मंगलवार, 19 जून 2012



सोमवार, 11 जून 2012

 प्रसंगवश
सावधान ! समुद्र का जल तेजाबी हो रहा है
    समुद्र कार्बन डाईऑक्साईड को सोखने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । हरे-भरे पेड़ पौधों के बाद समुद्र ही वायुमण्डल की कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करने का दूसरा बड़ा माध्यम है । लेकिन वायुमण्डल में तेजी से बढ़ता कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर समुद्र के पानी को भी प्रभावित कर रहा है । समुद्र के पानी की पीएच तेजी से बदल रही है और यह पानी आने वाले समय में तीव्र तेजाब में बदल सकता है ।
    वैज्ञानिकों ने कहा है कि समुद्र में स्थित मंूगे की चट्टानों और कुछ जलीय जीवों को पानी की इस बदलती प्रकृति के ही चलते नुकसान पहुंच रहा है । वैज्ञानिकों ने पिछले कुछ दशकों में तेजी से हो रहे इस परिवर्तन पर चिंता जताई हैं और नीति निर्धारिकों से इस तरह के परिवर्तन रोकने की दिशा में शीघ्र कदम उठाने की अपील की है । इसमें कहा गया है कि समुद्र के पानी के अम्लीय बनने की प्रक्रिया में तेजी आई है और यह बहुत नुकसानदेह हो सकता है । आंकड़ों के अनुसार १८वीं शताब्दी में औद्योगीकरण शुरू होने से अब तक वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा लगभग ४० फीसदी बढ़ चुकी है । परिणामस्वरूप दुनिया भर के  महासागर तेजी से अम्लीय होते जा रहे हैं । इसका सीधा असर समुद्री जीवन के अलावा मनुष्यों पर भी पड़ रहा है । खाद्य श्रृखंला पर हा ेरहे असर के नतीजे आगे चलकर घातक हो सकते हैं । ब्रिटेन के पर्यावरण सचिव हिलेरी बेन ने इन खतरों के प्रति आगाह किया है ।
    महासागरों के अम्लीय होने के पीछे कार्बन उत्सर्जन को जिम्मेदार माना जा रहा है और इसलिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती बेहद जरूरी है । आंकड़ों के अनुसार पिछले २०० साल में जैविक ईधन के जलने  से निकली कार्बन डाईऑक्साइड का ५० फीसदी से ज्यादा समुद्र सोख चुके हैं ।
    हिलेरी बेन के अनुसार कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता बढ़ने के कारण महासागर अम्लीय होते रहे हैं । इसका असर महासागरों में रहने वाले जंतुआें पर पड़ रहा है । महासागरों में बढ़ती अम्लीयता मूंगा चट्टानों और मछलियों, केंकड़ों पर असर डाल रही है। वर्ष २००७ में हुए अध्ययन के  मुताबिक मूंगों का विकास १४ प्रतिशत तक घट गया है । विश्व की आबादी का एक बड़ा हिस्सा प्रोटीन के लिए मछलियों पर निर्भर है। समुद्री पर्यावरण में परिवर्तन के चलते यह पूरी खाद्य श्रृंखला ही गड़बड़ा जाएगी ।                                                        
                                                   डॉ. दिनेश मणि, इलाहाबाद (उ.प्र.)
विनाशकारी अंत की ओर बढ़ रही है धरती

               तेजी से बढ़ रही जनसंख्या अब धरती के अस्तित्व के लिए खतरा बन गई है । अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने धरती के अंत की ओर बढ़ने की चेतावनी देते हुए कहा है कि वह समय दूर नहीं जब हमें जीवन देने वाले प्राकृतिक संसाधन ही नष्ट हो जाएँगे । उन्होनें जल, जंगल और जमीन के अंधाधुंध दोहन को इसका कारण बताया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि मौजूदा हालात पर अभी काबू नहीं किया गया तो परिस्थितियाँ बेहद भयावह हो सकती है ।
    वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि धरती अब उस दिशा में बढ़ रही है, जब कई प्रजातियाँ समाप्त् हो जाएँगी और आमूलचूल बदलाव होंगे । ऐसा एक बार १२ हजार साल पहले ग्लेशियर के पिघलने के दौरान हुआ था । यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के एंथनी बारनोस्की ने कहा कि पूरी संभावना है कि इस सदी के अंत तक यह धरती ऐसी नहीं रहे जैसी अभी है । श्री बारनोस्की समेत अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अमेरिका और यूरोप के कुल १७ वैज्ञानिकों का यह अध्ययन तेजी से बदल रहे वातावरण और पारिस्थितिकी पर आधारित है । वैज्ञानिकों ने पाया है कि यदि परिस्थितियाँ में सुधार नहीं होता है तो आने वाले समय में जीवन के लिए अनिवार्य वनस्पति और परिस्थितियाँ ही शेष नहीं रहेंगी ।
    श्री बारनोस्की के अनुसार इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि हम प्रकृति से ले तो भरपूर रहे हैं, लेकिन उसे लौटा कुछ भी नहीं रहे है । इससे धरती पर लगातार दबाव बढ़ता जा रहा है । औद्योगिक क्रंाति के बाद से वायुमण्डल में ३५ प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ी है । इसकी वजह से तापमान में भारी बढ़ोतरी हुई है । जहाँ हिमयुग में मानव धरती के ३० प्रतिशत भाग तक सीमित था वहीं आज उसने अपनी हद बढ़ाकर ४३ प्रतिशत कर ली है । अध्ययन में यह भी कहा गया है कि प्राकृतिक संपदा का जरूरत से ज्यादा दोहन भविष्य में पृथ्वी ही नहीं मानव जाति के विनाशकारी अंत का कारण साबित होगा । इसलिये समय रहते चेत जाने का समय आ गया है ।
सामयिक
जल मापने का महंगा पैमाना
                                                                   भरतलाल सेठ

    भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी बीस रूपए प्रतिदिन से कम पर गुजारा करती है । ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है वह पानी पर कितना खर्च कर सकती है । पानी के उपभोग की मात्रा नापने वाले एक सेंसर युक्त स्वचालित मीटर करीन का मूल्य करीब बारह हजार रूपए है और यह खर्च केंद्र सरकार को उठाना है । क्या इस तरह के अनावश्यक व्यय का असर अन्य जनहितकारी  योजना पर नहीं पड़ेगा ?
    भारत के अधिकांश जल प्रदायकर्ताआें के लिए स्वचालित मीटर रीडिंग (एएमआर) प्रणाली कामधेनु सिद्ध  हो सकती है, जिनका राजस्व वसूली का रिकार्ड बहुत ही निराशाजनक है । इस प्रणाली में मीटर पढ़ने वाला कर्मचारी बजाए घर-घर दस्तक देने के अपने हाथ में एक उपकरण लिए जब एक विशिष्ट परिधि से गुजरेगा तो रेडियो आवृत्ति से स्वत: मीटर को पढ़ लिया जाएगा । एएमआर मीटर इसी बात का दावा करते हैं । पिछले महीने दिल्ली जल बोर्ड ने इस तरह के करीब तीन लाख मीटरों की आपूर्ति एवं लगाए जाने का टेंडर जारी किया जो दिल्ली के कुल कनेक्शनों का करीब छठा भाग है । देश में इस तरह का यह सबसे बड़ा टेंडर      है ।
    गोवा जल बोर्ड ने इस बात से संतुष्ट होकर कि स्वचालन से राजस्व एकत्रीकरण में मदद मिलेगी, इस तरह के सत्तर हजार मीटर मंगाए थे । परंतु प्रारंभिक अनुभव बताते हैं कि इससे राजस्व वृद्धि का अपेक्षाकृत परिणाम नहीं मिल सका । दिल्ली में बड़े पैमाने पर इसके उपयोग से पहले इसकी एक पायलट परियोजना चलाया जाना आवश्यक है ।
    वृद्धि का हिसाब रखना - एएमआर तकनीक हेतु ऐसे स्थानों का चयन किया जा रहा है, जहां मीटर बहुत ही सघन इलाकों या मुश्किल से पहुंच पाने वाले स्थानों पर लगे हों । अभी तो मीटर रीडर मकान मालिकों के साथ सांठ-गांठकर अक्सर यह रिपोर्ट दे देते हैं कि वे उपभोक्ता के घर रीडिंग लेने गए थे पर उनके घर पर ताला लगा था । ऐसे मामलों में उपभोग की मात्रा का औसत बिल बना दिया जाता है, जिससे उपभोक्ता को लाभ मिल जाता है । ऐसी स्थिति में एएमआर तकनीक अत्यंत प्रभावी है और इससे नियमित बिलिंग हो सकती है तथा मानवीय भूलों से भी छुटकारा पाया जा सकता है ।
    मुम्बई देश में पहला शहर है, जिसमें वर्ष २००८ में एएमआर मीटर प्रणाली लागू की गई थी । इसके चलते मुम्बई मेें ६६,००० मीटर स्थापित किए गए थे । एक एएमआर कनेक्शन में लगभग १२,००० रू. से अधिक का खर्च आता है जबकि इतनी ही परिशुद्धता की गैर स्वचालित तकनीक की लागत इसकी केवल १० प्रतिशत  ही पड़ती   है । इस बात के ध्यान में रखते हुए बृहन्न मुम्बइ्रर् नगर निगम ने मलिन बस्तियों में ऐसे मीटर न लगाने का निर्णय लिया । उनके अनुभव में यह आया कि मीटर के कई पुर्जे, जिसमें कि सेंसर भी शामिल हैं, या तो चुरा लिए गए या इन्हें तोड़ दिया गया । प्रति सेंसर को बदलने का खर्च ५ हजार रू. आता है ।  बृहन्न मुम्बइ्रर् नगर निगम में पदस्थ अतिरिक्त निगम आयुक्त राजीव जलोटा का कहना है हमें इनकी मरम्मत और मीटर रीडिंग इकट्ठा करने में भी समस्याआें का सामना करना पड़ा । भविष्य में हम और अधिक ध्यान देकर ही इनका उपयोग करेंगे । उनका कहना है कि सैद्धांतिक तौर पर यह अच्छा प्रतीत होता है  लेकिन इनका उपयोग बढ़ाने से पहले इनकी निगरानी (पायलट परियोजना) करना आवश्यक है ।
    महाराष्ट्र के ही मलकापुर नगर में एएमआर तकनीक से ४,२०० नल कनेक्शन दिए गए । यहां बजाए निश्चित वार्षिक दर के परिवारों से वास्तविक उपभोग के आधार पर भुगतान लिया    गया । फलस्वरूप वर्ष २००८ में करीब ३२ लाख रू. की हानि हुई । वहीं वर्ष २०१० में इस तकनीक से तीन लाख रूपए का लाभ अर्जित किया गया । जनसुविधा अधिकारियों ने बताया कि इस बदलाव केंद्र बिन्दु में सही मीटर रीडिंग प्रणाली ही थी ।
    जनोपयोगी सेवाएं अब बेहतर मीटरिंग (मापने) वाली प्रणालियों पर अधिक खर्च कर रही हैं क्योंकि बिना यथोचित माप के प्रबंधन भी नहीं किया जा सकता है । यह कम राजस्व एवं कम निवेश के दुष्चक्र से निकलने का भी एक रास्ता है । मापना (मीटरिंग) अब जल आपूर्ति योजनाआें में अनिवार्य कर दिया गया है और इस हेतु परियोजना लागत का पांच प्रतिशत सुरक्षित रखा जाता है । मीटर प्रदान करने वाली फर्म फोर्बस एवं मार्शल के परियोजना प्रबंधक नेविली भसीन बताते हैं कि राजस्व में वृद्धि के लिए हमें कुछ महत्वपूर्ण बातों को लक्षित करना होगा । जैसे कि अधिकांश शहरी इलाकों में २० प्रतिशत कनेक्शन धारी ८० प्रतिशत पानी का उपभोग करते हैं ।
    मीटर तो बड़े उपभोक्ताआें जैसे औद्योगिक एवं व्यावसायिक संस्थानों में लगने चाहिए । लेकिन हम अनावश्यक तौर पर राजनीतिक तापमान बढ़ा रहे हैं और घरों में मीटर लगाकर धन बर्बाद कर रहे हैं । चूंकि उपभोक्ता कोई शिकायत इसलिये नहीं कर रहा है क्योंकि इसकी भारी लागत सारा वित्तीय भार केंद्र सरकार के अनुदान के माध्यम से वहन किया जाता है ।
    एजेंसिया इस तरह की उच्च् तकनीक में तभी निवेश करती हैं जबकि दरों के भुगतान के लिए ऐसा करना आवश्यक हो घरेलू उपभोग और निम्न दरों के मद्देनजर कुछ निजी परिचालक स्वचालित मीटरिंग तकनीक का चुनाव अपनी ऊंची लागत को  न्यायोचित ठहराने के लिए कर रहे हैं । दिल्ली जल बोर्ड जिसने कि अभी एएमआर मीटर की स्थापना प्रारंभ भी नहीं की है, पूर्व से ही ३ लाख मीटर लगाने की योजना तैयार कर चुका है ।
    परन्तु मंगलौर ने एक नया उदाहरण स्थापित करते हुए एएमआर से  सज्जित ५ हजार कनेक्शन हेतु व्यावसायिक एवं गैर घरेलू बड़े उपभोक्ताआें  को लक्ष्य किया है । शहर को अपने राजस्व का बड़ा हिस्सा इन्हीं उपभोक्ताआें से प्राप्त् होता है । उसकी योजना घरेलू उपभोक्ताआें पर केंद्रित होने की अवश्य है बशर्ते कि स्वचालन की लागत से मिलने वाला राजस्व इसे न्यायोचित सिद्ध कर पाए ।  
हमारा भूमण्डल
प्रगतिशील वनविनाश
                                                                    सोशल वॉच    
सोशल वॉच रिपोर्ट २०१२ में विश्व भर में वनों के विनाश का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है । लेटिन अमेरिकी देश पेरूग्वे कृषि निर्यात आधारित मॉडल अपनाने के परिणामस्वरूप हुए वनविनाश को प्रगतिशील वनविनाश की संज्ञा दी गई है । क्या विनाश कभी भी प्रगतिशील हो सकता है ?
    विश्व आर्थिक संकट की ही तरह वन विनाश के भी कई कारण सामने आ रहे हैं । इसमें प्रमुख हैं बाजार में मूल उत्पादों और कृषि भूमि की मांग में वृद्धि, गरीबी की बढ़ती समस्या, जलवायु परिवर्तन, पेड़ों का लकड़ी एवं ईधन के लिए कटना । उपरोक्त निष्कर्ष सोशल वॉच रिपोर्ट - २०१२ से सामने आए हैं । पिछले कुछ वर्षो में ऊर्जा के बढ़ते मूल्यों के चलते निर्धनतम वर्ग द्वारा एक बार पुन: लकड़ी एवं कोयले के इस्तेमाल करने की वजह से भी वन संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा   है ।
    लेकिन यह दुष्चक्र जारी है । वनों के विलुप्त् होने से हमारे ग्रह की कार्बन सोखने की क्षमता में आई कमी के परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन से निपट पाना भी कठिन होता जा रहा    है । कानूनों में व्यापत ढिलाई के कारण भी समस्या और गहराती जा रही है । रिपोर्ट के यूरोप से संबंधित अध्याय में इंडिजेनाडोय में चेतावनी देते हुए बताया गया है कि यूरोपीय संघ की अपने पशुधन के लिए चारे हेतु विदेशों पर निर्भरता ने विदेशों में भूमि की मांग में हुई वृद्धि की वजह से विश्वभर में वनों का सामाजिक विनाश सामने आ रहा   है ।
    वैश्विक विकास को लेकर प्राथमिक घोषणा पत्र (रियो + २० के आगे : न्याय के बिना कोई भविष्य नहीं) में तेजी से फैलतेअस्थिर उत्पादन एवं उपभोग की प्रवृत्ति को प्राकृतिक संसाधनों में तेजी से हो रही कमी के लिए जिम्मेदार ठहराया है । इसी प्रवृत्ति को वैश्विक तापमान में वृद्धि, अतिवादी मौसम की निरन्तर आवृत्ति, रेगिस्तानीकरण एवं वनों के विनाश के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है ।
    रिपोर्ट में फिनलैंड द्वारा किए जा रहे वनों के विनाश का उदाहरण देते हुए बताया गया है कि वर्तमान में कई मुख्य फिनिश कंपनियां जो कि स्वयं को विश्व की सर्वोच्च् कंपनी मानती हैं, के ऐसे उदाहरण सामने आए हैं, जिसमें उनके द्वारा अधिक संख्या में यूकेलिप्टस के लगाए जाने से आबादी का पलायन हुआ है एवं बड़ी मात्रा में भूमि हथियाई गई है । रिपोर्ट के अनुसार यहां की कमोवेश राज्य के स्वामित्व वाली कंपनी नेस्ले आईल जो कि विश्व में बायो ईधन में अग्रणी होने को तड़प रही है, ने मुख्यतया मलेशिया, इंडोनेशिया में व्यापक स्तर पर भूमि एवं वर्षा वनों के उपयोग में परिवर्तन कराया है । विशेषज्ञों का मानना है कि ये क्षेत्र निर्विवाद रूप से विश्व में सर्वाधिक कार्बन सोखने का कार्य करते थे । यहां नेस्ले की रिफायनरियों को तेल आपूर्ति हेतु आरक्षित भूमि करीब ७ लाख हेक्टेयर है ।
    जाम्बिया की स्थिति तो और भी विकट है । पिछले दशक में यहां प्रतिवर्ष औसतन ३ लाख हेक्टेयर वन नष्ट होने का अनुमान था । लेकिन मात्र एक वर्ष २००८ में ८ लाख हेक्टेयर वन कम हुए हैं । वर्ष १९९० एवं २०१० के मध्य देश में वनों के क्षेत्र में ६.३ प्रतिशत या ३३ लाख हेक्टेयर की कमी आई    है । ब्राजील में भी वनों की कटाई एवं अमेजन वनों में लगी आग कमोवेश कृषि के विस्तार का परिणाम ही कही    जाएगी । वहीं दूसरी ओर ताकतवर लॉबी के कारण वन नियमावली में परिवर्तन कर अमेजन में पारम्परिक वन का अनुपात ८० प्रतिशत से घटाकर ५० प्रतिशत कर दिया गया है ।
    पेरू का अमेजन वन क्षेत्र दुनिया का आठवां एवं लेटिन अमेरिका का दूसरा सबसे बड़ा वन क्षेत्र है । पिछले कई दशकों से यहां के वन भी घरों के लिए ईधन के साथ ही साथ कटाई एवं खेती के लिए वन जलाने हेतु प्रचलित पद्धति के कारण विनाश की ओर अग्रसर है । यहां पर मेंग्रो वनों एवं शुष्क तथा अर्द्ध शुष्क वनों का क्षेत्र प्रतिवर्ष करीब १,५०,००० हेक्टेयर सिकुड़ रहा है ।
    ग्वाटेमाला में अमीर देशों के लिए गन्ना एवं निकारागुआ में कॉफी की एकल खेती की वजह से भी वनों को हानि पहुंची है । निकारागुआ के कृषि निर्यात मॉडल की वजह से प्रगतिशील वन विनाश हुआ है । १९८० के दशक में जब कोको की कीमतों में कमी आई तो सरकार ने उत्पादन में वृद्धि के लिए अपने उष्णकटिबंधीय वनों का और अधिक विनाश किया । ग्वाटेमाला में रस निकालने एवं घरों के लिए ईधन की वजह से वहां के पारम्परिक वन ८० हजार हेक्टेयर प्रतिवर्ष की दर से कम हो रहे हैं और यदि यही स्थिति बनी रही तो इस देश में वर्ष २०४० तक वनों का नामोनिशान मिट जाएगा ।
    निकारागुआ में अवैध कटाई, कृषि विस्तार एवं वनों में आग, जो कि अक्सर जानबूझकर फसलों हेतु नई भूमि प्राप्त् करने के लिए लगाई जाती है, की वजह से प्रतिवर्ष ७५,००० हेक्टेयर वनों का विनाश हो रहा है । यहां के घरों में खाने पकाने का ७६ प्रतिशत ईधन लकड़ियों से प्राप्त् होता है । मौजूदा १.२ करोड़ हेक्टेयर वनों में से ८० लाख हेक्टेयर वन बर्बाद हो चुके हैं । यही स्थिति पनामा की भी है । यहां वर्ष १९७० में वन क्षेत्र ७० प्रतिशत था, जो कि वर्ष २०११ में घटकर ३५ प्रतिशत ही रह गया है । अर्जेंाटीना में वर्ष १९३७ से १९८७ के मध्य करीब २३५५३ वर्ग किलोमीटर वन नष्ट हुए वहीं वर्ष १९९८ से २००६ के मध्य प्रतिवर्ष करीब २५०० वर्ग किलोमीटर वनों का विनाश हुआ । यानि यहां प्रति दो मिनिट में एक हेक्टेयर वन विलुप्त् हो जाता है । देश की राष्ट्रीय रिपोर्ट इसके लिए वनों का असंगठित रूप से दोहन, कृषि क्षेत्र के विस्तार, सार्वजनिक नीतियों की कमी एवं पारम्परिक प्रजातियों के पुन: वनीकरण हेतु निजी क्षेत्र को दिए जाने वाले प्रोत्साहन को जिम्मेदार ठहराती है ।
    म्यांमार (बर्मा) में वन एवं खनन कानूनों का क्रियान्वयन नहीं होता । इसी वजह से वर्ष १९९० एवं २००५ के मध्य यहां पर २५ प्रतिशत वनों का विनाश हुआ लेकिन उसके परिणामों पर कोई विचार ही नहीं    करता । फिलीपींस में भी उपरोक्त समस्याएं बड़े पैमाने पर मौजूद हैं, जिसके परिणामस्वरूप वहां का वन क्षेत्र ४० प्रतिशत घटकर २७ प्रतिशत रह गया है । वहीं श्रीलंका तो अपने मूल वनों में से महज १.५ प्रतिशत वनों को ही सुरक्षित रख पाया है । रिपोर्ट में इसकी वजह ब्रिटिश साम्राज्यकालीन औपनिवेशिक नीतियों को बताया है जिसके तहत रबर, काफी एवं चाय के बागान हेतु बड़ी मात्रा में वन काटे गए थे । इतना ही नहीं वर्ष १९९० से २००५ तक चले आंतरिक संघर्षोंा की वजह से वहां विश्व के प्राथमिक वनों को सर्वाधिक नुकसान पहुंचा और इसकी वजह से बचे हुए वनों का भी १८ प्रतिशत नष्ट हो गया । वर्ष २००४ के बाद नवनिर्माण की पहल के चलते वनों के विनाश में और अधिक तेजी आई है ।
    मध्य अफ्रीकी गणतंत्रों में खाद्य असुरक्षा (जलवायु परिवर्तन की वजह से) के चलते किसान अपनी खेती का क्षेत्र बढ़ाने हेतु वनों को काट रहे हैं । यहां की ९० प्रतिशत आबादी द्वारा खाना पकाने के लिए लकड़ी के इस्तेमाल की वजह से स्थितियां और भी बद्तर हो रही हैं । नाईजीरिया में किसानों के साथ शिकारी भी जल्दी शिकार के लिए वनों को जला रहे हैं । तंजानिया में वर्ष १९९० एवं २००५ के मध्य वन क्षेत्र में १५ प्रतिशत की कमी आई है और बढ़ती गरीबी के चलते लकड़ी का उपयोग भी बढ़ा है । वहीं सेनगेल और सोमालिया में स्थानीय एवं निर्यात के लिए कोयला बनाने की वजह से वनों का बड़े पैमाने पर विनाश हो रहा है । यही स्थिति सूडान की भी है ।
    द सोशल वॉच २०११ की मलेशिया की राष्ट्रीय रिपोर्ट इस खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इशार कर रही है कि स्थानीय समुदाय वनों के विनाश से न केवल अपनी जीविका ही खो रहा है बल्कि वनों की विलुिप्त् के साथ उसकी पारम्परिक जीवनशैली एवं संस्कृति भी विलुप्त् हो रही है ।
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
पर्यावरण शिक्षा : महत्व एवं आवश्यकता
                                                                  डॉ. किरण शास्त्री
    आज पर्यावरण विनाश एक विश्वव्यापी समस्या बन चुकी है । मनुष्य विज्ञान और विकास के नाम पर प्रकृति का लगातार विनाश करता जा रहा है । प्रकृति का अमर्यादित उपभोग, वनों की कटाई, उद्योग-धंधों  की भरमार, उपभोक्ता वस्तुआें का उत्पादन, व्यापार, गाजार और इसी प्रकार का एक परिवेश बनता जा रहा है जो प्रकृति, पर्यावरण पृथ्वी और मानव-जाति के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है ।
    पर्यावरण की समस्या इतनी जटिल होती जा रही है कि भविष्य अंधकारमय होता प्रतीत होरहा है । पर्यावरण संरक्षण आज जीव मात्र के कल्याण के साथ-साथ प्रकृति सुरक्षा के लिए भी अति आवश्यक हो गया है । पर्यावरण परिवेश को इस स्थिति तक पहुँचानेवाला मनुष्य है ।  और उसे वापस पूर्वस्थिति में लाने की क्षमता और विवेक भी उसी में है । अत: आज के इस युग में पर्यावरण शिक्षा अति आवश्यक और महत्वपूर्ण हो गयी है । बिना पर्यावरण शिक्षा  के  पर्यावरण संरक्षण की कल्पना भी नही की जा सकती । यदि समय के रहते इस शिक्षा की और जन-मानस  का ध्यान आकर्षित नहीं किया गया जो प्रलय की स्थिति का आगमन अवश्यंभावी हो जाएगा । प्रकृति के सभी तत्वों का एक दूसरे ततवों पर भी उसका प्रभाव पड़ता   है ।
