बुधवार, 27 अप्रैल 2011

आवरण


रविवार, 24 अप्रैल 2011

सामयिक


समुद्र तटीय क्षेत्रों का संरक्षण
भारत डोगरा

जापान में आई सुनामी ने एक बार पुन: समुद्र तटीय विकास के बारे में नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है । जापान में आई सुनामी ने वहां के नागरिकों को समुद्र के तल के भी दर्शन करा दिए है । अपने प्रबंधन के लिए विख्यात जापान भी इस बार किंकर्तव्यविमूड़ होकर विनाश को देखता रहा । भारत में भी समुद्र तटीय विकास को लेकर नई चेतना और दृष्टि की आवश्यकता है । क्योंकि सुनामी की विभीषिका हमसे भी अपरिचित नहीं है । आवश्यकता इस बात की है कि जापानी सुनामी को महज परमाणु त्रासदीमानने की भूल न की जाए।
समुद्र तटीय क्षेत्रों के संवेदनशील पर्यावरण को बचाने की चर्चा तो पहले ही जोर पकड़ रही थी, परन्तु जापान में आए जलजले के बाद इस ओर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है कि सुनामी व चक्रवात की स्थिति में समुद्र तटीय क्षेत्रों के जल - जीवन और पर्यावरण की रक्षा कैसे की जाए । समुद्र तटोंके पर्यावरण व जैव- विविधता को बचाने के लिए मैनग्रोव वनों व मूंगे की चट्टानों की रक्षा महत्वपूर्ण मानी गई हे क्योंकि ये सुनामी से रक्षा में भी सहायक है। अत: इस संदभ में इनका महत्व और भी बढ़ जाता है ।
सवाल उठता है कि इस तरह के संवेदनशील इको- सिस्टम की रक्षा के महत्व पर व्यापक सहमति के बावजूद वे नष्ट क्येां होते जा रहे है ? इसकी वजह यह है कि बाहरी तौर पर तटीय क्षेत्रोंके पर्यावरण की रक्षा के बारे में चाहे कुछ भी कहा जाए पर समुद्र तक की मूल्यवान भूमि का प्रबंधन बड़े व्यावसायिक हितों द्वारा ही प्रभावित हो रहा है । इसमें एक ओर बड़े होटल व रिसॉर्ट तो दूसरी ओर निर्यात बाजार में बड़ी कीमत दिलानें वाली झींगा मछली के एक्वाकल्चर फार्म भी शामिल है ।
इसके अतिरिक्त समुद्र तटीय क्षेत्रों में अधिक प्रदूषण वाली अनेक औद्योगिक व खनन परियोजनाआें का प्रवेश भी तेजी से हुआ है । यहां बड़े बांधों व ताप बिजलीघरों का निर्माण भी जोर पकड़ रहा है । यहां सबसे अधिक विवादास्पद मुद्दा तो परमाणु संयंत्रों के निर्माण का है जिनका भारत में महाराष्ट्र के जैतपुरा जैसे स्थानों पर स्थानीय गांववासी जमकर विरोध कर रहे है । इन सब गतिविधियों के बीच यह आश्चर्य की बात है कि तटीय क्षेत्रों के पर्यावरण को बचाने के मुद्दे प्राथमिकता खोते जा रहे है । इसके साथ ही तटीय क्षेत्रों की चक्रवातों व सुनामी का सामना करने का जो सुरक्षा कवच मैनग्रोव वनों, मूंगे की चट्टानों आदि के रूप में मोजूद था, वह भी कमजोर पढ़ता जा रहा है ।
इतना ही नहीं, यहां के लोग यह भी पूछ रह है कि खतरनाक उद्योागों के बढ़ती संख्या में आने से क्या प्राकृतिक आपदाआें से होने वाली संभावित क्षति भी बढ़ जाएगी। प्राय: इन परियोजनाआें का आकलन सामान्य स्थिति के संदर्भ में होता है । यदि चक्रवात व सुनामी जैसी आपदाआें के संदर्भ में यह आकलन किया जाए तो कहीं अधिक चिंताजनक संभावनाएं उत्पन्न होगी । जापान के हालिया जलजले के समय देखा गया कि सुनमी के आरंभिक दौर मेंही जितनी चिंता भूकपं व सुनामी के बारे में प्रकट की गई उतनी ही चिंता इस बारे में प्रकट की गई कि इसका परमाणु संयंत्रों पर क्या असर होगा ? हालांकि जापान के पास इस संदर्भ में आधुनिकतम तकनीक उपलब्ध थी, १ सामयिक
समुद्र तटीय क्षेत्रों का संरक्षण
भारत डोगरा

जिससे भूकंप व सुनामी के समय परमाणु संयंत्र स्वत: बंद भी भी हुए लेकिन गंभीर खतरे की संभावता बनी ही रही ।
भारत के संदर्भ में जहां हाल में परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा के बारे में विदेशी आपूर्तिकर्ताआें के दायित्व के बारे में कई गंभीर सवाल उठाए गए है । वहीं यह संभावना और विकट हो जाती है कि कहीं सुनामी या चक्रवात से परमाणु संयंत्रों पर हुए असर के कारण रेडिएशन रिसाव जैसा कोई बड़ा हादसा न हो जाए । समुद्र तटीय क्षेत्रों में स्थापित हो रहे अन्य जोखिम भरे, खतरनाक रसायनों या ज्वलनशील उत्पादों के पदार्थो के प्रयोग व भंडारण से जुड़े उद्योगों के बारे में कई बार शिकायत मिली है कि यहां खतरनाक व विस्फोटक साज - सामान बहुत समय तक पड़ा रहता है । भारत एक बड़ा तेल आयातक देश है व इसका अधिकांश आयात समुद्री मार्ग से ही होता है । हाल के समय में तेल-रिसाव की घटनाएं भी बढ़ गई है ।
इन सब सवालों को अनेक जन - संगठन व पर्यावरणविद् प्राय: किसानों व मछुआरों की आजीविका पर प्रतिकूल असर के संदर्भ में या जैव - विविधता पर प्रतिकूल असर के संदर्भ में उठाते रहे है । जापान के हादसे के बाद यह जरूरी हो गया है कि इन सब सवालों को सुनामी व चक्रवात के संदर्भ में भी उठाया जाए । सुनामी तो खैर समुद्री क्षेत्रों में आए भूकंप से उत्पन्न होता है, पर जहां तक सामान्य चक्रवातों का सवाल है जलवायु बदलाव के इस दौर मे उनकी संभावना व विनाशक क्षमता बढ़ रही है ।
इसके अतिरिक्त जलवायु बदलाव के दौर में समुद्र का जल - स्तर भी बढ़ रहा है और यदि ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को समय रहते न थामा गया तो समुद्रों का जल-स्तर इतना बढ़ सकता है कि समुद्र तटीय क्षेत्रों का एक बड़ा भाग जलमग्न हो जाएगा । अत: यह बहुत जरूरी है कि जलवायु बदलाव व बढ़ती आपदाआें के दौर में समुद्र तटीय क्षेत्रों के पर्यावरण व जल - जीवन की रक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाए ।
***

हमारा भूमण्डल


खाद्यान्न का संकट कहां है ?
आई.आर.आई.एन

विश्वभर में खाद्यान्न के बढ़ते मूल्य संकट का कारण बनते जा रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि मूल्योंे में संतुलन रखने हेतु सारी दुनिया नई कृषि नीति का विकास करें जिससे कि स्थानीय आवश्यकताआें की पूर्ति ठीक से हो सके।
सन् २०१० का समापन २००८ के बाद के सबसे अधिक खाद्यान्न मूल्यों के साथ हुआ । इस समय विश्व बहुत से मुख्य खाद्यान्नों की अत्यधिक कीमतों के संकट से भी जुझ रहा है । इस वजह से कुछ राष्ट्रों में दंगे हुए है और कम से कम एक सरकार का तख्ता पलट भी हो चुका है । इतना ही नहीं इसकी वजह से दुनियाभर में एक अरब से अधिक लोग भूख का शिकार है । यह बात ध्यान देने योग्य है कि क्या किसी ने खाद्यान्न के मूल्यों में इस उछाल की कल्पना की थी और यदि की थी तो इससे निपटने के लिए क्या कुछ उपाय भी किये थे ? सन् २०१० की स्थिति के मद्देनजर कुछ सवाल सामने आ रहे है जिनका जवाब खोजना अब आवश्यक हो गया है । अधिकाशं विशेषज्ञ इसे अस्थायी मूल्य वृद्धि के रूप में देख रहे है ।
परंतु यह बहस भी जारी है कि क्या खाद्य मूल्य जून २००८ में खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ओ. ) के अंतर सरकार खाद्यान्न समूह के सचिव अब्डोल्रेजा अब्बासिअन का कहना है कीमतों में वृद्धि से हमें धक्का तो पहुंचा है ै। लेकिन हम वैश्विक संकट में नहीं है और अभी वैश्विक आपूर्ति के सामने भी कोई संकट नहीं है । उनका यह भी कहना है कि राष्ट्रों के सामने यह संकट इस बात पर निर्भर करता है कि उनके पास भरपूर आपूर्ति है और उनके पास खाद्यान्न के आयात हेतु वित्तीय क्षमता कितनी है । वहींयूरोपियन आयोग के कृषि प्रवक्ता रोजन वैटी का कहना है कि कुछ वस्तुआें की बाजार में कमी है और औसत मूल्य भी हालिया औसत मूल्यों से अधिक है। लेकिन वे अभी भी २००८ के भावों के आस-पास नहीं है । इस हेतु वे विश्वबैंक के आंकड़े भी प्रस्तुत करते है ।
वहीं २००७-०८ में आए खाद्य संकट पर शेनग्गन फेन के साथ पुस्तक लिखने वाले सह लेखक डेरेक हेडी का कहना है कि वर्तमान वैश्विक वातावरण में बहुत समानता है । उनका कहना है कि यह एक बुलबुले की तरह है । कृषि में आपूर्ति के धीमा होने की वजह मौसमी है । अमेरिका जैसे बड़े कृषि उत्पादक देश में आई एक अच्छी फसल कीमतों को पुन: नीचे ले आएगी ।
विशेषज्ञ इस बात पर एकमत है कि मौसम इसका एक महत्वपूर्ण कारक है । खाद्यान्न विशेषकर गेंहू की कीमतों में सन् २०१० की दूसरी छ:माही में मूल्यों में आया एकायक उछाल रूस और युक्रेन जो कि दुनिया के विशालतम अन्न उत्पादक राष्ट्रों में से है में पड़ा सूखा व आग के कारण है । इस खबर से २०१० की दूसरी छ:माही में कुछ देशों में गेेंहू की कीमतों में ४५ प्रतिशत और कुछ देश में तो ८० प्रतिशत तक की वृद्धि हो गई ं एक अन्य गेहूं निर्माता देश कनाडा को भी अत्यंत खराब मौसम का सामना करना पड़ा और रूस द्वारा गेंहू निर्यात पर प्रतिबंध लगाने से स्थितियां और भी विषम हो गई ।
हेडी विश्व वैश्विक वित्तीय संकट को इसका एक दूसरा कारण मानते हुए कहते है कि अनेक देशों खासकर अमेरिका ने अपनी अर्थव्यवस्था में खूब धन का प्रवेश कराया और ब्याज दरों में भी कमी कर दी । इसके साथ डॉलर के बहुत कमजोर होने ने भी वस्तुआें के अधिक मूल्य की स्थिति पैदा की । इसी के साथ तेल की बढ़ती कीमतों से खाद्यान्न उत्पादन प्रक्रिया और परिवहन की लागत भी बढ़ जाने से खाद्य कीमतों में उछाल आया । हेडी और वेटी ने खाद्यान्न का जैविक ईधन बनाने में इस्तेमाल को भी मूल्य बढ़ाने वाली सूची में शामिल किया है । इसी के साथ वेटी सट्टेबाजी को भी एक बड़ा कारण बताते हुए कहते है कि अगस्त २०१० में युक्रेन और रूस में खराब मौसम की भविष्यवाणी होने के दो हफ्तों के भीतर विश्व में गेहूं के दाम दुगने हो गए ।
अब्बास्सियान का कहना है कि सौभाग्यवश अधिकांश विकासशील देशों में इस वर्ष अच्छी फसल आई है और वे वैश्विक मूल्य वृद्धि से अप्रभावित रहे है । वे कहते है कि लोग कुछेक देशों पर प्रभावों को ही देख रहे है और उन ६०-७० देशों की ओर से आंख मूंदे है, जो कि अप्रभावित है और इसे संकट निरूपित कर रहे है । हालांकि वैश्विक मूल्यों कों घरेलू बाजारों में आने में थोड़ा समय लगेगा क्योंकि मूल्यवृद्धि के प्रभाव का असर तो अधिकांशत: स्थानीय परिस्थितियां ही तय करती है । वहीं विश्व बैंक का कहना है कि उसके विश्लेषण बताते है कि गेंहूं की ऊंची कीमतें कुछ विकासशील देशों तक पहंुच भी चुकी है । आटे के मूल्यों में आई अत्यधिक तेजी में ईधन के मूल्य का भी योगदान है । अफगानिस्तान में अब इतनी क्षमता नहीं बची की वे गेहूं की पिसाई स्वयं कर सके अत: वह पडौसी पाकिस्तान और कजाकिस्तान से आटा आयात करता है । इसके विपरीत केन्या जैसे अनेक देशों में मक्का की अच्छी पैदावार से कीमतों में कमी आई है । परंतु वियतनाम में चावल का उत्पादन घटने से इस खाद्यान्न की कीमतों में वृद्धि हुई है । कीमतों के बढ़ने का पहला शिकार अच्छी गुणवत्ता का भोजन ही होता है । विश्वबैंक द्वारा २००७ -०८ में अफगानिस्तान के २०,००० घरों में किए गए सर्वेक्षण से पता चला कि अधिकांश परिवारों को भोजन की विविधता से हाथ धोना पड़ा और बढ़ती कीमतों से सामंजस्य स्थापित करने हेतु उन्हें पोषण भरे आहार जैसे मांस, फल और सब्जी के स्थान पर गेहूं जैसे खाद्यान्नों को अपनाना पड़ा है ।
हेडी का मानना है कि देशों को अपने खाघान्न भंडारण की सूची जारी करना चाहिए और आयातित खाद्य वस्तुआें पर कर कम करना चाहिए । उनका कहना है कि कुछ मामलों में देश विनिमय दर नीतियों का इस्तेमाल कर महंगाई के प्रभाव को कम कर सकते है । अधिकांश विशेषज्ञ निर्यात पर प्रतिबंध के पक्ष में नहीं है । उनके हिसाब से इससे स्थितियां और बदतर होंगी । वहीं एफएओ का कहना है कि जिन देशों को खाद्यान्न के आयात की आवश्यक पड़ रही है उनके लिए शर्तेअनुकूल करना आवश्यक है । सभी विशेषज्ञ मानते हैं कि दीर्घकालीन हल के लिए सुरक्षा जाल बढ़ाया जाए और जिन देशों में क्षमता है वहां पर उत्पादन भी बढ़ाया जाए ।
यह एक महत्वपूर्ण मसला है । हेडी और फेन द्वारा अमेरिका के कृषि विभाग द्वारा एफएओ और ओईसीडी के साथ मिलकर अगले १० वर्ष के लिए पूर्वानुमान लगाया है जिसमें संतुलन बनाए रखने के लिए सामान्य आपूर्ति और मांग को लिया है तथा जनसंख्या और आर्थिक वृद्धि, तेल की कीमतों का रूख और जैविक ईधन हेतु खाद्यान्नों के इस्तेमाल को ध्यान में रखा है । इस तारतम्य में उनका कहना है अब जबकि संतुलन स्थापित करने वाले मूल्य ही अधिक है ऐसे में कम अवधि के कारक खतरनाक उतार चढ़ाव पैदा करने वाले साबित हो सकते है क्योंकि बाजार में पहले से ही खाद्यान्नों की कमी है ।
हमें विचार करना होगी कि जहां पूर्व में ही बाढ़ आई हुई हो वहां थोड़ी सी बूंदाबांदी भी स्थिति को बहुत खतरनाक बना देती है । हम पहले ही चरम पर पहंुच चुके है। ऐसे में आगे किसी भी तरह की मूल्यवृद्धि के असर अकल्पनीय है । ***

