मंगलवार, 27 जुलाई 2010

२ हमारा भूमण्डल

संकट में है जल
मार्टिन खऔर
हाल के वर्षो मे जलवायु परिवर्तन अन्य पर्यावरर्णीय मसलों को एक तरफ करके सबसे बड़ी वैश्विक समस्या दिखाई पड़ने लगा है । परंतु विश्व भर में पानी की खतरनाक कमी भी उतना ही महत्वपूर्ण मसला है । बल्कि कई मायनों में तो यह और भी बड़ी तात्कालिक चुनौती है । एक दशक पूर्व माना जा रहा था कि सन् २०२५ तक विश्व की एक तिहाई आबादी पानी की कमी से जूझेगी । परंतु यह विकट स्थिति तो आज ही आ चुकी है । विभिन्न देशों में रहने वाले २ अरब लोग पानी की कमी से त्रस्त है । अगर यही प्रवृत्ति चलती रही तो सन् २०२५ तक दुनिया की दो तिहाई आबादी पानी की कमी झेल रही होगी । अक्सर कहा जाता है कि इस शताब्दी में पानी की वही स्थिति होगी जोे पिछली शताब्दी में खनिज तेल की थी । जिस तरह पिछले दशकों में खनिज तेल को लेकर युद्ध चल रहे हैं आने वाला समय और भी नाटकीय होगा जबकि पानी को लेकर युद्ध लड़े जाएंगे । वैश्विक जल संकट विशेषज्ञ एवं कांउसिल ऑफ कनाडा की सदस्य माउथी बारलो ने अपनी पुस्तक ब्लू कविनन्ट (नीला प्रतिज्ञापत्र) में लिखा है २०वी शताबदी में वैश्विक जनसंख्या तीन गुनी हो गई लेकिन पानी का उपयोग सात गुना बढ़ गया । सन् २०५० में हमारी जनसंख्या में ३ अरब लोेग और जुड़ चुके होंगे । मनुष्यों की जल आपूर्ति में ८० प्रतिशत वृद्धि की आवश्यकता होगी । कोई नही जानता कि यह पानी कहां से आएगा । ताजे शुद्धजल की मांग तेजी से बढ़ रही है, परंतु इसकी आपूर्ति न केवलसीमित है, बल्कि यह घट भी रही है । जल आपूर्ति में वनों के विनाश एवं पहाड़ियों में भू-राजस्व से काफी कमी आ रही है । भू-गर्भीय जल को बहुत नीचे से खींचकर कृषि एवं उद्योग में इस्तेमाल करने से इसके स्तर में कमी आ रहीं है भू-गर्भीय जल के खनन से भारत, चीन, पश्चिमी एशिया, रूस एवं अमेरिका के अनेक हिस्सों में जलस्तर में गिरावट आइंर् है । उपलब्ध जल में से ७० प्रतिशत का उपयोग खेती में होता है औद्योगिक कृषि मेंे तो और अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है । एक किलो अनाज के उत्पादन में ३ घनमीटर पानी लगता है । जबकि १ किलो गोमांस के लिए १५ घनमीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है । क्योंकि गाय के लिए भी अन्न तो उपजाना ही पड़ता है । कई जगह सतह जल के प्रदूषित होने से वह भी मानव उपयोग हेतु उपयुक्त नही होता । यदि फिर भी इसका प्रयोग किया जाता है तो स्वास्थ्य संबंधी समस्याए खड़ी हो जाती है । विश्व में ५० प्रतिशत व्यक्ति जल जनित बीमारियों से मरते हैं । जलवायु परिवर्तन ने भी जल आपूर्ति को प्रभावित किया है । ग्लोबल वार्मिंग से ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे और भविष्य में वे दुर्लभ हो जाएंगे । उदाहरण के लिए देखें कि हिमालय के ग्लेशियर भारत, चीन और दक्षिण पूर्व एशिया की अनेक नदियोें को जल उपलब्ध कराते है । चीन की एकेडमी ऑफ साइंस के याओ तानडोेंग का कहना है कि पठार क्षेत्र मे बडे़ पैमाने पर ग्लेशियर के सिकुडऩे से इस इलाके मेें वातावरणीय विप्लव आ जाएगा। लंदन से प्रकाशित गार्जियन ने यमन द्बारा पानी की अत्यधिक कमी का सामना करने पर लिखा है कि देश की राजधानी साना अ के बारे मेें अनुमान है कि सन् २०१७ से इस शहर को पानी उपलब्ध नहीं हो पाएंगा क्योंकि समीप बह रही नदी से प्रतिवर्ष इसमें आने वाले पानी से चार गुना ज्यादा निकाला जा रहा है । एक तो अकाल के कारण यमन के २१ जलग्रहण क्षेत्रोें में से १९ में जलभराव नही हुआ और इनसे पहले से स्थिति इतनी गंभीर है कि सरकार देश की राजधानी स्थानांतरित करने पर विचार कर रही है । पानी की कमी विवाद का कारण बनती जा रही है । खासकर तब जबकि पानी के स्त्रोत, जैसे बडी़ नदियां एक से ज्यादा देशों में बहती हों । ऊपर के देश नीचे के बहने वाले पानी की मात्रा को नियंत्रित कर देते है । अफ्रीका में ५० नदियां एक से ज्यादा देशों में बहती है । पापुलेशन रिपोर्ट के अनुसार नील, जाम्बेजी, नाइगर और वोल्टा नदी बेसिन में विवाद प्रारंभ हो चुके हैैं । इसी के साथ मध्य एशिया के अराल समुदी बेसिन मेें तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान और तजाकिस्तान के मध्य अतंरराष्ष्ट्रीय जल विवाद प्रारंभ हो गया है क्योेंकि ये सभी देश अमुदरिया और सीरदरिया नदियों के पानी पर ही जिंदा हैं । मध्यपूर्व में भी जल समाप्त हो रहा है । इस परिस्थिति में विवाद की संभावनाएं बढत़ी जा रही हैं । स्टीवन सोलोमन ने अपनी नई पुस्तक वाटर में नील नदी के जल संसाधनो को लेकर मिस्त्र एवं इथियोपिया के मध्य उपजे विवाद के बारे मेें लिखा है । वे लिखते है दुनिया के सबसे विस्फोटक राजनीतिक क्षेत्र जिसमेें इजराइल, फिलीस्तीन, जोर्डन एवं सीरिया शामिल है, मेें दुर्लभ जल संसाधनों के नियंत्रण एवं बटवारे के लिए बेचैनी है । क्योंकि यहां तो बहुत पहले सबके लिए शुद्ध जल अनुपलब्ध हो चुका था पश्चिमी अमेरिका मे भी ऐसे किसान जो अपनी फसलों की सिंचाई के लिए अतिरिक्त पानी चाहते है, को शहरी इलाकों के घरो एवं अन्य नगरीय क्षेत्रों मे पानी की बढत़ी मांग की वजह से विरोध सहना पड रहा है । भारत में भी कर्नाटक एवं आंध्रप्रदेश के मध्य कृष्णा नदी का जल दोनंांेंं प्रदेशोें के विवाद का कारण बना हुआ है । पानी के घटते स्त्रोतों के मध्य पानी का वितरण भी विवाद का विषय बन गया है । बारलो ने अपनी पुस्तक में पानी के निजीकरण की नीति की विवेचना की है । कुछ समय पूर्व तक पानी सरकारी प्राधिकारियोें के सीधे नियंत्रण मेें था । पश्चिमी देशों में सर्वप्रथम जल का निजीकरण हुआ और बाद मेें विश्व बैंक के ऋण एवं परियोजनाओं द्वारा इसे विकासशील देशों मेें भी फैला दिया गया । इससे लोगों की पानी तक पहुंच पर विपरीत प्रभाव पडा़ एवं इनके देशोें मेें नागरिक समूहों ने पानी को सार्वजनिक वस्तु एवं पानी को मानव अधिकार का दर्जा देने के लिए संघर्ष भी शुरू कर दिया है । उपरोक्त सभी विषयों को जलवायु परिर्वतन जितनी ही गंभीरता से लेना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और इसकी कमी मानवीय स्वास्थ्य एवं वैश्विक राजनीति दोनो को ही प्रभावित करेगी । सोलोमन का कहना है कि वैश्विक राजनीति फलक पर जिनके पास पानी है और जिनके पास नहीं है, के मध्य नया विस्फोटक क्षेत्र उभरा है । यह तेल समस्या की गंभीरता को भी पार कर चुका है । अत: पानी को एक समस्या के रूप मेें मान्यता मिलनी चाहिए तथा इसके निराकरण को वैश्विक एवं राष्ट्रीय एजेेंडे मेें सर्वाच्च स्थान मिलना चाहिए । ***जल ही जीवन है जल बचाये,जीवन बचाये ।