    पर्यावरण प्रदूषण के कारण आज जल, वायु, मिट्टी से उपजी खाद्य सामग्री सब कुछ दूषित होती जा रही है । ऐसे दूषित वायु में साँस लेकर, दूषित जल पीकर, दूषित अन्न खाकर भला कोई इंसान कैसे स्वस्थ रह सकता, भला कोई माँ कैसे एक स्वस्थ शिशु को जन्म दे  सकती । पर्यावरण साफ-सुथरा रहेगा तो लोगों का जीवन भी स्वस्थ रहेगा । पर्यावरण शिक्षा के अंतर्गत महत्वपूर्ण जानकारियों द्वारा निम्न लाभ प्राप्त् हो सकते है-
    पर्यावरण शिक्षा क े  द्वारा वास्तव में पर्यावरण किसे कहते है ं और प्रदूषण क्या है ? इसकी संपूर्ण जानकारी  प्राप्त्  होती है । पर्यावरण शिक्षा प्राप्त् करने वाला जानकार, चाहे स्त्री हो या पुरूष बालक हो, युवा हो या फिर वृद्ध, शिक्षित हो या अशिक्षित, धनवान हो या निर्धन, कामकाजी स्त्री हो या फिर गृहणी, इस बात को जान लेते है  जिस परिवेश और वातावरण में चारों और से हम घिरे हुए हैं उसे पर्यावरण कहते हैं । तथा दैनिक जीवन में उपयोग में आनेवाली कई ऐसी वस्तुएँ जैसे कार-मोटर से निकलने वाला धुआँ कई दुष्परिणामों को जन्म देता है । उसे इस बात का भी ज्ञान मिलता है कि यह धुआँ जहाँ वनस्पतियों, वायु आदि को दूषित कर देता है वहीं प्राणधारियों के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक होता है । इससे यह होगा कि लोग अपने वाहनों का निरीक्षण करवाएंगे ताकि उनका वाहन कम धुआँ छोड़े । बात केवल वाहनों तक ही नही है  बल्कि प्रदूषण अन्य कई स्त्रोतों से भी होता है ।
    यह तो सर्वविदित है कि अस्वव्छ जल  कई बीमारियों का गढ़ होता है । विशेषकर जब बाढ़ आती हो या फिर सूखा  पड़ता हो तो दोनों ही स्थितियों में उस क्षेत्र का रहनेवाला मनुष्य अशुद्ध जल ग्रहण करने पर विवश होजाता है परिणाम तरह-तरह के रोगों का शिकार बनना । वायु प्रदूषण की तरह जल प्रदूषण की जानकारी भी आम आदमी को पर्यावरण शिक्षा से प्राप्त् होती है । क्योंकि मनुष्य का एक स्वभाव होता है दैनिक आचरण और क्रिया-कलापों से अपने आसपास के वातावरण  और स्थान में इतनी गंदगी उत्पन्न कर देता है कि उसे इस बात की अनुभूति ही नहीं होती है और होती भी है तो वह सचेत भी नहीं होता और जागरूक भी नहीं । सुबह उठने से लेकर रात सोने तक जो कूड़ा-करकट जाने अनजाने फेंकता है । ये सारी गंदगी और कचरा किसी-न-किसी तरह बह कर नदी-तालाबों में  जाता है । इसीसे नदी का जल दूषित होने लगता है । उसी जल को पशु-पक्षी पीते हैं, बीमार पड़ जाते हैं कभी-कभी तो उस पानी में उनका मृत शरीर सड़ता-गलता है और ऐसे जल को जब मनुष्य पीता है तो हम कल्पना कर सकते हैं कि उसकी क्या दुर्दशा हो सकती है ।
    पर्यावरण का महत्व एवं उसकी आवश्यकता भारतीय संस्कृति में  प्राचीन काल से ही है । वेदों में मानव के परोपकार  के लिए परमात्मा द्वारा सूर्य, चंद्रमा, बादल, वृक्ष, नदियाँ, पर्वत, वनस्पतिया पशु-पक्षी आदि का आविर्भाव किया जाना बताया गया है । इन समस्त  उपादानों को ईश्वर प्रदत्त बनाना इसीलिए आवश्यक था ताकि मनुष्य उन सब से नैतिक रूप से जुड़ा रहे । तथा इसके संरक्षण को अपना कर्तव्य और धर्म समझे । किंतु आज  मनुष्य भोगवादी जीवन शैली का इतना आदि और स्वार्थी हो गया है कि अपने जीवन के मूल आधार समस्त पर्यावरण को दूषित कर रहा है, नैतिकता, धर्म, कर्तव्य सब भूल रहा है । पुन: मनुष्य को  नैतिकता, धर्म, कर्तव्य के मार्ग पर लाने के लिए आज के वर्तमान समय मेंपर्यावरण शिक्षा आवश्यक और महत्वपूर्ण हो गयी है ।
    पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से मनुष्य संपूर्ण पर्यावरण और उससे   संबंधित समस्याआें के प्रति जागरूक एवं संवेदनशील हो जाए । संपूर्ण पर्यावरण  और उससे   संबंधित समस्याआें का आधारभूत ज्ञान प्राप्त् करके उसके प्रति अपने उत्तरदायित्वों को निभा सके । पर्यावरण शिक्षा के द्वारा पर्यावरण के लिए गहरी चिंता, सामाजिक दायित्व निभाने तथा उसकी सुरक्षा और सुधार के लिए किये जा रहे कार्योंा के प्रति एक प्राकृतिक रूझान उत्पन्न हो सके । पर्यावरण से संबंधित जितनी भी समस्याएँ हैं उसके निवारण में कौशलता प्राप्त् हो सके । ताकि बड़ी कुशलता के साथ समस्याएँ दूर हो जाए । इसके अतिरिक्त मनुष्य में मूल्याकंन कुशलता और संभागिता की भी भावना उत्पन्न हो सके, ताकि वह पर्यावरण संबंधी उपायों तथा शैक्षिणक कार्यक्रमों का पारिस्थितिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सौंदर्यपरक, शैक्षिक घटकों आदि के परिप्रेक्ष्य में सही मूल्यांकन कर सके और पर्यावरणीय समस्याआें के उचित ढंग से हल निकालने की आश्वस्तता के प्रति  महत्ता और अपनी संभागिता की भावना को विकसित कर सके ।
    इसके अतिरिक्त पर्यावरण शिक्षा लोगों में इस बात की भी जागरूकता लाती है कि पर्यावरण के अनुकूल और प्रतिकूल कौन-कौन सी बातें हैं । पर्यावरण के अनुकूल वह पेड़-पौधे, जल-संसाधन, वन संपदा, पशु-पक्षी आदि की रक्षा के महत्व को जान पायेगा तो पर्यावरण के प्रतिकूल पड़नेवाली समस्त गतिविधियाँ जैसे बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता औद्योगिकरण, वन-कटाई, बढ़ता शहरीकरण आदि के रोकथाम की दियाा में ठोस कदम उठा सकेगा ।
    भौतिकतावादी जीवन शैली और विकास की अंधी दौड़ में आज मनुष्य यह भी भूल गया है कि पर्यावरण भी कुछ है । बढ़ते वाहनों और कारखानों से निकलते धुएँ ने वायु का, वृक्षों की कटाई से जीवनदायिनी गैसों को, मनुष्य द्वारा फैलायी जा रही गंदगी से जल को इस तेजी के साथ प्रदूषित कर रहा है कि दुगनी गति से बीमारियाँ भी फैल रही है । मानवीय सोच और विचारधारा में इतना अधिक बदलाव आ गया है कि भविष्य की जैसे मानव को कोई चिंता ही नहीं है । अमानवीय कृत्यों के कारण  आज मनुष्य प्रकृति को रिक्त करता चला जा रहा है पर्यावरण के प्रति चिंतित नहीं है । जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण असंतुलन के चलते भूमंडलीय ताप, ओजोन क्षरण, अम्लीय वर्षा, बर्फीली चोटियों का पिघलना, सागर के जल-स्तर का बढ़ना, मैदानी नदियों का सूखना, उपजाऊ भूमि का घटना और रेगिस्तानों  का बढ़ना आदि विकट परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगी है ।
    यह सारा किया कराया मनुष्य का है  और आज विचलित, चिंतित भी स्वयं मनुष्य ही हो रहा है । जिस पर्यावरण संरक्षण का गुण मनुष्य में जन्म से ही होता था, वही गुण आज उसे सिखाना पड़ रहा है । वर्तमान परिस्थितियों के कारण आज पर्यावरण शिक्षा अनिवार्य हो गयी है । आज पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता प्राथमिक हो गयी है ।
    मनुष्य की बदली हुई सोच तथा उसकी अभिवृत्ति को वापस पर्यावरण के अनुकूल बनाने का काम पर्यावरण शिक्षा ही कर सकती है । पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता के संबंध में अरूण कुमार पाठक का कथन- बिगड़ते पर्यावरण के संबंध में कई गोष्ठियों, सेमिनारों और कार्यशालाआें के बाद यह निष्कर्ष निकला कि पर्यावरण शिक्षा को जन-जन कत फैलाया जाए एवं उसकी क्या आवश्यकता है, इस पर एक व्यापक ओर सर्वसम्मत विवरण प्रस्तुत किया गया ।
    पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा गृह है जिस पर जीवन संभव है । यहाँ के प्राणधारियों को एक सुंदर एवं स्वस्थ जीवन उपलब्ध  कराने के लिए पृथ्वी को नष्ट होने से बचाना बहुत बावश्यक है । ऑक्सिजन जीवधारियों के लिए अति आवश्यक है, किंतु अन्य प्राणघाती गैसों के कारण पर्यावरणीय विकृतियाँ उत्पन्न होने लगी है ।
प्रदेश चर्चा
बिहार : राग दरबारी का बोल बाला
                                                                    कुमार कृष्णन
    बिहार में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर प्रेस परिषद के अध्यक्ष द्वारा उठाए गए सवालों का व्यापक बहस की आवश्यकता  है । दरअसल सिर्फ बिहार ही नहीं पूरे देश का राजनीतिक तंत्र राग दरबारी के अलावा दूसरा कुछ सुनने को तैयार नहीं है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर स्थितियां दिन ब दिन प्रतिकूल होती जा रही है ।
    हाल ही में बिहार के पटना विश्वविद्यालय में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की टिप्पणियों से माहौल गरमा गया है और यह बहस का मुद्दा बन गई है । मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों का है ।
    भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष ने अपने भाषण में कहा कि बिहार में सत्ता पक्ष द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता के विरूद्ध रवैया अपनाने की शिकायतें मिल रही है । ऐसी शिकायतों की जांच कराई जाएगी और मामला सही पाया गया तो संविधान के खिलाफ काम करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा । जस्टिस काटजू ने कहा कि बिहार के बारे में मैं कुछ कहना चाहूंगा । मैंने सुना है कि लालू राज की तुलना में इस सरकार ने कानून व्यवस्था को सुधारा है । पर मैंने दूसरी बात यह भी सुनी है कि पहले यहां प्रेस की स्वतंत्रता होती थी,  लेकिन अब प्रेस की स्वतंत्रता नहीं है । आयोजन के दौरान ही पटना कालेज के प्राचार्य डॉ. लालकेश्वर प्रसाद ने बयान पर आपत्ति जताई और जोर देकर कहा कि ये सब गलत है । वे कुछ और बोलने लगे तो पूरे सभागार में हंगामा हो गया । बहुत से लोग यह कहकर उन पर टूट पड़े कि ये सरकार के दलाल हैंे । वैसे प्रो. प्रसाद की पत्नी उषा सिन्हा जद यू की विधायक हैं और दोनों मुख्यमंत्री के गृह जिले नालंदा के रहने वाले हैं ।
    शोर-शराबे के बीच श्री काटजू ने कहा कि ये क्या तरीका है, किसी को शोर मचाकर हड़काना । गलत आदमी से पंगा ले लिया है । ये तो आप स्वयं सिद्ध कर रहे हैं कि मैं जो कह रहा हूं, वह बिल्कुल सही हैं । दबाव के लिये सरकारी विज्ञापन बंद कर दो और अखबार मालिक पर दबाव डालो । उन्होंने कहा कि टी.वी. चैनलों से लेकर सिनेमा तक इसी प्रयास में लगे रहते हैं कि लोगों को अपनी मूल समस्या और उस पर प्रतिक्रिया करने का अवसर ही नहीं मिले गरीब लोग आपराधिक अन्याय के खिलाफ गोलबंद नहीं हो सकें ।
    श्री काटजू का बयान तीन मुददों की ओर इशारा करता है - नीतीश का मीडिया प्रबंधन, मीडिया का सामाजिक ढांचा और विकास के लिए तरसते बिहार में कुछ सकारात्मक बदलाव । लेकिन सबसे महत्वपूर्ण मुददा है लोकतांत्रिक अधिकारों का । हाल के वर्षो में अखबारों के पूंजीगत ढांचे में काफी परिवर्तन हुआ है और उनका व्यावसायीकरण हुआ है । विज्ञापनों की दुनिया और भाषा बदल गई है । बिहार में राजधानी पटना के अलावा मुजफ्फरपुर, गया और भागलपुर से अखबारों के जिले - जिले के संस्करण प्रकाशित होने लगे हैं । मीडिया में यह क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है । साथ ही स्थानीयता का बोध हावी हुआ है । अब राजधानी में बैठकर यह पता नहीं लगाया जा सकता है कि कहां सामंती जुल्म हो रहा है ? जनसरोकार के सवाल क्या हैं, विकास का सफर किस हद तक तय हुआ है तथा क्या सुशासन सिर्फ इश्तेहारों और होर्डिग्स में दिखते हैं ?
    बिहार में जब सत्ता परिवर्तन हुआ तो राज्य के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने विज्ञापन नीति में भी फेरबदल किए । विज्ञापन नीति में परिवर्तन के अन्तर्गत सरकारी विज्ञापनों के लिए अब केन्द्रीकृत व्यवस्था काम कर रही है । केन्द्रीकृत व्यवस्था से तात्पर्य है कि सरकार जिसे चहोगी, उसे विज्ञापन देगी । पहले विज्ञापन जिलों के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग द्वारा दिए जाते थे । केन्द्रीकृत व्यवस्था के कारण सरकार ने अखबारों पर शिंकजा कस दिया है । सरकार ने विज्ञापन को मीडिया नियंत्रित करने का हथियार बनाया है । नीतीश के सत्ता में आने से पहले विज्ञापन का बजट एक करोड़ रूपए का  था । सत्ता में आने के बाद यह बढ़कर १२ करोड़ रूपए का हो गया और उनकी दूसरी पारी में इसे बढ़ाकर ३५ करोड़ रूपए कर दिया गया । राज्य सरकार की विज्ञापन सूची में लगभग ४० समाचार पत्र हैं । इससे भी मीडिया की स्वतंत्रता प्रभावित हुई है । विज्ञापन की अघोषित नीति है कि यदि किसी अखबार ने सरकार के खिलाफ छापा तो उसका विज्ञापन बंद कर दिया  गया ।
    इस स्थिति में मीडिया को रागदरबारी की भूमिका में लाकर खड़ा कर दिया है । बिहार सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की विज्ञापन नीति के तीसरे पेज के चौथे कॉलम में साफ शब्दों में लिखा है कि कोई समाचार पत्र-पत्रिका, जो स्वीकृत सूची में शामिल होने की अनिवार्य पात्रता रखते हों, को स्वीकृत सूची में शामिल किया जाना समिति के लिए बाध्यकारी नहीं होगा । यह भी लिखा गया है कि यदि मीडिया का काम राज्यहित में नहीं है तो उसे दिए जा रहे विज्ञापन रोके जा सकते हैं तथा उसे स्वीकृत सूची से बाहर निकाला जा सकता है । सवाल यह है कि मीडिया का काम राज्य हित में है या नहीं यह कौन तय करेगा जनसंपर्क विभाग में तैनात नौकरशाह या भ्रष्टाचार में लिप्त् नेता ?
    बिहार की विज्ञापन नीति में चौंकाने वाली बात तो यह है कि उसमें स्पष्ट लिखा है कि अगर कोई संस्थान स्वीकृत सूची में नहीं है तो उसे भी विज्ञापन दिया जा सकता है । विशेष परिस्थिति में विज्ञापन प्राधिकार समिति किसी भी राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय समाचार पत्र-पत्रिका को विज्ञापन दे सकती है । सवाल लोकतांत्रिक अधिकारों के संघर्ष का है और मीडिया की आम लोगों के प्रति जवाबदेही का है । हाल में आंधप्रदेश और बिहार के सेमिनारों में मुझे इसी विषय पर बोलने का मौका मिला । मेरी यह समझ है कि यदि लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए होने वाले संघर्षो में मीडिया की दिलचस्पी नहीं है तो मीडिया लोकतंत्र के प्रति जवाबदेह कैसे हो सकता है । मूल मुद्दों से ध्यान हटाया जा रहा है । अब इस समाचार को क्या कहेंगे कि चोरी की घटना पर मंदिर में होती है प्राथमिकी । जस्टिस काटजू का इशारा इसी ओर है ।
    नीतीश के मीडिया प्रबंधन को छत्तीसगढ़ से समझना होगा । मुझे स्मरण आ रहा है कि अजीत जोगी इस राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होनेंविज्ञापनों के आधार पर अखबारों पर दबाव डालने का धंधा शुरू किया । यदि कोई चैनल खिलाफ में खबर करता था तो उस इलाके में ब्लैक आउट करवा दिया जाता था । कोई अखबार विरोध में खबर छापता तो विज्ञापन रोक देते । वहां की जनता ने अंतत: उन्हें ही बेदखल कर दिया ।
    दरअसल में ऐसे प्रबंधन से सूचना के प्रवाह को रोकना और प्रतिरोध की ताकत को दबाना एक गलत कदम होगा । राज्य के पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी रामचन्द्र खान तो कहते हैं कि राज्य का लोकतांत्रिक ढांचा ही चरमरा गया है । आज न तो पार्टी में लोकतंत्र है न सरकार में । राज्य के कई मंत्रियों की व्यथा है कि अधिकारी उनकी बात ही नहीं सुनते हैं । क्या किसी भी लोकतांत्रिक सरकार को यह हक है कि अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों को ताकत के बल पर दबा दे ? क्या सरकार के काले कारनामों को उजागर करना गलत है ? क्या समाज के निचले तबके को लेकर प्रशासनिक बेरूखी को सामने रखना अपराध है ? लोकनायक जयप्रंकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का मुद्दा जोरदार तरीके से उठाया था और नीतीश कुमार ने सूचना के अधिकार में संशोधन कर उसकी मूल भावना ही नष्ट कर डाली । क्या यही सुशासन का असली चेहरा है ?
 
