रविवार, 16 अक्तूबर 2011

प्रसंगवश

शिकारियों की नहीं मिलती सजा
शेर के शिकारियों को सजा दिलाना आसान नहीं है । पुलिस या वन विभाग भले ही वन्यजीवों की खालों एवं अन्य सबूतों के साथ आरोपियों को गिरफ्तार करती हो लेकिन न्यायालयों में अपराधियों को सबूतों के अभाव में दोषमुक्त कर दिया जाता है । वन्यजीवों के शिकार के लगभग आधे मामलों में अदालत में दोषसिद्ध नहीं हो पाता, इनमें टाइगर, तेंदूए, चीतल, सांभर सहित सभी वन्यजीव शामिल हैं । शिकार की अगर यही स्थिति रही तो देश में टाइगर की संख्या कम होने पर पांबदी लगाना मुश्किल हो जाएगा ।
हर साल सैकड़ों वन्यजीवों की मौत शिकारियों के चुंगल में फंसकर हो जाती है । अंतत: ये मामले न्यायालय में जाते हैं, जहां पर अपराधियों को जमानत मिल जाती है और उनके खिलाफ सालों मामले चलते हैं । जिन मामलों में फैसला होता है, उसमें भी लगभग आधे आरोपियों को क्लीन चिट मिल जाती है । वहीं कई मामले तो सालों से विभागीय स्तर पर ही लंबित है ।
मध्यप्रदेश में टाइगर सेल ने चार सालों में शेर के शिकार के चार प्रकरण न्यायालय में दर्ज कराए है, इसमें से एक मामले में आरोपी दोषमुक्त हो गए, जबकि तीन मामले अभी न्यायालय में विचाराधीन है । वर्ष २००५ से २००९ के बीच वन्यजीव शिकार संबंधी ११९ प्रकरणों में न्यायालय द्वारा फैसला सुनाया गया । इसमें से ५५ मामलों में आरोपी दोषमुक्त हो गए एवं ६४ मामलों में अपराधियों के खिलाफ दोषसिद्ध हुआ । वहीं १०४८ मामले अभी भी न्यायालयों में लंबित है ।
प्रदेश सरकार के अफसरों का कहना है कि अदालत की कार्यवाही में समय जरूर लगता है, लेकिन ३५-३६ प्रतिशत मामलों में सजा मिल जाती है । टाइगर के मामलो में गंभीरता से काम होता है, इसमें ८० प्रतिशत से ज्यादा मामलों में सजा हो जाती है । अदालत में जाकर गवाह पलट जाते है, इसलिए आरोपियों को सजा नहीं मिल पाती । सरकारी अधिकारी कुछ भी कहे लेकिन वन्य जीवों के आधे शिकारी सबूतों के अभाव में छूट रहे है

संपादकीय

अब हम होने वाले है सात अरब
दुनिया की आबादी ७ अरब होने वाली है । ३१ अक्टूबर को ७ अरबवाँ बच्च पैदा होगा । अब चर्चा इस बात पर हो रही है कि यह बच्च किस देश में पैदा होगा ।
संयुक्त राष्ट्र ने अनुमान लगाया है कि ३१ अक्टूबर को यह ऐेतिहासिक बच्च पैदा होगा । जानकारों का कहना है कि यह बच्च एशिया में पैदा हो सकता है । हालाँकि यह जन्म सांकेतिक ही होगा, क्योंकि बच्चें के जन्म की सटीक गिनती हो पाना संभव नहीं है । लिहाजा यह नहीं बताया जा सकता है कि वह ७ अरबवाँ बच्च (या बच्ची) कौन सा होगा ।
एशिया में इस बच्च्े के पैदा होने की संभावना इसलिए ज्यादा है क्योंकि यहाँ सूरज पहले उगता है यानी तारीख अन्य देशों से पहले बदल जाएगी । अगर अनुमान सही निकलते हैं तो यह बच्च किसी शहरी इलाकेे में ही पैदा होगा, क्योंकि एशिया इस वक्त जनसंख्या में बदलाव के दौर से गुजर रहा है । बड़ी संख्या में लोग गाँवों से शहरों की ओर जा रहे हैं । एशियाई विकास बैंक के मुताबिक २०२२ के आखिर तक तो एशिया में गाँवों से ज्यादा लोग शहरों में बसे होगें ।
इस बदलाव के बार में एशियाई विकास बैंक के कुछ आँकड़े हैरान करने वाले हैं, मसलन २० साल के अंदर १.१ अरब लोग एशियाई गाँवों से शहरों की ओर चले जाएँगे यानी रोजना लगभग १ लाख ३७ हजार लोग । इस हिसाब से मैकेंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट (एमजीआई) के मुताबिक भारत को हर साल अमेरिकी शहर शिकागो जितनी सुविधाएं ज्यादा पैदा करनी होगी । शहरी आबादी में विस्फोट के साथ बड़ी समस्याएँ भी पैदा होगी । शहरोंमें झुग्गी बस्तियों का आकार बढ़ेगा ।
ऑस्ट्रेलिया के जनसंख्या विशेषज्ञ बर्नार्ड साल्ट कहते हैं कि इस ग्रह पर सबसे शक्तिशाली जगह तो शहर ही हैं । वहाँ ज्ञान और सूचना के भंडार होते हैं । वहाँ राजनीतिक प्रशासन होता है । वहीं से विचार दूसरी जगहों की ओर चले जाते है , क्योंकि वहाँ सबसे प्रतिभाशाली और तेज लोगों का जमावड़ा होता है । लेकिन साल्ट इस बात की चेतावनी भी देते हैं कि गांवों से शहरों की ओर पलायन से मध्य वर्ग की संपन्नता का रास्ता इतना भी आसान नहीं है । ऐसे बहुत से लोग होंगे, जो इस रास्ते की अंधी दौड़ में कुचले जाएँगे ।

सामयिक

वृक्ष, वन और नदी का प्रबंधन
डॉ. कश्मीर उप्पल

भारत में प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन और स्वामित्व कमोवेश सरकारी विभागों के ही हाथ में है । इसके बावजूद इन संसाधनों में आ रही कमी आश्चर्य का विषय है । इन दिनों में संपदाएं निजी एवं सार्वजनिक दोनों ही क्षेत्रों में सुरक्षित नहीं है तो इन्हें संभालने के लिए सीधे-सीधे आम जनता को सामने आना होगा ।
कृषि संत मसोनाबू फुकुओका के अनुसार प्रकृति ने सभी प्राणियों के भरण-पोषण की व्यवस्था की है । प्रकृति में सात मूल तत्व हैं- मिट्टी, पानी, हवा, वनस्पति जगत, जीव-जन्तु, सूक्ष्म जीवाणु तथा सूर्य का प्रकाश । इनमें से किसी एक तत्व के बीमार या नष्ट हो जाने से उसका प्रभाव अन्य तत्वों पर भी पड़ना शुरू हो जाता है । यह माना जाता है कि हिमालय पर्वत ३३००० वर्ग कि.मी. या १७ प्रतिशत हिम से आच्छादित है । हिमालय के क्षेत्र में लगभग १५००० हिमनद हैं । इनमें से कुछ हिमनद ६० कि.मी. से अधिक और कुछ ३ से ५ कि.मी. लम्बे हैं ।
यह एक अद्भुत तथ्य है कि भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग की नदियां लगभग हिमालय के एक ही स्थान से निकलती है । कैलाश पर्वतमाला के हिमनद पूर्व की ओर बहने वाली ब्रम्हपुत्र के जलस्त्रोत है । सिन्धु नदी इसी पर्वतमाला से मानसरोवर उत्तर-पश्चिम से प्रवाहित है । मानसरोवर के पश्चिम में स्थित राकास झील सतलुज नदी का स्त्रोत है । मानसरोवर से ही १०० कि.मी. दूर की हिमालय की पर्वतमालाआें से भागीरथी और अलकनंदा अपनी सहायक नदियों के साथ नीचे उतरकर पवित्र गंगा में मिल जाती है । इसी तरह घाघरा, गंडक एवं कोसी नदियां कई अन्य सहायक नदियों के साथ हिमालय से निकलती हैं ।
संसद के मानसून सत्र में एक प्रश्न के उत्तर में जल संसाधन व अल्पसंख्यक मामलों के राज्यमंत्री विनसेंट एच. पाल ने बताया कि आगामी २० वर्षो में हिमालयी उपक्षेत्र के देश भारत, नेपाल, चीन और बांग्लादेश हर वर्ष लगभग २७५ अरब घन मीटर जलस्तर की गिरावट का सामना करेंगे ।
इसके अलावा ग्लोबल वार्मिग के कारण हिमनदों के पिघलने से हिमालय से बहने वाली नदियों में बाढ़ का भी खतरा बढ़ है । पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि से धु्रवों पर जमे हुए हिमखंड भी पिघल रहे हैं । इससे समुद्र का जलस्तर १ मीटर तक ऊपर उठ सकता है । इससे समुद्रतटीय क्षेत्र डूब जाएंगे तथा इससे मानसूनी हवाएं प्रभावित होगी । जिससे भारत में लम्बा सूखा भी पड़ सकता है ।
इस तरह मानव एवं प्रकृति का संबंध विध्वंसात्मक हो गया है । पृथ्वी पर उत्पन्न पारिस्थितिकीय असन्तुलन हर प्राणी को प्रभावित कर रहा है । हम ग्लोबल वार्मिग के कारण हिमखंडो को पिघलने से नहीं रोक सकते । तो हम क्या कर सकते है ? भारत के अनेक प्रदेशों के पर्वतों पर कोई हिमनद नहीं है । इसलिए प्रकृति ने विशाल हिमनदों का काम हमारे वनों को सौंप रखा है । भगवान शंकर की पिण्डी पर जैसे किसी घड़े से बूंद-बूंद पानी अनवरत गिरता रहता है उसी तरह हमारे वन भी वर्षा की करोड़ों-अरबों बूंदों को धरती में सहेजकर वर्ष भर नदियों का अभिषेक करते रहते हैं ।
एक वृक्ष अपनी जड़ों के आसपास लगभग ५०० गैलन पानी रोककर रखता है । वन क्षेत्र की सतह के पास जलस्तर रहने से घास और कई तरह की वनस्पतियां भी खूब विकसित होती है और जल समेटती है । घास भू-कटाव को रोकने के साथ-साथ भूमिगत जल के वाष्पीकरण को भी रोकती है ।
एक अनुमान के अनुसार वर्षा का लगभग ३३ प्रतिशत पानी धरती के भीतर समाना चाहिए परन्तु बड़े पैमाने पर वनों के विनाश के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है । वनों के निकट स्थित तालाबों, पोखरों और नदियों को वर्ष भर अन्तर-भूमि जल नहीं मिल रहा है । वनों के नष्ट हो जाने पर अन्य वनस्पतियों में स्वत: खत्म होने की प्रक्रिया शुरू जाती है । धरातल से हरियाली का आवरण हट जाने से नदियों के पेटे में गाद जमने लगती है । इससे नदियों की जलग्रहण क्षमता कम हो जाती है । जिससे जन-धन और कृषि की हानि होती है ।
नर्मदा नदी विध्यांचल और सतपुड़ा पर्वत के संगम स्थल मैकल पर्वत से निकलने के कारण मैकलसुता कहलाती है । इन पर्वतों पर स्थित वन नर्मदा का सदनीरा बनाते हैं तथा यहां से बहने वाली सभी छोटी नदियां नर्मदा की सहेलियां है । वनों की कटाई से ये स्थिति छोटी-छोटी नदियां भी सूख गई है ।
इसी तरह चम्बल नदी मध्यप्रदेश के बड़े शहर इन्दौर के नजदीक महू के पश्चिम में स्थित उच्च् भूमि से बेतवा नदी भोपाल के दक्षिण पठार से और सोन नदी नर्मदा के उद्गम से कुछ दूर स्थित पेन्ड्रा से निकलकर मध्यप्रदेश को हरा-भरा बनाती है । वनों के कटने के बाद इन नदियों में भी जल सूख गया है तथा पहाड़ी झरने और करोड़ों झिरियां भी सूख गई है । वनस्पतियों की जड़ें पहाड़ी झिरियों को सतत प्रवाहमान बनाये रखती है । भारतीय संविधान में वन एवं पर्यावरण की रक्षा को विशेष महत्व दिया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद ४८(क) में दिये गये नीति निर्देशक तत्वों के अनुसार राज्य देश के पर्यावरण संरक्षण तथा संवर्धन का एवं वन्य तथा वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा ।
नर्मदा नदी पर बन रहे इंदिरा सागर जलाशय के लिए ४० हजार हेक्टेयर और सरदार सरोवर जलाशय के लिए १,३८,००० हेक्टेयर वन क्षेत्र काटकर डुबा दिया गया है । इसी प्रकार अनेक नदीघाटी परियोजनाआें में लाखों हेक्टेयर का वनक्षेत्र काटकर डुबाया जा चुका है । परियोजनाआें से विस्थापितों को पुन: बसाने के लिए भी जंगल काटा गया है । वन क्षेत्रों में खनन उद्योग खतरनाक स्तर तक बढ़ गया है । इन परियोजनाआें से जल-स्त्रोत नष्ट होने का खतरा है ।
मध्यप्रदेश व देश के अन्य प्रदेशों के अनेक जिलों में वन-विभाग के काष्ट-डिपो वृक्षों की लाशों से भरे पड़े है । वनों की सबसे अधिक कटाई वन-विभाग द्वारा ही की जाती है । कई बार सरकारी कटाई का आधार वृक्षों की वृद्धावस्था और बीमारी को माना जाता है । यही वन कटाई का बड़ा बहाना है । वन विभाग को डॉक्टर बनकर जंगल में जाने की क्या जरूरत है ? इस प्रक्रिया में जबकि प्रकृति अपना इलाज खुद करती है । सरकारी कुल्हाड़ी के पीछे अन्य कुल्हाड़िया भी वन का रास्ता पकड़ लेती है । सरकार की नीतियों के कारण ही जंगलों में वृक्षसंहार चल रहा है । संसद में हथियार लेकर जाना अपराध है तो प्रकृति की संसद हमारे वनों में भी वृक्ष कटाई के हथियार लेकर जाना भी अपराध होना चाहिए । चाहे वे सरकारी हथियार ही क्यों न हो ।
हम लोगों को सुधारने का दावा करते हैं लेकिन सरकार को कौन सुधारेगा ? यह सिद्ध हो चुका है कि इस देश के पर्यावरण को सरकार के संगठित संगठनों से सबसे अधिक नुकसान पहुंच रहा है । सरकार के वन-विभाग में फारेस्ट-मैनेजमेन्ट की बैलेन्स शीट को किसी कंपनी की बैलेन्स शीट की तरह देखने की परम्परा बंद होनी चाहिए ।
यह स्मरण रखना जरूरी है कि वनों की व्यावसायिक कटाई एवं स्थानीय वनवासियों एवं ग्रामवासियों द्वारा जंगल के उपयोग में अंतर करना जरूरी है । ब्रिटिश फारेस्ट सेटलमेन्ट अधिनियम (१८६०) में निस्तार अधिकारों को कुछ सीमा तक मान्यता दी गई थी । परन्तु अंग्रेजों ने वनों को उनकी निजी संपत्ति मानकर उसकी देखरेख के लिए एक वनविभाग बनाया था । सन् १९५२ में नई वन नीति बनी थी परन्तु औद्योगिक विकास की जरूरतों के लिए इसमें भी कई विरोधाभास थे । सन् १९८० और १९९४ में नये वन कानूनों का मसविदा सरकार द्वारा जारी किया गया था । विश्व बैंक से सहायता प्राप्त् करने के लिये वन सुरक्षा समिति एवं ग्राम वन समितियां बनाई गई हैं । इन वन योजनाआें को लाभ कमाने के साधन के रूप में देखा गया है । हमारी नदियां और पानी के अन्य स्त्रोत असहाय है क्योंकि हमारे वन असहाय है ।
हमें समझना होगा कि संसार का कोई भी देश ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए पिघलते हिमनदों को सुरक्षित और संवर्धित नहीं कर सकता है । लेकिन वनों को बचाकर अैर बढ़ाकर आने वाली पीढ़ियों का जीवन खुशहाल बनाया जा सकता है ।

