शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013



प्रसंगवश   
भोपाल गैस त्रासदी, इतिहास का काला अध्याय
    ०२ दिसम्बर १९८४ को घटित भोपाल गैस त्रासदी को शायद ही कभी भुलाया जा सकेगा । भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड प्लांट में २ दिसम्बर को आधी रात में मिथाइल आइसोनेट (एमआईसी) के रिसाव के कारण हजारों की तादाद में लोगों की मौत हो गई थी । घोर लापरवाही के कारण यूनियन कार्बाइड कारखाने से मिथाइल आइसोसायनाइड गैस का रिसाव हुआ था । मिथाइल आइसोसायनाइड के रिसाव ने न सिर्फ फैक्ट्री के आसपास की आबादी को अपने चपेट में लिया था, बल्कि हवा के झोकों के साथ दूर-दूर तक निवास करने वाली आबादी तक अपना कहर फैलाया था । दो दिन तक फैक्टरी से जहरीली गैसों का रिसाव होता रहा ।  फैक्टरी के अधिकारी गैस रिसाव को रोकने के इंतजाम करने की जगह खुद भाग खड़े हुए थे ।
    मिथाइल आइसोसायनाइड गैस की चपेट में आने से करीब १५ हजार लोगों की मौत हुई थी । पांच लाख से अधिक लोग घायल हुए थे । जहरीली गैस के चपेटे में आने से सैकड़ों लोगों की बाद में मौत हो गई । यही नहीं, आज भी हजारों पीड़ित ऐसे हैं, जो जहरीली गैस के प्रभाव से मुक्त नहीं हैं । भोपाल में कारखाने के आसपास की भूमि जहरीली हो गई है ।
    इस हादसे ने देश को झकझोर कर रख दिया था । लेकिन इससे भी दर्दनाक था इस मामले में सरकार का रवैया यूनियन कार्बाइड के मालिक वारेन एंडरसन को बचाने की सरकार ने पुरजोर कोशिश की । किसी भी अनहोनी से बचने के लिए उस देश से बाहर जाने का रास्ता दिया गया जिसके बाद से वह कभी भारत के हाथ नहीं लगा । मुआवजे के नाम पर धोखाधड़ी हुई है । यूनियन कार्बाइड कंपनी के साथ सुप्रीम कोर्ट की मध्यस्थता में मुआवजे के लिए एक समझौता हुआ था । समझौते में एक तरह से भोपाल गैस कांड के पीड़ितों के साथ अन्याय हीं नहीं हुआ, बल्कि उनके संघर्ष और भविष्य पर भी नकेल डाली गई थी । दुनिया की सबसे बड़ी औघोगिक त्रासदी और १५ हजार से ज्यादा जाने छीनने वाली व पांच लाख से ज्यादा लोगों को अपने घातक जद में लेने वाली इस नरसंहार घटना की मुआवजा राशि मात्र ७१३ करोड़ रूपये तय की गयी । भारत सरकार की अति रूचि और यूनियन गैस कार्बाइड कारपोरेशन के प्रति अतिरिक्त मोह ने गैस पीड़ितों की संभावनाआें का गला घोंट दिया । बात तो यह है कि इस नरसंहारक घटना में सैकड़ों लोग ऐसे मारे गए थे, जिनके पास न तो कोई रिहायशी प्रमाण थे और न ही नियमित पते का पंजीकरण था । ऐसे गरीब हताहतों के साथ भी न्याय नहीं हुआ और उन्हें किसी प्रकार का मुआवजा नहीं मिला ।
संपादकीय 
विलुप्त् हो रही हैआर्किड प्रजातियां

   खूबसूरत आर्किड फूलों की विलुप्त् हो रही प्रजातियों के संरक्षण से न केवल रोजगार तथा भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है बल्कि इसके  औषधीय गुणों से अनेक असाध्य रोगों का इलाज भी किया जा सकता है । आर्किड की पूरे विश्व में २५ से ३० हजार प्रजातियां पायी जाती है लेकिन इनमें से लगभग दस प्रतिशत अर्थात् १३३१ प्रजातियां भारत में पायी जाती है । इनमें से ८७६ प्रजातियां पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्यों में पायी जाती है ।
