बुधवार, 23 नवंबर 2011

प्रसंगवश

कृमि-भक्षण की फैशन और विज्ञान
यदि आप दुनिया का एक नक्शा बनाएं और उसमें वे स्थान दर्शाएं जहां रोग-प्रतिरक्षा तंत्र संबंधी दिक्कतें बहुत अधिक पाई जाती हैं और एक नक्शा बनाएं जिसमें यह दर्शाया गया हो कि किन इलाकों में कृमि संक्रमण के सर्वाधिक मामले होते हैं, तो आपको एक रोचक पैटर्न दिखेगा । जिन इलाकों में प्रतिरक्षा तंत्र संबंधी गड़बड़ियां ज्यादा है वहां कृमि संक्रमण बहुत कम देखे जाते हैं ।
इस पैटर्न के बारे में स्वच्छता परिकल्पना यानी हायजीन हायपोथीसिस कहती है कि अत्यन्त स्वच्छ वातावरण में जीने में आपका प्रतिरक्षा तंत्र रोगजनक कीटाणुआें और परजीवियों के संपर्क से वंचित रह जाता है और उसका भलीभांति विकास नहीं हो पाता है । यदि परिकल्पना सही है, तो लोगों को उनके खोए हुए कृमियों के संपर्क में लाना प्रतिरक्षा तंत्र की गड़बड़ियों को दुरूस्त करने का एक अच्छा तरीका हो सकता है । कई वैज्ञानिक १९९० के दशक से ही इस बात की छानबीन में लगे हुए है । इसके बावजूद कृमि-उपचार में बहुत अधिक प्रगति नहीं हो पाई है । एक तो इसका बड़े पैमाने का क्लीनिकल परीक्षण नहीं हो पाया है । अधिकांश अध्ययनों में मुट्ठी भर लोग ही सहभागी रहे हैं । यू.एस. में सूअर में पाए जाने वाले व्हिप कृमि को छानबीन हेतु दवा का दर्जा दिया गया है । मगर किसी भी दवा को छानबीन के स्तर से चिकित्सा में शामिल किए जाने के बीच काफी फासला होता है ।
इस स्थिति में यू.एस. के कई लोगों ने एक नया काम शुरू किया है: वे घर पर ही मल से कृमि के अंडे निकाल लेते हैं या किसी कंपनी से खरीद लेते हैं (ऐसी कुछ कंपनियां शुरू भी हो गई हैं ।) यूएस में इस जन विज्ञान को लेकर इतनी चिंता व्याप्त् है कि वहां उपचार हेतु कृमि की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया गया है ।
सवाल यह है कि जब इतने वैज्ञानिक कृमि चिकित्सा की खोजबीन करने का उत्सुक है और इतने सारे लोग कृमि के अंडे निगलने को तैयार है, तो फिर इस विधि के व्यवस्थित परीक्षण में दिक्कत क्या है । दरअसल, औषधि संबंधी नियमन इसके आड़े आ रहे हैं । अत्यधिक सावधानी बरतने की सबसे बड़ी वजह तो यह है कि कृमि सजीव हैं । ये कोई रसायन नहीं है जिनकी खुराक का एकदम सटीक निर्धारण किया जा सके । कृमि बीमारियां भी पैदा कर सकते हैं ।
मगर सोचने वाली बात यह है कि हजारों लोग इसे आजमा रहे हैं । तब लगता है कि वैज्ञानिकों और नागरिकों के बीच सहयोग को संभव बनाने की जरूरत है । इससे इस क्षेत्र में तरक्की तो होगी है, अपने हाथ से चिकित्सा करने के खतरों से भी मुक्ति मिलेगी ।




संपादकीय

भारत में कार पार्किंग की बढ़ती समस्या

भारत के महानगरों की बिगड़ती फिजा और उपलब्ध स्थान के विवेकहीन इस्तेमाल को देखते हुए विशेषज्ञ इन शहरों में कार पार्किंग व्यवस्था को सुधारने के लिए सुझाव देने को आगे आए हैं ।
पिछले दिनों नई दिल्ली स्थित एनजीओ सेंटर फॉर साइंस और एन्वायर्मेंाट (सीएसई) ने एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया जिसमें सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि, देश-विदेश के विशेषज्ञ और शहरों के नियमन के लिए जिम्मेदार अधिकारी शामिल हुए और उन्होंने इस बात पर चर्चा की कि एक रहने योग्य शहर के लिए पार्किंग व्यवस्था कैसीहो ।
सम्मेलन में प्रमुख बात यह उभरी कि बड़े शहरों में पार्किंग की समस्या के मुख्य कारण कारोंपर बढ़ती निर्भरता और पार्किंग सुविधा का मुफ्त में उपलब्ध होना हैं । सीएसई की अनुमिता रॉय चौधरी कहती है इसका हल यह नहीं है कि पार्किग के लिए जगह बढ़ाई जाए बल्कि यह है कि यातायात के अन्य तरीकों को बढ़ावा दिया जाए और जगह को अन्य महत्वपूर्ण कार्यो के लिए मुक्त किया जाए ।
दिल्ली की लगभग १० प्रतिशत शहरी जमीन पार्किंग के लिए इस्तेमाल होती है लेकिन कार मालिक इस पार्किंग मेंइस्तेमाल हो रही जमीन के लिए बहुत कम शुल्क अदा करते हैं । कारें कुल सवारियों में मात्र १४ प्रतिशत को ढोती हैं मगर वे सड़कों, पैदल चलने वाले स्थानों और हरित स्थानों को पूरी तरह घेर लेती हैं । पार्किंग के कारण प्रदूषण, भीड़भाड़, ट्रॉफिक की धीमी गति और ईधन की बर्बादी जैसी अन्य समस्याएं पैदा होती है।
वाहन-जनित प्रदूषण को कम करने व शहरी भूमि के बेहतर उपयोग के लिए इस सम्मेलन में पार्किग के बेहतर प्रबंधन, भुगतानशुदा पार्किंग और यातायात के अन्य तरीकों को बढ़ावा देना जैसे उपाय सुझाए गए । दिल्ली में १००० लोगों पर ११५ कारें है और प्रति १०० वर्ग मीटर दो से तीन पार्किंगस्लॉट दिए गए है । हाल में भारतीय प्रदूषण नियंत्रण ्रप्राधिकरण ने सुप्रीम कोर्ट से सिफारिश की है कि शहरों में और अधिक पार्किंगकी जगहों पर विराम लगाया जाए । प्रत्येक कार मालिक अपनी कार पार्किंग की जगह के लिए पैसा दे ।





बुधवार, 9 नवंबर 2011

सामयिक

बाढ़ रोकने में कारगर नहीं हैं, बड़े बांध
भारत डोगरा
भारत में इस वर्ष चहुंओर बड़े बांधों ने बाढ़ रोकने की बजाए उसको और मारक व विनाशक बनाने में मदद की है । इसकी वजह बांधों को लचर प्रबंधन रहा है या बांध बाढ़ नियंत्रण का जरिया हैं, जैसे सिद्धांत का ही असफल हो जाना है ? आवश्यकता इस बात की है कि बड़े बांध निर्माण के पारम्परिक विचार की ही समीक्षा की जाए ।
अनेक राज्यों में बाढ़ की समस्या उग्र होने का कारण यह बताया गया कि बड़े बांधों से अधिक पानी छोड़ना एक मजबूरी थी । एक ओर झारखंड के चांडिल बांध से पानी छोड़ने से पश्चिम बंगाल के पूर्व व पश्चिम मिदनापुर में बाढ़ की भीषण समस्या उत्पन्न हुई, तो दूसरी ओर झारखंड की अपनी शिकायत यह थी कि उत्तर प्रदेश में रिहंद बांध से सोन नदी में अधिक पानी छोड़ने के कारण राज्य के गढ़वा और डालटनगंज जिलों के कई गांव बाढ़ग्रस्त हो गए । भाखड़ा व पोंग बांधों से अधिक जल छोड़े जाने के कारण पंजाब के एक बड़े क्षेत्र में कपास की फसल तहस-नहस हुई । उधर हीराकुंड बांध से अधिक पानी छोड़े जाने के कारण उड़ीसा के लाखों लोग बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुए ।
इस तरह बड़े बांधों से उत्पन्न भीषण बाढ़ के उदाहरण केवल भारत में नहीं देखे गए हैं । अनेक पड़ोसी देशों जैसे चीन में भी ऐसे उदाहरण सामने आए है । बड़े बांध बनाने में तो चीन भारत से भी कही आगे रहा है व चीन की कुछ सबसे विशाल व प्रतिष्ठित बांध परियोजनाएं तो विशेषकर बाढ़ नियंत्रण के बड़े दावे कर रही थीं । अत: यह सोचना होगा कि बाढ़ नियंत्रण के उपायों में निवेश का समुचित लाभ भारत व आस-पड़ोस के देशों को क्यों नहीं मिला व बाढ़-नियंत्रण नीतियों - परियोजनाआें में कैसेबदलाव की जरूरतें हैं ?
वैसे तो देश के एक बड़े भाग में बाढ़ की समस्या काफी समय से व्यापक रूप में मौजूद रही है । जलवायु बदलाव के दौर में यह और गंभीर हो सकती है व इसके रूप में कुछ बदलाव आ सकते है । वैज्ञानिक जिस तरह के बदलते मौसत की तस्वीर हमारे समाने रख रहे हैं, उसमें प्राय: वर्षा की मात्रा बढ़ने पर एवं वर्षा के दिन कम होने की बात की गई है । दूसरे शब्दों में अपेक्षाकृत कम समय में कुछ अधिक वर्षा होने की संभावना है । कम समय में अधिक वर्षा होगी तो बाढ़ की संभावनाएं बढ़ेगी ।
बड़े बांधों के बारे में प्राय: यह देखा गया है कि अधिक वर्षा होने पर उनमें इतना जल छोड़ने की स्थिति आ जाती है जो अधिक वेग तथा अधिक विनाशक बाढ़ का कारण बनता है । बांध-प्रबंधन में बाढ़-नियंत्रण को कम महत्व देने व बांध-प्रबंधन में कमियों के बारे में कई बार सवाल उठाए गए हैं ।
अब यह सवाल उठाना और जरूरी है कि इन सभी बांधों से पानी छोड़ने से आई बाढ़ों के अनुभव को देखते हुए हम महंगे एवं कई अन्य समस्याआें से भी जुड़े बांध निर्माण को बाढ़ नियंत्रण का उपाय कब तक मानते रहेंगे ?
बड़े बांधों में जितनी तेजी से मिट्टी-गाद भरती है, यह भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है । इसके साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि जलवायु बदलाव के दौर में अप्रत्याशित तौर पर अधिक वर्षा की संभावना होने पर बांध कितनी सुरक्षा दे सकते हैं या यह कितने असुरक्षित हो सकते है ।
इस बारे में विचार करना जरूरी है कि बहुउद्देश्यीय परियोजनाआें में जब बाढ़ नियंत्रण, बिजली उत्पादन व सिंचाई के उद्देश्यों में टकराव उत्पन्न होता है तो इनमें बाढ़ नियंत्रण को कितना महत्व दिया जाता है ।
इन सब पहलुआें पर समुचित ध्यान देते हुए सरकार को इस बारे में निष्पक्ष निर्णय लेना होगा कि बड़े बांधों का सक्षम उपाय माना जाए या नहीं । साथ ही यह तय करना होगा कि क्या कठिन परिस्थितियों में बांध प्रबंधन को बाढ़ नियत्रंण को प्राथमिकता देने संबंधी नए निर्देश देने जरूरी हैं ?
जहां बड़े बांधों में पानी छोड़ने के कारण भीषण बाढ़ आती है, वहां की परिस्थितियों के बारे में सरकार की ओर से जनता को लिखित व प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध करवानी चाहिए ।

