बुधवार, 14 अगस्त 2013



सोमवार, 12 अगस्त 2013

प्रसंगवश
बाघ संरक्षण के नाम पर मगर के आंसू
घनश्याम सक्सैना, भोपाल 
    मध्यप्रदेश मेंवाइल्ड लाइफ बोर्ड की मीटिंग जुलाई माह में दो बार स्थगित होने के बाद २९ जुलाई को हो पाई है । इसमें इस पर सहमति बनी है कि बांधवगढ़ नेशनल पार्क से चार बाघिनोंको पन्ना और दो बाघों को संजय गांधी नेशनल पार्क में शिफ्ट कर दिया जाएगा । सरकार मानकर चल रही है कि इससे ही बाघों का संरक्षण हो जाएगा ।
    वर्तमान में बाघ संरक्षण के लिए जितना पैसा और प्रौद्योगिकी हमारे पास है, उतनी ही बाघों की संख्या कम होती जा रही है । जंगल में जहां बाघ को तस्करों और शिकारियों से बचाना कठिन है, तो वहीं कोर्ट में शिकारी को सजा दिला पाना और भी कठिन । कहते हैं कि बाघ संरक्षण संबंधित प्राकृतिक पर्यावास के स्वास्थ्य का संकेतक है ।
    बाघ वही होंगे, जहां शाकाहारी वन्यप्राणियों का उसका प्रे-बेस यानी शिकार होगा । ऐसे प्रे-बेस के लिए एक भरा-पूरा जंगल, जल व प्रजनन योग्य पर्यावास चाहिए । अत: बाघ संरक्षण से पर्यावरण संरक्षण स्वत: हो जाता है । राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के लिए जहां खूब बजट आ रहा है, वहीं ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध हैं, जिनसे बाद्य के मूवमेंट पर नजर रखी जा सकती है, मगर अब तो यह जीपीएस गश्ती वन-रक्षकों की गतिविधि पर नजर रखने के लिए ज्यादा काम में आएगा कि वे अपनी बीट में सक्रिय है या नहीं ? एनटीसीए की गाइड लाइन-अनुसार राष्ट्रीय उद्यानों की दस किलोमीटर की परिधी में कोई औघोगिक गतिविधि नहीं होनी चाहिए, पर नवगठित बोर्ड की पहली बैठक के एजेंडे में अंडर-ग्राउंड माइनिंग लीज पर देने का बिन्दु था । स्थिति का व्यंग्य यह है कि इसकी शुरूआत कान्हा राष्ट्रीय उद्यान से होनी है । क्या इसमें टनेल बनाने के लिए खुदाई नहीं होगी ? ट्रक, मजदूर व मशीनरी की आवाजाही नहीं होगी ? क्या इससे वन्य जीवन में बाधा नहीं होगी ? कहते हैं कि यह कॉरीडोर में ही होगा । कॉरीडोर यानी दो संरक्षित क्षेत्रों के बीच का वनक्षेत्र, जिसे वन्यप्राणियों की निर्विध्न आवाजाही के लिए संरक्षित रखना है । जो बोर्ड वन्य जीवन हेतु निर्विध्न पर्यावास सुनिश्चित करके उसके संरक्षण हेतु सिफारिश करने के साथ ही संरक्षण कामों पर नजर रखने के लिए बना है ।
संपादकीय 
भविष्य में भारत में हो्रगी सबसे अधिक आबादी

       संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत वर्ष २०२८ तक चीन को पछाड़कर दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा ।
    रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में दुनिया की ७.२ अरब की आबादी वर्ष २०२५ तक आठ अरब के पार हो जाएगी । २५ साल बाद यानी २०५० तक ये आबादी और बढ़कर दस अरब से अधिक हो जाएगी ।
    रिपोर्ट में कहा गया है कि जनसंख्या में यह इजाफा मुख्य रूप से विकासशील देशों में होगा । जिन विकासशील देशों की आबादी फिलहाल पंाच अरब से ज्यादा है साल २०५० तक ये आंकड़ा आठ अरब के पार हो जाएगा । अफ्रीका, भारत, इंडोनेशिया, अमेरिका और फिलीपींस जैसे देशों की आबादी में इजाफा होगा ।
    इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष २०५० तक कई विकासशील देश ऐसे होंगे, जहां जनसंख्या वृद्धि अन्य देशों की तुलना में कम होगी । वहीं करीब ४९ विकासशील देश ऐसे होंगे, जहां की जनसंख्या ९० करोड़ से बढ़कर वर्ष २०५० में १.८ अरब तक पहुंच जाएगी । वर्ष २०५० तक नाइजीरिया की जनसंख्या अमेरिका की जनसंख्या से कहीं आगे निकल जाएगी । संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक  एवं सामाजिक मामलों के जनसंख्या प्रभाग के निदेशक जॉन विल्मॉथ ने कहा कि कुछ मामलों में, प्रजनन के वास्तविक स्तर में हालिया वर्षो में वृद्धि हुई है । अन्य मामलों में पूर्व के अनुमान बहुत कम थे ।
    भविष्य के संकेतों में कहा गया है कि अगले कुछ दशकों में प्रजनन दर में बदलाव का आबादी और जनजीवन पर दूरगामी एवं बड़ा असर पड़ सकता है । आने वाले वर्षो में विकसित और विकासशील देशों में जीवन प्रत्याशा  बढ़ने का अनुमान है । वैश्विक स्तर पर वर्ष २०४५-२०५० में यह ७६ साल और २०९५-२१०० में ८२ साल हो सकती है । सदी के अंत तक विकसित देशों में लोगों की औसत आयु ८९ साल और विकासशील देशों में औसत आयु ८१  साल होगी ।
सामयिक
संभव है हिमालय की रक्षा
भारत डोगरा

    अपने पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र से खिलवाड़ का नतीजा उत्तराखंड की तबाही से हमारे सामने  है । इस त्रासदी में देशभर के  लोग मारे गए हैं । ऐसे में आवश्यकता है कि विकास के इस नए स्वरूप पर राजनीतिक  दायरों के  बाहर भी विचार विमर्श हो ।
    हिमालय क्षेत्र हमारे देश का अत्यधिक  महत्वपूर्ण व संवेदनशील क्षेत्र है । इस क्षेत्र के संतुलित व टिकाऊ विकास के लिए नीतियां बहुत सावधानी से बनानी चाहिए। जल्दबाजी में अपनाई गई अनुचित नीतियां या निहित स्वार्थों के दबाव में अपनाई गई नीतियों के परिणाम हिमालयवासियों को व विशेषकर वहां के ग्रामीणोेंको भुगतने पड़े है ।  
     मैदानी कृषि में जो विसंगतिपूर्ण नीतियां अपनाई गई उन्हें पर्वतीय क्षेत्रों की ओर भी जबरदस्ती धकेलकर हिमालय की खेती की बहुत क्षति की गई है । इस कृषि से जहां महंगी रासायनिक खाद व कीटनाशक  दवाओं पर किसानों का खर्च बढ़ता है, वहीं पर्यावरण व स्वास्थ्य की बहुत क्षति भी होती है और परंपरागत कृषि की जैव विविधता भी नष्ट होती है । जबकि  हिमालय की कृषि में जैव विविधता को, तरह-तरह की फसलों को और उनकी किस्मों को बनाए रखना जरूरी है, क्योंकि  हिमालय की विभिन्न स्थितियां इसके अनुकूल भी हैं । विविध तरह के अनाज, दलहन, तिलहन, मसालों आदि को एक साथ बोना, तरह-तरह के स्थानीय फसल की किस्मा की जरूरत के अनुसार उगाना किसानों के लिए आर्थिक  दृष्टि से भी लाभप्रद है और पौष्टिक व स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध करवाने के  लिए भी अच्छा है । साथ ही इस तरह से जैव विविधता का जो संरक्षण होता है, वह व्यापक  राष्ट्रीय हित में भी है । पशुपालन में भी स्थानीय स्थितियों में जो पशुओं की देशीय नस्लें पनपती रही है, उनकी रक्षा करना जरूरी है ।
    वनों में भी जैव विविधता की रक्षा करने से दोहरा-तिहरा लाभ   मिलेगा । सच कहा जाए तो वनों में जैव विविधता की रक्षा के साथ स्थानीय आजीविका को किस तरह बढ़ाया जा सकता है, इसे अभी सही ढंग से प्रतिष्ठित ही नहीं किया जा सका है । इस बारे में तो कई समाचार मिलते रहते हैं कि  तस्करों ने किस तरह जड़ी-बूटियों को लूट कर बहुत पैसा कमा लिया । परन्तु संतुलित व टिकाऊ  ढंग से जड़ी बूटियों को, लघु वन उपज व अन्य पौध संपदा को हिमालय के गांववासियों की आजीविका का आधार व्यापक  स्तर पर कैसे बनाया जाए, ऐसी सफलता की कहानियां बहुत कम सुनने को मिलती हैं । संस्थाओं के छिटपुट प्रयास तो अपनी जगह है, परंतु बहुत व्यापक  सफलता नहीं है एवं इसके लिए सरकार की सहायता व सहयोग भी जरूरी है । वैज्ञानिकों विशेषकर वनस्पतिशास्त्रियों, औषधि वैज्ञानिकों व पोषण विशेषज्ञों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है ।
    साथ ही हमें विसंगति का सामना भी करना पड़ेगा कि वनों के  प्रति जो व्यापारिक  रुझान की नीतियां अपनाई गई हैं उससे प्राकृतिक वनों की  जैव विविधता की कितनी गंभीर क्षति हुई है । वन नीति के व्यापारीकरण की यह नीति ब्रिटिश राज के दिनों में ही आरंभ हो गई थी पर आजादी के बाद इसे रोकने के  स्थान पर इसे और आगे बढ़ाया गया ।  कई क्षेत्रों में यह इस रूप में प्रकट हुई कि  चौड़ी पत्ती के पेड़ कम होते गए व चीड़ जैसे शंकुधारी पेड़ बढ़ते गए ।
    चौड़ी पत्ती के पेड़ चारे  के   लिए भी उपयोगी होते हैं और इसकी हरी पत्तियोंसे खेतों के लिए बहुत अच्छी खाद भी मिल जाती है । अन्य लघु वन उपज के लिए भी ये उपयोगी हैं ।  दूसरी ओर हर जगह चीड़ छा जाएगा तो यह न स्थानीय लोगों के लिए अच्छा है, न पशुपालकों के  लिए और न ही किसानों के लिए । वन नीति का यह प्रयास होना चाहिए कि वन अपनी प्राकृतिक स्थिति के नजदीक  रहें यानि मिश्रित वन हों । यदि इस तरह की जैव-विविधता नहीं होगी व केवल चीड़ छा जाएंगे तो जमीन के नीचे उनकी जड़ों को जमने में कठिनाई होगी और यह पेड़ भी हलके से आंधी-तूफान भी आसानी से गिरने लगेंगे जैसा कि  अभी हो भी रहा है ।
    हिमालय के अनेक क्षेत्रों में अत्यधिक  व अनियंत्रित खनन से वनों की भी बहुत क्षति हुई है व खेती-किसानी की भी  । इस खनन से अनेक  स्थानों पर भू-स्खलन व बाढ़ की समस्या को विकट किया है  व अनेक  गांवांे के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है ।
    वन-कटान, खनन, अत्यधिक निमार्ण कार्य में विस्फोटकों के बहुत उपयोग से हिमालय की अच्छी भली  भू-निर्माण स्थिति बहुत अस्त-व्यस्त होती है । इस तरह भू-स्खलन व बाढ़ का खतरा बढ़ता है और भूकंप में होने वाली क्षति की संभावना बढ़ती है । हिमालय का भूगोल ही ऐसा है यहां ऐसी आपदा की संभावना बढ़ेगी तो उसका असर दूर-दूर के मैदानी क्षेत्रों में भी पड़ेगा ।
    इस संभावना को ध्यान में रखते हुए व जैव विविधता संरक्षण से हिमालय की विशेष भूमिका को भी ध्यान में रखते हुए भी केंद्रीय सरकार को हिमालय क्षेत्र के सभी राज्यों को पर्यावरण रक्षा के अनुकूल विकास नीतियां बनाने के लिए अलग से विशेष अनुदान देना चाहिए । इस बजट का विशेष महत्व इस ओर होना चाहिए कि पर्यावरण की रक्षा और आजीविका की रक्षा का आपसी मेल करते हुए हिमालय के  टिकाऊ  और संतुलित विकास को आगे बढ़ाया जाए ।
    इस समय हिमालय क्षेत्र में सबसे बड़े विवाद का मुद्दा यहां की बांध परियोजनाएं बनी हुई हैं । पूरे हिमालय क्षेत्र में सैकड़ांे बांध बनाए जा रहे हैं  जिससे यहां के हजारों गांव तरह-तरह से संकटग्रस्त हो रहे हैं । यदि इन सब परियोजनाओं को समग्र रूप से देखा जाए तो ये गांव समुदायों व पर्यावरण सभी के लिए बहुत खतरा है व अनेक आपदाओं की विकटता इनके कारण बहुत बढ़ सकती है  । पर ऐसा कोई समग्र मूल्यांकन पूरे हिमालय के क्षेत्र के लिए तो क्या किसी एक राज्य या नदी घाटी के लिए भी नहीं  किया गया । बड़ी कंपनियों से जल्दबाजी में सौदेबाजी की गई व गांव समुदायों से कुछ पूछा तक नहीं गया ।
    हिमालय की रक्षा और लोकतंत्र की रक्षा दोनों की मांग यह है कि इन बांध परियोजनाओं पर नए सिरे से पुनर्विचार किया जाए । स्थानीय गांववासियों से व्यापक  विचार-विमर्श करना चाहिए कि किस तरह से कितना पनबिजली उत्पादन गांवों को व नदियों को क्षतिग्रस्त किए बिना हो सकता है । इस हेतु स्थानीय सहयोग व सहमति से ही यह कार्य होना चाहिए  ।
    इसी तरह पर्यटन के कार्य में गांववासियों की आजीविका से जुड़कर कार्य करना चाहिए व इसमें पर्यावरण की रक्षा का भी ध्यान रखना चाहिए । पर्यटन में भी स्थानीय गांववासी केवल निचले स्थान पर न हों अपितु उन्हें गरिमा व सम्मान की भूमिका मिले । वन्य जीव रक्षा के लिए लोगां को उजाड़ना कतई जरूरी नहीं है अपितु सही योजना बने तो वन्य जीव रक्षा में स्थानीय गांववासियों को आजीविका के  अनेक नए  स्त्रोत मिल सकते है । 
हमारा भूमण्डल
वैश्वीकरण : गरीब का और गरीब होना
रमेश जौरा