हमारा भूमण्डल

विश्व व्यापार संगठन और तीसरी दुनिया
रॉबर्टो बिस्सियो

विश्व व्यापार संगठन के निदेशक पास्कल लामी अपने तर्को के समर्थन में जिन प्रतीकों को सहारा ले रहे हैं वे कहीं इस संगठन की वास्तविकता को ही समाने ला रहे हैं । भारत सहित तीसरी दुनिया के अधिकांश देश विश्व व्यापार संगठन की जोर जबरदस्ती नीतियों से त्रस्त हो चुके हैं । वैसे भी इस संगठन के अस्तित्व में आने के बाद अधिकांश देशोंमें सामाजिक व आर्थिक खाईयों में वृद्धि ही हुई है ।
वैश्विक व्यापार को स्वतंत्र करने हेतु वर्षो से वार्ताआें के दौर चल रहे हैं । उरूग्वे दौर जिसमें विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की स्थापना की गई थी एवं बौद्यिक सम्पदा, सेवाआें और निवेश को इस प्रक्रिया में समाविष्ट किया था, सन् १९८६ से १९९४ तक यानि ८ वर्ष तक चला । वर्तमान का दोहा दौर जो कि सन् २००१ में प्रारंभ हुआ और जिसे विकास के दौर भी कहा जाता है, में सीमांत राष्ट्रों की रूचि के विषयों को भी समाहित किया गया था, अब ठहर सा गया लगता है ।
उकताहट से बचने एवं प्रेस को इच्छुक बनाए रखने हेतु कुछ समझौताकर्ताआें ने पत्रकारों की क्षुधापूर्ति हेतु चतुर लाक्षणिक स्थितियों की खोज कर उन्हें आंकड़ों के वास्तविक विश्लेषण और दस्तावेजों के पढ़े जाने से भी बचा लिया । उरूग्वे दौर के परिशिष्ट करीब बीस हजार पृष्ठों में संकलित है, उदाहरण के लिए यह तर्क कि व्यापारिक उदारीकरण एक स्थायी प्रक्रिया है और इसे गंभीर जोखिम लिए बिना रोका ही नहीं जा सकता, को हमेशा सायकल के प्रतीक के रूप में दिखाया जाता है । यानि कि जो भी यदि सतत चलता नहीं है वह गिर जाता है ।
अंतत: एक दिन अपने देश के व्यापार को बगैर तैयारी के तेजी से खोलने को लेकर बनाए जा रहे निरन्तर व अनावश्यक दबाव से नाराज होकर जेनेवा में तत्कालीन भारतीय राजपूत बी.के. जुत्शी ने उत्तरी अमेरिका के समझौताकार को व्यंग्य से जवाब देते हुए कहा, अपने देश में हम लोग भी सायकलों के बारे में थोड़ा बहुत जानते हैं और मैं आपको विश्वास दिलाता हॅूं कि जब ट्रेफिक लाइट लाल हो जाती है तो सभी सायकलें रूक जाती हैं और कोई भी गिरता नहीं है । यदि आप चाहें तो मैं आपको यह बता सकता हॅू कि हम ऐसा कैसे कर पाते हैं ।
७ अप्रैल २०११ को विश्व व्यापार संगठन के निदेशक पास्कल लामी ने मीडिया से चर्चा करते हुए उनके संगठन द्वारा हाल ही प्रकाशित आंकड़ों को और भी बेहतर बताने का प्रयत्न किया । डब्ल्यूटीओ ने बताया कि सन् २०१० में व्यापार में रिकार्ड १५ प्रतिशत के करीब का वृद्धि हुई है, लेकिन सन् २०११ के लिए निराशाजनक ६ प्रतिशत की वृद्धि की ही भविष्यवाणी की है । इतना ही नहीं जापान में आए भूकंप और परमाणु आपातकाल की वजह से यह आंकड़ा और भी नीचे जा सकता है । वैश्विक राजनीतिक माहौल के दौर अधिक व्यापारिक उदारीकरण के पक्ष में न होने से मामला अधिक बिगड़ गया है और दोहा दौर, गैर कृषि उत्पादों की बाजार तक पहुंच के मामलों में लगे रोड़ों को हटाने में भी असफल सिद्ध हुआ है ।
श्री लामी ने स्वीकार किया है कि यह बहुत ही कठिन समय है लेकिन विश्व व्यापार संगठन एक खच्च्र की तरह विश्वसनीय और दृढ़ है । उनका कहना है कि व्यापारिक आंकड़े खच्च्र की तरह हैं, जो कि पीछे नहीं जाते । खच्च्र के साथ समस्या यह है कि कई बार वह रूक जाता है और आगे नहीं बढ़ता और वापस भी नहीं आता है । लेकिन आगे बढ़ने से भी इंकार कर देता है । उनका कहना है कि विश्व व्यापार प्रणाली में वर्तमान में यही हो रहा है ।
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सन् २००९ में १२ प्रतिशत गिरा परन्तु सन् २०१० में यह उभर गया और सन् १९५० जबकि पहली बार आंकड़े तैयार किये गये थे, के बाद पहली बार एक वर्ष में इतना ज्यादा बढ़ा । वैसे सन् २०१० में विश्व का कुल उत्पादन ३.६ प्रतिशत बढ़ा, जिसका कि अर्थ है कि व्यापार में वास्तविक उत्पादन में चार गुना अधिक की वृद्धि हुई । विश्व व्यापार संगठन का कहना है, इस वृद्धि का कारण भी वही है जिस कारण से वर्ष २००९ में इसमें गिरावट आई थी । यानि वैश्विक उत्पादन श्रृखंला का अर्थ है निर्माण प्रक्रिया के दौरान वस्तुआें का अनेक बार राष्ट्रीय सीमाआें के आर-पार परिवहन ।
वस्तुआें के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को सबसे गंभीर रूप से चोट पहुंचाने वाली समस्याएं है, औद्योगिक मशीनें और उपभोक्ता वस्तुएं जिसमें अंतिम उत्पादन के अनेक हिस्से बड़े अनुपात में होते हैं । इससे सन् २००९ में आई तीव्र गिरावट और पिछले वर्ष संभलने में दोनों ही बातें स्पष्ट हो जाती है ।
इसे समझाते हुए श्री लामी फायनेंशल टाइम्स के अपने स्तंम्भ में लिखते है तीस वर्ष पूर्व एक देश में उसी के संसाधनों का इकट्ठा कर उत्पाद तैयार किए जाते थे । इस व्यापार को मापना आसान था । परन्तु आज निर्माण कार्य वैश्विक श्रृंखला के माध्यम से होता है और कहा जा सकता है कि अधिकांश वस्तुएं वैश्विक तौर पर निर्मित होती हैं न कि चीन निर्मित । और यह अकादमिक भिन्नता भर नहीं हैं । व्यापार असंतुलन से राजनीतिक द्वेष पैदा हो सकत है । अतएव जिस तरह से हम व्यापार को मापते हैं उससे वैश्विक राजनीतिक तनाव में वृद्धि भी हो सकती हैं ।
वरिष्ठ पत्रकार चक्रवर्ती राघवन जो कि पिछले ३० वर्षो से जेनेवा में हो रहे व्यापारिक समझौतों पर निगाह रखे हुए है, श्री लामी के इस आकलन से असहमत हैं कि यह एक नई धारणा है। अपनी आलोचना की पुष्टि हेतु उन्होनें सन् १७५० से लगातार प्रकाशित होने वाले एक पंचाग के सन् १७८५ के वार्षिक रजिस्टर की प्रति प्रस्तुत की है । इसमें लिखा है, फ्रांसीसियों को अंग्रेजी वाहन बहुत पंसद है । इस हेतु पहियों और शाक एर्ब्जवर के ८०० सेट फ्रांस भेजे गए जिनका इस्तेमाल वहां वाहन बनाने (अलामोड डी एंग्लोइस) के लिए किया जाएगा । यदि उत्पादन श्रृंखला इतनी पुरानी धारणा है तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि चीन जो निर्यात कर रहा है उसमें ६० प्रतिशत हिस्सा आयातित है या उससे भी अधिक । वास्तविक बात यह है कि वैश्विक व्यापार को संगठित करने की प्रक्रिया में चीन उस वस्तु पर कितना लाभ ले रहा है ।
श्री राघवन ने इस संबंध में पुर्तगाल और इंग्लैंड के मध्य के व्यापारिक रिश्तों का उदाहरण भी दिया जिनका अध्ययन एडम् स्मिथ और रिकॉर्डो जैसे पारम्परिक अर्थशास्त्रियों ने दो सौ वर्षो से भी पहले किया था । पुर्तगाली किसान अंगूर उपजाते थे, उनके रस में खमीर उठाते थे और नाल (पीर्पो) में भर कर ब्रिस्टोल के व्यापारियों को बेच देते थे और वे इसे बोतलों में भरकर ब्रिटिश जहाजों द्वारा ब्रिटेन भेज देते थे । इसका अर्थ यह हुआ कि पुर्तगाली निर्यात का लाभ ब्रिटिश व्यापारियों को मिलता था । पुर्तगाली अर्थव्यवस्था आज भी विकासशील है जबकि ब्रिटेन २० वीं शताब्दी के मध्य तक विश्व की बड़ी आर्थिक ताकत बना रहा ।
किसी भी कीमत पर खुले व्यापार की वकालत करने वालों को प्रतीक चुनने में सावधानी रखना चाहिए और यह बात भी ध्यान में रखना चाहिए कि खच्च्र गधे और घोड़े की संकर संतान है और वह नंपुसक भी है ।

