शुक्रवार, 13 सितंबर 2013



प्रसंगवश 
पक्षी चेतना अभियान
ईश्वर ने हम इंसानों को अपनी भूख और प्यास मिटाने में समर्थ बनाया है । जल संकट के इस दौर में भी हम अपनी प्यास बुझाने का इंतजाम कर ही लेते हैं, लेकिन बेजुबान पशु-पक्षियों को भीषण जल संकट का सामना करना पड़ता है । अक्सर आपने देखा होगा कि घर आंगन में लगे नल से टपकती बूंदों को पीकर चिड़िया अपनी प्यास बुझाने की कोशिश करती है क्यों न हम पानी की तलाश में भटकते इन प्यासे परिंदों की प्यास बुझाने का एक छोटा सा प्रयास करें । 
आइए....... आप और हम सब मिलकर अपने घर की छत या आंगन में सुबह-शाम पक्षियों को अपनी भूख मिटाने के लिए अनाज के दाने डालें एवं प्यास बुझाने के लिए पक्षियों के पीने के पानी के कुण्डों में पानी भरकर रखें एवं अपने पर्यावरणीय सामाजिक दायित्व का निर्वाह करते हुए पक्षी चेतना के इस अभियान में सहभागी बनें और समाज के प्रत्येक नागरिक को अभियान में शामिल होने के लिए प्रेरित करें साथ ही भारतीय संस्कृति के इस महान और स्वस्थ परमपरा को जीवित रखने में सहयोग करें । 
पक्षी बीज परागण के कार्यमेंसहायता करते हैं और पेड़ पौधों को उगाने में भी मदद करते हैं । किसी भी प्राकृतिक आपदा(भूकंप) के आने से पहले पक्षी हमेंअपने असामान्य व्यवहार द्वारा सूचित एवं सचेत करते हैं । तोता, मैना और रैकेट रेल्ड ड्रेगो पक्षी मनुष्य की आवाज की हूबहू नकल करते हैं तथा बिटर्न पक्षी बाघ की तरह दहाड़ता है । टेलर बर्ड या बया पत्तों को सिलकर अपना घोंसला तैयार करती है । पक्षियों में सबसे पुरानी पीढ़ी है आर्कियोपटेरिक्स जो लगभग १५०० लाख साल पुरानी है । अमेरिका में पाई जाने वाली सबसे छोटी चिड़िया हमिंग बर्ड ९० प्रतिशत भोजन फूलोंके पराग से लेती है । एक हमिंग बर्ड एक दिन में २००० फूलों पर जाती है तथा इसकी याददास्त इतनी तेज होती है कि इसे याद रहता है कि एक साल पहले यह अपना भोजन तलाश करने कहाँ गई थी साथ ही एक सेकेण्ड मेंलगभग ५० से २०० बार अपने पंख फड़फड़ा लेती है तथा किसी भी दिशा में पंख कर उड़ सकती है ।   
रूपेश लाड़, अध्यक्ष, पंचतत्व पक्षी चेतना अभियान, गंजबासौदा (म.प्र.)
संपादकीय 
म.प्र. में किसानों की विदेश अध्ययन यात्रा
म.प्र. में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पहल पर खेती के नये तौर-तरीके सिखाने के लिए मुख्य मंत्री किसान विदेश अध्ययन यात्रा योजना के रूप में नई राह खोली है । योजना में कृषि, उद्यानिकी, खाघ प्र-संस्करण, पशु पालन और डेयरी विकास, मछुआ कल्याण एवं मत्स्य विकास से जुड़े प्रगतिशील कृषकों को उनकी रूचि और व्यवसाय के अनुसार आधुनिक तकनीकों के प्रयोग मेंअग्रणी देशों की यात्रा करवायी जायेगी । यात्रा में वास्तविक और प्रगतिशील कृषक ही भाग ले सकेंगे । ये किसान नये वैदेशिक ज्ञान, उपकरण, प्रयोग और विधियों की जानकारी समझेगे तथा उसे अन्य किसानों में बाँटेगे । 
योजना केवल एक-दो भ्रमण कार्यक्रम तक सीमित नहींरहेगी, बल्कि प्रतिवर्ष २०-२० किसान के दो-तीन अध्ययन दल अलग-अलग देशों की विदेश यात्रा पर जायेंगे । इनके साथ एक-एक कृषि वैज्ञानिक तथा एक-एक विषय-विशेषज्ञ भी रहेगा । खाद्य और पोषण की भावी चुनौतियों का सामना करने के लिये परम्परागत खेती के अतिरिक्त पाश्चात्य देशों में अपनाई जा रही आधुनिक खेती से परिचित करवाने किसानों को विदेश भ्रमण करवाया जा रहा है । 
राज्य शासन ने खेती को लाभकारी बनाने का संकल्प लिया है, जिसके लिये किसानों को काफी सुविधाएं दी जा रही है । किसान विदेशों में कम सिंचाई के उपयोग से अधिक उत्पादन लेना, खाद्यान्न तथा तिलहनी फसलों के उत्पादन में आधुनिकतम यंत्रों के प्रयोग से अधिक उत्पादकता आदि की विधि जान सकेंगे । फल-फूल और सब्जी उत्पादन के लिये कृत्रिम मौसमी परिस्थितियाँनिर्मित कर सुरक्षित एवं सुनिश्चित उपज प्राप्त् करने जैसी तकनीकों को हमारे किसान भी प्रत्यक्ष रूप से देख-समझ कर अपना सकते हैं । इसी प्रकार पशु-पालकों को भी दुग्धोत्पादन के क्षेत्र में बहुत सारी तरकीबें समझकर डेयरी व्यवसाय को सुदृढ़ करने का अवसर मिलेगा । कृषि विपणन के क्षेत्र में उत्पादन के साथ प्रबंधन, प्र-संस्करण और विपणन के प्रमुख सूत्र भी इस अध्ययन यात्रा में किसानों को सीखने को मिलेंगे । किसानों के लिये तय किये गये विदेशी दौरों में मुख्य रूप से हॉलैण्ड, जर्मनी, कनाडा, अमेरिका, स्पेन, दक्षिण अमेरिका के चिली, पेरू एवं ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, न्यूजीलैण्ड, केन्या, आस्ट्रेलिया, दक्षिण एशिया तथा राज्य शासन द्वारा चयनित अन्य देशोंको भी सम्मिलित किया जा सकेगा । प्रगतिशील किसानों के कुल २० सदस्यीय समूह में से सामान्य वर्ग के ४, अनुसूचित जनजाति वर्ग के ३, विशेष उपलब्धियाँ वाले ३, पुरस्कृत किसान ३, सामान्य महिला कृषक ४, अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति वर्ग की महिला किसान ३ की संख्या मेंरहेगे । इस प्रकार यात्रा दल ५० प्रतिशत कृषि वर्ग के किसान और २५-२५ प्रतिशत उद्यानिकी एवं पशु पालन, मछली-पालन वर्ग से होगे । 
योजना अध्ययन भ्रमण पर होने वाले व्यय पर लघु-सीमांत कृषकों को ९० प्रतिशत अनुदान, सामान्य वर्ग के किसानों को ५० प्रतिशत, अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के कृषकों को ७५ प्रतिशत अनुदान की पात्रता होगी । दस दिवस के प्रस्तावित प्रशिक्षण में विदेशी कृषि प्रक्षेत्रों पर ऑन फार्म ट्रेनिंग के लिये २ दिवस, अनुसंधान केन्द्रों के भ्रमण एवं वैज्ञानिकों से तकनीकी जानकारी प्राप्त् करने के लिये ३-४ दिवस, विदेशी बाजारों का घूमकर भण्डारण, विपणन, प्र-संस्करण तथा बाजार व्यवस्था को समझने के लिये एक दिन तथा अंतर्राष्ट्रीय कृषि प्रदर्शनी/एक्सपो आदि देखने के लिये एक दिन निर्धारित किया गया है । 
जिले मेंकिसानों का चयन कलेक्टर की अध्यक्षता में गठित समिति करेगी । समिति में पशु पालन, मत्स्य-पालन तथा उद्यानिकी के जिला स्तर के अधिकारी सदस्य एवं उप संचालक कृषि सदस्य सचिव होगें । समिति द्वारा ५ किसान का चयन पारदर्शी प्रक्रिया द्वारा किया जायेगा । राज्य स्तर पर चयन समिति के सचिव संचालक किसान कल्याण तथा कृषि विकास वरीयता क्रम देते हुए सूची का संधारण करेगे । सूची की प्रभावशीलता एक वर्ष होगी । विदेश भ्रमण के लिये किसानोंके दल का निर्धारण कृषि उत्पादन आयुक्त की अध्यक्षता में गठित समिति करेगी जिसका अनुमोदन मुख्यमंत्री द्वारा किया जायेगा । विदेशों  से अध्ययन भ्रमण करने के बाद इन किसानों को विभागीय प्रशिक्षण कार्यक्रमों में मास्टर ट्रेनर्स के रूप में उपयोग किया जायेगा जिससे उनके अनुभवों का लाभ अन्य किसानों को मिल सकेगा । 
सामयिक 
उत्तराखंड में प्रकृति का सरंक्षण जरूरी
प्रेमवल्लभ पुरोहित, राही

देवभूमि उत्तराखण्ड हिमालयी क्षेत्र में संवेदनशील एवं नाजुक पर्वतमालाआें के मध्य स्थित पर्वतीय क्षेत्र है । इस सम्पूर्ण क्षेत्र में गढ़वाल व कुमाऊं मंडल के गांव व कस्बे ऊंची-नीची ढलानों पर बसे हुये हैं । इन पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन, भूकम्प, बादल फटना, अतिवृष्टि एवं नदियों में बाढ़ का आना स्वाभाविक ही है । 
जनपद चमोली, रूदप्रयाग, पिथौरागढ़ व उत्तरकाशी के कुछ क्षेत्र इतने संवेदन क्षेत्र हैं कि उन स्थानों पर उथल-पुथल होता ही रहता है जिससे जन-धन एवं प्रकृति की क्षति होती रहती है । वर्ष १८०३ व १९९० में भूकम्प  व वर्ष १९७०, १९९५, २०१०, २०११, २०१२ में आधी प्राकृतिक आपदा से बेहत जन-धन की क्षति हुई है । परन्तु जून १६ व १७, २०१३ में आई प्राकृतिक  आपदा से पहाड़ की सम्पूर्ण व्यवस्था चरमरा गयी । चौ तरफा जन-धन, खेती-बाड़ी, प्राकृतिक सपंदा, वन्य जीवों की बेहद क्षति हुई है ।
१५ जून २०१३ से १७ जून तक लगातार मुसालाधार अत्यधिक बारिश होती रही । इसी बीच १६ जून को रात्रि ८.१५ व १७ जून प्रात: ८.०० बजे विश्व विख्यात तीर्थ केदारनाथ मंदिर के प्रांगण व ईद-गिर्द क्षेत्र में जिस कदर प्रकृति जन्य आपदा व जल-प्रलय ने नग्न तांडव दिखाया उससे हजारों देश-विदेश के विभिन्न राज्यों से आये तीर्थ यात्री जिनमें बच्च्े, युवा, महिलायें, बुजुर्ग तथा स्थानीय, व्यवसायी, जीव-जन्तु, प्राकृतिक स्वरूप पलभर में ही मिट्टी-पान के मलवे मेंजमीदोज हो गये तथा इस जलप्रलय ने केदारनाथ मंदिर से लेकर रामबाड़ा, गौरीकुण्ड, सोनप्रयाग, कुण्ड, भीरी, चन्द्रापुरी, गंगानगर, अगस्त्यमुनि, सिल्ली, रूद्रप्रयाग तथा श्रीनगर तक इस कदर तबाही मचाई कि देखते ही देखते इन स्थानों का स्वरूप ही बदल गया  । 
प्रदेश में सड़कें टूट गयी, संचार-विघुत व्यवस्था ठप्प हो गयी जिससे घाटी का सारा जन-जीवन अस्त-व्यस्त होकर अफरा-तफरी में ही खुद को खोजते ही रह  गये । इस पलक झपकते प्रकृतिक आपदा में हजारों तीर्थ यात्री, पशु-पक्षी, वन-प्रान्तर, दुर्लभ जड़ी-बूटियां, आवासीय व व्यवसायिक भवन, यात्री वाहन, कृषि भूमि व सरकारी संपदा का मटियामेट हुआ कि सही रूप में आंकलन करना संभव नहीं होगा । 
सच है कि मानव समाज स्वार्थ से प्रकृति के क्षेत्र को घेरकर अपनाने की ओर सदा सतत, प्रयासरत रहता है । जिसका नाजायज अवैध निर्माण का प्रतिफल हमें समय-समय पर भुगतना ही पड़ता है । तब भी हमें अक्ल नहीं आती । विगत सालों में तथा २०१२-१३ में नदी-नालों के किनारे अरबों जन-धन व सम्पत्ति की क्षति भी अवैध निर्माण व प्रकृति से छेड़छाड़ का प्रतिफल नहीं तो और क्या है ? 