स्वास्थ्य
अनिवार्य लाइसेसिंग पर हंगामा क्यों नहीं ?
                                                                        सुश्री लता जिशनु

    कैंसररोधी दवा जिसका बाजार मूल्य एक माह के उपचार के लिए दो लाख अस्सी हजार रूपए था,का मूल्य अनिवार्य लायसेसिंग के बाद घटकर महज आठ हजार आठ सौ रूपए प्रतिमाह पर आ जाने के बाद भी बहुराष्ट्रीय दवाई कंपनियों की चुप्पी बता रही है कि अंदर ही अंदर कुछ चल रहा है । बहरहाल यह बात तो सभी के सामने आ गई है कि दवाई कंपनिय७ां कितने अधिक लाभ पर कार्य कर रही हैं । सवाल उठता है कि क्या भारत सरकार अपनी दृढ़ता कायम रख पाएगी ।
    कोई भी ऐसी औषधि सस्ती नहीं हो सकती यदि वह बीमारियों के सम्राट केंसर जैसी प्राणघातक बीमारी से मुकाबला कर रही हो । अतएव स्वाभाविक ही था कि जब पेटेंट नियंत्रक पी.एच. कुरियन द्वारा बेयर कारर्पोरेशन की सोरेफेनिब टोजीलेट के जेनेरिक संस्करण को बनाने का अनिवार्य लायसेंस (कंपल्सरी लायसेंस) देंगे तो हंगामा तो बरपेगा । यह एक जीवन अवधि बढ़ाने वाली केंसर औषधि है जिसे एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी नेक्सावर के ब्रांड नाम से बेचती है । कुरियन के इस युगान्तकारी निर्णय के फलस्वरूप किडनी और लीवर के उपचार में सहयोगी नेक्सावार के लिए अब मरीज को दो लाख अस्सी हजार रूपए प्रतिमाह के स्थान पर नेटको द्वारा बताए गए अविश्वसनीय मूल्य यानि आठ हजार आठ सौ रूपए प्रतिमाह ही खर्च करना होंगे ।
    आवेदन और पेटेंट नियंत्रक का निर्णय दोनों ही अभूतपूर्व हैं । पहला, तो यह कि सार्वजनिक स्वास्थ्य आकस्मिकता पर बजाए सरकार के एक निजी निर्माता में अनिवार्य लायसेंस की मांग की । दूसरा यह कि हम भी यह जांच पाए कि विशाल दवा निर्माता कंपनियां किस स्तर पर लाभ कमा रही हैं । पेटेंट अधिनियम का पहला परीक्षण इस पैमाने पर होता है कि औषधि  का मूल्य आम आदमी द्वारा वहन कर सकने लायक हो । १२ मार्च को कुरियन द्वारा दिए गए निर्णय ने और भी कई चीजें स्पष्ट कर दी हैं । इसमें इस बात को दोहराया गया है कि अनिवार्य लायसेंसिंग बौद्यिक संपदा अधिकार के व्यापार संबंधित पक्ष (ट्रिप्स) की पूरक ही है और विकसित देशों ने भी औषधियों की अपनी आवश्यकताआें के चलते अनिवार्य लायसेंसिंग को लागू किया है ।
    इस युगान्तकारी निर्णय के अंतर्गत नेटको को नेक्सवार के जेनेरिक संस्करण के निर्माता एवं बिक्री की अनुमति इस शर्त पर दी गइ्र है कि वह अपनी शुद्ध बिक्री पर ६ प्रतिशत की दर से बेयर को रायल्टी देगा । यह निर्णय कई मायनों में महत्वपूर्ण है इसमें यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पेटेंट धारक को अपने पेटेंट से संबंधित कार्य भारत में करना होंगे एवं सीमित मात्रा में औषधि के आयात भर से काम नहीं चलेगा ।
    गौरतलब है कि पेटेंट (संशोधन) अधिनियम २००५ की धारा ८४ के अन्तर्गत जिन शर्तोका उल्लेख है उनका अनुपालन भी अनिवार्य है । ये धारा क्या कहती है ? इसमें कहा गया है पेटेंट किए गए आविष्कार से संबंद्ध जनता की उचित आवश्यकताआें को संतुष्ट किया जाना चाहिए, पेटेंट किया गया आविष्कार आम जनता को यथोचित वहन कर सकने वाले मूल्य पर उपलब्ध होना चाहिए और पेटेंट किए गए आविष्कार पर भारत में कार्य किया जाना चाहिए । नियंत्रक ने पाया कि बेयर में इन सभी शर्तो का उल्लघंन किया था ।
    विचारणीय है कि नेक्सावर मामला क्या जेनेरिक उद्योग के लिए परिवर्तनकारी सिद्ध होगा ? क्या यह देश में अनिवार्य लायसेंसिंग की प्रवृत्ति तय कर देगा ? क्या यह उस बाजार में हलचल मचा देगा, जिसमें वर्ष २००५ के संशोधन के बाद दवा निर्माताआें को अपने उत्पाद को पेटेंट करवाने की अनुमति मिल गई है तथा जिसने उच्च् मूल्यों वाली आयात की हुई उन पेटेंट दवाईयों की बाढ़ भी देख ली है, जिनमें से अनेक केवल कुछ चुने हुए वितरकों के माध्यम से ही उपलब्ध होती हैं। क्या भारत में कुछ और नई दवाइयों का उत्पादन प्रारंभ हो पाएगा ? इसका एक संकेत उद्योग के बड़े खिलाड़ियों द्वारा इस संबंध में बरती गई चुप्पी में छुपा है । इस संबंध में एकमात्र आधिकारिक आलोचना भारत के दौरे पर आए अमेरिका वाणिज्य सचिव जॉन ब्रायसन की ओर से आई है, जिन्होनें गत माह वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री के साथ हुई बैठक में अनिवार्य लायसेंसिंग का मसला उठाया था ।
    दि इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार ब्रायसन ने आनंद शर्मा से कहा कि औषधि निर्माण एक प्रतिस्पर्धी क्षेत्र है और इसके अन्तर्गत शोध एवं विकास में अत्यधिक निवेश की आवश्यकता पड़ती है । अतएव अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट व्यवस्था में किसी भी तरह का हस्तक्षेप (अधिकारों में कमी) अमेरिका के लिए चिंता का विषय है । वैसे शर्मा इस मामले में पूर्ण रूप से दृढ़ थे कि अनिवार्य लायसेंसिंग पूर्णतया विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों के अनुरूप ही है । अतएव औषधियों की भिन्न-भिन्न प्रकार की मूल्य सूची अब एक मानक बन सकती है और इसे लेकर बाजार पहले से ही गर्म हो चुका है । अनिवार्य लायसेंसिंग संबंधी निर्णय आने के तुरन्त बाद एक प्रमुख दवाई कंपनी रोश ने घोषणा की कि वह अपनी सबसे ज्यादा बिकने वाली केंसर औषधि के काफी कम मूल्य वाले संस्करण को हैदराबाद स्थित एक अन्य कंपनी ईनक्योर फार्मास्यूटिकल के माध्यम से भारत के बाजारों में लाने की योजना बना रही है । इस तरह के गठबंधन उन भारतीय कंपनियों के लिए मील का पत्थर साबित हो सकते हैं, जो कि नेटको के उदाहरण का अनुकरण करना चाहती हैं ।
    वैसे मूल्य सभी को लुभा रहे हैं क्योंकि ऐसी अनेकों महंगी कैंसर औषधियां हैं, जो कि कम लागत वाले निर्माताआें के लिए  धन की बौछार कर सकती हैं । परन्तु समस्या यह है कि कई अग्रणी जेनेरिक दवाई निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ ऐसे लायसेंसिंग समझौते में उलझे हुए हैं, जो कि अपनी प्रकृति में बहुत ही प्रतिबंधात्मक हैं । ये मूलत: प्राथमिक निर्माण अनुबंध हैं, जिसमें उत्पाद की बिक्री को लेकर प्रतिबंधात्मक शर्ते मौजूद हैं । अतएव इस बात की कम ही संभावना है कि ये निर्माता अनिवार्य लायसेंसिंग को लेकर उथल-पुथल मचाने की चेष्टा करें ।
    इस सबसे पृथक एक तथ्य यह भी है कि सभी जेनेरिक औषधि निर्माण कंपनियों के पास इन श्रेष्ठतम औषधियों के निर्माण हेतु तकनीकी विशेषज्ञता भी नहीं है । इसके अलावा जैसा कि नेटकों के अधिकारियों ने इस लेखक को बताया कि अनिवार्य लायसेंसिंग की तैयारी भी आसान नहीं है । किसी भी औषधि को संचालित करने वाले विभिन्न पेटेंटो को समझने के लिए अत्यन्त धैर्य, दृढ़ता और साधनों की आवश्यकता पड़ती है । यदि इस सौभाग्यशाली कंपनी को छोड़ दें, जो कि कह रही है कि वह भविष्य में अन्य संभावनाआें को टटोलेगी तो भी इस बात की बहुत कम उम्मीद नजर आ रही है कि निकट भविष्य में अनिवार्य लायसेंसिंग के आवेदनों की संख्या में एकाएक वृद्धि हो सकती है । इसके अलावा इसका रास्ता अभी भी स्पष्ट नहीं है । इस बात की भी संभावना है कि बेयर इस निर्णय को अपीलेट बोर्ड या उसके भी आगे चुनौती दे सकता है ।
    संभवत: यह एक कारण है कि भारत द्वारा पहले अनिवार्य लायसेंस दिए जाने के निर्णय जिसका कि दुनियाभर के स्वास्थ्यकर्ताआें एवं मरीज समूहों ने स्वागत किया है, को लेकर बड़ी दवाई कंपनियों ने कोई शोर शराबा नहीं   मचाया । हमें सचेत रहकर इंतजार करना होगा ।
कृषि जगत
जैविक कृषि : तेरा तुझको अर्पण
                                                             डॉ. आर.एस. धनोतिया    
दूसरे महायुद्ध के बाद रासायनिक कृषि ने विश्व में अपने पैर जमाने शुरू किए थे । करीब आठ दशक के अपने इतिहास में इसने पूरे विश्व को एक ऐसे संकट में ला खड़ा किया है, जिसकी परिणिति व्यापक विनाश के अलावा और कुछ नहीं हो सकती । बढ़ती जनसंख्या के चलते मट्टी की घटती उर्वरता जिस अंसतुलन की ओर हमारी सभ्यता को ले जाएगी, उससे विनाश के अलावा और किस चीज की उम्मीद की जा सकती है । दूसरी ओर पश्चिम के वैज्ञानिकों द्वारा अब जैविक खेती को महंगी खेती के रूप में प्रचारित कर अपनी व्यावसायिक मनोवृत्ति का ही परिचय दिया है ।
    मनुष्य के जीवन का मूल आधार कृषि हैं । जैसे-जैसे जनसंख्या की वृद्धि होती गई वैसे-वैसे खाद्यान्नों की जरूरतें भी बढ़ती गई । पारम्परिक कृषि के मूल तत्वों को न समझ पाने और नई-नई वैज्ञानिक खोजों के फलस्वरूप कृषि में नवपरिवर्तन की बयार सी चल पड़ी । प्रकाश संश्लेषण एवं नत्रजन चक्र की खोज ने कृषि की दिशा परिवर्तन में अहम् भूमिका निभाई । पश्चिम के प्रसिद्ध वैज्ञानिक लिबिग के प्रयोगों को आधुनिक कृषि का आधार माना जाता रहा है । हमारे यहां महर्षि पाराशर को भारतीय कृषि का मनीषी माना जाता है, किन्तु दोनों में मूलभूत अंतर है जिसे आधुनिक भारतीय समाज ने नजरअंदाज कर दिया और लिबिग महोदय भारतीय कृषि पर छा गए । कुछ अर्थो में आधुनिक कृषि या रासायनिक कृषि दिखने करने में सरल प्रतीत होने का भ्रम पैदा करती है । जैसे कृषि से अधिकतम उत्पादन प्राप्त् करने हेतु रासायनिक खाद एवं दवाईयों की नितांत आवश्यकता है और ये वस्तुएं किसानों को उनके द्वारा पहुंचा दी जाती है । ये ठीक वैसा ही है जैसा किसी को शराब अथवा ध्रूमपान का चस्का लगाया जाता है ।
    जब-जब विश्व में खाघान्नों की कमी महसूस की गई तब-तब कई प्रकार के नव आयामों ने कृषि में जन्म लिया और आज कृषि आधुनिक/रासायनिक कृषि से आगे दौड़कर हाईटेक एवं जी.एम. तकनीक आधारित कृषि तक जा पहुंची है । किन्तु विभिन्न प्रयोग करने वालों ने मिट्टी को निर्जीव समझकर उसके दर्द को कभी महसूस नहीं किया और अंधाधुंध प्रयोग करते हुए उसे जहर पिलाते गए । परिणाम हमारे सामने है मिट्टी न केवल जहरीली और अनुपजाऊ बनती जा रही है बल्कि मानव स्वास्थ्य पर निरन्तर खतरा भी बढ़ता जा रहा है । यही नहीं संपूर्ण मानव के जीवन का आधार किसान कर्ज के बोझ से दबकर आत्महत्या जैसे जघन्य पाप का भागीदार बनता जा रहा है ।
    हम विचार करें कि रासायनिक कृषि जैसी घातक विधा का क्या विकल्प   है ? उन्हीं पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने जिन्होंने रासायनिक कृषि को जन्म दिया था अब इसके विकल्प भी सुझाना प्रारंभ कर दिये हैं । जैविक खेती की आधुनिक अवधारणा ने इस भ्रम के साथ जन्म लिया कि यह कठिन ही नहीं महंगी भी है तथा इससे उत्पादन घट जाता है । अत: जैविक उत्पाद महंगे ही बिकना चाहिए । भारतीय किसान भी इसी अवधारण एवं षड़यंत्र का शिकार हो गये । इसके लिए हमारी सरकार सबसे ज्यादा दोषी है । जैविक खेती की अवधारण के इस दौर में विश्वविघालय भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने भी कई प्रकार से महर्षि पाराशर का अनुसरण करते हुए अपनी-अपनी अवधारणाएं प्रस्तुत ही नहीं की बल्कि कुछ क्षेत्रों में वे निरन्तर बिना किसी शासकीय आर्थिक मदद के उत्कृष्ट अनुसंधान कर चमत्कारिक परिणाम प्राप्त् कर रहे हैं ।
    लगभग सभी ने महर्षि पाराशर के श्लोक जीवों जीवस्य जीवनम् को आत्मसात किया है । एक गणितज्ञ प्रोफेसर श्रीपाद अच्युत दाभोलकर ने अपने घर की छत पर कई प्रयोग किए एवं विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन् अनातूरम को सम्पूर्ण विश्व के लिए वरदान स्वरूप आगे बढ़ाते हुए कृषि में नेच्यूको कल्चर जैसे वैज्ञानिक शब्द गढ़ते हुए प्रोज्मूयर सोसायटी बनाने पर जो दिया ताकि ग्रामीण विकास सही दिशा प्राप्त् कर सके एवं किसानों को उनके उत्पाद का केवल सही मूल्य ही प्राप्त् न हो बल्कि उपभोक्ताआें को भी बिचौलियों की मार से बचाया जा सके । नेच्यूको कल्चर एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसान प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर प्रयोग करें तो उसे बिना किसी बाहरी उपदानों/उपकरणों, रसायनों एवं कीटनाशकों के अधिकतम रिकार्ड उत्पादन प्राप्त् हो सकता है । नेच्यूको कल्चर के प्रमुख तत्व हैं - सूर्य, प्रकाश, पानी, सजीव, मिट्टी एवं शुद्ध बीज तथा कृषि का वैज्ञानिक     ज्ञान । किन्तु सूर्य प्रकाश का अधिकतम उपयोग हम तभी कर सकते है जब सौर ऊर्जा को ग्रहण करने वाला तत्व हरी पत्तियां पर्याप्त् मात्रा में एवं स्वस्थ अवस्था में उपलब्ध हो और इसके लिए सजीव मिट्टी का होना आवश्यक है । सजीव मिट्टी एक बार निर्मित कर ली जाए तो फिर उसकी सजीवता बनाए रखने के लिए समय-समय पर वनस्पति अवशेष मिट्टी को लौटाते रहना चाहिए । ताकि मिट्टी का कार्बनिक भाग (ह्यूमस) निश्चित व उचित अनुपात में बना रहें ।
    नेच्यूको कल्चर मात्र एक विधा नहीं है । हमारे देश में महर्षि पाराशर के उपरोक्त श्लोक के आधार पर देश काल और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए कई और कृषि विशेषज्ञों ने आमूलचूल योगदान दिया है और दे भी रहे हैं । सुभाष पालेकर ने तो चमत्कारिक कार्य करते हुए जीरो बजट कृषि की अवधारण को जन्म देकर इस देश के किसानों को एक दैवीय उपहार प्रदान किया है । आवश्यकता इस बात की है कि किसान इस विधा पर विश्वास करें और पूर्ण आस्था के साथ अपनाएं तथा अपनी आशंका एवं भय दूर करें कि जैविक कृषि में उत्पादन घट जाता है । वे जैविक कृषि के मूल तत्वों को सही स्वरूप में समझें तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं सरकार के साझा धोखों से बचें ।
    बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं सरकार की एक बड़ी साजिश के तहत ही किसान भ्रमित है और कर्ज लेकर तथाकथित आधुनिक कृषि एवं अब जैविक कृषि के भंवर जाल में फंसता जा रहा है । भारतीय (जैविक) कृषि के लिए किसान को ना तो कर्ज की आवश्यकता है और ना ही नशेडी लत की तरह किसी तरह की सब्सिडी (राज्य सहायता) की । सब्सिडी एक धीमा जहर है जिसकी आदत न केवल कृषि के मूल दर्शन से किसान को भटकाती है बल्कि उसे आत्मग्लानि के दंश से नित्य डसती है किन्तु उसे इसका आभास नहीं होता और जब वह इस सत्य से रूबर होता है तो आत्महत्या जैसा जघन्य विकल्प चुन लेता है ।
    चूंकि हवा में ७८ प्रतिशत नत्रजन है वहां भला पौधों को इसी नत्रजन को अतिरिक्त ऊर्जा देकर यूरिया में बदलकर देने की क्या आवश्यकता है, जबकि पौधों द्वारा नत्रजन उसी विधि से ग्रहण की जाती है जिस विधि से वायुमण्डल की नत्रजन ग्रहण की जाती है । जैविक कृषि की कई और विधाएं भी प्रचलन में हैं, जैसे नेचुरल फार्मिंग (प्राकृतिकृषि), बायोडायनेमिक फार्मिंग आदि । किन्तु आवश्यकता है कृषि के मूल तत्वों को वैज्ञानिक रीति से समझकर अपनाने की । यद्यपि शासनतंत्र से इन भारतीय विधाआें के प्रोत्साहन की उम्मीद नहीं की जाती क्योंकि आज जो अर्थतंत्र की हवा बह रही है उसके झोकों से जीरो बजट कृषि की अवधारणा तो कटी पतंग की तरह उड़ जाएगी क्योंकि इस कृषि में बजट का तो कही प्रावधान ही नहीं है । स्वर्गीय दाभोलकर के प्रयोग परिवार की अवधारणा यहां अहम स्थान रखती है । उनका कहना था कि कृषक भारतीय विज्ञान को जानकार स्वयं प्रयोग करें और अपने अनुभव आपस में बांटे ताकि वे एक सशक्त कृषि तंत्र का विकास कर सकें ।
पर्यावरण परिक्रमा
प्राकृतिक गैस कितनी साफ ?