परमाणु संंयंत्र दुर्घटना


हिरोशिमा अभी भी जल रहा है
चिन्मय मिश्र

जापान पर ६ अगस्त १९४५ को परमाणु बम फेंककर अमेरिका ने दूसरे विश्व युद्ध को समाप्त् मान लिया था । इसके बाद वैज्ञानिकों ने इस विध्वंसक ऊर्जा को वरदान में बदलने की ठान ली और परमाणु विद्युत संयंत्र प्रचलन में आ गए ।
इससे पहले द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए निर्मित खतरनाक रसायनों की खपत हेतु खेती को माध्यम बनाया गया और आज खेती से प्रयोग में आने वाले तकरीबन सभी खतरनाक कीटनाशक इन रसायनों के सहायक उत्पाद ही है । भोपाल के यूनियन कार्बाइड मे हुई दुर्घटना को हम दुनिया की भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना के रूप में पुकारते है परंतु यह कमोवेश द्वितीय विश्वयुद्ध की निरंतरता का ही परिणाम है, जिसने सर्वप्रथम भारत के भोपाल, में उसके बाद रूस के चेरनोबिल में और अब जापान के फुकुशिमा में अपनी महती उपस्थिति दर्ज कराई है ।
मीडिया में अधिकांशत: जापान के दाईची स्थित फुकुशिमा परमाणु संयंत्र की चर्चा हो रही है। परंतु वास्तविकता यह है कि जापान के उत्तरपूर्व में स्थित दो अन्य संयंत्रों ओनागावा और तोकाई में भी ठीक इसी समय समस्याएं सामने आई थी परंतु समय रहते उन्हें संभल लिया गया । मगर फुक ुशिमा में स्थितियां बेकाबू होती चली गयी । यहां इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है कि जापान के परमाणु सुरक्षा प्रबंध दुनिया में सर्वश्रेष्ठ माने जाते है । यह बात फुकुशिमा परमाणु संयंत्र के बारे में भी कहीं जा सकती है । यहां यदि एक सुरक्षा उपाय असफल होता है तो दूसरा स्वमेव प्रारंभ हो जाता है। भूकंप का आभास होते ही यहां के परमाणु संयंत्रों ने कार्य करना बंद कर दिया था और ठीक उसी समय डीजल जनरेटरों ने संयंत्र को ठंडा रखने की प्रक्रिया भी प्रारंभ कर दी थी । परंतु एक घंटे बाद नामालूम कारणों से इन जनरेटरों ने कार्य करना बंद कर दिया और स्थितियां बेकाबू हो गई ।
गौरतलब है कि इस परमाणु संयंत्र का डिजाइन अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक्स ने किया था भारत के मुबंई स्थित तारापुर संयंत्र का डिजाइन भी इसी कंपनी ने बनाया है । साथ ही इन दोनों संयंत्रों में एक समानता यह भी है कि दोनों संयंत्रों के कार्यकाल की अवधि १० वर्ष बढ़ाई गई है ।
२६ अप्रैल १९८६ को चेरेनोबिल मेु हुई दुर्घटना के बाद इस हेतु रूस की लापरवाह नौकरशाही को जिम्मेदार ठहराया जा रहा था । लेकिन जापान के ऊपर तो ऐसा कोई आरोप नहीं है ।
इससे यह बात एकदम साफ हो जाती है कि प्राकृतिक आपदाआें से होने वाली क्षति का पूर्वानुमान लगा पाना असंभव है और इस आपदाआें से कोई भी सुरक्षित नहीं है यहां तक कि दुनिया की सर्वाधिक सुरक्षित परमाणु तकनीक भी । चेरनोबिल में हुई दुर्घटना के करीब १५ दिन बाद १० मई १९८६ के आसपास भारत में कल्पक्कम और कुंदनकुलम परमाणु संयंत्र की भौतिक स्वास्थ्य प्रयोगशालाआें में अतिरिक्त परमाणु विकिरण (रेडियो एक्टिव आयोडीन) के तत्व पाए गए थे । वहीं फुकुशिमा परमाणु संयंत्र से निकली रेडियो धर्मिता ८०० कि.मी. दूर रूस स्थित ब्लादीवोस्तक में पहुंच चुकी है । रेडियोधर्मिता का वहां पहुंचना दुनिया की एक सैन्य महाशक्ति रूस और आर्थिक महाशक्ति जापान जो कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, को चेता रहा है कि अब मानवता को बचाने के लिए सैन्य और आर्थिक महाशक्ति बनने के अलावा कुछ और ही होना पडेगा ।
मगर अमेरिका अभी भी अपने पत्ते नहीं खोल रहा है । वैसे अमेरिका हमेशा से सेफ बना रहता है । जापान की सुरक्षा का जिम्मा भी उसी ने ले रखा है । परंतु वह जानता है की दुर्घटना तो आकस्मिक ही होती है । इसीलिए उसने अपने सातवें बेडे को जापान की समुद्री सीमा से १०० मील दूर स्थापित कर रखा है क्योंकि इन परमाणु संयंत्रों में दुर्घटना का सर्वाधिक असर १८ से ३२ मील के दायरे में होता है । इस सातवें बेडे में ५०-६० समुद्री जहाज, ३५० हवाई जहाज और ६०, ००० सैनिक है । जैसे ही उन्हें दुर्घटना की खबर मिली वे हवा की उल्टी दिशा में चल पड़े और उन पर आश्रित जापान हक्का- बक्का खड़ा रह गया । इतना ही नहीं इस बीच हेलीकाप्टर से दौरा कर आए विशेषज्ञों ने फरमाया कि परमाणु विकिरण इतना कम है कि उसे साबुन और पानी से दूर किया जा सकता है । याद करिए कुछ ऐसी ही सलाह भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड में हुई दुर्घटना के बाद भी दी गई थी।
निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले परमाणु ऊर्जा के कुछ अन्य तथ्यों पर भी गौर करना आवश्यक है । मूल यूरेनियम विखण्डन की प्रक्रिया से गुजरने के पश्चात एक अरब गुना अधिक रेडियोधर्मी (रेडियो एक्टिव) हो जाता है और एक हजार मेगावाट वाले परमाणु विद्युतगृह के पर हिरोशिमा पर फेंके गए बम जैसे १००० बमों जितना भयानक विस्फोट होगा।
परमाणु विद्युत उत्पादन में प्रयुक्त होने वाली छड़ें इतनी गरम होती है कि उपयोग के बाद उन्हेंठंडा होने में ३० से ६० वर्षो का समय लगता है और इस दौरान उन्हें बहुत ही मजबूत इमारत में रखकर उन पर लगातार पानी और हवा डालते रहना जरूरी है ।
विकिरण के चपेट में आने से बच्चें में ३०० दिन के बाद शारीरिक विकृति, रक्त व थायराइड के कैंसर सामने आता है । वयस्कों में २ से ५ वर्ष के बाद इसका पता चलता है । साथ ही ह्दयरोग व अन्य रोग भी बड़ी मात्रा में लोगों को जकड़ लेते है । कार्यरत संयंत्र को ठंडा बनाए रखने के लिए प्रति मिनट १० लाख गैलन पानी की आवश्यकता पड़ती है । पानी की आपूर्ति में एक मिनट से भी कम की बाधा आने पर इसका तापमान ५००० डिग्री फेरनहाइट पर पहुंच जाता है । जिससे सिर्फ सीमेंट कांक्रीट का ढांचा ही नहीं बल्कि उसके नीचे की धरती भी पिघल जाती है । यानि आपके पास संभलने के लिए एक मिनट से भी कम का समय है । इससे इसकी मारक क्षमता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है । और इनके समुद्री किनारे स्थापित करने के औचित्य को भी सिद्ध किया जा सकता है ।
परंतु भारत में इन्हें न केवल समुद्र किनारे बल्कि मध्य में भी निर्मित किया जा रहा है । और पानी की घटती उपलब्धता भारत में किस संयंत्र को कब फुकुशिमा बना देगी कहा नहीं जा सकता । वहीं यदि समुद्र तटों पर वर्तमान में कार्यरत व प्रस्तावित परमाणु संयंत्रों पर गौर करें तो स्थिति की नजाकत को आसानी से समझा जा सकता है । भारत में हिंद महासागर, अरब सागर और प्रशंात महासागर आकर मिलते है । ध्यान दें तो हम पाएगें कि हिंद महासागर के क्षेत्र में तमिलनाडु के कुंदन कुलम, कर्नाटक के कै गा महाराष्ट्र के जैतापुर के और तारापुर में प्रशांत महासागर के नजदीक तमिलनाडु में कलपक्कम, आंध्रप्रदेश में कोवादा और पश्चिम बंगाल में हरिपुर में तथा अरब सागर के समीप गुजरात में मीठी विर्दी और काकरापारा में इन संयंत्रों की स्थापना या तो हो चुकी है या प्रस्तावित है । इस प्रकार भारत का कोई भी हिस्सा अब पूर्ण रूप से सुरक्षित नहीं बचा है ।
पीटर हेडफील्ड ने सन् १९९१ में एक पुस्तक लिखी थी । साठ सेकण्ड जो कि दुनिया बदल देगें । इस पुस्तक में उन्होनें टोक्यों के आसपास आए भीषण भूकंप के बाद दुनियाभर में आने वाले परिवर्तनों का पूर्वानुमान लगाते हुए लिखा था इससे बाकी का विश्व जापान से भी ज्यादा बुरी तरह से प्रभावित होगा । आज २० वर्ष पश्चात उनकी बात शब्दश: सही साबित हो रही है । भारत जो कि पूर्व में कैगा और नरोरा परमाणु बिजलीघरों में छोटी दुर्घटनाओ का शिकार हो चुका है जापाना में हुई दुर्घटना से सबक लेने को तैयार नही है । मंत्रालयों की आपसी खींचतान और प्रधानमंत्री के व्यक्तिगत हठ के आगे पूरा भारत नतमस्तक सा नजर आ रहा है ।
अमेरिका से हो रहे परमाणु समझौते के समय अनेक संगठनोंऔर व्यक्तियों ने परमाणु ऊर्जा के खतरों से आगाह भी किया था लेकिन हमें यह मानने पर मजबूर कर दिया गया कि परमाणु ऊर्जा ही एकमात्र विकल्प है । उत्तरपूर्वी जापान में आई सुनामी और भूकम्प को महज एक दुर्घटना की तरह लेने की बात नहीं बनेगी । इसे एक चेतावनी के रूप में लेना होगा, और सारी विध्वंसक तकनीकों के इस्तेमाल पर पुनर्विचार करना होगा । इसके लिए आवश्यक है कि हम अपनी जीवनशैली और उपभोगवादी प्रवत्ति में परिवर्तन लाएं । जापान में हुई परमाणु दुर्घटना के बाद जापान सरकार की पहली सरकारी सलाह यह थी कि एयर कंडीशनर न चालये जाएं । फैज अहमद फैज ने लिखा है
हर एक दौर में, हर जमाने में हम
जहर पीते रहे, गीत गाते रहे
जान देते रहे, जिन्दगी के लिए ।
वहीं जापानी कवि ताकीनावा भी अपनी ही हड्डी बनने बात करते है । महात्मा गांधी ने बहुत पहले साध्य के लिए साधन की पवित्रता का सिद्धांत प्रतिपादित कर दिया था । अब यह हमारे ऊपर है कि हम उस बारे में क्या सोचते है । परंतु हम अपने बच्चें के भविष्य के बारे में तो अवश्य ही सोचते है । तो सोचिए कि वे कैसे एक सुरक्षित, शांत व सहज जीवन जी सकेंगे । ***

कविता

पर्यावरण पर कुंडलियाँ
रामचरण `आजाद'

यारों लगता चढ़ गया, मानव मति को जंग ।
काट - काट कर पेड़ वो, करता कुदरत तंग ।।
करता कुदरत तंग, मौत को देता न्योता ।
खिलें कहां से फूल, बीजों काँटों को बोता ।।
कहे `राम' कविराय, मानुज न तरू को मारो ।
दें खानें को फू्रट, सुलाते छाया यारों ।
बेदर्दी नर पेड़ पर, नित्य चलाए आर ।
बिना वन कैसे बरसे, बरषा मूसला धार ।।
वरष मुसलाधार, धरा की प्यासी मिटाती ।
उठे महक सब ओर, हरी हो भू की छाती ।।
कहें राम कविराय, रखो वृक्ष से हमदर्दी ।।
जीवन - दाता पेड़ , बनो ना तुम बेदर्दी ।
मनुज रहा कर भूल, मारकर जीवन दाता ।
युगों - युगों से रहा, पेड़ और नर का नाता ।।
कहें राम कविराय, समझ नहीं जमाने को ।
उसको ही मारते, देय डाल जलाने को ।।
उपकारी ना पेड सा, करो मनुज कुछ ध्यान ।
सच्चे नीत के सीने, तुम ठोको न कृपान ।।
तुम ठो कोन कृपान , दर्द होता है भारी ।
बिना पेड़ के गीत, बढेंगी रोज बीमारी ।।
कहे राम कविराय, लगाओ क्यारी क्यारी ।
हृदय धरो यह ज्ञान, पेड़ सच्चे उपकारी ।।
***