गांधी जंयती पर विशेष

गांधी होते तो क्या करते ?
चन्द्रशेखर धर्माधिकारी

गांधी को सामने रखकर किसी समस्या का हल ढूंढने का सबसे बड़ा लाभ संभवत: यह है कि प्रत्येक हल अहिंसा और सत्य के पैमाने पर ही निकाला जा सकता है । आज हम जिस संक्रमण काल में रह रहे हैं उसमें राज्य की हिंसा और समाज के एक वर्ग की हिंसा का आपसी संघर्ष कमोबेश पूरी दुनिया में नजर आ रहा है । हिंसा से निपटने के लिए प्रतिहिंसा को एक मात्र विकल्प मानने से स्थितियां दिन-ब-दिन बद्दतर होती जा रही है ।
एक बार मैने गांधी दर्शन के भाष्यकार व मेरे पिता दादा धर्माधिकारी से पूछा, आज गांधीजी होते तो क्या करते ? दादा ने उत्तर दिया मैंनहीं जानता कि वे क्या करते ! लेकिन तुम हो तो क्या करोगे या कर सकते हो, उसके बारे में सोचो ! गांधीजी के बाद समस्याआें का स्वरूप बदल गया है । गांधी का कोई वाद या सम्प्रदाय नहीं है, सिर्फ विचार-प्रवाह है । विचार हमेशा गतिशील होता है और उसमें विकास होता रहता है । गांधी का विचार संदर्भहीन, कालबाह्य हो गया है, ऐसा मानने वालों की संख्या रोज-रोज बढ़ रही है और हम हैं जो विचार के बदले ग्रंथ प्रामाण्यवादी और व्यक्ति प्रामाण्यवादी बन रहे है । आवश्यकता इस बात की है कि जहां गांधीजी का खून हुआ और विचार-प्रवाह रूका, वहीं से हमारे चिंतन-मंथन की शुरूआत होनी चाहिए ।
वर्तमान सभ्यता का मतलब क्या है ? वह अभिशाप है या वरदान ? अगर हम उसे संकट मानते हैं तो उसकी जड़ में जाकर हमें उसके कारण ढूंढने होगे और इलाज भी । इस संदर्भ में प्रसिद्ध तत्ववेत्ता खलील जिब्रान के एक वाक्य की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हॅू, वे कहते हैं - जिस तरह वृक्ष का एक भी पत्ता, समूचे झाड़ की मूक सम्मपति के बिना पीला नहीं पड़ सकता, वैसे ही हम में छिपी हुई इच्छाआें के बिना इस संकट का निर्माण नहीं हुआ है ।
आज की आर्थिक व्यवस्था और बाजार के वैश्वीकरण के माहौल में मनुष्य भी खरीद-बिक्री की वस्तु बन रहा है । हर इंसान की कीमत होती है और उसे खरीदा जा सकता है, यह वृत्ति बढ़ रही है । इमरसन का एक वाक्य है, जिसका आशय है कि सभ्यता का मापदण्ड उस समाज में स्त्रियों का प्रभाव कितना है, यही है ! आज बाजार ने स्त्री को बाजार में प्रतिष्ठित कर दिया है । वह बिकाऊ बन रही है । जितनी भी सौंदर्य स्पर्धाएं होती हैं, उनमें उसी देश की संुदरी को चुना जाता है, जिसके बाजार में उन्हें अपना माल अधिक से अधिक बेचना होता है । स्त्री का शारीरिक सौंदर्य बिक्री और विज्ञापन का आधार है । वह वस्तु बन रही है, मनुष्यत्व खो रही है । व्यक्ति जब मनुष्यत्व खोकर वस्तु रूप बन जाता है तब अपना प्रभाव खो देता है । आज तो माँ-बाप भी लड़कियों को मॉडल बनाना चाहते है ।
हमें गांधी-विचार पर आधारित नये रास्ते ढूंढने होंगे और यह ध्यान में रखना होगा कि गलत के खिलाफ संघर्ष करने की वृत्ति नहीं होगी, तो तथाकथित रचनात्मक कार्य नपुंसक साबित होगा और जिस संघर्ष में रचना और परिवर्तन करने की शक्ति नहीं होगी, वह संघर्ष भी नपुंसक माना जायेगा । पर यह नहीं होगा तो हम नई पगडंडियों का निर्माण नहीं कर सकेंगे, लकीर के फकीर ही बने रहेंगे । नई लड़ाईयां पुराने शस्त्र-साधनों से नहीं लड़ी जा सकती । गांधीजी की यही तो खासियत थी । इस संदर्भ में गांधीजी ने जो शांति-सेना का विचार रखा था और उसमें भी महिला शांति-सेना का उस पर गंभीरता से विचार कर, उसे सशक्त बनाना जरूरी है ।
विचारों का मुकाबला विचारों से करने के बदले आज गर्दन काट देने की प्रवृत्ति में बढ़ोत्तरी हो रही है । ऐसी मान्यता है कि गर्दन काट देने से विचार भी समाप्त् हो जाते हैं । शायद इसीलिए सारे महामानवों का अंत उनके बलिदान या शहादत से ही हुआ है ।
सभ्यता का मतलब क्या है ? दूसरे के जीवन में शामिल होना और दूसरे को अपने जीवन में शामिल करना ! असली सभ्यता का अर्थ है जीवन की शुद्धि और उससे जुड़ी समृद्धि । वर्तमान सभ्यता भौतिक साधनों के अमर्यादित दोहन, श्रम के प्रति विमुखता और शोषण द्वारा प्राप्त् समृद्धि पर आधारित है । गांधीजी के सत्याग्रही संग्राम से एक अभिनव मानवीय सभ्यता का उदय हुआ । सभ्यता तथा संस्कृति की गांधीजी की व्याख्या समझने में सरल है । मनुष्य को कर्तव्य पालन का मार्ग दर्शाने वाली आचार-पद्धति यानी सभ्यता और संस्कृति ! वासनाआें पर विजय पाना यानी संयम ! वर्तमान सभ्यता जरूरतों में अमर्यादित वृद्धि करना सिखाकर, परिग्रह-वृत्ति का पोषण कर रही है ।
पुराने जमाने में कहा जाता था कि गांधी ने तीन ध समाप्त् किये - धर्म, धंधा और धन । बदले में तीन झ दे गये - झंडा, झाडू और झोली ! यही गांधी की असली देन है । गांधी धर्माधंता, धनशक्ति और बाजारवाद को समाप्त् करना चाहते थे । इसलिए वे चाहते थे अन्त्योदय से सर्वोदय हो । वर्तमान सभ्यता का यह उद्देश्य नहीं है और न ही उसकी वैसी आकांक्षा है । वह तो स्वार्थपरायण है और सोचती है कि सब अपने-अपने स्वार्थ का विचार करेंगे, तो उसके जोड़ से सबकी प्रगति होगी, इसी में सबका विकास होगा ।
समस्याआें से जूझने की क्षमता न होने के कारण लोग पलायनवादी बन रहे हैं । इसलिए ज्योतिष और योगियों की शरण में जा रहे है । अब लोग योग के पीछे पागल हो रहे हैं । विज्ञान और वर्तमान सभ्यता ने जो अनिश्चितता पैदा की है, उस कारण उन्हें अतींद्रिय शक्ति की उत्कंठा है । इनके सभ्यता पर एक के बाद एक संकट गहरा रहे हैं । व्यक्तिगत ही नहीं, सामाजिक संकट गहरा रहा है । तेजस्विता, तपस्विता और तत्वनिष्ठा जिनके जीवन की बुनियाद हो, ऐसे इंसानों की और उसमें भी युवकों की भूमिका आवश्यकता है ।

कविता

पेड़ों के लिए प्रार्थना
रिचर्ड सेंट बार्ब बेकर

हे प्रभो
पेड़ों के लिये तेरा धन्यवाद ।
तू अपने पेड़ों के द्वारा हमारे बहुत निकट आया है ।
उनसे हमें
सौन्दर्य, बुद्धिमता, प्रेम,
सांस लेने के लिये प्राणवायु
पीने के लिये पानी,
भोजन और शक्ति मिली है ।
प्रभो ! हमारी सहायता करो
जिससे हम इस दुनिया को
अधिक सुंदर और रहने योग्य बनाकर
छोड़कर जा सके ।
हमारे पौधारोपण को सफल करो,
और हम धरती पर प्रेम
और परस्पर विश्वास का साम्राज्य
स्थापित करों ।

(माननीय सुन्दरलाल बहुगुणा
द्वारा हिन्दी अनुवाद)


विशेष लेख

न्याय के अधिकरण में पर्यावरण
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल

हमारे आर्य ग्रंथ एवं साहित्यिक कृतियां सनातन मानवीय व्यवस्था के साक्षी है और उनमें वर्णित न्यास सिद्धान्त जीव मात्र को संरक्षण प्रदान करते हैं । न्याय पूर्ण आचरण धार्मिक संस्कृति है । हमारा जीवन दर्शन न्याय शास्त्र से निर्देशित है । नीति-नियम शाश्वत है । हम यह बात शिद्दत से जानते है कि बुद्धि-विवेक ही सभ्यता में जरूरी है ।
चेतना के स्थान पर भौतिकता को प्रश्रय हमें अमानवीय बना रहा है और हमें न्याय से दूर ले जा रहा है । हम दुराग्रही भी हुए है । हमारे मन की चंचलता एवं अनिश्चितता के कारण सत्य का क्षरण हो रहा है और विश्वास टूट रहा है । टूट रहा है तन मन, और टूट रहा है पर्यावरण । अब न्याय के विशेष अधिकरण के गठन के साथ पर्यावरण को न्याय की आस बंधी है । देखना यह है कि पर्यावरण की याचिका की सुनवाई कितनी ईमानदारी से होती है । वस्तुत: यही होगा पर्यावरणीय न्याय का व्यवहारिक पक्ष ।
विगत कुछ दशकों में पर्यावरण एवं प्रकृति को मनुष्य ने बहुत नुकसान पहुंचाया है । इसलिए तो सभ्यता के विकास के साथ ही न्याय एवं अन्याय का दर्शन सामने आया है और हमारा न्याय शास्त्र समृद्ध होता गया । किन्तु न्याय को अभी तक वह दिशा नहीं मिल सकी जैसी की मिलनी चाहिए । इसीलिए आज हमारी दशा भी ठीक नहीं है । आज भी सारी कवायद के बाद भी न्यायपूर्ण वातावरण नहीं है । अन्यायी एवं आततायी ही न्याय देवी की आँख में झूल झोकनें में कामयाब है जिससे न्याय व्यवस्था हमारे जीवन मूल्यों की रक्षा करने में स्वयं को अक्षम पा रही है ।
न्याय हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व्यवस्थाआें से जुड़ा पहलू है । न्याय के अधिकरणों का विस्तृत फलक है । अब हमारे समक्ष पर्यावरणीय न्याय की अवधारणा है । किन्तु मेरा मानना है कि न्याय की रक्षा के लिए हमें अपने जमीर (अर्न्तआत्मा) को जगाना होगा तभी सत्य और न्याय की तुलना में पर्यावरण संरक्षित रह सकेगा । हमें यह भी संज्ञान में रखना होगा कि प्रकृति का रक्षक परमात्मा भी न्यायकारी है ।
केन्द्र सरकार ने १९ अक्टूबर २०१० को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का गठन कर दिया । सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश लोकेश्वर सिंह पांटा को इस न्यायाधिकरण का अध्यक्ष मनोनीत किया गया है । न्यायधिकरण का मुख्यालय राजधानी दिल्ली में रहेगा तथा इसकी चार बैंच भी स्थापित की जायेगी । पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने न्यायाधिकरण के गठन की औपचारिक घोषणा करते हुए कहा कि भारत विश्व के उन चुनिंदा राष्ट्रों में शामिल हो गया है जहां पर्यावरण संबंधित मामलों के निपटारे हेतु राष्ट्रीय स्तर पर न्यायाधिकरण होते है ।
हरित न्यायाधिकरण स्वतंत्र रूप से कार्य करेगा । इसमें पर्यावरण और वन मंत्रालय का भी हस्तक्षेप नहीं होगा । पर्यावरण को होने वाली हानि के मद्देनजर कोई भी पक्ष, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से याचिका प्रस्तुत कर सकेगा । न्यायाधिकरण को अधिकार होगा कि वह स्वयं संज्ञान लेकर जनहित याचिकाआें पर गौर करेगा । न्यायाधिकरण व्यक्तिगत रूप से १० करोड़ तक तथा कंपनी पर २५ करोड़ तक की दण्डात्मक कार्यवाही कर सकेगा । इसके अतिरिक्त और भी शक्तियां उसके पास रहेगी ।
दरअसल सन् १९९२ में रियो-दि-जेनेरिया में हुई ग्लोबल यूनाइटेड नेशंस कांफ्रेस ऑन एनवायरनमेंट एण्ड डेवलपमेंट के फैसले को स्वीकार करने के बाद इस कानून के निर्माण की जरूरत महसूस की गई और इस दिशा में प्रयास हुए । ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड के बाद भारत तीसरा देश होगा जहॉ हरित न्यायाधिकरण जैसी संस्था काम करेगी । यह एक ऐसा न्यायिक निकाय है जो पर्यावरण से संबंधित सभी मामलों पर अपनी नजर रखेगा और उनका निपटारा भी करेगा । यह देश भर में अपनी सर्किट बेंच के जरिये काम करेगा ।
न्यायाधिकरण (ट्रिव्यूनला) के दायरे में देश में लागू पर्यावरण और जेव विविधता के सभी नियम कानून आते हैं। इसके लिए जैव विविधता कानून में भी परिवर्तन किया गया है । ट्रिब्यूनल के गठन से पूर्व जैव विविधता संबंधी अपील उच्च् न्यायालय में दाखिल की जाती थी लेकिन अब ऐसी याचिकाएं न्यायाधिकरण में ही प्रस्तुत हो सकेगी । इसके लिए कानून की धारा ५२ को समाप्त् कर धारा ५२ ए लागू कर दी गई है ।
पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करने हेतु बहुत से कानून है किन्तु ज्यों ही कोई न्यायकारी कानून सामने आता है उसका तोड़ भी ढूंढ लिया जाता है और पीड़ित न्याय की गुहार लगाता हुआ अंतत: हार जाता है । यहां मेरा यह मानना है कि हम संवैधानिक न्याय प्रक्रिया को भले ही धोखा दे दे किन्तु नैसर्गिक न्याय (विधि के न्याय) के दण्ड से हम बच नहीं सकते क्योंकि प्रकृति में स्वनियामक सत्ता है । अत: प्रकृति के साथ किया गया अन्याय और भी अधिक विध्वंसकारी हो जाता है ।
न्याय तब तक कारगर नहीं होता जब तक कि हमारा जमीर न जागे और हम प्रकृति से खिलवाड़ करना बंद न करे । प्रश्न उठता है कि क्या दुनिया का मानचित्र हमे रचा है नहीं । इसका चितेरा तो परब्रम्हा परमात्मा है । हम जो कुछ भी प्रकृति को देते है वहींतो वह हमें वापस करती है अथवा जो कुछ प्रकृति हमें देती है वही हम उसे अर्पित कर सकते है । प्रकृति दर्शन और जीवन एक अनुगूँज है । हम जो बोलते है वही तो गूँजता है । हम जो स्थिति बनाएंगे वही तो हमें दिखलाई देगी । अत: हमें न्याय का सम्मान करना होगा । प्रकृति परक होना होगा ।
प्रकृति के शाश्वत नियम को समझना ही नैसर्गिकता है । प्रकृति विमुखता धर्म विरूद्धता है । हमें हमारी प्रकृति को निर्जरा बनाना होगा । अर्थात् हमें अपने चारों और ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें पाप न हो दुष्टता न हो । पाप ही क्षयकारी है । हमारी प्रवृत्तियों पाप और पुण्य के द्वारा ही निर्देशित होती है । हमें इन्हें संवरना होगा अर्थात् पाप करने से बचना होगा । हमारे जो कृत्य प्रकृति एवं पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते है उन्हें त्यागना होगा । हमें त्याग के साथ ही प्रकृति को भोगना होगा । हमें आसक्ति एवं निरक्ति के बीच रहकर मध्य मार्ग अपनाना होगा तभी विकास एवं विनाश का अंतर समझ में आयेगा । प्रकृति का कल्याण होगा । जड़ हो अथवा चेतन सबकुछ महामायामयी प्रकृति का हिस्सा है ।
अब वक्त आ गया है जबकि विकास कार्यो में भ्रष्टाचार और प्रकृतिक संसाधनों की लूट को रोकने के लिए जनपक्षीय नीतियाँ बनाई जाएं तथा लोकतांत्रिक तरीके से दबाव बनाया जाये ताकि अक्षुण्य रह सके । हमारी हरियाली विरासत अविरल एवं निर्मल रह सके । हमारी नदियां और पेड़ प्रहरी धर्म निभाहते रहे, हमारे पर्वत और धीर गंभीर रहें, हमारा सागर ।