हमारा भूमण्डल

निर्धनतम देश : वादे हैं वादों का क्या
मार्टिन खोर

आर्थिक उदारीकरण के विनाशकारी परिणामों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले चार दशकों में अत्यन्त अविकसित राष्ट्रों की संख्या २५ से बढ़कर ४७ हो गई है । इससे यह स्थापित हो जाता है कि आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था गरीब देशों के शोषण पर न केवल टिकी है बल्कि इस शोषण में दिनों - दिन वृद्धि हो रही है ।
इस्तानम्बुल में सम्पन्न हुई संुयक्त राष्ट्र संघ की बैठक का मुख्य विषय दुनिया के निर्धनतम राष्ट्रों की स्थिति पर विचार करना था । इसमें तकरीबन ५० राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों एवं सैकड़ों मंत्रियों ने भाग लिया था । दुनिया भर में ४७ अत्यन्त अविकसित देश हैं । इसमें से ३३ अफ्रीका में और १४ एशिया प्रशांत क्षेत्र में स्थित हैं । इनकी सम्मिलित जनसंख्या ८० से ९० करोड़ के मध्य है । वर्ष १९७१केवल २५ अत्यन्त अविकसित देश थे । लेकिन पिछले चार दशकों में इनकी संख्या दुगुनी हो गई है और इनमें से मात्र तीन देश विकासशील देशों की श्रेणी में आ पाए हैं । इन अत्यन्त अविकसित देशों में गरीबी, बद्तर स्वास्थय स्थितियों और बेरोजगारी की निरंतरता चिंता का विषय है ।
पिछले दशक के दौरान इन अत्यन्त अविकसित देशों में काफी अच्छी आर्थिक वृद्धि दर दर्ज की गई थी । पंरतु यह वृद्धि अत्यन्त अविकसित देशों द्वारा वस्तुआें (कच्चा माल) के निर्यात की वजह से हुई थी, न कि औद्योगिक या कृषि विकास के कारण । २००८-०९ में आई वैश्विक मंदी के कारण वस्तुआें की बिक्री में कमी आई और इस वजह से इनकी अर्थव्यवस्था बैठ गई । पिछले वर्ष कच्चे माल की कीमतों में पुन: तेजी आई थी लेकिन विश्व अर्थव्यवस्था की वर्तमान धारा से प्रतीत हो रहा है कि स्थितियां पुन: पलट सकती हैं । विश्व अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव की वजह से यह अत्यन्त अविकसित देश और भी अधिक संकट में पड़ जाएंगे । अत्यन्त अविकसित देशों के चौथे संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन ने एक बार पुन: अवसर दिया है कि एक दशक पूर्व हुए सम्मेलन के बाद समीक्षा कर सकें कि इस दौरान इन गरीब राष्ट्रों के साथ क्या हुआ और विकसित देश इनकी मदद हेतु नए सिरे से प्रतिज्ञान कर सकें ।
दुर्भाग्यवश अमीर देश अपने द्वारा जताई गई प्रतिबद्धता के नवीनीकरण की मनोदशा में ही नहीं थे । अनेक यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं ऋण संकट मेंफंसी हुई हैं, अमेरिकी राजनीतिज्ञ सरकारी खर्चो में कमी के प्रति लालायित है और जापान भूकंप और सुनामी की वजह से वैसे ही आपातकाल में है । इस तरह अमीर देश सार्थक मदद हेतु या तो अनिच्छुक या असमर्थ है ।
इस्ताम्बुल कार्ययोजना कार्यक्रम में स्पष्ट कहा गया है कि उपरोक्त देश अपने सकल राष्ट्रीय उत्पाद का ०.२ प्रतिशत अत्यन्त अविकसित देशों को देते रहे हैं और भविष्य में भी देते रहेगे । जो देश ०.१५ प्रतिशत के लक्ष्य तक ही पहुंचे है, वे वर्ष २०१५ तक अपने लक्ष्य को पूरा करने का प्रयत्न करेंगे । जिन सिविल सोसायटी समूहों ने इस सम्मेलन में भागीदारी की थी, उन्होनें इस खामी की निंदा की है । इन देशों के नागरिक समूहों के नेता अर्जुन कर्की ने कहा है कि हमे धक्का लगा है और निराशा हुई है । वहीं कंबोडिया के गैर सरकारी संगठन सिलिका के निर्देशक थिडा खस का कहना है इस सम्मेलन की असफलता का ठीकरा विकसित राष्ट्रों की आर्थिक मदद करने में असफल रहे हैं ।
वैसे भी अत्यन्त अविकसित देशों की बिगड़ती स्थिति के लिए अमीर देश कम जिम्मेदार नहीं हैं । साथ ही पिछले सम्मेलन में अपने द्वारा किए गए वादों से मुकरने से भी इन गरीब देशों को हानि पहुंची है । उदाहरण के लिए जलवायु परिवर्तन इन अत्यन्त अविकसित देशों की प्रमुख समस्या है । क्योंकि इसके कारण उन्हें बाढ़ की बढ़ती समस्या, कृषि की घटती उत्पादकता और अन्य समस्याआें का सामना करना पड़ रहा है । साथ ही कोई नया वायदा न करने से भी इन राष्ट्रों के सामने सकंट और गहरा गया है ।
विकसित राष्ट्रों द्वारा नई तकनीकों से भी इन राष्ट्रों को वंचित रखा जाना इनकी गरीबी बढ़ा रहा है । इसके बावजूद इन देशों ने जलवायु संबंधी समस्याआें को अपनी राष्ट्रीय विकास योजनाआें में समाहित किया है । ये वादे संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन के प्रस्तावों से भी आगे के है ।
इस सम्मेलन में विकासशील देशों ने प्रयत्न किया है कि इन देशों को विकसित देशों द्वारा दी गई ९७ प्रतिशत उत्पादों को कर मुक्त करने के वादे को बढ़ाकर १०० प्रतिशत कर देना चाहिए। परन्तु इस दिशा में पहल का अभाव नजर आया । जो थोड़ी बहुत प्रािप्त् इन देशों को हुई भी है उस भी यूरोपीय संघ ने मुक्त व्यापार समझौता कर लेने से पानी फिर जायएगा । इसी के साथ अपने ८० प्रतिशत आयात पर कर सीमा को शून्य पर लाने से इन राष्ट्रों पर नया सकंट आ जाएगा । इसी के साथ उन्हें अपने सेवा, निवेश एवं सरकारी खरीदी व्यापार को भी खोलना पड़ेगा ।
इन तरह इन अत्यन्त अविकसित राष्ट्रों के लिए आने वाला समय और भी संकटपूर्ण हो सकता है । क्योंकि अब तो उनकी विकास योजनाआें की भी लगातार समीक्षा की जाएगी । इस सम्मेलन की वास्तविक सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि विकसित देशों द्वारा किए गए वायदों की सतत् निगरानी की जाए ।

विशेष लेख

आधार : मिथकों की कमजोर बुनियाद
आर. रामकुमार

दो देश । दोनों देश के प्रधानमंत्रियों के पंसदीदा प्रोजेक्ट के बीच समानातंर देखे जा सकते हैं। पहचानन पत्र विधेयक २००४ के लिए समर्थन जुटाने की कवायद में नवम्बर २००६ में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने लिखा था, पहचान पत्र का मामला केवल स्वतंत्रता का नहीं बल्कि आधुनिक दुनिया का है। सितम्बर २०१० में नंदुरबार में पहला आधार नंबर वितरित करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा, आधार नए और आधुनिक भारत का प्रतीक है । ब्लेयर ने कहा था पहचान पत्र में हम आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं । लगभग ऐसी ही बात मनमोहन सिंह ने भी कही : आधार प्रोजेक्ट आज की नवीनतम और आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करेगा । समानताएं अंतहीन हैं ।
पहचान पत्र को लेकर ब्लेयर की हठधर्मिता अंतत: लेबर पार्टी के लिए राजनीतिक विध्वंस लेकर आई । ब्रिटेन की जनता इस प्रोजेक्ट का पंाच साल से विरोध करती आ रही थी । अंतत: कैमरून सरकार ने २०१० में पहचान पत्र कानून को रद्द कर दिया । इस तरह पहचान पत्रों को समाप्त् कर दिया गया और राष्ट्रीय पहचान रजिस्टर की योजना बनाई गई । इसके विपरीत भारत आधार प्रोजेक्ट को बड़े जोर-शोर से आगे बढ़ा रहा है । इस प्रोजेक्ट को विशिष्ट पहचान प्रोजेक्ट (यूआईडी) भी कहा जाता है ।
यूआईडी प्रोजेक्ट को गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के साथ भी एकीकृत किया गया है । भारतीय राष्ट्रीय पहचान प्राधिकरण विधेयक संसद मे ंपेश किया जा चुका है । दुनिया भर में पहचान संबंधी नीतियों के पर्यवेक्षकों की नजर इस बात पर टिकी हुई है कि आधुनिक दुनिया ने भारत ने कुछ सबक सीखे हैं या नहीं ।
ब्रिटेन में पहचान पत्र संबंधी अनुभव बताते है कि ब्लेयर अपनी इस योजना का प्रचार मिथकों के मंच पर खड़े होकर कर रहे थे । पहले तो उन्होंने ऐलान किया कि पहचान पत्रों के लिए नामांकन स्वैच्छिक होगा । फिर उन्होनें तर्क दिया कि इन पहचान पत्रों से राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली और अन्य कल्याण कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार पर विराम लगेगा । ब्रिटिश सांसद और लेबर पार्टी के वरिष्ठ नेता डेविड ब्लंकेट ने पहचान पत्र को अधिकार पत्र तक कह दिया था । ब्लेयर ने यह दलील भी दी थी कि ये पहचान पत्र नागरिकों को आतंकवाद और पहचान संबंधी धोखाधड़ी से बचाएंगे । इसके लिए बायोमेट्रिक्स प्रौद्योगिकी को अचूक हथियार के तौर पर पेश किया गया था ।
इन सभी दावों पर जानकारों और आम लोगों ने सवाल उठाए थे । लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स द्वारा बेहद सावधानी के साथ तैयार की गई रिपोर्ट में प्रत्येक दावे का विश्लेषण किया गया और उन्हें खारिज कर दिया गया था । रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकार इस पहचान पत्र को इतनी योजनाआें के लिए अनिवार्य बना रही है कि अंतत: प्रत्येक नागरिक के लिए उसे बनवाना अपरिहार्य हो जाएगा । रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि पहचान पत्र से योजनाआें में पहचान संबंधी धोखाधड़ी नहीं रूक पाएगी । वजह: बायोमेट्रिक इतनी विश्वसनीय प्रणाली नहीं है कि इससे नकल पूरी तरह रूक ही जाएगी ।
भारत में एक अरब से अधिक लोगों को यूआईडी संख्या मुहैया करवाने वाले इस आधार प्रोजेक्ट के पक्ष में भी लगभग यही दलीलें दी जा रही हैं । आधार को भी मिथकों की बुनियाद पर प्रचारित किया जा रहा है । यहां पेश है इनमें से तीन मिथक :
मिथक १ : आधार संख्या अनिवार्य
नहीं है ।
हकीकत : आधार को पिछले दरवाजे से अनिवार्य कर दिया गया है । आधार को एनपीआर की तैयारियों के साथ जोड़ दिया गया है । जनगणना की वेबसाइट पर लिखा गया है, एनपीआर के तहत एकत्रित आंकड़े भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण को दिए जाएंगे ताकि उनमें दोहराव न हो । उनकी अद्वितीयता सुनिश्चित होने के बाद प्राधिकरण यूआईडी संख्या जारी करेगा । यह यूआईडी संख्या एनपीआर का ही हिस्सा होगी और एनपीआर कार्ड पर भी यही संख्या अंकित रहेगी ।
एनपीआर वर्ष २००३ में नागरिकता काननू १९५५ में हुए एक संशोधन की बदौलत अस्तित्व में आया । नागरिकता नियम २००३ के नियम ३(३) के अनुसार भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर में दर्ज प्रत्येक नागरिक की सूचनाआें में उसका राष्ट्रीय पहचान नंबर जरूर होना चाहिए । नियम ७(३) कहता है यह नागरिकों का दायित्व है कि वे नागरिक पंजीकरण के स्थानीय रजिस्ट्रार के पास जाकर सही जानकारियां दर्ज करवाएं । यही नहीं, नियम १७ कहता है कि नियम ५, ७, ८, १०, ११ और १४ के प्रावधानों का उल्लघंन करने पर एक हजार रूपए तक का आर्थिक दंड लगाया जा सकता है ।
निष्कर्ष बहुत सीधा है : संसद में विधेयक के पारित होने से पहले ही आधार को अनिवार्य बना दिया गया है । इस प्रोजेक्ट की आड़ में सरकारें लोगों को उनकी व्यक्तिगत सूचनाएं देने को विवश कर रही हैं ।
मिथक २ : आधार अमरीका में लागू सामाजिक सुरक्षा नंबर (एसएसए) जैसा ही है
हकीकत : एसएसएन और आधार के बीच अंतर है । एसएसएन अमरीका में १९३६ में सामाजिक सुरक्षा संबंधी लाभ मुहैया करवाने के मकसद से लागू किया गया था । इसे निजता कानून १९७४ द्वारा सीमित कर दिया गया है । निजता कानून कहता है, किसी भी नागरिक द्वारा अपना सामाजिक सुरक्षा नंबर न बताने पर भी कोई सरकारी एजेंसी उसे उसके अधिकारों, लाभों अथवा सुविधाआें से वंचित नहीं कर सकती । ऐसा करना गैर कानूनी होगा । इसके अलावा किसी तीसरे पक्ष को किसी व्यक्ति का एसएसएन बताने से पहले उसे नागरिक को सूचना देकर उसकी सहमति लेनी होगी ।
एसएसएन की परिकल्पना पहचान के दस्तावेज के रूप में नहीं की गई थी । हालांकि २००० के दशक में एसएसएन का व्यापक उपयोग विभिन्न जगहों पर पहचान के प्रमाण के रूप में करना शुरू हुआ । इसके परिणामस्वरूप कई तरह की निजी कंपनियों के हाथों में नागरिकों के एसएसएन पहुंचे । पहचान संबंधी धोखाधड़ी करने वालों ने इसका दुरूपयोग बैक खातों, क्रेडिट खातों और निजी दस्तावेजों व व्यक्तिगत जानकारियों तक सेंध लगाने में किया । वर्ष २००६ में गवर्नमेंट एकाउंटेबिलीटी ऑफिस के अनुसार एक साल की अवधि में ही करीब एक करोड़ लोगों (अमरीका की वयस्क आबादी का ४.६ फीसदी) ने बताया कि उन्हें विभिन्न तरह की पहचान संबंधी धोखाधड़ियों का सामना करना पड़ा । इससे ५० अरब डॉलर से भी अधिक का नुकसान उठाना पड़ा ।
लागों के हो-हल्ले के बाद अमरीकी राष्ट्रपति ने वर्ष २००७ में पहचान संबंधी धोखाधड़ियों पर एक कार्यबल गठित किया । इस कार्यबल की रिपोर्ट पर कार्यवाही करते हुए राष्ट्रपति ने एक योजना की घोषणा की : पहचान संबंधी धोखाधड़ियों का मुकाबला : एक रणनीतिक योजना । इसके तहत सभी सरकारी अधिकारियों को एसएसएन के अनावश्यक उपयोग को खत्म अथवा कम करने तथा साथ ही जहां भी संभव हो, लोगों की व्यक्तिगत पहचान के लिए इसकी जरूरत को समाप्त् करने के निर्देश दिए गए । लेकिन भारत में इसका ठीक उलटा हो रहा है । नंदन निलेकरणी के अनुसार आधार संख्या को सर्वव्यापी बनाया जाएगा । उन्होनें तो यहां तक सलाह दे डाली कि लोग इसे टैटू की तरह अपने शरीर पर गुदवा लें ।
मिथक ३ : बायोमेट्रिक्स के इस्तेमाल से पहचान संबंधी धोखाधड़ियां रोकी जा सकती हैं
हकीकत : वैज्ञानिकों और विधि विशेषज्ञों में इस बात को लेकर सर्वसम्मति है कि पहचान को साबित करने में बायोमेट्रिक्स के इस्तेमाल को सीमित किया जाना चाहिए ।
सबसे पहले तो ऐसी कोई पुख्ता जानकारी नहीं है कि उंगलियों के निशान के मिलान में त्रुटियां बिलकुल नहीं अथवा नगण्य होती हैं ।
ऐसा हमेशा होगा कि तैयार डेटाबेस के रूबरू कुछ लोगों की पहचान का गलत मिलान होगा या मिलान ही नहीं होगा । फिर मिलान संबंधी त्रुटियां भारत जैसे देशों में और भी बढ़ जाएंगी । बायोमेट्रिक उपकरणों की आपूर्ति के लिए भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ने जिस ४जी आइडेटिटी साल्यूशंस नामक कंपनी को ठेका दिया है, वह कहती है : ऐसा अनुमान है कि किसी भी आबादी में पांच फीसदी लोगों की उंगलियों के निशान चोटों, उम्र अथवा निशानों की अस्पष्टता के कारण पढ़े नहीं जा सकते ।
भारत जैसे देश का अनुभव यही कहता है कि यह समस्या १५ फीसदी लोगों के मामले में सामने आती है क्योंकि यहां की आबादी का एक बड़ा हिस्सा शारीरिक श्रम के कामों में लगा है । पन्द्रह फीसदी का मतलब होगा करीब २० करोड़ लोगों का इस प्रणालीसे बाहर रहना । अगर फिंगरप्रिंट रीडर्स को मनरेगा के कार्यस्थलों, राशन की दुकानों इत्यादि पर इस्तेमाल किया जाएगा, तो करीब २० करोड़ लोग इन योजनाआें की पहुंच से बाहर हो जाएंगे ।
भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण की बायोमेट्रिक्स स्टैंडर्ड कमेटी की रिपोर्ट ने भी माना है कि ये चिताएं वास्तविक है । उसकी रिपोर्ट कहती है, किसी की अद्वितीयता का निर्धारण करने में सबसे जरूरी फिंगरप्रिंट की गुणवत्ता का भारतीय संदर्भोंा में गहराई से अध्ययन नहीं किया गया है । तकनीक की इतनी सीमाआें के बावजूद सरकार इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ा रही है । इस पर खर्च ५० हजार करोड़ रूपए से भी ज्यादा आएगा ।
कहा जाता है कि सत्य का सबसे बड़ा शत्रु झूठ नहीं, बल्कि मिथक होते हैं । एक लोकतांत्रिक सरकार को आधार जैसे विशाल प्रोजेक्ट को केवल मिथकों के धरातल से नहीं चलाना चाहिए । ब्रिटेन का अनुभव बताता हे कि सरकार के मिथकों का भंडाफोड़ नागरिक अभियानों के जरिए किया जा सकता है । भारत को भी ऐसे ही विशाल अभियान की जरूरत है ।

