की स्थितियों में किया गया है । एलम्पी नट की प्रभाविता संबंधी अध्ययन मुख्यत: उन आपदाओं की स्थिति मे किए गए हैं, जहां गंभीर कुपोषण के लिए समुदाय आधारित उपचार नहीं था । गंभीर कुपोषण के इलाज में समुदाय आधारित उपचार (स्थानीय पदार्थोंा से बनी खाद्य पदार्थ) और प्लम्पी नट के प्रभाव के तुलनात्मक अध्ययन काफी कम हैं । तथ्यों की रोशनी में ये निष्कर्ष सामने आए है : - गंभीर कुपोषण के समुदाय आधारित उपचार के लिए कई विशेषज्ञों ने घरेलू खाद्य सामग्री के इस्तेमाल की ही अनुशंसा की है । इसका समर्थन भारतीय शिशु रोग विशेषज्ञ अकादमी ने भी किया है । अकादमी ने खास तौर पर आगाह किया है कि व्यावसायिक तौर पर उपलब्ध आरयूटीएफ स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल, स्वीकार्य, सस्ता और टिकाऊ नहीं हो सकता है । - भारत में गंभीर कुपोषण के उपचार के लिए कई प्रतिष्ठित अकादमिक व मेडिकल संस्थान और एनजीओ वर्षोंा से स्थानीय स्तर पर तैयार होने वाली खाद़्य सामग्री का ही इस्तेमाल करते आए हैं । यह सामग्री न केवल सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य है, बल्कि सस्ती भी पड़ती है । - गंभीर कुपोषण के उपचार के लिए घरों में तैयार सामग्री को लेकर कई तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं । जोधपुर मेडिकल कॉलेज गंभीर कुपोषण के उपचार के लिए ऊर्जा से भरपूर खिचड़ी, दूध, रार, दाल, शक्कर, फल, फलों का रस और अंडों का इस्तेमाल कर रहा है । तमिलनाडु में जिला पोषण कार्यक्रम के तहत दो से चार साल की उम्र के प्रत्येक बच्च्े को ८० ग्राम चावल, १० ग्राम दाल, २ ग्राम तेल, ५० ग्राम सब्ज़ियां और मसालों से निर्मित खाद्य सामग्री दी जा रही है जिस पर खर्च प्रति बच्च महज १.०७ रूपए आ रहा है । इससे प्रत्येक बच्च्े को ३५८.२ कैलोरी और ८.२ ग्राम प्रोटीन मिलता है । तमिलनाडु में ही ६ से ३६ माह की उम्र के बच्चें और गर्भवती व स्तनपान करवाने वाली महिलाआें कोें पूरक आहार के रूप में सत्तू दिया जाता है । इसकी प्रति किलो लागत केवल १५ रूपए आती है । गैर सरकारी संगठनों द्वारा किए गए कुछ अन्य प्रयोगों में अंडे, सोया उत्पाद और दूध दिया गया है जिसकी लागत प्रति बच्च ८ रूपए आती है और इससे बच्च्े का दिन भर का पोषण हो जाता है। - प्लम्पी नट को प्रचलित करने के प्रयास में उक्त खाद्य सामग्रियों की उपेक्षा कर दी गई है । हालांकि प्लम्पी नट भी प्रभावी है, लेकिन इससे खाद्य सुरक्षा की हमारी अवधारणा को नुकसान पहुंचाता है और हम ऐसे खाद्य पदार्थ पर निर्भर हो जाते हैं जिस पर परिवारों और समुदायों का नियंत्रण नहीं है । वैकल्पिक घरेलू खाद्य सामग्री के कई अन्य फायदे भी है : इससे स्थानीय कृषि को बढ़ावा मिलता है क्योंकि इस वैकल्पिक खाद्य सामग्री में प्राय: मोटा अनाज व स्थानीय स्तर पर मिलने वाली सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है । इससे कई परिवारों को अपनी जीविका कमाने का मौका मिलता है । कई बच्च्े तो मात्र इसलिए कुपोषण का शिकार होते हैं क्योंकि गरीबी की वजह से उन्हें पर्याप्त् व समुचित भोजन नहीं मिल पाता है । प्रक्रिया का विकेंन्द्रीकरण होने से अधिक से अधिक लोगों को इसमें भाग लेने का अवसर मिलता है । हालांकि इन खाद्य सामग्री की प्रभावोत्पादकता को साबित करने वाले अध्ययन बहुत कम हुए हैं, लेकिन इनकी सफलता के कई प्रमाण मिल जाएंगे । पोषण विशेषज्ञों व निकायों द्वारा इनके अध्ययन, विश्लेषण और दस्तावेज़ीकरण का अभाव चिंता का विषय होना चाहिए। यह बात समझ से परे हैं कि आखिर कुपोषण की समस्या के समाधान के लिए ऐसे खाद्य पदार्थ को इतने बड़े पैमाने पर क्यों प्रस्तुत किया जा रहा है जो हमारे लिए अनजाना है । गंभीर कुपोषण के लिए कोई रणनीति अख्तियार करने से पहले बेहतर होता कि कुछ और अध्ययन किए जाते और उसके बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जाता । इससे लंबे अर्से से की जा रही उस मांग को बल मिलता है कि बच्चें के पोषण के लिए हमें ऐसी नीति के ज़रूरत है जिस पर व्यापक चर्चा की गई हो । ऐसी कोई नीति लागू करते समय हमें दिमाग में यह बात रखनी होगी कि बच्चें और परिवार की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में पूरक पोषण बहुआयामी रणनीति का शायद बहुत अहम मगर केवल एक हिस्सा हो सकता है । सबसे बेहतर पूरक पोषण तो वही होगा जो आत्म-निर्भरता को प्रोत्साहन दे, लागत कम हो और सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य हो । हमें अच्छी तरह से सोच-विचारकर, योजना बनाकर और पर्याप्त् शोध के बाद ही कुपोषण से निपटने की कोई रणनीति अपना लेते हैं तो उसे बदलना मुश्किल होगा और इससे उन्हीं समुदायों व परिवारों को नुकसान पहुंचेगा जिनके बच्चें का `उपचार' करना हमारा लक्ष्य है। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हमारी समग्र नीति ऐसी हो जिससे सभी के लिए खाद्य, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। ***

३ हमारा भूमंडल

निर्धन होता एशिया
ची योक हिआेंग
वैश्विक आर्थिक संकट के गहराते संपूर्ण एशिया में गरीबी में और भी वृद्धि हो रही है । आज एशिया में एक अरब से अधिक व्यक्ति घटती आमदनी, रोजगार की हानि और निर्यात आधारित वृद्धि जो कि एशिया की समृद्धि को मुख्य मार्ग थी, के घटते विपन्नता का शिकार हो गए हैं । गौरतलब है कि दुनिया की सर्वाधिक गरीब आबादी एशिया में ही निवास करती है । पहले कहा जा रहा था कि विकसित देशों की मंदी एशिया पर प्रभाव नहीं डालेगी परंतु यह बात गलत साबित हुई । एशिया विकास बैंक (एडीबी) के अनुसार इस वर्ष एशिया महाद्वीप में वृद्धि दर के तीन प्रतिशत तक गिरकर ३.४ प्रतिशत के निम्न स्तर तक पहुंच जाने की आशंका है, जो कि १९९७-९८ के बाद न्यूनतमहै ।इस स्थिति में परिवर्तन अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और जापान की मंदी की व्यापकता और अवधि पर निर्भर करता है क्योंकि इन देशों में एशिया के निर्यात के ६० प्रतिशत होती है । एडीबी के अनुसार धीमी वृद्धि दर मायने हैं विकासशील एशिया में ८ करोड़ से अधिक व्यक्ति जिसमें से १.४ करोड़ अकेले चीन में हैं और २०१० तक २.४ करोड़ की अतिरिक्त आबादी का, गरीबी की चपेट में आ जाना । ये वो लोग हैं जो कि गरीबी के शिकंजे से मुक्त हो सकते थे बशर्तेंा वर्तमान आर्थिक संकट न आता और आर्थिक वृद्धि दर पूर्ववत कायम रहती । संयुक्त राष्ट्र संघ का भी अनुमान है कि कम वृद्धि दर वाली अर्थव्यवस्थाआें में गरीबों की संख्या और गरीबी दर में बढ़ोत्तरी हो सकती है । जमीनी हकीकत यह है कि इस वैश्विक उथल-पुथल ने गरीबो को सर्वाधिक चोट पहुुंचाई है । हालांकि खाद्य पदार्थोंा एंव इंर्धन के मूल्य अपने जीवन स्तर से नीचे आ गए है परंतु लोगों को जीवन स्तर २००७ के स्तर पर वापस नहीं आ पाया है । साथ ही अब यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जा रहा है कि वर्तमान वैश्विक आर्थिक संकट ने पिछले दशक में गरीबी को कम करने में पाई गई सफलता पर पानी फेर दिया है । ब्रिटेन स्थित विकास अध्ययन संस्थान (आईडीएस) द्वारा पांच राष्ट्रों की शहरी और ग्रामीण आबादी जिसमें बंगलादेश और इंडोनेशिया भी शामिल हैं, में किए गए जमीनी अध्ययन से पता चलता है कि निर्धन समुदाय के भोजन की मात्रा में कमी आई है, उनके भोजन में विविधता समाप्त् होती जा रही है एवं पोषण खाद्य पदार्थ भी उनकी पहुंंच से बाहर हो गए हैं । कुछ मामलों में व्यक्ति अपना उपचार स्वयं करने को मजबूर हो गए हैं क्यांकि वे महंगी स्वास्थ्य सेवाआें के भुगतान मेंअसमर्थ हैं । इतना ही नहीं इस मंदी के कारण बच्चें की शिक्षा तक खतरे में पड़ गई हैं और अनेक लोगों ने अपने बच्चें को स्कूल से निकाल कर सस्ते मदरसो में भर्ती करा दिया है । इंडोनेशिया के शहरी इलाकों में रहने वाले बड़ी तादाद में २००८ के अंत में अपने मूल निवास की ओर लौटने लगे क्योंकि निर्यात में आई कमी के कारण उनके अनुबंधो का नवीनीकरण नहीं हो पा रहा था । वहीं ढाका में वस्त्र निर्माण में कार्यरत श्रमिकों का कहना है कि उन्हें अब बेहतर कार्य स्थिति वाले कारखानों के बजाए जोखिम भरे व गंदे कारखानों में ही कार्य मिल पा रहा है । वहीं अनेक स्थानों पर लोग सोना खनन जैसे जोखिम भरे अथवा तस्करी जैसे असामाजिक कार्योंा की ओर मुड़ गए हैं । वहीं चीन में शंघाई एवं गुंआंगझो जैसे निर्यात आधारित औद्योगिक शहरों से २ करोड़ आंतरिक अप्रवासी अपने घरों को लौट गए हैं । एडीबी के अनुसार २००८ की चौथी तिमाही में विकासशील एशिया जिसमें पूर्वी एवं दक्षिण पूर्वी एशिया शामिल हैं की वृद्धि दर में ३० प्रतिशत तक की कमी आई हैं । वहीं दक्षिण एशिया में भी यह दोहरे अंकों में पहुंच चुकी है । विश्व बैंक का अनुमान है कि यूरोप, अमेरिका ओर मध्यपूर्व में आई मंदी के फलस्वरूप विकासशील देशों में आवर्जन के माध्यम से आने वाले धन में पिछले दो वर्षो में करीब १५ अरब डॉलर तक की कमी आई है । फिलीपींस जैसे देश जो कि इस तरह के धन पर अत्यधिक आश्रित हैं, कंगाली के कगार पर पहुंच चुके है । दक्षिण एशिया जिसमें भारत, बांगलादेश और पाकिस्तान शामिल हैं, में २००८ में इस धनराशि में १६ प्रतिशत की वृद्धि हुई थी जो कि २००९ में घटकर शून्य पर आ गई । इंडोनेशिया के ४० लाख नागरिक विश्वभर में कार्य करते हैं । एक अनुमान के अनुसार इनसे २ लाख से अधिक को स्वदेश लौटना पड़ सकता हैं । आर्थिक गिरावट की गंभीरता को अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि सन् २००७ से २००९ के मध्य एशिया में कार्य करने वाले गरीबों की संख्या में ५ से १२ करोड़ तक की वृद्धि हुई है । इन परिस्थितियों का सर्वाधिक विपरीत प्रभाव महिलाआें पर पड़ा हैं । क्योंकि वे वस्त्र निर्माण, कपड़ा और इलेक्ट्रानिक उद्योग में बहुतायत में कार्य कर रहीं थी और इन्हीं उद्योगों पर मंदी का सर्वाधिक प्रभाव भी पड़ा है । इन उद्योगों में पांच महिलाआें के मुकाबले दो पुरूषों को नियुक्त किया जाता था अतएव जीविका के साधने से उन्हें ही अधिक संख्या में हटाया गया । पूंजी बाजार की जाखिम लेने की क्षमता में कमी का खमियाजा भी एशिया के देशोंको उठाना पड़ रहा है । एडीबी का मानना है कि इन देशों में सीधे विदेशी निवेश में काफी कमी आई है और अधोसंरचना आधारित परियोजनाआें में तो निवेश का सूखा-सा पड़ गया है । अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं अन्य वैश्विक विकास बैंकों में प्रस्तावित सुधार के पश्चात यह उम्मीद बंधी है कि विकासशील देशों को कुछ अतिरिक्त धन प्राप्त् हो पाएगा परंतु वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए इसके बहुत न्यन होने की आशा है । इसी के समानांतर वर्तमान पूंजी बाजार का अत्यंत संरक्षणवादी रवैया भी चिंता पैदा कर रहा हे । पिछले कुछ महीनों में अमीर देशों ने अपने घरेलू वित्तीय क्षेत्र को विभिन्न तरीकों से सहायता पहुंचाई है । आईडीएस के शोध में बताया गया है कि मंदी की वजह से बढ़ रहे तनावों की वजह से घरेलू हिंसा के प्रकरणों में भी वृद्धि हुई है । इसी के साथ छोटे अपराध, ड्रग्स और शराब पीकर हंगामा करने के मामलों में भी तेजी आई है । इतना ही नहीं बच्चें और बूढ़ों को त्यागने और युवाआें द्वारा अपराधों की संख्या मे भी वृद्धि हुई है ।इन परिस्थितियों में वैश्विक अंतरनिर्भरता को भी चर्चा के दायरे में ला खड़ा किया है और इसके लाभों को लेकर बहस प्रारंभ हो गई हैं । सत्यता तो यही है कि गरीबी की समस्या सिर पर आकर खड़ी हो गई है और अधिकांश देश इसके लिए तैयार नहीं हैं । ***