    वैश्वीकरण के आर्थिक लाभों का ढिंढोरा पीटने वालों के लिए विश्व के  समृद्धतम ३४ देशों के  संगठ न द्वारा तैयार यह रिपोर्ट आंखें खोलने वाली है । इसमें स्पष्ट दर्शाया गया है कि  वैश्वीकरण का लाभ बहुत सीमित वर्ग को मिला है। चीन जहां इससे अत्यंत लाभान्वित हुआ है वहीं दूसरी ओर भारत जैसे देशों में अत्यंत निर्धनों की संख्या में वृद्धि हुई है ।
    क्या वैश्वीकरण से विकास होता है ? यदि आप ओईसीडी की रिपोर्ट को खंगालेंगे तो पाएंगे कि वर्तमान वित्त व्यवस्था के धराशायी होने के पहले से ही जोखिम में पड़े लोग अधिक  संकट में आ गए हैं और कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण अमीर को और अमीर तथा गरीब को अधिक गरीब बनाने में मददगार रहा है । इस नए अध्ययन के मुताबिक सन् २०११ में निर्धनतम देश सन् १९८० के मुकाबले ज्यादा गरीब हो गए हैं और यहां की अधिकांश आबादी एक डॉलर प्रतिदिन से कम पर गुजारा कर रही है । इस रिपोर्ट को जिन ३४ देशों के संगठन ने तैयार किया है  वे मुख्यतया औद्योगिक एवं कुछ उभरती अर्थव्यवस्थाएं हैं । जहां कुछ देश इनका अनुकरण कर रहे हैं वहीं तमाम देश अंतर्राष्ट्रीय बाजारों के खुल जाने से कमजोर हुए हैं । विश्व में दारुण गरीबी अभी भी कुछ क्षेत्रों में पाई जाती है ।  अनेक  देशों में असमानताएं बढ़ी हैं । गौरतलब है कि वैश्वीकरण भी तभी विकास में सहायक होता है जबकि विशिष्ट राजनीतिक परिस्थितियां विद्यमान हों ।


     इस अध्ययन का शीर्षक है, ``आर्थिक वैश्वीकरण : उद्गम एवं परिणाम`` इसके लेखक वैश्वीकरण से जुड़ी दो कहानियां प्रस्तुत करते हैं । ``बारह बरस पहले, व्यावसायिक  सौंदर्य
प्रसाधन विशेषज्ञ सिलाव एवं उनकी साझेदार नीनो उत्तरपूर्वीब्राजील के ग्रामीण प्रांत को छोड़कर साओ पाअलो के उपनगर में बस गई । दो दशक की राष्ट्रीय आर्थिक   स्थिरता एवं निरंतर वृद्धि के परिणामस्वरूप पिछले १० वर्षों में  इस अंचल की बेरोजगारी दर में आश्चर्यजनक  गिरावट देखने में आई । यह सफलता ब्राजील की अर्थव्यवस्था द्वारा अंतरराष्ट्रीय बाजार में घुसपैठ की वजह से मिली  । पिछले २० वर्षों में ब्राजील की अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भागीदारी दुगनी हो गई है । इससे अनेक  परिवारों को रोजगार मिला एवं उनकी क्रयशक्ति में भी वृद्धि हुई । उनका कहना है ``हमारे पास पहले की बनिस्बत काफी अधिक  अवसर हैं ।`` आज उनके पास एक छोटी कार, मोबाइल और स्वास्थ्य बीमा भी है । वे अब पुन: विद्यालय जाकर नर्सिंग की पढ़ाई  करना चाहती है । वह  कहती हैं, ``मुझ में अब अधिक आत्मविश्वास है और भविष्य हम पर मुस्करा रहा है ।``
    ठीक इसी समय माली की राजधानी बामाको से २५० किलोमीटर दूर एक किसान याकोबा त्राओरे मालिअन टेक्सटाइल डेवलेपमेंट कंपनी की शिकायत कर रहा है । यह कंपनी माली के कपास उत्पादकों एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार के  मध्य का कार्य करती है । उनका कहना है कि ``गत वर्ष उन्होंने मुझे प्रति किलो कपास के बदले २१० फ्रेंक दिए थे । लेकिन  इस  वर्ष केवल १५० फ्रेंक ही दिए । अच्छी गुणवत्ता के बावजूद माली की कपास विकसित देशों के  किसानों द्वारा उत्पादित कपास का मुकाबला नहीं कर सकती, क्योंकि  उन्हें सब्सिडी नहीं मिलती । इसी सब्सिडी की वजह से अमीर देशों के किसान विलासितापूर्ण जीवन जी पाते हैं ।
    खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों ने स्थितियों को और भी बद्तर बना दिया  । आयातित चावल जो कि स्थानीय चावल से भी सस्ता है का मूल्य २५० फ्रेंक से बढ़कर ३५० फ्रेंक प्रति किलोे हो गया  । छ: बच्चें के पिता याकोबा का कहना है, ``मेरी कमाई दिनोंदिन कम होती जा रही है, जबकिमहंगाई लगातार बढ़ रही है । किसी आश्चर्य के चलते ही मैं अगले वर्ष अपने दो छोटे बच्चें को विद्यालय भेज पाऊंगा ।``
    ये वैश्वीकरण के दो चेहरे हैं । एक में अंतर्राष्ट्रीय बाजार के खुलने से खुशहाली आई तो दूसरे में दुर्दशा । शोधकर्ताओं का कहना है  कि ``विकास के संबंध में वैश्वीकरण के प्रभाव को समझने के दो तरीके हैं, देशों पर पड़ने वाला कुल प्रभाव एवं देश के भीतर रह रही जनसंख्या पर विकास का अध्ययन  ।``  वे स्पष्ट  कहते हैं, ``निश्चित तौर पर देश का विकास जनसंख्या के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, लेकिन यह जुड़ाव स्वमेव ही नहीं हो जाता । वैश्वीकरण की वजह से विकासशील देश भी समृद्ध देशों के समकक्ष आने के प्रयास में हैं । लेकिन विश्व जनसंख्या में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई और चौड़ी हो गई है ।
    इसके बावजूद पिछले २० वर्षों के तेज वैश्वीकरण के चलते अत्यंत दरिद्रता में विश्वव्यापी कमी आई  है । सन् १९९० से एक डॉलर से कम पर गुजारा करने वालों की संख्या में २० प्रतिशत यानि  ५० करोड़  व्यक्तियों  की कमी आई  है । तथा इनकी कुल हिस्सेदारी ३१ प्रतिशत से घटकर १९ प्रतिशत पर आ गई  है, लेकिन  इस संख्या में सर्वाधिक योगदान चीन के बेहतर नतीजों काहै । पिछले १५ वर्षों  में चीन की प्रति व्यक्ति  आय में अन्य विकासशील देशों के  मुकाबले ज्यादा तेजी से वृद्धि हुई है । सन् १९८१ में जहां चीन में ८३.३०  करोड़ चीनी १.२५ डॉलर प्रतिदिन से कम पर रह रहे थे वहीं यह संख्या अब ``महज`` २०.८० करोड़ रह गई है । हालांकि ``विश्व का कारखाना`` पूरी क्षमता से चल रहा है, लेकिन जरूरी नहीं है कि इससे इसके पड़ौसी भी खुश हों,  क्योंकि  कई अन्य देशों में गरीबी घटने के बजाए बढ़ रही  है ।
    यदि दक्षिण एशिया को लें तो यहां  ऊंची विकास दर के बावजूद गरीबी में रहने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई  है  । भारत की दरिद्र जनता का उदाहरण लें । इनकी संख्या १५ वर्षों की इसी अवधि में ३.६ करोड़ बढ़ गई है । हालांकि  कुल जनसंख्या में वास्तव में गरीबी ५८ प्रतिशत से घटकर ४२ प्रतिशत पर आ गई है । इसके बावजूद भारत के लाखों लाख लोग अभी भी १.२५ डॉलर प्रतिदिन और ७५ प्रतिशत लोग २ डॉलर प्रतिदिन से कम पर गुजारा कर रहे हैं ।
    दूसरा मामला उप सहारा अफ्रीका का  है । यह अभी विकास के नाम पर पिछड़ा हुआ है । पिछले ३० वर्षों से यहां की पूरी ५० प्रतिशत आबादी गरीबी में रह रही है  । एक शोध का मानना है कि हमेशा से ऐसा नहीं था । सन् १९७० में विश्व के ११ प्रतिशत अत्यंत गरीब अफ्रीका में रहते थे बनिस्बत ७० प्रतिशत एशिया के । लेकिन पिछले ३० वर्षों में यह अनुपात एकदम उल्टा हो गया है । यानि विश्व के कुछ क्षेत्र अधिक  गरीब हुए हैं ।
    इस अध्ययन मेंयह भी स्वीकार किया गया है कि वैश्वीकरण से सभी विकासशील देश लाभान्वित नहीं हुए हैं  । अनेक देश पिछले २० वर्षों से एक ही जगह स्थिर हैं  । सन् २००६ में विश्व के पर ४२ देशों की प्रतिव्यक्ति  आय ८७५ डॉलर से अधिक नहीं थी । इनमें ३४ देश उप सहारा अफ्रीका (मेडागास्कर, गुइनिआ गणराज्य, कांगो) में, ४ लेटिन अमेरिका में (बोलिविया, गुयाना, होंडुरास निकारागुआ) एवं एशिया में तीन (म्यांमार, लाओस, वियतनाम शामिल हैं । ४९ कम विकसित देशों में संयुक्त राष्ट्र संघ की परिभाषा के अनुसार, बांग्लादेश, यमन और हैती शामिल हैं ।
स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
समाज, प्रकृति और पर्यावरण
शैलेन्द्र चौहान