    कोयले और पेट्रोलियम के समान प्राकृतिक गैस भी एक जीवाश्म ईधन है । आजकल ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की चिंता के चलते कोयले की बजाय प्राकृतिक गैस से बिजली उत्पादन की वकालत की जा रही है । मगर ताजा आकड़े बताते है कि प्राकृतिक गैस से बिजली बनाना भी उतना साफ सथुरा नहीं है जितना कि दावा किया जाता रहा है । मसलन, ब्रिटेन ने दावा किया था कि बिजली उत्पादन के लिए कोयले को छोड़कर प्राकृतिक गैस का उपयोग करके उसने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी की है ।
    आजकल कई देश प्राकृतिक देश उत्पादन के लिए चट्टानी संरचनाआें (शेल) को फोड़ने की विधि अपना रहे हैं । इसके लिए ऊंचे दबाव पर तरल पदार्थ चट्टान में इंजेक्ट किये जाते हैं । इस प्रक्रिया को फ्रेकिंग कहते हैं । पिछले वर्ष कॉर्नल विश्वविघालय के शोधकर्ताआें ने अपने अध्ययन में पाया था कि यदि प्राकृतिक गैस से बिजली उत्पादन की प्रक्रिया मेंफे्रकिंग को भी जोड़ा जाए, तो इसमें जितनी मीथेन निकलती है वह कोयले के मुकाबले ज्यादा ही होगी ।
    दूसरी ओर प्राकृतिक गैस उद्योग का दावा है कि कॉर्नेल विश्वविघालय के शोधकर्ताआें ने समस्या को थोड़ा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है ।
    यूएस के राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान व वायुमण्डल प्रशासन ने डेनवर के नजदीक प्राकृतिक गैस क्षेत्र में वायुमण्डल में मीथेन की मात्रा का अध्ययन करने पर पाया था कि प्राकृतिक गैस निष्कर्षण में काफी अधिक मीथेन वायुमण्डल में पहुंचती है । यह मात्रा पहले सोची गई मात्रा से दुगनी पाई गई और धरती को गर्म करने में अपनी भूमिका निभाएगी । वैसे कहा जा रहा है कि इन आंकड़ों में काफी अनिश्चितता को कम से कम किया जाए ताकि कुछ पक्के नतीजे हासिल किए जा सकें ।
    अलबत्ता, इस बात में कोई संदेह नहीं कि ये आंकड़े एक चेतावनी स्वरूप   है । इनसे एक जरूरत और सामने आती  है । पर्यावरण वगैरह के मामले में हम सिर्फ उद्योगों द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों पर भरोसा नहीं कर सकते । किसी न किसी प्रकार के स्वतंत्र आकलन करने व निगरानी की भी जरूरत है ।
    फिलहाल कहा जा रहा है कि स्वच्छ ऊर्जा की ओर कदम बढ़ाते हुए प्राकृतिक गैस एक सेतु की तरह काम करेगी । मगर अध्ययन बता रहा है कि यह सेतु बहुत स्वच्छ नहीं है ।

३० करोड़ साल पुराना जंगल मिला
    पुराजीव वैज्ञानिकों ने ज्वालामुखी के लावे में दफन  एक पूरा का पूरा जंगल खोज निकाला है । यह जंगल उत्तरी चीन के एक हिस्से में खुदाई के दौरान उभरा है । यह इलाका करीब ३० करोड़ साल पूर्व एक ज्वालामुखी के लावे में दफन हो गया था । इस मायने में यह एक टाइम केप्सूल जैसा प्रतीत होता है ।
    पुराजीव वैज्ञानिक आम तौर पर किसी इलाके में पाए गए जीवाश्मों के आधार पर वहां अतीत में मौजूद रही इकॉलॉजी का खाका तैयार करते हैं । प्राय: ऐसे जीवाश्म बाढ़ आने पर गाद में दब गए जीवों के होते हैं । मगर बाढ़ की समस्या यह होती है कि वह अपने साथ अन्य इलाकों के जीवों को बहाकर लाती भी है और उस इलाके के जीवों को बहाकर कहीं और ले भी जाती है । अत: इस तरह के जीवाश्मों के बारे में यह कहना मुश्किल होता है कि क्या उनसे संबंधित जीव एक साथ एक ही समय पर उस इलाके में रहते होंगे ।
    मगर ज्वालामुखी के लावे की बात अलग है । यह लावा जब फैलता है तो धीरे-धीरे फैलता है और पूरे के पूरे इकोसिस्टम को ढंककर सुरक्षित कर देता है । उत्तरी चीन में उक्त जीवाश्म जंगल की खोज पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के हरमन फेफरकॉन और उनके साथियों ने की है । यह जंगल जिस चट्टान की खुदाई में मिला है उसकी उम्र लगभग ३० करोड़ साल आंकी गई है ।
    शोधकर्ताआें ने जीवाश्मों के विश्लेषण के आधार पर १००० वर्ग मीटर में फैले इस जंगल का जो खाका तैयार किया है उससे लगता है कि यहां ६ अलग-अलग समूहों के पेड़-पौधों की प्रजातियां पाई जाती थी । ऐसा नहीं है कि ये प्रजातियां पहले से ज्ञात नहीं थी मगर यह पहली बार स्पष्ट हुआ है कि ये सब साथ-साथ एक ही जगह पर पाई जाती थीं । अधिकांश पेड-पौधें वृक्ष फर्न हैं मगर उनके साथ बड़े-बड़े वृक्ष भी पाए गए हैं । लताआें के अलावा वहां के जंगल में एक विचित्र समूह के पेड़ भी होते थे जिनके बारे में वैज्ञानिकों का मत है कि वे शुरूआती फर्न के संबंधी है ।

मानसिक तनाव जांचने वाला मीटर

    अब वह दिन दूर नहीं जब यह बताना संभव होगा कि युवक कितने मानसिक तनाव में है । बडोदरा के पारूल  तकनीकी संस्थान मंे मेंटल स्ट्रेस मीटर (मानसिक तनाव मीटर) बनाने पर शोध चल रहा है । इस संस्थान से इलेक्ट्रॉनिक्स एण्ड कम्युनिकेशन (ईसी) में बैचलर ऑफ इंजीनियरिंग कर रहे मनन भट्ट संस्थान की सहायक प्रोफेसर इला परमार के मार्गदर्शन में यह शोध करने में जुटे हुए है ।
    श्री भट्ट ने बताया कि वे गत सात महीनों से इस पर कार्य रहे हैं । इस शोध को दो चरणों में बांटा गया है - सैद्धांतिक प्रक्रिया और उपकरण । पहला चरण पूरा होने के बाद इलेक्ट्रानिक डिवाइस बनाने का काम चल रहा है । अभी विश्व में ऐसा कोई भी मीटर नही है, जिसके जरिए मानसिक तनाव को मापा जा सके । आज की भाग दौड़ भरी जिंदगी में मानसिक तनाव बीमारियों की प्रमुख वजह है । ऐसे में यह मीटर मानसिक तनाव के चलते होने वाली बीमारियों के उपचार में मददगार साबित होगा ।
    इसे मापने के लिए बायोमेडिकल मशीनें, जिसमें इलेक्ट्रो मस्तिष्क चित्रण मशीन (ईईजी), इलेक्ट्रो कार्डियोग्राम (ईसीजी), नियर इन्फ्रारेड स्पैक्ट्रॉरकॉपी (एनआईआरएस) को भी उपयोग में लिया जाएगा । व्यक्ति के शरीर को इन तीनों ही मशीनों से जोड़कर उस पर कलर टेस्ट, एप्टीट्यूड टेस्ट, इमोशनल स्टेबिलिटी सीकिग टेस्ट (ईएससी टेस्ट) और साउंड टू स्ट्ेस सेसिबिलिटी टेस्ट किया जाएगा, जिसके जरिए उसके मानसिक तनाव का स्तर मापने में मदद मिलेगी ।
    श्री भट्ट के इस शोधकार्य को गुजरात तकनीकी विश्वविघालय (जीटीयू) प्रशासन और शोध कार्यो को बढ़ावा देने के लिए प्रयासरत गुजरात तकनीकी विश्वविद्यालय इन्नोवेशन काउंसिल ने भी सराहा है । काउंसिल के हिरन्मय मेहता ने इसमें समुचित मदद का भरोसा दिया है । श्री भट्ट की गाइड सहायक प्रोफेसर इला परमार का कहना है कि यह एक बेहतर और उपयोगी शोधकार्य साबित हो सकता है । इसके सफलता की संभावना भी ७० प्रतिशत तक है ।

