रविवार, 28 अगस्त 2011





बुधवार, 17 अगस्त 2011

सामयिक

सामयिक
पॉस्को : विकास विरूद्ध विकास
सुश्री सुनीता नारायण

यह विचार का विषय है कि ठीक ठाक मुआवजे के बावजूद लोग अपनी जमीन को छोड़ना क्यों नहीं चाहते । हम शहरी जो कि जमीन को महज लाभ या भविष्य के लिए निवेश के रूप में जानते है और इसे मात्र खरीदने-बेचने की वस्तु समझते है, वे आदिवासी और किसान की अपनी जमीन से लगाव के पीछे की संवेदना को समझ ही नहीं सकते है ।
टेलीविजन में वह दृश्य देखकर दिल दहल जाता है जिसमें बच्च्े धधकते सूर्य के नीचे खुले आसमान तले दक्षिण कोरिया के विशाल पास्को संयंत्र के खिलाफ मानव ढाल बने कतारबद्ध बैठे है । उनके सामने राज्य सरकार द्वारा भेजा गया सशस्त्र पुलिस बल है जो कि इस ऑपरेशन में मदद कर रहा है । ओडिशा के समुद्र तट के नजदीक स्थित यह इस्पात संयंत्र एवं बंदरगाह परियोजना और ऐसे लोग जिनकी जमीन अधिग्रहित की जानी है पिछले ६ वर्षो से आमने-सामने हैं । अब जबकि पर्यावरणीय स्वीकृतियां प्राप्त हो गई है।
राज्य सरकार किसी भी कीमत पर अधिग्रहण पर उतारू है । उसने इस हेतु ऐसा आर्थिक पैकेज भी देने की बात कही है जिसमें अतिक्रमित भूमि का भी मुआवजा दिया जाएगा । सरकार का विश्वास है कि यह एक ऐसा सुनहरा मौका है जो लोगों को जीवन में दोबारा नहीं मिलेगा । अतएव उन्हें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए । सभी को आगे बढ़ना चाहिए और अब परियोजना का निर्माण हो जाना चाहिए क्योंकि इससे इस गरीब राज्य के समुद्र तट पर बहुमूल्य विदेशी निवेश की आवक संभव हो पाएगी ।
हमें स्वयं से यह प्रश्न एक बार पुन: पूछना चाहिए कि ये लोग जो अत्यधिक गरीब दिखाई देते हैं, इस परियोजना के खिलाफ संघर्षरत क्यों है? वे नकद मुआवजा स्वीकार क्यों नहीं कर रहे हैं जो कि न केवल उन्हें एक नया जीवन प्रारंभ करने का मौका देगा बल्कि उनके बच्चें को सुपारी उगाने में कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहने से भी छुटकारा दिलवाएगा । क्या यह वृद्धि और विकास विरूद्ध पर्यावरण का संघर्ष है या ये महज गैर जानकार, अशिक्षित व्यक्ति हैं, या ये राजनीतिक रूप से उद्वेलित लोग है ? मेरे ख्याल से ऐसा नहीं है ।
पॉस्को परियोजना विकास विरूद्ध विकास है । यहां रहने वाले लोग गरीब है लेकिन वे जानते है कि ये परियोजना उन्हें और अधिक गरीब बनाएगी । यही वह सच्चई है जो कि हम आधुनिक अर्थव्यवस्था में रहने वाले नहीं समझ पाते । यह ऐसा क्षेत्र है जहां अधिकांश ऐसे वनों में सुपारी की खेती होती है जो कि सरकार के हैं । परियोजना के लिए आवश्यक १६२० हेक्टेयर भूमि में से ९० प्रतिशत यानि १४४० हेक्टेयर भूमि इसी विवादास्पद वन में है ।
जब परियोजना के लिए इस स्थान का चयन किया गया तो सरकार ने इस बात पर विचार ही नहीं किया कि उसे इस जमीन के लिए मुआवजा भी देना पड़ सकता है । क्योंकि उसका विचार था कि इस पर लोगों ने अतिक्रमण कर लिया है और सरकार इस विशाल इस्पात संयंत्र के लिए आसानी से इसे अपने कब्जे में ले लेगी । परन्तु यह वन भूमि थी और वे लोग अनादिकाल से वहां रह रहे थे और खेती कर रहे थे । इसी बीच वन अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत निहित शर्तो की बात भी उठने लगी जिसमें परियोजना हेतु वहां रह रहे लोगों की सहमति भी आवश्यक थी । केन्द्रीय पर्यावरण व वन विभाग ने स्वगठित कमेटी की प्रतिकूल टिप्पणियोंको रद्द करते हुए कहा कि उसे राज्य सरकार की इस बात पर भरोसा है कि यह सुनिश्चित करने में ऐसी सभी प्रक्रियागत कार्यवाहियां पूरी कर ली गई हैं जो यह सुनिश्चित करती है कि इन गांवों में रह रहे व्यक्तियों को स्वामित्व का कोई अधिकार ही प्राप्त् नहीं है क्योंकि ये पारम्परिक रूप से वन में रहने वाला समुदाय नहीं है ।
इसी प्रत्याशा के साथ पर्यावरण व वन मंत्रालय द्वारा स्वीकृति दे दी गई और परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही को आगे बढ़ाया जा सकता है । परन्तु लोगों से आीाी तक कुछ भी पूछा नहीं गया था और अंतत: उन्होनें इंकार कर दिया । ऐसा क्यों ? जबकि राज्य सरकार का कहना है कि उसने अपने प्रस्ताव में सभी मांगों को समाहित कर लिया है । वह इस बात पर राजी हो गई है कि निजी रिहायशी भवनों और गांव की भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाएगा । लोगों के पास अपने घर होगें, केवलउनकी जीविका का ही नुकसान होगा । परन्तु उसका भी मुआवजा दिया जाएगा । इस पर भी सहमति जताई गई कि वन भूमि का उपयोग न कर पाने से होने वाली हानि की भी क्षतिपूर्ति की जाएगी, जबकि तकनीकी तौर पर लोगों को उस पर कोई हक नहीं है ।
ओडिशा से आई जमीनी रिपोर्ट के अनुसार अतिक्रमित पान/सुपारी के खेतोंपर प्रति हेक्टेयर २८.७५ लाख रूपए का मुआवजा दिया जाएगा । इसके बाद उन दिहाड़ी मजदूरों के लिए भी प्रावधान किया गया है, जिनकी जीविका पान/सुपारी की खेती बंद होने से खतरे मेंपड़ जाएगी । यह क्षतिपूर्ति वेतन भी लाभदायक है । इसके अन्तर्गत सरकार अधिकतम एक वर्ष तक रोजगार ढूंढने के लिए भत्ता प्रदान करेगी । इसके अलावा जिन ४६० परिवारों को अपने घरों से हाथ धोना पड़ रहा है उन्हें कॉलोनियों में पुन: बसाया जाएगा । तो फिर ऐसे प्रस्ताव को लोग खारिज क्यों कर रहे हैं ?
क्या यह केवलकुछ लोगों खासकर एक ग्राम पंचायत धिंकिया के नेताआें का दुराग्रह हैं ? इस गांव ने पिछले तीन वर्षो से प्रशासन के लिए स्वयं के दरवाजे बंद कर रखे हैं। इस गांव को जाने वाली सभी सड़कों पर रूकावटें खड़ी कर दी गई है । यह एक तरह से विद्रोह, उत्कट जिजीविषा और पक्का इरादा ही है । यह गांव अकेला ही पॉस्को का मुकाबला कर सकता है क्योंकि इस इस्पात संयंत्र हेतु बनने वाले केप्टिव विद्युत संयंत्र और निजी बंदरगाह के लिए चिन्हित कुल भूमि में से ५५ प्रतिशत इसी ग्राम पंचायत के अन्तर्गत आती हैं, लेकिन वे छोटी है और उनका नेतृत्व भी उतना दमदार नहीं हैं । परन्तु जब मेरे सहयोगियों ने ट्रांजिट कैम्प में अपने नए घरो के बनने और उन्हें सौंपे जाने की राह देख रहे लोगों को असंतोषजनक स्थिति में शराब के नशे में चूर पाया । उन लोगों ने पूछा, हमारी जीविका (रोजगार) कहा है ? हम क्या करेंगे ?
देशभर में जहां-जहां भी विकास के नाम पर लोगों की जीविका (रोजगार) छीने जाने के खिलाफ लड़ाई चल रही है वहां यही सवाल पूछे जा रहे हैं । अभी यह जमीन पास्को की नहीं हुई है, लेकिन सुपारी/पान की खेती से यहां प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष १० से १७.५० लाख रूपए की आमदनी हो जाती है जो मुआवजा मिल रहा है वह तो दो-तीन वर्षो की आमदनी के बराबर है । इसके अलावा धान, मछलियों के तालाब और फलदार वृक्ष भी आमदनी के अन्य जरिए हैं । यह भूमि आधारित अर्थव्यवस्था अत्यधिक रोजगार मूलक भी है । हालांकि लौह और इस्पात संयंत्र देश के आर्थिक विकास के लिए आवश्यक हैं लेकिन वे स्थानीय रोजगार उपलब्ध नहीं करा पाते । इसके लिए पहला तर्क है कि इस तरह के संयंत्रों के लिए स्थानीय लोग नौकरी पर रखे जाने लायक नहीं है । दूसरा है कि इन आधुनिक सुसज्जित संयंत्रों के परिचालन में बहुत ही सीमित संख्या में कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ती है ।
इस तरह पॉस्को विकास विरूद्ध विकास है । हम सब लम्बे समय से इस भूमि आधारित अर्थव्यवस्था को समझने का प्रयास कर रहे है लेकिन अभी तक हम शायद यह नहीं समझ पाए हैं कि इसके क्या कार्य है और भारतीय समाज में यह क्या मायने रखती है । यह सिर्फ इतना है कि हम सब यह भूल गए हैं वह विकास, विकास ही नहीं है जो उन्हें लोगों को जीवन छीन रहा हो, जिनके लिए इसे (विकास) किया जा रहा हो । संदेश एकदम स्पष्ट है, अगर हम उनकी जमीन चाहते हैं तो हमें उन्हें बदले में एक जीवन तो देना ही पड़ेगा ।