    जैसे-जैसे यह दुनिया अन्योन्याश्रितता की ओर बढ़ रही है वैसे-वैसे हमारा भविष्य और मजबूत तथा जोखिम भरा भी होता जा रहा है । यह सही है कि हम सब लोग इस दुनिया में मिलकर काम कर रहे हैं पर साथ ही साथ हम पर्यावरण के लिए खतरे भी पैदा कर रहे हैं । हमे खुद को आगे विकसित करते हुए इन खतरों को पैदा होने से रोकना है और समाज को एक मानव संवेदी परिवार बनाकर चलना हैं । हमें अपने इस विकास-क्रम में आत्मनिर्भर समाज, प्रकृतिके प्रति सम्मान, मानव अधिकारों की रक्षा, आर्थिक न्याय, श्रम का महत्व, शांति जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों का भी ध्यान रखना है । यह जरूरी है कि हम समाज तथा आने वाली पीढ़ियों के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को समझें । 
   पृथ्वी सम्पूर्ण मनुष्य जाति एवं जीवों का निवास स्थान है । यह एक मात्र ऐसा ग्रह है जहॉ जीवन हैं । ज्ञातव्य है कि यह जीवन प्रकृति की वजह से है । प्रकृति ही मनुष्य जाति के लिए जीने के साधन जुटाती रही हैं । प्रकृति ही मनुष्य जाति का पालन करने के लिए पृथ्वी पर साफ पानी, साफ हवा और वनस्पति तथा खनिज उपलब्ध कराती हैं । आज वही प्रकृति और पर्यावरण खतरे में हैं । वस्तुआें के अंधाधंंुध उपभोग और उत्पादन के हमारे वर्तमान तौर-तरीकों से पर्यावरण नष्ट हो रहा है, जीव लुप्त् होते जा रहे हैं । मनुष्य जाति में आपस में प्रतिद्वंदिता छिड़ गई हैं । शक्तिशाली गुट शक्तिहीन गुटों को नष्ट करने पर तुले हुए हैं । अमीर गुट गरीब गुटों के दुश्मन हो गए हैं । अमीर और गरीबी की दूरी बढ़ती जा रही हैं । गरीब विकास का हिस्सा नहीं बन पा रहे हैं । अमीरी और गरीबी के इस टकराव में सारे अधिकार अमीरों के पास सुरक्षित हो गए हैं । गरीब अधिकारहीन हैं । इससे जो सामाजिक बुराइयाँ पैदा हुई है वे ही पर्यावरण तथा मनुष्य जाति के लिए खतरा बन गई हैं । ये बुराइयाँ है  - अन्याय, गरीबी, अशिक्षा तथा हिंसा । इन बुराइयों को समाप्त् करने की आवश्यकता है ।
    एक-दूसरे की रक्षा करने का संकल्प लेना अब हमारे लिए बहुत आवश्यक हो गया है । यदि हमने अभी यह निर्णय नहीं लिया तो पृथ्वी पर हम तो नष्ट होंगे ही, साथ ही अपने साथ अन्य जीवों, पशु-पक्षियों के नष्ट होने का खतरा भी बढ़ाते जाऍगे । इस खतरे का टालने के लिए हमेंअपने रहन-सहन में बदलाव लाना होगा और अपनी आवश्यकताआें को सीमित करना   होगा । वन्य प्राणियों का शिकार, उन्हें जाल में फॅसाना, जलीय जीवों को पकड़ना ये सभी क्रूरतापूर्ण कार्य दूसरे जीवों को कष्ट देते हैं, इन्हें रोकना     होगा  । वैसे प्राणी जो लुप्त् प्राणियों की श्रेणी में नहीं हैं, उन प्राणियों की भी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है ।
    विकास का अर्थ हमें सम्पूर्ण मानव जाति की मौलिक आवश्यकताआें की पूर्ति से लेना होगा । आज हमारा विज्ञान आज इतनी तरक्की कर चुका है कि पृथ्वी को नष्ट करने वाली शक्तियों पर रोकथाम लगाने के साथ हम सभी की आवश्यकताआें को भी पूरा कर सकता है । अत: हमें अपनी योजनाआें को लोकोन्मुखी और लोकतांत्रिक बनाना होगा । हमारे सभी कार्यक्रम लोकोन्मुखी होने चाहिए । हम सभी की चुनौतियाँ आपस में एक-दूसरे से जुडी हुई हैं, जैसे - पर्यावरणिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक चुनौती । इसलिए हम सबको मिलकर इसका हल निकालना होगा ।
    इन अपेक्षाआें को पूरा करने के लिए सार्वजनिक उत्तरदायित्व की भावना विकसित करनी आवश्यक है । हमें स्थानीय समाज के साथ-साथ वैश्विक समाज के साथ भी अपने रिश्ते को पहचानना होगा । एक राष्ट्र के साथ-साथ हम लोग एक विश्व के भी नागरिक हैं तथा विश्व और इस विश्व के विशाल जीव-जगत के प्रति हर व्यक्ति का अपना उत्तरदायित्व हैं । ब्रह्मांड के रहस्य और प्रकृति द्वारा दिए जीवन के प्रति सम्मान तथा मानवता और प्रकृति मेंमानव की गौरवपूर्ण उपस्थिति के प्रति कृतज्ञता का भाव रखने पर आपसी भाईचारा और बन्धुत्व की भावना और मजबूत होती  है । यह बहुत आवश्यक है कि मौलिक सिद्धांतों में आपसी तालमेल हो जिससे आनेवाले समाज को एक नैतिक आधार मिले । हम सभी को एक ऐसे सिद्धांत पर केन्द्रित होना होगा जो जीवन स्तर में समानता लाए, साथ ही उससे व्यक्तिगत, व्यावसायिक, सरकारी एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों को भी दिशा निर्देश मिले और उनका आकलन हो सके । पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवधारियों का जीवन एक-दूसरे से जुड़ा है और हम एक दूसरे के बिना नहीं जी सकते । यहॉ रहने वाले छोटे-बड़े सभी जीव महत्वपूर्ण हैं । किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है । निर्बल, उपेक्षित हर मनुष्य के स्वाभिमान की रक्षा करनी होगी । उनकी बौद्धिक, कलात्मक, सांस्कृतिक और विवेकशील क्षमताआें पर विश्वास करना होगा ।
    प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व प्रबंधन तथा प्रयोग के अधिकारोंको प्रयोग करने से पहले यह तय करना होगा कि पर्यावरण को कोई नुकसान न पहुँचे और जनजाति एवं आदिवासी समुदायों के लोगों के अधिकारों की रक्षा करें । समाज में मानव अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए ।  हर व्यक्ति को विकास का अवसर प्राप्त् होना चाहिए । सामाजिक तथा आर्थिक न्याय को बढ़ावा मिले तथा हर किसी के पास स्थाई और सार्थक जीविका का ऐसा आधार हो जो पर्यावरण को नुकसान ना पहुॅचाए । हमारा हर कार्य आने वाली पीढ़ी की आवश्यकताआें को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए । आने वाली पीढ़ी को उन मूल्यों, परम्पराआें और संस्थाआें के बारे में जानकारी देनी होगी जिससे मानव और प्रकृतिके बीच सामंजस्य स्थापित हो सके । उपभोग सामग्री में कमी लाना बहुत जरूरी है ।
    चिरस्थाई विकास की उन सभी योजनाआें और नियमों को अपनाया जाना चाहिए जो हमारे विकास में सहायक हैं तथा जिनसे पर्यावरण की रक्षा होती हैं । पृथ्वी के सभी जीवों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है । साथ ही वन्य व समुद्री जीवों की रक्षा भी आवश्यक है ताकि पृथ्वी की जीवनदायिनी शक्तियों की रक्षा हो      सके । पशुआें की समाप्त् हो चुकी प्रजातियों के अवशेषों की खोज को हमें बढ़ावा देना है । प्राकृतिक प्रजातियों तथा वातावरण को नुकसान पहुॅचाने वाले कृत्रिम परिवर्तन तथा कृत्रिम प्रजातियों के विकास पर रोक लगनी चाहिए । जल, मिट्टी, वन्य संपदा, समुद्री प्राणी ये सब ऐसे संसाधन हैं जिन्हें आवश्यकतानुसार प्रयोग में लाया जा सकता है, फिर भी इन्हें सोच समझकर प्रयोग में लाया जाना चाहिए जिससे ना तो ये नष्ट हो और ना ही पर्यावरण को कोई नुकसान पहुॅचे । हमें खनिज पदार्थो तथा खनिज तेल का उत्पादन भी सोच समझकर करना होगा । ये पदार्थ धरती के अन्दर सीमित मात्रा में हैं और इनका समाप्त् होना भी मानव जाति के लिए खतरनाक है । हमारा यह कर्तव्य है कि हम मिट्टी की उपजाऊ शक्ति की रक्षा करें और पृथ्वी की सुन्दरता को बनाए रखें ।
    वैज्ञानिक पद्धतियों की जानकारी के अभाव के बावजूद पर्यावरण को किसी भी प्रकार की हानि से बचाना बहुत आवश्यक है । यदि आपका कार्य पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं है तो इसके लिए आपके पास ठोस सबूत होने चाहिए और यदि आप द्वारा किया जा रहे कार्य ने पर्यावरण को नुकसान पहुॅचाया तो इसकी जिम्मेवारी आपकी होगी । हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि हमारे द्वारा लिए गए निर्णयों का सम्बन्ध मनुष्य द्वारा किए गए कार्यो से हो । इन निर्णयों का प्रभाव लम्बे समय तक के लिए लाभकारी होना चाहिए । पर्यावरण को दूषित करने वाले साधनों पर रोक लगनी चाहिए तथा विषैले पदार्थ, विकिरण और प्रकृति के लिए हानिकारक तत्वों व कार्यो के निर्माण पर भी पाबन्दी लगनी चाहिए । ऐसी सैनिक कार्यवाही पर भी रोक लगानी होगी जो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते हैं । उत्पादन, उपभोग के दौरान काम आने वाले सभी घटकों का उपयोग हो सके और इस दौरान जो अवशेष निकले वह प्रकृति के लिए नुकसान पहुॅचाने वाला सिद्ध ना हो । ऊर्जा के प्रयोग में हमें सावधानी बरतनी होगी ।
    हमें सूर्य और वायु जेसे ऊर्जा के साधनों के महत्व को जानना होगा । ये ऐसे साधन हैं जिनका उपयोग बार-बार किया जा सकता है । हमें उन तकनीकों के विकास, प्रयोग और प्रचार को महत्व देना होगा जो पर्यावरण की रक्षा में उपयोगी हो सके । वस्तुआें और सेवाआें की कीमतों में उनके सामाजिक तथा पर्यावरणिक सुरक्षा से जुड़े खर्चो को भी शामिल करना होगा जिससे उपभोक्ताआें को इस बात का अहसास हो सके कि इन वस्तुआें और सेवाआें की उपलब्धता में पर्यावरणीय और सामाजिक कीमतें चुकानी पड़ती हैं । स्वास्थ्य कल्याण और सुरक्षा से संबंधित सेवा सबके लिए उपलब्ध होनी चाहिए । हमें ऐसी जीवन पद्धति को चुनना होगा जो हमारे जीवन स्तर को बेहतर बनाए और प्रकृति की भी रक्षा करें ।
    अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विज्ञान और तकनीक में सुचारू सम्बन्ध होना, प्रत्येक देश का विकास होना और उनकी आत्मनिर्भरता में बढ़ोतरी आवश्यक है । विकासशील देशों के लिए यह और  भी आवश्यक है । सभी देशों की संस्कृति और स्वायत्तता को सुरक्षित रखना है । इससे पर्यावरण और मानव हितों की रक्षा होती है । इस बात की भी कोशिश करनी होगी कि स्वास्थ्य, पर्यावरण सुरक्षा और आनुवांशिकता से जुडी आवश्यक ओर लाभदायक जानकारी लोगों को मिलती रहे । सुनिश्चित करना होगा कि शुद्ध जल, शुद्ध वायु, भोजन, घर और सफाई जैसी सुविधाएँ सभी के लिए हों । विकासशील देशों में शिक्षा, तकनीक, सामाजिक और आर्थिक संसाधनों का निरंतर विकास होना चाहिए तथा उन्हें भारी अंतर्राष्ट्रीय कर्जोंा से मुक्ति मिलनी चाहिए ।
    हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि सभी प्रकार के व्यापार में प्राकृतिक संसाधनों के पुन: इस्तेमाल के महत्त्व को समझा जाए । यदि ऐसे व्यापारों में श्रमिकों से काम लिया जा रहा है तो श्रम नीतियाँ लागू  हों । बहुरष्ट्रीय कम्पनियों और अंर्तराष्ट्रीय आर्थिक संगठनों को सार्वजनिक हित के काम में आगे आना चाहिए । उनके कामों मेंे पारदर्शिता होनी चाहिए । राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ईथ का समान रूप से विभाजन अपेक्षित है । सभी को शिक्षा और आजिविका के साधन मिलने चाहिए तथा उन्हें सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान की जानी चाहिए विशेषकर जो इन्हें प्राप्त् करने में असमर्थ हैं । उपेक्षित, प्रताड़ित और पीड़ित वर्ग की क्षमताआें को विकसित करना है  ।
    महिलाआें और लड़कियों को मानव अधिकारों से अलग नहीं किया जा सकता । उनके खिलाफ हो रहे सभी प्रकार के अत्याचारों को रोकना       होगा । महिलाआें को पुरूषों के बराबर आर्थिक, सामाजिक राजनैतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने को प्रोत्साहित करना होगा । परिवार के सभी सदस्यों के बीच सुरक्षा और प्रेम भावना का विकास करते हुए परिवार की संकल्पना को मजबूत करना होगा । जाति, रंग, लिंग, धर्म, भाषा, राष्ट्र और सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर उपजे भेदभाव को समाप्त् करना होगा । हमें आदिवासियों के रहन-सहन, जीविका प्राप्त् करने के तौर-तरीकों, भूमि सम्बन्धी अधिक ारों और धार्मिक धारणाआें को स्वीकार करना होगा ।
    समाज के युवा वर्ग की भावनाआें को सम्मान और प्रोत्साहन देना जिससे कि वे एक स्वस्थ और आत्मनिर्भर समाज के निर्माण में अपना योगदान दे सकें । सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक महत्व के सभी स्थानों की सुरक्षा और रख-रखाव की जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी । सबको पर्यावरण सम्बन्धी व सभी प्रकार की विकास योजनाआें तथा प्रक्रियाआें की सम्पूर्ण जानकारी दी जानी चाहिए । स्थानीय, क्षेत्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर नागरिकों के उत्थान के लिए प्रयास किये जाने    चाहिए  । विचारों की अभिव्यक्ति, किसी बात पर असहमत होने तथा शांतिपूर्ण सभा करने का अधिकार सभी को मिलना चाहिए । कुशल प्रशासन तथा स्वतंत्र न्याय प्रणाली की स्थापना जरूरी है । वातावरण को प्रदूषण से बचाने और उसके सुधार का प्रयत्न भी आवश्यक  है । सभी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाआें से भ्रष्टाचारमुक्त होना होगा । स्थानीय समुदायों को मजबुत बनाना होगा ताकि वे अपने आसपास के पर्यावरण के प्रति जागरूक रह सकें । सभी को, विशेषकर बच्चें और युवाआें को शिक्षा के अवसर देने  होंगे तभी हमारा समाज आत्मनिर्भर हो सकेगा । विभिन्न कलाआें और विज्ञान का लाभ रोजगारोन्मुखी शिक्षा को मिल सकें, इसकी व्यवस्था करनी होगी । सामाजिक और पर्यावरणिक चुनौती के प्रति जागरूकता के लिए संचार माध्यमों की मदद लेनी होगी । नैतिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा के बिना हम आत्मनिर्भर नहीं हो सकते, इस बात को भी ध्यान में रखना होगा ।
    अपने देश और दूसरे देशों में रहने वाले भिन्न-भिन्न संस्कृति एवं धर्मों के लोगों के बीच सौहार्द, एकता और सहकारिता की भावना को बढ़ावा देना होगा । हिंसात्मक टकराव को रोकने के लिए ठोस पहल करनी होगी । पर्यावरण की रक्षा पर आम राय बनानी होगी । सैनिक संसाधनों का प्रयोग शांति के लिए होना चाहिए । पारिस्थिकी के पुनर्निर्माण में भी इसका उपयोग हो सकता है । आणविक व जैविक अस्त्रों जैसे विध्वंसक और वातावरण में विष फैलाने वाले अस्त्रों पर रोक लगनी चाहिए । पृथ्वी व आकाश का प्रयोग पर्यावरण की सुरक्षा और शांति के लिए होना चाहिए । हमें यह मालूम होना चाहिए कि शांति एक सम्पूर्ण प्रक्रिया है । स्वयं की खोज आवश्यक है और यही खोज जब दूसरे लोगों की ओर, दूसरी संस्कृति की ओर, दूसरे जीवधारियों की ओर बढ़ती है और जब पूरी पृथ्वी से हमारा एक जीवंत रिश्ता बन जाता है तो शांति का प्रारंभ होता है । यह एक नई शुरूआत है । सुखद भविष्य के लिए हमें उन सभी मूल्यों और आदर्शो को अपनाना होगा ।
बहस
कोयला : खनिज या जैव संसाधन
ज्योतिका सूद