    बोटेनिकल सर्वे आफ इंडिया तथा कुछ अन्य अध्ययनों के अनुसार बढ़ती मानवीय गतिविधियों, औद्योगिकरण, आधारभूत सुविधाआें के विकास, प्राकृतिक आपदाआें, जागरूकता के अभाव तथा औषधीय गुणों के कारण इसकी तस्करी होती है जिससे इसके विलुप्त् होने का खतरा बढ़ गया है । बोटेनिकल सर्वे आफ इंडिया के एक अध्ययन के अनुसार देश में आर्किड की कम से कम ५८ प्रजातियों पर विलुप्त् होने का खतरा उत्पन्न हो गया है । कुछ विशेषज्ञों के अनुसार यह संख्या बढ़कर एक सौ अधिक हो गई है ।
    आर्किड पर उत्पन्न खतरे को देखते हुए वर्ष १९८४ में आर्किड विशेषज्ञ समूह का गठन किया गया था । इसके साथ ही आर्किड के संरक्षण के लिए लोगों में जागरूकता पैदा करने तथा प्रचार प्रसार के लिए आर्किड सोसायटी आफ इंडिया का गठन किया गया । केन्द्र सरकार ने आर्किड की ज्यादा पैदावार वाले क्षेत्रों को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया । कुछ राज्य सरकारों ने इसके संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए आर्किड क्षेत्र स्थापित किए है । अरूणाचल प्रदेश में तिपी और सेसा, पश्चिम बंगाल में लोलेगांव और तकदह, सिक्किम के सरम्स, मिजोरम के सलरिप और नगोपा तथा मेघालय के करदमकुलाई मेंइसकी स्थापना की गई । सिक्किम सरकार स्लिपर प्रजाति के आर्किड को बचाने में कामयाब रही है ।
    बोटेनिकल सर्वे आफ इंडिया ने अपने अथक प्रयास से बढ़ी संख्या में दुलर्भ और विलुप्त् हो रही प्रजिाात्यों को हावड़ा, शिलांग तथा यारकुड के बोटेनिकल गार्डन में संरक्षित किया है । इनका संरक्षण इनके गुणों के अध्ययन को ध्यान में रखकर भी किया गया है । वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने भी इस पर विशेष अध्ययन शुरू कराया है । कैंसर तथा एड्स की रोकथाम को लेकर भी वैज्ञानिक आर्किड पर अनुसंधान कर रहे हैं ।
सामयिक
क्या है विकास का इतिहास ?
कश्मीर उप्पल

    भारत जो कि उन्नीसवीं  शताब्दी की शुरुआत तक दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश था, किन कारणों से लगातार पिछड़ता गया, यह जानना आवश्यक है । साथ ही हमें इस मानसिकता पर पुनर्विचार करना पड़ेगा, जिसमें सिर्फ औद्योगिक विकास को ही विकास का पैमाना माना जाता है ।
    हम इस बात में खुश होते हैं कि कभी हमारा देश अर्द्धविकसित था जो अब विकासशील देश बन गया है । हम इसे आजादी के बाद प्राप्त् उपलब्धि मानते हैं । इससे यह भी समझते हैं कि विश्व के विकसित देशों जैसे अमेरिका, जापान और ब्रिटेन आदि देशों की पंक्ति मंे आने वाला देश विकासशील देश होता है । अत: अब भारत को अमेरिका जैसा देश बनने में कुछ ही वर्ष शेष बचे हैं ।