हमारा भूमण्डल

हमारा भूमण्डल
सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य अभी दूर
कनग राजा
विश्व स्वास्थ्य आंकड़े २०११ वास्तव में हमारी आंखे खोलने को पर्याप्त् आधार दे रहे है । विश्वभर में भारत की कुल आबादी (करीब ११० करोड़) जितने व्यक्तियों को शौचालय या साफ सफाई की किसी भी तरह की सुविधा ही उपलब्ध नहीं है । वैश्विक संदर्भ में बीमारियों की गंभीरता और व्यापकता में कमी तो आ रही है लेकिन जितनी तीव्रता से यह कार्य होना चाहिए था वह नहीं हो पा रहा हे । अतएव सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों की प्रािप्त् अभी दूर की कौड़ी है ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट विश्व स्वास्थ्य आंकड़े - २०११ में बताया गया है कि ऐसे देशों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनमें बीमारी का कहर दोहरा हो गया है । एक ओर यहां असंक्रामक रोग जैसे ह्दय रोग, मधुमेह व कैंसर की संख्या बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर संक्रामक रोगों के कारण वे मातृ-शिशु मृत्युदर में भी कमी नहीं कर पा रहे हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वैश्विक रूप से ह्दयरोग, ह्दयघात, मधुमेह व कैंसर जैसे रोगों से मरने वालों की संख्या कुल मृतकों की संख्या की दो तिहाई तक पहुंच गई है । इसकी वजह है बढ़ती उम्र और वैश्वीकरण एवं शहरीकरण से जुड़े खतरों में विस्तार ! इसके अलावा अनेक विकासशील देश निमोनिया, दस्त और मलेरिया जैसी स्वास्थ्य समस्याआें से लड़ रहे हैं जिनकी वजह से ५ से कम उम्र के बच्च्े बड़ी तादाद में मारे जाते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के टाइस बोइरामा का कहना है तथ्य बताते है कि दुनिया का कोई भी देश स्वास्थ्य समस्याआें को संक्रामक अथवा असंक्रामक में से किसी एक नजरिए से देखकर उनसे नहीं निपट सकता । इसे तो परिपूर्णता में ही देखना होगा । विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि रिपोर्ट १९३ सदस्य देशों एवं अन्य स्त्रोतों से स्वास्थ्य के १०० बिन्दुआें को ध्यान में रखकर तैयार की गई है । साथ ही इसमें स्वास्थ्य संबंधी सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों को भी ध्यान में रखा गया है । रिपोर्ट में पाया गया है कि विश्व के अनेक भागों में बच्च्े अभी भी अल्प-पोषण का शिकार हैं । इतना ही नहीं करीब १७.८ करोड़ बच्च्े अत्यधिक कुपोषण का शिकार हैं । वैसे विश्वभर में बाल मृत्युदर में कमी आ रही है और वर्ष २०००-२००९ के मध्य इसमें वर्ष १९९० के दशक की बनिबस्त काफी कमी आई । विश्व के कई हिस्सोंखासकर अफ्रीका और कम आय वाले देशों में यह अभी भी चिंताजनक स्थिति में है ।
रिपोर्ट के अनुसार निमोनिया और दस्त आज भी बच्चें की मृत्यु के सबसे बड़े कारण बने हुए है और सन् २००८ में इनसे पांच वर्ष के कम उम्र के क्रमश: १८ व १५ प्रतिशत बच्चें की मृत्यु हुई है । इन बीमारियों से अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया में सर्वाधिक मौतें हुई हैं और ये देश सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य में निर्धारित बाल मृत्युदर के लक्ष्य (दो तिहाई कमी) को भी प्राप्त् नहीं कर पाए हैं ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि गर्भावस्था और बच्च्े को जन्म देने के दौरान महिलाआें की मृत्यु में करीब ३४ प्रतिशत की कमी आई है । सन् १९९० में इनकी संख्या ५ लाख ८० हजार थी वह सन् २००८ में घटकर ३ लाख ५८ हजार रह गई । हालांकि यह प्रगति ध्यान आकर्षित तो करती है लेकिन यह अभी भी निर्धारित लक्ष्य ५.५ प्रतिशत से आधी से भी कम यानि २.३ प्रतिशत ही है । यह भी पाया गया है कि सन् २००८ में प्रसव के दौरान मृत में से अधिकांश महिलाएं यानि ९९ प्रतिशत विकासशील देशों की थी । हालांकि दक्षिण पूर्व एशिया में मातृ मृत्यु में सर्वाधिक कमी आई है लेकिन अफ्रीका देशों में यह सन् २००८ में उच्च् स्तर यानि १ लाख जीवित जन्मों में ६२० थी ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि दूसरी तरफ मातृ मृत्युदर कम करने हेतु हस्तक्षेप बढ़ा है और इसमें परिवार नियोजन कार्यक्रम सेवा का प्रावधान व सभी महिलाआें को गर्भावस्था, शिशु जन्म एवं जन्म के उपरांत कुशल स्वास्थ्य सेवाएं शामिल है ।
मलेरिया के संबंध में रिपोर्ट में पाया गया है कि ऐसे देशों की संख्या में वृद्धि हो रही है जहां पर सन् २००० के बाद से मलेरिया के मामलों में अस्पतालों में भर्ती और मृत्यु के आंकड़ों में कमी आई है । राष्ट्रव्यापी प्रयासों के कारण जहां सन् २००० में मलेरिया से अनुमानित मौतें १० लाख थीं वे वर्ष २००९ में घटकर ७ लाख ८१ हजार पर आ गई । वहीं सन् २००५ में मलेरिया से पीड़ित लोगों की संख्या बढ़कर २४ करोड़ ४० लाख हो गई जो कि सन् २००० में २३ करोड़ ३० लाख थी । परन्तु सन् २००९ में यह पुन: घटकर २३ करोड़ ५० लाख पर आ गई ।
टी.बी. के मामले में रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक तौर पर इसकी संख्या में थोड़ी बहुत वृद्धि हुई है । सन् २००९ में इसके कुल मामले १.२ करोड़ से १.६ करोड़ के मध्य थे और इसमें से करीब ९४ लाख नए मामले थे । यह भी अनुमान लगाया गया है कि सन् २००९ में १३ लाख एच.आई.वी. नेगेटिव व्यक्ति टी.बी. से मारे गए है । रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला गया है कि इस बीमारी से होने वाली मौतों में सन् १९९० के मुकाबले एक तिहाई की कमी आई है । अगर वैश्विक रूप से गिरावट की वर्तमान दर बनी रहती है तो टी.बी. को लेकर सहस्त्राब्दी लक्ष्यों में निर्धारित मृत्यु के लक्ष्य को सन् २०१५ तक पाया जा सकता है ।
विश्वभर में जीवित एचआईवी पॉजिटिव व्यक्तियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है और यह सन् २००९ में ३.३ करोड़ तक पहुंच गई है जो कि सन् १९९९ से २३ प्रतिशत अधिक है । अनुमानत: सन् २००९ में करीब २६ लाख नए लोग इस संक्रमण से ग्रसित हुए और इस दौरान एचआईवी/एड्स से संबंधित १८ लाख व्यक्तियों की मृत्यु हुई । यह भी पाया गया कि एच.आई.वी. पॉजिटिव जीवित व्यक्तियों की संख्या बढ़ने का कारण एंटी रीट्रोवायरल थेरेपी (एआरटी) की उपलब्धता भी है । दिसम्बर २००९ में कम और मध्यम आय वाले देशों के ५० लाख व्यक्तियों को एआरटी सुविधा उपलब्ध थी । इसके अलावा इसी दौरान उच्च् आय वाले देशों में अतिरिक्त ७ लाख लोगों को यह उपचार उपलब्ध था । इसके बावजूद वैश्विक रूप से उचित प्रगति नहीं हो पा रही है । उपचार व प्रभावितों के अनुपात में अभी भी अंतर है । निम्न और मध्यम आय वाले देशों में केवल ३६ प्रतिशत प्रभावितों को ही यह उपचार मिल पा रहा है ।
रिपोर्ट में सुरक्षित पेयजल और सेनेटरी की मूलभूत आवश्यकताआें पर पहुंच को भी दृष्टिगत रखा गया है । पाया गया है कि सन् १९९० में जहां ७७ प्रतिशत आबादी सुरक्षित पेयजल की पहुंच में थी वहीं सन् २००८ में यह बढ़कर ८७ प्रतिशत तक पहुंच गई है । जहां तक सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों की बात है वर्तमान दर से वृद्धि से इन्हे प्राप्त् कर पाना मुश्किल है । सन् २००८ में करीब ८८.४० करोड़ व्यक्ति बिना सुरक्षित पेयजल के थे जिनमें से ८४ प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते है ।
सेनिटेशन संबंधी सहस्त्राब्दी लक्ष्यों की पूर्ति की संभावनाएं भी कम ही नजर आ रही हैं । सन् २००८ में तकरीबन २६० करोड़ व्यक्ति विकसित सेनिटेशन सुविधाआें का उपयोग नहीं कर पा रहे थे । इनमें वे ११० करोड़ लोग भी शामिल हैं जिनके पास सेनीटेशन और शौचालय को किसी भी प्रकार की सुविधा ही उपलब्ध नहीं है ।
रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि विकासशील में अनिवार्य औषधियों की कमी और अधिक मूल्य की समस्याएं अभी भी विद्यमान है । ४० से अधिक देश जिनमें से अधिकांश निम्न और मध्य आय वर्ग के थे, में किए गए सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि चुनिंदा जेनेरिक दवाइयां सार्वजनिक क्षेत्र की सुविधाआें में से केवल ४२ प्रतिशत में और निजी क्षेत्र में केवल ६४ प्रतिशत में उपलब्ध हैं । सार्वजनिक क्षेत्र में औषधियां की कमी से मरीज निजी क्षेत्र से दवाईयां खरीदने को मजबूर हैं जहां पर ये दवाईयां अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों के अनुसार देखें तो जेनेरिक दवाइयों से औसतन ६३० प्रतिशत तक महंगी हैं ।
असंक्रामक रोग जिसमें ह्दयरोग मधुमेह, कुछ खास तरह के कैंसर और श्वास संबंधी गंभीर बीमारियां शामिल हैं, विकसित और विकासशील देशों और सभी उम्र एवं समूहों के व्यक्तियों में लगातार बढ़ रहे हैं । इन दीर्घकालिक बीमारियों की महामारी के कारणों में अस्वास्थ्यकर भोजन, अत्यधिक खाद्य ऊर्जा ग्रहण करना, शारीरिक गतिविधियों में कमी, अधिक वजन और मोटापा, तंबाखू और शराब का हानिकारक इस्तेमाल शामिल है । रिपोर्ट में स्वास्थ्य पर किए जाने वाले अधिक व्यय और व्यक्तियों के जीवनकाल में बढ़ोत्तरी को भी रेखांकित किया गया है । सन् १९९० में जहां औसत आयु ६४ वर्ष थी वह सन् २००९ में बढ़कर ६८ वर्ष हो गई । परन्तु निम्न और मध्यम आय के देशोंमें स्वास्थ्य पर होने वाले व्यय में अत्यधिक खाई अभी भी मौजूद है ।

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
संसद की सर्वोच्च्ता का सच
गोविन्द श्रीवास्तव/अनंत जौहरी

हम संसद को सर्वोच्च् मानकर लगातार उसे और शक्तिशाली बनाने की कामना करते हैं । लेकिन वास्तविकता एक दूसरी ही सच्चई की ओर इशारा कर रही है । संसद को विदेशी मामलों, विदेशी व्यापार, विदेशों में से होने वाली संधियों आदि के संबंध में बहुत ही सीमित अधिकार हैं । इतना ही नहीं हमारे देश के विकास को दिशा देने वाली पंचवर्षीय योजनाआें को भी संसद से स्वीकृत करवाना अनिवार्य नहीं है । यानि हम एक प्रशासनिक सत्ता तंत्र में रह रहे हैं।
आजकल यह चर्चा आम है कि सांसद, संसद और सरकार में स्वतंत्र और सर्वशक्ति सम्पन्न कौन है ? लोकपाल मसौदा समिति के प्रस्ताव पर आने वाली प्रतिक्रिया ने इस मूल प्रश्न को व्यापक रूप से उठा दिया है ।
अलग-अलग देखे तो लगता है कि इनमें से प्रत्येक स्वतंत्र भी है और सर्वशक्तिमान भी । सांसदों का दो तिहाई बहुमत कानून बनाता है । संसद वह सर्वोच्च् संस्था है जिसके कानूनी निर्णय को सर्वोच्च् न्यायालय भी नहीं बदल सकता । जबकि संंसद संविधान में संशोधन कर सकती है । जब संविधन की शक्तियों के परिप्रेक्ष्य में देखे तो लगता है कि संविधन का उल्लघंन तो हो ही नहीं सकता और सभी निर्णय संविधान की धाराआें के अनुसार ही होते हैं । लेकिन व्यवहार में देखे तो कोई भी सरकार अध्यादेशों के जरिये रातो-रात सर्वोच्च् न्यायालय के हाथ बांध देती है ।
सरकार किसी भी पार्टी की हो, संविधान ने उसे इतने व्यापक अधिकार दे रखे हैं कि वह विदेशों से ऐसी भी संधि कर सकती है कि उसे मालूम भी हो कि किस कंपनी या व्यक्ति का कितना काला धन विदेशों में जमा है पर वह उस संधि के हवाले से कह देगी कि हम जानते है पर बताएंगे नहीं । संविधान प्रदत्त अधिकारों के आधार पर किसी भी सरकार को, विदेशी समझौते एवं संधि करने की व्यापक शक्ति प्राप्त् है । इसी आधार पर बहुचर्चित परमाणु समझौते के समय लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को यह राज खोलना पड़ा था कि संसद में परमाणु समझौते पर बहस तो हो सकती है परन्तु मत विभाजन नहीं हो सकता । उसी समय भी विपक्ष के द्वारा यह मांग उठाई गई थी कि संविधान की इस धारा को बदला जाए ।
संसद के अधिकार को कार्यपालिका द्वारा सीमित करने के बार में लेखक व राजनीतिक कार्यकर्ता सुनील का कहना है भारतीय संविधान, विधायिका (संसद और विधान सभाआें) के अधिकार की सीमा तय कर देता है, जिसके चलते कार्यपालिका विधायिका से ज्यादा ताकतवर बन जाती है । यह चारित्रिक विशेषता भी भारतीय संविधान में १९३५ के ब्रिटिश भारत सरकार के कानून से विरासत में ली गयी है । संघीय सूची में विदेशों के साथ संधियां व समझौते, विदेशों के साथ व्यापार, विदेशी कर्ज आदि विषय आते है । इन विषयों पर संसद की राय नहीं ली जाती ।
विदेशी संबंधों, विदेश व्यापार, वाणिज्य, विदेशी कर्ज आदि पर कार्यपालिक का पूरा नियंत्रण रहता है । विश्व व्यापार संगठन के डंकल प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करते समय भी इस विषय पर बहस नहीं कराई गई थी कि भारत को इस पर ह्स्ताक्षर करने चाहिये या नहीं । संविधान संसद को व्यवहारत: आर्थिक नीतियों के संदर्भ में कोई अधिकार नहीं देता । देश की अर्थव्यवस्था के संदर्भ में नीतियां बनाने और लागू करने पर पूरा नियंत्रण कार्यपालिका का है ।
संसद बाह्य या आंतरिक कर्ज के संदर्भ मेंकुछ नहीं बोल सकती । अन्य देशों के साथ द्विपक्षीय या बहुपक्षीय आर्थिक समझौतों या उसके साथ आर्थिक रिश्तों के बारे में हस्तक्षेप करने का संसद को कोई अधिकार नहीं ।
पंचवर्षीय योजना पर संसद का कोई नियंत्रण नहीं है । शुरूआती पंचवर्षीय योजनाआें में परम्परागत तौर पर योजना को मात्र सुझावों के लिए चर्चा के लिये नहीं संसद के सामने रख दिया जाता था । अब तो इस परम्परा को भी छोड़ दिया गया है ।
समय-समय पर घोषित की जाने वाली आर्थिक नीतियों जैसे आयात-निर्यात नीति, औघोगिक नीति आदि पर संसद कुछ नहींबोल सकती ।
महात्मा गांधी ने इसी संसदीय लोकतंत्र के बारे में१९०९ में हिन्द स्वराज्य में कहा था कि पार्लियामेन्ट की मां ब्रिटिश संसद का ढांचा ऐसा है कि वह कोई बड़ा जनहितैषी निर्णय नहीं ले सकती है । हमारे संविधान पर भी इसलिये ब्रिटिश संविधान की पूरी छाया है । दिखने में सरकार बहुत शक्तिशाली है परन्तु वास्तव में इसकी नकेल मुख्यतया सत्ता पक्ष के राजनैतिक दल के हाथ में होती है । लेकिन यह भी आभास ही है और यही दोषपूर्ण लोकतंत्र का परम सत्य है । सामान्यत: सभी राजनैतिक दलों के शीर्ष में निर्णायक शक्ति या तो एक छोटे से समूह के पास या उस पार्टी के एक व्यक्ति (सुप्रीमो) के पास होती है ।
लेकिन क्या कोई भी एक व्यक्ति या राजनैतिक दल के शीर्ष मेंबैठे निर्णायक कुछ व्यक्तियों का समूह इतना शक्तिशाली हो सकता है ? शायद आज की राज्यव्यवस्था में ऐसा संभव नहीं है । मूर्त रूप में सरकार या सुप्रीमो इतने शक्तिशाली दिखते हैं, लेकिन वास्तव में इनकी संचालक शक्ति तो वित्तीय पूंजी के वर्चस्व वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं जो अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिये बड़े पैमाने पर अरबों खरबों का भ्रष्टाचार करती है और छोटे भ्रष्टाचारियों को अपने उत्पाद व सेवाएं बेचती हैं । इनके प्रभाव में राजनैतिक दल, सरकारें और सांसद आदि अक्सर जनविरोधी निर्णय लेते है ।
जन लोकपाल के आग्रही समूह ने इसे आजादी की दूसरी लड़ाई भी कहा है । यह एक मूल प्रश्न है कि क्या हमारी आजादी की लड़ाई अधूरी रह गई ? आजादी की लड़ाई इसलिये थी कि जनता को उसकी सार्वभौम सत्ता वापस मिले । वह अपनी अर्थव्यवस्था के लिये स्वयं निर्णय करते हुए अपने नियंत्रण का तंत्र, खड़ा कर सके । संसदीय लोकतंत्र की बुनियाद जनता का चुना, प्रतिनिधि लोकसभा का सासंद है । इस मौलिक इकाई की स्वतंत्रता दलबदल विधेयक ने छीन ली । क्योंकि इसके बाद वह जनता के प्रति उत्तरदायी, निर्देशित न होकर अपनी पार्टी द्वारा आदेशित हो गया । वह भय व लालच द्वारा संचालित किया जाता है । पिछले ४२ साल में आठ बार लोकपाल विधेयक पेश हुआ परन्तु पारित नहीं हो पाया क्योंकि सत्ता कभी भी अपने उपर नियंत्रण नहीं चाहती है । शासकीय लोकपाल विधेयक में इसीलिए सांसद को भ्रष्टाचार करने में सुरक्षा देने की कोशिश की गयी है ।
संसद को अगर गंगा जैसी पवित्र नदी कहा जाये तो सूरदास ने कहा है - एक नदिया एक नार कहावत मैलो जलहि भरयो । तीनों मिल जब एक संग भै, सुरसरि नाम परयो । नदी में नाला और मैला जल थोड़ा-थोड़ा मिलने पर भी उसे गंगा कहा गया, परन्तु आज पवित्र नदियों में इतना प्रदूषण हो गया है, इतना मैला जा रहा है कि नदियां पूर्णत: प्रदूषित हो चुकी हैं, यही हाल आज की संसद का हो रहा है । जो कतिपय, जनहितैषी, प्रबुद्ध एवं जुझारू सांसद हैं वे भी नक्कारखाने में तूती की आवाज की स्थिति में जा चुके है । वे भयभीत है उनके ऊपर चुप रहने का लेबल लगा हुआ है और वे जानते है कि अगर बहुत आदर्शवादी बनेंगे तो अगली बार टिकिट ही नहीं मिलेगा । अधिकांश संस्थाएं उद्देश्य के विपरीत कार्य कर रही है । इसके साथ हम देख रहे है कि संस्थाआें को निरन्तर कमजोर किया जा रहा है । जनपक्षधर, नौकरशाह प्रताड़ित किये जाते हैं, संस्थाआें में केन्द्रीकरण है और सर्वोच्च् पदाधिकारी को विवेकाधीन अधिकार प्राप्त् हो गए हैं ।
शासकीय प्रस्ताव में प्रधानमंत्री को लोकपाल के अंकुश से मुक्त रखना इसी केन्द्रीय शक्ति को तानाशाही की शक्ति देना है । दूसरी और जनता के अधिकार को यानि उसके प्रतिनिधि सांसद को संसद में चुप रहने के लिये बाध्य करना इस संसदीय लोकतंत्र के ढांचे का मूल षड़यंत्र है ।
स्वतंत्रता के पश्चात् के इन वर्षो में हम देखते है कि गणतंत्र में तंत्र ही मजबूत होता जा रहा है और गण निरन्तर कमजोर हो रहा है । किसी भी लोकतंत्र के स्थिति उत्तम नहीं कही जा सकती है । लोकतंत्र के लिए सामान्य जन एवं संसद दोनों को ही मजबूत करना होगा । अतएव ऐसे प्रयासों के लिए देहात से लेकर दिल्ली तक अभियान चलाना होगा ।