    मध्यप्रदेश की  एक  ग्रामीण जैव विविधता प्रबंधन समिति ने कोयले को जैव संसाधन बताते हुए रायल्टी की मांग की है । इसके बाद यह बहस तीव्र हो गई है कि कोयला अंतत: क्या है । इसका निर्धारण अपने आप में जटिल एवं विवादास्पद भी है  । फिलहाल उम्मीद है कि जुलाई के दूसरे हफ्ते में यह स्पष्ट हो सकता है कि  भारत में कोयला खनिज है या जैव संसाधन । 
    मध्यप्रदेश की एक जैव विविधता समिति द्वारा कोल इंडिया लिमिटेड की सहायक कंपनी से दो प्रतिशत रायल्टी की मांग को लेकर राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल  ने केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय एवं कोल इंडिया लिमिटेड को नोटिस जारी किया है । छिंदवाड़ा जिले में इकलेहरा पंचायत  जहां गांव की जैव विविधता प्रबंधन समिति सक्रिय है, ने जैव विविधता अधिनियम के प्रावधानों के तहत इन खदानों तक पहुंच एवं लाभ के बटवारे की मांग की है ।
    जैव विविधता प्रबंधन समितियां ऐसी इकाई है जिन्हें जैव विविधता अधिनियम के अंतर्गत पंचायत, मंडल या नगर पालिका स्तर पर गि त किया जाता है । जैव विविधता अधिनियम के अनुसार जैव विविधता प्रबंधन समितियों को अधिकार है कि वे अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले क्षेत्रों में विद्यमान जैव संसाधनों के व्यापारिक इस्तेमाल करने वाले एवं इस क्षेत्र में प्रवेश करने वाले व्यक्ति  से लेवी के रूप में शुल्क वसूल सकती है ।
    इस वर्ष मई मे इकलेहरा पंचायत ने राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल की भोपाल पीठ  में याचिका दायर करते हुए कहा कि चूंकि कोयला जैव संसाधन है, अतएव वेस्टर्न कोल फील्ड अपने राजस्व के एक भाग की हिस्सेदारी पंचायत से करे । इकलेहरा के सरपंच और जैव विविधता प्रबंधन समिति के अध्यक्ष बैजनाथ चौरसिया ने बताया कि   वैस्टर्न कोल फील्ड ने वर्ष २०१२-१३ में १,४७० करोड़ रुपए का एवं गत वर्ष १,२३० करोड़ रुपए का राजस्व एकत्रित किया था ।
    याचिकाकर्ता का तर्क है कि जैव विविधता अधिनियम की धारा २ (सी) के अंतर्गत पेड पौधों, जानवरों एवं सूक्ष्म जीवों को जैविक संसाधन माना है  । चूंकि कोयला  प्राकृतिक रूप से पेड़ों द्वारा बनता है अत: यह जैव संसाधन है । जैव विविधता अधिनियम के अंतर्गत जैविक संसाधनों के व्यावसायिक इस्तेमाल में, दवाइयां, औद्योगिक इन्जाइम, खाद्य, सुगंध, सौंदर्य प्रसाधन, रासायनिक मिश्रण, जंगली जैतून, रंग, सत् एवं जीन के हस्तक्षेप से फसल एवं पशु धन में सुधार भी आते हैं ।  इसमें परंपरागत तरीके से बीज उत्पादन करना एवं कृषि की पारंपरिक पद्धतियां, मुर्गीपालन, डेरी व्यवसाय, पशुपालन या मधुमक्खी पालना नहीं आता ।
    अपनी याचिका में जैव विविधता प्रबंधन समिति ने आरोप लगाया है कि राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकारी के गठन के १० वर्ष पश्चात और मध्यप्रदेश राज्य जैव विविधता बोर्ड के  गठन के  ७ वर्षों के पश्चात भी इन दोनों ने जैव विविधता के व्यापारिक इस्तेमाल और न ही लाभ में हिस्सेदारी को लेकर जैव विविधता प्रबंधन समितियों से कोई बातचीत भी की है । इससे भी बुरी बात यह है कि  राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकारी ने अभी तक लाभ में हिस्सेदारी का प्रतिशत तक तय नहीं किया है, जिससे कि जैव विविधता अधिनियम का उल्लंघन हो रहा है और इसे जैव विविधता प्रबंधन समितियों में असंतोष फैल रहा है । उन्होंने आरोप लगाया है कि कोयला कंपनियां खनन के  पूर्व जैव विविधता प्रबंधन समितियों से अनुमति भी नहीं लेती, जो कि कानूनन अनिवार्य है ।
    अप्रैल में मध्यप्रदेश राज्य जैव विविधता बोर्ड ने, राजस्व की हिस्सेदारी न करने को लेकर कोयला कंपनियों  को नोटिस दिया था, लेकिन  कंपनियों ने इसे नकारते हुए कहा कि कोयला एक खनिज है । बोर्ड के अनुसार कोयला एक जैव संसाधन है ।
    मई में दायर याचिका के मद्देनजर राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल ने वेस्टन कोल फील्ड, कोल इंडिया लि., राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकारी, केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय मध्यप्रदेश राज्य जैव
विविधता बोर्ड को नोटिस जारी करते हुए उनसे स्पष्टीकरण मांगा है कि कोयला जैव संसाधन है या खनिज ।  म.प्र. जैव विविधता बोर्ड के सदस्य सचिव रामगोपाल सोनी ने इस बात की पुष्टि की है कि उन्हें नोटिस मिल गया है, लेकिन किसी और टिप्पणी से इंकार किया । वहीं पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकारी का कर्तव्य है कि वह वर्गीकृत करे कि कौन सा पदार्थ जैव संसाधन है, लेकिन वह इसमें असफल रही है । कोयला, खनिज है  या जैव संसाधन इस बहस ने पर्यावरण एवं वन मंत्रालय एवं राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकारी में अनेकों को खीज में ला दिया है । राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकारी के एक अधिकारी ने अपना नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि ``इस बहस ने अनेक मंत्रालयों के माथे पर शिकन ला दी है, हालांकि कोयला मंत्रालय कोयले को खनिज बताता है, वहीं पर्यावरण एवं वन मंत्रालय एवं राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकारी को अभी तय करना है! उनका निर्णय काफी महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि इससे नए विवाद खड़े हो सकते हैं ।
    गेंद अब पर्यावरण एवं वन मंत्रालय एवं राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकारी के पाले में है । उनका मत ही यह स्पष्ट करेगा कि भारत में कोयला खनिज है या जैव संसाधन ! 
विशेष लेख
जैव समुदाय और मानव समाज
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    सृष्टि में सब कुछ योजनाबद्ध है, नियति का विधान एवं प्रकृति का प्रतिदान । छोटे अथवा बड़े किसी भी परितंत्र में विशेष काल में एवं स्थान में विशिष्ट परिस्थितियों में जीवों का प्राकृतिक समूहन समुदाय कहलाता     है । समुदाय में सभी जीव परस्पर सहनशील एवं अन्योन्याश्रित (इन्टरडिपेडेंट) रहते है तथा निरन्तर ऊर्जा का स्थाईकरण एवं उपयोग करते हैं । 
     समस्त सामुदायिक प्रजातियों में मनुष्य स्वयं का ही पालन नहीं करता वरन् अन्य जैव समुदायों को जीवनाधारी संपोषित तंत्र प्रच्छन्नता से प्रदान करना भी उसका धर्म-कर्म एवं कर्तव्य है । किन्तु मानव स्वार्थवश अपने धर्म-कर्म, कर्तव्य से च्युत हो गया है । इसी आत्म विस्मृति से मनुष्य को बाहर निकलना होगा, ताकि समष्टि एवं सृष्टि में समाकलन (इंटीग्रेशन) बना रह सके, और सबकुछ प्रतिपालित (सस्टेनेवल) रहे ।
    किसी भी परितंत्र में विविध समुदाय उत्पत्ति के पश्चात् वृद्धि एवं विकास करते हुए चरमावस्था में पहुंचते हैं । ऊर्जा प्रवाह एवं खनिज पदार्थ समुदायों का यह सहअस्तित्व दीर्घकाल तक रहता है । मूलभूत आवश्यक आश्रयता का भाव है  और यही सहजीवन है । किन्तु मानव ने सहजीवन को तोड़ा है ।
    आदिम युग से आज तक मानव सभ्यता के चार चरण बतलाये गए हैं । प्रथम आखेट तथा भोजन ग्रहण, द्वितीय पशुपालन एवं पशु चारण, तृतीय पौधारोपण एवं चतुर्थ औद्योगिक विस्तार एवं तकनीकी विकास । हमारे विचार से अब हम अपनी सीमाआें का अतिक्रमण  करके आनुवांशिक अनुसंधान एवं ईश्वरीय विधान में अनुचित हस्तक्षेप के पंचम चरण में प्रवेश कर गए हैं । इससे पारिस्थितिकी को और भी अधिक खतरा हो गया है । चंचल मानव पृथ्वी को अस्थिर करने लगा । मानव समाज आधुनिक तो हुआ, किन्तु पर्यावरण क्षरित होता गया है ।
    विकास क्रम में हमें अपने जीवन स्तर को सुधारने के लिए आर्थिक उन्नति की जरूरत होती हैं । पर्यावरण संरक्षित किए बिना आर्थिक आधार भी टिकाऊ नहीं रह सकता । किसी भी राष्ट्र की आर्थिक उन्नति उस राष्ट्र के उद्योग विस्तार पर निर्भर करती है । अत: आर्थिक विकास किया भी जाना चाहिए किन्तु यह विकास न्याय संगत हों । कहीं विकास एवं विनाश के अंतर को हम भूल न जायें । औद्योगिक इकाइयों से उत्पादन के साथ-साथ बहुत से अर्वाहनीय अपशिष्ट पदार्थ भी बनते हैं जिनका दीर्घकालिक संचयी (क्यूमुलेटिव) पार्श्वप्रभाव बहुत भयानक होते हैं, जो प्राकृतिक पर्यावरण का मूल रूप ही बदल डालते है ।
    यह दुष्प्रभाव स्थिर नहीं रहते वरन अन्य कारकों को भी प्रभावित करते हुए श्रंखलाबद्ध हो जाते हैं और पर्यावरण में प्रतिकूलता लाते हैं । अनेकानेक सामाजिक एवं आर्थिक समस्याआें कारण भी बनते हैं । कहने यह भाव यह है कि परिवर्तन प्रक्रिया में हमारे कदम कौटुम्बिक भावना पर आधारित समाज रचना की दिशा में आगे बढ़ने चाहिए । आवश्यक वस्तुआें का वितरण एवं विनियोग सुचारू रहना चाहिए ।
    संसार में जितने भी रूपों में जीवन रचना है उसमें मनुष्य श्रेष्ठतम  हैं । ऐसा नहीं कि दैहिक सुंदरता या भावप्रवणता के कारण मनुष्य को योनिश्रेष्ठ कहा गया वरन् मनुष्य के अन्दर तार्किकता एवं उद्देश्यपरक कर्मशीलता ही उसे विशिष्ट बनाती है । मानुषी सहयोग ही जीवन को अर्थवत्ता प्रदान करता है । अत: मनुष्य को अपनी समाज रचना मेंदुनिया एवं जिन्दगी को समझने की कोशिश शामिल रखनी चाहिए । मनुष्य की आजादी दुनिया की खुशहाली के लिए है । यह बात शिद्दत से समझनी चाहिए । तभी हम दे सकते हैं सुखी समृद्ध समाज ।
    पृथ्वी पर मनुष्य ही ऐसा जीवंत प्राणी है जो सम्पूर्ण जीवसमूह की भलाई का ध्यान रखने योग्य है । इस प्रकार जीव उपकार के साथ जन स्वास्थ्य एवं समाज की भलाई का कार्य मनुष्य करता है । घर,परिवार, समाज और देश के कार्योंा में सहयोग करता है ।  पर्यावरणविदों एवं समाजशास्त्रियों ने मानव जीव समूह के सम्बन्ध में अनेक महत्वपूर्ण अवधारणाएँ नियोजित की  है । मानव परिस्थितिकी एवं मानवेत्तर जीव समूह संरचना की समस्या पर ध्यान केन्द्रित किया गया है । शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण के साथ-साथ समाज-अर्थ प्रतिष्ठा (सोशियो इकॉनोमिक स्टेटस) ने परिस्थितियों को बदला है ।
    जीव समूहों के घनत्व एवं भोजन उत्पादन में भी गहरा सम्बनध   है । बढ़ती हुई आबादी एक बड़ी समस्या है । जो कृषि भूमि हमारे पास उपलब्ध है ।  उस पर जनसंख्या का अतिशय दबाव है । भूख तथा अंसतुलित आहार के कारण जीव संख्या परिमितता तक पहुँच चुकी है । हम जल, जंगल, जमीन, खनिज-सम्पदा और मृदा किसी को भी संरक्षित एवं सुरक्षित नहीं कर पा रहे है । जीव संख्या स्थाई रखने के जो उपाय अपनाये जा रहे हैं वह व्यवहारिक रूप से नाकाफी सिद्ध हुए हैं ।
    अब मानव को ही अपने उत्तरदायित्वों को पूर्ण शुचिता एवं ईमानदारी के साथ निभाना होगा । सबसे महत्तवपूर्ण है प्रकृति को माँ के रूप में पूजना । धरती मातृ वत्सला है । तृण खाकर अमृत तूल्य दूध देने वाली गऊ माँ है तथा सरस नाड़ियाँ सरीखी हमारी नदियाँ हमारी माँ है । जब तक हम श्रेयसकारी भाव अपनाते हैं तो सजीव ही नहीं निर्जीव पदार्थोंा के प्रति भी समादार का भाव रखते हैं । यह हम पर निर्भर करता है कि हम जैव समुदायों के प्रति कितने अंतरंग रहते हैं । प्रत्येक जीव का सहिष्णुता स्तर अलग-अलग होता हैं । हमारे किसी भी कार्य से कोई  से कोई जीव आहत नहीं होना चाहिए । जीवों के साथ सहअस्तित्व का भाव जरूरी  है ।
    यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक जीव अपने अपने निकेत पर लम्बे समय तक संघर्ष एवं सामजस्य के बाद स्थापित होता है । दो समान जैव जातियां समान निकेत पर समानता के साथ निवास नहीं कर सकती क्योंकि संघर्ष पनपते है । प्रत्येक प्रजाति परस्पर पूरक होती है । किन्तु प्रभाविता के कारण सबल सदैव उत्तरजीवी रहता है । निकेत को परिभाषित करते समय हम कहते है अनेक विशिष्ट आयाम वाला क्षेत्र जिसकी विशिष्ट भौगोलिक जलवायुगत एवं जैविक दशांए होती है । जिसमें समन्वयकारी प्रजातियाँ सम्मिलित रूप से निवास करती है जिससे परितंत्र प्रगतिशील रहता है ।
    जैसा कि स्पष्ट है जैव समुदाय का निर्माण छोटे-बड़े अनेक जीव-जन्तुआें के समूहन से होता है जो निरन्तर पारस्परिक अनुक्रिया और तालमेल से जीवन यापन करते है । बाह्य रूप से जैस समुदाय का अस्तित्व भौतिक एवं रासायनिक कारकों पर निर्भर प्रतीत होता है किन्तु जैविक कारकों की भी भूमिका महत्वपूर्ण होती है । प्रत्येक समुदाय के सदस्य भोजन, प्रजनन और सुरक्षा हेतु तथा मूलभूत आवश्यकताआें की पूर्ति हेतु एक दूसरे पर आश्रित रहते है तथा परस्पर सहयोग करते हैं । देखा जा रहा है कि यह सहयोग भी स्वार्थवश टूट रहा है । सबसे ज्यादा खतरनाक हमला किसान खेत, जड़ी बूटियाँ तथा हजारों साल से संचित हमारे ज्ञान-विज्ञान पर हुआ है । जिस तरह से विश्व व्यापार संगठन, बौद्धिक सम्पदा का अधिकार दे रहे हैं । यह हमारी आनुवंशिक परम्परा के लिए घातक है और इससे मानव समाज आहत हैं ।
    मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । वह जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक समाज में रहता है । सामाजिक समूह का निर्माण करता है जिसके माध्यम से विभिन्न प्रकार की आवश्यकताआें की पूर्ति करता है । ऐसा इसलिए होता है कि मनुष्य की मूल प्रवृत्ति संघचारी (गिग्रेरियास इन्सटिक्ट) होती है । किन्तु यहाँ यह समझना जरूरी है कि मानव का मानवेत्तर जीवों से भी सहचारी संबंध होता है जिसे निभाने में वह नाकामयाब हो रहा है । इसीलिए अपना अस्तित्व आधार खो रहा है । मनुष्य को समाज में रहकर विभिन्न प्रकार के जैविक, भौतिक एवं सामाजिक दायित्व निभाने होंगे तथा प्रकृति एवं पर्यावरण से समायोजन भी करना होगा । तभी सुरक्षित रह सकेगा हमारा जैव समुदाय, जैविक विविधता, मनुष्य का सम्मान और सह अस्तित्व ।
पक्षी जगत
विलुप्त् होती नन्ही गौरेया
आकांक्षा यादव
    प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली अक्सर यह जुमला दोहराया करते थे कि पक्षी हमारे पर्यावरण के थर्मामीटर है, उनकी चहचहाहट बताती है कि धरती प्रसन्न है । तभी तो कभी घर के आँगन में गौरेया, मैना और बुलबुल जैसे पक्षियों की चहचहाहट सुनायी देती थी । कोयल की कू-कू मन को भाती थी तो कौए की कॉव-कॉव दूर बसे किसी अपने रिश्तेदार या ईष्ट मित्र के आने की खबर देती थी । अमरूद के पेड पर इस डाली से उस डाली उछल-कूद करता हुआ तोता पेड़ के हर फल में चोंच मारता अपनी ही धून में मगन रहता था और उसकी हर जूठन को बड़े प्यार से खाते और उसकी अठखेलियों कोअपलक निहारते बच्चें व बड़े-बूढ़ों के होठों पर बरबस मुस्कान फैल जाती । मोर नाच-नाच कर बारिश आने का संदेश देता था । पर वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया है । पक्षियों की तमाम प्रजातियाँ आज विलुप्त् होने के कगार पर है । 
 