विश्व वसुंधरा दिवस पर विशेष


क्यों अनमनी है वसुंधरा
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल

हमारी वसुधा, रत्ना, सुवर्ण, जल, प्रजापति की कन्या । देवताआें के गण की अधिपति, जिसके आठ भेद है - धर, धु्रव, सोम, विष्णु, अनिल, अनल , प्रत्यूष और प्रभास । ऐसी वसुधा अपनी उर्वरा गोद में समस्त जीवों वनस्पतियों को एक स्थान पर समेटने का उद्यम करती है । कुबेर, शिव, सूर्य, वृक्ष, साधु आदि उसके सहायक है । धरती, सविता से छिटक कर अग्नि पुष्प सी प्रकट हुई और घूमने लगी अपनी धुरि पर और प्रदक्षिणा करने लगी अपने जनक आदित्य की । वसुधा अपनी समस्त शक्तियों के साथ अग्नि पुष्प से हिम पुष्प बनी किन्तु फिर भी अग्नि गर्भा ही रही क्योंकि उसे पकाने थे बीज, अन्न और धन- धान्य ताकि धरती पर पोषण क्रम चलता रहे अनवरत, अविराम । ऐसी मातृवत्सला वसुधा आज आकुल - व्याकुल है । प्रश्न यह है कि क्यों अनमनी है वसुधा?
हम अब धरती पर भार बनते जा रहे है और भय का वातावरण बना रहे है। आज नृतत्व, पार्थिव तत्व पर हावी हो रहा है जिससे धरती बेहाल है, प्रकृति लाचार है, पर्यावरण छीज रहा है और आदमी चीख रहा है । हम जीवन यापन का जो ढंग एवं जीवन शैली अपना रह है वह जीवनाधारी परितंत्र को तहस - नहस कर रहा है । नदियां आँसू बहा रही है, निर्वृक्ष हो रहे है वन, क्षत-विक्षत हो रहे है पर्वत, और टूट रहे है दृढ़ता के अनुबंध । आखिर हमारी धरती कब तक भार उठायेगी ।
तृण विहीन धरती अग्नि तपन से अकुलाएगी । जरा ठिठके, जरा विचारें कि आभारी रहते हुए हम धरती का भार तो नहीं बनते जा रहे है ? कहीं हमनें अपनी धरती के खिलाफ ही तो अघोषित युद्ध नहीं छेड़ दिया है ? क्या हमारी धरती हमारी ही हिंसक प्रवृत्तियों से मर रही है। तमाम प्रश्न प्रतिप्रश्न है । हमें अपनी धरती को बचाना है तो चिंतन करना ही होगा, संभलना ही होगा, वर्ना कैसे बचेगी वसुधा ? और कैसे हमारी उदर पूर्ति हेतु अनवरत मिलेगा वसुधान ? क्या सही दिशा में चल रही है हमारा अन्वेषण - अनुसंधान ?
प्रकृति पर विजय पाने की लालसा में हमनें अनेक अविष्कार किये, भौतिक विकास की शीर्षता पाने से पूर्व ही प्राकृतिक आपदाआें ने हमें फिर धरती पर ला पटका । सच तो यह है कि हमने वसंुधरा के तन को बुरी तरह नौच कर तृण विहीन और मलिन कर डाला है । जैव विविधता खतरे में है । तमाम पशु- पक्षी, पेड़ - पौधे, जड़ी बूटियाँ लुप्त् हो चुके हैअथवा लुप्त् प्राय है । मनुष्य भी आपदाआें से अभिशप्त् एवं व्याधि ग्रस्त है । हमनें भूमि को सेहत को खराब किया है । कुप्रबंध के कारण २५ से ५० प्रतिशत भूमि बेजान हो चुकी है । भूक्षरण में वृद्धि हुई है । खेती के परम्परागत तरीकों को छोड़कर हमने जो उन्नत तकनीक अपनाई है उससे धरती की उर्वरा शक्ति में और भी कमी आई है । विश्व में मरूस्थल बढ़ रहा है ।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार प्रति मिनट ४७ हेक्टेयर भूमि रेगिस्तान में बदल रही है । हमने पृथ्वी पर ऐसे उपक्रम रच डाले है कि वह दर्द से बेहाल है । दरअसल हम पृथ्वी की जीवनदायिनी ममता का परिहास उड़ रहे है । पृथ्वी के खिलाफ ही जंग कर रहे है । इस जंग की जड़ें हमारी अर्थव्यवस्था में है जो कि पर्यावरण और नैतिकता का सम्मान नहीं कर रही है । हमारी रीतियाँ और नीतियाँ, असमानता, अन्याय और लालच पर टिकी है । इन नीतियों से मिलने वाली खुशी टिकाऊ हर्गिज नहीं हो सकती है । इम इस तथ्य को भी भूल रहे हैं कि दुनिया में हर चीज बिकाऊ नहीं होती । वसुधा तो हमारा हर भार सहकर हम पर अपनी ममता लुटाती है । तृण-तृण से स्वयं बिंध कर हमारा भरण - पोषण करती है । किन्तु हमने पृथ्वी के खिलाफ ही बाजार खड़ा कर दिया है । क्या सरेआम ही लुटवा देगें वसुधा की अस्मिता ? यह विचारणीय प्रश्न है ।
हमारे जल जंगल जमीन पर, हमारे जीन (पित्रेक), कोशिका और हर अंग प्रत्यंग पर, हमारी जैव विविधता और सुगंध पर कौन रख रहा है अपना क्रूर पंजा और कर रहा है हमारी निजता को दर किनार ? कौन हमारे दिल - ओ - दिमाग पर जमाता जा रहा है अपना कब्जा ? क्यों हल - कुदाल बनाने वाले हाथ बना रहे है हथियार? क्यों हम उन रसायनों के प्रयोग पर सावधानी नहीं वर्तते जो हमारे भोजन को जहरीला कर रही है । हम धरती के साथ खिलवाड़ कर रहे है । हम बिना सोचे विचारें वह प्रविधियाँ अपनाते जा रहे है जो हमेें अंतत: नुकसान पहुँचा रही है । हमने संसाधनों को केवल लूटा है । उन्हें सहेजने का कोई भी कारगर प्रयास ईमानदारी से नहीं किया है । जब प्रकृति का सबकुछ लुट जायेगा । तब आदमी को होश आयेगा । और तब आदमी किसी अन्य को नहींवरन स्वयं अपने को लुटा पिटा जायेगा। हम करनी - भरनी का भाव भूल रहे है । हम जैसा बोएगें वैसा ही तो काटेंगे । हम जो कुछ देंगे वही तो पाएंगे ।
हम भौतिक रूप से जितने समृद्ध हो रहे है, सांस्कृतिक, नैतिक एवं पर्यावरणीय दृष्टि से उतने ही निर्बल एवं निर्धन हो रहे है । हम उस आधार को ही खो रहे है जहाँ हम आज भी खड़े है । हम यह भूल रहे है कि हम धरती का अन्न खाकर, पानी पीकर और प्राण वायु का सेवन कर ही जिन्दा है । दाल रोटी खाओ प्रभु का गुन गाओ यह भरे पेट की संतोषपूर्ण अभिव्यक्ति है किन्तु अब तो दाल रोटी भी दुर हुई जा रही है । चारों और पसरने लगी है भूख । हाय महंगाई तू कहाँ से आई यकीन मानिए यह मँहगाई कहीं ओर से नहीं आई । हमने ही अपने हाथों से आग लगाई और अब महसूस कर रहे है उसकी तपन । और सियासतदान भी मँहगाई रोकने के प्रति प्रकट कर हरे है अपनी लाचारी । ऐसे में बेचारी जनता कहाँ गुहार लगाए ? यह वैचारिक प्रश्न है ।
हमारी नीतियाँ ही ऐसी है कि कृषि और कृषक दोनों ही आहत है । धरती से उत्पादन घट रहा है। कृषि लागत बढ़ी है । इसका संबंध कृषि के बदलते स्वरूप और उसमें ऊर्जा या उर्वरकों के प्रािप्त् हेतु पेट्रोलियम पदार्थो पर बढ़ती निर्भरता भी है । खेती में जुताई, गुड़ाई निराई, कटनी, दौनी (थ्रेसिंग) आदि कार्यो में मशीनों का प्रयोग बढ़ा है जिनमें ऊर्जा हेतु पेट्रोलियम पदार्थ इस्तेमाल होते है । एक तथ्य और है कि प्राकृतिक तेल के स्त्रोत घटने की चिंता से उबरने के लिए मक्का गन्ना या अन्य उपज से एथनोल पैदा किया जा रहा है । जेट्रोफा से डीजल बनाया जा रहा है अत: खेतों में खाद्यान्न की जगह जेट्रोफा उगाया जा रहा है । इसमें रकबा घट रहा है । और खाद्यान्न की उपलब्धता पर दबाव बनता जा रहा है । स्वाद के लिए आदमी माँस खा रहा है । माँस के उत्पादन हेतु दस गुना अधिक अन्न की खपत होती है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दबाव में लिए गए निर्णय भी आत्मघाती सिद्ध हो रहे है । और हम सो रहे हैं ।
कृषि क्षेत्रों की लगातार उपेक्षा हो रही है । उर्वरक एवं कीटनाशी के रूप में मानों धरती के साथ रासयनिक युद्ध छेड़ दिया हो । पारंपरिक बीजों के स्थान पर हमारी धरती की माटी और जलवायु के लिए अनुपयुक्त हाइब्रिड बीज किसानों को दिये जा रहे है । जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा आयतित है । यह बीज हमारी धरती के लिए माफिक तथा मुफीद नहीं हैं । कृषि प्रधान देश भारत की अपनी घाघ भडडरी की कहावतों को भूल हर हजारों करोड़ रूपया खर्च कर के हम उन विदेशी विशेषज्ञों से अपने किसानों को रू-ब-रू करा रहे है । जो विदेशी कम्पनियों के एजेन्ट है और भारतीय कृषि व्यवस्था को चौतरफा चौपट करने का षडयंत्र रच रहे है ।
समाचार है कि भारत सरकार ने अमेरिका से कृषि क्षेत्र में अनुसंधान हेतु बड़ा समझौता किया है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के यह एजेन्ट भारत में अपने हित साध्य ज्ञान को बाँटेगे । भारत के किसानों को अपने प्राच्य समुन्नत ज्ञान से दुर ले जाकर उन्हें अपनी जड़ों से काटेंगे । यूूं भी अमेरिका तथा यूरोपियन देशों का यही प्रयास तो सदा से रहा है कि भारत में कृषि की कमर टूटे, लागत बढ़े । ताकि भारत उसका मोहताज हो जाये । ताकि अपने यहां उत्पादित अखाद्य अनुपयुक्त खाद्यान्न को भारत में खपाया जाये । हमने औद्योगिकीकरण को वरीयता दी । कृषि के प्रति उपेक्षा का भाव रखा । यही कारण है कि अब जरूरी चीजों के भाव सातवें आसमान पर है । असमान वितरण भी महंगाई का बड़ा कारण है । बढ़ती आबादी ओर जमाखोरी का जोर भी है । कृषि तकनीक अब स्वनिर्भरा नहीं रही परम्परागत हल और बैल की जोड़ी को हम कभी का खेतों से हटा चुके है । कृषि के प्रति कृषकों का मोहभंग हुआ है । हमारे संज्ञान में अब मशीन ही मशीन है ।
हम यह तथ्य भूल रहे है कि देश में कृषि कर्म रोजगार देता है । रोजगार का दो तिहाई हिस्सा कृषि एवं कृषि आधारित प्रौद्योगिकी से जुड़ा है । अत: इस ओर भी सजगता जरूरी है । कि हम विकास अवश्य करें किन्तु कृषि को न नकारें । कहने का भाव यह है कि हमें अपनी वसुधानी- वसुधा में परिव्याप्त् प्रकृति तत्वों का सम्मान करना चाहिए तथा पृथ्वी से लगाव रखना चाहिए । प्रसिद्ध कवि त्रिलोचन की काव्य पंक्तियों में कहा गया है कि -
पृथ्वी मेरा घर है ,अपने इस घर को अच्छी तरह से मैं नहीं जानता
हाथों में वायु है आँखों में आकाश
सूरज की आभा को देखता हूँ
तारे सब सहचर है मेरे
पेड़ अपनी उंगलियों टहनियों को
हिला- हिलाकर मुझे बुलाते हैं
कानों में कहते है
आओ ... आओ यहां मेरे पास
बैठो जरा सुस्ताओ .....
***

जनजीवन


प्लास्टिक पर अधूरा प्रतिबंध


पर्यावरण मंत्रालय के प्लास्टिक उपयोग संबंधित नए नियमों को केवल पान मसाला और तम्बाकू उत्पादों पर ही लागू किया गया है । जबकि आवश्यक है कि इनका उपयोग खाद्य सामग्री के भंडारण के लिए भी प्रतिबंधित हो । धातु जड़ित प्लास्टिक का रिसायकल न हो पाना भारत में अपशिष्ट निपटान को और भी संकट में डाल रहा है । नियमों को आधा - अधूरा लागू करना यह शंका भी पैदा कर रहा है । कि मंत्रालय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दबाव में तो नहीं आ गया है ?
केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय प्लास्टिक अपशिष्ट या कचरे से निपटने के मामले मेंगंभीर नजर नहीं आ रहा है । ७ फरवरी को प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियमों के संबंध में अधिसूचना जारी करते हुए उन्होनें केवल गुटखा, पान मसाला और तम्बाकू के छोटे- छोटे पैकेट में प्लास्टिक के उपयोग पर रोक लगा दी । प्लास्टिक अपशिष्ट (प्रबंधन एवं निपटान) नियम जिसने कि १९९९ के रिसायकल्ड (पुन: चक्रीय) प्लास्टिक निर्माण एवं उपयोग नियमों का स्थान लिया है, में किसी भी अन्य प्रकार के प्लास्टिक पैकेजिंग को प्रतिबंधित नहीं किया है ।
कचरा बीनने वालों के साथ कार्य कर रहे चिंतन पर्यावरण एवं शोधकार्य समूह की भारती चतुर्वेदी का कहना है गुटखे के पैकेट धातु आवरण वाले प्लास्टिक से बनाए जाते है । ठीक इसी तरह आलू के चिप्स और शैम्पू के पैकेट भी बनाए जाते है । मंत्रालय को सभी तरह के धातु आवरण वाले प्लास्टिक पैकेटों पर रोक लगानी चाहिए थी । भारती उस विशेषज्ञ समूह की सदस्य थी, जिसका गठन मंत्रालय ने नियमों पर मसौदा स्तर पर आई आपत्तियों को सुनने हेतु किया था । उनका कहना है कि अधिसूचित नियम केवल पान पराग और गुटखा को इसलिए लक्षित कर रहे है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने १ मार्च से इन उत्पादों की पैकिंग प्लास्टिक पैकेटों में करने से रोग लगा दी है ।
सन् २००९ में जारी मसौदा नियमों ने धातु जड़ित बहुतलीय (प्लास्टिक, कागज और एल्यूमिनियम फोइल) पर भी प्रतिबंध की सिफारिश की है क्योंकि पुनचक्रीयकरण (रिसायकलिंग) नहीं हो सकता है । इसका सीधा सा अर्थ है यह है कि आलू की चिप्स में इस्तेमाल की जाने वाली पैकेजिंग ओर टेट्रा पैकेजिंग पर तुरंत प्रभाव से प्रतिबंध लग जाना चाहिए । मंत्रालय के सहसचिव राजीव गौबा से यह पूछे जाने पर कि अन्य उत्पादों में धातु जड़ित प्लास्टिक के उपयोग पर रोक क्यों नहीं लगाई गई । इस पर अपने निर्णय को न्यायोचित ठहराते हुए उन्होनें कहा कि धातु जडित गुटखा पैकेट शहरी क्षेत्रों के अपशिष्ट में सर्वाधिक योगदान करते है । अपने दावे की प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए उन्होनें कोई आंकड़ा प्रस्तुत नहीं किया ।
नए नियम क्या कहते है ?
* प्लास्टिक के सभी थैलियां न्यूनतम ४० माईक्रोन मोटाई की हो ।
* खुदरा व्यापारी ग्राहकों को मुफ्त में प्लास्टिक थैली नहीं देंगे ।
* प्लास्टिक सामग्री का गुटखा, पान मसाला और तंबाखू के पैकिंग में इस्तेमाल नहीं होगा।
* प्लास्टिक की सभी थैलियों पर इसके निर्माता का नाम व मोटाई के साथ यह ु उल्लेख भी आवश्यक है कि यह रिसायकल्ड है या नहीं।
नियमों में नगरीय निकायों के लिए अनिवार्य कर दिया गया है कि वे प्लास्टिक कचरे को एकत्रित करने एवं उनके रिसायकलिंग के लिए केन्द्र स्थापित करें और निर्माताआें से कहें कि वे इस कोष (धन) उपलब्ध कराएं ।
विशेषज्ञ समिति के सदस्य और गैर लाभकारी संगठन टाक्सिक लिंक के रवि अग्रवाल का कहना है कि नियमों को ढीला कर दिया गया है । हमने सुझाव दिया था कि इन केन्द्रों की स्थापना और प्रबंधन दोनों ही कार्य उद्योग को ही करने चाहिए । नियमों के धन उपलब्धता को लेकर तो स्पष्टता है लेकिन रिसायकलिंग केन्द्रो के प्रबंधन को लेकर दुविधा बनी हुई है । प्लास्टिक उद्योग ही परिवर्तन को प्रभावित कर सकता है । नए नियम कहते है कि दुकानदार द्वारा किराना या अन्य उत्पादों के साथ मुफ्त दिए जाने वाले प्लास्टिक थैले ४० माईक्रान (०.००४ मिलीग्राम) से कम मोटाई के नहीं होंगे ।
नियम कहते है कि सभी प्लास्टिक थैले भले ही वे रिसायकल ही क्यों नहीं हुए हो, पर निर्माता का नाम और रजिस्ट्रेशन संख्या, मोटाई और प्लास्टिक का प्रकार लिखा होना आवश्यक है ।
पिछले नियमों के अनुसार प्लास्टि थैली न्यूनतम २० माइक्रोन की मोटाई की होनी चाहिए । ठोस अपशिष्ट विषय पर कार्य कर रहे एक समूह टॉक्सिक वाच के गोपालकृष्ण का कहना है कि अपशिष्ट प्रबंधन का आधारभूत सिद्धांत है कि उत्पादन से ही परहेज किया जाए । उनका कहना है २० के स्थान पर ४० माइक्रोन की थैलियों का इस्तेमाल और अधिक प्लास्टिक को प्रचलन में लाएगा । परंतु अहमदाबाद स्थित पर्यावरण शिक्षण संस्थान की रीमा बनर्जी का कहना है कि प्लास्टिक बैग की मोटाई को ४० माइक्रोन करने से रिसायकलिंग को प्रोत्साहन मिलेगा क्योंकि २० माइक्रोन की थैलियों को रिसायकल करना काफी कठिन होता है ।
प्लास्टिक बैग के निर्माता जहां नए नियमों से संतुष्ट नजर आते है वहीं वानस्पतिक प्लास्टिक थैलियां बनाने वाले इन नियमों से नाराज है । नियमों में कहा गया है भारतीय मानकों मानकों के अनुरूप ही इनके नष्ट होने की क्षमता तय की जा सकेगी । साथ ही वानस्पतिक प्लास्टिक थैलियों की खाद्य पदार्थो में इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई । अर्थसोल इंडिया जो कि आलू के स्टार्च से प्लास्टिक थैली बनाते है का कहना है अन्य देशों में वनस्पति से बनने वाली थैलियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है अगर ये नियम लागू हो गए तो दुनिया हम पर हंसेगी । उनका यह भी कहना है क ४० माईक्रोन वाला मानक हम पर लागू नहीं होता क्योंकि वानस्पातिक थैलियां तो स्वमेव नष्ट हो जाएगी । वहीं गोपाल कृष्ण का कहना है कि विघटन (नष्ट) की श्रेणी वाली धारा वैसे ही निरर्थक जान पड़ती है क्योंकि या तो थैली का विघटन होता है या नहीं होता। इसके अलावा बीच का कोई अन्य रास्ता नहीं है । कृष्ण सड़क निर्माण और सीमेंट कारखानों की भटि्टयों में प्लास्टिक थैली के उपयोग की आलोचना करते हुए कहते है यह जमीन भराव और प्लास्टिक के जलाने के अलावा और कुछ नहीं है ।
नए नियम को कुछ प्रशंसा भी प्राप्त् हुई है चतुर्वेदी का कहना है कि इतिहास में पहली बार कचरा बीनने वालों की भूमिका को मान्यता प्राप्त् हुई है । वहंीं अखिल भारतीय कबाड़ी मजदूर संगठन जो कि कचरा बीनने वालों की संस्था है, के राष्ट्रीय संयोजक शशि पंडित का कहना है कि ये नियम केवल कागजों पर ही अच्छे दिखाई देते है । अब जबकि घरों से कचरा इकट्ठा करने तक का निजीकरण हो गया है ऐसे में कचरा बीनने वालों के कचरे को इकट्ठा करने और उन्हें रिसायकल करने के सभी अधिकार कमोवेश समाप्त् हो गए है । भारत में अपशिष्ट प्रबंधन के एक भी ठेके को श्रमिकों की एसोसिएशन का समर्थन प्राप्त् नहीं है । ***