प्रदेश चर्चा

उ.प्र.: बाघ और इंसान साथ-साथ
रोमा/रजनीश
उत्तरप्रदेश के खीरी जिले का सूरमा गांव देश का ऐसा पहला गांव बन गया है जो कि अपने संघर्ष के बल पर टाइगर रिजर्व का भाग बन गया है । नए वनाधिकार कानून का लाभ उठाकर सूरमा गांव के आदिवासियों ने खुद को उजड़ने से बचा लिया है । उनका यह संघर्ष और जीत देशभर के टाइगर रिजर्व व अन्य वनों से विस्थापितों के लिए उदाहरण बन सकता है ।
उत्तरप्रदेश के खीरी जिले का सूरमा गांव देश का ऐसा पहला वनग्राम बन गया है, जिसके बांशिदे थारू आदिवासियों ने पर्यावरण बचाने की जंग अभिजात्य वर्ग द्वारा स्थापित मानकों और अंग्रेजों द्वारा स्थापित वन विभाग से जीत ली है । बड़े शहरों में रहने वाले पर्यावरणविदों, वन्यजीव प्रेमियों, अभिजात्य वर्ग और वन विभाग का मानना है कि आदिवासियों के रहने से जंगलों का विनाश होता है, इसलिए उन्हे ंबेदखल कर दिया जाना चाहिए । जबकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सांस्कृतिक रूप में देखा जाए तो आदिवासियों और वनों के बीच अटूट रिश्ता है । वन हैं तो आदिवासी हैं और आदिवासी हैं तो दुर्लभ वन्यजीव जंतु भी है ।
वनग्राम सूरमा और गोलबोझी के आदिवासियों ने आखिर वनाधिकार कानून २००६ के सहारे यह साबित कर दिया है कि वन्य जीव-जन्तुआें की तरह वे भी वनों के अभिन्न अंग हैं, जिसे दुभाग्यवश वन विभाग और अभिजात्य वर्ग समझने में असमर्थ है । सूरमा वनग्राम को इस कानून के तहत देश में किसी नेशनल पार्क के कोर जोन में मान्यता पाने वाले पहले गांव का गौरव प्राप्त् हुआ । बीते ८ अप्रैल को जिलाधिकारी खीरी ने स्वयं इन गांवोंमें जाकर ३४७ परिवारों को मालिकाना हक सौंपा ।
सत्तर के दशक से राष्ट्रीय उद्यान के अंदर वन विभाग और वन्यजीव जन्तु प्रेमियों द्वारा गांव की मौजूदगी का जमकर विरोध किया जाता रहा है । जिसके चलते पिछले तीस सालों के दौरान देश के विभिन्न राष्ट्रीय उद्यानों से हजारों परिवारों को संविधान के अनुच्छेद २१ की मंशा के खिलाफ और बिना कोई वैकल्पिक व्यवस्था किए बेरहमी से बेदखल किया गया । लेकिन २००६ में बने वनाधिकार कानून ने संकटग्रस्त वन्यजीव जन्तु आवास क्षेत्र घोषित करने की योजना में वहां रहने वाले ग्रामीणों की भागीदारी को स्वीकारा और उन्हें वनों के अंदर रहने की अनुमति प्रदान की । राष्ट्रीय पार्को में वनाधिकार कानून लागू न करके वन विभाग द्वारा लोगों को दस लाख रूपये का लालच देकर गांव खाली करने के लिए फुसलाया जा रहा है । कई जगहों पर वनों से लोगों की बेदखली बदस्तूर जारी है ।
सूरमा का संघर्ष तमाम थारू क्षेत्र की गरिमा का सवाल था । यह सांस्कृतिक धरोहर के रूप में वनों एवं वन्यजीव जन्तुआें को बचाने का भी संघर्ष भी था । आजादी के बाद से ही दुधवा के अंदर वनों का अंधाधंुध दोहन शुरू हो गया । वन विभाग, पुलिस एवं सशस्त्र सीमा बल की साठगांठ से वन्य जीव जंतुआें की बड़े पैमाने पर तस्करी के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय गिरोह सक्रिय हुए । आदिवासियों के लिए वन उनकी जीविका का साधन होते है । इसलिए वनों का विनाश उनके लिए नुकसानदायक था । बाघों के साथ उनका जीवन सहज ही था बाघ और मनुष्य मेंकिसी प्रकार का बैर नहीं था । लेकिन वनों को राजस्व प्रािप्त् का साधन मान लिए जाने के कारण स्थानीय लोगों और आदिवासियों को वनों का दुश्मन करार दे दिया गया ।
सूरमा गांव का इतिहास १८६१ में वन विभाग की स्थापना के बाद बनी इस क्षेत्र की विभिन्न कार्य योजनाआें में मिलता है । उनमें बताया गया है कि यह गांव १८५७ से भी पूर्व से बसा है, जब ब्रिटिश हुकूमत ने वन विभाग की स्थापना भी नहीं की थी यहां थारूआें के ३७ गांव थे, जो बदिंया गांव के नाम से जाने जाते थे । २८ फरवरी १८७९ को ये नेपाल सीमा के रिजर्व फॉरेस्ट घोषित कर दिए गए ।
यह इलाका उस समय अवध प्रांत की खैरीगढ़ रियासत का हिस्सा था । जिसे महारानी खैरीगढ़ ने १९०४ में हुए एक करार नामे पर हस्ताक्षर करके वन विभाग के अधीन कर दिया था । वनग्राम बनाने का मतलब था इन गांवों के तमाम अधिकारों का खात्मा और इनसे वनों के अंदर बेगार कराना ।
१९७८ तक ये गांव वन विभाग के नियंत्रण में रहे । दुधवा नेशनल पार्क की घोषणा के बाद ३७ में से ३५ थारू गांव राजस्व विभाग को सौंप दिए गए । जबकि बिली अर्जुन सिंह द्वारा इस वन क्षेत्र को दुधवा राष्ट्रीय उद्यान बनाए जाने के प्रस्ताव को केन्द्र सरकार की मंजूरी मिल गई । दुधवा नेशनल पार्क बना । लेकिन आजाद भारत में थारूआें के तमाम संवैधानिक अधिकार छीन लिए गए और इन्हें वन विभाग का गुलाम बना दिया गया । यह वहीं बिली अर्जुनसिंह है, जिन्होंने १२ साल की उम्र में बांध का शिकार किया था । बिली ने इस नेशनल पार्क के अंदर और बाहर ४०० एकड़ भूमि पर कब्जा भी कर लिया था । जिसमें से ८० एकड़ भूमि अभी हाल में बसपा सरकार द्वारा जप्त् की गई है । यहां एक तरफ शिकारियों को प्रोत्साहन मिला और वहीं दूसरी तरफ थारू आदिवासियों को उपेक्षा एवं तिरस्कार ।
आज से महज चार वर्ष पहले कोई सोच भी नहीं सकता था कि किसी राष्ट्रीय उद्यान के कोर जोन के अंदर किसी गांव को मालिकाना हक भी प्राप्त् हो सकता है । यह तभी संभव हो पाया जब २००६ में अनुसूचित एवं अन्य परम्परागत वन निवास (वनाधिकारों को मान्यता) अधिनियम पारित हुआ और वनों में रहने वाले आदिवासियों एवं अन्य परम्परागत वन समुदायों को अंग्रेजों के जमाने से स्थापित वन विभाग की गुलामी से मुक्ति मिली । हम कह सकते है कि सूरमा को १५ अगस्त १९४७ को नहीं बल्कि ८ अप्रैल २०११ को आजादी मिली ।
इस गांव को वन विभाग द्वारा उजाड़ने की पूरी रणनीति बन चुकी थी, लेकिन जनसंगठनों, राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच, थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच और मीडिया के सक्रिय सहयोग के सहारे सूरमा ने अपना संघर्ष जारी रखा । अपना अस्तित्व बचाने के लिए सूरमा पिछले ३३ वर्षो से लगातार संघर्ष कर रहा था ।
इस कानून के तहत गठित राज्य निगरानी समिति में जब सूरमा का मामला उठा, तब जाकर सरकार जागी । पड़ताल करने पर राज्य निगरानी समिति ने पाया कि उच्च् न्यायालय में वन विभाग द्वारा जो तथ्य पेश किए गए थे, वे झूठे थे । नया कानून आने के बाद सूरमा के विषय में पुन: विचार किया जा सकता था । यह मामला चूंकि राष्ट्रीय उद्यान के कोर जाने का मामला था, इसलिए इसे राज्य निगरानी समिति द्वारा न्याय विभाग को सौंपा गया । जिसने अंतत: दिसम्बर २०१० में इस गांव को पार्क क्षेत्र में वनाधिकार कानून के तहत बसाए जाने की सिफारिश की ।
वनाधिकार कानून की धारा ४(२) एवं ४(५) और राज्य सरकार द्वारा १३ मई २००५ के पूर्व अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों के कब्जे वाली जमीनों को नियमित करने के आदेशों को भी ध्यान में रखते हुए यह घोषणा की गई ।
यह एक ऐतिहासिक जीत थी, जो न सिर्फ सूरमा या खीरी या उत्तरप्रदेश के लिए बल्कि पूरे देश के वन क्षेत्रों में रहने वाले वनाश्रित समुदायों और जनसंगठनों के आंदोलनों की जीत है । अब सूरमा जैसी नजीर पैदा हो जाने के बाद देश के अन्य नेशनल पार्को में स्थित ऐसे कई गांव को ताकत मिलेगी । वे अब वन विभाग की विस्थापना की चाल कामयाब नहीं होने देंगे । इस प्रकार वे जंगलों को और वन्यजीव-जंतुआें को भी बचाएंगें ।

