मंगलवार, 26 जुलाई 2011

जन जीवन

पहुंच से दूर होता खाद्यान्न
सचिन कुमार जैन

केन्द्रीय वित्तमंत्री के आर्थिक सलाहाकार कार्तिक बसु ने जोरदार तारीके से खुदरा व्यापार मेें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की वकालत की है । इस विचार को क्या सरकार का मन्तव्य नहीं समझा जाना चाहिए ? खाद्यान्न की बढती कीमतें इसे आम आदमी की पहुंच से दूर कर रही है और दूसरी तरफ फुटकर खुदरा व्यवसाय का संभाव्य विनाश रोजगार का संकट भी पैदा कर सकता है ।
खाद्य सुरक्षा की व्यवस्था मे जितना महत्वपूर्ण उत्पादन तंत्र है उतना ही महत्वपूर्ण है बाजार का तंत्र । भारत में २.९ करोड लोग भोजन और भोजन से संबंधित सामग्री का व्यापार करते है । वे केवललाभ उद्देश्य से ये व्यापार नही करते हैं बल्कि खाद्य सुरक्षा की परिभाषा के महत्वपूर्ण हिस्से पहुंच को सुनिश्चित करने में उनकी केन्द्रीय भूमिका रहती है । अब इस बाजार पर प्रमुख भोजन व्यापार कम्पनियां अपना मिला-जुला एकाधिकार चाहती है । इनमें वालमार्ट, रिलायंस, भारती, ग्लेक्सो स्मिथ कंज्यूमर हेल्थ केयर, नेस्ले, केविनकरे, फील्ड फ्रे्रश फूड, डेलमोेंटे, बुहलर इंडिया, पेप्सीको, और कोका कोला शामिल हैैं ।
बाजार विश्लेषण करने वाली एक कम्पनी आर.एन.सी.ओ.एस. की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भोजन का बाजार भारत मेें ७.५ प्रतिशत की दर से हर साल बढ. रहा है और वर्ष २०१३ मे यह ३३० अरब डालर के बराबर होगा । एपीडा (एग्रीकल्चयरल एण्ड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलमेन्ट कार्पोेरेशन अथारिटी) के मुताबिक वर्ष २०१४ में भारत से २२ अरब डालर के कृषि उत्पाद नि र्ात हो सकते है । जबकि वर्ष २००९-१० मे फूलों, फलों, सब्जियों, पशु उत्पाद प्रोसेस्ड फूड और बारीक अनाज का निर्यात ७३४.७० करोड. डॉलर के बराबर हुआ । अब सरकार खाद्य प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) के जरिये दूसरी हरित क्रांति लाने की प्रक्रिया में है । इस पर डेढ. लाख करोड. रूपये खर्च किये जायेंगे।
इस हरित क्रांति के केन्द्र में खेत और किसान नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों व उत्पादन तंत्र का नियंत्रण बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंपना है । तत्कालीन केन्द्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री सुबोध कांत सहाय के मुताबिक भारत सरकार इसमें अगले ५ साल में २१.९ अरब डॉलर का निवेश करेगी । इस निवेश का मकसद होगा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और वित्तीय संस्थानों के लिये अनुकूल माहौल तैयार करना । बाजार के विश्लेषकोंका मानना है कि खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र का हिस्सा ६ प्रतिशत से २० प्रतिशत होने की पूरी संभावनाएं हैं और दुनिया के प्रसंस्करण खाद्यान्न बाजार में भारत की हिस्सेदारी १.५ प्रतिशत से बढकर ३ प्रतिशत हो जायेगी ।
इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढकर २६.४४ करोड डॉलर का हो गया है । केवल ८ कम्पनियां (केविनकरे, नेस्ले, ग्लेक्सो, यम! रेस्टोरण्ट्स इंडिया, फ्रील फ्रेश फूड, बहलर इण्डिया, पेप्सी और कोकोकोला) ही अगले दो सालों में १२० करोड डॉलर का निवेश खाने-पीने का सामान बनाने वाले उद्योग में करने वाली हैं । इन्हें तमाम रियायतों के साथ ही पहले ५ वर्षो तक उनके पूरे फायदे पर १०० फीसदी आयकर में छूट और अगले पांच वर्षो तक २५ फीसदी छूट मिलेगी । एक्साइज ड्यूटी भी आधी कर दी गई है यानी सरकार के बजट से कंपनियों का फायदा तय किया गया है, परन्तु किसान की सारी छूटें समाप्त् कर दी गई हैं ।
वर्ष २००५ में कम्पनियों को किसानों से सीधे अनाज खरीदने की अनुमति देने का परिणाम यह हुआ कि अपनी ही जरूरतें पूरी करने के लिए सरकार को दो गुना दामों पर ५३ लाख टन अनाज आस्ट्रेलिया, कनाडा और यूक्रेन से खरीदना पडा । पिछले ४ वर्षो में अनाज की खुले बाजार में कीमतें ७० से १२० प्रतिशत तक बढीं पर सरकार ने किसानों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य में महज २० प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की है । उन बढ़ी हुई कीमतों का फायदा दलाल और ट्रेडर उठा रहे हैं ।
सरकार को अनाज की कम खरीद करना पड़े इसलिये गरीबी की रेखा को छोटा किया गया ताकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का दायरा और छोटा हो जाए । यह इसलिये भी किया गया ताकि कम्पनियों को किसानों से मनमानी कीमत पर अनाज खरीदने का मौका मिल सके । इस अनाज का उपयोग निर्यात और प्रसंस्करण दोनों के लिए भी किया जा रहा है । गेहूं से रोटी नहीं बल्कि डबलरोटी, नूडल्स, बिस्किट और डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ बनाने के लिये उपयोग किया जाना प्राथमिक बना दिया गया है । लगभग १० लाख हेक्टेयर सबसे उपजाऊ जमीन पर फूल और ऐसे फल उगाये जा रहे है जिनसे रस, शराब और विलासिता के पेय बनते है ।
मध्यप्रदेश में तीन कम्पनियाँ अघोषित रूप से अनुबंध की खेती करके चिप्स के लिये आलू की और चटनी के लिये टमाटर-हरीमिर्च की खेती करवा रही हैैं । इससे खेती की विविधता खत्म हुई है । आदिवासी बहुल झाबुआ मे तो इसे ऐसे प्रोत्साहित किया गया है कि वहां टमाटर के लिये एक एकड खेत मेें ६०० से ८०० किलो रासायनिक ऊर्वरको को उपयोग होने लगा और अब मिट्टी की उर्वरता लगभग पूरी तरह से खत्म हो चुकी है । सब्सिडी कम करने की नीति के तहत अब यूरिया, डीएपी पर दी जाने वाली रियायत भी खत्म हो चुकी है । इससे गेहूं की उत्पादन लागत अब लगभग १६५० रूपये पर पहुंच गई है परन्तु भारत सरकार ने इस वर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है ११२० रूपये । किसान के लिये दालोें का समर्थन मूल्य है ३२ रूपये पर बाजार मे दालो की कीमत है ६० रूपये से ९० रूपये । क्या सरकार खुद किसानो की आत्महत्या का कारण रही है ।
खेती के विपणन व प्रसंस्करण पर कब्जा करने के बाद इन कंपनियोें ने फसल बोने पर भी अधिकार जमा लिया है । जिससे किसान न तो यह तय कर पा रहा है कि उसे क्या पैदा करना है न ही उसे यह स्पष्ट हो रहा है कि सरकार उसे क्या संरक्षण देगी । अनेक समूह ५१० सुपर मार्केट और माल्स की श्रृखंला खड.ी करने वाले हैैं । गरीब लोगों को दिल्ली, बैगलूरू, कोलकता, मुम्बई आदि मे रहने के लिये कुछ वर्गमीटर जमीन नहीं मिल पा रही है परन्तु नाईट फ्रेक इण्डिया की रिपोर्ट इण्डिया आर्गनाइज्सड रिटेल मार्केट २०१० के मुताबिक अकेले मुम्बई मेें २०१० से २०१२ के दौरान ५.५ करोड. वर्गफीट स्थान फुटकर व्यापार के लिये कम्पनियोें के लिये उपलब्ध होगा । यह जगह तो झुग्गियोें और फुटपाथ पर काम करने वालो को विस्थापित करके ही आएगी ?
इन बाजारों से फुटकर बाजार को संचालित करने वालों के सामने जीविका का संकट खडा़ हो गया है । इस व्यवस्था के जरिये बडे समूह अब यह तय करने लगे है कि उपभोक्क्ता क्या खायेंगे और क्या पियेंगे । इस सुनियोजित व्यापारिक षडयंत्र से किसान और समाज दोनों को ही लाचारी महसूस हो रही है ।

कविता

पेड़-पौधे
कुंवर कुसुमेश

पौधे अवशोषित करें, हर जहरीली गैस ।
मानव करता फिर रहा, उनके दम पर ऐश ।

चुपके-चुपके काटता, जगल सारी रात ।
दिन भर जो करता मिला, हरियाली की बात ।।

अरे कुल्हाड़ी ! पेड़ पर, क्यों कर रही प्रहार ?
ये भी मानव की तरह, जीने के ह्ै हकदार ।।

स्वार्थ-सिद्धि के हेतु ही, कुछ ने काटे पेड़ ।
नासमझी में कर गये, कुदरत से मुठभेड़ ।।

हर पल करती जा रही, प्रकृति तुम्हें आगाह ।
पेड़ों-पौधों की तुम्हेंे, करनी है सबको परवाह ।।

वृक्षारोपण पुण्य है, वृक्ष काटना पाप ।
अब भी समझे नहीं, तो कब समझेंगे आप ?

जीवन की परिकल्पना, बिना वृक्ष बेकार ।
अत्यावश्यक इसलिए, हरा-भरा संसार ।।

वृक्षारोपण का चले, लगातार अभियान ।
इन अभियानों पर अमल, करें आप श्रीमान ।।Align Center