प्रदेश चर्चा


पंजाब : जमीन से उपजा जहरीला रसायन
डॉ. कश्मीर उप्पल

आधुनिक कृषि को लोकप्रिय और विस्तारित करने के लिए पंजाब को आदर्श की तरह प्रस्तुत किया गया था । चार दशक पश्चात पंजाब की उपजाऊ भूमि की उर्वरता कमोवेश समाप्त् हो चली है और उत्पादकता रासायनिक खादों और कीटनाशकों की बंधक बनकर रह गई है । आज पंजाब के आधुनिक उन्नत खेती ने केवल उपजाऊ भूमि को नष्ट किया है बल्कि वहां के सामाजिक ताने- बाने को भी तहस-नहस कर दिया है । वहां के निवासियों खासकर बच्चें में कैंसर और दिमाग के अविकसित होने के बढ़ते मामलों ने डर का वातावरण बना दिया है ।
मध्य पूर्व की कुछ प्राचीन सभ्यताआें के विलोप का कारण अब हमें ज्ञात हो गया है । इन उन्नत सभ्यताआें ने अपनी अनाज की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए सिंचाई सुविधाओ का जाल बिछाया था । लेकिन वे अपनी उसी जाल का शिकार बनी । सबसे उपजाऊ जमीन जल ठहराव और लवणीकरण के कारण उनके हाथ से चली गई थी । तब लोग भूमिगत जलस्तर उठने की पेचीदगियों से परिचित नहीं थे । द वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट के लेस्टर ब्राउन ने विश्वव्यापी आंकड़ों से यह सिद्ध किया है कि जल ठहराव और लवणीकरण के कारण कई दशोंमें कृषि भूमि दम तोड़ चुकी है ।
वर्तमान कृषि विकास की नीतियों के फलस्वरूप भारत में दोनों तरह की स्थितियां मौजूद है । एक तरफ नहरों के जाल के फलस्वरूप वहीं दूसरी ओर भूमिगत जल के अतिदोहन के कारण भूमिगत जलस्तर आधुनिक खेती का काल बन गया है । योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेकसिंह अहलुवालिया ने पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाशसिंह बादल को पत्र लिखकर पंजाब की कृषि पर चिंता जताई है । फिल्मकार अनवर जमाल ने दिल्ली स्थित एकत्र समूह के सहयोग से पंजाब की खेती पर एक सारगर्भित डाक्यूमेंटरी हार्वेस्ट ऑफ ग्रीफ (दुखों की खेती) बनाई है । इस फिल्म (डाक्यूमेंटरी) का सार है, पंजाब में खेती के असफल होने के प्रमुख कारण भाखड़ा बांध परियोजना का असफल होना और पानी की लागत बढ़ जाना ।
इस साल खरीफ की सिंचाई के लिए बिजली खरीदने के मद में पंजाब सरकार को अठारह सौ करोड़ रूपयों की जरूरत है । सरकार अपने किसानों को मुफ्त मेंबिजली देने के लिए योजना आयोग व केन्द्र सरकार से यह राशि चाहती है, वहीं दूसरी और पंजाब का जलस्तर खतरनाक स्तर पर पहुंचने के संकेत दे रहा है ।
योजना आयोग का मानना है कि पंजाब में जल के अतिदोहन से कृषि की परिस्थितियां गंभीर हुई है । अधिक रसायन और अधिक पानी का यह दुष्चक्र भारतीय कृषि का विषैला चक्र बन गया है जिसने कृषि का रंग हरे से लाल कर दिया है । सन् १९६६ से १९७० के मध्य पंजाब को आदर्श कृषि के मॉडल के रूप में उभारा गया था । यह बात बहुत गौरव से बताई जाती है कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल मे पंजाब का मात्र १.५ प्रतिशत भू भाग है और पंजाब देश के कुल गेंहू उत्पादन का २३ प्रतिशत, चावल का १० प्रतिशत और कपास का भी १० प्रतिशत पैदा करता है । यहां फसल की गहनता १८६ प्रतिशत है अर्थात् एक के बाद तत्काल दूसरी फसल ले ली जाती है ।
पंजाब में आधुनिक खेती की शुरूआत भाखड़ा बांध के निर्माण के साथ शुरू हुई थी । आज पंजाब में १५ लाख ट्यूबवेल है । वर्ष १९८० तक पंजाब में औसतन ७३९ मिली मीटर वर्षा होती थी जो कि २००६ तक घटकर ४१८.३ मिलीमीटर रह गई । सबमर्सिबल पम्प जिसे पंजाब में किसान मच्छी मोटर कहते है के प्रचलन से अधिक गहराई से जलदोहन की परम्परा शुरू हुई है । कुल सिंचित क्षेत्र के ६८ प्रतिशत भाग की सिंचाई निजी और सरकारी ट्यूबवेलों से होती है । भूमिगत जल के अतिदोहन के परिणामस्वरूप पंजाब के १४१ प्रखंडों में से ११२ में भूमिगत जल स्तर खतरे के निशान से भी नीचे चला गया है ।
पंजाब सरकार ने भूमिगत जलस्तर के आधार पर भूमि को तीन क्षेत्रों में बंंाटा है । अधंकारपूर्ण क्षेत्र (डार्क जोन) जिसमें६५ प्रतिशत से ८५ प्रतिशत जल का शोषण हो चुका है व सफेद क्षेत्र (व्हाईट जोन) जिसमें ६५ प्रतिशत तक का जल का दोहन हुआ है पंजाब के हर जिले में अंधकारपूर्ण जल क्षेत्र है । प्रदेश मे जमीन के भीतर पानी जमा रकने की गति से पानी निकालने की गति एक सौ पैंतालीस प्रशित ज्यादा है । पंजाब के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल ५०.३३ लाख हेक्टेयर है, जिसमें से ४२.०४ लाख हेक्टेयर में कृषि की जाती है । इसका अर्थ है कि पंजाब में गैर-कृषि भूमि का क्षेत्र बहुत कम है और उसका भी उपयोग गांव, शहर, सड़क रेल आदि के लिए हो रहा है । इस तरह भूमि को सांस लेने की भी फूर्सत नहीं है । भूमि पर या तो खेती है या सीमेंट के जंगल ।
पंजाब की खेती में भी क्षेत्र के अनुसार पानी और रसायनों के अत्यधिक उपयोग में विभिन्नता पाई जाती है । पंजाब के मालवा विशेषकर भटिंडा, फरीदकोट, मानसा, संगरूर और मोगा जिलों में पंजाब के कुल कीटनाशकों का ७० प्रतिशत उपयोग में लाया जाता है । यह क्षेत्र पंजाब का कपास बेल्ट भी है । पंजाब का मालवा क्षेत्र हमारे देश के भौगोलिक क्षेत्र का मात्र ०.५ प्रतिशत (आधा प्रतिशत) है जबकि यह पूरे देश के १० प्रतिशत कीटनाशकों का उपयोग करता है । रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से जमीन के पोषक तत्व, सूक्ष्म जीवाणु आदि खत्म हो गए है । कृषि भूमि के जरूरी पोषक तत्व जैसे जिंक, सल्फर, जस्ता, लोहा, जैविक कार्बन आदि भी नष्ट हो चुके है । इसके साथ ही कई भयंकर बीमारियों भी फैल रही है । हाल ही के वर्षो में विकलांग बच्चें के जन्म की संख्या बढने लगी है ं मालवा क्षेत्र के १४९ बीमार बच्चें में से ८० प्रतिशत के बालेांमें यूरेनियम की मात्रा अत्यधिक पाई गई है । डॉ. अम्बेडकर इस्टीट्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी , जालंधर के भोतिकी विभाग ने ३४ गांवों के हैंंडपम्पों में यूरेनियम पाया। फरीदकोट के मंदबुद्धि बच्चें के एक संस्थान बाबा फरीद केन्द्र में बच्चें के बालों में ८२ प्रशित से ८७ प्रतिशत तक यूरेनियम पाया गया । पंजाब के कई जिलों के मिट्टी के नमूनों में भी यूरेनियम और पोटेशियम आदि का स्तर खतरे से काफी अधिक पाया गया है । दक्षिण पश्चिम पंजाब के संगरूर, मनासा, फरीदकोट, मुक्तसर भटिंडा और फिरोजपुर जिलों में पानी का एक भी नमूना पीने लायक नहीं पाया गया । पटियाला की फोरेंसिक लेब द्वारा पंजाब के कई जिलों में लोगो के खून के नमूने लिये गए । इस खून में ६-१३ प्रतिशत तक कीटनाशकों के तत्व मिले है । बीमार लोगों की मृत्यु के बाद २५०० लोगों के विसरा की जांच की गई, जिसमें डी.डी.टी., अल्ट्रीनईथन और इंडो सल्फान रसायन मिले । पंजाब में आश्चर्यजनक रूप से १० वर्ष से कम बच्चें में भी कैंसर बढ़ा है । युवाआें में गठिया,फ्लरोसिस और जोड़ों के दर्द के मामले बढ़ रहे है । यहां तक कि भैंस का दूध भी प्रदूषित पाया गया है ।
पंजाब में आधुनिक खेती के नाम पर जो कुछ हो रहा है उससे पर्यावरण और सम्यता दोनों खतरे में है । पंजाब में कुंए बद हो गए है और तालाब नष्ट कर दिये गये है । आम किसान मानते है कि जमीन नशीली हो गई है और बिना रासायनिक खाद के फसल नहीं देती । इसलिए फसल को अच्छा बनाने के लिए मिट्टी को खूब खाद पिलाई जाती है । इसका अर्थ यह भी है कि पंजाब में मिट्टी ने अपना काम करना बन्द कर दिया है । अब जो कुछ भी है वह रसायनों का फल है । कीटनाशकों के छिड़काव को भी किसी धार्मिक रीति की तरह निभाया जाता है । कीटनाशकों का छिड़काव सुबह के समय किया जाता है । कीटनाशक छिड़कने वाला सुबह से खाली पेट रहता है और कई गिलास नींबू पानी पीता है । कीटनाशक छिड़कने के बाद वह अपने कपड़े उतार कर एक तरफ रख देता है और स्नान करने के बाद पुन: नींबू का पानी पीता है । ग्रामीणों द्वारा अधिक फसल के लिए किया गया यह कर्मकाण्ड भी क्या उन्हें प्रकृति के प्रकोप से बचा पाएगा ? कभी अच्छी कृषि का आदर्श हुआ करता पंजाब अब खराब कृषि का एक मॉडल बन कर रह गया है । ***