     इन्हीं विकासशील देशों को कम आय वाले देश, गरीब देश, पूर्व औद्योगिक अवस्था  के देश, अविकसित देश और अल्पविकसित देश आदि नामों से सम्बोधित किया जाता था । नोबल पुुरस्कार प्राप्त लेखक गुन्नार मिर्डल पिछड़े हुए क्षेत्र, अल्प विकसित  देश और विकासशील देश जैसे शब्दोंके प्रयोग को शब्दावली की राजनीति और मानसिक षडयंत्र के रूप में देखते हैं । उनके अनुसार एक झटके मंे दुनिया के  कई देश अल्प-विकसित से विकासशील देशों की श्रेणी में आ गये हैं ।
    गुन्नार मिर्डल के अनुसार ''राजनय का सहारा लेना आवश्यकता बन चुका है । राजनय की आवश्यकताओं से प्रेरित एक व्यापक षडयंत्र के तहत अनेक भद्रतापूर्ण अभिव्यक्तियों का प्रयोग होने लगा है । एक ऐसी ही अभिव्यक्ति 'विकासशील` देश है जिसका वर्षों से संयुक्त राष्ट्र संघ के समस्त दस्तावेजों में अधिकृत रूप  से प्रयोग हो रहा है ।``
    प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व तक पश्चिमी देशों यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा तथा जापान एवं ऑस्ट्रेलिया का औद्योगीकरण हो चुका था । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एशिया, अफ्रीका और मध्यपूर्व के देशों ने औद्योगीकरण के कार्यक्रम प्रारंभ ही किये थे । विकसित देशों के इतिहास को देखने से यह पता चलता है कि विकास की प्रांरभिक अवस्था में इन देशों ने यातायात, शक्ति के साधनों और शिक्षा के प्रसार पर काफी ध्यान दिया था । इन साधनों के द्वारा ही आर्थिक विकास के लिए आधारभूत संरचना तैयार हुई थी । विश्व के अधिकांश देशों को विकसित देशांे के औद्योगीकरण का कोई लाभ नहीं मिला था क्योंकि उस समय उनमंे से अधिकांश देश ब्रिटेन, पुर्तगाल और फ्रांस आदि के उपनिवेश थे । इस कारण अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के अनेक देश अल्पविकसित देशों की श्रेणी मंे रहने को अभिशप्त रहे । आर्थिक विकास के  इतिहास मंे विकास के  मॉडल से कभी कोई देश आत्मनिर्भर नहीं बना है ।
    यह स्पष्ट है दुनिया का कोई भी देश अपनी सरकार से सक्रिय प्रोत्साहन पाए बिना आर्थिक विकास नहीं कर सकता है । इंग्लैंड के बारे मंे तो यह पूरी तरह सच है कि जिसकी विशाल औद्योगिक शक्ति की नींव एडवर्ड तृतीय और उसके बाद के शासक रखते आये हैं । इसी प्रकार अमेरिका की राज्य और संघीय सरकारों ने भी देश की आर्थिक क्रियाओं को बढ़ावा देने में सदा ही बड़ा योगदान दिया है ।
    देशों के आर्थिक विकास के  महान चिंतक और लेखक डब्ल्यू. आर्थर ल्यूइस के अनुसार ''राज्य को आर्थिक विकास के लिए कई कार्यवाहियां करनी पड़ती हैं जिनका सम्पूर्ण प्रभाव आर्थिक-विकास की प्रक्रिया पर पड़ता है ।`` राज्य के द्वारा किये जाने वाले अनेक कार्यों में लोक कल्याण सेवाओं की स्थापना, शिक्षा की व्यवस्था, आर्थिक संस्थानों की स्थापना, आय के वितरण को प्रभावित करना, मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित करना, पूर्ण रोजगार की व्यवस्था करना और निवेश के स्तर को प्रभावित करना प्राथमिक महत्वपूर्ण कार्य है । इन कार्यों के बिना किसी भी देश के आर्थिक विकास का चक्र आगे नहीं बढ़ता है ।