बातचीत

वनवासियों को शोषण से बचाना है
किशोरचन्द्र देव

पंचायती राज एवं आदिवासी मामलों के केन्द्रीय मंत्री किशोर चन्द्र देव से रिचर्ड महापात्र एवं कुमार संभव श्रीवास्तव की बातचीत :
अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार (पेसा) अधिनियम १५ वर्ष पूर्व कानून बन पाया था । इसे अभी तक लागू न हो पाने से क्या आप असहाय महसूस करते हैं ?
पंचायत राज मंत्री होने के कारण मेरा सर्वप्रथम कार्य है लोगों को पेसा के अस्तित्व के बारे मेंयाद दिलाना । यदि आवश्यकता पड़ी तो मैं इसके और आगे के कानून बनाने को तत्पर रहूंगा, जिससे कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राज्य पेसा के प्रावधानों को लागू करें । मैं मुख्यमंत्रियों एवं पंचायती राज गतिविधियों के मंत्रियों से भी चर्चा करूंगा ।
राज्य पेसा का क्रियान्वयन इतनी लंबे समय तक कैसे रोक सकते हैं ?
दुर्भाग्य से उन्होेनें ऐसा किया है । यह संविधान का उल्लघंन है । यह क्यों और कैसे हुआ, मैं इसका जवाब नहीं दे सकता हॅूं ।
आपने हाल ही में कहा कि कोई भी निजी स्वामित्व वाली कंपनी को अधिसूचित क्षेत्र में खनन की अनुमति नहीं मिलना चाहिए । कृपया विस्तार से बताएं ।
अधिसूचित क्षेत्रों से भूमि की बेदखली को लेकर राज्यों के अपने कानून मौजूद हैं । एक व्यक्ति वहां जाकर सीधे भूमि नहीं खरीद सकता । अगर दो लोग मिलकर कंपनी बना लेते है और स्वयं को कारपोरेट कहने लगते है तो उन्हें इन इलाकों में खदानों के स्वामित्व और खनन की अनुमति कैसे दी जा सकती है ? किसी निजी फर्म को खनन की अनुमति दे दी जाती है तो यह भूमि से बेदखली से सुरक्षा के लिए बने कानूनों की अवहेलना होगी ।
सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों द्वारा खनन के संबंध में आपके क्या विचार है ?
सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों द्वारा खनिज एवं खनन को लेकर मेरे अपने संकुचित विचार हैं । सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां केवल अपने उपयोग के लिए खनन करें । इन इकाइयों से मेरा तात्पर्य है कि जिन्हें अपने उत्पादन के लिए खनिज की आवश्यकता है न कि ऐसी कंपनियां जो खनिज का व्यापार करती है ।
क्या आप यह सुझाव दे रहे है कि केवल घरेलू उत्पादन के लिए ही खनन किया जाए ?
खनिज हमारी राष्ट्रीय सम्पत्ति है । खनन और कच्च्े खनिज का निर्यात एक आपराधिक कृत्य है । व्यापार के लिए खनिज उठाना प्रतिबंधित होना चाहिए । अधिकांश विकसित देश आवश्यक मात्रा में ही खनन करते हैं और बाकी का भविष्य के लिए सहेज कर रखते हैं । भारत अभी भी विकास के शैशवकाल में है । अगर हम आज ही अपना सारा खनिज निकाल लेगें तो तब क्या होगा जब हमारी अर्थव्यवस्था ऊपर आ जाएगी ? हमें खनिजों पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार करने की आवश्यकता है ।
भूमि अधिग्रहण में मुआवजे का आधार बाजार मूल्य है । यह पैमाना आदिवासियों की भूमि पर कैसे लागू हो सकता है ?
यदि आदिवासी भूमि को अधिग्रहित किया जाना है तो इसकी पहली कसौटी यह है कि आदिवासियों को वन अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत पट्टे दिए जाएं । अन्यथा कोई व्यक्ति कैसे जान पाएगा कि किसके कब्जे में कितनी भूमि हैं ? दूसरा पेसा के अन्तर्गत भूमि के हस्तांतरण की अनुमति गांव ही देगा । यहां गांव का अर्थ है फालिया (घरों का छोटा समूह) न कि पंचायत । जहां तक वन क्षेत्रों में मुआवजे का प्रश्न है यह तो भूमि के बदले भूमि ही होना चाहिए ।
आपने कहा वन अधिकार अधिनियम उन अर्थो में लागू नहीं हुए जैसा कि उम्मीद कर रहे थे ?
मैने देखा है कि सन् २००८ से जबसे इस काननू पर अमल होना प्रारंभ हुआ तबसे इसमें बहुत सी बाधाएं और दिक्कतें सामने आई हैंे । इनमें से कई कानून से नहीं बल्कि नियमों और मार्गदर्शिकाआें की वजह से हैं । मैं इन्हें समाप्त् करने की दिशा में कार्य कर रहा हूूं ।
और ये मुख्य बाधाएं कौन-कौन सी है ?
बहुत सारी हैं । उदाहरण के लिए एक प्रावधान कहता है कि वनवासी लघु वनोपज की ढुलाई या तो सिर पर या सिर्फ साइकिल से कर सकते है । यह कोई व्यावहारिक बात नहीं है । एक व्यक्ति कितने बांस या तेंदु पत्ते सिर ढो सकता है ? इस हेतु किसी को भी यातायात का कोई अन्य यथोचित साधन का इस्तेमला करना ही पड़ेगा । कानून का उद्देश्य है कि वनवासी लघु वन उत्पादों पर पूरे अधिकार का आनंद उठा सकें । यदि उन्हें लघु वन उत्पादों के यातायात या बिक्री की अनुमति नहीं मिलेगी तो यह काननू की भावना की ही पराजय है ।
सामुदायिक अधिकारों का ही उदाहरण लें । वन संसाधनों पर सामुदायिक अधिकार का पट्टा ग्रामसभा को दिया जाना जाना है । परन्तु वे (वन विभाग) पट्टा उन संयुक्त वन प्रबंधन समितियों को दे रहे है, जिनका गठन वन विभाग द्वारा उन्हें दी गई भूमि की सुरक्षा व प्रबंधन के लिए किया गया है । यह वन अधिकार कानून के प्रावधानों एवं भावना के विपरीत है । यह कानून मेरी सर्वोच्च् प्राथमिकता है । मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि इस तरह की विकृति भविष्य में न दोहराइ जाए ।
आप यह कैसे सुनिश्चित करेंगे ?
यदि इस हेतु कानून में संशोधन की आवश्यकता है तो इसके लिए भी प्रयत्न करूंगा । यदि नियमों में परिवर्तन या निर्देश दिए जाने से ही कुछ समस्याआें का निराकरण हो सकता है, तो मैं ऐसा भी करूंगा ।
क्या आप संयुक्त वन प्रबंधन समितियों को अभी भी वन अधिनियम के संदर्भ में प्रासंगिक मानते हैं ?
ऐसे क्षेत्र जहां पर वन अधिकार अधिनियम लागू हो गया है वहां ये अप्रासंगिक है । वन प्रबंधन समितियां
अधिकारों के लिए नहीं है ।
क्या वन विभाग आदिवासी मंत्रालय से नाराज है ? लोगों की शिकायत है कि वह (वन विभाग) वन अधिकार अधिनियम का सम्मान नहीं करना चाहता ।
इसके निपटारे की आवश्यकता है । भारत वन अधिनियम सन् १९२७ में प्रभावशील हुआ । इस तरह तकनीकी रूप से कहे तो वनों की जन्म तिथि १९२७ है । परन्तु वनवासी वहां शताब्दियों से रह रहे हैं । मेरे विचार से यह तो वन विभाग है, जिसने की वनों में रहनें वालों मूल निवासियों की भूमि पर अतिक्रमण किया है । महज गजट के एक कागज के माध्यम से विभाग वन भूमि का स्वामी नहींहो जाता ।
वन अधिकार अधिनियम के लागू न होने का दोष क्या आप वन विभाग को देते है ?
लागू न होना बहुत ही कोमल वाक्य है । वे तो इसके प्रति नकारात्मक रूख रखते है ।
क्या आप सोचते हैं कि केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन विभाग वन अधिकार अधिनियम की तार्किक परिणिति की राह में रोड़ा है ?
पहले था । जिस वक्त मैं वन अधिनियम की संयुक्त समिति का अध्यक्ष था, उस दौरान कई रूकावटें खड़ी की गई । अब यह कम हो रही है। प्रशासन को अब स्पष्ट अनुभव हो गया है कि यह एक वास्तविक कार्य है और वन अधिकारों के मौर्चे पर कुछ न कुछ किया जाना आवश्यक है ।
विभाग द्वारा वन अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत लघु वन उत्पाद की परिभाषा में बांस और तेंदु पत्ते को शामिल न करने पर आपका क्या कहना है ?
अब यह मामला निपट गया है । बांस और तेंदु पत्ता दो सबसे लाभकारी लघु वनोपज है । वन विभाग का इन पर कोई हक नहीं है । अब मुझे सिर्फ इस परिभाषा को लागू करवाना है ।
आप यह किस प्रकार सुनिश्चित करेगें कि लघु वनोपज संबंधी अधिकार वनवासियों को दे दिए जाएं ?
लघु वनोपज के लिए मंत्रालय एक पैकेज पर कार्य कर रहा है । लघु वनोपज (उत्पाद) पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गठित टी.हक समिति की रिपोर्ट के आधार पर हम योजना आयोग एवं संबंधित मंत्रालयों के साथ मिलकर एक रिपोर्ट बनाने पर गंभीरता से कार्य कर रहे है । हम शीघ्र ही राज्यों के सचिवों से भी मिलेंगे, क्योंकि इस मामले में उनकी भी हिस्सेदारी है । इस सलाह मशविरे के बाद इसकी स्वीकृति हेतु एक मंत्रीमंडलीय नोट तैयार किया जाएगा जिसे एक महीने में स्वीकार कर लिया जाएगा ।
इस पैकेज में क्या-क्या प्रावधान हैं ?
यह अभी निर्माण प्रक्रिया में है । इसका मुख्य ध्येय यह सुनिश्चित करना है कि वनवासियों को उनके द्वारा एकत्रित लघु वनोपज से अधिकतम लाभ मिल सके और बिचौलिये एवं सरकारी एजेंसियां उनका शोषण न कर सकें ।
क्या लघु वनोपज के लिए न्यूनतम मूल्य निर्धारण संभव है ?
हमेंइसे संभव बनाना होगा ।

विज्ञान जगत

क्यों टूटते हैं तारें ?
डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

सौर मण्डल में मंगल और बृहस्पति की कक्षाआें के बीच काफी बड़ा फासला है । सन् १८०१ में इस क्षेत्र में खगोल वैज्ञानिकों द्वारा एक छोटा पिण्ड खोजा गया जो सूर्य के चारों और परिक्रमा कर रहा था । उस समय से अब तक इस प्रकार के डेढ़ हजार से अधिक पिण्डों की खोज की जा चुकी है। इन पिण्डों को क्षुद्र ग्रह (एस्टेरॉय) कहा जाता है । ये क्षुद्र ग्रह समय-समय पर एक दूसरे से टकराते हैं । टकराने के कारण ये सूक्ष्म टुकड़ों में टूटते रहते हैं । ये सूक्ष्म टुकड़े उल्काण (मीटिराइट) कहलाते हैं । ये उल्काणु विभिन्न दिशाआें में बिखर जाते है । इनमें से कुछ टुकड़ें विभिन्न ग्रहों तथा अन्य ब्रह्मण्डीय पिण्डों से टकरा सकते हैं । ऐसे टकराव के निशान चन्द्रमा, पृथ्वी तथा मंगल की सतहों पर पाए भी गए हैं । ये निशान विभिन्न प्रकार के ग ों के रूप में मौजूद है ।
उपरोक्त उल्काणु (मीटिराइट) जब पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते हैं तो वायुमण्डल के अणुआें से घर्षण के कारण उनमें से अधिकांश उल्काणु तेज प्रकाश के साथ जल उठते हैं जिन्हें उलका (मीटियर) कहा जाता है । यह ज्वलन प्रकाश की एक लकीर के रूप में दिखाई पड़ता है । सामान्य बोलचाल में इसे टूटता तार (शूटिंग स्टार) भी कहा जाता है । कुछ लोग इसे देखना शुभ या अशुभ मानते हैं । उल्काआें द्वारा छोड़ी गई प्रकाश की लकीर अधिक से अधिक एक मिनट तक ही दिखाई पड़ती है । अधिकांश उल्काआें का प्रकाश तो चंद सेकंड तक ही दिखाई पड़ता है । प्रकाश की यह रेखा उल्का द्वारा वायुमण्डल के अणुआें को आयनीकृत करने के कारण दिखाई पड़ती है ।
अधिकांश उल्काएं भू-सतह से लगभग १०० किलोमीटर ऊपर दिखाई पड़ने लगती हैं तथा भू-सतह से ६०-६५ किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंचते-पहुंचते लप्त् हो जाती है । अधिकांश उल्काआें का वेग लगभग ४० किलोमीटर प्रति सेकंड होता है । ऐसे अधिकांश सूक्ष्म टुकड़े तो वायुमण्डल में ही जलकर भस्मीभूत हो जाते हैं, परन्तु कुछ बड़े आकार के टुकड़े भू-सतह तक पहुंचने में सफल हो जाते हैं । भू-सतह पर गिरने वाले इन टुकड़ों को उल्का पत्थर (मीटिरॉयट) कहा जाता है । उल्का का रूप धारण करने वाले सूक्ष्म टुकड़े सौर मण्डल में लाखों की संख्या में पाए जाते है ।
उल्काआें का अध्ययन मानव प्रागैतिहासिक काल से ही करता आ रहा है । भारत के प्रचानी वैज्ञानिक वराह मिहिर द्वारा लिखित ग्रंथ वृहत् संहिता के उल्का लक्षणाध्याय में इस विषय की चर्चा विस्तार से की गई है । इस पुस्तक में उल्का के पांच प्रकार बताए गए हैं - घिष्णया, उल्का, अशानि, बिजली तथा तारा । घिष्णया पतली छोटी पूंछ वाली, प्रज्वलित अग्नि के समान, तथा दो हाथ लम्बी होती है । उल्का विशाल सिरवाली, साढ़े तीन हाथ लम्बी और नीचे की ओर गिरती हुई दिखाई देती है । अशनि चक्र की तरह घूमती हुई, जोर की आवाज करती हुई पृथ्वी पर गिरती है । बिजली विशाल आकार की होती है जो तड़-तड़ आवाज़ करती हुई पृथ्वी पर गिरती है । तारा एक हाथ लम्बी तथा तेज प्रकाश करती हुई आकाश में एक ओर से दूसरी ओर जाती दिखती है ।
उल्काआें तथा क्षुद्र ग्रहों की उत्पत्ति के संबंध में वैज्ञानिकों का एक विचार है कि अतीत में सौर मण्डल का कोई ग्रह टूटकर बिखर गया था, जिसके टुकड़े क्षुद्र ग्रह अथवा उल्काआें के रूप में परिवर्तित हो गए । कुछ अन्य वैज्ञानिकों की धारणा है कि अतीत में सौर मण्डल के कोई दो ग्रह आपस में टकरा गए थे, जिसके कारण दोनों ग्रह नष्ट हो गए । इनके नष्ट होने से उत्पन्न टुकड़े आज हमें क्षुद्र ग्रहों तथा उल्काआें के रूप में दिखाई पड़ते है । परन्तु इस परिकल्पना को कुछ वैज्ञानिकों ने संतोषजनक नहीं माना है । उनके मतानुसार मंगल तथा बृहस्पति के बीच इतना बड़ा फासला है कि यहां दो ग्रहों के टकराने की संभावना नणण्य मालूम पड़ती है । कुछ वैज्ञानिकों ने एक तीसरी परिकल्पना प्रस्तुत की है । इस परिकल्पना के अनुसार क्षुद्र ग्रहों तथा उल्काआें का निर्माण सौर मण्डल के निर्माण के साथ ही हुआ । आजकल अधिकांश वैज्ञानिक इसी परिकल्पना के समर्थक है ।
भू-सतह पर पाए गए अनेक उल्का पत्थरों के विश्लेषण से पता चला है कि उनमें लोहा तथा निकल नामक धातुएं एवं कई प्रकार के सिलिकेट खनिज उपस्थित हैं । ये सिलिकेट खनिज उसी प्रकार के हैं जिस प्रकार के सिलिकेट खनिज बेसाल्ट नामक ज्वालामुखीय आग्नेय चट्टान में पाए जाते हैं । कुछ उल्का पत्थर तो शुद्ध लोहे के बने होते हैं । ये उल्का पत्थर देखने में ऐसे मालूम पड़ते है मानो पिघले लोहे को उच्च् दाब पर धीरे-धीरे ठंडा किया गया हो । इस तथ्य को ध्यान में रखकर कुछ वैज्ञानिकों का पहले यह मानना था कि यह इस बात का प्रमाण है कि उल्काआें का निर्माण ऐसे ग्रहों के टूटकर बिखरने से हुआ है जिसके केन्द्रीय भाग में लोहा मौजूद था ।
परन्तु हाल में कुछ वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि इस प्रकार का लोहा कम दाब तथा निम्न तापमान पर भी निर्मित हो सकता है । कुछ उल्का पत्थरों में मौजूद रेडियोधर्मी खनिजों के विश्लेषण से पता चला है कि इनका निर्माण लगभग साढे चार अरब वर्ष पूर्व हुआ था ।
अब तक किए गए विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि पृथ्वी की ओर आने वाली अधिकांश उल्काएं तो पृथ्वी के वायुमण्डल से गुजरते समय ही जलकर राख हो जाती है या वाष्पीकृत हो जाती है । प्रति २४ घंटे में औसतन दो करोड़ उल्काएं पृथ्वी के वायुमण्डल से गुजरते समय जल जाती है । कभी-कभी प्रत्येक घंटे में लाखों की संख्या में उल्काएं पृथ्वी के वायुमण्डल में घुसकर जलकर भस्म हो जाती है । इस घटना को उल्का वर्षा कहा जाता है । ऐसी घटना हर वर्ष लगभग एक ही समय पर घटती है ।
उल्काएं कृत्रिम उपग्रहों के लिए काफी खतरनाक साबित हुई है । संयोगवश यदि उल्काएं इन उपग्रहों से टकरा जाएं तो उपग्रह नष्ट भी हो सकते हैं । कभी-कभी किसी उल्का का टकराना काफी प्रलयंकारी साबित होता है । ऐसी ही एक घटना ३० जून १९०८ को घटी थी । उस दिन रूस के साइबेरिया क्षेत्र में उल्कापात हुआ था । इस उल्कापात की आवाज उस स्थान से लगभग ६०० किलोमीटर दूर तक सुनी गई थी । साथ ही लगभग ७५ किलोमीटर दूर तक स्थित भवनों की खिड़कियों में लगे हुए शीशे टूट गए थे । इसके अलावा लगभग ३० किलोमीटर दूर तक के क्षेत्र में पेड़-पौधे उखड़ गए थे । इसके कारण उल्कापात स्थान के निकटवर्ती क्षेत्रों में असंख्य जीव-जन्तु मारे गए थे । साइबेरिया में ही सन् १९४७ में पहाड़ी क्षेत्र में उल्का वर्षा हुई थी ।
प्रत्येक उल्का अपने साथ ब्राह्म अन्तरिक्ष से पत्थरों एवं धूल कणों की कुछ मात्रा पृथ्वी पर अवश्य लाती है । अनुमान है कि प्रति दिन लगभग दस लाख किलोग्राम पदार्थ उल्काआें द्वारा ब्राह्म अन्तरिक्ष से पृथ्वी पर लाया जाता है । यह पदार्थ धूल कणों के रूप में होता है । ऐसे धूल कण ऊपरी वायुमण्डल तथा ध्रुवों पर पाए गए हैं । परन्तु पृथ्वी के अपने द्रव्यमान की तुलना में उल्काआें द्वारा लाया गया पदार्थ नगण्य है । पृथ्वी की उत्पत्ति के समय से अब तक (अर्थात् लगभग साढ़े चार अरब वर्ष में) उल्काआें द्वारा लाए गए पदार्थ की यदि पूरी मात्रा पृथ्वी पर फैलादी जाए तो उससे निर्मित होने वाली परत की मोटाई सिर्फ ३० से.मी. होगी ।