ज्ञान -विज्ञान


अब अंतरिक्ष की यात्रा आसान

अगर आपने अंतरिक्ष में सफर करने का सपना संजाए रखा है तो आपका वह ख्वाब जल्द पूरा होने वालाल है । खास खबर यह है कि इसके लिए ज्यादा धन भी खर्च नहीं करना पडेगा । ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने स्पेस प्लेन नामक यानों का निर्माण किया है, जिसने ब्रिटिश रिएक्शन इंजन्स नामक यान बनाने वाली कंपनी के सहयोग से इस काम को अंजाम दिया है । येे यान न सिर्फ शटल यानों से बेहतर होंगे बल्कि अंतरिक्ष पर्यटन को भी ऊँचाईयों पर पहॅुंचाएँगे ।
नासा ने हाल में अंतरिक्ष में शटल यान डिस्कवरी से अपनी अंतिम यात्रा पूरी की है यह यान पिछले २७ वर्षो से धरती से अंतरिक्ष की उड़ान भर रहा था । इसके साथ इंडेवर और अटलांटिस नामक शटल यानों को भी नासा ने हमेशा के लिए विश्राम दे दिया है । डिस्कवरी शटल अब कभी भी अंतरिक्ष की उड़ान नहीं भरेगा । नासा ने हाल ही में आमजन को संदेश दिया है कि जो भी अंतरिक्ष में यात्रा करना चाहते है हम उन्हें सस्ती और विश्वसनीय सुलभ यात्रा इस नए यानों से कराएँगे । नए विकसित और विकास किए जा रहे अंतरिक्ष परंपरागत शटल यानों से एकदम अलग और भिन्न होंगे । स्काइजोन पिछले शटल यानों से लंबे होंगे । इसकी लंबाई ९० मीटर, जिसमें एकसाथ ४० लोग यात्रा कर सकेंगे । इन यानों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ये बिना पायलट के संचालित होगें यानी पूरी तरह से ऑटो संचालित होंेगे, जो साफ्टवेयर के जरिए नासा केन्द्र से सीधे जुड़े रहेंगे । स्काईजोन का इंजन हाइड्रोजन ईधन से संचालित होगा । इंजन हवा के साथ हाइड्रोजन जलाकर चालू होगा और द्रव ऑक्सीजन के साथ हाइड्रोजन जलाने के साथ ही बंद होगा । यही प्रक्रिया शटल इंजनों में भी थी । इन यानों के निर्माण में करीब छ: अरब पौंड का खर्च आया है । स्काइजोन स्पेस प्लेन अब धरती से रफ्तार भरेंगे तो उनके अंतरिक्ष कक्ष स्टेशन में पहुॅुंचने की निश्चित समय अवधि होगी । कक्ष में पहँचने पर ये यान स्वत: काम करना बंद कर देंगे ।
इसमें सफर करने वाले सभी यात्रियों को यात्रा के दौरान किसी भी समय सैटेलाइट के जरिए सीधे नासा के वैज्ञानिकों से बात करने की सुविधा मुहैया रहेगी । यान में मानव सुविधा के सभी साजोसामान मौजूद होंगे । दिल की बीमारी वाले लोगों को इन यानों में यात्राा करने की मनाही होगी, क्योंकि इनकी तेज स्पीड से इन लोगों का रक्तचाप बढ़ सकता है । कोई अनहोनी न हो इसलिए यह फैसला लिया गया है। नासा के वैज्ञानिकों ने अपनी इस सफलता को लेकर गजब का उत्साह है ।
स्पेस प्लेन अपनी पहली उड़ान अगले वर्ष अगस्त में भरेगा । जो इसकी पहली यात्रा करना चाहता है वह नासा से संपर्क कर सकता है ।

कृत्रिम पत्ती से बिजली

पिछले दिनों मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों के दल ने सिलिकॉन, इलेक्ट्रॉनिक्स, निकल और कोबाल्ट जैसे विभिन्न उत्प्रेरकों की सहायता से एक ऐसी कृत्रिम पत्ती का निर्माण किया है , जो सूरज की रोशनी और पानी से ऊर्जा पैदा करती है दरअसल, यह पत्ती सूरज की रोशनी का इस्तेमाल करके पानी को उसके घटकों हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में तोड़ देती है, जिनका इस्तेमाल बिजली पैदा करने में किया जा सकता है । इन पत्तियों की सहायता से भारत जैसे विकासशील देश में एक घर की प्राथमिकता जरूरत भर की बिजली पैदा की जा सकती है ।
इस दल का लक्ष्य अब कम से कम कीमत वाला एक ऐसा उपकरण बनाने का है, जिसे कोई भी अपने घर की छत पर या आसपास लगाकर प्राथमिक जरूरत की बिजली प्राप्त् कर सके। जापान में सुनामी आने के बाद जिस तरह परमाणु विकिरण फैला, उससे सभी देशों में परमाणु संयंत्रों के खतरे को लेकर चीख पुकार मची हुई है और जर्मनी जैसे देशों ने तो परमाणु संयंत्रों की स्थापना को लेकर अपने कान पकड़ लिए है । इस पृष्ठभूमि में नई खोज एक वरदान की तरह सामने आई है । कोयले के भंडारों के कम होने और जल विद्युत के उत्पादन से होनेवाले नुकसान, बल्कि पर्यावरणीय खतरे को ध्यान में रखते हुए दुनिया परमाणु ऊर्जा के विकल्प की ओर गई है, जो अपेक्षया स्वच्छ मानी जाती है, लेकिन इसका खतरा सभी तरह से ऊर्जा के मुकाबले कही ज्यादा है । ऐसे में सौर ऊर्जा ओर पवन ऊर्जा जैसे वैकल्पिक स्त्रोतों पर दुनिया भर में ध्यान दिया जा रहा है । कृत्रिम पत्ती के जरिए इस तरह वैकल्पिक ऊर्जा तैयार करने से दुनिया की किस्मत बदल जाएगी और तेज गति से आर्थिक विकास कर रहे भारत और चीन को तो सुदूर बसे अपने गाँवों को आत्म निर्भर बनाने की दृष्टि से खास फायदा होगा । तब गाँव - कस्बे के हर घर का अपना पावर - हाउस होगा । आकाश में बिजली के तड़कने से ही इतनी बिजली पैदा होती है कि दुनिया को उसका संरक्षण करना आ जाए तो वर्षो तक बिजली की कमी नहीं रहे ।

शहरों के कारण ७० फीसदी प्रदूषण

संयुक्त राष्ट्र की संस्था `यूएन हैबीटैट के आकलन के अनुसार धरती के महज दो फीसदी हिस्से पर काबिज शहर पृथ्वी पर ७० प्रतिशत प्रदूषण के जनक है । संयुक्त राष्ट्र ने चेताया है कि शहरी क्षेत्र पर्यावरण बचाने के लिए नए जंग के मैदान होंगे ।
इस नए अध्ययन का कहना है कि शहरों की बेहतर बसाहट और सटीक योजनाएँ बहुत बड़ी मात्रा में बचत कर सकती है । शोधकर्ताआें का कहना है कि अगर कोई कदम नहीं उठाया गया तो पर्यावरण में हो रहे बदलावों और शहरों के बीच में एक घातक टकराव हो सकता है । मानव बसाहटें, शहर, और जलवायु परिवर्तन के दिशा-निर्देशों पर अंतराष्ट्रीय रिपोर्ट २०११ का कहना है कि इस कदम का उद्देश्य इस बारे में जागरूकता लाना है कि शहर किस तरह से जलवायु परिवर्तन को बढ़ा रहे हैं । साथ ही इसे रोकने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते है ।
यूएन हैबीटैट के कार्यकारी निदेशक जोआन क्लॉस का कहना है कि दुनिया मेंशहरीकरण का बढ़ता चलन प्रदूषण के बढ़ते उत्सर्जन को काबू करने के नजरिए से गंभीर चिंता का विषय है । उन्होनें कहा कि हम शहरीकरण को बढ़ता हुआ देख रहे है । दुनिया की पचास फीसद आबादी शहरों में रहती है और इस बढ़ते चलन का पहिया कहीं थमता हुआ नहीं दिख रहा । जोआन क्लॉस का कहना है कि बढ़ते शहरीकरण का सीधा मतलब है ऊर्जा का इस्तेमाल का बढ़ना ।
संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों के अनुसार साल २०३० तक दुनिया की ५९ फीसदी आबादी शहरों में रह रही होगी । हर साल शहरों की आबादी करीब छ: करोड़ सत्तर लाख बढ़ रहे है। इस संख्या में सबसे ज्यादा इजाफा विकासशील देशों में हो रहा है । शहरी क्षेत्रों में ऊर्जा के ज्यादा इस्तेमाल के कारण बताते हुए क्लॉस ने कहा कि शहरों में ज्यादतर ऊर्जा यातायात में, इमारतों को गर्म या ठंडा रखने में और आर्थिक गतिविधियों से पैसा कमाने में खर्च होती है । इन्हीं कारणों से शहरों की जलवायु परिवर्तन के संभावित नतीजों का पहले सामना करना पड़ सकता है ।
संभावित नतीजों को गिनाते हुए इस रिपोर्ट में कहा गय है कि इनमें मुख्य है गर्म औ शीतलहरों को बढ़ना, बहुत ज्यादा बारिश और सूखे क्षेत्रों की संख्या में बढ़ोतरी। दुनिया के कई इलाकों में समुद्र का जलस्तर बहुत ज्यादा बढ़ सकता है । दक्षिण अफ्रीका उन इलाकों में से एक है जो जलवायु परिवर्तन के नतीजों का सबसे ज्यादा सामना कर सकता है ।
डॉ. क्लॉस ने कहा कि यॅूं तो सारी दुनिया को जलवायु परितर्वन को रोकने की लड़ाई लड़नी है, लेकिन शहर इस लड़ाई में बहुत खास भूमिका अदा कर सकते है । इस रिपोर्ट का कहना है कि ऊर्जा का इस्तेमाल व्यक्तिगत स्तर पर होता है, यहीं पर शहर और स्थानीय निकाय बड़ा परिवर्तन ला सकते है । फिर चाहे उनकी राष्ट्रीय सरकारें इस समस्ता से निपटने के लिए कोई कदम उठाएँ या नहीं इस रिपोर्ट में स्थानीय निकायों से आग्रह किया गया है कि वे जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अपने स्तर पर योजनाएँ बनाएँ । स्थानीय निकायों को न केवल ऊर्जा की खपत को कम करना होगा, बल्कि बाढ़ जैसी आपदाआें से निपटने के लिए भी तैयारी करनी होगी । यूएन हैबीटैट का मानना है कि स्थानीय निकायों को इस काम में अंतराष्ट्रीय ओर राष्ट्रीय निति निर्धारकों की मदद भी की दरकार होगी ।
शोधकर्ताआें का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से शहरी इलाकों को मूलभूत सुविधाएँ जैसे पानी, बिजली, यातायात तक मिलना मुश्किल हो सकता है । क्लॉस का कहना है कि बहुत जगहों पर स्थानीय अर्थव्यवस्था ओर आम लोग अपनी कमाई और रोजी रोटी से महरूम हो सकते है । जिन इलाकों को सबसे ज्यादा खतरा हो सकता है उनमें दक्षिण एशिया प्रमुख है । इसके अलावा दक्षिण - पूर्व एशिया, दक्षिण अमेरिका का पूर्वी तट और अमेरिका का पश्चिमी तट जलवायु परिवर्तन की आग से जल सकते है । इन इलाकों को सूखे, बाढ़, भूकम्प जैसी आपदाआें का सामना करना पड़ सकता है ।
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परम्परा