३ विशेष लेख

सृजन के बीज
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
बीज ही तो सृजन का आधार होते हैं । बीजो में जीवंतता प्रसुप्त् रहती है । जो अनुकूलता पाते ही अंकुरा जाती है । बीज से ही धरती मातृत्व पाती है । बीज ही जैव विविधता के प्रस्तोता होते हैं । बीजों के सहारे जैव संपदा संरक्षित रहती है । बीज ही विराट के रूपक है । बीज ही सृष्टि के सूचक हैं । बीजांे से ही प्रारम्भ है, बीजों में ही अंत है । बीज की अनंतता को हर कोई जानता है । बीज ही सर्जना की थाती है, बीज ही महत्व की पाती है । बीज के हर महत्व से हम सभी वाकिफ है । इसीलिए किसान खेत में फसल पकने पर ही यह देख लेता है कि खेत के किस भाग में अगली फसल हेतु उत्तम बीज मिलेंगे । वह उन्ही बीजों का चयन कर उन्हे जतन से सहेज लेता है अगली फसल में उन्ही बीजों को खेत में छिटकाता है । किसान ही तो हमारा अन्नदाता है । वह यह जानता है कि बीज कुदरत की ऐसी नियामत हैं जिन्हें उनके मूलरूप में प्रयोगशाला में नही बनाया जा सकता है । हमारी सनातन संस्कृति में बीजों को सहजने का प्राधान्य है । हमारी पर्वोत्सव परम्पराआें में बीजों की पूजा का विधान है । नवरात्र पर्व पर विशेष रूप से जलघट पर बीज मिले गोबर की थाप का रिवाज है । नमी पाकर बीज जबारे बन जाते हैं जिन्हें हम प्रसाद रूप में पाते हैं । बीज समिधान की प्रसादी के साथ नवान्न की खुशी मनाते हैं । सृष्टि मे सबकुछ बीज रूप में रक्षित है । महिलाआें में बीजो के रखरखाव के प्रति समर्पण भाव रहता है । बीजों के प्रति संवेदी महिलाएं अपने घर के साथ लगी छोटी सी जमीन पर ही क्यारियाँ बनाकर उनमें भाँति भाँति के बीज उगाती है । पौधे बनने और फसल पकने तक बच्चें की तरह उनका पालन करती है । गोबर की खाद देती हैं । यह महिलाएं गऊ भी पालती हैं उनका उपले जमा करने का गोहाल भी पौध क्यारियों के समीप होता है । यह महिलाएँ बीजों का आदान प्रदान पास पड़ौस में करती है । उनकी छोटी सी बीज प्रयोगशाला यानि पौध शाला बड़ी ही अनुकरणीय होती है । उनके कोठार की हाँडियाँ अनाज के स्वस्थ एवं पृष्ट दानों से भरी रहती है । फसल-दर-फसल दुर्लभ बीजों के संकलन के इस अभियान में वह योगी की तरह लगकर धन्य रहती हैं । आडे वक्त में उनकी यही कला तो काम आती है । किसी भी आपद स्थिति में विस्थापन होने पर सहेजे गए बीज ही तो जीवन का आधार बनते हैं । स्वावलम्बी सुदीर्ध बीज परम्परा को पर्वतीय जनकवि घनश्याम सैलानी ने भी समझा तभी तो उन्होने कहा है - अन्न कु कोठार धौ,बीज कु भण्डार धौ,अजु पैछु उधार धौ,आपस मा प्यार धौ,कनु पुराणु बीज थौ,धरती व ई माही को । अर्थात अन्न की अपनी भण्डारण व्यवस्था (कोठारी) थी । नाना प्रकार के बीजों का अपना भण्डार था । वक्त जरूरत पड़ने पर बीजों का आदान प्रदान होता था । सभी लोग आपस में प्यार मोहब्बत से रहते थे । यह सब अच्छाईयाँ धरती माता तथा उपजाऊ मिट्टी से उत्पन्न सहेजे गये पुराने बीजो के द्वारा ही संभव थी । सभ्यता के विकास के साथ साथ जब मानव कृषि कार्योंा में दक्ष हुआ तो उसने बीजो की विविधता को और भी अधिक शिद्दत से जाना । फसलों के प्रकारों तथा कृषि चक्रान्तरण को पहचाना । उसने स्वाद तथा स्वास्थ्य को समझा । उसने व्यंजन बनाने की विधियां विकसित की तभी तो भारतीय संस्कृति में छप्पन भोग का दर्शन आया । खेती-किसानी की तरफ रूझान बढ़ा जिससे बीज समिधान आजीविका बना । बच्च-बच्च भी यह जानता है कि पेड़-पौधो में वंश वृद्धि कैसे होती है । कृषि संस्कृति का विकास हुआ । बीज संग्रह, विधायन तथा भण्डारण की उन्नत विधियों विकसित की रीढ़ बने । बीजों की साज संभाल देशज विधि द्वारा निर्मित कुठलो (बीज पात) में रखकर की जाती थी । तथा भण्डारण काल में पीड़क कीड़ों तथा कीटों से रक्षा हेतु, नीम की सूखी पत्तियों आदि के साथ रखकर उनकी देखभाल निरापद ढंग से की जाती थी । धीरे-धीरे उन्नत प्रजातियों के बीजों के बोने का प्रचलन बढ़ा । अच्छी अच्छी नस्लों के उन्नत बीजों को खोज कर पारस्परिक आदान प्रदान से बड़े भूभाग पर उनका वितरण एवं प्रकीर्णन हुआ जिससे जैव विवधता को बल मिला । बीजों का यह लेन-देन सहज स्फूर्त रहा । यह एक नैसर्गिक अनुबंध था । बीज बाँटने का चलन आज भी हमारी लोक संस्कृति एवं पर्वोत्सव परम्पराआें से जुड़ा हुआ है । अपनी धरती के अनुरूप अपनी जलवायु तथा मिट्टी के अनुरूप बीज चयन का अधिकार हमारे पास सुरक्षित है । हमारे पास विविधता पूर्ण फसलों के चक्रान्तरण की व्यवस्था है जिससे खेत सदा उर्वर रहते है हमारे बीज जलवायु के अनुरूप रहे हैं । हम और हमारे खाद्यान्न बीज परस्पर पूरक रहे हैं । किन्तु देखा जा रहा है कि अब हम अपनी स्वावलम्बी बीज परम्परा से इतर परावलम्बी कृषि व्यवस्था में प्रवेश कर रहे है । अपने ही बीजो के विधायन (प्रोसेसिंग) द्वारा उन्हें उन्नत बनाने के तो हम पक्षधर है किन्तु यदि हम बीजों के मूल रूप से खिलवाड़ करें तो वह कदापि उचित नहीं । हमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के इस षड़यंत्र से सावधान होना होगा । परावलम्बन हमारी भूख को और भी भयानक कर देगा, क्योंकि तब हम बीजों के लिए भी भिखारियों की तरह हाथ फैलाएँ होंेगे । प्रश्न यह है कि बीजो से खिलवाड़ करने का बीजमंत्र कहाँ से आया ? हम सभी यह जानते हैं कि पेड़-पौधे अपनी वंशवृद्धि करते हैं । वनस्पतियाँ बीजांकुरण से जन्मती और पनपती हैं किसी विशेष प्रजाति की वनस्पति के बीज ही उसकी संततियों के प्रस्तावक होते है । सन् १८६५ में बूनो, चेक गणराज्य के संत थॉमस मठ के बाग में फादर ग्रिगोर मेंडेल ने मटर के बीजों पर प्रयोग किये और अनुवंशिकता की परिकल्पना तथा सिद्धांत प्रस्तुत किये । श्री मेंडेल के काम को सन् १९०२ में थॉमस हेट मोर्गन ने आगे बढ़ाया तथा पौध सुधार में अनुवांशिकता के सिद्धांत के प्रयोग जीन (पित्रैक) उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) द्वारा किये गए । तत्पश्चात उन्नीसवी सदी के मध्य में वॉटसन एंव क्रिक वैज्ञानिकों ने डी एन ए (डी ऑक्सी राइबोन्यूक्लिक एसिड) की संरचना को खोजा जिससे जीव विज्ञान में आण्विक अनुसंधान को बल मिला । आण्विक विज्ञान के आधार पर हमने अपनी फसलों के मिजाज को समझा, परख विकसित की और खाद्यान्न को गुणात्मक रूप से बढ़ाया ताकि बढ़ती हुई आबादी भूख का सामना कर सके । इसी बीच हरित क्रांति का नारा आया । रासायनिक खाद तथा कीटनाशकों के छिड़काव के सहारे खाद्य उत्पादन को गुणात्मक रूप से बढ़ाया । फसलों का व्यापक विस्तार हुआ किन्तु अपना बीज-अपने खेत में का मिथक टूटने लगा । फसलों की कुदरती खुशहाली हम छीनते गए । खेती की स्वनियामक स्वावलम्बी जीवन धारा टूटने लगी । कृषि संस्कृति छीजने लगी । उपज बढ़ी किन्तु खेतो की मिट्टी जहरीली होकर मरने लगी । रासायनिक खाद ने तथा कीटनाशक छिड़काव ने धरती को नशीली बना दिया । हमारा ध्यान व्यावसायिक फसलों की एक प्रजातियों पर केन्द्रित होकर रह गया । जैव विविधता का अवनयन शुरू हो गया । रासायनिक कीटनाशकों के सहारे फसलों को बर्बाद होने से बचाया, भण्डारित अनाज में भी कीटनाशी लगाया । हमने इस कवायद में बहुत कुछ खोया तब कुछ पाया । धरती जहरीली हो गई तथा प्रदूषण ने अपने पाँव पसार लिए । प्रदूषण के कारण अनुवांशिक विकृतियाँपनपने लगी । पर्यावरण तथा अनुवंशिकता परस्पर संपूरक है तथा प्रभावी भी है तथा यह दोनों ही तथ्य मानवीय विकास से पूर्णतया जुड़े हैं । मानव संसाधन विकास के रास्ते के यह दो किनारे हैं । क्योंकि पर्यावरण जहाँ मानव को बाह्य रूप से प्रभावित करता है । वहीं आनुवंशिकी आंतरिक रूप से प्रभाव डालती है । देखा जाय तो हरित क्रांति एक छलावा ही सिद्ध हुई क्योंकि हरित क्रांति के द्वारा पर्यावरण दूषित हुआ तथा आनुवंशिक विकृतियाँ भी पनपी । अति उत्साहित मानव प्रकृति को ही चुनौती देने लगा । जैव इंजिनियरिंग के नये-नये प्रतिमान गढ़ते हुए फसलों की जीनांतरित कर जेनेटिकली मोडीफाइड (जी एम) बनाने का सिलसिला शुरू हुआ है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ऐसी जी एम बीजों एवं फसलों का फंडा सामने ला रही है तथा इस फंडे को दुनिया से भूख एवं कुपोषण मिटाने का जरिया बतला रही है । उन्होने अपने इस नजरिये को सदाबहार क्रांति (एवरग्रीन रिवोल्यूशन) के रूप में देश और दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है । यद्यपि जीनियागरी के द्वारा किसी भी जीव के जीन (पित्रैक) में मनमाना परिवर्तन संभव है जिससे उसकी अनुवांशिक विशेषताआें में फेरबदल हो जाता है । यह परिवर्तन नैसर्गिक सृजनशील परम्पराआें में संभव नहीं था । चिंताजनक पहलू यह है कि यह बीज रूपान्तरण को प्रक्रिया विश्व व्यापार संगठन के समझौते के अधीन ट्रिप्स तथा पेटेंट से बंधी है । इन पर किसानो का अपना कोई हक-अधिकार नहीं होगा । टिप्स प्रौद्योगिक प्रक्रियाआें और उत्पाद के व्यापार का वैधानिक और व्यवहारिक पक्ष से एक वैश्विक व्यवस्था का प्रक्रम है । इसके अनुसार खुले बाजार में ऐसे उत्पादों कों नहीं बेचा जा सकता है जिन पर किसी उत्पादक कम्पनी, एजेन्सी या आविष्कारक को सर्वाधिकार या पेटेंट प्राप्त् होता है । कहा जा सकता है कि ये बीज के बाजार को मनमाफिक फैलाकर लूटने की प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया में सबसे खराब बात यह है कि कम्पनी या आविष्कारक पेटेंट धारी द्वारा उपलब्ध कराये गए बीज केवल एक फसल तो देते है उन बीजों से बनी पौध के बीज अगली फसल हेतु कारगर नहीं रहते हैं अर्थात अगली पीढ़ी में वह नहीं अंकुराते । ऐसेे बीजों को टर्मिनेटर बीज कहते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि एक बार ऐसे टर्मिनेटर बीज प्रयोग करने के बाद हमारी कृषि व्यवस्था परावलम्बी हो जायेगी । क्या यह हमारी स्वायत्ता पर हमला नहीं ? क्या यह परतंत्र बनाने का शिगूफा नहीं ? यही विचारणीय प्रश्न है । हम सभी लोग अपने परम्परागत बीजों की सृजन धर्मिता से बखूबी परिचित है । खेत में बीज बोते है । वह अंकुराते हैं । नई पौध जीवित होती है । फसल पकती है । फूल-फल-बीज बनते हैं । फिर किसान फसल हेतु बीज चुनकर, शेष उपज में से घर खर्च हेतु बचाकर, शेष को बाजारमें बेचकर उसका मूल्य लेता है । जिससे उसका जीवनयापन होता है । टर्मिनेटर बीज बाँझ होते हैं । वह सृजन धर्मिता नहीं संजोते हैं । हम ऐसे घातक बीजों को अपना रहे हैं । समझ में नहीं आता कि ऐसा आत्मघाती कदम क्यों उठा रहे हैं । दरअसल बीजों के भ्रूणीय विकास एवं अंकुरण की क्रिया न केवल अलग होती हैं वरन वह बड़ी संवेदनशील भी होती है इन प्रक्रियाआें के लिए अलग अलग जीन उत्तरदायी है किन्तु यदि कोई जीन किसी विशेष प्रोटीन या अन्य विषाक्त पदार्थ का संश्लेषण करता है तो उसकी परिणति जीव मृत्यु के रूप में ही होती है । यही बीज की आत्मघातक समापकता है । हम ऐसे समापक बीजों को अपनाकर जैव विविधता की समािप्त् की ओर क्यों ले जाना चाहते हैं ? यह विचारणीय प्रश्न है ? हमें अपनी कृषि के पवित्र रहस्य को सृजनशीलता के साथ बनाये रखना होगा देशी बीजों पर भरोसा करना होगा । स्वार्थान्धी राष्ट्रों द्वारा फैलाए गए सीड रिवोल्यूशन जिसे ग्रीन रिवोल्यूशन द्वितीय भी कहा जा रहा है को सिरे से खारिज करना होगा । गांधीवादी चिंतक अनुपम मिश्र की इस चेतावनी पर गौर करना होगा - हरी क्रांति का यह दूसरा चरण हमारे बीजो की नींव पर खड़ा हुआ है और इस चरण में उत्तरी दुनिया के अमीर देशों की कुछ इनी-गिनी कम्पनियों ने कोई ५०० अरब रूपये लगाए हैं । कई देशों में धंधा करने वाली ये दादा कंपनियां बीज के धंधे में इसलिए नहीं उतरी है कि उन्हें दुनिया की खेती सुधारनी है । फसल बढ़ानी है और भूखमरी से निपटना है । इनका पहला और आखरी लक्ष्य है दुनिया की खेती को अपने हाथ में समेट कर उसका फायदा अपनी जेब में डालना है । अत: हमें अपनी माटी की तासीर के अनुसार अपनी धर्म संस्कृति और बाजार से जुड़े हुए समर्पित बीजों पर भरोसा करना चाहिए समापक विदेश बाजार बीजों पर भरोसा करना चाहिए समापक विदेशी बाजारू बीजों से सावधान रहना चाहिए हमें दूसरों को प्रयोग शाला में पनपे बीज नहीं चाहिए हम अपनी कृषि परम्परा में ही संतुष्ट हैं और अपने सृजनधर्मी नैसर्गिक बीजो की रक्षा करेंगे । यही चिंता और चिंतन दिया है । प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री प्रोफेसरनरसिंह दयाल की सद्य प्रकाशित पुस्तक जैव साम्राज्यवाद की दस्तक से एक अंश उद्धरित है - वस्तुत: बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा बहुप्रचारित हरित क्रांति द्वितीय अल्पविकसित और विकासशील देशों की वर्तमान कृषि व्यवसाय को समाप्त् कर उन्हें जीन कृषि के लिए मजबूर कर कृषि का बंधुआ बनाने की एक सोची समझी रणनीति है । ऐसा होने पर ये देश, इनके द्वारा सृजित जी एम बीजों पर हमेशा के लिए आश्रित हो जाएंगे । जीवों और जीनों यानि जीवित अणुआें का निजीकरण ही विवास्पद और अनैतिक है । आखिरकार वे इन फसलों के विधाता या सृष्टिकर्ता नहीं है । क्रमिक विकास की प्रक्रिया से छेड़छाड़ करने, जैव विविधता और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने और किसी देश की जैव संप्रभुता का अतिक्रमण करने का अधिकार किसी को नहीं हो सकता है । जैव साम्राज्यवाद के खतरे से सावधान रहे । अपनी संस्कृति के बीज मंत्र को पकड़े रहे । नये नये लुभावने झाँसे में आकर अपनी परम्परा को नहीं खोना है । हमें अपने खेतों में पुरखो से प्राप्त् बीजो को ही बोना है ताकि सुरक्षित रहे हमारी धरती की विरासत । कई बार हमारी अज्ञानता के कारण हमारी धरती आहत हुई है । आदमी दाने-दाने को मोहताज हुआ है तब अन्नपूर्णा देवी कूष्माण्डा ने स्वयं ही धरती को सरसाया है । हमें अपनी उम्मीद के बीजो को अपनी को अपनी संततियों को आशा और विश्वास के साथ सौंपना है कि वे उन्हें सहेज कर रखेंगी । वह हमारी धरती पर कभी भी कहीं भी ऐसी स्थिति नहीं उत्पन्न होने देगी कि कोई भूखा ही मर जाये। हमारे बीजों की सृजन गाथा इतनी उन्नत रहे कि अकाल भी कालकवलित हो जाये और धरती पर हमेशा सृकृत कर्म की फसल लहलहाए । ***राष्ट्रीय ग्रीन न्यायाधिकरण का गठन होगा वन अपराधों की सुनवाई के लिए देश में राष्ट्रीय ग्रीन न्यायाधिकरण गठित किए जाने के बाबत केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि इससे संबंधित विधेयक को संसद की इजाजत मिलते ही इसे अस्तितव में लाया जाएगा । श्री रमेश ने उम्मीद जाहिर की कि इस साल के अंत तक यह अपना काम शुरू कर देंगी । राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (एनईपीए) का जिक्र करते हुए केंद्रीय वन मंत्री ने कहा कि वह इस बारे में इस साल संसद में विधेयक पेश करेंगे तथा यह एजेंसी पर्यावरणीय कानून पर अमल सुनिश्चित करेंगी । इस एजेंसी के अस्तित्व में आने के बाद देश में मौजूद प्रदूषण नियंत्रण मंडलों का काम परीक्षण एवं पर्यावरणीय कानूनों की निगरानी का रहेगा । वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के विभाजन को लेकर पूछे गए एक सवाल के जवाब में शी रमेश ने कहा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भी यह मत है कि वन एवं वन्यजीव तथा पर्यावरण मंत्रालय को अलग-अलग कर दिया जाए, जिससे वे अपने-अपने काम को बेहतर तरीके से अंजाम दे सकेंगे । उन्होने कहा कि देश मेंे पहली बार १३ वें वित्त आयोग ने राज्यों को वन संरक्षण के लिए ग्रीन बोनस के तौर पर पांच हजार करोड़ रूपये मंजूर किए है । राज्यों को यह राशि दिलाने में आईआईएफएम ने अहम भूमिका निभाई है ।