विशेष लेख,

चाय कितनी स्वास्थ्य वर्धक ?
प्रो. ईश्वरचन्द्र शुक्ल/संजय कुमार/ ओमप्रकाश यादव
आधुनिक समय मे चाय एक सुलभ व सस्ता पेय है । इसके बारे मे अनेक धारणाये है । आयुर्वेद तथ युनानी पद्धति मे जो चाय हम पीते है उसे हानिकारक बताया गया है । लेकिन स्फूर्ति तथा थकावट मिटाने मेें अधिकांशत: लोग चाय का ही प्रयोग करते है । ब्रिटिश सरकार ने चाय का प्रचार भारत के प्रत्येक शहर मेें नि:शुल्क किया था । उस समय चाय के साथ डबल रोटी भी मुपत दी जाती थी । धीरे-धीरे अब प्रत्येक भारतवासी औसतन तीन से चार कप चाय पीने लगा है । सच कहा जाय तो चाय गरीब-अमीर सभी का प्रिय पेय है ।
कहा जाता है कि चाय की खोज २७०० ईसा. पूर्व एक आकस्मिक घटना मेें शेननुग ने की थी । दिन भर की थकावट के बाद एक दिन वह अपने बगीचे मेें एक गर्म पानी के प्याले के साथ आराम कर रहे थे उसी समय उनके पास लगे वृक्ष की कुछ पत्तियॉँ उनके प्याले मेें गिर गयीं उन्होंने बिना ध्यान दिये उस प्याले को धीरे-धीरे पी लिया और स्वाद का लुत्फ उठाया, उसके बाद उन्हे इस पेय से दर्द मे राहत महससू हुई । इस तरह एक प्याले चाय का अवतरण हुआ ।
भारत की पौराणिक कथाएं बताती है कि बुद्ध की सात साल की साधना के दौरान पॉँचवे वर्ष मे उन्हें सुस्ती महसूस हुई तभी उन्होंने पास मे लगी हुई झाडी़ की कुछ पत्तियों को चबाकर अपने आपको तरो-ताजा किया, यही झाडी़ एक चाय का एक पेड था ।
चाय के पौधे को वैज्ञानिक भाषा में कैमिला साइनेन्सिस कहा जाता है । चाय के उत्पादन की एक प्रक्रिया होती है जिसमेें हरी व ताजी कालियो को सूखी और काली चाय में परिवर्तित करते हैं । चुनने से लेकर डिब्बो मे बंद करने तक यह कई प्रक्रियाओं से होकर गुजरती है । चुनने के चरण में ऊपरी पत्तियों को ६-७ दिनांे के अन्तर पर तोडा जाता है इनसे गुणवत्त्तापूर्ण चाय उत्पन्न की जाती है । ताजी और हरी पत्तियों को अब नमी रहित बनाने हेतु चौदह घण्टों तक गर्म हवा प्रवाहित की जाती है । सामान्य रूप से चाय निम्न ्रप्रकार की होती है - सफेद चाय (अनॉक्सीकृत), हरी चाय (अनॉक्सीकृत), ओलॉग चाय (आंशिक ऑक्सीकृत) तथा काली चाय (पूर्ण ऑक्सीकृत) । जडी़ बूटी वाली चाय सामान्यत: काढा पत्तियोें फूलोें व फलो, शाकों अथवा पौधों के अलग-अलग भागों का मिश्रण होती है जिसमे कैमिला साइनेन्सिस नही होता है ।
सफेद चाय हरी चाय की तरह ही होती है परन्तु इसका स्वाद हल्का व मीठा होता है । इसे पानी के क्वथनांक से नीचे के ताप पर भिगोना चाहिए । सफेद चाय मेें कैकीन की मात्रा काली चाय मेें ४० मिग्रा के बजाय १५ मिग्रा. व हरी चाय मेें २० मिग्रा. तक होती है। अध्ययन बताते है कि सफेद चाय में कैंसर रोधी प्रति आक्सीकारक हरी चाय की तुलना मेें अधिक होते है । चीन व जापान सफेद चाय उत्पन्न करने वाले दो प्रमुख देश हैं । लेकिन भारत के केवल दार्जिलिंग क्षेत्र मे ही कुछ मात्रा मे उत्पन्न की जाती है ।
हरी चाय वास्तविकता में कैमिला साइनेन्सिस की वह पत्तियॉं होती हैं जिन्हें एक निश्चित प्रक्रिया से गुजारते हैं । इसका स्वाद सफेद चाय की तरह होता है इसमे कैफीन की मात्रा कम होती है तथा प्रतिऑक्सीकरक गुण अधिक होते है । हरी पत्तियों को सुखाने से पहले उनमें कितना ऑक्सीकरण है, की मात्रा देखी जाती है । चाय पत्तियों की शिराओं मे इन्जाइम होता है जो कि पत्तियों के टूटने-फूटने या कटने से बाहर निकलकर आक्सीकृत हो जाते हैैं।
चारों प्रकार की चायो में ओलॉग चाय की प्रक्रियाविधि सबसे जटिल होती है । यह हरी व काली चाय के बीच वाली चाय है क्योेंकि यह प्रक्रिया के दौरान आंशिक रूप से ही आक्सीकृत होती है । पत्तियोें को चुनने के बाद उन्हेें साधारणत: मोड लिया जाता है, और आवश्यक तैलीय पदार्थो के धीरे-धीरे आक्सीकृत होने के लिए हवा मेें खुला छोड देते है । इस प्रक्रिया मेें समय के साथ पत्तियॉँ काली होती जाती है और अलगावकारी सुगन्ध उत्पन्न होती है परिणामत: यह चाय काली व हरी चाय के बीच वाली स्थित मेें आ जाती है ।
काली चाय चारों प्रकार की चायों में सबसे अधिक होती है तथा संसार मे सबसे अधिक लोकप्रिय है । इसका उपयोग मुख्यत: बर्फ वाली चाय व अंग्रेजी चाय बनाने मे किया जाता है। चूंकि काली चाय बनाने की प्रक्रिया मे तीन मुख्य चरण होते हैं, काटना, फाडना और ऐंठना । अत: इसे चाय भी कहते हैं । पत्तियों की नमी को दूर करने के लिए गर्म हवा को उनके ऊपर नरम व मुलायम होने तक बहाते हैैं । इन मुर्झाई हुई पत्तियों से सुगन्धित रस को बाहर निकालने के लिए इन्हें मशीन के पाटों के बीच में डालकर फाड दिया जाता है। फिर इन्हें किण्वन कक्ष मे ले जाया जाता है जहॉं पर नियंत्रित ताप व नमी की उपस्थिति में इनके रंग को तॉँबे के रंग मेें परिवर्तित करते हैं । अन्तत: इन्हें भटठी मेें सुखाया जाता है । जहॉ उष्मा के प्रभाव से यह ऐंठ जाती है और काली-भूरी रंग की जाती है । चाय के अन्य प्रकारों की तरह इसमें भी कैफीन होता है जो एक उत्तेजक है । यह हमारी इन्द्रियां को तुरन्त ही शक्त्ति प्रदान करता है । इसमें अन्य आवश्यक अपवय जैसे पालीफिनॉल व विटामिन आदि भी होता है । काली चाय को पूर्णत: दुग्ध रहित चाय भी कहते है ।
सुगन्धित चाय या फूल चाय, हरी या सफेद चाय होती है । जो कि कुछ फूलोें का सम्मिश्रण होती है । यह कोमल रोचक स्वाद तथा आश्चर्यजनक सुगंधदायी होती है । जैसा कि काली चाय में होता है । फूलों के जैसे ही मूल हरी चाय मेें पसंदीदा स्वाद से भ्रमित करने हेतु खराब किस्मों को डालते हैं । यह कई औद्योगिक रूप से बनायी जाने वाली फूल चाय के साथ होता है । स्वादिष्ट जैशमीन वाली फूल चाय मुख्यत: एशिया व पश्चिमी देशोें में बहुत प्रसिद्ध है जहॉं बहुत लोग इसी किस्म की चाय को पीते है ।
चाय निम्न गुणों के कारण सभी के लिए स्वास्थ्यवर्धक है । इसमेें काफी या कोला की अपेक्षा १/३ भाग कैफीन होती है जो कि थकावट कम करती है । दिमाग की चैतन्यता को बनाये रखती है, द्रव पदार्थो के स्तर को स्थायित्व प्रदान करती है तथा वसा व कैलोरी की मात्रा शून्य होती है । इसके एक कप मेें उपस्थित प्रतिऑक्सीकारक की मात्रा एक बार की सब्जियों की मात्रा के बराबर होती है । चाय प्राकृतिक पलोराइडोें का अतुल्य स्त्रोत है जो कि मुॅह के जीवाणुओं को बढा़ने से तथा दन्तीय परत के लिए जिम्मेदार इन्जाइमों को रोकता है । इसमें मैग्नीज और पोटेशियम की भी प्रचुर मात्रा होती है जो कि क्रमश: हडि्डयोें को स्वास्थ्य और ह्दयगति के नियंत्रित करते हैैं । इसके अतिरिक्क्त विटामिन इ१, इ२, इ६ फोलिक अम्ल और कैल्सियम आदि भी पाये जाते है ।
चाय का उपभोग ह्दय रोगियोें के लिए लाभदायक हो सकता है । इसमेें उपस्थित पलेवनोइड्स ह्दयरोगों से बचाता है । शुद्ध चाय रक्त चाप के जमाव को कम करने, रक्तचाप को घटाने, केलेस्ट्राल को कम करने तथा शरीर के परिवहन तंत्र, धमनी व शिराआें को स्वास्थ्य बनाये रखती है । शोध द्वारा पाया गया कि वे लोग जो एक या एक से अधिक काली चाय के प्याले का सेवन करते हैं उनमे ह्दयघात का खतरा चाय का सेवन न करने वाली की तुलना में ४० प्रतिशत तक कम होता है।
ऐसा माना जाता है कि चाय कैंसर से बचाव में सहायक है । इसमें उपस्थित प्रतिआक्सीकरण, मुँह, पेट, पेंक्रियास, फेफड़े, ग्रास नली, छाती, वृहदन्त और पौरूष ग्रन्थि के कैंसर से बचाव करने में सहायता करते हैं । हरी चाय ग्रास नालिका के कैंसर को रोकने में सहायक होती है । हरी और काली चाय पैरूषग्रन्थि के कैंसर को बढ़ने से रोकती है । हरी तथा सफेद चाय वृहदन्त कैंसर से लड़ती है तथा पेट के कैंसर के खतरों को कम करती है । गर्म चाय त्वचा कैंसर के खतरे को कम करती है । इतना ही नहीं चाय धूम्रपान से होने वाले कैंसर से भी बचाव करती है । चाय को रोग प्रतिरोधक क्षमता
बढ़ाने वाला माना जाता है हरी चाय के कुछ अवयव ल्यूकीमिया कोशिकाआें को मारने में सहायता करते हैं । इसको कई अन्य बीमारियों जैसे - अल्जाइमर, उच्च्दबाव व एड्स के खतरों को कम करने वाला भी माना जाता है ।
चाय पीने से स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव भी पड़ते है । टी बैग (चाय का थैला) में कैंसर उत्पन्न करने वाले पदार्थ भी पाये जाते हैं । कुछ चाय के थैलों को भीगे हुए कागज पर सहारा देकर इपीक्लोरोहइड्रीन की परत चढ़ाते है, जो कि कैंसर उत्पन्न करने वाले पदार्थ के रूप में माना जाता है । यह केवल चाय तक ही सीमित नहीं है, कॉफी के थैलों में भी यह प्रभाव होता है । अत: खुली चाय पत्तियों का प्रयोग किया जाय या ऐसे चाय के थैलों का प्रयोग किया जाये जिनपर कोई परत न चढ़ायी जाये । फ्
सभी चाय पत्तियों में फ्लोराइड पाया जाता है । एक ही पेड में प्रौढ. पत्तियों में नई पत्तियों की तुलना में फ्लोराइडों की मात्रा कम होती हैं । क्योंकि इसे केवल कलियों और नई पत्तियों से बनाया जाता है । फ्लोराइड की यह मात्रा सीधे तौर पर मृदा में फ्लोराइडों की मात्रा पर निर्भर करती है । चाय के पौधे इस तत्व का अवशोषण अन्य पौधों की अपेक्षा अधिक करते हैं ।
कैफीन से जुड़े प्रभाव भी कम
नहीं है । यह एक आदतीय दवा है और चाय की अधिक मात्रा लेने से इसका कुप्रभाव पड सकता है । जैसे कि निद्रा व्याधि में वृद्धि होने की संभावना बढ. जाती है । प्रति कैफिनीकरण करने से काली व हरी सूखी चायों में पूरे कैफीन को क्रमश: १५ से ३ गुना तक कम करता है ।
काली चाय मुख्यत: कैफीन का स्त्रोत है । यद्यपि अधिकांश चायों में कैफीन की औसतन मात्रा काफी के एक प्याले से कम होती है । कुछ लोग कैफीन के प्रभाव के लिए विशिष्ट ग्रहणशील होते है और थोड़ी सी मात्रा में भी व्यग्रता, कम्प, तथा रक्तचाप में बढोत्तरी महसूस करते है । कैफीन के स्तर को कम करने का एक ही तरीका है कि सफेद चाय पी जाये, जो कि कम कैफीन वाली होती है या प्राकृतिक रूप से प्रतिकैफीनीकृत काली या हरी चाय खरीदी जाये ।
चाय में आक्सलेट होते हैं जो कैल्सियम में जुडकर ऑक्सलेट युक्त गुर्दे की पथरी बनाते है । चाय में आक्सलेटों का होना बहुत लोगों के लिए समस्या है । कुछ ग्रहणशील लोगों में बहुत अधिक ऑक्सलेट, गुर्दे की पथरी के खतरे को बढ़ा देती है । जिन लोगों के पृष्ठभूमि में गुर्दे की पथरी हो उन्हें बहुत नियंत्रित मात्रा में चाय लेनी चाहिए और ऑक्सलेटों वाले भोज्य स्त्रोतों को कम करना चाहिए । यह शरीर में मुक्त कैल्सियम व अन्य खनिजों को सोख लेते हैं ।
चाय से मिलने वाले टेनिन ने जो कि एक प्रकार के पाली फिनाल है अधिक मात्रा में होने पर अच्छा व पौष्टिक स्वाद देते है । लेकिन यह कुछ निश्चित खनिजों जैसे लोहा के अवशोषण को कम करता है । अत: कुछ लोगों में एनिमिया हो जाती है । इससे बचने के लिए चाय को भोजन के साथ नहीं लेना चाहिए । दूसरी तरीका चाय में नीबू की कुछ बूँदे पीने से पहले डालनी चाहिए । नीबू में विटामिन सी की उपस्थित टेनिन के खनिज अवशोषण के हानिकारक प्रभाव को रोकने में सहायता करती है ।
अधिक चाय पीना ग्रास नली कैंसर के गंभीर खतरे से जुड़ा हुआ है। एक कारक अध्ययन में पाया गया कि गुनगुनी चाय या हल्की गरम चाय की अपेक्षा गर्म चाय या बहुत गर्म चाय से ग्रास नली कैंसर के होने का खतरा बढ. जाता है । चाय को उडेलने के बाद कम से कम ४ मिनट बाद पीने के विपरीत दो से तीन मिनट में पीने पर या दो मिनट से कम समय में पीने पर यह खतरा और भी बढ. जाता है । दोषपूर्ण भण्डारण एवं पैकिंग भी चाय को हानिकारक बनाते है । दोषयुक्त भण्डारण तकनिकी के द्वारा चाय पत्तियों में कवकीय वृद्धि उत्पन्न हो जाती है । जिसे साधारण पत्तियों से अलग नहीं किया जा सकता, चाय बनाते समय यह कवक पानी में घुल जाते है । यदि इनका उपभोग किया जाता है तो इससे कई प्रकार की बीमारियाँ व एलर्जी होती है ।
चाय सभी उम्र वर्गो के लोगों द्वारा पसन्द किया जाने वाला पेय है और इससे संबंधित उत्पाद हमें कहीं भी प्राप्त् हो सकते है । उदाहरणार्थ स्वादिष्ट हरी चाय केक, हरी चाय आइस्कीम, बर्फ से शितित नीबू चाय इत्यादि आसानी से सभी दुकानों या सुपर बाजारों में उपलब्ध रहती है । चाय से बने भोज्य पदार्थो के स्वादिष्ट होने के साथ-साथ इन्हें
भोजन उपरान्त लेने से यह हमारे पाचन में सहायक होते है । हरी चाय पत्तियां मांस की तैलीय प्रकृति को साफ करने में सहायक होती है तथा समुद्री भोजन से आने वाली मछली की महक से भी छुटकारा दिलाती है और यह अपने साथ एक अनोखी सुगन्ध लाने वाली होती है । चाय से अधिकाधिक स्वास्थ्यवर्धक फायदे लेने के लिए अपने नजदीकी या आनलाइन दुकान से अच्छे गुणों वाली खुली चाय पत्तियों को ही लें । इसे बनाये एवं आनंद उठायें और हाँ जब आप घर से बाहर जा रहे हों तो भी बोतल बंद चाय का आनंद लेने के विचार को न छोड़े ।
इतना सब कुछ जानने के बाद आप स्वयं तय करें,चाय का सेवन करें लेकिन इतना नहीं कि हानिकारक हो जाए । आज के युग में चाय से बचना अत्यन्त कठिन है । कभी-कभी तो मेजबान बड़े संकट में पड़ जाता है । जब आप कहते हैं कि मैं चाय नहीं पीता । हम आसानी से कह सकते है कि चाय सर्वत्र मिलने वाली सब्जियों में कद्दू के समान ही है जिसे गरीब अमीर सभी प्रयोग कर सकते है ।