४ आवरण कथा

निर्जला होती नदियाँ
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
हमारी धरती की रसवती नाड़ियाँ सरीखी नदियाँ, ऐसी जल रेखाएँ है जो हमारा भाग्य लिखती है । किन्तु आज हमारे सारे क्रियाकलाप जीवन का आधार खो रहे है । निर्जला नदियाँ प्यास से व्याकुल है । हमें अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए अपनी प्रकृति को निरापद रखना होगा ताकि उसकी गोदी में खेलती रहेे असंख्य नदियाँ । हमें अक्षय विकास की ऐसी सुखद बयार लानी है कि बहती रहे ये सरस धाराएँ । क्योंकि कोई भी नदी केवल जल वाहक ही नहीं होती है वह उपजाऊ धरती का मर्म संजोती है । संसार का हर व्यक्ति पेयजल, खाद्य पादर्थ, मत्स्य पालन, पशु पालन, कृषि एवं सिंचाई साधन आदि के लिए नदी जल परम्परा से जुड़ा है । जल चक्र की नियामक धारा स्वरूपा इन नदियों को सहेजना हमारा धर्म है । ताकि प्राण रक्षक तत्वों का प्रवाह हमारे जीवन में शाश्वत बना रहे और हमारी सभ्यता एवं संस्कृतिभी पोषित होती रहे । अब वक्त आ गया है कि हम उन कारणों को खोजे जो हमारी नदियों एवं जल वितरणिकाआें को निर्जला कर रहे है । हमारी रसवसना नदियों को सुखाकर अथवा प्रदूषित कर हमारी आँखों में आँसू भर रहे है । जब किसी नदी का जल पीने योग्य नहीं रहता और कोई प्यासा तट पर आकर प्यासा ही रह जाता है तो नदी भी यकीनन मर जाती है । अब तो सागर भी जलवायविक व्यतिक्रम तथा ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण तेजाबी होता जा रहा है। सागर में अम्लीयता बढ़ रही है । कार्बनिक एसिड पानी के पी एच स्तर को कम करता है, जिससे अम्लीयता बढ़ती है । जीवाश्म इंर्धन के दहन से उत्सर्जित कार्बन डाई आक्साइड का अवशोषण भी समुद्र के द्वारा होता है। तेजाबी होता हुआ समुद्र अपनी जैविकी खो रहा है । मानों आँसू पी पी कर सागर खारा हो रहा है । समुद्री धारा प्रवाह और ताप परिवर्तन के कारण बादल बनने की क्रिया भी प्रभावित हो रही है । कहीं पर वर्षा कम तथा कहीं पर सामान्य से अधिक हो रही है । कही नदियाँ सुखाड़ से प्रभावित है, तो कही बाढ़ से । जलाभाव हो अथवा जल भराव, दोनों ही स्थितियों में कष्ट तो नदी ही उठाती है । दर्द से नदियाँ कराह उठती है। कौन सुनेगा मरती हुुई नदी की आर्त पुकार? देखें तो जरा क्या है हमारी रस वसना नदियों का हाल। अमेरिका स्थित नेशनल सेंटर फॉर एटमोस्फिरिक रिसर्च (एन सी ए आर) के अध्ययन के अनुसार ग्लोबल वॉर्मिंग का जबरदस्त प्रभाव नदियों की प्राणता पर पड़ रहा है । वैज्ञानिकों ने ५६ वर्ष (सन् १९४० से २००४ तक) की दीर्घकालिक कार्ययोजना एवं अध्ययन के आधार पर विश्व की ९२५ नदियों के जलग्रहण एवं जलप्रवाह को आकलित किया । अध्ययन से यह ज्ञात हुआ कि ३०० नदियाँ जलवायु परिवर्तन से अधिक प्रभावित है। हिन्द तथा प्रशान्त महासागर में गिरने वाली २०६ नदियों के जल प्रवाह में कमी आई है और हिमनदीय आर्कटिक क्षेत्रों में होकर बहने वाली १०२ नदियों के जलप्रवाह में वृद्धि हुई है । इस प्रवाह वृद्धि का कारण तापन से पिघलते हिमनद तथा ग्लेशियर हैं और जिन नदियों में प्रवाह कम हुआ है उसका मुख्य कारक मनुष्य है । मनुष्य के अक्षम्य क्रिया कलाप न केवल जल का दुरूपयोग बढ़ा है वरन वह जल को विषाक्त भी कर रहे हैं । हम भूल रहे हैं कि अन्तत: यह विष हमें ही पीना पड़ेगा । किसी भी नदी के जल ग्रहण क्षेत्र तथा प्रवाह का सामान्य से कम या अधिक होना पर्यावरणविद्ों तथा भूवेत्ताओें को चिंतित करता है अब जन-जन को जल के सरोकार से जुड़ जाना चाहिए । यूँ तो किसी भी नदी का संकटापन्न होना गम्भीर बात है । तथापि वैश्विक रिपोर्ट में भारत की गंगा, चीन की पीली नदी, पश्चिमी अफ्रिका की नाइजर नदी तथा दक्षिणी अमेरिका की कोलोरेडो नदी को संकटापन्नता पर विशेष चिंता व्यक्त की गई है । हमें आंकड़ों की मुँहदेखी के बजाये सत्य से स्वयं साक्षात्कार करना चाहिए । आप अपने निकट की किसी भी जलधारा, सरिता अथवा नदी के तट पर जाकर स्वयं वस्तु स्थिति ज्ञात कर सकते हैं । नदियों के सूखे तटों तक झोंपड़ पटि्टयाँ बनी हुई मिल जायेगी । नदी के सुखाड़ों पर अवैध कब्जा जमाये हुए लोग, तट पर कूड़ा करकट करके नदी को नाला बनाने में मुख्य भूमिका निभाते है । उत्तराखण्ड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण बोर्ड का हालिया बयान आने पर कि गंगा का पानी प्रदूषण के चलते सिंचाई योग्य भी नहीं रह गया है, जल प्रहरी चिंता में डूब गए है । जिस गंगा जल की पवित्रता, श्रृद्धा और भक्ति, विज्ञान को चुनौति देती रही, उसकी यह दुर्गति क्यों और कैसे हुई ? जिस गंगा जल में आक्सीजन को पानी में बरकरार रखने की विलक्षण क्षमता रही है वह भी स्वयं निष्प्राण हो रही है । हालांकि जीवन दायिनी गंगा को नवजीवन प्रदान करने की कोशिश में १२०० करोड़ की धन राशि व्यय भी हो चुकी है तथा प्रतिवर्ष ३५० करोड़ आगे भी व्यय किया जा रहा है किन्तु नतीजा शून्य है । क्यों शिखर पर ही मैली हो रही है । गंगा कि आचमन योग्य भी नहीं रहती ? क्या गंगा को यूँ ही मरने दिया जाये ? ज्ञातव्य है कि कई राष्ट्रों की जल पोषिता राइन नदी कुछ दशक पूर्व तक मृतप्राय थी किन्तु गंभीर प्रयासों द्वारा उसे नवजीवन मिला । विश्व की नदियाँ अचानक संकटापन्न नहीं हुई है । अविवेकपूर्ण अत्यधिक दोहन, जलवायविक परिवर्तन तथा जनसहयोग का अभाव नदियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है । राष्ट्रो के बीच तथा एक ही राष्ट्र में राज्यों के बीच प्रवाहमान नदियाँ तो हमेशा विवाद के घेरे में रहती है । संकटापन्न नदियों की घाटियाँ भी प्रभावित हुई है । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू एन ई पी) तथा एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (ए आई टी) की हालिया रिपोर्ट, दक्षिण एशिया ताजा पानी संकट इसी ओर इंगित करती है । अत: आज ऐसे टिकाऊ विकास की आवश्यकता है जो हमारी धरती की नौसर्गिकता को भी अक्षुण्ण रख सके । प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधंुध दोहन से कुछ समय के लिए भले ही हम आर्थिक वृद्धि दर की चकाचौैंध में खो जाएं किन्तु दीर्घकालिक दृष्टि से यह घाटे का ही सौदा सिद्ध होता है । हम यह तथ्य भूल रहे है कि हमें प्रकृति से त्याग के साथ उतना ही ग्रहण करना चाहिए जो कि निहायत जरूरी है क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों पर हमारी संततियों का भी हक है । अन्य जीव जन्तुआें का भी हक है । यदि एक नदी मरती है तो मर जाती स्थान विशेष की सभ्यता । हमने विकास की आड़ में विनाश का ताना-बाना बुन डाला है और आधुनिक विकास की विसंगतियाँ हिमालय की उन चोटियों पर भी पहुँच गई हैं जो शुभ धवल हिमाच्छित रहती थी, वहीं से निकलती है सरस धाराएं और विराजती रही प्राकृतिश्री समृद्धि । किन्तु अब वहाँ भी जनसंख्या की सघनता सुरम्यता को आहत कर रही है । कोई भी नदी हमारी संस्कृति और सभ्यता का आइना होती है किन्तु अब नदियों का जल इतना अधिक प्रदूषित है कि उसमें हमे अपना अक्स भी नहीं दिखता । आखिर कब तक महिमावंत नदियों के जल का अनादर करते रहेंगे हम । यह विचारणीय प्रश्न है । नदियों के संरक्षण हेतु नदियों का संज्ञान जरूरी है । उनके उद्गम स्थल, प्रवाह मार्ग, जलग्रहण क्षमता तथा जल वितरण को भी समझना जरूरी है । गंगा यमुना तथा उनकी सहायक नदियाँ प्राय: दक्षिण पूर्व की ओर बहती है । इसके विपरीत रावी, व्यास और सतलज नदियाँ दक्षिण पश्चिम की ओर बहती हैंं । बंगाल की खाड़ी के उत्तर में गंगा तथा ब्रह्मपुत्र की जलवितरिकाएं मिलकर बड़ा और उपजाऊ डेल्टा बनाती है । उत्तरी भारत की इन नदियों का उद्गाता हिमालय पर्वत है जिसकी हिमाच्छातिदत श्रेणियों से नि:सृज जल की सूक्ष्म धाराएं नदियों का पोषण करती है । वन प्रांतर इन धाराआें के रक्षक हैं । जब यह नदियाँ धरती की गोद में उठखेलियाँ करती हैं तब शिव का डमरू सा बजता है। शिवालिक की श्रेणियों के दक्षिण मंे भावर और तराई परिक्षेत्र नदियों के अवतरण के कारण ही उर्वर है। क्येंकि नदियां अपने साथ उपजाऊ मिट्टी लाकर धरती पर बिखरा जाती हैं । आजकल पहाड़ो पर होने वाले खनिज-खनन के कारण भी नदियाँ आहत हो रही हैं और जल प्लावनता खो रही हैं । खनन से नदी का रूप विकृत होता है वह सुकृत नहीं रह पाती और सूख जाती है । दक्षिण के त्रिभुजाकार पठार के उत्तर में अरावली सतलज और यमुना को पृथक करता है । पूर्वीघाट और पश्चिमी घाट श्रेणियों को काटकर महानदी, गोदावरी कृष्णा पेनार तथा कावेरी नदियों ने अपनी विस्तृत घाटियाँ बना ली है । नर्मदा तथा ताप्ती नदियाँ पठारी भाग से निकलकर पश्चिम की ओर चौड़े मुहाने के रूप में अरब सागर में गिरती है । यमुना की सहायक नदियाँ चम्बल बेतवा और केन उत्तर पूर्व की ओर बहती हुई यमुना में गिरती हैं । पठार से निर्गत नदियॉ भी उपेक्षा का शिकार होकर निर्जला होती जा रही है। आदिकाल से ही नदियों के तटों पर मानवीय सरोकर जुड़े रहे हैं । नदियों को उनकी मातृवत्सला पोषण शक्ति के कारण विश्व मातर कहा गया है । नदियों के प्रति हम कृतज्ञता का भाव व्यक्त करते हैं । नदियों के प्रति काका कालेलकर का भाव दृष्टव्य है ``नदी को देखते ही मन में विचार आता है कि यह कहां से आती है और कहंा जाती है ... आदि और अंत को ढूंढने की सनातन खोज हमें शायद नदी से ही मिली होगी ....। पानी के प्रवाह या विस्तार में जो जीवन लीला प्रकट होती है उसके प्रभाव जैसा कोई प्राकृतिक अनुभव नहीं । पहाड़ चाहे कितना उत्तुंग या गगन भेदी क्यों न हो, जब तक उसके विशाल वृक्ष की चीर कर कोई जलधारा नहीं निकलती, तब तक उसकी भव्यता कोरी, सूनी और अलोनी ही मालूम होती है।'' ऐसी उत्कृष्ट मनीषा और भावबोध से अनुप्राणित होने पर भी उत्तर आधुनिकता के व्यामोह में सभ्यता के शीर्ष पर विराज कर आदमी उसी डाल को काटने पर आमादा हो गया है जिस पर स्वयं बैठा हुआ है । विकास की हाड़ और धन अर्जन की दौड़ में प्रकृति संरक्षण का भाव तिरोहित हो गया है । यही कारण है कि विश्व की प्रमुख नदियों में जल प्रवाह क्षीण होता जा रहा है । आशंका व्यक्त की जा रही है कि यदि यही हालात चलते रहे तो कुछ ही दशक बाद नदियों हो जायेंगी सुखाड-निर्जला । नदियों के निर्जला होने का सबसे बड़ा कारण है हमारे विकास कार्योंा का नदियों की धारा के विपरीत होना । विकास के लिए हमने नदियों को नाथ डाला और मथ डाला है और बंधन का दुस्साहस किया है । आज हम नदियों की निर्झरता को जबरन रोक रहे है जबकि जल तो बेरोकटोक प्रवाह का सूचक है । प्रवाह ही जल को सप्राण रखता है । प्रवाह द्वारा ही जल आत्म शोधन करता है । हमने नदियों के तरों को पाट दिया है । नदियों के पथरेख पर सड़कों का जाल बुन दिया हैं। नदियां के पाटों को पुलो से बांध दिया है। जिससे घुटने लगी है नदियों की साँस और जल जीवों की घूटने लगी है आस जो जलजीव नदियों के उद्गम से लेकर विंधु मिलन तक साथ निभाते है । वह संकरी सुरंगो में दम तोड़ जाते हैं और नदी एक अनाम अपराध बोध से जीतेजी मर जाती है । आखिर निर्जला होती नदियों को कैसे बचायें ? नितांत जरूरी है कि हम जन मानस में पानी के प्रति उस चेतन धारा को बहाएं कि सब ही जल प्रोतों के परिरक्षण में जुट जाएं । वहाँ कतार बद्ध वृक्षारोपण करने से मिट्टी को बांधा जा सकता है । तटों पर अनधिकृत निर्माण को तुरन्त रोकना जरूरी है , इस बात की निगरानी करनी होगी कि ऐसा काम तो नहीं हो रहा जिससे नदी की नैसर्गिकता भंग हो रही हो और नदी के सर्पिलला पथरेख को बदला जा रहा है । जागरूकता के द्वारा ही हम नदियों को निर्जला होने से रोक सकते हैं ।जल संभरण से ही हमारा जीवन सुरक्षित एवं पुर्नजीवन की ईमानदार कोशिश नहीं हुई है । नदियों के संस्कार लोक व्यवहार रीति रिवाज को निरंतर हतोत्साहित किया गया, तभी तो जल स्रोतो की दुर्गति हुई है । गंगा तथा यमुना के उद्धार हेतु करोड़ो रूपया पानी की तरह बहाया किन्तु भ्रष्टाचार के कारण हमने क्या परिणाम पाया यह जग जाहिर है । अविरल जल धाराआें को जलाशयों में बांधना अपराध है क्योंकि इससे नदी भी नैसर्गिक नहीं रहती, उसका रूप विकृत हो जाता है । जिससे जल की गुणवत्ता में भी कमी आती है । कौन सुनेगा निर्जला होती हुई नदियों की करूण प्रकार ? कौन समझेगा जलाभाव से आक्रांत जीव जन्तुआें का दर्द ? बेदर्द अर्थान्धियों के बीच कब तक निर्वाक रहेंगे हम ? यह विचारणीय प्रश्न है ? आईये सुपौल (बिहार) की रचनाकार अनुप्रिया के मार्मिक भाव बचा रहे पानी का अवगाहन करें - ``बचा रहे पानी मेघ में/ करने को तृप्त् / नदियों के सूखे अधरों को / बचा रहे संवेदनाआें का पानी / हृदय में बनाये रखने के लिए/ उष्मा रिश्तों में / बचा रहे तुम्हारी आँखों का पानी / यकीन दिलाने को / धरती पर मनुष्यता कायम है / बर्फ नही हुई । ***डाइनोसॉर के सबसे बड़े पदचिन्ह पाए गए फ्रांस के लीओन के निकट प्लेग्ने मेंलंबी गर्दन वाले विशालकाय शाकाहारी सॉरोपोड डाइनोसॉर्स के पदचिन्ह पाए गए हैं । डाइनोसॉर्स के इन पदचिन्होंं का कुल व्यास १.५० मीटर तक है , जो बताता है कि यह जानवर २५ मीटर लंबे होंगे और इनका वजन ४० टन रहा होगा । मैरी-हेतने मारकॉड और पैट्रीस लैंड्री ने इन पदचिन्हों को खोजा था पैलीओएन्वायरॉनमेंट्स एट पैलीओबायोस्फीयर्स लेबोरेटरी के जीन माइकल माजीन और पेरी हांट्जपर्ग ने इन पदचिन्हों को प्रामाणिक बताया है । शोधकर्ताआें द्वारा किए गए शुरूआती परीक्षणों के मुताबिक डाइनोसॉर के अब तक मिले पदचिन्हों में ये सबसे बड़े पदचिन्ह हैं । अगले कुछ सालों में ऐसे और भी पदचिन्ह मिलने की उम्मीद है ।