गौरतलब है कि दुनिया में पक्षियों की लगभग ९९०० प्रजातियाँ ज्ञात हैं और उनमें से १८९ प्रजातियाँ विलुप्त् हो चुकी है । यही परिवेश रहा तो आगामी १०० वर्षो में पक्षियों की ११०० से ज्यादा प्रजातियाँ विलुप्त् हो सकती हैं । भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो यहाँ पक्षियों की लगभग १२५० प्रजातियाँ पायी जाती है, जिनमें से ८५ प्रजातियाँ विलुिप्त् के कगार पर हैं । भारत में जिन पक्षियों के अस्तित्व पर खतरा है, उनमें मोर, गौरेया, तोता, उल्लू, सारस, गिद्ध, साइबेरियाई सारस, सोन चिरैया (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड), हिमालयन बटेर, बंगाल फ्लेरिकरन, गुलाबी सिर वाली बत्तख इत्यादि शामिल हैं । पक्षी जहाँ जैव विविधता की कड़ी हैं, वहीं हमारी फूड-चेन का एक जरूरी हिस्सा भी है । इनके अभाव में प्रकृति का पूरा संतुलन ही गड़बड़ा रहा है ।
    याद कीजिये, अंतिम बार आपने गौरेया को अपने आँगन या आसपास चीं-चीं करते देखा था । कब वो आपके पैरों के पास फुदक कर उड़ गई थी । सवाल जटिल है, पर जवाब तो देना ही पड़ेगा । गौरेया सिर्फ एक चिड़िया का नाम नहीं है, बल्कि हमारे परिवेश, साहित्य, कला, संस्कृति से भी उसका अभिन्न संबंध रहा है । आज भी बच्चें को चिड़िया के रूप में पहला नाम गौरेया का ही बताया जाता है । साहित्य, कला के कई पक्ष इस नन्हीं गौरेया को सहेजते हैं, उसके साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं । घरों में धार्मिक कार्यक्रम और समारोह में दीवारों पर चित्रकारी करने में फल-पत्ती, पेड़ के साथ गौरेया के चित्र उकेरे जाते हैं । यहाँ तक कि कई आदिवासी लोक कथाआें में गौरेया का वर्णन मिलता है । महाराष्ट्र की वर्ली और उड़ीसा की सौरा आदिवासियों की लोक कलाआें में गौरेया के चित्र बनाने की प्राचीन परम्परा मिलती है । कई प्रसिद्ध लेखकों एवं कवियों ने गौरेया पर आधारित रचनाएं भी रची हैं । अपनी गौरेया नामक कहानी में प्रसिद्ध लेखिका महादेवी वर्मा ने कामना की है कि हमारे शहरी जीवन का समृद्ध करने के लिए गौरेया फिर लौटेगी ।
    जैव-विविधता के संरक्षण के लिए भी गौरेया और तमाम पक्षियों का होना निहायत जरूरी है । बालमन के पारखी पं. जवाहर लाल नेहरू अक्सर कहा करते थे कि चिड़ियों को दूर से ही देख लेना और आनंद का अनुभव करना काफी नहीं हैं । अगर हम उन्हें पहचानें, उनके नाम को जानें और उन्हें चहचहाते सुनकर पहचान सकें तो, हमारा आनंद और बढ़ जायेगा । अगर हम चिड़ियों के साथ हिलमिल जाएं तो वे हर जगह हमारी दोस्त हो सकती है । गौरेया वास्तव में एक सामाजिक जीव है और इसे मनुष्यों की संगति पंसद है । कभी गौरेया घर-परिवार का एक अहम हिस्सा होती थी । हॉउस स्पैरो के नाम से मशहूर गौरेया का वैज्ञानिक नाम पेसर, डोमिस्टिकस है, जो विश्व के अधिकांशत: भागों में पाई जाती है । इसके अलावा सोमाली, सैक्सुएल, स्पेनिश, इटेलियन, ग्रेट, पेगु, डैड सी स्पैरो इसके अन्य प्रकार हैं । भारत में असम घाटी, दक्षिणी असम के निचले पहाड़ी इलाकों के अलावा सिक्किम और देश के प्रायद्वीपीय भागों में बहुतायत से पाई जाती है ।
    गौरेया पूरे वर्ष प्रजनन करती है, विशेषत: अप्रैल से अगस्त तक । दो से पॉच अंडे वह एक दिन में अलग-अलग अंतराल पर देती है । नर और मादा दोनों मिलकर अंडे की देखभाल करते हैं । अनाज, बीजों, बैरी, फल, चैरी के अलावा बीटल्स, कैटरपीलर्स, द्विपंखी कीट, साफ्लाइ, बग्स के साथ ही कोवाही फूल का रस उसके भोजन में शामिल होते हैं । गौरया आठ से दस फीट की ऊँचाई पर, घरों की दरारों और छेदों के अलावा छोटी झड़ियों में अपना घोंसला बनाती है  ।
    कहते है कि लोग जहाँ भी घर बनाते हैं देर-सबेर गौरेया के जोड़े वहाँ रहने पहॅुंच ही जाते हैं । कभी सुबह की पहली किरण के साथ घर की दालानों में ढेरों गौरेया के झुंड अपनी चहक से सुबह को खुशगवार बना देते थे । नन्हीं गौरेया के सानिध्य भर से बच्चें को चेहरे पर मुस्कान खिल उठती थी । घर के आंगन में फुदकती गौरेया, उसके पीछे नन्हे-नन्हें कदमों से भागते बच्च्े । अनाज साफ करती माँ के पहलू में दुबक कर नन्हें परिदों का दाना चुगना और फिर फुर्र से उड़कर झरोखों में बैठ जाना । ये नजारे अब नगरों में ही नहीं गाँवों में भी नहीं दिखाते देते । बचपन में घर के बड़ों द्वारा चिड़ियों के लिए दाना-पानी रखने की हिदायत सुनी थी, पर अब तो हमें उसकी फिक्र ही नहीं ।
    प्राचीन काल से ही गौरेया को हमारे उल्लास, स्वतंत्रता, परम्परा और संस्कृतिकी संवाहक माना जाता रहा है । पर यह नन्ही गौरेया अब विलुप्त् होती पक्षियों में शामिल हो चुकी है और उसका कारण भी हम ही हैं । गौरेया अब कम ही नजर आती है । दिखे भी कैसे, हमने उसके घर ही नहीं छीन लिए बल्कि उसकी मौत का इंतजाम भी कर दिया । हरियाली खत्म कर कंक्रीटों के जंगल खड़े कर दिए । गगनचुंबी इमारतें बनाने के लिए, गगन को चूमने वाले न जाने कितने परिन्दों का आशियाना उजाड़ दिया । बीते कुछ सालों से बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण, हरियाली कम होने, रहन-सहन में बदलाव, अनलेडेड पेट्रोल के इस्तेमाल से निकलने वाली जहरीली गैस, मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली तरंगे, जैसे कई कारणों से गौरेया और अन्य परिन्दों की संख्या कम होती जा रही है । गौरेया और अन्य पक्षियों का कम होना संक्रमण वाली बीमारियों और पारिस्थितिकी तंत्र बदलाव का संकेत है ।
    गौरेया घर के झरोखोंमें भी घोंसले बना लेती है । अब घरों में झरोखे ही नहीं तो गौरेया घोंसला कहाँ बनाए ? आधुनिक घरों का निर्माण इस तरह किया जा रहा है कि उनमें पुराने घरों की तरह छज्जों, टाइलों और कोने के लिए जगह ही नहीं है । जबकि यही स्थान गौरेया के घोंसलों के लिए सबसे उपयुक्त होते हैं । यही नहीं, खेतों में कीटनाशकों का अंधाधंुध इस्तेमाल कर गौरेया का कुदरती भोजन भी खत्म कर दिया जबकि गौरेया हानिकारक कीड़ों-मकोड़ों को खाकर फसल की रक्षा ही करती थी । गौरेया का भोजन अनाज के दाने और मुलायम कीड़े हैं । गौरेया के चूजे तो केवल कीड़ों के लार्वा खाकर ही जीते हैं । कीटनाशकों से कीडों के लार्वा मर जाते हैं । ऐसे में चूजों के लिए तो भोजन ही खत्म हो गया है । फिर गौरेया कहाँ से आयेगी ?
    भौतिकवादी जीवन शैली ने बहुत कुछ बदल दिया है । गौरेया आम तौर पर पेड़ों पर अपने घोंसले बनाती है । पर अब तो वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के चलते पेड़-पौधे लगातार कम होते जा रहे है । शहरीकरण के नये दौर में घरों में बगीचों के लिए स्थान नहीं है । पेट्रोल के दहन से निकलने वाला मेथिल नाइट्रेट छोटे कीटों के लिए विनाशकारी होता है, जबकि यहीं कीट गौरया के चूजों के खाद्य पदार्थ होते है । यही नहीं, हम जिस मोबाइल पर गौरेया की चूं-चूं कालर ट्यून के रूप में सेट करते हैं, उसी मोबाइल टावर की तरंगें इसकी दिशा खोजने वाली प्रणाली को प्रभावित कर रही है और इनके प्रजनन पर भी विपरीत असर पड़ता है । बाबू बनारसी दास नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी लखनऊ और ब्रिटिश ट्रस्ट आर्निथोलॉजी के वैज्ञानिकों ने शोध में पाया है कि गौरेया के अंडे से जिन बच्चें को निकलने में दस से बारह दिन लगते हैं, मोबाइल टावर से निकलने वाले रेडिएशन से अंडों के भीतर बच्चें का विकास रूक जाता है और गौरेया के बच्च्े अंडों से महीने भर बाद भी नहीं निकल पाते । फिर क्यों गौरेया हमारे आंगन में फुदकेगी, क्यों वह माँ के हाथ की अनाज की थाली से अधिकार के साथ दाना चुराएगी ?
    आधुनिक परिवेश मेंगौरेया की घटती संख्या पर्यावरण प्रेमियों के लिए चिंता और चिंतन दोनों का विषय है । इधर कुछ वर्षो से पक्षी वैज्ञानिकों एवं संरक्षणवादियों का ध्यान घट रही गौरेया की तरफ गया । नतीजतन इसके अध्ययन व संरक्षण की बात शुरू हुई, जैसे कि पूर्व में गिद्धों व सारस के लिए हुआ । गौरेया के संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक करने हेतु तमाम कदम उठाये जा रहे है । गौरेया को बचाने के लिए भारत की नेचर्स फॉरएवर सोसायटी ऑफ इंडिया और इको सिस एक्शन फाउंडेशन फ्रांस के साथ ही अन्य तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों ने मिलकर २० मार्च को विश्व गौरेया दिवस मनाने की घोषणा की और वर्ष २०१० में पहली बार विश्व गौरेया दिवस मनाया गया । इस दिन को गौरेया के अस्तित्व और उसके सम्मान में रेड लेटर डे (अति महत्वपूर्ण दिन) भी कहा गया । इसी क्रम में भारतीय डाक विभाग ने ९ जुलाई २०१० को गौरेया पर डाक टिकट जारी  किए । कम होती गौरेया की संख्या को देखते हुए अक्टूबर २०१२ में दिल्ली सरकार ने इसे राज्य पक्षी घोषित किया ।
    गौरेया के संरक्षण के लिए बम्बई नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी ने इंडियन बर्ड कंजरवेशन नेटवर्क के तहत ऑनलाइन सर्वे भी आरंभ किया हुआ है । कई एनजीओ गौरेया को सहेजने की मुहिम में जुट गए हैं, ताकि इस बेहतरीन पक्षी की प्रजातियों से आने वाली पीढ़ियाँ भी रूबरू हो   सके । देश के ग्रामीण क्षेत्र में गौरेया बचाओ के अभियान के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए रेडियो, समाचारपत्रों का उपयोग किया जा रहा है । कुछेक संस्थाएं गौरेया के लिए घोंसले बनाने के लिए भी आगे आई हैं । इसके तहत हरे नारियल में छेद कर, अखबार से नमी सोखकर उस पर कूलर की घास लगाकर बच्चें को घोसला बनाने का हुनर सिखया जा रहा है । वाकई आज समय की जरूरत है कि गौरेया के संरक्षण के लिए हम अपने स्तर पर भी प्रयास करें । कुछेक नयी पहल गौरेया को फिर से वापस ला सकती है । मसलन, घरों कें कुछ ऐसे झरोखे रखें, जहाँ गौरेया घोंसले बना सकें । छत और ऑगन पर अनाज के दाने बिखेरने के साथ-साथ गर्मियों में अपने घरों के पास पक्षियों के पीने के लिए पानी रखने, उन्हें आकर्षित करने हेतु आँगन और छतों पर पौधे लगाने, जल चढ़ाने में चावल के दाने डालने की परम्परा जैसे कदम भी इन नन्हें पक्षियों को सलामत रख सकते है । इसके अलावा जिनके घरों में गौरेया ने अपने घोंसले बनाए हैं, उन्हें नहीं तोड़ने के संबंध में आग्रह किया जा सकता है । फसलों में कीटनाशकों का उपयोग नहीं करने और वाहनों में अनलेडेड पेट्रोल का इस्तेमाल न करने जैसी पहलभी आवश्यक है । जरूतर है कि गौरेया को हम मनाएँ, उसके जीवनयापन के लिए प्रबंध करें और एक बार फिर से उसे अपने जीवन में शामिल करें ।
पर्यावरण परिक्रमा
जुकान में १०० साल बाद सूरज की किरणें पहुचेंगी
    नार्वे का एक शहर ऐसा भी है, जहां जाड़े के मौसम मेंसूरज की किरणें नहीं पहुंचती । औद्योगिक शहर जुकान मध्य नार्वे में स्थित एक संकरी घाटी में बसा है । लेकिन इस साल सितम्बर महीने में १०० साल में पहली बार शहरवासियों को जाड़े के मौसम में भी सूरज की किरणों से खुद को गर्म रखने का मौका मिलेगा । समाचार एजेंसी सिन्हुआ के अनुसार यदि सब कुछ ठीक रहा तो घाटी मेंबसे शहर के किनारे स्थित पहाड़ियों पर ४५० मीटर की ऊंचाई पर लगाए गए बड़े-बड़े शीशों के द्वारा सूरज की किरणेंपरावर्तित होकर जुकान के टाऊन हॉल के ठीक सामने स्थित मुख्य चौराहे पर पहुंचेगी ।
    बीते जुलाई मेंशुरू हुआ पहाड़ी पर शीशे लगाने के काम को तकनीशियनों और कामगारों ने ५० लाख क्रोनर (नार्वे की मुद्रा) की परियोजना को अंतिम रूप दिया । कई दशकों से जुकान वासियों को जाड़े के मौसम मेंसूरज की किरणें पाने के लिए केवल कार क्रोस्सोबेनन के जरिये पहाड़ी के ऊपर जाना पड़ता था। जुकान पर्यटक कार्यालय के प्रमुख केरीन रो ने बताया कि शहरवासी पहले की तरह केवल कार के जरिए पहाड़ी के ऊपर जाना जारी रखेंगे, लेकिन मुख्य चौराहे पर सूर्य की किरणेंपहुंचने के बाद वहां चहल-पहल बढ़ने की आशा है । शहर के मुख्य अधिकारी रून लियोडोइन ने कहा कि जाड़े में शहर तक सूरज की किरणों को पहुंचाने का विचार इतना ही पुराना है, जितना कि यह शहर । लेकिन पहले हमारे पास विकसित तकनीक नहीं थी, इसीलिए केबल कार का विकल्प अपनाया गया । पांच सालों तक वाद-विवाद के बाद शहर की अधिकारिक परिषद ने बड़े शीशों को स्थापित करने और परियोजना के लिए ८२३,००० डॉलर के वित्तीय निवेश को मंजूरी दी ।
नियमों का उल्लघंन करने पर जेपी सीमेंट पर सौ करोड़ का जुर्माना
    सुप्रीम कोर्ट के नए चीफ जस्टिस पी सदाशिवम की बैंच ने हिमाचल प्रदेश के जुर्माने की डेडलाइन बढ़ाने की जयप्रकाश एसोसिएट्स की एक याचिका खारिज कर दी । ये पूरा मामला जयप्रकाश एसोसिएट्स का है जिस पर हिमाचल  प्रदेश हाईकोर्ट ने सीमेंट प्लांट बनाने में नियमों का उल्लघंन करने पर १०० करोड़ का जुर्माना लगाया था और ये रकम चार किश्तों में अदा की जानी थी । सुप्रीम कोर्ट की एक बैंच ने हिमाचल हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था लेकिन इस साल फरवरी में पूर्व चीफ जस्टिस अल्तमश कबीर की बैंच ने इस मामले की सुनवाई न सिर्फ बार-बार टाली बल्कि कंपनी को दूसरी किश्त देने के लिए आठ मई २०१३ तक छूट दे दी । नए चीफ जस्टिस ने पूर्व जस्टिस अल्तमश कबीर की अगुवाई वाली बैंच के इस रवैये की आलोचना की है । साथ ही जयप्रकाश एसोसिएट्स को जुर्माने की रकम अदा करने के लिए और वक्त देने से भी इंकार कर दिया ।