जीवन मूल्यों की अहमियत
जार्ज मॉनबिट

विज्ञापन से संचालित आधुनिक उपभोक्तावादी संस्कृति हमें असहज, असंतुष्ट, स्वार्थी व कुछ हद तक क्रुर भी बना रही है । इस सबके बीच हम बाहरी दिखावा करने वाले दुनिया पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेना चाहते है । परिस्थितियोंमें बदलाव के लिए आवश्यक है कि हम अपने जीवन में सहजता, सदाशयता ओर करूणा को अपनाएं ।
हम कत्लगाह के दरवाजे पर कतार लगाए दस्तक दे रहे है । आज अमीरों की गलतियों के लिए गरीबों को दंडित किया जा रहा है ।, विश्ववाद को हमने कचरे की टोकरी में फेंक दिया है और राज्यों द्वारा सुरक्षा प्रदान करने के सिद्धांत का विलोपन कर दिया गया है । कुछ छोटे मोटे विरोध के अलावा उपरोक्त मामले में हमारी व्यापक लड़ाई के मुद्दे नहीं बन पाए है । अपने हितों की खिलाफत करने वाली नीतियों के प्रति हमारी स्वीकृति २१ वीं सदी में अबूझ पहेली है । संयुक्त राज्य अमेरिका के सफे दपोश कर्मचारी आक्रोशित होकर स्वयं को स्वास्थ्य सेवाआें की परिधि से बाहर रखने की मांग कर रहे है और साथ ही इस मांग पर अड़े है कि अरबपतियों को कम से कम कर अदा करना चाहिए ।
मुझे इसका उत्तर विश्व वन्यजीव कोष नामक पर्यावरण समूह के लिए टाम क्राम्पटन द्वारा लिखी गई रूचिकर रिपोर्ट साझा मुद्दे अपने सांस्कृतिक मूल्यों के साथ कार्य में मिला जिसमें मनोविज्ञान के क्षेत्र में हाल में हुई प्रगति के माध्यम से समाज क्षेत्र में हाल में हुई प्रगति के माध्यम से समाज कल्याण को लेकर जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए है । प्रगतिवादी मानव ज्ञान के जिस मिथक से प्रभावित है उसे टाम क्राम्पटन ज्ञानोदय या दिव्यता मॉडल की संज्ञा देते है । इससे लोग वास्तविकता का आकलन कर विवेकपूर्ण निर्णय की ओर अग्रसर होते है । इस हेतु लोगों से आंकड़ों से बाहर निकालने का आग्रह करना होगा जिससे कि वे अपनी इच्छाआें और हित से संबंधित निर्णय ले सकें।
वास्तविकता यह है कि विवेकपूर्ण ढंग से लागत - लाभ विश्लेषण करने के बजाए हम केवल उन्हीं जानकारियों को स्वीकार करते है जो हमारे मूल्यों और पहचान को स्थापित करती है । इस प्रक्रिया में विरोधाभासी जानकारियों को हम अस्वीकार कर देते है । दूसरे शब्दों में कहें तो हम अपनी सोच को अपनी सामाजिक पहचान के ईद गिर्द ढाल लेते है और उसकी गंभीर चुनौतियों से रक्षा भी करते है । इतना ही नहीं असहज वास्तविकता से मुंह मोड़कर परिवर्तन के विरूद्ध कठोर रवैया अपना लेते है ।
मनोवैज्ञानिक हमारी सामाजिक पहचान को दो मूल्यों बाह्य और आंतरिक के रूप में विश्लेषित करते है । बाह्य मूल्य हमारे जीवनस्तर और स्व विकास को संबोधित होते है । शक्तिशाली बाह्य मूल्य रखने वाले सोचते है कि अन्य लोग उन्हें किस रूप में देखते है । वे वित्तीय सफलता, छवि और प्रसिद्धि को अत्यधिक महत्व देते है । आंतरिक मूल्यों या प्रतिबद्धताआें का संबंध मित्रों, परिवार और समुदाय से संबंधों और आत्म स्वीकृति से है । जिन लोगों में प्रबल आंतरिक प्रतिबद्धता होती है वे अन्य व्यक्तियों की प्रशंसा या पुरस्कार पर निर्भर नहीं होते । उनके विश्वास उनके स्व हित में ही परिलक्षित होते है ।
कुछ लोग पूर्णतया बाह्य या पूर्ण आंतरिक प्रतिबद्धताआें वाले होते है । लेकिन हमारी सामाजिक पहचान सामान्यता इन दोनों के मिश्रण से ही बनती है । करीब ७० देशों में मनौवैज्ञानिक प्रयोग यह दर्शाते है कि लोग वित्तीय सफलता को बहुत महत्व देते है, उनमें दूसरे के प्रति कमतर सहानुभूति, जोड़तोड़ की कठोर प्रवृत्ति, वंशवाद और असमानता के प्रति अत्यधिक आकर्षण, अपरिचितों के प्रति कठोर पूर्वाग्रह ओर मानवाधिकार और पर्यावरण के प्रति कमतर दिलचस्पी होती है वहीं शक्तिशाली आत्म स्वीकृति वालों में दूसरों के प्रति अधिक सदाश्यता एवं मानवाधिकार, सामाजिक न्याय और पर्यावरण के प्रति चिंता भाव होता है । ये मूल्य एक दूसरे पर हावी होने के प्रक्रिया में रहते है जिसकी बाह्य आकांक्षाएं बहुत तीव्र होगी उसके आंतरिक लक्ष्य उतने ही कमजोर होंगे ।
वैसे हम अपने मूल्यों के साथ जन्म नहीं लेते । हमारा सामाजिक वातावरण उन्हें ढालता है । राजनीति भी हमारी सोच को उतना ही बदलती है जितना की परिस्थितियां। उदाहरण के लिए सभी के लिए मुफ्त स्वास्थ्य सेवाआें का प्रावधान हमारी आतंरिक प्रतिबद्धता को पुष्ट करता है । गरीबों की स्वास्थ्य सेवाआें से बेदखली असमानता का सामान्यीकरण करती है और बाह्य मूल्यों को सशक्त बनाती है ।
मार्गरेट थैचर के शासन में आने के बाद ब्रिटेन में बड़े पैमाने पर दक्षिणपंथी झुकाव प्रारंभ हुआ जो कि ब्लेयर ब्राउन के कार्यकाल में भी जारी रहा । इन सभी सरकारों ने प्रतिस्पर्धा को अत्यधिक प्राथमिकता दी ं इसी के साथ बाजार और वित्तीय सफलता ने हमारे जीवन मूल्यों को ही परिवर्तित कर दिया ं इस दौरान धन और अवसरों के पूनर्वितरण की नीतियों के संबंध में जनसमर्थन में तेजी से कमी आई । इस परिवर्तन को विज्ञापन और मिडिया ने ओर मजबूती प्रदान की ।
मीडिया की असक्ति सत्ता की राजनीति पर हुई । इसकी धनवानों की सूची में १०० सर्वाधिक शक्तिशाली, प्रभावशाली, बुद्धिमान या संुदर व्याक्तियों को सम्मिलित किया गया । साथ ही मिडिया ने अपनी सनक में प्रसिद्ध व्यक्तियों, फैशन, तेज गति की कारों और महंगे अवकाश स्थलों को प्रोत्साहित किया । इन सबने बाह्य मूल्यों को लोगों के मन में बैठा दिया । असुरक्षा और अपर्याप्त्ता की भावना जगाने का अर्थ है स्व स्वीकृति का ह्ास होना । साथ ही ये आंतरिक लक्ष्यों का गला भी घोटते है ।
विज्ञापन जगत जो कि बड़ी संख्या में मनोवैज्ञानिकों को नियुक्त करता है । इस सबसे अच्छी तरह से वाकिफ है । वैश्विक विपणन कंपनी जेडब्यूटी के वैश्विक योजना निदेशक मरफी का कहना है हमेंब्रांड मैनेजर नहीं सामाजिक इंजीनियर बनना है और किसी ब्रांड के बारे में विचार बदलने के बजाय सांस्कृतिक शक्तियों को चालाकी से प्रभावित करना है । वे जैसे ही हमारे बाह्य मूल्यों को मजबूती प्रदान करती है उन्हें उत्पाद बेचते में आसानी हो जाती है ।
दक्षिणपंथी राजनीतिज्ञों ने राजनीतिक पटल के परिवर्तन में जीवन मूल्यों के महत्व को भी अच्छी से समझ लिया है । थैचर की प्रसिद्ध टिप्पणी है दिल और आत्मा को बदलने के लिए अर्थव्यवस्था एक औजार है । अमेरिका में भी कंजरवेटिव सामान्यता वास्तविकता ओर आंकड़ों पर बहस करने से घबराते है । इसके बजाए वे मुददों को इस तरह प्रस्तुत करते है जिससे बाह्य मूल्य ज्यादा आकर्षक प्रतीत होकर स्थापित होते है ।
इस प्रवृत्ति के जवाब में प्रगतिवादियों को रवैया भी विध्वंसकारी है । मूल्यों में आ रहे बदलाव से टकराव के बजाय हम उन्हें अपनाना चाहते है । एक समय प्रगतिशील कहे जाने वाले राजनीतिक दलों के नए नजरिए पर गौर करना आवश्यक है। नई लेबर पार्टी द्वारा जिसे स्व लाभ की कुंजी ही कहा जा सकता है । ऐसा करते समय वे बाह्य मूल्यों को न केवल स्वीकार ही कर रहे है बल्कि उन्हें वैधता भी प्रदान कर रहे है। इस संदर्भ में कई ग्रीन (पर्यावरण) और सामाजिक न्याय अभियानों द्वारा आम जनता को दिए जा रहे संभाषणों पर भी गौर करना आवश्यक है । उदाहरण के लिए विकासशील देशों को गरीबी से मुक्त कराने से ब्रिटिश उत्पादों का बाजार बढ़ेगा या हाईब्रीड कार खरीदने से आप अपने मित्रों को प्रभावित कर पाएगें और आपका जीवन स्तर ऊँचा होगा । इस रणनीतियों से बाह्य मूल्यों में मजबूती आएगी । प्राकृ तिक या ग्रीन उपभोक्तावाद भी एक प्रलयंकारी भूल है ।
कामन काज ने इसका बहुत आसान इलाज बताते हुए कहा है कि हम अपने मूल्यों को दफन होते देखना बंद करें और इसके बजाए उन्हें लोगों को समझाएं और उन पर आचरण करें तथा वे राजनीतिक परिवर्तन के मनोविज्ञान को समझने में मदद करें और लोगों को बताएं कि इसमें किस स्तर पर हेरा-फेरी की जा रही है ।
इन शक्तियों खासकर विज्ञापन उद्योग, जो कि हमें असुरक्षित और स्वार्थी बनाता है , को चुनौती देने के लिए हम सबको एकजुट होना होगा । ब्रिटिश लेबर पार्टी के नेता एक मिलिबेंड ने कहा है कि वे चाहते है कि समाज में परिवर्तन आए जिससे कि समुदाय और परिवार का सम्मान बढ़े । साथ ही हमें हमारी विदेशी नीति को बदलना होगा । जिससे कि वह हमेशा मूल्यों पर खड़ी रहे न कि केवल गठजोड़ (मित्र राष्ट्रों) के भरोसे ।
परंतु यहां भी पशोपेश की स्थिति है । क्योंकि इन परिवर्तनों के लिए हम सिर्फ राजनीतिज्ञों पर ही भरोसा कर सकते है । अगर पारिभाषिक तौर पर देखें तो राजनीति में ही लोग सफल हुए है जिन्होनें बाह्य मूल्यों को प्राथमिकता दी है । उनकी आकांशाआें की प्रतिपूर्ति हमें मानसिक शांति, पारिवारिक, जीवन दोस्ती और अंतत: भाईचारे से करना होगी । अतएव आवश्यक है कि हम स्वयं को बदलें । हम जिस तरह की रानीति चाहते है । उस पर बहस करनी होगी । यह बहस कार्यसाधकता या औचित्य के आधार पर नहीं सदाशयता और करूणा के आधार पर होगी । अन्य के खिलाफ इस बहस का आधार होगा । कि वे स्वार्थी और क्रूर है ।
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जन स्वास्थ्य


दवा का मर्ज बन जाना
अंकुर पालीवाल

भारत में एलििनउाकल ड्रग ट्रायल (दवाई परीक्षण) पर सख्त नियमन न होने से अनेक दवाई कंपनियां बेरोकटोक एवं अनैतिक रूप से मरीजों को बिना संज्ञान में लिए उन पर परीक्षण कर रही है । इंदौर जैसे मध्यम आकार के शहर अब इसकी चपेट में है । संमाचार पत्रों में विज्ञापनों के माध्यम से परीक्षण के लिए मरीजों को इकट्ठा करना स्थितियों को और जटिल बना रहा है ।
अजय और पूजा उस दिन को धिक्कारते है जब वे अपने बच्चे को विशेष टीकाकरण कार्यक्रम में ले गए । अजय को पता चला कि मध्यप्रदेश के इंदौर शहर का एक सरकारी अस्पताल अनेक बीमारियां जिसमें पोलियो, स्वाइन फ्लू और पीलिया शामिल है के लिए मुफ्त टीकाकरण कर रही है । जो बात वही नहीं जानता था वह यह कि दवाई कंपनियां चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय में वेक्सीन (टीकों )का परीक्षण कर रही है । दोनों अपने बेटे यथार्थ को अस्पताल ले गए । अगले ही दिन उसके पूरे शरीर पर सफेद दाग उभर आए । दूसरे ही दिन चिंतातुर होकर वे अस्पताल पहुंचे तो उनसे मात्र साबुन बदलने को कहा गया । परंतु दाग बढ़ते ही गए । उन्होनें अस्पताल से पुन: संपर्क किया तो इस बार डॉक्टरों ने उन्हें कुछ दवांइया दे दी । इसके बाद पिछले आठ महीनों से यथार्थ का लगातार इलाज चल रहा है ।
पांचवी तक पढ़ी पूजा का कहना है हमें अंग्रेजी में एक फार्म भरने का कहा गया। वहीं १० वीं उत्तीर्ण अजय का कहना है कि मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि अब मैं। क्या करूँ ? मैं नहीं चाहता कि मेरा बेटा इन सफेद दागों के साथ बढ़ा हो। वह बच्चे के उपचार में अब तक १५००० रूपए खर्च कर चुका है । साथ ही उसका कहना है कि मेरे साथ धोखा हुआ है । हम गरीब है तो क्या इसीलिए हमें जीने का हक नही है ? राज्य के स्वास्थ मंत्री महेन्द्र हार्डिया के अनुसार यथार्थ जैसे २००० बच्चोंपर इंदौर में टीकाकरण का परीक्षण चल रहा है उनमें से अनेक बुखार, चकत्ते और फोड़े फुंसियों से पीड़ित है ।
आर.टीआई का सच - यथार्थ की स्थिति की जानकारी मिलने पर एक सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता डॉ. आनन्द राय ने चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय से टीकाकरण परीक्षण के मामले में जानकारी पाने हेतु प्रार्थना पत्र दिया । प्राप्त् सूचना के अनुसार वैक्सीन से कुछ ऐसे रसायन थे जो अपनी प्रकृति में जहरीले थे । परंतु चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय के शिशु रोग विशेषज्ञ विभाग के प्रोफेसर डॉ. हेमन्त जैन का कहना है कि इन परीक्षणों की अनुमति ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीजीजीआई) ने दी थी और इसे वैक्सीन में प्रयोग किये गए किसी भी रसायन के कोई साइड इफेक्ट भी नहीं है । अपनी बात को विस्तार देते हुए जैन का कहना है अधिकांश ट्रायल तीसरे और चौथे दौर की है । इसमें से कुछ वैक्सीन तो बाजार में व्यापक रूप से उपलब्ध भी है ।
ट्रायल संचालित करने वाली दवाई कंपनियों के लिए अनिवार्य है कि वे संबंधित अस्पताल को वैक्सीन के विपरीत प्रभावों की जानकारी दें । इस पर डॉ. राय ने गत अक्टूबर में चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय में सूचना का अधिकार कानून के अंतर्गत दूसरा प्रार्थना पत्र लगाया जिसमें दवाई कंपनियों द्वारा साईड इफेक्ट की सूची की मांग की गई थी । राय का कहना है कि सूचना का अधिकार के नियमों के अंतर्गत ३० दिन मे ं जवाब मिल जाना चाहिए । मुझे नहीं पता इतनी देर क्यों लग रहा है ।
अंतर्निहित रसायन - वेक्सीन में थियोमेरोसाल, रक्यूलीन फार्मलडिहाइड और ट्वीन - ८० का सम्मिश्रण है । डॉ. राय का कहना है इन रसायनों की सुरक्षा सिद्ध करने का कोई वैज्ञानिक तथ्य मौजूद नहीं है। उदाहरण के लिए थियोमेरोसाल जिसका प्रयोग इसे लम्बे समय तक वेक्सीन को सुरक्षित रखने के लिए होत है मैं इसके वजन का ५० प्रतिशत पारा होता है । नेशनल एक्रीडेशन बोर्ड फॉर हॉस्पीटल के सदस्य अजय गंभीर का कहना है हालांकि टीके में जितनी मात्रा पाई गई है उस मात्रा में थियोमेरोसाल हानिकारक नहींहै लेकिन अधिक मात्रा में लेने से इससे स्नायुतंत्र में गड़बड़ी हो सकती है ।
अमेरिका में ६ वर्ष और उससे छोटे बच्चें के लिए प्रति खुराक में थियोमेरोसाल की मात्रा या तो नहीं होती या बहुत कम मात्रा (०.५ मिली) ही होती है । जबकि रूस, डेनमार्क और आस्ट्रिया ने इसके उपयोग पर पूरा प्रतिबंध ही लगा दिया है । वहीं भारत में इसका स्वीकृत मात्रा २५-१०० माईक्रोग्राम प्रति खुराक है । राय का कहना है कि विकसित विश्व थियोमेरोसाल के उपोग के खिलाफ है । वहंीं भारत ने इसके मानकों में छूट दे दी है । इसी से स्वास्थ्य समस्याएं खड़ी हो रही है । भारत में सम्मिश्रण को लेकर वैसे तो कोई पैमाना ही नहीं है और यदि कही है भी तो बहुत ही लचर है ।
गंभीर का कहना है इसे स्वेअलीन, फार्मलडिहाइड और ट्वीन - ८० के मामलों में देखा जा सकता है । स्वेअलीन एक सहायक औषधि है जो कि वैक्सीन के संदर्भ मेंशरीर की प्रतिरोधक क्षकता बढ़ाती है और भारत में इकसे इस्तेमाल की सीमा परिभाषित नहीं की गई है । अमेरिका में इसका प्रयोग प्रतिबंधित है । फार्मलडिहाइड का इस्तेमाल वेक्सीन में बैक्टीरिया को असक्रिय करने के लिए होता है और ट्वीन-८० ऊपरी तनाव को कम करती है इन दोनों को भारत के अंदर ओर बाहर दोनों ही स्थानों पर इस्तेमाल होता है । जहां भारत में इन दोनों के इस्तेमाल के लिए कोई मानक तय नही है वहीं अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने इस हेतु मानक तय कर रखे है । डाउन टू अर्थ ने जब भारत के औषधि नियंत्रक से इनके प्रयोग की सीमा जानना चाही तो उन्होनें कोई जवाब नहीं दिया ।
सूचना का अधिकार के अंतर्गत चाही गई जानकारी मेंचाचा नेहरू बाल चिकित्सालय ने इन रसायनों के बीच का अंतर स्पष्ट नहीं किय । डॉ. राय का कहना है इन सबको एक औषधि के साथ मिला दिया गया है । यह आवरण धक्का पहुंचाता है । जब डाउन टू अर्थ ने औषधि निर्माताआें से जानना चाहा कि इनका वेक्सीन में क्यों प्रयोग किया जाता है तो उन्होने कोई जवाब नहीं दिया ।
मध्यप्रदेश के रतलाम नगर के विधायक पारस सखलेचा ने अक्टूबर २०१० में विधानसभा में प्रश्न पूछा था कि खतरनाक रसायन जिनका विकसित देशों में इस्तेमाल प्रतिबंधित है उनका हमारे बच्चों पर परीक्षण क्यों हो रहा है । इसके जवाब में सरकार ने अक्टूबर से मध्यप्रदेश में नए परीक्षणों पर तो प्रतिबंध लगा दिया लेकिन वर्तमान में हो रहे परीक्षणों को नहीं रोका ं सरकार ने इस संबंध में एक कमेटी का गठन भी कर दिया है लेकिन उसकी रिपोर्ट का अभी भी इंतजार है ।
नियमन की कमी - वेल्लोर स्थित क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेन के पूर्व विभागाध्यक्ष टी. जेकब जान का कहना है कि मुख्य समस्या सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के लचर नियमन की है । वहीं डॉ. राय का कहना भारत में अमेरिका की तरह वेक्सीन के दुष्परिणाम बताने हेतु वेक्सीन एडवर्स इवेन्ट रिपोर्टिंग सिस्टम भी नहीं है ।
लागत एक और बड़ी रूकावट है । भारत में बनने वाले अधिकांश वेक्सीन बहु खुराक (मल्टी डोज) होते है । जिसके लिए प्रिजरवेटिव इस्तेमाल करना आवश्यक है । जॉन का कहना है कि निर्माता को बजाए एकल खुराक (सिंगल डोस) वेक्सीन बनाने के बहु खुराक वेक्सीन बनाा सस्ता पड़ता है। विकसित देशों में प्रिजरवेटिव का इस्तेमाल न करने हेतु सिंगल डोज वेक्सीन को प्राथमिकता दी जाती है ै दिल्ली के सेंट स्टीफन अस्पताल के शिशु रोग विभाग के अध्यक्ष का कहना है कि इसका हल शोध और विकास हेतु अधिक धन मुहैया कराने में छुपा है ।
सुरक्षित विकल्प - वर्तमान में विश्वभर में पीलिया, पोलियो, टिटनेस और गर्भाश्य के कैंसल की वैक्सीन में एल्युमीनियम हाइड्रोऑक्साइड को सहायक औषधि के रूप में प्रयोग में लाया जाता है । अब दिल्ली के एक संस्थान में एक किस्म की आयुर्वेदिक सहायक औषधि की खोज कर ली है ै इसे दिल्ली स्थित रक्षा शोध एवं विकास संगठन के डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ फिजियोलॉजी एण्ड अलाइड साइंस ने विकसित किया है । इसे भारत में लेह और उत्तराखंड में पाई जाने वाली लेह बेरी की पत्तियों से बनाया गया है। इसका एक अन्य लाभ यह है कि इसके मिश्रण से वेक्सीन को ३ वर्ष तक सुरक्षित रखा जा सकता है । रासायनिक सहायक औषधि मात्र ४ माह तक औषधि को सुरक्षित रख पाती है ।
हैदराबाद स्थित भारत बायोटेक ने पहली बार हेपेटाईटिस- बी के लिए थियोमेरोसाल मुफ्त वेक्सीन का निर्माण किया है । बार - बार अनुरोध करने के बावजूद कंपनी ने वेक्सीन निर्माण में इस्तेमाल किए गए विकल्प का खुलासा नहीं किया । ***