वर्तमान में राज्य में ५५८ छोटे बड़े बांधों का निर्माण कार्य प्रस्तावित है तथा अधिकांश १५० विद्युत परियोजनाआें पर कार्य प्रगति पर चल रहा है । जल प्रलय आपदा से जगह-जगह भूस्खलन के कारण २४५ सड़के बंद पड़ गयी व ७५२ गांव अलग-अलग पड़ गये ।  यहां ११४४ स्कूली भवन जर्जर हालात में हैं तथा कई पूर्ण क्षतिग्रस्त भी हुये हैं । 
केदारघाटी के ग्रामीण स्कूली बच्च्े यात्रा काल में अगली कक्षाआें के लिए फीस, किताबें व कपड़ों की जुगत के लिए हर बरस केदारधाम में काम करने जाते हैं । इस साल भी गये २०० स्कूली बच्चें का अभी तक कोई अता-पता नहीं है । हजारों पल झपकते ही हताहत हुये, कई अफरा-तफरी में पेड़ों व चोटियों पर जा भागे तो हजारों लोग अभी भी गुमशुदा हैं । 
राज्य के २३३ गांवों को सरकार ने प्राकृतिक आपदाआें को दृष्टिगत रखते हुये संवेदनशील चिन्हित तो किया परन्तु विस्थापन की दिशा में प्रयास अभी तक नहीं हो पाया है । सबसे अधिक संवेदनशील गांव पिथौरागढ़ में ७१, चमोली में ४९, बागेश्वर में ४२, टिहरी व पौडी में १९-१९ गांव है । सरकारी उपेक्षापूर्ण रवैय्ये, असुनियोजित विकास तथा क्षेत्रीय जन प्रतिनिधियों की रूग्ण मानसिकता से पहाड़ी क्षेत्रों में हर साल आपदाआें के कारण पलायन जारी है लेकिन इस भयावह जल प्रलय ने सम्पूर्ण पहाड़ी जन-मानस को इस मोड़ पर खड़ा कर लिया है कि शहरों की तरफ पलायन के सिवाय कोई विकल्प है ही नहीं । 
हर जीवन उपयोगी व्यवस्थाआें का अभाव है पर्वतीय इलाकों में । आखिर कब तक विकास की राह देखते रहें । आने वाले भविष्य को तो संवारना है ही । किसी भी महखमे के सरकारी नौकरशाह पहाड़ में टिकने को तैयार नहीं है  । न सरकार के पास ऐसी कार्यशैली योजना है, जिससे डाक्टर, शिक्षक व नौकरशाह अपनी सही-मायने में सेवा दे सकें । 
इस जल प्रलय आपदा से सिंचाई विभाग को २१२ करोड़ का झटका लगा जिसमें ६७६८ लाख सबसे अधिक ३ उत्तरकाशी जिले को नुकसान हुआ तथा रूद्रप्रयाग जिले को २९६३ लाख की क्षति आंकी गई है । इसी प्रकार जल विघुत निगम को १३२ करोड़ रूपये की क्षेति १९ प्रोजेक्टों से हुई है । लोक निर्माण विभाग को ७३३.४४ करोड़, ग्राम्य विकास विभाग को ७८.३४ तथा इसी प्रकार अन्य १२ विभागों को करोड़ों का झटका लगा है । २० हजार हेक्टेयर कृषि भूमि की क्षति हुई है जिसमें से १८ हजार मैदानी व दो हजार पर्वतीय क्षेत्रों में क्षति का आंकलन है । 
यदि अभी भी प्राकृतिक सम्पदा संरक्षण के प्रति चेतना नहीं हुई तो आने वाले दिन पहाड़ी क्षेत्रों के लिए शुभ सचेतक नहीं है । जिसका विनाशकारी प्रभाव शहरों को भी लीलता चला जाता है । पर्यावरण के लिए संतुलित वन क्षेत्रों का होना, अत्यधिक निर्माण कार्यो पर रोक लगाना, भारी-भरकम बांधों पर रोक व मठ-मदिरों तक वाहनों की आवा-जाही कम करना होगा । 
यह सुनिश्चित है कि यदि राज्य के  कर्ता-धर्ता व प्रबुद्ध जन-मानस पहाड़ी क्षेत्रों के प्रति संवेदन व सचेत  नहीं तो भविष्य में भी इसी प्रकार जल प्रलय, भूस्खलन, कटाव धंसाव आदि प्रकृति जन्य आपदायें आती रहेगी जिसके प्रकोप व भय से पहाड़ी लोग अपनी विरासतों व धर्म-कर्म संस्कारों को छोड़ने को विवश होकर पलायन करते  रहेगें तथा पहाड़ी संस्कृति स्वत: ही विलुप्त् हो जायेगी ।
प्रकृति ने इस आपदा को अंतिम   चेतावनी के बतौर मानव जाति को चेताया है जिससे हमको गंभीरता से चिंतन-मनन करके विचार करना होगा कि कहीं देखते-देखते पहाड़ के गांव सूने-सूने होकर खंडरों में तब्दील न हो जाय तथा एक विरासत पर्यावरण के प्रति न चेतकर आपदाआें की भेंट न चढ़ जाये, इसलिए हमें प्रकृति को पग-पग में संरक्षण करके प्रकृति जन्य आपदाआें को रोकना ही होगा । 
हमारा भूमण्डल 
कचरा : सभ्यता का हमसफर
महाजरीन दस्तूर
कचरे से निपटने के प्रयत्न पिछले ५००० वर्षों से बदस्तूर जारी है । इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत में यह महामारी की तरह पांचों महाद्वीपों के प्रत्येक राष्ट्र में फैल रहा है । कुछ समृद्ध देश अपना कचरा गरीब देशों में फेंक रहे हैं । शहर अपना कचरा ट्रेचिंग ग्राउण्ड में फेककर आसपास रह रहे गरीब लोगों का जीना मुहाल कर रहे हैं । जमीनों की बढ़ती कीमतों को धन्यवाद देना चाहिए, जिन्होंने ट्रेचिंग ग्राउण्ड के  विकल्पों की ओर बढ़ने को प्रेरित किया है ।
अमेरिका के संस्थापकों में से एक बेंजामिन फ्रेंकलिन ने कहा था, जीवन में दो ही चीजें मृत्यु और कर सुनिश्चित हैं । लेकिन अब जीवन की तीसरी सुनिश्चितता कचरा बन गई है । हां वही बदबूदार पदार्थ जिसे हम अपनी निगाह और दिमाग से दूर रखना चाहते हैं, की ओर अब ध्यान देने की आवश्यकता है । डंपिंग या ट्रेचिंग ग्राउण्ड (जिस मैदान में कचरा फेंका जाता है) अपनी क्षमता पार कर रहे हैं और जलते हुए कचड़े को लेकर बढ़ता विरोध अब भारत के  लिए भी अनू ठा नहीं रह गया है । कचरे को डंपिंग ग्राउण्ड तक ले जाने की अनापशनाप कीमतें वसूल करने के रहस्योदघाटन और बढ़ता शुल्क भी चिंता के विषय हैं । (अपशिष्ट निपटान सुविधा और डंपिंग ग्राउण्ड प्रति टन के हिसाब से अपना शुल्क लेते हैं। )
आज से करीब ५००० वर्ष पहले ग्रीस के क्नोस्सोस में पहला भूमि भराव (लेंड फिल) स्थापित हुआ था । बड़े-बड़े गड्ढों में विशाल मात्रा में कचरा डाला जाता था फिर उसके  ऊपर मिट्टी की परत बिछा दी जाती थी । तभी से भूमि भराव का विचार लोकप्रिय बना हुआ है । लेकिन आज इसकी वजह सिर्फ उपयोगिता नहीं बल्कि कचरे को ठिकाने लगाने के  विकल्पों की कमी भी है । सवाल उठ ता है कि आखिर हम इस कचरे का क्या करें ? इस नए युग में अपशिष्ट निपटान का विचार अनेक परीक्षणों और गलतियों से गुजरा     है । सन् १८८५ से १९०८ के मध्य अमेरिका ने भस्मक के माध्यम से इस समस्या से निपटने का प्रयास किया । इन्हें उस समय विध्वंसक कहा जाता था । तब तकरीबन २०० भस्मक बनाए गए थे । 
सन् १९०५ में तो न्यूयार्क शहर ने भस्मक का उपयोग इससे बिजली बनाकर विलियमबर्ग पुल को रोशन करने के लिए भी किया था। लेकिन सन् १९०९ तक १८० में १०२ भस्मक या तो बंद कर दिए गए या नष्ट कर दिए गए । इसकी एक वजह यह भी कि ये ठीक से बनाए ही नहीं गए थे और उनका उद्देश्य पूरा हो चुका था । दूसरा कारण संभवत: यह रहा होगा कि उस दौरान देश में बड़ी मात्रा में भूमि उपलब्ध रही होगी और वह आज के जितनी कीमत भी नहीं रखती होगी । अतएव डंपिंग ग्राउण्ड एक सस्ता विकल्प था । इसी के साथ शहरों के नजदीक दलदली इलाकों के पुन: प्राप्त (रिक्लेमिंग भराव के लिए एक आकर्षक शब्द) करने हेतु इन्हें कचरे से भरने को भी प्राथमिकता दी जाने लगी ।
इसी बीच अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई तेजी ने उपभोक्ताआें को सिरमौर बना दिया और राष्ट्रपति आईजनहावर की आर्थिक सलाहकार परिषद् ने घोषणा कर दी कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था का चरम उद्देश्य है अधिक से अधिक उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन   करना । इसी के साथ अधिक कचरा भी आया । २०वीं शताब्दी के पहले तीन दशकों में बड़ी मात्रा कागज, प्लास्टिक, टिन और एल्युमिनियम के  पेकिंग सामग्री के रूप में प्रयोग में आने से अपशिष्ट प्रबंधन का झुकाव पुर्नचक्रण (रिसाइकलिंग) एवं कम्पोस्टिंग (खाद बनाने) की ओर हुआ । सन् १९७६ में अमेरिका ने संसाधन संरक्षण एवं पुर्नप्राप्ति अधिनियम पारित किया । इसमें यह अनिवार्य किया गया था कि कूढ़े के  ढेरों को सेनेटरी भूमि भराव से निपटाया जाए । इससे कचरे के निपटान की लागत में वृद्धि हुई और राज्य सरकारें संसाधन संरक्षण और पदार्थ की पुर्नप्राप्ति की ओर मुड़ीं ।
यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो अनेक देशों ने पुर्नचक्रण को मान्यता दी है । वैसे जरूरी नहीं कि इसकी एकमात्र वजह पर्यावरण की बेहतरी ही हो । यह अनिवार्यता इसलिए भी बनती जा रही है, क्योंकि भूमि भराव वाली जमीनें बहुमूल्य हैं और इस प्रणाली में वास्तव में नागरिकों को ज्यादा लागत भुगतनी पड़ती है, क्योंकि बजाए इस भूमि से कुछ अर्जित करने के, इसमें कूड़ा करकट फेंका जाता है ।
यूरोपीय यूनियन, उत्तरी अमेरिका और एशिया के कई क्षेत्रों में नागरिकों से ट्रक में फेंके गए कचरे की मात्रा के हिसाब से शुल्क वसूला जाता है । गौरतलब है कि वहां ऐसी अत्याधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जाने लगा है, जिससे कि नागरिकों की किसी भी गलत क्रिया पर उन्हें दंडित किया जा सकता है और प्रत्येक रहवासी के कचरे की मात्रा को उस पर लगे टेग से रेडियो फ्रीक्वेंसी के माध्यम से तलाशा जा सकता है । इससे रहवासी इलाकों के कचरे में १० से ४० प्रतिशत की कमी आई है और पुनर्चक्रण की दरों में ३० से ४० प्रतिशत तक की वृद्धि हो गई है ।
स्पष्ट है कि लोगों से अनुरोध करना होगा कि वे कम कचरा पैदा करें और पुनर्चक्रण करें । केवल अच्छा महसूस (हम भारतीय ऐसा ही करते हैं) करने से बात नहीं बनेगी । सवाल उठता है कि यदि अत्यधिक पुनर्चक्रण (रिसायकलिंग) होगा, तो क्या होगा? पुर्नचक्रण उत्पाद बाजारों (हां ये अस्तित्व में हैं और ऐसे उत्पाद की कीमतों में वर्ष २००९ एवं २०१२ के मध्य विश्वव्यापी कमी आई है ।) फाजिल्स इंर्धन की कीमतों में भी आई गिरावट से पुर्नचक्रित रेजिन की कीमतों में कमी आई । अमेरिका के रिसाइकलिंग उत्पाद बाजार में कारोगेटेड बक्सों की मांग एवं कीमतें बहुत निकटता से चीनी अर्थव्यवस्था से जुड़ी हुई हैं । जैसे ही अर्थव्यवस्था धीमी पड़ती है, मांग में कमी आ जाती है और कीमतें भी गिर जाती हैं । 
यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि टेबलेट कम्प्यूटर की लोकप्रियता, ई-समाचार पत्र एवं ई-बिलिंग की वजह से समाचार पत्रों की रद्दी की कीमतें भी गिरेंगी । पुनर्चक्र्रण की मूल्य निर्धारण श्रंृखला विश्व अर्थव्यवस्था से निकटता से जुड़ी है । स्थानीय पुनर्चक्रण बाजार भी मांग और पूर्ति के सिद्धांत से जुड़े हैं । वैसे उन पर उतना बुरा प्रभाव नहीं पड़ता । यदि इन रिसायकलिंग सुविधाओं को सीमित करने का प्रयास किया गया तो लोग वही करने लगेंगे, जो वह पहले करते थे । यानि पुर्नचक्रण हो सकने वाली वस्तुओं को भी वे डंपिंग ग्राउंड में भेजने लगेंगे ।
इसका यह मतलब नहीं है कि पुर्नचक्रण खराब है या भूमि भराव (अव्यवस्थित या अंधाधुंध कूढ़ा फेंकना, अलग बात है) ही आखिरी विकल्प है । सरकारों को ऐसे अभिनव उपायों के बारे में सोचना चाहिए जिससे कि नागरिक (अधिकांशत: मजबूर) जिम्मेदारीपूर्वक अपने कचरे का प्रबंधन कर सकें । इसके लिए ठोस ज्ञान एवं दूरंदेशिता के साथ मजबूत इच्छाशक्ति का होना भी आवश्यक है ।
जनजीवन
न्यायालय, प्रशासन और राजनीति
रामअवतार गुप्त
शहर की सफाई व्यवस्था से लेकर अनैतिक ड्रग ट्रायल के खिलाफ कार्यवाही हेतु नागरिकों को उच्च् एवं उच्च्तम न्यायालय के दरवाजे खटखटाने पड़  रहे  हैं । एक मोटा अनुमान यह है कि न्यायालयों में चल रहे  मुकदमों में से ७० प्रतिशत से अधिक में सरकार एकपक्ष के रूप में मौजूद  है ।  
मीडिया में अक्सर राजनी-तिज्ञों के बयान आते हैं कि इस समय देश में न्यायालय ज्यादा सक्रिय हैं । किसी मामले में राजनीतिज्ञों की यह प्रतिक्रिया भी आती है कि न्यायिक सक्रियता ज्यादा है । एक दो बार तो सरकार में बैठेे जिम्मेदार राजनैतिक पदाधिकारियों  ने भारत के न्यायालयों पर अशिष्ट टिप्पणी भी की है । ऐसे मामलों को लेकर विचार उठ ता है कि अंतत: ऐसी टिप्पणी आई क्यों? संवैधानिक व्यवस्था में अब ऐसी कौन सी खामी आ गई है कि संविधान के दो पहिये आपस में टकराने लगे हैं । संविधान मंे दिए गए निर्देश के  तहत सभी अंगों का अपना अलग अधिकार क्षेत्र है और अपने दायित्व हैं  तो फिर यह टकराहट क्यों ?