    भारत के आर्थिक-विकास के औपनिवेशिक मॉडल के इतिहास से यही सिद्ध होता है कि भारत को आत्मनिर्भर देश बनाने के कभी  प्रयास ही नहीं हुए थे । सन् १७५७ में प्लासी की लड़ाई के बाद मंे ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में पैर जमे थे । सन् १८५८ मंे ईस्ट इंडिया कंपनी समाप्त कर दी गई और भारत का शासन ब्रिटिश राज्य के आधीन आ गया था । ईस्ट इंडिया कम्पनी और ब्रिटिश सरकार की पहली प्राथमिकता उनका अपना देश था । इसीलिए भारत में कृषि, उद्योग, यातायात और शिक्षा के क्षेत्र में किये जाने वाले कार्यों का लक्ष्य ब्रिटेन का विकास ही था । 
    वारेन हेस्टिंग्ज ने सन् १८१५ तक बंगाल की लगभग आधी जमींदारी व्यापारियों और दूसरे धनी व्यक्तियों को बेच दी थीं । उसने  सबसे ऊंची बोलने वाले को लगान एकत्रित करने का अधिकार देना शुरु कर दिया था । इन नये जमींदारों ने किसानों पर इतना कर लगाया जो फसल केएक तिहाई से आधा तक था । अंग्रेजों के इन 'नये जमींदारों` ने लोक कल्याण के सभी काम बन्द करा दिये थे और अधिकतम लाभ प्राप्त करना ही इनका एकमात्र उद्देश्य था ।
हमारा भूण्डल
वन विनाश और वैश्विक मानसिकता
सुश्री मोनिका हेल्लस्टर्न

    प्रति वर्ष विश्वभर में तकरीबन १.३ करोड़ हेक्टेयर वन नष्ट कर दिए जाते हैं । इसका जलवायु एवं मनुष्य दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है । यदि वर्तमान स्थिति में वनों का विनाश रोका गया तब भी इन्हें पुन: पल्लिवित होने में कम से कम आगामी ३०० वर्ष लगेंगे । वैसे पुर्नवनीकरण ने जोर तो पकड़ा है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि जंगल नहीं बगीचे लगाए जाते हैं । 
    पृथ्वी पर मौजूद भूमि का एक तिहाई यानि चार अरब हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र वर्तमान में वनों से आच्छादित है । सिर्फ  ८००० वर्ष पूर्व वनों का क्षेत्रफल इससे ३५ प्रतिशत ज्यादा था । वन पीने के पानी के जलाशयों की तरह कार्य करते हैं और भूक्षरण एवं भूस्खलन तथा बाढ़ से बचाव भी करते हैं। इसके अलावा जल आपूर्ति का नियमन, जैव विविधता के लिए स्थान उपलब्ध कराकर एवं कार्बन भंडारण के माध्यम से जलवायु का संरक्षण कर पर्यावरण को भी स्थिर रखते हैं । वन लकड़ी और औषधीय पौधे जैसे वन उत्पाद भी उपलब्ध कराते हैं ।
     वनों के सिकुड़ने की शुरुआत तब हुई जबकि मानव प्रजाति के बड़े हिस्से ने एक स्थान पर बसना और कृषि का विकास प्रारंभ किया । पिछली शताब्दियों में जहाजों के बेड़ों के निर्माण के लिए बड़े पैमाने एवं नाटकीय ढंग से यूरोप व एशिया ने वन विनाश का  सामना किया है । साथ ही खेती के लिए बड़ी मात्रा में पेड़ों  की कटाई की गई । आज तो अफ्रीका, उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका से भी वन विलुप्त होते जा रहे हैं । अब तो आदिम वनों से मात्र एक तिहाई ही अनुछुए बचे हैं ।
    संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) प्रत्येक पांच वर्ष में वैश्विक वन संसाधन आंकलन (एफआरए) प्रकाशित करता है । सन् २०१० के अंक में बताया गया है कि सन् २००० से अब तक उष्णकटिबंधीय वनों में चार करोड़ हेक्टेयर की कमी आई है तथा बड़ी मात्रा में हो रहे वनविनाश के गंभीर परिणाम सामने आएंगे । वनों के माध्यम से ही जटिल ईको सिस्टम टिकाऊ होता है, जिससे कि पौधों एवं पशु प्रजातियों की विविधता बनी रहती है । मनुष्य के अधिक हस्तक्षेप से यह नाजुक संतुलन बिगड़ जाता है । थोड़े  परिवर्तन से ही जैव विविधता को हानि  पहुंचने लगती है । पूरे क्षेत्र की सफाई  न कर मात्र किसी एक क्षेत्र में चयन कर सीमित मात्रा में कटान से भी ऐसी ही परिस्थितियां निर्मित हो सकती हैं । यदि औषधीय पौधोंके  संदर्भ में बात करें तो जैव विविधता अनमोल है ।
    वर्तमान में कटाई और वन सफाई की वजह से दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिणी अमेरिका और मध्य अफ्रीका के वर्षा वन खतरे में हैं । सरकारें दरियादिली बरतते हुए इनके शोषण की अनुमति दे रही हैं । स्थितियां इसलिए और बद्तर  हो जाती हैं क्योंकि कंपनियां अक्सर तयशुदा कानूनी मानकों पालन नहीं करतीं । अधिकांश जंगलों में कोई कानून लागू ही नहीं होता । लकड़ी का एक उत्पादन की तरह निर्यात किया जाता   है । इसके परिणामस्वरूप जब इस संसाधन का निर्माण या भवन निर्माण के उद्देश्य से प्रयोग होता है तो, इसके उद्गम वाला देश उसमें कुछ भी योगदान नहीं कर पाता । कुछ कंपनियां सोया या पाम तेल की या अन्य फसलें लेने या पशुओं को चराने के लिए वनों की सफाई करती हैं । भूमि तक जल्दी पहुंच बनाने हेतु कुछ कंपनियां ``काटो और जलाओ`` का रास्ता अपनाती हैं । इस तरह के भू उपयोग परिवर्तनों का स्थानीय लोगों को सामान्यतया कोई लाभ नहीं होता ।
    वैश्विक तौर पर पुनर्वनीकरण की रणनीति अपनाई जा रही है । वर्तमान में विश्व के कुल वन क्षेत्र का करीब सात प्रतिशत इन्हीं सहायक वनों का है। यूरोप, एशिया और उत्तरी अमेरिका में इसके विस्तार से सहायक वनों का हिस्सा बढ़ता जा रहा है । अपने उत्तरी अंचल को रेगिस्तानीकरण से बचाने के लिए चीन बड़ी मात्रा में वनरोपण कर रहा है । चीन की ``हरी दीवार`` मानवता के इतिहास की अब तक की सबसे बड़ी पुनर्वनीकरण परियोजना है ।
    सन् १९८० एवं १९९० के  दशक से प्रारंभ हुए पुनर्वनीकरण के प्रयासों के परिणामस्वरूप वैश्विक वन हानि की रफ्तार में कमी आई है । सन् २०१० की एफआरए रिपोर्ट  के अनुसार सन् २००० से २०१० के मध्य वन क्षेत्र में वार्षिक कमी १.३ करोड़  हेक्टेयर    रही । जो कि इसके पिछले दशक में ३० लाख हेक्टेयर अधिक थी । सच्चई तो यह है कि वन विनाश १.३ करोड़ हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र को प्रभावित कर रहा है ।