प्रदेश चर्चा

आंध्र : मछुआरे, नदी और पानी
आर.उमा माहेश्वरी
आंध्रप्रदेश में गोदावरी नदी पर पोलावरम बांध बनने से हजारों मछुआरे दैनिक मजदूर में परिवर्तित हो जाएंगे । अन्य विस्थापितों को कम से कम जमीन के बदले जमीन या अन्य कोई मुआवजा तो मिल जाएगा । परन्तु पुनर्वास योजनाआें में मछुआरों का जिक्र तक नहीं है क्योंकि वे न तो नदी और न ही पानी पर अपना कोई स्वामित्व जतला सकते है ।
मल्लाडी पोसी और ईश्वर राव, पल्ली जाति के मछुआरे हैं जो कि गोदावरी नदी के किनारे बसे एक ऐसे गांव के निवासी है जिसे पोलावरम बांध के निर्माण से विस्थापन का खतरा पैदा हो गया है । मल्लाडी पोसी मंतुरू में नाव खेने और मछुआरे का कार्य करता है । उसकी अकेली नाव ही मंतुरू गांव को जो कि पूर्वी गोदावरी क्षेत्र में आता है, को नदी के रास्ते पश्चिमी गोदावरी के वेडापल्ली से जोड़ती है । मंतुरू उन २७६ गांवों में से एक है जो करोड़ों की लागत से बनने वाले बहुउदेदशीय पोलावरम (इंदिरा सागर) सिंचाई परियोजना की डूब में आ रहा है ।
पोसी और उसके मित्र मानसून के तीन-चार महीनों के लिए गोदावरी में मछली संबंधित अपनी गतिविधियां रोक देते है और सितम्बर की शुरूवात में पुन: प्रांरभ कर देते हैं । इस दौरान वे सितम्बर से मई के बीच हुई अपनी आमदनी पर गुजारा करते है । करोडों की लागत वाली इंदिरा सागर पोलावरम बांध परियोजना से ९६० मेगावाट विद्युत उत्पादन भी प्रस्तावित है । इसके अलावा इससे गोदवारी के क्षेत्र में ७ लाख एकड भूमि में अतिरिक्त सिंचाई का भी प्रावधान है । परन्तु इस परियोजना के साथ कुछ गंभीर प्रश्न भी जुडे हुए है । सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि गोदावरी किसके लिए बहती है ? जिस तरह आदिवासी समुदाय को जमीन के बदले जमीन या जंगल के बदले जंगल मिलने का प्रावधान है उसी तरह क्या मछुआरे नदी के बदले नदी का मुआवजा प्राप्त् कर सकते हैं ? इन प्रश्नों से उन पुरूषों और महिलाआें की दारूण स्थिति का भान होता है जो कि अन्य लोगों से कहीं ज्यादा गोदावरी के प्रवाह से जुडे हुए हैं । जैसे ही पोलावरम बांध पूरा होगा ये समुदाय हमेशा-हमेशा के लिए अपनी पहचान खो चुके होगे और उन सैकडों हजारों दिहाडी मजदूरों में शामिल हो जाएंगे जिन्हें हम निर्माण स्थल या खेतों में पाते हैं । पोलावरम बांध के पुनर्वास एवं पुनर्बसाहट योजनाआें के आंकडों में मछुआरा समुदाय का कोई उल्लेख ही नहीं है । यह अजीब तमाशा है कि जनसंख्या के इस वर्ग की एजेंसी क्षेत्र में गणना ही नहीं की गई है ।
भारत सरकार के पूर्व जल संसाधन सचिव रामास्वामी अय्यर का कहना है पानी के इस्तेमाल के अधिकार तो हैं लेकिन इसे लेकर सम्पत्ति का अधिकार नहीं है । यह सोचना लाभप्रद होगा कि सभी प्रकार के जल संसाधन (नदी, झील, तालाब, भूजल) न तो राज्य की सम्पत्ति है और न ही निजी बल्कि ये तो समुदाय की सम्पत्ति है और इन्हें राज्य ने समुदायों के हित में अपने अधीन कर रखा है । जबकि इन्हें सार्वजनिक ट्रस्ट के सिद्धांत पर उपयोग में लाना चाहिए ।
एक नदी को बजाय सामुदायिक सम्पत्ति संसाधन समझ्ने के इसे साझा प्राकृतिक संसाधन की तरह से देखना चाहिए । सम्पत्ति का विचार ही समस्या की जड है और यह प्राकृतिक संसाधनों को लेकर व्यावसायिक दृष्टिकोण के एक पहलू से जुडा हुआ है । इस प्रक्रिया में शोषण तो अंतर्निहित ही है । व्यापक वैश्विक राजनीतिक अर्थव्यवस्था के चलते नदी या किसी भी अन्य प्राकृतिक संसाधन को सामूहिक सम्पत्ति संसाधन मानने के सिद्धांत पर वास्तव में गंभीर विमर्श की आवश्यकता है ।
जब कोई व्यक्ति नदियों, चरागाह या चरनोई को सम्पत्ति कह कर संबोधित करता है तो इस पर अधिकारों को लेकर राज्य व शक्ति के अन्य स्त्रोतों के नजरिए से विचार होने लगता है और सीमांत या वंचित समुदाय को इसके स्वामित्व को लेकर अपने अधिकार सिद्ध करना होते है । इस संदर्भ में खास बात यह है कि इन लोगों ने प्रथमत: इन संसाधनों को कभी अपनी सम्पत्ति समझा ही नहीं है।
इसका सबसे सहज उदाहरण उन मुछआरों का है जो कि वर्ष में ५ से ६ महीनों के लिए गोदावरी के किनारे अपनी अस्थायी रिहायश बना लेते है । आदिवासी समुदाय अपने उन गांवों की रेत और किनारों पर बनने वाले इन अस्थायी घरों हेतु न तो कोई पूछताछ करता है और न ही इनके स्वामित्व पर कोई बात करता है । एक नदी, एक पहाड या एक वन जैसे प्राकृतिक संसाधन को साझा करना अंतत: उनके जीवन का विस्तार ही है ।
यहीं पर यह सवाल उठता है कि नदियों पर सिंचाई परियोजना बनाते समय किसके हित सर्वोपरि रहेगे ? कृषि के, उद्योग के या मछुआरों के ? क्या नदियों और जंगलों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संबंध मेंअंतिम निर्णय लेने का अधिकार केवल किसको है ? वैसे विशेषज्ञ अक्सर इन सवालों पर बहस करते हैं । लेकिन जिनका रोजमर्रा का जीवन इन कार्योंा से प्रभावित होता है उनसे इन मसलों पर कभी भी सलाह मशविरा नहीं किया जाता । स्पष्टत: साझा सपंत्ति को सामुदायिक की तरह आत्मसात कर और व्यवहार में लाकर परिभाषित कर दिया जाता है ।
मल्लाडी पोसी का कहना है कि पोलावरम परियोजना के कारण हमारी दशकों पुरानी जीविका नष्ट हो जाएगी
क्योंकि यहां का जलस्तर बढ. जाएगा । हम अब यहां कभी भी मछली नहीं पकड पाएंगें । मंतुरू के श्रीनु इससे सहमति जताते हुए कहते है बांध के आते ही हमें हमारे पारम्परिक व्यवसाय को भूल जाना पडेगा । देवीपट्टनम (पूर्वी गोदावरी) के फिशरमेनपेटा के एक अन्य पाल्ली मछुआरे मल्लाडी गंगाधरम का कहना है हमारे विरोध के बावजूद यहां बांध तो बनेगा ही ।
बांध के पानी में हमारी जीविका डूब जाएगी । वे हमें और कहीं भी ले जाएं लेकिन हमें तो गोदावरी पर ही जिंदा रहना है क्यों हमें कोई और कार्य (कौशल) आता ही नहीं है । हम मजदूर की तरह जिंदा नहीं रह सकते । गोदावरी के सहारे जीना ही हमारा धर्म है । हम क्या कर सकते है यदि वे हमें वह सब नहीं देते जो हम चाहते हैं ?
फशरमेनपेटा में पाल्ली मछुआरों के तीस परिवार हैं । इस गांव के अदादादी रामबाबू का कहना है हम करीब २५ वर्ष पूर्व इसी जिले के तल्लापुडी गांव से इसलिए यहां आए थे क्योंकि वहां पर मछली मारना कठिन हो गया था । बांध के बन जाने के बाद हम एक बार पुन: ट्ठपनी जीविका से हाथ धो बैठेगें । वैसे भी भले ही बाढ आए या कुछ और हमें तो कभी भी मुआवजा मिलता ही नहीं है ।

पर्यावरण परिक्रमा

सन् १९९० के बाद ८ साल बढ़ी भारतीयों की उम्र

भारतीयों की औसत आयु में आठ साल का इजाफा हुआ है । यह इजाफा साल २००९ में देखा गया जो कि दो दशक पहले की तुलना में अधिक है । यह आंकडा वैश्विक औसत जीवन प्रत्याशा (लाइफ एक्सपेक्टेंसी) से भी तीन वर्ष अधिक है ।
ये आकड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी हेल्थ स्टेटिटिक्स २०११ में सामने आए है । आंकड़े बताते है कि साल २००९ के दौरान एक भारतीय महिला अपने पुरूष साथी से तुलना में तीन साल अधिक जीवित रही । यानी भारतीय पुरूष की जीवन प्रत्याशा उम्र ६३ साल की तुलना में ये महिलाएं ६६ वर्ष की उम्र तक रहीं । आंकड़ो के मुताबिक, लेकिन इस शताब्दी के बाद महिलाआें की यह उम्र ६२ और पुरूष की ६० वर्ष रह जाएगी । ये आंकड़े औसतन ६५ वर्ष की उम्र रहे जीवित रहे भारतीयों पर जारी हुए है ।
रिपोर्ट के मुताबिक साल २००९ में वैश्विक औसतन जीवन प्रत्याशा उम्र ६८ साल रही । तुलनात्मक रूप से देखें, तो १९९० में भारतीयों की औसतन आयु
५७, जबकि साल २००० में यह ६१ वर्ष देखी गई । डब्ल्यूएचओ के अनुसार, १९९० के बाद से महिला-पुरूषों की वैश्विक आबादी की उम्र में ४ साल की बढ़त हुई है ।
आंकड़े बताते है कि चीन और भारत की महिला-पुरूष आबादी के तुलनात्मक अध्ययन से पता चला है कि औसत आयु से चीनियों की जीवन प्रत्याशा नौ साल ज्यादा है । १९९० में चीनियों की औसत आयु जहां ६८ वर्ष थी, २००९ में यह ७४ वर्ष तक जा पहुंची । हालांकि भारतीयों से पाकिस्तानियों की औसतन आयु दो वर्ष कम है । पाकिस्तान में जीवन प्रत्याशा की औसत आयु ६३ साल है, जबकि नेपाल में यह ६७, थाईलैण्ड में ७० और बांग्लादेश में ६५ है । जीवन प्रत्याशा के ये आकड़े भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक है । रिपोर्ट बताती है कि वर्ष २०२१ तक एक भारतीय महिला ७२.३ वर्ष तक जीवित रहने की इच्छा कर सकती है जो कि २००१ में ६६.१ और वर्तमान में ६८.१ साल थी ।

पन्ना में बनेगा बॉयोस्फियर रिजर्व
मध्यप्रदेश के पन्ना वन क्षेत्र को राज्य का तीसरा बायोस्फियर रिजर्व बनाए जाने की तैयारीं की जा रही है । पन्ना की नैसर्गिक जैव विविधता को देखते हुए यह निर्णय लिया गया है ।
इस परियोजना का प्रस्ताव एनवॉयरमेंटल प्लानिंग एंड कॉरडिनेशन ऑरगेनाईजेशन की ओर से बनाया गया है जिसका राज्य सरकार द्वारा गठित अंतर विभागीय समिति की ओर से अनुमोदन के बाद अब इसे केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को भेजा जाएगा । भारत में बॉयोस्फियर रिजर्व यूनेस्को के मेन एंड बॉयोस्फियर को ध्यान में रखकर बनाए जाते है ये एक अंतर्राष्ट्रीय अवधारणा है इसमें जंगलों को उनमें रहने वाले ग्रामीणों और आदिवासियों के साथ संरक्षित किया जाता है ऐसे बॉयोस्फियर रिजर्व का क्षेत्रफल विशाल होता है और कोर क्षेत्र को नियम के मुताबिक संरक्षित रखा जाता है । जबकि बफर और ट्रांजीशन क्षेत्र में अभ्यारण्य रखे जाते है । बफर और ट्रांजीशन क्षेत्र में आदिवासियों और ग्रामीणों को जस का तस रहने दिया जाता है ।
अभी तक भारत में १६ बॉयोस्फियर रिजर्व बनाए गए है जबकि दुनिया में १०९ देशों में ५६४ बॉयोस्फियर रिजर्व बने है । मध्यप्रदेश में ये दो है । इनमें से एक पचमढ़ी बॉयोस्फियर रिजर्व है जबकि दूसरा मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर आने वाला अचानक मार-अमरकंटक बॉयोस्फियर रिजर्व है । पन्ना बॉयोस्फियर रिजर्व मध्यप्रदेश का तीसरा बॉयोस्फियर रिजर्व होगा, जिसका कुल क्षेत्रफल लगभग ३००० वर्ग किलोमीटर रखा गया है । इसका विस्तार पन्ना तथा छतरपुर जिलों तक होगा जिसमें पन्ना राष्ट्रीय उद्यान तथा गंगऊ और केन द्यड़ियाल अभ्यारण्यों को शामिल किय जाएगा । इसमें कुछ हिस्सा खजुराहों युनेस्को की तरफ से पहले ही विश्व धरोहर घोषित किया जा चुका है ।
बॉयोस्फियर रिजर्व के लाभ समाज विज्ञानी मानते है कि जंगल से आदिवासियों को खदेड़े जाने पर वह शिकारियों के साथ मिलकर जन जीवों का शिकार करने लगते है या गलत रास्ते पर चले जाते है । बॉयोस्फियर रिजर्व की अवधारणा से आदिवासियों की इन चिन्ताआें को दूर किया जा सकेगा ।