पर्यावरण परिक्रमा

मध्यप्रदेश मेंनादियों का पानी बना जहर
मध्यप्रदेश की नदियों में कई स्थानों पर बीओडी (बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड) की मात्रा मानक स्तर से कहीं अधिक मिली हैं । नदियों के अधिकांश हिस्सों का पानी न तो पीने लायक है ना ही नहाने योग्य । नदियों के कई हिस्सों का पानी तो जहर बन गया है ।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने हाल ही में जो मॉनीटरिग रिपोर्ट जारी की है उसके अनुसार लगभग सभी प्रमुख नदियों में कई स्थान ऐसे हैं जहाँ बीओडी की मात्रा ६ मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक मिली है । जबकि पीने व उपयोग में लाये जाने वाले पानी में बीओडी का मानक स्तर ३ मिलीग्राम प्रति लीटर या इससे कम होना चाहिए ।
सीपीसीबी ने नर्मदा, खान, बेतवा, मंदाकिनी, क्षिप्रा, चंबल, टोन्स, कलियासोत नदी के विभिन्न स्थानों के जल की मॉनीटरिंग की है । मॉनीटर की कुछ जगहों पर बीओडी का स्तर २०-३० मिलीग्राम प्रति लीटर तक पाया गया है । सबसे ज्यादा खराब स्थिति इंदौर में खान, नागदा में चंबल तथा उज्जैन में क्षिप्रा नदी की है । नदियों के जो सर्वाधिक प्रदूषित क्षेत्र माने गए हैं, उनमें इंदौर से बहने वाली खान नदी के शक्कर खेड़ी, सांवेर कबीट खेड़ी में बीओडी की मात्रा ५० मिलीग्राम प्रति लीटर तक मिली है । इसका मुख्य कारण इन्दौर से निकलने वाला सीवेज है । वहीं नागदा में चंबल नदी में बीओडी की मात्रा ३४ मिलीग्राम प्रति लीटर तक मिली है । इसका मुख्य कारण औद्योगिक व घरेलू दूषित जल है । हालाँकि मानक स्तर के लिहाज से देखे तो होशंगाबाद में नर्मदा नदी के सेठानीघाट में बीओडी की मात्रा ३.१ मिलीग्राम प्रतिलीटर है जबकि होशंगाबाद के ही कुछ क्षेत्रों में बीओडी की मात्रा ११.४ मिलीग्राम प्रति लीटर है ।
सीपीसीबी ने पानी की शुद्धता को मापने के लिए प्राथमिकता के अनुसार मापदण्ड तैयार किए है । इसके लिए पाँच प्राथमिकता तय की गई है । पहली प्राथमिकता के लिए तय मापदंड में ऐसे स्थानों को रखा गया है जिसमें बीओडी की मात्रा ३० मिलीग्राम प्रति लीटर तक है । दूसरी प्राथमिकता के लिए तय मापदण्ड में उन स्थानों को रखा गया गया है जहाँ बीओडी की मात्रा २०-३० मिलीग्राम प्रति लीटर के बीच पाई गई है । तीसरी प्राथमिकता में बोओडी की मात्रा १०-२० मिलीग्राम प्रति लीटर के बीच, चौथी प्राथमिकता में बीओडी की मात्रा ६-१० मिलीग्राम प्रति लीटर के बीच तथा पाँचवी प्राथमिकता में बीओडी की मात्रा ३-६ मिलीग्राम प्रति लीटर के बीच होना रखा गया है ।
जबकि तय मापदण्ड के अनुसार परम्परागत ट्रीटमेंट के बिना व कीटाणुआें को दूर कर पीने के जलस्त्रोत में बीओडी की मात्रा २ मिलीग्राम प्रति लीटर या इससे कम कम होनी चाहिए । इसके अलावा परम्परागत ट्रीटमेंट के साथ व कीटाणुआें को दूर कर पीने के जलस्त्रोत में बीओडी की मात्रा ३ मिलीग्राम प्रति लीटर या इससे कम होनी चाहिए । वहीं आउटडोर स्नान के लिए उपयोग में लाए जाने वाले पानी में बीओडी का स्तर भी ३ मिलीग्राम प्रति लीटर या कम होना चाहिए । यही नही मछलीपालन व वन्य जीवन के पनपने के लिए पानी में पीएच की मात्रा ६.५ से ८.५ तथा डिजाल्वड ऑक्सीजन की मात्रा ४ मिलीग्राम प्रति लीटर या अधिक तथा अमोनिया की मात्रा १.२ मिलीग्राम प्रति लीटर या कम निर्धारित है । विशेषज्ञों के अनुसार बीओडी पानी में कार्बनिक यौगिकों के माइक्रोबियल चयापचय के लिए जरूरी ऑक्सीजन की मात्रा है । पानी को शुद्ध रखने वाले जीवाणुआें के लिए बीओडी की मात्रा पानी में निर्धारित मानक से कम या ज्यादा नहीं होनी चाहिए ।

युवक ने बनाई हवा से बिजली
हवा से बिजली पैदा करके एक ग्रामीण युवक ने अपनी प्रतिभा का परिचय तो दे दिया है लेकिन सरकार से आज भी मदद का इंतजार है । ताकि वह अनोखे सपने को अंजाम दे सके ।
मेहनतकश गरीब परिवार ने कभी उसके प्रयोगों को पागलपन से ज्यादा नहीं समझा । लेकिन हवा से बिजली पैदा कर सुनील ने ऐसा करिश्मा किया कि एक नई दुनिया की उम्मीदें रोशन हो गई । अब ये गरीब परिवार पैसों से न सही, लेकिन हौसले से हमेशा सुनील का साथ देगा । सुनील ने हवा से बिजली उत्पन्न करने वाले प्रोजेक्टर से पंखा, रेडियो व ट्यूब जलाकर लोगों को हैरत में डाल दिया है ।
उ.प्र. में मुजफ्फरनगर के खेड़ा अफगान गांव के मोकम सिंह के पांच बेटों में से एक सुनील केवल सातवी तक ही पढ़ पाया, क्योंकि आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी । सुनील ने २००३ से ही बिजली पैदा करने वाला यंत्र बनाने का सपना अपने मन में संजो रखा था । चार साल के अथक प्रयास के बाद उसकी मेहनत रंग लाई और २००७ में उसने अपने सपने को साकार कर दिखाया । उसने हवा से बिजली उत्पन्न करने वाले ऐसे यंत्र का आविष्कार कर दिया । सुनील ने मात्र ५० रूपये की लागत से घर पर ही ऐसा यंत्र तैयार किया, जिससे चार वोल्ट डीसी का करंट उत्पन्न होता है । उसके इस कार्य की सराहना करते हुए बसपा के डॉ. मेघराज सिंह जरावरे ने २००८ में उसे सम्मानित किया । जब इस कारनामे की खबर बिजली निगम को लगी तो उन्होनें भी सुनील के आविष्कार को देखा ।
सुनील का कहना है कि उसके काम की सराहना तो सभी ने की, लेकिन सरकार या किसी ने कोई आर्थिक सहायता नहीं की । उसने कहा कि यदि सरकार उसे साधन उपलब्ध कराए तो वह हवा से बिजली उत्पन्न करने वाली एक बड़ी परियोजना तैयार कर सकता है । वो ऐसे आविष्कार कर सकता है जो दुनिया बदल दें ।

दवाआें में लगती है भारतीयों की ज्यादा तनख्वाह
भारत के लोग दवाआें में काफी खर्चा कर रहे हैं और इससे वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) काफी चिंतित है । डब्ल्यूएचओ के मुताबिक हाई मेडिकल बिलों के कारण ३.२ प्रतिशत भारतीय गरीबी रेखा के नीचे जा सकते है । करीब ७० प्रतिशत भारतीय अपनी पूरी इन्कम हेल्थकेयर और दवाआें को खरीदने में खर्च कर देते है । वहीं दूसरे एशियाई देशों जैसे श्रीलंका में ये प्रतिशत ३० से ४० प्रतिशत है ।
योजना आयोग ने भी यह माना है कि हेल्थकेयर में भारी खर्चा भारत की तेजी से बढ़ती समस्या है । बताया गया है कि हर साल ३ करोड़ ९० लाख लोग खराब सेहत की वजह से गरीबी की ओर बढ़ रहे है । साल २००४ में करीब ३० प्रतिशत ग्रामीण इलाके के लोग आर्थिक मजबूरी की वजह से कोई ट्रीटमेंट नहीं ले पाए । शहरी इलाकों में यह प्रतिशत थोड़ा कम रहा । यहां २० प्रतिशत बीमारी से पीड़ित लोग आर्थिक तंगी के कारण अपना इलाज नहीं करा पाए ।
भारत के ग्रामीण और शहरी इलाकों के अस्पतालोंमेंकरीब ४७ और ३१ प्रतिशत भर्ती लोग ऋण और संपत्ति को बेचकर अपना इलाज करा रहे हैं ।

वृक्ष गंगा अभियान में एक करोड़ पौधे लगेंगे

गायत्री परिवार द्वारा परिवार के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा की जन्म शताब्दी के दौरान १ करोड़ पौधे लगाने का वृक्ष गंगा अभियान प्रारंभ किया गया है ।
गायत्री परिवार के प्रमुख प्रणव पंड्या ने बताया कि इस अभियान के लिए हरियाणा, राजस्थान, उप्र, मप्र, गुजरात, बिहार और झारखंड जैसे उन राज्यों को चुना गया है, जहाँ वृृक्षावरण १५ फीसदी से भी कम है । उन्होनें कहा कि योजना आयोग के अनुसार भी स्वस्थ पर्यावरण के लिए प्रत्येक राज्य के कुल क्षेत्रफल में कम से कम ३३ प्रतिशत इलाके में वृक्षारोपण होना चाहिए । मगर योजना आयोग के आवश्यक मानदंडों को पूरा करने में सारे सरकारी प्रयास नाकाफी हो गए है । यही वजह है कि गायत्री परिवार ने इस महाअभियान को प्रारंभ किया है ।
पेड़ सांसों में छोड़ी गई दूषित कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर वातावरण को भी शुद्ध करते है । यही कारण है कि लोगों को शुद्ध वायु प्रदान करने के लिए गायत्री परिवार ने वृक्ष गंगा अभियान प्रांरभ किया है । अभियान के तहत उन पेड़ों की प्रजातियों को प्रमुखता से चुना गया है जिनकी आयु अधिक होती है ।
वृहद पैमाने पर लगाए गए पौंधों की देखभाल करने के लिए तरूमित्र और तरूपुत्र भी बनाए गए है, जो पौधों के बड़ा होने तक उनकी देखरेख करेंगे । केवल इतना ही नहीं, शांतिकुंज आश्रम में विभिन्न संस्कार संपन्न कराने पर तरू प्रसाद के रूप में पौधे दिए जा रहे हैं । अब तक ५ लाख पौधे बाँटे जा चुके है ।