अप्रैल पृथ्वी दिवस पर विशेष

पृथ्वी और ग्रीन पालिटिक्स
डॉ. लक्ष्मीकान्त दाधीच
पृथ्वी मानव का आवास है । भूमि, जल, वायु और प्राणी पर्यावरण के प्रमुख घटक है । पर्यावरण शब्द एक लम्बे समय से जीव, पादप और प्रकृति वैज्ञानिकों के लिये एक पहेली बना रहा है । मानव अपनी आदिम अवस्था से ही अपने पर्यावरण का प्रेक्षण करता रहा है । ग्रीस, रोम, चीन, फारस, मिस्त्र, बेबीलोन और भारतवर्ष में विभिन्न विद्वानों द्वारा व्यवस्थित अध्ययन, अनुसंधान और ज्ञानार्जन के प्रयत्न शताब्दियों से किये जाते रहे है । उन विद्वानो ने ज्ञान को एक समष्टि माना था । कालान्तर में ज्ञान के विकास के साथ -साथ विशेषज्ञता अर्जित करने के लिये, ज्ञान को टुकड़ों में बाँट कर उसका गहन अध्ययन किया जाने लगा है । प्रकृति से मानव के अद्भुद संबंधोे का परिणाम थे ऊचे पर्वत हिमाच्छादित शिखर, खुुबसूरत नजारे, भरपूर पानी और शुद्ध हवा, जिनका भरपूर आनन्द उठाया वर्तमान पीढ़ी ने और जो भूल, गई भावी पीढ़ी को जिसे प्रकृति के प्रकोप से बचने की तैयारी में ही शायद अपना संपूर्ण जीवन बिताना पड़े । वनों के विनाश के साथ समाप्त् होते वन्य जीव निश्चित ही मानव की समािप्त् का भी संकेत कर रहे है । प्रकृति में पर्यावरण के जीवीय घटकों हेतु आवश्यक अजीवीय घटकों वायु , जल और मृदा में होता प्रदूषण आधुनिक तथाकथित विकसित मानव को बीमारी, भूख, प्यास कुपोषण, गरीबी और प्राकृतिक आपदाएं भेट स्वरूप प्रदान कर रहा है । विश्व के आर्थिक विकास के साथ राष्ट्रों की आवश्यकताएँ भी बढ़ी है इन बढ़ती हुई आकांक्षाआें की पूर्ति के लिये मानव ने प्रकृति का बेतहाशा दोहन किया है इससे वन विरल होते जा रहे है, जीवों की प्रजातियाँ विलुप्त् हो रही है, और वायुमण्डल की ओजोन परत चरमरा रही है । उद्योग जनित प्रदूषण का प्रभाव ग्रीन हाउस प्रभाव एवं अम्ल वर्षा के रूप में महसूस किया जा सकता है । मानव और प्रकृति का सह-संबंध सकारा- त्मक न होकर विध्वंसात्मक होता जा रहा है । ऐसी स्थिति में पर्यावरण का प्रदूषण सिर्फ समुदाय या राष्ट्र विशेष की निजी समस्या न होकर एक सार्वभौमिक चिन्ता का विषय है । पारिस्थितिकीय असन्तुलन हर प्राणी को प्रभावित करता है अत: यह जरूरी हो जाता है कि विश्व के सभी नागरिक पर्यावरण समस्याआेंके सृजन में अपनी हिस्सेदारी को पहचाने और इन समस्याआें के समाधान के लिए अपना अपना योगदान दे । आज विश्व में पर्यावरण में असंतुलन गंभीर चिंता का विषय बन गया है जिस पर अब विचार नहीं ठोस पहल की आवश्यकता है अन्यथा बदलता जलवायु, गर्माती धरती और पिघलते ग्लेश्यिर मानव जीवन के अस्तित्व को खतरे में डाल देंगे । प्रकृति में उत्पन्न असंतुलन प्राकृतिक प्रकोपों का जन्मदाता बनेगा । जिनसे बचने की पूर्व तैयारी अब समय की आवश्यकता बन चुकी है । पर्यावरण शिक्षा का पाठ सीखकर पर्यावरण नागरिक की भूमिका निभाने से ही प्राकृतिक प्रकोपों से बचा जा सकेगा। वर्तमान में स्थिति यह है कि विकसित देशों द्वारा लगातार पर्यावरण को नुकसान पहुचाने वाली हानिकारक गैसो का उत्सर्जन किया जा रहा है । मानवीय जरूरतो के लिए विश्वभर में बड़े पैमाने पर वनों का सफाया किया जा रहा है । विकासशील देशों द्वारा विकास के नाम पर सड़को , पुलों और शहरो को बसाने के लिए अंधाधुध वृक्षों की कटाई की जा रही है । बिजली की जरूरत के लिए बड़े पैमाने बांध बनाकर नदियों के प्रवाह को अवरूद्ध करने के साथ ही अवैज्ञानिक एवं अनियोजित खनन को बढ़ावा दिया जा रहा है। फलस्वरूप हमारी धरती विनाश और प्राकृतिक प्रकोपो की ओर अग्रसर है । विश्व पर्यावरण की अधिकतर समस्याआें का सीधा सम्बन्ध मानव के आर्थिक विकास से है । शहरीकरण औद्योगीकरण और संस्थानोंं के विवेकहीन दोहन के परिणामस्वरूप संसाधनों पर बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है । परिणामत: पर्यावरण अवनयन की बढती दर के कारण पारितंत्र लड़खड़ाने लगा है । आज विश्व के सामने वैश्विक आतपन (ग्लोबल वार्मिंग) जैसी समस्याएं मुंह बाये खड़ी है औद्योगिक गैसों के लगातार बड़ते उर्त्सजन और वन आवरण के तेजी से होते ह्ास के कारण ग्रीन ओजोन गैस की परत का क्षरण हुआ है ।से जाने वाली हानिकारक (पैराबैंगन) विकिरणों से जैवमंण्डल को बचाने वाली कार्बन-डाई-ऑक्साईड और ओजोन गैस की मात्रा में हुए इस अस्वाभाविक बदलाव का प्रभाव स्थानीय, प्रादेशिक और वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिर्वतनों के रूप में दिखलाई पड़ता है । सार्वभौमिक तापमान में लगातार होती इस वृद्धि क कारण विश्व के हिम और हिमनद पिघलने लगे है । हिम के तेजी से पिघलते का प्रभाव महासागर में जलस्तर के बढ़ने में दिखाई देता है । यदि तापमान में ऐसी बढोतरी होती रही तो विश्व की समस्त हिमराशियों के पिघलने से महासागरो का बढ़ता हुआ क्षेत्रफल और जल स्तर एक दिन तटवर्ती स्थल भागों और द्धीपों का जलमग्न कर देगा । पर्यावरणवेत्ताओ के अनुसार पर्यावरण असंतुलन के विभिन्न कारण है, जैसे विवकहिन और संवेदनशील और औद्योगिकरण,अनियोजित नगरीकरण बेलगाम जनसंख्या वृद्धि और स्थानीय भूमि उपयोग अचानक हुए परिर्वतन । मानव अपने जीवनयापन के लिए सदैव पर्यावरण पर निर्भर रहता चला आया है । मानव के विकास के साथ-साथ उसकी आवश्यकताएँ तो बड़ी है । पर्यावरण पर निर्भरता भी बढ़ती चली गई है । उपभोक्ता संस्कृति नें मनुष्य की पर्यावरण के दोहन की प्रवृति को शोषण की प्रवृति में बदल दिया है । हम जानते है कि एक अनुकूल पर्यावरण के लिये जैवमण्डल के विभीन्न घटकोंका आपसी तादात्म्य अनिवार्य है भौतिक विकास के साथ हमारी बेतहाशा बढ़ती जरूरतों को को पूरा करने के लिये पर्यावरण के उपलब्ध संसाधनों का अनुबंध अंधाधुंध दोहन लगातार जारी है । इस दोहन के परिणामों को हम सभी वैश्विक आतपन ओजोन कवच क्षरण (जूिशि वशश्रिशींळिि) विश्व में विभीन्न स्थानों पर जलवायू का प्रलयकारी औद्योगिक और ऑटोमोबाईल प्रदूषण, आद रूपों में पहचानने लगे है । ग्रिफीथ टेलर (१९५७) के अनुसार मानव अपनी इच्छा अनुसार अपने देश की प्रगति को रोक भी सकता, धीमा भी कर सकता और त्वरित भी । लेकिन अगर वह विवेकवान है तो उसे उस दिशा से कभी भटकना नहीं चाहिए । जिस और उसका पर्यावरण उसे निदेशित करता है । हर व्यक्ति अपने पर्यावरण की एक सक्रिय इकाई है इसलिए यह आवश्यक है कि बेहतर जीवन जीने के लिए अपने पर्यावरण के उन्नयन और अवनयन में वे अपनी जिम्मेदारी को समझे । आज हम दूर दराज गांव से महानगर तक प्लास्टिक कचरे की सर्वव्यापकता से त्रस्त है जगह-जगह पॉलीथीन की थैलियों और प्लास्टिक बोतलवातावरण को प्रदूषित कर रही है इस दृश्य के रचियता हम आम और खास लोग ही है । पर्यावरण की भयावह होती तस्वीर और पारिस्थतिक असन्तुलन की समस्या का सामना करने के लिए प्रत्येेक व्यक्ति को अपने पर्यावरण के प्रति एक सजग दायित्व निभाना होगा । हमें यह नही भुलना चाहिए कि राजस्थान के खेजड़ली ग्राम की अमृता देवी एक सामान्य ग्रामीण महिला थी किन्तु उनकी पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता ने पश्चिमी राजस्थान के कई समुदायों की पीढ़ियों मेंे वृक्ष और वन्यजीव प्रेम का संस्कार डाला है । पर्यावरण अवनयन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी उन सम्पन्न औद्योगिक राष्ट्रों की है जिन्होने उर्जा के विवेकहीन उपयोग के द्वारा सम्पूर्ण पर्यावरण किरणों के लिए भी रास्ता लगभग साफ कर दिया है अब आवश्यक हो गया है कि व्यक्ति ही नही समुदायों, राष्ट्रीय और सम्पूर्ण विश्व, पर्यावरण के प्रति अपनी नीतियों और उनके क्रियानवयन में एक सह संवेदनशीलता लायें । विश्व के विभिन्न भागों में पर्यावरण के प्रति सजगता हालांकि अब बढ़ती दिखाई देने लगी है और लोग पर्यावरण अवनयन के परिणामस्वरूप होने वाली समस्याआें को समझने लगे है । लेकिन सरकारे अभी भी अपने तत्कालिक आर्थिक हितोंं के भावी खतरों को नजर अन्दाज कर रही है । औ़द्योगिक कार्बन-डाई-ऑक्साइड उतसर्जन पर नियंत्रण, विश्व में बढ़ते ग्रीन हाउस प्रभाव को नियंत्रित करने की दिशा में प्राथमिक कदम है । किन्तु कार्बन-डाई-ऑक्साइड उत्सर्जन नियंत्रण पर विभिन्न सरकारे प्रतिबद्ध नहीं होना चाहती । अभी तक क्लोरोफ्लोरोकार्बन का उत्पादन नहीं रोका जा सका है जबकि मॉन्ट्रियल कन्वेन्शन (१९८९) में सन् २००० तक सी.एफ.सी.उत्पादन शत प्रतिशत बंद कर दिया जाने का लक्ष्य तय किया था ।यह उत्पादन अभी तक जारी है। अब यह जनभावना पर निर्भर है कि सरकारे इसी पर्यावरण के स्वास्थ्य की कीमत पर भौतिक आर्थिक विकास को तरजीह देती रहें या अपनी प्राथमिकताआें पर पुर्नविचार करें आधुनिक समाज में एक स्वास्थ संतुलित जीवन को एक नागरिक अधिकार के रूप में देखा जाने लगा है हरित औद्योगिक राष्ट्र यह स्वीकार कर लेंगे कि पारिस्थितिकी दृष्टि से गैर जिम्मेदार होना आर्थिक रूप से भी फायदे का सौदा नहीं है । तभी पर्यावरण के पक्ष में स्थितियाँ बदलेंगी । आज जरूरत इस बात की है कि सरकारे पर्यावरण के विभिन्न घटको के महत्व को समझकर तुरंत प्रभाव से उचित आदेश प्रसारित करें महती भूमिका अदा कर सके। अन्यथा एक पृथ्वी को गरीब और अमीर की पृथ्वी में बंटने से कोई नही रोक सकेगा ।तब शायद यही पालिटिक्स हमारी पृथ्वी की आवश्यकता होगी।***