देश की अदालतों के दिशा निर्देशों केन्द्र के  साथ ही राज्य सरकारों के कार्य प्रणाली पर भी सवाल खड़ा करते हैं । सवाल यही है कि जो दिशा-निर्देश सर्वोच्च न्यायालय ने  मामलों की सुनवाई के बाद जारी किये हैं, क्या वह सरकारें पहले से स्वत: लागू नहीं कर सकती थीं ? कानून व्यवस्था के ऐसे मामलों में न्यायपालिका के हस्तक्षेप करने की नौबत ही क्यों आए । ऐसे मामलों मंे यदि सरकार सभी राजनैतिक दलों को विश्वास में लेकर अपनी तरफ से पहल करके कड़े कानून बनाने की दिशा में काम क्यों नहीं करती और ऐसा करने में उनके सामने बाधा क्या है ?
इस मामले में जब तथ्यों को खंगाला गया तो कुछ ऐसे प्रमाण मिले जिन पर अक्सर चर्चा नहीं होती जैसे राजनैतिक दल जो सत्ता में हैं, उन्हें पूरी क्षमता से लोक कल्याणकारी राज्य के  लिए काम करना चाहिए, किन्तु उनका दृष्टिकोण दिनों दिन संकुचित होता जा रहा है । एक दो जगह तो स्पष्ट हुआ कि राजनैतिक दल खुद तो कुछ करते ही नहीं और यदि न्यायपालिका किसी मामले में सरकार को आदेश दे या दिशा निर्देश दें तो इससे उनको भारी परेशानी होती है और तब वे प्रतिक्रिया देते हैं कि न्यायालय ज्यादा सक्रिय हैं । पिछले दिनों हमारी राजनीति में विकृतियां आई हैं ।  राजनैतिक दल समस्याओं को दूर करने की बजाए पहले तो उसे बढ़ने देते हैं, फिर उससे राजनैतिक फायद उठाने का प्रयास करते हैं ।
सवाल उठता है कि सरकारें चुनी किसलिए जाती हैं ? अगर जनहित के  साधारण काम करने में सरकारें अक्षम हैं तो फिर उन्हे सत्ता में रहने का क्या अधिकार रह जाता है ? यदि सरकारें ठीक से काम करें तो जनहित याचिकायें क्यों दायर हो ? अनेक मौकों पर न्यायपालिका द्वारा दिये गये निर्णयों में हैरानी जताई है कि हर मामले में उसे आखिर हस्तक्षेप क्यों करना पड़  रहा  है ?
ऐसी स्थिति आने के लिए न्यायपालिका कम, कार्यपालिका और विधायिका पर नियंत्रण रखने वाले राजनेता ज्यादा जिम्मेदार हैं  । पिछले तीन दशकों  के दौरान राजनीतिज्ञों के बीच यह प्रवृति पनपी है कि वे जिस समस्या से पल्ला झाड़ना चाहते हैं, उस मामले में किसी पक्ष से जनहित याचिका लगवा देते हैं और विवाद को न्यायपालिका के पाले में डाल देते हैं । फिर मामले को न्यायालय में लंबित बताकर परिस्थितियों का अपने पक्ष मंे फायदा उठ ाते हैं । इसका एक अच्छा सा उदाहरण- बाबरी मस्जिद विवाद रहा      है । वैसे इस मामले में सर्वोच्च् न्यायालय की संविधान पीठ  ने उस पर कोई भी फैसला देने से इंकार करके एक सही निर्णय लिया है । 
यहांं पर कार्यपालिका द्वारा मामले को न्यायपालिका के देहरी में रख आने के  षड़यंत्र का आरोप लगा । कार्यपालिका की इस विफलता का ही परिणाम है कि लोकतंत्र के विभिन्न स्तम्भांेके बीच जिस प्रकार का एक अन्यान्योश्रित सम्बन्ध और एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश न करते हुये अंकुश रखने की भावना होनी चाहिये, उसका धीरे-धीरे लोप हो रहा   है । अब तो न्यायपालिका न केवल सरकारों को निर्देश देती है कि वह अमुक-अमुक कदम उठाये, बल्कि  वह संसद से भी कहती है कि वह फलां-फलां कानून बनाये । 
पंजाब व उत्तर भारत के कुछ स्थानों पर वर्षाकाल में गोदाम भर जाने पर खुले में गेहंू के भीगने व सड़ने की मीडिया में खबरे आई और ४-५ घटनाओं के बाद एक सामाजिक संस्था (जो गरीबों के  भोजन पर काम कर रही है) ने सर्वोच्च् न्यायालय में एक जनहित याचिका दाखिल करके  मांग की कि केन्द्र व राज्य सरकारों को निर्देश दिया जावे कि वे खुले में वर्षा में सड़ रहे गेहंू को उचित ढंग से रखने की व्यवस्था करें, यदि गोदाम खाली न हो तो सड़ने से बचाने के लिए गरीबों को मुफ्त में अनाज देने का आदेश दे तो लेकिन न्यायालय ने सरकार को नोटिस दिया । इस प्रधानमंत्री ने न्यायालयों को नसीहत दे डाली कि वे अपनी सीमाओं में रहे । राजनेता स्वयं काम करेगें नहीं, कोई जनकल्याणकारी निर्देश दें तो कहेगें सीमा में रहे । 
भारत केनिर्वाचन आयोग ने अपनी स्थापना के कुछ समय बाद से ही केन्द्र सरकार को चुनाव प्रक्रिया में सुधार संबंधी सुझाव देना प्रारंभ कर दिया था । केन्द्र में बैठी सरकार के नुमाईन्दों ने कभी भी निर्वाचन आयोग के सुझावों को गंभीरता से नहीं लिया । तब कुछ कार्यकर्ताआें के जनहित याचिका पर सर्वोच्च् न्यायालय ने केन्द्र सरकार को निर्देश दिया ।  केन्द्र सरकार में बैठ े लोगों ने आश्वासन तो दिया किन्तु चुनाव सुधार का काम नहीं किया । मजबूरन सर्वोच्च् न्यायालय को केन्द्र सरकार को निर्देश देना पड़ा कि वे चुनाव सुधार की गतिविधियों के लिए शिक्षाविदों व सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक संस्था की स्थापना करे व साथ ही उसे धन भी उपलब्ध कराएं । आज की स्थिति में न्यायालय के आदेश से स्थापित एसासिऐशन आफ  डेमोक्रेटिक रिफार्म्स ने साफ सुथरे चुनाव कैसे हों इसके लिए निर्वाचन प्रक्रिया, प्रत्याशियों के आपराधिक रिकार्ड की घोषणा और उसका प्रकाशन जैसे भारी संशोधन  करा लिए  हैं । 
आज जो लोग राजनीति में आ रहे हैं उनकी समझ, साहस, दूरदृष्टि, लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा, अनुभव, परिस्थितियों को समझने का व्यावहारिक  ज्ञान, कुर्बानी देने की भावना, राजनीति में आने का उद्देश्य इत्यादि इस प्रकार  का है कि वे देश में 
उभर रही समस्याओं पर विचार ही नहीं कर पा रहे हैं या मामले को टाल रहे हैं जिससे समस्या विकराल होती जा रही है । वैसे न्यायपालिका सुनवाई के  समय सरकारों को मौका देती है कि  वे अपना पक्ष रखें, समस्या बताएं तथा समस्या को कब तक हल कर सकते हैं । 
वह इस हेतु आश्वासन भी चाहती है किन्तु कार्यपालिका में बैठ े लेाग जब बार-बार दिए गए मौंकों के बाद भी निर्णय नहीं कर पाते हैं तब न्यायपालिका को निर्णय तो देना ही होगा। उनकी तो बाध्यता है कि वे कानून, व संवैधानिक, परिस्थिति के अनुसार याचक को न्याय दें ताकि उसके अधिकार सुरक्षित रहें । अब यहां विधायिका और कार्यपालिका में बैठ े लोगों को तय करना होगा कि वे देश के  नागरिकों को कैसे संतुष्ट कर सकते हैं जिससे कि ये लोग छोटे-छोटे मुद्दों पर न्यायपालिका का दरवाजा न खटखटाएं ।
विशेष लेख
खतरे में है हिमालय
जयकुमार
पिछले दिनों प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक तापमान का असर अब कैलाश पर्वत क्षेत्र पर भी नजर आने लगा है । अगर यही स्थिति जारी रही तो अगले ४० सालों में इस क्षेत्र के इकोसिस्टम में भारी बदलाव आ जाएगा । वहीं, एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार मेंऔर भी तेजी  आती जा रही है । 
पुराणों में भगवान शिव का घर माना जाने वाला कैलाश पर्वत और मानसरोवर भी जलवायु परिवर्तन के प्रकोप से नहींबच पाएगा । काठमांडू स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर  इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआ ईएमओडी) द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि बर्फ से ढंके कैलाश पर्वत की सफेद चोटियां आने वाले कुछ सौ सालों में वैसी नहीं रह जाएंगी, जैसी की आज हैं । इस अध्ययन के अनुसार इस क्षेत्र में तापमान बढ़ने से यहां बारिश होने लगेगी, जिससे यह क्षेत्र धीरे-धीरे जंगलों और घास के मैदानों में ढंक जाएगा । इससे प्रकृति के पूरे चक्र पर गंभीर असर  पड़ेगा । 
कैलाश का पूरा क्षेत्र करीब ३१ हजार वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ       है । इसका विस्तार भारत, नेपाल और चीन के तिब्बती स्वायत्तशासी क्षेत्र तक है । इसे कैलाश सेक्रेड लैंडस्केप (केएसएल) कहा जाता है । केएसएल के उत्तरी हिस्से में ६६३८ मीटर ऊंचा कैलाश पर्वत स्थित है, जो तिब्बत के पठार को छूता है । आईसीआईएमओडी ने केएसएल के आठ अलग-अलग जोन्स में बारिश, बर्फबारी, तापमान, वनाच्छादन और अन्य कई जलवायु संबंधी मापदण्डों का अध्ययन करने के लिए वर्ष १९६० से एकत्र आंकड़ों का इस्तेमाल किया । इन आठ क्षेत्रों में उत्तराखंड के तराई में स्थित साल वनों से लेकर देवदार के जंगल, अन्य शंकुधारी वृक्षों के जंगल, अल्पाइन झाड़ियां और घास के मैदानों से लेकर ऊंचाइयों पर स्थित बर्फीले इलाके तक शामिल हैं । 
इस रिपोर्ट के अनुसार केएसएल क्षेत्र में ऊंचाई वाले स्थानों को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्र २८५ से ६०० मीटर तक ऊपर की ओर खिसके हैं । ऊपर की ओर खिसकने का मतलब है कि वर्ष २०५० तक तापमान में बढ़ोतरी के कारण ऊंचाई वाले स्थानों पर भी वह वनस्पति और जीव-जन्तु मिलने लगेंगे जो अभी तक निचले क्षेत्र में ही पाए जाते हैं । उदाहरण के लिए चौड़े पत्ते वाले उष्णकटिबंधी जंगल, खासकर साल के वृक्ष, अभी औसतन ९२२ मीटर की ऊंचाई पर पाए जाते हैं, लेकिन २०५० तक ये १२२५ मीटर की उंचाई पर भी मिलेंगे । इसी तरह शंकुवृक्ष के जंगल अभी २७५० मीटर की ऊंचाई पर होते हैं जो २०५० तक ३१६० मीटर तक की ऊंचाई पर भी मिलने लगेंगे । 
रिपोर्ट के अनुसार इन सभी जोन्स के आकार में भी नाटकीय बदलाव देखने को मिलेंगे । अभी पर्वतों के सबसे ऊपरी स्थान सर्वाधिक ठंडे और नम हैं । वर्तमान में ये स्थल ३४६९ वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं । वर्ष २०५० तक इसका आकार घटकर महज १३३२ वर्ग किमी रह जाएगा, यानी मौजूदा आकार में ६८ फीसदी तक की गिरावट आ जाएगी । अधिक ऊंचाई वाले अधिक ठंडे एवं नम-शुष्क जोन में १६०० वर्ग किमी की कमी हो जाएगी । इसी तरह रिपोर्ट में अपेक्षाकृत कम ठंडे एवं नम-शुष्क जोन में २३०० वर्ग किमी की बढ़ोतरी का अनुमान लगाया गया है । गर्म तापमान वाले नम-शुष्क जोन में १४०० वर्ग कि.मी. तक की गिरावट होने की संभावना है । इन जलवायु जोन्स के बीच एक ऐसा नया गर्म-शुष्क जोन भी बन जाएगा, जिसका अभी अस्तित्व नहीं है । 
रिपोर्ट कहती है कि तापमान में बढ़ोतरी और बारिश से इस क्षेत्र में वनस्पति के पैदा होने की दर बढ़     जाएगी । इससे वनस्पति से ढंके हुए क्षेत्र का प्रतिशत भी बढ़ जाएगा । अभी इस क्षेत्र में वनस्पति की सकल प्राथमिकता उत्पादकता (नेट प्राइमरी प्रोडक्टिविटी-एनपीपी) एक करोड़ टन है । इसमें चौड़े पत्ते वाले उष्णकटिबंधीय जंगलों का योगदान सबसे अधिक (लगभग २० फीसदी) है । रिपोर्ट के अनुसार तापमान और बारिश में बढ़ोतरी के कारण वर्ष २०५० तक पूरे केएसएल क्षेत्र में वनस्पति की उत्पादकता में १९ लाख टन (१६ फीसदी से ज्यादा) की बढ़ोतरी हो जाएगी । 
जलवायु परिवर्तन की वजह से कैलाश क्षेत्र में मौजूद वनस्पतियों और जीव-जंतुआें की कई प्रजातियों के अस्तित्व पर नया खतरा खड़ा हो    जाएगा । इनमें से कई प्रजातियां तो पहले से ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है । 
रिपोर्ट के अनुसार इस परिवर्तन का मतलब होगा बारिश या बर्फबारी, नदियों व धाराआें, वनस्पति, कीट-पतंगों, पक्षियों, पशुआें और उन अन्य कई कारकों में बदलाव होना जो इकोसिस्टम बनाते हैं । रिपोर्ट के मुताबिक इसका समग्र प्रभाव पहाडों पर रहने वाले लोगों पर होगा । ऐसे में सलाह दी गई है कि केएसएल के संरक्षण, इकॉलॉजिकल पुनरूद्धार और विकास की योजना बनाते समय इन नतीजों को जरूर ध्यान में रखना चाहिए । 