कृषि जगत

जैविक खेती और जैव उर्वरक
डॉ. वाई.पी. गुप्त
आजकल कुछ देश (यू.एस.ए., कनाड़ा, पौलेंड आदि) रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बिना उगाए गए जैविक खाद्य को बढ़ावा दे रहे हैं । ये उत्पाद पौष्टिक है । जैविक फल और सब्जियों में रासायनिक उर्वरकों से उगाई गई फल-सब्जियों की अपेक्षा ४० प्रतिशत ज्यादा एन्टी ऑक्सीडेन्टस होते है । इन उत्पादों को एक एजेन्सी से प्रमाणित कराने की आवश्यकता होती है ।
देश में हरित क्रांति के लिए खेती में इनपुट्स और ऊर्जा का अधिक उपयोग किया जाता है, जिसमेंउन्नत बीजों, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, सिंचाई, मशीनों आदि का उपयोग करना पड़ता है । परन्तु हरित क्रान्ति ने पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पैदा किया है । ये प्रभाव भूमि, पानी और जैव संसाधनों पर देखे जा सकते है । पानी के भराव और लवणीकरण के कारण भूमि उपजाऊ नहीं रही और फसल कटाई के बाद की हानियां भी काफी है ।
इसलिए भारत भी जैविक खेती को बढ़ावा दे रहा है । कई राज्यों में ३८ लाख हैक्टर भूमि पर ज्यादा कीमती फसलें (जैसे मसाले, फल, सब्जियां, दूध) पैदा की जा रही है और मुर्गी पालन किया जा रहा है । इन उत्पादों से २५-३० प्रतिशत ज्यादा कीमत मिलती है । पिछले एक वर्ष में भारत ने इन उत्पादों को यू.एस., जापान, यूरोपीय देशों आदि को निर्यात कर ७८० करोड़ डॉलर प्राप्त् किए हैं ।
जैविक खेती से पर्यावरण को कोई हानि नहीं होती है और यह भूमि का उपजाऊपन कायम रखती है । इनकी लागत कम होती है । इससे गरीब किसानों की आमदनी बढ़ने लगी है और ग्रामीण गरीबी कम होने की आशा है ।
पंजाब में जैविक खेती किसानों के लिए एक वरदान है, क्योंकि इससे उन्हें कर्ज लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती और घरेलू गोबर खाद का ही उपयोग होता है । केरल में उपजाऊ खेती के २० प्रतिशत भाग पर जैविक खेती हो रही है और जैव उर्वरकों को बढ़ावा दिया जा रहा है ।
आज खेती में नाइट्रोजन की खपत अधिक (लगभग १०० कि.ग्रा. प्रति हैक्टर) होती है । नाइट्रोजन की वर्तमान आवश्यकता कृत्रिम उर्वरकों से पूरी होती है । इनका उपयोग प्रति वर्ष बढ़ रहा है । इसका एक भाग आयात से पूरा किया जाता है । ये उर्वरक बहुत महंगे है । इनके उत्पादन में ऊर्जा भी अधिक लगती है । इसलिए ऊर्जा की तंगी के समय से इस बात पर ध्यान दिया गया है कि वायुमण्डल की नाइट्रोजन को जैविक तरीके से सीधे ही उपयोग किया जाए । फिलहाल अनेक प्रकार के १०,००० टन से ज्यादा जैव उर्वरकों का उपयोग हो रहा है ।
सामान्य उपयोग में आ रहे जैव उर्वरक राइजोबियम एजेटोबैक्टर प्रजातियां तथा नील-हरित शैवाल हैं । वैसे तो यह भूमि में प्राकृतिक तौर पर होती है । नील-हरित शैवाल सामान्यत: तालाबों और धान के खेतों में रूके हुए पानी की सतह पर उगती है । इनकी अच्छी किस्में अलग की जा रही हैं और इन्हें बड़ी मात्रा में व्यापारिक स्तर पर उगाया जा रहा है ताकि अनेक फसलों में उपयोग किया जा सके । एजोस्पारिलम आधारित उर्वरक भी आजकल उपयोग किए जा रहे हैं । इन्होने अच्छे परिणाम दिए हैं और इनकी अच्छी संभावनाएं है । इनके उपयोग से अनाज की पैदावार में बढ़ोतरी होती है और २०-४० कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर की बचत होती है ।
सहजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकरण पद्धति में जीवाश्म ईधन की बजाए प्रकाश-संश्लेषण से प्राप्त् ऊर्जा का उपयोग होता है । इस क्रम में वायुमण्डल की नाइट्रोजन अमोनिया में परिवर्तित की जाती है । इस कार्य में कुछ पौधों में उपस्थित जैविक उत्प्रेरक या प्राकृतिक तौर पर भूमि में पाए जाने वाले जीवाणु सहायता करते है ।
इस पद्धति में कुछ नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु (राइजोबियम प्रजातियां) दलहनी पौधों की जड़ों की गांठों में सहजीवी की तरह रहते हैं । गांठों में हीमोग्लोबिन प्रकार का रंजक लेजीमोग्लोबिन होता है जो ऑक्सीजन ग्रहण में सहायता करता है और नाइट्रोजनी क्रियाआें को बढ़ावा देता है। प्रक्रम की कार्यक्षमता और नाइट्रोजन स्थिरीकरण की मात्रा एंजाइम के संश्लेषण, नियंत्रण और नियमन पर निर्भर करती है । जैविक तंत्र में एंजाईम के नियमन करने वाले जीवों के जीन पहचाने जा चुके हैं । प्रयास किए जा रहे हैं कि ये जीन दलहीन फसलों में प्रवेश कर जाएं । गेहूं जैसी महत्वपूर्ण फसलों में यह सहसंबंध बढ़ाकर नाइट्रोजन स्थिरीकरण शुरू करवाने में संसार भर में दिलचस्पी ली जा रही है ।
इसमें कोई संदेह नही है कि जीन्स को पौधों की कोशिकाआें में स्थानान्तरित करके सहजीवी सहसम्बंध स्थापित करने की काफी संभावनाएं हैं । फिर भी कुछ जैविक बाधाएं हैं जो टेक्नॉलॉजी और इकॉलॉजी की दृष्टि से सीमाकारी हैं । इस कारण से एजेटोबैक्टर और राइजोबियम के दोहन में सीमित सफलता मिली है ।
जीवाश्म ईधन पर निर्भरता कम करने के लिए जैव उर्वरकों के उपयोग हेतु जैव नाइट्रोजन स्थिरीकरण की सफलता इन बाधाआें से निपटने पर निर्भर करती है । दलहनों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने में एक मुख्य बाधा ऊर्जा की उपलब्धता की है जो प्रकाश संश्लेषण की कार्यक्षमता पर निर्भर करती है । इसलिए नाइट्रोजन स्थिरीकरण को बढ़ाने के लिए प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया में बढ़ोतरी होना आवश्यक है । नाइट्रोजन स्थिरीकरण का भविष्य इस बात पर भी निर्भर करेगा कि पर्यावरण के कारक नाइट्रोजन का नियमन कैसे करते हैं ।
वेैसे कई मुक्त जीवाणु, जैसे एजोटोबैक्टर या क्लोस्ट्रीडिया, ऑक्सीजन की उपस्थिति या अनुपस्थिति में वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं । यह क्रिया जीवाणु की किस्म और उचित नमी, ताप, अम्लीयता, ऊर्जा स्त्रोत आदि पर निर्भर करती है । रोडोस्पाइरिलम, पर्पल सल्फर जीवाणु और ग्रीन सल्फर जीवाणु जैसे कुछ प्रकाश-संश्लेषक जीवाणु हैं जो अवायवीय परिस्थितियों में प्रकाश को रासायनिक तरीके से नाइट्रोजन में स्थिर करते हैं ।
नील-हरित शैवाल में भी नाइट्रोजन स्थिरीकरण की क्षमता होती है । यह शैवाल अब व्यापारिक स्तर पर उगाकर, सुखाकर, पैकटों में जैव उर्वरक की तरह बेची जाती है । इसका उत्पादन लगभग ५०० टन है । पांच प्रतिशत नील हरित शैवाल युक्त मिट्टी आजकल जैव उर्वरक के रूप में उपयोग की जाती है। इससे प्रति हेक्टर ३० कि.ग्रा. नाइट्रोजन उर्वरक की बचत होती है ।
नील-हरित शैवाल का अतिरिक्त लाभ यह है कि इसके उपयोग से लवणीय भूमियों में लवणीयता कम हो जाती है । धान के खेतों में उपयोग के लिए यह लाभदायक है, क्योंकि वहां इसे अपनी पैदावार के लिए अनुकूल परिस्थितियां मिलती हैं । इन शैवालों को गेहूं के खेतों में उपयोग नहीं किया जा सकता है । फिर भी इस जैव उर्वरक का दोहन, विशेषकर प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए, शैवालों की अनुकूल किस्म के विकास पर निर्भर करेगा । कृषि वैज्ञानिक इन कठिनाईयों को दूर करने के लिए अनुसंधान कर रहे हैं । जिनेटिक्स के क्षेत्र से बड़ी आशाएं हैं ।
भारतीय कृषि का दूरगामी भविष्य इन प्रयासों की सफलता पर निर्भर करता है जो अंतत: उर्वरकों पर निर्भरता कम करके पुन: प्रकृति के सहारे आगे बढ़ना सिखाता है ।

जन जीवन

जीविका और जीवन उजाड़ता पर्यटन
सुश्री आरती श्रीधर

पूरा सरकारी तंत्र पर्यटन को रोजगार का बड़ा स्त्रोत बता रहा है । साथ ही इससे मिलने वाली विदेशी मुद्रा पर इतराता भी है । पर्यटन विकास की प्रक्रिया में हम भूल जाते हैं कि इससे पारम्परिक संसाधनों पर आश्रित समुदाय के रोजगार को चोट पहुंचती है। आवश्यकता है इस विरोधाभासी प्रवृत्ति को विस्तार से समझ कर कोई समझबूझ भरा हल निकाला जाए ।
इससे आगे जाना असंभव है । हाल ही में बनी पक्की सड़क एकाएक गायब हो गई । ऐसा लगता है कि बंगाल की खाड़ी की लहरें इस सड़कों को लील गई हैं । परन्तु अजीब बात है कि इसी के समानांतर भूमि पर समुद्र की भूख से अविचलित भवन निर्माण कार्य बदस्तूर जारी है । सामान्यतया समुद्र के इतने समीप निर्भीक होकर रहने का साहस केवल मछुआरे ही कर सकते हैं । परन्तु सोनार बांग्ला होटल या विशाल व मनोहारी श्री धनंजय कथा बाबा आश्रम या गांधी लेबर फाउंडेशन की रहवासी कॉलोनी, मछुआरों की रिहायशों के सटीक नाम नहीं जान पड़ते हैं और ना ही पुरी शहर के भीड़ भरे सी बीच रोड़ (समुद्र किनारे की सड़क) पर एक दूसरे से जुड़े हुए कपड़े के असंख्य एम्पोरियम, लाज, होटल या रेस्टारेंट कहीं से भी मछुआरों की बस्ती का आभास नहीं देते । वास्तविकता तो यही है कि यह सड़क किसी भी कोण से ओडिशा के समुद्रतटीय क्षेत्र का आभास नहीं देती ।
नेशनल फिशर वर्कस फोरम (एनएफएफ) ने २००८ में पारम्परिक मछुआरा समुदाय के लिए शर्तिया भूमि अधिकार की मांग करते हुए नारा दिया था समुद्र तट बचाओ-मछुआरों को बचाआें । प्रतिवर्ष जुलाई के महीने में लाखों श्रद्धालु भगवान जगन्नाथ और उनके संबंधियोंसे संबंधित रथयात्रा में शामिल होने के लिए शहर में इकट्ठा होते हैं । मंदिर भी पुरी के एक मछुआरा शहर होने का सहजता से छुपा लेता है और श्रद्धालु पर्यटक भी सी बीच रोड पर हो रहे तमाशे की वजह से इस स्थान पर कब्जा कर लेते हैं । इससे बची खुची जमीन भी समुद्र तट का हिस्सा हो जाती है और तट पर रहने वालों के लिए स्थान भी कम होता जाता है ।
मछुआरों की ये बस्तियां पुरी नगर पालिका की सीमा में स्थित हैं । इसमें मछुआरों की एक जाति नालिया निवास करती है, जो कि यहां विभिन्न चरणों में आकर बसी है । १५० वर्ष पूर्व बसी बालिनोलियासाही सबसे पुरानी बस्ती है जो कि बसे मध्य में स्थित है। इसके ५ कि.मी. उत्तर में पेंटाकोटा नामक बसाहट है जो कि मात्र ६० वर्ष पुरानी है । इसके दक्षिण में गौडाबादसाही स्थित है । पेटाकोटा सबसे बड़ी बस्ती है । जिसकी आबादी करीब बीस हजार है । बालिनोलियासाही और गौडाबादसाही में क्रमश: ५ हजार व ३ हजार मछुआरे रहते हैं ।
पुरी जिले की ओडिशा पारम्परिक मछुआरा यूनियन के समन्वयक अंका गणेश राव हमें इस बस्ती में ले गए जिसे सघन होटलों और दुकानों में घेर रखा है । इस मछुआरा बस्ती में न तो किसी के पास पट्टा है और बालिनोलियासाही जैसी बस्ती के लोगों के पास सामुदायिक अधिकार भी नहीं है । राज्य द्वारा मछुआरा समुदायों को भू स्वामित्व या भूअधिकार देने का मसला अभी भी उलझा हुआ है । सर्वव्याप्त् विभ्रम और अनेक विकल्पों के चलते ऐसा कोई कानूनी प्रयत्न हीं नहीं हो रहा है जिससे मछुआरा समुदाय की स्थिति और उनके अधिकार सुस्पष्ट हो सके ।
समुद्र तट मछुआरा समाज के सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन से जुड़ा हुआ है तभी तो वे समुद्रतटीय विषम जलवायु, चक्रवात और तूफान से निपटते रहते हैं । सन् १९९९ में आए भयावह तूफान के बावजूद सभी बस्तियां तट पर पर उसी स्थान पर बसी हुई हैं । हाल ही में विभिन्न कारणों के चलते समुदाय दूसरी जगह बसने को तत्पर हुआ है । भूमि की उपलब्धता और तट पर स्थान की कमी बसाहटों की वृद्धि में बड़ी रूकावट है । समुद्र के क्षरण के कारण भी कई परिवार सरकार द्वारा सुझाई गई भूमि पर बसने के प्रस्ताव से सहमत हो रहे हैं । परन्तु पारम्परिक मछुआरा, समुदायों को अपनी नावों को खड़ा करने, मछलियों की नीलामी, मछली सुखाने, जाल बनाने व सुधारने के लिए समुद्र पर स्थान की आवश्यकता है । इसी के साथ वर्ष में औसतन पर्यटकों के दो बार भ्रमण के कारण होने वाली अत्यन्त भीड़ की वजह से वहां पर विभिन्न गतिविधियां चलती रहती है । इस सबके बीच पुरी के होटल मालिक जो कि मछुआरों की गतिविधयों से अनभिज्ञ भी नहीं हैं, लगातार असहनशील बने हुए हैं ।
मछुआरे मछलियों को पकड़ने के बाद उन्हें तट पर फैलाते है । होटल वाले जिला कलेक्टर से बदबू की शिकायत करते हैं । पुलिस मछुआरों को धमकी देती है । मछुआरे क्षेत्र खाली कर देते हैं । इसके बाद वे कुछ देर, इंतजार करते हैं, देखते हैं और तट पर वापस आ जाते हैं । बालिनोलियासाही मछुआरे पूछते है कि यदि हम मछलियां तट पर नहीं रखेंगे और सुखाएंगे तो ये कार्य और कहां करेंगे । पर्यटन से संबंधित निर्माण की अंतिम परिणिति पेंटाकोटा मछुआरा बस्ती है । हालांकि यह सघन और बड़ी बस्ती है और ओडिशा के समुद्र तट पर बसी अन्य नालिया बस्तियों की तरह दूर तक फैली हुई है ।
पेंटाकोटा भारत के ३२०२ मछुआरा गांवों में से एक हे । नवीनतम जनगणना के अनुसार इन गांवों में ३५.२० लाख मछुआरे रहते हैं । आजादी के बाद से आज तक किसी भी राज्य सरकार ने यह आवश्यक नहीं समझा कि मछुआरा समुदाय को समुद्रतटीय भूमि पर अधिकार दे दिए जाए । इतना ही नहीं उन्हें समुद्र में पहुंच संबंधी अधिकार भी नहीं दिए गए । इसके विपरीत प्रत्येक सरकार ने समुद्रतटीय औद्योगिकरण और गैर समुद्रीय गतिविधियों को वरदहस्त प्रदान कर रखा है ।
नोबल पुरस्कार विजेता इलिनोट ओस्ट्रोम द्वारा सामान्य लोगों पर किया गया अध्ययन बताता है कि सामुदायिक संपत्ति संसाधन के सिद्धांत को सामान्यतया बहुत ही हल्के फुल्के ढंग से समझा गया है । लेकिन इस संबंध में की गई कोई भी गलती का प्रभाव पारम्परिक रूप से इन संसाधनों पर निर्भर समुदाय के जीवित रहने और उनकी पहचान पर विपरीत ही पड़ेगा ।

