शुक्रवार, 14 जून 2013






बुधवार, 12 जून 2013

प्रसंगवश
बोगनवेलिया की बहार
    कहते हैं, नाम में क्या रखा है । लेकिन कई नाम हमें चीजों की जड़ तक पहुंचा देते है । मैने जब पहली बार बोगेनविल का नाम पढ़ा तो मन में खटका हुआ कि कहीं रंग-बिरंगे खुबसूरत बोगेनविलया के फूलों के साथ इसका कोई रिश्ता तो नहीं है । बोगेनविलया का इतिहास खोजा तो रहस्य का पता लग गया । बोगेनविल का बोगेनविलया से सीधा रिश्ता यह है कि सुंदर फूलों वाली इस आरोही झाड़ी का नाम पेरिस में जन्में फ्रांसीसी एडमिरल और अन्वेषक लुई एंतोइने दे बोगेनविल के नाम पर रखा गया है । जबकि इसकी खोज १७६८ में फ्रांसीसी प्रकृति विज्ञानी डॉ. फिलबर्ट कामरकान ने ब्राजील की राजधानी रियो डि जेनेरो में की थी । लेकिन इस पौधे का नाम खुद उन्होनें अपने प्रिय एडमिरल और अन्वेषक दोस्त बोगेनविल के नाम पर रख दिया ।
    मैंने लाल, गुलाबी और सफेद बोगेनविलया की झाड़ियां पहली बार १९६३-६४ में नैनीताल और भुवाली से आगे सात ताल में देखी थी जिन्हें मैं देखता ही रह गया था । फिर कहीं पढ़ा कि ये फूल प्रशांत महासागर में स्थित खूबसूरत ताहिती द्वीप में देखे गए । अपनी विश्व परिक्रमायात्रा में बोगेनविल अप्रैल १७६८ में ताहिती द्वीप के पास पहुंचे । वहां घूमते हुए उन्हें लगा जैसे वह स्वर्ग में पहुंच गए हैं । पेड़-पौधे फलों से लदे थे । लोग बहुत सीधे-सादे और मिलनसार थे । वे सुखी जीवन जी रहे थे । १७७० में जेम्स कुक भी ताहिती पहुंचे थे । ताहिती द्वीप में मुझे पेरिस में जन्मे अपने प्रिय चित्रकार पाल गेगा की याद आई जो युरोपीय सभ्यता और परम्पराआें से ऊब कर तीन जुलाई १८९५ को फ्रांस छोड़कर सदा के लिए ताहिती चले गए थे । वहां रहकर उन्होंने ताहिती के शानदार लैंडस्केप और जन जीवन के सैकड़ों चित्र बनाए । मैं पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में था तो छात्र-मित्र अरूण तिवारी ने मेरे पढ़ाई के कक्ष की एक दीवार पर मेरे इस प्रिय चित्रकार के चित्र अकेली की बड़ी सी अनुकृति बना कर लगा दी थी । चार्ल्स डार्विन ने भी १८३५ में एमएस बीगल जहाज में ताहिती की यात्रा की थी । बोगेनविल की परिक्रमायात्रा के बीस वर्ष बाद १७८९ में फ्रांसीसी वनस्पति विज्ञानी एंतोइने लारेत दे जुसियू ने पौधों के वर्गीकरण पर लिखे अपने प्रसिद्ध ग्रंथ जेनेरा प्लांटेरम में इसका बोगेनविलया नाम से वर्णन किया ।   देवेन्द्र मेवाड़ी
संपादकीय 
खतरे में है, चंबल नदी की डॉल्फिन

        यदि समय रहते प्रयास नहीं किए गए तो चंबल नदी से डॉल्फिन मछली विलुप्त् हो सकती है, इस साल फरवरी में हुए ताजा सर्वे में चंबल नदी में सिर्फ ५९ डॉल्फिन ही पाई गई है । केन्द्र, राज्य और वर्ल्ड बैंक की ओर से इस नदी में इस दुर्लभ मछली के संरक्षण के लिए फिलहाल कोई प्रोजेक्ट नहींचलाया जा रहा है । सन् १९७८ में चंबल सेंचुरी बनाई तो गई थी लेकिन इसका एकमेव मकसद सिर्फ घड़ियालों का संरक्षण करना था, यही वजह है कि संरक्षण के अभाव में चंबल में डॉल्फिन की संख्या कम होती जा रही है । चंबल नदी में डॉल्फिन के पाए जाने का एक विशिष्ट चिन्हित क्षेत्र है । यह चंबल नदी मुरैना स्थित नंदगाव घाट, रेल्वे ब्रिज, बरही, सहसों से लेकर इटावा के चक्रनगर तक के क्षेत्र में पाई जाती है । वैसे भारत में डॉल्फिन गंगा एवं ब्रहम्पुत्र नदी में ही पाई जाती है लेकिन साफ स्वच्छ पानी में ही रहने की आदी यह मछली गंगा नदी से चंबल में भी आ गई है । यही वजह है कि चंबल में पाए जाने वाले इस दुर्लभ स्तनधारी जीव को गंगेट डॉल्फिन भी कहा जाता है ।
    चंबल में डॉल्फिन की तादाद कम होते जाने के पीछे कुछ दुखद कारण भी है । डॉल्फिन के तेल से मानव शरीर के जोड़ों का असाध्य दर्द ठीक हो जाता है, यही वजह है कि इस भ्रांति के शिकार होकर कुछ लोग डॉल्फिन को पकड़कर इसे जलाकर मार देते हैं और फिर इसका तेल निकालकर इसका व्यावसायिक उपयोग करते हैं, डॉल्फिन पर आए दिन मंडराने वाले इस खतरे को रोकने के लिए चंबल के घाटों पर कोई सख्त सुरक्षा प्रबंध नहीं किए गए हैं ।
    जलीय प्रदूषण के कारण तो यहां डॉल्फिन की मौत हो ही रही है । मुरैना एवं धौलपुर के बीच स्थित राजघाट पुल पर निकलने वाले वाहनों के भारी शोरशराबे एवं धुंए के कारण भी डॉल्फिन दम तोड़ रही हैं । डॉल्फिन चंबल के गहरे पानी में ही पाई जाती है लेकिन चंबल के घाटों पर होने वाले रेत के अवैध उत्खनन के कारण भी इस दुलर्भ मछली के अस्त्तिव पर संकट मंडरा रहा है । सुप्रीम कोर्ट द्वारा रेत उत्खन्न पर रोक लगाए जाने के बावजूद प्रशासन के लचर रवैए के कारण यहां के घाटों पर रेत-उत्खनन बेरोकटोक जारी है ।
सामयिक
उत्तराखंड को बचाने की जद्दोेजहद
सुरेश भाई

    उत्तराखंड को भारत का वाटर टैंक कहा जाता है और अब वहां ५०० से अधिक बांधों के निर्माण की योजना बन रही है । इनमें से कुछ पर काम शुरू भी हो गया है । भरपूर पानी वाले क्षेत्र में लोग अब पीने के पानी को तरस रहे हैं ।
    उत्तराखंड राज्य समेत सभी हिमालयी राज्यों में सुरंग आधारित जलविद्युत परियोजनाआें के कारण नदियों का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़  रहा है । ढालदार पहाड़ी पर बसे हुए गांवों के नीचे धरती को खोदकर बांधों की सुरंग बनाई जा रही है । इन बांधों का निर्माण करने के लिए निजी कंपनियोंके अलावा एनटीपीसी और एनएचपीसी जैसी कमाऊ कंपनियों को बुलाया जा रहा है ।
    राज्य सरकार इन्हीं के सहारे ऊर्जा प्रदेश का सपना भी देख रही है और पारंपरिक जल संस्कृतिऔर पारंपरिक संरक्षण जैसी बातों को बिल्कुल भुला बैठी है । निजी क्षेत्र के पीछे वैश्विक ताकतों का दबाव है । दूसरी ओर इसे विकास का मुख्य आधार मानकर स्थानीय लोगों की आजीविका की मांग को कुचला जा रहा है । लोगों की दुविधा यह भी है कि टिहरी जैसा विशालकाय बांध तो नहीं बन रहा है, जिसके कारण उन्हें विस्थापन की मार झेलनी पड़ सकती है । 
  

    सरकार का मानना है कि इस तरह के बांधोंसे विस्थापन नहीं होगा, किन्तु टनल के आउटलेट और इनलेट पर बसे सैकड़ों गांवों की सुरक्षा कैसी होगी ? सन् १९९१ के भूकंप के समय उतरकाशी में मनेरी भाली जलविद्युत परियोजना के प्रथम चरण के टनल के ऊपर के गांव तथा उसकी कृषि भूमि भूकम्प से जमींदोज हुई है, और नमी लगभग खत्म हुई है । इसके अलावा जहां पर सुरंग बांध बन रहे है वहां के गांव के धारे व जलस्त्रोत सूख रहे हैं । इस बात पर भी पर्यावरण प्रभाव आंकलन की रिपोर्ट कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है ।
    राज्य सरकार सोचती है कि पंचायतें, गांव आदि की क्षमताएं कम करके कंपनियां विद्युत परियोजनाएं बनाकर राज्य का विकास कर देगी, जबकि गांव की पुश्तैनी व्यवस्था का अक्षम समझना बड़ी भूल है । सत्ता और विपक्ष से जुड़े स्थानीय जनप्रतिनिधियों को यही पाठ पढ़ाया जा रहा है, कि स्थानीय स्तर पर बनने वाली लोक लुभावनी परियोजनाआें के  क्रियान्वयन मेंसक्रिय सहयोग देकर ही वे सत्ता सुख प्राप्त् कर सकते     हैं । अत: यह समझने योग्य बात है कि जिन लोगों ने टिहरी बांध निर्माण कंपनी की पैरवी की है वे ही बाद में टिहरी बांध झील बनने के विरोधी कैसे हो गए ? यह एक तरह से आम जनता के हितों के साथ खिलवाड़ ही तो है । पाला मनेरी, लोहारी नागपाला, घनसाली में फलेण्डा लघु जल विघुत योजना, विष्णु प्रयाग, तपोवन, बुढ़ाकेदार चानी, श्रीनगर आदि कई जल विद्युत परियोजनाआें के निर्माण करवाने के लिए, लोगों को पैसे और रोजगार का झूठा आश्वासन देकर समझौता किया गया है ।
    इन परियोजनाआें के निर्माण के दौरान लोगों के बीच में एक ऐसी हलचल पैदा हो जाती है, जिसका एक तरफा लाभ केवल निर्माण एजेंसी को ही मिलता है । परियोजना के पर्यावरण प्रभाव की जानकारी दबाव के कारण ही बाद मेंसमझ में आने लगती है । इसी तरह श्रीनगर हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट (३३० मेगावाट) की पर्यावरणीय रिपोर्ट की खामियां ८० प्रतिशत निर्माण के बाद याद आई ।
    उत्तराखण्ड हिमालय गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों और उनकी सैकड़ों सदानीरा जलधाराआें के कारण पूरे विश्व में जलभण्डार के रूप में प्रसिद्ध है । इन पवित्र पावनी नदियों के तटों एवं उन्हें पोषित करने वाले ऊंचे पर्वतों पर ऋषि-मुनियों ने अध्ययन एवं तपस्या की तथा सामाजिक व्यवस्था के संचालन के नियम-विधान बनाए । लेकिन तथाकथित विकास और समृद्धि के झूठे दम्भ से ग्रस्त सरकारें गंगा तथा उसकी धाराआें के प्राकृतिक सनातन प्रवाह को बांधों से बाधित कर रही  है । इनसे इन नदियों के अस्तित्व खतरे में है ।
    इसके कारण राज्य की वर्षा पोषित एवं हिमपोषित तमाम नदियों पर संकट खड़ा हो गया है । जहां वर्षा पोषित कोसी, रामगंगा व जलकर आदि नदियों का पानी निरन्तर सुख रहा है वहीं भागीरथी, यमुना, अलकनंदा, भिलगंना, सरयू, महाकाली, मन्दकिनी आदि पवित्र हिमपोषित नदियों पर सुरंग बांधों का खतरा है । इन नदियों पर बनने वाले ५५८ बांधों से सरकार उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश बनाना चाहती है, लेकिन विशिष्ठ भू-भाग की पहचान की दृष्टि से जैसे बाढ़, भूस्खलन, भूकंप के लिए संवेदनशील हिमालय को नंजरअंदाज नहीं किया जा सकता    है ।
    इसको ध्यान में रखकर नदियों के उद्गम से लेकर आगे लगभग १५० किलोमीटर तक श्रृंखलाबद्ध रूप से दर्जनों सुरंग बांधों का निर्माण खतरनाक  संकेत दे रहा है । लोगों ने प्रारंभ से ही सुरंग बांधों का विरोध किया है । सुरंगों के निर्माण में प्रयोग किये गये भारी विस्फोटों से लोगों के घरों में दरारें आयी हैं और पेयजल स्त्रोत सूखे हैं । सिंचाई नहरों तथा घराटों का पानी बंद हुआ है । चारगाह, जंगल और गांव तक पहुंचने वाले रास्ते उजाड़ दिए गए    है । इसके साथ ही लघु एवं सीमान्त किसानों की खेती बाड़ी प्रभावित हुई है और वे भूमिहीन हो गये हैं ।
    नदी बचाओ अभियान ने सन् २००८ को इसलिए नदी बचाओ वर्ष घोषित किया था, कि राज्य सरकार प्रभावितों के साथ मिलकर समाधान करेगी, लेकिन दुख की बात यह है कि प्रदेश के निवासियोंकी अनसुनी की गई है । केन्द्रीय पूर्व वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने इसकी गंभीरता को समझा था, जिसके परिणामस्वरूप सुरंग बांधों से नदी व नदी के आर-पार रहने वाले लोगोंका पर्यावरण एवं आजीविका बचाने के उद्देश्य से ही तीन परियोजनाएं रोकी गई थी । यदि नदी बचाओ अभियान के साथियों की बात सन् २००६ में ही सुनी जाती तो बंद पड़ी परियोजनाआें पर इतना खर्च भी नहीं होता । उत्तराखण्ड में बड़ी मात्रा में सिंचाई नहरें, घराट और कुछ शेष बची जलराशि अवश्य है, लेकिन पानी की उपलब्धता के आधार पर छोटी टरबाइनें लगाकर इनसे हजारों मेगावाट बिजली पैदा करने की क्षमता है । इसको ग्राम पंचायतें एवं जिला पंचायतें बना सकती है । इससे उत्तराखंड की बेरोजगारी समाप्त् होगी । इसके लिए सरकार को जलनीति बनानी चाहिए । यहां कई संगठनों ने राज्य सरकार को लोक जलनीति सौंपी है ।
    वैसे सन् २००७ की पुनर्वास नीति में भी लिखा है कि ऐसी परियोजनायें बनें जिसमें विस्थापन न होता हो । जल नीति में जलधाराआें, जल सरंचनाआें, नदियों, गाड़-गदेरों में जल राशि बढ़ाने, ग्लेशियरों को बचाने तथा प्रत्येक जीवन को जल नि:शुल्क मिलना चाहिए । उत्तराखण्ड के भारत का वाटर टैंक होने पर भी यहां लोगों को पीने का पानी नसीब नहीं होता  है । पानी और जंगल का जिस तरह रिश्ता है, उसे बरकरार रखना भी जलनीति का मुख्य बिन्दु होना  चाहिए । प्रत्येक सिंचाई नहर से एक घराट चलाकर अथवा टरबाईन चलाकर बिजली बनाने का प्रयोग हमारे प्रदेश में मौजूद है ।
    वर्षा जल संग्रहण के पारम्परिक तरीकों से सरकार को सीखना होगा । प्रदेश में वर्षा जल का २ प्रतिशत भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है । जल संरचनाआें चाल, खाल पर मनरेगा में जिस तरह से सीमेंट पोता जा रहा है, उससे भी उत्तराखण्ड के जलस्त्रोत सुख जायेंगे । जलनीति में इसके लिए पारम्परिक चालों के बढ़ावा देने पर जोर देना चाहिए ।
हमारा भूमण्डल
मोबाइल फोन से मौसम की भविष्यवाणी
प्रवीण कुमार