    वरिष्ठ वकील माजिद मेमन का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में अच्छे वकील मौजूद हैं । कई मामलों में सुनवाई की तारीखें आगे बढ़ती रहती है जिससे न्यास मिलने में देरी होती है । काम के बोझ के चलते मामलों की तारीखें आगे बढ़ना तो ठीक है लेकिन अगर ये किसी भेदभाव की योजना के तहत होता है तो इसे दूर करने की जरूरत है । किसानों में जेपी एसोसिएट्स के निगारी प्राजेक्टर के तहत बनाये जा रहे एक स्टाप डैम को लेकर भारी आक्रोष व्याप्त् है । बल्कि इस मामले मेंभी हाईकोर्ट ने जेपी एसोसिएट्स को झटका दिया है। गौरतलब है कि उक्त स्टापडैम के निर्माण के पूर्व किसानों की जमीन के मुआवजे को लेकर सहमति नहीं बनी थी, जिसे कोर्ट ने गंभीरता से लिया है । जयप्रकाश एसोसिएट्स ने यूं तो समूचे विश्व में अपना कारोबार फैला रखा है, मगर जब बात कार्पोरेट रिस्पांसबिलटी की आती है तो इसका निर्वहन दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों में करता है । यहां की धरती धन-खोद कर करोड़ों का कारोबार करने वाला जेपी बड़े-बड़े शैक्षणिक व चिकित्सकीय संस्थान महानगरों में खोलता है और स्थानीय लोगों ने महज मजदूरी का काम दिया जाता है । जेपी पर रेट फिक्सिंग की भी कालिख लगी हुई है ।
    भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने जिन ११ सीमेंट  कंपनियों को रेट फिक्सिंग का दोषी पाकर जुर्माना लगाया था, उनमें से जेपी एसोसिएट्स का नाम सबसे ऊपर था । जेपी एसोसिएट्स पर १३२३ करोड़ रूपये से अधिक की पेनाल्टी रेट फिक्सिंग पर लगाई गई थी । यह उल्लेखनीय है कि जेपी सीमेंट के कई निर्माणा-धीन फैक्ट्रियों की स्थिति भी हिमाचल प्रदेश जैसी ही है जहां भी निर्माण कार्यो में नियमों को अनदेखा कर जेपी सीमेंट कंपनी द्वारा काम किया जा रहा है ।
कैसेहो वन्य जीवों की रक्षा
    ग्रेट इंडियन बस्टर्ड और स्नो लेपर्ड जैसी विलुप्त्प्राय प्रजातियों के वास स्थल देश के अभयारण्यों को खर्च के लिए मात्र एक लाख रूपये  महीना मिलता है जो कि उनके लिए ऊंट के मुंह मेंजीरा साबित होता है ।
    देश में इस समय ६१७ से अधिक राष्ट्रीय उद्यान और वन्य जीव अभयारण्य है । इन सभी अभयारण्यों पर सरकार सालाना औसतन ७५ करोड़ रूपय या प्रत्येक पर हर माह करीब एक लाख रूपये खर्च करती है, जबकि बाघों के लिए मौजूद ४३ आरक्षित क्षेत्रों पर सरकार सालाना १६५ करोड़ रूपये खर्च करती है ।
    संरक्षित इलाकों के प्रबंधन के लिए जो वित्तीय आवंटन होता है, उसके अनुसार, १०२ राष्ट्रीय उद्यानों और ५१५ वन्यजीव अभयारण्यांें में से प्रत्येक को सालाना करीब १२ लाख रूपये या प्रति माह करीब एक लाख रूपये मिलता है ।
    केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार, योजना आयोग ने हालांकि ६१७ राष्ट्रीय उद्यानों एवं वन्यजीव अभयारण्यों के लिए सालाना कुल ७५ करोड़ रूपये का अनुदान राशि बढ़ाकर १५० करोड़ रूपये करने का वादा किया था, लेकिन यह अब तक पूरा नहीं हो पाया है । देश के ६६४ संरक्षित इलाकों में नेटवर्क में देश के भौगोलिक इलाके का ४.९ प्रतिशत विस्तार हुआ है । नेटवर्क में १०२ राष्ट्रीय उद्यान, ५१५ वन्यजीव अभयारण्य तथा ४३ बाघ आरक्षित सहित ४७ संरक्षण क्षेत्र शामिल हैं ।
    पर्यावरण मंत्रालय के  एक अधिकारी ने कहा कि सभी राज्यों में मौजूद ६१७ संरक्षित क्षेत्रों के प्रबंधन के लिए हमेंइस वक्त सालाना केवल ७५ करोड़ रूपये मिलते हैं । यदि हम अंडमान एवं निकोबार क्षेत्र के १०० संरक्षित इलाकोंको छोड़ भी दें, जिनमें से अधिकतर द्वीप हैं तो भी करीब ५१७ ऐसे क्षेत्र है, जिनके रखरखाव एवं सुचारू संचालन के लिए पर्याप्त् निवेश की जरूरत है । १२वीं पंचवर्षीय योजना (२०१२-२०१७)  के लिए  योजना आयोग ने आवंटन को दोगुना करने का वादा किया    था ।
नेशनल पार्को के लिए गठित होगी टाईगर प्रोटेक्शन फोर्स
    म.प्र. में वन विभाग ने स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स मेें जवानों की भर्ती के लिए अलग नियम तैयार कर लिए गए है । यह भर्ती फारेस्ट गार्ड से अलग होगी । इसमें उम्मीदवारों की सेवा अवधि, उम्र, स्थानांतरण और वेतन भत्तों को लेकर वाइल्ड लाइफ ने सेवा नियम बना लिए हैं । वहीं भारत सरकार द्वारा एसटीपीएफ का प्रस्ताव पहले ही मंजूर कर लिया गया है । कान्हा, पेंच और बांधवगढ़ नेशनल पार्क के लिए इस फोर्स का गठन किया जाना है ।
    वन अधिकारियों की मानें तो करीब चार से पांच माह में भर्ती की प्रक्रियापूरी कर ली जाएगी । फोर्स संचालन करने के लिए पैसा भारत सरकार देगी । इस फोर्स की खासियत यह रहेगी कि इसमें सभी जवानों को अत्याधुनिक आर्म्स का प्रशिक्षण दिया जाएगा । यही नही इनको पुलिसकर्मियों की तरह बंदूक चलाने का अधिकार भी होगा । इसके लिए नियमों में संशोधन की प्रक्रिया भी शुरू की जा रही है ।
    विभाग में प्रचलित भर्ती नियमों में सबसे बड़ा बदलाव यह किया गया है कि जो उम्मीदवार एसटीपीएफ में चयनित होगा उसे अपनी सेवा अवधि की शुरूआत से लेकर ४० वर्ष की उम्र तक ही उसे फोर्स में रखा जाएगा । इस दौरान उनका स्थानान्तरण भी नहीं किया जाएगा । जब वह ४० वर्ष की उम्र पूरी कर लेगा इसके बाद उसको वन  विभाग की अन्य शाखाआें में संविलियन कर लिया जाएगा । प्रदेश में कई वनरक्षक है जो उम्रदराज हो चुके है और वह बाघों की सुरक्षा करने में पूरी तरह सफल नहीं हैं । इसीलिए विभाग में एक ऐसे फोर्स की आवश्यकता महसूस की जा रही थी जिसमें युवा लोग हो और आर्म्स ट्रेड हो ।
चन्द्रयान-२ मिशन पर अनिश्चितता
     भारत के दूसरे चन्द्र मिशन पर अनिश्चितता के बादल छाए हुए हैं। आंशका जताई जा रही है कि इस मिशन के लिए रूस से लैंडर समय पर नहीं मिल पाएगा ।
    चन्द्रयान-२ की समय सीमा के संबंध में इसरो प्रमुख के राधाकृष्णन ने कहा, हम समय सीमा पर कुछ नहीं कहेगेें । लैंडर की उपलब्धता को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है । इसीलिए मिशन में देरी हो रही है ।
प्रदर्श चर्चा
गुजरात : मातृ स्वास्थ्य से खिलवाड़
ज्योत्सना सिंह
    गुजरात को देश के विकास का पैमाना बनाया जा रहा है । लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता संभवत: आधुनिक विकास की परिभाषा में नहीं आती । राज्य में मातृ स्वास्थ्य योजना की दुर्गति बताती है कि निजी स्वास्थ्य संस्थाएं महज लाभ से वास्ता रखती है ।
    गुजरात के पंचमहाल जिले की संतरामपुर तहसील की २४ वर्षीय आदिवासी उषा बेन को एक निजी अस्पताल में चिकित्सक की अनुपस्थिति में एक नर्स से अपना प्रसव करवाना पड़ा । चिकित्सक ने यह सुनते ही वह गुजरात सरकार की चिरंजीवी योजना की हितग्राही है, उसका उपचार करना बंद कर दिया था । प्रसव के तुरंत बाद बिना अनिवार्य प्रसवोत्तर देखभाल के उसे वापस घर भेज दिया गया । राज्य सरकार द्वारा वित्तपोषित इस योजना का उद्देश्य है सांस्थानिक प्रसवों को प्रोत्साहित कर आदिवासी एवं गरीबी रेखा से नीचे आने वाले वर्ग में मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में कमी लाना । यह योजना केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन द्वारा जननी सुरक्षा योजना, जिसका उद्देश्य भी मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य बेहतर बनाने के लागू होने के तुरंत बाद सन् २००५ में लागू की गई थी । चिरंजीवी योजना को लेकर इतनी समस्याएं सामने आ रही हैं कि अब तो महिलाएं भी इसका लाभ लेने से भी बचने लगी हैं ।
     चार माह पूर्व बड़ौदा की मलिन बस्ती में रहने वाली गीता राठवा ने अपने  प्रसव हेतु बजाए निजी के क्षेत्र के  सरकारी अस्पताल को प्राथमिकता दी । उनका कहना है, इस योजना का लाभ लेने के लिए निजी चिकित्सक ढेर सारे दस्तावेज मांगते हैं । इससे भी बुरा यह है कि हममें और भुगतान करने वालोंके   बीच भेदभाव करते हैं ।  उनका कहना है अपनी जांच के लिए वह एक निजी अस्पताल में ही गई थीं, लेकिन वहां उन्होंने मुझे अंत तक बैठाए रखा । 
    एक वर्ष की पायलेट परियोजना के रूप में  यह योजना नवंबर २००५ में राज्य के पांच सर्वाधिक पिछड़े जिलों बनासकाठा, दाहोद, कच्छ, पंचमहाल एवं साबरकाठा जिलों में प्रारंभ की गई थी । बाद में इसका विस्तार पूरे राज्य में कर दिया गया ।  योजना में गैर आयकरदाता एपीएल समूह को भी शामिल किया गया था। योजना के  मुताबिक सरकार ने निजी अस्पतालों के  साथ एक समझौते  पर हस्ताक्षर कर उन्हें १०० प्रसव हेतु  २,८०,००० रु. का पैकेज दिया, जिसमें सामान्य, सिजेरियन एवं जटिल तीनों  प्रकार के प्रसव शामिल थे । इसकी निगरानी हेतु सरकार ने दक्षिण गुजरात का गैर सरकारी संगठन `सेवा` ग्रामीण एवं भारतीय प्रसव एवं स्त्री रोग फेडरेशन के प्रतिनिधियों को विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त किया, लेकिन ८ साल बाद लाभार्थियों के साथ ही साथ चिकित्सक भी इस योजना से मुंह चुरा रहे हैं । सन् २००९ में जहां ८३३ चिकित्सक इसमें सूचीबद्ध थे वहीं अब यह मात्र ४७५ बाकी बचे हैं ।
    बड़ौदा के एक मान्यता प्राप्त अस्पताल के चिकित्सक का कहना है, हमें प्रति प्रसव २,८०० रु. मिलते हैं । जबकि हम अन्य मरीजों से काफी  अधिक लेते हैं । सन् २००९ में सरकार ने निजी चिकित्सकों के साथ भुगतान विवाद को लेकर बैठक की थी । इसमें चिकित्सकों ने कम भुगतान की शिकायत की थी । बड़ौदा में निजी अस्पतालों में सामान्य प्रसव की लागत ७,००० रु. एवं सिजेरियन की ४०,००० रु. तक एवं वलसाड में ४००० से ५००० एवं सिजेरियम १५००० से २५००० तक पड़ती है ।
    इसके साथ चिकित्सकों ने दस्तावेज सत्यापन की कठोर प्रक्रिया की शिकायत भी की । बड़ौदा के अस्पतालों का कहना है कि सरकारी कागजातों के  सत्यापन की विशेषज्ञता हममें नहीं है । चिकित्सकों द्वारा की गई धोखाधड़ियों के बाद शासन ने इस प्रक्रिया को कोठर बनाया । वलसाड की आशा कार्यकर्ता एक  गर्भवती महिला को वलसाड़ के निजी अस्पताल में जांच के लिए ले      गई । जब वह प्रसव के लिए पहुंची तो उससे दस हजार रुपए की मांग की     गई  । मना करने पर उसके साथ दुर्व्यवहार किया गया । आशा कार्यकर्ता का कहना है कि ``अस्पताल सरकार के साथ ही साथ मरीजों से भी धन चाहते हैं । वलसाड के स्वास्थ्य विभाग ने ऐसे तीन अस्पतालों को बंद करने का आदेश दिया है ।
    इस योजना के प्रभाव  को लेकर सन् २०१२ में हुए अध्ययन में पाया गया है कि चिकित्सक भी लाभार्थियों का  उपचार करने से बचते हैं । भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थान (आईआईपीएच, गांधी नगर) ने साबरकाठा के निजी अस्पतालों में लाभार्थियों एवं गैर लाभार्थियों में हुए सिजेरियन प्रसवों का तुलनात्मक अध्ययन किया । शोधकर्ताओं ने चिरंजीवी योजना के अंतर्गत मान्यता प्राप्त २३ अस्पतालों की २२४ और ४३ अन्य सुविधाओं की ३७२ माताओं का साक्षात्कार लिया उन्होंने पाया कि योजना की लाभार्थियों में जहां यह दर ६ प्रतिशत है वहीं गैर लाभार्थियों में यह दर १८ प्रतिशत है । संस्थान के निदेशक दिलीप मावलंकर का कहना है, ``सभी प्रसवों के लिए राशि निश्चित होने से सिजेरियन प्रसवों की संख्या में कमी आई है ।`` उनका यह भी कहना है कि संभवत: चिकित्सक उन्हीं मरीजों का चुनाव करते हैंजिनमें सामान्य प्रसव की आवश्यकता हो ।
    गुजरात में शहरी गरीबों में मातृ-शिशु मृत्यु दर कम करने हेतु प्रयासरत संस्था सहज की सुनंदा बेन का कहना  है ``एक  तयशुदा लागत (योजना में) की वजह से सिजेरियन प्रसवों की संख्या में कमी आई है । वे समझौता तोड़ सकते हैं, लेकिन भेदभाव नहीं कर सकत े।``  ``इस स्थिति से उभरने के लिए सरकार प्रोत्साहन राशि में वृद्धि का इरादा रखती है । वलसाड  के मुख्य जिला चिकित्सा अधिकारी ए.एस. संघवी का कहना है कि ``हमें इस ४००० रु. प्रति प्रसव तक बढ़ाने की सोच रहे हैं । वहीं मावलंकर का कहना है, ``अभी की  आवश्यकता  है कठोर निगरानी एवं शिकायत निवारण । योजना को सुदृढ़ करने के लिए आवश्यक है मानव संसाधन और अधोसंरचना का विकास किया जाए । हमें अनियमितताओं पर नजर रखने के लिए आशा और ए.एन.एम. को  प्रशिक्षित करना आवश्यकहै । इसके अलावा सभी की पहुंच में आ सकने वाली क्लिनिक खोलना भी आवश्यक है । अहमदाबाद के स्वास्थ्य शिक्षा, प्रशिक्षण एवं पोषण जागरूकता संस्थान की निदेशक  इंदु कपूर का कहना है कि, ``बजाए सांस्थानिक प्रसव के, सुरक्षित प्रसव  पर जोर देना आवश्यक है । आदिवासी एवं ग्रामीण इलाकों में ऐसे क्षेत्र मौजूद हैं जहां पर अभी भी एम्बुलेंस नहीं पहुंच सकती । ऐसे स्थानों पर पारंपरिक प्रसव सहायकों को प्रोत्साहन देना चाहिए ।``
    चिरंजीवी योजना इस तरह बनाई गई है कि उसकी पहंुच सीमित है । छितरी जनसंख्या वाले आदिवासी क्षेत्रों में स्त्री रोग विशेषज्ञों  की संख्या काफी कम है । इन दूरस्थ इलाकों हेतु गुजरात सरकार ने दमन एवं दीव सरकार से एक समझौता किया था । लेकिन वह भी मूर्तरूप नहीं ले पाया । यह विश्वास कर लेना भी गलत है कि सभी निजी अस्पताल अच्छे हैं और वे स्वीकार्य  सेवा  प्रदान कर पाएंगे । इस तरह की योजना को निरंतर निगरानी की दरकार रहती है । ऐसा लगता है कि सरकार ने भी निजी अस्पतालों से समझौते पर हस्ताक्षर कर अपनी जिम्मेदारी  से पल्ला झाड़  लिया और उन्हें (अस्पतालों) तो केवल लाभ से लेना देना है । अंत में सर्वाधिक  घाटे में संभाव्य माताएं ही हैं  जिन पर सर्वाधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है । 
ज्ञान विज्ञान
कॉकरोच पकड़ने में यंत्र कामयाब क्यों नहीं होते ?