५ जीवन शैली

सर्वाधिक गंधवाला मसाला
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
तमिल में एक मशहूर मुहावरा है पेरूंगायम बैठा पांडम अर्थात हींग की डिबिया। इसकी विशेषता यह होती है कि मसाला खत्म होने के बाद भी गंध रह जाती है । यह मुहावरा लगभग वही बात व्यक्त करता है जो रस्सी जल गई मगर बल नहीं नए में है । हींग हमारे भोजन का एक प्रमुख घटक रही है । और अब इसी हींग का एक नया उद्योग बताया जा रहा है-कि यह परजीवियों और रोगकारकों का सफाया करके पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देती है । भारतीय भोजन के बारे में डॉ.टी.के. अचया की पुस्तक इण्डियन फूड-ए हिस्टॉरिकल कंपेनियन में बताया गया है कि प्राचीन काल से ही हींग का आयात अफगानिस्तान से किया जा रहा है। हींग वैदिक काल में भी ज्ञात थी । महाभारत में एक पिकनिक के दौरान मांस को काली मिर्च, संेधा नमक, अनारदाना, नींबू और हींग में पकाने का वर्णन आता है । सुगंधित गोंद फेरूला कुल (अम्बेेलीफेरी, दूसरा नाम एपिएसी) के तीन पौधों की जड़ों से निकलने वाला यह सुगंधित गोंद रेज़िननुमा होता है । फेरूला कुल में ही गाजर भी आती है । हींग दो किस्म की होती है - एक पानी में घुलनशील होती है जबकि दूसरी तेल में । डॉ. चिप रोसेटी इसे दुनिया का सर्वाधिक गंधवाला मसाला कहते हैं । वे बताते हैं कि किसान पौधे के आसपास की मिट्टी हटाकर उसकी मोटी गाजरनुमा जड़ के ऊपरी हिस्से में एक चीरा लगा देते हैं । इस चीरे लगे स्थान से अगले करीब तीन महीनों तक एक दूधिया रेज़िन निकलता रहता है । इस अवधि में लगभग एक किलोग्राम रेज़िन निकलता है । हवा के संपर्क में आकर यह सख्त हो जाता है कत्थई पड़ने लगता है । मुख्य घटक इसकी तेज़ गंध का स्रोत क्या है? गंध का स्रोत सल्फाइड नामक यौगिक है । इनमें से एक तो वहीं है जो हाई स्कूल केमेस्ट्री की प्रयोगशाला में किप्स उपकरण से निकलता है - हाइड्रोजन सल्फाईड या एचटूएस । हींग के मुख्य घटक (२-ब्यूटाइल १-प्रोपेनिल डाईसल्फाइड) की गंध तो इतनी तेज़ होती है कि युरोपीय लोग इसे एसाफेटीडा कहते हैं। फारसी में एसा का मतलब होता है रेज़िन और लैटिन में फेटीडा मतलब गंधयुक्त । एसाफेटीडा शब्द सबसे पहले इतालवी लोगों ने प्रचलित किया था । और भी ज़्यादा रंगीन नाम तो डेविल्स डंग यानी शैतान की विष्ठा है - जो इसके रंग और आकार दानों को समेटता है । फैरूला एसाफेटीडा भारत में नहीं उगाया जाता । यह अफगानिस्तान, ईरान, तुर्कमेनिस्तान और मध्य एशिया क्षेत्र का वासी है । ज़बर्दस्त निर्यात इस क्षेत्र से इस गोंद का निर्यात सदियों से दुनिया भर में होता आया है । इसका निर्यात मसाले के रूप में भी होता है और औषधि के रूप में भी । रोसेटी बताते हैं कि जब उन्होंने काहिरा में हींग खरीदी तो उसकी गंध खाद और अत्यधिक पकाए गए पत्ता गोभी की मिली-जुली गंध जैसी थी । मगर जब उन्होंने इसे तेल में डालकर गर्म किया तो एक लज़ीज़, खुशनुमा गंध निकलने लगी, जिसने प्याज़और लहसून की याद दिला दी । प्याज़ और लहसून में अपेक्षाकृत बेहतर खूशबू वाले डाईएलाइल सल्फाइड्स पाए जाते हैं । इनका उपयोग सीज़निंग और शोरबों में किया जाता है । हींग का व्यापार हेरात से उत्तर-पश्चिम की ओर ईरान में मसहाद की ओर बढ़ता है और वहां से यह मशहूर रेशम मार्ग मंगोलिया और मध्य एशिया से कैस्पियन सागर के तट तथा तुर्की से होकर भूमध्यसागर क्षेत्र तक फैला हुआ था । इस तरह से रेशम मार्ग मसाला मार्ग भी थी । एक ओर तो यह गंधयुक्त गोंदयुक्त गोंद पश्चिम की तरफ यूरोप पहुंचा, वहीं पूर्व की ओर मुगल भारत तक भी पहुंचा और भारतीय पकवान पहले से ज़्यादा ज़ायकेदार हो गए । यह अस्वाभाविक नहीं था कि इस गोंद को औषधीय गुणों की खान भी माना गया । इसका सबसे आम उपयोग उपच और पैट फूलने के संदर्भ में किया जाता है । आज भी शिशु के पेट पर नाभि के आसपास हींग मली जाती है । माना जाता है कि इससे पेट मेें फंसी वायु निकल जाएगी और पाचन में मदद मिलेगी । शायद यही कारण है कि इसे दालों और बीन्स (सोमनुमा चीज़ों ) में डाला जाता है । दालों और बीन्स में कार्बोनिक एनहाइड्रेस नामक एक एंज़ाइम पाया जाता है जो गैस बनाने में मदद करता है । और हींग डालने से इस प्रभाव से राहत मिलती है, कम से कम कहा तो यही जाता है । अन्य मान्यताएं वास्तव में हींग के औषधीय व स्वास्थ्य संबंधी असर को लेकर यूनानी व आयुर्वेद चिकित्सा पद्धतियों में कई मान्यताएं हैं जिनकी जांच की जानी चाहिए। मटेरिया मेडिका में कहा गया है कि हींग घेंघा (आयोडीन चयापचय) ब्रोंकाइटिस (संक्रमण-राधी?), गंजेपन (फॉलिकल प्रेरक?) में उपयोगी है । कहा तो यह भी जाता है कि यह स्त्रियों में मासिक स्राव शुरू करने में सहायक होती है या, दूसरे शब्दों में, हींग हार्मोन के नियमन में सहायक है । वाष्पशील तेलों के अलावा हींग के अन्य घटकों में कुमेरिन्स पाए जाते हैं। इनमें अम्बेलीफेरोन, एसारेनिनोटेैनोल्स और फेरूलिक एसिड प्रमुख हैं । हम इन पदार्थोंा के जैव रासायनिक गुणों को कुछ हद तक समझते हैं । इनमें से कुछ पदार्थ तो कीटनाशकों के रूप में काम करते हैं और कृमियों की वृद्धि को अस्त-व्यस्त करते हैं । फेरूलिक एसिड फफूंद-रोधी के रूप में काम करता है । इसके अलावा यह भी पता चला है कि यह वनस्पतियों के पोषण संतुलन में गड़बड़ी पैदा करता है और वनस्पति हारमोन्स के असर को रोकता है । अर्थात इन अलग-अलग प्रभावों का एक संतुलन होता होगा जिससे पौधे को लाभ प्राप्त् होता होगा । कोडुमुडी के एक किसान श्री चेल्लामुतु कहते हैं कि यदि वे सिंचाई की नाली में हींग की एक थैली रख दें, तो उनके खेतों में सब्ज़ियों की वृद्धि अच्छी होती है और वे संक्रमण मुक्त रहती है । उनसे बात करने पर पता चला कि पानी में हींग मिलाने से इल्लियों का सफाया हो जाता है और इससे पौधों की वृद्धि बढ़िया होती है । यह बहुत खुशी की बात है कि कोयंबटूर के पादप सुरक्षा अध्ययन केंद्र ने चेल्लामुतु के इन दावों के अध्ययन का एक कार्यक्रम हाथ में लिया हैं । ***

६ कविता

पथिक का संकल्पसंजय प्रधानगर्मियों की धूप में पथिकचला जा रहा राह परतपस से बुरा हाल था, उसका ।
सूर्य देव की चमकअपने प्रचण्ड तेज सेपवन देव थे, विलुप्त्छाया नहीं थी, पेड़ों कीपरिन्दे थे अकुलाये ।।
प्यास लग रही थी, उसेमन वो सोच रहा था,मिलें, बून्द दो शीतल जलकी तो प्यास बुझे उसकी ।।
गुबार धूल का उठ रहा,जंगल कंकरीट का दिख रहा,होठ शुष्क हो गये, उसकेपर जल नजर नहीं आरहा था उसे ।।
चलते-चलते थक गया जबसोचकर, आराम करूं कुछदेर वृक्ष के नीचे, उसे किसीकी आवाज आई, पथिक ने पूछाकौन हो भाई, मुझे मत करोंपरेशान मेरे भाई ।।मुझसे पूछते हो कि कौन हूँ,मैं हूँ पर्यावरण, जिसकातुमने ये हाल किया, तुमने ही बार-बार मेरा चीर हरणकिया और सब कुछबरबाद किया ।।
मैं हूँ तुम्हारा भूत भविष्यअपने लिये नहीं अपने बच्चेंके लिये ही, मुझ पर प्रहार मतकरों मेरे भाई ।।
अगर मैं नाराज हो गया तोसमझा रहा हूैं, सब खत्म हो जायेगा,रहेंगे जंगल कंकरीट के,वनस्पति समाप्त् हो जायेगी ।।
सुनकर पथिक हैरान था, किक्या वृक्ष बोलते हैं, और अपनीव्यथा कहते हुये, फिर उठा पथिकसोच के ये बात, वृक्षारोपण कर, पर्यावरण बचाना है, जन-जागरणकर जल संचय करवाना है ।।
सोच कर मन में लक्ष्य उसनेमंथन किया, और संकल्प भरमन में बढ़ता गया-बढ़ता गया ।।
***