युवा ने बनाई भूसी से बिजली

आत्म निर्भरता के साथ-साथ पर्यावरण सुधार और गरीबी के बाजवूद तरक्की के साथ कदमताल करने का करिश्मा कैसे किया जा सकता है, यह कोई बिहार के इलेक्ट्रिल इंजीनियर जानेश पांडेय से सीखे । भूसी से साफ-सुथरी बिजली बनाकर अपने राज्य के पश्चिमी चंपारण जिले के बेहद गरीब ३८० गांवों को जगमगाने का काम ने उन्हें पूरी दुनिया की निगाहों में ला दिया है ।
अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में ब्रिटेन के जानेमाने एशडेन अवार्ड की चयन समिति ने ज्ञानेश के काम को दुनिया के पांच सबसे इनोवेटिव ग्रीन प्रॉजेक्ट्स में शामिल किया है । एशडेन के मुताबिक युवा ज्ञानेश की कंपनी के ६५ मिनी पावर प्लांटों से ऐसे करीब दो लाख लोगों को बिजली मिल रही है जिनके पास इससे पहले बिजली पाने का कोई जरिया न था । इस बिजली की कीमत भी बहुत वाजिब है । सौ रूपये महीने के खर्च पर प्रत्येक घर को ५० वॉट बिजली मिल रही है, जिससे सीएफएल के दो बल्ब जलाए जा सकते है और मोबाइल फोन चार्ज किया जा सकता है । एशडेन की नजर में इस प्रोजेक्ट का सबसे बड़ा फायदा पर्यावरण को होगा क्योंकि इससे कार्बनडाइऑक्साइड के उत्सर्जन में सालाना ८ हजार टन की कटौती हो रही है ।
भारत जैसे गरीब मुल्क के लिए ऐसे आविष्कार कई और मायनों में क्रांतिकारी कहे जा सकते है । देश में आज भी ऐसे हजारों गांव है जहां बिजली पहुंचाने का कोई इंतजाम तमाम दावों के बावजूद शायद अगले दस साल मेंे भी मुमकिन नहीं हो पाएगा । इसके अलावा शहरों में बिजली की खपत में बेहिसाब बढ़ोतरी के चलते वे गांव-कस्बे भी अभी अंधेरे में डूबे रहते है जहां कहने को बिजली पहुंची हुई है । आजादी के ६० साल बाद भी लालटेन की रोशनी में पढ़ते बच्चें की यह मजबूरी खत्म की जा सकती है, बशर्ते वहां धान की भूसी जैसी बेकार समझी जाने वाली चीजों से बिजली बनाने के इंतजाम हो जाएं । ज्ञानेश के हस्क पावर प्लांट इस मामले में बड़ी उम्मीद जगाते है ।
अपने देश में गांवों को आत्मनिर्भर बनाने वाले कुछ ऐसे प्रयोग पहले भी हुए है - जैसे गोबर गैस प्लांटो से घरों को बिजली और खाना पकाने की गैस एक साथ दे सकने वाला अद्धुत इंतजाम । अनुमान है कि करीब २५ लाख घरों को इससे बिजली मिल रही है । लेकिन देश में बिजली की बढ़ती जरूरतों के बावजूद अब इसकी कोई विशेष चर्चा न होना हैरानी पैदा करता है । भारत की जमीन से उठे आविष्कारों का कोेई मतलब तभी है जब गरीब जनता को उनका भरपूर फायदा दिलाया जाए ।

कान्हा और पेंच को जोड़ने की कोरीडोर योजना
मध्यप्रदेश के विभिन्न नेशनल पार्क टाइगर रिजर्व में वन्य प्राणियों की मौतीं की घटनाआें में अचानक ही वृद्धि को राज्य शासन ने गंभीरता से लिया है । इन दुर्लभ होते जो रहे वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिये अनेक उपाय किये जा रहे हैं जिनमें कान्हा और पेंच नेशनल पार्क को जोड़ने वाली कारीडोर योजना भी शामिल है ।
वन विभाग के सूत्रों के अनुसार बांधवगढ़, पन्ना, कान्हा पेंच नेशनल पार्क एवं राजधानी भोपाल के वन विहार में बिते कुछ माहों में अचानक ही अनेक बाघों की मौत हो चुकी है । राज्य शासन ने इसे अत्यन्त गंभीरता से लिया है और बाघों के संरक्षण के लिये एक कार्य योजना को क्रियान्वित किया जा रहा है । इसी क्रम में सतपुड़ा अंचल के मंडला, बालाघाट जिले की सीमा में स्थित कान्हा नेशनल पार्क एवं सिवनी जिले की सरहद में स्थित पेंच नेशनल पार्क को जोड़ने के लिये कारीडोर बनाया जाना प्रस्तावित है ।
सूत्रों के अनुसार इस कारीडोर के बनने से वन्य प्राणियों के साथ बाघों को सुरक्षित विचरण सुनिश्चित होगा, आगामी दो साल में यह कारीडोर बन कर तैयार हो जायेगा । कारीडोर के निर्माण में सिवनी के साथ मंडला जिले के १३८ ग्राम बीच में आ रहे है, जिनमें वन गांव भी शामिल है । इन ग्रामों को वहां से हटाया जाना जरूरी होगा । अन्यथा वन्य जीवों की आवाजाही प्रभावित होगी इस स्थिति में सभी १३८ गांवों के विस्थापन की योजना बनायी जा रही है ।
बताया गया है कि प्रस्तावित कारीडोर पेंच नेशनल पार्क से लगे पेंच अभ्यारण्य दक्षिण वनमण्डल के रूखड़ अरी बरघाट एवं उगली वन परिक्षेत्र के सुदूर वनांचलों से होते हुए मंडला जिले के नैनपुर, चिरई डोगरी, वन परिेक्षेत्रों से होता हुआ कान्हा नेशनल पार्क से जुड़ेगा ।
इस कारीडोर के बन जाने से पेंच पार्क के बाघ स्वछंद विचरण करते हुये कान्हा तक पहुंच सकेगे, साथ ही वहां के अन्य वन्य प्राणी भी इसी कारीडोर से होते हुये पेंच की परिधि में प्रवेश कर सकेगेंऔर मध्य में पड़ने वाले ग्रामों के विस्थापन होने से वन्य प्राणियों समुचित सुरक्षा हो सकेगी, क्योंकि सभी ग्राम काफी आबादी वाले है ।

कृषि जगत

क्या शीत लहर प्राकृतिक आपदा है ?
सुश्री ज्योतिका सूद
पिछले वर्षो में अनेक अनुशंसाआें के बावजूद शीतलहर को प्राकृतिक आपदाआें की श्रेणी में न डालना भारतीय शासन व्यवस्था का कृषि के प्रति दुराग्र्रह ही दिखाता है । इस वर्ष मध्यप्रदेश में पाला पड़ने से हजारों कराे़ड रूपए की फसलें नष्ट हो गई और लाखों किसान बर्बादी के कगार पहुंच गए हैं । मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की पहल पर पुन: उपरोक्त मसले पर बहस प्रारंभ हुई है ।
जलवायु के बदलते स्वरूप से सचेत हुई केन्द्र सरकार अब शीतलहर या पाला पड़ने को आपदा सहायता कोष में शामिल कर सकती है । वर्तमान में राष्ट्रीय आपदा नियंत्रण कोष एवं राज्य आपदा नियंत्रण कोष के अन्तर्गत तूफान, सूखा, भूंकप, सुनामी या कीटों के प्रकोप जैसी विपदाआें से ही पीड़ितों को मुआवजा मिल पाता
है । गृह मंत्रालय के एक सूत्र का
कहना है कि वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी
की अध्यक्षता वाला मंत्री समूह शीतलहर या पाला पड़ने को राष्ट्रीय आपदा घोषित कर इसे राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय आपदा राहत कोषों में सम्मिलित करने पर चर्चा कर रहा है । गृह मंत्रालय के अधिकारी का कहना है कि इस हेतु संसद में एक संशोधन लाना होगा । मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के अनुरोध के पश्चात यह विमर्श प्रारंभ हुआ है । इस वर्ष जनवरी में पाले के कारण मध्यप्रदेश पर बहुत ही विपरीत प्रभाव पड़ा था । केन्द्रीय कृषि मंत्रालय एवं योजना आयोग दोनों ने ही इस पहल का स्वागत किया है ।
मध्यप्रदेश में इस वर्ष अत्यधिक ठंडे मौसम के कारण करीब ३६ लाख हेक्टेयर में रबी की फसलें जैसे अरहर, चना, मसूर, मटर, गेहूं और सब्जियों की फसल नष्ट हो गई थी । इससे ४६ जिलों के करीब ३५ लाख किसान ्रप्रभावित हुए थे । राज्य सरकार मई तक १३९५ करोड़ रूपए मुआवजे के रूप में बांट चुकी है । श्री चौहान का कहना है कि १३९५ कराे़ड़ रूपए इकट्ठा करने के लिए उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों से ३७७ करोड़ रूपए उधार लेने पड़े है । इस संबंध में प्रधानमंत्री और मंत्री समूह के सदस्यों से अनेक बार मुलाकातें भी की थीं । शीत लहर या पाले को सहायता कोष में शामिल करने के अलावा उन्होनें अतिरिक्त केन्द्रीय मदद के रूप में राज्य द्वारा खर्च किए गए १३९५ करोड़ रूपए की भरपाई की बात भी कही है ।
श्री चौहान का कहना है कि मंत्रियों का समूह सैद्धांतिक रूप से उपरोक्त दोनों बातों पर राजी हो गया है । साथ ही केन्द्र मध्यप्रदेश में पाले के कारण हुई हानि के आकलन के लिए वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों के एक समूह के गठन पर भी सहमत हो गया है । भोपाल स्थित भारतीय मौसम विभाग के निदेशक डी.बी.दुबे के अनुसार पाला एक प्राकृतिक आपदा है और यह अधिकांशत: फसलों को ही प्रभावित करता है । उनका यह भी कहना है कि यह किसानों को सुरक्षात्मक उपाय करने का मौका भी नहीं देता । मध्यप्रदेश में अनेक स्थानों पर शीत लहर इस वर्ष इतनी प्रबल थी कि ठंड के पिछले रिकॉर्ड टूट गए । उदाहरण के लिए रीवा जिले में ५४ वर्ष का न्यूनतम तापमान -१.२ डिग्री सेल्सियस दर्ज हुआ । उमरिया में तापमान-०.२ डिग्री सेल्सियस हो गया जो कि पिछले ७४ वर्षो का न्यूनतम था । वहीं भोपाल में तापमान पिछले ३३ वर्षो में सबसे कम यानि २.३ डिग्री सेल्सियस तक गिर गया था । इस स्थिति को समझाते हुए डी.बी.दुबे कहते है कि यह आपदा पश्चिमी विक्षोभ की वजह से उत्तर भारत, जिसमें मध्यप्रदेश राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश शामिल हैं, में चली शुष्क एवं ठंडी हवाआें का परिणाम थी । अफगानिस्तान और पाकिस्तान के निचले इलाकों में
तुफान के खिलाफ बने प्रवाह ने
भी इन तीन राज्यों में ठंंडी हवाआें में वृद्धि की । किसानों के पास ऐसा विकल्प भी मौजूद नहीं है कि वे इस तरह के मौसम से अपनी फसला का बीमा करवा सकें । क्योंकि राष्ट्रीय फसल बीमा योजना में शीत या गर्म हवा की लहरों के बीमा का प्रावधान ही नहीं है ।
पिछले पांच वर्षो से गर्म एवं ठंडी हवाआें अथवा पाले को आपदा राहत कोष में शामिल करने हेतु बहस चल रही है । राजस्थान और उत्तराखंड इन दोनों को प्राकृतिक आपदाआें की श्रेणी में शामिल करने का आग्रह कर रहे है । परन्तु १३ वें वित्त आयोग ने उसकी मांगों को रद्द कर दिया था । भारतीय कृषि अनुसंधान शोध परिषद ने भी अनुशंसा की थी शीत लहर और लू को प्राकृतिक विपदाआें में सम्मिलित कर लिया जाए । १३ वें वित्त आयोग द्वारा इस मसले के अध्ययन हेतु नियुक्त राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान ने २००९ में अपने अध्ययन प्रपत्र में कहा था कि आने वाले वर्षो में जलवायु परिवर्तन के कारण अत्यन्त प्रतिकूल मौसम होने से मानव जीवन पर खतरा बढ़ जाएगा ।
इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि इसलिए आयोग शीत लहर व गर्म हवा की लहर को आपदा की श्रेणी में शामिल करने पर विचार कर सकता है । बशर्तेेंा ये शीत व गर्म हवा की लहरें अपनी प्रकृति में असामान्य हों और वे पिछले २० वर्षो के दौरान दर्ज उच्च्तम रिकॉर्ड से अधिक हो । परन्तु आयोग ने इन अनुशंसाआें की अनदेखी कर दी ।

