सोमवार, 14 मई 2012



मालवा की ओर बढ़ता रेगिस्तान
    पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा जारी स्टेट ऑफ एन्वार्यमेंट रिपोर्ट के अनुसार १४.७ करोड़ हेक्टेयर यानि लगभग ४५ प्रतिशत भूमि जलभराव, अम्लीयता व कटाव आदि कारणों से बेकार हो गई है । भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा अपनी रिपोर्ट विजन - २०२० में दी गई जानकारी के अनुसार देश की कुल १५ करोड़ हेक्टेयर की उत्पादकता काफी घट गई  है । देश में ८४ लाख हेक्टेयर भूमि जल भराव व खारेपन की समस्या से ग्रस्त है । पिछले दो दशक में ही देश की कुल खेती योग्य भूमि में विभिन्न कारणों से २८ लाख हेक्टेयर की कमी आंकी गई  है । खनन, उद्योग, ऊर्जा, उत्पादन एवं शहरीकरण भी तेजी से भूमि लील रहे है ।
    अहमदाबाद के स्पेस एप्लीकेशन सेंटर के अध्ययन के अनुसार देश के कुल भौगोलिक भू-भाग का लगभग चौथाई हिस्सा रेगिस्तान में बदल गया है । राजस्थान का २१.७७, जम्मू कश्मीर का १२.७८ एवं गुजरात का १२.७२ फीसदी क्षेत्र रेगिस्तान में बदल गया है । राजस्थान का रेगिस्तान एक ओर दिल्ली तथा दूसरी ओर मध्यप्रदेश में मालवा की तरफ फैल रहा है । उपजाऊ भूमि किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी धरोहर होती है । कृषि हेतु पशुधन भी आवश्यक है परन्तु देश में इस पर भी संकट है । देश के लगभग छह लाख गांवो में बीस करोड़ गाय-बैल थे एवं आजादी के समय प्रति हजार की आबादी पर ७०० गाय-बैल         थे । अब यह संख्या घटकर २०० ही रह गई है । कृषि के लिए जल जरूरी है लेकिन वर्तमान में जल की उपलब्धता घटती जा रही है एवं वह प्रदूषित भी हो रहा है । वर्ष १९५१ में देश में प्रति व्यक्ति ५२३६ घनमीटर पानी उपलब्ध था, जो १९९१ में २२२७ हो गया और २०१३ तक १५५५ घनमीटर ही रह जाएगा । केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार देश की २० में से ८ नदी घाटी क्षेत्रों में जल की कमी है । देश में लगभग १५० नदियां न केवल प्रदूषित है अपितु वे गंदे नालों में बदल गई है । भूजल का उपयोग ११५ गुना बढ़ा है एवं देश के ३६० जिलों में भूजल स्तर में खतरनाक गिरावट आई है । लगभग आठ करोड़ ट्यूबवेल भूमिगत जल का ेउलीच कर खाली कर रहे है । हिमालय से निकलने वाली नदियों को ग्लेशियर्स से जल प्राप्त् होता है परन्तु भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा सेटेलाइट से किए गए अध्ययन के अनुसार हिमालय के लगभग ७५ फीसदी ग्लेशियर पिघल रहे है ।  सन्१९८५ से २००५ के मध्य ग्लेशियर औसतन ३.७५ किमी पीछे खिसक आए है । इसी तरह मैदानी भागों में ३३ फीसदी भूभाग पर वन होना चाहिए परन्तु है केवल २१  फीसदी पर ही । इसमें भी केवल दो फीसदी सघन वन, १० फीसदी मध्यम और ९ फीसदी छितरे वन है ।
डॉ. ओ.पी. जोशी, पर्यावरणविद्, इन्दौर (म.प्र.)
संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी बढ़ेगा जलसकंट

               संपादकीय संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि पानी की बर्बादी को जल्द ही नहीं रोका गया तो पूरी दुनिया गंभीर जलसंकट का सामना करेगी । जलवायु परिवर्तन और भोजन की बढ़ती मांग से यह समस्या और विकराल होती जा रही है ।
    संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष २०५० तक पृथ्वी पर जनसंख्या मौजूदा सात अरब से बढ़कर नौ अरब हो जाएगी । बिना बेहतर योजना व संयोजन के लाखों लोगों को भुखमरी और ऊर्जा की कमी से जूझना पड़ेगा । कृषि की बढ़ती जरूरतों, खाद्यान उत्पादन, ऊर्जा उपभोग, प्रदूषण और जल प्रबंधन की कमजोरियों की वजह से स्वच्छ जल पर दबाव बढ़ेगा ।     जल श्रृखंला की यह चौथी रिपोर्ट है जिसमें कहा गया है कि आबादी में वृद्धि और मांसाहार की बढ़ती प्रवृत्ति से २०५० तक करीब ७० फीसदी लोगों को खाघान्न की जरूरत होगी । वर्तमान पद्धति के इस्तेमाल से वैश्विक कृषि जल खपत में २० फीसदी की वृद्धि होगी । आज कृषि मेंकरीब ७० फीसदी जल का उपयोग होता है  यहअमीर देशों में ४४ फीसदी और अल्प विकसित देशों में ९० फीसदी से अधिक है ।  दुनिया में २.५० अरब लोगों को गंदगी में रहने के लिए मजबूर है ।
    संयुक्त राष्ट्र के अनुसार पानी के लिए शहरों, गांवों, लोगों और देशों में भारी लड़ाई छिड़ी हुई है । इसे खत्म करना होगा । विश्व में १४८ देश ऐसे है जिनके बीच अंतरराष्ट्रीय जल संग्रहण क्षेत्र है । २१ देश तो इन्हीं क्षेत्रों में मौजूद है । संयुक्त राष्ट्र के अनुसार यूरोप और उत्तरी अमेरिका में पानी की समस्या मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन की वजह से उत्पन्न हुई है । रिपोर्ट के मुताबिक २०७० तक चार करोड़ ४० लाख यूरोपीय नागरिकों को पानी की किल्लत होगी । एशिया प्रशांत में अभी भी १.९० अरब लोग साफ-सफाई से कोसों दूर   हैं । उद्योग और घरों से होने वाला प्रदूषण एक मुख्य कारक है । जलवायु परिवर्तन की वजह से अगले कुछ सालों में भंयकर सूखे और बाढ़ की आशंका व्यक्त की गई है । लेटिन अमेरिका और कैरेबियन देशों में गरीब और ग्रामीण इलाक होने के बावजूद साफ-सफाई और पानी की समुचित व्यवस्था की वजह से इसे सराहा गया है ।
सामयिक
डीजल : धनतंत्र का इंर्धन
सोपान जोशी

    डीजल हमारे यहां पेट्रोल की तुलना में चौथाई या तिहाई हिस्सा सस्ता बिकता है । पेट्रोल पर आबकारी कर डीजल की तुलना में सात गुणा रखती है सरकार । डीजल को सस्ता रखा जाता है किसानों के लिए, जिन्हें सिंचाई के लिए पंपसेट चलाने होते है और जमीन जोतने के लिए ट्रेक्टर । फिर हर तरह की रसद की ढुलाई ट्रकों से होती है, जो डीजल से ही चलते हैं । इस इंर्धन की कीमत बढ़ने से महंगाई एकदम बढ़ती है । इसलिए सरकार डीजल सस्ता रखती है ।
    किसानों को दी इस रियायत का मजा उठाते हैं डीजल गाड़ियां चलाने वाले । चूंकि डीजल पेट्रोल की तुलना में कहीं सस्ता पड़ता है, इसलिए हमारे सहां लगभग सारी टैक्सियां डीजल से चलती हैं । गाड़ी बनाने वाली कई कंपनियां केवल डीजल की ही गाड़िया बनाती है ।
    पिछले कुछ सालों में डीजल की ही बड़ी और आलीशान गड़ियां बिकने लगी हैं । ये विलासिता और वाहन चलाने में सस्ते पड़ते हैं क्योंकि ये तो किसानों के लिए सस्ते रखे इंर्धन पर चलते हैं । महंगी गाड़ियों में पेट्रोल की जगह डलने वाले हर एक लीटर डीजल से सरकार को सात गुणा नुकसान होता है ओर यह घाटा सरकार गरीब किसानों के लिए नहीं, अमीरों की विलासिता के एवज में उठाती हैं ।   
    कई साल से बहस चल रही है कि इस अन्याय को कैसेरोका जाए । सरकार की मुश्किल यह है कि अगर वह डीजल पी जाने वाले इन अमीरों के लिए डीजल के दाम बढ़ाए तो उसकी गाज किसानों और ट्रक वालों पर भी गिरेगी । इसीलिए इतने साल से डीजल की इस आफत को सरकार ने जस का तस छोड़ रखा है ।
    लेकिन दो साल पहले योजना आयोग के किरीट पारिख ने एक सुझाव रखा था । उन्होंने कहा कि डीजल की कारों पर सीधे ८१००० रूपए का अतिरिक्त आबकारी कर  खरीद के समय ही लगा देना चाहिए ।
    संसद का बजट सत्र चल रहा चुका है । इस बार पेट्रोल मंत्रालय ने श्री पारीख का सुझाव बढ़ा दिया है । अब सरकार को तय करना होगा कि उसकी मंशा क्या है । आसान नहीं होगा यह । कार बनाने नाली कई बड़ी कंपनियों के मुनाफे  डीजल गाड़ियों की बिक्री पर निर्भर हैं और ये कंपनियां बहुत ताकतवर हैं । ये साम-दाम-दंड-भेद, हर एक उपाय ढूंढेगी इस अतिरिक्त कर को रोकने के लिए । क्योंकि अगर यह कर आ गया तो डीजल गाड़ियों की बिक्री कम हो जाएगी ।
    हाल ही में कार कंपनियों ने एक वैज्ञानिक सर्वे के मार्फत ही यह बतलाना चाहा है कि कारों में डीजल की खपत बहुत ही कम है । सर्वे की आलोचना भी हुई और कुछ जानकारों ने तो उसे फरेब ही बताया है ।
    कंपनियों ने पहले ही कह दिया है कि कारें भारी उद्योग मंत्रालय के अंतर्गत आती है । इसलिए उन पर कर लगाने का अधिकार पेट्रोलियम मंत्रालय को है ही नहीं । उनका यह भी कहना है कि  डीजल से चलने वाले जनरेटर भी विलासिता के साधन हैं। तो फिर उनकी बिक्री पर अतिरिक्त कर क्यों नहीं हो ? अब तो खुद योजना आयोग के श्री पारिख अपने सुझाव से पीछे हट गए हैं । किस दबाव में ये हुआ कहना मुश्किल है । कारें हमारे यहां नई समृद्धि का प्रतीक बन चुकी हैं और आर्थिक विकास की तोता रटंत में लगा हमारे समाज का ताकतवर वर्ग कारों की रफ्तार में ही अपनी सद्गगति देखता है । अब वित्त मंत्रालय को तय करना है कि वह इस समृद्धि के एवज में कितना घाटा उठाने को तैयार है ।
    इस प्रकरण में हम सबके लिए कई सबक हैं । एक तो यह कि एक झूठ को छुपाने के लिए कई झूठ बोलने पड़ते हैं । यह सब जानते हैं कि हमारे यहां के साधारण किसान पंपसेट और ट्रेक्टर इस्तेमाल नहीं करते । ज्यादा करके ये सुविधाएं अमीर किसानों के पास ही होती हैं । देश के भूजल का जिस तेजी से विनाश हो रहा है, उसमें डीजल पंपसेट का योगदान अमूल्य रहा है । पर इससे एक तेज गति की अमीरी कुछ किसानों में दिखती है, जिसे हर सरकार ग्रामीण विकास की पराकाष्ठा मान लेती है ।
    अगर सरकार गरीब किसानों का सोचती तो उसे उन जलस्त्रोतों के बारे में भी सोचना पड़ता, जिन्हें सरकार की भागीदारी से बर्बाद किया गया है । उन बैलों के बारे में सोचना पड़ेगा जो हजारों पीढ़ियों से हमारी जमीन जोतते आ रहे हैं और शायद पेट्रोलियम के भंडार खत्म होने पर वापिस याद किए जाएं । ये बैल की वो नायाब नस्लें हैं, जो कई सौ साल की साधना से तैयार की गई थी और जिन्हें सरकार के अनुवंश सुधार कार्यक्रमों ने छितरा दिया है । पर यह सब करना हो तो सरकार को अपने लोगों से उनकी भाषा में बात करनी पड़ेगी ।
    पर डीजल गाड़ियों को रोकने का एक और बहुत बड़ा कारण है । चाहे वह पेट्रोल हो या प्राकृतिक गैस, हर ईधन के धुंए से प्रदूषण होता है । पर केवल डीजल के धुंए में ही ऐसे सूक्ष्मकण होते हैं, जिनसे कैंसर होता है और इन कणों का स्वभाव भी विचित्र है । ट्रकों से निकलने वाले काले धुंए में जो कण होते हैं,उन्हें हमारा शरीर श्वास नली के ऊपर ही रोक लेता है । लेकिन डीजल की आधुनिक गाड़ियां से जो अदृश्य धुंआ निकलता है, उसमें कैंसर करने वाले कण बहुत ही छोटे होते हैंं। ये सीधे हमारे फेफड़े तक जाते हैं ।
    इसलिए उच्च्तम न्यायालय ने दिल्ली की सड़कों पर सार्वजनिक परिवहन से डीजल हटवाया था । लेकिन आज यह डीजल और कैंसर से लैस इसके कण हमारी छाती में बहुत महंगी और आलीशान गाड़ियों के सौजन्य से जा रहे हैं । सोचे तो कुछ धंुआ तो हमारी अकल पर भी पड़ा है ।
हमारा भूमण्डल
उपनिवेश कायम हैं
ग्रीन लेफ्ट वीकली