५ पर्यावरण परिक्रमा

देश में ८ सौ विश्वविद्यालयों व ३५ हजार कॉलेजो की जरूरत
मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा है कि देश में १८-२४ वर्ष की आयु के महज १२.४ फीसदी विद्यार्थी ही विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेते है और इस दर को ३० फीसदी तक लेते जाने के लिए हमें आने वाले वर्षो में करीब ८०० विश्वविद्यालयों और ३५ हजार कॉलेजों की जरूरत होगी । श्री सिब्बल ने कहा कि २१ वी सदी भौतिक संपदा की नहीं, बल्कि बौद्धिक संपदा की है यह बौद्धिक संपदा स्कूलों और विश्वविद्यालयों में विकसित होती है हमें इसी को ध्यान में रखते हुए युवाआें को विकसित करना होगा । श्री सिब्बल ने कहा कि देश में १८ से २४ की आयु के हर १०० में से महज़१२.४ फीसदी विद्यार्थी ही विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेते है । इस मामले में विश्व की औसत दर २३ फीसदी और विकसित देशों की दर ४० फीसदी है । अगर भारत को ३० फीसदी का लक्ष्य हासिल करना है तो हमे आने वाले वर्षो में ४८० विश्वविद्यालयों और २२.००० कॉलेजों है हाल ही में जारी हुई सभी के लिए शिक्षा विषयक यूनेस्को की वैश्विक निगरानी रिपोर्ट में आगाह किया गया है कि वित्तीय संकट के चलते देश के सबसे गरीब देशों के लाखों बच्चें के शिक्षा से वंचित हो जाने का खतरा है दुनिया भर में ७.२ करोड़ बच्चें ने स्कूल छोड़ दिया है और इसके लिए आर्थिक मंदी और बढ़ती गरीबी जिम्मेदार है ।पॉलिश वाला चावल मधुमेह का बड़ा कारण देश में बाजारों में चावल के चमचमाते ब्राडों के विज्ञापनों को देख कहीं आपका दिल मचल तो नही रहा । अगर ऐसा है, तो आप के लिए एक चेतावनी है । स्वास्थ्य शोध की देश की सबसे बड़ी सरकारी संस्था इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के जर्नल के मार्च अंक में छपे ताजा शोध में कहां गया है कि भारत के दुनिया की मधुमेह राजधानी बनने के पीछे पॉलिश अनाज, चमकीले चावल का बड़ा हाथ हो सकता है । शोध में कहा गया है कि भारत में अन्न मुख्य भोजन रहा है । हम जो कुल केलौरी लेते है, उसमें कार्बोहाइड्रेट की मात्रा काफी होती है । यह भी सही है कि यह मात्रा मधुमेह जैसी क्रोनिक बीमारियों को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों में दी गई सलाह से बहुत अधिक नहीं है । फिर भी इसी अवधि में देश में मधुमेह मरीजों की संख्या शहरी क्षेत्रों में ८ प्रतिशत से बढ़कर १६ प्रतिशत हो जाना चौकाने वाला है । शोध वैज्ञानिकों का कहना है कि इसका संबंध पॉलिश्ड चावल के बढ़ते प्रयोग से हो सकता है । वैज्ञानिकों ने इस निष्कर्ष का आधार चेन्नई में किए गए एक अध्ययन को बनाया है । इसके अनुसार चेन्नई में पॉलिश किए हुए चावल का अधिक सेवन मधुमेह का बड़ा कारण है चावल को रिफाइंड करने की प्रक्रिया में फाइबर, विटामिन, मैगनीशियम, लिगानंस, फाइटो एस्ट्रोजेंस और फाइटिक अम्ल जैसे वे पदार्थ गायब हो जाते है जो मधुमेह से पदार्थ जो गायब हो जाते है,जो मधुमेह से रक्षा करने वाले होते है । राष्ट्रीय शहरी मधुमेह अध्ययन में चावल की अधिक खपते वाले शहर हैदराबाद, चैन्नई और बेंगलुरू में गेहूँ की ज्यादा खपत वाले दिल्ली, कोलकाता और मुंबई की तुलना में मधुमेह होने की दर अधिक है ।सबसे अधिक सिंचित क्षेत्र फिर भी उत्पादन कम विश्व में सबसे अधिक सिंचित क्षेत्र भारत में होनेे के बावजूद यहां विकसित देशों की तुलना में प्रमुख फसलों की उत्पादकता कम है । अमेरीका, ब्रिटेन रूस, मिस्त्र, चीन, ब्राजील और ऑस्ट्रेलिया में प्रति हेक्टेयर में प्रति हेक्अेयर चावल, गेहुँ, मक्का, मंूगफली और गन्ना की जितनी पैदावार होती है उसकी तुलना में इन फसलों की पैदावार यहीं नहीं होती । सराकरी आंकड़ो के अनुसार वर्ष २००६ में इन देशों की तुलना में सबसें अधिक क्षेत्र में धान की खेती की गई लेकिन चावल की पैदावार प्रति हजार हैक्टेयर ३१२४ किलोग्राम हूई, वही दूसरी और अमरीका में प्रति हेक्टेयर चावल का उत्पादन ७९६४, रूस में ४३२४, मिस्त्र १०५९, चीन में ६२६५ और ब्राजील में ३८६८ किलोग्राम हुआ था । गेंहूँ के प्रति हेक्ट्रेयर उत्पादन में भारतकी स्थिति आस्ट्रेलिया और रूस की तुलना में थोड़ी अच्छी है जबकि अमरीका के आसपास है । आस्ट्रेलिया में गेहूँ का उत्पादन प्रति हैक्टेयर ८८२ और रूस १९५३ किलोग्राम है वही भारत मेेंे यह २६१९ किलोग्राम है । अमेरिका में गेहूँ कर पैदावार प्रति हैक्टेयर २८२५ किलोग्राम है जबकि ब्रिटेन में ८०३, मिस्त्र में ६४५५ और चीन में ४४५५ किलोग्राम है । विश्व में मक्का के उत्पादन में सबसे बेहतर स्थिति मिस्त्र की है जहां प्रति हैक्टेयर ७८८७ किलोग्राम इसकी उपज ली जाती है जबकि भारत मेंे यह १९३८ किलोग्र्राम ही है । अमरीका में ३६२९, रूस में ५८६३, चीन में ५३६५ और ब्राजील में ३३८३ किलोग्राम प्रति हैक्टकयर मक्का की पेदावार होती है । मुुंगफली के उत्पादन में भारत की स्थिति अन्य देशों की तुलना में काफी कमजोर है यहां इसकी पेदावार प्रति हैक्टेयर केवल ८५९ किलोग्राम है अमरीका में यह प्रति हैक्टेयर २८९६४, चीन में ३११८ और ब्राजील में २२५१ किलोग्राम है गन्नाके उत्पादन में चुनिंदा देशों में मिस्त्र सबसे बेहतर स्थिति में है । जहां प्रति हैक्टेयर १२०८८७ किलोग्राम इसकी पेदावार जी जाती है । भारम में इसकी उपज प्रति हैक्टेयर ६६९४५ किलोग्राम है । अमरीका में यह ७३८३३ चीन में ८२५२८ और ब्राजील में ७३९९६ किलोग्राम है सरकार का मानना है कि कुछ फसलों की कमी उत्पादकता का मुख्य कारण जमीन के छोटे टुकड़ों में होना है । अधिकतर ऐसे जमीन सीमांत और छोटे किसानों के बीच है जो संसाधन विहीन है और उन्नत कृषि पद्धतियों को वहन करने में सक्षम नही है देश में कृषि भूमि की उत्पादकता में वृद्धि के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय बागवानी मिशन तथा राष्ट्रीय कृषि विकास योजन के तहत अनेक कार्यक्रम चलाये जा रहे ्रृहै । वर्ष २००५-०६ की तुलना में वर्ष २००७-०८ के दोरान सिंचित क्षेत्रा में भी वृद्धि हूई है ।चंद्रयान-१ को चांद पर दिखी सुरंगेृ देश के पहले चंद्र अभियान चंद्रयान-१ को चांद पर खोखली सुरंगे नजर आई है । इनका निर्माण ज्वालामुखी की गतिविधियों से हुआ है । इनका इस्तेमाल मानव बस्तिया बसाने में हो सकता है । यह खुलासा इस यान से मिले आंकड़ों के विश्लेषण से हुआ है ।भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरों) के स्पेस एप्लीकेशन सेंटर, अहमदाबाद के निर्देशक डॉ. आरआरनवलगुंड ने यह जानकारी दी । इससे पहले चंद्रयान ने चांद के ध्रुवीय क्षेत्र में हाइड्रोक्सिल्स तथा जल कणों के रूप में पानी की मौजुदगी का खुलासा किया था । श्री नवलगुंड के मुताबिक, चंद्रयान-१ में लगें टेरैन मैपिेंग कैमरा से चांद पर खोखली सुरंगों की मौजुदगी दिखी है । ज्वालामुखी से निकले लावा के प्रवाह से चांद की सतह से नीचे ये सुरंगे बनी । उन्होंने कहा, भविष्य में इन सुरंगों का इस्तेमाल बस्तियां बनाने में हो सकता है । फिर भी इस दिशा में और शोध की जरूरत है । श्री नवलगुंड ने बताया कि आंकड़ो से चांद की सतह पर नई प्रकार की चट्टानों का खुलासा होता है । इनमें प्रचुर खनिज संपदा छिपी हो सकती है । इसरों सेटेलाइट सेंटर के निदेशक डॉ. टीके एलक्स ने बताया कि अंतरिक्ष एजेंसी के वैज्ञानिको ने लूनर टोपोलॉजी मैप बनाना शुरू कर दिया है । यह नक्शा चंद्रयान से भेजे गए आकड़ों के आधार पर बनाया जा रहा है इसरों ने कहा है कि अंतरिक्ष मेंे चीन का कचरा बेहद खतरनाक है । यह सक्रिय उपग्रहो ंको नुकसान पहुंचा सकता है । इसरो के अध्यक्ष श्री राधाकृष्णन ने बताया कि जनवरी २००७ में चीन ने अंतरिक्ष हथियार का इस्तेमाल करते हुए अपना एक उपग्रह नष्ट कर दिया । फिर भी चुनौती केवल देश के लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया भर के लिए है । इसकी वजह कचरा फैलाना है राधाकृष्णन के मुताबिक, चीन की कारवाई से अंतरिक्ष में हजारों कलपुर्जे बिखर गए है । अत: हमें सावधान रहना चाहिए क्योंकि ये सक्रिय उपग्रहो से टकरा सकते है । हम इस अंतरिक्ष कचरे के भारतीय उपग्रहों से टकराने की आकांश के मद्देनजर लगातार निगाह रख सकते है हमें अपने उपग्रहों का सुरक्षित परिचालन सुनिििचशत करना है । कंपनी की कारगुजारियों पर पर्दा डाल रही सरकार नर्मदा बचाआें आंदोलन (एनबीए) का कहना है कि महेश्वर बांध परियोजना के मामले में राज्य सरकार कंपनी की कारगुजारियों पर पर्दा डाल रही है । मुख्यमंत्राी शिवराजसिंह चौहान का वह पत्र तथ्यहीन आधारहीन है , जो उन्होने प्रधानमंत्री को लिखा है । सरकार को केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की पहल का स्वागत करना चाहिए , क्योंकि उन्होने बांध के सुरते-हाल को देखते हुए ही विस्थापितों के हित में फैसला लिया । एनबीए के कार्यकर्ता आलोक अग्रवाल और चितरूप पालित ने कहा कि सरकार को महेश्वर बांध पर श्वेत पत्र जारी करना जारी करना चाहिए । असलियत यह है कि सरकार कंपनी का पक्ष ले रही है ।