विशेष लेख

विशेष लेख
क्या खतरे की घंटी है मोबाइल फोन ?
मानसी दास/अरूण मेहता

दूरसंचार विभाग ने कहा है कि वह जल्दी ही मोबाइल हैंडसेट निर्माताआें को अपने हैंडसेट्स की पैकिंग पर स्पेसिफिक एब्जार्प्शन रेशिओ (एसएआर) को प्रमुखता के साथ प्रदर्शित करने का आदेश देगा । एसएआर रेडियो फ्रि क्वेंसी ऊर्जा की उस मात्रा का पैमाना है जो हैंडसेट का इस्तेमाल करते समय शरीर द्वारा अवशोषित की जाती है । अगर यह मात्रा कम है तो इसका मतलब है कि उससे विकिरण का खतरा कम है ।
वर्तमान में हम अंतर्राष्ट्रीय गैर-आयनीकारक विकिरण सुरक्षा आयोग के दिशानिर्देश किसी भी सेलफोन टॉवर से ९०० मेगाटर्ज पर ४.५ वॉट/वर्गमीटर और १८०० मेगाहटर्ज पर ९.२ वॉट/वर्गमीटर तक के विकिरण की अनुमति देते हैं । भारत इनमेंे से दूसरे वाले स्तर का अनुसरण करता है । समिति ने अपनी अनुशंसा में कहा है कि भारत फ्रिक्वेंसी एक्सपोजर सीमा को मौजूदा स्तर के दसवें भाग तक घटा सकता है । मौजूदा मानक उष्मा प्रभाव पर आधारित है और गैर-ऊष्मीय एक्सपोजर के खतरों का समाधान पेश नहीं करते है ।
भारत जैसे गर्म देश में लोगों का बॉडी मॉस इंडेक्स (यानी ऊंचाई के सापेक्ष शरीर का वजन) बहुत कम है, शरीर में वसा की औसत मात्रा कम है और वातावरण में रेडियो फ्रिक्वेंसी का घनत्व ज्यादा है । समिति अपनी रिपोर्ट में कहती है कि ऐसी स्थिति में इस तरह के विकिरण से भारतीय लोगों को बहुत ज्यादा जोखिम हो सकता है । इसके मद्देनजर सरकार यह मानती है कि विकिरण के असुरक्षित स्तर से संपर्क नुकसानदेह हो सकता है । पिछले साल तहलका पत्रिका द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया था कि नई दिल्ली का ८० फीसदी हिस्सा असुरक्षित विकिरण स्तर का सामना कर रहा था ।
मोबाइल फोन का विकिरण
मोबाइल फोन रेडियो तरंगों के माध्यम से सिग्नल प्रेषित करते हैं । इन रेडियो तरंगों में रेडियो फ्रिक्वेंसी एनर्जी होती है जो इलेक्ट्रोमेग्नेटिक रेडिएशन का ही एक रूप है । मोबाइल हैंडसेट के भीतर मौजूद सर्किट्स और उसके एंटिना से विकिरण संचारित होता है । यह विकिरण सभी दिशाआें मेंं फैलता है, कहीं कम,कहीं ज्यादा । मोबाइल फोन का उपयोगकर्ता इस विकिरण का कितना हिस्सा अवशोषित करेगा, यह नेटवर्क में डिजिटल सिग्नल कोडिंग, एंटिना की डिजाइन और सिर के सापेक्ष उसकी स्थिति जैसे कई कारकोंपर निर्भर करेगा । अमरीकन नेशनल स्टैंडर्ड इंस्टीट्यूट (एएनएसआई) ने मोबाइल फोन के एसएआर को इस तरह से परिभाषित किया है : वह रफ्तार जिस पर किसी जैविकीय पदार्थ को रेडियो फ्रिक्वेंसी इलेक्ट्रोमेग्नेटिक एनर्जी दी जाती है । इसे उस पिण्ड की प्रति इकाई मात्रा में बहने वाली एनर्जी के रूप में व्यक्त किया जाता है, यानि वॉट/किलोग्राम । जब बात मानव ऊतकों की होती है तो एसएआर ऊतकों द्वारा अवशोषित की जाने वाली गर्मी की मात्रा का पैमाना है ।
भारत ने मोबाइल हैंडसेट द्वारा फैलने वाले विकिरण के एक्पोजर की सुरक्षित सीमा के मानक के तौर पर अंतर्राष्ट्रीय आयोग के दिशानिर्देश को स्वीकार किया है - पूरे शरीर के लिए औसत एसएआर ०.०८ वॉट/किलोग्राम, सिर एवं धड़ के लिए औसत एसएआर २वॉट/किलोग्राम और अन्य अंगों के लिए औसतन एसएआर ४ वॉट/किलोग्राम माना गया है ।
अमरीका में मोबाइल फोन का जो भी मॉडल बेचा जाता है उसकी निर्देशिका में एसएआर की जानकारी अवश्य रहती है । वहां के फेडरल कम्युनिकेशंस कमिशन (एफसीसी) ने १.६ वॉट/किलोग्राम एसएआर स्तर को सुरक्षित माना है । किसी भी मोबाइल फोन की एसएआर संबंधी जानकारी एफसीसी की वेबसाइट पर उपलब्ध रहती है । कभी-कभार यह मोबाइल की बैटरी पर भी अंकित रहती है या फिर फोन की निर्माता कंपनी हर स्तर का पहचान नंबर प्रकाशित करती है। यूरोप में एसएआर २वॉट/किलोग्राम से अधिक नहीं हो सकता जबकि कनाड़ा में इसका अधिकतम स्तर १.६ वॉट/किलोग्राम रखा गया है ।
भारत में किसी भी मोबाइल फोन के एसएआर का उल्लेख आमतौर पर उपभोक्ता निर्देशिका में होता है । उपभोक्ता चाहें तो उस कंपनी की वेबसाइट पर भी देख सकते हैं । एक लोकप्रिय मोबाइल कंपनी के कुछ मोबाइल फोन के कान के पास एसएआर ०.६१ से १.०७ वॉट/किलोग्राम के बीच है । सस्ते मोबाइल बनाने वाली देश की एक अन्य लोकप्रिय मोबाइल कंपनी के हैंडसेट का एसएआर ०.६७२ वॉट/किलोग्राम है ।
कम कीमत में कीबोर्ड वाले मोबाइल फोन बेचने वाली और स्टाइलिश हैंडसेट के लिए मशहूर कई कंपनियां अपनी वेबसाइट्स पर एसएआर के संबंध में जानकारी प्रदर्शित नहीं करती है ।
विकिरण पर शोध
विकिरण दो प्रकार के होते है। एक, आयनीकारक विकिरण जिनसे टकराकर परमाणुआें से इलेक्ट्रॉन निकल जाते हैं और आयॅन का निर्माण है (जैसे एक्स-रे) दूसरा, गैर आयनीकारक विकिरण जिसमें आमतौर पर इलेक्ट्रॉन अलग नहीं होते हैं । यह उतना घातक नहीं माना जाता जितना कि आयनीकारक विकिरण होता है। इसमें वस्तु की सतह केवल गर्म होती है । मोबाइल फोन और मोबाइल फोन टॉवरों से निकलने वाला विकिरण गैर-आयनीकारक होता है ।
गैर-आयनीकारक विकिरण के साथ चिंता यह है कि इसका असर लंबे समय तक हो सकता है । हालांकि यह ऊतकों को तत्काल नुकसान नहीं पहुंचाता, लेकिन वैज्ञानिक इस बात को लेकर पक्के तौर पर कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है कि इस विकिरण के लगातार प्रभाव से किस तरह की समस्याआें का सामना करना पड़ सकता है ।
इस बाबत किए गए शोध के नतीजे काफी अलग-अलग हैं और किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते कि मानव स्वास्थ्य के लिए मोबाइल फोन का विकिरण कितना घातक है ।
अनुसंधान पर एक नजर
मोबाइल फोन के विकिरण का सबसे जाना-माना प्रभाव ऊष्मीय प्रभाव है जिसमेंगर्मी संबंधी अधिकांश प्रभाव सिर की सतह पर होते हैं । ऊष्मीय प्रभाव मानव ऊतकों को उसी तरह गर्म करने की क्षमता रखता है, जैसे किसी माइक्रोवेव ओवन में खाना गर्म होता है । इसमें तापमान में बढ़ोतरी उससे भी कम होती है जितनी धूप में सिर खुला रहने पर होती है । मस्तिष्क के रक्तसंचार में यह क्षमता होती है कि वह खून के प्रवाह मेंबढ़ोतरी कर अतिरिक्त गर्मी के असर को खत्म कर सके । हालांकि आंख के कॉर्निया में तापमान के नियंत्रण की कोई व्यवस्था नहीं होती है। दो से तीन घंटे तक १०० से १४० वॉट/किलोग्राम एसएआर पर खरगोश की आंखों में मोतियाबिंद का होना पाया गया । इस एसएआर पर आंख के लेंस का तापमान ४१ डिग्री सेल्सियस हो गया । वैसे जब बंदरों को इन्हीं परिस्थितियों से गुजारा गया तो उनमें मोतियाबिंद नहीं हुआ ।
वर्ष २००९ में डेनमार्क, फिनलैंड, नार्वे और स्वीडन के तमाम वयस्कों (कुल १.६ करोड़ लोग) पर यह जानने के लिए अध्ययन किया गया कि क्या इन देशों में ब्रेन ट्यूमर के प्रकोप में बढ़ोतरी हो रही है । वर्ष १९९८ से २००३ के दौरान ब्रेन ट्यूमर के प्रकोप में अंतर का कोई स्पष्ट रूझान नहीं देखा गया । इससे इतना ही संकेत मिलता है कि मोबाइल फोन के इस्तेमाल से जुड़े ब्रेन ट्यूमर की शुरूआती अवधि ५ से १० साल तक हो सकती है । ऐसे में ब्रेन ट्यूमर के मामलों की दर में रूझान का पता लगाने के लिए लंबे समय तक फालो-अप करना जरूरी होगा ।
वर्ष २००३ में आठ चूहों का जीएसएम कम्युनिकेशन वाले अलग-अलग क्षमता के मोबाइल फोन के संपर्क में रखा गया । इन चूहों के मस्तिष्क के कॉर्टेक्स और हिप्पोकैम्पस एवं बैसल गैंग्लिया में तंत्रिका क्षति पाई गई ।
वर्ष २००४ में किए गए एक अध्ययन में निष्कर्षो में ऐसा कोई संकेत नहीं मिला कि थोड़े-थोड़े अंतराल पर कम अवधि के लिए मोबाइल फोन का
इस्तेमाल करने से एकूस्टिक न्यूरोमा का खतरा बढ़ता है (यह एक ऐसा ट्यूमर है जिससे सुनने की क्षमता घट सकती है, संतुलन की समस्या बढ़ सकती है और चेहरे का लकवा होने की आशंका हो सकती है) । हालांकि इन निष्कर्षो से ये संकेत जरूर मिलते है कि कम से कम १० साल तक मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने में एकूस्टिक न्यूरोमा का खतरा हो सकता है ।
सन् २००९ के उत्तरार्द्ध मेंजर्नल ऑफ द नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट ने उत्तरी यूरोप में कई कैंसर अस्पतालों के आंकड़ों के आधार पर एक आलेख प्रकाशित किया था । इसमें बताया गया था कि मोबाइल फोन के इस्तेमाल और ब्रेन ट्यूमर के बीच कोई विशेष संबंध नहीं है । उस अतरांल में भी ब्रेन ट्यूमर के मामलोंमें कोई अंतर नहीं आया जब मोबाइल फोन का इस्तेमाल बढ़ा था ।
स्वीडन स्थित कैरोलिंस्का इंस्टीट्यूट के मस्तिष्क विज्ञान विभाग में वैज्ञानिक ओले जोहानसन मोबाइल फोन के विकिरण पर पिछले तीन दशकों से भी अधिक समय से शोध कर रहे हैं । उन्होनें पाया है कि मनुष्य का मस्तिष्क इलेक्ट्रोमेग्नेटिक विकिरण के प्रति काफी संवेदनशील होता है । मोबाइल उद्योग ने उनके निष्कर्षो को कमोबेश नकार दिया है ।
वाशिंग्टन स्थित एक सरकारी निगरानी समूह एनवायर्मेटल वर्किग ग्रुप ने २००९ में कहा कि अब तक ऐसे कोई पुख्ता वैज्ञानिक सबूत नहीं मिले हैं जो इस बात की पुष्टि करते हों कि मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने से कैंसर ह्ो सकता है । लेकिन हालिया अध्ययन बताते है कि जो लोग पिछले १० साल से मोबाइल फोन का उपयोग कर रहे हैं, उन्हें मस्तिष्क और मुंह में ट्यूमर होने की आंशका हो सकती है ।
जॉर्ज कार्लोे एक सरकारी स्वास्थ्य वैज्ञानिक, महामारी विशेषज्ञ और वकील हैं जिन्होंने १९९३ से १९९९ के बीच मोबाइल कंपनियों द्वारा वित्त पोषित २.८५ करोड़ डॉलर के अनुसंधान कार्यक्रम की अगुवाई की थी । उन्होने कहा, सेलफोन के इस्तेमाल से ट्यूमर, कैंसर, आनुवांशिकी क्षति और अन्य स्वास्थ्य संबंधी खतरों में बढ़ोतरी के चिकित्सा वैज्ञानिक संकेतों के बीच सरकार और मोबाइल फोन उद्योग ने लोगों को अकेला छोड़ दिया है ।
एक और वैज्ञानिक माइकल कुंडी भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि तमाम साक्ष्य बढ़ते खतरे का संकेत देते हैं लेकिन मोबाइल फोन के दीर्घकालीन इस्तेमाल संबंधी सूचनाआें के अभाव के चलते आज इसका आकलन नहीं किया जा सकता कि यह खतरा कितना है ।
मंत्रिमंडलीय समिति की रिपोर्ट में भारत में रेडियो फ्रिक्वेंसी के स्त्रोतों के बारे मेंविस्तार से जानकारी दी गई है । इसके अनुसार देश में१ से ३०० किलोवॉट संचार क्षमता के ३८० एएम/एफएम टॉवर, १० से ५०० वॉट संचार क्षमता के १२०१ टेलीविजन टॉवर, २० वॉट संचार क्षमता के ५.४ लाख सेल फोन टॉवर और १ से २ वॉट संचार क्षमता के ७० करोड़ से अधिक मोबाइल फोन है । इसके अलावा खासकर महानगरों में १० से १०० मिलीवॉट संचार क्षमता वाले वाई-फाई डिवाइस का भी तेजी से विस्तार होता जा रहा है।
भारत के लिए मोबाइल फोन विकिरण इसलिए भी खतरे की घंटी है, क्योंकि यहां का दूरसंचार उद्योग दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ रहा है और वायरलेस कनेक्शनों की संख्या के मामले में यह विश्व में दूसरा सबसे बड़ा दूरसंचार नेटवर्क है । मोबाइल फोन उपभोक्ताआें की संख्या में हर माह लगातार बढ़ोतरी हो रही है । साथ ही आधुनिकतम मोबाइल फोन और अन्य संचार उपकरणों के कारण बैेडविथ की भूख भी बढ़ती जा रही है । भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने अनुमान लगाया है कि मार्च २०१४ तक भारत में मोबाइल उपभोक्ताआें की संख्या १०० करोड़ तक पहुंच जाएगी ।
गौरतलब है कि भारत में टॉवरों की स्थापना को लेकर कोई नियंत्रण नहीं है । यही वजह है कि हमारे शहरों में टॉवर या एंटिना का बहुत ही अव्यवस्थित जाल-सा-बिछा मिलेगा । मोबाइल टॉवर भी जगह-जगह कुकुरमुत्तों की तरह उगे जा रहे हैं ।
एहतियात बरतें
हमेशा न्यूनतम एसएआर वाला मोबाइल ही खरीदें । कम एसएआर का मतलब है विकिरण एक्सपोजर का खतरा भी कम होना । उच्च् एसएआर का मतलब होगा कि विकिरण की कान से अधिक निकटता । मोबाइल फोन के साथ सहायक उपकरणों के इस्तेमाल से एसएआर के मूल्य में बदलाव हो सकता है ।
मोबाइल फोन का हमेशा शरीर से दूर रखें । सिर के पास इलेक्ट्रोमेग्नेटिक विकिरण को कम करने के लिए स्पीकर फोन या हैंड-फ्री सेट का इस्तेमाल करें । यह सुनिश्चित करें कि विकिरण को अवशोषित करने के लिए हैंडसेट में फेराइट बीड लगी हो ।
वे लोग जिनके शरीर में प्रत्यारोपण किया गया हो, उन्हें मोबाइल फोन प्रत्यारोपित अंग से कम से कम ३० सेंटीमीटर दूर रखना चाहिए ।
ऐसे फोन का इस्तेमाल करें जिसमें बाह्म एंटिना लगा हो । उस फोन को वरीयता दें जिसमें बात करते समय एंटिना कपाल से दूर रहे ।
बाह्म एंटिना नहीं होने पर कार में मोबाइल फोन का इस्तेमाल करें ।
लिफ्ट जैसे धातुई परिवेश में मोबाइल फोन पर बातचीत से बचें, क्योंकि इसमें विकिरण के बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं होने से वह आपके शरीर में ही जाएगा ।
विकिरण कवच वाले मोबाइल का इस्तेमाल करें । कई कंपनियां इस तरह के कवच की पेशकश करती हैं ।
मोबाइल फोन के विकिरण को बाधित करने वाले यंत्री, जैसे एंटिना, वाई-फाई, जीपीएस, ब्ल्यूटूथ का इस्तेमाल करें । ये विकिरण उत्सर्जित करने वाले बिन्दुआें को वांछित समय के लिए निष्क्रिय कर देते हैं ।
कुछ शोधकर्ता ने उन स्थानों पर मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने को लेकर आगाह किया है जहाँ सिग्नल कमजोर होते हैं उनके अनुसार इस दौरान विकिरण ज्यादा होता है ।