    पूरे विश्व में अभी भी १६ उपनिवेश शेष हैं, जिसमें से ११ ब्रिटिश आधिपत्य में हैं । २१ वीं शताब्दी में यह स्थिति तब और भी शर्मिंदगी पैदा करती है जब ब्रिटेन जैसे देशों को सारी दुनिया में लोकतंत्र की लड़ाई का अगुआ बना दिया जाता है । अर्जेटाइना के तट पर स्थित फाकलैंड द्वीप पर ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य और वहां के प्राकृतिक संसाधनों की लूट संयुक्त राष्ट्रसंघ की निषेधाज्ञा के बावजूद जारी है ।
    ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने जनवरी में संसद में अर्जेटाइना के तट पर स्थित ब्रिटिश आधिपत्य वाले फाकलैण्ड द्वीप के संबंध में पूछ गए प्रश्न के जवाब में कटुतापूर्ण लहजे में कहा था अर्जेटाइना हाल में यह कहता रहा है कि वह फाकलैण्ड द्वीप के निवासियों (मालविनास) द्वारा आत्मनिर्णय किए जाने का समर्थन करता है । मेरे मत में यह काफी कुछ उपनिवेशवाद के समतुल्य है क्योंकि वहां के लोग तो ब्रिटिश बने रहना चाहते हैं और अर्जेटाइना उनसे कुछ और करवाना चाहता है । यह वक्तव्य ब्रिटिश रक्षामंत्री के उस वक्तव्य के बाद आया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि आकस्मिकता योजना तैयार की जा रही है, जिसके अन्तर्गत अटलांटिक महासागर के क्षेत्र में तुरन्त ही फौज की तैनाती की जाएगी ।
    इसके कुछ ही दिन पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री केमरून ने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की बैठक बुलाकर इन द्वीपों की सुरक्षा पर चर्चा की थी । इस बैठक को इस वजह से न्यायोचित ठहराया गया कि ऐसी संभावना है कि अर्जेटाइना के मछुआरे इन द्वीपों पर घुसपैठ कर सकते हैं । ब्रिटेन ने यहां के मूल अर्जेटाइना निवासियों को खदेड़कर सन् १८३३ से इन द्वीपों पर कब्जा कर रखा है । इतना ही नहीं वह सन् १९६५ से संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों की अवहेलना कर अपनी सीमा से करीब १०,००० किलोमीटर दूर स्थित इस क्षेत्र पर अनधिकृत कब्जा जमाए बैठा है ।
    विश्व में अभी भी जो कुल १६ उपनिवेश बचे हुए हैं, उनमें से ११ ब्रिटिश उपनिवेश हैं । गत वर्ष ब्रिटिश सरकार ने वर्ष २०१४-१५ के बजट में ४५ अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक की कटौती की घोषणा की थी । मालनिवास पर ब्रिटिश औपनिवेशिकता को पुन: स्वीकारने के पीछे केमरून के निहितार्थ हैं कि सैन्य खर्चो में हुई व्यापक कटौती से ध्यान हटाया जा सके और उनकी अपनी छवि को सुधारा जाए । राष्ट्रवाद का आव्हान राजनीतिज्ञों की एक आकर्षक रणनीति रही है । तीस वर्ष पूर्व यही रणनीति मागरेट थैचर (और अर्जेटाइना की तानाशाही) दोनों के लिए ही मददगार साबित हुई, जिसकी परिणिति दो माह तक चले फाकलैण्ड युद्ध के रूप में हुई थी ।
    परन्तु आज की परिस्थिति में दो महत्वपूर्ण अंतर हैं, पहला यह कि युद्ध की कोई संभावना नहीं है और दूसरा आर्थिक संकट अधिक गंभीर है । दुसरी और अर्जेटाइना के सभी राजनीतिक बुद्धिजीवी मालनिवास की सार्वभौमिकता की मांग के समर्थन में हैं । हाल के वर्षो में अर्जेटाइना की सरकार ने इस बात के प्रयास किए हैं कि वह इस मांग के लिए क्षेत्र के अन्य देशों से समर्थन एवं मान्यता प्राप्त् कर सके । इसके कुटनीतिक अभियान के अन्तर्गत बहुतलीय बैठकों एवं विभिन्न संगठनों से बातचीत के अच्छे परिणाम निकले  हैं । सम्पूर्ण लेटिन अमेरिका भी बजाए वर्ष १९८२ के जबकि अर्जेटाइना युद्ध में उलझा था आज एकीकरण के प्रति अधिक प्रतिबद्ध है । दूसरी और ब्रिटेन अपनी हेठी छोड़ने को तैयार नहीं है । मालनिवास में मछली पालन और तेल संसाधनों के रूप में जितनी संभावनाएं मौजूद हैं वह उसे ब्रिटेन द्वारा अपना उपनिवेश बनाए रखने हेतु समुचित उद्देश्य प्रदान करती हैं ।
    संक्षेप में कहें तो वाम पक्ष के धड़ों का आर्थिक पक्ष ही अर्जेटाइना सरकार की राजनीतिक रणनीति में हल्का अलगाव सा प्रतीत होता है । विपक्षी नेताआें को मानना है कि सार्वभौमिकता की पुर्नप्रािप्त् के लिए आवश्यक है कि अर्जेटाइना की सरकार देश में भूमि, हाइड्रोकार्बन, तेल, खाद्य एवं पेय, बीमा कंपनियों, बैंक खनन एवं औषधियों में मौजूदा ब्रिटिश निवेश को प्रभावित करें । अनेक वाम समूहों ने गत २० जनवरी को ब्यूनस आर्यस स्थित ब्रिटिश दूतावास के समक्ष नारेबाजी की और ब्रिटेन से राजनयिक संबंध समाप्त् करने की मांग भी की । उन्होंने पिछले वर्ष जुलाई में लागू किए गए उस कानून का अनुपालन न होने की भी कड़ी आलोचना की, जिसके अन्तर्गत मालविनास तट पर किसी तरह की खोजबीन या खोजबीन की योजना बनाने या तेल निकालने में भागीदारी करने वाली कंपनियां अर्जेटाइना में प्रतिबंधित की जाएंगी ।
    अनेक  अंतर्राष्ट्रीय खनन कंपनियां उस क्षेत्र में ब्रिटिश तेल कंपनियों के साथ कार्य कर रही हैं । इन्हीं अंतर्राष्ट्रीय वित्त समूहों का अर्जेटाइना के मुख्य निगमों रॉकहापर एक्सप्लोरेशन एवं बाडर्स एवं सदर्न पेट्रोलियम में ३३ प्रतिशत, डिजायर पेट्रोलियम में २५ प्रतिशत और फॉकलैण्ड आयल एण्ड गैस में ३७.८ प्रतिशत का स्वामित्व है । मालनिवास के ईदगिर्द प्राकृतिक संसाधन भी चर्चा के केन्द्र में हैं । ब्रिटेन ने अर्जेटाइना स्थित समुद्र की परिधि में करीब २५ लाख वर्ग किलोमीटर समुद्री क्षेत्र में फैले मालनिवास द्वीपों, सैंडविच द्वीप एवं जार्जिया द्वीप से बने द्वीप समूह में समुद्री प्लेटफार्म के जरिए तेल की खोज हेतु अनेक छूट देने का प्रस्ताव किया है ।
    ब्रिटिश मीडिया में ऐसी रिपोर्ट आई है कि विशेषज्ञों का विश्वास है कि यहां पर करीब ६० अरब बैरल तेल के भंडार है । इस क्षेत्र में परिचालन करने वाली चार कंपनियों में से एक राकहॉपर एक्सप्लोरेशन ने तो पहले ही इस क्षेत्र में ७० करोड़ बैरल तेल की खोज कर ली  हैं । पिछली जनवरी में अर्जेटाइना समुद्र तट पर स्थित द्वीप में दूसरा ब्रिटिश प्लेटफार्म स्थापित किया गया, जिससे द्वीप समूह के दक्षिण एवं दक्षिण पूर्व में स्थित तेल के दो कुुआें से शीघ्र ही तेल निकालने का कार्य प्रारंभ कर दिया जाएगा । इस प्लेटफार्म का ठेका बार्डर एवं सदर्न एवं फाकलैण्ड आयल तथा गैस को दिया गया था । वहीं वर्ष २०१२ से डिजायर पेट्रोलियम एवं रॉकहापर एक्सप्लोरेशन ने इस क्षेत्र में तेल और गैस के २० से अधिक कुंए खोदे है ।
    इस सबके बावजूद अर्जेटाइना द्वारा प्रारंभ किया गया कूटनीतिक अभियान अभी तक ब्रिटेन को उसके द्वारा हड़पे गए इन द्वीपों के तटों से संसाधनों की लूट की योजना से रोक नहीं पाया है ।
विशेष लेख
क्या है, जंगल की परिभाषा ?
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    पेड़ रूद्र रूप होते हैं । पेड़ों के आसपास ईश्वरीय चेतना से तरंगित भाव रहता है । भारत की ऋषि संस्कृति पेड़ों को पूजती रही है । वृक्षों में देवत्व के अधिष्ठान की अवधारणा ने उन्हें मनुष्य से भी ऊँचा स्थान प्रदान किया है । वृक्षों की पूजा से सुख-समृद्धि की कामना की जाती है। ग्रथों में वृक्षों को लोकदेवता की मान्यता दी गई है । ऐसे जीवनाधारी सभी छोटे बड़े पेड़-पौधे, सघनता से एवं सामूहिकता से विशेष भू-क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से उगते है । ऐसे प्राकृतिक जंगल में उगी हुई वनस्पति प्रजातियों का निर्धारण उस स्थान विशेष की पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार प्रकृति ही करती है तथा यह जंगल तमाम प्रकार के जीव जन्तुआें, पशु पक्षियों को जीवनाधारी तंत्र प्रदान करते हैं ।
    प्रश्न यह है कि आज कितने सघन वन जिंदा है । हास्यासाद स्थिति यह है कि वन मंत्रालय को ही नहीं पता कि वन क्या हैं  ? यह छोटा सा एवं सीधा सा सवाल एक आर.टी.आई. आवेदन से उभरा है । मुम्बई में रहने वाले अजय मराठे ने सूचना के अधिकार के तहत वन मंत्रालय से वनों के बारे में राज्यवार और क्षेत्रवार तुलनात्मक जानकारी देने के लिए कहा था ताकि पिछले दशक में वन क्षेत्र में वृद्धि के बारे में प्रमाण मिल सके । श्री मराठे ने कहा कि यह हैरान करने वाली बात है कि ३० मार्च २०११को अपडेट की गई वनों की कटाई और उत्सर्जन घटाने संबंधित रिपोर्ट में मंत्रालय ने दर्शाया है कि देश में ३० लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र पिछले दशक में बढ़ा है ।
    ताज्जुब की बात यह है कि मंत्रालय ने जंगल की अभिवृद्धि का दावा तब किया है जबकि देश का शायद ही कोई हिस्सा बचा हो जहाँ सरसब्ज पेड़ोें का कटान न हुआ हो । कल कारखानों की वृद्धि और विकास, खाद्य उत्पान हेतु कृष्यि भूमि का विकास तथा यातायात साधनों को बढ़ाने हेतु सड़क निर्माण में पेड़ों का ही तो कत्ल हुआ है । धरती पर संसाधनों के दोहन में जंगलों को जमीन घेरने वाला समझते हुए बेरहमी से वृक्ष विनाश हुआ । जंगलों के सफाये को न धरती सह पा रही है और न ही आबो हवा । नतीजा हमारे सामने है । अत: शंका उठना स्वभाविक है कि सरकारी रिपोर्ट में वनों की परिभाषा क्या है ? किस आधार पर मत्रंालय वन क्षेत्र बढ़ने का दावा कर रहा है तथा वनों की गुणवत्ता क्या है । ?
    जंगल ही तो हमें हरियाला वैभव प्रदान करते है । जंगल ही हरित सम्पदा के सिरजनहार होते है । वन प्रांतरो में जैव विविधता रहती है । हमारी धरती का हरित परिधान ही प्राणिधान है । हरित परिधान से ही प्रकृति प्राणवान है । वन वीथिकाएं ही हमारे अतीत, वर्तमान एवं भविष्य की प्रस्तावक है । हरियाली से ही ऊर्जा का संचार होता है । हरियाली ही तो पोषण का आधार होती है । वन प्रांतर ही धरती के फेफड़े सरीखे है जो शिवमयी बन कर विषपान करते हैं । वृक्षधरा के भूषण हैं जो करते दूर प्रदूषण हैं । ऐसे जंगलों का हम ही तो विनाश करते है जबकि हमारे मन में जीवन उगाने की तथा जीवन को सरसब्ज करने की कुदरती चाह होनी चाहिए । जब किसी बीज से हमारा आत्मिक संवाद बनता है तो बीज अंकुरित होने को मचल उठता है । नमी पाकर अंकुर फूटता    है । जीवन की कशिश और कोशिश में वह पेड़ बन जाता है । हरे पन की चाहत ही हरापन लाती है । और यही जंगल की थाती है ।
    प्रश्न यह है कि और कितना लूटेंगे हम अपने अस्तित्व के प्रणेता, प्राणवान मुद मंगलदाता जंगलों को ? आज पेड़ क्यों बदहवास है ? क्यों टूट रहा उनका विश्वास है ? विकास की नजरों से बचे हुए मानवीय बस्तियों के बीच, कहीं दुबके हुए से, धूल धूसरित पेड़ों के पत्ते मानो सवाल करते हो कि आखिर कब तक बचेगा यह अंतिम पेड़ जो सड़क चौड़ीकरण के नाम पर काट डाला जायेगा निर्ममता से ।
    दरअसल सरकार जिन भ्रामक आँकड़ों के सहारे वनीकरण एवं वृक्षारोपण का दावा करती है वह वन की परिभाषा के अन्तर्गत नहीं आते है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ युकेलिप्टिस तथा पॉपलर के सहारे अपना बाजार सजाते हैं । कागज एवं प्लायवुड हेतु पेड़ों के पल्प की दरकार उन्हें होती है और वह किसानों से अनुबंध करके कृष्य भूमि में उन्हेंे उगाते है यह त्वरित वृद्धि प्रजाति पेड़ कुछ ही वर्षो में भूमि की उर्वरता तथा नमी को चाट जाते हैं जिससे वह भूमि बंजर और बेजान हो जाती है ।
    क्या हमने पेड़ों के दर्द को जाना है ? आखिर कब तक झूठे आँकड़ों की आड़ में भरमाते रहेंगे अपने मन को ? क्या हमने कभी इतना संवेदनशील होने का प्रयास किया है कि क्या कहती होगी पेड़ की संवेदना, जबकि हम काट देते हैं और टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं उसके सरसब्ज तन को ? प्रश्न-प्रति प्रश्न है जो जवाब चाहते हैं ं याद रखें पीढ़ियाँ चुकती रहेंगी और चुपचाप कटते रहेगे हमारे जंगल और उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी छाया की तलाश में भटकते हुआें को ।
    आदि मानव जंगली था जंगल में रहता और पलता-बढ़ता था । सभ्यता के विकास के साथ मानव ने आरण्यक संस्कृति को अपनाया और मनुष्य कहलाया उसने मानवीय चेतना के उत्सव को पाया । तभी तो हमने जंगल को अपना जीवन प्राण बताया । वन जीवित वस्तुआें या एक समुदाय है जिसके सदस्य विभिन्न प्रजातियों के छोटे-बड़े वृक्ष, झाड़ियों, घास, कन्द-मूल पशु पक्षी और कीड़े-मकोड़े होते     है । धरती पर जब मानव जन्मा तो माँ की गोद के बाद वृक्ष ने ही उसे आसरा दिया और अपने कन्दमूल फलों से उसे पोषित किया । विकास के साथ-साथ आदमी का रिश्ता जंगलों एवं पेड़ों से बदलता गया । हमें पुराने रिश्ते के मर्म को जानना है ।
    आसन्न प्रश्न यह है कि क्या अब तक हमने यह जाना कि हमारे अस्तित्व के नियामक हमारे जंगल है । जंगल ही बादलों को आकर्षित करते है जिससे बादल बरसकर हमारी धरती को सरसाते हैं । जंगल से ही पर्वतों में हिमनद रूकता है । जंगल में ही नदियों का उद्गम होता है । नदियों एवं सघन वनों का गहरा नाता है । जंगल से ही हर जीवन तादात्म बनाता है । वन हमारे प्राण है । जीव और वन मिलकर जीवन का आधार     हैं । वन ही हमारे अमूल्य संसाधन और धरोहर के सहकार है । वन ही सर्वागीण विकास के प्रस्तोता है तथा आध्यात्मिक चेतना के स्त्रोत है । दुर्लभ जैव विविधता जंगलों में ही सुरक्षित है । मनीषियों के कथनानुसार प्रकृति के दंड से बचने का एक ही उपाय है कि वृक्ष वनस्पतियों के प्रति जो धन्यवाद और विनम्र पुरूषार्थ का भाव है उसे चरितार्थ किया जाये । जंगल के साथ जीवन को कृतार्थ किया जाये । ताकि हम कह सके पत्ता-पत्ता बयाँ कर रहा जंगल की परिभाषा, वृक्ष हमारे जीवन प्राण और हमारी आशा ।
प्रदेश चर्चा
राजस्थान : आधा अधूरा सौर ऊर्जा मिशन
अंकुर पालीवाल/जोनास हेम्बर्ग

    जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सोलर मिशन के अंतर्गत वर्ष  २०२० तक २०,००० मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है । राजस्थान में सोलर संयंत्रों की स्थापना में हो रही अनिमितताआें  ने इस लक्ष्य की प्रािप्त् को दुरूह बना दिया है । बात अब दिया तले अंधेरे से आगे बढ़कर सूरज तले अंधेरे तक पहुंच गई है ।
    केंद्र सरकार ने उन चौदह कंपनियों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने का निश्चय कर लिया है, जिन्होंने समय पर सोलर ऊर्जा परियोजनाएं प्रारंभ नहीं की है । एनटीपीसी विद्युत व्यापार निगम लि. जो कि राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम की व्यापारिक इकाई है, ने इन कंपनियों की बैंक ग्यारंटियों का नकदीकरण कर इन्हें दंडित किया है । चूक करने वाली ये कंपनियां उन २८ कंपनियों में से हैं, जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सोलर मिशन के पहले चरण में फोटो वाल्टेक परियोजनाएं आबंटित की गई थीं । इन संयंत्रों के निर्धारित समय ९ जनवरी २०१२ तक प्रारंभ किया जाना     था ।
    अमृत एनर्जी एवं ग्रीनटेक पॉवर उन कंपनियों में से है, जिनकी ग्यारंटियों का १६ फरवरी को कुल३० करोड़ रू. की वसूली हेतु नकदीकरण कर लिया गया । परंतु कुछ फर्मे परियोजना राज्यों से प्रारंभ किए जाने का प्रमाणपत्र लेकर दंड से बचने में सफल हो गई हैं । लेंकों इंफ्राटेक तीन कंपनियों डीडीई रिन्यूएबल एनर्जी, इलेक्ट्रोमेक मेरिटेक और फाइनहोप अलाइड एनर्जी की इंजीनियरिंग प्राप्त्यिों (प्रबंध) एवं निर्माण की ठेकेदार है, जिन्हें दंडित किया गया है । दिल्ली के एक गैर सरकारी संगठन पर्यावरण एवं विज्ञान केन्द्र (सीएसई) द्वारा हाल में की गई जांच से यह बात उजागर हुई कि लेंकों इंफ्राटेक के पास उपरोक्त तीन परियोजनाआें सहित कुल सात परियोजनाआें का कार्य है । ये सभी परियोजनाएं राजस्थान के जैसलमेर जिले की नाचना तहसील के असकांद्रा गांव मेंस्थित हैं ।
    मिशन में निहित दिशा निर्देशों के अनुसार कंपनियों को  नौ जनवरी २०११ को विद्युत क्रय समझौते पर हस्ताक्षर के दौरान ९ से १२ करोड़ रू. की बैंक ग्यारंटी प्रस्तुत करनी थी । लेकिन यदि परियोजना विकसित करने वाला समय-सीमा चूक जाता है तो एनवीवीएन तीन महीनों में हिस्सों में बैंक ग्यारंटी का नकदीकरण आंरभ कर देगा । इसके पश्चात अगले तीन महीनों तक परियोजना पर ५ लाख रूपए प्रतिदिन के हिसाब से दंड देना    होगा ।  इसके बाद इन्हें रद्द मान लिया जाएगा ।
    अधूरी मगर कार्यरत - वर्तमान मामले में एनवीवीएन ने चौदह कंपनियों की बैंक ग्यारंटियों का नकदीकरण इसलिए कर लिया क्योंकि ये दी गई समयसीमा में परियोजना प्रारंभ नहीं कर पाई थीं । परंतु कई अन्य बच गई हैं । असकांद्रा गांव की प्रत्येक परियोजना पांच मेगावाट की थी । लेंकों इन सभी की ठेकेदार है । एनवीवीएन ने उनमें से तीन की बैंक ग्यारंटियों का नकदीकरण इसलिए कर लिया क्योंकि ये दी गई समय सीमा नौ जनवरी २०१२ के एक दिन बाद प्रारंभ हो पाई थीं । राजस्थान अक्षय ऊर्जा निगम के अनुसार बाकी की चार ने ७ और ९ जनवरी के मध्य कार्य करना प्रारंभ कर दिया था । राज्य में वितरण हेतु नोडल संस्था द राजस्थान डिसकाम्स पॉवर प्रोक्यूरमेंट सेंटर ने पांच मेगावाट की विद्युत परियोजना को कार्य प्रारंभ हो जाने का प्रमाणपत्र दे दिया है । इसके मुख्य अभियंता एन. एम. चौहान का कहना है प्रमाणपत्र तभी दिया गया है जबकि यह ग्रिड को पूरी ५ मेगावाट की आपूर्ति हेतु परिचालन में सक्षम हो गई हैं । उपरोक्त दोनो सरकारी कंपनियों के दावों के अनुसार असकांद्रा में सभी सात सोलर परियोजनाएं कुल ३५ मेगावाट बिजली उत्पादन हेतु तैयार हो गई हैं ।
    लेकिन डाउन टू अर्थ पत्रिका ने जब निर्धारित कार्य की समयसीमा समाप्त् होने के एक महीने बाद बारह फरवरी को असकांद्रा का दौरा किया तो पाया कि वहां तो आधे से भी कम कार्य हुआ है । ये सातों परियोजनाएं ४९.५ हेक्टेयर के क्षेत्र में एक के बाद एक जुड़ी हैं और इन्हें एक दूसरे से अलग बताने वाले साइन बोर्ड भी वहां पर मौजूद नहीं थे । केवल दो स्थानों पर सोलर पेनल पूरी तरह से स्थापित थे और जुड़े भी हुए थे ।  बाकी बचे पांच स्थानों पर  वे या तोे इन्वर्टरों से जुड़े थे या इन्वर्टर ट्रांसफार्मरों से जुड़े हुए थे । दो स्थानों पर तो केवल जमीन पर लोहे के खंबे गड़े नजर आ रहे थे । वहां पर एक साइट इंजीनियर ने कहा यहां तो बहुत काम बाकी है । फिलहाल हम दी गई ३५ मेगावाट क्षमता का महज १०-२० प्रतिशत ही दे पा रहे हैं । इतना नहीं ग्रिड उपकेंद्र जिससे कि सातों परियोजनाआें को जुड़ना था वह भी पूर्ण नहीं हुआ है ।
    असकांद्रा में लेंकों के प्रमुख विजेन्द्र पांचाल का कहना है कि सभी सातों संयंत्रों का परिचालन हो रहा है और ये ८ कि.मी. दूर अजासार गांव में स्थित ३३  केवी के ग्रिड उपकेंद्र को आपूर्ति कर रहे    हैं । लेकिन अजासर गांव के दौरे ने इन दावों को झुठला दिया अजासर ग्रिड उपकेन्द्र के सहायक अभियंता बी. आर. विश्नोई का कहना था कि नहीं, वे हमारे ग्रिड की आपूर्ति नहीं की रहे हैं । डाउन टू अर्थ के दल ने पाया कि लेंको अजासर से तीन कि.मी. दूर चांदसर गांव स्थित ११ केवी उप केंद्र को आपूर्ति कर रही है ।  यहां का कार्य देखने वाले विश्नोई का कहना था लेंको के असकांद्रा स्थित सात संयंत्रों से एक महीने में केवल ६५,३८५ किलोवाट घंटे (यूनिट) विद्युत ही प्राप्त् हुई है । यह तयशुदा आपूर्ति की महज १.३ प्रतिशत है और यह केवल २१० घरों के लिए ही पर्याप्त् है । यदि संयंत्र अपनी पूरी क्षमता से कार्य करेंतो यह १५,८०० घरों की आवश्यकताआें की पूर्ति कर सकते      हैं । इतना ही नहीं लेंकों  ने स्वयं अपने कार्यस्थल पर रात में रोशनी के लिए ग्रिड स्टेशन से ४०४२ किलोवाट घंटे (यूनिट) बिजली ली है ।
    इन सातों संयंत्रों ने प्रारंभ करने का प्रमाणपत्र किस प्रकार हासिल किया गया ? इस पर राजस्थान अक्षय ऊर्जा निगम के परियोजना प्रबंधक अनिल पाटनी का जवाब था प्रारंभ होने के बारे में मत पूछिए । यह एक जटिल सवाल है । प्रमाणपत्र देने का कार्य  द राजस्थान डिस्काम पॉवर प्रॉक्यूरमेंट केंद्र का है । संयंत्र के एक बार कार्यशील हो जाने के बाद हम यह जांचने की जहमत नहीं उठाते कि वे नियमित रूप से ग्रिड को आपूर्ति कर रहे या नहीं ? यदि उनसे बिजली नहीं खरीदी जाती है तो ऐसी स्थिती में कंपनी को ही आर्थिक हानि होगी । इस प्रवृत्ति से तो वर्ष २०२० तक २०००० मेगावाट विद्युत उत्पादन का उद्देश्य अधूरा रह जाएगा ।
    राजस्थान  में  मिशन  के  पहले समूह  में  करीब  २० परियोजनाएं हैं और उनमें से १७ परियोजनाएं बीते माह फरवरी से प्रारंभ हो चुकी है । राजस्थान के ही जोधपुर जिले की फलौदी तहसील में ५ मेगावाट के ४ सोलर संयंत्रों ने कार्य करना प्रारंभ कर दिया है तथा बाप गांव स्थित ग्रिड उपकेंद्र को यहां पर कार्यरत महिन्द्रा सोलर एवं पुंज लायड प्रतिदिन क्रमश: ३० हजार एवं २३ हजार किलोवाट अवर बिजली की आपूर्ति कर रहे  हैं ।
    हालांकि एनवीवीएन ने असकांद्रा स्थित सात परियोजनाआें में से तीन की बैंक ग्यारंटियों का नकदीकरण कर लिया है लेकिन समयपूर्व कार्यरत बताने की कागजी कार्यवाई के चलते बाकी की चार जुर्माने से बचने में सफल हो गई हैं । एनवीवीएन के महाप्रबंधक ए. के. मग्गु का कहना है हमने उन चौदह फर्मोंा की बैंक ग्यारंटी का नकदीकरण कर लिया जो कि या तो अभी कार्य प्रारंभ नहीं कर पाई है या उन्होंने समय सीमा के बाद कार्य प्रारंभ किया है । आंकड़े के लिए हमारी निर्भरता राज्य सरकारों पर है । हमें कार्यस्थलों पर जाने और जांच करने का अधिकार है । परंतु उनका मानना है कि स्पष्ट तौर पर जांच का मामला बनता है ।
व्याख्या में अस्पष्टता - नवीनीकृत एवं अक्षय ऊर्जा मंत्रालय के सहसचिव तरूण कपूर के अनुसार ऐसी घटनाएं हो जाती हैं क्योंकि प्रारंभ शब्द की व्याख्या केंद्र व राज्य सरकार अपने-अपने हिसाब से करती हैं ।  एनवीवीएन के अनुसार एक परियोजना को तभी प्रारंभ हुआ माना जाएगा जबकि पूरी ५ मेगावाट क्षमता स्थापित हो चुकी हो और ग्रिड को आपूर्ति कर रही हो । श्री कपूर का यह भी कहना है राजस्थान सरकार ने हमें अब सूचित किया है कि अनेक संयंत्र आंशिक रूप से ही कार्यरत हैं । मंत्रालय के अनुसार ये परियोजनाएं प्रारंभ नहीं हुई हैं । हम मामले की जांच कर रहे हैं और यदि कोई दोषी पाया जाता है तो उसकी बैंक ग्यारंटी का नकदीकरण कर लिया   जाएगा । उनका यह भी कहना है कि हम शीघ्र ही प्रारंभ शब्द को परिभाषित करते हुए स्पष्टीकरण जारी करेंगे ।
स्वास्थ्य
अनैतिक ड्रग ट्रायल : अंतहीन यातना
अमिताभ पाण्डेय