    मोबाइल को अस्तित्व में आए बमुश्किल चार दशक ही हुए होंगे, लेकिन इतने कम समय में ही यह दुुनिया का सबसे बहुपयोगी आविष्कार बन  गया है । यह परोक्ष रूप से मनुष्य की एक नई इंद्रिय के रूप में कार्य कर रहा है । कई लोग इसे अपने शर्ट के पॉकेट में रखते है, लेकिन जल्दी ही ऐसा भी मोबाइल आ सकता है जिसे घड़ी की तरह कलाई पर पहना जा सकेगा ।
    मोबाइल फोन की शुरूआत १९७३ में हुई थी । वर्ष २०११ तक इनकी संख्या ४.६ अरब को पार कर गई थी । भारत में आधी आबादी के  पास एक या एक से अधिक मोबाइल फोन हैं । एक अनुमान के अनुसार दुनिया भर में प्रति सेकंड ४.२ अरब लोग एक-दूसरे से अपने मोबाइल पर बात करते हैं । मोबाइल फोन की इतनी अधिक संख्या के कारण जल्दी ही इसका नया अवतार भी देखने को मिल सकता है । मोबाइल मौसम पर निगरानी भी रख सकेगा । हाल ही मेंडच अनुसंधानकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मोबाइल फोन मौसम की भविष्यवाणी करने में कारगर साबित हो सकता है ।


     मौसम के बारे में पूर्वानुमान कृषि, जलवायु अनुसंधान और बाढ़ प्रबंधन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण  है । लेकिन मौसम संबंधी, खासकर बारिश के, आंकड़ों को जुटाना बेहद खर्चीला काम है । हालांकि इसके लिए वर्षामापी यंत्रों का इस्तेमाल किया जाता रहा है, लेकिन रॉयल नीदरलैंड मौसम विज्ञान संस्थान के आर्ट ओवेरीम की मानें तो हाल के वर्षो में दुनिया में इन उपकरणों की संख्या आधी रह गई है । इससे बारिश के सटीक आंकड़े जुटाना और भी मुश्किल हो गया है ।
    यह एक सर्वविदित तथ्य है और आपने अनुभव भी किया होगा कि बारिश में मोबाइल के सिग्नल कमजोर हो जाते हैं । जितनी अधिक बारिश होगी, बारिश की बूंदें उतनी ही बड़ी होंगी, और मोबाइल के सिग्नल उतने ही कमजोर होंगे । हाल ही में प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (९ फरवरी २०१३) में प्रकाशित अपने एक अध्ययन में ओवेरीम कहते हैं कि उन्होनें लगातार बारह दिन तक मोबाइल फोन से आंकड़े एकत्र किए और फिर उनकी तुलना पारंपरिक रूप से एकत्र आंकड़ों के साथ की । निश्चित रूप से जिन क्षेत्रों में माइक्रोवेव लिंक्स कमजोर होंगे, वहां  मोबाइल फोन से एकत्र आंकडों की विश्वसनीयता थोड़ी कम रहेगी ।
    अफ्रीका में वर्षामापी यंत्रों की संख्या बहुत कम है, लेकिन मोबाइल फोन की संख्या लगतार बढ़ती जा रही है । वहां मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संंख्या विकसित देशों की तुलना में दुगनी गति से बढ़ रही है । एक योजना सोची जा रही है, जिसमें ऐसा सिस्टम बनाया जाएगा, जिसमें मोबाइल फोन धारक अपने-अपने इलाके या गांव के मौजूदा मौसम का हाल टेक्स्ट मैसेज के जरिए एक केन्द्र  को भेजेंगे । उस केन्द्र मेंऐसे संदेशों का रिकॉर्ड रखा जाएगा और उनकी तुलना मौसम उपग्रहों से प्राप्त् आंकड़ों के साथ की जाएगी । सूचनाआें का मुख्य स्त्रोत अफ्रीका में स्थापित पांच हजार मोबाइल फोन स्टेशन होंगे । इस प्रोजेक्ट में सोनी एरिक्सन (स्वीडन की टेलीकॉम दिग्गज) और जैन (मध्य पूर्व एवं अफ्रीका में मोबाइल फोन ऑपरेट करने वाली सबसे बड़ी कंपनी) को शामिल किया गया है । इस कवायद मेंपूरे अफ्रीका में स्थित मोबाइल फोन स्टेशनों का इस्तेमाल किया जाएगा ।
    फिलहाल मौसम एजेंसियां वर्षामापी का इस्तेमाल करती हैं । लेकिन महंगे होने के कारण सभी देशों में इनका उपयोग नहीं किया जा रहा । ब्रिटेन जैसे देशों में तो सर्दियों में वे जम जाते हैं और इसलिए बहुत ज्यादा विश्वसनीय नहीं रह जाते । और तो और, हाल के वर्षो में इन वर्षामापी यंत्रों की संख्या में बहुत तेजी से गिरावट आई है ।
    मौसम संबंधी आंकड़ों में मोबाइल फोन की उपयोगिता का परीक्षण करने के लिए रॉयल नीदरलैंड मौसम विज्ञान संस्थान की वेजनिन्गन यूनिवर्सिटी ने टी.मोबिल एनएल द्वारा संचालित २४०० लिंक्स से सिग्नल हासिल किए । ये सिग्नल २०११ में १२ दिन की अवधि के दौरान हासिल किए गए थे । इन आंकड़ों की तुलना जब मौसम राडार और वर्षामापी यंत्रों से प्राप्त् आंकड़ों के साथ की गई तो उनमें काफी तालमेल देखा गया ।
    ब्रिटेन में राष्ट्रीय पर्यावरण अनुसंधान परिषद द्वारा वित्त पोषित अनुसंधानकर्ताआें ने बोल्टन के नजदीक यह दिखाने के लिए एक मॉक मोबाइल फोन नेटवर्क स्थापित किया है कि बारिश के पानी को मापने में इसका किस तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है । यूरोपियन प्रोजेक्ट के तहत ऐसे कुछ और प्रदर्शन आने वाले दिनों में जर्मनी और इटली में किए जाएंगे । विभिन्न देशों में किए जा रहे अनुसंधान संकेत दे रहे हैं कि इस तकनीक का इस्तेमाल बाढ़ की पूर्व चेतावनी देने में किया जा सकता है ।
कैसेकाम करता है सेल फोन ?
    सेल या मोबाइल फोन रेडियो फ्रिक्वेंसी तरंगों पर कार्य करते हैं, जिनका प्रसारण बेस स्टेशन या टॉवरों से किया जाता है । ये टॉवर इनती ऊंचाई पर होते हैं कि वे पूरी रेंज को कवर करने के लिए पर्याप्त् होते हैं । ये रेडियो फ्रिक्वेंसी तरंगें एफएम रेडियो तरंगों से लेकर माइक्रोवेव तक होती है । प्रकाश और गर्मी की तरह ये भी गैर-आयनीकारक विकिरण के रूप में होती हैं और इसलिए डीएनए के केमिकल बांड्स को सीधे ब्रेक नहीं कर सकती । जब आप मोबाइल फोन से कॉल करते है तो फोन का एंटीना रेडियो-फ्रिक्वेंसी तरंगों के माध्यम से निकटतम बेस स्टेशन तक सिग्नल भेजता है और फिर आवाज के सिग्नल बेस स्टेशन को स्थानांतरित किए जाते हैं । फिर वहां से वे स्विचिंग सेंटर भेजे जाते हैं जहां से कॉल को गंतव्य स्थानांतरित किया जाता है ।
हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर विशेष
विलुप्त् होती भाषाएं एवं बोलियां
कनग राजा

    दुनिया को एक सा बना देने और वैश्विक गांव में तब्दील करने की जिद ने भाषाआें को संभवत: सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है । भाषा की विविधता ही संस्कृति की विविधता को जन्म देती है । हम बंगाल, ओडिशा, पंजाब या महाराष्ट्र की संस्कृति कहकर नहीं पुकारते वरन बंगाली, ओडिया, मराठी या पंजाबी संस्कृति ही कहते हैं । लेकिन सारी दुनिया को एकरूप कर देने की जिद ने हमारी विविधता को बहुत ठेस पहुंचाई है ।
    संयुक्त राष्ट्र संघ के स्वतंत्र विशेषज्ञ के अनुसार विश्व के सभी अंचलों में कम बोली जाने वाली भाषाआें की संख्या में आ रही गिरावट चिंता का विषय है और यह गिरावट दिखा रही है कि इन भाषाआें को पहुंच रहे नुकसान की पूर्ति कमोवेश असंभव है । मानवाधिकार परिषद् के २२ वें सम्मेलन में विशेषज्ञ सुश्री रीटा इझाक का कहना है कि कई स्थानों पर यह वैश्वीकरण और सदृशीकरण एवं सांस्कृतिक ह्ास के कारण हुआ है । लेकिन कुछ मामलों में कम बोली जाने वाली भाषाआें के विलुप्त् होने का कारण है अल्पसंख्यक समुदायों के भाषागत अधिकारों की रक्षा में असफलता । लेकिन यह राष्ट्र की सांस्कृतिक एवं भाषागत विरासत एवं विविधता के लिए बड़ी हानि है । भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए उनकी भाषा एक केन्द्रीय तत्व है एवं उनकी पहचान की अभिव्यक्ति और अपने समूह की पहचान बनाए रखने की मूलभूत आवश्यकता भी है । दुर्भाग्यवश सभी अंचलो में ऐसे भाषाई अल्पसंख्यकों जो कि कम प्रचलित भाषाएं बोलते है और सार्वजनिक एवं निजी जीवन में उनका उपयोग करना चाहते हैं, के समक्ष अनेक चुनौतियां खड़ी हो गई है । 
     उन्होनें जोर देते हुए कहा कि उपनिवेशवाद जैसे ऐतिहासिक कारणों का भी वैश्विक तौर पर भाषाआें पर भारी प्रभाव पड़ा है जिसके परिणामस्वरूप इनका सीमांतीकरण हुआ है और देशज एवं अल्प (कम) प्रचलित भाषाआें के प्रयोग में तेजी से गिरावट आई, क्योंकि अक्सर इसे पिछड़ेपन, औपनिवेशक आधिपत्य एवं राष्ट्रीय विकास में मंदी का प्रतीक माना जाने लगा था । वैश्वीकरण के युग में इंटरनेट और वेब आधारित जानकारी प्रणाली के विकास ने अल्प प्रचलित भाषाआेंएवं बोलियों की विविधता पर सीधा एवं निर्णायक प्रभाव डाला है, क्योंकि वैश्विक सूचना तंत्र एवं बाजार के लिए वैश्विक समझ का होना आवश्यक है ।
    उनका यह भी मानना है कि भाषा बोलने वालों की संख्या कम होने के पीछे कई कारण हो सकते है, जैसे समुदाय के सदस्यों की संख्या में कमी, दूसरे स्थान पर बसना, सांस्कृतिक ह्मस, भूमि का छिनना एवं पर्यावरणीय कारण । वहीं कुछ समूहों के लिए स्थितियां स्वयं के नियंत्रण से बाहर हैं । ये है सदृशीकरण की नीतियां जो कि प्रभुत्वशाली राष्ट्रीय या अधिकारिक भाषा थोपती है तथा संघर्ष के प्रभाव और अपनी पारंपरिक भूमि से जबरिया विस्थापन । कुछ देश सार्वभौमिकता, राष्ट्रीय एकता एवं क्षेत्रीय प्रभुसत्ता को कारगर बनाने के लिए आक्रामक तरीके से एक राष्ट्र सिद्धांत को प्रोत्साहित करते हैं ।
    यूनेस्को ने वैश्विक तौर पर बोली जाने वाली ६००० से अधिक ऐसी भाषाआें की पहचान की है जिन्हें कम बोली जाने वाली भाषाएं माना जा सकता है । अल्पसंख्यकों को जिस साझा समस्या का सामना करना पड़ रहा है वह है उनकी भाषा का प्रयोग राष्ट्रीय या स्थानीय प्रशासन में अथवा विद्यालयों में पढ़ाए जाने में नहीं हो पा रहा है । इसके परिणामस्वरूप इन भाषाई अल्पसंख्यकों को पूरी तरह से सार्वजनिक जीवन में भागीदारी करने एवं बच्चें की शुरूआत से ही शिक्षा प्राप्त् करने में हानि पहुंचती है । अधिकांश देशों में इनसे संबंधित आंकड़े मिलना तो कठिन है, लेकिन यह कहा जा सकता है कि भाषाई अल्पसंख्यकों के सामाजिक आर्थिक सूचकांक बहुसंख्यक के मुकाबले दयनीय है । शिक्षा की स्थिति बद्तर है एवं शिक्षा के परिणाम भी दयनीय है । परिणामस्वरूप इनकी आमदनी कम है और गरीबी के स्तर मेंअसमानता विद्यमान है ।
    आधिकारिक भाषा में पारंगतता से अल्पसंख्यकों को बहुत लाभ मिलता है, जिससे कि वे समाज में पूरी तरह से घुल मिल जाते हैं एवं अपना योगदान भी कर पाते है और मिलने वाले अवसरों का आनंद भी उठा पाते है । बिना इस पारंगतता के अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन में भागीदारी करने में अनेक रूकवटों का सामना करना पड़ता    है । उदाहरण के तौर पर भाषाई कुशलता की कमी के चलते उनकी श्रम बाजार मेंपहुंच या व्यापारिक उद्यम स्थापित करने में पहुंच कम हो जाती है । अल्प प्रचलित भाषा संबंधी अधिकार एवं भाषा अक्सर राज्यों एवं राज्यों के भीतर दोनों ही स्थानों पर अक्सर तनाव का कारण बन जाती है । भाषाई अधिकारों की वकालत करने वालों को कई बार अलगाववादी आंदोलन से जुड़ा हुआ या राज्य की एकता और सार्वभौमिकता के लिए एक खतरा मान लिया जाता है ।
    किसी व्यक्ति के लिए निजी एवं सार्वजनिक जीवन मेंअपनी भाषा को बिना किसी भेदभाव के इस्तेमाल, सीखने एवं फैलाने को पूरी स्वतंत्रता है और इसे अंतर्राष्ट्रीय मानवधिकार कानूनो में नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञा पत्र, बच्चें के अधिकार सम्मेलन एवं सन् १९९२ के अल्पसंख्यक घोषणा पत्र के माध्यम से मान्यता भी मिली हुई है । विशेषज्ञ का मानना है कि यदि आचंलिक परिप्रेक्ष्य में देखे तो यूरोप में आचंलिक मापदण्डों के माध्यम से भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों का काफी विकास हुआ है । इस विषय में वे यूरोपीय आंचलिक या कम बोली जाने वाली भाषाई चार्टर और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के संरक्षण हेतु यूरोपिय ढांचागत सम्मेलन परिषद् का उदाहरण देती है । यदि अन्य अंचलों के संदर्भ मेंबात करें तो आंचलिक मानक कमजोर है । अफ्रीका में २००० तरह की भाषाएं बोली जाती है, लेकिन कम प्रचलित भाषाआें की गुणवत्ता हेतु कोई आंचलिक केन्द्र नहीं है । एशिया और मध्यपूर्व के परिप्रेक्ष्य में उनका कहना है कि कुछ सकरात्मक प्रावधानों के बावजूद आंचलिक स्तर को मजबूत करने का प्रयास किए जाने आवश्यक है । कम बोली जाने वाली भाषाआें का पतन एक वैश्विक चुनौती है । यूनेस्को संकटग्रस्त भाषाएं कार्यक्रम ने चेतावनी दी है कि विश्व में प्रचलित ६००० भाषाआें में से आधी इस शताब्दी के अंत तक विलुप्त् हो   जाएंगी । अभी भी ३००० भाषाआें को बोलने वाले १० हजार से कम बचे हैं । हालांकि कम्बोडिया में २० से अधिक भाषाएं बोली जाती है, लेकिन यूनेस्को ने चेतावनी दी है कि आने वाले दशकों में इनमें से १९विलुप्त् हो जाएंगी । ये कोई बिरला उदाहरण नहीं है । इस स्थिति को सुधारने हेतु वैश्विक शोध की आवश्यकता है । जिससे कि भाषाई अल्पसंख्यक भविष्य की पीढ़ियों के लिए अपनी भाषा, संस्कृति और परंपराएं बचाकर रख सके ।
    इन भाषाआेंको अपने ही देश में कम संरक्षण मिलना भी चिंता का विषय है । अतएव आवश्यक है कि इन भाषाआें-बोलियों को कानूनी मान्यता मिले तथा सांस्थानिक रूप से इनके संरक्षण का प्रयत्न हो । ऐसी न होने की स्थिति में ये अल्प प्रचलित भाषाएं भाषा के इस्तेमाल, फैलाव एवं शिक्षा के नजरिए से सामान्यतया निजी क्षेत्र में ही रहती है । कई बार ऐसा भी होता है कि जहां भाषाआें को आधिकारिक मान्यता भी मिली होती है, कानूनी प्रावधान भी विद्यमान होते हैं, लेकिन इसके बावजूद भी इन्हें व्यावहारिक तौर पर प्रयोग में नहीं लिया जाता । शिक्षा के क्षेत्र में इन अल्प प्रचलित भाषाआें का शामिल न होना विशेष रूप से संवेदनशील मसला है और यह चिंता का विषय भी है ।
    भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा में मीडिया संचालित करने का अधिकार भी है, लेकिन अनेक देशों में इन पर रोकटोक की बात सामने आई है । इसी के साथ इंटरनेट पर भी तुलनात्मक रूप से इन भाषाआें में कम ही जानकारी उपलब्ध है । जो लोग राष्ट्रीय भाषा में पारंगत नहीं है । या जो ग्रामीण व सुदूर बस्तियों में रह रहे हैं या गरीब है । ये माध्यम उनकी पहुंच से बाहर है । इस वजह से पहले से ही विद्यमान जानकारी की कमी बढ़ती जा रही है ।
विशेष लेख
पर्यावरण लेखन : दशा और दृष्टि
रवि कुमार गोंड