पिघलते हिमालयी ग्लेशियर
इधर, मिलान विश्वविघालय के अनुसंधनकर्ताआें द्वारा पेश  की गई एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार हिमालय  की बर्फ तेजी से पिघल रही है । इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले ५० सालों के दौरान एवरेस्ट क्षेत्र में स्नोलाइन १८० मीटर तक कम हो गई हैं । इतना ही नहीं, ग्लेशियरों के आकार में भी १३ फीसदी तक की गिरावट आई है । वहीं एक गैर सरकारी संगठन जर्मनवॉच के अध्ययन के अनुसार जिस गति से बर्फ पिघल रही है और पानी का दबाव बढ़ता जा रहा है, उससे ग्लेशियरों में ऐसे विस्फोट हो सकते हैं जो तबाही ला देंगे । कुछ ही घंटों में, करोड़ों घन मीटर पानी बहने का मतलब होगा कल्पनातीत विध्वंस । 
विशेषज्ञों का कहना है कि बर्फीले क्षेत्रों में झीलों के भरने की गति पहले की तुलना में काफी बढ़ गई है । यह इस बात का प्रमाण है कि बर्फ और ग्लेशियरों के पिघलने की गति में कितना इजाफा हो चुका है । आईसीआईएमओडी के कार्यक्रम संयोजक प्रदीप मूल कहते हैं कि ग्लेशियर झीलों के फूटने का खतरा समय के साथ बढ़ता जाएगा । आईसीआईएमओडी के अनुसार इस समय हिंदू कुश हिमालय में २० हजार से भी अधिक झीलें हैं जो ग्लेशियर पिघलने के कारण बनी हैं । पूर्वी नेपाल के दूध कोसी नदी बेसिन क्षेत्र में २७८ ग्लेशियर हैं, जिनमें से कुछ ७४ मीटर सालाना की दर से पिघले रहे हैं । प्रदीप मूल के अनुसार इस क्षेत्र में ३४ झीलें, जिनमें से २४ पिछले कुछ ही वर्षोंा में अस्तित्व में आई हैं । इनमें भी १० खतरनाक  स्तर पर पहुंच गई हैं । 
कार्बन ब्लैक जिम्मेदार 
हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों पर अध्ययन कर रहे इटली के कुछ शोधकर्ताआें का कहना है कि  कार्बन ब्लैक   भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक अन्य प्रमुख कारण है । माउंट एवरेस्ट के नीचे करीब ५०५० मीटर ऊंचाई पर वर्ष १९८७ में इटेलियन नेशनल रिसर्च काउंसिल और नेपाल एकेडमी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी द्वारा संयुक्त रूप से स्थापित पिरामिड इंटरनेशनल ऑब्जर्वेटरी में कार्यरत वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुुंचे हैं कि पर्यावरण में मौजूद कार्बन के कणों के कारण ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ गई हैं । 
वैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालय के  ग्लेशियरों में जमा कार्बन के कणों के कारण सूर्य प्रकाश के परावर्तन की क्षमता पांच फीसदी तक कम हो गई है । इससे ग्लेशियर सूर्य के प्रकाश का अवशोषण अधिक करने लगे हैं, जिससे स्वाभाविक तौर पर उनके पिघलने की गति बढ़ रही है  ।  कार्बन ब्लैक पेट्रोलियम पदार्थोंा का अधिक इस्तेमाल करने, थार्मल पॉवर प्लांट्स, इंर्ट भट्टों और जंगलों में लगने वाली आग के कारण वातावरण में उत्पन्न कार्बन के बहुत ही सूक्ष्म कण व राख होते हैं । 
वैज्ञानिकों का कहना है कि नेपाल की राजधानी काठमांडू में बड़ी संख्या में मौजूद इंर्ट भट्टे कार्बन ब्लैक के लिए जिम्मेदार हैं । डीजल और अन्य पेट्रोलियम पदार्थोंा से निकलने वाले कार्बन ब्लैक के कणोंके साथ इंर्ट भट्टों से निकलने वाले कार्बन कण भी मिल जाते हैं । ये कण दक्षिण एशिया में हजारों किमी लंबी और करीब ४००० मीटर चौड़ी एक पट्टी में फैले हुए हैं । हवा इन्हें हिमालय के ग्लेशियरों के ऊपर फैला इेती है, जिससे वे और भी तेज गति से पिघलने लगे हैं । मानसून से पहले जंगलों में लगने वाली आग के कारण उत्पन्न होने वाली राख के कण भी हवाआें के साथ ग्लेशियरों तक पहुंच जाते हैं । ग्लेशियरों में जमा होने वाले कणों की संख्या पिछले ४० साल में तीन गुना तक बढ़ गई हैं । 
इटली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ एटमॉस्फेरिक साइंसेज एंड क्लाइमेट (आईएएससी) के पाउलो बोनासोनी कहते है, हालांकि ग्लेशियरों के पिघलने का प्रमुख कारण बढ़ रहा वैश्विक तापमान है, लेकिन उनमें जमा कार्बन ब्लैक से यह प्रक्रिया तेज हो सकती है । 
चिंता क्यों ? 
वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालय में पिघल रहे ग्लेशियरों पर कार्बन ब्लैक के प्रभाव पर निगरानी रखना काफी महत्वपूर्ण है । हिमालय का क्षेत्र एशिया के करीब एक अरब लोगों की पानी की आपूर्ति का एक प्रमुख स्त्रोत है । गंगा, ब्रह्मपुत्र, मेघना, सिंधु जैसी प्रमुख नदियों और उनकी सहायक नदियों में पानी हिमालय के ग्लेशियरों से आता है । अगर ग्लेशियर तेजी से पिघल जाते हैं तो आने वाले समय में इन नदियों पर निर्भर लोगों व देशों के सामने पानी की बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी । इसका व्यापक असर सिंचाई और कृषि पर पड़ेगा । नदियों के किनारे रहने वाले लोग भी इससे गंभीर रूप से प्रभावित होंगे । 
वैज्ञानिक ोंका कहना है कि अब समय आ गया है कि हम वैश्विक तापमान से भी आगे की सोचें । उनका मानना है कि हिमालय को बचाने के लिए एशियाई देशों को ज्यादा चिंतित होना होगा, क्योंकि इसका ज्यादा असर भी उन्ही पर पड़ेगा ।  वैश्विक तापमान को कम करने के साथ-साथ इन देशों को ठोस प्रदूषक तत्वों की मात्रा को भी कम करने की दिशा में कार्य करना   होगा । इसके लिए उन्हें जीवाश्म इंर्धन का इस्तेमाल कम करना होगा । इससे न केवल बहुमूल्य हिमालयी ग्लेशियर बचेंगे, बल्कि जीवाश्म इंर्धन में खर्च होने वाली भारी-भरकम विदेशी मुद्रा की भी बचत हो सकेगी।
जीव जगत
मच्छरों का दुश्मन चमगादड़
नरेन्द्र देवांगन
मच्छरों के काटनेसे होने वाले बुखार का दौर देश भर में चलता ही रहता है  । जैसे सामान्य मलेरिया, मेनेन्जाइटिस, घातक मलेरिया से ले कर चिकनगुनिया, डेंगू, जापानी एंसेफेलाइटिस और वायरल एंसेफ्लाइटिस तक । मच्छरों द्वारा फैलने वाली इन बीमारियों में प्रति वष्र कितनी ही जानें चली जाती हैं । हर साल देश भर में कहीं न कहीं मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों का कहर बरपता ही है । तब सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं आम लोगों को यह बताने की जहमत उठाती है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए । इससे बचाव के क्या उपाय हैं, घरेलू चिकित्सा क्या हैं  ? इसके अलावा स्थानीय प्रशासन द्वारा कुछ दवाआें का वितरण कर दिया जाता है । कचरे की सफाई, जमा हुए पानी में एकाध बार कीटनाशक का छिड़काव का छुट्टी पा ली जाती है । 
अब वह समय आ गया है कि हम इन उपायों से अलग और भी कुछ सोचें, क्योंकि अब कीटनाशक का भी फायदा नहीे रहा । बाजार में जितनी तरह के कीटनाशक उपलब्ध हैं, उनका हमारी सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ता है । मच्छर बाजार में मिलने वाले क्वाइल और मॉस्किटो रेपलेंट के आदी हो गए हैं । रही बात मच्छरदानी के इस्तेमाल की तो इससे हम रात के वक्त तो बच सकते हैं लेकिन दिन के वक्त नहीं । इसलिए अब हमें कुछ ऐसा करना होगा कि मच्छरों का ही खात्मा हो जाए । 
कीटनाशक और साफ-सफाई के अलावा मच्छरों के समूल नाश का कोई उपाय क्या ? जरूर है, इन मच्छरों से हमें निजात दिलाएंगे चमगादड़, क्योंकि मच्छरों के लिए चमगादड़ काल समान हैं । लेकिन हमारे पर्यावरण के लिए यह बड़ी चिंता का विषय है कि चमगादड़ों की तादाद दुनिया भर में घटती जा रही है । कुछ पर्यावरणविदों का मानना है कि समय रहते ठोस कदम उठा कर चमगादड़ों को बचाने के काममें जुट जाना चाहिए । 
पर्यावरण संतुलन में इन चमगादड़ों की बड़ी भूमिका है, इसमें कोई शक नहीं । साथ ही यह भी सच है कि मच्छरों से होने वाली बीमारियां लौट कर वापस आ गई हैं तो इसके पीछे चमगादड़ों की घटती तादाद का एक बड़ा कारण है । सिर्फ मच्छर ही नहीं, खेत-खलिहानों को नुकसान पहुंचाने वाले छोटे-मोटे कीड़े मकोड़ों को भी चट कर ये चमगादड़ बड़ा उपकार करते हैं । 
इसलिए विश्वख्यिात पर्यावरणविद् पीटर रूमल ने २००९ में चमगादड़ों को बचाने की मुहिम में जुट जाने की सिफारिश की थी । उनका कहना था कि एक अदद चमगादड़ एक रात मेंे कम से कम २५०० मच्छरों को खाता है । इसके अलावा हवा में घूमने वाले छोटे-मोटे कीड़े मकोड़ों को भी खाकर चमगादड़ पर्यावरण की रक्षा करता है । अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में हो रहे एक शोध से पता चला है कि चमगादड़ों की एक बस्ती रात भर में १५० टन से भी ज्यादा मच्छर और कीट-पंतगों का सफाया कर देती हैं  । शोधकर्मियों ने बड़ी-बड़ी गुफाआें में चमगादड़ों की बस्तियों का पता लगाया है । उन गुफाआें में प्राकृतिक जीवन चक्र चलता रहता है । ये गुफाएं पर्यावरण संतुलन की एक अच्छी मिसाल बनी हुई हैं । 
लेकिन विडंबना यह है कि आजकल चमगादड़ नजर ही नहीं आते हैं । वजह यही है कि हमारे समाज ने चमगादड़ों को अशुभ करार दे दिया है और अंधविश्वास के चलते बड़ी संख्या में चमगादड़ों का संहार कर दिया गया है । अब भी यह क्रम जारी है । इसके अलावा कुछ जगहों पर चमगादड़ का मांस खाने का भी चलन है । मान्यता यह है कि चमगादड़ का मांस यौन शक्ति बढ़ाने में भी काफी मददगार है । 
जहां तक चमगादड़ के स्वभाव का सवाल है तो यह एकमात्र उड़ने वाला स्तनपायी बड़ा ही निरीह है । आदमी की परछाई से भी दूर रहता है, पर इंसान है कि इनका दुश्मन बन गया है । कुछ अंधविश्वास के चलते तो कुछ अनजाने डर की वजह से । और इन दोनों ही वजहों के पीछे कुछ मिथक  काम करते हैं जबकि इन मिथकों में सच्चई बिलकुल नहीं होती । इन्हीे अंधविश्वासों के चलते हॉलीवुड में वैंपायर को लेकर कई फिल्में बनीं और चमगादड़ों का नाम ही वैंपायर पड़     गया ।
दुनिया भर में चमगादड़ों की ११०० प्रजातियां हैं जिनमें से महज तीन प्रजातियां वैंपायर यानी खून चूसने वाली हैं । ये भी इंसान का खून नहीं बल्कि समुद्री मुर्गी, बत्तख, सुअर, कुत्ते, घोड़ों और बिल्लियों का खून पीते हैं । बाकी सारी प्रजातियों के चमगादड़ कीड़े-मकोड़े, फल, मेंढक, मछली और फूलों का पराग भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं  । कीड़े-मकोड़े खाने वाले चमगादड़ रात को हमारी फसलों की रक्षा करते हैं वहीं जंगल के संरक्षण मेंभी इनकी बड़ी भूमिका होती है । फल खाने वाले चमगादड़ों की वजह से फलों के बीज जंगलों में नए पेड़-पौधे उगाते हैं । बताया जाता है कि ९५ फीसदी वर्षा वन का संरक्षण इन्हीं चमगादड़ों की वजह से होता है । 
चमगादड़ को लेकर दूसरा मिथक यह भी है कि इन्हें दिखता कम है जबकि सच्चई यह है कि ज्यादातर चमगादड़ अंधे नहीं होते । कुछ चमगादड़ तो कम से कम रोशनी में भी देख पाते हैं । तीसरा मिथक चमगादड़ के बालों में उलझने का है । महिलाएं इससे बहुत ज्यादा आतंकित होती हैं । अगर चमगादड़ कभी किसी इंसान की ओर बढ़ते हैं तो इंसान पर हमला करना उनकी मंशा नहीं बल्कि उसके आसपास उड़ रहे मच्छर खाना उनका लक्ष्य होता है । कारण, चमगादड़ों में प्रतिध्वनि के आधार पर काम करने वाला सिस्टम होता है, जो कि सोनार सिस्टम कहलाता है इस सिस्टम की वजह से चमगादड़ अपनी आवाज के मच्छरों तथा अन्य कीड़े-मकोड़ों से टकराकर आने वाली प्रतिध्वनि की मदद से आहार ढूंढते हैं । 