आवरण कथा

ओजोन परत क्षय: कारण और निवारण
डॉ. लक्ष्मीकांत दाधीच
ओजोन गैस, ऑक्सीजन गैस की समजात गैस होती है। ओजोन वायुमण्डल के सभी अक्षांशो में उपस्थित होती है परन्तु यह मुख्यत: समताप मण्डल में पायी जाती है। समुद्र तल से ३२ से लेकर ८० किलोेमीटर तक की ऊँचाई के वायुमण्डलीय भाग में अधिकांंश ओजोन पाई जाती है, इसलिए साधारणतया इसे ओजोन मण्डल, ओजोन परत, ओजोन छतरी या सुरक्षात्मक परत के नाम से भी जाना जाता है ।
ओजोन की सान्द्रता क्षोभमण्डल में ०.५ ििा ही होती है जबकि समताप मण्डल में यह लगभग १० ििा होती है। ओजोन परत की मोटाई ''डॉबसन`` इकाई (ऊलिीिि णळिीं = ऊ.ण.) में मापी जाती है । जहाँ एक डॉबसन का मान ०.०१ मिमी. (०० उ ताप तथा ७६० मिमी. दाब पर) होता है । वायुमण्डल में ओजोन की मात्रा केवल ०.०००००२ प्रतिशत ही है (अर्थात् यदि इसे पृथ्वी सतह पर फैलाया जाए तो मात्र ३ मिलीमीटर की परत बन पाएगी) इस लेशमात्र गैस की ९५ प्रतिशत मात्रा समताप मण्डल व क्षोभमण्डल में पाई जाती है ।
वातावरण में ओजोन के निर्माण व विघटन का पहला रासायनिक सिद्धांत १९३० में सिडनी में ''चैपमैन`` ने प्रस्तुत किया था । इस सिद्धांत के अनुसार वातावरण में ओजोन का निर्माण आण्विक ऑक्सीजन पर सूर्य के प्रकाश के प्रभाव से होता है । इससे ऑक्सीजन का अणु परमाणुओं में विभाजित हो जाता है और ये स्वतंत्र परमाणु ऑक्सीजन के अन्य अणुओं से क्रिया करके ओजोन बनाते हैं ।
O2 -------- O0 + (आक्सीजन परमाणु)
O0 + O2 ------ O3 (ओजोन)
इसके अतिरिक्त ऑक्सीजन युक्त यौगिक जैस SO2 NO2 सूर्य के प्रकाश के प्रभाव में परमाण्विक ऑक्सीजन को मुक्त करते हैं, यह स्वतंत्र परमाणु ऑक्सीजन के अन्य अणुओं से क्रिया करके ऑक्सीजन बनाते हैं।
O0 + O2 --------- O3
NO2 --------- NO2 --------- NO+
वायुमण्डल में बहुत ऊँचाई पर ताप अधिक होता है अत: वहाँ पर आयन विचरण करते हैं, तथा वे कम मात्रा में रहते हैं अत: उनके समीप आने की तथा क्रिया करके अणु बनाने की सम्भावना बहुत कम होती है । इसीलिए वातावरण में ८० किलोमीटर से ऊपर ओजोन नहीं पाई जाती है। दूसरी तरफ १६ किलोमीटर से नीचे परमाण्विक ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं होती है जिससे ओजोन का निर्माण नहीं हो पाता है। अत: १६ किलोमीटर के नीचे ओजोन न के बराबर पाई जाती है ।
अब तक ऐसी लगभग २०० प्रकाश-रासायनिक क्रियाएँज्ञात हैं जिसमें इस गैस का हास होता है। आजकल कुछ ऐसे मानव निर्मित यौगिकों का उत्सर्जन हो रहा है जो ओजोन मण्डल में पहुँचकर ओजोन के हृास में वृद्धि कर रहे हैं । परिणामस्वरूप सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुँचने लगी हैं जिसके कई दुष्प्रभाव देखने में आ रहे हैं ।
वायुमण्डल में ओजोन परत ३००० A तरंग दैर्ध्य वाली हानिकारक किरणों अर्थात पराबैंगनी किरणों को पृथ्वी सतह पर पहुँचने से रोकती है। अत: ओजोन की कमी से जैवमण्डल पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकते हैं ।
ओजोन परत के क्षय के प्रमुख कारण :- ओजोन परत के क्षय का मौसमीय उपग्रह श्रंृखला के निमबस-७ उपग्रह से १९६४ में पता चला । ओजोन छिद्र के बारे में सर्वप्रथम जी.सेफ फर्मन के नेतृत्व में अंटार्कटिका
गए ब्रिटिश वैज्ञानीकों के दल ने १९८५ में बताया । ओजोन परत के विघटन से उसमें छिद्र होने लग गया है । इस विघटन के लिए क्लोरो-फ्लोरो कार्बन मुख्य रूप से उत्तरदायी है । कैलिफोर्निया विश्वविघालय के वैज्ञाानिकों शेयर वुड शेलेण्ड और मेरियो मोबिना ने अनुसंधान द्वारा क्लोरो-फ्लोरो कार्बन में विद्यमान क्लोरीन को ओजोन परत के विघटन के लिए उत्तरदायी बताया ।
(१) क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (CFC): वर्तमान अध्ययनों के आधार पर ओजोन क्षति का सारा दोष क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, ब्रोमीरन के यौगिकों एवं नाइट्रोजन और सल्फर के ऑक्साइडों पर लगाया जा रहा है। १९३० में अमरीकी वैज्ञाानिक डॉ. थॉमस मिजले ने अमरीकी कैमिकल सोसायटी के समक्ष C.F.C..का पहला संश्लेषण प्रस्तुत किया । उस समय इसकी उपयोगिता ने सारे विश्व में तहलका मचा दिया । यह रंगहीन, गंधहीन, विषहीन, अग्निरोधी, निष्कि य, लम्बे समय तक स्थाई रहने वाला एवं सस्ता प्रदार्थ शीतलीक रण उद्योग पर छा गया । तब से सी.एफ .सी. के उपयोगों क ी सूची बढ़ती रही है ।
लेकि न पर्यावरण विशेषज्ञों का ध्यान आकर्षित हुआ सन् १९७४ में जब दूसरे अमरीकी वैज्ञानिक एफ .शेरवुड रॉलैण्ड ने यह स्पष्ट कर दिया कि ध्रुवों पर ओजोन परत में छेद होने के लिए मुख्यतया सी.एफ.सी. जिम्मेदार है। सीएफ सी वास्तव में एक कि स्म के पदार्थों क ा सामान्य नाम है । ओजोन क्षति की दृष्टि से इसके अहम् पदार्थ हैं सी.एफ.सी.-११, सी.एफ.सी.-१२, सी.एफ.सी.-१३ और कार्बन टेट्राक्लोराइड ।
रॉलैण्ड-मोबिना के अनुसार सूर्य के प्रकाश के पराबैंगनी विकिरण के द्वारा सी.एफ.सी. का विघटन होकर परमाण्विक क्लोरीन बनती है। यह परमाण्विक क्लोरीन रासायनिक क्रियाआें की एक ऐसी श्रृंखला की शुरूआत करती है जिससे कि काफी क्षति होती है । सी.एफ.सी. से मुक्त हुआ क्लोरीन का एक परमाणु ओजोन के १०,००० अणुओं को तोड़ने की क्षमता रखता है। सी.एफ.सी. के अतिरिक्त कार्बन टेट्राक्लोराइड एवं क्लोरोफार्म जैसे क्लोरीनीकृत या अन्य हेलोजन (क्लोरीन, ब्रोमीन, फ्लोरीन) युक्त पदार्थ वायुमण्डल में हेलोजनों की मात्रा बढ़ाते हैं ।
अन्य कारण : १५-२० किलोमीटर क ी ऊँचाई पर तेज गति से उड़ने वाले जेट विमानों का धुँआ, एक अनुमान के अनुसार २०१० तक ओजोन परत को १० प्रतिशत और अधिक क्षतिग्रस्त क र देगा ।
इसके अलावा अन्तरिक्ष यानों का जला ईंधन भी नाइट्रोजन के ऑक्साइड उत्पन्न करता है, जो भी ओजोन परत के क्षय में योगदान करते हैं । नाइट्रोजन के ऑक्साइड जब ओजोन से क्रिया क रते हैं तो ओजोन क ा विघटन हो जाता है । अंटार्क टिका के ऊपर विशाल छिद्र क ी सीमा में आनें वाले विभिन्न देश जैसे न्यूजीलैण्ड, आस्ट्रेलिया, चिली, अर्जेन्टाइना में अब सूर्य के साथ पराबैंगनी किरणें बिना किसी विघ्न के प्रवेश करके प्रकृति के साथ किए गए खिलवाड़ का बदला ले रही है ।
(१) ओजोन विघटन की क्रियाविधि :- नाभिक ीय विस्फ ोट के कारण काफी अधिक मात्रा में नाइट्रोजन के ऑक्साइड उत्पन्न होते हैं । जो प्रत्यक्ष रूप से समताप मण्डल में पहुँच जाते हैं तथा क्रिया पर ओजोन क ी सान्द्रता में क मी क र देते हैं :
NO+O2NO2+O
NO+O3NO2+O2
NO2+ONO+O2
NO2+O3NO3+O2
ये अणु बहुत अधिक क्रियाशील होते हैं परन्तु ये काफी लम्बे समय तक वायुमण्डल में बने रह सकते हैं अर्थात् नाइट्रोजन के ऑक्साइडों के बढ़ने से ओजोन की सान्द्रता में कमी आती है। यह चक्र लगातार चलता रहता है तथा ओजोन का विघटन होता रहता है।
(२) क्लोरीन या हेलोजन की क्रियाविधि :- समताप मण्डल में C.F.C.s ओजोन परत के विध्वंस में उत्प्रेरक की भाँति काम करती है । C.F.C.s तथा हेलोजन क्षोभमण्डल में निष्क्रिय रहते हैं, यह समताप मण्डल में पहुँचने में १० से २० साल लेते हैं । लेकिन इनक ा मध्यवर्ती उत्पाद क्लोरीन परमाणु १०० सालों से अधिक के लिए सक्रि य हो जाता है।
(1) CFCsC1
(2) C1+O3C1o+O2
(3) CIo+O32O2+C1

यह क्लोरीन पुन: मुक्त हो जाता है तथा अन्य ओजोन अणु के विघटन में भाग लेता है।
ओजोन परत क्षय के दुष्प्रभाव :- यह सार्वजनिक रूप से माना जाता है कि समताप मण्डल में जो ओजोन परत है, वह सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी विकिरणों को अवशोषित कर पृथ्वी पर आने से रोक क र हमें बचाती है।
आधुनिक मानव की औद्योगिक क्रियाविधि के फ लस्वरूप ओजोन परत के विघटन से आंशिक गम्भीर समस्याएँ उत्पन्न हो चुक ी है। इन्हें Ozoner eater की संज्ञा दी गई है ।
१. मानव पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव :-
- इनके प्रभाव से मनुष्यों क ी त्वचा की ऊपरी सतह क ी क ोशिक ाएँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। क्षतिग्रस्त कोशिकाआें से हिस्टैमिन नामक रसायन क ा स्त्राव होने लगता है। हिस्टैमिन नामक रसायन के निक ल जाने से शरीर क ी रोग प्रतिरोधक क्षमता क म हो जाती है और ब्रॉकाइटिस, निमोनिया, अल्सर आदि रोग हो जाते है ।
- त्वचा के क्षतिग्रस्त होने से क ई प्रकार के चर्म कै न्सर भी हो जाते है । मिलिगैण्ड नामक चर्म कैं सर के रोगियों में से ४० प्रतिशत से अधिक क ी अत्यन्त क टप्रद मृत्यु हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण सुरक्षा अभिकरण का अनुमान है कि ओजोन की मात्र १ प्रतिशत की कमी से चर्म कैं सर के रोगियों में २० लाख की वार्षिक वृद्धि हो जाएगी ।
- पराबैंगनी कि रणों क ा प्रभाव आँखों के लिए घातक सिद्ध हुआ है । आँखों में सूजन और घाव होना तथा मोतियाबिन्द जैसी बीमारियों में वृद्धि का कारण भी इन किरणों का पृथ्वी पर आना ही माना जा रहा है। ऐसा अनुमान है कि ओजोन की मात्रा में १० प्रतिशत की कमी से आँख के रोगियों में २५ लाख की वार्षिक वृद्धि होगी ।
२. सूक्ष्म जीवों तथा वनस्पति जगत् पर भी पराबैंगनी कि रणों का बुरा असर पड़ता है । इनके पृथ्वी पर आने से सम्पूर्ण खाद्य श्रंृखला गडबड़ा सक ती हैं। पादपों की उत्पादन क्षमता कम हो जाएगी तथा वनस्पति कोशिकाएँ नष्ट हो जाएगी । सम्पूर्ण रूप से इसके द्वितीयक प्रभावों की कल्पना करना कठिन है ।
ओजोन परत क्षय के बचाव की रूपरेखा : ओजोन परत के संरक्षण को ध्यान मंे रखक र अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर १९८५ में विएना में बैठक बुलाई गई, परन्तु इस पर एक मत नहीं प्राप्त हुआ । इसके बाद १६ सितम्बर, १९८७ में मांट्रियल, कनाडा में पुन: बै ठक का आयोजन किया गया जिसका मुख्य उद्देश्य ओजोन परत का संरक्षण तथा सी.एफ.सी. वर्ग के रसायनों पर नियन्त्रण करना था । इसलिए १६ सितम्बर को ओजोन दिवस या ओजोन बचाओ दिवस के रूप में मनाते हैं । इस बै ठक में ४३ देशों के प्रतिनिधियों तथा वैज्ञानिकों ने भाग लिया । यहाँ ''मांंट्रियल आचार संहिता`` के नाम से एक प्रारूप तैयार किया गया । इसमें कहा गया कि इस शताब्दी के अन्त तक सी.एफ.सी.
वर्ग के रसायनों के उत्पादन तथा उपयोग में निरन्तर कमी करके ३० प्रतिशत तक कमी की जाएगी ।
इस समझौते पर भारत, चीन, ब्राजील एवं अन्य विकासशील देशों ने हस्ताक्षर नहीं किए क्योंकि इनका आरोप था कि विकसित देश, विकासशील देशों के साथ सौतेला व्यवहार कर रहे हैं । दुर्भाग्यवश सी.एफ.सी. का ऐसा कोई भी विकल्प नहीं खोजा जा सका है जो ओजोन नाशक न हो । हाइड्रो-फ्लोरो कार्बन सी.एफ.सी. का विकल्प जरूर है, जो सी.एफ.सी. से १० गुना कम ओजोन नाशक है, परन्तु यह भी पूर्ण सुरक्षित नहीं है । साथ ही इसके बनाने का तरीका उतना आसान व सस्ता नही है जितना सी.एफ.सी. का है। सी.एफ.सी. के विकल्प के रूप में एच.सी.एफ.सी.- २२ के उत्पादन की तकनीक हमारे यहाँ उपलब्ध तो है किन्तु इसका उपयोग अत्यन्त महँगा है ।
हरित गृह गैसों की वृद्धि के दुष्प्रभाव :- हरित गृह प्रभाव के कारण पृथ्वी की जलवायु में निम्नलिखित परिवर्तन हो रहे है :
१. ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है। इसके परिणामस्वरूप महासागर गर्म हो रहे हैं तथा ध्रुवों पर जमी बर्फ पिघल रही है जिससे सागरों का तल ऊँचा हो रहा है तथा निचले क्षेत्रों में बाढ़ आ जाती है।
२. इसके कारण सर्दियाँ छोटी तथा कम ठण्डी होंगी तथा गर्मियाँ लम्बी व अत्यधिक गर्म होगी ।
३. अफ्रीका में रेगिस्तानी इलाकों का फैलाव, तटवर्ती इलाकों में भारी वर्षा होगी । बाढ़े आऐंगी तथा औसत वर्षा वाले क्षेत्रों मे सूखे की स्थिति बनेगी ।
४. कटिबंधीय तूफानों के कारण लम्बे तथा उष्णतम सूखों सहित कई प्रकार की उग्र मौसमी घटनाएँ होंगी।
५. ताप बढ़ने से होने वाली वर्षा काफी प्रभावित होगी । वर्षा के स्वरूप में परिवर्तन होगा तथा ७ प्रतिशत तक वर्षा अधिक होगी। इससे कुछ देशों में वर्षा अधिक व कुछ में कम हो जाएगी । भारत तथा सहारा रेगिस्तान के आस-पास के के क्षेत्रों मे अच्छी वर्षा होगी जबकि पाकिस्तान, बांग्लादेश में वर्षा कम हो जाएगी।
६. इसका प्रभाव खाद्यान्न पर भी पडेगा । रूस, चीन, अरब देशों इत्यादि के कुुछ क्षेत्रों में अन्न का उत्पादन बढ जाएगा जब कि भारत व अन्य विकासशील देशों में अनाज की पैदावार में कमी आ सकती है ।
७. तापमान बढ़ने के कारण जन्तुओं की क्रियाविधि प्रभावित होगी तथा कार्बन-डाई-ऑक्साइड की अधिकता के कारण श्वसन में भी कठिनाई बढ़ेगी ।

