बुधवार, 30 मार्च 2011

आवरण

गुरुवार, 24 मार्च 2011

सामयिक


पर्यावरण एवं धारणीय विकास
डॉ.ए.के.सिन्हा

पर्यावरण संरक्षण में मानवता व मानव मूल्य संवर्द्धन को मानव संसाधन विकास से संयोजित कर ही धारणीय विकास की प्रािप्त् संभव हो सकती है । इस हेतु एक नवीन व बहुआयामी सकारात्मक चिंतन/सोच को विकसित कर क्रियान्वयन हेतु कार्य योजना निर्मित करना अपेक्षित है ताकि मानवीय अस्तित्व कायम रह सके । मानवीय क्षमता की पहचान व समुचित विदोहन भारत के समग्र आर्थिक विकास की अनिवार्यता के रूप में परिलक्षित होती है ।
समग्र ब्रह्मांड कार्य-कारण के मौलिक व सर्वव्यापी शास्वत नियम से संचालित हैं । यह एक निर्विवाद सत्य है । ब्रह्मांड के मुख्य दो संघटक हैं : सजीव एवं निर्जीव जगत । इन दोनों के मध्य अन्योन्य क्रिया उपस्थित है । पर्यावरण एवं अर्थशास्त्र के मध्य फलनात्मक संबंधों के अध्ययन, विश्लेषण हेतु एक नवोन्मेष व नवाचार के रूप में पर्यावरण अर्थशास्त्र जैसी नवीन शाखा की महत्ता व उपादेयता विश्व स्तर पर स्वीकार की जा चुकी है । १९५० के दशक से पर्यावरण संरक्षण व संतुलन हेतु पर्यावरण अर्थशास्त्र पर चिंतन-मनन व क्रियान्वयन प्रारंभ हुआ है ।
वर्तमान में विश्व स्तर पर पर्यावरण प्रदूषण व क्षरण को देखते हुए प्रत्येक राष्ट्र विशेष अपने धारणीय विकास की स्थापना हेतु पर्यावरण संसाधन व संरचना का मात्रात्मक व गुणात्मक अध्ययन, विश्लेषण, मूल्यांकन व विदोहन के प्रयास प्रारंभ कर चुके हैंक्योंकि प्रत्येक राष्ट्र तात्कालिक आर्थिक समस्याआें के समाधान पर केन्द्रित विकास के मौद्रिक व भोतिकवादी मॉडल पर संचालित थे । पर्यावरणीय व पारिस्थितिक पहलुआेंकी अवहेलना कर विकास का मार्ग प्रशस्त होता गया । इसी तथ्य को ध्यान में रखकर पर्यावरण संतुलन व संरक्षण की दिशा में पर्यावरण अर्थशास्त्र के अध्ययन की महत्ता व उपादेयता निर्धारित की गई है ।
धारणीय विकास अर्थात् पर्यावरण संरक्षण के साथ आर्थिक विकास की प्रािप्त् हेतु पर्यावरण अर्थशास्त्र के अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण व संतुलन के लिये पर्यावरण प्रबंधन, नियोजन, लेखांकन, अंकेक्षण व मूल्यांकन के विभिन्न सोपानों को स्थान दिया जाना औचित्यपूर्ण व युक्तियुक्त है ।
वस्तुत: पर्यावरण के संघटक वर्तमान व भविष्य के मानव सभ्यता की दक्षता व अस्तित्व को प्रत्यक्षत: प्रभावित करती है । नि:संदेह अध्यात्म में जो स्थान ईश्वर या परमात्मा को प्राप्त् है वही स्थान मानव सभ्यता के समग्र विकास में पर्यावरण को प्राप्त् है अत: पर्यावरण संतुलन व प्राकृतिक संसाधनों का व्यापक, वैज्ञानिक व धारणीय अध्ययन हेतु संरक्षणात्मक तकनीक व नीति-निर्धारण व क्रियान्वयन एक अति आवश्यक मानवीय आवश्यकता बन गई है ।
आर्थिक विकास के अन्तर्गत औद्योगिक विकास की तीव्र गति पर्यावरण के प्रतिकूल होती गई । पर्यावरण प्रदूषण के
रूप में एक अदृश्य रोग का जन्म हुआ । इसके समाधान के लिए ही पर्यावरण अर्थशास्त्र के अंतर्गत प्राकृतिक संसाधन का समुचित विदोहन व मापन तकनीक की
शोधपरक खोज अपेक्षित है ।
वर्तमान में, पर्यावरण में सजीव जगत का अस्तित्व उपस्थित है । पर्यावरण संरक्षण में मानव की अहम भूमिका है । मानव को आदर्श चेतन मानव निर्मित करना अध्यात्म की विषयवस्तु है । भारतीय सभ्यता व संस्कृति के आधार पर एक भारतीय आदर्श मानव के प्रतीक बन कर पर्यावरण संरक्षण में अपनी सहभागिता निर्धारित कर सकते हैं । एक भारतीय विश्वदृष्टा विद्वान मनीषी ने इक्कीसवीं सदी का आधार स्तम्भ आध्यात्मिक अर्थशास्त्र घोषित कर भविष्य में आने वाली प्राकृतिक व पर्यावरणीय संकट के प्रति मानव को सचेत किया है । इसके साथ ही भौतिकवादिता व अति उपभोक्तावादी प्रवृति को त्याग कर अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाने को मानव हित में उदघाटित किया है । नि:संदेह समग्र विकास के केन्द्र मेंमानव है, जिसे एक आदर्श मानव के रूप में अपने दायित्वों व कर्त्तव्यों के प्रति सजग होकर मानवीयता व मानव अस्तित्व को कायम रखने हेतु अपेक्षित है ।
भारत के धारणीय आर्थिक विकास के स्तर की प्रािप्त् में पर्यावरण अर्थशास्त्र का बहुआयामी अध्ययन मानव को केन्द्र में रखकर किया जाना अपेक्षित व श्रेयकर है । भारतीय अध्यात्म के अनुसार अर्थशास्त्र का एक नवीन आयाम अध्यात्मिक अर्थशास्त्र के रूप में दी जा सकती है । अर्थशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान व कला है, जिसमें आदर्श मानव की अभिकल्पना को स्वीकार कर इच्छाआें के शमन की प्रक्रिया का व्यापक बहुआयामी व अन्योन्य विश्लेषण क्रियान्वयन मूल्यांकन किया जाता है ।
भारत की विकासशील अर्थव्यवस्था में धारणीय विकास की प्रािप्त् का एक मात्र साधन आर्थिक वृद्धि, विकास, सामाजिक व आध्यात्मिक संघटकों का एकीकरण व समन्वय में दृष्टिगत होता है । भविष्य में मानव अस्तित्व को बनाये रखने में अध्यात्म व पर्यावरण का एकीकरण ही धारणीय विकास हेतु एक फलदायी मार्ग सिद्ध होगा । मानव को सजग भविष्य के प्रति सकारात्मक चिंतन व क्रियान्वयन में सहभागिता स्वयं निर्धारित करना अपेक्षित है ।
***

हमारा भूमण्डल


दोहा दौर की धीमी गति
कनग राजा

दोहा दौर के किसी निर्णय पर न पहुंच पाने के लिए भारत व अन्य विकासशील देशों को दोषी ठहराया जा रहा है जबकि वास्तविकता यह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां जिनके हाथों में विकसित देशों की नकेल है, दोहा दौर के सफल होने की राह में रोड़े अटका रही हैं । इस बीच तीसरी दुनिया के देशों ने भी कृ षि संबंधी अपनी मांगों को लेकर एक स्पष्ट नीति बनाने के प्रयास प्रारंभ कर दिए हैं ।
विश्व व्यापार संगठन के व्यापार समझौते के दोहा दौर ने विकास के मूलभूत क्षेत्रों में बहुत ही सीमित प्रगति की है । अब जबकि समझौता अटका पड़ा है तो प्राथमिकता वाले व्यापार अनुबंधों (पीटीए) की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है । जिससे व्यापार बहुत ही उलझन भरा और कठिन होता जा रहा है। उपरोक्त विचार संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व अर्थव्यवस्था स्थिति और संभावनाएं २०११ नामक रिपोर्ट में प्रमुखता से दर्शाए गए हैं । विश्व अर्थव्यवस्था में इस वर्ष और अगले वर्ष की मेक्रो आर्थिक संभावनाआंे पर जोर डालते हुए रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के मोर्चे और खासकर दोहा दौर पर एक पूरा अध्याय समर्पित किया गया है ।
दोहा दौर के बारे में अन्य बातों के अलावा रिपोर्ट में कहा गया है कि मुक्त व्यापार समझौतों के चलते न्यूनतम विकसित राष्ट्रों के लिए कर मुक्त और कोटा मुक्त व्यापार के खतरे बढ़ते जा रहे हैं आंचलिक बहुपक्षीय व बहुपक्षी प्राथमिकता व्यापार समझौते व्यापार नीति के दृष्यबंध को प्रभावित कर रहे हैं और व्यापार के न्यून कराधान वाले स्वरूप पर विपरित प्रभाव भी डाल रहे हैं ।
रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक वित्तीय एवं आर्थिक संकट के अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक वातावरण में नई वास्तविकताआें को आगे ला दिया है । इसमें संरक्षणवाद का पुर्नउदय और एक दशक पूर्व २००१ में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) द्वारा शुरू किए गए बहुपक्षीय व्यापार समझौतों से नीति निर्माताआें का ध्यान हटना भी शामिल है ।
वर्ष २०१० में इसे सफल बनाने और निष्कर्ष पर पहुंचाने के अनेक प्रयत्न हुए जिसमें जी-२० के दो सम्मेलन भी शामिल हैं । रिपोर्ट में चेताते हुए बताया गया है कि वास्तव में समझौतों के मुख्य विषयों पर बहुत कम प्रगति हुई है । जिसमें कृषि का क्षेत्र, गैर कृषि बाजार तक पहुंच (नामा) और विकासशील देशोंें के लिए विशिष्ट और
भेदीय (असमान) व्यवहार शामिल हैं । दोहा दौर की अनिश्चित स्थिति और इसके विकास में व्याप्त् अनियमितता बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली की विश्वसनीयता के लिए चुनौती पैदा कर रही हैं । अपनी टिप्पणी में रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सिओल (दक्षिण कोरिया) में पिछले वर्ष हुए जी-२० सम्मेलन के बाद से यह स्पष्ट होता जा रहा है कि इन समझौतों के वर्ष २०११ में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की संभावनाएं बहुत कम हैं ।
ऐसा माना गया था कि दोहा समझौते में संतुलित और दूरगामी परिणामों से यह शक्तिशाली संदेश जाएगा कि सरकारें आपस में मिलकर कार्य करने में सक्षम हैं जिससे बहुपक्षीय व्यापार नीतियों के लिए नए नियम बनाए जा सकेंगे और वर्तमान में विद्यमान विषमताआें को भी ठीक किया जा सकेगा। इससे ये अधिक विकासोन्मुखी हो सकेंगी जिसके परिणामस्वरूप विकासशील देशों की नीति निर्माण में अधिक भूमिका होगी ।
रिपोर्ट का कहना है कि ये नतीजे न केवल अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में स्थिरता के लिए आवश्यक हैं बल्कि वैश्विक मौद्रिक एवं वित्तीय प्रणाली में सुधार के लिए भी आवश्यक है जो कि नए बहुपक्षीय तयशुदा समझौतों की मूल जरूरत भी है । अंतर्राष्ट्रीय वित्त के लिए भी सभी को समावेशित करने वाली नियामक प्रणाली के निर्माण में प्रगति का अभाव वास्तविक अर्थव्यवस्था की वृद्धि और सुस्थिरता पर विपरित प्रभाव डालेगा । इसके परिणामस्वरूप विकासशील देश वैश्विक वित्त के वर्तमान स्वरूप से अधिक संरक्षणवादी प्रक्रिया अपना सकते हैं ।
दोहा दौर के अनिर्णित रहने को लेकर चेतावनी देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि व्यापारिक प्रणाली प्राथमिकता वाले आंचलिक बहुपक्षीय, बहुपक्षीय व द्विपक्षीय व्यापार नीति का क्षितिज धुंधला होता जा रहा है और जो राष्ट्र दोहा दौर को गन्तव्य तक पहुंचाना चाहते हैं, उनके सामने संकट खड़े होते जा रहें हैं ।
डब्ल्यूटीओ के अनुसार फिलहाल विश्वभर में करीब ३०० प्राथमिकता वाले ऐसे समझौते प्रचलन में हैं जो कि वर्ष २००० के बाद प्रभावशील हुए हैं । वैश्विक आर्थिक संकट के चलते किसी तरह नए समझौतों पर सहमति बनने पर रोक लगी थी । परंतु इसके ठीक होने के पश्चात इस प्रक्रिया ने पुन: जोर पकड़ लिया है और वर्ष २०१० में इस तरह के अनेक नए समझौते हुए जिसमें ट्रांस-पेसेफिक भागीदारी समझौता भी शामिल है ।
ये समझौते अन्य भागीदारों के प्रति भेदभावपूर्ण होते हैं और सर्वाधिक प्राथमिकता वाले राष्ट्र का सिद्धांत बहुपक्षीय व्यापारिक प्रणाली में एक ओर रह जाता है । आज आधे से अधिक विश्व बहुपक्षीय प्राथमिकता वाले अनुबंधोंें की जद में आ चुका है । इसको विस्तार देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि इससे भी अधिक चिंता की बात है निजी क्षेत्र । विकसित और विकासशील दोनों ही देशों में निजी क्षेत्र बहुपक्षीय व्यापार उदारीकरण और नियम तय करने हेतु प्राथमिकता वाले अनुबंधों का अधिक इच्छुक रहता है । ये प्रणाली अधिक लम्बी, अव्यवहार्य और अत्यधिक राजनीतिक भी है ।
रिपोर्ट में संरक्षणवाद को लेकर भी चेतावनी दी गई है । लगातार बढ़ता बेरोजगारी स्तर, विकासशील देशों को घटता वित्तीय स्थान, निर्यात को सहायता के लिए विनिमय दर का अवमूल्यन और अंतत: वैश्विक असंतुलन के पुन: उभरने की संभावना के मद्देनजर किन्हीं गंभीर समायोजन प्रयत्नों का अभाव संरक्षणवादी दबावों को बढ़ावा दे सकता है । व्यापार नियमों मे ही निहित है ं । इसके पक्ष में वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला और निर्माण नेटवर्क कार्य करता है । निर्माता, निर्यातकों एवं आयातकों ने परस्पर निर्भरता और मदद से इस स्थिति को और भी विषम बनाने में मदद की है ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले दो दशकों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की यह प्रवृत्ति बन गई है कि अंतिम उत्पाद की आपूर्ति इसी श्रंृखला और अंतर्राष्ट्रीय फर्मोंा के माध्यम से हो । इस प्रवृत्ति से संरक्षणवाद के खिलाफ पारम्परिक तर्क का महत्व भी कमतर नजर आने लगा है । ***