यह अलग बात है कि घायल चमगादड़ अपनी आत्मरक्षा के लिए किसी पर भी हमला कर सकते हैं । इसीलिए इंसानों पर चमगादड़ के हमलों की कुछ घटनाएं सामने आई  हैं । विशेषज्ञों की राय में चमगादड़ अगर हमला करते भी हैं तो आत्मरक्षा में ही करते हैं । 
चमगादड़ों के लेकर ऐसी बहुत सारी भ्रांतियां है । इन्हीं में एक यह भी है कि चमगादड़ का मांस यौन क्षमता को बढ़ाने वाला है । यह भ्रांति भी चमगादड़ों के लिए खतरा बन गई है । जाल के जरिए एक-एक आदमी एक दिन में १००-१०० चमगादड़ों का शिकार करता है । सिर्फ पूर्वोत्तर भारत में ही नहीं, थाईलैंड, बाली, इंडोनेशिया में बड़े पैमाने पर स्वाद और यौन क्षमता बढ़ाने के लिए चमगादड़ खाए जाते हैं जबकि चमगादड़ के मांस में यौन क्षमता बढाने जैसा कोई वैज्ञानिक तत्व अब तक नहीं पाया गया है । 
चमगादड़ों के संरक्षण के लिए हम कुछ कदम आगे बढ़े हैं । बंगाल के दूरदराज गांवों में अब इसकी जरूरत समझ में आ गई है और बंगाल से बहुत से जिलों में चमगादड़ों को बचाने के लिए गांव वालों में जागरूकता भी देखी जा रही है । बड़ी बात यह है कि इस काम में गांव की महिलाएं सबसे आगे हैं । नदिया जिले की चुन्नीबाला भी ऐसी ही एक महिला हैं, जिन्होंने पर्यावरण के लिए चमगादड़ों की जरूरत को अच्छी तरह जान लिया है और अपने गांव में इसके लिए मुहिम शुरू कर दी है । कबूतरखाने की तरह चमगादड़ के लिए घर बना कर वे इनके संरक्षण के काम में जुटी हुई   हैं । वे बताती हैं कि शुरूआत में लोग उनकी बातों पर खास ध्यान नहीं देते थे लेकिन अब ऐसा नहीं करते । चुन्नीबाला कहती हैं, हमारे गांव के लोग चमगादड़ का मांस बड़े चाव से खाते थे । शाम होते ही कुछ लोग चमगादड़ पकड़ने निकल जाते थे ।  इस तरह हर रोज बड़ी संख्या मे चमगादड़ मारे जाते थे । यह चिंता का विषय है कि चमगादड़ के शिकार पर किसी तरह की रोक नहीं है न ही कोई कानून अब तक बना है । इसी कारण इनकी तादाद तेजी से घटती जा रही है, लेकिन अभी तक इन्हें दुर्लभ प्राणियों की श्रेणी में नहीं रखा गया है । 
वन्य प्राणी विशेषज्ञों का मानना है कि चमगादड़ों की प्रजनन क्षमता बहुत ही धीमी है । मादा चमगादड़ साल में एक, कभी-कभी दो चमगादड़ ही पैदा करती है और प्रकृति द्वारा इन्हें २५-४० साल की उम्र प्रदान की गई है । इस तरह एक चमगादड़ के मारे जाने का अर्थ भविष्य में सैकड़ों चमगादड़ों के मारे जाने के बराबर है ।
अमरीका के एक वैज्ञानिक डॉ. कांबले ने अपने १४ साल के प्रयोग के आधार पर बताया है कि चमगादड़ मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों के दुश्मन हैं । इसीलिए दुनिया भर से मलेरिया के समूल नाश के लिए चमगादड़ पालन पर जोर दिया जाना चाहिए । उनका मानना है कि चमगादड़ की एक प्रजाति का एक अकेला चमगादड़ तीन हजार से भी ज्यादा मच्छर एक घंटे में चट कर जाता है । डॉ. कांबले कहते हैं कि चमगादड़ उड़ने वाले कीड़े-मकोड़ों की आबादी पर रोक लगाने का काम बखूबी करता है । जहां मच्छरों की तादाद बहुत अधिक है वहां भूरे रंग की प्रजाति का चमगादड़ एक घंटे में कम से कम ६०० और ज्यादा से ज्यादा १२०० से भी अधिक मच्छरों को खा जाता है । भूरे रंग का चमगादड़ तीन हजार से ज्यादा मच्छर एक घंटे में खा जाता है । इसी कारण वैज्ञानिकों की सिफारिश को तरजीह देते हुए अमरीका के हर शहर में बैट हाउस तैयार कर चमगादड़ पालन का काम शुरू हो गया है । 
बताया जाता है कि टेक्सास में चमगादड़ों की बाकायदा एक कॉलोनी है । यही नहीं, मच्छरों के हमले से बेहाल ब्रिटेन में बैट कंजर्वेशन ट्रस्ट की स्थापना १९९० में की गई । यह गैर सरकारी संस्था पश्चिमी दुनिया में चमगादड़ को बचाने को लेकर आम लोगों में जागरूकता फैला रही है । 
जहां तक भारत का सवाल है, यहां कुछ ठोस नहीं हो रहा है । अंडमान-निकोबार में चमगादड़ों पर काफी शोधकार्य जरूर चल रहा है लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं । भारत की मुख्य भूमि अब तक अधिकांशत: अज्ञान के अंधकार मेंजा रही है । 
कृषि जगत 
मॉन्सेंटो : एक अशालीन सम्राट
अल्फे्रडोअसीडो
अमेरिका में जीनांतरित फसलों के पक्ष में पारित कानून को मॉन्सेंटो संरक्षण अधिनियम की संज्ञा देने से स्पष्ट हो गया है कि अमेरिकी शासन व्यवस्था बड़े कारपोरेट घरानों के कब्जे में है ।  मेक्सिको में जीनांतरित मक्का को लेकर शुरू  हुआ आंदोलन पहले पड़ोसी देशों में फैला और धीरे-धीरे इसका विस्तार पूरी दुनिया में हो रहा है । पिछले दिनों ५२ देशों के ४०० शहरों में २० लाख से ज्यादा लोगों ने प्रदर्शन किए है । दु:खद यह है  कि भारत के नौकरशाह व कतिपय राजनीतिज्ञ अमेरिका से भी आगे जाकर ऐसा कानून बनाने की प्रक्रिया में हैंजिसमें शिकायतकर्ता को ही अपनी बात सिद्ध करना होगी वरना उसे आर्थिक दंड और सजा हो सकती है । 
मॉन्सेंंटो शासन का पर्याय है । जीवन के बुरे से बुरे कार्य के कुुछ सकारात्मक पक्ष हो सकते हैं, लेकिन जीनांतरित (जीएम) फसलों और जहरीले कीटनाशकों का निर्माण करने वाली यह कंपनी तो दुनिया की अर्थव्यवस्था, जैव विविधता और लोगों के स्वास्थ्य को बर्बाद कर रही है । अमेरिकी संसद द्वारा अमेरिका में जीनांतरित फसलों के पक्ष में पारित मॉन्सेंटो संरक्षण अधिनियम को राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा मार्च में हस्ताक्षर कर कानून बनाने और अमेरिकी सर्वोच्च् न्यायालय द्वारा जीवित जीवाणुओं के पेटेंट को सही  ठहरा देने के बाद विश्वभर में २५ मई को इस बहुराष्ट्रीय कंपनी के खिलाफ विश्वव्यापी प्रदर्शन हुए । इसमें सरकारों के हित एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों के अंर्तसंबंधों को भी उजागर किया गया । 
मॉन्सेंंटो के पास भ्रष्ट बनाने की जबर्दस्त ताकत है । इसका पिछले वर्ष का सकल लेनदेन १४ खरब डॉलर था और इसने अमेरिका के सर्वोच्च् न्यायलाय या राष्ट्रपति एवं मैक्सिको के सरकारी अफसरों एवं सांसदों को अपनी बातों से सहमत कराने में ६० लाख डॉलर खर्च किए थे । अपने आपको अत्यधिक तकनीकी सक्षम बताने वाली इस कंपनी का एकमात्र उद्देश्य है कानूनों को बदलकर एवं पेटेंट में हेराफेरी कर एकाधिकार प्राप्त कर खाद्यों के माध्यम से कानूनी तौर पर लोगों एवं राष्ट्रों को लूटना । 
परंतु हाल ही में जीनांतरित खाद्यों से होने वाले खतरों को लेकर यह महाकाय कंपनी लोगों के गुस्से की जद में है । पिछले वर्ष फ्रांस के केहन विश्वविद्यालय के एक अध्यन में जीनांतरित मक्का एनके ६०३ एवं खरपतवार नाशक राउंडअप या फाइना (ग्लायफास्फेट) के स्तनधारियों पर प्रतिकूल प्रभाव सामने आए । यहां चूहों को दो वर्ष तक पर्यावरण में मौजूदगी जितना यह खाद्य खिलाया गया । 
इसके परिणामस्वरूप ये स्तन केंसर, गंभीर हारमोनल, किडनी एवं लीवर खराबी के साथ ही साथ असमय मृत्यु के शिकार भी हुए है । पिछले अप्रैल में ही जाने माने वैज्ञाानिक स्टीफन सेनेफी एवं एंथोनी सेमसल इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि विश्व में सर्वाधिक प्रयोग में आनेवाला खरपतवारनाशक ग्लायफास्फेट, मनुष्यों के पाचन तंत्र पर घातक प्रभाव डालता है जो कि पश्चिमी भोजन पद्धति से जुड़ी बीमारियों जैसे पेट संबंधी रोग, मोटापा, डायबिटीज, हृदय रोग, संतानहीनता, नैराश्य, मानसिक रोगों, कैंसर एवं अल्जीमर्स का कारण भी है ।
अपने और अपने बच्चें के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित मेक्सिको वासियों ने स्वास्थ्यकर भोजन और पारंपरिक मक्का के समर्थन में मॉन्सेंटों के खिलाफ एक दिवसीय वैश्विक विरोध दिवस का आव्हान किया था । उन्होंने भुट्टा उत्सव मनाया और वहां के राष्ट्रपति से मांग की, कि वे इस महाकाय कृषि रसायन कंपनी के दबाव में न आएं एवं जनता की बेहतरी पर ध्यान दें । अनेक राजनीतिक, सामाजिक एवं पर्यावरण संगठनों से जुड़े हजारों युवा एवं कलाकारों के समूहों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम किए एवं पैलेस ऑफ फाईन आर्ट (ललित कला भवन)   से क्रांति के स्मारक तक जुलूस निकाला । उत्सव जैसे माहौल में वे ढोल, नुक्कड़ नाटकों, संगीत एवं नृत्य करते हुए चल रहेथे । साथ ही उनके हाथों में हाथ से बनी तख्तियों पर लिखा था । मॉन्सेंटो, घर (नरक) लौटा, हम तुम्हारे वैज्ञानिक परीक्षण का सामान नहीं हैं और सबसे लोकप्रिय नारा था, मॉन्सेंटो बाहर जाओ, इसी के साथ मार्चिंग धुन की तर्ज पर गाया जा रहा था । 
हमें फलियां चाहिए, हमें मक्का चाहिए, हम मॉन्सेंटो को अपने देश से बाहर देखना चाहते     है । वहां मौजूद लोगों का कहना था कि कार्यकर्ताआें की नई पीढ़ी ने न केवल जीनांतरित फसलों को नकार दिया हैै, लेकिन वे इस बात को लेकर भी सुनिश्चित है  कि मॉन्सेंटो जैसे निगम केवल हमारे भोजन के लिए ही खतरा नहीं हैं, बल्कि वे हमारे जीवन और इस ग्रह के लिए भी खतरा हैं । इस तरह के जमीनी आंदोलन के शुरू होने से आशा बंधी है कि अब कई देश एक साथ  आकर काम करेंगे । क्योंकि अब विरोध प्रदर्शन सिर्फ गैर सरकारी संगठ न ही आयोजित नहीं कर रहे हैं बल्कि सामान्य लोग भी स्वमेव इसमें शामिल होकर मॉन्सेंटों संरक्षण अधिनियम को रद्द करने की   आवाज उठा रहे हैं । इसलिए यह लड़ाई प्रतीकात्मक हैै और दोनों पक्षों का बहुत इस पर कुछ दांव पर लगा है । 
गौरतलब है कि मैक्सिको मक्का के वैश्विक उद्गम स्थल हैं, लेकिन वैज्ञानिकों, उत्पादकों एवं उपभोक्ताआेंकी चेतावनियोंं को नकारते हुए पूर्व प्रशासकों ने जीनांतरित मक्का की खुले खेतों में प्रयोगात्मक खेती करने की अनुमति दे दी थी । इससे उत्साहित होकर मॉन्सेंटो एवं अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने देश के उत्तरी भाग में स्थित सिनालोआ एवं रिमाडलिपास प्रांतों में १० लाख हेक्टेयर क्षेत्र में इसकी खेती करने के हेतु आवेदन किया । सरकार ने संभवत: आवंटित समय सीमा में इसका जवाब नहीं दिया । लेकिन मॉन्सेंटो ने इसके बावजूद इस वर्ष मार्च में दावा बढ़ा दिया और उत्तरी राज्यों चिहुआहुआ, कोमाहुइला एवं डुरांगों में करीब १ करोड़ १० लाख हेक्टेयर क्षेत्र में इसको व्यावसायिक खेती हेतु आवेदन   किया । 
मैक्सिको के अधिकारी एवं राजनीतिज्ञ कमोवेश मॉन्सेंटो के पक्ष में हैं । वे तो सन् २००५ से जीनांतरित फसलों के लिए रास्ता बनाने में जुटे हुए हैं । लेकिन जनता की अनिच्छा और राजनीतिक हानि के चलते मामला अभी तक अटका हुआ है । लेकिन इस जमीनी आंदोलन ने खाद्य सार्वभौमिकता एवं पारंपरिक बीजों के सहेजने हेतु बीज बैंकों की आवश्यकता हेतु स्थानीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता पैदा की हैं । २५ मई को प्रदर्शन ने स्पष्ट कर दिया है  कि मान्सेंटो और जीनांतरित मक्का दोनों को ही अब मैक्सिको में फैलने में दिक्कत आएगी । गौरतलब है कि इसके पहले मैक्सिको सिटी में जनवरी में इसी विषय को लेकर ९ दिन की भूख हड़ताल भी हो चुकी  है ।
मक्का के बिना कोई देश नही, यूनियन ऑफ कंसर्मड साइंटिस्ट एवं ग्रीन पीस, मैक्सिको जैसे आंदोलनों ने सार्वजनिक वक्तव्य एवं संगठनात्मक प्रदर्शन कर पारंपरिक मक्का के पक्ष में माहौल बनाया है । साथ ही जीनांतरित फसल नहीं चाहिए । नारे को जगह, जगह प्रदर्शित भी किया है  । इतना सब कुछ लोगों के स्वास्थ्य एवं पर्यावरण को होने वाली हानियों के मद्देनजर उपजी गहरी संवेदना से उपजा है और इसके पीछे महज भावनाएं नहीं बल्कि ऐसे वैज्ञानिक तथ्य भी हैं, जिन्हें ऐसे वैज्ञानिकों खोजा है, जिनका कि कोई विरोधाभासी हित नहीं है ।