    किचन, बाथरूम वगैरह में कॉकरोच खूब पाए जाते हैं । इन्हें मारने के लिए कई रसायन उपलब्ध हैं । इसके अलावा इन्हें पकड़ने के लिए कई यंत्र मिलते हैं । ये यंत्र १९८० के दशक में विकसित किए गए थे और काफी लोकप्रिय हुए थे मगर कुछ ही सालों में कॉकरोच इनसे बचने में समर्थ हो गए । कैसे ?


         शोधकर्ताआें ने पाया कि कॉकरोच इन कॉकरोच दानियों के आसपास भी नहीं फटकते । थोड़े अनुसंधान के बाद पता चला कि कुछ कॉकरोच में ग्लूकोज के प्रति एक नफरत पैदा हो गई थी । आम तौर पर कॉकरोच-दानियों में ग्लूकोज के साथ जहर रखा जाता है ताकि जब कॉकरोच ग्लूकोज के लालच में वहां आएं, तो जहर खाकर मर जाएं । सबसे दिलचस्प बात यह थी कि ग्लूकोज के प्रति यह नफरत एक आनुवंशिक गुण था जो कि कॉकरोच की अगली पीढ़ी में भी पहुंच जाता था ।
    अब वैज्ञानिकों ने ग्लूकोज के प्रति इस नफरत का राज भी खोल निकाला है । अन्य कीटों के समान कॉकरोच भी स्वाद की अनुभूति उनके मुखांगों पर उपस्थित रोमनुमा उपांगों की मदद से प्राप्त् करते   हैं । ये संवेदना ग्राही मीठे और कड़वे जायके के बीच भेद कर पाते हैं । इसी के आधार पर कॉकरोच फैसला करते हैं कि किस चीज को निगलना है और किसे छोड़ देना है ।
    शोधकर्ताआें ने करीब १००० ऐसे जर्मन कॉकरोच लिए जो प्राकृतिक स्थिति में पले थे और २५० ऐसे कॉकरोच लिए जिन्हें प्रयोगशाला में पाला गया था । सामान्य कॉकरोचों ने तो दो अलग-अलग किस्म की शर्कराआें - ग्लूकोज व फ्रक्टोज को बराबर शौक से खाया मगर ग्लूकोज द्वैषी कॉकरोचों ने फ्रुक्टोज को तो खाया लेकिन ग्लूकोज वापिस उगल दिया ।
    कॉकरोचोंके इलेक्ट्रो - फिजियॉलॉजिकल रिकॉर्डिग से पता चला है कि सामान्य कॉकरोचों में तो ग्लूकोज मीठे स्वाद के ग्राहियों को उत्तेजित करता है मगर ग्लूकोज-द्वैषी कॉकरोचों में वही ग्लूकोज कड़वे स्वाद ग्राहियों को उत्तेजित कर देता है ।
    यह सही है कि ग्लूकोज के प्रति नफरत पैदा करने वाला यह गुण इन कॉकरोचों की जान बचा लेगा मगर पोषण की कमी के चलते इनकी वृद्धि धीमी पड़ जाएगी और इनमें प्रजनन की रफ्तार भी कम रहेगी ।

परमाणु भार बदलने की प्रक्रिया चालू है

    परमाणु भार का विचार करीब २०० साल पहले जॉन डाल्टन ने प्रस्तुत किया था । धीरे-धीरे कई वैज्ञानिकों के प्रयासों से परमाणु भार की धारणा परवान चढ़ी और रसायनज्ञों ने सारे तत्वों के परमाणु भार ज्ञात किए । पाठ्य पुस्तकों में बताया जाता है कि किसी तत्व का परमाणु भार एक प्राकृतिक स्थिरांक है । मगर पिछले वर्षो में कई तत्वों के परमाणु भार परिवर्तनशील पाए गए हैं । 
      परमाणु का अधिकांश द्रव्यमान उसके केन्द्रक में रहता है, जहां प्रोटॉन व न्यूट्रॉन पाए जाते हैं । किसी भी परमाणु में पाए जाने वाले प्रोटॉनों की संख्या से तय होता है कि वह किस तत्व का परमाणु है । जैसे कार्बन के परमाणु में ६ प्रोटॉन होंगे और ऑक्सीजन के परमाणु में ८ प्रोटॉन होंगे । मगर एक ही तत्व के विभिन्न परमाणुआें में न्यूट्रॉनों की संख्या अलग-अलग हो सकती है । ऐसे परमाणु जिनमें प्रोटॉनों की संख्या बराबर हो मगर न्यूट्रॉनों की संख्या अलग-अलग हो, उस तत्व के समस्थानिक या आइसोटॉप कहलाते  हैं । किसी भी तत्व का परमाणु भार केन्द्रक में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन की संख्या से तय होता है ।
    सारे तत्वों के कई समस्थानिक होते हैं मगर वे अस्थिर होते हैं - उनमें रेडियोधर्मी विखंडन होता है । मगर कुछ तत्वों के समस्थानिक स्थिर होते हैं । समस्थानिक का मतलब है कि वे सारे परमाणु एक ही तत्व के हैं मगर उनके केन्द्रक में न्यूट्रॉनों की संख्या अलग-अलग होने की वजह से उनके परमाणु भार अलग-अलग हैं । इसके कारण परमाणु भार ज्ञात करना आसान नहीं होता । खासकर काफी सटीक विश्लेषण से पता चला है कि धरती पर अलग-अलग स्थानों पर तत्वों में समस्थानिकों का अनुपात अलग-अलग होता है । इस वजह से परमाणु भार भी अलग-अलग निकलते हैं ।
    जैसे ब्रोमीन नामक तत्व के दो स्थिर समस्थानिक पाए जाते हैं । दोनों लगभग बराबर अनुपात में पाए जाते हैं । मगर विश्लेषण से पता चला कि अलग-अलग जगहों पर यह वितरण एक समान नहीं है । समुद्री पानी या लवणों से प्राप्त् ब्रोमीन का परमाणु भार कार्बनिक पदार्थो से प्राप्त् ब्रोमीन की अपेक्षा थोड़ा ज्यादा होता है । इसी प्रकार से मैग्नीशियम का परमाणु भार भी उसके प्रािप्त् स्थल पर निर्भर करता है ।
    तो ऐसे मामलों की निर्णायक समिति अंतर्राष्ट्रीय शुद्ध व प्रयुक्त रसायन संघ ने फैसला किया कि ब्रोमीन, मैग्नीशियम वगैरह के परमाणु भारों को एक अंक के रूप में नहीं बल्कि एक रेंज के रूप में लिखा जाए । तो ब्रोमीन का परमाणु भार ७९९०४ की बजाए (७९९०१-७९९०७) हो गया और मैग्नीशियम का परमाणु भार २४,३०५० की बजाए २४३०४-२४-३०७हो गया ।
    अभी इन दो तत्वों पर फैसला हो ही रहा था कि जर्मेनियम, इंडियम, पारे जैसे तत्वों के परमाणु भारों में भी विविधता पाई गई । तो अब परमाणु भारों को लेकर नए सिरे से खोजबीन शुरू हो गई है और संभवत: हम देखेंगे कि सारे तत्वों के परमाणु भार रेंज में प्रस्तुत होने लगेगे। परमाणु भार संबंधी रिपोर्ट के लेखक कोप्लेन का कहना है कि अगस्त में होने वाली अंतर्राष्ट्रीय संघ की बैठक में शायद कई तत्वों के परमाणु भार बदलेंगे ।
मरीज अस्पतालों में सूक्ष्मजीव छाप छोड़ते हैं
    जब लोग अस्पतालों में इलाज के लिए जाते हैं तो उनके शरीर पर उपस्थित सूक्ष्मजीव इलाज के स्थान पर फैल जाते हैं । कई सालों तक युनिवर्सिटी  ऑफ शिकैगोहॉस्पिटल में सूक्ष्मजीवों और रोगजनकों की निगरानी के बाद यह निष्कर्ष प्राप्त् हुआ है । 
     यह रिसर्च अस्पताल के शुरू होने से पहले शुरू हुई थी और अस्पताल  खुलने के बाद पूरे एक साल तक चली । शोधकर्ता शिकैगो में स्थित सेंटर फॉर केयर एण्ड डिस्करवरी अस्पताल के शुरू होने से पहले तक हर हफ्ते लाइट के स्विच, फर्श, पानी के सिस्टम और दूसरी जगहों से जेनेटिक मटेरियल इकट्ठा किया करते थे ताकि सूक्ष्मजीव निवासियों की पहचान की जा सके । जब अस्पताल शुरू हुआ तब भी शोधकर्ताआें ने नमूने लेना जारी रखा, ये नमूने मरीजों की नाक, बगल, हाथों आदि से लिए जाते थे । शोधकर्ता रोज इन नमूनों को अपने स्तर पर जांचते भी थे ।
    इस टीम ने लगभग ४५०० नमूने लिए मगर ६०० का ही विश्लेषण हो पाया है । प्रारंभिक परिणामों से पता चला है कि अस्पताल शुरू होते ही कितनी जल्दी सूक्ष्मजीव समुदाय में बदलाव शुरू हो गया था । इस शोध के प्रमुख जैक गिलबर्ट का मत है कि मनुष्यों की वजह से सूक्ष्मजीव समुदाय में बदलाव बहुत तेजी से होते हैं ।
    नमूनों के डीएनए इकट्ठा करने के क्रम में गिलबर्ट और उनकी टीम ने लगभग ७०,००० प्रकार के सूक्ष्मजीवों की पहचान की । ये सूक्ष्मजीव हवा, पानी, निर्माण सामग्री और मजदूरों के साथ आए थे । अस्पताल शुरू होने के साथ ही मरीजों और स्टॉफ के लोगों के जूतों और त्वचा के जरिए नए सूक्ष्मजीव दाखिल हुए, जिससे इस अदृश्य इकोतंत्र में फेरबदल हुआ ।
    गिलबर्ट और उनकी टीम ने अस्पताल के कमरों में सूक्ष्मजीव समुदाय में महत्वपूर्ण बदलाव देखे । जो मरीज केवल कुछ समय के लिए अस्पताल में भर्ती हुए उन्होनें अस्थाई प्रभाव छोड़ा । और यह प्रभाव अस्पताल के कमरे को साफ करने पर खत्म हो गया । लेकिन लंबी बीमारी से ग्रसित मरीजों के सूक्ष्मजीवों को वहां बसने के लिए लंबा समय मिला और कमरे की सफाई के बावजूद ये सूक्ष्मजीव वहींबने रहे ।
    मगर टीम को उस क्षेत्र में लंबे समय तक जीवित रहने वाले रोगजनक सूक्ष्मजीव नहीं मिले हैं । मगर अभी यह अध्ययन सिर्फ चार माह चला है । यूएस के अस्पतालों में हर साल लगभग १७० लाख अस्पताल-जनित संक्रमण होते हैं । ये सूक्ष्मजीव कहीं से तो आते होंगे । हो सकता है कि देर सबेर हानिकारक सूक्ष्मजीव इस नए अस्पताल में भी डेरा जमा लेंगे । इस प्रोजेक्ट के परिणामों में अस्पताली सूक्ष्मजीवों के कार्यकरने की  झलक नजर आती है । लेकिन थॉमस श्मिट का कहना है कि इसके लिए और शोध की जरूरत है ।
कविता
प्रकृति हमें क्षमा करो
भरत जोशी