ज्ञान विज्ञान

अब पानी में घुलेगा प्लास्टिक
प्लास्टिक के आयटम आप हमेशा बाजार से खरीदते रहते है । क्या कभी आपने सुना है कि प्लास्टिक भी पानी में घुल जाता है । वैज्ञानिकों ने प्लास्टिक को पानी में घुलने वाला बनाया है ।
इटली की एक कंपनी ऐसी प्लास्टिक बना रही है जो पानी में घुल सकती है । चुकंदर से निकलने वाले कचरे से प्लास्टिक का निर्माण हो रहा है । चुकंदर के उत्पादन से निकलने वाले बाई प्रॉडक्ट वातावरण के लिए वरदान साबित हो सकते है । इसके अलावा दुनिया की निर्भरता तेल से बनने वाली प्लास्टिक पर भी कम हो सकती है । एक छोटी इतावली कंपनी बायो ऑन जैव प्लास्टिक के क्षेत्र में नवीनतम प्रयास का प्रतिनिधित्व कर रही है ।
चुकंदर से बने प्लास्टिक १० दिन में पानी में घुल जाते है । बायो ऑन के वैज्ञानिकों ने पांच साल की मेहनत के बाद शीरे को प्लास्टिक में तब्दील किया है । कम्पनी चुकंदर के शीरे को ऐसे जीवाणु के साथ मिलाती है, जो किण्वन के दौरान चीनी पर पलते है । इस प्रक्रिया के दौरान लैक्टिक एसिड, फिल्ट्रेट और पॉलीमर बनता है, जिसका इस्तेमाल प्राकृतिक तरीके से सड़ने वाली प्लास्टिक बनाने में हो सकता है ।
इटली के शहर मिनेर्बिया में सबसे बड़ी चीनी उत्पादक कंपनी को प्रो बी चीनी बना रही है । लेकिन बायो ऑन की दिलचस्पी चीनी में नहीं, चुकंदर से चीनी बन चुकने के बाद बची हुई चीजों में है, जिसे कचरा मानकर फेंक दिया जाता है । चुंकदर के अशुद्धिकृत शीरे से बायो ऑन प्लास्टिक बनती है । चीनी के कारखाने से शीरा कचरें के तौर पर निकलता है ।
बॉयो ऑन के मुख्य जीव विज्ञानी साइमन बिगोटी ने पत्रकारों को बताया कि प्लास्टिक के लिए दुनिया की बढ़ती भूख से हम कई तरह की चीजें बना सकते हैं, क्योंकि कई तरह की प्लास्टिक सूत्रीकरण बना पाना मुमकिन है । हम पॉलीइथाइलिन, पॉलीस्टाइरीन, पॉलीप्रॉपाईलीन को बदल सकते है । कंपनी ने बॉयो पॉलीमर्स का विकास किया है । इसका इस्तेमाल कठोर और लचीली प्लास्टिक के लिए किया जा सकता है । बिगोटी का मानना है कि बायो प्लास्टिक उनके दफ्तर में प्लास्टिक से बनी ८० चीजों की जगह ले सकती है । बायो प्लास्टिक कई चीजों से बनती है । बिगोटी कहते हैं, हम ऐसी प्लास्टिक बना रहे है, जो जीवनकाल के खत्म होने के १० दिन के भीतर पानी में घुल जाएगी ।
एक शोध के मुताबिक बॉयो प्लास्टिक का बाजार २०११ और २०१५ के बीच दोगुना हो जाएगा । २०१० में सात लाख टन प्लास्टिक का उत्पादन हुआ, जो इस साल १० लाख टन को पार कर जाएगा ।
वृद्धि के बाजवूद बायो प्लास्टिक का बाजार तेल आधारित प्लास्टिक की तुलना में छोटा है । प्लास्टिक उद्योग एसोसिएशन के मुताबिक २०१० में २७ करोड़ टन प्लास्टिक की खपत हुई । यूरोपीय बायो प्लास्टिक के अध्यक्ष कैब को विश्वास है कि यूरोप के प्लास्टिक बाजार के कुल हिस्से का ५ से १० फीसदी जगह बायो प्लास्टिक ले सकती है । बायो प्लास्टिक बनाने के लिए सिर्फ बायो ऑन ही शोध नहीं कर रही है ।
रसायन कंपनी जैसे बीएएसएफ ब्रास्केम एण्ड डॉ भी बायो प्लास्टिक उत्पाद बना रहे हैं । कंपनियां बायो प्लास्टिक उत्पादन क्षमता भी बढ़ा रही है । आम तौर पर प्लास्टिक को प्रदूषण बढ़ाने के लिए भी जिम्मेदार ठहराया जाता है । बायो ऑन के सह-संस्थापक मार्कोअस्टोरी का कहना है कि उनकी कंपनी अनोखी है, क्योंकि वह कचरे का इस्तेमाल कर प्लास्टिक बनाती है ।

चिंपैंजी भी समझ सकते है भाषा
अगर आपको लगता है कि केवल इंसानों के पास ही भाषा की समझ होती है तो आप गलत हो सकते है । एक नए अध्ययन में पाया गया है कि संभवत: चिपैजियों के पास भी भाषा को समझने की क्षमता होती है । पैंजी नाम की २५ साल की एक मादा चिंपैंजी पर किए गए इस अध्ययन से पता चलता है कि सुशिक्षित किए गए जानवर १३० से ज्यादा अंगेे्रेजी शब्दों को समझ सकते है ।
इसके अलावा वह शब्दों को साइन वेव के रूप में भी पहचान सकते है । डिस्करवरी न्यूज की रिपोर्ट के मुताबिक इस अध्ययन से पता चला कि चेपैंजी ने न सिर्फ किसी खास व्यक्ति की आवाज और भावनाआें पर ही प्रतिक्रिया दी बल्कि उसने मनुष्यों की ही भांति बातचीत को ग्रहण भी किया । यह अध्ययन जार्जिया स्टेट विश्वविघालय के भाषा शोध केन्द्र द्वारा किया गया ।
इस अध्ययन के लिए हेमबॉर और उनके सहयोगियों ने साइन वेव के रूप में संचारित किए गए शब्दों को समझने की पैंजी क्षमता को परखा । प्रयोग के लिए जिन शब्दों का उपयोग किया गया उनमें टिकल, एमएंडएम, लेमोनेड और स्पार्कलर कुछ प्रमुख शब्द थे । इसके अलावा जब शब्दों को उनके सहज बातचीत के ध्वनि तत्वों से अलग कर प्रस्तुत किया गया तब भी पैंजी ने उनके मतलब को पकड़ लिया और उनके समतुल्य चित्रों से उनका मिलान कर दिया ।
अकूस्टिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका की वार्षिक बैठक के दौरान प्रस्तुत किए गए इस अध्ययन से स्पीच इज स्पेशल नामक सिद्धांत का खंडन होता है ।
पक्षियों के निर्बाध उड़ने का रहस्य खुला
अमेरिका में भारतीय मूल के एक अनुसंधानकर्ता की अगुवाई मेंवैज्ञानिकों ने इस बात का पता लगा लिया है कि पक्षी संकरे स्थानों से, बिना किसी अवरोध से टकराए निर्बाध उड़ान कैसे भर लेते है ।
विजन सेंटर के प्रो. मान्दमय श्रीनिवासन और क्वीन्सलैण्ड विश्वविद्यालय में उनके सहयोगियों ने पता लगाया है कि पक्षी घने जंगलों से और संकरे स्थानों से बार बार और सुरक्षित उड़ान इसलिए भर लेते हैं, क्योंकि उनकी आंखे दोनो ओर की पृष्ठभूमि की तस्वीरों की गति भांप कर उसके अनुसार अपनी उड़ान को समन्वित कर लेती हैं । अनुसंधानकर्ता का कहना है कि यह खोज पक्षियों के लिए सुरक्षित शहरी ढांचा तैयार करने कई तरह के सुधार करने में उपयोगी साबित हो सकती है ।
प्रो. श्रीनिवासन ने कहा कि जैसे पशु आगे की ओर बढ़ते है तो उनके करीब की वस्तुएं भी तेज गति से उनकी ओर आती प्रतीत होती है, जबकि दूर की वस्तुआें की गति धीमी प्रतीत होती है । यही बात पक्षियों के लिए भी लागू होती है । हमने पाया कि पक्षी पहले यह सुनिश्चित करते है कि उनकी दोनो आंखों में पृष्ठभूमि की तस्वीरों की गति उनकी उड़ान जितनी ही हो और इसके बाद वह सुरक्षित संतुलन बनाते है ।
उन्होने कहा कि इसका मतलब यह है कि अगर पक्षी किसी एक ओर कोई अवरोध के करीब पहुंचता है तो उस ओर की आंख तेजी से उस अवरोध को गुजरते हुए देख लेगी । दूसरी आंख से उस अवरोध की गति धीमी नजर आएगी । इस असंतुलन के कारण पक्षी फौरन उस अवरोध से दूर हो जाएगा ।
अमेरिका में भारतीय मूल के एक अनुसंधानकर्ता की अगुवाई मेंवैज्ञानिकों ने इस बात का पता लगा लिया है कि पक्षी संकरे स्थानों से, बिना किसी अवरोध से टकराए निर्बाध उड़ान कैसे भर लेते है ।
विजन सेंटर के प्रो. मान्दमय श्रीनिवासन और क्वीन्सलैण्ड विश्वविद्यालय में उनके सहयोगियों ने पता लगाया है कि पक्षी घने जंगलों से और संकरे स्थानों से बार बार और सुरक्षित उड़ान इसलिए भर लेते हैं, क्योंकि उनकी आंखे दोनो ओर की पृष्ठभूमि की तस्वीरों की गति भांप कर उसके अनुसार अपनी उड़ान को समन्वित कर लेती हैं । अनुसंधानकर्ता का कहना है कि यह खोज पक्षियों के लिए सुरक्षित शहरी ढांचा तैयार करने कई तरह के सुधार करने में उपयोगी साबित हो सकती है ।
प्रो. श्रीनिवासन ने कहा कि जैसे पशु आगे की ओर बढ़ते है तो उनके करीब की वस्तुएं भी तेज गति से उनकी ओर आती प्रतीत होती है, जबकि दूर की वस्तुआें की गति धीमी प्रतीत होती है । यही बात पक्षियों के लिए भी लागू होती है । हमने पाया कि पक्षी पहले यह सुनिश्चित करते है कि उनकी दोनो आंखों में पृष्ठभूमि की तस्वीरों की गति उनकी उड़ान जितनी ही हो और इसके बाद वह सुरक्षित संतुलन बनाते है ।
उन्होने कहा कि इसका मतलब यह है कि अगर पक्षी किसी एक ओर कोई अवरोध के करीब पहुंचता है तो उस ओर की आंख तेजी से उस अवरोध को गुजरते हुए देख लेगी । दूसरी आंख से उस अवरोध की गति धीमी नजर आएगी । इस असंतुलन के कारण पक्षी फौरन उस अवरोध से दूर हो जाएगा ।