    देशभर में अनैतिक ड्रग ट्रायल के मामले सामने आने से यह स्पष्ट होता जा रहा है कि इस संबंध में कानूनी प्रावधानों की कमी का फायदा दवा कंपनियां उठा रही हैं । जहां एक ओर अनेक सामाजिक संस्थाएं इस अनैतिकता के खिलाफ संघर्षरत हैं तो दूसरी और संलिप्त् चिकित्सक एवं अधिकारी भी अपने बचाव के लिए कमर कस चुके हैं । यह तो समय ही बताएगा कि अंतत: कौन सफल होता है ।
    अगर आप चिकित्सकों को भगवान और चिकित्सालयों को बीमारी से मुक्ति का साधन मानते है तो संभल जाईये । सभी चिकित्सक या अस्पताल ऐसे नहीं है जो ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हों । ऐसे चिकित्सक व चिकित्सालय जो पूंजीवाद की आंधी में भी निस्वार्थ सेवा भावना के साथ मरीजों के हित संरक्षण में लगे हैं, वे अभिनंदनीय है । यहां उन चिकित्सकों का जिक्र हो रहा है जो मरीजों को मात्र अपनी आय का साधन मानते हैं । बीमार मरीज जिनके लिए अलग-अलग बहानों से पैसा वसूलने की मशीन है । वसूली का यह सिलसिला मरीज को देखने के लिए प्रारंभ में मांगे जाने वाले मनमाने शुल्क से शुरू होता है और अनावश्यक जांच, महंगी दवाईयां के बाद भी खत्म नहीं होता । सरकार का इस पर कोई नियंत्रण नजर नहीं आता ।
    आज चिकित्सा ऐसा क्षेत्र बन गया है जहां बड़े कारोबार, बड़े मुनाफे की गुंजाईश है । मनमाना पैसा देने के बाद भी इस बात की ग्यारन्टी नहीं है कि मरीज ठीक हो जाएगा ? सेवा के इस क्षेत्र में पर्याप्त् धन के अभाव में मरीज के उपचार को बंद कर बीमारी की हालत में ही उसे अस्पताल से बाहर निकालने के मामले देखे गए हैं । जिस अस्पताल को सरकार के नियम शिथिल करके ३० एकड़ से ज्यादा जमीन उपलब्ध कराई, मुख्यमंत्री सहायता कोष से गरीबों के उपचार के लिए धन पहुंचाने के इंतजाम किये, वहां भी गरीबों के उपचार में लापरवाही देखी गई है । समय पर पर्याप्त् आर्थिक सहायता न पहुंचने के ऐसे अस्पतालों में गंभीर बीमारियों के मरीज बेमौत मारे गये जिनको समय रहते बचाया जा सकता था । कभी तो ऐसा भी होता है कि गंभीर बीमारी के लिए मुख्यमंत्री सहायता कोष से स्वीकृत राशि उपचार पर आधी भी खर्च नहीं हो पाती और मरीज की मौत जो जाती है । ऐसे में बची राशि अस्पताल के प्रबंधक ही हड़प कर जाते हैं । न तो यह राशि मरीज के परिजनों को दी जाती है न ही वापस मुख्यमंत्री सहायता कोष में जमा कराई जाती है ।
    यदि गंभीरता व गहराई से निष्पक्ष जांच की जाए तो म.प्र. की राजधानी भोपाल में ही तालाब से लेकर मैदान एवं पहाड़ी तक पर बने अस्पतालों में ऐसे कई मामले देखे जा सकते हैं । महंगी फीस में पिछले वर्षो में कई स्वार्थी चिकित्सकों एवं अस्पताल प्रबंधकों ने एक और काला अध्याय ड्रग ट्रायल का जोड़ दिया है । अनेक अनपढ़, शिक्षित, गरीब व मजदूर मध्यप्रदेश के कुछ अस्पतालों व चिकित्सकों द्वारा की जा रही धोखाधड़ी को अब तक नहीं समझ पाए हैं ।
    दरअसल, ड्रग ट्रायल ऐसी प्रक्रिया है जिसमें मरीजों पर नई दवाआें का प्रयोग कर उसका प्रभाव देखा जाता है । अमेरिका समेत कई देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां विभिन्न बीमारियों के उपचार के लिए नए-नए शोध, आविष्कार करती रहती हैं । गहन शोध, परीक्षण के बाद बीमारियों के उपचार के लिए दवा बनाई जाती है जिसका प्रयोग सबसे पहले चूहे तथा अन्य जानवरों पर किया जाता है । उसका आकलन, विश्लेषण करने के बाद इंसान की बारी आती है । विकसित देशों ने ड्रग ट्रायल को लेकर सख्त कानून बनाए हैं । जबकि आदमी का पद, प्रभाव देखकर कानून को लचीला अथवा निष्प्रभावी बना दिये जाने की कल्पना भारत जैसे अति उदार देश में ही संभव है जहां प्राचीन काल से ही समरथ को नहीं दोष गुसाई का तर्क देकर सक्षम लोगों को गंभीर अपराधों के दोष से भी मुक्त करने के बहाने खोज लिये जाते   हैं ।
    ऐसे में नई दवाईयों के प्रभाव को देखने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनयिां गरीब, पिछड़े देशों की ओर चल देती    हैं । विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रबंधक विकासशील अथवा गरीब देशों के प्रभावशील नेताआें, नीति निर्धारकों एवं उच्च् पदों पर आसीन अधिकारियों को अपने पक्ष में कर लेते हैं । इसका नतीजा यह होता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को इन देशों के नागरिकों, मरीजों पर नई दवाआें का मनमाफिक प्रयोग करने की छूट मिल जाती है । मरीजों का पता ही नहीं चलता और डॉक्टर उनके शरीर पर नई-नई दवाआें के प्रयोग करते रहते हैं । इसे अनैतिक ड्रग ट्रायल कहा जाता है । मोटी रकम के लालच में डॉक्टर, अस्पतालों के प्रबंधक व सरकारी विभागों के कुछ अधिकारी भी ड्रग ट्रायल की प्रक्रिया में मरीज की जान से खिलवाड़ के लिए तैयार हो जाते हैं । नई दवा बनाने वाली जो कंपनी मरीजों पर अपनी दवा का प्रभाव या दुष्प्रभाव देखना चाहती है वह अस्पताल प्रबंधन व डॉक्टरों को लाखों रूपए, कीमती उपहारों के साथ ही मुफ्त विदेश यात्रा भी करवाती है ।
    भारत में ड्रग ट्रायल का काम अलग-अलग राज्यों में खूब चल रहा   है । निजी ही नहीं सरकारी अस्पताल और उनमें भर्ती मरीज भी ड्रग ट्रायल की प्रयोगशाला में बदल गये हैं । बीमार मरीजों के साथ विभिन्न प्रकार की नई-नई दवाआें का प्रयोग मध्यप्रदेश के कुछ सरकारी अस्पतालों में देखा गया । जिन मरीजों पर ड्रग ट्रायल किया गया उनको इसकी जानकारी भी नहीं देकर उनके साथ धोखधड़ी की गई । ड्रग ट्रायल के शिकार हुए मरीज अब भी दोषी डॉक्टरों पर कड़ी कार्यवाही का इंतजार कर रहे  हैं ।
    ड्रग ट्रायल का बड़ा मामला पिछले वर्ष मध्यप्रदेश के इन्दौर शहर में सरकारी चिकित्सालय में देखने में  आया । वहां महात्मा गांधी स्मृति चिकित्सा महाविघालय एवं मनोरोग अस्पताल में भर्ती दो दर्जन से अधिक मरीजों को ड्रग ट्रायल का शिकार बनाया गया । ये मरीज विभिन्न बीमारियों का उपचार करवाने अस्पताल में भर्ती हुए थे । उनकी बीमारियां भले ही ठीक नहीं हुई हो लेकिन उनके शरीर पर नई दवाआें का प्रयोग जरूर कर लिया गया।
    ड्रग ट्रायल का मामला उजागार हुआ तो पता चला कि कई सरकारी डॉक्टरों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मोटी रकम लेकर विदेश यात्रा कर, कीमती उपहार आदि सुविधाएं लेकर बीमार मरीजों पर ड्रग ट्रायल किया है । इस मामले को जोरदार ढंग से उठाया     गया । इसके जवाब में राज्य सरकार ने स्वीकार किया कि मरीजों को बिना बताये ड्रग ट्रायल किया गया है । इस मामले की जांच के उपरान्त राज्य अपराध अनुसंधान ब्यूरो के पुलिस महानिरीक्षक ने अपनी जांच रिपोर्ट में कहा कि ड्रग ट्रायल में अनियमितताएं हुई हैं । मरीजों के साथ धोखाधड़ी की गई । इसके उपरान्त भी ड्रग ट्रायल के आरोपी चिकित्सकों को बचाने के लिए रोज नए-नए रास्ते, बहाने तलाश किये जा रहे है । ऐसे चिकित्सकों को संरक्षण देकर बचाने का प्रयास करने वालों में सत्तारूढ़ दल के नेता ही नहींबल्कि चिकित्सा विभाग के कुछ अधिकारी भी शामिल है । यहां यह बताना जरूरी होगा कि जिन मरीजों पर ड्रग ट्रायल किया गया उनमें से अधिकांश गरीब थे ।
    उल्लेखनीय है कि इन्दौर में सरकारी व निजी अस्पतलों में ड्रग ट्रायल का मामला तो पत्रकारों, समाजसेवियों, जनप्रतिनिधियों की जागरूकता से उजागर हो गया, लेकिन इसके लिए जिम्मेदार डॉक्टरों पर सरकार कब कार्यवाही करेगी । ऐसे डॉक्टरों को क्या चिकित्सा के पेशे से बेदखल किया जायेगा ? इसका जवाब किसी के पास नहीं है । हाल ही में मुख्यमंत्री से ड्रग ट्रायल के दोषी चिकित्सकों को बर्खास्त करने हेतु निष्पक्ष एवं निर्भीक कार्यशैली वाले उच्च् अधिकारियों के साथ विधायकों की जांच कमेटी गठित करने, ड्रग ट्रायल के शिकार मरीजों को उचित मुआवजा देने की मांग की गई है । राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने भी इस मामले में मध्यप्रदेश सरकार से जवाब तलब किया है । दूसरी ओर राज्य सरकार ने ड्रग ट्रायल को वैधानिक बनाने तथा इसको उचित ठहराने के प्रयास तेज कर दिये हैं । इससे यह जाहिर होता है कि अनैतिक ड्रग ट्रायल करने वालों की पहुंच सरकार में किस स्तर तक   हैं ।    
कृषि जगत
हल बैल छोड़ मुसीबत में फसे किसान
बाबा मायाराम

    आधुनिक मशीनीकृत खेती के दुष्परिणाम हमारा पूरा देश भुगत रहा   है । छोटी जोत के बावजूद मशीनों, रासायनिक उत्पादों और महंगे व्यावसायिक बीजों पर निर्भरता ने किसान की कमर तोड़ दी है । आवश्यकता इस बात की है कि छोटी जोत के किसान चक्रव्यूह से बाहर निकलेंऔर अपनी पारम्परिक खेती की ओर रूख करें ।
    मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में करीब ३० साल पहले तवा परियोजना की नहरों के साथ ही परम्परागत बीजों की जगह प्यासे संकर बीज आए । गोबर खाद की जगह रासायनिक खाद का इस्तेमाल होने लगा । हल-बैल की जगह ट्रेक्टर से जुताई होने लगी, जिससे खेत और बैल का रिश्ता टूटने लगा । ये बदलाव देश और प्रदेश में भी हरित क्रांति के साथ आए थे लेकिन इस जिले में बहुत तेजी से आए ।
    इस बदलाव से समृद्धि का भी अहसास होता है । क्योंकि आधुनिक खेती में यह क्षेत्र अग्रणी रहा है । मध्य भारत में होशंगाबाद और हरदा जिले की खेती को हरित क्रांति का सबसे अच्छा मॉडल माना जाता था । शुरूआत में यहां पैदावार भी बढ़ी । खुशहाली आई लेकिन इसके साथ कई समस्याएं भी आई । वर्तमान में गेहूं और सोयाबीन की पैदावार ठहर गई है । खाद, बीज, कीटनाशक दवाई, डीजल, बिजली, मशीनों आदि की लगातार बढ़ती कीमतें परेशानी का सबब बन गई है ।
    सोयाबीन की फसल खराब होने से इसी वर्ष  होशंगाबाद जिले में ३ किसानों ने आत्महत्या कर ली है । प्रदेश में हर रोज ४ किसान आत्महत्या कर रहे हैं । किसानों का संकट गहराता जा रहा है । वे सड़कों पर उतर रहे हैं । धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं । लेकिन उनकी मुसीबतें कम नहीं हो रही है ।
    तवा बांध से सिंचाई के बाद पूरे कमांड क्षेत्र में जंगल, चारागाह तथा सामुदायिक उपयोग की भूमि लगभग खत्म हो गई । चरोखर और पड़ती भूमि अब नहीं के बराबर है । इससे सबसे बड़ा नुकसान पारंपरिक पशुपालन का हुआ है । पशुआें की संख्या घटी है । इससे आदिवासी, दलित और पिछड़े समुदाय के गरीब लोगों की आजीविका प्रभावित हो रही है । पहले देशी गाय, भैंस, बकरी, भेड़, गधे, घोड़े आदि से इनकी आजीविका चलती थी । लेकिन अब यहां इनकी संख्या नहीं के बराबर है । डेयरी उद्योग के रूप में जो पशुपालन हो रहा है, वह बहुत महंगा और पूंजी प्रधान है ।
    पशुधन कम होने का एक कारण मवेशियों के लिए चारे और भूसे की कमी है । गांव में पहले चरोखर की जमीन, नदी-नालों व गांव के आसपास की जमीन पर पशु चरा करते थे । अब सार्वजनिक उपयोग की ये जमीनें रसूखदार लोगों के कब्जे में हैं या उन पर खेती होने लगी है । होशंगाबाद के पास रोहना के किसान चरोखर की जमीन वापस दिलाने की मांग कर रहे हैं । इसी प्रकार हार्वेस्टर से कटाई होने के कारण भूसा या फसलों के डंठल जला दिए जाते हैं, इस कारण भूसा भी नहीं मिल पाता । अब समस्या यह है कि मवेशियों को क्या चराएं ? खेती और पशुपालन एक दूसरे के पूरक माने जाते हैं । खेती में उस समय ऐतिहासिक मोड़ आया था जबसे खेतों की जुताई बैलों से होने लगी थी । यह रिश्ता हजारों सालों से चला आ रहा है । किसान के घरों में गायें होती थी । उनके बछड़े बड़े होने पर खेतों की जुताई करने के काम आते थे ।
बैलगाड़ियों की जगह ट्रेक्टर -
    अनुकूल मिट्टी, हवा, पानी, बीज, पशु ऊर्जा और मानव ऊर्जा से ही खेतों में अनाज पैदा हो जाता था । अब तक वास्तविक उत्पादन सिर्फ खेती में ही होता रहा है । एक दाना बोओ तो कई दाने पैदा होते हैं और उसी से हमारी भोजन की जरूरत पूरी होती हैं परम्परागत खेती में बैलों से जुताई, मोटर और रहट से सिंचाई और बैलगाड़ी के जरिये फसलों व अनाज की ढुलाई की जाती थी । खेत से खलिहान तक, खलिहान से घर तक और घर से बाजार तक किसान बैलगाड़ियों से अनाज ढोते थे । गांव में बढ़ई का काम कृषि यंत्र बनाना होता था । जिसके बदले उसे किसानों से अनाज मिलता था । पिपरिया के नजदीक स्थित गांव चंदेरी के युवा किसान दशरथ कहते हैंकि उनके गांव मेंपहले हर किसान के पास बैल जोड़ी थी । आज उनके स्थान पर ट्रेक्टर है । उनके अकेले गांव में करीब ३० ट्रेक्टर है ं । आज कहीं बैलगाड़ियां दिखाई नहीं देती । जाने-माने पत्रकार भारत डोगरा कहते हैं कि आज बिजली और ऊर्जा के संकट के दौर में खेती में पशु  ऊर्जा के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता । जलवायु बदलाव की समस्या है, जिससे ग्लोबल वार्मिग की समस्या बढ़ सकती है ।
बिना खर्च का पशुपालन था -
    परम्परागत खेती में अलग से बाहरी निवेश की जरूरत नहीं थी । न फसलों में खाद डालने की जरूरत थी और न ही कीटनाशक या नींदानाशक । पशुआें की देखभाल में अतिरिक्त खर्च नहीं होता था । फसलों के डंठल से तैयार भूसा, पुआल व मेढ़ पर होने वाले चारे से उनका पेट भर जाता था । खेतों में होने वाली फसलों से जो डंठल, पुआल और खरपतवार होती थी, वह मवेशियों को खिलाने के काम आती थी । बथुआ जैसी हरी भाजी को तो मवेशियों को खिलाया जाता था, उसे मनुष्य भी दूसरी तरफ खेत में डंठल व पुआल आदि सड़कर जैव खाद बनाते थे और पशुआें के गोबर से बहुत अच्छी खाद मिल जाती थी । गोबर खाद से खेतों में मिट्टी की उर्वरकता बढ़ती जाती थी । फसलों के मित्र कीट ही कीटनाशक का काम करते थे ।
    गाय-बैल को खिलाने के लिए पहले खेतों में कई तरह का चारा उपलब्ध था । होशंगाबाद गजेटियर में केल, मुचेल, पोनिया, सुकरा, गुनैया और दूब के चारे का जिक्र है । नये घास नेपियर और लुक्रेन हैं । जबकि किसान कई और चारों का नाम बताते हैं, जिनमें समेल, कांस, बांसिया, हिरमेचिरी, बथुआ आदि हैं । लेकिन अब नींदानाशक या खरपतवार नाशक दवाइयों के छिड़काव के कारण ये चारे उपलब्ध नहीं हैं या लगातार कम होते जा रहे हैं । इसी कारण पशुपालन कम होता जा रहा है । लेकिन ऊर्जा सकंट, बिजली संकट और मानव श्रम की बहुता के मद्देनजर हमें टिकाऊ खेती की ओर बढ़ना पड़ेगा और इसमें पशु ऊर्जा की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है ।
पर्यावरण परिक्रमा
ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते तापमान बढ़ेगा