महिला जगत

असुरक्षित होती महिलायें
डॉ. बनवारीलाल शर्मा

इस समय एक बड़ा हमला देश पर हो रहा है जो शायद अंग्रेजों के हमले से ज्यादा खतरनाक है । अंग्रेजों ने तो देश के लोगों के शरीर पर कब्जा किया था । जैसा कि जैक्सन ने कहा है वे अब रस्सी और बुलैट इस्तेमाल नहीं करते, अब वे सूचना तकनीकी का इस्तेमाल करके लोगों के दिमाग पर, लोगों के मन पर कब्जा जमा रहे हैं । इसका सीधा असर महिलाआंे पर पड़ रहा है । देश की राजधानी दिल्ली महिलाओं पर अपराध की भी राजधानी बन गयी है ।
पिछले ५०० साल के इतिहास मेंे दो बड़ी वैज्ञानिक क्रान्तियाँ हुई हैं जिनका उद्गम पश्चिम में, यूरोप और अमरीका में हुआ । विडम्बना यह है कि इन दोनो क्रान्तियों ने उपनिवेशवाद को जन्म दिया। पहली क्रान्ति औद्योगिक क्रान्ति थी जिसने यूरोप के देशों के हाथ में मशीनें और ऊर्जा के नये साधन दे दिये । इससे उनके कारखाने दिन-रात चलने लगे । इसने कच्च्े माल की भारी जरूरत पैदा की । दुनिया भर से कच्च माल बटोरने के लिए ये देश अमरीका, अफ्रीका और एशिया में निकल पड़े और सारे हथकण्डे अपनाकर यहाँ के देशों को अपना उपनिवेश बना डाला ।
पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में दूसरी क्रान्ति हुई, सूचना तकनीकी क्रान्ति । टेलिविजन, कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, इण्टरनेट जैसे उपकरण प्रचार के मानव मन-मस्तिष्क को प्रभावित करने में बेहद उपयोगी सिद्ध हुए । पुराने उपनिवेशवादी देशों का उपनिवेशों पर शिकंजा दूसरे महायुद्ध के बाद ढीला पड़ गया जो लूट का तंत्र उपनिवेशकाल में खड़ा कर लिया था, वह टूटने लगा । लेकिन दुनिया भर की धन-दौलत पर पलने वाले लोग आसानी से हार मानने वाले नहीं थे। सूचना तकनीकी का भरपूर लाभ उठाकर उनकी विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियां दुनिया भर में फैल गयी । उन्होंने शरीर नहीं, मस्तिष्क पर हमला किया।
उपनिवेशवादी ताकतों ने जिन देशों को अपना उपनिवेश बनाया, उनकी कमजोरियों का लाभ उठाया। भारतीय समाज में जातिगत ऊँचनीच, धार्मिक भेदभाव, रियासतों के आपसी झगड़ों को समाज को तोड़ने और अपना आधिपत्य जमाने में भरपूर उपयोग किया आज के दूसरे तरह से उपनिवेश बनाने वाले कारपोरेट मनुष्य की दो दुर्बलताओं-हिंसा और सैक्स को अपने आक्रामक विज्ञापनों मंे इस्तेमाल कर रहे हैं । टेलीविजन चैनलों पर अपने सामानों के विज्ञापनों में युवा मन में थ्रिल पैदा करने के लिए मारधाड और कामुक दृश्यों को बार-बार पेश करना अब आम बात हो गयी है । इन विज्ञापनों का मूल उद्देश्य इच्छाओं का उत्पीड़न करना होता है और इसमें स्त्री शरीर का उपयोग करने के लिए कम्पनियां लाखों रुपये खर्च करती हैं।
कम्प्यूटर और इण्टरनेट दूर संचार के अत्यन्त प्रभावी माध्यम बन गये हैं । ज्ञान-विज्ञान के सम्प्रेषण में इनकी उपयोगिता ने कमाल कर दिया है परन्तु इसका एक अन्धेरा पक्ष है। हजारों वेबसाइट इनमें भरे हुए हैं जिन्होंने पोर्नोग्राफी की सारी सीमाएँ लाँध दी हैं। दिन-रात ये बेवसाइट लोगों, खासतौर से किशोर-किशोरियों के मस्तिष्क में अश्लीलता परोस रहे हैं । ये युवजन घण्टों समय इन्हीं वेबसाइटों पर विचरण करते हुए बिताते हैं।
मोबाइल फोन सूचना तकनीकी क्रान्ति की अनूठ ी भंेट है। 'दुनिया मेरी मुट्ठी में` का विज्ञापन गलत नहीं है । क्षणभर में दुनिया के किसी कोने में सम्पर्क करने की सुविधा मोबाइल फोन ने प्र्रदान कर दी है । बातें न भी करनी हों तो लाखों लोगों को अपना संदेश एसएमएस से भेजा जा सकता है। बड़ी-बड़ी कम्पनियों को तरुणों के मन का संयम का बाँध तोड़ना जरूरी लगा क्योंकि संयमपूर्ण मन इच्छाआंे का दमन करता है, उन्हें सीमित करता है जबकि कम्पनियाँ चाहती हैं कि लोगों की इच्छाएँ बढें तभी वे नये-नये सामान और सेवाएँ खरीदेंगे, कम्पनियों का लाभ बढ़ेगा। इस लाभ वृद्धि को ही आज विकास माना जाता है। एसएमएस भेजने और अश्लील चेटिंग को बढ़ावा देकर कारपोरेट जगत युवा मन के उद्दीपन में लगा हुआ है।
टेलीविजन, इण्टरनैट, मोबाइल के आधुनिक प्रचार माध्यमों के साथ-साथ कारपोरेट, परम्परागत तरीकों - बड़े-बड़े होर्डिंग लगाने और दीवारों पर पोस्टर चिपकाने पर करोड़ों रुपये खर्च कर रहे हैं। उन पर लिखे संदेश भ्रामक और झूठ े तो होते ही हैं, उन पर अधनंगी युवतियों के चित्र दिखाकर युवको और किशोरों के मन पर कुत्सित प्रभाव डालते हैं ।
कारपोरेटों की इन सारी चेष्टाओं का सीधा असर होता है, दर्शक की निम्नवृत्तियोंको उकसाना, उनमें अनेक प्रकार की इच्छाएँ जगाना । इन दबी हुई इच्छाएं मनोविकार तरह-तरह की अश्लील हरकतांे में निकलते हैं । पूरे समाज में अश्लीलता, असंयमित मनोविकार का ताँता फैल गया है। नतीजन कहीं भी बालिका से वृद्धा तक स्त्रियाँ सुरक्षित महसूस नहीं करती ं। महिलाओं से छेड़छाड़, बलात्कार सामूहिक बलात्कार और कत्ल की खबरों से अखबार पटे पड़े रहते है ।
आज के कारपोरेटी विकास मॉडल ने भूमि को पानी को, तो बाजार माल तो बना ही दिया है स्त्री भी उससे नहीं बची । उसे भी बाजार की वस्तु बनाने में कारपोरेटी मीडिया तंत्र लगा हुआ है । एक और धन्धा शुरू किया है- लड़कियों के ब्यूटी कंटेस्ट सौन्दर्य प्रतियोगिताएँ । ये प्रतियोगिताएँ विश्व स्तर, राष्ट्रीय स्तर से शुरू होकर कस्बे और विद्यालय स्तर तक प्रायोजित की जा रही हैं। स्त्री के बाजारीकरण का यह सबसे घिनौना तरीका है । इन प्रतियोगिताओं ने स्त्री को देखने की दृष्टि बदल दी है । स्त्री शक्ति और सृष्टि की प्रतीक है, यह भाव गायब हो गया है, अब स्त्री को कुछ मापों में समेट लिया है ।
इन सारी करतूतों का नतीजा साफ दिख रहा है । स्त्रियाँ कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं । आये दिन खबरे आती है कि वे घर पर, सड़क पर चलते, बसों या रेल में यात्रा करने में, कार्यालय में कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। लड़कियों के माता-पिता चिन्ता में डूबे रहते हैं जब तक उनकी बेटी विद्यालय या आफिस से लौट नहीं आती ।
देश की राजधानी दिल्ली महिलाओं के प्रति दुराचार के लिए शायद देश में सबसे आगे है । इसका प्रमाण यह है कि दिल्ली सरकार ने महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए आमजन से अपील की है और यह अपील जगह-जगह पर बड़े होर्डिग लगाकर की है ।
मूल बात यह है कि आज समाज में व्यापक पैमाने पर महिलाओं पर अपराध बढ़ रहे हैं, अश्लीलता बढ़ रही है और इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है मीडिया । चूँकि मीडिया कारपोरेट घरानों के कब्जे मेें है इसलिए समस्या का समाधान कारपोरेटों से टक्कर लेने में ही निकलेगा। इसका एक उदाहरण अमरीका में मिलता है । १९९६ में अमरीका में एक आयोग बिठाया गया । सामाजिक पुनरुत्थान के लिए राष्ट्रीय आयोग (छरींळिरिश्र उिााळीीळिि षिी उर्ळींळल ठशशिुरश्र) इसमें कहा गया कि अमरीका में नैतिक पतन तेजी से हो रहा है, इसके कारण पता लगाइये । वहाँ के एक सामाजिक संग ठन ने इस आयोग को लिखा नैतिक पतन के कारण ढूँढने के लिए अमरीका की गली कूँचे में मत घूमिए, पतन हो रहा है मीडिया के कारण, और मीडिया है कारपोरेटों के हाथ में । उसने एक साल में मीडिया ने क्या धर्तकर्म किये, इसके प्रमाण भी आयोग को दिये ।
जिस समाज में महिलाएँ अपने को सुरक्षित महसूस न करें, अपनी इज्जत न बचा सकें, उसे सभ्य समाज नहीं कहा जा सकता। सवाल यह है कि क्या किया जाये । सरकारों से कोई उम्मीद नहीं, वे कारपोरेटों के लिए कुछ भी कर सकती हैं । इस समस्या से जूझने के लिए लोगों को, खासतौर से युवाओं को खड़ा होना होगा । स्कूल-कालेजों में अपसंस्कृति विरोधी अभियान चलाया जाय । लड़के-लड़कियाँ तैयार हों कि ऐसे विज्ञापन नहीं चलने देंगे जो मानसिक विकृति पैदा करते हों । गन्दे पोस्टरों को फाड़ना होगा, गन्दे होर्डिग को काला पोतना होगा । गन्दे विज्ञापन छापने वाले अखबारों को चेतावनी दी जायेगी और न मानने पर उनकी प्रतियाँ फूँकी जायेंगी तब स्थिति बदलेगी ।

पर्यावरण परिक्रमा

मुम्बई सबसे बड़ा शहर, रहते हैं ५ करोड़
देश की ७९ प्रतिशत आबादी अभी भी गाँव में बसती है । आजादी के बाद यह पहला मौका है, जब आबादी की बढ़त दर में खासी गिरावट हुई । भारतीय १२१ करोड़ हैं । इनमें से ८३.३ करोड़ लोग गाँव में बसे हैं । ३७.७ प्रतिशत शहरों में रह रहे हैं । साथ ही यह पहला मौका है, जब शहरों की आबादी दर गाँवों की अपेक्षा ज्यादा बढ़ी है । देश में लिंगानुपात बढ़ा है । आबादी के लिहाज से मुम्बई सबसे बड़ा शहर और उत्तरप्रदेश सबसे बड़ा राज्य है ।
आजादी के बाद से यह पहला मौका है कि जब शहरी क्षेत्रों में आबादी गाँवो की तुलना में ज्यादा बढ़ी है । जनगणना आयुक्त और भारत के रजिस्ट्रार जनरल सी. चंद्रमौली ने बताया कि ग्रामीण शहरी वितरण क्रमश: ६८.८४ और ३१.१६ प्रतिशत है । शहरीकरण का स्तर २००१ के २७.८१ प्रतिशत से बढ़कर २०११ में ३१.१६ प्रतिशत हो गया है । ग्रामीण आबादी का अनुपात ७२.१९ प्रतिशत से घटकर ६८.८४ प्रतिशत रह गया है । चूँकि ग्रामीण इलाके में आबादी की बढ़त दर घटी है, इसीलिए कुल वृद्धि दर गिरी है। फिर भी ग्रामीण इलाकों में पिछले दशक के मुकाबले ९ करोड़ ज्यादा है ।
शहरों में सबसे ज्यादा आबादी के मामलों में मुम्बई सबसे आगे है और राज्यों में उत्तरप्रदेश । आँकड़े बताते है कि मुम्बई की आबादी ५ करोड़ है । साथ ही उत्तरप्रदेश में देश की १८.६२ प्रतिशत आबादी रहती है, जबकि महाराष्ट्र में देश की १३.४८ प्रतिशत शहरी आबादी रहती है ।
शिशु लिंगानुपात में गिरावट आई है । ग्रामीण क्षेत्रों में ८९ लाख बच्च्े कम हुए, जबकि शहरी क्षेत्रों में ३९ लाख बच्च्े बड़े । आँकड़े बताते है कि देश में लिंगानुपात बढ़ा है । २००१ में यह प्रति हजार ९३३ था, २०११ में यह ९४० हो गया । ग्रामीण इलाकों में यह दस साल पहले के ९४६ से ९४७ से हो गया, जब कि शहरों में ९०० से ९२६ हो गया है।