पक्षी जगत

पक्षियों में अस्तित्व का सकंट
प्रो. आर.के. कृष्णात्रे
अंगराज कर्ण ने दधीचि की महानता पर चर्चा करते हुए भीष्म पितामह से कहा था - नर तन की शोभा हाथ से है और हाथ की शोभा दान से हैं । शोभा सौन्दर्य श्रृगांर आदि शब्दों का अपने आप में कोई महत्व नहीं जब तक इन्हें सापेक्षिक संदर्भ में न देखा जाय । शारीरिक सौन्दर्य, मूर्ति-श्रृगांर जैसे समासिक शब्द ही इनके यथार्थ का बोध करा सकते है ।
यदि वृक्षों के श्रृंगार की बात करेंतों फूल, फल और पक्षियों की याद आती है । इनमें पक्षियों का स्थान सर्वश्रेष्ठ है । पर्यावरण विदों ने इसे स्वीकार किया । मिल्टन फ्रेण्ड ने अपने शोध अध्ययन में यह स्पष्ट किया है कि पेडों पर बैठे पक्षियों का कलख उनके सौन्दर्य और रंग में निखार लाता है । शोध से यह रहस्य भी प्रकाश में आया है कि पेडों पर पक्षियों का विश्राम उनकी आयु बढ़ाता है ।
धरती के पर्यावरण की समृद्धि एवं संतुलन पेड़-पौधों पर आधारित है । इनमें से यदि कोई कम होने लगे तो दूसरे पर व्यापक प्रभाव पड़ता है । निरन्तर विलुप्त् होती पक्षियों की प्रजातियां पर्यावरण में गंभीर असंतुलन उत्पन्न कर रही है । अनेक दुर्लभ प्रजातियां समाप्त् हो चुकी है । पक्षियों की लगातार घटती संख्या अत्यन्त निराशाजनक स्थिति है । पर्यावरण के संरक्षण एवं विकास के लिये पक्षियों का अस्तित्व नितांत आवश्यक है ।

पक्षी जगत में गिद्ध, चील, कौए आदि की प्रजातियां आज खतरे में हैं । सबसे अधिक संकट गिद्धों पर मंडरा रहा है जिनकी संख्या घटकर मात्र दस प्रतिशत रह गई है । वर्ष १९९६ में हमारे देश में गिद्धों की संख्या घटी तो मृत जानवरों को खाकर सफाई करने की प्रक्रिया धीमी हो गई, फलस्वरूप वातावरण में सकं्रमण से उत्पन्न कीटाणुआें की संख्या में वृद्धि होने लगी और जन स्वास्थ्य पर संकट बढ़ने लगा । उल्लू, चील, कबूतर, पपीहा नीलकंठ, तोता, सारस, वटेर, आबाबील जैसे पक्षी भारी संख्या में घट रहे है ।
वैदिक संस्कृति में पक्षियों को विशिष्ट महत्व दिया गया है । अर्थवेद में हॅस का उल्लेख किया गया है । यजुर्वेद में कहा गया है - सोम मदंभ्यों व्यपिवत हंस: शुचिवत। अर्थात् हंस सोम को जल से अलग करता है । कुछ संहिताआें में भी हंस का यह नीर-क्षीर विवेक उल्लेखित है । अथर्ववेद में गरूड़ का संदर्भ मिलता है । मोर और काज का वर्णन भी इस वेद में उपलब्ध है ।
पर्यावरण चेतना में क्षेत्र में अभूत पूर्व योेगदान करने वाली राष्ट्रीय पत्रिका पर्यावरण डाइजेस्ट में लिखा है - वृक्ष और पक्षी प्रकृति की अनुपम धरोहर है । पर्यावरण की दृष्टि से इनका संरक्षण आवश्यक है । भोपाल, रतलाम आदि कई नगरों में पक्षियों को पेयजल सुलभ कराने के प्रयत्न प्रशंसनीय ही नहीं, बल्कि समूचे देश के लिये अनुकरणीय है । जागृत नागरिकों ने इस निमित्त मिट्टी के सकोरे उपलब्ध करवाकर पक्षियों के प्रति अपनी संवेदना और कर्तव्य का परिचय दिया है ।
युग ऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने हमेशा हरीतिमा संवर्धन पर बड़ा जोर दिया । यही कारण है कि पर्यावरण संरक्षण युग निर्माण योजना का प्रमुख सूत्र है । आचार्य जी का पक्षी प्रेम उनकी लोकप्रिय पुस्तक सुनसान के सहचर में विस्तार से प्रकट हुआ है । इसमें उन्होनें लिखा है - निर्जन क्षेत्र में जब दूर-दूर तक कोई दिखाई न पड़े, तन पक्षी, पेड़ पौधें , फूल पहाड़ झरने नदियां, साथी बनकर मित्रवत व्यवहार कर, सारी व्यथाएं दूर करने में समर्थ और सशक्त सिद्ध होते हैं । एक बार सुन्दर पक्षियों की मीठी बोली का रस पान करें उनके कलरव का भरपुर आनंद लें, फिर आपको जन वार्तालाप अनर्गल लगेगा ।




ज्ञान विज्ञान

कुत्ते ने १२०० शब्द सीखने का रिकॉर्ड बनाया

जानवर कितना सीख सकते हैं ? खासतौर से भाषा जैसी चीज को सीखने में वे कहां तक जा सकते हैं ? इस मामले में बॉर्डर कोली नस्ल के एक कुत्ते चेजर ने १२०० शब्द सीखकर एक रिकॉर्ड बनाया है । चेज़र न सिर्फ शब्द सुनकर उससे संबंधित वस्तु को पहचान सकता है बल्कि वह चीजों को उनके आकार व काम के मुताबिक वर्गीकृत भी कर सकता है । शोधकर्ता मानते हैं कि इन्सान का बच्च यह सब तीन वर्ष की उम्र में सीखता है । चेजर के साथ यह प्रयोग स्पार्टनबर्ग के वोफार्ड कॉलेज के मनोविज्ञानी एलिस्टन रीड और जॉन पाइली ने किया है । चेजर को प्रशिक्षित करने का तरीका यह था कि उसे एक चीज से परिचित कराया जाता था और उसका नाम बताया जाता था । इसके बाद उससे कहा जाता था कि दूसरे कमरे में रखी कई सारी चीजों में से वह
वस्तु उठाकर लाए । जब वह सही वस्तु ले आता था तो फिर से उसका नाम दोहराकर पुष्टि की जाती थी । चेजर की परीक्षा भी ली जाती थी । जैसे एक कमरे में २० खिलौने रखकर चेजर से कहा जाता था कि वह नाम सुनकर उनमें से सही खिलौना उठाकर लाए । चेजर ने ३ साल की अवधि में ऐसी ८३८ परीक्षाएं दी और उसे २० में १८ से कम अंक कभी नहीं मिले ।

चेजर से वस्तुआें के नामों के आधार पर वर्गीकरण भी करवाया गया । इसके लिए उसे यह सिखाया गया था कि किसी एक समूह की वस्तुआें को वह अपने पंजे से छुएगा, तो किसी अन्य समूह की वस्तुआें को अपनी नाक से छूकर बताएगा । इसमें भी वह काफी सफल रहा और तो और चेजर को एक ढेर में ऐसी वस्तुएं दिखाई गई जिनमें से एक के अलावा शेष सभी के नाम वह जानता था । अब उससे एक अपरिचित नाम वाली वस्तु को उठाने को कहा गया । चेजर ने बगैर चूके वह नई वाली वस्तु उठाई । यानी वह यह तर्क लगा सकता है कि यदि नाम नया है तो वस्तु वही होगी जिसका नाम वह नहीं जानता । इससे पहले भी जानवरों को सिखाने के कई प्रयोग हो चुके हैं । जैसे एक प्रयोग में एक कुत्तेरिको ने २०० शब्द सीखे थे । इसी प्रकार से एलेक्स नाम के तोते ने १०० शब्द भी सीखे थे और वह उनके वाक्य भी बना लेता था । चेजर ने इस मामले में उन दोनों को पीछे छोड़ दिया है । मगर एलेक्स न सिर्फ शब्द पहचानता था, वह उन्हें बोल भी सकता था। चेजर इस मामले में फिसड्डी है ।

चिम्पैन्जी अपनी गुड़िया खुद बनाते हैं

जर्मनी में मैन के बेट्स कॉलज की सोनया कालेनबर्ग और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के रिचर्ड रैन्गहैम ने पता लगाया हैकि किशोर चिम्पैजी टहनियों का ठीक उसी तरह उपयोग करते हैं जैसे मनुष्य के बच्च्े गुड़ियों के साथ खेलते है । वेइन टहनियों को झुलाते हैं, गोद में बिठाते हैं और यहां तक कि उनके लिए छोटा सा घर भी बनाते हैं ।
कई वर्षो पहले जेन गुडऑल ने सबसे पहले यह रिपोर्ट किया था कि चिम्पैन्जी औजारों का उपयोग करते हैं । तब सेमनुष्यों के अलावा जानवरों में बुद्धि के स्तर की खोज हमें नई-नई दिशाआें में ले जा रही है ।
कालेनबर्ग व रैन्गहैम ने युगाण्डा के किबले नेशनल पार्क में रहने वाले चिम्पैन्जियों के १४ साल के अवलोकनों काविश्लेषण करके उनके द्वारा टहनियों के उपयोग को चार प्रकारों में बाटा । पहला प्रकार है टहनी का उपयोग जमीन वपेड़ों के सुराखों की छानबीन करने में करना । दूसरा प्रकार है आपसी टकराव में शस्त्र प्रदर्शन के लिए करना, तीसराहै अकेले खेलते समय एक वस्तु के रूप में और चौथा है एक गुडिया के रूप में । इस चौथे प्रकार को शोधकर्ताआेंने टहनी उठाकर घूमने की संज्ञा दी है
ऐसे व्यवहार के ३०१ अ में देखा गया है कि यह किशोर वय के चिम्पैन्जियों में ज्यादा प्रचलित है । इसकेअलावा यह मादाआें में देखा गया। शोधकर्ताआें को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यह व्यवहार कुछ वयस्कमादा चिम्पैन्जियों में तो दिखता ह्ै मगर एक बार मां बन जाने के बाद कभी नहीं दिखता । इसका मतलब है कियुवा चिम्पैन्जी यह व्यवहार वयस्कों को देखकर नहीं बल्कि अन्य किशोर वय के साथियों को देखकर सीखते है ।कम से कम २५ ऐसे अवलोकन थे जब टहनी की गुडिया को उठाकरउसके घर तक ले जाया गया । एक नर चिम्पैन्जी ने तो अपनी गुडिया के लिए अलग से एक घर बनाया था । एकमादा चिम्पैन्जी को अपनी गुडिया की पीठ थपथपाते भी देखा गया ।
शोधकर्ताआें का मत है कि यह खेल वास्तव में उन्हें अपनी वयस्क भूमिका की प्रेक्टिस करने में मदद करता है ।


एक कीड़ा और भारत का इतिहास
पांच करोड़ साल पुराना कीड़े का जीवाश्म भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास पर नई रोशनी डाल रहा है यह जीवाश्म पांच करोड़ वर्ष पूर्व किसी पौधे से निकले रेजिन (एंबर) में फंसकर जिन्दा दफन हो गया था
गौरतलब है कि धरती के महाद्वीप एक जगह टिके नहीं रहते हैं बल्कि गतिशील रहते हैं भारत नामक भूभाग करोड़ों वर्ष पूर्व किसी तरह अन्य महाद्वीप से टूटकर अलग हुआ था और फिर तैरते-तैरते यूरेशिया से टकराया इन दो घटनाआें के बीच करोड़ों वर्षो तक भारतीय भूभाग एक द्वीप की तरह शेष महाद्वीपों से अलग-थलग रहा था मगर भारतीय भूभाग पर उस काल के जीवाश्मों को देखकर नहीं लगता है कि यहां कोई विशिष्ट जैव प्रजातियां अस्तित्व में आई थी यदि यह भूंखड पूरी तरह अलग-थलग रहा होता तो यहां कुछ अनोखी प्रजातियां जरूर विकसित होती
इससे पता चलता है कि संभवत: भारतीय भूखंड छोटे-छोटे द्वीपों की श्रृंखला के जरिए एशिया से जुड़ा था इस बात का और अध्ययन करने के लिए बॉन विश्वविघालय के जेस रस्ट ने गुजरात के खंभात क्षेत्र से करीब १५० किलोग्राम एंबर इकट्ठा किया एंबर पौधों से रिसने वाला गोंद होता है यह एंबर उस काल का है जब भाग एशिया से टकराने ही वाला था इसमें ७०० से ज्यादा कीड़े मकोड़े फंसे हुए मिले है
इनमें से कई कीड़े उस समय यूरेशिया में पाए जाने वाले कीड़ों के समान ही है इससे लगता है कि उस दौर में भारतीय भूखंड और दक्षिणी एशिया को जोड़ने वाले द्वीपों की श्रृंखला रही होगा और जीवों का आवागमन बना रहा होगा