जनजीवन

जनजीवन
क्या कार का पेट भरना जरूरी है
डॉ. रामप्रताप गुप्त

अमेरिका ने सन् २००८-०९ के मध्य जितने खाद्यान्न का उपयोग वाहनों के लिए ईधन बनाने के लिए उतने में ५० करोड़ लोग वर्ष भर खाना खा सकते हैं । गौरतलब है इसी दौरान विश्व में भूखमरी और कुपोषण के शिकार व्यक्तियों का आंकड़ा १ अरब को पार कर गया । भारत में भी कुपोषण और भुखमरी की समस्या सुरसा के मुंह की तरह है ।
राष्ट्रों ने सहस्त्राब्दि लक्ष्यों के अन्तर्गत भुखमरी में कमी, शिक्षा का विस्तार, स्वास्थ्य सुविधाआें के विस्तार तथा स्वास्थ्य स्तर में सुधार आदि क्षेत्रों में सन् २०१५ तक की अवधि के लिए न केवल लक्ष्य निर्धारित किए थे तथा उन्हें प्राप्त् करने का निर्णय भी लिया था । इन्हीं लक्ष्यों के अन्तर्गत सन् १९९० और २०१५ के मध्य विश्व में भूख और कुपोषण की शिकार आबादी को २० प्रतिशत से कम करके १० प्रतिशत तक लाने का निश्चिय भी था । सन् १९९०-९१ से सन् २००५-०६ तक इस दिशा में प्रगति संतोषप्रद थी परन्तु सन् २००७-०८ में आई वैश्विक मंदी ने प्रगति की प्रक्रिया पर रोक सी लगा दी और विश्व में भुखमरी और कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या बढ़कर एक अरब अर्थात् कुल आबादी की १६ प्रतिशत से भी अधिक हो गई । शेष बची अवधि में इसे कम करके १० प्रतिशत तक लाना अत्यधिक कठिन ही दिखता है ।
भूख और कुपोषण की गणना वैश्विक भूख सूचकांक की गणना के लिए विश्व में कुपोषित आबादी के प्रतिशत, ५ वर्ष से कम आयु के बच्चें में अल्प वजन वालों का प्रतिशत और इसी आयु वर्ग के बच्चें की मृत्युदर को शामिल किया जाता है । इन तीनों पैमानों पर सन् २००९ काफी चिंताजनक है । इस वर्ष १२.९ करोड़ बच्च्े अल्प वजन वाले थे और १९.५ करोड़ बच्च्े कुपोषण का शिकार होकर ठिगने रह गए थे । इतना ही नहीं बालकों की तुलना में बालिकाएं कुपोषण और भूख का विशेष शिकार थीं । जब वे माताएं बनती हैं तो कुपोषित बच्च्े को ही जन्म देने की पूरी-पूरी संभावना रहती है । इस तरह समाज में कुपोषण और भूख का चक्र चलता ही रहता है । कुपोषण और भूख के सूचकांक में ५० प्रतिशत कुपोषित बच्च्े हैं । यह इस बात का प्रतीक है हम अपनी भावी पीढ़ी के प्रति अपने दायित्व के प्रति हम कितने सजग है ।
कुपोषण और भूख से निजात के प्रयासों में बच्च्े का माँ के गर्भ में आने के प्रथम दिन से लेकर २ वर्ष तक की आयु का सर्वाधिक महत्व होता है । इस आयु में कुपोषण के शिकार बच्च्े को बाद में कितना ही अच्छा पोषण क्यों न दिया जाए, २ वर्ष की आयु तक के कुपोषण की क्षतिपूर्ति संभव नहींहोती । अत: बाल कुपोषण से मुक्ति के प्रयासों में गर्भवती माताआें को भी शामिल करना आवश्यक होता है । कुपोषण और भूख की समस्या माँ के गर्भ से ही शुरू हो जाती है ।
विश्व में कुपोषण और भूख के समस्या के भौगोलिक स्वरूप पर नज डाले तो हम पाते है कि कुपोषण के गंभीर शिकार राष्ट्रों में अफ्रीका के सहारा क्षेत्र के राष्ट्र तथा दक्षिणी एशिया के राष्ट्र सबसे ऊपर आते हैं । जो राष्ट्र अपने भूख संूचकांक में १३ अंक या अधिक की गिरावट ला सके हैं, उनमें अंगोला, इथोपिया, घाना, मोजाम्बिक, निकारगुआ और वियतनाम प्रमुख हैं । परन्तु सहारा क्षेत्र के सभी ९ राष्ट्रों के भूख सूचकांक में वृद्धि हुई है । गृहयुद्ध से जर्जर कांगो का स्थान इसमें सबसे ऊपर है । इसकी तीन-चौथाई आबादी भूख और कुपोषण का शिकार है जो पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय होना चाहिए । बरूण्डी, गिनी बिसाऊ, लाइबेरिया और उत्तरी कोरिया में भी कुपोषण की स्थिति अत्यन्त चिंताजनक है । दक्षिणी एशियाई राष्ट्रों में महिलाआें की निम्नस्तरीय सामाजिक स्थिति के कारण उनमें भी कुपोषण का स्तर अधिक होता है और परिणामस्वरूप उनकी संताने भी कुपोषित होने का श्राप भुगतने का विवश होती हैं ।
विश्व संगठनों को इन राष्ट्रों पर और अधिक ध्यान देना चाहिए । अब तक के प्रयासों के कारण दक्षिणी एशियाई राष्ट्रों के भूख सूचकांको में २५ और सहारा क्षेत्र के राष्ट्रों में १४ अंकों की गिरावट आई है । इसकी तुलना में पूर्वी एशिया के राष्ट्रों तथा उत्तरी अफ्रीका के सूचकांक में ३३ अंकों की कमी आई है । मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि जिन राष्ट्रों की आर्थिक प्रगति का स्तर बेहतर रहा है, वे अपने भूख सूचकांको में भी अच्छी कमी ला सकते हैं । यद्यपि यह बात हर राष्ट्र के संबंध मेंसही ही हो ऐसा आवश्यक नहीं है ।
कुपोषण और भूख के सूचकांकों के ऊँचे स्तर और उनमें अपेक्षाकृत सुधार न होने के पीछे एक बड़ा कारण अमेरिका द्वारा खाघान्नो का बढ़ती मात्रा में गैर खाघान्नों के रूप में ंउपयोग है । वह पशु खाघान्न के रूप में तो खाघान्नों का उपयोग करता तो है ही, पिछले वर्षो में तेल की कीमतों में वृद्धि के फलस्वरूप वह इनसे जैव ईधन का निर्माण भी करने लगा है । जैव ईधन के रूप में मक्का, गेहूँ, रायड़ा, सूरजमुखी, सोयाबीन आदि फसलों का उपयोग किया जाता है, विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार सन् २००८-०९ में १२.५ करोड़ टन अनाजों का उपयोग जैव ईधन बनाने के लिए उपयोग किया गया । इस मात्रा से ५० करोड़ आबादी की खाघान्नों की आवश्यकता पूरी की जा सकती है ।
इनती बड़ी मात्रा में जैव ईधन के उत्पादन के लिए खाघान्नों का उपयोग होने से सन् २००६ और २००८ की अवधि में विश्व खाद्यान्न कीमतों में ७५ प्रतिशत की वृद्धि तथा गेहूँ, चावल और मक्का की कीमतों में तो १२६ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । खाघान्नों की कीमतों में आए इस भारी उछाल से खाघान्नों के आयातक तथा अल्प आय वाले ८२ राष्ट्रों के आयात बिल में भारी वृद्धि हो गई । खाघान्नों की कीमतों में प्रत्येक १० प्रतिशत की वृद्धि से इनके आयात बिल में ४.५ अरब डॉलर की वृद्धि हो जाती है । कुल मिलाकर अमेरिका और अन्य विकसित राष्ट्रों द्वारा खाघान्नों के गैर खाद्य उपयोग के कारण सन् २००८ में उनकी वैश्विक कीमतों में ३० से ७५ प्रतिशत की वृद्धि हुई और आयातक गरीब राष्ट्रों के लिए उनका आयात असंभव हो गया । इसी वजह से उनके भूख सूचकांक में सन् २००८ के बाद की अवधि में तमाम प्रयासों के बावजूद उनमें सुधार संभव नहीं हुआ । अनेक राष्ट्रों के भूख सूचकांक में वृद्धि हुई है।
विश्व भूख सूचकांक में कमी के सहस्त्राब्दी लक्ष्यों को प्राप्त् करने के लिए हमें खाद्यान्नों के गैर खाद्यान्न उपयोग पर रोक लगाना होगी । आज की परिस्थितियों में इस मामले में प्रमुख दोषी अमेरिका को इसके लिए बाध्य करना ही होगा ।