    आज का आदमी कितना स्वार्थी होता जा रहा है । शायद आधुनिकीकरण का शुरूर मानव पर इस कदर चढ़ा हुआ है कि व्यक्ति अपने बारे में, पर्यावरण के बारे में सोच ही नहीं पा रहा है । आज तो यह आलम हो गया है कि लोग एक दूसरे की प्रगति को देखना ही नहीं चाहते । अब जो व्यक्ति स्वार्थो में मदांध हो चुका है भला उससे देश की प्रगति की अपेक्षा कैसे की जा सकती है । जो बुद्धिजीवी वर्ग है वह भी अब स्वार्थो के वशीभूत हो चुका है । लेकिन वही कुछ ऐसे भी साहित्यकार, चिन्तक है जो अपने देश, समाज, पर्यावरण के प्रति चिन्तनशील हैं । वर्तमान समय में विमर्शो का कोहराम मचा हुआ है । सब जगह सिर्फ मठाधीशी लड़ाई है । आज लोगों ने साहित्य को कुरूक्षेत्र  बनाकर रख दिया है । विमर्शो पर बहुत अबाध गति से लेखन हो रहा  है । बुक स्टालों पर विमर्शो की ही बुकें देखने को हमें मिलती हैं, हजारों की संख्या में चटकारे और मनोरंजन, अश्लील बुकों की भीड़ मौजूद रहती है । परन्तु जब हम पर्यावरण साहित्य पर दृष्टि डालते है तो उस समय हमें नगण्य किताबों का ही दर्शन होता  है । कुछ पत्र-पत्रिकाएं हैंजो पर्यावरण पर जागरूकता अभियान चलाये हुए हैं । जिनमें प्रमुख नाम हैं - पर्यावरण डाइजेस्ट मासिक पत्रिका, ग्लोबल ग्रीन मासिका पत्रिका, हरित वसुंुधरा, पर्यावरण और विकास, पर्यावरण ऊर्जा टाइम्स और शब्द ब्रम्ह ई पत्रिका  आदि । 

     आज व्यक्ति के सोचने की क्षमता दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है । सोचने वाली बात तो यह है कि हम जिस देश में, प्रकृतिपर्यावरण में जी रहे है, उसे बचाने के लिए न तो हम लेखन ही कर रहे हैं और न तो इसके प्रति चिंतित ही दिखाई पड़ रहे हैं । सभी लोग बस अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग अलाप रहे हैं । सब सूर, तुलसी, कबीर, दलित, स्त्री, मार्क्सवाद आदि के पचड़े में प़़डे हुए हैं और आज का लेखन भी इन्हीं के ईद गिर्द घूमता नजर आ रहा है ।   मैं कहता हॅू अरे भाई पर्यावरण प्रदूषण की वजह से अगर यह दुनिया नहीं रहेगी तो हम आखिर किस पर, किसलिए, क्यों, कहेंगे और लिखेंगे और क्या करेंगे । आज सिर्फ गिने चुने ही साहित्यकार, चिन्तक हैं जो पर्यावरण संरक्षण पर अपनी लेखनी को गति प्रदान किये हुए हैं, जिनमें प्रमुख है - डॉ. महेन्द्र प्रताप सिंह, डॉ. पुष्पेन्द्र दुबे, डॉ. स्वप्निल श्रीवास्तव, विनोद चन्द्र पाण्डेय, डॉ. सूर्यप्रसाद अष्ठाना, ग्लोबल ग्रीन के संपादक मनोज श्रीवास्तव, पर्यावरण डाइजेस्ट के डॉ. खुशालसिंह पुरोहित, ए.पी. पाठक, डॉ. हरीराम यादव, डॉ. राम लखन सिंह, डॉ. वैजनाथ सिंह, त्रिवेणी प्रसाद दुबे, डॉ. सुशील कुमार पाण्डेय साहित्येंदु आदि । इन सभी लोगों ने अपने विचारों और अपनी कृतियों के माध्यम से प्रकृति संरक्षण अभियान को एक नई दिशा प्रदान करने में अतुलनीय योगदान दिया   है ।
    ऐसे ही समसामयिक लेखक हिन्दी साहित्य जगत के हीरक हस्ताक्षर एवं पर्यावरण के जागरूक कवि श्री महेन्द्र प्रताप सिंह जी हैं जिनकी रचनाएं वसुधैंव कुटुम्बकम की भावना से ओतप्रोत है । इनकी अधिकतर रचनाएँ पर्यावरण पर आधारित है । अगर इन्हें पर्यावरण के चितेरे कवि कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगा । इन्होनें अपनी रचनाआें में यह स्पष्ट रूप से यह दिखाने का प्रयास किया है कि आज का व्यक्ति दुनिया की चकाचौंध में खोता जा रहा है । यह सम्पूर्ण विश्व जगत प्रदूषित पर्यावरण का शिकार होने जा रहा है जिसका परिणाम पर्यावरण असंतुलित होता जा रहा है । न तो हमेंे मौसम की सही जानकारी ही हो पा रही है और न तो दिन का ही सही पता मालूम हो पा रहा है ।
    महेन्द्र प्रताप सिंह ने एक सच्च्े साहित्यकार, देश भक्त की भूमिका अदा की है । उनके द्वारा पर्यावरण पर रचित साहित्य का योगदान देश और समाज के हित में है । महेन्द्र प्रताप सिंह की पुस्तक नारद की भू यात्रा जो पौराणिकता को समाहित किये हुए है, पर्यावरण पर लिखा गया पहला खंड काव्य    है । आज यह कृति पर्यावरण जन चेतना में मील का पत्थर साबित हो रही है । कवि महेन्द्र प्रताप सिंह  पर्यावरण के प्रति दुखी भाव से लिखते है -
    इस पवन जल मेंपूजन,
    थे स्नान ध्यान सब करते
    अब उस निर्मल सरिता में
    मल कूड़ा-करकट भरते ।।
    कवि ने अपनी कृति में प्रकृति सुषमा की ऐसी अनुपम झांकी प्रस्तुत की है जो हमें बरबस ही छायावादी कवि सुमित्रानंद पन्त की याद दिला देती है -
    जड़ चेतन प्रमुदित प्रकृति गोद सबके सुमधुर चैतन्यगात
    कल-कल सरिता, जल जीव तृप्त्, झर-झर झर झरते थे प्रपात ।
    उन्मुक्त नृत्य नाचत मयूर मद मस्त मगन सब कुछ भुलात
    तरूअर झूमत मदमस्त मस्त लतिका दु्रम से लिपटात जात 
    कवि वसुधैंव कुटुमबकम की भावना से प्रेरित है वह लिखता है -
    वसुधा कुटुम्ब है मेरी
    यह भाव ह्दय में आए ।
    सबका सुख मानव देखें,
    तब शांति ह्दय में पाएं ।।
    कवि अपनी कविता - संग्रह वन और मन में प्रकृति पर्यावरण को बड़े सुन्दर और मनोहारी ढंग से वर्णन किया है । कवि के समक्ष मानव और प्रकृति सभी बराबर है । किसी को कमतर आंकना भारी मूर्खता है । कवि विलायती बबूल के प्रति लिखता है -
    पथ मेरा आत्माहुति देकर
    दुर्बल की भूख मिटाता हॅू
    मैं बिन प्रयास पैदा होकर
    सेवा नि:स्वार्थ प्रदाता हॅू ।
    कवि महेन्द्र के सोच की तो दाद देनी होगी । वह प्रकृति के प्रति बहुत ही चितिंत हैं । अपने काव्य में नीम के पेड़ की गुणवत्ता बताते हुए उससे सबको परिचित करवाते हैं -
   मेरी दातून, श्रेष्ठ मंजन
   दांतों की रक्षा करती है ।
   औषधि वन पत्ती, चर्म रोग
   की सारी बाधा हरती है ।
    पर्यावरण जागरूकता का अलख जागाते हुए कवि लिखता है कि यह धरती अब कष्ट से त्राहि-त्राहि कर रही है । इसका कष्ट तभी समाप्त् होगा जब धरती पर वृक्षारोपण होगा -
    धरती पीड़ा से भरी, उसके कष्ट अनेक,
    वृक्षारोपण कार्य है, समाधान बस एक ।
    कवि चाहता है कि यह देश समाज हमेशा हरा-भरा और सुन्दर रहें, यहाँ पर हमेशा खुशियॉ ही खुशियॉ हो -
    हरी-भरी धरती रहे, वृक्ष रहे हर द्वार ।
    विविध फूल-फल से रहे, सदा भरा संसार ।।
    वास्तव में यह कवियों और लेखकों का प्रथम कर्तव्य है कि वह धरती मॉ के ऑचल को हमेशा हरा भरा बनाएं रखें । जिससे देश के लोग अमन शांति से जी सकें । धरती को हरा-भरा करने के लिए राम प्रकाश शुक्ल प्रकाशजी ने संकल्प भाव से होकर पर्यावरण के प्रति लिखते हैं-
   धरती पर पेड़ लगाना है,
   जीवन को सुखी बनाना है ।
   वृक्षों के प्रति प्रेम जगाकर
   धरती को हरित बनाना है ।
    आगे फिर श्याम नरेश श्रीवास्तव जी अपना विचार व्यक्त करते हुए लिखते है -
   आग लगी तो जलेगी घासें,
   वान जीवों की थमेगी सांसें
   सूखेंगे जल स्त्रोत वनों के
   मर जायेंगे प्राणी सब प्यासें ।
    श्री रघुवीर सिंह पवन जो देश वासियों से साफ और खुले लफ्जों में कहते है कि तुम प्रकृतिकी रखवाली कर सकते हो अगर तुम देश के सच्च्े सिपाही हो तो बोलो -
    सहज-प्रकृति सा मानव जीवन, जल-थल वैभवशाली ।
    बोलो- बोलो कर सकते हो, क्या इनकी रखवाली ।।
    पर्यावरण चिन्तक डॉ. पुष्पेन्द्र दुबे लिखते है -
    साम्य रोग का मानना है कि हर एक मानव में एक ही आत्मा बसती है ।
    यह तो अक्षरतय: सत्य है कि हर मानव में वही आत्मा निवास करती है लेकिन व्यक्ति कुविसंगतियों में पड़ करके कुमार्ग का रास्ता अपना लेता है । वह अपने स्वार्थ में लिप्त् हो करके प्रकृति को भी प्रदूषित  करता है ।
    ग्लोबल ग्रीन के संपादक मनोज श्रीवास्तव का कहना है कि - भारतीय संस्कृति को जीवित रखने के लिए यह आवश्यक है कि हम उसे अपने जीवन में धारण कर चरितार्थ करें । गंगा नदी को प्रदूषित होने से बचाने के प्रति साहित्यकार डॉ. स्वप्निल श्रीवास्तवजी का कहना है- यह प्रश्न सिर्फ गंगा की अस्मिता का नहीं है । यह प्रश्न है देश की उन सारी नदियों का जिनका देश के बनने में योगदान रहा ।     पर्यावरण-विद् डॉ. खुशालसिंह पुरोहित का मानना है कि पर्यावरण संरक्षण हम सभी का सामाजिक दायित्व है । पर्यावरण की रक्षा अपने स्वयं की रक्षा है । साहित्यकार विनोदचन्द्र पाण्डेय विनोद बड़े ही भाव विभोर हो करके लिखते हैं -
  तुम्हें समर्पित मधुमय उपवन,
  तुमको सुरभि सुवास समर्पित
  तुम्हें मधुर मुस्कान समर्पित,
  तुमको निर्मल हास समर्पित
    सही बात तो यह है कि हवा अगर शुद्ध रहे तो यह जीवन सुखमय पूर्वक व्यतीत होगा । जब भवरों के दिलों दिमाग पर फूलोंका मनमोहक खिलना और शुद्ध हवा की महकती फिजाआें का शुरूर छा जाता है, तो मनुष्य फिर भी सबसे श्रेष्ठ है । डॉ. सूर्य प्रकाश अष्ठाना सूरज लिखते   है -
    फूलोंकी खुशबुआें को चुराती रही हवा,
    भवरों के दिलो दिमाग पे छाती रही हवा ।
    दुनिया की उलझनों से बहुत दूर-दूर तक,
    तन्हाईयों में गीत सुनाती रही हवा ।।
    तो कहने का तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त सारे कवियों, साहित्यकारों के लेखन में जहाँ प्रकृति पर्यावरण का मनमोहक चित्रांकन किया गया है वहीं दूसरी तरफ उनके साहित्य में श्रृंगार रस की मादकता, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास और इसके साथ ही पर्यावरण जागरूकता का संदेश भी निहित है । मुझे विश्वास ही नहीं बल्कि पुरा यकीन है कि जब तक ये सारे प्रकृतिपर्यावरण के रखवाले लेखक, कवि, साहित्यकार जीवित रहेंगे यह देश, समाज और प्रकृति पर्यावरण हमेशा हरा-भरा रहेगा और प्रगति पथ पर विकासोत्तर बढ़ता रहेगा ।
बातचीत
मानव निर्मित है बाढ़
के.एस. वैद्य