इस साल खुल जाएगा ब्रह्मांड का रहस्य 
    वैज्ञानिकों का दावा है कि वह इस साल के अंत तक ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्य से पर्दा उठा देगे । इसके सबसे जरूरी तत्व गॉड पार्टिकल के बारे में जानकारी मिलने पर सारी गुत्थी सुलझ जाएगी । वैज्ञानिकों का कहना है कि वे साल के अंत तक ब्रह्मांड की उत्पत्ति की पहेली सुलझा लेंगे । इसमें उनकी मदद करेंगे हिग्स बोसॉन नाम के गॉड पार्टिकल । जिसके अस्तित्व के बारे में जानकारी जुटाने में वैज्ञानिक लगे है । यह वही तत्व है जिसे ब्रह्मांड की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार माना जाता है ।
    लार्ज हेड्रोन कोलाइडर एचएचसी, मशीन के जरिये हिग्स बोसॉन का पता लगाने का प्रयास किया जा रहा है । यूरोपियन ऑॅर्गनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर रिसर्च के निदेशक रोल्फ डिटर ह्मूयर का कहना है कि एचएचसी को अपग्रेड करने के लिए इसे साल के अंत तक दो साल के लिए बंद कर दिया जाएगा । श्री डिटर ने उम्मीद जताई कि मशीन को बंद करने से पहले गॉड पार्टिकल दुनिया के सामने होगा । उनका कहना है कि साल के अंत तक साफ हो जाएगा कि यह कण अस्तित्व में है या नहीं । अगर ऐसा होता है तो हमारी ५० साल की मेहनत सफल हो जाएगी । भौतिक विज्ञानियों का कहना है कि गॉड पार्टिकल का अस्तित्व है। हालांकि इसे कभी ढूंढा नहीं जा सका ।
    कई वैज्ञानिक दशकों से इसकी खोज में जुटे है, लेकिन अब तक सफलता हाथ नहीं लगी है । अगर गॉड पार्टिकल के अस्तित्व सिद्ध हो गया तो भविष्य में ब्रह्मांड को लेकर होने वाले शोध आसान हो जाएंगे । अभी तक वैज्ञानिकों को केवल पांच फीसदी ही ब्रह्मांड की जानकारी है । बाकी का हिस्सा डार्क एनर्जी या डार्क मैटर के नाम से जाना जाता है ।
विज्ञान हमारे आसपास
कार्बन को जमीन में दफनाना कितना व्यावहारिक ? 
के. जयलक्ष्मी

    इसमें कोई दो राय नहीं है कि कोयला बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन यह कई समस्याआें की जड़ भी है । यही वजह है कि हम इसे न तो पूरी तरह खुशी-खुशी अंगीकार कर सकते हैं और न ही पूरी तरह छोड़ सकते हैं । तो फिर करें क्या ? एक उपाय और है, जिस पर आज दुनिया भर में प्रयोग किए जा रहे हैं - कोयले से निकलने वाले कार्बन को किसी तरह पकड़कर नीचे पाताल में दफन कर देना । आखिर कार्बन ही तो है जिससे हमें सबसे ज्यादा खतरा    है । इन दिनों कोयला लॉबी की उम्मीदें उन अनुसंधानों और पॉयलट प्रोजेक्ट्स पर टिकी हैं, जिनमें कार्बन को पकड़कर (कैप्चर करके) उसे पर्यावरण से अलग-थलग कर दिया जाएगा । अंग्रेजी में इसे कार्बन कैप्चर एंड सिक्वेसट्रेशन (सीसीएस) नाम दिया गया है ।
    पेरिस स्थित इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी की सीसीएस इकाई के एक आकलन के अनुसार अगर दुनिया में ३२०० सीसीएस परियोजनाएं शुरू कर दी जाएं तो इससे कार्बन उत्सर्जन में १५ फीसदी तक की कमी संभव हो सकेगी । हमारी अगली पीढ़ियों के लिए जीने लायक वातावरण का निर्माण हो सके, उस वास्ते कार्बन उत्सर्जन में इतनी कमी बेहद जरूरी है ।
    हर साल मानव गतिविधियों की वजह से जो ३० अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित होती है, उसका २५ फीसदी हिस्सा बिजली उत्पादन के लिए कोयला जलाने से पैदा होता है । वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर हम वर्ष २०५० तक वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की वृद्धि ४५० पीपीएम तक सीमित कर सकेे, तो ५० फीसदी उम्मीद है कि हम वर्ष २१०० तक वैश्विक तापमान में वृद्धि को २ डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने में सफल रहेंगे ।
    मगर दुनिया में इस समय आधा दर्जन से भी कम सीसीएस परियोजनाएं ही पूर्ण क्षमता से कार्य कर रही है । कुल मिलाकर देखें तो २३५ सीसीएस परियोजनाआें के प्रस्ताव हैं, जिनमें से ४५ पूर्ण क्षमता वाली परियोजनाएं है । जो आधा दर्जन परियोजनाएं कार्यरत हैं, उनमें दो नॉर्वे और एक-एक अमरीका, नींदरलैंड्स, कनाडा और अल्जीरिया में हैं । लेकिन ये सभी परियोजनाएं प्राकृतिक गैस से कार्बन कैप्चर कर रही हैं, क्योंकि यह आसान भी है और सस्ता भी । लेकिन प्राकृतिक गैस से कोयले के मुकाबले मात्र आधी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित होती है । जरूरत तो कोयले पर ध्यान देने की है ।
    मैसाचुसेट्स इंस्टीटयूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के अनुसंधानकर्ताआें ने ऐसा अल्पकालीन समाधान सुझाया है, जिसकी शुरूआती लागत कम होने से कोयला संयंत्रों में कार्बन कैप्चर कर उसके भंडारण को बढ़ाया जा सकता है । हालांकि इससे पूरा कार्बन तो कैप्चर नहीं हो पता है, लेकिन फिर भी यह उत्सर्जन में कमी करने में तो मददगार साबित हुआ ही है । गत सितम्बर में स्वीडन की वेटेनफाल ने जर्मनी में कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्र को सीसीएस तकनीकी से लैस   किया । इसे इस तकनीकी की एक ऊंची छलांग माना जा रहा है । ३० मेगावॉट क्षमता का यह पॉयलट संयंत्र प्रति घंटा १० टन घनीभूत कार्बन डाईऑक्साइड पैदा करता है । इस कार्बन डाईऑक्साइड को टैंकरों में भरकर भंडारण करने के लिए पास के ही गैस फील्ड में ले आया जाता है । स्वीडन का यह प्रोजेक्ट चुनिंदा सीसीएस परियोजनाआें में शामिल है ।
    लेकिन सीसीएस परियोजनाआें की अनेक समस्याएं भी हैं । कोयले से चलने वाले मौजूदा बिजली संयंत्रों में इस तकनीक को लगाना काफी महंगा सौदा  है । मनिटोबा विश्वविघालय के एक ऊर्जा विशेषज्ञ का आकलन है कि यदि कोयला आधारित संयंत्रों से एक साल में निकलने वाली कुल कार्बन डाईऑक्साइड का १० फीसदी हिस्सा भी कैप्चर करना हो तो इस प्रक्रिया में जितनी घनीभूत कार्बन डाईऑक्साइड का परिवहन करना होगा, वह दुनिया भर में तेल के सालाना प्रवाह से ज्यादा होगा । दुनिया की किसी भी अर्थव्यवस्था में इतनी लागत वहन करना संभव नहीं है ।
    पुराने संयंत्रों में सीसीएस लगाने का मतलब होगा कि निकटतम भूमिगत भंडारण स्थल तक गैस ले जाने के लिए पाइप लाइन डालना । नए संयंत्रों को लेकर इस बात की दुविधा है कि उन्हें भूमिगत भंडारों के ऊपरस्थापित करें या ईधन स्त्रोतों के निकट ? दोनों ही में पाईपों, ट्रांसमिशन लाइनों पर बहुत अधिक लागत आएगी । भूमिगत भंडारण स्थलों से निकलने वाले पानी की डायवर्ट करने पर जो श्रम और खर्च आएगा, वह अलग ।
बहुत अधिक लागत -
    सीसीएस परियोजनाआें के लिए बड़े और ग्रिड और ग्रिड से जुड़े एप्लीकेशनों के अलावा कोई अन्य बाजार नहीं है । सीसीएस परियोजनाआें के लिए बाजार बनाने का एक ही तरीका है कि ऊंची लागत वाली बिजली की मांग बनी रहे । इसके अलावा सीसीएस परियोजनाआें को तकनीकी रूप से परिपक्व होने में लंबा वक्त लगता है । इसकी डिजाइन तैयार होने, अनुमति मिलने और वित्तीय व्यवस्था होने में सालों लग जाते हैं । फिर परियोजना के निर्माण और उसे शुरू करने में भी काफी समय लग जाता है । सीसीएस परियोजनाआें में केवल पूंजीगत व्यय ही ज्यादा नहीं होता, बल्कि इसका संचालन व्यय भी काफी होता है । कार्बन डाईऑक्साइड को पृथक करने, उसे परिकृष्ट करने, घनीभूत करने और फिर भंडारण करने मेंअतिरिक्त ईधन और पंूजी लगती है । २००७ में आईपीसीसी द्वारा किए गए आकलन के मुताबिक यह लागत प्रति किलोवॉट प्रति घंटा एक से पांच सेंट तक आएगी । लागत इस बात पर निर्भर करेगी कि बिजली संयंत्र किस तरह का है, कैप्चरिंग के लिए इस्तेमाल की गई तकनीक कैसी है, जहां कार्बन डाईऑक्साइड का भंडारण किया जाना है, उस भंडार का प्रकार कैसा है और परिवहन कितनी दूर से किया जाना है । इसमें भी सबसे अधिक खर्च कार्बन डाईऑक्साइड को कैप्चर करने में इस्तेमाल होने वाली ऊर्जा पर आता है ।
    इन खर्चो को पाटने के लिए कंपनियां दो विकल्पों की ओर देख रही    हैं । एक, कंपनियों को उम्मीद है कि कार्बन कैप्चर  और उनके भंडारण का खर्च यूरोपियन एमिशंस ट्रेडिंग स्कीम के तहत मिल जाएगा । दूसरा, इस बात की बहुत संभावना है कि तेल क्षेत्रों में कार्बन डाईऑक्साइड इंजेक्शन से ईधन पर बढ़ी लागत की कुछ हद तक पूर्ति हो सके । लेकिन शर्त यही होगी कि तेल क्षेत्र बहुत दूर नहीं होने चाहिए ।    
    युरोपियन एमिशंस ट्रेडिंग स्कीम की पहल क्योटो प्रोटोकॉल के तहत की गई है । इसके अन्तर्गत यूरोप में ऐसा बाजार प्रदान किया गया है जिसमें ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन भत्तों या उत्सर्जन कटौती यूनिट्स का व्यापार किया जा सकता है । लेकिन इस स्कीम में फिलहाल कार्बन कैप्चर और उसके भंडारण को शामिल नहीं किया गया है । इसके समर्थकों की ओर से प्रयास जारी हैं ।
    केवल यही मुद्दा नहीं है । कीमत का भी बड़ा मसला है । वर्ष २०१० में कार्बन क्रेडिट की कीमत प्रति टन कार्बन डाईऑक्साइड १२ से १८ यूरो थी । कार्बन कैप्चरिंग और उसके भंडारण की लागत को देखते हुए यह कीमत बहुत कम है ।
जगह की जरूरत
    कार्बन डाईऑक्साइड को दफन करने के लिए धरती के नीचे जमीन की जितनी आवश्यकता का अनुमान लगाया गया था, एक नए अध्ययन के अनुसार इससे भी पांच से बीस गुना अधिक जमीन की जरूरत पडेगी । जर्नल ऑफ पेट्रोलियम साइंस एंड इंजीनियरिंग में प्रकाशित अध्ययन बंद भूमिगत स्थान पर कार्बन सेक्वेस्ट्रेशन कहता है कि इस संबंध में अब तक जितनी भी रिपोर्ट आई है, वे सभी बंद व्यवस्था में कार्बन डाईऑक्साइड में भंडरण की आवश्यकता का अनुमान लगाने में विफल रही हैं । अध्ययन कहता है हमारी गणनाआें के अनुसार पूर्व के अनुमानों से भी पांच से बीस गुना अधिक भूमिगत भंडारण की जरूरत होगी । इस तरह कार्बन का सेक्वेस्ट्रेशन कार्बन डाईऑक्साइड के प्रबंधन का एक बहुत ही असंगत विकल्प है । कोयले से चलने वाले एक पारंपरिक बिजली संयंत्र से निकलने वाले कार्बन के भंडारण के लिए जमीन के नीचे अमरीका के किसी छोटे राज्य के बराबर जमीन की जरूरत होगी ।
    लेकिन मेनचेस्टर युनिवर्सिटी का अध्ययन कुछ और ही कहता है । इसके अनुसार सीसीएस कोई नई बात नहीं है । अध्ययन कहता है कि लाखों सालों से कार्बन डाईऑक्साइड प्राकृतिक तौर पर जमीन के नीचे पानी के भंडारों में संग्रहित होती आई है । आज जो गेस फील्ड हैं, वे इसी कार्बन डाइऑक्साइड के पानी में भंडारण का नतीजा है । प्राकृतिक तौर पर कार्बन डाईऑक्साइड या तो जमीन के नीचे स्थित पानी के भंडारों में मिल जाती है या फिर चट्टानों में मौजूद खनिज पदार्थो के साथ प्रतिक्रिया करके नए कार्बोनेट खनिज बनाती है । इस तरह कार्बन डाईऑक्साइड अनिवार्य रूप से जमीन के नीचे ही रहती है । आज के ये गैस फील्ड लाखों साल पहले प्राकृतिक रूप से कार्बन डाईऑक्साइड से भर गए थे । अध्ययन कहता है कि भूमिगत जल भंडार सबसे बड़े कार्बन सिंक हैं और वे लाखों साल से स्थिर बने हुए हैं । लेकिन क्या सीसीएस के लिए सही स्थान मिल सकता है ?
    नेचर जियोसाइंस पत्रिका में प्रकाशित नील्स बोह् इंस्टीट्यूट के एक अनुसंधानकर्ता का अध्ययन कहता है कि कैसे ये कार्बन भंडार लंबे समय तक काम नहीं करते हैं । ऐसा इसलिए होता है कि क्योंकि आगे चलकर इन भंडारों में एकत्रित कार्बन डाईऑक्साइड रिसकर फिर से वातावरण में मिल जाती है । इसका परिणाम वैश्विक तापमान में वृद्धि, समुद्र के जल स्तर में इजाफा और ऑक्सीजन की कमी के रूप में सामने आ सकता है ।
    महासागरों की गहराई में कार्बन डाईऑक्साइड के भंडारण का विकल्प तो और भी बदतर है । इस तरह से भंडारण करने से तो कार्बन डाईऑक्साइड और भी तेजी से वातावरण में वापस लौटती है । इससे तो भूगर्भीय भंडारण एक बेहतर विकल्प है, बशर्ते कि कार्बन डाईऑक्साइड के रिसाव को प्रति एक हजार साल में एक फीसदी या उससे भी कम तक सीमित रखना सुनिश्चित हो सके ।
कैंसर का खतरा !
    सीसीएस को लेकर एक आशंक उससे फैलने वाले प्रदूषण और उस वजह से होने वाले कैंसर को लेकर भी जताई गई हैं ।
    नॉर्वे की सरकार ने कार्बन डाईऑक्साइड को कैप्चर करके उसके सेक्वेस्ट्रेशन की एक अति महत्वाकांक्षी योजना को २०१४ तक के लिए स्थगित कर दिया है । उसकी दलील है कि यह योजना इतनी जटिल है कि इसके विकास में कई साल लग जाएंगे । पश्चिमी नॉर्वे में स्थापित होने वाला यह प्रोजेक्ट इस तरह से डिजाइन किया जाना था कि उसके तहत औघोगिक पैमाने पर कार्बन को कैप्चर किया जा सके । इसका मकसद यह भी साबित करना था कि सीसीएस की तकनीक इतनी सुरक्षित और प्रभावी है कि इससे कोयला संचालित बिजली संयंत्रों से निकलने वाले कार्बन उत्सर्जन को काफी हद तक कम किया जा सकता है ।
    नार्वे सरकार का कहना है कि इस प्रोजेक्ट में विलंब तकनीकी वजह से हो रहा है, लेकिन मीडिया में आई रिपोट्र्स कहती हैं कि बड़ी चिंता सीसीएस से होने वाले संभावित रिसाव को लेकर है ।
    ओस्लो विश्वविघालय और नॉर्वे के कुछ अन्य संस्थानों द्वारा जारी एक रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने सीसीएस की वजह से वातावरण में नाइट्रोसेमीन के संभावित फैलाव को लेकर चिंता जताई है । सरकार का कहना है कि सीसीएस परियोजनाआें से नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स और कार्बन डाईऑक्साइड का रिसाव होगा । इसी प्रक्रिया में अमोनिया व एमीन्स व उनकी परस्पर क्रिया से उत्पन्न होने वाले उत्पाद भी वातावरण में फैलेंगे । ये तो सीधे पानी में घुल जाएंगे ।
    तो अंत में कहा जा सकता है कि जब तक हम ऊर्जा का कोई बेहतरीन वैकल्पिक स्त्रोत नहीं खोज निकालते, तब तक हमें बचे-खुचे जीवाश्म ईधन पर ही निर्भर रहना पड़ेगा । ऐसे में कार्बन उत्सर्जन को कैप्चर कर उसका कहीं भंडारण या सदुपयोग सुनिश्चित करने की महती जरूरत नजर आती है ।
ज्ञान विज्ञान
                        खूबसूरत मगर बदबूदार फूल