७ जन जीवन

घृणित परम्परा और आधुनिक समाज
दयाशंकर मिश्र
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था - `` मैं अस्पृश्यता को हिंदू धर्म का सबसे बड़ा कलंक मानता हूं । लेकिन मैं हिंदू धर्म तत्व को समझ लेने का दावा करता हूं । अस्पृश्यता की अनुमति देकर हिंदू धर्म ने पाप किया है । इससे हमारा पतन हुआ है ।'' वहीं मनुस्मृति कहती है नीची जाति के व्यक्ति को जूठन और पुराने कपड़े ही दिए जाने चाहिए । अनाज भी उसे छांटन और सामान भी पुराना ही दिया जाए । हमारे इतिहास और समाज पर गांधी और मनुस्मृति दोनों का ही गहरा प्रभाव रहा है लेकिन दुर्भाग्य से हम आजादी के बाद गांधी के विचारों को इस तरह भूले कि वह केवल अवधारणा बन कर रह गए । जबकि मनुस्मृति हमारी आचार संहिता बन गई । किसी समाज की सहिष्णुता और प्रगतिशीलता का पैमाना संभवत: यही होता है कि वह अंतिम कतार के अंतिम व्यक्ति से किस तरह पेश आता है । हमारे संविधान, किताबों और मंचो पर तो हम उदारमना नज़र आते हैं लेकिन यथार्थ जीवन में हम अपने ही लोगों के प्रति बेहद दोगला और कठोर व्यवहार करते हैं । देश में बहुत से लोग इस बात पर यकीन नहीं करेंगे कि यहां अभी भी कमाऊ शौचालय रोजगार का एक साधन ह । (कमाऊ शौचालय शब्द का तात्पर्य भारत की परंपरागत शौचालय प्रणाली से है ।) कमाऊ इसलिए क्योंकि इससे नामनात्र की ही सही पर आय होती है । मध्यप्रदेश भी देश के उन १३ राज्यों में से एक है जहां मैला कमाने या ढोने की जागीर प्रथा आज भी जारी है । सरकारें इसे मानने को कभी तैयार नहीं होतीं । कलेक्टर से बात करें तो वह आपके पुन: से उस स्थान तक पहुंचने से पहले ही सब कुछ ठीक करा देते हैा । मैला ढोने के काम में देशभर में कितने लोग लगे हुए हैं, इसका सटीक आंकड़ा मिलना तो मुश्किल है । मध्यप्रदेश में मैला उन्मूलन के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने वाली संस्था जन साहस के अनुसार इस समय प्रदेश में मैला ढोने वालों की संख्या ३८४२ हैं, जिसमें से मात्र २२८ पुरूष हैं मैला ढोने के काम में हिंदुआें के वाल्मीकी और मुस्लिम समुदाय के हैला लगे हुए है । इस हैला समाज की मस्जिदें अलग है । जहां नहीं हैं, वहां इनको सबके साथ नमाज पड़ने तक की इजाजत नहीं हैं । कुछ विशेष अवसरों जैसे ईद पर इनकी अलग से व्यवस्था की जाती है लेकिन उसमें भी उनको जकात के लिए घर से सामान नहीं लाने का फरमान जारी होता है । रोटी-बेटी का व्यवहार तो बहुत दूर की बात है । उज्जैन में इनकी एक पूरी बस्ती है जिसे हैलावाड़ी कहा जाता है । देशभर में हैला परिवार बहिष्कृत जीवन जीने को अभिशप्त् हैं । मुस्लिम हैला की तरह हिंदुआें के वाल्मीकि भी सदियों से अब तक इस काम में जुटे हुए हैं । वाल्मीकि समाज के लोगों को आज भी कई जगह हिंदुआें के साथ बैठकर खाना तो दूर मंदिरों तक में जाने नहीं देते । मध्यप्रदेश के मंदसौर के भील्याखेड़ी के वाल्मीकि आजाद भारत में पहली बार २००८ में पुलिसबल के साथ राम मंदिर में प्रवेश कर पाए । वाल्मीकियों के बच्चें को स्कूल में सबसे पीछे बैठने, छोटे बच्चें की गंदगी उठाने और मरे हुए जानवरों को फेंकने के काम में भी लगाया जात है । मैला ढोने के विरोध में गरिमा अभियान चलाने वाले मोहम्मद आसिफ बताते हैं कि सामाजिक दायरे इतने जटिल हैं कि वहां लगभग गुलामी का जीवन जीने वाले सामाजिक बहिष्कार के डर से नारकीय जीवन को नहीं छोड़ पाते । आंबेडकर जिस पानी के मटके से पानी लेने पर पीटे जाते रहे वह पिटाई आज तक जारी है । वाल्मीकि और हैला भले ही अलग-अलग धर्मोंा से संबंध रखते हों लेकिन वस्तुत: दोनों ही समुदाय मेहतर या भंगी के रूप में ही पुकारे और जाने जाते हैं । इस संदर्भ में साहित्यकार अमृतलाल नागर ने लिखा है मेहतर समुदाय पर काम करते हुए मुझे क्रमश: यह अनुभव होने लगा है कि भंगी जाति नहीं है और यदि है भी तो केवल गुलामों की जाति हैं। श्री नागर के अनुभवों को लगभग पचास बरस हो गए हैं लेकिन अंदर की तस्वीर आज तक नही बदली । स्कूटर पर जाते हुए हैला या वाल्मीकि से अगर गांवों में मारपीट नहीं होती तो इसका कारण कोई परिवर्तन नहीं बल्कि कुछ हद तक कानून और उच्च्वर्ग की मजबूरियां हैं । जैसे ही कानून की रेखा पार होती है लोग अपनी उच्च् जाति प्रकट कर देते हैं । वैसे मनुस्मृति समेत हमारे ज्यादातर ग्रंथों में दास दासी नीची जाति के ही हैं । नारदीय संहिता में दासों के पंद्रह कर्म बताए गए हैं, जिनमें से एक मल-मूत्र उठाना भी ह। शहरों में संडासों का चलन बहुत पुराना है। उस समय कथित निम्न जाति के लोग और विजेताआें से पराजित लोग ही इस काम के लिए विवश किए गए होंगे । राजशाही, सामंतवाद जिसमें यह सब शुरू हुआ व चला उसका दौर तो काफी हद तक बीत चुका है । हम लोक तंत्र में ६० से अधिक बरस बिता चुके हैं, असली चुनौती तो यही है कि मैला ढोने जैसी प्रथा आज भी अस्तित्व में क्यों हैं ? क्या यह हमारे संविधान एवं संसद के लोकतांत्रिक ढांचे को चुनौती नहीं हैं ? लोकतंत्र का मूल दायित्व है, हर मनुष्य की अभिव्यक्ति और मानवाधिकार की रक्षा ! एक राष्ट्र के रूप में हम अभी तक यह सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं कि समाज धर्मशास्त्रों के अनुकूल नहीं, बल्कि संविधान और नागरिकों के मूल अधिकारोंके तहत आचरण करे । दुर्भाग्य से हमारे अधिकांश धर्मशास्त्र समता और समानता की बात ही नहीं करते हैं । वाल्मीकि और हैला लाखों में हैं। लेकिन वे बिखरे-बिखरे हैं इसलिए उनके साथ हो रहे विषमतापूर्ण आचरण के लिए कौन जिम्मेदारी ले ? समाजशास्त्री व विश्लेषक कह रहे हैं कि समाज बदल रहा है । परिवर्तन आ रहा है । इसमंे समय लगता है, लेकिन ओर कितना समय लगेगा? भौतिक रूप से अब मैला ढोने का काम सिमट रहा है । कच्च्े शोचालय हट रहे हैं लेकिन इस निर्मम व्यवहार में हम कब मुक्त हांगे । इसके लिए क्या प्रयास होना चाहिए ? क्योंकि यह किसी राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा नहीं है । आधुनिक नेताआें में गांधी संभवत: पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होने मेला ढोने वालों की पीड़ा को समझा । गांधी ने कोलकाता में हुए राष्ट्रीय कांगे्रस के अधिवेशन में स्वयंसेवकों से सफाईकर्मियों से काम नहीं करवाने को कहा था । हालांकि स्वयंसेवकों द्वारा इस बारे में खुद को असमर्थ बताने के बाद गांधीजी ने स्वयं ही मैला साफ करने की पहल की थी । १९१८ में जब उन्होंने साबरमती आश्रम की स्थापना की तो भी आश्रमवासियों को स्वयं मैला साफ करने की सलाह दी । दुर्भाग्य से हमने अपने नेताआें के अनुकरणीय कामों को ठीक से प्रचारित नहीं किया । गांधीजी ने एक बार कहा था संभव है कि मैं पुन: जन्म लूं । अगर ऐसा होता है तो मैं चाहूंगा कि किसी सफाईकर्मी के परिवार में जन्म लूं ऐसा करके मैं उन्हें सिर पर मैला ढोने की अमानवीय, अस्वस्थकर और घृणित प्रथा से मुक्ति दिला सकूंगा । संविधान निर्माताआें ने हम भारत के लोगों की तरफ से जो शपथ ली थी, उसे एक-एक करके उनके उत्तराधिकारियों ने तार-तार कर दिया । एक राष्ट्र के रूप में हमें बहिष्कृत और अस्पृश्य जीवन जीने वाले लोगों का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने अब तक शांति, सब्र से वह सबकुछ सहा है । जिसके बारे में सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं । आधुनिक समय में जब मायावती जेसे लोग शक्तिशाली हुए तो वे भी सवर्ण बन गए । वे सोशल इंजीनियरिंग ले आये जिससे उनको बहुमत तो मिलता हैं, लेकिन दलितों पर अत्याचारों में कोई कमी नहीं आती । दरअसल हमें एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो जाति से आगे की बात कह सके । जाति के सवाल की फिक्र लोकतंत्र के तीन स्तंभो ने तो पहले ही भुला दी थी । इसके चौथे स्तंभ यानी मीडिया के टार्गेट रीडर में भी ये समुदाय नहीं आते । ऐसे में बदलाव के रास्ते की खोज के लिए शायद किसी पांचवे स्तंभ की खोज आवश्यक हो गयी है। ***पहली बार पक्षियों के डीएनए की जाँच दुनिया में ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी देश की वायुसेना को अपने आकाश में उड़ते पक्षियों की डीएनए जाँच करानी पड़ी है । इससे बेहत ऊँचाई पर उड़ते विमानों से टकराने वाले पक्षियों की मानसिकता का पूरा खाका तैयार किया जा सके । मिग २७ और मिराज जैसे एक इंजन वाले विमानों की चपेट में अगर कोई पक्षी आ जाए तो वह उसके इंजन में जा फँसता है और विमान दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है । भारतीय वायुसेना को यह नायाब तरकीब इसलिए सूझी क्योंकि वह ऊँचाई पर उड़ने वाले पक्षियों से होने वाली विमान दुर्घटनाआें से हैरान-परेशानी थी। उन पक्षियों के बारे में पता नहीं था जो कहीं अधिक ऊँचाई पर उड़ते हैं और हादसों का कारण बनते हैं ।

८ प्रदेश चर्चा

उड़ीसा : वे लोगों को मारना चाहते हैं
कृष्णा वडाका
मैं डोंगरिया कोंध जनजाति का एक सदस्य हूं और मुझे मेरी इस पहचान पर गर्व है । मैं नियमगिरि की पहाड़ियों में रहता हूं । इस पहाड़ी पर हमारे देवताआें का भी निवास हैं न हमें और न हमारे पुरखों को इस बात की जरा सी भी आशंका नहीं थी कि किसी दिन हमारे घर और जीवनशैली को खतरा पैदा होगा । परंतु हम पर अब यह कहर बरपा चुका है। हम नहीं जानते कि तब हमारा क्या होगा जब वेदान्त की मशीनें उन पहाड़ियों को खोदने लगेगी जो कि हमारा पारम्परिक निवास है । मेरे गांव का समझदार पुजारी जानी मुझसे कहता है कि मेरे माता-पिता, दादा, परदादा पीढ़ियों से यहां रहते आए हैं । मैं नहीं जानता कि यहां सबसे पहले कौन आया था । परंतु मैं इतना तो जानता हूं कि मेरे पूर्व इन जंगलों में रहते थे और अब उनकी आत्मा यहां निवास करती है जो हमें वर्षा, तूफान, जानवरों और बीमारियों से बचाती है । मैंने अपने जीवन के ४७ साल इन जंगलों और पहाड़ियों में फल और जंगल की अनेक चीजों को इकट्ठा करते हुए एवं डोंगर खेती के द्वारा सब्जी और कोदो उगाते हुए बिताए हैं । मैं तलहटी के कस्बे में जाकर अपने इन उत्पादों को बेचता आयाहूँ । मैं अपने परिवार में बच्चें के साथ यहां रहता हूं । मैं आपको कैसे बता सकता हूँ कि उनके बच्च्े भी इन पहाड़ियों और जंगलों में खेल पाएंगे क्योंकि मुझे तो अब इस बात का भी भरोसा नहीं है कि मेरे अपने बच्च्े मेरे अपने इस गांव में बड़े हो भी पाएंगें कि नहीं । क्या आप नहीं जानते कि वेदान्त यहां पहुंच चुकी है? क्या आपने तलहटी में बसे छोटे से कस्बे से गुजरते हुए ट्रकों का शोर नहीं सुना ? वे उसमें मशीनें लादकर लाए हैं । ऐसी मशीनें जो हमारी सुंदर पहाड़ी नियमगिरि को लील जाएगीं । वे कहते हैंं कि हमारी नियमगिरि पहाड़ियां की चट्टानों में एल्युमिनियम नामक बहुत मूल्यवान खनिज है । उन्होने मुझे यह भी बताया कि यह पहाड़ियों की शुरूआत से ही इनमें हैं । मेरे पूर्वजों ने कभी इसकी परवाह नहीं की । क्योंकि जब हमारे देवता नियम राजा ने हमें जमीन के ऊपर ही इतना सबकुछ दे रखा है तो हम अपने पैरों के नीचे की जमीन से कुछ भी निकालकर क्यों खाएं ? क्या एल्यूमिनियम हमारे जीवन, हमारी पहाड़ियों फौर हमारे जंगलों से भी आिाऎाउ महत्वपूर्ण है ? वे कहते हैं कि एक युद्ध लड़ा जाएगा, बहुत बड़ा युद्ध । इसके लिए बहुत सारे हथियारों की आवश्यकता पड़ेगी । एल्यूमिनियम एक ऐसी धातु है जिससे ऐसे हथियार बनाए जाएंगे लो लाखों लोगों को मार सकते हैं। वे लाखो को क्यों मारना चाहते हैं ? क्या वे हम लोगों जैसे बैठकर आपस में निपटारा नहीं कर सकते ? हमें भी महसूस हो गया है कि एल्यूमिनियम बहुत ही ताकतवर धातु है वे लोग हमारे गांव में आए और हमसे इस जगह को छोड़ने को कहा । वे सब कुछ खोद डालना चाहते हैं । आपको उधर क्षितिज दिखाई पड़ रहा है न ? वे उस क्षितिज से इस क्षितिज तक का सब कुछ अपनी मशीनें से तहस-नहस कर डालेंगे । आप कभी लांजीगढ़ गए हैं? ये वो जगह है जहां वेदांत की मशीनों ने कार्य करना शुरू भी कर दिया है । उन्होंने मेरे आदिवासी साथियों को जंगल से बेदखल कर दिया है और उनकी जमीनों पर जबरन कब्जा भी कर लिया है। उन्होंने कहा था कि वे उनके लिए घर बनाएंगे, बनके बच्चें को पढ़ाएंगे, उन्हें काम और अन्य सुविधाएं भी देंगे । वे झूठ हैं । उन्होंने कुछ भी नहीं दिया, बल्कि सारे पेड़ काट डाले और वहां एक ऐसा कारखाना लगा दिया जो खूब सारा सफेद धुंआ भर छोड़ता है । चारों और इतनी धूल हो गई है कि लोग बीमार पड़ने लगे हैं । वहां बहने वाली छोटी धाराएं (नदिया) अब हमारी प्यास नहीं बुझाती । उनमें से ढेर सारी तो सूख गई है । वे हमारे यहां की महिलाआें को बड़े अजीब ढंग से देखते हैं । हमें इस बात का डर है कि वे हमारी स्त्रियों को भी ले जाएंगे । वो अभी तक हमसे इसलिए दूर हैं क्योंकि उन्होंने हमारे कंधो पर टंगी कुल्हाड़ी और हाथों में चाकू देख लिया है । दोस्तों, वेदान्त की मशीनों और किराए के सैनिकोंसे मुक्ति दिलाने में हमारी मदद कीजिए । हम हमारी पहाड़ियों, नदियांे और जंगलों के बिना जिंदा रह सकते हैं । हम कहीं और रह ही नहीं सकते भले ही एल्यूमिनियम मिले या न मिले । ***