    ग्लोबल वॉर्मिंग और बदलते मौसम का देश के पर्यावरण पर खतरनाक असर होने वाला है । एक चौंकाने वाली रिपोर्ट में कहा गया है कि २०२० तक राजस्थान और गुजरात में कच्छ के कई इलाकों का तापमान ४ डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ जाएगा और यही हाल जारी रहा तो २०८० तक पूरे देश के तापमान में ४ डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो सकती है । ऐसा कहा गया है कि १९७१-२००७ के बीच हर दशक में ०.२ डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी दर्ज की गई है जबकि पिछले १०० सालों में तापमान में १.२ डिग्री की ही बढ़ोतरी हुई थी ।
    रिपोर्ट में देश में ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन पर चिंता जाहिर की गई है । ऐसी संभावना जताई गई है कि कुल मॉनसूनी बारिश की मात्रा में ९-१६ फीसदी की बढ़ोतरी हो जाएगी । यह भी कहा जा रहा है कि २०५० तक देश के ज्यादातर इलाकों के रात का तापमान ४.५ डिग्री तक बढ़ सकता है । ग्रीन हाउस गैसों का पानी की उपलब्धता पर प्रभाव के मुद्दे पर किए  गए  अलग-अलग अध्ययनों से साफ हो गया है कि इसका नदियों के जल स्तर पर खराब असर पड़ रहा है ।
    रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती मात्रा के चलते बरसात के दिनों की संख्या घटेगी लेकिन पानी ज्यादा    बरसेगा । इससे पूरे देश में ज्यादा नुकसान पहुंचेगा । दिन के  अधिकतम और न्यूनतम तापमान में भी बढ़ोतरी होगी ।
    सरकारी अनुमान के मुताबिक कावेरी, माही, साबरमती, साऊ और लूनी, ताप्ती, नर्मदा जैसी नदियों में पानी का स्तर और देश के सभी भाग में भूजल स्तर घट रहा है ।
रेतीली जमीन पर अकेले इंसान ने बसाया जंगल
    एक व्यक्ति ने असम के जोरहट में ब्रह्मपुत्र नदी के बीचों बीच रेतीली भूमि पर एक घना जंगल बसाया है । इस काम ने सरकार, पर्यटकों और फिल्मकारों का ध्यान आकर्षित किया है । जादव पायेंग नाम के इस व्यक्ति को लोग मुलई नाम से बुलाते हैं ।
    मुलई ने ३० सालों तक ५५० हेक्टेयर के क्षेत्र में जंगल उगाने के लिए काम किया । असम वन विभाग ने उनके इस काम को अनुकरणीय बताया है । मुलई ने १९८० में इस जंगल के लिए काम करना शुरू किया था जब गोलाघाट जिले के सामाजिक वानिकी प्रभाग ने अरूणा चपोरी इलाके में २०० हेक्टेयर भूमि पर पौधरोपण की एक योजना शुरू की थी । अरूणा चपोरी जोरहट जिले के कोकिलामुख से पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । वन के सहायक संरक्षक गुनिन सैकिया जो अब शिवसाग जिले में कार्यरत हैं, ने कहा कि मुलई हमारी परियोजना के अन्तर्गत काम करने वाले मजदूरों में से एक था ।
    मुलई ने कहा कि अधिकारी घने और विशाल जंगल को देखकर आश्चर्य में पड़ गए हैं । मुलई ने कहा कि अगर वन विभाग मुझसे जंगल की सही देखभाल का वादा करता है, तो मैं राज्य के दूसरे हिस्सों को भी हरा भरा  करूंगा ।
    अब इस जगह ने केवल पर्यटक जुट रहे है, बल्कि एक प्रसिद्ध ब्रिटिश फिल्मकार टॉम रॉबर्ट ने पिछले साल यहां अपनी एक फिल्म की शूटिंग भी की । असमी भाषा में मुलई कथोनी या मुलई जंगल के रूप मेंजाने वाले इस जंगल में चार बाघ, तीन गैडे, सौ हिरण, लंगूर, खरगौश और चिड़ियों की कई प्रजातियां है । यहां वालकोल, अर्जुन, इजर, गुलमोहर आदि के पेड़ पाए जाते है । यहां ३०० हेक्टेयर भूमि में बांस के पेड़ भी  है ।
क्या मानसरोवर है, गंगा का उद्गम
    गंगा नदी का उद्गम गोमुख नहीं, बल्कि कैलास मानसरोवर है । कैलास मानसरोवर के नीचे कई झरने हैं, जिनका पानी पहाड़ों के नीचे होते हुए गोमुख तक पहुंचता है । इसी स्त्रोत से होता है गंगा नदी का जन्म ।
    इस बात का रहस्योद्घाटन जेएनयू में विज्ञान नीति के प्रोफेसर रहे  धीरेन्द्र शर्मा के अध्ययन में हुआ । उनके अध्ययन के आधार पर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेसिंग (आइआइआरएस) ने मानसरोवर व गोमुख के बीच पानी के जुड़ाव की मैपिंग भी की । गंगा के नए उद्गम की रिपोर्ट केन्द्र सरकार को भेजी गई है ।
    प्रोेफेसर धीरेन्द्र शर्मा के मुताबिक, कुछ साल पहले गंगोत्री तक बर्फ थी, जिससे लोग गोमुख नहीं पहुंच पाते थे । अब गोमुख के आसपास पहुंचा जा सकता है । गोमुख को देखने पर यह तो लगता है कि गंगा का पानी वहां से बाहर आ रहा है । मगर, वैज्ञानिक आधार पर इस मामले में कई सवाल  थे । इनका जवाब तलाशने के लिए प्रोफेसर शर्मा ने गोमुख क्षेत्र का गहन अध्ययन किया । जिस तरह से गोमुख की चट्टानों से पानी निकल रहा था, उससे आभास हुआ कि इसका स्त्रोत कही और ही है ।
    उन्होनें निष्कर्ष निकाला कि गंगा का स्त्रोत मानसरोवर से जुड़ा हो सकता है । इसके बाद आइआइ आरएस ने पूरे क्षेत्र का भूगर्भीय नक्शा तैयार किया । इससे साफ हो गया है कि करीब ६५ मील लंबी कैलास मानसरोवर झील के नीचे २०० के आसपास झरने है, जिनका पानी चट्टानों के नीचे से होते हुए गोमुख में निकल रहा है । प्रोफेसर शर्मा ने बताया कि गोमुख सिर्फ गंगा का मुख है ।
    गंगा का मुख्य उद्गम कैलास मानसरोवर के नीचे के झरने है । नए अध्ययन की रिपोर्ट वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के साथ योजना आयोग को भी भेजी गई है । 
नदियों का गंदा पानी बुझाएगा प्यास
    देश में जल संकट गहराता जा रहा है । उ.प्र. में १३८ ब्लॉकों में भूजल स्तर सामान्य से नीचे चला गया है । उद्योगों से निकलने वाले रसायन युक्त पानी और कूड़े-कचरे से नदियों का जल अत्यधिक प्रदूषित हो चुका है । इसके निदान के लिए यूरोपिय देशों की तर्ज पर भारत में भी नदियों के जल का प्राकृतिक ढंग से ट्रीटमेंट कर इसे पीने योग्य बनाया जाएगा ।
    इसके लिए राष्ट्रीय जल विज्ञान  संस्थान, रूड़की की ओर से शोध शुरू किया गया है । यूरोपियन कमीशन के सहयोग से शुरू किए गए प्रोजेक्ट का नाम साफ-पानी रखा गया है । इसके लिए ३१ करोड़ रूपए जारी भी हो चुके है ।
    शोध के लिए दिल्ली में यमुना नदी सहित तीन नदियों और एक झील को चुना गया है । प्रोजेक्ट को अगले तीन साल में पूरा किया जाएगा । प्रोजेक्ट के लिए भारत समेत आठ देशों के २० संस्थानों का सहयोग लिया जा रहा है । इनमें राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रूड़की भी शामिल है । शोध के लिए दिल्ली में यमुना नदी के अलावा अलकनंदा (श्रीनगर), नैनी झील (नैनीताल) और गंगा (हरिद्वार) प्रोजेक्ट में शामिल है । साफ पानी प्रोजेक्ट के तहत रिवर बैंक फिल्ट्रेशन (आरबीएफ) सिस्टम से नदियों के जल को प्राकृतिक ढंग से उपचारित किया जाएगा ।
    रिवर बैंक फिल्ट्रेशन सिस्टम में नदियों के किनारों पर वॉटर टैंक बनाए जाएंगे । इससे नदियों से जल रिसकर टैकों में भर जाएगा । नदी के जल में जितना भी प्रदूषण होगा, वह उसके किनारों की मिट्टी पर रूक जाएगा । टैंक में जो पानी जमा होगा वह शुद्ध होगा । गहरे वॉटर टैक में नीचे से आएगा ग्राउंड वॉटर । ग्राउंड वॉटर और रिसाव से आया पानी मिलकर होगा पीने लायक । नाममात्र की अशुद्धि रही तो मामूली ट्रीटमेंट से हो सकेगाशुद्ध । पानी का नुकसान भी नहीं के बराबर होगा । यह विधि मौजूदा वॉटर ट्रीटमेंट से ८० फीसदी सस्ती भी होगी ।
विज्ञान हमारे आसपास
जी.एम. फसल पर अंतहीन बहस
भारत डोगरा