समुद्र की दुर्गंध के कारणों पर वैज्ञानिकों की पहल

कुछ वैज्ञानिको का कहना है कि नदियो से मीठा पानी और अन्य स्त्रोतों का बहता पानी आने की वजह से समुद्र में लवणता कम हो गई है जिससे खारे पानी में पाई जाने वाली शैवाल खत्म हो गई और दुर्गन्ध निकलती है । अन्य अनुसंधानकर्ता इससे सहमत नही है । इनमे से कुछ की राय है कि भू-गर्भीय हलचल दुर्गध की वजह है ।
केरल विवि के अनुसंधानकर्ता के एक दल ने इस विचित्र घटना का कोल्लम और तिरूअंनतपुरम के तटों पर अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि शैवाल में तीव्र वृद्धि के कारण बैक्टीरिया का क्षरण हुआ जिससे यह दुर्गध निकलती है ।
वैज्ञानिकों का कहना है कि केरल के कुछ भागों में पिछले दिनों से समुद्र से आ रही दुर्गध से भयभीत होने की जरूरत नहीं है । बहरहाल इसके कारणों के बारे में वैज्ञानिक एकमत नहीं है । केरलविवि के जलीय जीव विज्ञान और मत्स्यिकी विभाग के अनुसंधानकर्ता ने ए.बीजू कुमार की अगुवाई में सिफारिश की कि सरकार शैवाल में तीव्र वृद्धि की पहचान करने के लिए तटीय जल की गहन जांच करे क्योंकि ऐसा होने पर विषैले तत्व उत्पन्न हो सकते है ।
इन अनुसंधानकर्ता ने कहा कि समुद्री पानी के रंग, लवणता, तापमान, पीएच पोषक तत्वों, प्लैकटन, सूक्षम जीवाणुआें और मछलियों के मरने की दर जैसे विभिन्न मानकों का अध्ययन करने के बाद उन्होनें यह निष्कर्ष निकाला है । प्लैकटन उन सूक्ष्म जीवों और वनस्पतियों को कहा जाता है जिनकी खारे पानी में बहुतायत होती है और जिन्हें मछलियां खाती है । कोल्लम स्थित एसएन कॉलेज में प्राणीशास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक डॉ. सैनुदीन पत्ताझी कहते है कि इस दुर्गध का कारण भूगर्भीय हलचल जैसे हाल ही में केरलतथा अन्य राज्यों में आए मामूली तीव्रता के भूकंप के झटके आदि है ।

अब तंबाकू से भी बन सकेगी सेहत

तंबाकू का नाम आते ही सिगरेट, खैनी, गुटखा की चिन्ताजनक तस्वीर उभरती है, लेकिन जल्द ही इसका इस्तेमाल सुंदरता बढ़ाने, बुढ़ापे को दूर भगाने के लिए भारत में भी होने लगेगा । और तो और अगर देश में चल रहा कृषि अनुसंधान रंग लाया तो तम्बाकू के तेल को खाद्य तेल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकेगा ।
सुन्दरता के लिए तंबाकू के इस औषधीय उपयोग की तकनीक का पेटेंट तो आंध्रप्रदेश के राजामुंदी के केन्द्रीय तंबाकू अनुसंधान संस्थान ने हासिल कर लिया है । अब इसके उद्यमियों को व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए हस्तांतरित करने की प्रक्रिया बाकी है ।
तम्बाकू की मौजूदा किस्म का सिगरेट, खैनी या गुटखे के लिए इस्तेमाल होने का खतरा होता है, इसीलिए अब एक नई किस्म तैयार हो रही है जिसका उपयोग सिर्फ औषधीय या तेल के लिए हो सकेगा । भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तहत काम करने वाले इस संस्थान के निदेशक वैज्ञानिक डॉ. वी.कृष्णमूर्ति ने बताया - इससे किसी भी रूप में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक पदार्थ नहीं बनाया जा सकेगा । तंबाकू की पत्तियों से निकाले जाने वाले सोलनसेल का इस्तेमाल टीबी के उपचार, घावों के भरने के लिए लिपिड तत्वों की कमी को दूर करने और सुन्दरता बढ़ाने के लिए एंटी ऑक्सीडेंट के रूप में हो सकता है ।

सन् २०३० तक गैर-संंक्रामक रोगोंसे होगी ४० लाख मौतें

भारत जैसे देश में टीबी, मलेरिया या चिकनगुनिया जैसी बीमारियों की बजाए गैर-संक्रामक बीमारियां सबसे बड़ी चुनौती बनने जा रही है । एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार २०३० तक देश में गैर-संक्रामक रोगों (डायबिटीज, केंसर, दिल की बीमारी और ब्लड प्रेशर की बीमारी) से मरने वाले लोगों की संख्या ४० लाख होगी । २००५ में गैर-संक्रामक रोगों से मरने वाले लोगों की संख्या ५३ प्रतिशत थी, जबकि २०३० तक यह आंकड़ा ६७ फीसदी ज्यादा होगा । पब्लिक हेल्थ फाउडेंशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) संस्थान द्वारा जारी किए गए इस रिपोर्ट के अनुसार गैर-संक्रामक रोगों से मरने वालों में दिमागी समस्याआ के कारण मरने वालों की तादाद भी काफी होगी।
पीएचएफआई प्रमुख डॉ. श्रीनाथ रेड्डी द्वारा हाल ही में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को सौपी गयी इस रिपोर्ट में बताया गया है कि गैर-संक्रामक रोगों में सबसे बड़ा कारण ब्लड प्रेशर की परेशानी बनने वाली है । वर्ष २००० हाइपरटेंशन के १.१८ करोड़ मामले थे जो २०२५ तक २.१३ करोड़ हो जाएंगे । देश में मौत का दूसरा बड़ा कारण डायबिटीज को बताया गया है । रिपोर्ट बताती है कि २०२५ तक करीब ८७ मिलीयन लोग डायबिटीज के मरीज होगें । युवाआें और वयस्कों के अलावा बच्चें में बढ़ते तंबाकू का इस्तेमाल को एक बड़ी समस्या बताया गया है ।
रिपोर्ट तैयार करने वाले और पीएचएफआई संस्थान प्रमुख डॉ. श्रीनाथ रेड्डी का कहना है कि विकसित देशों के मुकाबले देश के युवाआेंऔर गरीबों में बढ़ते गैर-संक्रामक रोग चिंता का विषय है । सरकार को गैर-संक्रामक रोगों से निबटने के लिए एक सुनियोजित रणनीति तैयार करने की जरूरत है ।

बांधवगढ़ में होगी टाइगर सफारी
मध्यप्रदेश में बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में बढ़ते पर्यटकों के दबाव को कम करने के उद्देश्य से प्रबंधन ने टाइगर रिजर्व की सीमा के भीतर टाइगर सफारी कराने का निर्णय लिया है । टाइगर सफारी अर्थात् कंफर्म टाइगर रिजर्व इसके तहत बाड़े के भीतर से पर्यटकों को बाघ दर्शन कराया जाता है । प्रबंधन के मुताबिक जो भी पर्यटक महज टाइगर देखने के लिए देश-विदेश से बांधवगढ़ पहुंचते है । उनके लिए टाइगर सफारी उपयुक्त रहेगा ।
प्रबंधन के उच्च् सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार टाइगर सफारी कराने के लिए प्रधान मुख्य वन सरंक्षक द्वारा टाइगर रिजर्व के अधिकारियों को आवश्यक निर्देश दिए गए है एवं साथ ही शासन से आवश्यक अनुमति के लिए प्रस्तावना तैयार की जा रही है ।
प्रबंधन के मुताबिक बढ़ती पर्यटकों की संख्या से टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में पर्यटकों का दबाव दिनों दिन बढ़ रहा है । इससे कोर एरिया के रहवासी प्रबंधन से नाखुश नजर आने लगे थे । पीछे की कई घटनाआें पर नजर डाले तो प्रबंधन व ग्रामवासियों के बीच हुई तीखी झड़प व मारपीट इसी दबाव का परिणाम कही जा सकती है ।

प्रदेश चर्चा

बिहार : सबसे तेज विकास का सच
राजीव कुमार

बिहार को वृद्धि दर के पैमाने पर सर्वोच्च् राज्य का दर्जा प्राप्त् हुआ है । परन्तु वहां की जमीनी हकीकत कुछ और ही दास्तान बयां कर रही है । दलितों और महादलितों के मध्य बढ़ती भुखमरी राज्य के विकास के दावों पर ग्रहण लगा रही है ।
बिहार में राज्य सरकार के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती दलितों को कुपोषण एवं भुखमरी से बचाने की है । सरकार ने इस दिशा में प्रयास तो किए है, लेकिन इन तमाम प्रयासों का नतीजा सिफर रहा है । वंचित समुदायों को मुख्य धारा से जोड़ने की दिशा में नीतीश सरकार ने अनुसूचित जातियों में मुसहर, डोम, मेहतर, सरीखी तेईस जातियों को लेकर महादलित आयोग बना डाला । आयोग के जरिये दर्जनों कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं । पहले से संचालित पोषाहार कार्यक्रम भी अलग से चलाए जा रहे हैं । लेकिन इस सच्चई का स्याह पक्ष यह है कि तमाम कवायदों के बावजूद बिहार में भूख से मौत के आरोप आए दिन सामाजिक संगठनों द्वारा लगाए जाते है ।
ऐसे ही कुछ आरोप नीतीश सरकार की पहली पारी की समािप्त् के बाद भी लगे है । स्वयं महादलित आयोग ने ही अपनी रिपोर्ट में भुखमरी, कुपोषण, बीमारी एवं खाद्य असुरक्षा में घिरे महादलितों की भयावह दशा का वर्णन किया था । गया के एक मामले में जनसुनवाई के दौरान सर्वोच्च् न्यायालय के आयुक्त सहित ज्यूरी के सदस्यों ने माना कि बिहार के गांवों में लोग भूख से मर नहीं रहे हैं, बल्कि भूख के साथ जी रहे है । यह अलग बात है कि यह अखबारों की सुर्खियां नहीं बन पाती है और न ही बिहार सरकार यह मानने को तैयार होती है । देश के अन्य स्थानों की तरह इस प्रदेश में भी एक ओर भुखमरी की घटना होती है तो दूसरी ओर इसे झुठलाने के प्रयास भी साथ-साथ चलते हैं । मरने वालों को अक्सर कालाजार, मलेरिया, क्षयरोग आदि बीमारियों से ग्र्रसित बताकर जिम्मेवारियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है ।
सर्वोच्च् न्यायालय के राज्य सलाहकार द्वारा जारी एक आंकड़ो में बताया गया है कि प्रदेश में जारी १५० से अधिक लोगों की मौत नीतीश कुमार के शासनकाल में भूख से हो चुकी है। गौरतलब है कि ये सभी महादलित समुदाय के थे । एडवाईजर फॉर बिहार द सुप्रीम कोर्ट कमिश्नर ऑन राइट टूट फूड एवं ऑक्सफैम इंडिया द्वारा जारी एक आंकड़े में यह भी बताया गया है कि लोक कल्याणकारी योजनाएं इन भूखों को अनाज देने में नाकामयाब साबित हुई हैं । बिहार में भुखमरी की पुष्टि २००८ की ग्लोबल हंगर रिपोर्ट से भी होती है । रिपोर्ट के अनुसार भारत में सर्वाधिक भूखे लोग बिहार के साथ झारखंड और मध्यप्रदेश में हैं ।
बिहार ही नहीं पूरे देश में बढ़ रही गरीबों की संख्या में दलित ही सर्वाधिक है । इनमें यकीनन गरीबी के साथ-साथ कुपोषण भी व्याप्त् है । तमाम आंकड़ो में बिहार में पिछले कुछ वर्षो में कुपोषण का दायरा बढ़ा है । अध्ययन के अनुसार आपदारहित इलाकों की अपेक्षाकृत आपदाग्रस्त इलाकों में गरीबी अधिक विद्यमान है ।
एक ओर इनकी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति बदहाल है तो दूसरी ओर बाढ़ एवं सुखाड़ की मार है जिसने इस पूरे समुदाय को खाद्य असुरक्षा की अंधेरी सुरंग में ढकेलने में मदद की है । लगातार सूखा एवं खेती-किसानी की मार से जीवन जीने के नैसर्गिक स्त्रोतों पर भी सकंट के बादल मंडराने लगते हैं । रोजगार के साधन बेहत सीमित हो जाने की वजह से लोगों के सामने भरपेट भोजन का संकट खड़ा हो गया है । बीते वर्षों में इनकी स्थिति सुधरने के बजाय खराब हुई है । यह भी देखा गया है कि प्राकृतिक आपदाआें से प्रभावित क्षेत्रों में लम्बे समय के लिए खाद्य असुरक्षा की स्थिति पैदा हो जाती है ।
इसका सर्वाधिक प्रभाव समाज के सबसे कमजोर तबकों पर ही पड़ता है । कल तक जिस गांव में पशुधन किसानों की पूंजी थी आज हरे चारे के अभाव में पशुपालन असाध्य काम होता जा रहा है । जलसंरक्षण व सिंचाई के परम्परागत स्त्रोतों से समृद्ध प्रांत में सिंचाई की स्थिति बिगड़ चुकी है । परम्परागत सिंचाई के परम्परागत स्त्रोतों से समृद्ध कई इलाकों में टैंकर के जरिये पेयजल पहुंचाया जा रहा है । परम्परागत पद्धतियों के संवर्द्धन एवं संरक्षण के बजाय बीते वर्षो में नई चुनौतियों खड़ी हो गयी है । खाद्य असुरक्षा से घिरे समुदायों को संकट से उबारने का काम तो राज्य का होता है । तमाम सुरक्षात्मक उपायों द्वारा इसके प्रभावों को कम किया जा सकता था, लेकिन इस दिशा में ठोस कदमों की कमी बनी रहीं ।
भूख से मौत पर सवाल रोजगार एवं कल्याण की योजनाआें से क्रियान्यवन पर भी उठते है । भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक (सीएजी) ने लगातार बिहार में पोषाहार योजनाआें के खिलाफ अपनी आपत्ति दर्ज की है और बड़े पैमाने पर अनियमितताआें को उजागार किया है । इतना ही नहीं राज्य में मनरेगा के तहत हरियाली लाने के कार्यक्रम अन्य कार्यक्रमों की तरह ही विफल साबित हुए और परिसम्पत्तियां सृजित करने की कवायद दिशाहीन बनकर अंधेरे में तीर चलाने जैसा हो गई । मनरेगा में प्राकृतिक सिंचाई के स्त्रोतों के संरक्षण का काम सही दिशा के अभाव में निर्धारित लक्ष्यों से दूर ही रहा । भ्रष्टाचार के साथ मंहगाई की मार ने आम लोगों की कमर तोड़ दी है। बिहार में वंचितों के बीच कुपोषण की समस्या को समग्रता में समझने की जरूरत है, लेकिन वर्तमान सरकार की नीतियों से यह नहीं लगता है कि उसके ऐजेंडे में भुखमरी को लेकर संजीदगी बची है ।
सरकार द्वारा विकास को लेकर संजीदगी बची है । सरकार द्वारा विकास को लेकर आम लोगों में भ्रम की स्थिति पैदा करने के बजाय सच्चईयों के मद्देनजर ठोस कार्यक्रमों के जरिये विकास में सबसे पीछे खड़े बिहार के वंचितों को भरपेट भोजन मुहैय्या कराने पर अविलंब सोचना होगा ।