जीवन शैली

भोजन की स्वतंत्रता का संघर्ष
सुश्री वंदना शिवा

जीनांतरित तकनीक व जी.एम. फसलों से हमारी पूरी भोजन प्रणाली परिवर्तित हो जाएगी । जी.एम. मक्का और जी.एम. आलू पर किए गए प्रयोग व शोध बताते है कि इनका नाजुक अंगों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । दूसरी और भारत में पिछले पन्द्रह वर्षो में जिन २,५०,००० किसानों ने आत्महत्या की है, उनमें से अधिकांश ने मोन्सेन्टा द्वारा विकसित बी.टी. कपास का बीज ही लगाया था ।
हमें बारम्बार बताया गया है कि जीनांतरित फसलें (जी.ई.) ही इस दुनिया का बचा पाएंगी । वे पैदावर बढ़ाकर और अधिक खाद्यान्न उपजा कर इस विश्व को बचा सकती है । वे कीड़े-मकोड़ो और खरतपवार पर नियंत्रण कर भी विश्व को बचाएंगी । वे अकाल को सहन कर पाने वाले बीज जो कि जलवायु परिवर्तन के समय में मददगार सिद्ध होंगे ऐसे बीज किसानों को उपलब्ध करवाकर विश्व को बचा लेगी । परन्तु जी.ई. के सम्राट मोन्सेन्टो के ये दावे विश्व भर के अनुभवों के आधार पर झूठे साबित हुए हैं । यह भी एक कटु वास्तविकता है कि अब तक जीनांतरित फसलों से एक भी फसल की पैदावार नहीं बढ़ी है ।
नवधान्य के भारत में किए गए शोध बताते है कि मोन्सेन्टो का यह दावा कि बी.टी. कपास की फसल प्रति एकड़ १५०० किलोग्राम फसल देती है, के विपरीत वास्तविकता यह है कि इस बीज से प्रति एकड़ मात्र ४००-५०० किलोग्राम कपास ही उपजती है । वही अमेरिका में यूनियन ऑफ कंसर्न्ड साइंटिस्ट की रिपोर्ट पैदावार में असफलता स्थापित करती है कि जी.ई. तकनीक ने किसी भी फसल की पैदावार बढ़ाने में कोई योगदान नहीं किया है । इस रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में पैदावार में वृद्धि मात्र फसल के पारम्परिक चरित्र से ही संभव हो पाई है। जी.ई. फसलों के व्यावसायिकरण के बीस वर्षोमेंकेवल दो धाराएं व्यापक स्तर पर विकसित हुई है वे हैं खरपतवार से सुरक्षा और कीड़ों से बचाव ।
खरपतवार रोधी (या रांउड अप रेडी) फसलों से उम्मीद की जा रही थी कि वे खरपतवार में कमी लाएंगी । वहीं बी.टी. फसलों का उद्देश्य था कीट नियंत्रण । परन्तु बजाए खरपतवार और कीड़ों पर नियंत्रण के जी.ई. फसलों के माध्यम से सुपर खरपतवार और सुपर कीड़े विकसित हो गए जिनसे अब किसी भी साधारण तरीके से निपट पाना असंभव है । ऐसा अनुमान है कि १.५ करोड़ एकड़ कृषि भूमि सुपर खरपतवार द्वारा लील ली गई है और उसे समाप्त् करने हेतु किसानों को मोन्सेन्टो को वियतनाम युद्ध में इस्तेमाल किए गए जानलेवा खरपतवार नाशक एजेन्ट आरेंज के इस्तेमाल हेतु १२ डॉलर प्रति एकड़ के हिसाब से भुगतान करना पड़ रहा है ।
भारत में बी.टी. कपास को बोलगार्ड के नाम से बेचा गया एवं उम्मीद की जा रही थी कि यह बोलवार्म नामक कीड़े पर नियंत्रण कर लेगा । लेकिन अब बोलवार्म ने बी.टी. कपास के खिलाफ ही प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न कर ली है । अतएव अब मोन्सेन्टो बोलगार्ड-।। बेच रहा है, जिसमें कि दो अतिरिक्त जहरीली जीन हैं । इसके परिणामस्वरूप नए किस्म के कीड़े उभर आए हैं और किसानों को कीटनाशकों पर पहले से अधिक व्यय करना पड़ रहा है ।
मोन्सेन्टो दावा कर रही है कि वे जी.ई. के जरिए अकाल का मुकाबला करने वाली एवं जलवायु परिवर्तन से अप्रभावित रहने वाली फसलें विकसित कर पाएगी । यह एक झूठा वादा है । अमेरिका कृषि विभाग ने मोन्सेन्टो के नए अकालरोधी जी.ई मक्का के पर्यावरणीय प्रभाव पर अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पारम्परिक बीज तैयार करने वाली पद्धतियों के माध्मय से भी इतनी ही मात्रा में पैदावार देनी वाली मक्का के बीज तैयार किए जा सकते है । वही ब्रिटेन की जीन वाच की हेलेन वालास ने चेतावनी देते हुए कहा है कि जीनांतरित बीजों वाले उद्योग को आम आदमी को यह विश्वास दिलाने वाली अपनी सनक से बाहर आना चाहिए कि विश्व का पेट भरने के लिए जी.एम. फसलों की आवश्यकता है ।
जी.ई. सम्राट ने कोई कपड़े नहीं पहन रखे है अर्थात् जी.ई. फसलें विश्व का पेट नहीं भर सकती, लेकिन उनमें इस विश्व को नुकसान पहुंचाने और गुलाम बनाने की क्षमता तो है । अब तक ऐसे भरपूर अध्ययन हो चुके हैंजो हमें बताते है कि जी.ई. भोजन से स्वास्थ्य को हानि पहुंच सकती है । उदाहरण के लिए बायो केमिस्ट अरपाड पुस्झ्ताई का शोध बताता है कि जिन चूहों को जी.ई. आलू खिलाए गए उनके अग्नाशय बढ़ गए, दिमाग सिकुड़ गया और प्रतिरोधक क्षमता का क्षरण हुआ । वहीं गिल्लीस-इरिक सेरालिनि का शोध बताता है कि अन्य अंगों को भी हानि पहुंची है ।
यूरोपीय संघ के आदेश पर कमेटी ऑफ इंडिपेडेंट रिसर्च एण्ड इन्फारमेशन ऑन जेनेटिक इंजीनियरिंग एवं केईन और रोयेन स्थिति विश्वविद्यालयों ने मोन्सेन्टो द्वारा सन् २००२ में जी.ई. मक्का की स्वीकृत किस्मों एन.के. ६०३ (राउण्ड अप से मुकाबला कर सकने वाला) और एम.ओ.एम. ८१० एवं एम.ओ.एम. ८६३ (दोनों में कीडों से बचाव हेतु रासायनिक जहर इस्तेमाल किया गया था) को चूहों को खिलाए जाने के नतीजे सन् २००५ में सार्वजनिक किए गए । इससे साफ जाहिर हुआ कि इससे चूहों के अंगों को नुकसान पहुंचा है । केईन विश्वविद्यालय की जीव विज्ञानी सेरालिनी का कहना है कि आंकड़ों से साफ पता चलता है कि इससे किडनी और लीवर एवं अन्य शुद्धिकरण अंगो पर विपरीत प्रभाव पड़ा है इसी के साथ दिल, तिल्ली और रक्त प्रणाली भी खराब हुई है । बायो तकनीक उद्योग ने पुस्झाताई, सेरालिनी एवं ऐसे सभी स्वतंत्र वैज्ञानिकों के प्रति आक्रोश जताया जिन्होनें जीनांतरित प्रणाली का स्वतंत्र शोध किया है । इससे साफ जाहिर होता है जीनांतरित प्रणाली का स्वतंत्र शोधकर्ताआें और स्वतंत्र विज्ञान के साथ सहअस्तित्व हो ही नहीं सकता । ऐसा नहीं है जीनांतरित प्रणाली के प्रभाव सिर्फ स्वास्थ्य पर ही पड़ेगे । इसका पर्यावरण पर भी प्रभाव पड़ेगा । केनेड़ा के एक किसान को पड़ोस के खेत में लगी जी.ई. फसलों से फैले प्रदूषण की वजह से अपने पारम्परिक बीजों से हाथ धोना पड़ गया ।
सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के अतिरिक्त जी.ई. बीज पेंटेट व बौद्यिक संपदा अधिकार के जरिए कारपोरेट जगत के अपने बीज के लिए रास्ता खोल रहे हैं । इन पेटेंट के माध्यम से धारकों को रायल्टी मिलेगी और कारपोरेट का एकाधिकार भी कायम हो जाएगा । इसके परिणामस्वरूप मोन्सेन्टो जेसी कंपनियां सुपर लाभ प्राप्त् करने लगेगी ।

कविता

मुझे अच्छे लगते है जंगल
हेमन्त गुप्त पंकज
मुझे अच्छे लगते है जंगल
जंगलों का घनापन
पेड़ों के पुरसुकून साये
रंग-बिरंगे सुरभित कुसुम
और उन पर
अठखेलियां करते प्रेमाकुल भ्रमर
इठलाती तितलियाँ
मुझे अच्छी लगती हैं
मुझे अच्छे लगते है
स्वच्छ नीले आकाश में
उमड़ते-घुमड़ते बादल
विहंगो की बेफिक्र उड़ाने
उनका उच्चरित स्वर लयबद्ध
मुझे अच्छा लगता है ।
अच्छे लगते है मुझे पाषाणों पर
कल-कल बहते झरने
चलती-बहती बयार
निर्विकार
और बयार से हिलती
अभिवादन करती सी
फल-फूलों से समृद्ध टहनियाँ
अच्छी लगती है मुझे
मुझे अच्छे लगते हैं जंगल
क्यों कि ये जंगल ही तो हैं
जो मानव को पुरूषार्थ का पाठ पढ़ाते हैं
परामर्थ का महत्व सिखाते हैं
जंगल ही जन्मदाता है वर्षा के
अभिभावक हैं वायु के
पर्याय हैं परोपकार के
और इससे भी आगे
संवेदनशीलता के
मानक उद्वरण है ये
हर्ष का उद्बेग
प्रफुल्लित करता हैं इन्हें
आहत भी होते है ये
वेदना की अनुभूति से
मुझे अच्छे लगते है जंगल
निष्कलुष
जंगल में विचरण
अच्छा लगता है मुझे
अच्छी लगती हैं
पदार्थ और प्राण की
अनवरत के लिए-क्रीडाएँ
मनभावना
यह प्रकृति की मनोरम नाट्यशाला
अच्छी लगती है
अच्छा लगता है
हरियाली का
उत्साहमय अनुपम संसार
जो करता है
मेरे अंतस में
निरन्तर
जीवन का संचार
मुझे अच्छे लगते है जंगल

पर्यावरण समाचार

भारत को उच्च् आर्थिक वृद्धि दर की उम्मीद
पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि भारत की अर्थव्यवस्था की रफ्तार मौजूदा वर्ष में सुस्त पड़ गई है, लेकिन वर्ष २०१२-१३ में उच्च् वृद्धि दर हासिल करने की उम्मीद हैं ।
श्री सिंह ने फ्रांसीसी रिवेरिया रिसार्ट में दुनिया की २० प्रमुख अर्थव्यवस्थाआें के सम्मेलन में कहा है कि हमारी अर्थव्यवस्था की रफ्तार मौजूदा वर्ष में सुस्त पड़ गई है और इसके ७.६ से लेकर आठ प्रतिशत के बीच रहने की संभावना है । श्री सिंह ने स्वीकार किया कि कई अन्य उभरते देशों की तरह भारत भी मुद्रास्फीति के उच्च् स्तर का सामना कर रहा है । प्रधानमंत्री ने कहा, भारत में हम उच्च् वृद्धि दर की वापसी सुनिश्चित करने के लिए कदम उठा रहे हैं, हम २०१२-१३ में उच्च् वृद्धि दर वापस पाने के साथ मुद्रास्फीति में कमी आने की आशा करते हैं । उन्होंने कहा कि हमारी मध्यम अवधि की रणनीति खास तौर पर बुनियादी ढांचा में निवेश को पुनजीर्वित करने पर केन्द्रित है और राजस्व बढ़ाने के जरिए राजकोषीय घाटे को कम करने की कोशिश जारी है, जो कर सुधारों से होने की उम्मीद है ।
श्री सिंह ने चेतावनी दी कि यूरोप में लंबे समय तक अनिश्चितता और अस्थिरता का अन्य देशों पर भी प्रभाव पड़ेगा । यूरोजोन देश सहित यूरोप में सुव्यवस्थित तरीके से कामकाज चलने और समद्धि से हर किसी का हित जुड़ा हुआ है ।
मध्यप्रदेश को मिला अंतरराष्ट्रीय बोरलाग संस्थान
मध्यप्रदेश सरकार के अथक प्रयासोंसे दक्षिण एशियाई बोरलाग संस्थान जबलपुर में स्थापित होना तय हो गया है । यह संस्थान अंतर्राष्ट्रीय गेहूँ व मक्का अनुसंधान केन्द्र सीमिट मेक्सिको अमेरिका से संबंधित है जो गेहूँ व मक्का फसलों पर अनुसंधान कार्य करेगा । यह संस्थान ईको फ्रेंडली तकनीकों को भी विकसित करेगा, जिसके कृषि में उपयोग से वातावरण का बढ़ता हुआ तापक्रम रूकेगा और जैविक खेती को बढ़ावा मिलेगा । इसके लिए सरकार ने ५४१ एकड़ भूमि उपलब्ध कराई है और अन्य आधारभूत सुविधाएं सड़क, बिजली, टेलीफोन इंटरनेट कनेक्टिविटी व कार्यालय शामिल है । इसके लिए एक करोड़ ८० लाख रूपये स्वीकृत किये जा चुके है ।
शहद नाहक जीएम खाद्य बन गया
युरोप के सर्वोच्च् न्यालालय ने पिछले दिनों एक विचित्र फैसले में कहा है कि यदि शहद में जिनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों के पराग कण पाए जाते हैं, तो उस शहद को जिनेटिक रूप से परिवर्तित खाद्य की श्रेणी में रखा जाएगा, चाहे यह मिलावट दुर्घटनावश ही क्यों न हुई हो । इसका मतलब होगा कि ऐसे शहद की बिक्री के लिए अलग से मंजूरी लेनी होगी और यदि इसमें जीएम पराग कणों की मिलावट है तो इसके लेबल पर लिखना होगा कि यह जिनेटिक रूप से परिवर्तित शहद है ।
मामला यह था कि बावेरिया के मधुमक्खी पालकों ने पाया था कि उनके द्वारा उत्पादित शहद मेंपास के खेतों में उगाई जा रही जीएम मक्का की फसलों से पराग कणों की मिलावट हो रही है । उन्होनें बावेरिया की अदालत में मुकदमा दायर किया था कि उन्हें इसके लिए मुआवजा मिले या उन फसलों पर रोक लगाई जाए । अंतत: यह मुकदमा यूरोप के सर्वोच्च् न्यायालय में पहुंचा जहां से उक्त विचित्र फैसला आया है ।
बावेरिया के शहद में मॉनसेंटो द्बारा तैयार की गई मक्का की जीएम फसल एमओएन ८१० के पराग कण पाए गए है । न्यायालय का तर्क था कि पराग कण शहद के सामान्य घटक हैं । यदि यह सामान्य घटक जिनेटिक रूप से परिवर्तित है तो वह शहद भी जिनेटिक रूप से परिवर्तित माना जाएगा । अत: नए सिरे से प्रमाणन की जरूरत होगी । यूरोप में इसकी प्रक्रिया इतनी मुश्किल है कि शायद बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही इसे संभाल सकती हैं, यह मधुमक्खी पालकों के बस की बात नहीं है ।
अलबत्ता, कुछ लोगों का कहना है कि इस फैसलेका एक मतलब यह भी है कि बावेरिया या अन्य ऐसे ही स्थानों के मधुमक्खी पालक इस मिलावट या संदूषण के लिए जिम्मेदार लोगों पर मुआवजे की कार्यवाही शुरू कर सकते हैं । वैसे, यह भी कहना मुश्किल है कि वह कार्यवाही कितनी आसान होगी ।
कुल मिलाकर यह बात है कि ये मधुमक्खी पालक बगैर किसी गुनाह के नुकसान उठाएंगें ।