विश्व वानिकी दिवस पर विशेष


वृक्ष : जीवंत परंपरा के संवाहक
डॉ.खुशालसिंह पुरोहित

पर्यावरण के प्रति सामाजिक सजगता और पौधारोपण के प्रति सतर्कता हमारे ऋषियों ने निर्मित की थी, पौधारोपण कब, कहां और कैसे किया जाये उसका लाभ और वृक्ष काटे जाने से होने वाली हानि का विस्तारपूर्वक वर्णन हमारे सभी धर्मोंा के ग्रथों में है ।
वृक्षों की पूजा प्रकृति के प्रति आदर प्रकट करने का माध्यम है, जिसकी वजह से आज तक प्रकृतिका संतुलन बना हुआ है । आज समाज सिर्फ भविष्य की ओर देख रहा है, परन्तु वह यह भूल रहा है कि अंतत: यह प्रकृति ही है जो उसे जिंदा रखेगी ।
मानव जीवन के तीन बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी ओर उपजाऊ मिट्टी मुख्य रूप से वनों पर आधारित है । इसके साथ ही वनों से कई अप्रत्यक्ष लाभ भी हैं जिनमें खाद्य पदार्थ, औषधियां, फल-फ ूल, इंर्धन, पश्ुा आहार, इमारती लकड़ी, वर्षा संतुलन, भूजल संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख है ।
पर्यावरण चेतना आदिकाल से भारतीय मनीषा का मूल आधार रही है । भारतीय संस्कृति वृक्ष पूजक संस्कृति रही है । हमारे देश में वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उसकी पूजा की परम्परा प्राचीनकाल से रही है । वनस्पतियों के महत्व से भारतीय प्राचीन ग्रंथ भरे पड़े हैं । वृक्षों के प्रति ऐसा प्रेम शायद ही किसी देश की संस्कृति में हो, जहां वृक्ष को मनुष्य से भी ऊंचा स्थान दिया जाता है, उनकी पूजा कर सुख और समृद्धि की कामना की जाती है । वैदिक संस्कृति में पौधारोपण व वृक्ष पूजन की सुदीर्घ परम्परा रही है । प्रयाग का अक्षयवट, अवंतिका का सिद्धवट, नासिक का पंचवट (पंचवटी), गया का बोधिवृक्ष और वृंदावन का वंशीवट जैसे वृक्ष केन्द्रित श्रद्धा केन्द्रों की परम्परा अनेक शताब्दियों पुरानी है ।
वैदिक काल में प्रकृति के आराधक भारतीय मनीषी अपने अनुष्ठानोंमें वनस्पतियों को विशेष महत्व देते थे । वेदों और आरण्यक ग्रंथों में प्रकृतिकी महिमा का सर्वाधिक गुणगान है, उस काल में वृक्षों को लोकदेवता की मान्यता दी गयी थी । वृक्षों में देवत्व की अवधारणा का उल्लेख वेदों के अतिरिक्त प्रमुख रूप से मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, भविष्यपुराण, मद्मपुराण, नारदपुराण, रामायण, भगवद्गीता और शतपथब्राह्मण आदि ग्रंथों में मिलता है । मोटे रूप में देखे तो वेद, पुराण, संस्कृत और सूफी साहित्य, आगम, पंचतंत्र, जातक कथाएं, कुरान, बाईबिल, गुरूग्रंथ साहब हो या अन्य कोई ग्रंथ हो सभी मंे प्रकृति के लोकमंगलकारी स्वरूप का वर्णन है ।
दुनिया में सभी प्राचीन सभ्यताआें का आधार मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर का रिश्ता है । इसी कारण पेड़, पहाड़ और नदी का अवतार के रूप में मनुष्यांे,प्राणियांे की पूजा की परम्परा का प्रचलन हुआ । मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्ति पूजा के साथ पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुआें की पूजा की परम्परा भी विद्यमान थी । भारतीय साहित्य, चित्रकला और वास्तुकला में वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते हैं । अजंता के गुफाचित्रों और सांची के तोरण स्तंभोंकी आकृतियों में वृक्ष पूजा के दृश्य हैं । जैन और बौद्ध साहित्य में वृक्ष पूजा का विशेष स्थान रहा है । पालि साहित्य में विवरण आता है कि बोधिसत्व ने रूक्ख देवता बनकर जन्म लिया था ।
हमारे सबसे प्राचीन ग्रंथ वेदों में प्रकृति की परमात्मा स्वरूप में स्तुति है । इसके साथ ही वाल्मिकी रामायण, महाभारत और मनुस्मृति में वृक्ष पूजा की विविध विधियों का विस्तार से वर्णन है । नारद संहिता में २७ नक्षत्रों की नक्षत्र वनस्पति की जानकारी दी गयी है । हर व्यक्ति के जन्म नक्षत्र का वृक्ष उसका कुल वृक्ष है, यही उसके लिये कल्पवृक्ष है, जिसकी आराधना कर मनोवांछित फल प्राप्त् किया जा सकता है । सभी धार्मिक आयोजनों एवं पूजापाठ में पीपल, गुलर, पलाश, आम और वट वृक्ष के पत्ते (पंच पल्लव) की उपस्थिति अनिवार्य होती है । नवग्रह पूजा अर्चना के लिये नवग्रह वनस्पतियों की सूची है जिसके अनुसार उन वृक्षोंकी पूजा-प्रार्थना से ग्रह शांति का लाभ मिल सकता है ।
हमारे प्राचीन साहित्य में जिन पवित्र और अलौकिक वृक्षों का उल्लेख है उनमें कल्पवृक्ष प्रमुख है । कल्पवृक्ष को देवताआें का वृक्ष कहा गया है, इसे मनोवांछित फल देने वाला नंदन वृक्ष भी माना जाता है । भारत में बंबोकेसी कुल के अडनसोनिया डिजिटेटा को कल्पवृक्ष कहा जाता है । इसको फ्रांसीसी वैज्ञानिक माइकल अडनसन ने १७५४ में अफ्रीका में सेनेगल में सर्वप्रथम देखा था, इसी आधार पर इसका नाम अडनसोनिया डिजिटेटा रखा गया । नश्वर जगत का कोई भी वृक्ष इसकी विशालता, दीर्घजीविता और आराध्यता में बराबरी नहीं कर सकता है । यह धीरे-धीरे बढ़ता है और सैकड़ों वर्षोंा तक जिंदा रहता है । भारत में समुद्रीतटीय प्रदेशों गुजरात, महाराष्ट्र ओर केरल में कल्पवृक्ष बहुतायत में मिलते हैं ।
पौराणिक ग्रंथ स्कंदपुराण के हेमाद्रि खंड के अनुसार पांच पवित्र छायादार वृक्षों के समूह को पंचवटी कहा गया है, सिमें पीपल, बेल, बरगद, आंवला व अशोक शामिल है । पुराणों में इन पांच प्रजातियों की स्थापना विधि, एक नियत दिशा, क्रम व अंतर के स्पष्ट निर्देश हैं ।
भगवान बुद्ध के जीवन की सभी घटनाये वृक्षों की छाया में घटी थी । आपका जन्म सालवन में एक वृक्ष की छाया में
हुआ । इसके बाद प्रथम समाधि जामुन वृक्ष की छाया में, बोधि प्रािप्त् पीपल की छाया में और निर्वाण साल वृक्ष की छाया में
हुआ । भगवान बुद्ध ने भ्रमणकाल में अनेेकों वनों एवं बागो में प्रवास किया था । इनमें वैशाली की आम्रपाली का ताम्रवन, पिपिला का सखादेव आम्रवन, नालंदा का पुरवारीक आम्रवन के नाम उल्लेखनीय है । उसके अतिरिक्त राजाग्रह निम्बिला और कंजगल के वेणु वनों का संबंध भी भगवान बुद्ध से आया है । जैन धर्म में जैन शब्द जिन से बना है, इसका अर्थ है समस्त मानवीय वासनाआें पर विजय प्राप्त् करने वाला । तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है नदी पार करने कराने का स्थान अर्थात् घाट । धर्मरूपी तीर्थ का जो प्रवर्तन करते हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं । तपस्या के रूप में सभी तीर्थंकरों को विशुद्ध ज्ञान (कैवल्य ज्ञान) की प्रािप्त् किसी न किसी वृक्ष की छाया में हुई थी, इन वृक्षों को कैवली वृक्ष कहा जाता है ।
सिख धर्म में वृक्षों का अत्यधिक महत्व है । वृक्ष को देवता रूप में देखा गया है गुरूकार्य के उपयोग आने वाले धर्मस्थल के पास स्थित वृक्ष समूह को गुरू के बाग कहा जाता है । इनमें गुरू से जुड़े कुछ वृक्ष निम्न हैं - नानकमता का पीपल वृक्ष, रीठा साहब का रीठा वृक्ष, टाली साहब का शीशम और बेर साहब का बेर का वृक्ष प्रमुख हैं । इसके साथ ही कुछ और वृक्ष भी पूजनीय हैं । इनमें दुखभंजनी बेरी, बाबा की बेरी और मेहताबसिंह की बेरी के वृक्ष शामिल हैं ।
पृथ्वी पर पाये जाने वाले जिन पेड़-पौधों का नाम कुरान-मजीद में आया है, उन पेड़ों को पूजनीय माना जाता है । इन पवित्र पेड़ों में खजूर, बेरी, पीलू, मेहंदी, जैतून, अनार, अंजीर, बबूल, अंगुर और तुलसी मुख्य हैं । इनमें कुछ पैड़-पौधों का वर्णन मोहम्मद साहब (रहमतुल्लाह अलैहे) ने कुरान मजीद में किया है इस कारण इन पेड़-पौधों का महत्व और भी बढ़ जाता है । हम सभी धर्मग्रंथ पेड़-पौधों के प्रति प्रेम और आदर का पाठ पढ़ाते हैं । इसी प्रेम और आदरभाव से वृक्षों की सुरक्षा कर हम अपने जीवन में सुख और समृद्धि प्राप्त् कर सकते हैं ।
आज की सबसे बड़ी समस्या वनों के अस्तित्व की है । भोगवादी सभ्यता की पक्षधर दुनिया में कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचा है जहां वृक्ष हत्या का दौर नहीं चल रहा हो । हमारे देश में सुखद बात यह है कि भारतीय संस्कृति की परंपरा वृक्षों के साथ सहजीवन की रही है पेड़ संस्कृति के वाहक हैं, प्रकृति की सुरक्षा से ही संस्कृति की सुरक्षा हो सकती है । इस लिये जंभोजी महाराज की सीख मेंकहा गया है कि सिर साटे रूख रहे तो सस्तो जाण, इसी क्रम मेंधराड़ी और ओरण जैसी परम्पराआें ने जातीय चेतना को प्रकृतिचेतना से आत्मसात कर वृक्ष पूजा और वृक्ष रक्षा से जीवन में सुख-समृद्धि की कामना की है । आज इसी भावना को विस्तारित कर हम अपने भविष्य को सुरक्षित रख सकते हैं ।

वनस्पति तालिका
क्र. नक्षत्र का नाम पौराणिक नाम वैज्ञानिक नाम सामान्य लाभ
१. अश्विनी कारस्कर डींीूलहििी ार्िीर्ु-ींिाळलर कुचिला
२. भरणी धात्री झहूश्रश्ररिर्हींीी शालश्रळलर आँवला
३. कृत्तिका उदुम्बर ऋळर्लीी ीरलशािरी गूलर
४. रोहिणी जम्बू डूूूसर्ळीा र्लीाळळिळ जामुन
५. मृगशिरा खादिर अलरलळर लरींशलर्ही खैर
६. आद्रा कृष्ण ऊरश्रलशीसळर ीळीीिि शीशम
७. पुनर्वसु वंश इरालिि बांस
८. पुष्य अश्वत्थ ऋळर्लीी ीशश्रळसळिरी पीपल
९. आश्लेषा नाग चर्शीीर रिसरीीरीर्ळीा नागसेकर
१०. मघा वट ऋळर्लीी इशसिहरश्रशिळी बरगद
११. पू. फाल्गुनी पलाश र्इीींशर ािििीशिीार ढाक
१२. उ. फाल्गुनी प्लक्ष ऋळर्लीी लशसिहरश्रशिळी पाकड़
१३. हस्त अरिष्ट डरळिर्विीी र्ाीज्ञिीीिीळी सरशीींि रीठा
१४. चित्रा बिल्व अशसश्रश ारीाशश्रिीी बेर
१५. स्वाती अर्जुन ढशीाळरिश्रळर रीर्क्षीि अर्जुन
१६. विशाखा विकंकत ऋश्ररलिीर्ीळींर ळविळलर कटाई १७. अनुराधा बकुल चर्ळाीीििी शश्रशसिळ मौल श्री
१८. ज्येष्ठा सरल झळिीर्ी ीुर्लिीीसहळळ ीरीस चीड़
१९. मूला सर्ज डहिशीर ीर्लिीीींर सील
२०. पूर्ष्वाषाढ़ा वंजुल डरश्रळु ींीींीरीशिीार जलवेतस
२१. उत्तराषाढ़ा पनस आीींलिरीिीर्ी हशींशीिहिूश्रर्श्रीी कटहल
२२. श्रवण अर्क उरश्रिींीिळिी िीलिशीर मंदार
२३. घनिष्ठा शमी झीिीिळिी लळशिीरीळर खेजड़ी
२४. शतभिषक कदम्ब आिहींलिशहिरर्श्रीी लहळशििळीी कदम्ब
२५. पू. भाद्रपद आम्र चरसिळषशीर खविळलर आम
२६. उ. भाद्रपद निम्ब अूरवळीरलहींर-खविळलर नीम
२७. रेवती मधूक चरवर्हीलर खविळलर महुआ

नवग्रह वनस्पति
यज्ञ द्वारा ग्रह शांति के लिये हर ग्रह के लिये अलग-अलग विशिष्ट वनस्पति की समिधा प्रयोग की जाती है । गरूड़ पुराण में कहा गया है
अर्क:, पलाश:, खदिरन चापामार्गोडथ पिप्पल: ।
औडम्बर: शमी दूर्व्वा कुशश्च समिध कमात ।।
अर्थ :- अर्क (मदार), पलाश, खदिर (खैर), अपामार्ग (लटजीरा) पीपल, ओडम्बर (गुलर) शमी, दूव और कश नवग्रहों की समिधायें हैं । जो क्रमश: सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहू और केतु की वनस्पतियां हैं। इस प्रकार हम वृक्षों की पूजा - प्रार्थना से हमारे जीवन में सुख-समृद्धि प्राप्त् कर सक ते हैं । ***

विशेष लेख


ग्रामीण पर्यावरण और पर्यटन विकास
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल

गाँवों के विकास मे जल स्त्रोत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं तथा गावों के चारों ओर बाग बगीचे पाये जाते हैं । यद्यपि समय के परिवर्तन के साथ गावों की मूल संरचना में भी परिवर्तन हुए हैं किन्तु हमारी मूल संस्कृति को आज भी गाँव ही संजोये हुए हैं ।
ग्रामीण अंचल मेंपुरातन जीवन शैली आज भी हमारे और प्रकृति के अर्न्तसम्बन्धों का परिपाक करती हैं । किन्तु अब प्रौद्योगिकी के युग में लोकायित शैली भी यांत्रिक होती जा रही है । हस्त कौशल, हस्त शिल्प आदि को संरक्षित करना वक्त की जरूरत है । कृषि उत्पादोंसे निर्मित तरह-तरह की टोकरियों, मिट्टी के बर्तन, खिलौने आदि आज भी हमारे मन को लुभाते हैं । तीज त्यौहारों पर लोक नृत्य एवं लोक गीत गायन आयोजित होते हैं । ढोलक की थाप पर लोग थिरकते हैं । आज भी शुभ कार्य ढोलक के बिना अधूरे हैं ।
गाँव में प्रकृतिपरिवर्तन की दृश्यावलियाँ स्पष्ट दिखलाई देती है । हमारी संस्कृति किसी न किसी पर्व के प्रयोजन से जुड़ी रहती है । सूर्य उत्सव मनुष्य की प्रकृति के प्रति कृतज्ञता को अनुज्ञापित करते हैं। सामाजिक सरोकारों को जागृत करते हैं और निरंतर गतिशील रहने का मर्म भी देते हैं । गाँव की गोधुलि वेला को कौन भूल सकता है । सूर्योदय एवं सूर्यास्त के दृश्य नेत्रों में कैद हो जाते हैं । मन को बड़े लुभाते हैं ।
कहा जाता है भारत माता ग्राम्य वासिनी । भारत की पहचान हमारे गाँवों से है । ग्रामीण परिवेश से आशय मानवीय बस्तियों से है जिनके निवासी अपने जीवन यापन के लिए भूमि के विदोहन पर निर्भर करते हैं। ग्राम वासियों का मुख्य कार्य खेती करना, पशुपालन करना, मछलियाँ पकड़ना, वनोपज प्राप्त् करना तथा पेड़ों की लकड़ियों टहनियाँ काटना आदि होता है । कृषि कार्योंा की जानकारी रखने वाले खेतिहर मजदूर भी इन ग्रामीण बस्तियों में रहते हैं ।
प्रोफेसर ब्लाश के अनुसार - ग्रामीण बस्तियाँएक ही आवश्यकता की
व्यंजना है, यद्यपि इनके रूप भिन्न भिन्न हैं । यह भिन्नता जलवायु के भेदों और सामाजिक विकास के विभिन्न सोपान के कारण होती है । यह आवश्यक कृषि क्रिया को किसी एक स्थान पर केन्द्रीभूत करना
है । सब कृषकों के लाभ के लिए सहयोगी कार्यक्रम बनाया जाता है जिसके अनुसार कृषि पंचांग की तिथियाँऔर अन्य कार्योंा का समय निश्चित किया जाता है । जल के सहयोजन और नियंत्रण के लिए सहयोग, कुआें या तालाबों को खोदना, सार्वजनिक निर्माण के कार्योंा की सुरक्षा और फसलों के लिए अनुकूल वातावरण की तैयार - ये सब बातें सामूहीकरण के रूप हैं ।
सत्य ही, समूहन हमारी सभ्यता के विकास का अहम हिस्सा है । सभ्यता के विकास के साथ गांव के उत्थान के अनेक कार्यक्रम चलाए गए हैं। यद्यपि गांवों की अवधारणा कृषि कार्य से होती है तथापि गांवों का वर्गीकरण भू-आकृतितथा विहित कर्म के आधार पर ही किया गया है । कहीं मछुआें के गांव हैं तो कही औद्योगिक इकाइयों के समीप औद्योगिक गाँव हैं । कहीं खानों के निकट खनन गाँव हैं तो कहीं घाटियों के निकट घाटियों के गाँव हैं । पहाड़ियांे पर पहाड़ी गाँव हैं । अब तो खेल गाँव और रेल गाँव और कौन जाने कितनी तरह के गाँवों की अवधारणा अस्तित्वमान है । गाँवों का जैसा स्वरूप एवं विकास भारत में है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं है । यही कारण है कि विदेशी मेहमान भी भारतीय ग्रामीण-जीवन से रू-ब-रू होना चाहते हैं । यही बात ग्रामीण पर्यटन का आधार सिद्ध हो रही है ।
भारतीय गाँव प्रागेतिहासिक हैं जो हमारी संस्कृतिका मूलाधार हैं । गाँव भी भारतीय लोक संस्कृति के वाहक तथा संरक्षक हैं। महात्मा गाँधी ने कहा था - यदि गाँव की प्राचीन सभ्यता नष्ट हो गई तो देश भी अन्तत: नष्ट हो जायेगा । गाँव आत्मनिर्भर ही नहीं होते वरन् वह शहरों का भी पेट भरते हैं । गाँवों में स्थानीय रूप से प्राप्त् सामग्रीका उपयोग किया जाता है । घर भी कच्च्े होते हैं । जो इंर्ट मिट्टी बॉस पुआल तथा घास फूस से बने होते हैं । पर्णकुटियाँ वृक्ष लताआें से घिरी होती हैं । गाँव की चौपाल सदैव चर्चित रहती है । गाँव में आपसी मेलजोल एवं सद्भाव अधिक होता है । गाँव में श्रम विभाजन द्वारा सभी लोग सद्भाव से कार्य करते हैं । यह अच्छा संकेत है किन्तु सार्थक एवं प्रकृति परक मिथकोंको जिन्दा भी रखना होगा ।
गाँवोंें के विषय में यह बात भी महत्वपूर्ण है कि गाँवों का आकार स्थाई एवं समान नहीं होता क्योंकि गाँव में कृषि जोत के घटने-बढ़ने, जनसंख्या का घनत्व कम या अधिक होने, तथा कृषि तकनीक में बदलाव के कारण रूपान्तरण होता रहता
है । गाँव का अपना परिचय तथा अपनी विशिष्टता होती है । गाँव की दृश्य भूमि एवं कृष्य भूमि का ग्रामीणों पर पूर्ण प्रभाव होता है । गाँव में अपनापन होता है । मानव स्वभाव से ही समूहन चाहता है यही हमारी परम्पराआें को पोषित करता है । गाँवों की अवधारणा एवं स्थापना से मानव को अपनी यायावरी से आराम मिला घुमक्कड़ी प्रवृत्ति को विराम मिला ।
भारत में ऋतु दशाआें तथा पारम्परिक विधाआें के अनुसार कृषि की प्रधानता है । हमारे अन्नदाता किसान दिन रात मेहनत करते हैं जिससे अन्नपूर्णा धरती हमारा पोषण करती है अत: गाँव हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं ।
घुमक्कड़ी पर्यटन एवं आतिथ्य संस्कृति से तो हम चिर परिचित हैं । अब ईको टूरिज्म (पर्यावरण पर्यटन) की अवधारणा चर्चा में आई है । अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटन सोसाइटी ने सन् १९९० में पर्यावरण पर्यटन की परिभाषा दी थी यदि पर्यटन उद्देश्यपूर्ण हो तथा उसके द्वारा पर्यावरण संरक्षण एवं जागरूकता को बल मिलता हो और जो स्थानीय निवासियों के जीवन स्तर को सुधारने में सहायक हो वह सराहनीय है और प्रोत्साहन योग्य है । इससे सकारात्मक विचारों का आदान प्रदान होता है । क्षेत्र विशेष की समस्याएं दूर करने में मदद मिलती है तथा जैव विविधता के संरक्षण की भी सुध ली जाती है । ईको टूरिज्म से न केवल प्राकृतिक पर्यावरण का विकास होता है वरन संस्कृति का भी उत्थान होता है तथा लोककलाआें को प्रोत्साहन मिलता है ।
हमारी सरकारें पर्यावरण पर्यटन को आधार बनाकर ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करने हेतु आगे कदम बढ़ा रही हैं । हमारी ग्राम्य संस्कृति से रू-ब-रू होकर विदेशी मेहमान आकर्षित होते हैं और भारतीय संस्कृति की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हैं । ग्रामीण परिधान और पहनावा खान-पान, फसल-समिधान आदि देखकर आश्चर्य करते हैं कि भारत अनेकता में एकता को समेटे है । ग्रामीण पर्वोत्सव परम्पराएं भी पर्यटकांे को बहुत लुभाती हैं अत: ग्रामीण पर्यावरण में पर्यटन की अपार संभावनाएं
है ं।
शहरी ऊबाऊ जीवन से ऊब कर लोग ग्रामीण परिवेश मे आना चाहते हैं । आजकल फार्म हाऊस बनाने का प्रचलन बढ़ा है । समृद्धिशाली लोग गाँव में विकास की बयार लाना चाहते हैं । यदि हम इस प्रवृत्ति को इस ढंग से लागू करने में कामयाब हो गये कि गाँव अपसंस्कृतिकी बुराई से बचें रहें तो बड़ी उपलब्धि होगी । क्योंकि शहरी संस्कृति से सुशिक्षित लोग गाँव आएेंगे तो पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ेगी । पर्यटन संरक्षण नीति को भी प्रोत्साहन मिलेगा । गाँवों में सुविधाएं बढ़ेंगी तो गाँव से शहरों की ओर पलायन निश्चित रूप से रूकेगा। पर्यटन को बढ़ावा देते समय इस बात का विशेष घ्यान रखना होगा कि हमारी ग्राम्या संस्कृति को कोई भी बुराई घेरने न पाये । सभी काम मर्यादित आचरण से हों।
दलअसल फार्म हाउस के निर्माण की प्रक्रिया काफी पहले शुरू हो गई थी । महानगरीय जीवन की आपाधापी से
बचने के लिए आर्थिक रूप से समृद्ध लोगोंने अपने नगर के आसपास ग्रामीण क्षेत्रोंमें जमीन खरीद कर उस पर फार्म हाउस बनवाये और बागवानी विकसित की ताकि वहां रहकर कुछ दिन सुकून से बिता सकें और पुन: ऊर्जावान हुआ जा सके । शहरी संघर्षपूर्ण जीवन से कुछ तो मोहलत मिले । गाँवों में कृषि के साथ-साथ ग्रामीण परिधान, खानपान तथा लोक कलाएँ पर्यटकों को भी लुभाती हैं । प्रकृतिके नजारों को नजदीक से देखते हुए शांति का अनुभव होता है ।
भारतीय संदर्भ में जैसा कि पहले भी कहा है कि हमारी सरकारें एग्रो टूरिज्म को बढ़ावा दे रही है । कुछ मॉडल गाँव चुनकर उन्हें पर्यटन हेतु विकसित किया जा रहा है । पर्यटन मंत्रालय ने संयुक्त राष्ट्र विकास परियोजना (यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेंट प्रोजेक्ट) की सहभागिता से समेकित पर्यटन परियोजना शुरू की । इसके तहत जिलाधिकारियोंको निर्देशित किया गया है कि वे सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों की सहायता से स्थानीय शिल्पकला विकसित करें तथा प्राकृतिक संसाधनों का परिवर्धन करें । अब तो विदेशी पर्यटकों को भी हमारे गाँव लुभाने लगे हैं और हम इससे विदेशी मुद्रा पाने लगे हैं । राज्य सरकारे इसको प्राथमिकता दे रही हैं ।
अब गाँवों को ऐसे टिकाऊ विकास की दरकार है जिससे गाँव का आदमी गाँव में ही अपना भविष्य संवारे । गाँव में पर्यटन के विकास की अपार संभावनाएं हैं । गाँव की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति एवं प्राकृतिक दशा आकर्षित करती है । हस्तशिल्प को भी प्रोत्साहन मिलता है । ग्रामीण धरोहर को पर्यटन विकास के साथ और अधिक सुरूचिपूर्ण बनाया जा सकता है ।
ग्रामीण पर्यटन विकास में इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा कि गाँव की मूल संस्कृति से छेड़छाड़ न हो । आधुनिक सुविधाएं मिले किन्तु ग्रामीण संस्कारों की आत्मा न मरने पाये । सावधान भी रहना होगा कि कहीं गाँवों का ही शहरीकरण न हो जाये और कंक्रीट के जंगल खड़े न हो क्योंकि यह स्थिति तो और भी अधिक घातक सिद्ध होगी । ग्रामीण पर्यावरण में पर्यटन विकास का उद्देश्य घरेलू पर्यटन से गाँव को सीधा बाजार मिलेगा ।
गाँव मे जब ग्रामीण सुविधाएं मिलेंगी तो पर्यटक को नया अंदाज मिलेगा। प्रकृतिके बीच में उसका अन्तर्मन भी खिलते हुए कमल सा खिल उठेगा । और वह यह बात समझेगा कि सच्च सुख साधनों के जखीरे में नहीं वरन प्रकृति के बीच मिलता है । पर्यटन विकास में गाँव की सीधी भागीदारी हो अपने तालाब, अपने बाग- बागान, अपने उद्यान, अपने वन, विकसित हों । गाँव आबाद हों सबमें संवाद हो । सब सुखी हों सम्पन्न हों और समृद्ध हों ।
***

कविता


परचम हर जगह लहरायेंगे
सुश्री कमला भसीन

देश में गर औरतें अपमानित है, नाशाद है
दिल पे रख कर हाथ कहिये देश क्या आजाद है ।
जिनका पैदा होना ही अपशकुन है नापाक है
औरतों की जिन्दगी ये जिन्दगी क्या खाक है
काम कर कर के मरी है, मान फिर भी है नही
इस नाशुक्रे हिन्दुस्तां मेंऔरत कोई शै नहीं
कहने को इस देश में है देवियां तो बेशुमार
कर नहीं पाई वो लेकिन, औरतों का बेडा पार
पर्दानशीनी से हमको कौन सी इज्जत मिली
पर्दो में घुटती रहीं हम और पर्दो में जलीं
अब बना पर्दो का परचम हर जगह लहरायेंगे
हम यहां इन्सानियत का राज जल्दी लायेंगे
सदियों से हम सह रही हैं और न सह पायेंगी
ठान ली अब लड़ने की गर लड़के ही जी पायेंगी
कर शरारत देख ली लेकिन हुआ कहां फायदा अब शरारत छोड़ कर जीयेंगे हम बाकायदा
जो नहीं ललकारते शोषण को अत्याचार को
लानत है उस देश को उस देश की सरकार को
चुप है लेकिन ये न समझो हम सदा को हारे हैं
राख के नीचे अभी भी जल रहे अंगारे हैं
एक दो होते अगर तो शायद चुप हो बैंठते
देश में आधे मरद तो आधी हम हैं औरतें
नारियों की शक्ति को बिल्कुल न तुम ललकारना
काली माँ का रूप भी आता है हमको धारना
***

जनजीवन


शहरीकरण का भंवर
अरूण डिके

नई आर्थिक सामाजिक व्यवस्था गांवों के प्रति अत्यंत सहिष्णु है । वह धीरे-धीरे गांवोंका अस्तित्व ही समाप्त् कर संपूर्ण कृषि को कारपोरेट जगत को सौंप देना चाहती है । इस प्रक्रिया में यह ग्रामीणों को इतना प्रताड़ित कर रही है कि वे अपने आप गांव और कृषि दोनों को छोड़ दें ।
कृष्ण (श्याम) विवर का मतलब होता है, ब्लैक होल । प्रकृति में व्याप्त् यह एक ऐसी अजीब जगह है, जिसकी कोई थाह नहीं होती । छोटी से छोटी वस्तु से लेकर विशाल जहाज भी जहां बगैर संकेत या सूचना के देखते ही देखते गायब हो जाते हैं । कृष्ण विवर को मानव मस्तिष्क कभी खोज नहीं पाया । गुरूत्वाकर्षण के विपरित उड़ने वाले आकाशयान के माध्यम से चन्द्रमा पर विजय प्राप्त् कर ली गई है । अब मंगल ग्रह पर काबिज होने की योजनाएं बन रही हैं । वह क्या है, क्यों है, कैसेउसका निर्माण हुआ यह मानव अभी खोज नहीं सका है । यह भी पता नहीं चलता कि वहां कौन सा कर्षण या आकर्षण काम करता है ? वैसे कृष्ण विवर जल, थल, नभ कहीं भी हो सकता है ।
प्रकृतिइस रचना के विपरित मानव मस्तिष्क ने भी एक विवर अनजाने तैयार कर लिया है । जिसे आधुनिक भाषा में शहर कहा जाता है । पहले से नगर हुआ करते थे । बड़े-बड़े राज्यों की राजधानियां हुआ करते थे नगर । सभी धार्मिक राजनैतिक और सामाजिक गतिविधियां यही ंपर संचालित हुआ करती थी । धीरे-धीरे विज्ञान की सहायता लेकर प्रौद्योगिकी ने अपने हाथ पैर फैलाना प्रारंभ किए और इस कृृष्ण विवर नामक शहर को जन्म दिया । यह वह विवर है जहां गरीब से गरीब के पेंशन से लेकर २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले बगैर किसी सूचना या संकेत के गायब हो जाते हैं । या बड़े से बड़े भूखण्ड रातों रात औने के पौने दाम बिक जाते हैं। गरीब किसान को फसल बचाने के लिए बिजली मिले या न मिले शहरी खरीददारोंके मखमली पैरों को कष्ट न हो, इसलिए माल्स के सामने सीढियां चढ़ने के लिए एलीवेटर लग जाते हैं । खेत-खलिहानों को काटकर कॉलोनियां बन जाती हैं ।
यही वह कृष्ण विवर है जहां सामान्य बुद्धि नागरिक को मकान का करारनामा सेलडीड, रजिस्ट्री में फर्क ही समझ में नहीं आता है । ग्रीन बेल्ट, मास्टर प्लॉन और एफ.एस.आय. क्या होते हैं उसे नहीं पता । स्कूलोंसे कॉलेजों तक की पढ़ाई में किसी भी सामाजिक शास्त्र में कभी भी यह नही पढ़ाया जाता है कि शहरों में तिकड़मी लोग क्या-क्या मनसूबे रचकर औरों को परेशान कर सकते हैं और उनसे कैसे बचना चाहिए ।
दोनों प्राकृतिक और मानव निर्मित कृष्ण विवर मेंसमानता यह है कि आप भगवान के सामने चाहे जितने जप जाप कर लो या भोग लगा लो भगवान कभी भी यह नही बताएंगे कि कृष्ण विवर से कैसे बचना । यहां भी कलेक्टर, कमिश्नर, पुलिस कमिश्नर, सी.एम.के सामने चाहे जितनी गुहार लगाओ, अर्जी लगाओ या भोग लगाओ आपको पता ही नहीं चलेगा कि जहां अस्पताल बनना था वहां ट्रेड सेंटर कैसेबन गया, जहां विद्यालय बनना था वहां बहुमंजिली इमारत कैसे खड़ी हो गई, जहां सड़क बनना थी वहां किसी अफसर का बंगला कैसे बन गया ? बड़े-बड़े बंगलों के सामने सड़क पर खड़ी लक्झरी कारें तो अतिक्रमण में नहीं आती लेकिन किसी गरीब का सब्जी का ओटला या अंडों का ठिया जरूर अतिक्रमण के नाम पर रातों रात ढहा दिया जाता है ।
इस कृष्ण विवर में आपको पता ही नहीं चलेगा कि अपनी लाडली बिटिया की शादी के लिए जो मेरिज गार्डन आपने किराये पर ले रखा है वह किसी नामचिन भू-माफिया अवैध कब्जे का है । और अपने मेहमानोंके लिए जो लजीज खाना आप बनवा रहें हैं, वह नकली घी में और नकली रंगों और जहरीले कीटनाशकों के घोल में छिड़के ओर डुबोए हुए चमकदार सब्जियोंें से बना है । जो चाय आप मेहमानों को पिला रहे हैं वह यूरिया और फेविकॉल से बने सिंथेटिक दूध से बनी हैं आपको यह पढ़कर भी आश्चर्य होगा कि जिन विशालकाय भवनों में मोटी फीस देकर आप आपके बच्च्े को पढ़ने भेज रहे हैं वह कॉलेज अवैध है ं। और जो प्रमाण-पत्र उसे दिए गए हैं वो फर्जी हैं ।
प्रकृतिमें व्याप्त् कृष्ण विवर जिन पंचमहाभूतों के करिश्मे से निर्मित हैं उसी तरह यह कृष्ण विवरण भी बिचोलिए, राजनेता, मीडिया, व्यापारी और अफसरों नामक इन पंच महाभूतों की कारगुजारी का ही परिणाम है । इसका एकमात्र कारण है कि हम शहरी लोगों ने हर जगह जरूरत से ज्यादा राजनीति को अपने गले लगा लिया है । मानव इकाई, समाज सशक्तिकरण और पर्यावरण हमारे जीवन की सोच के बाहर ले गए हैं ।
इस मानव निर्मित कृष्ण विवर से कोसों दूर एक कृष्ण निलय हुआ करता था जहां भगवान कृष्ण गोकुल, मथुरा, वृन्दावन में गाय चराया करते थे और किसी विशालकाय पत्थर की शिला पर बैठकर बांसुरी बजाया करते थे । माँ यशोदा ने तैयार किया माखन वो और उनके सखा चुराकर खाया करते थे । कृष्ण भगवान की अपरम्पार लीलाआेंका वृन्दावन मथुरा अब धीरे-धीरे कृष्ण विवर में बदल रहा है । उनका प्रिय सुखा सुदामा गांव-गांव धूल फांक रहा है । उनके साथ अठखेलियां करती गोपियोंकी सरे आम इज्जत लुटी जाती है । उन्हें जिंदा जलाया जाता है । उनकी प्रिय यमुना नदी का पानी दिन-ब-दिन जहरीला होता जा रहा है । कदम्ब, बेला, चमेली, गुलाब अब सूंघने के नहीं गानों और कविताआें के कामआते हैं । वृन्दावन के कृष्ण कन्हैया के नाम पर इन कृष्ण विवरोंमें भारी भरकम चंदा वसूलकर मंदिर बनाए जाते हैं । ता जिंदगी जिस अधनंगे फकीर ने नंगे पैर गांव-गांव घूमकर कर्मकांडों का बहिष्कार किया उसी सांईबाबा के नाम पर बड़े-बड़े यज्ञ आयोजित होते हैं ।
जरा सोचिए, अपना राजपाट, मोटी तनख्वाह, ऐशो आराम की जिंदगी को पीठ दिखाकर राजमार्ग से पगडंडियां पकड़ने वाले महावीर, गौतम और कृष्ण को गांवों में क्या अच्छा लगा ? श्रम, साहस, प्रेम और ईमानदारी से सादगीपूर्ण जीवन बिताता हुआ देहाती । इससे बढ़कर उसे सर्वेश्वर का और क्या प्राकृतिक रचना हो सकती है ?
आज भी इन मानव निर्मित कृष्ण विवरों में कई देहाती और ग्रामोन्मुखी लोग आपको मिल जाएेंे । लेकिन वे डरे हुए हैं, सहमें हुए हैं, दिग्भ्रमित हैं कि क्या से क्या हो गया उनका शांतिप्रिय परिसर ?क्यों हमारे समाज शास्त्री और राजनेता हमारे संस्कारित गांवोंें को शहरों में बदल रहे हैं ? सुना तो यह गया है कि मुंबई, दिल्ली के बीच करीब सौ बड़ी-बड़ी शहरों की बस्तियां प्रस्तावित हैं । यह सबकुछ होगा और होता रहेगा, तय आपने करना है कि आप कहां रहना पसंद करेंगे, कृष्ण विविर में या कृष्ण निलय में ? ***