जल संरक्षण

जामड़ : हर बंदू को सहजने का प्रयास
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
मध्यप्रदेश में जल संरक्षण और संर्वधन कार्यक्रम जन आंदोलन बने इस विचार को केन्द्र में रखकर पिछले वर्ष १० अप्रैल २०१० को प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने रतलाम जिले में जामड़ नदी के पुनरूत्थान के कार्य से प्रादेशिक जलाभिषेक अभियान की शुरूआत की थी ।
रतलाम जिले के आदिवासी अंचल में बहने वाली यह प्रमुख नदी है जो अंचल के ग्रामीणजनों एवं पशुआें को पानी देने के साथ ही सिंचाई में भी सहायक होती है । इसी नदी का पानी धोलावड़ जलाशय में पहुंचता है जहां से रतलाम शहर को वर्षभर पेयजल उपलब्ध होता है । जामड़ नदी का पुनरूत्थान कार्य प्रारंभ किया गया है जिससे नदी में अधिक से अधिक समय तक पानी उपलब्ध रहे और जन, जंगल तथा कृषि को वर्षभर जल मिलता रहे । इस योजना में प्रथम वर्ष २०१०-११ में कुल ३०७
कार्यो पर शासकीय योजना से ११२.४० लाख रूपये एवं जनसहयोग से १५७.३५ लाख रूपये कुल २६९.७५ लाख रूपये व्यय किये गए । योजना के द्वितीय वर्ष २०११-१२ में ५८५ कार्यो पर ५२१.५० लाख रूपये खर्च किये जावेगें ।
जामड़ नदी माही की सहायक नदी है । इसका उद्गम रतलाम के निकटवर्ती नेपाल ग्राम की पहाड़ियों से हुआ है । नदी के उदगम स्थल के निकट ही स्थित ग्राम ईशरथुनी में नदी का प्रवाह एक सुन्दर झरने का निर्माण करता है । इस झरने के कारण ही इसे जामड़ नाम दिया गया है । भू-आकृतिक दृष्टि से देखे तो नदी का प्रवाह मूलत: बेसाल्ट आच्छादित चट्टानों के क्षेत्र से होता है जो जगह-जगह अपरदमित एवं दरारयुक्त है । इन चट्टानों की पागम्यता अल्प से मध्यम श्रेणी की है ।
इन दिनों जामड़ में बरसात के बाद अक्टूबर तक ही पानी उपलब्ध रहता है । सर्दियों में ही पानी का प्रवाह सुख जाने का कारण नदी में अंत: सतह स्त्राव (सब सरफेस फ्लो) का समाप्त् हो जाना है जो पहले नदी मेंउसके आसपास के क्षेत्रोंसे भू-जल रिसाव के रूप में वर्षभर उपलब्ध होता था । नदी के जलग्रहण क्षेत्र में भू-जल स्तर में १ से ३ मीटर की गिरावट दर्ज की गई है । जामड़ के सुखने से तटीय ग्रामों में विभिन्न प्रयोजन के लिए पानी की आपूर्ति की समस्या होने लगती है ।
जामड़ के पुनजीर्वित होने पर होने वाले लाभों में मुख्यत: भू-जल में २-३ मीटर की वृद्धि, लगभग १८०० हेक्टेयर अतिरिक्त फसल क्षेत्रमें वृद्धि, ग्रामीण पलायन में २०-३० प्रतिशत की कमी, नदी के तटीय क्षेत्र के १९ गांवों के ४६०३ परिवार तथा उनके २२००० पशुआें को पीने का पानी तथा निस्तार की सुविधा में बढ़ोत्तरी के साथ ही कुल कृषि उत्पादन में १० से २० प्रतिशत की बढ़ोत्री होगी ।
जामड़ २७ किलोमीटर बहने वाली नदी है जो ९ ग्राम पंचायतों के १९ ग्राम से होकर गुजरती है । नदी के जलग्रहण क्षेत्रों में आने वाले ग्रामों की पानी की कुल आवश्यकता ३६५१.५४ हेक्टयर मीटर है । यहां वर्षा से उपलब्ध होने वाला पानी ८०२६ हेक्टेयर मीटर है । इस प्रकार ४३७४ हेक्टेयर मीटर सरप्लस वर्षा जल है जिसे रोका जा सकता है, इसी को ध्यान में रखकर योजना बनाई है ।
प्रदेश में अनेक शताब्दियों से बहती आई नदियों का पिछले कुछ दशकों में जमकर दोहन किया गया जिसके फलस्वरूप कई नदियों की जीवन धारा ही समाप्त् हो गई । अब उन्हे फिर से सदानीरा बनाने के प्रयास चल रहे है । अगले तीन साल में प्रदेश की ५५ नदियों को सदानीरा बनाया जाएगा । प्रदेश सरकार ने प्रदेश के सभी ५० जिलों की ५५ नदियों के पुनर्जीवन की योजना बनाई है । इनमें धार जिले में ०३, दतिया, जबलपुर व भोपाल जिले में २-२ नदियों तथा बाकी सब जिलों में एक-एक नदी का चयन किया गया है ।

देश को आजादी मिलने के समय मध्यप्रदेश में जमीन के अंदर भूजल १५ फीट की गहराई पर मिल जाता था । जनसंख्या बढ़ने तथा खेती और उद्योगों के विस्तार के कारण जमीन के पानी का अत्यधिक दोहन प्रारंभ हुआ । इससे तेजी से हालात बिगडे और कई नदियों का अस्तित्व संकट में आ गया । प्रदेश सरकार ने चयनित नदियों के १५-२० किलोमीटर के क्षेत्र में नदी उपचार कार्य करने का तय किया है । इनमें नदियों के जलागम क्षेत्र में कन्ट्ररट्रेंच, परकोलेशन टैंक, तालाब, मेढ़बंधान, मृदा बांध, स्टापडेम, पहाड़ पठार पर गली प्लग जैसी संरचना बनाई रही है , इसके अलावा पौधारोपण भी किया जा रहा है ।
मध्यप्रदेश की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है । प्रदेश की लगभग ७० प्रतिशत खेती वर्षा आधारित है । ऐसी स्थिति में असमय सूखा और मानसून की अनियमितता से न केवल फसल उत्पादन प्रभावित होती है, अपितु
प्रदेश की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होती है । इन दिनों बढ़ते हुए जैविक दबाव के कारण अन्य प्रयोजनोंहेतु भी संग्रहित किये गये सतही जल और भूजल आधारित उपयोग वाले क्षेत्रों में भी मानसून की अनियमितता का परिणाम दिखने लगा है । आज आवश्यकता इस बात की है कि प्रदेश में जल संरक्षण व संवर्धन और प्रबंधन का काम प्राथमिकता से हो । जल संरक्षण और प्रबंधन का दायित्व सरकार का तो है ही परन्तु समाज भी इस दायित्व का निर्वाह कर रहा है ।
प्रदेश के आर्थिक विकास के लिए संवहनीय कृषि उत्पादन तथा अन्य प्रयोजनों हेतु पानी की समुचित उपलब्धता अति आवश्यक है । इस हेतु वर्ष २००६ से राज्य सरकार ने जल अभिषेक अभियान प्रारंभ किया था, जिसकी अवधारण सरकार और समाज की साझेदारी पर आधारित है । जल अभिषेक अभियान के अन्तर्गत विगत ४ वर्षो (वर्ष २००६-०७ से वर्ष २००९-१० तक) में रूपये ५२००
करोड़ की लागत से १० लाख से अधिक जल सरंक्षण व संग्रहण संरचनाआें का निर्माण हुआ है । प्रदेश में जल अभिषेक अभियान के सकारात्मक परिणाम मिल रहे है ।
विगत वर्ष २०१०-११ से जल अभिषेक अभियान के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए इसकी कार्यनीति में समाज के और अधिक जुड़ाव तथा स्थानीय भौगोलिक विशिष्टताआें के अनुरूप उपयुक्त जल संरक्षण कार्यो का चयन व सघन कार्यान्वयन को प्राथमिकता दी गई है । इस हेतु जरूरी कदम उठाये गये है ।
जल अभिषेक अभियान से समाज से और अधिक जुड़ाव के लिए ग्राम स्तर पर बुजुर्गो और युवाआें की पीढ़ी बीच पीढ़ी जल संवाद जैसी खुली चर्चायें आयोजित की गई । इन चर्चाआें में बुजुर्गो ने आज की पीढ़ी को कम होती पानी की उपलब्धता से अवगत कराकर जल संरक्षण की आवश्यकता के प्रति चेताया । जल संरक्षण के लिए स्थानीय स्तर पर नेतृत्व विकसित

करने की कोशिशें भी सरकार कर
रही है । ग्रामों में पंचायतों ने जल संरक्षण कार्यो को प्राथमिकता दी है । ऐसे सरपंच जिन्होनें जल अभिषेक अभियान हेतु उल्लेखनीय जल संरक्षण एवं भूजल संवर्धन कार्य करवाकर खेती, पेयजल एवं अन्य प्रयोजनों के लिए पानी की उपलब्धता सुनिश्चित की उनकों भागीरथ जल नायक कहा गया ।
नदिया भारतीय समाज की आस्था के केन्द्र के साथ-साथ स्थानीय समाज की आजीविका की पोषक भी रही है । नदियों के जलागम क्षेत्र में जल संरक्षण के कार्यो के निष्पादन से पानी के प्रवाह को पुनर्जीवित किया जा सकता है ।
इस अवधारण पर जल अभिषेक अभियान के अन्तर्गत प्रत्येक जिले में सूखी नदियों को पुनर्जीवित करने का कार्य हाथ में लिया गया है जिससे न केवल क्षेत्र की जैव विविधता संरक्षित होगी, अपितु इन नदियों पर आधारित आजीविका को सुकून भरा जीवन जीने का सबंल भी मिलेगा ।


जल अभिषेक अभियान के अन्तर्गत पूर्व से मौजूद जल संरक्षण संरचनाआें के सुधार और प्रबंधन में स्थानीय समुदाय की सहभागिता बढ़ाने के भी प्रयास किये जा रहे है ताकि पानी की इस परम्परागत धरोहर का सतत उपयोग किया जा सके ।
जल संरक्षण के कार्यो में स्थानीय स्तर पर स्वामित्व बोध जाग्रत करने के लिए निजी खेतों पर जल संरक्षण कार्यो के कार्यान्वयन के लिए सामर्थ्यवान कृषकों को प्रोत्साहित भी किया जा रहा है । ऐसे कृषक जिन्होनें स्वयं के संसाधनों से निजी खेतों पर जल संरक्षण का कार्य किया, वे भागीरथ कृषक कहे गये ।
इस अभियान को जन आंदोलन बनाने की दिशा में कुछ जरूरी बातों पर विचार करना होगा । ज्रलाभिषेक के मैदानी कार्यो में कई विभागों का सहयोग लिया जा रहा है जिसमें बेहत्तर समन्वय वाले जिलों में इसके परिणाम बेहत्तर आ रहे है । जल संरचनाआें का ज्यादातार कार्य मनरेगा के अन्तर्गत हो रहा है । मनरेगा की अपनी मर्यादा है इसलिए इन मर्यादाआें का पालन करते हुए काम करने की अपनी व्यवहारिक कठिनाईयां है ।
ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीणों के पास अपने अनुभव और विरासत में मिला ज्ञान है उसका इस कार्यक्रम में उपयोग होना चाहिए । इस महत्वाकांक्षी अभियान में युवा शक्ति का समुचित उपयोग नहीं हो पा रहा ह्ै । प्रदेश में राष्ट्रीय सेवा योजना, एन.सी.सी., भारत स्काउट गाईड और नेहरू युवा केन्द्र जैसे संगठन है जिनके पास बड़ी संख्या में संस्कारित युवा है इस युवा शक्ति का पूरा उपयोग इस अभियान में करना होगा ।
सन् १९५२ में स्वीेकृत प्रथम पंचवर्षीय योजन की रणनीति में यह बात मुख्य रूप से थी कि टिकाऊ एवं स्थाई लाभ तभी सुनिश्चित किये जा सकते है जब समुदाय की भरपुर भागीदारी हो । पानी की समस्या समाज के हर वर्ग को प्रभावित करती है । इस तथ्य के प्रकाश में समाज के सभी वर्गो का अपेक्षित सहयोग इस अभियान में लेना होगा ।

विज्ञान जगत

कैसे बनता है रबर ?
डॉ. विजय कुमार उपाध्याय
आज रबर से संसार का बच्च-बच्च परिचित है । हमारे दैनिक जीवन में इसका उपयोग कई कार्यो के लिए धड़ल्ले से किया जा रहा है । विद्यार्थियों द्वारा पेंसिल मार्क मिटाए जाने से लेकर जूते-चप्पल के निर्माण, विभिन्न उपकरणों के वाशर, कार, बस तथा अन्य स्वचालित वाहनों के टायर-ट्यूब के निर्माण वगैरह में इसका व्यापक स्तर पर उपयोग हो रहा है । आज संसार भर में निर्मित कुल रबर में से लगभग ६० प्रतिशत का उपयोग सिर्फ स्वचालित वाहनों के टायर-ट्यूब बनाने में किया जा रहा है ।
रबर का उपयोग संसार के विभिन्न भागों में प्रागैतिहासिक काल से ही होता आया है, परन्तु इसका नामकरण प्रसिद्ध ब्रिटिश वैज्ञानिक जोसेफ प्रिस्टेल द्वारा सन १७७० में किया गया था । उस समय तक इसका उपयोग मुख्य रूप से लिखावट को मिटाने के लिए किया जाता था ।
अब तक प्राप्त् जानकारी के अनुसार पृथ्वी पर वृक्षों की लगभग ५०० प्रजातियां ऐसी हैं जिनसे एक दूधिया रस (लैटेक्स) प्राप्त् होता है । इसी लैटेक्स से रबर प्राप्त् किया जाता है । सबसे उत्तम श्रेणी का रबर हेविया ब्रेसिलिएंसिस नाम वृक्ष से प्राप्त् होता है । यह वृक्ष दक्षिण अमरीका की अमेजन घाटी में बहुतायत से पाया जाता है । भारत में भी यह वृक्ष दक्षिण भारत के त्रावनकोर, कोचीन, मैसूर, मालाबार, कूर्ग तथा सलेम क्षेत्रों में मिलता है ।
उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि दक्षिण अमरीकी देशों के निवासियों को रबर की जानकारी काफी प्राचीन काल से ही थी । उन देशों में कुछ ऐसे वृक्ष मिलते थे जिनकी छाल कटने से दूध निकलता था । यह दूध जमकर कुछ ही दिनों में रबर बन जाता था । इस रबर का उपयोग वे लोग कई प्रकार से करते थे । इन देशों में की गई पुरातात्विक खुदाई में रबर से निर्मित अनेक वस्तुएं मिली हैं ।
सन् १४९३ में जब कोलम्बस हैती नामक देश पहुंचा तो उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वे लोग जिस गेंद से खेलते थे वह प्रकार के वृक्ष के लस्से से बनाई जाती थी । इसी प्रकार, सन् १७३५ में कुछ फ्रांसीसी खगोल वैज्ञानिकों ने जब दक्षिण अमरीकी देश पेरू का भ्रमण किया तो देखा कि वहां कुछ ऐसे वृक्ष पाए जाते थे जो लस्सेदार (रेजिनस) तथा रसदार पदार्थ उत्पन्न करते थे । उन्होनें यह भी देखा कि जब इस पदार्थ को धूप में रखा जाता था या गर्म किया जाता था तो यह एक लचीले पदार्थ में परिवर्तित हो जाता था । इस पदार्थ से वहां के मूल निवासी जूते तथा बोतलें इत्यादि बनाया करते थे । ये फ्रांसीसी खगोल वैज्ञानिक उस लचीले पदार्थ का कुछ नमूना फ्रांस ले गए ।
जिस वृक्ष से यह पदार्थ उत्पन्न होता था उसे हेविया कहा जाता था । अट्ठारवीं सदी के मध्य