६ जनजीवन

अंकुर पालीवाल
राजीव आवास योजना ऐसी पहली गृहयोजना है जो बस्ती निवासियो को संपत्त्ति के अधिकार प्रदान करती है और इसमेें १० लाख करोड रूपये के निवेश की संभावना है । वही मीडिया रिपोर्ट इशारा कर रही है कि इस योजना को धन कौन उपलब्ध कराएगा इसे लेकर मंत्रालयोंं मे मतभेद है । राजीव आवास योजन अथवा रे कहलाने वाली इस योजना के लिए केन्द्रीय आवास एवं शहरी गरीबी निवारण मंत्रालय व योजना आयोग चाहते है कि इस हेतु निजी नियोजकोें को आमंत्रित किया जाए या निजी सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) मॉडल को अपनाया जाए । वित्त मंत्रालय चाहता है कि परियोजना लागत केन्द्र व राज्य सरकार वहन करें । बैंगलुरू के शोधार्थी विनय बेंडुर ९० के दशक में मुंबई में प्रचलित पीपीपी मॉडल का उदाहरण देते हुए कहते है कि पीपीपी मॉडल न तो लोकतांत्रिक हैं और न ही जवाबदेह । तत्कालीन झुग्गी पुर्नवास योजना की शुरूआत पांच वर्षो में ४० १लाख परिवारों को घर उपलब्ध करवाने हेतु की गई थी । तब मुंबई में झुग्गी बस्तियों की आबादी १२ लाख थी । अब तक मात्र ८५,००० परिवारों को घर उपलब्ध हो पाए हैं और इस दौरान आबादी पांच गुना बढ़ गई है । मुंबई की शहरी योजना और आवास के सलाहकार वी.के.पाठक का कहना है कि पीपीपी मॉडल का प्रयोग निम्न आय वर्ग समुह के लिए हर्र्गिज नही किया जाना चाहिए । निजी निवेशक इस क्षेत्र में तभी उतरते है कि जब इसमें प्रयुक्त होने वाली भूमि मुल्यवान हो और लाभ की सुनिििचशतता भी हो । मुंबई के ही घर बचाआें, घर बनाआें आंदोलन के सिमप्रीत सिंह का कहना है धारावी के अनुभव से हमने यह सिखा की गरीबों के पुर्नवास नाम पर मूल्यवान भूमि को छीनकर निजी बिल्डरों को बजाए झुग्गीवासियों के लिए घर बनाने के, व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए हस्तांतरित कर दिया गया । निजी बिल्डर झुग्गीवासियों के लिए घर बनाने के बजाए उनका रहवास भी हड़प लेंगे । केन्द्रीय आवास मंत्रालय के निदेशक डी.पी.एस. नेगी के अनुसार निजी निवेशकों को शामिल किए जाने के संंबंध में केन्द्र सरकार को स्पष्टता है । केन्द्र परियोजना की कुल लागत का अधिकतम ५० प्रतिशत योगदान देगा । बाकी का राज्य सरकार को पी.पी.पी. के माध्यम से इकट्ठा करना होगा । मुंबई जैसे शहरों में तो केन्द्र का हिस्सा ४० प्रतिशत से अधिक नही होगा । बाकी का भूमि को संसाधन के रूप में मानकर इकट्ठा किया जाए । मंत्रालय के अनुसार सन् २०१२ में २ करोड़ ६५ लाख घरों की कमी होगी । इसमें से ९९ प्रतिशत कम आय वर्ग के लिए है । यह तब है जबकि जे.एन.एन. आर.यू.एम.एवं अन्य योजनाआेंं के माध्यम से कम लागत के २० लाख से अधिक घरों का निर्माण हो चुका है । इसी के साथ १० लाख अतिरिक्त मकान जे.एन.एन. आर.यू.एम.की लागत वहन कर सकने वाली गृह भागीदारी योजना के अंर्तगत बनाए गए है । विशेषज्ञों की जिज्ञासा है कि इतनी सारी योजनाए प्रचलन में है तो किसी नई योजना की आवश्यकता ही क्यों है क्योंकि इन योजनाआें में भी रे की तरह शहरी गरीबों को घर उपलब्ध कराने का प्रावधान है । इस पर श्री नेगी का कहना है कि हमने वर्तमान में विद्यमान सभी गृह निर्माण योजनाआें को मिलाकर रे को प्रारंभ किया है । केवल उन शहरों मेंे जहां पूर्ववर्ती योजनाए अभी भी कार्यशील है वहां वे पूर्ण होने तक चलती रहेगी । वहीं दुसरी ओर दिल्ली स्थित स्कूल ऑफ प्लानिंग एण्ड आर्किटेक्चर के विभागाध्यक्ष पी.एस.उन. राव कर कहना है अनेक शहरों में शहरी गरीबो को मूलभूत सुविधाएं (बीयूएसपी) और अन्य गृह निर्माण परियोजनाआें के माध्यम से धन इकट्ठा कर कार्य किया जा रहा है । ऐसे में इन सबका रे में समाहित करना समझ से परे है । बीयूपीएसपी की सीमा को लेकर कोई वायदा नहीं किया है । अगर समयबद्धता ही पैमाना है तो बीयूपीएसपी की सीमा बड़ाई जा सकती थी या सरकार इसकी समािप्त् का इंतजार करती है और उसके बाद नई योजना प्रारंभ करती । अमेरिका के पापुलेशन रेफरेंस ब्यूरो द्वारा २००६ में भारतीय शहरों में गंदी बस्तियों मे रह रहे नागरिको के आंकड़े जारी किये थे । इसके अनुसार मुंबई में ६५ लाख, दिल्ली में १९ लाख, कोलकाता में १५ लाख, चैन्नई में ९ लाख और नागपुर मेंे ७ लाख लोग गंदी बस्तियों में रह रहे है । वही मंत्रालय का कहना है कि बीयूपीएसपी के अंर्तगत किए गए वायदे पहले ही पुरे किए जा चुके है, अब तो सिर्फ उनकी निगरानी ही करना है । श्री नेगी का कहना है बीयूपीएसपी रे की शाखा के रूप में कार्य करती रहेगी, परंतु नई परियोजना रे के अंर्तगत ही स्वीकृत होगी । बीयूपीएसपी के अंर्तगत प्राप्त् आंकड़े राज्य सरकारों द्वारा उपलब्ध कराए गए है । रे के अंर्तगत भी हम बायोमीट्रिक सर्वेक्षण करवाते रहेंगे और प्रत्येक लक्षित हितग्राही को परिचय पत्र भी जारी करेंगे । श्री राव का कहना है कि वैचारिक दृष्टि से यह सोचना ही बेहूदा है कि भारतीय शहर गंदी बस्ती मुक्त हो पाएंगे । गंदी बस्ती निर्माण एक सतत प्रक्रिया है क्योंकि लोग तो शहरों में आते ही रहेंगे परुतु इसका यह अर्थ नहीं है कि हम शहरी गरीबों के लिए रहने की बेहतर व्यवस्था ही न करें । एक अन्य विशेषज्ञ फाटक का कहना है कि आज की आवश्यकता झुग्गी मुक्त भारत नहीं बल्कि इन गंदी बस्तियों को पानी , सेनीटेशन व प्रभावकारी ठोस अपशिष्ठ निवारण जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाकर रहने योग्य बनाने की है । विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार गंदी बस्ती में रहने वालों को स्वयं गृह निमार्ण के लिए मूलभूत सुविधाआें से युकत भूमि उपलब्ध कराएं । कम लागत के सामूहिक गृह निर्माण क्षेत्र में गंदी बस्ती निवासीयों की भागीदारी अनिवार्य है । सिमप्रीत सिंग का कहना है कि बजाए मुफ्त घर देने के सरकार ऐसे घर बनाए जिनकी लागत कम आय वर्ग वाले दे सकें । इस प्रक्रिया में बस्ती के रहवासियोंको शामिल करना चाहिए और उनसे श्रम के साथ आर्थिक योगदान देने को भी कहना चाहिए । ***मामूली निवेश से जल प्रबंधन संभवृ विश्व बैंक ने दावा किया है कि भारत के व्यापक भूमिगत जल संकट से मामूली निवेश और बेहतर प्रबंधन से निपटा जा सकता है । विश्व बैंक ने एक रिपोर्ट ड्रीप वेल्स एंड प्रूडेंस में आंध्रप्रदेश में चलाई गई एक योजना का उल्लेख करते हुए कहा है कि मात्र २२०० डॉलर (लगभग ९९ हजार रूपए )प्रतिवर्ष प्रति गाँव खर्च करके भूमिगत जल स्तर में सुधार किया गया है इससे न केवल जल संबंधी परेशानियों से निजात मिली, बल्कि किसानों की आमदनी भी बढ़ गयी है ।

७ विज्ञान,हमारे आसपास

प्रदूषण मापने का नया पैमाना
सुमन नारायणन/संजीव कांचन
केन्द्रीय सरकार ने यह तय करने के लिए कि किन नए स्थानों पर नई औद्योगिक इकाई लगाने की अनुमति दी जा सकती है और किन इलाकों में तत्काल सफाई की आवश्यकता है, का पता लगाने के लिए प्रदूषण सूचकांक जारी किया है । इस परिपूर्ण पर्यावरण प्रदूषण सूचकांक ने नई प्रक्रिया का इस्तेमाल करते हुए भारत में प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाईयों के ८८ क्षेत्रों को श्रेणीबद्ध कर इंगित किया है । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अध्यक्ष एस.पी.गौतम का कहना है कि दुनिया में यह अपने तरीके का पहला सूचकांक है । हालांकि पर्यावरणीय गुणवत्ता की निगरानी करना प्रदूषण नियंत्रण बोर्डोंा की सतत प्रक्रिया है । परंतु यह समावेशी और किसी ढांचे के अंतर्गत संगठित नहीं था जिससे कि औद्योगिक क्षेत्रों के उनके प्रदूषण स्तर के हिसाब से श्रेणीबद्ध किया जा सके । इस सूचकांक को पिछले तीन महीनों में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं विभिन्न आईआईटी ने सम्मिलित रूप से विकसित किया है । हालांकि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय एवं सीपीसीबी ने इसकी तारीफ की हे लेकिन अभी भी इसमें और सुधार की गुंजाइश है जैसे इसमें पहली कमी यह है कि २४ दिसम्बर को घोषित ८८ सर्वाधिक प्रदूषित इकाईयों की सीमा रेखा को रेखांकित नहीं किया है । उदाहरण के लिए सूची में अहमदाबाद प्रदूषित बताया गया है परंतु यह स्पष्ट नहीं है कि इस शहर, जिले या जिले में स्थित औद्यौगिक क्षेत्र में से कौन सा क्षेत्र सर्वाधिक प्रदूषित है । मंत्रालय द्वारा अत्यंत प्रदूषित क्षेत्रों में औद्यौगिक इकाईयों की स्थापना रोकने के लिए इलाकों को परिभाषित करना आवश्यक है । दूसरी कमी है, कई गंभीर प्रदूषित क्षेत्र जैसे छत्तीसगढ़ में रायगढ़ एवं ओडिशा में जोड़ा और बारबिल इस सूचि में ही नहीं है लेकिन पानी एवं भूमि संबंधी आंकड़ों में सुधार की आवश्यकता है । केन्द्रिय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक अधिकारी का कहना है कि यह तो शुरूआत है । साथ ही मूल्यांकन अथवा वरीयता सूची की प्रक्रिया में भी सुधार किया जाएगा । इसी के साथ सीमांकन एवं प्रदूषण आकलन का भी विस्तृत अध्ययन किया जाएगा । औद्योगिक क्षेत्रौं की पहचान एवं वरियता का आंकलन प्रत्येक दो वर्षो में किया जाएगा । नई प्रणाली के अंर्तगत निम्न बातों का ध्यान रखते हुए औद्योगिक क्षेत्रों को श्रेणीबद्ध किया गया है । ये है प्रदूषण का स्त्रोत, प्रदूषण की व्यापकता और उसकी गहनता एवं वर्गीकरण, प्रदूषण नियंत्रण के उपाय परंतु औद्योगिक क्षेत्रों के निकट रहने वाले व्यक्तियों के स्वास्थ्य संबंधी आंकड़े तो अभी भी दुर्लभ है । राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डो की इतनी भी क्षमता नहीं है कि वे प्रदूषण के स्तर की मात्रा स्वास्थ्य के संदर्भ में ही निरंतर निगरानी कर सकें । इस सूचकांक की निर्माण प्रक्रिया या प्रारूप बनाने वाले आईआईटी के एक प्रोफेसर ने स्वीकार किया है कि अगर सरकार को प्रदूषण निगरानी की अपनी क्षमता में वृद्धि करना होगी । उनका कहना है हमे नियमित स्वास्थ्य निगरानी की आवश्यकता है । अब सूचकांक राज्य प्रदूषण निवारण बोर्डो से प्राप्त् आंकड़ों के अतिरिक्त, मीडिया रिर्पोटस, शोध संगठनोंं, कानूनी याचिकाआें एवं अन्य सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों से प्राप्त् आंकड़ो का भी प्रयोग करेंगे । मंत्रालय ने घोषणा की है कि वह दिल्ली स्थित शोध समूह भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य फाउंडेशन से कहेगा कि वह ८८ क्षेत्रों में सार्वजनिक स्वास्थ्य का विश्लेषण कर उसकी रिर्पोर्ट प्रस्तुत करे । सरकार ने स्वीेकार किया है यह नई सूची उन २४ गंभीर प्रदूषित क्षेत्रों का स्थान लेगी जो कि बजाए वैज्ञानिक तरीकों के राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डो के आंकलन पर आधारित थी । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने प्रस्तावित किया है कि सभी ८८ औद्योगिक क्षेत्रों में अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाली इकाईयां १७ श्रेणियों में बंटी हुई होगी और ५४ औद्योगिक इकाईयों को लाल श्रेणी की खतरनाक, हानिकारक, भारी और विशाल औद्योगिक इकाइयों में बाटा जाए । हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि मंत्रालय ने इन इलाकों का चयन किस आधार पर किया है । मंत्रालय ने यह भी घोषणा की है कि वह अगले बजट में साफ-साफ कोष का भी निर्माण करेगी । परंतु उसने यह स्पष्टीकरण नहीं दिया है कि धन कहां से आएगा और क्या प्रदूषणकर्ता को भी भुगतान के लिए कहा जाएगा । प्रदूषण सूचकांक अभी तो सैद्धांतिक स्तर पर ही है । जब तक इसे पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम के तहत अधिसूचित नहीं किया जाता, तब तक इसे लागू भी नहीं किया जा सकता है । ***