९ पर्यावरण परिक्रमा

अब २५ साल तक रोशन रहेगा बल्ब !
वर्तमान में बिजली की बचत के लिए अधिकांश स्थानों पर सीएफएल बल्ब का प्रयोग किया जा रहा है, जिससे बिजली की खपत भी कम होती है और साल भर की गारंटी में पूरी कीमत भी वसूल हो जाती है । मगर अब एक ऐसा बल्ब भी आ गया है जिसे रोज चार घंटे जलाया जाए तो यह दो या चार नहीं बल्कि पूरे पच्चीस साल तक साथ निभाता है । केवल इतना ही नहीं यह सीएफएल से भी ज्यादा रोशनी बचाएगा ओर इसकी रोशनी भी ६० वॉट के सामान्य बल्ब जैसी ही होगी । इतने सारे गुणों वाला यह जादुई बल्ब ब्रिटेन के बाजारों में बिकना भी शुरू हो गया है । दिक्कत सिर्फ यह है कि फिलहार इसकी कीमत करीब २४०० रूपए है । बल्ब निर्माताआें का दावा है कि फैरोक्स नाम का यह बल्ब मात्र तीन सालों में ही अपनी कीमत वसूल करा देगा और फिर २२ सालों तक यह मुफ्त सेवा देता रहेगा। इसकी रोशनी रेग्यूलेटर की मदद से कम ज्यादा भी की जा सकेगी । बिजली की बचत करने वाले कॉम्पैक्ट फ्लोरोसेंट लैंप (सीएफएल) पहले से ही बाजार में बिक रहे हैं लेकिन कछ लोगों को इसकी रोशनी सामान्य बल्बों से भिन्न होने के कारण पसंद नहीं आती । इसके अतिरिक्त सीएफएल बल्बों में पारे का इस्तेमाल होता है, जिसके कारण इसके फ्यूज होने के बाद नष्ट करने में काफी एहतियात बरतने की जरूरत होती है । निर्माताआें का कहना है कि इसमें पारे का इस्तेमाल नहीं किया है । ब्रिटिश समाचार पत्र डेली मेल के अनुसार यह बल्ब फ्रास्टिड ग्लास का बना है और इसमें रोशनी के लिए चार सफेद और दो लाल डायोड्स (एलईडी) लगे हैं । एक एलईडी एक लाख घंटे यानी करीब ५० साल तक चल सकता है ।मसूरी में इको टैक्स हवा-पानी बदलने की खास तौर से शहरियों की चाहत ने देश के हिल स्टेशनों की आबोहवा ऐसी खराब कर दी है कि अब उसे सुधारने के लिए इको टैक्स लगाने और टूरिस्टों का कोटा तय करने जैसे उपायों पर विचार किया जा रहा है । जहां उत्तराखंड स्थित पहाड़ों की रानी कहे जाने वाले मसूरी की नगरपालिका ने प्रति टूरिस्ट १००-२०० रूपये वसूलने का फैसला किया है, वहीं केंद्र सरकार पर्वतीय राज्यों के धार्मिक और गैर-धार्मिक पर्यटक स्थलों पर यात्रियों की संख्या तय करने की योजना बना रही है । उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, सिक्किम और अरूणाचल प्रदेश में यात्रियों का कोटा तय करने के पीछे जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने का तर्क काम कर रहा है । हर साल टूरिस्ट सीजन में प्राय: इन सभी जगहों पर जुटने वाली भीड़ से बचाने वाले ऐेसे उपायों का स्वागत ट्रेवल एजेंसियों, होटलों और टूरिस्टों के बल पर चलने वाले बिजनेस के पालिकों के सिवा हर कोई करना चाहेगा । इको टैक्स के अपने फायदे हो सकते हैं । इससे मिलने वाले धन का उपयोग कूड़े-कचरे के निपटारे, वृक्षारोपण, पुरानी धरोहरों के रखरखाव, सौंदर्यीकरण और टूरिस्टों के लिए सुविधाएं जुटाने में किया जा सकता है । पर सवाल है कि आखिर टैक्स और कोटे जैसी नौबत आई ही क्यों ? क्या देश में पर्यटन स्थलों की कमी हो गई है या अचानक लोगों में घुमक्कड़ी का शौक पैदा हो गया है ? ये समस्याएं भेड़चाल और उपभोगवादी टूरिस्टों की देन ज्यादा लगती हैं । गर्मियों में हर कोई चार धाम हो आना चाहता है, तो बच्चें को भी छुटि्टयों में मसूरी, शिमला कुल्लू-मनाली, नैनीताल तक धावा मार लेने का जोखिम लोग यह जानने के बाद भी लेने को उतारू रहते हैं कि वहां के होटलों को छोड़िए, शायद मॉल रोड़ कहलाने वाली सड़कों पर तिल रखने की जगह भी न मिले । यही टूरिस्ट कहीं भी कचरा फेंक देने की अपनी आदतों से इन जगहों को कूड़ाघर में बदलने के लिए जिम्मेदार हैं। बेशक , कुछ गिने-चुने और नामी पर्यटक स्थलों का इन्फ्रास्ट्रक्चर टूरिस्टों के माफिक है, वहां आना-जाना आसान है, पर अब जरूरत देश में कुछ नई भ्रमण योग्य जगहों की खोज की हैं । हिमाचल की रेणुका झील या उत्तराखंड का श्यामला ताल पर्वतीय सौंदर्य की झलक देने और मन को सुकून पहुंचाने वाली जगहें हो सकता है, बशर्ते उन्हें भी बेहतरीन इन्फ्रार्स्टक्चर मुहैया कराया जाए और उनका प्रचार-प्रसार हो । ऐसा खोजें टूरिस्टों को भी खुद को भीड़-भड़क्के से बचाने के लिए करनी चाहिए । इसी तरह टैक्स और कोटे से ज्यादा जरूरत आत्म-अनुशासन विकसित करने की है ताकि पहाड़ों में ही नहीं, नदियों, पार्कोंा और शहरों-कस्बों में भी प्रदूषण पर रोक लग सके। एक गोली बड़ा देगी इंसान के २५ साल इंसान को अमर बनाने और ताउम्र जवां बनाए रचाने की तमाम कोशिशें चल रही हैं । कहा जा रहा है कि २० साल बाद इंसान को अमरत्व देने के तरीके खोज लिए जांएंगे । लेकिन फिलहाल ऑस्ट्रिया के वैज्ञानिकों ने एक अहम् कामयाबी हासिल की है । उनका दावा है कि वह एक ऐसी गोली खोजने के करीब हैं, जो इंसान की उम्र २५ साल तक बढ़ा देगी । वैज्ञनिकों का कहना है कि इस वंडर पिल की वजह से भविष्य में विकसित देशों मे पैदा होने वाले आधे से ज्यादा बच्च्े १०० साल से भी ज्यादा उम्र तक जीएंगे । इस दवा को उन्होंने अमरत्व की दवा करार दिया है । यह स्पर्मीडीन अणुआें के आधार पर काम करती है, जो फ्री रैडिकल्स नाम के नुकसानदायक रासायनों से शरीर की सुरक्षा करने मं मदद करते हैं । आस्ट्रिया की ग्रैज यूनिसवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने डॉ. फ्रैंक मैडियो के नेतृत्व में यह अहम् खोज की है । मैडियों ने उम्मीद जताई कि अब ऐसी दवाएं ढूंढने में कामयाबी मिल सकती है, जिससे उम्र बढ़ना नाटकीय ढंग से धीमा हो जाएगा और लोग लंबे समय तक स्वस्थ रहेंगे । शोध में कहा गया है कि ब्रिटेन में फिलहाल औसत आयु ८१ वर्ष है । लेकिन इस दवा से यह १०० के पार जा सकती है । उम्र बढ़ना एक जटिल प्रक्रिया का परिणाम है, जिसमें अंतत: कोशिकाएं मर जाती है । स्पर्मीडीन की मात्रा घटने से ही उम्र बढती है । यह पदार्थ कोशिकाआें के विकास के लिए जरूरी है । शोधकार्ताआें ने पाया कि स्पर्मीडीन की डोज देने से कोशिकाआें की उम्र चर गुना तक बढ़ गई । उनके एक प्रयोग में मानव प्रतिरक्षा तंत्र की१५ फीसदी कोशिकांए ही लैब में १२ दिन के बाद जिंदा रह सकी, जबकि इन्हें स्पर्मीडीन दिया गया तो ५० फीसदी तक कोशिकाएं जिंदा रहीं । इसी तरह चूहों को जब २०० दिन तक स्पर्मीडीन पानी के साथ पिलाया गया तो उनमें फ्री रैडिकल की मात्रा ३० फीसदी तक घट गई ।पर्यावरण और नौकर शाही का खेल दिल्ली हाई कोर्ट ने पर्यावरण से संबंधित एक शीर्ष संस्था पर जो टिप्पणी की है, उसे गंभीरता से लेने की जरूरतहैं । कोर्ट ने नैशनल एनवायरनमेंट अपेलेट अथॉलिटी (एनईएए) के बारे में एक याचिका पर सुनवाई के दौरान इस बात पर हैरानी प्रकट की है कि आखिर इसमें पर्यावरण विशेषज्ञों की बजाय केवल नौकरशाहों को क्यों रखा गया है । इसके सदस्यों ने अपने निजी कार्यक्रमों को ध्यान में रखकर अनेक दौरे किए और बैठकों का न तो कोई ब्योरा दिया और न ही अपने दौरों के नतीजों के बारे में कोई खास जानकारी दी । अथॉरिटी की स्थापना १९९७ में हुई थी, जिसका काम विभिन्न उद्योगों को एनवायरनमेंट क्लियरेंस देना है, लेकिन इसके कई निर्णयों को अदालत में चुनौती दी गई । संभवत ऐसे ही तमाम मुद्दों पर विचार करने के बाद सरकार ने इसकी जगह ग्रीन ट्रिब्यूनल के गठन का निर्णय किया है लेकिन इसकी भी क्या गारंटी है कि वह एनईएए से अलग होगी? सच तो यह है कि सरकार द्वारा गठित ज्यादातर ट्रिब्यूनलों, बोडों और कमिशनों का हाल कमोबेश इसी जैसा है । जैसे कि इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि सरकार की तमाम कवायदों के बावजूद अब तक पर्यावरण का संकट दूर होता क्यों नजर नहीं आ रहा है । दरअसल हमारे राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के लिए पर्यावरण का मुद्दा एक दुधारू गाय की तरह है, क्योंकि इसमें कोई जोखिम नहीं है । इससे वोट बैंक नहीं बनते-बिगड़ते हैं । हां, बीच-बीच में कभी-कभी अदालत का डंडा बरसता है जैसे पिछले साल यमुना प्रदूषण के मामले में हाई कोर्ट ने दिल्ली जल बोर्ड के कुछ अधिकारियों को जेल और जुर्माने की सजा सुनाई थी ।प्रदूषण दूर करने के मामलें में सरकारें क्या कर रही हैं, उन्होंने कितने पैसे खर्च किए ,उसका हिसाब मांगने वाला आमतौर पर कोई नहीं हैं और अगर इसका हिसाब मांगा भी जाए तो यह मामला इतना तकनीकी है कि सरकारी बाबू तरह-तरह के बहाने बना कर आसानी से निकल जाते हैं । बहुत हुआ तो सारा दोष पूर्ववर्ती सरकार की नीतियों पर मढ़ देते हैं । आज पर्यावरण पर बने तमाम सरकारी अपने मनचाहे वाली औद्योगिक इकाइयों की पहचान कई बार की गई, पर कभी उन पर शिकंजा नहीं कसा गया । क्या प्रदूषण जैसे संकट का सामना कागजी घोड़ो से किया जा सकता है ? जब तक हमारे देश में भी पर्यावरण को लेकर जागरूकता नहीं होगी अब तक इसके नाम पर बने तमाम सरकारी बोर्ड मनचाहे नौकरशाहों को उपकृत करने का जरिया बने हुए हैं ये नौकरशाह और उद्योगपतियों के मधुर रिश्तों के कारण प्रदूषण करने वाली औद्योगिक इकाइयों की पहचान कई बार की गई पर कभी उन पर शिकंजा नहंी कसा गया । क्या प्रदूषण जैसे संकट का सामना कागजी घाड़ों से किया जा सकता हैै । जब तक हमारे देश में भी पर्यावरण को लेकर जागरूकता नहीं होगी तब तक इसके नाम पर सरकार के भीतर और उसके बाहर का एक तबका अपने हित ही साधता रहेगा । ***