ज्ञान विज्ञान

गुब्बारे घटाएगा ग्लोबल वार्मिग

अगर सबकुछ ठीकठाक रहा तो आने वाले वक्त में आपको गर्मी कम महसूस होगी । वैज्ञानिकों के एक दल ने इसके लिए तमाम तरह की मशक्कत करने के बाद एक विशाल गुब्बारा बनाया है जो आसमान में छोड़ा जाएगा । माना जा रहा है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ते जा रहे वैश्विक तापमान को इससे २ डिग्री सेल्सियस तक कम किया जा सकेगा ।



विशालकाय गुब्बार आकार में स्टेडियम के बराबर होगा । इसके भीतर कुछ विशेष प्रकार के रसायन होगें, जिन्हें गुब्बारे के नीचे लगे पाइप की मदद से आसमान में छोड़ा जाएगा । ये रसायन सूर्य की तीखी किरणों को परिवर्तित करके उन्हें वापस कर देगें । परिणाम ये होगा कि तपिश वाली किरणें धरती तक नहीं पहुंच पाएगी और तापमान नहीं बढ़ेगा । गुब्बारे के नीचे एक पाइप लगा होगा, जिसका संपर्क धरती पर तैर रहे एक जहाज से होगा, जो रसायनों को पंप करेगा ।
वैज्ञानिकों को इसकी प्रेरणा कहां से मिली ? यह तथ्य भी कम दिलचस्प नहीं है । दरअसल, १९९१ में फिलीपींस के माउंट पिनाटेबो में एक ज्वालामुखी फटा था, उससे निकलने वाली गैंसे जब वायुमण्डल में पहुंची तो वहां के तापमान में आधा डिग्री की कमी आ गई । वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि अगर धरती से ऐसा ही प्रयोग किया जाए तो ग्लोबल वार्मिग से निपटने में मदद मिलेगी । इसे जियो इंजीनियरिंग नाम दिया जा रहा है ।
प्रयोग के लिए एक गुब्बारा तैयार कर लिया गया है और इसे अगले माह नॉरफ्लॉक से छोड़ा जाएगा । गुब्बारे में जो रसायन होगें, वह बेहद सूक्ष्म आकार के होगे और शीशे का काम करेगे । ऐसे १० गुब्बारे छोडे जाएंगे जिनमें ६६० फीट प्रत्येक गुब्बारे की लंबाई होगी, इनमें १.६ मिलियन पाउंड खर्च होगें ।

नमकीन पानी गै से बनी पृथ्वी

पृथ्वी के विकास प्रक्रियाआें से जुड़ी नई जानकारियां मिलने का वैज्ञानिकों ने दावा किया है जिसमें बताया गया कि वायुमण्डल के नमकीन पानी और गैसों से हमारे ग्रह का अंदरूनी भाग तैयार हुआ । बहुत पहले से यह दलील दी जाती रही है कि पृथ्वी अपनी प्रारंभिक अवस्था में पिघले चट्टान से लिपटी थी और वहां से उसने आज तक का सफर तय किया जहां ठोस चट्टानी परतें, महासागर और वायुमण्डल है ।

अब युनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न के डॉ. मार्क केंड्रिक की अगुवाई में एक अंतरराष्ट्रीय दल ने अपने अध्ययन में पाया है कि वायुमण्डल की गैसे सब्डक्शन नामक एक प्रक्रिया के जरिए धरती के भीतर आपस मेंघुली मिली । डाँ. केड्रिंक ने कहा कि यह खोज महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे पहले यह माना जाता था कि पृथ्वी के भीतर निष्क्रिय गैस का उद्भव आदि काल से रहा और सौर प्रणाली के आस्तित्व में आने के समय से वह वहां पहुंची । उन्होनें कहा कि हमारा अध्ययन और भी ज्यादा जटिल इतिहास के बारे में बताता है जहां गैस पिघले परत से लिपटी पृथ्वी में घुल गई ।

नपुंसक नर मादा च्छर को छल सकते है

यह विचार तो काफी समय से हो रहा है कि यदि शुक्राणु विहीन नर मच्छर पर्यावरण में छोड़ दिए जाएं तो इस मलेरिया वाहक कीट पर काबू पाया जा सकता है । इसके पीछे सोच यह है कि ऐसे शुक्राणु विहीन नर मच्छरों से समागम के बाद मादा मच्छर संतान पैदा ही नहीं करेगी ।
इस तरह से मच्छरों पर नियंत्रण करने में किसी कीटनाशक रसायन का इस्तेमाल भी नहीं करना पड़ेगा । ये कीटनाशक जहरीले तो होते ही है, मच्छर इनके विरूद्ध प्रतिरोधी भी हो जाते हैं । मगर आज तक इस विचार को मच्छरों पर आजमाया नहीं गया था ।
अब प्रयोगशाला में किए गए परीक्षणों से पता चला है कि ऐसे शुक्राणु विहीन मच्छर भी मादा को समान रूप से आकर्षित करते हैं । यानी यह पहली बार दर्शाया गया है कि उपरोक्त रणनीति कारगर हो सकती है ।
वैसे नपुंसक नर के उपयोग की रणनीति को अन्य कीटों के संदर्भ में इस्तेमाल किया भी गया है । मगर इसे मच्छरों पर लागू करने में काफी पापड़ बेलने पड़े है । आम तौर पर नपंुसकता पैदा करने के लिए विकिरण का उपयोग किया जाता है । मगर मच्छर के मामले में इससे नर मच्छर की फिटनेस पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है और वे सामान्य मच्छरों से होड़ नहीं कर पाते ।
इसके अलावा एक सवाल यह भी रहा है कि मादाएं इन शुक्राणु विहीन मच्छरों को क्या प्रतिक्रिया देगी । जैसे फ्रूटफ्लाई ड्रॉसोफिला के मामले में देखा गया है कि जब एक नर से समागम के बाद मादा के शरीर में शुक्राणु जमा हो जाते है, तभी वह अन्य नरों से समागम करने से बाज आती है और अंडे देने को प्रेरित होती है । यानि यदि उसका समागम किसी शुक्राणु विहीन नर मक्खी से होगा, तो वह अन्य नरोंसे समागम करती जाएगी ।
हम मच्छरों के प्रजनन के विषय में बहुत कम जानते हैं । लिहाजा उपरोक्त सवालों का जवाब पाने के लिए इंपीरियल कॉलेज, लंदन की फ्लेमिनिया केटरूक्सिया और उनके साथियों ने ९६ शुक्राणु विहीन नर मच्छरों तैयार किए । इसके लिए उन्होंने विकिरण का नहीं बल्कि एक अन्य तकनीक आर.एन.ए. इंटरफरेंस का उपयोग किया । इस तकनीक के उपयोग का फायदा यह हुआ है कि इन मच्छरों के शेष गुणधर्मो पर कोई असर नहीं हुआ । ये शुक्राणु विहीन मच्छर एकदम सामान्य मच्छरों की तरह व्यवहार करते थे ।

प्लूटो का चौथा चंद्रमा खोजा गया

ब्रह्माण्ड को विडंबनाआें से प्रेम है । पांच साल पहले प्लूटो से ग्रह का रूतबा छिन गया था । अब हाल ही में खगोलविदों ने प्लूटो का एक और चंद्रमा खोजा है, जिसके चलते अब इसके आसपास चार चंद्रमा हो गए है । प्लूटो के इस नन्हे चंद्रमा का जन्म छोटे कणों की उसी टक्कर से हुआ होगा जिसने अन्य चन्द्रमाआें को जन्म दिया था ।

इस नए चंद्रमा की खोज हबल दूरबीन ने की है । फिलहाल इस चंद्रमा का नाम पी४ रखा गया है । खगोलविदों के अनुसार इसका व्यास १३ से ३४ किलोमीटर के बीच है । इस खोज दल के मुखिया, सेटी इंस्टीट्यूट, कैलिफोर्निया के मार्क सॉल्टर का कहना है कि यह अचरज की बात है कि हबल कैमरा ५ अरब किलोमीटर से अधिक की दूरी पर स्थित इतने छोटे पिंड को देख पाया ।
प्लूटो के अन्य तीन चंद्रमा पहले से ज्ञात है । १९७८ में खोजा गया चैरॉन इनमें सबसे बड़ा है । इसके व्यास १००० किलोमीटर के आसपास है । निक्स और हाइड्रा को हबल चित्रों में २००५ में खोजा गया था । ये चैरॉन से बहुत छोटे हैं और इनका व्यास क्रमश: ३२ और ११४३ किलोमीटर है ।
माना यह जा रहा है कि ये चारों चंद्रमा एक साथ एक ही समय पर निर्मित हुए होंगे । खोज दल के सदस्य, मैरीलैण्ड स्थित जॉन हॉपकिंस विश्वविघालय के एप्लाइड फिजिक्स लेबोरेटरी के हॉल वीवर का कहना है, प्लूटो के इस नए चंद्रमा की खोज से इस बात की पुष्टि होती है कि प्लूटो का निर्माण भारी टक्करों के साथ ४.६ अरब वर्ष पहले हुआ होगा ।
प्लूटो २०१५ मिशन टीम के एक सदस्य एलन स्टर्न कोलेरेडो स्थित साउथवेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में हैं । वे इस खोज से बहुत खुश हैं लेकिन इसका मतलब है कि प्लूटो के आसपास नजर रखनी होगी । वहां उपस्थित अनेक पिंड न्यू हॉराइजन अंतरिक्ष यान के लिए खतरा बन सकते हैं । उनको आशंका है कि हमारा अंतरिक्ष यान कहीं उस मलबे में न फंस जाए जो प्लूटो के छोटे चन्द्रमाआें निर्माण के दौरान हुई भारी टक्करों से पैदा हुआ है ।


हमारा देश

दुनिया का कूड़ाघर बनता भारत
नरेन्द्र देवांगन

गुजरात के अलंग तट पर विश्व का सबसे बड़ा कबाड़खाना है । फ्रांस के विमानवाही पोत क्लिमेंचू को यहां पहियों पर चढ़ाकर गोदी तक लाया जाना था । जहां गैस कटर से लैस सैकड़ो मजदूर इसके टुकड़े-टुकड़े करते । लेकिन पर्यावरण समूह ग्रीनपीस ने यह चेतावनी दी थी कि इस युद्धक विमानवाही पोत में सैकड़ों टन एस्बेस्टस भरा पड़ा है, जो पर्यावरण के लिए घातक है ।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और इस जहाज को तट पर ही रोक दिया गया । बाद में फ्रांस के राष्ट्रपति ने जहाज को वापस आपने देश भेजने का आदेश दिया । इसी तरह एक अन्य विषैले निर्यात से भरे नार्वे के यात्री जहाज लेडी २००६ की तुड़ाई पर भी सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी ।
१५ नवम्बर २००९ को कोटा (राजस्थान) के कबाड़ में एक भीषण विस्फोट हुआ जिसमें तीन व्यक्ति मारे गए व अनेक घायल हुए । आसपास की इमारतें भी क्षतिग्रस्त हुई । यह विस्फोट कबाड़ में से धातु निकालने के प्रयास के दौरान हुआ । यह हादसा इकलौता हादसा नहीं था । कबाड़ में विस्फोट की अनेक वारदातें हाल में हो चुकी हैं ।
पश्चिम के औघोगिक देशों के सामने अपने औघोगिक कचरे के निपटान की समस्या बहुत भयानक है। इसलिए पहले वे अपना कचरा जमा करते है । फिर उस कचरे को किसी कल्याणकारी योजना के साथ जोड़कर रीसाइक्लिंग प्रौद्योगिकी सहित किसी गरीब या विकासशील देश को बतौर मदद पेश कर देते हैं या बेहद सस्ते दामों पर उसे बेच देते हैं । गरीब या विकासशील देशों की सरकारें या वहां की जनता यह सोचती है कि उन्हें सस्ते में काम चलाने की एक प्रौघोगिकी मिल गई । लेकिन लम्बे समय में यह रीसाइक्लिंग एक ऐसे खतरनाक प्रदूषण को जन्म देता है, जिसका अंदाजा हम नहीं लगा सकते ।
इराक युद्ध के समय यहां अमरीकी सेना ने बहुत भीषण बमबारी की थी जिसमें बहुत विनाश हुआ था ।