कविता

कविता
आओ ! वृक्ष लगाएँ
राधेश्याम आर्य विद्यावाचस्पति

जगती को हम दें नवजीवन,
जाग्रत हो धरती का कण-कण,
सौम्य सुवासित प्राण वायु का-
प्राणि मात्र में हो स्पन्दन,
जीवन के मंगल हित आओ-
ऋषि-मुनियों का पथ अपनाएं ।
आओ ! हम सब वृक्ष लगाएं ।।
नष्टप्राय हो वायु-प्रदूषण,
सुरभित हो जग का वातायन,
सुख-समृद्धि सरसता आए -
वृक्षों का हो सत-संपोषण,
जन-जन के हित वृक्ष लगाकर
भू पर अमृत-धार बहाएं ।
आओ ! हम सब वृक्ष लगाए ।
युग की यह सतत अभिलाषा,
देवगणों की यह शुचि आशा,
हरा-भरा हो भू का प्रांगण -
जन-जीवन की यह प्रत्याशा,
वेद-शास्त्र के निर्देशित शुचि-
पथ पर निर्भय कदम बढ़ाएं ।
आओ ! हम सब वृक्ष लगाएं ।।

हमारे आसपास

हमारे आसपास
कैसे दूध चट कर जाती है बिल्ली
डॉ टी.वी. वेंकटेश्वरन/डॉ. नवनीत गुप्त

बचपन से ही अक्सर हम कुत्ते-बिल्ली का नाम साथ ही लेते हाए हैं । लेकिन इन दोंनों जीवों के रहन-सहन में काफी अंतर है । पता ही नहीं चलता कि कब बिल्ली दबे पांव आकर हमारे किचन में दूध पी जाती हैं । वहीं कुत्ता कुछ भी खाए, शोर मचाए बिना नहीं रहता और खाने-पीने के सामान को बिखेर देता है । बिल्ली के इसी शातिर दिमाग के कारण किसी चतुर और घाघ व्यक्ति को अक्सर हम बिल्ली की संज्ञा देते हैं । इसके विपरीत कुत्ते की संज्ञा ऐसे व्यक्ति को दी जाती है जो अस्त-व्यस्त रहता है ।
आपने ध्यान दिया होगा कि हम बिल्ली पर दूध की चोरी के लिए संदेह नहीं कर सकते जबकि यदि यही कार्य कुत्ता करे तो वह आसानी से पकड़ में आ जाता है । बिल्ली के सामने दूध का एक कप रखिए, वह आसानी से उसे चाट जाएगी, वह भी बिना कोई निशान छोड़े । यहां तक कि उसकी मूंछों पर भी कोई निशान नहीं होता । दूसरी ओर, कुत्ते के सामने पानी का प्याला रखने पर वह चारों और पानी फैला देता है और स्वयं भी गीला हो जाता है ।
जानवरों में पानी पीने का तरीका हमारे पानी पीने के तरीके से अलग होता है । सामान्यत: जब हम किसी पेय को पीते हैं तो अपना सिर थोड़ा पीछे की ओर रखते हैं और कप के किनारे के हमारे मुंह से इस प्रकार लगाते है कि द्रव आसानी से मुंह मेंबहे । दूसरे ओर जब हम चूसते हैं तब हम मुंह खोल कर चूसते हैं ऐसा करने पर चूसने की आवाज भी आती है । ऐसा इसलिए संभव होता है क्योंकि मनुष्यों के साथ ही भेड़, घोड़े और सूअर के गाल पूर्ण गाल होते है यानि इनके मुंह की संरचना ऐसी होती है कि बाहर से देखने पर हम इनके पूरे दांत नहीं देख सकते हैं । दूसरी और मांसाहारी जीव (जैसे कुत्ते और बिल्लियां) में अपूर्ण गाल होते हैं यानि इनके मुंह की संरचना इस प्रकार की होती है कि हम बाहर से भी इनके पूरे दांत देख सकते हैं । अपूर्ण गाल इन जीवों को यह सामर्थ्य प्रदान करते हैं कि वे मुंह को चौड़ा करके अपने शिकार को आसानी से मुंह में जकड़ सके । हालांकि वे अपना मुंह चौड़ा तो कर सकते हैं लेकिन अपने गालों को बंद नहीं कर पाते जिससे उनके मुंह में निर्वात उत्पन्न हो पाए । इसलिए वो पीने की बजाए चाटते हैं ।
वैज्ञानिकों ने यह जानने का प्रयास किया कि किस प्रकार कुत्ते और बिल्ली पानी और दूध को चूसते हैं । उच्च्स्तरीय फोटोग्राफी में यह देखा गया है कि जब कुत्ते पानी पीते हैं तो जीभ को अपने मुंह से बाहर निकाल लेते हैं और उसे एक कप के आकार में ढाल लेते हैं । पूरी तरह से बाहर निकली हुई जीभ अंग्रेजी के जे आकार के चमचे की तरह दिखती है । जब उनकी जीभ पानी में प्रवेश करती है तो कप पूरी तरह से पानी से भर जाता है । चमचे के आकार की जीभ उसके मुंह में निचोड़ ली जाती है । इस प्रकार चाटने की इस प्रक्रिया में पानी फैल जाता है ।

एक जैवभौतिकीविद् रोमन स्टॉकर (जो सजीवों की भौतिकी का अध्ययन करते हैं) ने नाश्ते के दौरान अपनी पालतू बिल्ली क्यूटा को जब दूध पिलाया तब उन्होंने ध्यान दिया कि बिल्ली बिना गिराए या फैलाए दूध को चाट रही है । स्टॉकर ने देख कि बिल्ली ने अपना मुंह तक गीला नहीं किया है । हाल तक वैज्ञानिक यही सोचते थे कि दूध पीने के दौरान बिल्ली भी अपनी जीभ को जे आकार में ढाल लेती है । लेकिन बिल्ली इस मामले में कुत्तेसे अधिक व्यवस्थित तरीका अपनाती है । इस बात से चकित होकर स्टॉकर और उनके साथियों ने इस पहेली के रहस्य को समझने का निर्णय लिया । उन्होने एक सेकण्ड में १००० फोटो लेने वाले उच्च् गति के वीडियो कैमरे मे बिल्ली के दूध पीने की घटना को रिकार्ड किया ।
रिकार्ड की गई फिल्म को धीमी गति से चलाने पर साफ तौर पर यह पता चला कि बिल्ली अपनी जीभ को जे आकार के चमचे में नहीं बदलती है । उसकी जीभ का एक किनारा ही तरल की सतह के संपर्क में आता है । इसके अलावा जीभ तरल में अधिक गहराई में न डूबकर केवल सतह से ही सटी रहती है । सूक्ष्म अवलोकन से पता चला कि गतिमान जीभ ओर तरह सतह के मध्य दूध का एक स्तंभ बन जाता है । दूध का यह स्तंभ सतह को गुरूत्व के विरूद्ध ऊपर उठाता है । जब यह बल बढ़ता है और पानी के स्तंभ को ऊपर खींचता है तब बिल्ली अपने जबड़ों को उचित समय पर इस प्रकार बंद कर लेती है कि तरल बाहर गिरने से पहले ही मुंह में गिर जाए ।
बिल्ली की जीभ का पास से निरीक्षण करने पर देखा गया है कि बिल्ली के पास दूध को ऊपर उठाने का माध्यम उसकी जीभ होती है । जब लटकी हुई जीभ तरल की सतह को स्पर्श करती है तब पृष्ठ तनाव के कारण दूध खुरदरी और मोटी जीभ से चिपक जाता है । जब बिल्ली जीभ को अपने मंुह में तेजी से वापिस लेती है तब उसकी जीभ से लगा दूध ऊपर खिचता है । हालांकि जब जीभ ऊपर की ओर जाती है तब गुरूत्व के कारण दूध नीचे की ओर गिरता है । ऊपर लग रहे बल और गुरूत्व की लड़ाई के दौरान दूध का स्तंभ दो विपरीत दिशाआें में खिंचता है । इससे पहले कि गुरूत्व दूध को वापिस नीचे लाए बिल्ली बड़ी सावधानी से अपना मंुह बंद कर लेती है । यदि बिल्ली ऐसा करने में देर करें तो दूध का स्तंभ टूट जाएगा अैार तरल वापिस प्याले में गिर जाएगा जिससे बिल्ली की जीभ फिर से खाली हो जाएगी ।
इस अनुभव को स्वयं करने के लिए आप अपनी एक उंगली को पानी भरे प्याले में डालें और उंगली को बाहर की ओर खींचे आप देखेंगे कि आपकी उंगली के सिरे और पानी के प्याले के बीच जल स्तंभ बन जाता है । यदि आप निकटता से देखेगे तो पाएंगे कि जल स्तंभ ऊपर उठ रहा है । हालांकि ऐसा बहुत ही थोड़े समय के लिए होता है ।
स्टॉकर और उनके सहयोगियों ने इस धारणा को परखने के लिए बिल्ली की जीभ का एक ऐसा रोबोटिक संस्करण बनाया जो पानी भरे प्याले में ऊपर नीचे हो सकता था । इस प्रयोग से बिल्ली द्वारा पेय को चाटने के पहलुआें को विभिन्न प्रकार से और व्यवस्थित रूप से समझने और उसके लिए एक संकल्पना विकसित करने में मदद मिली । इससे यह साबित हुआ कि बिल्ली द्वारा चाटने की परिघटना अधिक सलीकेदार और सूक्ष्म है जिसके कारण वह बहुत तीव्रता से पेय पीती है ।

पर्यावरण परिक्रमा

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देश में बाघों की आबादी में २० फीसदी की बढ़ोतरी

एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले वर्ष बाघों की जनसंख्या में २० फीसदी बढ़ोतरी हुई है । पिछले दिनों यह रिपोर्ट वन और पर्यावरण मंत्रालय के अतिरिक्त महानिदेशक जगदीश किशवान ने जारी की, जिसमें वर्ष २०१० के दौरान बाघों की स्थिति पर रोशनी डाली गई है ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछली बार २००६ में सर्वेक्षण किया गया था जब देश में बाघों की अनुमानित संख्या १४११ थी, जबकि पिछले वर्ष २० फीसदी बढ़ोतरी के साथ बाघों की अनुमानित संख्या १७०६ है । यह बढ़ोतरी अतिरिक्त क्षेत्रों में किए गए सर्वेक्षण और गहन-घनत्व वाली आबादी में बाघों की संख्या में हुई बढ़त पर आधारित है ।
बाघों की आबादी की जनसंख्या आँकने में १७ राज्यों को शामिल किया गया । इसमें फॉरेस्ट स्टॉफ के ४,७७,००० कार्य दिवसों को शामिल किया गया । इनक अलावा, पेशेवर जीव विज्ञानियों ने भी ७० हजार कार्य दिवसों में काम किया । इस प्रकार का सर्वेक्षण प्रत्येक चार वर्ष में किया जाता है जिसमें नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी, द वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया, बाघों की आबादी वाले राज्य और बाहरी विशेषज्ञ शमिल होते हैं । श्री किशवान ने कहा कि उत्तराखंड, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और कर्नाटक में बाघों का घनत्व बढ़ा है । इस गिनती में सुंदरवन, पूर्वोत्तर के कुछ इलाकों और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों को भी शामिल किया गया है जिसके चलते बढ़ोतरी संभव हुई और इनकी संख्या आँकने के लिए दोहरी सैम्पलिंग तरीके को अपनाया गया ।
रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई है कि इस अच्छी खबर के बावजूद बाघ खतरे में है, क्योंकि उनके रिहायशी इलाके में कुल मिलाकर १२.६ फीसद की कमी हुई है । इसका अर्थ यह भी है कि छोटे क्षेत्रों में अधिक बाघों को बसाया जा रहा है । इस स्थिति के चलते इनके फैलाव में कमी हो सकती है । बाघों की जनसंख्या के बीच जीन सबंधी आदान-प्रदान का नुकसान होगा और मनुष्य तथा बाघ के टकराव के मामले बढ़ेगे ।

सन्२०३१ में होगी अन्य ग्रहों के प्राणी से मुलाकात

रूसी वैज्ञानिकों ने संभावना व्यक्त की है कि बार-बार धरती पर दस्तक देकर एक रहस्य छोड़ जाने वाले बाहरी ग्रह के प्राणियों से २०३१ तक पृथ्वी पर मनुष्य की सीधी मुठभेड़ हो जाएगी ।
रूस की सरकारी संवाद समिति इंटरफैक्सने रूसी विज्ञान अकादमी के अंतरिक्ष संस्थान के एक शीर्ष वैज्ञानिक के हवाले से खबर दी है कि पृथ्वी से इतर अन्य ग्रहों पर निश्चित रूप से जीवन है और संभावना है कि धरती के मनुष्य का अगले दो दशकों में उन प्राणियों से आमना सामना हो जाएगा । ज्ञातव्य है कि आकाशगंगा में हमारे सौरमण्डल के अतिरिक्त भी अनगिनत सौरमण्डल हैं, जिनके अपने अपने सूर्य हैं ।
अंतरिक्ष संस्थान के निदेशक एवं प्रसिद्ध अंतरिक्ष वैज्ञानिक एंडीफिकेलस्तीन ने कहा कि इन बाहरी सौरमण्डलों में अपने अपने सूर्य की परिक्रमा करने वाले ज्ञात ग्रहों में से १० प्रतिशत पृथ्वी जैसे ही है । यदि उन ग्रहों पर पानी है तो फिर वहां जीवन होने की पूरी-पूरी संभावना है । उनका कहना है कि बाहरी ग्रहों के प्राणियों के भी पृथ्वी के मनुष्य के तरह ही दो हाथ, दो पांव और एक सिर है । उन्होनें कहा कि हो सकता है कि उनकी चमड़ी का रंग अलग हो, लेकिन इस तरह की विविधता तो पृथ्वी के मनुष्यों में भी विद्यमान रहती ही है । उन्होने कहा कि उनका संस्थान अन्य ग्रहों पर जीवन की मौजूदगी का पता लगाने के काम में पूरी तरह से जुटा हुआ है और अगले २० वर्षो में यह रहस्य पूरी तरह से खुल जाने की उम्मीद है ।