    पुनर्वनीकरण नष्ट हुए आदिम वनों का स्थान नहीं ले सकता, क्योंकि नए वन सामान्यतया एकल अर्थात मोनो कल्चर वाले होते हैं । वैसे भी सहायक वन प्राथमिक वनों के  वास्तविक स्थानापन्न नहीं हो सकते । लेकिन इससे इमारती लकड़ी के व्यापार की वजह से वर्षा वनों पर पड़ रहे दबाव में कमी आती है । अंतत: यह अनुछुए वनों की बहुमूल्य लकड़ियों जैसे महागनी (शीशम, टीक) की चयनित कटाई के खिलाफ बहुत कम संरक्षण प्रदान कर पाते हैं । जलवायु परिवर्तन व वनविनाश का नजदीकी रिश्ता है । विश्व वन्य जीव कोष के विशेषज्ञों का अनुमान है कि मानव प्रजाति द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाऊस गैसों का १५ प्रतिशत वन विनाश का ही परिणाम है ।
    उदाहरण के लिए उत्तरी अमेरिका में बढ़ती शुष्कता वनों में आग की आवृत्ति बढ़ाने के साथ उनकी विकरालता भी बढ़ा रही है । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो केवल चार प्रतिशत वन ही आग में बिजली गिरने या अन्य प्राकृतिक  कारणों से लगती है । अधिकांश मामलों में मनुष्य ही आग का कारण होते हैं फिर वह किसी उद्देश्य से लगाई गई हो या दुर्घटनावश लगी हो । उदाहरणार्थ दक्षिण पूर्व एशिया में काटो और जलाओ की पद्धति प्रत्येक मौसम में आम हो गई है । खासकर इण्डोनेशिया में इस तरह से विशाल वन क्षेत्र नष्ट किया जाता है ।
बेहतर संरक्षण
    वनों के पक्ष में मजबूत पैरोकारी किए जाने की आवश्यकता है । अंतरराष्ट्रीय समझौते जैसे संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन या जंगली वनस्पतियों की विलुप्तप्राय प्रजातियों के व्यापार पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (सीआईटीईएस) को और अधिक प्रतिबद्धता से लागू किया जाना      चाहिए  । अभी की स्थिति यह है कि राष्ट्रीय कानूनों में वनों और प्रजातियों के संरक्षण संबंधी प्रावधानों को सख्ती से लागू नहीं किया जाता । विश्व वनों का केवल १३ प्रतिशत राष्ट्रीय वनों या प्रकृति संरक्षण के रूप में संरक्षित है । विश्व वन्यजीव कोष का कहना है कि इन प्रावधानों की गुणवत्ता और क्रियान्वयन की स्थिति को लेकर राष्ट्रों में अंतर है । कई जगह तो ये केवल कागज पर ही मौजूद हैं ।
    अप्रैल २००१ में सं.रा. वन फोरम ने विश्वभर में वनों को संरक्षित करने हेतु एक समझौता लागू किया । यह कानूनी तौर पर बाध्यकारी नहीं है, लेकिन इसमें सन् २०१५ तक इन चार लक्ष्यों की प्राप्ति की बात कही गई है । ये हैं -
(१)  विश्वभर में हो रहे वन विनाश को टिकाऊ वन प्रबंधन के माध्यम से   रोकना । (२) आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय तौर पर हो रहे वनों के  शोषण को रोकने के प्रावधानों में सुधार लाना । (३) संरक्षित वन क्षेत्र में     विस्तार । (४) वन संरक्षण से संबंधित आधिकारिक विकास सहायता में आ रही कमी को रोकना ।
    वैसे एफआरए की अगली रिपोर्ट ही बता पाएगी कि उपरोक्त  लक्ष्यों को कहां तक प्राप्त किया गया । वानिकी विशेषज्ञ जुरगेन ब्लासरे एवं हेंस ग्रेगरसन का अनुमान है वर्षा वनों का अनियंत्रित कटाव अभी अगले ५० वर्षों तक अनियंत्रित तौर पर जारी रहेगा, क्योंकि इन अनुछुए वनों में अभी लकड़ी और कच्च माल मौजूद है । यह प्रवृत्ति तभी रुक सकती है जबकि वन संरक्षण को क ोरता से लागू किया जाएगा । इसके ३०० वर्ष पश्चात ही विश्व के वन पुनर्जीवित हो पाएंगे ।