कृषि जगत


किसानों से बीज का खेल
सुश्री ज्योतिका सूद

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की अनुशंसाआेंें के विपरित जाकर राजस्थान सरकार द्वारा मोनसेंटों के हाईब्रीड मक्का की दो किस्मों के बीजों का प्रदेश में विवरण अनेक प्रश्न खड़े कर रहा है । इस वर्ष अनायास अत्यधिक वर्षा हो जाने से मक्का की इन किस्मों ने राजस्थान में अच्छी पैदावार दे दी है लेकिन अकाल या कम वर्षा वाले वर्षोंा में क्या होगा ? इसी के साथ गुजरात ने भी बिना अधिसूचना के इन बीजों को इस्तेमाल किया है । इन दोनों प्रदेशों द्वारा किसानों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीजों का घिनौना खेल खेलने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए ।
राजस्थान सरकार ने प्रदेश के साढ़े सात लाख किसानों को मक्का के ऐसे हाईब्रीड बीजों की आपूर्ति की जो कि राज्य की कृषि जलवायु के उपयुक्त नहीं थे । इतना ही नहीं ऐसा करते हुए उन्होंने केंद्रीय कृषि मंत्रालय एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईपीएआर) की अनुशंसाआेंें की भी अवहेलना की । आईसीएआर द्वारा किए गए परीक्षणों के दौरान इनसे अपेक्षित फसल की प्रािप्त् नहीं हुई थी और कृषि मंत्रालय ने राजस्थान के लिए इसे अधिसूचित भी नहीं किया था ।
यह बीज इस वर्ष अनायास ही भाग्यशाली सिद्ध हुआ और मक्का की अच्छी फसल हुई है । परंतु कृषि विभाग के अधिकारियोंने चेतावनी देते हुए कहा है कि यदि यह वर्ष सूखा प्रभावित होता तो इसके विध्वंसकारी परिणाम निकल सकते थे । प्रबल और डीकेसी ७०७४ नामक इन हाइब्रीड बीजों की आपूर्ति मोनसेंटो इंडिया लि. द्वारा की गई है जो कि इन बीजों को डेकाल्ब के ब्रांड नाम से उत्पादित किया है । इन बीजों को पिछले वर्ष खरीफ (जून से अक्टूबर) के मौसम में उदयपुर, बांसवाड़ा, डुंगरपुर, प्रतापगढ़ और सिरोही जिले के आदिवासी एवं गरीबी रेखा के नीचे बसर करने वाले किसानों को वितरित किया गया था । पांच किलो वजन के बीज के पेकेटों को गोल्डन रेंज परियोजना के तहत राज्य सरकार और मोनसेंटो द्वारा मुफ्त में दिया गया था । इस हेतु केन्द्र द्वारा प्रायोजित राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के अंतर्गत बीजोंपर ३९ करोड़ एवं खाद पर १५ करोड़ रूपये खर्च किए गए थे । इन किस्मों का अधिकांश उपयोग मक्का का तेल, स्टार्च एवं अन्य उत्पादों के निर्माण हेतु किया जाता है ।
दिल्ली स्थित मक्का अनुसंधान संचालनालय की वरिष्ठ वैज्ञानिक (पौध
अंकुरण) ज्योति जैन का कहना है प्रबल नामक किस्म को महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश तमिलनाडु एवं कर्नाटक के लिए ही अधिसूचित किया गया था । आईसीएआर ने राजस्थान के लिए एक दूसरी किस्म डीकेसी ७०७४ आर की अनुशंसा की थी लेकिन इस पर कोई प्रयोग नहीं किए गए ।
अखिल भारतीय समन्वित शोध परियोजना के अंतर्गत तीन वर्षोंा तक शोध करने के पश्चात् ही अनुशंसाएं की गई थी । परियोजना के अंतर्गत बीजों को खेतों में परिक्षण के लिए अनेक कृषि विश्वविद्यालयों एवं सरकारी शोध संस्थानों को दिया गया था तथा विभिन्न मापदंडों जैसे उपज, पानी की आवश्यकता, और कीड़ों के संक्रमण पर निगाह रखी गई थी । इसके पश्चात रिपोर्ट को एक समिति के समक्ष प्रस्तुत किया गया जिसने विभिन्न क्षेत्रों में बीजों की सुस्थिरता के बारे में निर्णय लिया ।
किसानों के लिए कार्य कर रही एक गैर लाभकारी संस्था सेंटर फार सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के कार्यकारी निदेशक और आईसीएआर के पूर्व वैज्ञानिक जी.वी.रमनजानेयुलु का कहना है कि आईसीएआर ने गुण-दोषों का अध्ययन करने के पश्चात ही अनुशंसाएं की थीं । यह आश्चर्यजनक है कि राज्य सरकार ने इनकी अनदेखी की । इतनी क्या आवश्यकता थी कि ऐसा टुथफुड सीड (कंपनी द्वारा स्वयं प्रमाणित) खरीदा जाए जिसकी की इस अंचल के लिए अनुशंसा ही नहींकी गई थी ।
राज्य कृषि विभाग के सूत्रों का कहना है कि मोनसेंटों के बीजों के वितरण का निर्णय उच्च् स्तर पर लिया गया और जमीनी स्तर पर कार्य कर रहे अधिकारियों से कोई सलाह मशवारा ही नहीं किया
गया । एक कृषि अधिकारी का कहना है हमें तो केवल निर्देश भेजे गये थे और कम्पनी के अधिकारियों की मदद देने को कहा गया । अधिकारी का यह भी कहना था कि जल्दी पकने वाले बीज डीकेसी ७०७४ को लेकर पांचों जिलों से अनेक शिकायतें आई हैं । उनका कहना है कि कुछ मामलों में भुट्टे का आकार सामान्य से काफी बड़ा था जिसकी वजह से इसमें दाने बहुत कम
आए ।
राजस्थान में बांसवाड़ा स्थित कृषि अनुसंधान केन्द्र के आंचलिक निदेशक जी.एस. अमीठा ने सरकार के निर्णय का बचाव करते हुए कहा कि हालांकि इन दो किस्मों का खेतों में परिक्षण नहीं हुआ था लेकिन खेतों में प्रदर्शन तो किया ही गया
था । इसके बहुत अच्छे परिणाम आए थे जिसके आधार पर इन किस्मों को प्रोत्साहित किया गया । राजस्थान के कृषि आयुक्त जे.सी.मोहंती का कहना है कि इन बीजों को प्रस्तुत करने की पहल उन्होंने गुजरात में इनके प्रयोग की वजह से की । मोहंती का कहना है, गुजरात के कुछ क्षेत्रों की जलवायु राजस्थान के जैसी ही है । हालांकि कृषि मंत्रालय ने इसे राज्य के लिए अधिसूचित नहींकिया है लेकिन वहां इसके बहुत अच्दे परिणाम आए हैं। अतएव हमने भी इसे अपनाने का निश्चय किया । ***

कृषि जगत


किसानों से बीज का खेल
सुश्री ज्योतिका सूद

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की अनुशंसाआेंें के विपरित जाकर राजस्थान सरकार द्वारा मोनसेंटों के हाईब्रीड मक्का की दो किस्मों के बीजों का प्रदेश में विवरण अनेक प्रश्न खड़े कर रहा है । इस वर्ष अनायास अत्यधिक वर्षा हो जाने से मक्का की इन किस्मों ने राजस्थान में अच्छी पैदावार दे दी है लेकिन अकाल या कम वर्षा वाले वर्षोंा में क्या होगा ? इसी के साथ गुजरात ने भी बिना अधिसूचना के इन बीजों को इस्तेमाल किया है । इन दोनों प्रदेशों द्वारा किसानों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीजों का घिनौना खेल खेलने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए ।
राजस्थान सरकार ने प्रदेश के साढ़े सात लाख किसानों को मक्का के ऐसे हाईब्रीड बीजों की आपूर्ति की जो कि राज्य की कृषि जलवायु के उपयुक्त नहीं थे । इतना ही नहीं ऐसा करते हुए उन्होंने केंद्रीय कृषि मंत्रालय एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईपीएआर) की अनुशंसाआेंें की भी अवहेलना की । आईसीएआर द्वारा किए गए परीक्षणों के दौरान इनसे अपेक्षित फसल की प्रािप्त् नहीं हुई थी और कृषि मंत्रालय ने राजस्थान के लिए इसे अधिसूचित भी नहीं किया था ।
यह बीज इस वर्ष अनायास ही भाग्यशाली सिद्ध हुआ और मक्का की अच्छी फसल हुई है । परंतु कृषि विभाग के अधिकारियोंने चेतावनी देते हुए कहा है कि यदि यह वर्ष सूखा प्रभावित होता तो इसके विध्वंसकारी परिणाम निकल सकते थे । प्रबल और डीकेसी ७०७४ नामक इन हाइब्रीड बीजों की आपूर्ति मोनसेंटो इंडिया लि. द्वारा की गई है जो कि इन बीजों को डेकाल्ब के ब्रांड नाम से उत्पादित किया है । इन बीजों को पिछले वर्ष खरीफ (जून से अक्टूबर) के मौसम में उदयपुर, बांसवाड़ा, डुंगरपुर, प्रतापगढ़ और सिरोही जिले के आदिवासी एवं गरीबी रेखा के नीचे बसर करने वाले किसानों को वितरित किया गया था । पांच किलो वजन के बीज के पेकेटों को गोल्डन रेंज परियोजना के तहत राज्य सरकार और मोनसेंटो द्वारा मुफ्त में दिया गया था । इस हेतु केन्द्र द्वारा प्रायोजित राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के अंतर्गत बीजोंपर ३९ करोड़ एवं खाद पर १५ करोड़ रूपये खर्च किए गए थे । इन किस्मों का अधिकांश उपयोग मक्का का तेल, स्टार्च एवं अन्य उत्पादों के निर्माण हेतु किया जाता है ।
दिल्ली स्थित मक्का अनुसंधान संचालनालय की वरिष्ठ वैज्ञानिक (पौध
अंकुरण) ज्योति जैन का कहना है प्रबल नामक किस्म को महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश तमिलनाडु एवं कर्नाटक के लिए ही अधिसूचित किया गया था । आईसीएआर ने राजस्थान के लिए एक दूसरी किस्म डीकेसी ७०७४ आर की अनुशंसा की थी लेकिन इस पर कोई प्रयोग नहीं किए गए ।
अखिल भारतीय समन्वित शोध परियोजना के अंतर्गत तीन वर्षोंा तक शोध करने के पश्चात् ही अनुशंसाएं की गई थी । परियोजना के अंतर्गत बीजों को खेतों में परिक्षण के लिए अनेक कृषि विश्वविद्यालयों एवं सरकारी शोध संस्थानों को दिया गया था तथा विभिन्न मापदंडों जैसे उपज, पानी की आवश्यकता, और कीड़ों के संक्रमण पर निगाह रखी गई थी । इसके पश्चात रिपोर्ट को एक समिति के समक्ष प्रस्तुत किया गया जिसने विभिन्न क्षेत्रों में बीजों की सुस्थिरता के बारे में निर्णय लिया ।
किसानों के लिए कार्य कर रही एक गैर लाभकारी संस्था सेंटर फार सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के कार्यकारी निदेशक और आईसीएआर के पूर्व वैज्ञानिक जी.वी.रमनजानेयुलु का कहना है कि आईसीएआर ने गुण-दोषों का अध्ययन करने के पश्चात ही अनुशंसाएं की थीं । यह आश्चर्यजनक है कि राज्य सरकार ने इनकी अनदेखी की । इतनी क्या आवश्यकता थी कि ऐसा टुथफुड सीड (कंपनी द्वारा स्वयं प्रमाणित) खरीदा जाए जिसकी की इस अंचल के लिए अनुशंसा ही नहींकी गई थी ।
राज्य कृषि विभाग के सूत्रों का कहना है कि मोनसेंटों के बीजों के वितरण का निर्णय उच्च् स्तर पर लिया गया और जमीनी स्तर पर कार्य कर रहे अधिकारियों से कोई सलाह मशवारा ही नहीं किया
गया । एक कृषि अधिकारी का कहना है हमें तो केवल निर्देश भेजे गये थे और कम्पनी के अधिकारियों की मदद देने को कहा गया । अधिकारी का यह भी कहना था कि जल्दी पकने वाले बीज डीकेसी ७०७४ को लेकर पांचों जिलों से अनेक शिकायतें आई हैं । उनका कहना है कि कुछ मामलों में भुट्टे का आकार सामान्य से काफी बड़ा था जिसकी वजह से इसमें दाने बहुत कम
आए ।
राजस्थान में बांसवाड़ा स्थित कृषि अनुसंधान केन्द्र के आंचलिक निदेशक जी.एस. अमीठा ने सरकार के निर्णय का बचाव करते हुए कहा कि हालांकि इन दो किस्मों का खेतों में परिक्षण नहीं हुआ था लेकिन खेतों में प्रदर्शन तो किया ही गया
था । इसके बहुत अच्छे परिणाम आए थे जिसके आधार पर इन किस्मों को प्रोत्साहित किया गया । राजस्थान के कृषि आयुक्त जे.सी.मोहंती का कहना है कि इन बीजों को प्रस्तुत करने की पहल उन्होंने गुजरात में इनके प्रयोग की वजह से की । मोहंती का कहना है, गुजरात के कुछ क्षेत्रों की जलवायु राजस्थान के जैसी ही है । हालांकि कृषि मंत्रालय ने इसे राज्य के लिए अधिसूचित नहींकिया है लेकिन वहां इसके बहुत अच्दे परिणाम आए हैं। अतएव हमने भी इसे अपनाने का निश्चय किया । ***