नारियल की जटा से बनेंगी सड़के

मध्यप्रदेश की ग्रामीण सड़कें अब नारियल की जटाआें से बनेगी । इसके लिए मप्र ग्रामीण विकास प्राधिकरण ने पांच जिलों का चयन किया है । इससे स़़डकें मजबूत और टिकाऊ बनेगी ।
इस तकनीकी का कॉयर जियो टेक्सटाइल (सीजीट) नाम दिया गया है। इसका इस्तेमाल पॉयलट प्रोजेक्ट के तहत गुना, दमोह, जबलपुर, इन्दौर और बैतूल जिलों में किया जाएगा । इन जिलों में ५८ किलोमीटर लंबाई की १२ सड़कों का निर्माण किया जा रहा है । सेंट्रल कॉयर रिसर्च इंस्टिट्यूट इसकी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार कर रहा है। ज्ञात हो कि राष्ट्रीय ग्रामीण सड़क विकास एजेंसी (एनआरआरडीए) ने मप्र सहित आठ राज्यों को पत्र लिखकर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत ग्रामीण सड़कों में सीजीट का इस्तेमाल करने को कहा था । इसके बाद ही मप्र ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण ने इस दिशा में कार्य शुरू किया ।
सेंट्रल कॉयर रिसर्च इंस्टिट्यूट (कलावूर, केरल) के डायरेक्टर डॉ उमाशंकर शर्मा ने बताया कि ग्रामीण क्षेत्र में सड़कें ऐसी सतह पर बनाई जाती है जो खिसकती बहुत है । इससे सड़कें कमजोर हो जाती है । इसी को रोकने के लिए ग्रामीण इलाकों में इस तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है । इसमें नारियल की जटाआें से जालियां बनाई जाती है । इनको मिट्टी पर बिछाया जाता है, जो धीरे-धीरे मिट्टी की पकड़ को मजबूत कर देती है । इन जालियों के ऊपर मुरम और अन्य सामग्री बिछाई जाती है । इस तकनीकी को इंडियन रोड़ कांग्रेस ने भी मान्यता दे दी है ।
केन्द्र सरकार से मंजूरी मिलते ही इन सड़कों का कार्य प्रारंभ कर दिया जायेगा । प्राधिकरण के अधिकारियों का मानना है कि कम से कम मप्र में इतना जरूर फायदा होगा कि बाद में इसका मेंटनेंस सस्ता पड़ेगा ।

बैतूल में देश का चौथा कार्बन अनुमापन केन्द्र

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्था (इसरो) द्वारा वन विभाग के सहयोग से बैतूल जिले के तावड़ी परिक्षेत्र के सुकवान बीट क्षेत्र में परिस्थितिकीय तंत्र कार्बन अनुमापन केन्द्र की स्थापना की गई है । इस केन्द्र में बने टॉवर पर विभिन्न प्रकार के सेंसर्स का परीक्षण शुरू हो गया है ।
बैतूल में स्थापित यह केन्द्र देश का चौथा केन्द्र है । इसके पूर्व हलद्वानी, सहारनपुर और बरकोट (ऋषिकेश) में ऐसे केन्द्र स्थापित किये गये है । देश में कुल १५ केन्द्रों की स्थापना की जानी है । केन्द्र पर बनाय गये टॉवर पर अलग-अलग ऊँचाई और जमीन के नीचे विभिन्न प्रकार के सेंसर लगाये गये
हैं जो हवा की गति, तापमान एवं आर्द्रता संबंधी आँकड़े एकत्र करेंगे । यह आँकड़ें विश्लेषण के लिये हैदराबाद स्थित इसरो के राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केन्द्र भेजे जायेंगे ।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान विभाग में ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में अपने जियोस्फीअर-बायोस्फीअर कार्यक्रम के अन्तर्गत, देश के अलग-अलग पारिस्थितिकीय क्षेत्रों में स्थलीय अभिवाह मापन के लिये एक योजना आरंभ की है जिसमें चार टॉवरों की स्थापना की गई है । बारहवीं पंचवर्षीय योजना में इन अभिवाह टॉवरों का कार्यजाल अवलोकन, अन्य महत्वपूर्ण भारतीय पारिस्थितिकी तंत्रों के लिये विस्तृत और गहन करने की आवश्यकता है । इस कार्यक्रम के अन्तर्गत वन विभाग के सहयोग से बैतूल के निकट, सुखवान में की गई है ।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान द्वारा स्थापित इस केन्द्र में अत्यन्त संवेदनशील वैज्ञानिक उपकरणों एवं विधियों से वातावरण में कार्बन अथवा कार्बनडाईऑक्साइड के वातावरण से वनस्पति में परिगमन एवं मात्रा परिवर्तन को मापा जाता है । अधिक संख्या में व्यक्तियों का समूह, वाहनों का समूह एवं उनका चालन वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि करता है, जिससे यहाँ स्थापित उपकरणों में अशुद्ध आँकड़ें प्राप्त् होते हैं जो वैज्ञानिक अनुसंधान को बाधित करते हैं । अत: यहां व्यक्तियों एवं वाहनों का आवागमन नियंत्रित रहेगा ।
प्रौघोगिक क्रांति के आरंभ से, कार्बन डाई-ऑक्साइड की विश्वव्यापी औसत सांद्रता लगभग २८० पीपीएम से बढ़कर ३८० पीपीएम से भी अधिक हो गई है एवं अन्य ग्रीन हाऊस गैसों के स्तर में निरन्तर वृद्धि वैज्ञानिक और नीति-निर्धारकों के लिये गहन चिंता का विषय है । इसके फलस्वरूप पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ने लगता है, ध्रुव क्षेत्रों पर जमे हिम खण्ड पिघलने लगते हैं और समुद्र का स्तर बढ़ जाता है । अनेक एवं कृषि योग्य भूमि, उप-नगरीय एवं नगरीय भूखण्डों में रूपांतरित हो गई है और अनेकों उष्ण कंटिबंधीय वन, निष्क्रिय एवं क्षरित होेकर चारागाहों में परिवर्तित हो गये हैं । वन संरचना में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष कोई भी विक्षोभ, इसकी कार्बन-उपार्जन एवं जल वाष्पोत्सर्जन क्षमता को प्रभावित करता है ।

प्रदेश चर्चा

प्रदेश चर्चा
महाराष्ट्र: जंगल लकड़ी की दुकान नहीं है ?
सुश्री कुसुम कर्णिक

पश्चिमी घाट के भीमशंकर वन और उसमें निवास कर रहा महादेव कोली आदिवासी समुदाय एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं जो कि हमारे सुखद व सुरक्षित भविष्य की कंुजी है । जिस भावना और कुशलता से वे, आधुनिक पर्यावरणविदों की भाषा में कहें तो वन प्रबंधन कर रहे हैं उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है । आधुनिक शहरी समाज को अपनी अति उपभोगवादी जीवनशैली को बदलना होगा और स्वीकारना होगा कि जंगल उसके घरों को लकड़ी की आपूर्ति की दुकान भर नहीं है ।
भीमशंकर वन महाराष्ट्र के पुणे जिले में पश्चिम घाट के अत्यधिक वर्षा वाले पहाड़ी ढलान में अम्बेगांव विकास खंड में स्थित है । यह एक अनछुआ, बारहमासी,चार तलीय वन है, जहां बादल भी अठखेलिया करते नजर आते हैं, जिसमें उपजाऊ मिट्टी उथली है और उसके नीचे कठोर चट्टाने हैं । यहां भूगर्भ जल है ही नही अतएव यदि एक बार ये वन नष्ट हो गए तो उनका दोबारा फलना फूलना बहुत कठिन है । यहां पर चलने वाली तेज हवाआें और भारी भूक्षरण को ये वन संभाल लेेते हैं । लम्बे वृक्ष, मध्यम वृक्ष, झड़ियां, घास आदि मिलकर वर्षा के जल को अपने में समाहित कर मिट्टी का संरक्षण करते हैं ।
महादेव कोली जनजाति यहां सदियों से निवास कर रही है । उन्होनें ऐसी जीवनशैली व दर्शन को अपना लिया है जो कि यहां के पर्यावरण के अनुकूल है । वे अपनी अधिकांश आवश्यकताआें के लिए वनों पर ही निर्भर है । इनका स्वयं के लिए उपयोग करते हुए वे इस बात के लिए सचेत रहते हैं कि इससे इन वनों के स्थायित्व को चोट न पहुंचे । उनका आपस में गुंथा हुआ सामुदायिक जीवन, सहकारिता के सिद्धांत पर आधारित है और यहीं उनकी शक्ति भी है ।
अपनी दैनिक आवश्यकताआें के लिए आदिवासी भोजन, चारा, ईधन और रेशों का संग्रहण करते हैं । उनके भोजना में फूल, कलियां, पत्तियां, फल, कंद/जड़े, कुकुरमुत्ते आदि सम्मिलित रहते हैं । वे अपने पोषण और वन्यजीवों की जनसंख्या को नियंत्रण में रखने के लिए शिकार भी करते हैं । शिकार पारम्परिक अस्त्रों से किया जाता है जिसमें शिकार और शिकारी बराबरी से जोखिम में रहते हैं । वे अतिरिक्त आहार हेतु मछली और केकड़े भी पकड़ते हैं ।
सरकार ने सन् १९८५ में इस क्षेत्र में वन्यजीव अभयारण्य के स्थापना की घोषणा कर दी । आदिवासियों से इन मामलें में सलाह मशविरा तक नहीं किया गया । उन्होंने दूसरों के द्वारा जाना कि अभयारण्य क्षेत्र के अंदर आने वाले ८ गांवों को खाली करवाया जाएगा । इसके उन्होनें उस कानून की वैधता पर सवाल उठाने शुरू कर दिए जो कि स्थानीय निवासियों के अधिकारों का न तो सम्मान करता है और न ही उन्हें विश्वास में लेता है ।
शीघ्र ही सरकार के साथ समझौता वार्ता प्रारंभ हो गई । आदिवासियों को भान हो गया कि उन्हें अपना स्वामित्व स्थापित करना होगा । अतएव उन्होनें इस इलाके में वर्षो से कार्यरत स्वयंसेवी संगठन शाश्वत ट्रस्ट के सहयोग से वनस्पति संबंधी स्थानीय ज्ञान और वन व वनवासियों की परस्पर निर्भरता का दस्तावेजीकरण करना शुरू दिया । वे वन उत्पाद, किस-किस उत्पाद का प्रयोग होता है, कब और क्यों होता है एवं खेती की स्थानीय पद्धतियों का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं । वे महादेव कोली समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक पद्धतियों का भी दस्तावेजीकरण कर रहे हैं जो कि उनके आर्थिक व सांस्कृतिक अस्तित्व की रीढ़ की हड्डी है । इस दौरान पुणे के कुछ व्यक्तियों जिसमें वैज्ञानिक व वन अधिकारी भी शामिल थे, द्वारा एकजुट होकर जन वन शोध संस्थान स्थापित किया गया ।
इस शोध संस्थान का नेतृत्व स्थानीय आदिवासियों के हाथ में है । प्रत्येक गांव में एक अध्ययन समूह की स्थापना की गई है और यहां के स्थानीय विशिष्ट पौधों के लिए नर्सरी प्रारंभ करने की योजना भी हाथ में ली गई है । यह शोध संस्थान अन्य आदिवासी क्षेत्रों के साथ ही साथ शहरों में भी जनचेतना कार्यक्रम आयोजित करता है ।
आदिवासी समुदायों के साथ कार्य करके आप उनकी सामुदायिक समझदारी समझ सकते है । भीमशंकर वनों में निवास करने वाले आदिवासी न्यूनतम उपभोग वाली ऐसी जीवनशैली का पालन करते है जिसमें सबकुछ बहुत मितव्यता से इस्तेमाल किया जाता है ं उनके घर पत्थर और मिट्टी के बने होते हैं और इन लोगों के पास कुछ बहुत आवश्यक वस्तुएं ही होती हैं । वे ऐसे आत्मीय समुदायों में रहते हैं जहां आपसी सहयोग ही जीवन जीने का तरीका है । वे एक साथ योजना बनाते हैं और कार्य करते हैं, झूम खेती के लिए स्थानों का चयन करते हैं, बुआई करते और धान रोपते हैं और अन्य पर्वतीय मोटे अनाज लगाते हैं, जंगली जानवरों से अपनी फसलों की रक्षा करते हैं और शिकार करते हैं एवं मछली मारते हैं । अधिकांश निर्णय समुदाय द्वारा सामूहिक रूप से लिए जाते हैं और सभी मिलकर जिम्मेदारियां वहन करते हैं । यही वह जीवनशैली है जिसने उन्हें वर्षो से इन जंगलों से आबाद रखा है । किसी भी वन में आप लापरवाह नहीं हो सकते, अकेले नहीं जा सकते या अनावश्यक जोखिम नहीं ले सकते ।
उनकी संस्कृति का केन्द्र बिन्दु हैं देवराई या मंदिर/पवित्र उपवन । भीमशंकर के आसपास के प्रत्येक क्षेत्र में एक या अधिक देवराइयां स्थित हैं । ये देवता के नाम कर दिए गए वन हैं और इनका बहुत अच्छे से संरक्षण किया जाता है । प्रत्येक देवराई में विशिष्ट किस्म के पौधों का सम्मिलिन रहता है अतएव प्रत्येक के लिए पृथक कानून और नियमावली बनाई गई हैंजिनका कड़ाई से पालन होता है । ये देवराइयां उस क्षेत्र के जीन संग्रहण केन्द्र भी हैं जहां से पशुआें और पक्षियों द्वारा बीज फैलाए जाते हैं ।
ये लोग जंगल को अपनी मां मानते हैं और कहते हैं, उनका जीवन माँ के दूध पर निर्भर है न कि उसके खून पर । आदिवासी बाघ को अपना देवता मानते हैं । वे भले ही इसके लिए शीर्ष प्रजाति जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते हों लेकिन वे पर्यावास को नियंत्रण में रखने के लिए बाघ जैसी प्रजाति को महत्व समझते हैं । भीमशंकर में बाघ देवता का समर्पित एक मंदिर भी है ।
अंग्रेजों के भारत में आने के पूर्व ये वन स्थानीय समुदाय जिनमें अधिकांश आदिवासी थे, के हाथों में थे । ये आदिवासी समुदाय इन वनों की देखरेख करते थे और अपने अस्तित्व के लिए इनका प्रयोग करते थे । औपनिवेशिक काल में वन राजकीय सम्पत्ति बन गए और इन्हें लकड़ी के डिपो की तरह प्रयोग मेें लाया जाने लगा । जहाज और रेल निर्माण के लिए मजबूत पेड़ों को काटा जाने लगा । दो विश्वयुद्धों में भी बड़ी मात्रा में लकड़ियों का इस्तेमाल हुआ । ठीक इसी तरह बांध, खदान, कारखानों, शहरों, राजमार्गो जैसे विकास कार्यो में भी बड़ी मात्रा में लकड़ियों का उपयोग हुआ । अनगिनत गैर इमारती पेड़ों को भी कोयले और प्लायवुड के लिए काटकर विशाल और बढ़ते हुए शहरों में भेज दिया गया । इतना ही नहीं विशाल व्यावसायिक रोपण के लिए प्राकृतिक वनों को नष्ट कर दिया गया । इससे वनों का संतुलन ही बिगड़ गया जिससे स्थानीय समुदाय के साथ ही साथ वन्यजीवों का जीवन भी प्रभावित हुआ । इसके परिणाम स्वरूप जंगल अस्थिर और जोखिम भरे हो गए । हालांकि वन तो कृषि युग के आरंभ से ही सिकुड़ते जा रहे हैं लेकिन पिछली दो शताब्दियों में इस सिकुड़न की रफ्तार बहुत तेजी से बढ़ी है ।
हमारी उपभोगवादी, जीवनशैली हमारे प्राकृतिक संसाधन हड़प करती जा रही है और हमें इसके प्रलयंकारी प्रभावों को झेलना पड़ रहा है । अंतत: अब हम यह जान पाए है कि आदिवासियों के पास ह्मसे साझा करने के लिए बहुमूल्य ज्ञान का खजाना मौजूद है । इसीलिए निजी सम्पत्ति और व्यक्तिगत लाभ के बरस्क समुदाय की बेहतरी का विचार जोर पकड़ रहा है ।