    पर्यावरण भूवैज्ञानिक के.एस. वैद्य उत्तराखंड में रहते हैं और पूर्व में प्रधानमंत्री की विज्ञान सलाहकार परिषद के सदस्य भी रह चुके हैं । प्रस्तुत साक्षात्कार स्पष्ट करता है कि बाढ़ के लिए वास्तव में कौन जिम्मेदार है ।
    प्रश्न - हिमालय के साथ ही साथ भारत के अन्य हिस्सोंमें लगातार बाढ़ की पुनरावर्त्ती होती है । किस भूगर्भीय परिस्थिति के चलते इनमें वृद्धि हो रही है ?
    उत्तर - वर्तमान बाढ़ों का भूगर्भ से बहुत कम लेना देना है । इनका संबंध वर्षो से वातावरण में बढ़ रहे तापमान से है । इस बात के प्रमाण है कि वातावरण के तापमान में हो रही वृद्धि से अब वर्षा ऋतु में एक से वेग से बारिश नहीं होती ? गर्मी में लंबे समय तक सूखा पड़ने के बाद बहुत थोड़े समय में भंयकर बारिश हो जाती है । यह सबकुछ इतना तेजी से होता है कि पानी को जमीन में उतर पाने जितना समय ही मिलता  है । वृक्षों के न होने ने स्थितियों को और भी बद्तर बना दिया है, क्योंकि इस वजह से मिट्टी इस हद तक ठोस हो गई है कि उसमें पानी का नीचे उतरना असंभव हो गया है । इसके परिणामस्वरूप नदी के प्रवाह मेंवृद्धि होती है और बाढ़ आ जाती है ।
प्रश्न - उत्तरकाशी में पिछले वर्ष आई बाढ़, जिसे सरकार ने पिछले ३० वर्षो की सबसे भंयकर बाढ़ बताया है, के पीछे क्या यही कारण है ?
    उत्तर - यह पूर्णतया मानव निर्मित है । नदी में गहरी नालियां है और दोनों तरफ पानी के फैलनेका स्थान है, जो कि पठार तक फैला   है । ऐतिहासिक तौर पर लोग बाढ़ के रास्तों पर घर बनाने से बचते रहे हैं और वहां केवलखेती करते थे । लेकिन दशकों से चल रही मानव गतिविधियों के चलते बाढ़ संबंधी मैदानों एवं बाढ़ के रास्तों का भू आकृतिक अंतर ही समाप्त् हो गया  है । अब निर्माण कार्य सिर्फ बाढ़ के मार्ग में ही नहीं हो रहा है बल्कि नदियों के एकदम नजदीक तक हो रहा है । रेलवे पटरियों और पुल, जिनके आसपास बाढ़ के फैलाव का स्थान नियत होता है, के ठीक विपरीत सड़के और पुल आसानी से बह जाते हैं क्योंकि भवन निर्माता वहां की भू-संरचना की ओर ध्यान ही नहीं     देते । सर्वप्रथम वे खंबे खड़े करके जलमार्ग को बाधित कर देते हैं । उसके बाद वे नदी तट पर पहुंचने के लिए दोनोंऔर तटबंध बनाते हैं । ये तटबंध बांधों का काम करते है और पुल खुले स्लुज दरवाजे को दर्शाते     है । पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माता लागत कम करने के लिए या तो छोटी पुलियाएं बनाते हैं या कई बार तो सिर्फ छेद छोड़ देते हैं । उत्तरकाशी में सभी निर्माण, जिसमें सड़कें और पुल भी शामिल हैं या तो बाढ़ के रास्ते में या कगार पर ही निर्मित हुए हैं । नदी किनारे बनी सभी नई रिहायशी बस्तियां बाढ़ के रास्तों पर ही स्थित हैं । ऐसे में नदी में आई बाढ़ और क्या कर सकती है ?
    प्रश्न - क्या आप सोचते है कि पहाड़ी क्षेत्रों में भूमि पर दबाव ही इस प्रलयंकारी बाढ़ का कारण है ?
    उत्तर - बिल्कुल,भूमि पर दबाव है । इसके बावजूद आपको गांव वाले कगार पर घर बनाते नहीं   मिलेंगे । वे ढलान पर घर बनाने को प्राथमिकता देते हैं । इस तरह के भूस्खलन के लिए दोषपूर्ण योजना निर्माण जिम्मेदार है । हिमालय क्षेत्र में साधारणतया पहले हुए भूस्खलन के ऊपर ही सड़क निर्माण कार्य प्रचलन में रहा है । इससे पहाड़ को काटने की लागत में कमी आती है ।
प्रदेश चर्चा
छत्तीसगढ़ : खेती से बेदखल होते किसान
राकेश मालवीय

    खेती किसानी की बदहाली के बाद अब छत्तीसगढ़ के किसान अपने ही खेती से बेदखल होकर उनमें मजदूरी करने को अभिशप्त् होते जा रहे है । बदलती परिस्थितियां बता रही है कि कृषि का भविष्य अधंकारमय है ।
    भूमण्डलीकरण व बेलगाम औद्योगिकरण की प्रक्रियाआेंके परिणाम को लेकर जो अनुमान लगाए जा रहे थे वे अब तथ्य के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं । ये तथ्य बेहद खतरनाक तो हैं, लेकिन अप्रत्याशित नहीं हैं, क्योंकि अपनाई गई नीतियों से तो ऐसा होना ही      था । पिछले दिनों छत्तीसगढ़ राज्य के जनसंख्या के आंकड़ों में बताया गया है कि राज्य में किसानों की संख्या में १२ प्रतिशत से अधिक की कमी आई है । दूसरी तरफ राज्य में कृषि मजदूरों की संख्या में इजाफा हुआ  है । जनगणना रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ में किसानों की संख्या में खासी कम आई है । २००१ से २०११ के दशक में किसानों की संख्या ४५०,००० घट गई है ।
    इस बारे में छत्तीसगढ़ जनगणना निदेशक रेणु पिल्लई ने कहा कि सन् २००१ में छत्तीसगढ़ में किसानों की संख्या ३,४८८,६७२ थी, जो २०११ में कम होकर ३,०३८,०९४ रह गई । उन्होनें कहा कि इस अवधि के दौरान राज्य में कृषि मजदूरों की संख्या १,५५२,०८३ से बढ़कर २,५०५,९९९ हो गई । मतलब ये भी है कि राज्य में छोटे जोत के किसानों की जमीनें तमाम कारणों से बाजार का शिकार बनी हैं और ऐसे किसान अब अपनी ही जमीनों पर मजदूर बनने के लिए मजबूर है । यदि सरकार के ही आंकड़े यह बताते है तो इसे अलग से सिद्ध करने की क्या जरूरत है । 


     मोटे तौर पर ही देखें तो सरकार ने अकेले एक नया रायपुर शहर बनाने में लगभग ३७ गांवों के किसानों की जमीनों का अधिग्रहण किया । अब इस जमीन पर एक ऐसे आलीशान शहर का निर्माण किया जा रहा है जहां कि एक अंतरर्राष्ट्रीय स्तर का हवाई अड्डा है और एक अंतरर्राष्ट्रीय स्तर का क्रिकेट खेल मैदान । मजे की बात तो यह है कि जिन लोगों की जमीनों पर इतने आलीशान शहर की कल्पना की गई उनके हिस्से में इन क्रिकेट मैदानों में पार्किग वसूलने का सबसे घटिया किस्म का काम मिल रहा है । इन गांववालों के बलिदान की कीमत संभवत: इससे पहले इस हास्यापद रूप में कभी नहीं मिली होगी ।
    लेकिन सरकार को इनकी चिंता नहीं है । बात वही है विकास के लिए किसी न किसी की बलि तो चढ़ानी ही होगी । बात मान भी ली जाए, लेकिन हर बार यह बलि किसानों, आदिवासियों की ही क्यों ली जाती है । और फिर बलि का प्रतिफल जिस रूप में इन लोगों को मिलना चाहिए उस वक्त समाज और सरकार खामोश बैठ जाते है । पिछले साल नवंबर में भी नया रायपुर में ग्लोबल इंवेस्टर्स मीट का आयोजन किया गया था, इसमें तमाम बड़ी हस्तियों को बुलाने के लिए सरकार ने रेड कॉरपेट बिछाया । इस पूरे आयोजन में भी स्थानीय व छोटे उद्योगों की सिरे से ही अनदेखी की गई थी । इस मीट के छह महीने बाद उसमें हुए करारों का विश्लेषण किया जाए तो हमारे हाथ कुछ खास नहीं आता ।
    जनगणना के आंकड़ों में यह उस राज्य के किसानों की स्थिति है जो एक समय में हजारों किस्म के धान उगाने में सक्षम थे । यहां की वर्तमान स्थिति नीतियों का पूरे विश्लेषण मांगती है । गौरतलब है कि एक दशक में राज्य में कृषि मजदूरों की संख्या में ७० प्रतिशत से अधिक बढ़ोतरी हुई है । कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि जनगणना से स्पष्ट है कि राज्य में छोटे और मंझोले किसानों को अपनी जमीन गंवानी पड़ी है । ऐसा औद्योगिक परियोजनाआें या ढांचागत विकास कार्यो की वजह से भी हो सकता है ।
    स्थानीय किसान नेता वीरेन्द्र पांडेय कहते हैं, चूंकि किसानों की संख्या में जबरदस्त कमी आई है, इससे यह साबित होता है कि कई छोटे और मोझेल किसान जमीन खो चुके है । वह कहते है कि छत्तीसगढ़ में ज्यादातर छोटे या मध्यम दर्ज के किसान है और इनको ही नीतियों के जरिए संरक्षण देना बेहद जरूरी है नहीं तो यहां की कृषि व्यवस्था चौपट हो सकती है । श्री पांडेय कहते हैं कि किसानों की संख्या कम होने के आधिकाधिक आंकड़े राज्य सरकार के  किसान हितैषी होने के दावे खारिज करते हैं ।
    वैसे देश के परिदृश्य के बरक्स भी देखेंतो केवल छत्तीगसढ़ में ही यह अनोखी स्थिति नहीं है । जनगणना के ही आंकड़े बताते हैं कि देश में १९९१ के बाद से किसानों की संख्या करीब १.५० करोड़ घट गई है, जबकि २००१ के बाद यह कमी ७७ लाख से थोड़ी ज्यादा है ।
    वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ के विश्लेषण के मुताबिक पिछले बीस सालों में हर दिन औसतन २०३५ काश्तकार या किसान बेदखल होते जा रहे हैं । यह बहुत हैरानी की बात है कि पूंजीपतियों और वैश्विक बाजारों के लिए पलक-पांवड़े बिछाने वाली सरकारों को ये आंकड़े चिंता में नहीं डालते है ।
    राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के मुताबिक वर्ष २००७ में छत्तीसगढ़ में १५९३ किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने का आंकड़ा दर्ज हुआ । यह संख्या सन् २००६ के मुकाबले ११० ज्यादा रही । आंकड़ों के विस्तार में जाने पर मालमू चलता है कि सबसे अधिक किसान आत्महत्या (२८७) रायपुर जिले में हुई । रायपुर जो कि राजधानी भी   है । इससे पूर्व भी हर साले सबसे ज्यादा किसान आत्महत्याआें वाला जिला रहा है । रायपुर के बाद दुर्ग (२०६) और महासमुंद (१४३) का नंबर रहा । इन जिलों को भी यहां के समृद्ध जिलों में गिना जाता है ।
    सन् २००६ में छत्तीसगढ़ में जिन १४८३ किसानों द्वारा आत्महत्या के आंकड़े देखने को मिलते हैं, वह केवल उन किसानों की संख्या है, जिनके नाम पर जमीन है । यानि इनमें खेती में काम करने वाले मजदूर व अधियाबटाई लेकर किसानी करने वाले किसान शामिल नहीं है ।
पर्यावरण परिक्रमा'
पर्यटक चांद पर फरमाएंगे आराम
    जल्दी ही निजी अंतरिक्ष यात्री चांद पर आराम फरमाएंगे । अंतरिक्ष स्टेशन कार्यक्रम के तहत अंतरिक्ष यात्रियों को एक क्षुद्रग्रह की यात्रा पर रवाना करने का है । अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का कहना है कि एयरोस्पेस क्षेत्र में सक्रिय निजी कंपनियां का भी कई महत्वाकांक्षी परियोजनाआें को लेकर बेहद उत्साहित है । अगर सब कुछ सही रहता है तो जब नासा के एस्ट्रोनॉट्स एक क्षुद्रग्रह का मुआयना करने की यात्रा पर रवाना होंगे तो बहुत मुमकिन है कि निजी अंतरिक्षयात्री चंद्रमा पर बसी मानव बस्ती में रह रहे हो । नासा द्वारा कमीशन किए गए बिगेलो एयरोस्पेस द्वारा कराए गए एक शोध में यह बात सामने आई   है । संस्थान के निदेशक रॉबर्ट बिगेलो ने बताया कि निजी कंपनियोंने इन परियोजनाआें को लेकर काफी रूचि दिखाई है ।
    इन परियोजनाआें में आसपास के ग्रहोंपर फार्माक्यूटिकल शोधों का माहौल तलाशना और चंद्रमा पर जाने वाले मानवीय मिशनों से जुड़ी परियोजनाएं शामिल है । नासा का इरादा भी २०२५ तक अंतरिक्ष यात्रियों को क्षुद्रग्रह की यात्रा पर रवाना करने का है ।
    अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस वर्ष नासा के लिए १०.५ करोड़ डॉलर के बजट की घोषणा की है । इसके तहत इसे एक क्षुद्रग्रह को चंद्रमा की कक्षा में स्थापित किया जाएगा और भविष्य में अंतरिक्ष यात्री इसकी यात्रा पर जा रहे होगें ।