    जी.एम. फसलों की बहस को बार-बार चर्चा में लाने के पीछे की साजिश यह है कि धीरे से इसे स्वीकार्यता प्रदान करवा दी जाए । वैश्विक तौर पर यह सिद्ध हो जाने के बाद कि इन फसलों से मनुष्य सहित पूरे पर्यावरण को खतरा है, के बावजूद इसकी स्वीकार्यता को लेकर की जा रही बहस साफ दर्शा रही है कि बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियां अपने लाभ के लिए पूरी पृथ्वी को संकट में डालने में नहीं हिचकिचाएंगी ।
    बी.टी. बैंगन व बी.टी. कपास के संदर्भ में जी.एम. फसलों पर हाल ही मेंे देश में तीखी बहस हुई । अंतत: बी.टी. बैंगन पर रोक लग गई । बी.टी. कपास पर बहस अभी भी जारी है । आंध्रप्रदेश व महाराष्ट्र के विदर्भ में कपास की इस किस्म से किसानों की भारी क्षति हुई है । बी.टी. बैंगन की बहस के दौरान कुछ ऐसे मुद्दे उठे जो विशेषकर बैंगन से संबंधित थे । यह कहा गया कि भारत बैंगन के जन्म का देश है व यहां के १३४ जिले बैंगन की जैव-विविधता के लिए चर्चित हैं व इसकी ३९५१ किस्में देश में उपलब्ध   हैं । जी.एम. फसल आने से बैंगन के जन्म के देश में इसकी जैव विविधता पर आघात होगा । इसी तरह बी.टी. बैंगन पर हुए अनुसंधान में कितनी गंभीर कमियां रहीं व यह इसका प्रसार करने वाली कंपनी के ही नियंत्रण में किया गया, यह भी चर्चा का विषय   बना ।
    पर इससे आगे यह कहना जरूरी है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त् जी.एम. या जी.ई. फसलों में मूल रूप से कई कमियां हैं । बी.टी. बैंगन को जो निहित स्वार्थ देश में लाना चाहते थे, वही स्वार्थ इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण अन्य जी.एम. फसलों को भी भारत में लाना चाहते हैं । इन पर ये कंपनियां व उनके सहयोगी परीक्षण कर रहे हैं । अब सवाल यह है कि क्या ऐसी हर फसल के बारे में इतना बड़ा विवाद होगा ? जैसे बी.टी. बैंगन विवाद में अरबपति कंपनियों ने गलत ढंग के परीक्षणों व प्रचार से पलड़ा अपने पक्ष में करने का कुप्रयास किया, वैसा वे पुन: करेंगी । यह भी हो सकता है कि वे साम्राज्यवादी हितोंे से उच्च्तम स्तर पर भी अपने लिए सहयोग प्राप्त् करें ।
    अत: हमें अब तक के उपलब्ध वैज्ञानिक अध्ययनों व विमर्श के आधार पर पर जी.एम. फसलों के बारे में एक व्यापक निर्णय लेना होगा । आईए देखे विश्व के कुछ विख्यात वैज्ञानिक इस बारे में क्या कहते हैं । अनेक निष्ठावान वैज्ञानिकों ने बहुत स्पष्ट शब्दों में इस विषय पर अपने तथ्य व विचार सामने रखे हैं । जनहित के मामलों में मार्गदर्शन करने के लिए अनेक देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक एक हुए व उन्होनें एक इंडिपेंडेंट साइंर्स पैनल (स्वतंत्र विज्ञान मंच)का गठन किया । इस पैनल ने जी.एम. फसलों पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज तैयार किया है । इस दस्तावेज के निष्कर्ष में कहा गया है - जी.एम. फसलों के बारे में जिन लाभों को वायदा किया गया था वे प्राप्त् नहीं हुए हैं व ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रहीं हैं ।
    अब इस बारे में व्यापक स्वीकृति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से नहीं बचा जा सकता है । अत: जी.एम. फसलों व गैर जी.एम. फसलों का यह अस्तित्व नहीं हो सकता है । सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जी.एम. फसलों की सुरक्षा प्रमाणित नहीं हो सकी है । इसके विपरीत पर्याप्त् प्रमाण प्राप्त् हो चुके है जिनसे इन फसलों की सुरक्षा संबंधी गंभीर चिताएं पुष्ठ होती हैं । यदि इनकी उपेक्षा की गई हो तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की जो क्षति होगी उसकी पूर्ति नहीं हो सकती है। अतएव जी.एम. फसलोंको अब दृढ़ता से अस्वीकृत कर देना चाहिए । विश्व के इन जाने माने वैज्ञानिकों ने विस्तृत अध्ययन के बाद जो इतना स्पष्ट निष्कर्ष दिया है इससे अधिक स्पष्ट राय और क्या हो सकती है ?
    यूनियन ऑफ कन्सर्नड साईटिस्टस नामक वैज्ञानिकों के संगठन ने कुछ समय पहले अमेरिका में कहा था कि जेनेटिक इंजीनियरिंग के उत्पादों पर फिलहाल रोक लगनी चाहिए क्योंकि यह असुरक्षित हैं । इनसे उपभोक्ताआें, किसानों व पर्यावरण को कई खतरे है ।
    भारत में बी.टी. बैंगन के संदर्भ में इस विवाद ने जोर पकड़ा तो विश्व के १७ विख्यात वैज्ञानिकों ने भारत के प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस बारे में नवीनतम जानकारी उपलब्ध करवाई । पत्र में कहा गया है कि जी.एम. प्रक्रिया से गुजरने वाले पौधे का जैव-रसायन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है जिससे उसमें नए विषैले या एलर्जी उत्पन्न करने वाले तत्वों का प्रवेश हो सकता है व उसके पोषण गुण कम हो सकते हैं या बदल सकते हैं । उदाहरण के लिए मक्का की जी.एम. किस्म जी.एम. एमओएन ८१० की तुलना गैर-जी.एम. मक्का से करें तो इस जी.एम. मक्का में ४० प्रोटीनों की उपस्थिति महत्वपूर्ण हद तक बदल जाती है । जीव-जन्तुआें को जी.एम. खाद्य खिलाने पर आधारित अनेक अध्ययनों से जी.एम. खाद्य के गुर्दे (किडनी), यकृत (लिवर) पेट व निकट के अंगों (गट), रक्त कोशिका, रक्त जैव रसायन व प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी सिस्टम) पर नकारात्मक स्वास्थ्य असर सामने आ चुके हैं ।
    वैज्ञानिकों के इस पत्र में आगे कहा गया है कि जिन जी.एम. फसलोंकी स्वीकृति मिल चुकी है उनके संदर्भ में भी अध्ययनों से यह नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम नजर आए है जिससे पता चलता है कि कितनी अपूर्ण जानकारी के आधार पर स्वीकृति दे दी जाती है व आज भी दी जा रही है ।
    इन वैज्ञानिकों ने कहा है कि जिन जीव -जन्तुआें को बीटी मक्का खिलाया गया उनमें प्रत्यक्ष विषैलेपन का प्रभाव देखा गया । बी.टी. मक्का पर मानसैंटो ने अपने अनुसंधान का जब पुनर्मूल्यांकन किया तो अल्प-कालीन अध्ययन में ही नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम दिखाई दिए । बी.टी. के विषैलेपन से एलर्जी व रिएक्शन का खतरा जुड़ा हुआ है ।
    अब तक उपलब्ध सभी तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सभी जी.एम. फसलों पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए । इनके परीक्षणों पर भी रोक लगनी चाहिए ताकि इनसे जेनेटिक प्रदूषण फैलने की कोई संभावना न रहे । देश की कृषि, स्वास्थ्य व पर्यावरण की रक्षा के लिए यह नीतिगत निर्णय लेना जरूरी है ।
ऊर्जा जगत बिजली का संकट
एन. श्रीकुमार/शांतनु दीक्षित

    जहां सरकारें व ऊर्जा क्षेत्र के अन्य किरदार बिजली के संकट से निपटने को लेकर सजग है, वहीं कई लोग इसे व्यापारिक लाभ कमाने का अवसर मान रहे हैं । दूसरी ओर, ग्रामीण बिजली सप्लाई उपेक्षित पड़ी है ।
    पिछले सितंबर से ही मीडिया में बिजली संकट की खबरें बढ़ते क्रम में आ रही हैं । पिछले वर्ष सितंबर में  बिजली की कमी १० प्रतिशत से बढ़कर ३० प्रतिशत तक पहुंच गई थी । देश भर में औद्योगिक क्षेत्र में प्रतिदिन ८ से १४ घंटे तक की बिजली कटौती की गई । इसके अलावा, सप्तह में २-३ दिन बिजली अवकाश भी रखा गया । कोलकाता, हैदराबाद, बैंगलुरू जैसी प्रांतीय राजधानियों में २-४ घंटे की कटौती की गई । यहां तक कि दिल्ली को भी नहींे बख्शा गया ।
    यह रिपोर्ट किया गया था कि देश के लगभग आधे ताप बिजली घरों में चंद दिनां का ही कोयले का स्टॉक बचा है जबकि आदर्श स्थिति में उनके पास कम से कम ३-४ सप्तह के लिए कोयला स्टॉक होना चाहिए । बिजली की कमी के बावजूद ऊर्जा व कोयला मंत्रियों ने ऐसे आश्वासन भरे वक्तव्य जारी किए थे कि दीवाली का त्यौहार भरपूर रोशनी के साथ मनाया जाएगा ।
    अब कमी की स्थिति थोड़ी बेहतर हुई है मगर आशंका है कि आने वाले दिनों में हालात फिर से बिगड़  जाएंगे । मीडिया रिपोर्टोंा से उन लोगों की प्राथमिकताएं उजागर होती हैं जो ऊर्जा क्षेत्र का संचालन करते हैं । पी. साईनाथ का मुहावरा उधार लें, तो लगता है कि सचमुच ऐसे लोग हैं जो एक मुकम्मल अभाव से प्रेम करते हैं ।
    बिजली कटौती कोई नई चीज नहीं है । अलबत्ता, जिस चीज ने ध्यान आकर्षित किया है, वह है उद्योगों व शहरों पर उनका असर । कोयला उत्पादन करने वाली पूर्वी भारत में भारी बारिश को संकट का एक कारण बताया गया  है । इसके अलावा, कोल इण्डिया में तीन दिन की हड़ताल, सिंगरेनी कोयला खदान में महीने भर की हड़ताल, कुछ बिजली घरों द्वारा कोल इण्डिया को भुगतान न किया जाना, कोयला खदानों के निजीकरण से उत्पादन में अपेक्षित वृद्धि न हो पाना, आयातित कोयले की कीमतों में वृद्धि तथा ताप बिजली घरों का सालाना रख-रखाव वगैरह कारण भी गिनाए गए हैं ।
    ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली सप्लाई औसतन छ: घंटे रहती है और ग्रामीण लोग जानते हैं कि बिजली कटौती के घंटे कोई खबर नहीं बनती । वास्तव में खबर तो यह बनती है कि गांवों मेंे कितनी घंटे बिजली चालू रही । ग्रामीण बिजली सप्लाई को आम तौर पर कृषि के लिए बिजली सप्लाई से जोड़ दिया जाता है । कृषि के लिए बिजली सप्लाई को रात या दोपहर ६-८ घंटे चालू रखा जाता है जब शहरों को बिजली की जरूरत नहीं होती । आंकड़े बताते हैं कि गांवो में हर पांच में दो घरों में बिजली कनेक्शन ही नहीं है ।
    इन घरों को रोशनी न मिलने का एकमात्र कारण सप्लाई में कमी नहीं है । हालांकि पिछले एक दशक में बिजली उत्पादन में ६० प्रतिशत की वृद्धि हुई है, मगर ग्रामीण परिवारों तक बिजली की पहुंच मात्र १० प्रतिशत बढ़ी है ।
    दिलचस्प बात यह है कि बिजली की यह कमी व्यापार के अवसर पैदा करती है । खास तौर से ऐसी चीजों का व्यापार जिनकी वास्तव में जरूरत हीं नहीं होनी चाहिए - इवर्टर्स, युपीएस इकाइयां, डीजल जनरेटर्स । सरकार डीजल पर सबसिडी देती है ताकि सार्वजनिक यातायात व माल ढुलाई का काम किफायती दरों पर हो सके मगर इस डीजल का उपयोग मॉल्स को जगमग करने, एयर कंडीशनर चलाने और मोबाइल टॉवर्स में होता है ।
    इसके अलावा मुक्त बाजार के हिमायती दावा करते हैं कि सारी समस्या की जड़ तो यह है कि सरकार इस बाजार पर नियंत्रण करती है । बिजली क्षेत्र में निजी किरदारों की भूमिका बढ़ती जा रही है । वर्तमान अभाव के दौर में, बाजार में बिजली के मूल्य ८-११ रूपए प्रति यूनिट तक पहुंच गए, जबकि औसत मूल्य ३-४ रूपए प्रति यूनिट है । व्यापारिक बिजली संयंत्र, जो बाजार में बिजली बेचते हैं, को यह अभाव अत्यन्त सुहावना लगता है क्योंकि यह उन्हें मनमाना मुनाफा कमाने का अवसर देता है । खड़ी फसलों को बचाने या प्रमुख उद्योगों को चलाने के लिए बिजली की संकटकालीन खरीद के चलते बिजली के दाम दुगने हो गए  हैं । कुछ लोग तत्काल फायदा उठाने के लिए बिजली घरों की उत्पादन क्षमता बढ़ाने का जुगाड़ जमा रहे हैं, जैसे बंद कमरों में अनुबंध करना या पहले हो चुके अनुबंधों में संशोधन करना।
    इससे १९९० के दशक की यादें ताजा हो जाती हैं, जब निजी बिजली निर्माताआें को यह कहकर बढ़ावा दिया गया था कि महंगी से महंगी बिजली भी न होने से तो बेहतर है । कहने का आशय यह था कि बिजली उपलब्ध न होने का विकल्प बिजली उत्पादन के किसी भी विकल्प से महंगा साबित होगा, लिहाजा बिजली उत्पादन क्षमता में किसी भी कीमत पर इजाफा किया जाना चाहिए ।
    यहां दो मुद्दे महत्वपूर्ण हैं । पहला, तुरत-फुरत समाधान लागू करने में सावधानी बरतनी होगी । क्योंकि ऐसे तुरत-फुरत समाधानों के परिणाम ऐसे हो सकते हैं जिन्हें पलटना शायद संभव न हो और ये अपने आप में ज्यादा बड़ी समस्याएं बन जाएं । हमारा देश एक गरीब देश है, जो महंगी गलतियां वहन नहीं कर सकता । एनरॉन की घोर असफलता इसकी एक मिसाल है । आम लोग आज भी इसका खामियाजा भुगत रहे हैं क्योंकि एनरॉन की बिजली निहायत महंगी साबित हुई थी।
    वर्तमान संकट की जड़े बिजली व कोयला क्षेत्र में प्रशासन के संकट में हैं । वैसे तो इन समस्याआें को कोई तुरत-फुरत समाधान नहीं हो सकता मगर कुछ उपाय किए जा सकते हैं जिनके दूरगामी परिणाम होंगे । इनमें दीर्घावधि नियोजन, ऊर्जा-क्षति को कम करना, उपभोक्ताआें के स्तर पर कार्यक्षमता में वृद्धि, ग्रामीण पहुंच कार्यक्रम को सृदृढ़ करना और नियामक प्रक्रियाआें की मदद से बिजली व कोयला क्षेत्र में प्रशासन को बेहतर बनाना शामिल हैं । खास तौर से एक कोयला नियामक संस्था गठित करने की जरूरत है । बिजली नियामक आयोगों को चाहिए कि वे जन सुनवाइयां आयोजित करें ताकि संकट के कारण खोजे जा सकें और सुधार के उपायों की योजना बनाई जा सके ।
ज्ञान विज्ञान
डिसेक्शन में पेपर मेशे मॉडल का इस्तेमाल

    हाल ही में विश्वविघालय, अनुदान आयोग ने स्कूल-कॉलेजों में जंतुआें के डिसेक्शन पर रोक लगा दी है । इसके एवज में आयोग ने कम्प्यूटर मॉडल्स वगैरह के उपयोग का सुझाव दिया है । मगर इतिहास में झांकें तो करीब २०० वर्ष पहले फ्रांस में मानव शव विच्छेदन के लिए कागज की लुगदी से बने मॉडल्स का इस्तेमाल किया गया था । ऐसा एक मॉडल ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न संग्रहालय में मौजूद है । 

 

    दरअसल, इस मॉडल का निर्माण १८४० के आसपास एक फ्रांसीसी चिकित्सक व शारीरिकी विशेषज्ञ लुई थॉमस जेरोम औजू ने किया था । औजू जब चिकित्सा के छात्र थे, तब उन्हें उस समय उपलब्ध घटिया डिसेक्शन मॉडल्स की वजह से काफी दिक्कतें हुई थी और इस काम के लिए मृत मानव देह भी आसानी से नहीं मिल पाती थी । मोम के मॉडल्स जल्दी ही खराब हो जाते थे । लिहाजा उन्होंने कागज और लेई के साथ प्रयोग करना शुरू किया ।
    सन् १८२२ में अपनी चिकित्सा शिक्षा पूरी करते-करते औजू ने ऐसा पहला शारीरिक मॉडल तैयार कर लिया था । इसे पेरिस एकेडमी ऑफ मेडिसिन ने एक महान सफलता निरूपित किया था । पांच साल बाद औजू ने ऐसे मॉडल्स का कारखाना डाल दिया था ।
    ये मॉडल्स कागज की लुगदी (पेपर मेशे) से बनाए गए थे । इनमें बारीक शिराएं बनाने के लिए तार पर लिनेन लपेटा गया था और मोटी धमनियां व शिराएं सन से बनाई गई थी । विभिन्न अंग तो कागज की लुगदी से बने ही थे । पेपर मेशे के ऊपर प्लास्टर का एक अस्तर चढ़ाया गया है ताकि मॉडल मजबूत बन सके । इसके ऊपर अंडे की जर्दी में रंगीन पदार्थ मिलाकर पेटिंग की गई  थी । यह मॉडल ऐसा था कि इसे चरण दरचरण खोलकर अध्ययन किया जा सकता था । इसे बनाने की तकनीक का विस्तृत विवरण वर्ष २००० में क्यूबेक विश्वविघालय के  रेजिस ओर्ली ने प्रकाशित किया था ।
    कई शारीरिक विशेषज्ञों का कहना है कि इस मॉडल में अनुपात की दृष्टि से कुछ दिक्कतें हैं, मगर सारे अंग अपनी-अपनी सही जगह पर लगे हैं । सभी मानते हैं कि यह अपना शैक्षणिक उद्देश्य भलीभांति पूरा करता होगा । कम से कम यह उन लोगों के लिए तो बहुत उपयोगी होगा, जिन्होंने कभी मानव शरीर के अंदर झांका नहीं है ।
    फिलहाल दुनिया भर में ऐसे मात्र १०० मॉडल्स उपलब्ध हैं । इनमें से भी अधिकांश पुरूष शरीर के मॉडल्स हैं । स्त्री मॉडल्स कम होने का कारण यह माना जाता है कि शायद उस समय स्त्री शरीर को निर्वस्त्र अवस्था में प्रस्तुत करना उचित नहीं माना जाता होगा । कुछ लोगों का मत है कि उस समय शायद चिकित्सा विज्ञान की ज्यादा रूचि भी स्त्रियोंं की शरीर रचना या शरीर क्रिया वगैरह में नहीं थी ।
    जैसे भी हो, मगर इतना तो कहना ही होगा कि यह एक जबर्दस्त काम था और आज इसे दोहराने की जरूरत भी है और शायद आज यह कहीं अधिक आसान भी होगा क्योंकि तमाम किस्म के अन्य उपयुक्त पदार्थ उपलब्ध है ।
बुरा वक्त पेड़-पौधों को भी याद रहता है