लेकिन मॉन्सेंटों के उत्पादों से गंभीर खतरे रोज ही उद्घाटित हो रहे है । वहीं कंपनी इन बातों को फैलाने वाले एवं इस तरह के अध्ययनों को सार्वजनिक करने वाले वैज्ञानिकों को बदनाम करने में खूब दम-खम लगा रही है । एक शालीन कारपोरेट इन सब बातों का उत्तर चिंताजनक एवं स्वतंत्र अध्ययन कराकर जनता की सुरक्षा हेतु इन उत्पादों को बाजार से वापस लेकर देता । लेकिन मॉन्सेंटो एक शालीन कारपोरेट नहीं है । आज नहीं तो कल उसे वहजो पैदा कर रहा है उसकी जवाबदारी तो लेना ही होगी ।
पर्यावरण परिक्रमा
भारतीय इंजीनियर ने प्लास्टिक से बनाया डीजल
    चेन्नई की भारतीय इंजीनियर चित्रा थियागराजन ने तीन साल के अथक प्रयास के बाद ऐसी मशीनी यूनिट बनाने में सफलता हासिल की है, जो प्लास्टिक को तपाकर डीजल जैसा पदार्थ बना सकेगी, वोभी कम लागत में । चित्रा की इस यूनिट ने पेटेंट की पहली सीढ़ी पार कर ली है । चित्रा ने जून २०१३ में पेटेंट के लिए आवेदन किया था ।
    चित्रा के इस पायरो प्लांट यूनिट में ३ चैंबर हैं । पहले में प्लास्टिक को ३५०० से ३७४० डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया जाएगा । ये चैंबर पूरी तरह से ऑक्सीजन से मुक्त रहेगा । पहले चैंबर से जुड़े दूसरे कूलिंग चैंबर में      गैस में परिवर्तित प्लास्टिक तरल में बदलेगी । तीसरे चैंबर में पहुंचते ही ये पानी ये क्रिया करेगी और पानी की ऊपरी तह पर पेट्रोलियम के रूप में तैरती नजर आएगी ।  मात्र तीन घंटे में ये  यूनिट डीजल बना लेती है । ५ किग्रा की यूनिट खर्च ७५ हजार रूपए है जबकि २५ किग्रा का ३ लाख । हर एक किलो प्लास्टिक में ८०० मिली तक डीजल बन सकता है ।

चित्त का सीधा संबंध वित्त से है
    गरीबी आते ही किसी का दिमाग पहले की अपेक्षा मंद पड़ जाता है, तार्किक क्षमता घट जाती है और मानसिक संतुलन बिगड़ने लगता है । एक ताजा अध्ययन में यह निष्कर्ष सामने आया है ।
    नए अध्ययन के मुताबिक, रूपयों की चिंता के कारण किसी का मस्तिष्क धीमा काम करने लग सकता है तथा उसका आईक्यू अचानक बहुत घट जाता है, कई बार तो १३ अंक तक घट सकता है । इंगलैंड के कोवेंट्री स्थित वारविक विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्राी आनंदी मणि एवं उनके साथी शोधकर्ताआेंके अनुसार, आर्थिक परेशानी बढ़ते ही किसी की तार्किक क्षमता में जबरदस्त गिरावट आ जाती है, जैसे कि एक रात न सो पाने की वजह से चेतना में आने वाली कमी ।
    आनंद मणि का यह शोधपत्र विज्ञान पत्रिका के ३० अगस्त के अंक में प्रकाशित हुआ है । इस शोधपत्र के अनुसार जरा सा भी आर्थिक लाभ मिलने के बाद गरीब व्यक्ति उन्हींमानसिक परीक्षाआें में कहीं बेहतर प्रदर्शन करने लगता है । वैज्ञानिकों के अनुसार, किसी व्यक्ति की मानसिक क्षमता में आया यह विकास रूपये को लेकर खत्म हुई चिंता के कारण हो सकती है । शोधकर्ताआें द्वारा जुटाए तथ्यों से इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि रूपये की कमी से विचार शक्ति कम हो जाती है तथा इससे इस बात के कारणों को भी जाना जा सकता है कि गरीब लोग बचत कम क्यों करते हैं तथा उधार अधिक क्यों लेते हैं ।
    नीति निर्माताआें को गरीबों द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों का े सरल एवं कम किया जाना चाहिए । जैसे उन्हें कर जमा करने में सहायता प्रदान करना, कल्याण से संबंधित फॉर्मो को भरने में तथा भविष्य की योजनाएं बनाने में सहायता प्रदान करनी चाहिए ।
चमकीले पौधे उगाने की योजना पर विवाद
    अंधेरे में जगमगाते पौधे खास किस्म का जादू जगाते हैं । लिहाजा, आश्चर्य नहीं कि लोगों से धन जुटाने वाली वेबसाइट किकस्टार्टर पर अधंकार में चमकने वाले पौधों को उगाने की योजना को जारेदार समर्थन मिला ।
    इस प्रोजेक्ट ने ४४ दिन में ८४३३ दाताआें से ३ करोड़ १० लाख रूपए जमा कर लिए । बॉयोल्यूमिनिसेंट बैक्टीरिया या फायर फ्लाइज के जीन्स का उपयोग कर एक छोटे चमकीले पैधे को उगाना प्रोजेक्ट का लक्ष्य है । आयोजकों ने धन देने वालों को उनके योगदान के हिसाब से बीज, पौधे और चमकीले गुलाब देने की पेशकश की    थी । सैकड़ों लोगों ने अंधेरे में रोशन होने वाले पौधों के बीज मांगे हैं ।
    इसका नतीजा दो सांस्कृतिक समूहों या जातियों के बीच संघर्ष के रूप मेंसामने आया है । एक तरफ आयोजक और चमकीले पौधों का समर्थन करने वाले टेक्नोलॉजिस्ट हैं । यह समूह दुनिया बदलने वाली कल्पना शक्ति, उद्यमिता का पक्षधर है । वे कंप्यूटर कोड या डीएनए सीक्वेंसिंग जैसी बौद्धिक संपदा की भागीदारी के समर्थक हैं ताकि नए निर्माण या सृजन को दूसरे लोग और बेहतर कर सकें ।
    दूसरी तरफ किकस्टार्टर  के संस्थापकों का प्रतिनिधित्व करने वाले आर्टिस्ट हैं । आर्टिस्टों का समूह स्थानीयता, छोटे उद्यमों का साथ देता है और विध्वंसक टेक्नोलॉजी व ग्लोबल कारोबार का विरोध करता है । यह समूह जेनेंटिकली मोडिफाइड चीजों को खाने लायक नहीं मानता है । अभी हाल तक किकस्टार्टर में दोनों समूह शांति से साथ-साथ चल रहे थे । लेकिन, जब चमकदार पौधों का प्रोजेक्ट सामने आया तो बॉयोटेक विरोधी गुटों ने प्रोजेक्ट को जेनेटिक प्रदूषण करार   दिया । उन्होंने आरोप लगाया कि आयोजकों ने किकस्टार्टर को उसके कलात्मक इरादोंसे अलग कर दिया हैं।

भाषा के लिहाज से अंग्रेजो से हम आगे हैं
    भारत भाषा के लिहाज से यूरोप के मुकाबले चार गुना अधिक संपन्न है । भारतीय जहां करीब ८५० भाषाएं बोलते हैं, वहीं यूरोपीय अपनी बात मात्र २५० भाषाआें में रख पाते हैं । यह बात जाने-माने भाषा-विज्ञानी और स्वतंत्र भारत में अखिल भारतीय स्तर पर भाषाआें का पहला सर्वेक्षण करने वाले गणेश एन देवी ने कही ।
    भारतीय भाषाआें के लोक सर्वेक्षण के अध्यक्ष श्री देवी ने कहा कि इंग्लैण्ड में चार या पांच से अधिक भाषाएं नहीं बोली जाती । इनमें से मुख्य तौर पर सिर्फ दो-अंग्रेजी और वेल्श कार्य व्यवहार में है, जबकि असम जैसा राज्य जो आकार में लगभग ब्रिटेन के बराबर है, वहां ५२ भाषाएं बोली जाती है ।
    श्री देवी ने पेरिस मुख्यालय वाले संस्थान यूनेस्को, जो कई भाषाआें के संवर्धन के लिए प्रयास करता है, वह विचार-विमर्श के लिए सिर्फ पांच भाषाआें का इस्तेमाल करता है ।
    पीएलएसआई के अध्यक्ष ने कहा कि दूसरी ओर यहां भारतीय अदालतों और कार्यालयों में २२ भाषाआें में काम-काज होता है । ब्रिटिश शासनकाल में हुए भारतीय भाषाआें के पहले सर्वेक्षण के बाद करीब १०० साल बाद हुए सर्वेक्षण के संबंध में उन्होंने कहा कि भारत में सैकड़ों भाषाएं है ।
    उन्होनें कहा कि यह संख्या करीब ८५० हो सकती है  जिनमें से हम ७८० भाषाआें का अध्ययन कर सके । यदि १९६१ की जनगणना को आधार मानें तो पिछले ५० साल में करीब २५० भाषाएं लुप्त् हुई ।
    ब्रिटिश शासनकाल में आइरिश भाषा विज्ञानी और भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने यह सर्वेक्षण किया था । वडोदरा स्थित भाषा रिसर्च एण्ड पब्लिकेशन के तत्वधान में हुए इस सर्वेक्षण को ५ सितम्बर को राष्ट्र को समर्पित किया जाएगा ।

पेड़-पौधों में भी भाई भतीजावाद
    सिर्फ मनुष्यों में ही भाई-भतीजावाद नहीं होता । पौधों में भी इसके प्रमाण मिले हैं । ताजा प्रयोग बताते हैं कि पौधे भी उन बातों पर ज्याद ध्यान देते हैं, जो उनके निकट संबंधी कहते है ।        
    जब कोई कीट किसी पौधे की पत्तियां कुतरता है, तो कई पौधे कुछ वाष्पशील रसायन छोड़ते हैं, जो आसपास के पौधों को चेतावनी दे देते हैं कि कीटों का हमला हो रहा है । इस वाष्प संदेश को पाकर आसपास के पौधे हमले को तैयारी शुरू कर देते  हैं । तैयारी के रूप में कुछ पौधे एक अन्य रसायन छोड़ते है वो ऐसे कीटों को आकर्षित करता है जो हमलावर टों का शिकार करते हैं । कुछ अन्य पौधे ऐसे रसायनों का स्त्राव करने लगते हैं जिससे वे बेस्वाद हो जाते हैं । ये प्रक्रियाएं पौधों की कई प्रजातियों में देखी गई है ।
    अब कैलिफोर्निया विश्व-विद्यालय, डेविस के रिचर्ड कारबैन ने बताया है कि एक पौधे से ब्रश में इन चेतावनी संकेतों पर प्रतिक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि वह संदेश किसी निकट संबंधी पौधे से आया है या असंबंधी पौधे से, इसे समझने के लिए कारबैन के दल ने वृद्धि के तीन मौसमों की शुरूआत में एक ही पौधे की अलग-अलग शाखाआें को एक वाष्पशील रसायन से उपचारित  किया । यह रसायन उसी प्रजाति के अलग-अलग पौधों ने तब स्त्रावित किया गया था जब उनकी पत्तियों को कुतरा गया था ।
    मौसम के अंत तक शाकाहारियों ने उन शाखाआें को कम नुकसान  पहुंचाया था, जिन पर निकट संबंधी पौधों से प्राप्त् रसायन डाला गया था बजाए उन शाखाआें के जिन डाला बजाए उन शाखाआें के जिन पर डाला गया रसायन थोड़े दूर के संबंधियोंसे आया था । जाहिर है उक्त रसायन ने पौधे में अलग-अलग स्तर की शाकाहारी रोधक प्रतिक्रिया विकसित की थी । 
    श्री कारबैन पहले दर्शा चुके हैं कि वाष्पशील रसायनों के मिश्रण का संघटन (एक ही प्रजाति) के अलग-अलग पौधों के बीच कुछ समानता तो होती ही है । एक तरह से ये पारिवारिक पहचान चिन्ह होते हैं ताकि अन्य को इन संकेतोंसे फायदा उठाने से रोका जा सके । यहां निकट संबंधी पौधों से आशय हैकि उनके बीच जेनेटिक समानता अपेक्षाकृत ज्यादा होती है । इसी पगकार का शोध कनाडा के मैकमास्टर विश्वविद्यालय की सुसन डुडली ने भी किया था और पाया था कि जब पौधे एक ही गमले में जगह के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, तो वे निकट संबंधी पड़ोसियों के प्रति कम आक्रामक होते हैं । सुश्री डुडली का ख्याल है कि संबंधियों के बीच भेद शायद पौधों में एक आम बात  है ।
बाल जगत
स्तनपान बनाम मिल्क बैंक
चिन्मय मिश्र

    कोई  विषय अपने आप में इतना संवेदनशील होता है कि उस पर कमोवेश भावनात्मक अभिव्यक्ति  करने की परंपरा सी बन जाती है । अपनी सुकोमलता की वजह से सामाजिक व सांस्कृतिक तौर पर उस विषय पर समीक्षात्मक टिप्पणी करना भी अत्यंत दुष्कर हो जाता है । ऐसा ही एक विषय है, माता द्वारा बच्चे को स्तनपान  करवाना !  भारत सरकार युनिसेफ  के  साथ मिलकर प्रतिवर्ष स्तनपान सप्ताह मनाती है । इस दौरान धात्रियों व दूध पिलाने वाली माताओं को अनेक सलाहें दी जाती है । इस पूरे अभियान से आशय ``मां  का दूध`` बच्चंे के लिए कितना लाभकारी है तथा जन्म के पहले घंटे में मां द्वारा बच्चे को स्तनपान पर अत्यधिक जोर देना होता है । इस पूरे विचार में कहीं कोई खामी भी नजर नहीं आती ।
     लेकिन आधुनिकता और प्रचार के इस नए युग ने नई चुनौतियां प्रस्तुत की हैं । ``मां का दूध`` कब बहुत सीमित मात्रा में ही सही लेकिन ``स्त्री के दूध`` में बदल गया और बच्चे को पिलाने के अलावा आइस्क्रीम बनाने जैसे काम में आने लगा, पता ही नहीं चला ! अठारहवीं शताब्दी की धाय या वेट नर्स रखने की परंपरा कैसे विश्व के अनेक हिस्सों में पुन: अवतरित हो गई, मालूम ही नही पड़ा । मां का दूध भी आज व्यावसायिकता के फेर में है ।