उसके बाद की घरेलू हिंसा और हमलों ं से भी बहुत विनाश हुआ । इस विनाश का मलबा बहुत सस्ती कीमत पर उपलब्ध होने लगा और व्यापारी इसे भारत जैसे देशों में पहुंचाने लगे क्योंकि यहां इसकी प्रोसेसिंग लुहार या छोटी इकाइयां सस्ते में कर देती हैं । पर उन्हें यह नहीं बताया जाता है कि युद्ध के समय के ऐसे विस्फोटक भी इस मलबे में छिपे हो सकते है और कभी भी फट सकते है । इन विस्फोटकों की उपस्थिति के कारण ही हाल के कुछ वर्षो में कबाड़ के कार्य व विशेषकर लोहे के कबाड़ को गलाने के काम में बहुत सी दुर्घटनाएं हो रही है ।
अब तो कबाड़ के नाम पर रॉकेट और मिसाइलें भी देश में आने लगी हैं । इससे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक नया खतरा पैदा हो गया है । यह हैरत की बात है कि ईरान से लोड होने के बाद भारत के कई राज्यों से गुजरने, दिल्ली पहुंचने और फिर साहिबाबाद स्थित भूषण स्टील फैक्टरी में विस्फोट होने तक किसी ने ट्रकों में भरे कबाड़ की जांच करने की जहमत नहीं उठाई । दिल्ली में तुगलकाबाद स्थित जिस कंटेनर डिपो में ये ट्रक पहुंचे थे, वह खुद १९९१, १९९३ और २००२ के कबाड़ में आई ऐसी विस्फोटक सामग्री की मार झेल चुका है । तब भी यह सामग्री पश्चिम एशिया से आई थी और हर बार वहीं से माल लाया जा रहा है ।
कस्टम विभाग द्वारा बिना जांच के आयातित सामग्री को स्वीकार करने का चलन इसमें सहायक की भूमिका निभा रहा है । कुछ समय पहले उत्तरप्रदेश के साहिबाबाद स्थित भूषण स्टील कारखाने में विस्फोट की घटना ने देश की सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोल दी है । इसका सीधा मतलब यह है कि देश में सक्रिय आतंकवादी संगठन यदि चाहें तो विदेशों से मनमाफिक ढंग से हथियार और आयुध ला सकते है । जब गैर इरादतन यहां विस्फोटक सामग्री पहुंच सकती है, तो इरादतन और पूरी तैयारी करके यहां कुछ भी मंगवाया जा सकता है ।
भारत दुनिया का सबसे पसंदीदा डंपिंग ग्राउंड (कबाड़गाह) है । हम सस्ते मलबे के सबसे बड़े आयातक हैं । प्लास्टिक, लोहा या अन्य धातुआें का कबाड़, ल्यूब्रिकेंट के तौर पर अनेक रासायनिक द्रव और अनेक जहरीलें रसायन, पुरानी बैटरियां और मशीनें हमारी चालू पसंदीदा खरीददारी सूची में है । जब इन्हें इस्तेमाल के लिए दोबारा गलाया जाता है तो इससे निकलने वाला प्रदूषण न केवल यहां की हवा बल्कि मिट्टी और पानी तक में जहर घोल देता है । उस मिट्टी में उपजा हुआ अनाज दूसरी तीसरी पीढ़ी में आनुवंशिक समस्याएं पैदा कर सकता है । लेकिन इतनी दूर तक जांच-परख करने की सतर्कता हमारी सरकार में नहीं है ।
बढ़ते ई-कचरे ने पर्यावरणविदों के कान खड़े कर दिए है । यह कबाड़ लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए एक बड़ा खतरा है । देश में अनुपयोगी और चलन से बाहर हो रहे खराब कम्प्यूटर व अन्य उपकरणों के कबाड़ से पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है । कबाड़ी इस कचरे को खरीदकर बड़े कबाड़ियों को बेच देते है । वे इसे बडे-बड़े गोदामों में भर देते हे । इस प्रकार जगह-जगह से एकत्र किए गए आउटडेटेड कम्प्यूटर आदि कबाड़ बड़ी संख्या में गोदामों जमा हो जाते हैं । इसके अलावा विदेशों से भी भारत में भारी मात्रा में कभी दान के रूप में तो कभी कबाड़ के रूप में बेकार कम्प्यूटर आयात किए जा रहे है । यह ई-कचरा प्राय: गैर कानूनी ढंग से मंगाया जाता है । आसानी से धन कमाने के फेर में ऐसा किया जाता है । कम्प्यूटर व्यवसाय से जुड़े लोगों का मानना है कि हमें अपने देश में बेकार हो रहे कम्प्यूटर की अपेक्षा विदेशों से आ रहे ढेरों कम्प्यूटरों से अधिक खतरा है । भारत में कमाई के लालच में भारी मात्रा में वैध-अवैध तरीकों से बेकार कम्प्यूटर और अन्य उपकरणों का कबाड़ के रूप में आयात हो रहा है ।
भारत की राजधानी दिल्ली में ही ऐसे कबाड़ को कई स्थानों पर जलाया जाता है और इससे सोना, प्लेटिनम जैसी काफी मूल्यावन धातुएं प्राप्त् की जाती है हालांकि सोने और प्लेटिनम का इस्तेमाल कम्प्यूटर निर्माण में काफी कम मात्रा में किया जाता है । इस ई-कचरे को जलाने के दौरान मर्करी, लेड, कैडमियम, ब्रोमीन, क्रोमियम आदि अनेक कैंसरकारी रासायनिक अवयव वातावरण में मुक्त होते हैं । ये पदार्थ स्वास्थ्य के लिए अनेक दृष्टियों से घातक होते हैं । साथ ही पर्यावरण के लिए खतरनाक होते है । कम्प्यूटर व अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में प्रयुक्त होने वाले प्लास्टिक अपनी उच्च् गुणवत्ता के चलते जमीन में वर्षोंा यूं ही पड़ा रहता है और पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचाता है । बड़े कबाड़ी अकुशल कर्मियों से यह कार्य सम्पन्न कराते है । उनको स्वयं नहीं मालूम कि वे कितना खतरनाक और नुकसानदेह कार्य कर रहे है । हानिकारक गैसों व अन्य रासायनिक अवयवों से युक्त धुंआ चारों और फैलकर वातावरण को प्रदूषित करता है जो मनुष्यों, वनस्पतियों और जीव-जंतुआें को प्रभावित करता है । वहां काम करने वाले कामगार ही सर्वप्रथम इस प्रदूषण की चपेट में आते है ।
आयातित कचरे के प्रबंधन के बारे में गठित उच्चधिकार प्राप्त् प्रो. मेनन समिति ने ऐसे जहरीले कचरे के आयात पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी । इस समिति का गठन भी सरकार ने अपने आप नहीं किया था बल्कि एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने १९९७ में अंतर्राष्ट्रीय बेसल कन्वेंशन में सूचीबद्ध कचरों का भारत में प्रवेश प्रतिबंधित किया था । इसके बाद सरकार ने खतरनाक कचरे के प्रबंधन के अलग-अलग पहलुआं की जांच करने के लिए मेनन समिति का गठन किया था । मेनन समिति ने न सिर्फ कई कचरों के आयात पर रोक लगाने की सिफारिश की थी बल्कि जो औद्योगिक कचरा देश में है उसके भण्डारण और निपटान के बारे में भी कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए । लेकिन सरकार ने मात्र ११ वस्तुआें का आयात ही प्रतिबंधित किया, बाकी १९ वस्तुआें को विचारार्थ छोड़ दिया गया । यह उदासनीता तो आयातित कचरे से निकलने वाले जहर से भी खतरनाक है ।
इराक युद्ध में अमरीका ने जो बमबारी की थी, उसमें क्षरित युरेनियम का भी उपयोग हुआ था । इस बात को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अब सामान्यत: स्वीकार किया जाता है कि पूरे विश्व में क्षरित युरेनियम युक्त हथियारों का सबसे अधिक उपयोग अभी तक इराक में ही हुआ है । क्षरित युरेनियम से हथियारों की मारक क्षमता बढ़ जाती है तथा वे बहुत मजबूत धातु को भी भेद सकते हैं और भूमिगत बंकरों को भी नष्ट कर सकते हैं । इनके दीर्घकालिक परिणाम भी बहुत खतरनाक होते हैं जो लोग क्षरित युरेनियम की चपेट में आते हैं वे कैंसर सहित कई दीर्घकालिक बीमारियों व गंभीर स्वास्थ्य समस्याआें से ग्रस्त सकते हैं । क्षरित युरेनियम वाले बमों से क्षतिग्रस्त टैंक के मलबे में भी क्षरित युरेनियम के अवशेष होते हैं । यदि हमारे देश में बड़े पैमाने पर इस मलबे का आयात होगा तो क्षरित युरेनियम से युक्त धातु हमारे देश में दूर-दूर तक इसके खतरे से अनभिज्ञ लोगों के पास पहुंच जाएगी और वे कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हो सकते हैं ।
जाहिर है विकसित देश भारत को जिस तरह अपना कूड़ाघर बनाने का प्रयास कर रहे हैं उससे इसकी छवि दुनिया में सबसे बड़े कबाड़ी के रूप में भी उभर रही है । इसे रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है, तो इसकी वजह यह है कि इस समस्या के प्रति सरकारें उदासीन रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह कोई बड़ी समस्या नहीं हैं । सरकारें यह मानकर चलती हैं कि विकासशील देशों को इतना नुकसान तो भुगतना ही है । आयातित कचरे के प्रति ऐसी सोच इसलिए बनती है, क्योंकि उसे हम सिर्फ घटिया और सस्ता माल मान लेने की भूल करते हैं। इसके प्रति ज्यादा सतर्क लोग इसे एक प्रदूषणकारी कच्च माल तो मानते हैं, मगर कहते है कि कोई बेहतर विकल्प नहीं है । यह सरकारी नजरिया है, जो आयातित कचरे के खतरे को बहुत मामूली करके आंकता है ।




पर्यावरण समाचार

किशन गंगा परियोजना पर अंतरिम आदेश

भारत जम्मू-कश्मीर में किशनगंगा नदी पर स्थाई कार्य को छोड़कर पनबिजली परियोजना से जुड़े सभी कार्यो को जारी रख सकता है । अंतराष्ट्रीय मध्यस्थता अदालत (आईसीए) ने अंतरिम आदेश में यह बात कही है । हेग स्थित आईसीए ने पाकिस्तान की अपील पर सुनवाई करते हुए यह अंतरिम आदेश दिया । पाक कहता रहा है कि भारत नदी का प्रवाह मोड़ रहा है ।
इस तरह वह १९६० की सिंधु जल संधि का उल्लघंन कर रहा है। अंतरिम आदेश में कहा गया कि भारत के लिए यह विकल्प खुला है कि वह किशनगंगा पनबिजली परियोजना से जुड़े सभी कार्य जारी रखे । हालांकि वह ऐसा स्थाई कार्य नहीं कर सकता जिससे जल प्रवाह बाधित हो । इसमें कहा गया कि भारत बांध की नींव के निर्माण को आगे बढ़ा सकता है । वह गुरेज में अस्थाई सुरंग का इस्तेमाल कर सकता है, जिसके पूरा होने की बात उसने कही है। भारत अस्थाई कॉफरडैम्स को पूरा कर सकता है ताकि अस्थाई सुरंग का संचालन हो सके । आईसीए ने कहा कि मौजूदा समय सीमा के मुताबिक, इस मामले पर वह अपना अंतिम फैसला २०१२ के आखिर में अथवा २०१३ की शुरूआत तक सुना सकती है । अंतरिम आदेश में कहा गया कि अदालत के अंतिम फैसले के बाद होने वाले निर्माण कार्य (किशनगंगा परियोजना से जुड़े) की किसी भी गतिविधि पर रोक लगाने का आदेश अभी से नहीं दिया जा सकता है ।
भारत इस नदी पर ३३० मेगावट की पनबिजली परियोजना का निर्माण कर रहा है । पाकिस्तान ने १९६० में हुई सिंधु जल संधि के तहत इस मामले में अंतराष्ट्रीय न्यायालय की मध्यस्थता की मांग की । वर्ष २००५ से ये विवाद ज्यादा गहरा गया । पाकिस्तान का कहना है कि भारत को सिंधु जल संधि के प्रावधानों के तहत पश्चिम की ओर बहने वाली तीन नदियों चिनाब, झेलम और सिंधु के पानी का इस्तेमाल कुछ शर्तो के साथ करना है ।

प्रदूषण नीति बनाने में पिछड़ा मध्यप्रदेश

वर्ष २०२० को ध्यान में रखते हुए प्रदूषण नीति बनाने में म.प्र. पिछड़ गया है । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के निर्देश के बाद भी मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा सभी जिलों के आंकड़े नहीं भेजे गए है । इस कारण से केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मध्यप्रदेश छोड़ सभी राज्यों के प्रदूषण नीति बनाने को लेकर मसौदा तैयार कर लिया है । इस संबंध में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को मई माह में एक पत्र लिखा, जिसमें सभी मध्यप्रदेश के मुख्य चार जिलों के वायु, जल और वाहन से होने वाले प्रदूषण को लेकर अँाकड़े भेजने के निर्देश दिए गए थे ।
केन्द्रीय बोर्ड के अनुसार इस आंकड़े के आधार पर २०२० को लेकर डाटा एनालिसस किया जाना था । लेकिन मध्यप्रदेश के तरफ से जानकारी नहीं भेजने के कारण डाटा एनालिसस का काम नहीं हो सका है । पिछले दिनों राष्ट्रीय स्तर पर हुई इस बैठक में मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार और हरियाणा को छोड़ सभी राज्यों ने आंकड़े प्रस्तुत कर दिये है । इसके बाद केन्द्रीय प्रयोगशाला में इन आंकड़ों को एनालिसस करने के लिए भेजा गया है।

कुत्तोंकी पूंछ काटने पर अब खैर नही

पशुआें के संरक्षण को बढ़ावा देने वाली संस्था भारतीय पशु कल्याण बोर्ड ने पालतू कुत्तों की पूंछ और कान काटने या कतरने को दंडनीय अपराध घोषित किया है । भारतीय पशु सरंक्षण संगठनों के महासंघ (एफआईएपीओ) की याचिका पर बोर्ड ने भारतीय पशु चिकित्सा परिषद को पत्र लिखकर इस बारे में निर्देश दिए है ।
बोर्ड ने कहा है वह ऐसे कुत्तों को अपने यहां पंजीकृत न करें, जिनकी पूंछ कटी है या कानों को कतरा गया है ।
बोर्ड के चैयरमेन डॉ. आरएम खरब ने कहा कि कुत्तों के कान और पूंछ काटना पशु क्रूरता निरोधक अधिनियम १९६० के अन्तर्गत दंडनीय अपराध है । अब बॉक्सर, डॉबरमैन, काकर, स्पेनियल, ग्रेट डेन्स जैसी प्रजाति के बच्चें के जन्म से दो या पांच दिनों के भीतर कान और पूंछ काटना दंडनीय अपराध माना जायेगा ।