पर्यावरण परिक्रमा


जानवरों पर प्रयोग नियंत्रित करने की तैयारी

पिछले दिनों दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में बंदी बनाए गए जानवरों का मामला प्रकाश में आने के बाद केन्द्र सरकार एक कानून बनाने की तैयारी मेंहै । इसके तहत जानवरोंपर संस्थान का व्यक्तिगत रूप से किए जाने वाले प्रयोगों को नियंत्रित किया जाएगा । पिछले दिनों हॉलीवुड अभिनेत्री पामेला एंडरसन ने एम्स में प्रयोग के लिए बंद जानवरों को छोड़ने के लिए पत्र लिखा था ।
प्रस्तावित एनिमल वेल्फेयर एक्ट २०११ के लिए एक कमेटी बनाई गई है । इसका उद्देश्य जानवरों पर संस्थानों और व्यक्तिगत रूप से किए जाने वाले प्रयोग पर निंयत्रण और निगाह रखना है । कमेटी को जानवरों पर प्रयोग के दौरान अनावश्यक चोट और दर्द न हो ऐसे उपाय खोजने के निर्देश दिए गए हैं । कमेटी में सेंट्रल जू प्राधिकरण भारतीय पशु चिकित्सा काउंसिल तथा पशु कल्याण संस्थान के प्रतिनिधि, अधिकारी व गैर-अधिकारी शामिल हैं । संसद में मसौदा बिल पास होने के बाद पशु क्रूरता करते पाए जाने पर सजा के रूप में जेल और भारी जुर्माना लगाया जाएगा । इसके साथ ही कमेटी ने कहा कि संस्थानों को जानवरों पर विभिन्न प्रयोगों की जानकारी और वैकल्पिक उपाय पर किए गए प्रयोगों का रिकार्ड भी रखना होगा । अगर किसी संस्थान में प्रयोग हुआ है तो उसकी जिम्मेदारी उस संस्थान के मुखिया की रहेगी । पामेला ने एम्स में मौजूद बंदर और चूहों पर होने वाले शोध कार्योंा का एक वीडियो देखने के बाद पत्र लिखा था । इसमें एम्स से आग्रह किया है कि बंदरों को अभयारण्य में छोड़ दें । उन्होंने आरोप लगाया था कि पकड़े गए जानवरों पर नई दवाआें के विकास के दौरान प्रयोग किया जाता है ।

दूसरी हरित क्रांति की चुनौतियों
दूसरी हरितक्रांति की घोषणा पर केन्द्र सरकार ने कृषि पैदावार बढ़ाने का प्रयास तो किया है, लेकिन अब उसकी रफ्तार को तेज करने की आवश्यकता उच्च विकास दर प्राप्त् करने और खाद्य सुरक्षा बनाए रखने के लिए कृषि पैदावार में वृद्धि जरूरी है । आगामी आम बजट में कृषि सुधार के कारगर उपायोंको लागू करना सरकार के लिए गंभीर चुनौती होगी । बीते सालों में कृृषि सुधार के कुछ उपाय तो किए गये, लेकिन आधू अधूरे मन से, कृषि क्षेत्र मेंसुधार की सख्त जरूरत महसूस की जा रही है । कृषि विकास की दर ०.४ फीसदी से बढ़कर चालू सीजन में ५.४ फीसदी तक पहुंच गई लेकिन इस दर को बनाए रखने और किसानों की मुश्किलों को घटाने की चुनौती है । पिछले बजट में पैदावार बढ़ाने के लिए पूर्वी राज्यों में दूसरी हरितक्रांति की घोषणा की गई थी । कृषि विकास की मौजूदा दर से सरकार भले ही गदगद हो, लेकिन किसानों के लिए मुश्किलें बनी हुई हैं । इसीलिए माना जा रहा है कि वित्तमंत्री कृषि क्षेत्र में सुधार के कुछ नये व आकर्षक प्रावधान इस बार कर सकते हैं । घाटे में फंसी खेती को लाभ का कारोबार बनाने के कई प्रयास किए गये, लेकिन कृषि विपणन की माकूल व्यवस्था न होने से सारे प्रयास धराशायी हो गये । उच्च विकास दर के लिए कृषि उत्पादकता बढ़ानी ही होगी । राज्यों के कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएससी) के कानून अलग-अलग हैं। खाद्यान्न के अंतरराज्यीय कारोबार पर कई तरह की बंदिशें, फसलों की खलिहान से सीधी बिक्री पर रोक, मंडी शुल्क, चुंगी शुल्क समेत कई स्थानीय करों के चलते कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित है । संसाधनों के मंहगा होने से कृषि लागत बढ़ रही है । मार्केटिंग की व्यवस्था न होने से किसानों को अनाज सस्ता बेचना पड़ता है । वित्तमंत्री को इसके लिए कुछ करना होगा । गेहूँव चावल को छोड़ बाकी फसलों की आयात निर्भरता लगातार बढ़ रही है । जिसे घटाना वित्तमंत्री की चुनौतियों में शामिल होगा । घरेलू खपत का ५० फीसदी से अधिक खाद्य तेल आयात हो रहा है, जबकि दालों का आयात पिछले एक दशक में बढ़कर ४० से ४५ लाख टन पहुंच गया है ।

सीमांत वन क्षेत्र के डिजिटल मैप
केंद्र सरकार, प्रदेश के सीमांत और गैर वन क्षेत्रों (फ्रिंज फॉरेस्ट) का अध्ययन कर डिजिटल मैप तैयार कराएगी । योजना के प्रथम चरण में म.प्र. के २८ जिलों में यह अध्ययन किया जाएगा ।
केंद्रीय वन एवं मंत्रालय के अधीन गठित असिंचित क्षेत्र विकास प्राधिकरण यह अध्ययन करेगा । देशभर में ऐसे २७५ जिले चिह्रित किए गए हैं, जहां सीमांत वन क्षेत्र हैं । इनमें से अधिकांश क्षेत्रों में वन नहीं है, या कम हैं अथवा अविकसित वन क्षेत्र हैं । इन क्षेत्रों के वनों की दृष्टि से विकास के लिए केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने विस्तृत कार्ययोजना तैयार की है ।
दो चरणों में इसका क्रियान्वयन किया जाएगा । पहले चरण में प्रदेश के २८ जिलों को लिया जा रहा है । हाल ही में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) जयराम रमेश ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखकर पहले चरण के क्रियान्वयन के लिए राज्य सरकार से सहयोग मांगा है । राज्य के वन, कृषि उद्यानिकी विभागों के अलावा मृदा एवं जल परीक्षण एजेंसियों को अध्ययन करने आने वाली प्राधिकरण की टीम के साथ स्थानीय स्तर पर जोड़ने के लिए कहा गया है । इन क्षेत्रोंके अध्ययन के बाद इनके डिजिटल मैप तैयार किए जाएंगे ओर विस्तृत वनीकरण के कार्योंा की ऑनलाइन मॉनीटरिंग की जाएगी । इस प्रोजेक्ट की समयावधि दो वर्ष तय की गई है ।

दवाआें पर होगा बार कोड और मोबाइल नंबर
भारत में अब नकली दवाएं बेचना संभव नहीं होगा । मेडिकल स्टोर पर मिल रही दवा असली है या नकली, यह पता लगाने के लिए ग्राहक को किसी अधिकारी के पास जाने की जरूरत भी नहीं होगी । एक आम आदमी भी महज एक एसएमएस से पता लगा पाएगा कि जो दवा वह खा रहा है, वह असली ही है ।
पिछले दिनों १५ फरवरी को हुई बैठक में ड्रग कंसल्टेटिव कमेटी (डीसीसी) मंजूरी दी जा चुकी है ।अब इस अनुसंसाआें को ड्रग टेक्निकल एडवाइजरी बोर्ड को भेजा
जाएगा । यहां से मामला केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय जाएगा । नकली दवाआें की भारी शिकायतों को देखते हुए सरकार ने इसे मंजूरी देने का मन बना लिया है । अब तक इस तरह की व्यवस्था इटली, मलेशिया और यूरोपियन यूनियन देशों में लागू है ।
दवा के हर पत्ते पर (स्ट्रीप) पर बार कोड ओर यूनिक न्यूमरिक कोड (यूआईडी) होगा । साथ ही मोबाईल नंबर भी दिया जाएगा । क्या असली है या नकली यह जानने के लिए यह यूआईडी नंबर को इस मोबाइल पर एसएमएस करना होगा । उधर से जवाब मिलेगा और दवाई की सच्चाई सामने आ जाएगी ।
यह व्यवस्था लागू होते ही नकली दवाआें का बाजार खत्म हो जाएगा । हर मरीज पूरे विश्वास के साथ दवा ले पाएगा जो सौ फीसदी कारगर होगी ।

विकास के नाम पर पेड़ों की बलि
विकास और विनाश एक-दूसरे के पूरक हैं। ऐसा ही कुछ हो रहा है मध्यप्रदेश में सड़क, घर, पानी बिजली, उद्योग जैसी अहम जरूरतों की पूर्ति के लिए पिछले कुछ सालोंमें काफी काम हुए और इसके लिये लाखों पेड़ों की बलि चढ़ाई गई । सरकारी आंकड़ांे में बीते छह सालों में अकेलेभोपाल में साढ़े छह हजार पेड़ों की बलि विकास के लिए चढ़ चुकी है । जब प्रदेश के विभिन्न जिलों से विकास के नाम पर बलि चढ़े पेड़ोंें की जानकारी वाले आंकड़ों में भोपाल, इंदौर जैसे शहरों में सबसे ज्यादा संख्या में पेड़ों की बलि बीआरटीएस के तहत बन रहे सड़क के कारण चढ़ी है । भोपाल में सिमरोद से बैरागढ़ तक बन रहे २४ किमी लंबे बीआरटीएस कॉरिडोर के लिए २३३३ पेड़ काटे गए हैं । इंदौर में भी करीब ढाई से तीन हजार पेड़ों की बलि बड़े मार्गोंा के निर्माण में चढ़ाई गई है ।
कई मर्तबा पेड़ों की बलि का मामला न्यायालय तक पहुंचा तो कहा गया कि जितने पेड़ काटे गये हैं, उतने ही किसी ओर स्थान पर लगाओ । इन आदेशों की कागजी खानापूर्ति तो कर दी जाती है, लेकिन जहां पौधरोपण होता है, वहां कोई देखने नहीं जाता कि क्या हो रहा है । हाईकोर्ट ने एक मामले में जबलपुर नगर निगम को निर्देश दिए थे कि जितने पेड़ काटो, उसके दोगुने लगाओ, लेकिन क्रियान्वयन सिर्फ कागजों पर हुआ । वृक्ष काटने की अनुमति संबंधी अधिकार नगर निगमों के पास है, जहां बाकायदा रिकार्ड रखा जाता है, लेकिन अधिकांश मामलों में बिना अनुमति ही कुल्हाड़ी चला दी जाती है ।
भोपाल के विकास कार्य के तहत पिछले छह सालों में ६४९६ वृक्षों की बलि दी गई । सर्वाधिक २३३३ वृक्ष राजधानी में मिसरोद से बैरागढ़ तक बन रहे २४ किलो मीटर लंबे बीआरटी कॉरीडोर के लिए काटे गए । नर्मदा योजना पर भोपाल नगर निगम सीमा में ११०५ वृक्षों को काटा गया । यह आँकड़े तो वह हैं, जिनके लिए शासन से अनुमति ली गई थी । बिना अनुमति हजारों की संख्या में पेड़ कटे हैं । ऐसी ४८ संस्थाआें के खिलाफ प्रकरण भी दर्ज हुए हैं ।
विकास कार्योंा में न केवल शहरी सीमा में बल्कि आसपास के क्षेत्रोंको भी काफी हद तक प्रभावित किया है । जबलपुर एवं उसके आसपास के जंगलों का क्षेत्रफल निरंतर घटता जा रहा है । पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार नीम, पीपल, बरगद, शिवनाक, मोलसरी, पीपल ऐसे वृक्ष हैं जो प्रदूषण कम करते हैं, लेकिन वह भी अब शहरों में नहीं दिख रहे हैं ।
इन्दौर में सरकारी निर्माण कार्योंा के चलते जहां पिछले पाँच-छह सालों में डेढ़- दो हजार पेड़ों की बलि चढ़ाई गई है, वहीं भूमाफियों ने भवन एवं टाउनशिप निर्माण में हजारों पेड़ों की बलि चढ़ाई है । हैरत की बात तो यह है कि नगर निगम की सीमा से बाहर बिल्डरों ने बेखौफ होकर पेड़ काटे, क्योंकि वहां उन्हें किसी तरह की रोक-टोक नहीं थी ।
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प्रदेश चर्चा


बिहार : सुझाव के विपरित विज्ञान
रामचंद्र खान

कोशी के किनारे बसने वाले समुदाय ने सन् १९५५ मेंआजाद भारत में पहली बार नदियों से छेड़छाड़ के विरोध में आंदोलन किया था । ५५ वर्ष पश्चात भी भारतीय तंत्र की आंख नहीं खुली है और विगत वर्ष कोशी में आई बाढ़ और उससे हुआ विनाश इसी अदूरदर्शिता का परिणाम है । गत वर्ष एक जनसमूह ने कोशी का पुन: अध्ययन किया । इसमें डॉ.आी.एन.झा और श्री सत्यनारायण विशेष रूप से शामिल थे ।
नदी अंतत: क्या है ? नदी जल और जीवन रेखा है । नदी से पूरी सृष्टि निर्मित हुई है । समस्त पृथ्वी वर्षा के चक्र, मौसम के पीछे जल ही तो है । नदी जल को धारण करती है । नदी पृथ्वी के धरातल का निर्माण करती है और अपने साथ लाए हुए अवसाद और खनिज से भूमि के उर्वरा चक्र को जीवित रखती है । नदी जल के प्रवाह और बहने का रास्ता ड्रेनेज भी है । इसी कारण मूल प्रश्न जल/वर्षा के जल को नदी यानि रास्ता और ढाल देने का है । किसी भी हाइड्रो-संरचना को जल के बहाव/मार्ग को अवरूद्ध करने की इजाजत नहीं दी जा सकती । हिमालय की घाटी या नदी-घाटी में रहने वाला समूह विज्ञान इसे हिमालय की घाटी या कोशी की घाटी से उजाड़ेगा तो इसका विरोध और संघर्ष तो होगा ही ।
इस देश में बाढ़ पर सबसे अधिक हल्ला होता रहता है । जल विज्ञानी के लिए यह विपत्ति और आपदा है । बाढ़ के निदान के लिए उसके पास मिट्टी के तटबंध की खोखली संरचना तैयार रहती है । बाढ भी अंतत: अपवाह है अर्थात ड्रेनेज सिस्टम है और वर्षा जल का वह अतिरिक्त जल है जो नदियों के स्वयं द्वारा निर्मित प्राकृतिक तटबंधों को लांघकर बाहर चला आता है क्योंकि उसके जल को बड़ी नदी या समुद्र में गिरने का रास्ता नहीं मिलता है । दुनिया के अनेक देशों में प्राकृतिक तटबंधों को ऊंचाऔर मजबुत बनाकर बाढ़ का प्रबंधन किया गया है । दूसरी ओर भारत का जल विज्ञानी बाढ़ नियंत्रण का राग अलापता रहता है ।
आज कोशी के संदर्भ में मूल स्वर यह होगा कि कोशी के डूब के क्षेत्र और जल जमाव के क्षेत्र के प्रबंधन और विकास का मॉडल क्या होगा ? क्या भारत सरकार देश के प्रसिद्ध जल वैज्ञानिकों और जल तकनीकी के विशेषज्ञों का एक आयोग गठित करेगा जो कोशी नदी में बनाये गये तटबंध और ५५ वर्षोंा में उससे हुए विनाश और अन्याय तथा विज्ञान के दुर्विनियोग की जांच कर देश को वास्तविक स्थिति से अवगत कराएगी और निदान सुझाएगी ?
कोशी योजना के दुष्ट विज्ञान ने ५५ वर्ष पूर्व कोशी की बालू और मिट्टी से ही दो तटबंधों की लकीर खींचने का पागलपन किया । पूर्णिमा और वीरपुर के नजदीक बहने वाली कम से कम सात धाराआें वाली कोशी नदी को १९५५ में अपहृत कर कम से कम ७० किलोमीअर दूर पश्चिम नेपाल से निकलने वाली तिलयुगा नदी को दो धाराआें में उत्तर दे दक्षिण बहा दिया गया और सीधे कुसरैला के निकट गंगा में गिरने का मार्ग हमेशा के लिए बंद कर दिया गया । यहीं से कोशी नदी गंगा में विलीन होती थी और बंगाल की हुगली नामक गंगा के मुहाने से बंगाल की खाड़ी में गिरती थी । १९५५ से पूर्व कोशी नदी लगभग ५० किलोमीटर चौड़े पाट में बहती थी और अपने साथ लाई हुई बलुही गाद से धरती का निर्माण करती थी । उस नदी को उसके आधार से उखाड़कर तटबंधों के औसत ५ किलोमीटर की चौड़ाई वाले पाट में बहा (बांध) दिया गया । ५० किलोमीटर चौड़े पाट में बहने वाली नदी जब अपनी सारी धारायें खोकर ५ किलोमीटर के पाट में तिलयुगा नदी की दो संकीर्ण धाराआें में बहने लगी तो जल का स्तर १५ से १८ फीट ऊं चा होना ही था और उस समय ३ लाख और अब १० लाख लोग डूब से पूरी तरह विनष्ट होने ही थे । नदी और मनुष्य को नष्ट करने का कोशी परियोजना नामक बाढ़ नियंत्रक का प्रयोग अपने परिणाम मेंसम्पूर्ण विध्वंस का दूसरा नाम है ।
कोशी नदी से संबंधित कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्य भी हैंजैसे हिमालय पर्वत श्रंृखला का हो रहा सतत उत्थान और घाटी/मैदान का अनवरत् निर्माण और उसका भू- संरचनात्मक पक्ष का अध्ययन,तिब्बत और हिमालय के हिमनद और कोशी नदी के पूरे क्षेत्र का वर्षाजल, गंगा नदी में कोशी के जल के समावेश के सभी रास्तों के बंद किए जाने का कृत्य, स्वयं गंगा में गाद भर जाने और हुगली-फरक्का बराज के निर्माण के परिणाम जैसे विषय । परंतु, यह सब करने के लिए अनेक अभिलेखोंएवं आंकड़ों के अध्ययन की आवश्यकता है जो समय श्रम एवं व्ययसाध्य है । यों भी कोशी से संबंधित सभी अभिलेख आज भी या तो गुुप्त् हैं, लुप्त् हैं या फिर अनुपलब्ध हैं ।
पर मूलत: मैं स्वयं कोशी-कमला-बलान तटबंधों के संजाल के कारण ५५ वर्षोंा से दरभंगा के अपने निवास और समाज से विस्थापित हूं और पूरी तरह जड़ों से उखाड़ कर फेंक दिया गया हूं । यह दंश मारक है । किन्तु कोशी परियोजना के दुष्प्रयोग ने व्यापक आक्रोश, प्रतिवाद, प्रतिरोध और आंदोलन/अभियान को १९५५-५६ में ही जन्म दिया जिसकी दृढ़ता के कारण पश्चिमी तटबंध के जमालपुर क्षेत्र और पूर्वी तटबंध के सुपौल एवं नौहट्टा क्षेत्र में व्यापक आंदोलन हुआ । इस आंदोलन ने दो कोशी तटबंधों के पूरे निर्माण को एक साल रोक दिया और योजना के विज्ञान, टेक्नॉलॉजी, डिजाइन, विस्थापन संबंधी और तत्कालीन सर्वे के अनुसार लगभग ३ लाख एकड़ जमीन, ३०० गांव एवं कुछ लाख मनुष्य की स्थायी डूब में पड़ने के प्रश्न पर अनेक स्तर पर बहसें हुई ।
बाढ़ नियंत्रण की बिल्कुल झूठी और हमला बोलसरकारी कोशी योजना के नाम पर प्रकृति, पर्यावरण और नदी और उसके प्राकृतिक बहाव के साथ हस्तक्षेप के विरूद्ध यह पहला भारतीय आंदोलन था । इससे पूव १९३६ में रूस में एक नदी के साथ हस्तक्षेप के विरूद्ध आंदोलन हुआ था । अब कोशी तटबंधोंके डूब में फंसे विस्थापितों की संख्या ३ लाख से बढ़कर १० लाख हो गई है और कोशी में डूब में पड़े लोग हार गये हैं ।
बहरहाल रेल-रोड़ महासेतु की भारत सरकार की इस नयी संरचना ने जो कहीं से भी १९५५ की कोशी योजना का दूरस्थ अंग नहीं है, अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही पूरे वैज्ञानिक अहंकार के साथ कोशी नदी और दोनों तटबंधों के बीच बसे ४८ गांवों की समस्त ५० हजार जनता को फिर एक बार पुन: सम्पूर्ण विनाश एवं विस्थापन के कगार पर पहुंचा दिया है ।
ऐसा भी नहीं है कि कोशी नदी की पुरानी योजना अपने बेईमान और मानव विरोधी विज्ञान और टेक्नालाजी के द्वारा इस नये विध्वंस के लिए जिम्मेदार न हो । महासेतु तथा रेल रोेड़ परियोजना के समानान्तर बिहार के सिंचाई विभाग ने पूर्वीक्लोजर बांध बनाने पर अंधाधुध खर्चीली इंजीनियनिंग की है और लगातार कोशी की पूवी धारा को उसके बहाव मार्ग से बाहर फेंका गया है ।
यह आश्चर्यजनक है कि कोशी नदी को सकार को विज्ञान, टेक्नॉलॉजी और इंजीनियर विभाग दूर से भी स्पर्श करते हैं तो कोशी नदी तटबंधों के भीतर के गांव और उसके मध्य स्थायी विस्थापन में जी रहे दस लाख वासियों के लिए विनाश का मंजर पैदा हो जाता है । आखिर ऐसा क्यों है कि सरकार का जल विज्ञान और हाइड्रो टेक्नॉलॉजी (जल तकनीक) विज्ञान के ही खिलाफ हो गए हैं ।
देखते हैं थोड़े से भी सत्तासीन नीति निधारकों और तनखैया अर्द्ध वैज्ञानिकों की आंखों से पर्दा हटता है या नहीं । ***