१० प्रयास

हिमालय का पर्यावरण और जन भागीदारी
भारत डोगरा
हिमालय के पर्यावरण को बचाने का कार्य इस क्षेत्र के वनों व नदियों की रक्षा से जुड़ा है अतएव इसके साथ स्थानीय लोगों के सरोकारों और जरूरतों को जोड़ना जरूरी है । उत्तराखंड के उत्तरकाशी और ठिहरी जिलें में कई मोर्चो पर प्रयासरत संस्था हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान के कार्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता यही रही है कि उसके माध्यम से वन व नदियों की रक्षा के महत्वपूर्ण प्रयास गांववासियों की दीर्घकालीन भलाई से जुड़ते हुए आगे बढ़े हैं । इन प्रयासों में उसे हिमालय सेवा संघ जैसी मित्र संस्थाआें का भी भरपूर सहयोग भी प्राप्त् हुआ है । चिपको आंदोलन के बाद के दौर में प्रेरणा प्राप्त् करने वाला वनों की रक्षा का एक महत्वपूर्ण आंदोलन था-रक्षा सूत्र आंदोलन । इस आंदोलन में जहां बहुत दूर-दूर के गांवों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की, वहां आंदोलन के आरंभी में व इसे स्थिरता देने में हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान (हिपशिस) व इसके अध्यक्ष सुरेश भाई ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । चिपको आंदोलन के प्रयासों से उत्तराखंड के एक बड़े क्षेत्र में वन-कटाव पर रोक लग गई थी । पर वर्ष १०९४ के आसपास कुछ स्वार्थी तत्वों ने बहुत चालाकी से पेड़ कटवाने की साजिश रची । उन्होंने हरे पेड़ों को भी सूखे पेड़ों के रूप में कागजों पर दिखा दिया । हिपशिस ने इस संबंध में सरकारी रिकार्ड भी प्राप्त् कर लिए व इसके साथ मौके पर जांच कर स्पष्ट कर दिया कि सूखे पेड़ों के नाम पर हरे पेड़ों को कटाव टिहरी के रियाला वन जैसे क्षेत्रों में हो रहा है । सितम्बर १९९४ में लगभग दस हजार फीट की उँचाई पर स्थित वन के पेड़ों को बचाने के लिए ख्वारा, मेटी व डालगांव आदि ने बहुत चालाकी से वृक्षों की कटाव के ठेके कुछ ग्राम प्रधानों सहित स्थानीय असरदार लोगों को दे दिए थे । इसके बावजूद गांववासी इतना दबाव बनाया कि वृक्षों का कटाव कुछ समय के लिए रूक जाए । महिला बावजूद गांववासी इतना दबाव बनाया कि वृक्षों का कटाव कुछ समय के लिए रूक जाए । महिलाआें ने संकटग्रस्त वृक्षों पर रक्षा-सूत्र या रक्षा के घागे बांधे । रक्षा-बंधन त्यौहार की तरह यह धागे भी रक्षा का प्रतीक थे व एक तरह से पेड़ों को गांव की महिलाआें का संदेश था कि हम तुम्हारी रक्षा अवश्य करेंगे । अगले वर्ष (१९९५) जुलाई के आसपास गांववासियों व कार्यकर्ताआें को समाचार मिलने लगे कि वृक्षों की कटाव फिर शुरू करने की तैयारियां चल रही हैं । इस कटाव को रोकने के लिए पहले कटाव रांबंधी काफी जानकारी एकत्र की गई व गेंवाली, ज्यंूडाना, चैली व संड जैसे गांवों मे पर्यावरण शिविर भी लगाए गए । इसी वर्ष १०-११ अगस्त को लगभग ३०० महिलाआें ने वन में जाकर रक्षा-सूत्र बांधे व एक बार फिर यहां पेड़ काटने वालों को वन से खदेड़ा । बहुत उँचाई पर स्थित इन वनों में शीघ्र ही वन रक्षा के ये नारे गूंजने लगे -वन बनेगा देश बचेगागांव सब खुशहाल होगा चौरंगीवाला क्षेत्र में चौध्यार गांव की जेठी देवी व दिसोटी गांव की मंदोदरी देवी ने ट्रकों पर चढ़कर तब तक लकड़ी ले जाने दी जब तक पेड़ काटनेपर रोक लगने का फेसला नहीं हो गया । खोजबीन से अवैध कटाव के कई अन्य मामलों का पता चला । विस्तृत जांच रिपॉर्ट तैयार की गई व इस अवैध कटाव की जानकारी सरकार में ऊपर तक पहुंचाई गई व साथ ही मीडिया को भी उपलब्ध करवाई गई इसी के समानांतर रक्षा-सूत्र व जन-जागृति के प्रयास जारी रहे । दिल्ली स्थिति हिमालय सेवा संघ ने भी अवैध कटाई के मामलों की ओर ध्यान दिलाने में सहायता दी । अवैध कटाई में लिप्त् अनेक वन अधिकारियों को निलंबित करने के आदेश भी जारी हुए । वन रक्षा आंदोलन ने नदियों की रक्षा में वनों की भूमिका पर भी जोर दिया । आंदोलन का एक प्रमुख नारा यह रहा है -उँचाई पर पेड़ रहेंेगे नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे नदियों की रक्षा के प्रति यह भावना तब और उभर कर सामने आई जब हिपशिस को आसपास से बांध व सुरंग बांध परियोजनाआें के दुष्परिणामोंके समाचार मिले । यह स्पष्ट होने लगा कि इन परियोजनाआें से एक औ नदियों का प्राकृतिक प्रवाह बुरी तरह प्रभावित होगा, जल-जीवन नष्ट होगा व दूसरी ओर गांववासिंयों के खेल, चरागाह, जल-स्त्रोंतों आदि पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ेगा । विस्फोंटों से लोगों के आवास बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने लगे व भूस्खलनों का सिलसिला तेजी से बढ़ने लगा । इस स्थिति में हिपशिस ने लोगों को अपने अधिकारों की आवाज उठाने में न केवलसहायता की बल्कि उनकी समस्याआें को कई मंचो पर असरदार ढंग से उठाया एवं नदियों की रक्षा के सवाल को प्रभावित लोगों की समस्याआें से जोड़कर उठाया । बासंती नेगी (हरसिल) जैसी कुछ महिलाअेां ने जहां रक्षा सूत्र में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था वे अब नदियों की रक्षा के आंदोलन से भी जुड़ गई व उन्होंने इसके लिए पदयात्राएंकी । बाधा परियोजनाआें के कारण जहां-जहां भी पेड़ संकटग्रस्त थे, वहां भी इन महिलाआें ने वृक्षों पर रक्षा सूत्र बांधे । वन व नदी रक्षा के इन आंदोलनों के साथ हिपशिस ने लगभग २५० परम्परागत जल संरक्षण निर्माण कार्यो (चाल) को बनाया है या उनकी मरम्मत की है । जलकूद घाटी (टिहरी) भागीरथ घाटी (उत्तरकाशी) में संस्था की वाटरशोड संरक्षण परियोजनाआें के भी अच्छे परिणाम मिले हैं । ***हो सकता है २०१२ में दूनिया को खतराखगोलविदों और भौतिकशास्त्रियों ने २०१२ में पृथ्वी के साथ क्षुद्र ग्रह एक्स की टक्कर होने की आशंका जाहिर की है । इसके कारण भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट, सुनामी से व्यापक विनाश हो सकता है । यह विनाश इतना ज्यादा हो सकता है कि इसमें पूरी मानव प्रजाति समाप्त् हो सकती है । जर्मनी के वैज्ञानिक रोसी ओडोनील, विली नेल्सन ने २१ दिसंबर २०१२ को प्लैनेट एक्स और पृथ्वी के बीच टक्कर की आशंका जाहिर की है । वैज्ञानिकों के अनुसार इस दिन यह प्लेनेट एक्स एकेए निबिरू पृथ्वी के काफी करीब से गुजरेगा । इसमें चुम्बकीय क्षेत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है । एक स्थिति में प्लेनेट एक्स पृथ्वी से दूर भी जा सकता है, लेकिन बड़ी संभावना है कि यह पृथ्वी के काफी करीब आए और इसकी टक्कर हो जाए । हालांकि कुछ वैज्ञानिक इससे असहमत हैं । जाने-माने वैज्ञानिक इससे असहमत हैं । जाने-माने वैज्ञानिक प्रो. यशपाल के मुताबिक ब्रह्मांड में हजारों की संख्या में ऐसे क्षुद्र ग्रह और आकाशीय पिंड चक्कर लगा रहे हैं, जो किसी समय पृथ्वी के काफी करीब से गुजरेंगे या उनकी टक्कर होने की आशंका है । उन्होंने कहा एक्स के भी २०१२ में पृथ्वी के कई हजार किलोमीटर पास से गुजरने का अनुमान लगाया गया है, लेकिन इस बात की कम संभावना है कि प्लेनेट एक्स की पृथ्वी से टक्कर हो ।