में जब कुछ युरोपीय लोगों ने दक्षिण पूर्व एशिया के देशों का भ्रमण किया तो वहां भी उन्हें रबर के वृक्ष देखने को मिले । इन देशों के लोग रबर से टोकरियां, घड़े, गेंद, जूते आदि सामान बनाया करते थे ।
युरोपीय देशों के लोग रबर के जो नमूने अपने देशों में ले गए थे, उन पर वैज्ञानिक शोध शुरू हुए । ब्रिटेन के प्रसिद्ध वैज्ञानिक माइकल फैराडे ने बताया कि रबर एक प्रकार हाइड्रोकार्बन है । पीले नामक वैज्ञानिक ने रबर को तारपीन के तेल में मिश्रित कर एक लेप बनाया । इस लेप की पतली परत जब कपड़े पर चढ़ाई गई तो कपड़ा वॉटरप्रूफ बन गया । इस वॉटरप्रूफ कपड़े से रेनकोट इत्यादि बनाए जाने लगे । चार्ल्स मैकिन्टोश ने इस प्रकार के रैनकोट का व्यापारिक उत्पादन शुरू कर दिया । यह रेनकोट काफी लोकप्रिय एवं प्रचलित हुआ ।
चार्ल्स गुडइयर नामक एक अमरीकी वैज्ञानिक ने सन १८३१ में रबर पर प्रयोग शुरू किए ।

उन्होनें रबर पर विभिन्न पदार्थो के प्रभाव का अध्ययन किया । सर्वप्रथम उन्होनें रबर में गोंद मिलाकर उस मिश्रण के गुणों की जांच की । ड्डसी प्रकार उन्होनें रबर पर चीनी, नमक, रेपसीड, तेल, साबुन तथा कुछ अन्य पदार्थो के प्रभाव का भी अध्ययन किया । इन प्रयोगों के पीछे उद्देश्य यह जानना था कि रबर में उष्मा के कारण उत्पन्न होने वाली चिपचिपाहट को कैसे रोक जाए । क्योंकि गर्मी के कारण उत्पन्न चिपचिपाहट की वजह से रबर से बनी वस्तुआें से दुर्गन्ध आने लगती थी तथा उन वस्तुआें की आयु भी घट जाती थी । इन प्रयोगों पर गुडइयर ने इतना अधिक धन खर्च कर दिया कि उसकी आर्थिक स्थिति खस्ता हो गई । हालत यहां तक बिगड़ी कि उसे अपने परिवार के भरण-पोषण में कठिनाई होने लगी । परन्तु उसने हिम्मत नहीं हारी तथा प्रयोग जारी रखे ।
एक दिन गुडइयर रबर पर गंधक के प्रभाव का अध्ययन कर रहे थे कि अचानक रबर तथा गंधक के मिश्रण का कुछ अंश स्टोव की लो में गिर पड़ा ।
गुडइयर ने ज्वाला से मिश्रण के उस अंश को जब निकाला तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । उन्होनें पाया कि तेज आंच में पकने के कारण की चिपचिपाहट दूर हो गई थी । उन्होनें यह भी देख कि इस प्रकार का रबर भयानक ठंड में भी चटकता नहीं था ।
गुडइयर द्वारा किए गए शोध के फलस्वरूप रबर व्यवसाय की संभावनाएं काफी बढ़ गई तथा इंग्लैण्ड के बड़े-बड़े व्यवसायी रबर से निर्मित वस्तुआें के उत्पादन की योजनाएं बनाने लगे ।
वैसे भारत में रबर वृक्षों की उपस्थिति काफी प्राचीन काल से रही है, परन्तु पहले इसका कोई व्यावसायिक महत्व नहीं था । भारत में आधुनिक विधि से रबर की खेती करीब सवा सौ वर्ष पूर्व शुरू की गई । पहले कच्च माल ही विदेशों को निर्यात कर दिया जाता था । अब अपने देश में रबर से निर्मित अनेक वस्तुआें के उत्पादन हेतु कई कारखाने लगाए जा चुके हैं । इन वस्तुआें के निर्यात से भारत को दुर्लभ विदेशी मुद्रा प्राप्त् हो रही है ।

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पर्यावरण समाचार

पिद्यल रहे हैं हिमालय के ग्लेशियर
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान (इसरो) की रिपोर्ट २०११ में खुलासा हुआ है कि हिमालय के ७५ फीसदी ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिग के कारण पिघल रहे है । एक रिपोर्ट के मुताबिक १९८९ से २००४ के दौरान हिमालय के ग्लेशियरों का कुल क्षेत्रफल ३.७५ फीसदी तक घटा है ।
ग्लेशियर शब्द लैंटिन से उत्पन्न हुआ है । हिन्दी में इसका अर्थ हिमनद होता है । ग्लेशियरों का निर्माण सैकड़ों सालों तक बर्फ से जमने से होता है । ये अपने ही वजन से आगे बढ़ते है । इनके पिघलने से नदियां बनती है । दुनिया के ९९ फीसदी ग्लेशियर धु्रवीय क्षेत्र में पाए जाते है । ये ऊंचे पहाड़ों पर भी बर्फ जमा होने के कारण बन जाते है । ग्लेशियर की बर्फ दुनिया में सबसे बड़ा स्त्रोत है ।
इसरों ने २०११ में हिमालय के ग्लेशियरों का दूसरी बार अध्ययन किया है । इससे पहले इसरो ने २०१० में १३१७ ग्लेशियरों का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला था कि १९६२ से २०१० तक हिमालय के १६ फीसदी ग्लेशियर पिघल चुके है । हालांकि संस्थान की रिपोर्ट में कहा गया है कि अभी स्थिति खतरनाक स्तर पर नहीं पहुंची है ।
इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी देहरादून के विशेषज्ञों के अनुसार ग्लेशियर सिस्टम के प्रभावित होने की भविष्यवाणी करने से पहले काफी जटिल गणनाएं करनी होती है । बढ़ता हुआ वैश्विक तापमान ही ग्लेशियरों के पिघलने का एकमात्र कारण नहीं है । ग्लेशियरों के पिघलनें के पीछे हिमपात, ग्लेशियर की स्थिति आदि भी ऐसे कारक है जो उनकी स्थिति का कारण बताते हैं । इंटरगवर्नमेंटल पैनल फॉर क्लाइमेंट चेंज (आईपीसीसी) ने २००७ में जारी अपनी चौथी रिपोर्ट में चेतावनी दी थी कि यदि वैश्विक तापमान बढ़ने की आज की दर बनी रहती तो २०३५ तक हिमालय के ग्लेशियर पिघल जाएंगे । पैनल को अपने शोध के लिए शांति का नोबेल पुरस्कार भी मिला था ।
धु्रवीय क्षेत्रों के बाहर सियाचिन दुनिया का सबसे बड़ा ग्लेशियर है । यह हिमालय और कारकोरम क्षेत्र (भारत-पाक सीमा) पर मौजूद है । इस ग्लेशियर की लंबाई ७० किलोमीटर है । यह १८,८७५ फीट (५,७३५ मीटर) की ऊंचाई पर स्थित है । गंगोत्री वह ग्लेशियर जिससे गंगा उद्गम होता है । यमुनोत्री वह ग्लेशियर जिससे यमुना का होता है ।
सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र के मैदान दुनिया के सबसे उपजाऊ क्षेत्र है । इन्हीं क्षेत्रोंं से भारत और पाकिस्तान ही नहीं विश्व के काफी बड़े हिस्से को खाघान्न मिलता है । जाहिर है पानी की कमी से बड़ा खाघान्न संकट खड़ा हो सकता है । हिमालय की नदियों पर बने पावर प्रोजेक्ट संकट में पड़ जाएंगे ।
करोड़ की आबादी पर पड़ेगा असर
गंगा और उसकी नदियों के आसपास भारत में करीब ४० करोड़ लोग रहते है । इसके अलावा पूर्वोत्तर के राज्यों से होकर ब्रह्मपुत्र गुजरती है । यहां आबादी का बड़ा हिस्सा ब्रह्मपुत्र के आसपास रहता है।
बांग्लादेश की आबादी करीब १७ करोड़ है । गंगा और ब्रह्मपुत्र (दोनों नदियां बांग्लादेश में जाकर मिल जाती है और इनका नाम यहां पद्मा हो जाता है) यह बांगलादेश की प्रमुख नदी है ।
पाकिस्तान (आबादी करीब १७ करोड़) की पूरी अर्थव्यवस्था और जनजीवन सिंधु और उसकी सहायक नदियों झेलम, चिनाब, रावी, व्यास पर टिका हुआ है । पाकिस्तान के सबसे उपजाऊ क्षेत्र पंजाब और सिंध प्रांत इन्हीं हिमालय से निकलने वाले नदियों से पोषित होते है ।

रोबट करेंगे चीन के जंगलो की रक्षा

चीन में जंगलों की देखरेख का कामकाज अब रोबोटों की एक फौज को सौंपने की तैयारी चल रही है । कैटरपिलर (इल्ली) के आकार के इन रोबोटों का ट्रीबोट नाम दिया गया है । यही ट्रीबोट पेड़ों पर चढ़कर ऊंचाई से जंगलों की निगरानी करेंगे । प्रो. सूयांगशेंग ने बताया कि इसे बनाने की प्रेरणा उन्हें प्रकृति से मिली । उन्होंने कहा मैं कैटरफ्िलर को हमेशा पेड़ों पर चढ़ते देखता था और इससे मुझे प्रेरणा मिली ।

सोमवार, 25 जुलाई 2011

हमारा भूमण्डल

किसकी सुरक्षा कौन करेगा ?
लता जिश्नु

भारत अमेरिकी शब्दावली और विचारधारा को अपनाने की हड़बड़ी में यह भूल जाता है कि वह एक विकासशील देश है और उसे अभी भूख, गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी से निपटना है । साथ ही शिक्षा व आधारभूत ढांचे पर भी बड़ी मात्रा में निवेश करना है । परन्तु भारतीय व बहुराष्ट्रीय कंपनियां भय का वातावरण बनाकर देश की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को हथिया लेना चाहती हैं । क्या ऐसा करना देशहित में है
घरेलू (होमलैंड) सुरक्षा एक फलता-फूलता व्यवसाय है। इसका सीधा सा अर्थ है बड़ी मात्रा में धन और वास्तविक और काल्पनिक दोनों ही तरह के खतरों से हमें बचने में निजी सुरक्षा सलाहकारों और ठेकेदारों की महती भूमिका ! हम बहुत आसानी से अमेरिकी शब्दावली व विचाराधारा अपना लेते हैं । वैसे यह तय नहीं

है कि होमलैंड शब्द का भारत में निश्चित तौर पर पदार्पण कब हुआ - अब हम सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए अमेरिकी प्रशासनिक तरीकों को भी अपना रहे हैं । दुनिया की सबसे प्रसिद्ध निजी सुरक्षा एजेंसी ब्लेकवाटर को याद कीजिए जिसने इराक में चांदमारी कर सुर्खिया प्राप्त् की थी । क्या इस तरह का कोई हल हमारे यहां अच्छा विकल्प हो सकता है ?
कुछ निजी कंपनियां जो कि मुख्यत: ऐसे अमेरिकी और यूरोपियन निर्माताआें की एजेंट थी जो कि नवीनतम सुरक्षा उपकरण बनाते हैं, के लिए सेवाआें की श्रृंखला के माध्यम से एक बड़ा बाजार तैयार करने में जुटी हुई हैं । संभवत: वह एक अतियथार्थवादी सुबह थी जो मैंनें फेडरेशन इण्डियन चेम्बर ऑफ कॉमर्स एण्ड इंडस्ट्रीज (फिक्की) की बोलचाल
वाली दुकान (टॉक शॉप) में बिताई । इसमें सभी तरह के सुरक्षा विशेषज्ञ जिसमें सेना के अवकाश प्राप्त् जनरल, निगरानी रखने वाले निजी समूह और जोखिम का आकलन करने वाली उच्च् श्रेणी की कंपनियां शामिल थीं, देश के सम्मुख आ रही सुरक्षा समस्याआें पर माथापच्ची कर रहे थे ।
शामिल होने वाले समूहों में से अधिकांश के लिए नक्सलवादियों अथवा माओवादियों द्वारा प्रस्तुत संकट सबसे अधिक विचलित करने वाला विषय था । शस्त्रों का धड़ल्ले से उपयोग करने के हिमायती एक अवकाश प्राप्त् मेजर जनरल के पास इस समस्या का हल मौजूद था । गरम खून वाले इन महाशय ने इशारा करते हुए सुझाया कि माओवादियों का नेतृत्व बहुत ही छोटा है । उनके पॉलित ब्यूरो में ३२ और केंद्रीय सैन्य कमान में १३ सदस्य हैं । उनका कहना था इन सबको खत्म कर दीजिए । आदिवासियों को आदिवासियों के खिलाफ खड़ा कर दीजिए और इस तरह हम इस