युवा जगत


पर्यावरण संकट और पर्यावरण शिक्षा
रवीश कुमार

पर्यावरण अति व्यापक संप्रत्यय है परन्तु पर्यावरण घटकों की जानकारी मनुष्य को आदिकाल से हैं इसी कारण मानव समाज एवं उसकी संस्कृतिका वनस्पतियों से घनिष्ठ सम्बन्ध सृष्टि के आदिकाल से ही है मनुष्य ने पौधों को सम्मान दिया, उनके महत्व को वास्तविक रूप से समझा जिससे वनस्पतियाँ हमारी संस्कृति, समाज एवं धर्म का अभिन्न अंग बन गयी थीं मनुष्य के इस पर्यावरणीय ज्ञान ने शिक्षा व संस्कृति को लगातार जोड़े रखा ।
सम्पूर्ण ब्रह्मांड में ईश्वरीय कृतियां विद्यमान हैं ये सभी कृतियां एक दूसरे को प्रभावित करती हैं । ब्रह्माण्ड के ज्ञात ग्रहों में हमारी पृथ्वी भी एक ईश्वरीय कृति हैं पृथ्वी नामक यह कृति ब्रह्माण्ड के ज्ञात सभी ग्रहों में से सर्वाधिक सुन्दर तथा सम्मोहक हैं पृथ्वी के सौन्दर्य एवं सम्मोहन का प्रमुख कारण इस पर जीवन का होना हैं । स्वस्थ एवं सुखी जीवन-यापन के लिए मानव का समाज एवं प्रकृति से तालमेल होना अति आवश्यक हैंप्रकृति में जीव-जगत ही नहीं अपितु वनस्पति-जगत, अन्य स्थूल-सूक्ष्म तथा सूक्ष्मतम तत्व सम्मिलित हैं ये सभी तत्व सृष्टि के निर्माण के समय से लेकर अब तक विद्यमान हैंऔर सृष्टि के अन्त तक विद्यमान रहेंगे, यह निर्विवादित एवं अटल सत्य है सृष्टिकर्ता ने इस जगत में विविध रूप गुणों वाली प्रयोज्य वस्तुआें का निर्माण किया हैं ये सभी तत्व व वस्तुएें प्रयोज्य वस्तुएं जो हमें चारों ओर से घेरे हुए हैं । हमारा पर्यावरण हैं पृथ्वी पर जीवन का होना उसके पर्यावरण की ही देन हैं ।
हमारे चारों ओर का वातावरण जो हमें चारों ओर से ढके है, वह हमारा पर्यावरण हैंपर्यावरण को प्रकृति का समानार्थीमाना गया है तथा साधारण भाषा में इसे वातावरण भी कहा जाता है अत: पर्यावरण वह है जो मानव को चारों ओर से घेरे रहता है तथा उसे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न प्रकार से प्रभावित करता है, उसे ही पर्यावरण की संज्ञा दी जाती हैं सामान्य आधार पर पर्यावरण को दो भागों में विभाजित करते हैं :- प्रथम भौतिक पर्यावरण अथवा अजैविक पर्यावरण, दूसरा जैविक पर्यावरण अथवा सांस्कृतिक पर्यावरण स्थल, जल एवं वायु भौतिक पर्यावरण के तत्व हैंजबकि जैविक पर्यावरण में उत्पादक जैसे -हरे पेड़-पौधे (वनस्पतियाँ) उपभोक्ता जैसे- छोटे-बड़े सभी जीवधारी तथा अपघटक जैसे-जीवाणु, विषाणु (सुक्ष्मजीव) आते हैं मनुष्य तथा भौतिक व जैविक वातावरण (पर्यावरण) परस्पर एक- दूसरों को प्रभावित करते हैं ये सभी आपस में मिलकर पर्यावरण सन्तुलन का ताना-बाना बुनते हैं तथा जीवन की क्रियाआें को चलाने में मदद करते हैं भौतिक पर्यावरण के बदलने से जैविक पर्यावरण भी बदल जाता है जिससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ जाता है ।
पर्यावरण को प्रभावित करने में मानव ही महत्वपूर्ण कारक हैं मानव जीवन की शुरूआत जब से पृथ्वी पर हुई थी, तभी से मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना प्रारम्भ कर दिया था धीरे-धीरे मानव के बौद्धिक विकास के साथ-साथ उसकी आबादी बढ़ी तथा उसकी संस्कृति व प्रौद्योगिकी का विकास हुआ, जिससे प्राकृतिक संसाधनों का अधिक उपयोग किया गया इसका परिणाम यह हुआ कि अत्यधिक प्रदूषक पदार्थ उत्पन्न हुये, जो धीरे-धीरे वातावरण में मिलते गये इन प्रदूषित पदार्थोंा के जल चक्र आदि का संतुलन बिगड़ रहा है, जो आज पर्यावरणीय संकट के रूप में सामने खड़ा हैं इस पर्यावरणीय संकट से मानव ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण पृथ्वी के जीवों का जीवन संकटग्रस्त हो गया है ।
प्रकृतिमंे सभी लोगों की आवश्यकताआें की पूर्ति करने की क्षमता है, लेकिन किसी एक के लालच की पूर्ति की नहीं अर्थात् हम उतना ही प्रकृति से लें, जितना परम आवश्यक है तथा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करें, शोषण नहीं यह निर्विवादित सत्य है कि प्राकृतिक संसाधनों के बुद्धिमत्तापूर्ण एवं आवश्यकतानुसार उपयोग से पर्यावरण संतुलन नहींबिगड़ सकता लेकिन मानव की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि वह थोड़े में संतुष्ट नहीं होता तथा प्रकृतिसे अधिकाधिक पाने के लिए प्रयत्नशील रहता है जिससे प्रकृति अर्थात् पर्यावरण का संतुलन बिगड़ने लगता है यह स्थिति ही पर्यावरण संकट के नाम से जानी जाती है
वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण, अम्लीय वर्षा, ओजोन पर्त का नष्ट होना, ग्रीन हाउस प्रभाव, ग्लोबल वार्मिंग आदि के कारण जलवायु परिवर्तन पर्यावरण प्रदूषण का परिणाम हैंतथा पर्यावरण संकट इसी पर्यावरण प्रदूषण की देन हैं अत: आज हमारे वैज्ञानिक, शिक्षक, छात्र, छात्रा तथा समाज में रहने वाले प्रत्येक पुरूष व स्त्री पर्यावरणीय संकट हेतु उत्तरदायी इन सभी मुद्दों के प्रति सचेत व चिन्तित हैं ।
पर्यावरण प्रदूषण अर्थात् वातावरण प्रदूषित होना किसी व्यक्ति विशेष की समस्या नहीं है बल्कि यह जन सामान्य की समस्या है एक ओर यातायात के साधन, कल-कारखाने, औद्योगिक इकाईयाँ, मानवीय संकीर्ण मानसिकता व असावधानियां बढ़ रही हैं तो दूसरी ओर विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ मनुष्य की विलासप्रियता बढ़ रही है, जो प्राकृतिक वातावरण के लिए विनाशक है मनुष्य ने अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इतना अधिक विकास कर लिया है कि वह अपने जीवन को आरामदायक स्थिति में ले जाना चाहता है किन्तु इन सब बातों के पीछे सत्यता यह है कि मनुष्य अपनी आरामदायक आवश्यकताआें को पूरा करने के लिए प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ कू्ररता का रूख अपनाता है ।
आज हमारी सभी नदियाँ, नहरें, तालाब बुरी तरह से प्रदूषित हैं, इसके अतिरिक्त हमारा भूमिगत जल भी प्रदूषित होने लगा है आज सभी छोटे-बड़े शहरों में वायु प्रदूषण की विकट समस्या हैं सन् १९८० के दशक से हमारे देश में औद्योगिकरण व शहरीकरण की अत्याधिक वृद्धि हुई है सन् १९८४ में भोपाल (मध्य प्रदेश) में हुई दुर्घटना भोपाल गैस त्रासदी वायु प्रदूषण का उदाहरण थीं यूनियन कार्बाइड की फेक्ट्री से मेथिल आइसो सायनेट नामक विषैली गैस के रिसाव ने आस-पास का वायुमण्डल प्रदूषित करके हजारों की संख्या में मनुष्यों, पशु-पक्षियों आदि की जीवन लीला समाप्त् कर दी थी तथा जो जीवित बच गये थे, उनकी संताने आज भी उसके प्रभाव को झेल रही हैं मथुरा तेल शोधक कारखाने से निकली सल्फर डाय ऑक्साइड गैस के प्रभाव से केवलादेव पक्षी, विहार, भरतपुर (राजस्थान) ही प्रभावित नहीं हो रहा बल्कि आगरा के ताजमहल का संगमरमर पीला हो गया एवं संगमरमर का क्षरण होने लगा है जिससे आने वाले वर्षोंा में इमारत कमजोर होकर गिर सकती हैं । सन् १९९० तक दिल्ली देश का सर्वाधिक वायु प्रदूषित महानगर था लेकिन कलकत्ता के जादवपुर विश्वविद्यालय द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण से स्पष्ट होता है कि वर्तमान में कलकत्ता वायु प्रदूषण में देश में प्रथम स्थान रखता है विश्व के सर्वाधिक वायु प्रदूषित नगरों मे मैक्सिको का प्रथम तथा कलकत्ता का चौथा स्थान है ।
मनुष्य की विलासिता से भरे आधुनिक इस वर्तमान युग में विगत कुछ वर्षोंा में तीव्र गति से आबादी (जनसंख्या) वृद्धि, अनियमित औद्योगिकरण व नगरीकरण, मानव द्वारा अनियंत्रित खनन, नगरीय अवशिष्ट पदार्थोंा के अंबार (ढेर), धुंआ उगलती औद्योगिक चिमनियां, गंदगीयुक्त जल प्रवाह, वनों की अंधाधुंध कटाई तथा विकास योजनाआें के क्रियान्वयन मेंपर्यावरण सम्बन्धी पहलुआें पर विशेष ध्यान देने के कारण पर्यावरण संतुलन का तेजी से बिगड़ना प्रारम्भ हो गया है ।
आज आधुनिकता के नाम पर पर्यावरण को सर्वाधिक आघात पहुंचाया जा रहा है इन सभी के कारण उत्पन्न हुई पर्यावरण प्रदूषण रूपी समस्या आज सम्पूर्ण विश्व के सम्मुख सबसे भयंकर एवं चिन्ता में डालने वाली सबसे बड़ी समस्या है पर्यावरण प्रदूषण से जीव-जन्तुआें तथा मानव के अस्तित्व पर खतरा मण्डरा रहा है साथ ही ऐतिहासिक इमारतें व धरोहर भी इसके दुष्प्रभाव से नहीं बच सकी हैं अत: रेशेल कार्सन ने वर्तमान युग को विषुयुग का नाम दिया है ऐसी परिस्थिति में यह अत्यन्त आवश्यक है कि समाज का प्रत्येक वर्ग अपने पर्यावरण के प्रति जागरूक होकर अपना अपने उत्तरदायित्वों को समझकर उनका निर्वाह करें ।
इस जागरूकता व चेतना को उत्पन्न करने हेतु तथा मानव व प्रकृति में सामंजस्य को बनाये रखने हेतु निरंतर कोशिशें करनी होंगी ऐसी ही एक कोशिश का नाम है - पर्यावरण शिक्षा क्योंकि शिक्षा ही वह सशक्त माध्यम है, जो व्यक्ति के व्यवहार और विचार बदल सकती है इसी कारण आज के युग मेंपर्यावरणीय शिक्षा की अहम् भूमिका महसूस की जा रही है तथा पर्यावरणीय प्रदूषण व पर्यावरणीय असंतुलन के कारण पर्यावरण शिक्षा का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है । पर्यावरण प्राणी का जीवन है, बिना इसके जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है जबकि पर्यावरण शिक्षा, वह शिक्षा है जो पर्यावरण के माध्यम से पर्यावरण के विषय मेंऔर पर्यावरण के लिए दी जाती
है ।
पर्यावरण शिक्षा के अन्तर्गत मनुष्य तथा उसके पर्यावरण (भौतिक, जैविक व सांस्कृतिक) के पारस्परिक सम्बन्ध तथा निर्भरता को समझने का प्रयास किया जाता है और उसको स्पष्ट करने हेतु कौशल, अभिवृत्ति एवं मूल्यों का विकास करते हैं यह निर्णय लिया जाता है क्या किया जाए ? जिससे वातावरण की समस्याआें का समाधान किया जा सके और पर्यावरण में गुणवत्ता लायी जा सकें । पर्यावरण शिक्षा विद्यार्थियों को उनके वातावरण के अनुकूल बनाने का प्रयास करती है ।
पर्यावरण शिक्षा मनुष्य को पर्यावरण पर नियंत्रण रखने की क्षमता प्रदान करती हैं पर्यावरण की सुरक्षा तब ही संभव है जब एक ओर तो मनुष्य को पर्यावरण के अनुकूल परिवर्तित रखना सीख ले और दूसरी ओर पर्यावरण को अपने अनुकूल इस परिवर्तन से पर्यावरण को कोई प्राकृतिक क्षति न होंमनुष्य में इन गुणों का विकास पर्यावरण शिक्षा ही कर सकती है । पर्यावरण शिक्षा ही व्यावहारिक तथा अनुकूल प्रभावशीलता पर ही पर्यावरण संरक्षण निर्भर करता है ।
पर्यावरण शिक्षा एक ढंग से जिससे पर्यावरण संरक्षण के लक्ष्यों को प्राप्त् किया जाये । पर्यावरण शिक्षा विज्ञान तथा अध्ययन क्षेत्र की पृथक शाखा नहीं है अपितु जीवन पर्यन्त चलने वाली शिक्षा की एकीकृत प्रक्रिया है ।
मानव समाज और पर्यावरण का सदियों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और मनुष्य के सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक विकास में पर्यावरण का प्रमुख योगदान रहा है । पर्यावरण के संरक्षण संवर्धन तथा विकास के लिए पर्यावरणीय ज्ञान का हस्तांतरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में किया जाना बहुत जरूरी है अत: पर्यावरण को शैक्षिक प्रक्रिया का हिस्सा बनाने के उद्देश्य से ही भारत के सभी राज्यों के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में अनिवार्य रूप से पर्यावरण शिक्षा प्रदान करने का कार्य प्रारम्भ हो चुका है । ***

ज्ञान विज्ञान


हमारी आकाश गंगा में ५० अरब ग्रह !