    वैज्ञानिकों ने वनस्पतियों के ऐसे व्यवहार के बारे मेंपता लगाया है, जिससे कम पानी या सूखा पड़ने की स्थिति में वे जिंदा रह सकते हैं । यदि यह शोध सफल रहता है, तो वैज्ञानिक भविष्य में फसलों की ऐसी प्रजाति विकसित कर सकते हैं, जो सूखे की स्थिति में भी अधिक उत्पादन देंगी । 

    इंसान को अपना बुरा वक्त तो हमेशा ही याद रहता है, लेकिन पेड़-पौधे भी अपने बुरे समय को याद रखते हैं । एक नए अध्ययन में खुलासा हुआ है कि पेड़-पौधों की याददाश्त बहुत तेज होती है । जब कभी सूखा पड़ता है और उनकी स्थिति खराब होती है तो यह घटना पेड़-पौधे सबसे ज्यादा याद रखते हैं । पहले कई बार हुए अध्ययन यह बताते थे लेकिन अमेरिका की युनिवर्सिटी ऑफ नेब्रास्का के वनस्पति वैज्ञानिकों की टीम के प्रमुख माइकल फॉर्म ने बताया कि सरसों के पौधों पर अनुसंधान किया गया । ऑनलाइन जर्नल नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताआें आण्विक जीव विज्ञानी जोया अवरामोवा और ये आेंग डिंग की टीम ने पौधों को अलग-अलग माहौल दिया । पहले पौधे को अधिक मात्रा में पानी दिया गया, जबकि दूसरे को वंचित रखा गया । सूखे की मार झेलने वाले पौधों ने अपना रंग खो दिया । बाद में पुन: वैज्ञानिकों ने प्रयोग को दोहराया तो सूखाग्रस्त पौधे ने देरी से निर्जलीकरण किया और खराब परिस्थिति में भी अपने को जिंदा बनाए रखा ।
    जब कभी वातावरण में पानी की कमी होती है, तो पौधे तेजी से जल का उपयोग करते हैं । उनके द्वारा पानी ज्यादा मात्रा में सोखा जाता है । जड़ों के माध्यम से एकत्र पानी वातावरण सोख लेता है । ऐसे में पौधे सूखे से दिखने लगते हैं । यदि पानी अधिक मात्रा में हो तो पौधों को इससे नुकसान भी नहीं पहुंचता  है ।
    यह खोज कृषि इंजीनियरिंग के लिए बहुत लाभदायक हो सकती है, क्योंकि इससे पानी की कमी के बावजूद भी फसल उत्पादन प्रभावित नहीं होगी । यह भी उल्लेखनीय है लोगों में यह धारण प्रचलित है कि पौधों में भी भले-बुरे दौर की याद रहती है, लेकिन वैज्ञानिक तौर पर इस ओर बहुत कम काम हुआ है ।
कम्प्यूटरों में क्रांति लाएगा छोटा सा क्रिस्टल
    वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होेंने एक ऐसा छोटा क्रिस्टल बनाया है, जो कि क्वांटम कंप्यूटिंग को अगले स्तर तक ले जाएंगा । इससे विश्व के अब तक के सबसे शक्तिशाली कम्प्यूटर विकसित किए जा सकेगे ।
    अंतरराष्ट्रीय समूह की अध्यक्षता करने वाले माइकल बेर्कुक ने सिडनी विश्वविद्यालय में कहा कि मात्र ३०० परमाणुआें से बने क्रिस्टल के कम्प्यूटर तकनीक में इस्तेमाल से इस तकनीक में एक बड़ा अंतर आया है । जो सिस्टम हमने विकसित किया है, उसमें उन बड़ी-बड़ी गणनाआें को भी करने की क्षमता है, जिसके लिए पहले सुपर कंप्यूटर की जरूरत होती थी । इन गणनाआें को वह एक मिलीमीटर से भी कम व्यास की जगह में कर देता     है । शोधकर्ता बेर्कुक कहते है कि प्राकृतिक पदार्थो की ऐसी विशेषताएं जो कि क्वांटम यांत्रिकी के नियमों से संचालित होती है, उन्हें पारंपरिक कम्प्यूटर के माध्यम से मापना काफी मुश्किल है । क्वांटम सिम्यूलेशन का मूल यह है कि एक क्वांटम सिस्टम बनाया जाए, जिससे कि दूसरे प्राकृतिक भौतिक तंत्रों को समझा जा सके । इस शोध के नतीजों को नेचर  पत्रिका में प्रकाशित किया गया है । 
      क्वांटम तकनीक के इस नए प्रोेजेक्ट की प्रदर्शन क्षमता फिलहाल किसी सुपर कम्प्यूटर की अधिकतम क्षमता से भी कई गुना अधिक है । इस आविष्कार ने क्वांटम सिम्यूलेटरों में काम करने वाले तत्वों की अधिकतम संख्या का पिछला रिकॉर्ड तोड़ दिया है । इसलिए इसके जरिए ज्यादा से ज्यादा जटिल समस्याआें को भी हल किया जा सकता है । इस टीम में अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्टेड्र्डर्स एंड टेक्नोलॉजी, वाशिंगटन स्थित जार्जटाउन विश्वविद्यालय, उत्तरी कैरोलिना राज्य विश्वविद्यालय और दक्षिण अफ्रीका के वैज्ञानिक एवं औघोगिक शोध के लिए बनी परिषद के वैज्ञानिक शामिल थे । इन्होने मिलकर क्वांटम सिम्यूलेटर नामक क्वांटम कम्प्यूटर बनाया है ।
सौर मण्डल 
कितनी ऊर्जा उत्पन्न करता है सूर्य ?
डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

    काफी प्राचीन काल से ही मानव यह जानने का प्रयास करता आ रहा है कि सूर्य कितनी ऊर्जा उत्पन्न करता है । सूर्य द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा का मापन करने हेतु हमें सूर्य से पृथ्वी की दूरी तथा भू सतह पर पहंुचने वाले सौर विकिरण का परिमाण मालूम करना होगा ।
    वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग १५ करोड़ किलोमीटर (अर्थात १.५   १०१३ सेंटीमीटर) है । विकिरण द्वारा भू सतह पर पहुंचने वाली सौर ऊर्जा का परिमाण लगभग २ कैलोरी  प्रति वर्ग सेंटीमीटर प्रति मिनट है । चूंकि सूर्य से विकिरण द्वारा बाहर निकलने वाले ऊर्जा चारों दिशाआें में समान रूप से फैलती है, अत: यह कहा जा सकता है कि सूर्य से पृथ्वी की दूरी को त्रिज्या मानकर यदि एक गोला खींचा जाए तो इस गोले की सतह के प्रत्येक बिन्दु पर पहुंचने वाली ऊर्जा का है । अर्थात २ कैलोरी प्रति वर्ग सेंटीमीटर प्रति मिनट । इस काल्पनिक गोले के पूर्ण पृष्ठ का क्षेत्रफल होगा लगभग २.८   १०२७  वर्ग सेंटीमीटर । इसका मतलब है कि सूर्य की पूरी सतह से निकलने वाली ऊर्जा पृथ्वी की बराबर दूरी पर इतने बड़े गोले की पूरी सतह पर फैल जाती है ।
    इस काल्पनिक गोले की सतह द्वारा ग्रहण की जाने वाली सौर ऊर्जा का परिमाण होगा ५.६   १०२७  कैलोरी प्रति मिनट । इसका तात्पर्य यह हुआ है कि सूर्य इसी दर से ऊर्जा का उत्पादन कर रहा है ।
    वैज्ञानिकोंने अनुमान लगाया है कि हमारा सूर्य विगत तीन अरब वर्षो से इसी दर से ऊर्जा का उत्पादन करता आ रहा है । ऐसा अनुमान जीवाश्मों के अध्ययन के आधार पर लगाया गया है । ये जीव लगभग उसी तापमान पर पृथ्वी पर अस्तित्व में रहे होंगे जिस तापमान पर आजकल के जीव अस्तित्व में हैं । सबसे पुरानी चट्टाने, जिनमें ये जीवाश्म पाए गए हैं, लगभग तीन अरब वर्ष पूर्व निर्मित हुई थी । यदि सूर्य विगत तीन अरब वर्षो (अर्थात् १.५   १०१५ मिनट) से इसी प्रकार ऊर्जा का उत्पादन करता आ रहा है तो इतने समय में कुल ८   १०४२  कैलोरी ऊर्जा का उत्सर्जन हुआ है । यदि सूर्य के द्रव्यमान   (२   १०३३ ग्राम) के दृष्टिकोण से इसे देखा जाए तो कहा जा सकता है कि सूर्य द्वारा विगत तीन अरब वर्षो के दौरान ४ अरब कैलोरी प्रति ग्राम की दर से ऊर्जा का उत्सर्जन होता रहा है ।
    अब प्रश्न उठता है कि सूर्य ने इतनी अधिक ऊर्जा का उत्पादन कैसे   किया ? पेट्रोल जैसे ईधन को जलाने पर भी प्रति ग्राम पेट्रोल से सिर्फ तीन हजार कैलोरी ऊर्जा का उत्पादन होता है । यह परिमाण सूर्य के प्रति ग्राम से उत्पन्न चार अरब कैलोरी की तुलना में नगण्य है । एक शताब्दी पूर्व तक वैज्ञानिकों की धारणा थी कि सूर्य द्वारा ऊर्जा का उत्पादन उसके संकुचन के कारण होता है । हालांकि संकुचन के कारण थोड़े समय तक ऊर्जा का उत्पादन संभव है, परन्तु तीन अरब वर्षो की लम्बी अवधि तक इतनी अधिक (चार अरब कैलोरी प्रति ग्राम) ऊर्जा का उत्पादन असंभव है । वैज्ञानिकों को अनुमान है कि यदि एक ग्राम द्रव्यमान की कोई वस्तु प्लूटो जैसी दूरी वाले स्थान से भी संकुचित होने लगे तो वह सूर्य द्वारा उत्सर्जित उपरोक्त ऊर्जा (४ अरब कैलोरी) की तुलना में सिर्फ उसका ९० वां अंश ही उत्पन्न कर पाएगी ।
    वैज्ञानिकों का विचार है कि सूर्य द्वारा इतनी अधिक  ऊर्जा के उत्पादन की  व्याख्या सिर्फ नाभिकीय क्रियाआें के आधार पर ही की जा सकती है । वैज्ञानिकों की धारणा है कि ऐसी नाभिकीय क्रिया के दौरान सूर्य में हाइड्रोजन का परिवर्तन हीलियम में हो जाता है । जब एक ग्राम हाइड्रोजन का परिवर्तन हीलियम में होता है तो १.५   १०११ कैलोरी ऊर्जा का उत्पादन होता है । सौर किरणों के विश्लेषण से पता चला है कि सूर्य की सतह ७० प्रतिशत हाइड्रोजन, २५ प्रतिशत हीलियम तथा ५ प्रतिशत अन्य तत्वों से निर्मित है । अब प्रश्न उठता है कि क्या सूर्य में ऊर्जा का उत्पादन सचमुच ही हाइड्रोजन के हीलियम में परिवर्तन के कारण हो रहा है ? वस्तुत: हाइड्रोजन को हीलियम में परिवर्तित होने के लिए काफी उच्च् तापमान की आवश्यकता होती है । इतना उच्च् तापमान सूर्य की सतह पर उपलब्ध नहीं है ।
    एक संभावना यह व्यक्त की गई है कि सूर्य के आंतरिक भाग में इतना उच्च् तापमान उपलब्ध हो सकता है । कुछ वैज्ञानिकों ने सूर्य के आंतरिक भाग का गणितीय मॉडल विकसित किया है । यह मॉडल प्रयोगशाला में उच्च् तापमान पर गैसों के अध्ययन के आधार पर बनाया गया है । इस मॉडल से पता चलता है कि सूर्य के भीतरी भाग में दाब तथा तापमान इतना ऊंचा है कि हाइड्रोजन आसानी से हीलियम में परिवर्तित हो सकती है । इस नाभिकीय क्रिया में जिस दर से ऊर्जा का उत्पादन होता है उसकी गणना अध्ययन के आधार पर की जा सकती  है ।
    अब पूछा जा सकता है कि सूर्य द्वारा कब तक इस प्रकार ऊर्जा का उत्पादन चलता रहेगा ? एक अन्य प्रमुख प्रश्न यह है कि सूर्य अपना कितना द्रव्यमान ऊर्जा उत्पादन के कारण खोता जा रहा है ? अनुमान लगाया गया है कि वर्तमान दर पर यदि ऊर्जा का उत्पादन चलता रहा तो सूर्य ६० अरब वर्षो तक ऊर्जा के उत्पादन में सक्षम बना रहेगा । परन्तु अनेक वैज्ञानिकों का विचार है कि इस प्रकार हाइड्रोजन से हीलियम के निर्माण के कारण सूर्य के क्रोड के गैसीय संघटन मेंपरिवर्तन आता जा रहा है । इसकी वजह से सूर्य की संरचना में परिवर्तन आता जाएगा । संरचना मे ंपरिवर्तन के कारण आज से करीब दस अरब वर्षो के बाद ऊर्जा उत्पादन की दर में कमी आ जाएगी ।
    ऊपर बताया जा चुका है कि सूर्य से ऊर्जा उत्पादन की दर ५.६   १०२७ कैलोरी प्रति मिनट है । गणनाआें से यह भी पता चला है कि जब हाइड्रोजन का परिवर्तन हीलियम में होता है तो इसके कारण प्रति ग्राम हाइड्रोजन में ०.००७२ ग्राम का क्षय हो जाता है । आइस्टान के सूत्र (ए=ाल२) के अनुसार इतनी हाइड्रोजन १.५   १०११  कैलौरी ऊर्जा के रूप में प्रगट होती है । इन आंकड़ों का उपयोग कर हम यह पता लगा सकते हैं कि ऊर्जा उत्पादन के कारण सूर्य के पिण्डमान में कितना क्षय होता है ।
कविता  
कितना अच्छा लगता
प्रेम वल्लभ पुरोहित  राही