८ विशेष रिपोर्ट

हिम विहीन होते किलिमंजारो पर्वत
प्रेमचन्द्र श्रीवास्तव
किलिमंजारो पर्वत अफ्रीका का सर्वाधिक उच्च् शिखर है । कभी यह स्नो/हिम की मोटी पर्त से ढका रहता था । किन्तु इधर के वर्षो में बर्फ इतनी तेजी से पिघल रही है इसके हिमविहीन होने से मात्र २० वर्षो का ही समय शेष रह गया है, ऐसा विशेषज्ञों का मानना है । १९१२ में बर्फ की जो मोटी पर्त किलिमंजारो पर्वत को ढके हुए थी उस पर्त की मोटाई २००७ में ८५ प्रतिशत कम हो गयी है । सन् २००० के बाद से हिमपर्वत की मोेटाई में २६ प्रतिशत की कमी पाई गई है। यह खोज पुरामौसम विज्ञानियों द्वारा की गई है । पिछले कुछ दशको में बादल बनने और अर्थपतन क कारण बर्फ कम नष्ट हुई है, किन्तु बर्फ के नष्ट होने का मुख्य कारण धरती का बढता ताप वैशिवक तापन है । ओहायो स्टेट युनिवर्सिटी के भू विज्ञान के प्रोफेसर लोनी थामसन जो इस अध्ययन के सहकर्मी है । का कहना है ऐसा पहली बार हुआ है कि अनुसंधानकर्ताआें ने पर्वत की बर्फ से कितनी मात्रा की हानि हुई है बर्फ का मैदान कितना सिकुड़ गया है , से तुलना करें तो अध्ययन के अनुसार दोनों बहुत समीप है । पर्वत हिम नदियों के प्रतिवर्ष के नुकसान बर्फ के किनारों के पीछे हटने को स्पष्ट रूप ये देखा जा सकता है थामसन कहते है कि एक समान पैदा करने वाला प्रभाव है सतह से बर्फ के मैदान का पतला होना । उत्तरी और दक्षिणी बर्फ के मैदानों की पराकाष्ठा किलिमंजारो के ऊपर क्रमश: १-९ मीटर और ५.१ मीटर पतली हुई है। जब फुर्टवागलर ग्लेश्यिर जो पिघल रहा था और नी आधी मोेटाई खो चुकी है । भविष्य एक का होगा जब फुर्टवागलर विद्यमान होगा और दूसरी और वर्षा यह अदृश्य हो चुकेगा । पुरा का पुरा लोप हा जाएगा । शोधदल के लोगों का कहना है कि किलिमंजारो पर्वत पर मौसम की दशायें पिछले सहसाब्दियों में अनुपम/बेजोड़ रही हैं । इस विषय में और अनुसंधान की आवश्यकता है । किलिमंजारो पर्वत का हिम जब पुरी तरह से पिघल जायेगा तो पर्यावरण परक्याव्यापक प्रभाव पड़ेगा यह भविष्य के गर्भ में है लेकिन विज्ञानी हाथ पर बैठे तो नहीं रह सकते हैं । ***सम् २००० में पानी संपृक्त हो गया और जब करने के बाद पता चला कि सन् २०००-२००९ के दौरान ग्लेश्यिर की बर्फ ५० प्रतिशत कम हो चुकी है । थामसन ने बताया - यह अप

९ उद्योग जगत

औद्योगिक विकास और प्रदूषण
डॉ. अर्जुन सोलंकी/डॉ. सुनीता बकावले
पर्यावरण शब्द से उस परिवेश का ज्ञान होता है, जिसके अन्तर्गत एक निश्चित भौतिक एवं जैविक व्यवस्था के तहत जीवधारी रहते हैं, बढ़ते, पनपते एवं स्वाभाविक प्रवृतियों का विकास करते हैं । इस विषय का ज्ञान आज के मानव को ही नहीं अपितु आदिम मनुष्य को भी था । इसलिए प्राचीन धर्म ग्रंथों एवं पौरणिक गाथाआें में पर्यावरण के सम्बंध में तथ्य मिलते हैं । आदिम मनुष्य भी अपने और पृथ्वी के सम्बंध को जानता था इसलिए उसने पृथ्वी को माँ की संज्ञा दी और स्वयं को उसका पुत्र कहा । पृथ्वी से मनुष्य का रिश्ता इतना ही नहीं कि वह उस पर रहता है और पोषित होता है । बल्कि पृथ्वी उसे एक पर्यावरण भी प्रदान करती है । जिसमें जीने वाले विभिन्न जीवधारियों और उगने वाले पेड़-पौधों से भी वह आत्मीय सम्बंध सूत्र में जुड़ा है । हमारे आसपास जो कुछ भी है, जो हमें घेरे हुए है वह हमारा पर्यावरण है । यह पर्यावरण न केवल मानव अपितु विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु एवं वनस्पति के उद्भव विकास एवं अस्तित्व का भी आधार है । सभ्यता के विकास से वर्तमान युग तक मानव ने जो प्रगति की है । उसमें पर्यावरण की महत्वपूर्ण भूमिका रही है और यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि मानव सभ्यता एवं संस्कृति का विकास मानव पर्यावरण के समानुकूलन एवं सामंजस्य का परिणाम है । आदिम युग से लेकर आज तक के युग में मनुष्य एवं अन्य जीवधारियों का अस्तित्व उसके भौतिक पर्यावरण पर ही निर्भर रहा है । जैसे-जैसे मनुष्य ज्ञान, विज्ञान, संस्कृति और सभ्यता का संचय करता गया वैसे-वैसे अपने प्राकृतिक पर्यावरण को भी अपने अनुरूप ढालने की चेष्टा की । जिसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक सम्पदाआें में उसका हस्तक्षेप दिन-प्रतिदिन बढ़ता चला गया । औद्योगिक क्रांति के बाद विश्व में औद्योगीकरण के बढ़ते चरण ने तीव्र गति से मनुष्य को कम्प्यूटर युग में पहँुचा दिया । कल-कारखाने की भीड़ लग गई एक के बाद एक डीजल एवं पेट्रोल से चलने वाले वाहनों का निर्माण होता चला गया । वैज्ञानिक चिकित्सा सुविधा ने मृत्यु दर कम कर दी, जनसंख्या की आवासीय समस्याआें के समाधान के लिए आसपास की कृषि योग्य भूमि आवासीय समस्याआें के समाधान के लिए आसपास की कृषि योग्य भूमि आवासीय भूमि में परिवर्तित हो गई । भीमकाय जनसंख्या की बढ़ती दर को स्थान देने के लिए वृक्षों की कटाई दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी । इन सबका परिणाम यह हुआ कि वाहनों से निकले हुए इंर्धन, एक साथ छोटी सी जगह में जनसंख्या की भीड़भाड़ ने मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक दशाआें को भी धीरे-धीरे खत्म किया । वर्तमान में औद्योगिक विकास के साथ प्राकृतिक साधनों का बड़ी तेजी से दोहन होता जा रहा है । जनसंख्याा वृद्धि, संसाधनों की निरन्तर घटती स्थिति, प्रदूषण और कृषि-उत्पादन की सीमा पर्यावरण क्षति के कुछ ऐसे तत्व हैं जिनकी और ध्यान जाता है तो ऐसा लगता है कि अगली सदी में हम लोग कैसे जीयेंगे ? आज धरती पर लाखों कारखाने वातावरण में विषैली गैसों का विसर्जन कर उसे गंदा बना रहे हैं । १९वीं सदी के अंत में मोटर उद्योग की शुरूआत ने इस समस्या को और भी जटिल बना दिया । विभिन्न सर्वेक्षण के अनुसार मोटर उद्योग आज वातावरण प्रदूषण का प्रमुख कारण है । अज विश्व में लगभग २२ करोड़ मोटर वाहन चल रहे है एक मोटर कार को १००० कि.मी. चलाने के लिए १४ हजार लीटर शुद्ध और ताजा ऑक्सीजन युक्त वायु की आवश्यकता होती है । मोटर के इंर्धन के रूप में पेट्रोल का उपयोग किया जाता है । पेट्रोल में सीसा होता है जो अत्यंत घातक प्रभाव डालता है । कारखानों और मोटर वाहनों से विसर्जित जहरीली गैसों के कारण पृथ्वी का वायुमण्डल गर्म होता जा रहा है । प्रदूषण अगर इसी तरह बढ़ता गया तो वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सन् २१०० तक वायुमण्डल में कार्बनडाई आक्साइड की मात्रा अब से चार गुना हो जयेगी । ऐसी स्थिति में ध्रुवीय क्षेत्रों की बर्फ पिघल जायेगी जिससे समुद्र तल ऊँचा हो जाएगा और अनेक समुद्रतटीय नगर डूब जायेंगे । बाढ़ आयेगी, धरती की उर्वरा शक्ति कम हो जायेगी और अनेक प्रकार के रोग तथा महामारियाँ फैलेगी । २० वीं सदी से प्रारम्भ में परमाणु शक्ति के अविष्कार ने प्रदूषण के खतरे को चरम सीमा पर पहुँचा दिया है । पिछले ४० वर्षोंा के दौरान विश्व में लगभग १२०० परमाणु विस्फोट किए जा चुके हैं । इनके रेडियोधर्मी प्रदूषण से कितनी हानि हो चुकी, कितनी हो रही है और भविष्य में कितनी हानि होगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है । इन परमाणु विस्फोटों से ऋतुआें का संतुलन भी डगमगा गया है । मौसमों का बदलाव इन परमाणु विस्फोटों का ही दुष्परिणाम है । भारतीय परिप्रेक्ष्य में यदि अलग से विचार किया जाये तो अन्य कई विकासशील राष्ट्रों के समान ही हमारे देश में भी पर्यावरण को हो रही क्षति दिनोदिन बढ़ती जा रही है । हमारी अर्थव्यवस्था और व्यवसायों का फैलाव और नित नये उद्योगों की स्थापना जहाँ एक ओर विकास का साधना है वहीं वे देश में व्याप्त् प्रदूषण में भी वृद्धि कर रहे हैं । यह स्थिति नगरीय क्षेत्रों में तो चिंताजनक है ही, ग्रामीण क्षेत्रो में भी विशेषकर जहाँ औद्योगिक इकाईयाँ घनीभूत रूप में स्थापित है, यह एक विकट समस्या का रूप धारण करती जा रही है । यह सम्भव है कि अभी प्रदूषण का स्तर विकसित राष्ट्रों के दृष्किोण से उतना अधिक न हो फिर भी इस देश की विशेष परिस्थितियों जैसे सभी समस्याआें से निपटने हेतु वैधानिक दृष्टि, उपकरण, उचित व्यावहारिक शिक्षण/प्रशिक्षण तथा सम्बंधित नियमों, प्रतिबंधों आदि के पालन में कमी, यहाँ इस समस्या को एक विशेष आयाम प्रदान करती है । हम अभी भी सौभाग्यशाली है कि हमारा पर्यावरण उस सीमा तक नहीं बिगड़ा जहाँ से वापस लौटना असम्भव है । इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि हम पर्यावरण सम्बंधी हर कार्य को बड़ी सोच, समझ तथा सुनियोजित तरीके से करें ताकि हम भावी दुनिया को एक सुंदर और स्वास्थ्य पर्यावरण सौंप सकें । यह राष्ट्र तथा आने वाली पीढ़ीयों के लिए बहुत बड़ा योगदान सिद्ध हो सकता है । आइये हम सब मिलकर संकल्प लें कि हम अपने पर्यावरण को स्वस्थ और सुरक्षित रखने में हर सम्भव प्रयास करेंगे ।***जहरीली नहीं होने देंगे आबोहवा पिछले दिनों केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की स्वीकारोक्ति के बाद कि युनियन कार्बाइड के अपशिष्ट के प्रभाव से भोपाल का भूजल जहरीला हो रहा है । इस कचरे को पीथमपुर लाकर जलाने का विरोध और भी तेज हो गया । पहले से ही कचरे को इंदौर ना लाने की पैरवी कर रहे शहर के वरिष्ठ नागिरिकों, समाजसेवियों और पर्यावरण प्रेमियों ने यहां तक कह दिया चाहे कुछ भी हो जाए, हम मालवा की आबोहवा मेें जहर को घुलने नहीं देंगे ।