    उत्तरी गोलार्ध में बसंत का आगाज हो चुका है, जहां एक ओर सूरज की चमचमाती रोशनी और खिले हुए फूलों की मनमोहक खुशबू आपको बांध लेती है, वहीं दूसरी ओर न्यूयार्क, इथाला में स्थित कॉर्नेल विश्वविद्यालय के ग्रीन हाउस मेंपहली बार टायटन एरम नामक फूल खिला है ।
    इस विशाल पौधे का नाम एमार्फोफेलस टायटेनम है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में शव पौधा कहते हैं, क्योंकि इसमें सड़े मांस-सी दुर्गंध आती है । इसका फूल गहरे जामुनी रंग का धारीदार घंटीनुमा फूल होता है, जिसकी बदबू के उड़ने से केरीयन मक्खियां आकर्षित होती हैं और इस फूल को परागण में मदद मिलती है । कार्नेल के शोधकर्ता यह जानने का प्रयास कर रहे है कि फूल के खिलते-खिलते यह दुर्गंध कैसे बदलती जाती है । इस शोध के लिए उन्होंने एक फूल के अंदर संवेदी यंत्र लगाए है । 


 शोधकर्ता इस काम में बहुत जल्दबाजी करना चाहते हैं क्योंकि यदि यह प्रयोग अभी नहीं हो पाया तो बहुत लंबे समय के इंतजार करना पड़ सकता है । वैसे कुछ ल ोगों का कहना है कि यह फूल हर दो साल बाद खिलता है ।
    हालांकि हर फूल में नर और मादा दोनों अंग होते हैं मगर टायटन एरम में स्व परागण नहीं होता । कॉर्नेल ग्रीनहाउस में खिले इस फूल का परागण हाथों से किया गया था जिसके लिए पिछले वर्ष न्यूयॉर्क के बर्मिगहैम विश्वविद्यालय में खिले फूल से पराग कण इकट्ठा करके रखे गए थे । अब कॉर्नेल के इस फूल से परागकरण तब इकट्ठे किए जाएंगे जब फूल के मादा भाग मुरझा जाएंगे और अगले दिन नर भाग नजर आने     लगेंगे । यह फूल मात्र दो दिनों तक  खिला रहेगा, फिर मुरझा जाएगा ।
   
 पहली वनस्पति कैसे अस्तित्व मेंआई ?

    कई वर्षो पहले, १९६० के दशक में जीव वैज्ञानिक लिन मार्गुलस ने सबसे पहले यह विचार प्रस्तुत किया था कि सारे वर्तमान पेड़-पौधों की कोशिकाएं सहजीवी संबंधों के फलस्वरूप अस्तित्व में आई है । उनका मत था कि सुदूर अतीत में किसी समय किसी कोशिका ने एक सायनोबैक्टीरिया को कैद कर लिया था और यह सायनोबैक्टीरिया प्रकाश संश्लेषण कर सकता था । यह संबंध कुछ इस तरह विकसित हुआ कि सायनोबैक्टीरिया के प्रकाश संश्लेषण से बने पदार्थ मेजबान कोशिका को मिलने लगे और दोनों का जीवन चल निकला । उस समय मार्गुलिस के विचार की काफी आलोचना हुई थी मगर धीरे-धीरे इसके पक्ष में प्रमाण जुटते गए और आज यह लगभग एक मान्य सिद्धांत है । 
 ताजा अनुसंधान से पता चला है कि एक नन्ही सी शैवाल कोशिका ने एक सायनोबैक्टीरिया को निगल लिया था और आज के सारे पेड़-पौधे उसी एक भक्षण के परिणाम हैं । क्वीन्सलैण्ड विश्वविघालय की डैना प्राइस के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल ने एक नील हरित शैवाल के जिनेटिक अध्ययन के आधार पर उस मूल घटना को समझने के प्रयास किए हैं । 
        ऐसा ही एक नील-हरित शैवाल है सायनोफोरो पेराडॉक्सा । इसकी विशेषता यह है कि इसमें जो सायनोबैक्टीरिया पाया जाता है वह आज भी पूरी तरह इसका अंग नही बना है । सायनोफोरा पेराडॉक्सा के जीनोम के विश्लेषण से पता चला है कि सायनोबैक्टीरिया को निगले जाने की घटना जैव विकास में एक ही बार हुई क्योंकि सारी वर्तमान वनस्पतियों में वे जीन पाए गए है जिनकी बदौलत सायनोबैक्टीरिया को शैवाल कोशिका में समाहित करना संभव हुआ था ।

सबसे बूढा जीव हरा भरा है

 भूमध्य सागर में एक समुद्री घास मिली है, जिसके बारे में माना जा रहा है कि यह शायद दुनिया की सबसे प्राचीन जीव है । यानी फिलहाल जीवित समस्त जीवों में इसकी उम्र सबसे ज्यादा है । ऑस्ट्रेलिया के वेस्टर्न विश्वविघालय के कार्लोस डुआर्टे ने स्पैन से लेकर सायप्रस तक फैले ३५०० किलोमीटर समुद्र के पेंदे में ४० स्थानों से पोसिडोनिया ओशिएनिका नामक घास के नमूने प्राप्त् किए और उनके डीएनए की श्रृंखला का निर्धारण किया । देखा गया कि फॉरमेंटेरा द्वीप के निकट करीब १५किलोमीटर के क्षेत्र में इसकी डीएनए श्रृंखला हूबहू एक-सी पाई गई । 

 बाकी समुद्री घासों के समान पोसिडोनिया ओशिएनिका भी क्लोनिंग के जरिए प्रजनन करती है यानी इसके टुकड़े ही इसे फैलाने का काम करते   हैं । इसलिए काफी दूर-दूर तक फैले घास के गुच्छे जिनेटिक रूप में समान होते हैं और इन्हें एक ही जीव माना जाता है ।
    वर्तमान में इस पौधे की वृद्धि दर को देखते हुए, कार्लोस डुआर्टे के दल का मानना है कि फारमेंटेरा के निकट फैली घास के फैलाव के आधार पर कहा जा सकता है कि यह ८०,००० से २,००,००० साल पुरानी है । यानी यह दुनिया का सबसे बूढ़ा जीव है ।
    इससे पहले सबसे बूढ़े जीव का खिताब तस्मानिया में पाई जाने वाली समुद्री घास लोमेटिया तस्मानिका के नाम था । वह ४३,००० साल से जीवित है । यह तो सही है कि दो लाख साल से जीवित इस पौधे में गजब की जीजिविषा होगी मगर डुआर्टे का कहना है कि आज यह पौधा जलवायु परिवर्तन के चलते खतरे में है । भूमध्य सागर विश्व औसत से ज्यादा तेजी से गर्म हो रहा है और पोसिडोनिया ओशिएनिका के फैलाव में प्रति वर्ष ५ प्रतिशत की कमी आ रही   है । 

पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुव की खोज में
    न्यूजीलैण्ड के दो वैज्ञानिक अंटार्कटिका पर गए हैं यह देखने को कि पृथ्वी के दक्षिण चुंबकीय धु्रव की हालत क्या है । यह मात्रा दरअसल १०० साल पहले शुरू किए गए अभियान का हिस्सा है जिसे रॉबर्ट स्कॉट ने शुरू किया था ।
    पृथ्वी के चुंबकीय धु्रवों का हिसाब रखना इसलिए जरूरी होता है क्योंकि ये धु्रव अपनी जगह से सरकते रहते हैं । इनके अपनी जगह पर स्थिर न रहने का कारण यह है कि पृथ्वी का चुंबकत्व उसके बाहृा तरल कोर में पेंचीदा प्रवाह के कारण पैदा होता है । पिछली एक सदी में दोनों धु्रव उत्तर-पश्चिमी दिशा की ओर खिसकते रहे हैं - उत्तरी धु्रव कनाड़ा से साइबेरिया की ओर ६० किलोमीटर प्रति वर्ष की दर से खिसका है, तो दक्षिणी धु्रव ऑस्ट्रेलिया की ओर १०-१५ किलोमीटर प्रतिवर्ष की रफ्तार से । धु्रवों का यह विचलन पृथ्वी के चुंबकीय दोलन का एक सामान्य लक्षण माना जाता है और इसकी दिशा कभी भी बदल सकती है । 

 धु्रवों की स्थिति का सटीक मापन हमें उपग्रहों से प्राप्त् आंकड़ों को ठीक करने तथा वैश्विक मॉडल्स बनाने में मदद करता है । इस मॉडल को हर पांच वर्षो में दुरूस्त किया जाता है ।
    दुनिया भर में ४०० वेधशालाएं है जो पृथ्वी के चुंबकत्व का मापन नियमित रूप से करती रहती हैं । इसके अलावा विभिन्न राष्ट्र यदा-कदा मैदानी अध्ययन करके इसमें जानकारी जोड़ते हैं । ऐसी एक वेधशाला मुंबई के पास अलीबाग में स्थित है ।
कविता  
        गौरय्या
डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन

मेरे मटमैले अँगना में
    फुदक रही गौरय्या
कच्ची मिट्टी की दीवारें
    घास-पात का छाजन
मैंने अपना नीड़ बनाया
    तिनके-तिनके चुन-चुन
यहाँ कहाँ से तू आ बैठी
    हरियाली की रानी
जी करता है तुझे चूम लूँ
    ले लूँ  मधुर बलय्या
मेरे मटमैले अँगना में
    फुदक रही गौरय्या
नीलम की-सी नीली आँखे
    सोने-से सुन्दर पर
अंग-अंग में बिजली-सी भर
    फुदक रही तू फर-फर
फूली नहीं समाती तू तो
    मुझे देख हैरानी
आजा तुझको बहन बना लूँ
    और बनूँ मैं भैय्या
मेरे मटमैले अँगना में
    फुदक रही गौरय्या ।
मटके  की गरदन पर बैठी
    कभी अरगनी पर चल
चहक रही तू चिउँ-चिउँ-चिउँ-चिउँ
    फुला-फुला पर चंचल
कहीं एक क्षण जो थिर होकर
    तू जा बैठ सलोनी
कैसे तुझे पाल पाई होगी
    री, तेरी मैय्या
मेरे मटमैले अँगना में
    फुदक रही गौरय्या ।
सूक्ष्म वायवी लहरोंपर
    सन्तरण कर रही सर-सर
हिलाहिला सिर तुझे बुलाते
    पत्ते कर-कर मर-मर
तू प्रति अंग उमंग-भरी-सी
    पीती फिरती पानी
निर्दय हलकोरों से डगमग
    बहती मेरी नैय्या
मेरे मटमैले अँगना में
    फुदक रही गौरय्या ।
शिक्षा जगत
                         कॉलेजों में डिसेक्शन पर रोक
                                                                                                                        डॉ. सुशील जोशी