बिना मिट्टी के पानी में उगेंगी सब्जियां


    राजस्थान में बिना मिट्टी के पानी के पोषक तत्व डालकर ही हरी सब्जी का उत्पादन हो सकेगा । इसके लिए इजराइली विशेषज्ञों के दल जल्द राजस्थान आएगा । यही नहीं, राज्य  के हजारों गांवों में निम्न गुणवत्ता के खारे पानी तथा नाइट्रेट और फ्लोराइड से मुक्त पानी उपलब्ध कराने के लिए इजराइल की मैकरोल कंपनी राज्य सरकार के साथ समझौता करेगी । उल्लेखनीय है कि  पिछले दिनों भारत में इजरायल के राजदूत आलोन उसपीज बस्सी में सेंटर ऑफ एक्सीलेन्स की स्थापना करने आये थे और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ उनकी अनौपचारिक भेंट हुई थी, जिसमें उन्हें इजरायली तकनीकी का अवलोकन करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया था ।
    श्री गेहलोत के ६ दिवसीय इजरायल दौरे का मुख्य उद्देश्य इजरायल के सहयोग से राजस्थान में जल संसाधन (कृषि) बागवानी और अन्य क्षेत्रोंमें तकनीकी आधारित प्रयोगों की संभावनाआें का आंकलन करने के साथ ही इजरायल में अपनाई जा रही खारे पानी द्वारा फलों की खेती और कृषि कार्य में उच्च् तकनीकी के प्रयोग से पैदावार बढ़ाने के लिए किये जा रहे प्रयासों का अध्ययन करना था । साथ ही इजरायल में सीवरेज तथा निम्न गुणवत्ता के पानी के शुद्धिकरण के साथ खेती में जिस प्रकार पानी का  उपयोग किया जा रहा है, इजरायल की विश्व प्रसिद्ध तकनीक को लागू करने की संभावना की तलाश, राज्य में जल प्रबंधन एवं जल विज्ञान आदि प्रमुख है ।

देवभूमि को बनाया बांध भूमि

    उत्तराखंड में चार पवित्र धाम - गंगोत्री, यमनोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ की भूमि । छोटे बड़े बांध हिमालय के पहाड़ों और नदियों की शक्ल तेजी से बदल रहे हैं । नदियां झीलों में जा सिमटी हैं । हरियाली से ढके पहाड़ बांधों के कारण मलबे का ढेर बनकर घाटियों में धंस रहे है । यह १३ जिलों का प्रदेश है और ४२२ बांध चिन्हित किए गए है । पर्यावरणविद् प्रो. जीडी अग्रवाल का कहना है देवभूमि बांध भूमि में बदल रही है । जब पहाड़ और गंगा समेत दूसरी नदियां ही नहीं रहेंगे तो कौन यहां आना चाहेगा ?
    एक तरफ पर्यावरणवादी संगठनों ने बांधों के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है । दूसरी तरफ, सत्ता में बैठी कांग्रेस और विपक्ष में बैठी भाजपा दोनों को ही उत्तराखंड की भलाई सिर्फ बांधों में नजर आ रही  है । मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कहते हैं कि हमारी नदियों में २७ हजार मेगावॉट बिजली पैदा करने की क्षमता है जबकि सिर्फ ३६ सौ मेगावॉट का ही उत्पादन हो रहा है ।
    हाल ही में उत्तरकाशी से गंगोत्री के बीच के ४१७९ किमी इलाके को ईको सेसीटिव जोन (ईएसजेड) घोषित किया गया है । इसकी वजह से उत्तराखंड मेंबवाल मचा हुआ है । यह वही इलाका है, जहां आधे-अधूरे लोहारीनागा पाला बांध के अवशेष घाटी में बिखरे है ।
    तीन साल पहले निरस्त हुए ६०० मेगावॉट के इस बांध ने १८ कि.मी. लंबी पहाड़ियों को हमेशा के लिए जख्मी करके छोड़ा है । जगह-जगह सुरंगे बनाने के लिए हुई खुदाई और धमाकों ने पहाड़ों को इस कदर कमजोर कर दिया कि भूस्खलन की घटनाएं आम हो गई । गांव-गांव में इसके ताजे सबूत हैं ।
    पिछले साल उत्तरकाशी में कई मकानों, पुलों और रास्तों के नामोनिशान मिट गए । भटवाड़ी गांव में सड़क समेत आधा तहसील कार्यालय ही गंगा में समा गया । गंगा आव्हान समिति के कार्यकर्ता हेमंत ध्यानी कहते है, यह कहानी पूरे उत्तराखंड की है । बेहिसाब बांधों के सिवा सरकार के पास विकास का कोई विजन नहींहै ।
    ईको सेसिटिव जोन बनाने का फैसला केन्द्र सरकार का है । उत्तराखंड में इसका विरोध कांग्रेस और भाजपा दोनों मिलकर कर रहे  है । जबकि पर्यावरण के हिमायती इसे अब तक की अपनी सबसे बड़ी जीत बता रहे है । इससे पहले प्रो.जी.डी. अग्रवाल समेत कई संगठनों के दबाव में गंगोत्री के पास चार बांधों का बोरिया-बिस्तर बांध चुका है । इनमें सबसे बड़ा लोहारीनाग पाला बांध भी शामिल है, जिस पर सरकार सरकारी खजाने से ५०० करोड़ रूपये खर्च कर चुकी थी । ये बांध हिमालय के कच्च्े पहाड़ों में बन रहे है, जो भूकंप के लिहाज से सर्वाधिक संवेदनशील जोन ५ में आते है । इससे उत्तराखंड की मूल पहचान ही खत्म हो रही   है ।
    ईको सेंसिटिव जोन बनने से यहां नदी के आसपास निर्माण कार्योपर रोक लगेगी । डामर की सड़के नहीं बनेगी । तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के लिए पैदल रास्तों पर जोर दिया जाएगा । ऐसे में राज्य सरकार को दो सालों में इस इलाके की जरूरतों के हिसाब से विशेष मास्टर प्लान बनाना होगा । लेकिन इसकी बजाए पिछले दिनों मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने प्रधानमंत्री से मुलाकात करके इस फैसले को ही वापस लेने की मांग की है वे कह रहे है कि ईको सेसीटिव जोन बनने से ८८ गांव बेदखल होगे, हालांकि गजट नोटिफिकेशन में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है । बांध परियोजनाआें से जुड़े रहे ठेकेदारों और सप्लायरों के स्थानीय गुट भी लोगों को भड़काने में लगे है । उनका तर्क है कि पर्यटन  ही आमदनी का खास जरिया है ।
    ईको सेंसीटिव जोन से यहां की अर्थव्यवस्था स्था तबाह हो  जाएगी । भाजपा की पूर्व सरकार तो विधानसभा में संकल्प पारित करके पहले ही इसके खिलाफ खड़ी है । हिमालय एनवायरो स्टडीज एण्ड कंसर्वेशन ऑर्गनाईजेशन (हेस्को) के निदेशक अनिल जोशी कहते है कि प्रभावित गांवों की बेहतरी पर सरकार को लोगों से खुलकर बहस करनी   चाहिए । उन्हें भरोसे में लेकर योजनाएं बने तो पर्यटन बढ़ाने के साथ पर्यावरण को भी बचाना मुमकिन   है । उत्तराखंड घरेलू और विदेशी पर्यटकों के लिए खास आकर्षण रहा है । सालाना १३ फीसदी दर से यहां पर्यटक बढ़ रहे है । पर्यटकों को लुभाने के लिए सरकार भी नए-नए इलाके खोज रही है । हाल ही में २१ नए स्पॉट चिन्हित किए है । इन्हें विकसित करने का मतलब होगा कई पहाड़ और नदियों की सूरत बदलना ।
   
दुनिया में २६ करोड़ लोगों से जातिगत आधार पर भेदभाव
    दुनियाभर में २६ करोड़ से ज्यादा लोगों के साथ जातिगत आधार पर भेदभाव होता है । उनके मानवाधिकारोंका उल्लघंन होता है । यह निष्कर्ष संयुक्त राष्ट्र द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों ने एक स्वतंत्र ग्रुप ने दी   है । इसने दक्षिण एशियाई देशों को इनकी रक्षा के लिए कानूनों को सख्त करने की भी चेतावनी दी है । विशेषज्ञों ने कहा है कि जाति-आधारित भेदभाव की जड़े बहुत गहरी हैं । इसके पीड़ितों को संरचनात्मक भदेभाव, उपेक्षा व व्यवस्थित बहिष्कार का सामना करना पड़ता है । यह मानवाधिकारों का घोर उल्लघंन है और क्रूर किस्म की हिंसा । दक्षिण एशिया में निचली जाति के लोगों को दलित या अछूत माना जाता है ।
    रिपोर्ट के अनुसार कई देशों में ऐसे लोगों को हाशिए पर रखा जाता है । इनका आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार किया जाता है । पीने का पानी, साफ-सफाई तथा रोजगार के मामले में भारी भेदभाव होता है । इनके काम करने की स्थितियां गुलामों की तरह होती है । दलित महिलाआें को देह व्यापार और हिंसा से जूझना पड़ता है । बच्चें की बिक्री होती है तथा उनका भी यौन शोषण होता है ।
कविता
धरती मां, सूरज पिता
डॉ. रामनिवास मानव

    आज न वट-पीपल रहे, रही न शीतल छांव ।
    शहरों जैसे हो गये, अब तो सारे गांव ।।
     पर्वत, हिमनद, वन सघन, समझो इन्हें विशेष ।
    पूरी दुनिया को यही, माणा का सन्देश ।।
    पेड़ों के रोमांच से, उपजाती है नेह ।
    हरी-भरी लगती तभी, धरती मां की देह ।।
    शुद्ध हवा-पानी मिलें, उजली-निर्मल धूप ।
    निखरे सारे विश्व में, तब-जीवन का रूप ।।
    हरी-भरी लगती धरा, सचमुच सुखद सुरम्य ।
    कण-कण में जीवन-भरा, पावन और प्रणम्य ।।
    धरती मां, सूरज पिता, हम इनकी सन्तान ।
    कर्त्ता-भर्ता सब यही, और यही भगवान ।।
    इनसे ही गतिशीलता, इनसे सर्दी धूप ।
    इनसे जीवन को मले, सुन्दर-मोहक रूप ।।
    पर्वत, घाटी, वन, नदी, निर्झर, की जलधार ।
    धरती मां का ये सभी, करते हैं श्रृंगार ।।
    सागर सुन्दर पांवड़ा, अम्बर तना वितान ।
    जी-भर इन्हें निहारिये, दोनों ही छविमान ।।
    सूरज ने पाती लिखी, पुलकित हुआ दिगन्त ।
    धरा-देह झंकृत हुई, कण-कण खिला बसन्त ।।
विज्ञान, हमारे आसपास
तत्वों की उत्पत्ति की कहानी
डॉ. विजयकुमार उपाध्याय

    तत्व क्या है ? कितने हैं ? उनकी उत्पत्ति कैसे हुई ? ये सब ऐसे प्रश्न हैं जिनके संबंध में बहुत प्राचीन काल से ही दार्शनिक तथा विद्धान समय-समय पर विचार व्यक्त करते आए हैं । प्राचीन भारतीय मनीषियों ने तत्वों की संख्या पांच बताई थी । ये पांच तत्व थे आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी । युरोपीय दार्शनिक अरस्तू के मतानुसार भी तत्वों की संख्या पंाच ही थी जिनमें शामिल थे पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा ईथर ।
    आधुनिक वैज्ञानिकों के मतानुसार तत्व वह शुद्ध पदार्थ है जिसका रासायनिक या अन्य किसी विधि द्वारा दो या दो से अधिक प्रकार के पदार्थोमें विभाजन नहीं किया जा सकता है । वैज्ञानिकों द्वारा अब तक सौ से अधिक तत्वों की खोज की जा चुका है । 