ऐसे समय में जब भारत मे जनसंख्या का पता लगाने के लिए जनगणना चल रही है, विश्व के वैज्ञानिक आकाशगंगा में ग्रहों की संख्या जानने की कोशिश कर रहे हैं । वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि हमारी आकाशगंगा में करीब ५० अरब ग्रह हो सकते हैं ।
समाचार पत्र डेली मेल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ५० करोड़ ग्रह गोल्डीलॉक्स नाम से ऐसे क्षेत्र में हैं, जहाँ का वातावरण या तो बहुत गर्म है या बहुत ठंड़ा है, जिसके कारण उन पर जीवन होने की संभावना नहींहै । वैज्ञानिकों ने ये आंकड़े अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के केप्लर दूरबीन की मदद से पिछले करीब दो वर्ष की
मशक्कत के बाद जारी किए हैं । वैज्ञानिकों ने जिस मिशन के तहत ये आँकड़े एकत्रित किए वह साढ़े तीन वर्ष का था और इस पर करीब ६० करोड़ डॉलर खर्च हुए ।
केप्लर
विज्ञान प्रमुख विलियम बोरूकी ने कहा कि वैज्ञानिकों ने पहले वर्ष में रात के समय आकाश के एक हिस्से में खोज करने के बाद यह अनुमान लगाया कि इनमें मिले तारों में से कितने ग्रह हो सकते हैं । केप्लर ने ग्रहों का पता उस समय लगाया, जब वे पृथ्वी और परिक्रमा करने वाले तारे के बीच से गुजरे । अभी तक केप्लर ने करीब १२३५ ग्रह खोजे हैं, जिसमें से ५४ गोल्डीलॉक्स क्षेत्र में हैं, जहाँ जीवन नहीं पनप सकता ।

रक्त कैंसर को रोकने वाले प्रोटिन की खोज
अमेरिकी वैज्ञानिकों के एक दल ने ल्यूकेमिया (एक प्रकार का रक्त कैंसर) को रोकने में सहायक उस प्रोटीन के बारे में पता लगाने का दावा किया है जिसकी मदद से शरीर इस बीमारी से लड़ता है । ब्रिटिश जर्नल ऑफ हेमैटोलॉजी के अनुसार इस दल ने शरीर मे मौजूद सफेद रक्त कोशिकाआेंकी सतह पर पाए जाने वाले इस प्रोटीन को सीडी १९ लिगैंड नाम दिया है ।
यह प्रोटीन ल्यूकेमिया से प्रभावित कोशिकाआें को नष्ट करने में शरीर की प्रतिरोधी क्षमता की सहायता करता है । लॉस एंजिलिस स्थित बच्चों के कैंसर और रक्त संबंधी बीमारियों के केन्द्र और सबन शोध संस्थान के वैज्ञानिकों की यह रिपोर्ट ल्यूकेमिया से प्रभावित सीडी १९ कोशिकाआेंें पर पहला काम है । इस दल के प्रमुख फतीह उकून ने कहा कि इस बीमारी की सबसे बड़ी चुनौती स्वस्थ कोशिकाआेंको नुकसान पहुंचाए बिना ल्यूकेमिया को नष्ट करने की है ।
इसके लिए हमेंनए तरीके इजाद करने होंगे, क्योंकि यह कोेशिकाएं कीमोथेरेपी से भी नष्ट नहीं होती हैं । सीडीएल-१९ एल नामका यह प्रोटीन टी लिंफोसाइट नाम की सफेद रक्त कोशिकाआें पर पाया जाता है और यह बी कोश्किाआें पर मौजूद ल्यूकेमिया से प्रभावित कोशिकाआें से जुड़ कर उन्हें नष्ट कर देता है ।

अब हो सकेगी भूकंप की भविष्यवाणी
अब भूकंप आने से पहले ही उसके सही स्थान और समय की जानकारी मिल जाया करेगी । रूस और ब्रिटेन के वैज्ञानिकोंके एक संयुक्त दल की मानें तो उनकी एक नई परियोजना के तहत छोड़े जाने वाले दो उपग्रह यह जानकारी मुहैया कराएंगे। दोनों देशों के वैज्ञानिकोंने मास्को में इस योजना के समझौतोंपर हस्ताक्षर किए हैं ।
दी इंडिपेन्डेंट की खबर के अनुसार इनमें से एक उपग्रह टेलिवीजन के आकार का होगा, जबकि दूसरा जूते के डिब्बे से भी छोटा होगा । दोनों उपग्रह रूस के सुदूर पूर्व स्थित कमचाटका प्रायद्वीप और आईसलैंड जैसे भूकंप और ज्वालामुखी से प्रभावित क्षेत्रोंकी निगरानी करेंगे । इनमें मिली जानकारी का अध्ययन कर वैज्ञानिक यह पता लगाएंगे की भूकंप आने से पहले कौन से बदलाव होते हैं । परियोजना को शुरू करने वाले लंदन विश्वविद्यालय के कॉलेज के प्रोफेसर ऐलेन स्मिथ ने कहा कि भूकंप से पहले धरती मेंउत्पन्न होने वाले तनाव से जो तरंगे निकलती हैं, जिन्हें वायुमंडल के ऊपरी हिस्से में प्राप्त् किया जा सकता है । प्रोफेसर ऐलेन ने कहा कि हमारी कोशिश होगी कि हम एक निश्चित समय के दौरान बाकी चीजोंकी अपेक्षा इन तरंगों में आए बदलाव को दर्ज कर सकें । इस परियोजना में शामिल एक रूसी वैज्ञानिक ने कहा कि इस परियोजना की सफलता से धरती की सुरक्षा के साथ ही रूस और ब्रिटेन में विज्ञान को नई ऊंचाई मिलेगी । उन्होंने कहा कि कल्पना कीजिए कि पिछले साल हैती में आए विध्वंसकारी भूकंप के बारे मेंअगर पहले से पता चल जाता तो कितने लोंगों की जानें बचाई जा सकती थी । इस परियोजना का पहला उपग्रह २०१५ में छोड़े जाने की योजना है ।

मकड़ी के जाले से होगी प्लास्टिक सर्जरी
जर्मनी मेंऐसी शोध हो रही है कि जिसका मकसद मकड़ी के जाल से प्लास्टिक सर्जरी करना है ।
आमतौर पर मकड़ी के जालों को देखकर अच्छा नहीं लगता । जब घरों में दीवारों और कोनों में जाले लग जाते हैं तो उन्हें हटा दिया जाता है, लेकिन जर्मनी में हनोवर के मेडिकल कॉलेज में खासतौर से मकड़ी के जाले लगाए जा रहे हैं। यहाँ तक कि पूरे कमरों को जालों से भरा जा रहा है, ताकि इन्हें इंसानों के लिए इस्तेमाल किया जा सके ।
हनोवर के मेडिकल कॉलेज में क्रिस्टीना अल्मेलिंग मकड़ियों पर शोध कर रही हैं । उनका यह शोध इतना अनोखा है कि कई लोग इसे देखने आते हैं । यहाँ लगे मकड़ी के जाले ऐसे दिखते हैं मानों वहाँ किसी विशाल पेड़ की टहनियाँ लटक रही हों । क्रिस्टीना बताती हैं कि इनका आकार काफी बड़ा होता है । ये मकड़ियाँ आपस में एक-दूसरे के साथ घुल-मिलकर रहती हैं और ये जितना चाहें इस कमरे में अपना जाल फैला सकती हैं । यहाँ कुछ पुराने जालों पर नए जाले भी बने हुए हैं । इसका मतलब यह निकाला जा रहा है कि नेफिला नाम की इन मकड़ियों को कम जगह में जाल बुनने से भी कोई दिक्कत नहीं है । ये जाले आकार में विशाल हैं । हर जाल औसतन एक मीटर लंबा है और हर जाल के बीच एक मकड़ी बैठी दिखेगी जो हथेली जितनी बड़ी होगी । धारीदार काले पैरों वाली नेफिया मकड़ियाँ दक्षिण अमेरिकी प्रजाति की है ं ।
क्रिस्टीना ने बताया कि हम इन मकड़ियों को चोट नहीं पहुँचाते । सिर्फ सुईयों के सहारे उन्हें एक कम्पे्रशर से कुछ इस तरफ फैल जाएँ और पेट कम्पे्रेशर से चिपका रहे । इस तरह से वे केवल अपने पैर ही हिला सकती हैं, शरीर नहीं । मकड़ियों के पेटमेंही वे ग्रंथियाँ होती हैं जो जाल बनाने के काम आती हैं । इन जालों को पास में रखी एक चरखी पर इकट्ठा किया जाता है । कुछ उसी तरह जेसे रूई से धागा बनाया जाता है । यह ३० सेंटीमीटर बड़ी चरखी बिजली से चलती है और २०० मीटर जाल इकट्ठा कर सकती हैं ।
ये धागे काफी मजबूत होते हैं, इसलिए अब इन्हें प्लास्टिक सर्जरी से भी
काम में लाया जा रहा है । क्लिनिक फॉर प्लास्टिक सर्जरी के निदेशक प्रो. पेटर फौप्ट इसके फायदों के बारे मेंबताते हैं कि ये रेशे बेहद मजबूत होते हैं । इनकी ऊपरी सतह बहुत चिकनी होती है और सबसे खास बातें ये के ये प्राकृतिक रूप से बनते हैं। कृत्रिम रेशों को कई बार शरीर ठीक तरह से स्वीकार नहीं कर पाता और फिर उससे एलर्जिक रिएक्शन भी हो जाते हैं ।
अमेरिका के मूल निवासी, जिन्हें रेड इंडियन के नाम से भी जाना जाता है, बहुत साल पहले घाव भरने के लिए इन्हीं रेशों का इस्तेमाल करते थे । इससे कुछ ही दिनोंे चोट पूरी तरह ठीक हो जाती थी । प्रो.फौम्ट भी रेशोंे का ऐसा ही प्रयोग चाहते हैं, लेकिन हाईटेक तरीके से । उन्होंने बताया कि मकड़ियों के जाल के ढाँचे के अंदर से सभी कोशिकाआें को निकाल लिया
जाएगा । इस ढाँचे में रेशे भर दिए जाएँगे । टूटी हुई तंत्रिकाएँ इन रेशों के आसपास बढ़ने लगेंगी और धीरे-धीरे इनसे जुड़कर पूरी तरह विकसित हो जाएँगी ।
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विदेश