समस्या को समाप्त् कर सकते हैं ।
एक पूर्व सैन्य अधिकारी के इस सिद्धांत से दर्शकों में जिसमें गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी भी शामिल थे, सन्नाटा खिंच गया । उनके हिसाब से केन्द्रीय रिजर्व बल इस विद्रोह से निपटने में सक्षम नहीं है और इस हेतु उसी तरह के कदम उठाने चाहिए जिस तरह के कदम सेना ने जम्मू कश्मीर में उठाए थे । निश्चित तौर पर कोई भी इस तरह के विचारों को गंभीरता से नहीं ले सकता भले ही प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने इसे देश के लिए सबसे बड़ा आंतरिक खतरा ही घोषित क्यों न कर दिया हो ।
हालांकि इस समय भारत के मध्य में माओवादियों के खिलाफ सरकार का हथियारों से दिया जा रहा जवाब धीमा है और इस समस्या से किस तरह निपटा जाए उस मामले में भी स्पष्टता नहीं हैं । वे यह स्वीकार भी कर रहे है कि अत्यधिक प्रभावित जिले विकास से छूटे हुए हैं । इसके बावजूद यह भी दिखाई दे रहा है कि योजना आयोग द्वारा अप्रैल २००८ में गठित विशेषज्ञ समूह ने जो अनुशंसाए की थीं उस दिशा में भी बहुत कम कार्य हुआ है ।
रिपोर्ट के तैयार होने के करीब ३२ महीनों बाद आयोग ने तय किया वह ऐसे ६० जिलों में दो किश्तों में नगण्य सी नजर आने वाली ५० से ६० करोड़ रूपए की रकम देगी । परन्तु इस आवंटन पर भी रोक लग गई है क्योंकि विभिन्न संस्थाआें में इस पर मतभेद है कि इस रकम का इस्तेमाल किस तरह से हो । तो जहां एक ओर सरकार में इस मसले पर भ्रम की स्थिति मेंे है वहीं दूसरी ओर होमलैंड सुरक्षा के लिए मुक्त हस्त से धन मुहैया कराया जा रहा है ।
उम्मीद की जा रही है कि सन् २०२० तक भारत दुनिया का सबसे बड़ा सुरक्षा बाजार बन जाएगा । विशेषज्ञ रक्षा मंत्रालय को उद्धत करते हुए कहते है कि भारत अगले दो वर्षो में आंतरिक सुरक्षा पर आकस्मिक तौर पर १० अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक खर्च करेगा ।

इसका अर्थ है कंपनियों की चांदी ही चांदी । (सरकार ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में ड्रोन विमानों की अनुमति देेकर इस दिशा में निवेश प्रारंभ कर दिया है ।) इस संबंध में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की सुरक्षा को प्राथमिकता से सामने रखा जा रहा है । इसी के साथ तेलशोधक कारखाने और बंदरगाह भी फेहरिस्त में हैं । उनके हिसाब से सरकार इस तरह की चुनौतियों से निपट पाने हेतु पूर्णतया सुसज्जित नहीं है । फिक्की व भागीदारी करने वाले अन्य संस्थानों का इस सेमिनार से मुख्य आशय यही था कि सुरक्षा उद्योग इस तरह की घटनाआें को श्रृंखलाबद्ध तरीके से प्रस्तुत करें । इस हेतु एसोचेम ने एक बड़े सलाहकार की सेवाएं ली है जो कि होमलैंड सुरक्षा पर निजी सार्वजनिक भागीदारी को दृष्टिगत रखते हुए एक दस्तावेज तैयार करेगा । महिंद्रा स्पेशल सर्विस ग्रुप जिसने इस सेमिनार को प्रायोजित भी किया था, ने इस उद्योग में प्रारंभिक बढ़त भी प्राप्त् कर ली है।
फिक्की के महासचिव व पश्चिम बंगाल के वित्तमंत्री अमित मित्रा ने गृह मंत्रालय के साथ मिलकर एक कार्यसमूह बनाने की वकालत की है जिससे कि निजी खिलाड़ियों की पहुंच मंत्रालय के अधिकारियों तक हो सके और वे सेमिनार से चर्चा में आई तकनीकों को आगे प्रयोग में लाने पर विमर्श कर सकें । इन सुझाव को गृह मंत्रालय में आंतरिक सुरक्षा सचिव यू.के. बंसल ने सहर्ष मान भी लिया है ।
इस बीच भारत के गृह मंत्री पी.चिदंबरम और अमेरिका की होमलैंड सुरक्षा सचिव जेनेट नापोलिटानों के मध्य इस विषय पर चर्चा भी हो चुकी है । हम सशंकित है कि यह प्रक्रिया हमें कहा ले जाएगी । अमेरिका की तरह की सुरक्षा व्यवस्था से क्या हम आंतकवादियों और आतिवादियों से ज्यादा सुरक्षित हो पाएगें ? या हम पहले की ही तरह जोखिम के धुंधलके में पड़े रहेंगे ?
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सामयिक

पास्को का राजा से जयराम तक सफर
भारत डोगरा

तत्कालीन पर्यावरण मंत्री ए०राजा ने पर्यावरण मंत्रालय के अपने कार्यकाल में उड़ीसा में पास्को परियोजना को प्रारंभिक अनुमति दी तो दूसरी तरफ वर्तमान पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने स्वयं के द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों की सलाह को ठुकराते हुए पास्को परियोजना को अंतिम स्वीकृति दे दी । भारत के प्राकृतिक संसाधनों की लूट का सिलसिला बदस्तूर जारी है ।
हमारे देश में जो परियोजनाएं संसाधनों की लूट, पर्यावरण की तबाही और परम्परागत आजीविका के विनाश के कारण बेहद विवादग्रस्त हुई हैं, उन परियोजनाआें में उड़ीस की पास्को अग्रणी पंक्ति में रही है ।
पास्को दक्षिण कोरिया की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी है जिसका पूरा नाम है - पोहांग ऑयरन एंड स्टील कंपनी । इस परियोजना के बारे में पहली नजर में जो संदेह होता है उसका कारण यह है कि इतने बडे स्तर पर इस्पात उत्पादन करवाने के लिए किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को सरकार देश का लौह अयस्क क्यों उपलब्ध करवा रही है । १२० लाख टन वार्षिक इस्पात उत्पादन करने के प्रस्ताव वाली इस परियोजना का लक्ष्य देश की पांच-छ सबसे विख्यात बडी इस्पात परियोजनाआें के कुल उत्पादन से भी ज्यादा है । सवाल यह है कि इतना लौह अयस्क परियोजना की लंबी अवधि के दौरान हम प्रतिवर्ष इस बहुराष्ट्रीय कंपनी को क्यों उपलब्ध करवाएं ? ध्यान रहें कि वर्ष २००० के बाद अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में लौह अयस्क की कीमत बहुत तेजी से बढी है व इस परियोजना की विशालता को देखते हुए पास्को की लौह अयस्क में मुनाफा कूटने की क्षमता भी बहुत बढ गई है । लौह अयस्क की विश्व बाजार में कमी व बढते मूल्य को देखते ह्ुए हमें यह भी ध्यान में रखना है कि देश में लौह अयस्क के भंडारों का बहुत जल्दी दोहन न किया जाए ताकि भविष्य की अपनी जरुरतों के लिए पर्याप्त् भंडार बचा रहे । पर पास्को जैसी परियोजना तो ३० वर्षो तक बहुत बडे पैमाने पर लौह अयस्क की नियमित आपूर्ति पर आश्रित है ।
आखिर देश की अमूल्य खनिज संपदा को इतने बडे पैमाने पर एक ही कंपनी को सौंपने की इतनी जल्दबाजी क्यों है बड़े पैमाने पर लौह अयस्क खनन से व्यापक स्तर पर पर्यावरण की तबाही ह्ोगी, विशेषकर जब परियोजना के शुरु होने के बाद साल-दर-साल तीन दशकों तक इतने बडे पैमाने पर लौह अयस्क उपलब्ध करवाना एक मजबूरी बन जाएगा । इस कारण विस्थापन भी होगा । अत समस्याएं वहीं तक सीमित नहीं हैं जहां इस्पात बनाने का कारखाना लग रहा है । पर्यावरण व विस्थापन की समस्याएं इससे कहीं व्यापक हैं ।
जगतसिंहपुर जिले में समुद्र तट के पास स्थापित होने वाली इस परियोजना में एक बंदरगाह का निर्माण भी प्रस्तावित है । हालांकि इसे अलग परियोजना के रुप में दिखाने का प्रयास किया जाता है ताकि पर्यावरण की क्षति को कम करके दिखाया जा सके । इस बंदरगाह को एक छोटी परियोजना के रुप में स्वीकृति दिलवाई गई जबकि वास्तव में प्रस्तावित बंदरगाह एक बडा बंदरगाह है ।
समग्रता से किए गए आकलनों में यह सच्चई सामने आई कि इससे जितने रोजगारों का सृजन होगा उससे कहीं अधिक रोजगार इससे उजडेंगे । पर्यावरण व वन्य जीवों की जो तबाही होगी सो अलग । सरकारी स्तर पर इस परियोजना का औचित्य ऐसे अध्ययन के आधार पर बताया गया है जिसके लिए धन प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से इस कंपनी ने ही उपलब्ध करवाया था । ऐसे अध्ययन को कितनी मान्यता मिलनी चाहिए दूसरी ओर पर्यावरण मंत्रालय द्वारा भेजे गए विशेषज्ञों ने बार-बार इस ओर ध्यान दिलाया है कि इस परियोजना से कितनी व्यापक तबाही हो सकती है ।
हाल के समय में सरकार ने ऐसे कुछ मामलों में बढती संवेदनशीलता का संदेश दिया था जिससे उम्मीद बंधी थी कि विस्थापन व वन-विनाश की संभावना को न्यूनतम करने के टिकाऊ ग्रामीण आजीविका की रक्षा के प्रयास तेज होंगे । उडीसा की नियमगिरि पर्वतमाला में बाक्साईट खनन पर रोक लगी तो उस समय इन उम्मीद को बहुत बल मिला था। पास्को परियोजना क्षेत्र में भी विस्थापन के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष बहुत समय से चल रहा है । इस तरह के अहिंसक संघर्षो की मांगों पर सरकार समुचित ध्यान दे तो इससे देश में लोकतंत्र और मजबूत होगा । जब सरकार के अपने विशेषज्ञों की रिपोर्टोंा से भी संघर्ष समिति के आरापों को समर्थन मिल रहा था तो सरकार से व पर्यावरण मंत्रालय से उम्मीद की जा रही थी कि वह गांववासियों की टिकाऊ आजीविका व यहां के पर्यावरण को बचाने के प्रयास करेंगे ।
पर्यावरण मंत्रालय ने अपने जो विशेषज्ञ मौके पर स्थिति जानने के लिए भेजे थे उन्होंने भी उडीसा के संबंधित अधिकारियों द्वारा तथ्य छिपाने या तोडने-मरोडने तथा कंपनी के अधिकारियों की सांठ-गांठ से अन्य अनियमितताएं करने के आरोप लगाए थे । सवाल यह है कि ऐसे उदाहरण सामने आने पर पर्यावरण मंत्रालय को दंडात्मक कार्यवाही करनी चाहिए या इन सब अनुचित कार्योंा पर परदा डालकर मंजूरी दे देनी चाहिए, जैसा कि उसने वास्तव में किया है यह सवाल इस कारण और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि पास्को परियोजना को आगे बढ़ाने में बार-बार नियमों का उल्लघंन हुआ है व कुछ अधिकारियों का व्यवहार तो ऐसा रहा है जैसे पास्को को आगे बढ़ाना ही उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य हो ।
पर्यावरण संबंधित आरंभिक स्वीकृतियां इस परियोजना को तब मिली थी जब ए.राजा पर्यावरण मंत्री थे । यह स्वीकृतियां कितनी अनुचित थीं इसका कुछ समय बाद तब पता चला ज्रब नए पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने वर्ष २०१० में विशेषज्ञों की एक जांच समिति नियुक्त की । इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट कहा है कि परियोजना द्वारा बहुत गंभीर पर्यावरणीय परिणामों के लिए नियोजन तो करना दूर, उनका ठीक से आकलन भी नहीं किया गया है । समिति ने आगे कहा कि परियोजना के संभावित अति खतरनाक परिणामों के प्रति संबंधित अधिकारियों की अत्यधिक लापरवाही खतरनाक है व इससे समिति स्तब्ध है ।
भ्रष्टाचार के संकेत तो इस तथ्य से भी मिलते हैं कि इस परियोजना के लिए खदानों के आवंटन के कार्य को दो बार अदालती कार्यवाही से रोकना पड़ा । पर्यावरण मंत्रालय की समितियों के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो गया कि समुद्री तटीय नियमन क्षेत्र के नियमों का उल्लघंन इस परियोजना में हो रहा है । वन-अधिकार कानून आदि के संदर्भ में प्रभावित गांववासियों व उनकी ग्रामसभाआें ने भी परियोजना के विरूद्ध अपने हस्ताक्षर वाले दस्तावेज सरकार को उपलब्ध करवाए । पर इन सभी की अवेहलना करते हुए पर्यावरण मंत्रालय ने तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए निर्णय लिया व पास्को परियोजना को हरी झंडी दिखा दी ।
इस परियोजना की स्वीकृति के पीछे भ्रष्टाचार की एक बड़ी कहानी हो सकती है । अत: सरकार को चाहिए कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से बचने के लिए व खनिज संसाधनों की लूट को रोकने के लिए तुरन्त इस योजना को रद्द कर दे व साथ ही प्रभावित गांववासियों की अब तक हुई क्षति के लिए उन्हें सहायता पहुंचाए ।
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