     अब तक किए गए अध्ययनों से पता चला है कि ब्रह्माण्ड के समस्त परमाणुआें की संख्या का लगभग ९३ प्रतिशत तथा ब्रह्माण्ड के द्रव्य के सम्पूर्ण द्रव्यमान का लगभग ७६ प्रतिशत सिर्फ हाइड्रोजन है । हाइड्रोजन के बाद दूसरा प्रमुख तत्व है हीलियम जो ब्रह्माण्ड मेंपरमाणुआें की कुल संख्या का लगभग ६ प्रतिशत है तथा ब्रह्माण्ड के कुल द्रव्यमान का लगभग २२.५ प्रतिशत है ।
    हमारी पृथ्वी पर उपस्थित तत्वों में कई ऐसे है जो प्रकृतिमें प्रचुर परिणाम में उपलब्ध हैं । ऐसे तत्वों में शामिल हैं ऑक्सीजन, सिलिकॉन, कार्बन इत्यादि । कुछ तत्व ऐसे हैं जो सामान्य परिमाण में पाए जाते हैं जैसे लोहा, तांबा, चांदी इत्यादि । कुछ अन्य तत्वों की मात्रा पृथ्वी पर बहुत कम है । इनमें शामिल हैं रेडियम, थोरियम, युरेनियम इत्यादि ।
    एफ.डब्ल्यू. क्लार्क नामक वैज्ञानिक द्वारा किए गए अध्ययनों से जानकारी मिली है कि पृथ्वी पर उपस्थित तत्वों का लगभग ९९ प्रतिशत भाग सिर्फ १२ तत्वों से निर्मित है । इन १२ प्रमुख तत्वों में शामिल है ऑक्सीजन, सिलिकॉन, लोहा, एल्युमिनियम, कैल्शियम, सोडियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम, हाइड्रोजन, टाइटेनियम, क्लोरीन तथा कार्बन । अन्य तत्वों की मिली-जुली मात्रा सिर्फ १.० प्रतिशत है । ये आंकड़े पृथ्वी की पर्पटी (क्रस्ट) से प्राप्त् अनेक प्रकार की चट्टानों के विश्लेषण से प्राप्त् हुए है ।
    अनेक वैज्ञानिकों ने क्लार्क द्वारा प्राप्त् आंकड़ों के आधार पर किसी भी प्रकार का निष्कर्ष निकालने में असहमति व्यक्त की है । इन वैज्ञानिकों ने आपत्ति उठाई है कि भूपर्पटी से प्राप्त् चट्टानों का रासायनिक संघटन एक समान नहीं है । साथ ही भूपर्पटी में अधिक गहराईयों पर मौजूद चट्टानों के नमूने प्राप्त् करना भी असंभव है । ऐसी परिस्थिति में क्लार्क द्वारा प्राप्त् आंकड़े पूरी पृथ्वी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते ।
    परन्तु इन वैज्ञानिकों द्वारा उठाई गई आपत्तियां उचित नहीं मालूम पड़ती । श्री क्लार्क ने इन संभावित आपत्तियों को ध्यान में रखकर ही विभिन्न गहराईयों से प्राप्त् चट्टानों के रासायनिक संघटन के संबंध में कुछ अनुमान लगाए थे । ये अनुमान सिर्फ कोरी कल्पनाआें पर ही आधारित नहीं थे बल्कि पृथ्वी के भीतर भूकम्पीय तरंगों की गति के अध्ययन पर आधारित थे । इतना ही नहीं भूसतह से अनेक भागों से प्राप्त् उल्का पत्थरों का भी विश्लेषण किया गया था । पृथ्वी की उत्पत्ति से संबंधित ग्रहाणु परिकल्पना के समर्थकों के मतानुसार उल्का पत्थरों का रासायनिक संघटन ग्रहाणुआें के रासायनिक संघटन के समतुल्य माना जा सकता है । अत: उल्का पत्थरोंके रासायनिक विश्लेषण से पृथ्वी के रासायनिक संघटन के संबंध मेंउपयोगी संकेत प्राप्त् हो सकते है ।
    भूकंप जनित तरंगो की गति एवं उल्का पत्थरोंके रासायनिक विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि पृथ्वी के सबसे भीतरी भाग क्रोड मेंलोहा, निकेल तथा अल्प मात्रा में सल्फाइड ट्रायोलाइट मौजूद हैं । क्रोड के बाहर पृथ्वी की दूसरी परत मैंटल के खनिज तथा रासायनिक संघटन के संबंध में भूवैज्ञानिक लोग अभी तक एकमत नहीं हैं । प्रसिद्ध अमरीकी भूविज्ञानवेत्ता मैसन तथा वांशिगटन ने अनुमान लगाए हैं कि मैंटल में मुख्यत: पेरिडोटाइट नामक चट्टान उपस्थित है जिसमें लोहा तथा मैग्नीशियम प्रमुख तत्व हैं । स्मिथ नामक एक अन्य भूविज्ञानवेत्ता का विचार है कि मैंटल में उस प्रकार के सिलिकेट मौजूद है जिस प्रकार के सिलिकेट चट्टानी उल्काआें में पाए जाते हैं । स्मिथ के मतानुसार पृथ्वी में उपस्थित १५ तत्वों की प्रचुरता सारणी १ में दिखाई गई है ।
    तत्वों की उत्पत्ति के संबंध में कई वैज्ञानिकों ने समय-समय पर विचार व्यक्ति किए हैं । शुरू-शुरू में कुछ वैज्ञानिकों ने साम्य सिद्धान्त (इक्विलिब्रियम थ्योरी) का प्रतिपादन किया । इस सिद्धान्त के अनुसार जिन तत्वोंको आज हम देखते हैं, वे काफी उच्च् तापमान पर निर्मित नाभिकीय कणों के हिमीकृत रूप    हैं । परन्तु इस सिद्धान्त की सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि इसके द्वारा ब्रह्माण्ड स्तर पर तत्वों की प्रचुरता की व्याख्या संतोषजनक ढंग से नहीं हो पाती । इसी कारण से यह सिद्धान्त अधिक लोकप्रिय नहीं है ।
    साम्य सिद्धान्त के विपरीत कुछ वैज्ञानिकों ने असाम्य सिद्धान्त (नॉन इक्विलिब्रियम थ्योरी) का प्रतिपादन किया है । इस सिद्धान्त का प्रतिपादन तथा समर्थन करने वालों में शामिल थे जॉर्ज गैमोव तथा अल्फर आदि । इस सिद्धान्त के अनुसार प्रांरभ में ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थ सिर्फ न्यूट्रॉन कणों से निर्मित थे । कुछ समय के बाद न्यूट्रॉन फैलने लगा जिसके फलस्वरूप इसके दो खंड हो गए । इन दो खण्डो में एक था प्रोटॉन तथा दूसरा था इलेक्ट्रॉन । धीरे-धीरे प्रोटॉन कणों ने न्यूट्रॉन कणों को अपने में समाहित करना शुरू किया । इस प्रकार धीरे-धीरे न्यूट्रॉन कणों के संश्लेषण तथा बीटा कणोंके क्षरण से तत्वों का निर्माण होने लगा ।
    परन्तु कुछ ही समय बाद असाम्य सिद्धान्त में भी एक बहुत बड़ी त्रुटि नजर आने लगी । यह सिद्धान्त भी ब्रह्माण्ड स्तर पर तत्वों की प्रचुरता की व्याख्या करने में असमर्थ रहा । उदाहरणार्थ इस सिद्धान्त से यह स्पष्ट नहीं होता कि तत्वों में लोहे की इतनी अधिक प्रचुरता कैसे संभव हुई ? इतना ही नहीं इससे यह भी स्पष्ट नहीं होता कि ५ या ८ से अधिक परमाणु भार वाले तत्वों की उत्पत्ति कैसे हुई ? क्योंकि हीलियम तथा बेरिलियम (परमाणु भार क्रमश: ५ तथा ८), जो न्यूट्रॉन पकड़ विधि से निर्मित होते हैं, बहुत कम आयु वाले हैं । देखा गया है कि निर्माण के कुछ ही समय बाद इन तत्वों का क्षरण हो जाता है तथा ये पुन: हीलियम-४ में बदल जाते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि इस विधि द्वारा अधिक हीलियम-४ के परमाणु भार वाले तत्वों तक का निर्माण संभव है ।
    सन् १९५७ में संसार के तीन  प्रसिद्ध वैज्ञानिकों (बर्बीज, हॉयल तथा फाउलर) ने बताया कि सौर परिवार में पाए जाने वाले तत्वों का निर्माण सूर्य में होने वाली नाभिकीय क्रिया द्वारा हुआ । इस विधि द्वारा उत्पन्न होने वाला सबसे पहला तत्व था हाइड्रोजन । अन्य तत्व हाइड्रोजन से ही उत्पन्न हुए । सूर्य की सतह पर नाभिकीय क्रिया द्वारा सतत विधि में तत्वों के निर्माण के निम्नलिखित पांच चरण थे :-
(१) प्रत्येक तारे में हाइड्रोजन लगातार न्यूट्रॉन ग्रहण कर हीलियम में परिवर्तित हो रही है । किन्तु इसके लिए जरूरी है कि तारे के केन्द्र का तापमान एक करोड़ डिग्री हो तथा उसका घनत्व लगभग १०० ग्राम प्रति घन सेंटीमेंटीर हो ।
(२) जब तापमान १० करोड़ डिग्री तथा घनत्व का एक लाख ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर के आसपास रहता है तो उपर्युक्त विधि द्वारा निर्मित हीलियम कार्बन के परमाणुआेंमें परिवर्तित हो जाती है । इस परिस्थिति में हीलियम के तीन परमाणु आपस में मिलकर कार्बन के एक परमाणु का निर्माण करते हैं । कार्बन के येपरमाणु हीलियम के अन्य परमाणुआें को ग्रहण कर ऑक्सीजन तथा मैगिनशयम के परमाणुआेंका निर्माण करते हैं ।
(३) जब तापमान एक अरब डिग्री तथा घनत्व एक करोड़ ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर हो जाता है तो नाभिकीय क्रियाआें के कारण अल्फा कण उपयुक्त तत्वों से संयोग कर अपेक्षाकृत अधिक परमाणु भार वाले तत्वो (जैसे गंधक, सिलिकॉन, एल्युमिनियम तथा कैल्शियम इत्यादि) का निर्माण करते है ।
(४) जब तारे के केन्द्र का तापमान तीन अरब डिग्री हो जाता है तो नाभिकीय क्रियाएं और अधिक बढ़ जाती हैं । इस परिस्थिति में चरण १, २ व ३ में निर्मित नाभिकों, प्रोटॉनों तथा न्युट्रानों के बीच आपसी प्रतिक्रियाएं साम्यावस्था में पहुंच जाती है । ऐसी परिस्थिति में लोहे के परमाणु बनते हैं ।
(५) उपर्युक्त विधि से निर्मित हुए ये लौह परमाणु न्यूट्रॉन कणों को ग्रहण कर अपेक्षाकृत अधिक भारी तत्वों का निर्माण करते हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार इस विधि से परमाणु भार २०९ (बिस्मथ) तक के तत्वों का निर्माण होता है ।
    प्रयोगशाला में परमाणुआें पर  किए गए प्रयोगों द्वारा उपर्युक्त परिकल्पना की पुष्टि होती है । प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित हो चुका है कि लगभग सभी नाभिक न्यूट्रॉनों का अधिग्रहण करते हैं तथा इसके कारण नए तत्वों का निर्माण संभव होता    है । जो नाभिक न्यूट्रॉन कणों का अधिग्रहण शीघ्रता से करते हैं वे नाभिक निर्माण की प्रक्रियासमाप्त् होने पर अपेक्षाकृत कम होते हैं । इसकी वजह यह है कि उनमें से अधिकांश नाभिक न्यूट्रॉन अधिग्रहण प्रतिक्रियाद्वारा अन्य नाभिकों में परिवर्तित हो जाते हैं । इसके विपरीत जो नाभिक न्यूट्रॉन अधिग्रहण धीमी गति से करते हैं उनकी प्रचुरता अपेक्षाकृत अधिक पाई जाती है ।
    उपर्युक्त सिद्धान्त के विरूद्ध अनेक वैज्ञानिकों ने असहमति जताई है । उनके मतानुसार परमाणु भारों के क्रम मेंसंख्याएं ५ तथा ८ रिक्त  हैं । अर्थात ५ तथा ८ परमाणु भार वाले तत्व स्थाई नहीं होते ।
    प्रयोगशाला में हीलियम पर तीव्र ऊर्जा वाले न्यूट्रॉनों का प्रहार करके हीलियम-५ का निर्माण किया तो जा सकता है परन्तु वह अविलम्ब हीलियम-४ में परिवर्तित हो जाती    है ।

सारणी १ : पृथ्वी पर उपस्थित प्रमुख तत्वों की प्रचुरता
तत्व      प्रचुरता(%)  
लोहा    ३४.८२    
सोडियम    ०.५६
ऑक्सीजन    २९.२६    
क्रोमियम    ०.२६
सिलिकॉन    १४.६७    
मैंग्नीज    ०.२२
मैग्नीशियम    ११.२८    
कोबाल्ट    ०.१७
गंधक    ३.२९    
फॉस्फोरस    ०.१५
निकेल    २.४३    
पोटेशियम    ०.१४
कैल्शियम    १.४०   
टाइटेनियम    ०.०७
एल्यूमिनियम    १.२४
ज्ञान विज्ञान
ट्राफिक के अनुकूल ढल रहे हैंपक्षी

    करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक सड़क किनारे रहने वाले पक्षियों में कुछ अनुकूलन हो रहे हैं जो उन्हें ट्राफिक से निपटने में मददगार साबित हो रहे है ।
    उपरोक्त अध्ययन मुंडेरों पर रहने वाले पक्षी अबाबील (पेट्रोचेलिडॉन पायरोनोटा) पर किया गया है । ये पक्षी अपने मिट्टी के शंकु आकार के घोंसले सड़क किनारे इमारतों की मुंडेरो पर बनाते हैं । वैसे ये आजकल अंडरब्रिजों और फ्लाईओव्हर के नीचे  भी रहने लगे हैं । ये १२००० तक की बस्तियों के रूप में रहते हैं । मुडेंरो पर घोंसला बनाने और रहने वाले अबाबील की एक विशेषता यह है कि ये जाड़े के दिनों में दक्षिण अमरीका चले जाते हैं और प्रजनन उत्तरी अमरीका में करते हैं । 