    मां के दूध पर आक्रमण का यह पहला मौका नहीं है । ऐसी कोशिशें पिछले २०० वर्षों से भी अधिक समय से चल रही हैं । वैसे इसकी शुरुआत सदइच्छा से हुई थी । मानवीय दूध का विकल्प ढूंढने के सबसे शुरुआती प्रमाण सन् १८०० में मिलते है ।  लेकिन तब इसका उद्देश्य बीमार व कमजोर बच्चें को बचाना था । उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में बोतल से दूध  पिलाने  ने शिशु आहार विकल्पों की खोज का मार्ग और प्रशस्त किया । वैसे कहा जाता है कि पुराने समय के  रसायनशास्त्री पत्थर को सोना बनाने का दावा करते थे ।  आजकल के रसायनशास्त्री मां के दूध जैसा कृत्रिम दूध बनाने का दावा करते हैं । लेकिन मानव (स्त्री) दूध अप्रतिम  है ।
    वैसे भी कम आय वाले देशों में स्तनपान सामान्य बात है । ग्रामीण इलाकों में तो इसे लेकर कोई संशय ही नहीं था । इसी बीच वैकल्पिक आहार बेचने वालों ने एक नारा दिया ``शहरी महिला अब आधुनिक हो सकती है ।`` यानि स्तनपान से मुक्ति । शहरों में या शहरी महिलाओं ने इसका चाहे जो प्रभाव पड़ा हो, लेकिन इस प्रचार से प्रभावित होकर एक समय अफ्रीकी देश नाइजीरिया की ८७ प्रतिशत माताएं अपने बच्चें को कृत्रिम दूध देने लग गई थी, क्योंकि इसी दौर में एक ओर विज्ञापनी नारा जोर पर था, ``जहां स्तनपान असफल वहां लेक्टोजेन अपनाएं ।`` जाहिर है कि असफलता को  सफलता के बदलने में श्रम लगता उसके स्थान पर लेक्टोजेन अपना लिया गया और नेस्ले जो कि लेक्टोजेन बनाती है, आज भी दुनिया की पोषण नीति की प्रमुख कर्णधार बनी हुई है ।
    मां के दूध के विकल्प को पुन: मान्यता मिलने की प्रक्रिया भी कम रोचक नहीं है । दूसरे विश्वयुद्ध के  बाद बच्चें को बोतल से दूध पिलाना ``सामान्य`` हो गया  । अमेरिका के आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि अस्पतालों में प्रसव के बाद मां द्वारा बच्चें को दूध पिलाने में १९४६ से १९५६ तक की अवधि में ५० प्रतिशत की  कमी आई थी । सन् १९६७ में तो मात्र २५ महिलाएं ही बच्चें को स्तनपान  करा रही थीं । वहीं दूसरी तरफ  इसके ठीक विपरीत पूर्वी यूरोप जिसमें कि साम्यवादी शासन स्थापित हुआ वहां स्थितियां कुछ और ही थीं । तत्कालीन पूर्वी जर्मनी में महिलाएं अस्पताल में बच्चें के इस्तेमाल हेतु अपना दूध दान देती रहीं और सन् १९८९ में वहां कुल मिलाकर २ लाख लीटर दूध इकट्ठा हुआ था। इसी दौरान स्केडेवियन देशों स्वीडन और डेनमार्क में ``दूध रसोई`` (मिल्क कि चन) के   नाम से कार्य  शुरू  हुआ । स्वीडन में मां से पहले तीन महीने का दूध लिया जाता था और बदले में २१ डॉलर प्रति लीटर का भुगतान किया जाता था। धीरे-धीरे अमेरिका में भी काफी ``मिल्क बैंक`` खुल गए । वहां अभी ऐसे ८ बैंक  संचालित हैं । एचआईवी के फैलने के बाद बड़ी संख्या में ऐसे बैंक  बंद भी हुए । भारत में भी उदयपुर में ऐसा बैंक  अभी प्रारंभ हुआ है  ।
    दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका की स्मृतियों से बाहर आने के  लिए बाजार की आक्रामकता  और एकाधिकार पर जोर दिया जाने लगा । युद्ध से जीतना एक श्रमसाध्य प्रक्रिया है और इसमें जीतने वाले की भी हानि तो होती ही है। ऐसे में व्यापार को युद्ध का पर्याय बना दिया गया । संयुक्त राष्ट्र संघ भी तब अपना महत्व स्थापित करने की प्रक्रिया में था। स्वतंत्रता की नई बयार सारी दुनिया में छाई थी । इसी बीच सन् १९६० के  दशक के  आरंभ में यूनिसेफ ने कुपोषित बच्चें  के स्वास्थ्य लाभ हेतु डिब्बा बंद दूध का वितरण (मुफ्त) प्रारंभ कर दिया । वह वैश्विक तौर पर प्रतिवर्ष करीब २० लाख पौंड डिब्बा बंद पाउडर दूध बाटता था । इसके  परिणामस्वरूप तीसरी दुनिया की  माताएं अस्पतालों की ओर आकर्षित हुई और पूरी दुनिया एक  नई राह पर चल पड़ी ।
    स्तनपान कम हो जाने की वजह से शिशु मृत्यु दर में एकाएक  तेजी आने लगी । सभी ओर खलबली सी मच गई । विकसित देश भी इस विभीषिका से बच नहीं पाए । इसी बीच सन् १९७९ में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने करीब १०० देशों के  सर्वेक्षण में पाया कि वहां ५० ब्रांडेड एवं २०० प्रकार के  अन्य वैकल्पिक शिशु आहार बेचे जा रहे हैं । इसी के बाद परिवर्तन प्रारंभ हुआ । वैसे इसके  पहले सन् १९७४ में ब्रिटिश चैरिटी में वैकल्पिक  शिशु आहार को लेकर एक लेख ``दि बेबी किलर`` (बच्चें के  हत्यारे) प्रकाशित हो चुका था । संघर्ष चलता रहा और दूध का विकल्प बनाने वाली कंपनियां अपनी तरह से इसका विरोध करती रहीं ।
    अंतत: सन् १९८० में विश्व स्वास्थ्य संग न ने पहल की और सन् १९८१ में विश्व स्वास्थ्य असेंबली ने विकल्पों पर विचार क र विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं यूनिसेफ के माध्यम से स्तनपान के  विकल्पों को अनुशासित करने हेतु आचार संहिता निर्माण हेतु मतदान करवाया । जेनेवा में हुए इस सम्मेलन में ११८ देशों ने इसके  पक्ष में मत दिया, ३ अनुपस्थित रहे और अमेरिका एकमाात्र देश था जिसने इसका विरोध किया था । स्वीकृति  के ३ वर्षों के भीतर १३० देशों ने इसे स्वीकार किया और अंतत: १९९२ में भारत ने भी शिशु दूध विकल्प अधिनियम पारित कर दिया।
    भविष्य को बचाने वाले इस सैद्धांतिक  युद्ध के  नायक  और खलनायक दोनों ही हमारे सामने हैं । लेकिन प्रत्येक समय की अपनी चुनौतियां भी होती हैं । मां के दूध के व्यावसायिक रण के  माध्यम  से स्त्री के दूध में बदलने की कोशिश प्रारंभ कर दी गई जैसे कि  वह गाय जैसी कोई पृथक जैवीय पहचान हो । अमेरिका में छोटे पैमाने पर लेकिन चीन के  कुछ हिस्सों में बड़े पैमाने पर महिलाओं को बच्चें को दूध पिलाने की ``नौक री`` पर रखा जाने लगा है । इससे उनके  अपने बच्चें के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा  है । यह बीमारी मुंबई एवं गोवा के  रास्ते भारत में भी प्रवेश क र गई है ।
    दूसरी बड़ी चुनौती सरोगेसी से पैदा हुए बच्चे और उन्हें जन्म देने वाली माताओं की  है । जिन महिलाओं से उनकी कोख कि राए पर ली जाती है, उनसे कि ए गए समझौते क ी शर्त होती है कि  वह बच्च अपनी जैव माता के  संपर्क  में कभी नहीं आएगा यानि उसे जीवन में क भी भी मां का दूध नहीं मिलेगा। वहीं दूसरी ओर हम दावा क र रहे हैं कि  स्तनपान बच्चे क ा अधिक ार है । एक  अन्य समस्या बढ़ते सिजेरियन प्रसव से भी पैदा हो रही है । इससे क ई बच्चें को जन्म के  पहले घंटे में दूध नहीं मिलता । वहीं दूसरी ओर अनावश्यक  आपरेशन पर भी रोक  नहीं लग रही है । ऐसे वैज्ञानिक प्रमाण भी हमारे सामने आ रहे हैं । वातावरण में बढ़ रहे प्रदूषण से मां क ा दूध भी प्रदूषित हो रहा है । ऐसी नई चुनौतियों से सामना क रना आज क ी महती आवश्यक ता भी है ।
    लेकि न इस सबके  बीच सुकून पहुंचाने वाली खबर यह है कि  फिनलैंड के ९५ प्रतिशत शिशु अपनी मां क ा दूध पी रहे हैं ।
ज्ञान विज्ञान
लोगों का खाना चट कर रही हैं कारे
    दुनिया में पिछले कुछ वर्षो से जैव ईधन का काफी शोर हो रहा है । ऐसा कहा जा रहा है कि जैव ईधन का उपयोग करने से कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन कम होगा और जलवायु परिवर्तन की रफ्तार को थामने में मदद मिलेगी । मगर हाल में कुछ शोध संस्थाआें द्वारा की गई ताजा गणनाएं बताती हैं कि उत्सर्जन में जितनी कमी का दावा किया जा रहा है वह वास्तविकता से कोसों दूर है । इसके अलावा जैव ईधन के संदर्भ में एक मुद्दा यह भी है कि अधिकांश जैव ईधन का निर्माण प्रमुख खाद्य फसलों से किया जाता है । 


     यूरोप में जैव ईधन की बहस एक बार फिर शुरू हो गई है । यूरोप में २००९ की जैव ईधन नीति के मुताबिक वर्ष २०२० तक यातायात के कार्बन फुटप्रिंट में ६ प्रतिशत की कमी करने का लक्ष्य रखा गया था । इसके लिए प्रस्ताव यह था कि २०२० तक यातायात में प्रयुक्त ईधन का १० प्रतिशत नवीनीकरण स्त्रोतों से आने लगेगा । ऐसा माना गया था कि जैव ईधन कार्बन डाईऑक्साइड के संदर्भ में सामान्य जीवाश्म ईधन की तुलना में ३५ प्रतिशत की बचत   करेंगे । इस नीति के तहत यूरोप में जैव ईधन उद्योग खूब फला फूला ।
       मगर नई गणनाएं बता रही है कि कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में शायद उतनी कमी नहीं आएगी जितनी सोची गई थी । प्रिसंटन विश्वविघालय के पर्यावरण विशेषज्ञ टिम सर्चिगर का मत है कि उपरोक्त गणनाएं करते समय एक बात को अनदेखा किया गया था । जब खाद्यान्न फसलों का उपयोग जैव ईधन बनाने में किया जाएगा, तो खाद्यान्न उत्पादन के लिए नई जमीनों का इस्तेमाल करना होगा । ये नई जमीनें मूलत: जंगल काटकर या पड़ती भूमि को जोतकर प्राप्त् होगी । उनमें पहले से ही काफी सारा कार्बन स्थिर किया हुआ है । जब इन जमीनों का उपयोग किया जाएगा तो यह सारा कार्बन वातावरण में पहुंचेगा और उत्सर्जन में हुई किसी भी कमी को निरस्त कर देगा ।
    हालांकि भूमि उपयोग में परिवर्तन के ऐेसे परोक्ष असर की गणना मुश्किल काम है मगर मोटी-मोटी गणनाएं बताती हैं कि इससे जैव ईधन से मिलने वाले फायदों में दो-तिहाई तक की कमी आ जाएगी । यूरोप में इन आंकड़ों को लेकर अच्छी खासी खींचतान मची हुई है । एक तरफ पर्यावरण लॉबी है, तो दूसरी तरफ कृषि, जैव ईधन उद्योग तथा यातायात लॉबी   है ।
    इन लॉबियों के झगड़ों में एक बात छूट ही जा रही है कि जैव ईधन उत्पादन में खाद्य फसलों के उपयोग के चलते दुनिया भर में खाद्यान्न की कीमतें आसमान छू रही है । युरोप का जैव ईधन उद्योग आजकल अपने उत्पादन कार्य के लिए अरंडी और खाद्य तेल का आयात भी कर रहा है । वहीं यूएसए में जैव ईधन का उत्पादन मुख्यत: मक्का से किया जा रहा है ।

पंतगे चमगादड़ों को भटका देते हैं
    चमगादड़ और पतंगों के बीच सुरों की एक जंग पिछले करीब ६५ लाख सालों से छिड़ी हुई है और तू डाल-डाल, मैं पात-पात की तर्ज पर अभी भी अनिर्णित है । यह तो काफी समय से पता था कि टाइगर पतंगा समूह के पतंगे चमगादड़ों जैसी अल्ट्रा-ध्वनि सामने की ओर फेंकते हैं और उसके किसी चीज से टकराकर लौटने पर अंदाज लगाते हैं कि वह वस्तु कितनी दूर है, किस दिशा में है और किस तरह की है (यानी खाने योग्य है या नहीं) इसे प्रतिध्वनि से स्थिति निर्धारण या इकोलोकेशन कहते है । पतंगो द्वारा ठीक चमगादड़नुमा ध्वनि पैदा करने से इंकोलोकेशन की यह प्रणाली गड़बड़ा जाती है ।     


     पतंगो के व्यवहार को समझने के लिए व्यवहार जीव वैज्ञानिक जैसे बार्बर और जिनेटिकविद अकितो कावाहारा  बोर्नियो पहुंचे । यहां उन्होनें कुछ टाइगर पतंगों और कुछ हॉक पतंगों को प्रकाश से आकर्षित करके पकड़ा । अब इन पर चमगादड़ों की अल्ट्रा-ध्वनि की बौछार की गई तो इन पतंगो ने उसी तरह की जवाबी आवाज पैदा की । यह ध्वनि पतंगो की तीन प्रजातियों में सुनी गई ।    
    नर पतंगों ने ध्वनि पैदा करने के लिए अपनी टांगों के सिरों पर मौजूद चिमटेनुमा अंग (क्लेस्पर्स) का सहारा लिया । आम तौर पर वे इन क्लेस्पर्स की मदद से संभोग के दौरान मादा को पकड़कर रखते    है । नर पतंगो ने इन क्लेस्पर्स पर उपस्थित कड़क शल्कों को अपने पेट पर रगड़कर अल्ट्रा-ध्वनि पैदा की । दूसरी ओर मादा पतंगो ने अपने जननांग को थोड़ा अंदर की ओर खींचा ताकि उस पर मौजूद शुल्क उनके उदर से टकराएं और ध्वनि पैदा हो ।