    हाल ही में विश्वविघालय अनुदान आयोग ने देश के महाविघालयों में जंतुआें के विच्छेदन (आम बोलचाल में डिसेक्शन) पर रोक लगाने का निर्णय लिया है । इस निर्णय के तहत अब स्नातक कक्षाआें के छात्र डिसेक्शन नहीं करेंगे । यह निर्णय मूलत: जंतु अधिकार संगठनों के आग्रह (दबाव) में लिया गया है । इस फैसलेपर मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई है ।
    पिछले वर्ष जनवरी में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था । इस समिति को यह फैसला करना था कि क्या विश्वविद्यालयों व कॉलेजों में डिसेक्शन प्रयोग बंद कर दिए जाएं ।
    उपरोक्त निर्णय करते हुए विशेषज्ञ पैनल ने स्वीकार किया है कि उपलब्ध शैक्षिक शोध के अवलोकन से इस बात की पुष्टि होती है कि काफी बड़ी संख्या में छात्र जंतुआें के डिसेक्शन व अन्य प्रयोगों को लेकर असहज होते हैं और कई छात्र तो मात्र इसी वजह से जीव विज्ञान लेना पंसद नहीं करते है ।
    पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (पेटा-जंतुआें के साथ नैतिकतापूर्ण सलूक के पक्षधर) नामक समूह काफी समय से स्कूल-कॉलेजों में डिसेक्शन पर रोक के लिए अभियान चलाता आ रहा है । पेटा का कहना है कि देश के करीब २५ लाख स्नातक व स्नातकोत्तर छात्र प्रति वर्ष अनुमानित १.९ करोड़ जंतुआें का डिसेक्शन करते हैं । इनमें मेंढक, कॉकरोच, मछलियां, चूहे, केंचुए वगैरह शामिल हैं । जंतु अधिकारों के हिमायतियों का मत रहा है कि यह जंतुआें पर अत्याचार है और जीवन की बरबादी   है ।
    दूसरी ओर, जीव विज्ञान (खास तौर से प्राणी विज्ञान) के शिक्षक व वैज्ञानिकों का मत रहा है कि जंतुआें का डिसेक्शन करना जीव विज्ञान में शिक्षा का एक अनिवार्य अंग है । मसलन, दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज की वर्तिका माथुर ने नेचर को बताया कि डिसेक्शन अनिवार्य हैं क्योंकि इनसे छात्रों को जंतु शरीर रचना (एनाटॉमी) का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त् होता है । इस बात को कोई अर्थ नहीं है कि कभी किसी जंतु को हाथ लगाए बगैर आपको प्राणी विज्ञान में उपाधि हासिल हो जाए । इस प्रकार से यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन की पुराजीव वैज्ञानिक अंजलि गोस्वामी कहती हैं कि डिसेक्शन से आपको विभिन्न अंगों की जमावट का एक सर्वथा भिन्न परिप्रेक्ष्य मिलता है ।
    इसके विपरीत पेटा व अन्य जंतु अधिकार संगठनों का मानना है कि आज के जमाने में उपरोक्त परिपे्रक्ष्य हासिल करने के कई तरीके हैं जिनमें जंतुआें की हत्या करना जरूरी नहीं है । विश्वविघालय अनुदान आयोग ने भी अपने निर्णय में कहा है कि प्रयोगों में जंतुआें का उपयोग करने की बजाए आधुनिक गैर-जंतु युक्तियों का उपयोग किया जाए । इनमें कम्प्यूटर मॉडल का उल्लेख विशेष तौर पर किया गया है ।
    विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के निर्णय के पीछे प्रमुख कारण यही लगता है कि स्कूल-कॉलेजों में किए जा रहे डिसेक्शन की वजह से जंतुआें पर अनावश्यक हिंसा होती है और खास तौर से आज की स्थिति में इसे जायज नहीं ठहराजा जा सकता जब शारीरिक ज्ञान हासिल करने के कई वैकल्पिक तरीके उपलब्ध हैं । वैसे इस मामले में एक और बुनियादी मसला शिक्षा संबंधी है । सवाल यह है कि जंतुआें का डिसेक्शन क्यों किया जाता है । बताया जाता है कि इन जंतुआें का डिसेक्शन करके इनकी आंतरिक रचना को समझने-सीखने के पीछे कारण यह है कि इससे छात्रों को मनुष्य शरीर की आंतरिक रचना समझने में मदद मिलती है । इसके पीछे सोच यह है कि जिन जंतुआें का डिसेक्शन किया जाएगा वे मनुष्य से मिलते-जुलते होंगे । क्या यह धारणा हकीकत में अपनाई गई है ? क्या मेढ़क, कॉकरोच, केंचुए, घोंघे, सीपें, मछलियां वगैरह वे जंतु हैं जिनकी मदद से हम मनुष्य की आंतरिक रचना का अंदाज लगा सकते है ? दूसरे शब्दों में क्या ये सही मॉडल जंतु हैं ?
    दूसरा सवाल ज्यादा सामान्य महत्व का है । आम तौर पर हमारे यहां (अन्य जगहों का पता नहीं) यह धारण शिक्षा तंत्र पर हावी है कि छात्र जब पहली कक्षा में दाखिला लेते हैं, तो वे डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, शिक्षक वगैरह सब कुछ बनने वाले हैं । हर बार पाठयक्रम व पाठ्य वस्तु संबंधी फैसले होते हैैंतो यह चिंता सर्वोपरि रहती है कि छात्रों को वह सब बताया जाए, जो उन्हें उच्च् शिक्षा में उपयोगी हो । यह धारणा विज्ञान की हर शाखा में व्याप्त् है ।
    जैसे रसायन शास्त्र का स्कूली (प्राथमिक या माध्यमिक स्कूली) पाठ्यक्रम तय करते वक्त चिंता यह रहती है कि उन्हें जल्दी से जल्दी परमाणु सिद्धांत पढ़ा दिया जाए, अन्यथा आगे दिक्कत     होगी । यह धारणा हर विषय में काम करती है और पिछले कुछ दशकों  में इसके परिणाम जानलेवा रहे हैं ।
    आखिर शरीर की आंतरिक रचना की जानकारी, और वह भी इतनी विस्तृत व पुख्ता जानकारी की जरूरत किसे है, किस स्तर पर है ? कहा जाएगा कि यदि छात्र को आगे चलकर शल्य चिकित्सक बनना है, तो उसे न सिर्फ आंतरिक शरीर रचना की जानकारी होनी चाहिए, बल्कि उसे इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिए । तो क्या जीव विज्ञान चुनने वाले सारे छात्र शल्य चिकित्सक बनने वाले हैं ?
    शायद हमें यह तय करना होगा कि किसी विषय के अध्यापन के उद्देश्य क्या हैं और फिर अपने तौर-तरीकों को उन्हीं  उद्देश्यों के मद्दे  नजर परिभाषित व विकसित करना होगा ।  खास तौर से जीव विज्ञान अध्यापन को लेकर एक बात गौरतलब है । जीव विज्ञान में चीरफाड़ की काफी महत्व दिया जाता है । स्कूलों से शुरू करें, तो आपको शायद ही कोई ऐसे प्रयोग नजर आएंगे जिनमें छात्रों से जीवन का पोषण करने, उसके फलने-फूलने की परिस्थितियों का अध्ययन करने का आग्रह किया जाता हो । जैसे आपको यह प्रयोग नहीं मिलेगा कि तितली या मेंढक या मच्छर के अंडे लेकर उनसे पूर्ण विकसित जीव के विकास का अध्ययन करें । या पौधों के विकास की अनुकूल परिस्थितियों का अध्ययन करें । ऐसे बहुत संुदर प्रयोग विकसित किए जा सकते हैं जिनसे छात्र जीवों, जीवन और इकॉलॉजी को समग्रता से समझ पाएंगे ।  इसके अलावा यह भी परखने की जरूरत है कि पाठ्यक्रम में डिसेक्शन संबंधी जो प्रयोग शामिल किए गए हैं, छात्र उनसे सीखते क्या हैं । मेरे ख्याल में इस पहलू का अध्ययन नहीं के बराबर किया गया है ।
    जंतु अधिकार समूहों ने एक अच्छा मुद्दा उठाया है कि जीव विज्ञान सिखाने के नाम पर अनावश्यक रूप से जंतुआें की बलि दी जा रही है । यदि जंतुआें का उपयोग अपरिहार्य है, तो किसी को यह अपरिहार्यता साबित करनी होगी । इसे सिर्फ ऐतिहासिक कारणों से जारी रखने में कोई तुक नहीं है । डिसेक्शन के हिमायतियों को यह बताना होगा कि डिसेक्शन क्यों जरूरी हैं, किस स्तर पर जरूरी हैं और ऐसे जरूरी डिसेक्शन के बाद छात्रों के सीखने संबंधी क्या परिणाम हासिल होने की उम्मीद है । इसके बाद यह साबित करना होगा कि जिस ढंग से हमारी शिक्षण संस्थाआें में ये प्रयोग किए जाते हैं, क्या उनसे इन उद्देश्यों की पूर्ति होती है । दूसरी ओर, कंप्यूटर मॉडल्स के जरिए सिर्फ जीव विज्ञान नहीं, बल्कि समूचा विज्ञान सिखाने के हिमायतियों को भी यह साबित करना होगा कि यह ज्ञान अधकचरा या अविश्वसनीय नहीं होता ।
 पर्यावरण समाचार
                                        मोक्षदायिनी गंगा को मोक्ष की प्रतीक्षा है

    भारत की जीवन रेखा कही जाने वाली गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने के सारे प्रयास विफल हो रहे है ।
    कभी गंगाजल के स्पर्शमात्र से दैवी अनुभूति होती थी, लेकिन अब इस पवित्र एक मोक्षदायिनी नदी का जल इतना मैला हो चुका है कि उसका अमरत्व का गुण ही खत्म हो गया है । जहां कभी हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन गंगा के पवित्र जल में डुबकी लगाते थे, वहीं वे आज दूर से ही इसे प्रणाम करते हैं । गंगा सफाई के नाम पर करोड़ों रूपए अब तक बहाए गए हैं लेकिन सुधार होने के बजाए प्रदूषण और बढ़ा है । सरकार तथा तमाम संस्थाएं वर्षो से गंगा में व्याप्त् प्रदूषण का राग अलाप रही है, लेकिन प्रदूषण रोकने के सारे प्रयास विफल हो रहे है । अब तो मानो मोक्षदायिनी गंगा को भी त्राहिमाम् कहना पड़ रहा है । गंगा के तट पर बसे कानपुर, प्रयाग एवं वाराणसी समेत विभिन्न शहरों का अस्तित्व खतरे में है। प्रदूषण के चलते गंगा का पानी काला पड़ गया है । गंगा को प्रदूषण मुक्त करने  के लिए अब तक एक हजार करोड़ रूपए से ज्यादा खर्च हो चुके हैं लेकिन शहरों के गन्दे नाले, कारखानों का कचरा एवं चमड़ा उद्योग का अवशेष गंगा में बेरोकटोक गिराया जा रहा है । तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने १४ जून १९८६ को वाराणासी के राजेन्द्र प्रसाद घाट से गंगा निर्मलीकरण का अभियान शुरू किया था । लेकिन, प्रदूषण घटने के बजाय बढ़ता गया एवं गंगा कई जगहों पर तो नाले के रूप में परिवर्तित हो गई ।
    गंगा ही नहीं उसकी सारी सहायक नदियों का यही हॉल है । यमुना, गोमती, घाघरा, केन तथा बेतवा समेत सभी नदियां, प्रदूषण के मार झेल रही हैं । कुछ का अस्तित्व खत्म हो गया    है, कुछ का खत्म होने के कगार पर है।  इसके उदाहरण है वाराणसी की वरूणा, अस्सी एवं गोमती नदी । गंगा में प्रदूषणके चलते सारे जलचर खत्म हो चुके हैं । मछलियां, मगरमच्छ एवं कछुआें की जहां भरमार रहती थी वहीं प्रदूषण दूर करने में ये अहम भूमिका अदा करते थे । वे अब यदाकदा दिखाई पड़ते हैं । गंगा जीवन तथा जीविका का आधार भी है । घाट के पण्डे, पुरोहितों, नाविक, पुजारी, नाऊ, माली एव न जाने कितने लोगों की जीविका, गंगा पर निर्भर है । प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने दो साल पूर्व गंगा को राष्ट्रीय नदी तो घोषित कर दिया लेकिन अभी तक इस पर कोई काम नहीं हुआ । वाराणसी में गंगा की अविरलता एवं निर्मलता के लिए संत महात्मा विगत दो महीने से अनशनरत हैं, लेकिन न सरकार इस ओर ध्यान दे रहीं है और न जनता की सहभागिता हो रही है ।
 
              कन्या छाया - समाज एवं प्रकृतिको बचाने की योजना
    कन्या-छात्रा समाज में लड़कियों व वृक्ष वनों प्रकृतिदोनों को बचाने व बढ़ाने को प्रोत्साहित करने के लिए नगर परिषद्, परवाणु जिला सोलन (हि.प्र.) द्वारा शुरू की गई योजना है । इसके अन्तर्गत नगर में जन्म लेने वाली प्रत्येक लड़की जो जनवरी २०११ के बाद पैदा हुई है, उससे एक वृक्ष लगवाया जायेगा तथा कन्या को राशि ३१००/- रूपये की एफ.डी.आर. १८ वर्ष के लिए एक प्रमाण पत्र जिसमें पेड की किस्म, स्थान, दिनांक व लड़की के बारे में सारी जानकारी लिखी होगी, साथ पेड़ लगाते हुए फोटोग्राफ प्रदान किया जायेगा । लगाये वृक्ष को परिषद के रिकार्ड में दर्ज होगा और उसकी देखभाल भी परिषद करेगी । इसके लिए बजट का प्रावधान किया गया है । इसके साथ जो लड़कियॉ नगर में शादी के बाद बहुआें के रूप में आयेगी उनसे भी उनके नाम के पेड़ लगवाया जायेगा उसका भी रिकार्ड रखा जायेगा, उनको केवल विवाह पंजीकरण प्रमाण पत्र के साथ वृक्षारोपण का प्रमाण पत्र दिया जायेगा ।
    इस निधि में वह या कोई अन्य व्यक्ति चाहे तो राशि दे सकता है । स्थानीय निकायें व पंचायत अपनी निधि से थोड़ी सी राशि खर्च कर बहुत बड़ा काम समाज व प्रकृति को बचाने का कर सकती है और बिना किसी अतिरिक्त राशि दिये पंचायती संस्थाआें  व स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी तय कर दे और इस कार्य का आडिट व निरन्तर मानीटरिंग शुरू हो जाये तो समाज में कन्याआें का मान भी बढ़ेगा व लाखों वृक्ष जो सरकारी लाखों रूपये खर्च कर भी नहीं बचा पा रहे है, वह बचेगे तथा हर जगह कन्याआें के नाम पेड़ों के उपर नजर आयेंगे ।