     ओक्लाहामा विश्वविद्यालय में जीव वैज्ञानिक चार्ल्स ब्राउन और नेब्रास्का लिंकन विश्वविद्यालय की मैरी बॉमबर्गर ब्राउन ने अपने अध्ययन के दौरान पाया कि कारों से टकराकर मरने वाले अबाबील की संख्या में पिछले तीन दशकों में कमी आई है । ब्राउन और बॉमबर्गर ब्राउन का ख्याल है कि यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि अबाबील में सड़क-अनुकूलनहो रहा है ।
    मजेदार बात यह है कि इस अध्ययन के लिए आंकड़े जुटाना आसान नहीं रहा । ब्राउन एक टेक्सीड-र्मिस्ट भी हैं । टेक्सीडर्मिस्ट मृत जानवरों की खाल में मसाला भरकर उन्हें संरक्षित रखने का काम करते हैं । वे पिछले तीन सालों से मृत अबाबील के ऐसे शव जमा करते रहे हैं । इन तीस सालों में उन्होनें १०४ ऐसे अबावील के शव एकत्रित किए जो वाहनों से टकराकर मरे थे जबकि १३४ ऐसे शव संग्रहित किए गए जो अपने घोंसलों में अन्य कारणों से मारे गए थे । ये सारे शव व्यस्क पक्षियों के थे । उन्होनें देखा कि इन तीस सालों में वाहनों से टकराकर मरने वाले अबाबील की संख्या में कमी आई है जब कि अबाबील की कुल आबादी बढ़ी है ।
    अब उन्होेंने वाहनों से टकराकर मरने वाले और सामान्य रूप से मरने वाले अबाबीलों के पंखोंकी लंबाई की तुलना की । यह देखा गया कि इन वर्षो में वाहन से टकराकर मरने वाले अबाबील के पंखों की लंबाई तो बड़ी है मगर उन अबाबील के पंख छोटे हुए है जो घोसलों में मरे थे ।
    शोधकर्ताआें का मत है कि छोटे पंखों से पक्षियों को अपनी उड़ान का बेहतर नियंत्रण करने में मदद मिलती है । खासतौर से अचानक मुड़ना ज्यादा फुर्ती से हो सकता है, जो तेज गति के वाहनों से बचने के लिए जरूरी है ।
    डेनमार्क के एक अन्य टेक्सीडर्मिस्ट ने भी देखा है कि डेनमार्क मेंभी वाहनों से टकराकर मरने वाले पक्षियों की संख्या में कमी आई है । अब वे भी अपने पास संग्रहित पक्षी शवों के पंखोंका तुलनात्मक अध्ययन करने की योजना बना रहे हैं ।
    वैसे उक्त शोधकर्ताआें ने स्पष्ट किया है कि वे यह नहीं कह रहे हैं कि अबाबील में अनुकूलन का यही एक मात्र आधार है । उनका कहना है कि पंखों की साइज में परिवर्ततन से पता चलता है कि अनुकूलन हो रहा है और काफी तेजी से हो रहा है ।
मकड़ियों के जालों से प्रजाति की पहचान

    आपने फिंगरप्रिंट से व्यक्ति की पहचान की बात तो सुनी होगी । अब कुछ शोधकर्ता कह रहे हैं कि मकड़ी के जाले का अध्ययन करके वे यह बता सकते हैं कि यह किस प्रजाति द्वारा बनाया गया है ।
    स्पैन के ला पामास डी ग्रान केनेरिया विश्वविद्यालय के कार्लोस ट्रेविएसो और उनके साथियों ने एक कॉबबेब (मकड़जाल) पहचान प्रणाली विकसित की है और यह ९९.६ प्रतिशत मामलों में सही साबित हुई  है । ट्रेविएसो का सोचना है कि कोई भी मकड़ी जिस ढंग से अपना जाला बुनती है, वह प्रजाति का खास गुण होता है । हरेक प्रजाति की जिनेटिक बनावट और शरीर रचना किसी भी अन्य प्रजाति से अलग होती है । इसलिए उनके जाले भी अलग-अलग होते हैं । यह लगभग इंसानों के फिंगरप्रिंट जैसा है । 
     इसे परखने के लिए ट्रेविएसो  ने कोस्टरिका स्थित स्मिथसोनियन ट्रॉपिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के विलियम एबरहार्ड की मदद ली । एबरहार्ड के पास पनाामा और कोस्टा रिका की कई मकड़ियों के जालों की तस्वीरें हैं । इन तस्वीरों पर पैटर्न की कई तकनीकें आजमाई गई । अंतत: ट्रेविएसो और उनके साथी उस  तरीके तक पहुंच गए जिससे वे यह पता लगा सकते थे कि कौन सी प्रजाति किस तरह का जाल बुनती  है ।
    उन्होंने पाया कि यदि वे जाले के केन्द्र से शुरू करेंऔर फिर पूरे चित्र का विश्लेषण करें तो पहचान की विश्वसनीयता बहुत बढ़ जाती    है । गौरतलब है कि जाले का केन्द्रीय भाग अत्यन्त जटिल होता है और इसमें पहचान के कई लक्षण पाए जाते हैं । उन्होनें इस तकनीक का उपयोग मकड़ी की तीन प्रजातियों पर करके देखा है - एनापिसोना साइमोनी, मिक्राथेना ड्यूओडेसिम-स्पाइनोसा और जोसिस जेनिक्- यूलेटा ।    
    दरअसल ये शोधकर्ता मकड़ियों की विभिन्न प्रजातियों की संख्याआें का आंकलन करना चाहते थे । कारण यह है कि मकड़ियां अधिकांश इकोसि-स्टम्स में पाई जाती है और ये किसी भी इकोसिस्टम में जैव विविधता की अच्छी द्योतक हो सकती है । यदि उनकी विधि से गिनती को स्वचालित ढंग से किया जा सके तो काम बहुत आसान हो जाएगा । टीम ऐसी पहचान प्रणाली कुछ अन्य प्राणियों के लिए भी विकसित करने की कोशिश कर रही है ।

आंतोंके बैक्टीरिया बदलकर मोटापे का इलाज

    अत्यधिक मोटापे के लिए आजकल सर्जरी का सहारा लिया जाता है । इस सर्जरी में व्यक्ति के पेट या आंतोंको काट-छांटकर छोटा कर दिया जाता । परिणाम यह होता है कि व्यक्ति कम भोजन का सेवन करता है या उसके शरीर मेंकम भोजन का अवशोषण हो पाता है । तो मोटापा कम हो जाता है । वजन में ६५-७० प्रतिशत तक की कमी इस तकनीक से हासिल की गई है । इसके अलावा इससे मधुमेह पर नियंत्रण में भी मदद मिलती है । मगर जाहिर है कि इस तरह की शल्य क्रिया के खतरे भी कम नहीं हैं । 


     अब बोस्टन के एक अस्पताल में कार्य-रत ली केप्लान और उनके साथियोंने इस सर्जरी का एक विकल्प ढूंढ निकाला है जिसमें सर्जरी की जरूरत ही नहीं पड़ेगी । इस टीम ने कुछ चूहों के पेट की सर्जरी की । फिर इन चूहोंकी निचली आंत के सूक्ष्मजीव स्वस्थ चूहों को खिला  दिए । देखा गया कि सर्जरीशुदा चूहों से प्राप्त् सूक्ष्मजीव मिश्रण का सेवन करने वाले चूहों के वजन में दो सप्तह में ५ प्रतिशत की कमी आई । तुलना के लिए कुछ अन्य चूहोंको सूक्ष्मजीव की खिचड़ी नहीं खिलाई गई थी और उन्हें भी उसी तरह के भोजन पर रखा गया था । इनके वजन मेंकोई कमी नहीं आई ।
    यह काफी मजेदार बात है । जब आप पेट को छोटा कर देते हैं तो स्वाभाविक है कि व्यक्ति कम भोजन खाता है और उसका वजन कम हो जाता है । मगर सिर्फ सूक्ष्मजीवों के ट्रांसफर से भी वही प्रभाव क्यों हो रहा है ? शोधकर्ताआें को भी शायद इस सवाल का जवाब पता नहीं है मगर उनका विचार है कि शायद सर्जरी के बाद आंतों के बैक्टीरिया में कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैंकि पचे हुए पदार्थो का अवशोषण कम होने लगता है । यह भी हो सकता है कि नई परिस्थिति में ये बैक्टीरिया पाचन क्रियाको ही बदलने का काम करते हैं ।
    शोधकर्ता यह समझना चाहते हैं कि ये बैक्टीरिया जो भी कर रहे हैं, क्या उसे हम किसी और तरीके से दोहरा सकते हैं । वैसे उपचार के रूप मेंबैक्टीरिया की अदला-बदली कोई नया विचार नहीं है ।
विरासत
विलुप्त् सभ्यताएं
गंगानंद झा

    हम कोलकाता के अजाय-बघर गए थे । वहां अन्य वस्तुआें के अलावा मिस्त्र की पांच हजार साल पहले की एक ममी देखी तो मानव समाज और सभ्यता के लंबे एवं जटिल सफर और चढ़ाव-उतार की तस्वीरें चेतना में घुमड़ने लगी । यह ममी सुदूर अतीत में एक विकसित सभ्यता के अस्तित्व की गवाही दे रही थी । प्राचीन मिस्त्र एवं मिसोपोटामिया के समसामयिक सिंधु घाटी की सभ्यता के भग्नावशेषों के साथ संयुक्त राज्य अमरीका की सीमा के अन्तर्गत ऐनसाजी तथा कैहोकिया, मध्य अमरीका के माया नगर, दक्षिण अमरीका में मॉशे तथा तिवानाकु, अफ्रीका में ग्रेट जाम्विबिया विलुप्त् हुई । सभ्यताआें के चंद उदाहरण हैं ।
    ओजायमैंडियास अंग्रेजी के कवि शैली की एक कविता का शीर्षक है । इसमें एक विशाल एवं समृद्ध साम्राज्य के भग्नावशेष का वर्णन    है । एक समृद्ध एवं शक्तिशाली साम्राज्य बालू के विस्तार में कैसी तब्दील हो गया ? कठिन प्रयास से निर्मित की गई इन भव्य संरचनाआें को छोड़कर इनके महान निर्माता अंतर्ध्यान हो गए । 

     अतीत के ये आश्चर्यजनक भग्नावशेष हम सबके लिए एक रूमानी सम्मोहन हैं । बचपन में उन्हें तस्वीरों और वीडियो में देखकर हम मोहित होते रहे हैं । बड़े होने पर हममें से अनेकों प्रत्यक्ष रूप में सैलानियों के रूप में इनका अनुभव करने की योजनाएं बनाते हैं । उनके शानदार और मुग्ध कर देने वाले सौन्दर्य एवं रहस्य में निमग्न होते रहते हैं । सवाल घेरते हैं हमें/इतनी शानदार उपलब्धियों एवं सामर्थ्य के बावजूद वे अपने आपको कायम नहीं रखे पाए ? आखिर क्यों ?
    अनुमान किया जाता है कि इन रहस्यमयी परित्यक्त संरचनाआें में से अनेकों के विनाश की शुरूआत पर्यावरणीय समस्याआें के कारण हुई थी । मनुष्य ने आज से करीब पचास हजार साल पहले आविष्कारशीलता, दक्षता एवं शिकार करने के हुनर विकसित किए । तभी से उसके लिए पर्यावरणीय निरन्तरता बनाए रखना कठिन रहा है । लोग अनजाने अपने उन पर्यावरणीय संसाधनोंका विनाश करते रहे, जिन पर उनकी सभ्यता एवं समाज निर्भर थे ।
    पर्यावरणीय आत्मघात के संदेह की पुष्टि पुराविदों, जलवायु विशेषज्ञों, इतिहासकारों, जीवाश्म विशेषज्ञों एवं पुष्परेणु विशेषज्ञों के हाल के दशकों की खोजों से होती है । जिन प्रक्रियाआें के जरिए अतीत के इन समाजों ने अपने पर्यावरण को भंगुर बनाया, उन्हें आठ श्रेणियों में बांटा जाता है - जंगलों की कटाई एवं वासभूमि का विनाश, भूमि समस्याएं (भूक्षरण, लवणीकरण एवं भू-उर्वरा हानि), जल प्रबंधन समस्याएं, अत्यधिक शिकार, मछलियों की अत्यधिक पकड़, आयातित प्रजातियों के मूल प्रजातियों पर असर, मनुष्य की जनसंख्या वृद्धि एवं आबादी का प्रति व्यक्ति प्रभाव ।
    इन आठ कारकों के तुलनात्मक प्रभाव अलग-अलग समाजोंमें अलग-अलग तरीके सेहुए थे । अतीत के इन विध्वंसों की राहें समरूप थी, हालांकि उनमें कुछ विविधताएं नजर आती है ।
    जनसंख्या वृद्धि ने लोगों की कृषि उत्पादन में तेजी से वृद्धि करने को प्रेरित किया । वे अतिरिक्त पेटों की भूख मिटाने के लिए खेती का मुख्य भूमि से बढ़ाकर सीमांत खेती अपनाने को विवश हुए । अरक्षणीय कार्य प्रणालियों से ऊपर वर्णित आठ किस्मों में से एक या अधिक प्रकार की पर्यावरण क्षति होती रही । नतीजा यह हुआ कि सीमांत भूमि में खेती करना फिर से बंद करना पड़ा । इसका परिणाम खाद्य पदार्थो की कमी, भुखमरी, अल्प संसाधनों के लिए लोगों के बीच युद्ध एवं विक्षुब्ध जनता द्वारा शासकों का तख्तापलट व रोगों की श्रृंखला का उदय हुआ । अंततोगत्वा भुखमरी, रोग और युद्ध से जनसंख्या में कमी आई और समाज ने अपने उत्थान की चरम अवस्था में जो राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जटिलताएं विकसित की थीं, उनमें से अनेकों का लोप हो गया ।
    लेखकों को व्यक्तियों के जीवन चक्र मेंजन्म, वृद्धि, युवावस्था के बाद बुढ़ापे के लंबे दौर के बाद मृत्यु के रास्ते और मानव समाजों के प्रक्षेप पथ में समानता दिखलाने का प्रलोभन होता है । वे मानना चाहते है कि हमारे जीवन चक्र की ही तरह हमारे समाजों का भी जीवन चक्र जन्म से मृत्यु तक निर्देशित होता है । लेकिन अतीत के अनेक समाजों (एवं आज के सोवियत यूनियन) के लिए यह रूपक भ्रामक साबित होता है । उत्कर्ष की चरमावस्था पर पहुंचने के बाद उनकी अवनति धीरे-धीरे न होकर तेजी से हुई । उनके नागरिकों को निश्चित रूप से तीव्र आघात एवं आश्चर्य हुआ होगा । जब समाज पूरी तरह ध्वस्त हो गया तो समाज का हर व्यक्ति या तो मर चुका था या दूसरे समाजों में बस गया था ।
    जाहिर है कि ये वारदातें आज अधिकाधिक प्रासंगिक होती गई हैं । बहुत से लोगों की सोच है कि आज की दुनिया के लिए नाभिकीय अस्त्र और उभरते रोगों के मुकाबले पर्यावरणीय आत्मघात अधिक बड़ा संकट है । हमारे समक्ष जो पर्यावरणीय समस्याएं है, उनमें इन आठ के साथ चार अतिरिक्त समस्याएं जुड़ गई हैं । ये हैं मानवीय हस्तक्षेप के कारण होने वाला जलवायु परिवर्तन, परिवेश में जहरीले रसायनों का इकट्ठा होना, ऊर्जा की कमी और धरती की प्रकाश संश्लेषण उत्पाद क्षमता का संपूर्ण उपयोग । ऐसा दावा किया जाता है कि अगले कुछ दशकों में इन बारह खतरों में से अधिकतर चरम पर पहुंच जाएंगे ।
    अगर हम तब तक इन समस्याआें को नहीं सुलझा पाते, तो समस्याएं हमें निगल जाएंगी । मनुष्य जाति के विनाश के प्रलयंकारी दृश्य अथवा औद्योगिक सभ्यता के सर्वनाश की बजाय बस निम्न जीवन स्तर, दीर्घकालिक गंभीर खतरों एवं हमारे प्रमुख मूल्यों को खोखला कर देने वाला भविष्य बचेगा । यह विनाश कई रूप लेगा । जैसे रोगों का पूरे संसार में प्रसार अथवा संसाधनों की कमी । अगर यह बात सही है, तो हमारे आज के प्रयास उस दुनिया का चरित्र तय करेंगे, जो आज के शिशु, बालक एवं युवाआें को विरासत में मिलेगी ।
    लेकिन समस्या की गंभीरता पर आज बहस प्रबलता से जारी है । क्या खतरे काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए जा रहे हैं या इसके उलट क्या उनका आंकलन काफी कम किया जा रहा है ? क्या यह कहना सही है कि आज की सात अरब की मानव जनसंख्या, अपनी प्रभावशाली प्रौद्योगिकी के साथ हमारे पर्यावरण को भूमंडलीय स्तर पर कमजोर कर रही है, जबकि पत्थर और लकड़ी के औजारों से युक्त मात्र कुछ करोड़ की आबादी अतीत में तुलनात्मक रूप से स्थानीय रूप से टुकड़े-टुकड़े होती रही थी ?
    क्या आधुनिक प्रौद्योगिकी हमारी समस्याएं सुलझाएगी या यह जितनी पुरानी समस्यों को सुलझाएगी, उससे अधिक नई समस्याएं उत्पन्न करती रहेगी ? जब हम एक संसाधन (लकड़ी, तेल अथवा सामुद्रिक मत्स्य भंडार) नष्ट करते है तो क्या हम नए संसाधनों (प्लास्टिक, वायु, सौर ऊर्जा, खेती की मछलियों) द्वारा इनकी भरपाई कर सकते हैं ? क्या मनुष्य की वृद्धि दर कम नहीं होती जा रही है और हमने अभी ही संसार की कुल आबादी को प्रबंधनीय स्तर पर स्थिर करने के रास्ते को अपना लिया है ?
सामाजिक पर्यावरण
नक्सलवाद : इतिहास ही भविष्य बतलाएगा
डॉ. कश्मीर उप्पल