    अभी वैज्ञानिक पक्की तौर पर नहीं कह सकते कि पतंगो में इस व्यवहार का मकसद क्या है । हो सकता है कि इस तरह की ध्वनि पैदा करके वे चमगादड़ोंसे बचने की कोशिश करते हों । यह भी हो सकता है कि यह अल्ट्रा ध्वनि चमगादड़ों के लिए एक चेतावनी होती हो, कि सामने जो पतंगा है उसकी टांगों पर सख्त कांटे हैं और वह उड़ने में दक्ष है ।
    बहरहाल, इस कीटों को व्यवहार का जो भी फायदा हो, मगर वैज्ञानिक देखना चाहते हैं कि कीटों की कितनी और प्रजातियों या कुलोंमें इस तरह का व्यवहार पाया जाता है ।
गैस भरी गेंद के संगीत से तापमापी
    ऐसा लगता है कि किलोग्राम और मीटर के बाद अब तापमान का मानक भी बदलने को है । एक गेंद में आर्गन गैस भरकर उसमें ध्वनि तरंगो को पार करके वैज्ञानिकों ने तापमान नापने का नया तरीका इजाद किया है और यह हमें तापमान का एक सटीक पैमाना देने वाला है ।
    तापमान की इकाई केल्विन है । इस पैमाने पर माना जाता है कि जिस तापमान पर पानी, बर्फ और वाष्प एक साथ साम्यावस्था में रहें वह २७३.१६ केल्विन यानी ०.०१ डिग्री सेल्सियस है । इसे पानी का ट्रिपल पॉइंर्ट कहते हैं । इसी के आधार पर शेष तापमान नापे जाते हैं । दिक्कत यह है कि जैसे-जैसे आप इस तापमान से दूर होते जाते हैं, मापन में त्रुटियां बढ़ती जाती हैं । 
 

    इस समस्या से निजात पाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय माप तौल समिति ने फैसला किया है कि केल्विन की परिभाषा एक प्राकृतिक स्थिरांक के आधार पर की जाए । यह स्थिरांक है बोल्ट्जमैन स्थिरांक । यह स्थिरांक किसी भी पदार्थ में अणुआें की ऊर्जा और उसके तापमान के बीच संबंध दर्शाता है । इसके आधार पर तापमान की गणना की जाए तो काफी ऊंचे व नीचे तापमान पर भी वह सही बैठती है ।
    अगली दिक्कत यह है कि बोल्ट्जमैन स्थिरांक का सही व सटीक मान कैसे निकाला जाए । इसका एक तरीका १९८८ में माइकल मोल्डोवर ने खोजा था । उन्होनें एक गेंद में आर्गन भरी और उसमें ध्वनि तरंगो को भेजा । अलग-अलग  आवृत्ति की ध्वनि तरंगों का आर्गन में वेग निकालकर उसकी मदद से वे अणुआें की ऊर्जा की गणना करने में सफल रहे थे ।
    इस गेंद में भरी आर्गन का तापमान तो उन्हें पता ही था । तो बोल्ट्जमैन स्थिरांक की गणना मुश्किल नहीं थी । उस समय मोल्डोवर और उनके साथियों ने कहा था कि यदि उनके द्वारा निकाले गए बोल्ट्जमैंन स्थिरांक में दस लाख भाग में १ भाग की भी त्रुटि पाई गई तो वे अपना उपकरण चबाने तक को तैयार हैं ।
    उन्हें वह उपकरण नहीं चबाना पड़ेगा । क्योंकि अब उन्हीं की विधि का उपयोग करके बोल्ट्जमैन स्थिरांक निकालकर तापमान को परिभाषित करने की कोशिश हो रही है । अब तक दो टीमों ने इस विधि से बोल्ट्जमैन स्थिरांक की गणना की है और उनमें थोड़ा अंतर आ रहा है । एक बार इस अंतर के कारण समझ में आ जाएं, तो अंतर्राष्ट्रीय नाप-तौल समिति फैसला लेने में देर नहीं  करेगी ।
प्रदेश चर्चा
म.प्र.: नवीन ऊर्जा से रोशन होगा प्रदेश
प्रलय श्रीवास्तव

    मध्यप्रदेश देश ही नहीं सारे विश्व में ऊर्जा संकट के समाधान, दीर्घकालीन जीवन के लिये बेहतर पर्यावरण और इसके लिए गैर पारंपरिक ऊर्जा स्त्रोतों के उपयोग तथा दोहन का महत्व निरन्तर बढ़ रहा  है । मध्यप्रदेश सरकार ने देश में सर्वप्रथम एक स्वतंत्र मंत्रालय की दिशा में पहल कर नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग का अप्रैल २०१० में गठन किया । विगत तीन वर्ष में ग्रिड संयोजित अक्षय ऊर्जा स्त्रोत आधारित विद्युत उत्पादन के लिये लघु जल ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बॉयोमास ऊर्जा एवं सौर ऊर्जा आधारित विद्युत उत्पादन परियोजनाआें  के क्रियान्वयन के लिये पृथक-पृथक नीतियॉ लागू की गई । इन नीतियों में विकासकों एवं निवेशकों के लिये अनेक प्रावधान किये गये । इनमें विघुत शुल्क एवं उपकर में छूट, व्हिलिंग दर में ४ प्रतिशत का अनुदान, तृतीय पक्ष विघुत विक्रय के प्रावधान, १०० प्रतिशत बैकिंग सुविधा, कान्ट्रेक्ट डिमांड में कमी आदि के प्रावधान है । इन परियोजनाआें को उद्योग का दर्जा प्रदान किया गया है । 


     वर्तमान में इन स्त्रोतों से ४७४ मेगावॉट विद्युत उत्पादित हो रही है, जो राज्य की कुल विद्युत क्षमता का ५.३१ प्रतिशत है । राज्य सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों से दिसम्बर २०१४ तक यह क्षमता बढ़कर २५०० मेगावॉट होना संभावित है, जो राज्य की कुल उत्पादन क्षमता का १७ प्रतिशत होगी ।
    नीतियों के अनुसार परियोजना आवंटन प्रक्रिया के प्रावधानों के अन्तर्गत खुले आवेदन आमंत्रित किये गये । नीतियों को बेहतर पाते हुए निवेशकों एवं विकासकों से समर्थन स्वरूप प्रदेश में अधिक क्षमता के परियोजना प्रस्ताव प्राप्त् हुए है । विभाग के अन्तर्गत २५५० मेगावाट क्षमता की १५० परियोजनाआें के क्रियान्वयन से लगभग १९ हजार ५०० करोड़ का निवेश होना संभावित है ।
    देश की सबसे बड़े १३० मेगावाट क्षमता की सौर ऊर्जा आधारित विद्युत उत्पादन आधारित विद्युत परियोजना की स्थापना का कार्य नीमच जिले में प्रारंभ हो चुका है । इस प्रकार देखा जाये तो मध्यप्रदेश अक्षय ऊर्जा के दोहन   क्षेत्र में व्यापक संभावनाआें वाला राज्य बन चुका है । इस क्षेत्र के विकास  से निवेश के साथ-साथ लगभग २० हजार लोगों को आने वाले २५   वर्ष तक रोजगार मिल सकेगा ।
ऊर्जा नीति - २०१२ लागू की गई  है । प्रदेश में अब तक ३२४ मेगावॉट क्षमता की परियोजनाआें स्थापित की जा चुकी है । वर्तमान में २१७.८ मेगावॉट क्षमता की सात परियोजनाऍ निर्माणाधीन हैं । इसके अतिरिक्त १२६० मेगावॉट क्षमता की ३९ परियोजनाऍ निजी क्षेत्रों को आवंटित हैं । राज्य सरकार के प्रयासों से दिसम्बर, २०१३ तक ८०० मेगावॉट क्षमता एवं दिसम्बर, २०१४ तक १८०० मेगावॉट क्षमता की पवन ऊर्जा परियोजनाआें की स्थापना संभावित है ।
    प्रदेश में नदी, नहर, बाँध एवं अन्य जल-स्त्रोतों में उपलब्ध जल का उपयोग विद्युत उत्पादन में किये जाने के लिये जल विद्युत आधारित परियोजनाआें की स्थापना के प्रयास किये जा रहे हैं । राज्य के भीतर उपलब्ध जल विद्युत उत्पादन की विपुल क्षमता को दृष्टिगत रखते हुए यह अत्यावश्यक हो गया था कि एक विर्निदिष्ट, व्यापक एवं उदार नीति बनाई जाये, जिससे जल विद्युत स्त्रोतों की क्षमता का त्वरित दोहन हो    सके । राज्य सरकार द्वारा जल विद्युत परियोजना के लिये प्रोत्साहन नीति २०११ जारी की गयी । प्रदेश में लघु जल विघुत परियोजना से लगभग ८६२५ मेगावॉट विद्युत का उत्पादन किया जा रहा है । इसके अतिरिक्त ४७ परियोजना, जिनकी कुल क्षमता लगभग १५५ मेगावॉट निर्माणाधीन है एवं ३४ परियोजना, जिनकी कुल क्षमता ११३.६ मेगावॉट है, की स्थापना की दिशा में अनुबंध की कार्यवाही की जा रही है ।
    नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग द्वारा दिसम्बर २०१३ तक लगभग १६१.२५ मेगावॉट क्षमता का लक्ष्य संभावित है । दिसम्बर, २०१४ तक लगभग २४१.२५ मेगावॉट क्षमता का विद्युत उत्पादन संभावित है ।
बायोमास ऊर्जा -
    मध्यप्रदेश में उपलब्ध बायोमास पर आधारित विद्युत संयंत्रों की स्थापना को प्रोत्साहित करने के लिये राज्य सरकार द्वारा बायोमास आधारित नीति २०११ लागू की गई है । अब तक ४० मेगावॉट क्षमता के बायोमास संयंत्र की स्थापना की जा चुकी है । वर्तमान में लगभग ३०८ मेगावॉट क्षमता की परियोजनाऍ निर्माणाधीन हैं । दिसम्बर, २०१३ तक ११५ मेगावॉट क्षमता की बायोमास आधारित विघुत उत्पादन परियोजनाआें की स्थापना संभावित है ।
सौर ऊर्जा -
    मध्यप्रदेश में सौर ऊर्जा परियोजनाआें की स्थापना के लिये प्रोत्साहन नीति वर्ष २०१२ में लागू की गई है । सौर ऊर्जा नीति में निजी क्षेत्रों की भागीदारी को विशेष रूप से बढ़ावा दिया गया है ।    
कविता
पर्यावरणीय कुण्डलियां
रामसनेही लाल शर्मा, यायावर

पेड़ धरा के पुत्र हैं, उन पर किया प्रहार ।
उस दिन मानव ने लिखा, अपना उप संहार ।।
अपना उप संहार, कटे जब आम, नीम, वट ।
कटे कदम्ब, पलाश, करौंदा, जामुन, नटखट । 
अब मधुवन की पवन, हंसे किसको सहरा के
जब अशोक तरू जुही, कटे सब वृक्ष धरा के
बर्बादी हंसने लगी, रोने लगा विकास ।
जल ध्वनि, पवन, विनाश का, जब गुंजा कटु हास ।।
जब गुंजा कटु हास, पवन लगती जहरीली
नदी लिए तेजाब, हुई हर लहर विषैली
बढ़ता जाता शोर, बढ़ रही है आबादी
दूषित पर्यावरण, रच रहा है बर्बादी ष्ट ।
पीपर पांती कट गयाी, सूखे कुंज-निकुंज
यमुना-तट से कट गये, श्याम-स्नेह के पुंज
श्याम-स्नेह के पुंजरो रही सुखी यमुना
उठें बगूले गर्म, रेत लावा का झरना
यमुना कुंज कदम्ब कहां? पूछेगा नाती
बाबा कहां विलुप्त् हो गयी पीपर पांती
वन-उपवन, संस्कृति-धरा, जल, नभ, संस्कृतिरूप
सबको देकर यातना, करता मनुज कुरूप,
करता मनुज कुरूप, कांटता है वृक्षों को
सजा रहा है मरे, पादपों से कक्षों को
कल्प वृक्ष को रखता था पावन नन्दन वन
देवों को प्रिय विपिन काटते हम वन-उपवन ।
पर्यावरण समाचार
नॉलेज हब के रूप मेंउभर रहा है मध्यप्रदेश
    मध्यप्रदेश अब देश के शिक्षा पटल पर तेजी से एक नॉलेज हब के रूप में उभरता जा रहा है । कौशल विकास पर भी यहां विशेष तौर पर ध्यान दिया गया जा रहा है ।
    राज्य शासन के तकनीकी शिक्षा और कौशल विकास विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि मध्यप्रदेश तेजी से देश में नॉलेज हब के रूप में विकसित हो रहा है । यहां पिछले दशक में शिक्षा के क्षेत्र में उपलब्ध अवसरों और शैक्षणिक संस्थाआें की स्थापना तेजी से हुई है । उन्होनें कहा कि वर्तमान में प्रदेश में उच्च् शिक्षा विभाग के १२ शासकीय और १० निजी विश्वविघालय, ३४२ शासकीय महाविघालय, ७७ अनुदान प्राप्त् महाविद्यालय और ६३६ अशासकीय महाविद्यालय संचालित है । इसी प्रकार तकनीकी शिक्षा विभाग को एक तकनीकी विश्वविद्यालय, २३० इंजीनियरिंग महाविद्यालय, ७७ एमसीए, ११८ फार्मेसी, ७५ पॉलीटेक्नीक महाविद्यालय, ३३३ आईटीआई और ११३ कौशल विकास केन्द्र संचालित है ।
    इस साल १० नए कौशल विकास केन्द्र स्वीकृत किए गए है । तकनीकी शिक्षा के विद्यार्थियों में संवाद स्थापित करने का कौशल विकसित करने के लिए सभी शासकीय पॉलीटेक्निक कॉलेज और आइटीआई में भाषाई प्रयोगशाला की स्थापना का भी निर्णय किया गया है ।
    अधिकारी ने कहा कि प्रदेश में आइआइएम इन्दौर, आइआइटी इन्दौर, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च भोपाल, स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर भोपाल, निफ्ट भोपाल, एबी इंस्टीट्यूट ऑफ इंफार्मेशन टेक्नालॉजी एंड मेनेजमेंट ग्वालियर, पाीडीआइटीडीएम जबलपुर जैसे राष्ट्रीय स्तर के कई महत्वपूर्ण संस्थान संचालित है । प्रदेश में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन की स्थापना की स्वीकृति भी मिल चुकी है । इस साल आइटीआई को प्रवेश क्षमता ५४५४० और अल्प अवधि प्रशिक्षण कार्यक्रमों की क्षमता एक लाख एक हजार की गई है । यह पिछले साल की तुलना में क्रमश: ६७ फीसद और ३६५ फीसद अधिक है ।