अफ्रीका : नवउपनिवेशवाद का शिकार
सचिन कुमार जैन

आधुनिक उपभोगवादी संस्कृति ने प्राकृतिक संसाधनों की मांग में अभूतपूर्व वृद्धि की है । जिन क्षेत्रों में इनकी उपलब्धता है उन्हें जानबूझकर साजिश के तहत गरीब बनाए रखा गया है । अफ्रीका और भारत के प्राकृतिक संसाधनोंसे प्रचुर क्षेत्र इसके ताजातरीन उदाहरण हैं ।
अफ्रीकी देश व नव-विकसित देशों (जैसे भारत, चीन आदि) के उपनिवेश बन रहे हैं । भारत के जाने माने समाजशास्त्री और विकास के नाम पर विस्थापन विषय के जानकार वाल्टर बर्नांडीस बताते हैं कि सहारा मरूस्थल के देशों में चार करोड़ हेक्टेयर जमीन को अमीर, पूंजीवादी समूह और सरकारें हड़पने की प्रक्रिया में हैं । एक ओर जहां इन ज्यादातर देशों में तानाशाही है और लोकतंत्र का अभाव है वहीं दूसरी ओर जीवन की बुनियादी सुविधाएं भी लोगों को उपलब्ध नहीं है ।
अफ्रीकी देश सेनेगल की राजधानी डकार में ६ से ११ फरवरी २०११ के बीच आयोजित विश्व समाज मंच में शामिल होने आये सूड़ान और कांगों के लोगों ने बताया कि जब उन्होंने बेहतर जीवन की तलाश में पलायन करने का निर्णय लिया तो दो वर्ष तक पैदल चलते हुए वे दुनिया के सबसे बड़े सहारा रेगिस्तान को पार कर पाए । फिर उन्होंने छोटी कश्तियों से अटलांटिक महासागर पार करके यूरोपीय देशों में प्रवेश करने की कोशिश की । इस कोशिश में कई लोग रास्ते में ही मर गए और अनेक सीमा पार करके यूरोप में घुसते हुए पकड़ लिए गए ।
कूटनीति की अमानवीयता तो देखिये कि उन लोगो को पकड़ कर फिर सहारा रेगिस्तान में छोड़ दिया गया । अब फ्रांस, इटली, स्पेन जैसे यूरोपीय देश हर साल लगभग १० अरब रूपये अफ्रीकी और मध्य-पूर्व देशों को दे रहे हैं ताकि ऐसी व्यवस्थाएं की जाएं कि लोग यूरोप की सीमा में न घुस सकें । विकसित देशों का यह समूह मानता है कि पलायन करके आने वाले इन लोगों के कारण उनकी छवि और संसाधनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा । कीनिया, नामिबिया, कांगो, अल्जीरिया जैसे देशों से १० लाख लोग इसी बदहाली के कारण पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं, पर उन्हें अब इसकी भी अनुमति नहीं है । उपनिवेशवाद विकास और उन्नति का चेहरा ओढ़ कर सामने आता है । वह पहले अभाव पैदा करता है और उन अभावों को दूर करने के नाम पर उस समाज को अपना गुलाम बना लेता है । उपनिवेशवादी जानता है कि किसी भी देश या समाज को गुलाम बनाने के लिए उसकी संस्कृति, शिक्षा, प्राकृतिक संसाधनों और भाषा को नियंत्रण में लेना जरूरी है । अफ्रीकी महाद्वीप में यह प्रक्रिया अब भी जारी है । उपनिवेशवाद अपना गए रूप में विस्तार कर रहा है ।
भारत जैसे देश जो कभी खुद गुलामी और दासता के शिकार रहे हैं, ने भी पिछले दो दशकों में आर्थिक विकास के लिए उदारवादी नीतियां अपनाई । इसका मकसद यही है कि किस तरह से वृद्धि दर को बढ़ाया जाए । धन तो बढ़ा पर असमानता उससे कहीं तेज गति से बढ़ी । भारत का अकेला एक औद्योगिक घराना अम्बानी परिवार भारत के ५ फीसदी सकल घरेलु उत्पाद को नियंत्रित करता है । देश के सत्तर फीसदी संसाधनोंपर ८ फीसदी लोगों का कब्जा हो चुका है और अब भारत के औद्योगिक घरानों ने अफ्रीका को अपने आर्थिक औपनिवेशिक साम्राज्य के विस्तार का लक्ष्य बनाया है । इन समूहोंने अफ्रीकी देशों में उद्योगों के विस्तार की नीति के तहत प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण करना शुरू कर दिया है । चीन ने तो वहाँ उपलब्ध हो रहे रोजगार के अवसरों को भुनाने के लिए अपने नागरिकों को ही वहाँ भेजना शुरू कर दिया है । इस तरह कभी विकासशील कहेे जाने वाले देश खुद उपनिवेशवादी रवैया अख्तियार करने लगे हैं । ज्यादा अफसोस तो इस बात का है कि हम उन्हीं को गुलाम बना लेना चाहते हैं जो हमारे सबसे करीब रहे हैं ।
हम भारत और अफ्रीका में एक और समानता साफ तौर पर पाते हैं, अफ्रीका में समाज भी पूंजीवादी नीतियों का बड़ा शिकार बना है । संसाधनों से संपन्न होने के बाद भी जब आप सेनेगल की राजधानी डकार के पुराने शहर की तरफ कूच करते हैं तब सड़क और छोटी दुकानोंें पर बिकते हुए पुराने पहने हुए कपड़ों को देख कर आप विपन्नता का अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं । उन्होंने हमसे फोटो न खीचने का निवेदन किया । वे अपनी स्थिति को स्थायी नहीं बनाना चाहते हैं । वे नहीं चाहते कि इस सच को कोई और देखे ।
स्वास्थ्य सुविधाआें की हालत देख कर आँखे नम हो जाती हैं । वहाँ सरकारी या सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं मिल ही नहीं पाती हैं । निजी सेवाएं भी इतनी कम हैं और उनका दायरा राजधानी डकार तक ही सीमित हैं । एक उदाहरण से वस्तुस्थिति और स्पष्ट हो जाएगी । फिलिस्तीन से आये हमारे एक साथी रामी को लू और गले का संक्रमण हो गया, जिसके इलाज के लिए चिकित्सक मिले उनकी फीस २६००० सेफा (सेनेगली मुद्रा) यानी २६०० रूपये थी । फिर एंटीबायोटिक दवाएं और सामान्य पेरासिटामोल खरीदी गई, जिनके लिए ४९००० सेफा यानी ४९०० रूपये का भुगतान किया गया । जहाँप्रति व्यक्ति मासिक आय २००० रूपये से कम हो वहां बीमार पड़ा भी जा सकता है ? ९ दिनों में इस देश के एक भी व्यक्ति ने ऊँची आवाज में हमसे बात नहीं की । हमारी बात को सुना और पूरा सम्मान दिया, उनमें कोई कुटिलता अभी भी नजर नहीं आती, तभी तो इमिग्रेशन अधिकारी आपसे थोड़ी नजरें झुका कर रिश्वत मांग भी लेता है और नहीं मिलने पर मुस्कुरा देता है ।
नस्लभेदी उपनिवेशवाद कितना भयावह, हिंसक और अमानवीय होता है, इसका एक प्रमाण डकार से लगभग १५ किलामीटर दूर अटलांटिक महासागर में स्थापित ५ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले गोरे द्वीप के रूप में नजर आता है । इसे दासों के द्वीप के रूप में जाना जाता है । यह क्षेत्र आज भी विकसित और संपन्न देशों के सबसे करीब है इसलिए अफ्रीका के तमाम देशांे से लोगों को दास बना कर लाया जाता और इस द्वीप पर रखा जाता है । यहीं से उन्हें समूहवार गुलामी के किये यूरोप और
अमेरिका के अलग-अलग हिस्सोंमें भेजा जाता है । इस द्वीप पर बनी इमारतों में ८० से १५० वर्गफुट के आकार के कमरे बनाए गए जिनमें १५ से ३० लोगों को रखा जाता है हर रोज दिन में केवलएक बार शौच के लिए मौका दिया जाता । गंदगी में रहने के कारण यहाँ महामारी फैली और हजारोंमारे गए । कुंवारी लड़कियों के लिए अलग कमरे बनाए गए जहां कुंवारेपन की जांच के बाद लड़कियों को रखा जाता और मनोरंजक शोषण के लिए दूसरे हिस्सोंमें भेजा जाता है । गर्भवती होने के बाद उन्हें किसी अनजाने इलाके मेंछोड़ दिया जाता था, चुँकि मुक्ति का यही एक मात्र रास्ता है इसलिए लड़कियां जल्दी से जल्दी गर्भवती हो जाना चाहती
है ।
१४वीं और १५वीं शताब्दी के आसपास ३०० सालों में अधिकृत आंकड़ों के मुताबिक डेढ़ करोड़ लोग इस दासता के दौर मेंजान से हाथ धो बैठे । चारों तरफ समुद्र और शार्क मछलियाँथीं अतएव जिन्होंने भी भागने की कोशिश की वे जिन्दा नहीं बचे। रोचक तथ्य है कि केवल उन्हीं दासों को दासता के लिए आगे भेजा जाता था जो स्वस्थ होते थे और जिनका वजन ६० किलो से अधिक होता था । जिनका वजन कम होता उनका वजन खास भोजन देकर बढ़ाया जाता और आगे भेज दिया जाता । मानवीय इतिहास की इन भूलों पर विचार की आवश्यकता है ? ***

विश्व महिला दिवस पर विशेष

श्रम में स्त्री-पुरूष समानता
कांचा आइलैया

श्रम के बंटवारे की परम्परागत सोच से स्त्री-पुरूष के बीच के बंटवारे को और अधिक असंतुलित बना दिया
है । स्त्री-पुरूष समानता की नींव पारिवारिक संबंधों में समानता से ही डाली जा सकती हैं । लेकिन हमारे घरों में लड़के और लड़की के बीच गैर बराबरी का व्यवहार होता है जो अन्तत: हमारे संपूर्ण सामाजिक परिवेश में दिखाई देता है अतएव घर में समानता लाए बगैर समाज के स्तर पर समानता का आना महज दिवास्वप्न ही है ।
जीने के लिए स्त्री-पुरूष सभी को काम करना जरूरी है । काम करने से ही मनुष्य अच्छी शारीरिक सेहत बनाए रखकर जीवित रह पाता है । सवाल यह है कि क्या महिलाएं और पुरूष एक ही काम कर सकते हैं? अपने रोजमर्रा के जीवन में अपने घरोंें में और खेतों में भी हम देखते हैं कि महिलाआें से एक तरह के काम करवाए जाते हैं और पुरूषों से दूसरी तरह के ।
श्रम को लेकर लिंग-भेद बच्चे के पालन-पोषण के समय से ही शुरू हो जाता है । माता-पिता के बीच संबंध के परिणामस्वरूप बच्चे का जन्म होता है । माँ बच्चे को जन्म देती है और फिर स्तन के दूध या कभी-कभी बोतल के दूध द्वारा उसका पोषण करती है । जब बच्चा मल या मूत्र विसर्जित करता है तो वह उसका शरीर धुलाती है । आमतौर पर माँही बच्चे को नहला-धुलाकर तैयार करती है । फिर वहीं बरतन धोती है और घर की साफ-सफाई करती है । यदि परिवार कपड़े धोने के लिए कोई घरेलु सेवक नहीं रखता तो माँ ही अकेलेसारा काम करती है । घर का झाडू-पोंछा या सफाई का कोई भी अन्य काम आम तौरपर परिवार की महिला सदस्यों द्वारा ही किया जाता है ।
ऐसा नहीं होना चाहिए । बच्चे का स्तनपान के जरिए पोषण कराने के अलावा दूसरा सभी काम दोनों पालकों, महिला और पुरूष द्वारा समान रूप से बांटे जा सकते हैं। पिछले कुछ दशकों में कई समाजों में पुरूषों और महिलाआें ने ऐस बुनियादी घरेलु कामों को आपस में बांटना शुरू कर दिया
है । परंतु अधिकांश मामलों में भारतीय पुरूष ऐसे किसी काम में हाथ नहीं बंटाते। क्यों ?
भारतीय परिवारों में बचपन से ही घर के कामों को लड़कों और लड़कियों के बीच बांट दिया जाता है । लड़कियों को रसोई में माँ की मदद करने के लिए कहा जाता है । सब्जियां काटना, बरतन धोना, कपड़े धोना, घर का झाडू-पोंछा करना इत्यादि स्त्रियों के काम माने जाते हैं । लड़कों को केवलखेती के काम मेंपरिवार की मदद करने और दुकानों से सामान खरीदकर लाने के लिए कहा जाता है । माताएं स्वयं भी न तो लड़कों को घर की साफ-सफाई के कामसिखाना पसन्द करती हैं । इसी तरह वे लड़कियों को खेती के काम पर भेजना पसन्द करती और न ही उन्हें साइकिल से पड़ौस की दुकान तक जाने के लिए कहती है । यदि कोई माँ अपने लड़के और लड़की को हर तरह से काम में प्रशिक्षित करना भी चाहे तो हो सकता है कि पिता इसे नापसन्द करे ।
समाज मानता है कि महिलाएं और पुरूष प्राकृतिक रूप से अलग-अलग काम करने के लिए बने हैं । हर जाति धर्म और वर्ग के परिवारों में इसी तरह की सोच होती है । इसे परिणामस्वरूप श्रम का लैंगिक आधार पर बंटवारा हो जाता है । यह सोचना गलत है कि यदि लड़के खाना बनाते हैं या साफ-सफाई के कामकरते हैं तो उनका पुरूषत्व घट जाता है ओर वे लडकियों जैसे हो जाते
हैं । इसी प्रकार एक भ्रान्ति यह भी है कि यदि लड़कियां वे काम करती हैं जो परम्परागत रूप से केवललड़कों के काम माने जाते हैं, तो उनके नारीत्व में कमी आ जाती है और वे मर्दानी हो जाती हैं । ये गलत और निराधार विचार है ।
कई व्यवसायों में पुरूष और महिलाएं बराबरी से काम करते हैं । कुछ मामलों में तो महिलाएं पुरूषोंें से ज्यादा काम करती हैं । गांवों में ऐसी महिलाएं होती हैं जो खेत जोतती हैं ओर ऐसे पुरूष होते हैं जो बीज बोते हैं । धोबी परिवारों में महिलाएं और पुरूष दोनों ही अपने ग्राहकों के कपड़े धोते हैं । बुनकरों में भी महिलाएं बराबरी से काम करती हैं । कई परिवारों में ऐसे पुरूष होते हैं जो खाना बनाते हैं और महिलांए घर के बाहर निकलकर काम करती हैं । पर उन शहरी परिवारों में जहां महिलाएं अपने घरों से बाहर व्यावसायिकों के रूप में काम करती हैं उन्हें अन्त में दोहरा काम करना पड़ जाता है । ऐसा इसलिए है क्योंकि जब बात परिवार के लिए खाना बनाने पर आती है तो पुरूष रसोई के काम मेंपूरी तरह से भाग नहीं लेते हैं । इस तरह दोहरा काम करने के कारण महिलाआें की सेहत और उनकी ऊर्जा कम हो जाती है ।
श्रम का लैंगिक विभाजन बहुत हद तक पितृसत्ता (ऐसी स्थिति जहां परिवार या समाज में पुरूष हावी रहते हैं ) का परिणाम है । पितृसत्तात्मक समाज लड़कियों और महिलाआें को यह महसूस करने पर मजबूर करता है कि वे लड़कों और पुरूषों से कमतर हैं । इसमें पुरूषों की सोच ऐसी बन जाती है कि वे खुद को श्रेष्ठ समझते हैं । ***

बुधवार, 23 मार्च 2011

पर्यावरण समाचार

पर्यावरण समाचार

गैस त्रासदी : यूनियन कार्बाइड को नोटिस
भोपाल गेस त्रासदी में सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन, डाउ केमिकल्स तथा अन्य को नोटिस जारी
किए । यह कदम केन्द्र सरकार की याचिका पर उठाया गया है । इसमें पीड़ितों का मुआवजा ७१५ करोड़ से बढ़ाकर ५,७८६ करोड़ रूपये करने की अपील की गई है ।
इसके साथ ही शीर्ष कोर्ट ने कहा कि वह आरोपियों के खिलाफ पुन: गैर-इरादतन हत्या का मामला शुरू करने की संशोधन याचिका पर १३ अपै्रल से प्रतिदिन करेगा । इसे सीबीआई ने लगाया है । देश के चीफ जस्टिस एसएच कपाड़िया के नेतृत्व वाली संविधान पीठ ने केन्द्र और सीबीआई की योचिकाआेंपर खुली अदालत में सुनवाई की ।
बेंच ने मुआवजे की रकम बढ़ाने को लेकर केन्द्र की याचिका पर मैकलॉयड
रसेल इंडिया को भी नोटिस जारी किया है । इस कंपनी को फिलहाल एवरेडी इंडस्ट्रीज लि. के नाम से जाना जाता है । इसकी यूनियन कार्बाइड इंडिया लि. में ५०.९ प्रतिशत हिस्सेदारी है । सरकार ने संविधान के अनुच्छेद १४२ के तहत दायर संशोधन याचिका में तर्क दिया है कि १९८९ में मुआवजे के निपटारे मे पर्यावरण को हुई क्षति को ध्यान में नहीं रखा गया । आपने कोर्ट से आग्रह किया है कि वह अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड और उसकी उत्तराधिकारी कंपनी डाउ केमिकल को बढ़ा हुआ मुआवजा देने का निर्देश दे । सीआीबाई ने अपनी याचिका में यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन प्रमुख वारेन एंडरसन एवं अन्य के खिलाफ गैर-इरादतन हत्या के गंभीर मामले पुन: शुरू करने का आग्रह किया है ।

गौरेया को बचाने हेतु बोहरा समाज की पहल
दाऊदी बोहरा समाज ने अपने धर्मगुरू सैयदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन साहब की १००वीं सालगिरह पर विलुप्त्प्राय गौरेया चिड़िया को बचाने का बीड़ा उठाया है । इसके लिए समाज की ओर से पुरे देश के लिए ५२ हजार पिंजरे तैयार किए गए हैं । समाज के इकबाल आदिल ने बताया कि पिंजरे फ्री रहेंगे और इनमें चिड़िया के लिए पहलीबार समाज की ओर से आधा किग्रा की खुराक दी जाएगी । इसके बाद इस खुराक को इंतजाम समाजजन करेंगे ।
बोहरा समाज पर्यावरण संरक्षण के लिए विशेष रूप से चिंतित है और विगत वर्षोंा में भी उसने इस दिशा में सार्थक प्रयास किए हैं । इस दुर्लभ पक्षी पर संकट के बादल के चलते आज इनका वजूद खत्म होने की कगार पर है ।
उच्च शिक्षा शोध में शामिल पर्यावरण
युनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन (यूजीसी) ने उच्च शिक्षा में शोध की गुणवत्ता को प्रोत्साहित करने की योजना के तहत पर्यावरण, नैनोटेक्नोलॉजी, एशियाई दर्शन, डब्ल्यूटीओ ओर अर्थव्यवस्था पर प्रभाव, विज्ञान का इतिहास, तनाव प्रबंधन, रक्षा और सामरिक अध्ययन जैसे नये विषयों को शामिल किया है ।
यूजीसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि आयोग मानविकी, सामाजिक विज्ञान, भाषा, दर्शन, विज्ञान, इंजीनियरिंग एवं प्रौद्योगिकी, फार्मेसी, चिकित्सा विज्ञान, कृषि विज्ञान से जुड़े उभरते क्षेत्र में शिक्षा और शोध को प्रोत्साहित करने पर जोर दे रही है । उच्च शिक्षा में शोध की गुणवत्ता को प्रोत्साहित करने की योजना के तहत आयोग ने युनिवर्सिटी व कॉलेजों के शिक्षकों के लिए विभिन्न संकायों में शोध कार्योंा के लिए ऐसे विषयों पर जोर दिया है, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर बनाया जा सके । इस योजना के तहत आयोग ने राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों, बीमा एवं बैंकिंग, विषयों पर जोर दिया है ।

उद्यानों के लिए पर्यावरणीय दिशा-निर्देश
उद्यानों तथा अन्य जीव अभ्यारण्यों के आसपास के क्षेत्रोंमें होने वाली विकास गतिविधियों की वजह से पारिस्थितिक नुकसान को रोकने के लिए पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने नए दिशानिर्देश जारी किए हैं । इसके तहत संरक्षित क्षेत्र बनाए जाएँगे, जो संरक्षित वन क्षेत्र के लिए ढाल का काम करेंगे । मंत्रालय ने नए पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र संबंधी दिशानिर्देश पिछले दिनों जारी किए हैं ।
मंत्रालय ने नए पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र दिशानिर्देशों का मुख्य मकसद राष्ट्रीय उद्यानों तथा वन्य जीव अभयारण्यों के आसपास की गतिविधियों के असर को न्यूनतम किया जा सके । मंत्रालय ने सभी राज्यों को एक समिति भी बनाने को कहा है जिसमें एक वन्य जीव वार्डन, एक पारिस्थितिकविद् राजस्व विभाग के एक अधिकारी को शामिल किया जाएगा । यह समिति इन तरह के क्षेत्रों के लिए बेहतर तरीके सुझाएगी । दिशानिर्देशों में कहा गया है कि इन क्षेत्रों के आसपास खनन गतिविधियों, आरा मिल, प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग, जलाने वाली लकड़ी के वाणिज्यिक इस्तेमाल और प्रमुख पनबिजली परियोजनाआेंपर प्रतिबंध
रहेगा ।
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