११ ज्ञानविज्ञान

बढ़ता ताप सिकुड़ते पक्षी
पर्यावरण में हो रहे बदलाव की वजह से शारीरिक रूप से सिकुड़ती जा रही प्रजातियों की सूची लंबी होती जा रही है । धरती का तापमान बढ़ने से लगातार दुबले-पतले होते जा रहे पेड़ों और भेड़ों की जमात में अब पक्षी भी शामिल हो गए हैं । बीती शताब्दी के दौरान क्या पक्षियों के आकार में कोई परिवर्तन हुआ है, यह पता लगाने के लिए ऑस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी, कैनबरा के लिए ऑस्ट्रेलियन नेशनल यनिवर्सिटी, कैनबरा के जेनेट गार्डनर और उनके नेशनल युनिवर्सिटी, कैनबरा के जनेट गार्डनर और उनके सहयोगियों ने एक संग्रहालय में रखे ५१७ पक्षियों के डैनों का फैलाव नापा । मूल रूप से ऑस्ट्रेलिया में पाए जाने वाले पक्षियों की इन ८ प्रजातियों का संग्रह सन् १८६० से २००१ के दौरान किया गया था । प्रोसीडिंग ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में उन्होंने बताया है कि इनमें से ४ प्रजातियों का आकार पिछले १०० वर्षोंा में ४ प्रतिशत तक कम हो गया है । इस घटती साइज़ की व्याख्या दो कारकों द्वारा की जा सकती है । हो सकता है कि पर्यावरण में लगातार आ रही गिरावट ने पक्षियों का आहार कम कर दिया है । दूसरा कारण यह हो सकता है कि बढ़ते तापमान में छोटे आकार के पक्षियों को फायदा मिलता है । छोटा आकार शरीर को असानी से ठंडा रखने की सुविधा देता हो । यदि परों की लम्बाई को पोषण का द्योतक माना जाए, तो शोधकर्ताआें का निष्कर्ष है कि छोटे पक्षी अपने पूर्वजों की अपेक्षा कम पोषित तो नहीं हैं यानी वैश्विक तपन ही इसका कारण हो सकता है।मस्तिष्क से रोबोट का संचालन जल्द ही मानव मस्तिष्क की कोशिकाआें से नियंत्रित रोबोट ब्रिटिश लैब में टहलते नज़र आएंगे । युनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग, यू.के. के केविन वारविक और बेन व्हेली ने चूहे के मस्तिष्क की कोशिकाआें का प्रयोग कर साधारण पहिए वाले रोबोट पर नियंत्रण पाने में सफलता भी प्राप्त् की है चूहे के लगभग ३ लाख न्यूरांस को पोषक द्रव्य में विकसित किया गयाथा । ये विद्युत संकेत पैदा कर रहे थे । इन्हें रोबोट के संकेत-ग्राही सेंसर से जोड़ दिया गया । तंत्रिकाआें ने रोबोट का एक छोटे दायरे में संचालित करने में अपनी क्षमता साबित की है । शोध में जुटी टीम का कहना है कि इन तंत्रिकाओ की उद्दीपन के प्रति प्रतिक्रिया को देखकर मिरगी जैसी बीमारियों में तंत्रिका की अवस्था की समझ बढ़ेगी । उदाहरण के लिए कभी-कभी बड़ी संख्या में तंत्रिकाएं एक साथ एक ही लय मं विद्युत संकेत उत्पन्न करती हैं । संभवत: मिर्गी के दौरे के समय ऐसा ही होता है । यदि संवर्धन माध्यम में रासायनिक, विद्युतीय या भौतिक परिवर्तन के द्वारा इस व्यवहार को बदला जा सका तो यह इस रोग के इलाज की संभव चिकित्सा पद्धति हो सकती है । इस व्यवस्था को मानवीय बीमारियों का बेहतर मॉडल बनाने के लिए आवश्यक होगा कि मनुष्य की तंत्रिकाआें को उसी प्रकार रोबोट से जोड़ा जा सके चूहे की तंत्रिकाआें के साथ किया गया है । यह मनुष्य की कोशिकाआें द्वारा रोबोट संचालित करने का पहला उदाहरण होगा । इसका एक उद्देश्य इंसान और चूहे की तंत्रिकाआें द्वारा संचालित रोबोट के व्यवहार में अंतर का पता लागाना भी है । श्री वारविक का कहना है कि हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि क्या दोंनों में सीखने और याददाश्त के पहलू एक समान हैं । वारविक और उनके सहकर्मी आने काम को तेज़ी से आगे बढ़ा सकते हैं क्योंकि उन्हें मानवीय तंत्रिका कोशिकाआें पर प्रयोग की नैतिक इजाज़त लेने की ज़रूरत ही नहीं हैं । क्या लेडयुक्त पेट्रोल ही बेहतर था ? वॉशिंगटन की पैसिफिक नॉर्थवेस्ट नेशनल लैबोरटरी के डैन ज़िक्ज़ों ने अनुमान व्यक्त किया है कि यदि हम लेडयुक्त पेट्रोल का उपयोग करें तो धरती थोड़ी कम गर्म होगी । यह अनुमान उन्होंने बादल बनने की क्रिया के अध्ययन के आधार पर लगाया है। इससे तो ऐसा लगता है कि अतीत में हम जो काम कर रहे थे (यानी पेट्रोल में लेड मिला रहे थे ) वह कम से कम जलवायु की दृष्टि से तो बेहतर ही था । शद्ध पानी की भाप धूल के कणों, पराग कणों और यहां तक कि बैक्टीरिया के आसपास भी अपेक्षाकृत अधिक तापमान पर बर्फ के रूप में जम जाती है । यदि ऐसे कण न हों, तो इसे बर्फ बनने के लिए और ठंडा करना पड़ेगा । कणों की उपस्थिति का फायदा यह होता है कि अपेक्षाकृत गर्म बादल हैं जो धरती की ज़्यादा गर्मी को अंतरिक्ष में बिखेर देते हैं । यदि वातावरण में ऐसे कण न हों तो बादल कम तापमान पर बनते हैं । ज़िक्ज़ो और उनके साथियों ने स्विटज़रलैण्ड की हवा से ऐसे लंबित कण प्राप्त् किए । इनकी मदद से उन्होंने कृत्रिम बादलों का निर्माण किया । उन्होंने पहले ही विश्लेषण किया था कि इनमें मात्र ८ प्रतिशत कणों में लेड उपस्थित था । मगर जब बादलों का विश्लेषण किया गया तो देखने में आया कि जिन कणों के आसपास बादल बने हैं उनमें से ४४ प्रतिशत में लेड है । इस मामले में उक्त शोधकर्ताआें का मत है कि लेड की उपस्थिति में धूल के कण `अति-आवेशित' हो जाते हैं, इसलिए बादल बनाने में ज़्यादा सहायक होते हैं । टीम ने गणना की है कि यदि पृथ्वी के वायुमंडल में बनने वाले बर्फ के हर रवे में लेड हो, तो प्रति वर्ग मीटर ०.८ वॉट अधिक ऊष्मा अंतरिक्ष में विकसित होगी । तुलना के लिए यह देखा जा सकता है कि मानव निर्मित कार्बन डाईआक्साइड की वजह से प्रति वर्ग मीटर १.५ वॉट कम ऊष्मा आकाश में बिखरती है । जब पूरी दुनिया में पेट्रोल में से लेड हटा दिया गया, उससे पहले वायुमंडल में कहीं अधिक लेडयुक्त कण होते थे और ये गर्म बादल बनाकर धरती को ठंडा रखने में मददगार होते थे । मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि लेड स्वास्थ्य के लिए घातक था ।पौधों का बारकोड खबरों से पता चलता है कि जीव वैज्ञानिक समुदाय जल्दी ही दुनिया भर की वनस्पति प्रजातियों के लिए एक बारकोड निर्धारित करने पर सहमत हो जाएगा । बराकोड वही चीज़ है जिससे हर वस्तु को एक अनूठी पहचान प्रदान की जाती है । यही प्रक्रिया वनस्पति जगत के बारे में करना आसान काम नहीं है । इस तरह के बारकोड की ज़रूरत प्रजातियोंं की स्पष्ट पहचान के लिए है । खास तौर से जंतु अंगों की उत्पत्ति को पहचानने और संरक्षण के प्रयासों में इसका काफी महत्व होगा । मगर सवाल यह है कि वनस्पति जिनेटिक श्रृंखला में से किस हिस्से का उपयोग यह बारकोड बनाने में किया जाए ताकि हर प्रजाति को एकदम अलग पहचानने योग्य कोड मिले । कई समूह इस दिशा में प्रयास करते रहे हैं । वैसे जंतुआें के बारे में ऐसे कोड पर सहमति पहले ही हो चुकी है । अब लग रहा है कि ५२ शोधकर्ताआें द्वारा लिखे गए एक शोध पत्र में सुझाई गई बारकोड प्रणाली पर सहमति बनने को है । यह समूह इंटरनेशनल कंसॉर्शियम फॉर दी बारकोड ऑफ लाइफ (सीबीओएल) के पादप कार्यकारी समूह के तहत कार्यकारी समूह के तहत कार्यरत है । इस शोध पत्र में सुझाया गया है कि बारकोड में जिनेटिक श्रंृखला के दो हिस्सोंं को शामिल किया जाए । समूह का मत है कि इन दो हिस्सों का उपयोग करके जिन प्रजातियों की जांच की गई उनमें से ७२ प्रतिशत को अनूठी पहचान प्राप्त् हुई जबकि शेष प्रजातियों के मामले में सही प्रजातियों के मामले में सही प्रजाति समूह पहचाने जा सके । अब यह प्रणाली सीबीओएल के पादप कार्यकारी समूह के समक्ष प्रस्तुत की जाएगी जो इसकी समीक्षा की व्यवस्था करेगा । समीक्षा के बाद जल्दी ही अंतिम निर्णय होने की उम्मीद है । वैसे कुछ अन्य समूहों ने अन्य सुझाव भी दिए हैं और सबकी तुलना के बाद ही कोई फैसला होगा । उदाहरण के लिए कनाडा में एक समूह काम कर रहा है जिसका उद्देश्य है कि सारे युकेरियोट्स के लिए एक बारकोड विकसित किया जाए । युकेरियोट्स का मतलब होता है वे सारे जीव जिनकी कोशिका में एक सुस्पष्ट केंन्द्रक पाया जाता है । शेष जीव प्रोकेरियोट्स कहलाते हैं । इसी प्रकार का एक समूह है इन्टरनेशनल बारकोड ऑफ लाइफ (आईबोल) । वैसे एक बात साफ है कि जीव वैज्ञानिकों का अंतर्राष्ट्रीय समुदाय बारकोड के बारे में जल्द से जल्द किसी सहमति पर पहुंचने को उत्सुक है । इसके अभाव में शोध कार्य व संरक्षण में कई दिक्कतें आ रही हैं । लिहाज़ा उम्मीद की जानी चाहिए कि निकट भविष्य में हर वनस्पति प्रजाति को एक अनूठे बारकोड से पहचाना जाएगा । एक सुझाव यह भी आया है कि सूक्ष्मजीवों के संदर्भ में भी इस तरह के प्रयास ज़रूरी हैं क्योंकि उनमें प्रजाति पहचान एक मुश्किल काम है ।***

१२ कृषि जगत

खस्ताहाल खेती और भूख का संकट
सुश्री माधुरी
भूख के भयावह विस्तार से निपटने के लिए सरकार इन दिनों राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक लाने की कवायद में लगी है, लेकिन क्या यह कानून देश के उन ७७ फीसदी लोगों को भरपेट भोजन की गारंटी दे सकेगा जो कुल जमा बीस रूपए रोज कमाकर खुद को किसी तरह जिंदा इंसानों की सूची में बनाए रखने की मशक्कत में लगे हैं ? क्या यह कानून आजकल के सबसे लोकप्रिय धंधे एग्री बिजनेस उर्फ कृषि व्यवसाय के चंगुल से भूख से बिलबिलाते लोगों के लिए अनाज निकाल सकेगा । तेजी से बढ़ती भूख का मुद्दा लगातार बदहाल होती खेती और देश के साठ फीसदी किसानों की बेहाली से जुड़ा है । साठ के दशक में आई हरित क्रांति से लगाकर भूमि सुधार कार्यक्रम की असफलता औद्योगिक क्षेत्र को छूट देते हुए कृषि लागत, भूमि की उर्वरता में कमी और कार्पोरेट घरानों के हित में खेती का तिरस्कार, आसमान छूती कृषि लागत, भूमि की उर्वरता में कमी और कार्पोरेट घरानों के हित में खेती की अनदेखी इस बदहाली के कुछ कारण हैं । रासायनिक खाद, देवाआें और संकर बीजों की दम पर हुई इस मशीनीकृत क्रांति ने मौसम की माार झेल पाने में सक्षम स्थानीय फसलों की जगह गेहूं चावल और सोयाबीन जैसी बाजारू फसलों को बढ़ावा दिया । अस्सी के दशक में बीज, खाद, दवाआें सिंचाई आदि में लगने वाली प्रति हैक्टेयर लागत करीब १५०० रूपए होती थी, लेकिन २००४ तक आते-आते यह करीब ७७०० रूपए हो गई है । आंकड़े बताते हैं कि खेती में लगी दो तिहाई आबादी को देश की कुल आय का केवल १७.१ प्रतिशत भाग ही मिल पाता है । दूसरी तरफ उद्योगों से चांदी काट रहे करीब एक प्रतिशत लोग सकल आय का तीस प्रतिशत तक हड़प लेते हैं । सरकार ने भी कमाई के इस गोरखधंधे में उत्साह से सहयोग देने के लिए देश में दूसरी हरित क्रांति की घोषणा कर दी है । पहली हरित क्रांति से उपजी गैर-बराबरी, क्षेत्रीय असमान्यता, बढ़ती लागत और सूखी खेती की स्थानीय व कारगर तकनीकों के प्रति उपेक्षा की भूलचूक को सुधारने की बजाए दूसरी हरित क्रांति के नाम पर समूचे कृषि उत्पादन और वितरण को कृषि व्यापार निगमों को सौंपा जा रहा है । इस साजिश के तहत कंपनियों खाद्यान्न मूल्यों के दाम अपने लाभ की खातिर मनमाने ढंग से तय कर सकती हैं। भूमंडलीकरण की नीतियों के चलते खाद्य पदार्थोंा के लिए वैश्विक निर्भरता बढ़ रही है । श्रमिकों के रोजगार के अवसरों एवं वास्तविक मजदूरी में कमी हो रही है और सार्वजनिक वितरण प्रणाली एवं खाद्य संग्रहण की पहले से कमजोर नीतियां अब हाशिए पर जा रही है । ये सभी मौजूदा संकट उन आर्थिक नीतियों का परिणाम हैं जो गरीबों के खिलाफ हैं । अगर भूख से निपटना है तो भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को ही बदलना होगा । सरकार के पास सामाजिक क्षेत्रों के लिए पर्याप्त् धन नहीं है की वास्तविकता को उसके द्वारा कारपोरेट क्षेत्र को दी जाने वाली भारी सब्सिडी से समझा जा सकता है । विकास की आसन्न जरूरतो के बावजूद भारत में करों की दर अनेक विकसित राष्ट्रो से कम है । यह हमारे सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में १८.५ प्रतिशत है जबकि अमेरिका जैसे अमीरों के हितैषी राष्ट्र में यह २५.४ प्रतिशत है। वहीं स्वीडन में यह ५०.७ डेनमार्क में४९.६ एवं बेल्जियम में ४५.६ प्रतिशत है । सकल कर राजस्व वसूली में भी इस वर्ष कमी आई है । यह हमारी नवउदारवादी नीतियों का ही नतीजा है कि सकल घरेलू उत्पाद में ५५ प्रतिशत की हिस्सेदारी करने वाले हमारे सेवा क्षेत्र का करों में योगदान मात्र ९ प्रतिशत है । इस कर नीति का सबसे चौकाने एवं तिरस्कृत करने योग्य पक्ष यह है कि कंपनियों को छूट एंव सब्सिडी के जरिए, करों के माध्यम से उगाही जा सकने वाली आधी से अधिक राशि का स्वत: त्याग कर देती है । २००८-०९ में केन्द्र सरकार द्वारा करीब ४१८०९५ करोड़ रूपए को कर राजस्व की माफी दी गई जो कि कुल कर संग्रहण का करीब ६९ प्रतिशत है । इसमें कारपोरेट जगत को ६८९१४ करोड़, व्यक्तिगत आयकर में ३९५३३ करोड़, कस्टम्स में २२५७५२ करोड़ एवं एक्साईज में १२८२९३ करोड़ की कर माफी दी गई थी । जबकि २००७-०८ में यह राशि २७८६४४ करोड़ थी जो कि केन्द्र सरकार के कर राजस्व का ४८.१६ प्रतिशत थी।करों की वसूली नहीं कर पाना भी अत्यंत शोचनीय विषय है । ५ अगस्त ०९ को संसद में बताया गया कि देश के १०० प्रमुख बकायदारों पर १.४१ लाख करोड़ रूपए कर के रूप में बकाया है । नवीनतम केन्द्रीय बजट में जहां सामाजिक क्षेत्र पर सकल घरेलू उत्पाद का मात्र १.८ प्रतिशत व्यय प्रस्तावित है वही रक्षा पर व्यय २.५ प्रतिशत है । संसद द्वारा सरकारी खर्च में कटौती से संबंधित वित्तीय जिम्मेदारी एवं बजट प्रबंध कानून (एफ.आर. बी.एम.अधिनियम) को पारित किया गया है । अधिकांश आबादी की बढ़ती खाद्य असुरक्षा और घटती आमदनी के खतरों के बीच यह बिल पारित किया गया है जिसके माध्यम से स्वाभाविक तौर पर सामाजिक कार्योंा पर होने वाले खर्चोंा की ही बली चढ़ाई जाएगी । ऐसे हालातों में व्यापक खाद्य अधिकार की मांग में किसी भी प्रकार की हिचकिचाहट की अब कोई गुंजाइश ही नहीं बची है । सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत पूरे परिवार की बजाए कम से कम एकल परिवारों के इकाई मान कर प्रत्येक व्यक्ति को भारतीय चिकित्सा शोध संस्थान (आई.सी.एम.आर) द्वारा सुंझाई मात्रा में खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराए जाने चाहिए। इस व्यवस्था को पूरे देश में एक सरीखा लागू करने से भूखमरी से बचा जा सकता है । खाद्यान्न की सरकारी खरीद एवं वितरण का विकेन्द्रीकरण करके देश के सभी भागों एंव वितरण का विकेन्द्रीकरण करके देश के सभी भागोंसे खाद्यान्नों की खरीद की जानी चाहिए । अभी यह खरीद मुख्यत: पंजाब, हरियाणा और आंध्रपेदश से ही हाती है । सिर्फ २४ प्रकार के अनाजों पर घोषित किए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य का दायरा बढ़ाकर उसमें अन्य दालों, तिलहनों एवं मोटे अनाजों की भी अनिवार्य खरीदी की जानी चाहिए । खाद्य तेल का वितरण भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से किया जाना जरूरी है । हरित क्रांति के कारण लगभग समूचे देश में हो रही सूखी खेती का कबाड़ा हुआ है । इस कारण हम खाद्य तेल का आयात कर रहे हैं । उत्पादन बढ़ाने के नाम पर कार्पोरेट हितों को किसी भी प्रकार की जी.एम. फसलों और खाद्यान्न वितरण की अनुमति देना खतरनाक होगा । अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए हमें कुछ अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर भी गंभीरता से सोचना होगा । इसमें सबसे प्रमुख है खाद्यान्नों में स्वावलंबन । आज खाद्य पदार्थोंा के मूल्योंएवं आपूर्ति को अंतर्राष्ट्रीय बाजार की ताकतें एवं निगम नियंत्रित करते हैं । अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए हमें अपनी कृषि को पुन: सशक्त बनाना होगा जिससे हम अंतर्राष्ट्रीय बाजारों की दया पर निर्भर न रहें । सरकार के सभी खाद्य कार्यक्रमों को प्राथमिक तौर पर घरेलू आपूर्ति से ही क्रियान्वित किया जाना चाहिए । गंभीर कमी के दौर में ही खाद्यान्न आयात किया जा सकता है एवं निर्यात के पूर्व घरेलू मांग की आपूर्ति अनिवार्य की जाए । इस पूरे मामले में सबसे महत्वपूर्ण है, किसान को उसकी भूमि से अलग करने की कोशिशें । केंद्र की मौजूदा यू.पी.ए. सरकार एक ओर तो खाद्य सुरक्षा की बात करती है वहीं दूसरी ओर कार्पोरेट घरानों को उद्योगों के लिए भरपूर भूमि और पानी भी उपलब्ध करवा रही है । भूमि अधिग्रहण कानून में परिवर्तन की उसकी मंशा के पीछे भी यही है । अतएव नए खाद्य सुरक्षा अधिनियम में इस बात का प्रावधान होना चाहिए कि कृषि भूमि का गैर कृषि उपयोग मेंबलात परिवर्तन नहीं किया जाए । एक और मुद्दा है, तंत्र को दुरूस्त करने का । पिछले कुछ वर्षोंा में जो भी सामाजिक कानून पारित हुए हैं, उनमें जवाबदेही और दंड का समुचित कानून पारित हुए हैं उनमें जवाबदेही और दंड का समुचित प्रावधान न होने के कारण उनके प्रावधानों का उल्लंघन आम हो गया है । अतएव नए खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत भ्रष्टाचार, जमाखोरी, खाद्यान्न को अन्य कि उपयोग मे लाना आदि पर प्रतिबंध लगाने के लिए सख्त कानून बनाए जाने चाहिए और ऐसे अपराधों की श्रेणी में डाला जाना चाहिए । इसी के साथ आवश्यक वस्तु अधिनियम को नए खाद्य सुरक्षा अधिनियम मे समाहित कर उसका हिस्सा बनाना चाहिए । ***