सामाजिक पर्यावरण

सामाजिक पर्यावरण
लोकपाल विधेयक के सफल उदाहरण
सुश्री रोली शिवहर

भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई को जीतने में हांगकांग ने काफी हद तक सफलता पाई है । लेकिन यह जनता और सरकार के आपसी सामंजस्य से ही संभव हो पाया है । हमारी सरकार तो इस कानून के मसले पर पहले ही दिन से टकराहट पर जोर दे रही है तथा लगातार भ्रम फैलाकर व्यापक जनआंकाशाआें की अवहेलना कर रही है ।
दक्षिण एशिया में हांगकांग एक ऐसा देश है जहां कि सरकार ने भ्रष्ट व्यवस्था से तंग आकर एक ऐतिहासिक फैसला लिया और समािप्त् के लिए एक स्वतंत्र आयोग का गठन कर दिया । इस आयोग को आज तक ना तो वित्तीय दिक्कतों का सामना करना पड़ा और ना ही इसके किसी काम मेंकभी सरकारी हस्तक्षेप ही हुआ । नतीजन वर्ष २०१० में जारी हुई ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार विश्व में भ्रष्टाचार के मामले में हांगकांग घटकर १३ वें स्थान पर आ गया है । आज हांगकांग लोकतंत्र की सौंधी खुशबू का मजा देता है । मगर भारत में बहुप्रतीक्षित लोकपाल कानून के प्रस्तावित प्रारूप में ही बहुत सारी कमियां नजर आती हैं । भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिये कानून से पहले सरकारों की दृढ़ इच्छा की जरूरत है ।
ए.राजा, कनिमोझी और अब दयानिधी मारन, हालांकि यह सूची बहुत लंबी हो सकती है लेकिन इनकी बदौलत आज भारत में रोजाना सामने आ रहे नए घोटालों की चर्चा पूरी दुनिया में है। वहीं दूसरी ओर भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आंदोलन की खबर भी दुनिया भर में फैल चुकी है । जिसे देखो वह अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले इस आंदोलन की ही बात कर रहा है । देश का हर वर्ग आज भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने को तैयार है । ऐसा भी नहीं है कि यह सब एकाएक ही हो रहा है, बल्कि लोग इस भ्रष्ट व्यवस्थासे आजिज आ चुके थे । महात्मा गाँधी ने आजादी के बाद तुरन्त ही चेतावनी देते हुए कहा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने की जरूरत है नहींतो यह पूरे देश को नुकसान पहुंचाएगा । भारत के केन्द्रीय सतर्कता आयोग के भूतपूर्व आयुक्त नागार्जुन विट्ठल ने कहा था कि देश की जनता को जागरूक करने की जरूरत है और उन सभी को एक साथ लाने की जरूरत है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना चाहते हैं ।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल, २०१० के आंकड़ों पर नजर दौडाएं तो हम पाते है कि भारत दुनिया के १७८ देशों में पारदर्शिता के मानक अनुसार ८७ वें स्थान पर है । जबकि २००९ में यह ८४वें स्थान पर था । अर्थात् भारत में पिछले सालों की अपेक्षा भ्रष्टाचार बढ़ा है । स्विस बैंक के अनुसार भारत के अमीरों के २८० लाख करोड़ रूपये स्विटरजरलैंड में जमा है ।
आज देश में राशन कार्ड बनवाने से लेकर पेंशन लेने तक के सभी कार्यो के लिए आम आदमी को रिश्वत देनी पड़ती है । लेकिन हमारे देश की सरकार आज तक इस पर काबू करने के लिए कोई कदम नहीं उठा पाई । इससे निपटने के लिए १९९८ से एक कानून लंबित पड़ा है । इस विधेयक को इससे पहले ११ बार संसद मे ंपेश किया जा चुका है । यानि सरकार इसे पारित हीं नहीं कराना चाहती है । एन.सी. सक्सेना कमेटी के अनुसार भारत मे आधी से ज्यादा लोग गरीबी की रेखा के नीचे निवास करते हैं और देश में ४० प्रतिशत बच्च्े आज भी कुपोषित हैं । भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा यह स्वीकार कर लिया गया था कि यदि दिल्ली से १ रूपया भेजा जाता है तो जमीनी स्तर तक केवल १५ पैसे ही पहुँचते हैं । इसके बावजूद हमारे देश के सत्तानशीनों के कानों में जूं तक नहीं रेंगी । भारत सरकार कहती है कि वह भ्रष्टाचार तो मिटाना तो चाहती है लेकिन तत्काल कुछ नहीं हो सकता है ।
हालांकि ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार केवल भारत के लिये ही कोढ़ है बल्कि यह तो कई देशों में व्याप्त् है । हर देश में भ्रष्टाचार से संबंधी परेशानियाँ हैं जिनसे उन्होनें अपने अपने तरीका से निपटने का प्रयास किया है । एशियाई देशों में से हांगकांग एक ऐसा देश है जिसने बहुत कम समय में भ्रष्टाचार से लगभग मुक्ति पा ली है । यहां आज जनता को उनकी बात कहने का अधिकार है तथा मीडिया को लिखने और अपना पक्ष रखने का अधिकार है ।
ऐसा नहीं है कि हांगकांग की सरकार कोई अजूबा है । यहां भी भारत की तरह ही लोकतंत्र है । सन् १९५० और १९६० के दशक में हांगकांग भी वर्तमान भारत जैसा ही भ्रष्टाचार से ग्रसित था । लोग समय पर अपना काम कराने के लिए रिश्वत को ही शार्ट कट समझने लगे थे और अधिकारी भी बिना रिश्वत लिए कोई काम नहीं करना चाहते थे । परन्तु एक समय ऐसा आया जब लोगों ने जब यह तय कर लिया कि अब वे भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करेंगे । लोगों ने लामबंद होना शुरू किया और सरकार को बाध्य किया कि वो भ्रष्टाचार विरोधी कानून लाए । हांगकांग के तत्कालीन राज्यपाल सर मुर्रे मक ली होस और सरकार दोनों ने इसका समर्थन किया और १९७४ में सरकार ने एक अध्यादेश पारित करते हुए हांगकांग में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक स्वतंत्र आयोग की स्थापना की ।
आज भारत में भी यही स्थिति है । भ्रष्टाचार के संबंध में लोगों के बर्दाश्त करने की सीमा खत्म हो चुकी है और लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने को तैयार है । इस मसले पर एक बड़ा जनांदोलन खड़ा हो गया है । सबकी सिर्फ यह मांग है कि सरकार एक ऐसा कानून लाये जिसके अन्तर्गत एक इकाई का गठन किया जाये जो कि स्वतंत्र इकाई (जिसे लोकपाल का नाम दिया जा रहा है) के रूप में काम करे और उस पर किसी का जोर नहीं चले और देश में रहने वाला हर व्यक्ति इसके दायरे में आए । परन्तु वर्तमान में सरकार के इरादे नेक नजर नहीं आ रहे है । अन्ना के ५दिनों के अनशन के बाद सरकार ने जो विधेयक प्रस्तावित किया है उसका कार्य क्षेत्र बहुत ही सीमित है । सरकार के प्रस्ताव के अनुसार उन्होंने प्रधानमंत्री, न्यायपालिका और सांसदों को लोकपाल के दायरे के बाहर रखा है, जो कि न्यायसंगत नहीं है । हांगकांग के उदाहरण देखे तो वहां के अध्यादेश की परिधि में सभी आते है फिर वो चाहे वो मुख्य कार्यकारी अधिकारी (देश का प्रथम नागरिक) ही क्यों न हो ।
भारत सरकार ने अपने प्रस्ताव में लोकपाल सदस्यों की नियुक्ति के संदर्भ मेंएक चयन समिति की बात कही है जिसमें ११ में से ६ सदस्य राजनैतिक क्षेत्र से होंगे । इसके अलावा चयन संबंधी प्रक्रियाआें में पारदर्शिता की बारे में भी प्रस्ताव में कोई जिक्र नहीं किया गया है । पारदर्शिता का भी सबसे अच्छा उदाहरण हांगकांग में बनाये गये आयोग का है । यहां आयोग का सदस्य बनने के लिये कई परीक्षाएं पास करनी पड़ती है। इसके बाद ही उनका चयन होता है । ये सभी प्रक्रियाएं पारदर्शी तरीके से सम्पन्न की जाती है ।
सरकार के प्रस्ताव में यह स्पष्ट है कि लोकपाल या उनके दफ्तर में यदि किसी अधिकारी के ऊपर भ्रष्टाचार की शिकायत आती ही है तो लोकपाल स्वयं इस मामले की जांच करेगा । जबकि हांगकांग के इस आयोग में इसके बिलकुल उलट है । यहाँ इस कार्य हेतु एक कमेटी है जिसमें कि समुदाय के कुछ लोग (जिन्हें मुख्य कार्यकारी द्वारा नियुक्त किया जाता है), कुछ अधिकारी एवं चुने हुए प्रतिनिधि मामले की जांच करते हैं । इसके अलावा एक महत्वपूर्ण मुद्दा वित्तीय प्रावधानों को लेकर है । हांगकांग में गठित आयोग अपना बजट स्वयं बनाता है । आयोग के वरिष्ठ अधिकारियों के अनुसार आज तक उनके बजट मेंसरकार द्वारा कभी कटौती नहीं की गयी ।
बिना जनता की सहभागिता के लोकतंत्र एक अधूरी कल्पना है । हांगकांग में बनाये गए इस आयोग में एक विशेष विभाग जनता के लिए बनाया गया है जिसका काम जनता को जागरूक करने से लेकर उन्हें सलाह देने तक का है । परन्तु विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले भारत में तैयार किये जा रहे लोकपाल विधेयक में इसका भी अभाव है । हमारे यहां तो सरकारी नुमांइदे यहां तक कह देते हैं कि सिविल सोसाईटी सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश ना करे नहीं तो यह आवाज कुचल दी जायेगी । तो फिर सरकार इस कानूनी ढांचे में जनता की भागीदारी को किस हद तक स्वीकार करेगी ?
अगर भ्रष्टाचार से निपटना है तो सरकार और जनता दोनों को अपनी-अपनी जिम्मेदारी के प्रति प्रतिबद्ध होना जरूरी है । हांगकांग ने ऐसा कर दिखाया है और यदि भारत भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहता है तो उसे यह बात ध्यान में रखना होगी कि लोकपाल एक विशिष्ट कानून हैं और इसे किसी अन्य कानून की तरह नहीं अपनाया जा सकता ।

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

ज्ञान विज्ञान





ज्ञान विज्ञान
दुनिया का सबसे पुराना पक्षी मिला



chiin के जीवाश्मविदों ने पक्षीनुमा प्राचीन डायनासोर का एक ऐसा जीवाश्म ढूंढ निकाला है जिसे दुनिया का प्रथम पक्षी होने का दावा किया जा रहा है । अगर चीनी वैज्ञानिकों का यह दावा सही साबित होता है तो यह अब तक विश्व का सबसे पुराना पक्षी माने जाने वाला जर्मनी के आर्क्योेपैट्रक्स को कहीं पीछे देगा ।
ब्रिटिश विज्ञान पत्रिका (नेचर) के ताजा अंक में प्रकाशित आलेख में चीन के जीवाश्मविदों ने कहा है कि मुर्गी के आकार का यह डायनासोर १५.५ करोड़ वर्ष पुराना है । वैज्ञानिकों ने इसे शियाआेंटेगिआ झेंगी का
नाम दिया है । इस जीवाश्म को यहां के लियोओनिग प्रांत में खोजा गया । इस प्रांत में पहले भी प्राचीनकाल के जीवाश्म मिलते रहे हैं । शियाओटेंगिआ का यह जीवाश्म आर्क्योपैट्रक्स पक्षी के जीवाश्म से भी पचास लाख वर्ष पुराना है । वैज्ञानिकों को यह जीवाश्म पत्थर की एक शिला में दबा हुआ मिला । पत्थर पर ऐसे निशान भी साफ देखे जा सकते है, जिसमें इस पक्षी के पंख भी होने के संकेत है ।
डायनोसोर रूपी पक्षी के मिलने पर वैज्ञानिकों की मौजूदा समय की पक्षियों की लेकर वैज्ञानिकों का वह सिद्धांत धूमिल होता जा रहा है, जिसमें कहा गया है कि आधुनिक पक्षी का विकास डायनासोर से ही हुआ होगा । हालांकि यह खोज इस थ्योरी को पूरी तरह से खारिज नहीं करती है, लेकिन इस क्षेत्र में नए शोधों के प्रवेश द्वार खोल देती । इस डायनासोर की रूपरेखा सीधे-सीधे आज के पक्षियों से नहीं मिलती है, लेकिन आर्क्योपैट्रक्स से काफी मिलती जुलती है । ब्रिटिश प्राणीविज्ञान चार्ल्स डारविन ने १८५९ में अपनी पुस्तक (जीवगणों की उत्पत्ति) में डायनासोरों के नष्ट हो जाने की टूटी कड़ी को जोड़ते हुए बताया था कि पक्षियों का विकास जरूर डायनासोरों से हुआ होगा ।