    नक्सलवाद की बढ़ती समस्या के  बीच इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी लंबा खिंचता जा रहा है। आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को कानून की प्रस्तावना में स्थान देने वाली  सरकारें  इस अन्याय की समाप्ति को जमीनी हकीकत नहीं बना पा रही हैं । 
    २० अक्टूबर १९६२ को चीन का भारत पर आक्रमण सभी को याद होगा । इस युद्ध से ``हिंदी-चीनी भाई-भाई`` के  नारे और पंचशील के  सिद्धांतों के  साथ और भी कई कुछ टूटकर बिखर गया था । इस युद्ध ने भारत के  कम्युनिस्टों में भी सैद्धांतिक  दरारें पैदा कर दी थीं । इनका एक धड़ा लेनिन के रूस के  सिद्धांतों और दूसरा धड़ा माओ के चीन के  सिद्धांतों के  आधार पर भारत में राजनीति करना चाहता था । इस पर तीव्र मतभेद चीन के  आक्रमण के  बाद ही उभरे थे ।
     कम्युनिस्ट पार्टी में चली लंबी बहस के बाद अंत में १९६४ में उसका विभाजन हो गया । इसके   फलस्वरूप रूस समर्थक  भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) और चीन समर्थक   भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी (सीपीएम) का जन्म हुआ । चीन समर्थक सीपीएम के  लोग चीन के  माओ की ``रेड बुक`` या लाल किताब को धार्मिक  पुस्तक  गीता के  समान मानते हैं । चीन में माओ ने हजारों लोगों के  लांग मार्च से केंद्रीय सत्ता पर अधिकार किया था । इस लाल किताब का एक  वाक्य `सत्ता बंदूक  की नली से निकलती है` को युवा मार्क्सवादी माओवादी युवकों ने अपने देश, भारत के, संदर्भ में समझने और परखने का कष्ट नहीं किया ।
    माओ के  अनुसार सत्ता बंदूक की नली से निकलती है परन्तु हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बहुत पहले ही इस विचार को गलत सिद्ध कर दिया है। प्रारंभ में बंगाल के माओ समर्थक युवकों ने वहां के  कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में बंदूक के प्रयोग से समानता लाने के आंदोलन शुरू  किए । इन युवकों का सपना था कि  वे चीन की तरह बंगाल से मार्च शुरू  कर के विभिन्न राज्यों में पहुंचेंगे और उन राज्यों के युवक, भूमिहीन, किसान, मजदूर और अन्य शोषित वर्ग लोग उनके  मार्च में जुड़ते जाएंगे । इस तरह कुछ वर्षों में वे दिल्ली पर कब्जा कर लेंगे ।
    इन माओवादी सिद्धांतों के समर्थकों ने सन् १९६७ में बंगाल के नक्सलवाड़ी क्षेत्र में भूमिहीन किसानों को लेकर बड़े जमींदारों की जमीन पर कब्जा करना शुरू किया। कई बड़े जमींदारों ने इस हिंसक  कार्यवाही पर ध्यान नहीं दिया और कई जगह जमींदारों ने इस कार्रवाई का विरोध भी किया । नक्सलवाड़ी के इस आंदोलन में कुछ सफलता मिली थी । इससे नक्सलवाड़ी  में माओवादी युवकों को एक  बड़ा सपना मिल गया । विशेषकर कलकत्ता के  पढ़े लिखे युवकों को लगा कि   वे भी पूरे बंगाल में सत्ता का समान वितरण कर सकते हैं ।
    इस आंदोलन से प्रेरित होकर कुछ युवक  बंदूक  लेकर बंगाल के  ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचने लगे और कुछ कलकत्ता में कार्यवाही करने लगे। इसी समय नक्सलियों के  भी कई समूह बन गए, उन सबके अपने-अपने सिद्धांत थे। कुछ मार्क्सवादी कुछ लेनिनवादी, कुछ माओवादी और कुछ लेनिन और मार्क्सवादी दोनों बन गए । फलस्वरूप अनेक   युवकों और पुलिसकर्मियों की हत्या होने लगी। इन्हीं लोगों को नक्सलवादी कहा जाने लगा । पुलिस ने कोर कार्यवाही करते हुए हजारों नक्सलियों को कोलकत्ता और बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में खत्म कर दिया । कुछ ही वर्षों में बंगाल में नक्सलवादियों की रीढ़ टूट गई थी । कुछ नक्सली बंगाल से निकल बिहार और उड़ीसा में पहुंचने   लगे । आगे बढ़कर इन्होंने आंध्रप्रदेश में `पीपुल्स वार ग्रुप` के  नाम से तेलंगाना में प्रवेश किया । आंध्रप्रदेश से छत्तीसगढ़ में प्रवेश कठिन नहीं था । सन् १९८० में छत्तीसगढ़ में नक्सली सक्रिय हुए और मध्यप्रदेश के कई जिलों में भी उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई ।
    नक्सलियों के लिए आधार भूमि बनाने का काम राज्यों में बढ़ती सामाजिक असमानता और बढ़ते अत्याचार करते हैं।  कंपनियों और ठेकेदारोंके लिए कच्च माल और खनिज पदार्थ जंगलों में मिलते हैं । आजकल की बढ़ती पूंजीवादी व्यवस्था और मशीनी खेती ने गांवों में रोजगार के  अवसर समाप्त कर दिए हैं। उद्योगों, बांधों, खनिजों और कई-कई परियोज-नाओं के   बहानों से हजारों वर्षों से अपनी भूमि पर रह रहे लोगों को उनकी परंपरागत भूमि से बेदखल कर दिया जा रहा है। हमारी सरकारी मशीनरी अपने मंत्रियों और घूस खिलाने वालों के  लिए क्या कुछ नहीं कर देती है । इसका विरोध करने पर पुलिस की लाठी और जेल तैयार रहती है ।
    अभी कुछ दिन पहले मेधा पाटकर का भोपाल में दिया गया बयान अत्यंत गंभीर और दर्दभरा है कि ``यदि सरकार हम आंदोलनकारियों की बाते नहीं सुनेगी तो इंसाफ  पाने के  लिए लोग नक्सलवादियों के पास जाएंगे । `मेधा पाटकर के  वक्तव्य की तरह देश के  कई बड़े बुद्धिजीवी भी यही बात कह रहे हैं कि नक्सलवाद की फसल वहीं फलती फैलती है जहां सरकार आम आदमी को इंसाफ  नहीं दे पाती है ।
    नक्सलवादियों को विदेशों से भी गोला-बारूद और धन की सहायता मिलती है । नक्सलवाद सामाजिक और सरकार के अत्याचार पीड़ितों से ही अपनी ताकत बढ़ाते हैं । अत: प्रयास यही होना चाहिए कि  अच्छी-अच्छी बातें नारों और भाषणों में ही नहीं हों उन्हें जमीन पर भी उतारा जाए । यह बात भी चिंताजनक है कि  मध्यप्रदेश के  छात्रों में नक्सली विचार का उन्माद फैलाया जा रहा है। इसके साथ यह भी ध्यान में रखना होगा कि  नर्मदा किनारे मंडला से आगे कई बड़ी परियोजनाएं आने वाली हैं । आम लोगों के  विस्थापन और पुनर्वास नीति पर पुनर्विचार बहुत    जरूरी है, क्योंकि  किसी भी समाज के विघटन के  बहुत दूरगामी दुष्परिणाम होते हैं ।
    छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले की  कहानी बहुत ताजी है और सभी को उसके बारे में विस्तार से पढ़ने को भी मिल रहा है। यहां यह उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के  वरिष्ठ नेता और सलवाजुडूम के संस्थापक  महेंद्र कर्मा सबसे पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से दो बार विधायक  रह चुके  थे । इसके बाद वे कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए थे ।
पर्यावरण समाचार
राजनीतिक दलों की प्राथमिकता नहीं है, पर्यावरण
    पिछले दिनों इन्दौर की प्रमुख सामाजिक संस्था सेवा सुरभि द्वारा क्यों नहीं सुधरता पर्यावरण विषय पर जाल सभागृह में परिसंवाद का आयोजन किया गया । परिसंवाद को प्रसिद्ध पर्यावरण कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह, पर्यावरण डाइजेस्ट के संपादक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित, झाबुआ के युवा पर्यावरण कार्यकर्ता नीलेश देसाई और एप्को के पूर्व निदेशक उदयराज सिंह ने संबोधित किया । 

    सामाजिक कार्यकर्ता अनिल त्रिवेदी ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि हमने जब से मनुष्य को प्रकृति से अलग किया है तभी से हमारा पर्यावरण बिगड़ा है । अपने संबोधन में डॉ. पुरोहित ने कहा कि मनुष्य को जब से पर्यावरण के मालिक होने का भ्रम हुआ तभी से यह बिगड़ना शुरू हुआ । पर्यावरण अपने आप नहीं बिगड़ता, पहले वातावरण बिगड़ता है, फिर आचरण बिगड़ता और अंत में पर्यावरण बिगड़ता है । इसलिये सुधार के लिये भी हम वातावरण और आचरण सुधारेंगे तो पर्यावरण अपने आप सुधर जायेगा । जब तक राजनीतिज्ञ पर्यावरण के मुद्दे को प्राथमिकता नहीं बनायेंगे तब तक देश का पर्यावरण नहीं सुधरेगा ।
    जल पुरूष राजेन्द्र सिंह ने कहा कि हम नीर, नारी और नदी के साथ समाज के रिश्तों को भुल गए है ।
    अतिथि स्वागत अरविन्द बागड़ी, मोहन अग्रवाल, कमल कमलवानी और मोहित सेठ ने   किया । स्मृति चिन्ह डॉ. ओ.पी. जोशी, मुकुंद कारिया, डॉ. जी.एस. नारंग और अवतारसिंह सैनी ने भेंट किए । संचालन संजय पटेल ने   किया । इस अवसर पर किस मौसम में कहां, कब और कौन से पौधे लगाए जाए, इस आशय की पुस्तिका और नो-हॉर्न प्लीज के स्टीकर जारी किए गए । कार्यक्रम संयोजक कुमार सिद्धार्थ ने आभार प्रकट किया ।

आंखो की कमजोरी से हो रहा २०३५०० करोड़ का नुकसान
    दुनिया के सबसे बड़े चश्मा निर्माताआें मे से एक एसिलॉर के चेयरमेन हबर्ट साग्नियर्स के अनुसार भारत में लोगों की आंख कमजोर होने के कारण देश को सालाना उत्पादकता में लगभग २०३५०० करोड़ रूपयों का नुकसान हो रहा है। 

    दृष्टिदोष के कारण  होने वाले सामाजिक आर्थिक प्रभाव के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने के लिए बैंगलोर में शुरू किए जा रहे वैश्विक संस्थान की शुरूआत के अवसर पर आए श्री साग्नियर्स ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अध्ययन का हवाला देते हुए उक्ताशय का दावा किया है । इस अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया है कि भारत में देश की जनसंख्या के आधा यानी ५५ करोड़ लोगों को नेत्र चिकित्सा की जरूरत है, लेकिन ये लोग इस ओर ध्यान नहीं देते । बहुत से मामलों में विशेषकर बच्चें के मामलों में उन्हें इस बात की जागरूकता ही नहीं है कि उन्हें नेत्र चिकित्सा की जरूरत है ।
    श्री साग्नियर्स ने बताया कि आंख कमजोर होने पर कुछ वर्षो तक तो मस्तिष्क इस कमी की पूर्ति कर देता है लेकिन एक समय के बाद समस्या मस्तिष्क के काबू के बाहर हो जाती है । इसका मतलब यह हुआ कि प्रारंभ में तो मस्तिष्क दृष्टि दोष की समस्या का मुकबला करता है लेकिन बाद में थक जाता है । नजरों की समस्या बच्च्े के परीक्षा परिणाम पर गंभीर एवं सीधा प्रभाव डालती है। इसके अलावा देश की कुल आबादी में से ४२ फीसदी कर्मचारियों, ४२ फीसदी वाहन चालकों एवं ४५ फीसदी वृद्धजनों को नेत्र चिकित्सा की आवश्यकता है ।