वन उपवन डाल-डाल की अम्बार
पंक्षी कलरव गीत मधुरतम
मन को पूछो ! कितना अच्छा लगता ।
धमा-चौकड़ी जीव-जीवन संग
डाल-पात का धरा चूमना
गाते संग-संग गीत गुनगुन
मन से पूछो ! कितना अच्छा लगता ।
नदियां कलकल, निर्झर-झरने
गंूज - भरी गहरी घाटी-घाटी
घटा घनघोर सतरंगी धनुष तनी
मन से पूछो ! कितना अच्छा लगता ।
पात-पात के स्वर हैं अनेक
शब्द-शब्द संगीत का राग छिड़ा
वन्य जीवों का जमघट लगा
एकता का बहुरंग स्वर भरा
मन से पूछो ! कितना अच्छा लगता ।
कलियों-फूलों का हंस-हंस झूमना
बार अनेक बार माटी को चूमना
सजी-धजी गहनों से धरती
लगती श्रृगांर रची नवेली दुल्हन
हम भी ऐसा कुछ कर दिखलाएें
विरान धरती का श्रृंगार सजायें
शीतल पवन मन्द-मन्द सौरभ
सजेगा फल-फूलों का उपवन
मन से पूछो ! कितना अच्छा लगता ।
विज्ञान जगत
वैज्ञानिक अनुसंधान में पिछड़ता देश
प्रमोद भार्गव

    यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भुवनेश्वर में विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन समारोह में यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं दिखाई कि हम वैज्ञानिक अनुसंधान के मामले में चीन से पिछड़ गए हैं । लेकिन यह दुखद है कि नितांत मौलिक चिंतन से जुड़ी इस समस्या का समाधान वे निजीकरण और शोध खर्च को बढ़ावा देने में तलाश रहे हैं ।
    इस संदर्भ में फोर्ब्स की उस सूची का जिक्र करना जरूरी है, जो बीते साल के अंत मेंजारी हुई थी और जिसमें उन देशज वैज्ञानिक आविष्कारों को शामिल किया गया था, जिन्होंने ग्रामीण पृष्ठाभूमि से होने के बावजूद ऐसी अनूठी तकनीकें व उपकरण ईजाद किए थे, जिन्हें अपनाकर देश भर के लोगों को जीवन में बदलाव के अवसर मिले । यहां आश्चर्य में डालने वाली बात यह भी है कि इनमें से ज्यादातार लोगों ने प्राथमिक स्तर की भी शिक्षा हासिल नहीं की है । इसलिए जरूरी है कि अनुसंधान के अवसर उन लोगों को मुहैया कराएं जो वाकई इसका माद्दा रखते हैं ।
    विज्ञान आधुनिक प्रगति की आधारशिला है । नतीजतन जो देश विज्ञान को जितना महत्व देता है, प्रगति के उतने ही सोपान आगे बढ़ता है । लेकिन इस रिश्ते का संतुलन कायम रखने में हम पिछड़ते जा रहे हैं । ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि नवउदारवादी अर्थव्यवस्था लागू होने के बाद हमने न केवल आर्थिक विकास पर जोर दिया, बल्कि उन शैक्षिक बुनियादी ढांचों को भी बाजारवाद के हवाले करते चले गए जिनका मकसद प्रतिभाआें का परिमार्जन और मौलिक चिंतन के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराना होना चाहिए था । प्रधानमंत्री ने इस कमजोर नस को पकड़ा है । वे कहते हैं - अनुसंधान से नई जानकारी मिलती है और हमें समाज के लाभ के लिए इस जानकारी का इस्तेमाल करते हुए नवाचार की जरूरत भी है ।
    जाहिर है परमाणु शक्ति संपन्न होने और अंतरिक्ष में उपस्थिति दर्ज कराने के बावजूद कुल मिलाकर विज्ञान के क्षेत्र में हम अन्य देशों की तुलना में पीछे है । मानव विकास दर में हम ९५वें स्थान पर हैं । भूख और कुपोषण हमारा पीछा नहींछोड़ रहे है । किसानों की आत्महत्या का सिलसिला जारी है और बेरोजगारी की फौज में लगातार इजाफा हो रहा है । आर्थिक असमानता की खाई लगातार बढ़ती जा रही है । आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञों का दावा है कि ये हालात निजीकरण की देन    हैं ।
    फिर भी प्रधानमंत्री वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देने के लिए निजीकरण की राह तलाश रहे हैं । शायद उनके पास सभी मर्ज की एक ही दवा है, निजीकरण ! इसीलिए उन्होनें पूंजीपतियों से आव्हान किया है कि वे वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देने के लिए आगे आएं । प्रधानमंत्री ने वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास पर खर्च होने वाली राशि में बढ़ोतरी की मंशा भी जताई है । १२वीं पंचवर्षीय योजना के अंतिम साल में इसे दुगना किया जा सकता है । जाहिर है इसमें ऐसे प्रावधान जरूर किए जाएंगे, जो औघोगिक घरानों के हित साधने वाले होंगे । तय है अनुसंधान की बड़ी राशि इन घरानों को अनुसंधान के बहाने अनुदान में दिए जाने के रास्ते खोल दिए जाएंगे ।
    फोर्ब्स द्वारा जारी देशज आविष्कारकों और आविष्कारों की जानकारी से इस बात की पुष्टि हुई है कि देश में प्रतिभाआें की कमी नहीं है । लेकिन शालेय व अकादमिक शिक्षा व कुशल-अकुशल की परिभाषाआें से ज्ञान के वर्गीकरण के चलते केवल कागजी काम से जुड़े डिग्रीधारियों को ज्ञानी और परम्परागत ज्ञान आधारित कौशल-दक्षता रखने वाले शिल्पकारों और किसानों को अज्ञानी व अकुशलही माना जाता है ।
    यही कारण है कि हम ऐसे शोध को सर्वथा नकार देते हैं, जो स्थानीय स्तर पर ऊर्जा, सिंचाई, मनोरंजन और खेती की वैकल्पिक प्रणालियों से जुड़े हैं । ऐसे में यदि प्रधानमंत्री के इस कथन को चरितार्थ करना है कि नवाचार को व्यावहारिक सार्थकता देनी होगी, ताकि यह सिर्फ शाब्दिक खेल बनकर न रह जाए, तो फोर्ब्स की सूची में दर्ज ग्रामीण आविष्कारकों और आविष्कारों को प्रोत्साहित करना होगा । इन आम वैज्ञानिकों ने आम लोगों की जरूरतों के मुताबिक स्थानीय संसाधनों से सस्ते उपकरण व तकनीकें ईजाद कर समाज व विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया है ।
    इस सूची में दर्ज मनसुख भाई जगनी ने मोटर साइकिल आधारित ट्रेक्टर विकसित किया है जिसकी कीमत महज २० हजार रूपए है । केवल दो लीटर ईधन से यह ट्रेक्टर आधे घंटे के भीतर एक एकड़ भूमि जोतने की क्षमता रखता है । इसी क्रम में मनसुखभाई पटेल ने कपास छटाई की मशीन तैयार की है । इसके उपयोग से कपास की खेती की लागत में उल्लेखनीय कमी आई है । इस मशीन ने भारत के कपास उद्योग में क्रांति ला दी है । इसी नाम के तीसरे व्यक्ति मनसुख भाई प्रजापति ने मिट्टी से बना रेफ्रिजरेटर तैयार किया है । यह फ्रिज उन लोगों के लिए वरदान है, जो फ्रिज नहीं खरीद सकते अथवा बिजली की सुविधा से वंचित है ।
    ट्रोइका फार्मा ने एमडी केतन पटेल ने दर्द निवारक डिक्लोनेफैक इंजेक्शन तैयार किया है । ठेठ ग्रामीण दादाजी रामाजी खोबरागड़े भी एक ऐसे आविष्कारक के रूप में सामने आए हैं, जिन्होंने चावल की नई किस्म एचएमटी तैयार की है । यह पारंपरिक किस्मों के मुकाबले ८० फीसदी ज्यादा पैदावार देती है । इसी तरह मदनलाल कुमावत ने ईधन की कम खपत वाला थ्रेशर विकसित किया है, जो कई फसलों की थ्रेशिंग करने में सक्षम है । लक्ष्मी आसू मशीन के जनक चिंताकिंडी मल्लेश्याम का यह यंत्र बुनकरों के लिए वरदान साबित हो रहा है । यह मशीन एक दिन मेंछह साड़ियों की डिजाइनिंग करने की क्षमता रखती है ।
    नवाचार के ऐसे जो भी प्रयोग देश में जहां भी हो रहे हैं, उन्हें प्रोत्साहित करने की जरूरत है क्योंकि इन्हीं देशज उपकरणों की मदद से हम खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो सकते हैं, और किसानों को स्वावलंबी बनाने की दिशा में कदम उठा सकते हैं ।
    लेकिन देश के ऐसे होनहार वैज्ञानिकों पर शैक्षिक अयोग्यता का ठप्पा चस्पा कर नौकरशाही इनके प्रयोगों को मान्यता दिलाने की राह में प्रमुख रोड़ा है । इसके लिए शिक्षा प्रणाली में समुचित बदलाव की जरूरत है । हमारे यहां पढ़ाई की प्रकृति ऐसी है कि उसमें खोजने-परखने, सवाल-जवाब करने और व्यवहार के स्तर पर मैदानी प्रयोग व विश्लेषण की छूट देने की बजाय तथ्यों, आंकड़ों, सूचनाआें और वस्तुनिष्ठ प्रश्नों की घुट्टी पिलाई जाती है । यह स्थिति वैज्ञानिक चेतना व दृष्टि  को  विकसित करने में बाधक है ।
पर्यावरण समाचार
नर्मदा को प्रदूषण मुक्त करने की तैयारी

    नर्मदा नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने तैयारी कर ली है । इसके लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ५३ नगरीय निकायों की जिम्मेदारी सौंपी है ।
    अमरकंटक से लेकर धार जिले के धरमपुरी तक नर्मदा किनारे बसे शहरोंऔर कस्बों में बोर्ड की टीम सर्वे कर चुकी है । पिछले दिनोंे आवास एवं पर्यावरण मंत्री जयंत मलैया के बंगले पर नगरीय प्रशासन मंत्री बाबुलाल गौर की मौजूदगी मेंप्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और नगरीय प्रशासन विभाग के अफसरों की बैठक हुई । इसमें नर्मदा को प्रदूषण मुक्त करने के संबंध मेंतैयार की गई प्री फिजिबिलिटी रिपोर्ट को लेकर चर्चा की गई । प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड २१ बिन्दुआेंके आधार पर प्रदूषण की मानीटरिंग करेगा । इस कार्ययोजना पर अमल कर रही मंडल की नर्मदा शमन समिति ने बैठक में इस रिपोर्ट का ब्योरा पेश किया ।
    योजना के पहले चरण में नर्मदा किनारे बसे दस हजार से ज्यादा आबादी वाले २३ शहरों में सीवेज ट्रीटमेंट का काम होगा । प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधीक्षण यंत्री एवं नर्मदा शमन समिति के अध्यक्ष आरके श्रीवास्तव ने बताया कि डेढ़ महीने पहले २३ नगरीय निकायों के सीएमओ की कार्यशाला आयोजित की गई थी ।
    बोर्ड ने नर्मदा मेंप्रदूषण को लेकर शहरों और कस्बों को तीन श्रेणियों में बांटा है । बोर्ड की टीम ने अमरकंटक, होशगांबाद, डिडोरी, मंडला, जबलपुर, बरमान, ओकारेश्वर, महेश्वर, मंडलेश्वर, खलघाट और धरमपुरी का दो-तीन बार दौर कर चुकी है । इनमें से डिंडोरी और होशगांबाद को सी, बाकी को ए और बी श्रेणी में रखा गया है । सबसे ज्यादा प्रदूषण धरमपुरी में पाया गया ।
    प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने होशगांबाद स्थित सिक्योरिटी पेपर प्रबंधन को नोटिस दिया है । जिसमें छह महीने के भीतर नर्मदा का पानी लिए जाने के सिस्टम को बंद करने को कहा गया है ।
बाघ अभयारण्यों में राजमार्गो से वन्यजीवों को खतरा

    भारत में बाघों को बचाने के लिए व्यापक स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन एक अध्ययन में सामने आया है कि अभयारण्यों में व्यस्त राजमार्गो एवं सड़कों के अंधाधंुध निर्माण से वन्यजीवोंकी संख्या एवं उनके प्राकृतिक पर्यावास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । क्योंकि यह जीव ऐसे स्थानों पर जाने से बचते हैं ।
    यह अध्ययन रपट ऐसे समय पर आई है जब देश में सिर्फ १७०६ बाघ बचे हैं और विभिन्न बाघ अभयारण्यों में राजमार्गो के निर्माण के लिए पर्यावरण मंत्रालय से सहमति लेने पर बहस चल रही है । वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन सोसायटी (डब्ल्यूसीएस) और वाइल्ड लाइफ स्टडीज द्वारा यह अध्ययन कर्नाटक के नागरहोल बाघ अभयारण्य में कराया गया । इस दौरान प्रारंभिक अध्ययन में अभयारण्य से गुजरने वाले राजमार्गोंा से वाहनों की आवाजाही का हाथी, चीतल, बाघ, चीता, गौर और जंगली सुअर आदि स्तनधारियों पर पड़ने वाले प्रभावों का परीक्षण किया  गया । डब्ल्यूसीएस-इंडिया कार्यक्रम के संजय गुब्बी ने कहा कि हमने पाया कि राजमार्ग के जिस भाग में वाहनों की अत्यधिक आवाजाही है वहां चीतल और गौर राजमार्ग पर कम आते हैं । अध्ययन में कहा गया है कि भारत की विकास की रफ्तार तब तक बनी रहेगी जब तक पर्यावरण प्रभावों के आंकलन को आर्थिक विकास के लिए नहींछोड़ा जाएगा ।
    वन्य जीवन अभ्यारणों में सड़कों के व्यस्त रहने से विलुप्त्प्राय: प्रजातियों पर असर पड़ता है । यह जानने के बाद भी पर्यावरण पर सड़कों के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए कोई भी प्रयास नहीं हो रहा है, खासतौर पर बड़े जानवरों पर । इसलिए भारत में सड़कों एवं वाहनों की आवाजाही का विलुप्त्पा्रय: जानवरों पर क्या प्रभाव पड़ता है इसके विषय में कम जानकारी है । इस रपट में विकास योजनाआें के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन की आवश्यकता पर बल दिया गया है ताकि इसके दुष्प्रभावों को पहचान कर इससे समय रहते  निपटा जा सके ।