१३ विज्ञान हमारे आसपास

सफल रहा चंद्र अभियान
नवनीत कुमार गुप्त
चंद्रयान प्रथम कीसबसे बड़ी उपलब्धि चांद पर पानी का पता लगाने की रही है । नासा और इसरो के संयुक्त उपकरण मून मिनरोलॉजी मैपर यानी एम-३ ने ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के अणुआें का पता लगाया है ।चांद पर पानी की उपस्थिति का पता लगाने के लिए अनेक वैज्ञानिक चंद्रयान प्रथम मिशन की सफलता को इस दशक की सबसे बड़ी वैज्ञानिक खेाज बता रहे हैं । भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के चंद्रयान प्रथम को सफलतापूर्वक चांद की कक्षा में स्थापित करने के बाद से ही पूरा विश्व भारत की इस उपलब्धि पर फिदा हो गया था। उस समय हर भारतीय को गर्व था कि इसरो ने भारत को अंतरिक्ष क्षेत्र में नई ऊंचाईयों तक पहुंचाया है । चंद्रयान प्रथम के द्वारा इसरो ने चांद पर पहला मानव रहित यान भेजकर अपनी उपलब्धियों में इज़ाफा किया । भारत के चंद्रयान अभियान से पहले तक चंद्रमा की ओर करीब ६७ अंतरिक्ष अभियान भेजे गए जिनमें से काफी तो असफल रहे थे । च्रदंयान से पहले अमेरिका, रूस, जापान, चीन और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी चंद्रया तक अंतरिक्ष यान भेजे चुके थे । चंद्रयान प्रथम के प्रक्षेपण के बाद भारत वैष्विक स्तरपर एक उन्नत अंतरिक्ष टेक्नॉलॉजी वाले देशों की बिरादरी का हिस्सा बन गया है । २९ अगस्त को चंद्रयान प्रथम का संपर्क इसरो के भू स्टेशन से निर्धारित समय से पूर्व ही टूट गया था लेकिन चंद्रयान प्रथम अभियान को इस मायने में सफल कहा जा सकता है कि यह अब तक चांद पर भेजा जाने वाला सबसे सस्ता और कारगर मिशन था । हालंाकि दो सालों तक कार्य कर सकने वाला चंद्रयान केवल आठ महीनों में ही बेकार हो गया है लेकिन भारत के लिए यह अभियान काफी महत्वपूर्ण रहा है । चंद्रयान प्रथम ने चंद्रमा की कक्षा में ३१२ दिन कार्य करते हुए चंद्रमा के करीब ३४०० चक्कर लगाए हैं । मिशन के अंतिम समय तक इसरो को चंद्रयान प्रथक से लगभग ७० हजार चित्र और कई महत्वपूर्ण आंकड़े प्राप्त् हुए हैं । वैज्ञानिक इससे मिले आंकड़ोंका विश्लेषण करने में लगे हुए हैं। च्रदयान प्रथम परियोजना के निदेशक एम. अन्नादुरै के अनुसार मिशन अपना लगभग ९५ प्रतिशत कार्य कर चुका है। चंद्रयान प्रथम को पी.एस. एल.वी.-११ द्वारा श्री हरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतिरक्षि केंद्र से २२ अक्टूबर २००८ को प्रात: ६ बजकर २२ मिनट पर छोड़ा गया था । यह पहला मौका था जब भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने पृथ्वी के गुरूत्वाकषर्ण की सीमा से परे कोई अंतरिक्ष यान भेजा था। १४ नवंबर२००८ को चंद्रयान प्रथम ने तिरंगे को चांद पर लहराया । इस दिन चंद्रयान प्रथम ने मून इम्पेक्ट प्रोब अलग होकर चंद्रमा के दक्षिणी ध््राुव की ओर बढ़ा और २५ मिनट की यात्रा के बाद ८:३१ पर चंद्रमा की सतह से टकराया । इस प्रोब की सतह पर लगे कैमरों ने चंद्रमा की सतह के चित्र खीांचे औरचंद्रयान को भेजे। चंद्रयान प्रथम ने येचित्र भारत स्थित नियंत्रण कक्ष को भेज। इस पूरी प्रक्रिया में महज १.५ सेकंड का समय लगा । चंद्रयानप्रथम के बाद भारत चंद्रमा की सतह पर कोई वैज्ञानिक तंत्र उपकरण उतारने वाला तीसरा देश और चौथी अंतरिक्ष शक्ति बन गया है । इससे पूर्व अमरीका, भूतपूर्व सोवियत संघ और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी यह कार्य कर चुके हैं । चंद्रयान प्रथम से पहले चीन ने सबसे कम लगात में चांद पर अपना अंतरिक्ष यान भेजा था। भारत ने चीन से भी आधी लागत में चांद पर चंद्रयान प्रथम भेजा और यह अब तक चांद पर भेजे जाने वाला सबसे सस्ता और कारगर मिशन रहा ।चंद्रयान का यांत्रिक स्वरूप चंद्रयान प्रथम अपने साथ भारतीय वैज्ञानिक उपकरणों के अलावा बुल्गारिया का एक उपकरण (रेडिएशन डोज़मॉनीटर), अमरीका के दो उपकरण, (मिनी सिंथेटिक एपरचर रेडार और मून मिनरोलॉजी मैपर) तथा यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के तीन उपकरण (चंद्रयान -इमेजिंग एक्सरे स्पेक्ट्रोमीटर, स्मार्ट नीयर इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रोमीटर और सब किलोवोल्ट एटम रिफ्लेक्टिंग एनालाइजर) भी ले गया था । चंद्रयान में ११ वैज्ञानिक यंत्र थे जिनमें चंद्रमा की सतह का सम्पूर्ण चित्र लेने के लिए और त्रिआयामी कार्टोगाफी मानचित्र तैयार करने के लिए भू-सतह केमरा लगा था । इसरो प्रथम के बाद चंद्रयान द्वितीय को चांद पर भेजने की तैयारी कर रहा है । भविष्य में चांद पर कम लागत वाले ऐसे अंतरिक्ष यान भेजे जाएंगें जो कई गुना अधिक जानकारी देंगें । भारत २०१५ तक चांद पर मनुष्य को भेजने की योजना भी बना रहा है । आशा है भारत के भावी अभियान अपने उद्देश्यों में सफल होंगें और अंतरिक्ष विज्ञान में हमारा देश निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा । ***

१४ पर्यावरण समचार

संयुक्त राष्ट्र में युगरत्ना का संबोधन
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यालय में आयोजित एक समारोह में संबोधन के लिए लखनऊ की १३ वर्षीय छात्रा युग रत्ना श्रीवास्तव को आमंत्रित किया गया । तरूमित्र नामक संस्था से जुड़ी लखनउ में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक आलोक श्रीवास्तव की बेटी युगरत्ना ने तीन वर्ष पूर्व सेन्ट फ्रान्सिस स्कूल में अध्ययन करते हुए युवाआें द्वारा संचालित तुन्झा (टू नेचर) नामक पर्यावरण गाथा का नेत़ृत्व किया था । इस प्रकल्प का एक आयोजन कुछ माह पूर्व कोरिया में आयोजित था । उसमें युगरत्ना ने प्रथम स्थान प्राप्त् किया था, उसी की अगली कड़ी में वे न्यूयार्क पहुंची । सुश्री युगरत्ना ने संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषण करते हुए कहा कि विश्व की तीन अरब छात्रों की ओर से मैं आपके सामने खड़ी हूँ, हमारी अगली पीढ़ी हमे लांछित न करंे, अब आपको कुछ करना होगा । प्रदूषण के राक्षस को नष्ट करने की योजना बनाना आपका कर्तव्य है । इस अवसर पर खचाखच भरे सभागार में महासचिव बान की मून , अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा,चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताव, भारत के विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के अतिरिक्त विश्व के विभिन्न देशों के १२५ से अधिक राजनेता एवं राजनियक उपस्थित थे ।दुनिया में १७२९१ जीवों की प्रजातियां खतरे में वैज्ञानिकों ने एक ताजा शोध में पाया है कि दुनिया में पाए जाने वाले जीवों में से एक तिहाई लुप्त् होने की कगार पर हैं । पशु-पक्षियों के संरक्षण पर काम करने वाली सस्था आईयूसीएन ने ४७६७७ जीवों की एक रेड- लिस्ट जारी की है जिसमें १७२९१ जीवों की प्रजातियां गंभीर खतरे में हैं । रेड-लिस्ट में दर्ज२१ प्रतिशत स्तनधारी जीव हैं , ३० प्रतिशत मेंढकों की प्रजातियाँ हैं, ७० प्रतिशत पौधे हैं और ३५ प्रतिशत बिना रीढ़ की हड्डी वाले यानी साँप जैसे जीव हैं । वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके लिए जिम्मेदार खतरों, खासकर वे जगह जहाँ इस तरह के जीव रहते हैं, पनपते हैं , उनके संरक्षण के लिएा उचित कदम नहीं उठाए जा रहते हैं । आईयूसीएन की निदेशक जेन स्मार्ट का कहना है कि इस बात के वैज्ञानिक सबूत मिल रहे हैं कि इस तरह के जीवों पर खतरा बढ़ता जा रहा है । उनका कहना है कि हाल ही के विश्लेषणों से स्पष्ट है कि २०१० का जो लक्ष्य था इन खतरों को कम करने का वो अभी पूरा नहीं हो पाएगा ।बाघों के पास भी होगा अपना आई कार्ड अगर आप किसी नेशनल पार्क में जाएं और वहां बाघ के गले में आई कार्ड लटकता पाएं तो हैरान होने की जरूरत नहीं । देश भर के विभिन्न अभयारण्यों के प्रत्येक बाघ के लिए जल्द ही पहचान पत्र जारी किया जाने वाला है । इसमें इन बाघों के बारे में जानकारी दर्ज होगी । सरकार का कहना है कि पहचान पत्र जारी होने से अभयारण्य के अधिकारी बाघों की गतिविधियों का पता लगाने में सक्षम होंेगे और इससे बाघ संरक्षण में मदद मिलेगी। नदियों को कागजों पर जोड़ने में करोड़ो रूपये खर्च नदियों को जोड़ने की परियोजना के तहत जमीन पर भले ही अब तक कोई नदी नहीं जुड़ पाई हो, लेकिन कागजों पर देश भर की नदियों को जोड़ने का काम लगभग पूरा हो गया है । इस परियोजना के लिए विभिन्न सरकारी महकमों ने रिपोर्ट बनाने के कार्य पर ही ४५ करोड़ रूपए बहा दिए। मजे की बात यह है कि कागजों में नदियों को जोड़ने की कवायद के बाद अब सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर इस बात पर बहस हो रही है कि नदियों को जोेड़ने की परियोजना देश और पर्यावरण के हित में है या नहीं । प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह से लेकर केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ही नहीं कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल भी नदियों को जोड़ने की इस महत्वाकांक्षी परियोजना को लेकर नई बहस खड़ी कर रहे हैं । परियोजना के खिलाफ उठ रहे विरोध के बीच एनडब्ल्यूडीए ने हिमालय से निकलने वाली १४ और भारतीय प्रायद्वीप की १६ नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी परियोजना की व्यावहारिकता रिपोर्ट तैयार कर ली है । मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार अभिकरण ने केन-बेतवा लिंक के लिए विस्तृत रिपोर्ट भी तैयार कर ली है जबकि पार, तापी, नर्मदा और दमनगंगा, पिंजल लिंक योजनाआें के लिए रिपोर्ट २०११ तक तैयार कर ली जाएगी । लेकिन सवाल यह कि क्या यह परियोजना कागजों से निकल कर जमीन पर भी साकार होगी? श्री वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने १९९९ में नदियों को जोड़ने की योजना बनाई थी । इस योजना के तहत देश की प्रमुख नदियों को २०१५ तक एक दूसरे को जोड़ने का लक्ष्य रखा गया था । ***