१० ग्रामीण जगत

हरित शौचालय से जल मितव्ययता
रोहिणी निलेकणी
गांवो में स्वच्छता को ध्यान में रखते हुए खुले में शौच करने को बंद करने को लेकर सरकार अभियान छेड़े हुए है ।टोटल सेनिटेशन कैम्पेन का सपना हर घर में शौचालय का है, ताकि गांव के गली-कूचों को साफ रखा जा सके । ऐसे में किस्म-किस्म के आधुनिक शौचालय, व फ्लश वाले शौचालय पानी के लिए एक दु:स्वप्न साबित न हों इसलिए हमें इसका रास्ता तलाशना होगा कि शौचालय से पैदा हुई हर वस्तु को काम में लाया जा सके । मानव अपशिष्ट (शौच) को उपयोगी संसाधन में बदलना ही नये युग का प्रतिमान गढ़ना है । आजकल सामान्य तौर पर उपयोग में आने वाले आधुनिक फ्लश शौचालय का अविष्कार हुए सम्भवत: सौ वर्ष हो चुके हैं । बहरहाल, करोड़ों लोग है जिन्हें रोजमर्रा के जीवन में यह फ्लश शौचालय की सुविधा आसानी से हासिल है और करोड़ों ऐसे भी है जिन्हें यह आधुनिक सुविधा हासिल नहीं है । ये सभी के लिए सोचने का अवसर है कि प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले लाखों टन मानवजनित अपशिष्ट के उपयोग के बारे में चिंता की जाए । क्या फ्लश शौचालय उस स्थिति में उपयुक्त हैं जबकि हमें यह पता हो कि थोड़ें से अपशिष्ट को भी ठिकाने लगाने के लिए बड़ी मात्रा में पानी का उपयोग करना पड़ता है । इसका उत्तर अलग-अलग हो सकता है । अद्वितीय सुविधा प्रदान करने के बावजूद ये शौचालय, पर्यावरण स्वच्छता और आर्थिक बोझ के रूप मेंएक बुरा सपना ही साबित हुए हैं । इस मानव अपशिष्ट को उपचार संयंत्रोे तक ले जाने वाली, पानीदार विशालकाय संरचनायें एक तरफ जहाँ निर्माण में बर्बादी की कगार तक महंगी हैं वहीं दूसरी और उनका रखरखाव भी बहुत खर्चीला है । इससे भी बद्तर स्थिति यह है कि प्राय: बिजली की कमी के कारण और अचानक आए हुए तूफानों और बाढ़ के समय भी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (मलजल उपचार संयंत्र) पानी की अधिकता के कारण काम करना बन्द कर देते हैं । उस स्थिति में मलजल को बिना उपचार के नदियों अथवा समुद्र में अनुपचारित छोड़ने के अलावा कोई और रास्ता शेष नहीं होता है । इस बारे में भारत की मौजूदा व्यवस्था के बारे में कुछ भी कहना बेकार ही है । बिना उपचारित किया हुआ मलजल का प्रदूषण, जमीन और भूमिगत जल पर गहरा असर डालता है । यह न सिर्फ हमारे कुँआें, बावड़ियों, नहरों और नदियों के पानी को नइट्रेट और पैथोजन्स से प्रदूषित करता है, वरन जब यह समुद्र में पहुँचता है ब समुद्री जल-जीवन और मूंगा की चट्टाने को घातक रूप से प्रभावित करता है । हम सब जानते हैं कि दिल्ली के नजदीक से बहने वाली पवित्र यमुना नदी को हमने कैसे एक राष्ट्रीय नाला बनाकर रख दिया है । विडम्बना यह है कि जिसे हम अपशिष्ट या बेकार समझकर दूर-दूर नदियों और समुद्रों में छोड़ देते हैं, बहा आते हैं, वैज्ञानिक शोधों द्वारा अब यह साबित हो चुका है कि असल में वह अपशिष्ट मिट्टी और जमीन के स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा के लिए उपयोगी मित्र साबित हो सकता है । चाहे तरल हो या ठोस रूप में, मानव अपशिष्ट के द्वारा एक उत्तम किस्म का उर्वरक बनाया जा सकता है । इसी प्रकार मानव मूत्र जिसे वैज्ञानिक भाषा में एंथ्रोपोजेनिक लिक्विड वेस्ट (एएलडब्लू) कहा जाता है, अपने एंटीबैक्टीरियल गुणों के लिए जाना जाता है । बजाय इसके कि इस बेेहतरीन उर्वरक का उपयोग मानव प्रजाति की खाद्य सुरक्षा में किया जाये, हमने करोड़ों डालर कृत्रिम उर्वरक बनाने के कारखानों में लगा दिेये हैं । जाहिर है कि हमें इस समस्या को नये सिरे से देखने की आवश्यकता है । क्या अब हम पुराने चेम्बर पॉट सिस्टम पर लौट सकते हैं ? क्या शहरी जनता की सुविधा को तकलीफ में न बदलते हुए भी इस दिशा में कुछ किया जा सकता है ? आर्थिक योजनाकारों, नीतिनियंताआें और यहाँ तक कि बड़े-बड़े पर्यावरणविदों के लिए भी जनता को, कि अब वे लोग फ्लश शौचालय का उपयोग बन्द करके पुराने तरीके पर लौटें । अब जबकि राष्ट्र एक नई शताब्दी में प्रवेश कर चुका है, सुरक्षित रूप से कचरा निपटना नहीं करने के कारण, सार्वजनिक स्वास्थ्य की समस्याआें पर पकड़ बनाने और स्वच्छता अभियान के विभिन्न लक्ष्यों को प्राप्त् करने के लिए हमें आर्थिक रूप से सक्षम और पर्यावरण की दृष्टि से स्थाई व्यवस्था का निर्माण करना होगा । साथ ही इस सच का सामना करना ही होगा मुहैया नहीं है, के लिए भी पहल करनी होगी । हमारे पास विकल्प मौजूद हैं, बस उन पर काम करने की आवश्यकता है । प्राकृतिक स्वच्छता एक प्रकार का विशिष्ट प्रतिमान है जो अपशिष्ट को एक संसाधन में बदल सकता है । अधिक विस्तार में न जाते हुए सिर्फ यह कहाना कि ईको-सैन पद्धति में पानी के उपयोग के बिना ही अपशिष्ट को उसके मूल स्रोत पर ही ठोस और तरल रूप में अलग-अलग कर दिया जाता है, और फिर उस अपशिष्ट को उपयोग करने लायक खाद में बदला जाता है । ग्रामीण क्षेत्रों में इस ईको-सैन कार्ययोजना को लागू करने और उसे लोकप्रिय करने में संस्था अर्घ्यम ने विशिष्ट कार्य किया है । इसी के साथ यह संस्था विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों को इस सिलसिले में शोध और ट्रेनिंग देने का कार्य भी कर रही है । संस्था का लक्ष्य सामान्य तौर पर ऐसेे छोटे किसान हैं जिनके पास पारम्परिक शौचालय नहीं हैं और उन्हें महंगे उर्वरक खरीदने में भी कठिनाई होती है । केले की खेती पर एएलडब्ल्यू के बहुत अच्छे परिणाम निकले हैं । एक किसान को आसानी से एक बार में ही इस ईको-सैन तकनीक के बारे में समझाया जा सकता है । इससे वह उर्वरकों पर खर्च के हजारों रूपये तो बचायेगा ही साथ ही वह अपनी मिट्टी के उपजाऊपन को भी बरकरार रखेगा । यदि यह इतना ही आसान और प्रभावशाली हल है तो फिर इसे तेजी से पूरे देश वे विश्व में लागू किया क्यों नहीं जा सकता ? लेकिन इस राह में कई चुनौतियाँ हैं, जैसे जागरूकता, अच्छी डिजाइन, सरकार की नीतियाँ, आर्थिक और अन्य प्रोत्साहनों के साथ-साथ भारत जैसे देश में संस्कृति और जात-पात से भी जूझना पड़ेगा । ईको-सैन छोटे ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता प्रबन्धना का समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम है । हालांकि कोई भी व्यवस्था पूर्ण नहीं है, लेकिन हमें नई हरित अर्थव्यवस्था बनाने हेतु प्रयोगधर्मियों की आवश्यकता है । ***चिपको संदेशक्या है जंगल के उपकार,मिट्टी, पानी और बयार ।मिट्टी, पानी और बयार,ये है जिंदा रहने के आधार ।।

११ ज्ञान विज्ञान

बिना ऑक्सीजन के जीने वाले जीव
वैज्ञानिकों ने पहली बार ऐसे जीवों की खोज की है जो बिना ऑक्सीजन के जी सकते है । और प्रजनन कथर सकते है । ये जीव भूमण्ध्य सागर के तल पर मिले है । इटली के मार्श पॉलीटेकनिक विश्वविद्यालय में कार्यरत रॉबर्तोंा दोनोवारों और उनके दल ने इन कवचधारी जीवों की तीन प्रजातियों की खोज की है ।दोनोवारों ने बताया कि इन जीवों का आकार करीब एक किलोमीटर है ये देखने में कवच युक्तजेलीफिश जैसे लगते है । प्रो रॉबतो दोनोवारो ने कहा कि ये गूढ रहस्य ही है कि ये जीव बिना ऑक्सीजन के कैसे जी रहे है क्योंकि अब तक हम यही जानते थे कि केवल बैक्टीरिया ही बगैर ऑक्सीजन के जी सकते हे भूमध्यसागर की ला अटलाटा घाटी की तलछट में जीवोंं की खोज करे के लिए पिदले दशक में तीन समुद्री अभियान हुए है । इसी दोरोन इन नन्हे जीवधारीयों कि खोज हूई । यह घाटी र्क्रिट द्वीप के पश्चिीमी तट से करीब २०० किलोमिटर दूर भूमध्यसागर के भीतर साढ़े तीन किलोमीटर की गहराई में है । जहाँ ऑक्सीजन बिलकुल नही है । प्रो. दोनोवारो ने बताया कि इससे पहले भी बिना ऑक्सीजन वाने क्षेत्र से निकाले गए तलछट में बहुुकोशिय जीव मिले है, लेकिन तब ये माना गया कि ये जीवों के अवशेष है जो पास के ऑक्सीजनयुक्त क्षेत्र से वहाँ आकर डूब गए । हमारे दल ने ला अटलांटा में ती नजीवित प्रजातियॉ पाई है जिनमे से दो के भितर अंडे भी थे । हालाँकि इन्हें जीवित बाहर लाना संभव नहीं था, लेकिन टीम ने जहाज पर ऑक्सीजन रहित परिस्थितियाँ तैयार करकेे अंडों को सेने की प्रक्रिया पूरी की। उल्लेखनीय है कि इस ऑक्सीजन रहित वातावरण में इन अंडो से जीव भी निकले । दानोवारों ने कहाँ की यह खोज इस बात का प्रमाण है कि जीव में अपने पर्यावरण के साथ समायोजन करने की असीम क्षमता होती है उन्होने कहा कि दुनियाभर के समुद्रो में मृत क्षेत्र फैलते जा रहे है जहाँ भारी मात्रा में नमक है और ऑक्सीजन नहीं है स्क्रिप्सइंस्टीट्युशन ऑफ ओशनोग्राफी की लीसा लेविन कहती है । कि अभी तक किसी ने ऐसे जीव नहीं खोंजे जो बिना ऑक्सीजन के जी सकते हो और प्रजनन कर सकते हों । उन्होने कहाँ कि समुद्रों के इन कठोर परिवेशों में जाकर और अध्ययन करने की जरूरत है । इन जीवों की खोज के बाद लगता है कि अन्य ग्रहों पर भी किसी रूप मं जीवन हो सकता है, जहाँ का वातानरण हमारी पृथ्वी से भिन्न है । आबादी के लिहाज से दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश भारत में मोबाईल फोन की संख्या शौचालयों से ज्यादा है । संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वच्छता को लेकर किए गए एक ताजा अध्ययन से इस बात का खुलासा हुआ है । संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय के जल, पर्यावरण और स्वास्थ्य संस्थान के निदेशक जफल आदिल कहते हैं कि भारत जैसा देश जो अब पर्याप्त् धनी है कि, के लिए यह एक दु:खद विडंबना है कि यहाँ की आधी आबादी अभी भी शौचालयों जैसी मूलभूत आवश्यकता से वंचित है । भारत में करीब ५४.५० करोड़ मोबाईल फोन है अर्थात ४५ प्रतिशत जनसंख्या इस सेवा का उपयोग कर रही है जबकि २००८ के अध्ययन के अनुसार देश में ३६.६० करोड़ लोगों या कुल आबादी के ३ प्रतिशत को ही शौचालय सुविधा उपलब्ध थी । पिछले दिनों जारी इस रिर्पोट लक्ष्य लोगों के लिए स्वच्छ जल और बुनियादी स्वच्छता की सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए तय सहस््रााब्दी विकास लक्ष्य पाने के लिए प्रयास तेज करना है अगर वर्तमान वैश्विक रूझान जारी रहा तो विश्व स्वास्थ्य संगठन और युनिसेफ के अनुसार सहस््रााब्दी विकास लक्ष्य की तय तारिख २०१५ तक करीब एक लाख लोग इन बुनियादी सुविधाआें से महरूम होंगे । श्री आदिल ने कहा कि करीब १५ लाख बच्च्े और कई अन्य लोग हर साल दूषित जल और अस्वच्छता के कारण जान गवाँ देते है । सहस्राब्दी विकास लक्ष्य पाने के लिए दिए गऐ नौ प्रस्तावों पर अमल करके २०१५ तक इस स्थिति में ५० सुधार किया जा सकता है और २०२५ तक लक्ष्य को पाना संभव है ।
गुबरैला से प्रेरित एडहेसिव
एक गुबरैला या भृंग होता है जों पत्तियों पर बहुत कसकर चिपक जाता है इसे देखकर कुछ वैज्ञानिकोंको खयाल आया कि वे इसका अनुकरण करके बढ़िया एडहेसिव बना सकते है इस गुबरैलों का वैज्ञानिक नाम है हेमीस्फेरोटा सायने ।वैसे तो गोह भी किसी सतह से चिपकने में माहिर होती है मगर गोह के चिपकने और गुबरैलों के चिपकने में बहुत अंतर है । गोह किसी भी सतह से चिपकने के लिए अपने पंजों पर मौजूद अत्यंत महीन रेंशों और सतह के बीच वांडरवॉल बल लगाती है । दूसरी और गुबरैलों सतह पर चिपकन के लिए सैकड़ों-हजारों अत्यंत बारीक बुंदों का सहारा लेता है वह अपनी टांगों की निचती सतह से एक द्रव पदार्थ बहुत महीन बुंदों के रूप में छोड़ता है । ये बुंदें सतह से एक बल के दम पर चिपकती है जिसे पृष्ठ तनाव कहते है यह बल वांडरवॉल बल से अधिक शक्तिशाली होता है । और तो और पानी की बूंदों की साईज कम होते जाने से उनकी समह का क्षेत्रफल अपेक्षाक्रत ज्यादा तेज़ी से बढ़ता है इसलिए जितनी बारीक बुंदें होंगी ।बल उतना ही अधिक होगा । इस तकनीक का अध्ययन करने के बाद कॉर्नेल विश्वविद्यालय के माइकेल वोगेल और पॉल स्टीन पे इसकी एक अनकृति बनाने का प्रयास किया है । और उनका मत है कि जल्दी ही वे एक कामकाजी एडहेसिव बना पाएंगे । मॉडल में उन्होंने पानी का उपयोग करने पर यह समस्या तो दूर हो गई मगर अब प्रमुख समस्या है कि पर्याप्त् बल हासिल करने के लिए उन्हे बहुत बारीक बूंदें बनाना होंगी । अभी के मॉडल में करीब १५० माइक्रोमिटर व्यास की बुंदें बनती है इससे भी काफी वज़न उठाया जा सकता है मगर शोधकर्ता चाहते है कि बूंदों का आकार ०.१ माइक्रोमिटर रहे । इतने बारीक छिद्र बना पाना इंजीनियरी की एक चुनौती है । मगर वोगेल व स्टीन को यकीन है कि वे जल्दी ही यह काम करेगा ।
फूलों के परागण में खमीर की भूमिका
कई सारे फूलों में पराग कणों को एक से दुसरे फुल तक ले जाने का काम कीट करते है । परागण की इस सेवा के बदले में उन्हे फूलों का मकरंद मेवा स्वरूप मिलता है मगर ताज़ा अनुसंधान से पता चला है कि शायद यह रिश्ता मात्र दो जीवों का नहीं बल्कि तीन जीवों का है । परागण की इस क्रिया में खमीर की भूमिका सामने आई है । यह तो पहले से पता था कि फूलों के मकरंद में खमीर यानी यीस्ट की कई प्रजातियाँ निवास करती है । मकरंद को पचारक पोषण प्राप्त् करती है । इसका स्वाभाविक परिणाम तो यह होता है कि मकरंद में शर्करा की थोड़ी कमी हो जाती है और कीटों को मकंरद से उतना पोषण प्राप्त् नही हो पाता । मगर स्पेन के डोनाना बायोंलॉजिकल स्टेशन के कार्लोस हरेरा और मारिया पोज़ों ने अपने अध्ययन से बताया है कि जब खमीर मकरंद का पाचन करते है । तो काफी गर्मी पैदा होती है इससे ठंडे वातावरण में फूल गर्म बने रहते है । यह गर्मी कीटों को ज़्यादा आर्कर्षित करती है । और फलस्वरूप इन फुलों के परागण में मदद मिलती है । परागण बेहतर होता है, तो फल भी ज्यादा लगते है । इस तरह से खमीर इन पोधों के प्रजनन में सहायक साबित होता है प्रोसरडिंग्स ऑफ दी रॉयल बी में प्रकाशित इस अध्ययन में हेलेबोरस फेटिडस नामक फूल का अध्ययन किया गया था । इकॉलॉजी की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण अध्ययन है क्योंकि इसमें दो जीवों के परस्पर सम्बंध और निर्भरता में एक तीसरा जीव जुड़ जाता है । वैसे अभी इस संर्दभ में और अध्ययन की आवश्यकता है क्योंकि यह तो स्पष्ट हैकि खमीर की मौजुदगी से फुलों का तापमान अधिक रहता है, मगर यह स्पष्ट नहीं है कि बढ़ा हुआ तापमान कितनी मदद करता है क्योंकि तापमान बढ़ने के साथ-साथ मकरंद में शर्करा की मात्रा कम भी होती हे । सवाल उठता है कि क्या कीट कम मकरंद वाले गर्म फूलों की और ज़्यादा आकर्षित होंगे ।