पर्यावरण परिक्रमा


कृषि भूमि को बचाना जरूरी


देश में पिछले दो दशक में करीब २८ लाख हेक्टेयर कृषि भूमि घट गई है । यदि भूमि घटती रही, तो अन्न का उत्पादन भी घटेगा ही ।
देश में बीते दो दशक में लगभग दो फीसदी खेती की जमीन कम हो गई है । और रकबा करीब २८ लाख हेक्टेयर होना चाहिए । यह बयान किसी और का नहीं, बल्कि देश के कृषि मंत्री शरद पंवार का है, जो उन्होनें संसद में दिया है । यानी, देश में खेती की जमीन का घट जाना कोई अटकलबाजी नहीं है, बल्कि एक डरावना सच है । बीस साल में २८ लाख हेक्टेयर जमीन आखिर कहां चली गई ? यह जमीन शहरों के फैलाव, कारखानों के निर्माण और उत्खनन की भेंट चढ़ गई है ।
देश के उन इलाकों मे जाकर देखा जा सकता है, जहां भूगर्भ में खनिज पाए जाते है । वहां की खेती योग्य जमीन के साथ ही साथ जंगल भी बर्बाद कर दिए गए है । कारखानों केे लिए जो जमीन आवंटित कर दी जाती है, वह भी उपजाऊ ही होती है । इधर, शहरों का फैलाव तो हो ही रहा है और वह भी अतार्किक ढंग से । यह सही है कि पिछले दो दशक में देश में शहरीकरण भी तेजी से हुआ है । यानी, ग्रामीण आबादी का एक हिस्सा गांवों से पलायन करके शहरों में आ गया है, लेकिन सच यह भी है कि शहरीकरण जिस अनुपात में हो रहा है, शहरों का फैलाव उससे कई गुना ज्यादा हो रहा है ।
इस संदर्भ में दिल्ली का उदाहरण सबसे ज्यादा मुफीद रहेगा । दो दशक पहले इसकी आबादी करीब एक करोड़ ४५ लाख थी, अब अनुमान यह है कि यह एक करोड़ ७५ लाख होनी चाहिए । यानी, दिल्ली की आबादी में दो दशक में लगभग १६ फीसदी का इजाफा हुआ, पर शहर कितने फीसदी बढ़ा ? करीब सत्तर फीसदी । इन सब स्थितियों को ध्यान में रखकर खेती की जमीन के संरक्षण की योजना बनाई जानी चाहिए । शहरों में तो बहुमंजिला इमारतें बन सकती है, पर खेती को बहुमंजिला नहीं बनाया जा सकता । कृषि भूमि घटती रही, तो बढ़ती आबादी का पेट कैसे भरेगा ? यह सरकार के लिये चिंता का विषय होना चाहिए ।


नदी और खारे पानी से पैदा होगी बिजली

वैज्ञानिकों ने एक ऐसी बैटरी का इजाद करने का दावा किया है जो मीठै और समुद्रीजल के खारेपन में विभेद कर ऊर्जा पैदा कर सकती है । शोध के नेतृत्वकर्ता ई चुई ने कहा कि जब एश्चुरी के जरिए नदी का पानी समुद में प्रवेश करता है तो इस बैटरी का इस्तेमाल करके वहां ऊर्जा संयंत्र बनाया जा सकता है ।
ताजे पानी की कम उपलब्धता का जिक्र करते हुए उन्होनें कहा कि वास्तव में हमारे पास अथाह समुद्री जल है, दुर्भाग्य से मीठे पानी की मात्रा बहुत कम है । बैटरी से ऊर्जा पैदा करने की संभावना जाहिर करते हुए शोधकर्ताआें ने हिसाब लगाया कि यदि दुनिया की सभी नदियों में उनकी बैटरी का इस्तेमाल किया जाए तो एक साल में करीब दो टैरावाट बिजली की आपूर्ति की जा सकती है जो मौटे तौर पर वर्तमान में दुनिया में इस्तेमाल होने वाली कुल ऊर्जा का १३ प्रतिशत है । बैटरी अपने आप में बहुत ही आम है ।
इसमें दो इलेक्ट्रोड है, एक पॉसीटिव और एक नेगेटिव, जो विद्युत चार्ज कणों या लोहे की छड़ों से युक्त एक द्रव में डूबे रहते है पानी में सोडियम या क्लोरीन आयरन है, जो आम साल्ट के घटक है । शुरूआत में बैटरी में मीठा पानी भरा जाता है और हल्के इलेक्ट्रिक करंट के जरिए इसे चार्ज किया जाता है । बाद में मीठा पानी निकालकर इसमें समुद्री जल भरा जाता है नैनी लीटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक समुद्री पानी में आयन मीठे जल से ६० से १०० गुना अधिक होते है इसलिए दोनों इलेक्ट्रॉड के बीच वोल्टेज बढ़ जाता है । यह इसे बैटरी को चार्ज करने से अधिक बिजली पैदा करने में मददगार साबित होता है ।

वनों और नदियों की सफाई होगी

भारत सरकार के नये बजट में वनों के लिए राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा कोष से २०० करोड़ रूपए ओर पर्यावरण मंत्रालय के लिए २४९१.९७ करोड़ रूपए का आवंटन का प्रस्ताव है वर्ष २०११-१२ में २०० करोड़ रूपए के प्रभावी क्रियान्वयन का प्रस्ताव रखते हुए वित्त मंत्रीने कहा , वनों के संरक्षण का महान पारिस्थितिकीय,आर्थिक ओर सामाजिक मूल्य रहा है । हमारी सरकार ने महत्वकांक्षी १० वर्षीय हरित भारत मिशन शुरू किया है । आशा करनी होगी कि सरकारी प्रयासों को सफलता मिलें ।

मैंग्रोव वन रोकेंगे सुनामी लहरें

विज्ञान की तमाम उपलब्धियों के बावजूद भूकंप और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाआें की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती । ऐसे उपायों में एक महत्पूर्ण भूमिका तटीय इलाकों में सुरक्षा दीवारों के रूप में काम करने वाले मैंग्रोव वनों की है ।
जापान में सुनामी के बाद पैदा हुए फुकुशिमा संकट ने दुनिया भर में जहां परमाणु संयंत्रों प्राकृतिक उपायों को मजबूत करने की मांग भी उठने लगी है । अब यह साफ तौर पर नजर आने लगा है कि ग्लोबल वॉर्मिंग, पर्यावरण के असंतुलन और जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाआें में बढ़ोतरी हो रही है और ये आपदाएं पहले की तुलना में ज्यादा विनाशकारी साबित हो रही है । देखा जाए तो विज्ञान की तमाम उपलब्धियों के बावजूद भूकंप ओर सुनामी जैसी प्राकृतिक उपायों द्वारा इनके दुष्परिणामों को कम अवश्य किया जा सकता है ।
ऐसे उपायों में एक महत्वपूर्ण भूमिका तटीय इलाकों में सुरक्षा दीवार के रूप में काम करने वाले मैंग्रोव वनों की है । यही वजह है कि हाल में प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन ने सरकार से कलपक्कम और कुंडनकुलम एटॉमिक रिएक्टरों के नजदीक तटीय क्षेत्र में घने मैंग्रोव वन लगाने की सलाह दी है । मैंग्रोव वनों को समुद्र के सदाबहार वन भी कहा जाता है । इनके महत्व का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि समुद्र में पाए जाने वाले ९० फीसदी जीव-जंतु अपने जीवन का कुछ न कुछ हिस्सा मैंग्रोव तंत्र में अवश्य बिताते है ।
पूरी दुनिया में भूमध्य रेखा के एकदम नजदीक के बेहद गर्म इलाकों और फिर इसके अगल-बगल के थोड़े कम गर्म और नम तटीय क्षेत्रों में पाए जाने वाली मैंग्रोव वनस्पतियां कभी ३.२ करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र को ढके हुए थी, जो कि आज आधे से भी कम अर्थात १.५ करोड़ हेक्टेयर में सिमट गई है ।
कभी मैंग्रोव वन भारत और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के तटीय क्षेत्रों में काफी बड़े इलाके में छाए हुए थे, लेकिन उनका ८० फीसदी हिस्सा पिछले छह दशकों में नष्ट हो चुका है । समुद्री तूफान जैसी आपदा के समय तटीय क्षेत्रों के लिए सुरक्षा पंक्ति का काम करने वाले ये मैंग्रोव वन आज गहरे संकट में है । वैसे तो इन वनों के अस्तित्व को लेकर काफी समय से चिंता जताई जा रही थी, लेकिन इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर को हाल की एक रिपोर्ट ने दुनिया भर के पर्यावरण प्रेमियों को चिंता में डाल दिया है ।
रिपोर्ट के मुताबिक तटीय क्षेत्रों में चल रही विकास गतिविधियों के कारण दुनिया में हर छह मे से एक मैंग्रोव प्रजाति विलुप्त् होने की कगार पर है । संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार मैंग्रोव वन सालाना एक दो फीसदी की दर से नष्ट हो रहे है और १२० में से २६ देशों में इनके अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे है ।
आर्थिक और पर्यावरणीय दोनों नजरियों से मैंग्रोव वनों का नष्ट होना काफी नुकसानदेह है । ये वन न केवल जलवायु परिवर्तन से लड़ने में सक्षम होते है, बल्कि ये तटीय क्षेत्रों के लोगों को रोजी-रोटी भी मुहैया कराते है । समुद्री जीव - जंतुआं के अलावा अनेक जंगली जीवों को भी मैंग्रोव वनों में आश्रय मिलता है । इनकी मजबूत जड़े मजबूत जड़ें समुद्री लहरों से तटों का कटाव होने से बचाती हे । घने मैंग्रोव चक्रवाती तूफान की गति धीमी करके तटीय आबादी को तबाही से बचाते है ।

शिक्षा से जुड़ा है लंबी उम्र का राज

आपकी लंबी आयु का राज आपके शिक्षा के साथ जुड़ा हुआ है । नए शोध के मुताबिक आप जितने अधिक शिक्षित होंगे आपकी आयु उतनी ही लंबी होगी । अमरीकी ब्राउन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताआें ने पाया कि उच्च विद्यालय की पढ़ाई नहीं पूरी कर पाने वाले लोगों की तुलना में कालेज और विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले व्यक्तियों का रक्त चाप कम होता है ।
डेली मेल की रिपोर्ट के मुताबिक जिनके पास मास्टर डिग्री और डॉक्टरेट की उपाधि होती है वह ज्यादा स्वस्थ होते है और महिलाआें पर यह बात ज्यादा लागू होती है इस शोध में बताया गया है कि उच्च रक्त चाप की वजह से दिल का दौरा पड़ने की संभावना दोगुनी हो जाती है और अच्छी शिक्षा की वजह से आपकी आयु लंबी होती है ।
इस शोध के लिए शोधकर्ताआें ने तीन वर्ष तक के करीब ४००० अमेरिकी महिलाआें और पुरूषों के स्वास्थ का अध्ययन किया । इसमें पाया गया है कि १७ वर्ष या उससे अधिक उम्र की महिलाआें को ज्यादा शिक्षित थी उनका रक्त चाप उसी उम्र की उच्च् विद्यालय की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाने वाली महिलाआें की तुलना में कम था और यही बात पुरूषों में भी पाई गई ।
बीएमसी पब्लिक हेल्थ मैग्जीन में प्रकाशित इस शोध से यह जानकारी सामने आई कि ज्यादा पढ़े लिखे लोग धुम्रपान और शराब का सेवन भी अपेक्षाकृत कम करते है जबकि पढ़ी लिखी महिलाएं भी ज्यादा स्वस्थ रहती है ।
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खास खबर


बाघों की जनसंख्या बढ़ी
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)

देश में बाघों की लगातार घटती संख्या से सभी चिंतित थे । इनके संरक्षण के किए जा रहे प्रयासों के कारगर न होने से लगने लगा था कि यह प्रजाति अब खत्म होेने के कगार पर है, लेकिन ताजा आँकड़ों ने बाघों की चिंता करने वालों को खुश कर दिया । देश में बाघों की संख्या १४११ थी, अब नई गणना में बाघों की संख्या १७०६ पाई गई है ।
भारत में बाघों की घटती जनसंख्या की जाँच करने के लिए अप्रैल १९७३ में प्रोजेक्ट टाइगर शुरू किया गया था । ताजा गणना के मुताबिक देश में अब १५७१ से १८७५ के बीच बाघ है । अनुमानित आँकड़ा १७०६ लिया गया है । बाघों की पिछली गणना वर्ष २००६ में हुई थी । उसमें खुलासा हुआ था कि देश में महज १४११ बाघ ही शेष रह गए है । ताजा गणना में संुदरवन को पहली बार शामिल किया गया है । बाघ गणना-२०१० को विश्व का अब तक का सबसे व्यापक, अत्याधुनिक और वैज्ञानिक तरीके से हुआ आकलन करार दिया गया है । बाघों के पर्यावास वाले क्षेत्रफल मेेंकमी देखी गई है । कुल अनुमानित संख्या में से ३० फीसद बाघ ३९ संरक्षित क्षेत्रों से बाहर आ रहे है ।
बाघों को खनन और भू-माफिया से खतरा है । कोयला खनन और सिंचाई परियोजनाएँ भी बाघों के संरक्षण के नजरिए से प्रतिकूल है । पर्यावरण और वन मंत्रालय तथा देहरादून स्थित भारतीय वन्य जीव संस्थान द्वारा ९ करोड़ रूपए खर्च कर ३९ बाघ संरक्षित क्षेत्रों में यह गणना की गई । इसमें ४ लाख ७६ हजार वनकर्मियों ने भाग लिया ।
बाघों की गिनती पहले उनके पंजो के निशान के आधार पर होती थी, लेकिन २००७ की गणना में नई पद्धति का इस्तेमाल किया गया । गिनती के इस तरीके को ज्यादा विश्वसनीय माना गया । इस पद्धति में बाघों की उपस्थिति वाले इलाके में अति संवेदनशील कैमरे लगाये जाते है । किसी भी जानवर के सामने से गुजरते ही कैमरा तस्वीर लेता है । आदमी के फिंगरपिं्रट की तरह हर बाघ के चेहरे की काली धारियाँ अलग होती है । तस्वीर लेने के बाद प्रत्येक बाघ की काली धारियोंको अलग - अलग करके देखा जाता है और इससे बाघों की गणना हो जाती है । कुछ लोगों ने कैमरा ट्रैप पद्धति पर यह कहकर सवाल उठाया कि इसमें कैमरे जमीन से डैढ़ फुट ऊपर लगे होते है, इस कारण शावक उसकी रेंज में नहीं आ पाते । इसके पूर्व बाघोंके पंजे के निशान पर प्लास्टर ऑफ पेरिस लगाकर आकार तैयार किया जाता था । एक ही बाघ को कई बार गिन लिए जाने की आशंका के कारण इस पद्धति पर अब कम ही विश्वास किया जाता है । इसके अलावा बाघों के मल के माध्यम से भी गणना की जाती है । इसमें बाघों के मल में मौजूद टिशु अलग कर उसकी डीएनए जाँच की जाती है । सीसीएमबी (सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी) हैदराबाद और डब्ल्यूआईआई की देहरादून स्थित फोरेंसिक लैब में इस तरह की जाँच की सुविधा है ।
बाघ गणना के मुताबिक शिवालिक-गंगा के मैदानी इलाकों में ५३५, मध्य भारत तथा ब्रह्मपुत्र के बाढ़ प्रभावित मैदानी इलाकों में १४८ और सुंदरवन में ७० बाघ है । उत्तराखंड, महाराष्ट्र, असम, तमिलनाडु और कर्नाटक में बाघों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है । महाराष्ट्र और तराई के क्षेत्रों में बाघों की संख्या में जबदस्त इजाफा हुआ है । मध्यप्रदेश और आंध्रप्रदेश में बाघ कम हो गए है । बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उड़ीसा, मिजोरम, पश्चिम बंगाल , उत्तर बंगाल और केरल में बाघों की संख्या स्थिर है । मध्यप्रदेश के होशंगाबाद, बैतूल, नर्मदा नदी के उत्तरी घाट और कान्हा- किसली में बाघों की संख्या में काफी गिरावट पाई गई है । वृद्धि के लिहाज से पश्चिमी घाट आगे है । वहीं पिछली गणना में बाघों की संख्या ४१२ पाई गई थी, जो अब बढ़कर ५३४ हो गई ।