आदिमानव ने बना रखी थी सुरंगे
आदिमानव ने पूरे यूरोप में धरती के नीचे सुरंगों का विशाल नेटवर्क बना रखा था । आज के रेल व सड़क मार्ग की तरह एक-दूसरे को काटते हुए यह सुपर हाइवे स्कॉटलैण्ड से तुर्की में भूमध्यसागर तक फैला था ।
पुरातत्वविदों ने १२ हजार साल पुरानी कुछ सुरंगे खोद निकाली हैं । जर्मन पुरातत्वविद हेनरिख कुश ने दावा किया है कि ऐसी सुरंगों से पाषाण युग की सैकड़ों मानव बस्तियां एक दूसरे से जुड़ी थी और ये पूरे यूरोप में फैली थीं ।
अपनी किताब सीक्रेट्स ऑफ द अंडरग्राउंड डोर टू एन एनशिएंट वर्ल्ड में श्री कुश ने दावा किया है कि १२००० साल बाद भी इतनी ज्यादा सुरंगों का मिलना यह साबित करता है कि पाषाण काल में असल में यह सु
पर हाइवे की तरह का विशालकाय नेटवर्क रहा होगा ।
जर्मनी के बवेरिया प्रांत में भूमिगत सुरंगों का ७०० मीटर का नेटवर्क मिला है । ३५० मीटर का नेटवर्क ऑस्ट्रिया के स्टाइरिया में मिला है । इनमें से कुछ की चौड़ाई महज ७० सेमी है जिसमें से एक बार में केवल एक व्यक्ति रेंगता हुआ ही निकल सकता है । कुछ सुरंगों में बैठने के लिए पत्थर की बेंचें और आराम के लिए अलग कमरे जैसी जगहें भी मिली है । कहीं कही सामान रखने जैसे कक्ष भी मिले हैं । ज्यादातार सुरंगे जुड़ी हुई हैं ।

कुछ सुरंगों में संकेतक भी मिले है जिससे लगता है कि सुरंगे कहां से कहां तक जाती थी यह भी लिखा जाता होगा । कुछ सुरंगों के प्रवेशद्वार पर पूजा स्थल जैसी जगहें भी मिली हैं । सुरंगो के भीतर ऐसी कोई जगह नहीं मिली । कुछ पुराविदों का मानना है कि ये सुरंगे आदि मानव ने जंगली जानवरों से बचने के लिए बनाई होगी जबकि कुछ का मानना है कि ये आधुनिक सड़क मार्ग की तरह का उस समय का मार्ग रहा होगा ।


मंगल पर मिले बहते पानी के संकेत

सैकड़ों साल से मानव जिज्ञासा का केन्द्र बने मंगल ग्रह के राज एक-एक कर सामने आ रहे हैं । पहले बताया गया था कि वहां बर्फ के भण्डार पाए गए हैं । अब कुछ खास हालात मेंउसकी सतह पर पानी बहने के संकेत मिले हैं । मंगल ग्रह की परिक्रमा करने वाले नासा के यान से ली गई तस्वीरों में वहां तरह-तरह की लंबी गाढ़ी रेखाएं नजर आई हैं, जो पानी हो सकता है । ये धाराएं कुछ मीटर चौड़ी हैं और पत्थर के बीच से गुजर रही है ।
अमेरिका अंतरिक्ष एजेंसी के वैज्ञानिकों के अनुसार मंगल ग्रह के दक्षिणी हिस्से में स्थित न्यूटन क्रेटर के तीखे ढलान पर उंगलियों जैसे निशान उभरा करते हैं जो तापमान में गिरावट के बाद गायब हो जाते हैं । वैज्ञानिक राजेन्द्र ओझा और परियोजना यूनिवर्सिटी के उनके सहयोगियोंका दावा है कि इससे मंगल ग्रह पर जीवन की पुष्टि हो सकती है
ये धाराएं सिर्फ दो महीनों में २०० मीटर तक लंबी हो गई है ।
श्री ओझा के सहयोगी अल्फ्रेड मैकइवेन कहते हैं कि ये धाराएं ठंड में दिखाई नहीं देती । क्योंकि पानी सतह के नीचे चला जाता है । नमक पानी के जमने के तापमान को नियंत्रित करता है। ये पानी नमकीन हो सकता है लेकिन यह अध्ययन इसे साबित नहीं करता उन्होनें कहा कि ऐसा भी हो सकता है कि इसमें नमक हो, लेकिन हल्की गहराईयों में मौजूद हो । मंगल ग्रह पर पानी होने से संभव है कि गर्मियों के दौरान उसमें सूक्ष्म जीवाणु भी पनपते होगे । इससे पहले भी वैज्ञानिकों को मंगल ग्रह पर विशाल समुद्र होने के सबूत मिले थे । कुछ का मानना है कि पहले वहां जीवन के लिए पृथ्वी से ज्यादा अनुकूल परिस्थितियां थी ।

धूप डायबिटीज से बचायेगी

धूप की कमी के चलते लाखों लोगों के टाइप २ डायबिटीज की चपेट में आने का खतरा है, क्योंकि उनमें पर्याप्त् मात्रा में विटामिन डी नहीं है । ५ हजार से ज्यादा लोगों के ब्लड टेस्ट पर आधारित एक ऑस्ट्रेलियायी अध्ययन में यह दावा किया गया है । अध्ययन के दौरान पाया गया कि ऐसे लोग जिनमें पर्याप्त् मात्रा में विटामिड डी मौजूद है, उनके टाइप २ डायबिटीज की चपेट में आने की आशंका कम होती है । मेलबर्न, पैथॉलाजी के शोधकर्ताआें का कहना है कि ये खोंजें हाल के सालों में पैदा हो रहे हालात (टाईप २ डायबिटीज के बढ़ते मरीजों) से लड़ने में अहम भूमिका निभा सकती है ।
शोधकर्ताआें ने ५२०० लोगों के खून की जांच की । उन्होनें पाया कि खून में विटामिन डी के अतिरिक्त २५ नैनोमोल्स होने से डायबिटीज के चपेट में आने का खतरा २४ फीसदी तक घट जाता है । अध्ययन के को - ऑथर डॉ. केन सिकरिस का कहना है, इसकी अहमियत को नजरअंदाज बेहद मुश्किल है । शोधकर्ताआें के मुताबिक, ऐसे लोग जिनके शरीर में विटामिन डी के नैनोमोल्स की संख्या प्रति लीटर ५० से कम होती है, उनमें कमी होती है । अगर विटामिन डी ओर डायबिटीज के बीच लिंक स्थापित हो जाता है, तो ऐसे लोग जिन्हेंडायबिटीज का खतरा है, वे कुछ डायटरी सप्लिमेंट्स लेकर इसे कम कर सकते है । धूप की कमी यानी कैंसर भी एक अनुमान के मुताबिक धूप और विटामिन डी की कमी के चलते हर साल ६ लाख लोग कैंसर का शिकार हो जाते है । डायबिटीज यूके की डाँ. विक्टोरिया किंग का कहना है, इस अध्ययन के नतीजों के आधार पर डायबिटीज का खतरा कम करने के लिए डायटरी सप्लिमेंट्स की सलाह देना मुमकिन नहीं हैं । अभी तक हम यह जानते है कि पौष्टिक आहार लेकर अच्छी सेहत बनाए रखने और नियमित रूप से कसरत करते रहना डायबिटीज का खतरा कम करने का सबसे बेहतर तरीका है।***

खाद्य सुरक्षा एवं मानक निर्धारण अधिनियम लागू

खास खबर
खाद्य सुरक्षा एवं मानक निर्धारण अधिनियम लागू
हमारे विशेष संवाददाता द्वारा

पिछले दिनों देश भर में बिक रही मिलावटी खाद्य सामग्रियों पर अंकुश लगाने खाद्य एवं औषधि प्रशासन का नया एक्ट खाद्य सुरक्षा एवं मानक निर्धारण अधिनियम २००६ पूरे देश में प्रभावशील हो गया है । इस के लागू होने के बाद मिलावटी खाद्य सामग्रियों को बेचने वाले व्यापारियों के पर कतरे जाएंगे, वहीं बिक रहे मिलावटी खाद्य सामग्री जैसे सिंथेटिक मावे, मसालों, मिठाई, ब्रेड, नमकीन, बेसन, आटा, मैदा आदि की सेहत भी सुधरेगी । खास बात तो यह है कि मिलावटखोरी करने वालों को सजा के तौर पर १० लाख रूपए तक जुर्माना भी भरना पड़ सकता है ।
नए एक्ट के अनुसार सेंपल जांच में मिलावटी या मिथ्याछाप पाए जाने पर डेजिगनटेड ऑफिसर के पास प्रकरण जाएगा । इसके बाद डीओ इस मामले में अपनी ओर से धाराएं व अन्य विवरण तैयार कर उसे जुर्माने व सजा के लिए एडीएम की ओर प्रेषित करेगा । एडीएम ही फायनल अर्थारिटी होंगे जो प्रकरण में जुर्माना तय करेंगे ।
खाद्य सुरक्षा एवं मानक निर्धारण अधिनियम २००६ से लागू होने से पहले खाद्य अपमिश्रण अधिनियम १९५४ प्रभावशील था । इस अधिनियम की सबसे बड़ी खामी, सेंपल का प्रयोगशाला जांच में मिलावटी पाए जाने के बाद उसके केस को सिविल कोर्ट में लगाया जाता था । हालांकि न्याय तो उस प्रक्रिया में मिलता था लेकिन तब तक मिलावट का कारोबार कई गुना बढ़ चुका होता था । इसके अतिरिक्त ४० दिन के भीतर सेपलों की जांच रिपोर्ट आना, कोर्ट का फैसला न आने तक खाद्य पदार्थ के निर्माण कार्य पर रोक न लगा सकने जैसी समस्याएं सामने आती थी ।
एक्ट में बदलावा -
अब तीन की बजाय चार सेंपल लेगा खाद्य सुरक्षा अधिकारी, खाद्य निरीक्षकों को खाद्य सुरक्षा अधिकारी कहा जाएगा । सेंपल की जांच रिपोर्ट १४ दिन में आएगी और आगे की कार्यवाही भी शीघ्रता से होगी ।

पर्यावरण समाचार


पर्यावरण समाचार
पर्यावरण पूरी दुनिया के लिये चिंता का विषय





पर्यावरण केवल इंदौर की ही नहीं, पूरे देश और दुनिया की चिंता का विषय है । भू-स्खलन, भूकंप, बाढ़ और पेड़ों की कटाई के कारण सारी दुनिया आज पर्यावरण के बढ़ते खतरे के समाने खड़ी है । हिमालय से हिंद महासागर तक नदियों में बढ़ते प्रदूषण के दुष्प्रभाव के खतरे भी बढ़ रहे है । बाढ़ से तबाही के कारण देश में प्रतिवर्ष सैकड़ों लोग मारे जा रहे हैं । यह सब पहाड़ों के कटाव और पेड़ों की कटाई के कारण हो रहा है। अब भी समय है जब हम पर्यावरण और प्रकृति को सहेजने का संकल्प लेकर इस खतरे का टाल सकते हैं क्योंकि पर्यावरण, पेड़ और जल हम सबके जीवन का आधार है । ये विचार हैं प्रख्यात पर्यावरणविद् चंडीप्रसाद भट्ट के, जो उन्होनें पिछले दिनों इन्दौर में सेवा सुरभि द्वारा आयोजित पर्यावरण परिदृश्य - आप और हम जैसे सामयिक विषय पर आयोजित संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में व्यक्त किए । पर्यावरण डाइजेस्ट के संपादक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित भी इस संगोष्ठी के प्रमुख हिस्सा थे । पत्रकार और संस्था के संरक्षक राजेश चेलावत एवं शहर के पर्यावरणविद् ओ.पी.जोशी भी विशेष रूप से उपस्थित थे । प्रारंभ मेंसंस्था की ओर से संयोजक ओमप्रकाश नरेड़ा, अतुल सेठ एवं अनिल मंगल ने आदि ने अतिथियों का स्वागत किया । संचालन किया कुमार सिद्धार्थ ने । अंत में आभार माना संस्था के संयोजक ओमप्रकाश नरेड़ा ने । संस्था की ओर से सर्वश्री अतुल सेठ, कमल कलवानी, अरविंद जायसवाल, मुकुंद कारिया, अरिवंद बागड़ी, अनिल मंगल आदि ने अतिथियों की आगवानी की । अभिभाषक अनिल त्रिवेदी प्रो. सरोज कुमार, पूर्व पर्यावरण सचिव रामेश्वर गुप्त, बाबू भाई महिदपुरवाला सहित अनेक प्रबुद्धजन इस संगोष्ठी में उपस्थित थे । संगोष्ठी की शुरूआत डॉ. पुरोहित ने की । उन्होने कहा कि डगडग रोटी पग पग नीर वाले मालवा क्षेत्र में अब सड़कों को चौड़ा करने नाम पर इतनी जगह घेर ली गई है कि पेड़ लगाने की जगह नहीं बची है । इन्दौर में भी यही हालात है । पेड़ की उपेक्षा का आलम यह है कि उसकी हालत घर के बुजुर्ग की तरह हो गई है । शहर में पेड़ों के बजाय प्लास्टिक के पौधे टांगे जा रहे हैं जो बाद में कचरे के ढेर में बदल जाते हैं । जरूरी यह है कि हम अपनी दिनचर्या में भी इस बात को शामिल करें कि पर्यावरण को बचाने या बर्बाद करने के लिए हम कितने जिम्मेदार है । धरती हम सबकी है । मालवा सात नदियों का मायका है । सबसे बड़ी चंबल नदी है और सबसे छोटी क्षिप्रा । सेवा सुरभि की सुगंध अब शहर और प्रदेश से निकलकर सारे देश में फैल रही है । पर्यावरण के प्रति इंदौर की चेतना अनुकरणीय है ।