१२ कविता

मेरा शाहर
डॉ. किशोरी लाल व्यास
मेरा शहर---बाग़ बगीचों कोहरे भरे उपवनों कोपारदर्शी सरोवरों कोखेल मैदानों कोचबाकरकचड्... कचड् खा रहा हैऔर लोहे-सीमेंट कीगगन चुंबी अट्टालिकाएंउगा रहे !आक्टोपस-सा/बढ़ता ही आ रहा है ।
मेरा शहरचिमनियों-वाहनों के धुएं मेंअपने घाव, अपने नासूरछिपा रहा है और गर्द-गुबार में धूल मे लिपटा खाँस रहा है !मेरे शहर के उदर में कूडे-कर्कट के ढ़ेरउग आये हैंकुकुरमुत्ते की तरहऔर इसके फेंफडों मेंरेंगते है राजयक्ष्मा के अदृश्य कीटाणु ।मेरे शहर की रगों में दौड़ती है गंध भरी नालियाँऔर निश्वास में फूट पड़ता है ज़हरीला प्रदूषण ।
मेरे शहर के बच्च्ेखाँसते है खाते है, टी.वी. देखते है खेलते नहीं खेलेंगे भी कहाँसारे मैदान/सारे बाग बगीचे/सरोवर-तड़ागगगन चुम्बी अट्टीलिकाआें में हो गये है तब्दील।
टूटने की हद तकबोझ ढो रहा है मेरा शहर !
बिसुर रहा हैविधवा-साश्रीहीन होकररो रहा है मेरा शहर !***

१ सामयिक

आपदाआें को निमंत्रित करता समाज
चंडीप्रसाद भट्टफ
दुनिया में पर्यावरण को लेकर चेतना में वृद्धि तो हो रही है परन्तु वास्तविक धरातल पर उसकी परिणति होती दिखाई नहीं दे रही है । चारों ओर पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर लीपा-पोती हो रही है । पर्यावरण आज एक चर्चित और महत्वपूर्ण विषय है जिस पर पिछले दो-तीन दशकों से काफी बातें हो रहीं हैं । हमारे देश और दुनियाभर में पर्यावरण के असंतुलन और उससे व्यक्ति समाज और राष्ट्र के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा भी बहुत हो रही है और काफी चिंता भी व्यक्त की जा रही है लेकिन पर्यावरण असंतुलन अथवा बिगाड को कम करने की कोशिशें उतनी प्रभावपूर्ण नहीं हैं, जितनी अपेक्षित और आवश्यक हैं । पर्यावरण के पक्ष में काफी बातें कहीं जा चुकी हैं । मैं इसके बिगाड़ से बढ़ रही प्राकृतिक आपदाआें के कारण जन-धन की हानि के लगातार बढ़ते आंकड़ों पर आपका ध्यान दिलाना चाहूंगा ताकि आप अनुभव कर सकें कि पर्यावरण असंतुलन तथा प्राकृतिक प्रकोपों की कितनी कीमत भारत तथा अन्य देशों को चुकानी पड़ रही है । पर्यावरण के असंतुलन के दो प्रमुख कारण हैं । एक है बढ़ती जनसंख्या और दूसरा बढ़ती मानवीय आवश्यकताएं तथा उपभोक्तावृत्ति । इन दोनों का असर प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ता है और उनकी वहनीय क्षमता लगातार कम हो रही है । पेड़ों के कटने, भूमि के खनन, जल के दुरूपयोग और वायु मंडल के प्रदूषण ने पर्यावरण को गभीर खतरा पैदा किया है । इससे प्राकृतिक आपदाएं भी बढ़ी हैं । पेड़ोंे के कटने से धरती नंगी हो रही है और उसकी मिट्टी को बांधे रखने, वर्षा की तीक्ष्ण बूदों में मिट्टी को बचाने, हवा को शुद्ध करने और वर्षा जल को भूमि में रिसाने की शक्ति लगातार क्षीण हो रही है । इसी का परिणाम है कि भूक्षरण, भूस्खलन और भूमि का कटाव बढ़ रहा है जिससे मिट्टी अनियंत्रित होकर बह रही है । इससे पहाड़ों ओर ऊँचाई वाले इलाकों की उर्वरता समाप्त् हो रही है तथा मैदानों में यह मिट्टी पा नी का घनत्व बढ़ाकर और नदी तल को ऊपर उठाकर बाढ़ की विभीषिका को बढ़ा रही है। खनन की वजह से भी मिट्टी का बहाव तेजी से बढ़ रहा है । उद्योगों और उन्नत कृषि ने पानी की खपत को बेतहाशा बढ़ाया है । पानी की बढ़ती जरूरत भूजल के स्तर को लगातार कम कर रही है, वहीं उद्योगों के विषैले घोलों तथा गंदी नालियों के निकास ने नदियों को विकृत करके रख दिया है और उनकी शुद्धिकरण की आत्मशक्ति समाप्त् हो गई है । कारखानों और वाहनों के गंदे धुएं और ग्रीन हाउस गैसों ने वायु मंडल को प्रदूषित कर दिया है । यह स्थिति जिस मात्रा में बिगड़ेगी, पृथ्वी पर प्राणियों का जीवन उसी मात्रा में दूभर होता चला जाएगा । प्राकृतिक आपदा से हो रही जन-धन की हानि के आंकड़े चौंकाने वाले ही नहीं बल्कि गंभीर चिंता का विषय भी हैं । स्वीडिश रेडक्रास ने प्रिवेन्शन इज बेटर देन क्योर नामक अपनी रिपोर्ट में कुछ देशों में १९६० से १९८१ के बीच प्राकृतिक आपदाआें से हुई भारी जनहानि के आंकड़े दिए हैं । इनके अनुसार इन बीस वर्षोंा में अकेले बांग्लादेश में ६३३००० लोगों की जानें गई, जिनमें ३८६२०० व्यक्ति समुद्री तूफान से तथा ३९९०० बाढ़ से मारे गए । इसी अवधि में चीन में २.४७ लाख, निकारगुआ में १.०६ लाख, इथोपिया में १.०३ लाख, पेरू में ९१ हजार तथा भारत में समूद्री तूफान से २४९३० तथा बाढ़ से १४७०० व्यक्तियों की जानें गई । बाढ़ से पाकिस्तान में २१०० तथा नेपाल में १५०० लोग उक्त काल-खण्ड में मारे गए । उल्लेखनीय तथ्य यह रहा कि प्राकृतिक आपदाआें में मरने वाले लोगों में बड़ी संख्या उन निर्बल-निर्धन लोगों की रही, जो अपने लिए सुरक्षित आवास नहीं बना सकते थे अथवा जो स्वयं को सुरक्षित स्थान उपलब्ध नहीं करा सकते थे । फिर वे चाहे समुद्र तटीय मछुआरे हों या वनों-पहाड़ों में रहने वाले गरीब लोग । बीसवीं सदी का अंतिम दशक भूकम्पों का त्रासदी का दशक भी रहा है । दुनियां में अनेक भागों में भूकम्प के झटकों ने जन-जीवन में भरी तबाही मचाई है ।भारत में भी १९९१ में उत्तरकाशी भूकम्प के बाद १९९३ में लातूर-उस्मानाबाद ओर १९९९ में गढ़वाल में भूकम्प के झटकों ने व्यापक विनाश किया । १९९८ में उत्तराखंड में भूस्खलनों की भी व्यापक विनाश-लीला रही । यह तथ्य भी प्रकाश में आया है कि प्राकृतिक आपदाआें और उनसे प्रभावित होने वालों की संख्या इन वर्षोंा में तेजी से बढी है। भारत में हिमालय से सह्याद्रि और दण्डकारण्य तथा पूर्वी और पश्चिमी घाटों तक में मिट्टी का कटाव-बहाव तेज होने और उनसे उद्गमित होने वाली नदियों की बौखलाहट बड़ी तेजी से बढ़ी है । हम देख रहे हैं कि हिमालय क्षेत्र में इसके लिए हमारी विकास की अवधारणाएं और क्रियाकलाप भी दोषी हैं। विकास के नाम पर नाजुक क्षेत्रों में भी मोटर मार्ग तथा अन्य निर्माण कार्य किए गए जिनमें भारी विस्फोटकों का उपयोग किया गया । मिट्टी बेतरतीब ढंग से काटी गई और जंगलों का बेतहाशा कटाव किया गया। इस कारण बड़ी संख्या में नए-नए भूस्खलन उभरे ओर नदियों की बौखलाट बढ़ी । इनमें लाखों टन मिट्टी बह रही है, जिसका दुष्प्रभाव न केवल हिमालयवासियों पर पड़ रहा है बल्कि मैदानी प्रदेश भी बाढ़ की विभीषिका से बुरी तरह संत्रस्त हैं । यही सही है कि प्राकृतिक आपदाआें को हम पूरी तरह रोकने में समर्थ नहीं हैं किंतु उन्हें उत्तेजित करने एवं बढ़ाने में निश्चित ही हमारी भागीदारी रही है । इसके लिए हमें तात्कालिक लाभ वाले कार्यक्रमोंका मोह छोड़ना होगा । क्षेत्रों में स्थाई विकास की योजनाआें को प्राथमिकता दी जानी चाहिए । पर्यावरण के विचार केन्द्र में उस आदमी को प्रतिष्ठापित किया जाना चाहिए जिसके चारों और यह घटित हो रहा है और जो बड़ी सीमा तक इसका कारक एवं परिणामभोक्ता दोनों हैं। उस क्षेत्र की धरती, पेड़, वनस्पति, जल एवं जानवरों के साथ उनके अंर्तसंबंधों को विश्लेषित करके ही कार्यक्रम बनाए जाने चाहिए। उनको इसके साथ प्रमुखता से जोड़ जाना चाहिए । यह भी जरूरी है कि ऐसे नाजुक क्षेत्रों में आपदाआें के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए उपग्रह के आंकड़ों का अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क आपदाआें की सूचना (डिजास्टर फोरकास्ट) के लिए तैयार किया जाए । इन सूचनाआें का बिना रोक-टोक आदान-प्रदान किया जाना चाहिए । प्राकृतिक आपदाआें से संबंधित संवेदनशील क्षेत्रों को चिन्हित किया जाना चाहिए । ऐसे क्षेत्रों की मॉनिटिरिंग एवं निगाह रखने के लिए स्थाई व्यवस्था हो । साथ ही बाढ़ एवं भूकम्प से प्रभावित क्षेत्रों का विकास कार्योंा को शुरू करने से पूर्व विस्तृत अध्ययन किया जाना चाहिए । ***