    बादलों तुम बरसो, नदियों के लिए
    नदियों तुम बहो, वृक्षों के लिए
    वृक्ष तुम बढ़ो, फल-फूलों के लिए
    हवाआें तुम चलो, प्राणों के लिए
    हम तुम्हारे बिना अनाथ है ।
    हमनें नीजि स्वार्थवश, तुम सभी
    प्राकृतिक संसाधनों का शोषण किया
    आज हम भुगत रहे हैं
    पर्यावरण दूषित करने के नतीजे ।
    तुम्हारे भी मन-विचार बदलेगें
    हमनें यह सोचा भी नहीं था ।
    हम, तुमसे ह्दय से क्षमा चाहते है
    हमारा अस्तित्व खतरे में है
    प्रकृतिहमें क्षमा करो ।
    हमारें आंसू भी, हमारे पाप नहीं धोते
    विचार में है, कैसेबीतेगा शेष जीवन ।
    प्रकृति तुम्हारी पंचतत्व को हम
    भौतिक स्वरूप में, जस का तस
    रखने की शपथ लेते हैं
    तुम्हारे परहित सरिस धर्म पर
    सिर नवाते हैं, तुम्हारे मध्य
    तुम जैसे होकर जीना चाहते हैं
    हमे क्षमा करो, हमें क्षमा करो ।
विज्ञान, हमारे आसपास
आकाश में भी बहती है नदियां
विमल श्रीवास्तव
    दिसम्बर २०१२ की बात है । ब्रिटेन के दक्षिण पश्चिमी भाग में सागर के समीप स्थित प्लिमथ नगर में क्रिसमस की खरीददारी जोरों पर थी । तभी अचानक वहां क्रिसमस के  इरादों पर जैसे प्रकृति ने अक्षरश: पानी फेर दिया - पांच दिनों तक लगातार हुई घनघोर बारिश के कारण नगर में चारों तरफ पानी ही पानी दिखने लगा । कुछ समय पूर्व ही प्लिमथ नगर के ८० किलोमीटर उत्तर में स्थित केन नदी पर बाढ़ नियंत्रण के प्रबंध किए गए थे, जिनकी कुल कीमत करोड़ों रूपए आई थी । किन्तु प्रकृति के प्रकोप ने उन सभी व्यवस्थाआें को असफल कर दिया । भयंकर बाढ़ ने केवल प्लिमथ नगर ही बल्कि उसके निकट स्थित ब्रॉटन नगर तथा आसपास के अनेक स्थानों में कई-कई फुट तक पानी भर दिया जिससे उन क्षेत्रों का रेलवे संपर्क पूरे छह दिनों तक कटा रहा । 
 
     वैसे इससे भी अधिक तबाही लगभग डेढ सौ वर्ष पूर्व वर्ष १८६१ में अमरीका के कैलीफोर्निया राज्य में स्थित सैक्रामेंटो नगर में देखी गई थी । सागर तट पर स्थित इस नगर में क्रिसमस के समय से आरम्भ होकर निरन्तर ४३ दिनों तक बारिश ही बारिश होती रही थी । इस कारण पूरे शहर में तीन-तीन मीटर तक पानी भर गया था और निकट स्थित घाटी में इतना पानी भर गया था कि वहां तीस किलोमीटर चौड़ी झील बन गई, जो महीनों तक बनी रही थी ।
    प्रश्न उठता है कि जल प्रलय की उक्त दोनों घटनाएं क्यों घटित हुई थी ? क्या वे तूफान की घटनाएं भी अथवा सामान्य बारिश थी  ? किन्तु भूगर्भ वैज्ञानिकों तथा मौसम शास्त्रियों की राय बिलकुल भिन्न है । उनका मानना है कि इस प्रकार की जल प्रलय की घटनाएं एक विचित्र कारण से उत्पन्न होती हैं, जिसे उन्होंने आकाशीय नदी नाम दिया है । ये नदियां सामान्य नदी की तरह धरती पर नहीं बल्कि धरती से कई किलोमीटर ऊपर आकाश अथवा बादलों में विचरण करती हैं । इन नदियों से आने वाली बाढ़ का तो कोई मुकाबला ही नहीं कर सकता है । जल विध्वंस का जीता जागता उदाहरण प्रस्तुत कर देती है ये नदियां ।
    आकाशीय नदियां का मुख्य प्रयोजन जल वाष्प को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक ले जाना होता है । ये नदियां भूमध्य रेखा के आसपास स्थित उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों पर बनने वाली जल वाष्प को मध्य क्षेत्रीय स्थलों तक ले जाने में सहायक होती है । उदाहरण के लिए जब इन उष्णकंटिबंधीय क्षेत्रों में गर्मी के कारण जल का वाष्पन होता है तो वाष्प ऊपर आकाश में पहुंच जाती है, जहां वायु में जल वाष्प से भरा यह क्षेत्र एक विशाल लम्बी और संकरी आकाशीय नदी का रूप ले लेता है । इस प्रकार उष्णकंटिबंधीय क्षेत्र का जल ऊपर आकाश में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंच जाता है । इसी तरह, महासागरों का जल भी वाष्पित होकर इन आकाशीय नदियों द्वारा दूर दराज के क्षेत्रों में पहुंच जाता है । ये नदियां जल का परिवहन ठीक उसी प्रकार से करती हैं जैसे हवाई अड्डोंपर लगाए गए कन्वेयर बेल्ट यात्रियों का सामान एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचा देते हैं ।
    आकाश अथवा बादलों में तैरती हुई ये नदियां हजारों किलोमीटर लंबी हो सकती हैं, तथा इनकी चौड़ाई केवल २०-३० से लेकर कुछ सौ किलोमीटर तक सीमित होती है । एक आकाशीय नदी में इतना पानी भरा होता है कि विश्व की सबसे बड़ी नदी अमेज़न (दक्षिण अमरीका) का सारा का सारा पानी भी इनके आगे कम पड़ेगा । इस प्रकार उन्हें अथवा जल राशि से भरी     हुई संकरी नदियों के रूप में जाना जाता है ।
    सामान्यत: किसी भी समय किसी गोलार्ध में इस प्रकार की तीन से पांच तक नदियां उपस्थित रहती हैं । इन नदियों का मुख्य प्रयोजन दक्षिण और उत्तर क्षेत्रों के बीच जल का परिवहन करना होता है । इन क्षेत्रों में लगभग ९० प्रतिशत जल परिवहन नहीं आकाशीय नदियों द्वारा होता है, जबकि इन नदियों के संकरे आकार के चलते ये पृथ्वी की परिधि का केवल १० प्रतिशत भाग घेरती है । मुख्यत: उत्तरी गोलार्ध के मध्य क्षेत्रीय भाग में, पश्चिमी युरोप में तथा उत्तरी अमरीका के पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में जल विप्लव की अधिकतर घटनाएं इन्हीं आकाशीय नदियों के कारण होती हैं । जब ये अपना विकराल रूप दिखाती हैं, तो लगता है कि बादल फट रहे हैं और आकाश टूट पड़ा है । बारिश का प्रकोप कई-कई घंटों से लेकर कई-कई दिनों तक चलता है । इसके अलावा वर्षा की रफ्तार इतनी तेज होती है कि लगता है जैसे फायर ब्रिगेड वाले आग बुझाने का पाइप चला रहा हो ।
    आकाशीय नदियों की खोज का श्रेय यूएसए के एम.आई.टी. के वैज्ञानिक रेजिनाल्ड नेवेल तथा योंगझू को जाता है । और आश्चर्य की बात तो यह है कि यह खोज अभी हाल ही में वर्ष १९९८ में (अर्थात केवल १५ वर्ष पूर्व) की गई है । इन वैज्ञानिकों ने मौसम संबंधी रिकॉर्ड के अध्ययन के आधार पर आकाशीय नदियों की उपस्थिति के कई प्रमाण प्रस्तुत किए थे ।
    वास्तव में इस प्रकार के जबरदस्त जल प्रलय का आना विश्व के  अनेक भागों में एक आम बात मानी जाती थी, किन्तु इनका वास्तविक कारण ठीक से ज्ञात नहीं था, और अधिकतर इन्हें एक प्रकार का तूफान माना जाता था । उदाहरण के लिए, अमरीका के कैलीफोर्निया में प्राय: सर्दियों में जलीय तूफान आते हैं जो गर्म पानी से पूर्ण होते हैं । इनकी उत्पत्ति पश्चिम में प्रशांत महासागर में स्थित हवाई द्वीपों के क्षेत्र से होती है । इसे पाइनऐपल एक्सप्रेस नाम दिया गया है । वैसे यह भी आकाशीय नदी का एक प्रकार होता है और यह भी देखा गया है कि कैलीफोर्निया राज्य इन आकाशीय नदियों के कारण बहुत अधिक प्रभातिव होता है ।
    ऐसा नहीं है कि सभी प्रकार की आकाशीय नदियां विपलवकारी होती है । ये अनेक लाभदायक कार्य भी करती हैं । यदि इन नदियों में जल वाष्प का प्रकोप इतना शक्तिशाली न हो, तो ये विभिन्न क्षेत्रों में पानी का परिवहन करती हैं, तथा बर्फ भी उत्पन्न करती हैं जिस कारण उन क्षेत्रों को लाभ पहुंचता है । किन्तु अधिक शक्तिशाली होने पर ये बाढ़, भूस्खलन आदि द्वारा अत्यधिक हानि पहुंचा सकती है ।
    वैसे आकाशीय नदी की खोज से पूर्व, अचानक आई जल प्रलय की घटनाआें को तूफान समझा जाता था । किन्तु आकाशीय नदी और बहुचर्चित शब्द तूफान एक-दूसरे से भिन्न हैं । तूफान के केन्द्र में मुख्यत: वायु के कम दबाव वाला क्षेत्र होता है, और सबसे अधिक प्रचंड मौसमी प्रकोप उसी केन्द्र के आसपास दिखता है । दूसरी ओर, आकाशीय नदी में मौसमी प्रकोप उसके ब्राह्मा भागों में ज्यादा होते हैं ।
    आकाशीय नदियों की प्रचंडता उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के निकट अधिक प्रभावकारी होती है, क्योंकि वहां पर वातावरण का तापमान अधिक होता है, जिसके कारणवायु में जल वाष्प की मात्रा अधिक हो जाती है । जैसे-जैसे यह वाष्प पृथ्वी पर उत्तर दिशा में बढ़ती है, वातावरण का तापमान कम होने लगता है, और आकाशीय नदियों में जल  वाष्प की मात्रा भी कम होने लगती है । इसलिए जल प्रलय भी उतना उपद्रवी नहीं होता ।
    आकाशीय नदियां क्यों उत्पन्न होती है, इसका अभी तक कोई समुचित उत्तर नहीं मिल पाया है । वैज्ञानिक अभी खोज कर रहे हैं । नई-नई खोज होने के कारण आकाशीय नदियों से संबंधित और भी अनेक जानकारी अभी तक पूरी तरह से नहीं मिल पाई है ।
    दूसरा प्रश्न यह उठता है कि क्या आकाशीय नदियों का पूर्वानुमान किया जा सकता है, जैसे समुद्री तूफान के आने की पूर्व सूचना मौसम विभाग द्वारा उपलब्ध कराई जाती है ? इसके लिए अमरीका सरकार कैलीफोर्निया राज्य के निकट कुछ मौसम केन्द्रों का निर्माण करा रही है, जहां आकाशीय नदियों के रिकार्ड इकट्ठे किए जाएंगे, तथा वायु तथा जल वाष्प की गति, मात्रा, दिशा आदि के अवलोकन व मापन के आधार पर इन घटनाआें का पूर्वानुमान किया जा सकेगा । संभवत: वर्ष २०१४ तक ये केन्द्र काम करने लगेंगे । यदि यह केन्द्र सफल होता है तो विश्व के  दूसरे भागों में भी इसी प्रकार के केन्द्रों के निर्माण की कोशिश होगी । प्रत्यक्ष है कि इस सबमें समय लग सकता है और इस केन्द्र को इसमें कितनी सफलता मिल पाएगी यह अभी स्पष्ट नहीं है ।
    आकाशीय नदियों पर किए गए शोध और अनुसंधान के फलस्वरूप और भी अनेक नए-नए तथ्यों के उजागर होने की संभावना है । हो सकता है कि पूर्व में घटित या भविष्य में घटनी वाली जल प्रलय की अनेक घटनाआें के असली कारणों का भी पता चल जाए जिन्हें  अभी तक भीषण तूफान या अन्य मौसमी प्रभाव माना जाता रहा है । यह भी हो सकता है कि निकट भविष्य में इनके पूर्वानुमान तथा संभावित बाढ़ से बचाव के भी कुछ उपाय लागू किए जा सके ।
पर्यावरण समाचार
 पहाड़ों को बचाने के लिए बने हिमालय नीति : बहुगुणा
    उत्तराखंड में पुनर्वास और बहाली की कवायद के बीच पर्यावरणविद् संुदरलाल बहुगुणा ने कहा है कि तात्कालिक उपाय करने की बजाए अलग हिमालय नीति बनाकर ही पहाड़ों को भविष्य में भी प्राकृतिक आपदाआें से बचाया जा सकता है । ८६ वर्षीय श्री बहुगुणा ने कहा कि मैंने अपना पुरा जीवन हिमालय को बचाने की मुहिम में लगा दिया है । मैं निराश नहीं हॅूं बल्कि खुशी हैं कि मैं लोगों को जागृत कर सका । मैं पुन: पुरजोर तरीके से मांग करता हॅूं कि हिमालय के लिए अलग नीति बनाई जाए । हिमालय नीति में स्थायी रोजगार, विनाशकारी पर्यटन पर रोक, पानी के संकट से निपटने के उपाय और हरित पुनर्वास जैसे सभी अहम मसले शामिल किए जाए ।
    श्री बहुगुणा ने कहा, कि पहाड़ों पर फलदार और पशुआें को चारा देने वाले पेड़ लगाए जाएं । स्थायी रोजगार के उपाय भी जरूरी हैं । पानी के संकट को आने वाले समय कि भीषण समस्या बताते हुए श्री बहुगुणा ने कहा कि इससे बचने के लिए अभी से कमर कसनी होगी । आने वाले समय में पानी का संकट बहुत बड़ा होगा । इससे बचने के लिए प्राकृतिक जलाशय बनाए जाएं और छोटे-छोटे बांधो के जरिए पानी चोटी तक पहुंचाया जाए ताकि ऊपर से नीचे की ओर पानी का बहाव   रहे । उन्होने कहा कि बांध बनाना कोई हल नहीं है, बल्कि सर्पाकार गति से बहने वाली नदी को रोककर यह उसके औषधीय गुण खत्म कर देते हैं । उन्होनें कहा उत्तराखंड के हरित पुनर्वास की बातें हो रही हैं । लेकिन पेड़ लगाने भर से काम पूरा नहीं हो जाता, उनकी देखरेख भी जरूरी है ।

म.प्र. में शहर बढ़ें, लेकिन गांव घटे
    म.प्र. में जनगणना से यह तथ्य सामने आया है कि प्रदेश में ४९० गांव कम हुए है जबकि ८२ शहर बढ़े है । प्रदेश में २८.८ घरों में ही शौचालय हैं जबकि ३२.१ फीसद घरों में टीवी और ४६.८  फीसदी घरों में मोबाइल फोन हैं । सूबे की करीब ४० फीसदी  आबादी १८ साल से कम की है । सबसे ज्यादा शहरी आबादी इन्दौर जिले में और सबसे कम ग्रामीण आबादी रीवा जिले में है ।