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व्यापार जगत


नमक बेचने वाले अब गला रहे हैं दाल
डॉ. कृष्णस्वरूप आनन्दीर


देश का नमक बेचने वाला टाटा केमिकल्स अब ब्राण्डेड दालों का पहला कॉरपोरेट कारोबारी बन चुका है । उसने सोचा कि जब नमक हर व्यंजन में पड़ता है, तब क्यों न हर व्यंजन का देश व्यापाी खुदरा कारोबार किया जाए । इसके लिए वह किसान संसार नाम से देशभर में अपने आउटलेट या स्टोर खोल रहा है ।
टाटा नमक का एक ब्राण्ड है - आई- शक्ति इसी ब्राण्ड से उसकी दालें बाजार में दस्तक दे चुकी है । पहले ये तमिनाडु, महराष्ट्र, और गुजरात में गलेगी, फिर उसके बाद शेष सारे देश में । चना, तुअर, उड़द और मूँग की दालों के एक - एक किलोग्राम ५००-५०० ग्राम तथा २५०-२५० ग्राम वजन वाले आई- शिक्त मार्का पैकेट बेचने की पुरजोर तैयारी चल रही है । ये पैकेट न केवल किसान संसार नामधारी स्टोरों पर मिला करेंगे, बल्कि टाटा नमक के मौजूदा देशव्यापी वितरण - नेटवर्क के जरिये इनकी बिक्री हुआ करेगी ं ताजातरीन फार्मेट वाले खूबसूरत स्टो, हाइपर/सुपर मार्केट,बिग बाजार, शॉपिंग मॉल, रिटेल चेन आदि इनके पसन्दीदा स्थल रहेंगे ही, इसके साथ - साथ खुदरा या फुटकर बिक्री करने वाले परचूनियों या पंसारियों की दुकानों (जिन्हे मजाकिया लहजे में मॉम एण्ड पॉप स्टोर कहा जाता है ।) से भी उन्हें खरीदा जा सकेगा ।
टाटा समूह की दो कम्पनियाँ टाटा केमिकल्स और रैलीस इण्डिया मिलकर आई-शक्ति ब्राण्ड वाली दालें लाँच कर रही है । उत्तरी एवं पूर्वी भारत में टाटा केमिकल्स का प्रभावी तानाबाना या नेटवर्क फैला हुआ है , जबकि दक्षिणी एवं पश्चिमी भारत में रैलीस इण्डिया की पकड़ मजबूत है । पंजाब में टाटा केमिकल्स सार्वजनिक - निजी भागीदारी (पी पी पी) के अन्तर्गत दलहन का उत्पादन कर रहा है । उसके इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट का नाम है फार्म टू फोर्क (खेत से छुरी कॉँटा तक ) यानी फसल से थाली प्लेट तक । इसी तरह रैलीस इण्डिया भी तमिलनाडु में जी.एम.पी (ग्रो मोर पल्सेज) यानी दालें अधिक उपजाआें नाम से दलहन के उत्पादन की परियोजना चला रहा है । ये दोनों परियोजनाएँ ठेके पर खेती (कॉण्ट्रैक्ट फॉर्मिंग) को बढ़ावा दे रही है ।
ठेके पर खेती का मतलब है एक इकरारनाने पर दस्तखत करके किसी कॉरपोरेट घराने के लिए उसके द्वारा तय की गयी शर्तो पर उसके लिए ही अपनी जमीन पर खेती बाड़ी करेगा किसान । कॉरपोरेट घराना किसान को जो बीज बतायेगा, किसान उसे ही बोयेगा। जिस उर्वरक या कीटनाशी रसायन को कॉरपोरेट घराना सुझायेगा, किसान उसका ही इस्तेमाल करेगा । खेती के जिस तौर तरीके (मॉडल), नुस्खे या फार्मूले की इबारत कॉरपोरेट घराना लिखेगा, किसान एक आज्ञाकारी विद्यार्थी या प्रशिक्षु की तरह उसे घोटने के लिए विवश होगा और उस पर बिना किसी ननुच के अमल करता रहेगा । समय - समय पर कॉरपोरेट घराने के इंस्पेक्टर उसकी फसल की गुणवत्ता की जाँच -परख करते रहेंगे । अगर पैदावार निर्दिष्ट मानकों पर खरी उतरती है, तभी कॉरपोरेट घराना उसे अपने द्वारा तय की गयी कीमतों पर ही खरीदेगा , अन्यथा कतई नहीं । इसका नतीजा यह होगा कि किसानी अपनी जमीन पर मालिक की तरह नहीं, बल्कि गुलाम या बंधुआ की तरह खेती करने की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी । कॉण्ट्रेक्ट फार्मिंग की अन्तिम परिणति होगी कॉरपोरेट फार्मिंग यानी किसान द्वारा खेती के स्थान पर कॉरपोरेट समूह द्वारा बड़े - बड़े फार्मोपर यान्त्रिक ढंग से औद्योगिक मॉडल पर खेती ।
किसान आज जितने भी निवेश्य पदार्थो का इस्तेमाल खेतीबाड़ी में कर रहे है, वे सब -के -सब कॉरपोरेट घरानों के उत्पाद है । अत: उन्हें प्राप्त् करने के लिए किसान प्राय: कर्ज का सहारा लिया करते है, क्योंकि बेहताशा महँगे होने के नाते वे किसानों की पहूँच से बाहर है । कृषि में प्रयुक्त होने वाले निवेश्य पदार्थो के लगातार महँगे होते जाने, उन्हें पाने के लिए कर्ज - पर-कर्ज लेते जाने तथा खेतिहर उत्पादों की वाजिब कीमतें न मिल पाने की वजह से किसान के लिए खेती प्राय: घाटे का व्यवसाय है । इसलिए किसान खेतीबाड़ी छोडने के लिए विवश हो रहे है । और यहां तक कि वे आत्महताएँ तक कर रहे है । ठेके पर खेती के चलन के साथ ही खेती से किसानों का विस्थापन तेज होता जायेगा । टाटा जैसे कॉरपोरेट घरानों के लिए यह मुँहमाँगा वरदान सिद्ध होगा ।
नमक के बाद दाल का नम्बर आना स्वाभाविक है, चँूूकि कहावत है - दाल में नमक पैकेटबंद नमक के बाद पैकेटबंद दालें बाजार में दस्तक देने लगी है । टाटा ने इस पुनीत कार्य का श्री गणेश कर दिया है । पैकेटबंद या डिब्बाबंद चीजें जब कॉरपोरेट ब्राण्डों के रूप में बाजार में हावी होने लगती है, तब उनका कारोबार खुला हुआ, माप, तौल, लूज या बन्धन मुक्त नहीं रह जाता । वहाँ सब कुछ तौला हुआ निश्चित भारों वाले आकर्षक, टिकाऊ और उम्दा पैकेट में बन्द हो, वहाँ तराजू, बाट और पलड़े का क्या काम ? लेकिन गाड़ी यहीं तक नहीं रूकती, बल्कि बगैर पैकेजिंग किया हुआ माल बेचना कानूनन जुर्म हो जाता है ।
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पर्यावरण - समाचार

संरक्षित जंगल में बाघों की संख्या घटी

मप्र में बाघों की गणना को लेकर मार्च २०११ के नतीजों में एक और बेहद चौंकाने वाला तथ्य सामने आए है । उन क्षेत्रों में बाघ घट गए , जहां इन्हें बचाने के लिए ज्यादा रिााश् खर्र्च की गई और सुरक्षा के भी चाक चौबंद इंतजाम किए गए, लेकिन उन खुले क्षेत्रों में बाघ बढ़ गए, जहां इनकी देखभाल तक करने वाला कोई नहीं था । बीते चार वर्षो में प्रदेश के टाइगर रिजर्व के ५५०६ वर्ग किमी क्षेत्र के लिए केन्द्र से प्रदेश को १३९ करोड़ रूपए मिले । यह राशि २००८ तक मौजूद ३०० बाघों के लिए थी । यानी एक बाघ पर ११ करोड़ रूपए खर्च किए गए। या प्रदेश में हर महीने तीन करोड़ रूपए खर्च किए गए । प्रदेश में बाघों की संख्या घटकर २५७ रह गई । २००८ में पन्ना टाइगर रिजर्व में २४ बाघ थे जो इस बार घटकर मात्र तीन रह गए । वहीं कान्हा टाइगर रिजर्व मे ं८९ बाघ मिले थे जो ६० रह गए । जबकि इंदौर - देवास के गैर संरक्षित क्षेत्रों में जहां एक भी बाघ नहीं था, वहां ७ बाघों के हाने की पुुुष्टि हुई है । इसी प्रकार कूनो-श्योपुर क्षेत्र में भी पहली बार तीन बाघ मिले है । वहीं रायसेन में ९ की तुलना में १४ बाघों की पुष्टि हुई है । सबसे अधिक बाघ विश्व प्रसिद्ध कान्हा टाइगर रिजर्व में घटे जहां सबसे अधिक राशि आवंटित होती है ।

तेंदुए को जिन्दा जलाया

अब तब किसी इंसान को जिन्दा जलाकर मारने की खबरें आती रही लेकिन उत्तराखंड में कुछ लोगों ने पिंजरे में बंद एक तेंदुए को पेट्रोल डालकर जिन्दा जलाकर मार डाला । पुलिस ने इस संबंध में दो लोगों को गिरफ्तार कर अन्य की तलाश शुरू कर दी है ।
घटना उत्तराखंड के पौढ़ी जिले के धामधर गाँव की है । पुलिस के अनुसार २३ मार्च को गाँव के कुछ लोगों ने वन विभाग एवं पुलिस जवानों के सामने एक तेंदुए को मिट्टी का तेल डालकर जिन्दा जलाकर मार डाला । उत्तेजक भीड़ के सामने न तो वन विभाग के कर्मी कुछ कर पाए और न ही पुलिसकर्मी तेंदुए की पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार उसने किसी मनुष्य को नुकसान नहींपहुँचाया था । घटना के संबंध में फिलहाल धामधार गाँव के निवासी विजयसिंह, मानवरसिंह, एवं दो महिलाआें समेत कुल १० लोगों के खिलाफ प्रकरण दर्ज किया गया है । इनमें विजय और मानवर को गिरफ्तार कर लिया गया । जिले के पुलिस अधीक्षक पुष्कर ज्योति ने आश्वासन दिया कि जल्द ही अन्य आरोपी भी गिरफ्तार कर लिए जाएँगे ।

सख्त होंगे पर्यावरण मंजूरी के नियम

पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश ने बड़ी परियोजनाआें के लिए पर्यावरण मंजूरी के नियम और सख्त कर दिए है । मंत्रालय ने इस बात पर नजर रखने के लिए कि कंपनियां पर्यावरण मंजूरी की शर्तोका पालन कर रही है या नहीं, यह आवश्यक बना दिया है कि सीमेंट, कोयला और स्टील कंपनियां अपने संयंत्र परिसर में वायु प्रदषण से जुड़े आंकड़े अपनी वेबसाइड़ों पर प्रकाशित करेंगी ।
एक अन्य आदेश के जरिए मंत्रालय ने यह भी आवश्यक कर दिया है कि पर्यावरण मंजूरी के लिए आवेदन देने से पहले कंपनी के पास वन मंजूरी होना जरूरी है । वन मंजूरी का मतलब है कि परियोजना क्षेत्र में जंगल काटने के लिए अनुमति । वर्तमान में कंपनियां बिना वन मंजूरी लिए पर्यावरण मंजूरी ले सकती है । मंत्रालय को ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करना पड़ा है जब कंपनियों के बिना वन मंजूरी लिए काम शुरू कर दिया । इसमें जिंदल स्टली एंड पावर जैसे हाई प्रोफाईल मामले भी शामिल है ।
पर्यावरण मंजूरी दो या तीन महीने में मिल जाती है । जबकि वन मंजूरी मिलने में सालों तक लग सकते है । इसके चलते मिलते कंस्ट्रक्शन शुरू कर देती थी ।
मंत्रालय ने अपने आदेश में यह भी कहा कि सीमेंट, कोयला और स्टील कंपनियां अपने संयंत्रों में वायु गुणवत्ता के सेंसर लगाएगी । साथ ही इसके परिणाम अपनी वेबसाइटों पर प्रकाशित करेंगी ।
हाल ही में एक समिति ने पाया था कि सरकार किसी परियोजना को मंजूरी देने के लिए शर्ते तो बहुत सारी लगाती है, लेकिन इनका पालन हो रहा है या नहीं इस पर निगरानी रखने के लिए कोई प्रभावी तंत्र नहीं है ।

रूस ने धु्रवीय भालुआें के शिकार पर से हटाया प्रतिबंध

रूस ने धु्रवीय भालुआें के शिकार पर प्रतिबंध हटा लिया है । उल्लेखनीय है कि अखंडित रूस (सोवियत संघ) में इस प्राणी के शिकार पर १९५७ में प्रतिबंध लगा दिया गया था यह फैसला वन्य प्राणी संरक्षण आंदोलन के तहत किया गया था । रूस से सुदूरवर्ती चुकोटा क्षेत्र के गर्वनर रोमन केपिन ने पिछले दिनों इस प्राणी के शिकार पर से प्रतिबंध हटाने के पत्र पर हस्ताक्षर किए । इस पत्र के मुताबिक उस क्षेत्र के निवासी पूरे वर्ष में १९ मादा भालुआें सहित कुल २९ धु्रवीय भालुआें का शिकर कर सकतेहै ।
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