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

विशेष लेख
बृहत् पौधारोपण : एक जरूरी उपाय
डॉ. किशोरीलाल व्यास
    आज पर्यावरण विनाश एक विश्वजनीन समस्या बन चुकी है । मानव विकास की दौड़ में लगातार  विनाश करता जा रहा है । प्रकृति का बेतहाशा हनन, वनोंकी कटाई, उद्योग-धंधो की भरमार, उपभोक्ता वस्तुआें का उत्पादन, व्यापार, बाजार और इसी प्रकार का एक मकड़ जाल जिसमें समग्र मानव जाति  फंसती जा रही है । उसका कोई निस्तार  नहीं । विश्व के ८०% संसाधनोंका उपभोग २०% सम्पन्न देश करते हैं । दूसरी ओर गरीब देशों की ८०% जनता केवल२०% प्राकृतिक संसाधनों पर अपना जीवन यापन करती है । विषमता बढ़ती जा रही है उसके साथ-साथ विश्व मेंशोषण, बेरोजगारी, भुखमरी, बीमारियाँ आदि भी बढ़ती जा रही है । 
     आज विश्व की कोई भी नदी साफ-सुथरी, प्रदूषण-रहित नहीं है । ब्राजील के वर्षा वनों का काटकर, उसमें घांस पैदा की जा रही है, जिसे गाय-बैल बछड़ों को खिलाया जाता है, जिससे कि इन पशुआें का मांस निर्यात कर विदेशी डॉलर कमा    सके ?पशुआें के अभाव में बैलगाड़ी की जगह डीजल गाड़ी चलेगी और पशुआें की नस्ले समाप्त् होती   जाएगी । अमेरिका में ब्राजील के मांस के बने बर्गर बड़े चाव से खाएब जाते हैं । अर्थात् प्रतिदिन अपने सुबह के नाश्ते मेंऔसतन एक अमेरिकन बा्रजिल का एक वृक्ष खाता है । इस प्रकार वृक्ष सम्पदा समाप्त् हो रही है । विश्व के घने वर्षावन इस प्रकार लुप्त् होते जा रहे हैं ।
    भारत में गाय बैलों की सर्वश्रेष्ठ नस्ल आेंगोल (आ.प्र.) में होती है । ऊंचा-पूरा जानवर और गजब का शरीर सौष्ठव । दुर्भाग्य से हमारी गाय-बैलों की आेंगोल नस्ल समाप्त् होती जा रही है । थार पारकर, गुजराती गाय, रेडसिंधी भी समािप्त् पर है । हैदराबाद के चारो ओर अल-कबीर, अल्लाना  इत्यादि विशालकाय यांत्रिक कत्लखाने है जिनमें पाँच-पाँच हजार पशु पर शिफ्ट करते हैं । इस जानवरों का माँस डिब्बे में बंद कर मिडिल इस्ट भेजा जाता है और बदले में हम इन देशों से डीजल खरीदते हैं ।
    ये पशु यदि जीवित रह जाएं तो हमारे ग्रामीण परिवहन में डीजल की आवश्यकता नहीं पड़ेगी । दूसरे, ये जानवर क्या खाते हैं ? घाँस-फूल और चारा । बदले में हमें बहुमूल्य गोबर देते हैं । गोमूत्र देते हैं जिससे हमारी जमीन की ऊर्वरा शक्ति बढ़ती है । हम स्वस्थ जैव खेती कर सकते हैं । हमारे कृषि उत्पादन विषाक्त रसायनों तथा कीटकनाशकों से बचे रहेंगे । पर्यावरण संरक्षण का यह सहज उपाय है ।
    एक ओर बड़े-बड़े औघोगिक प्रतिष्ठान उज२ गैस लाखों टन के हिसाब से वातावरण में उड़ले रहे है, स्वचलित वाहनों का टनो का धुंआ वातावरण को प्रदूषित कर रहा है, वहीं दूसरी ओर संसार के गहन वर्षावन तथा अन्य वन बड़ी तेजी से कटते जा रहे है । कागज की खपत प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है । कागज उत्पादन के लिए लाखों पेड़ प्रतिदिन काटे जा रहे हैं । कागज बचाओ पेड़ बचाओ हमारा नारा होना चाहिए ।
    ग्रीन हाऊस इफेक्ट, ग्लोबल वार्मिग तथा बेतहाशा प्रदूषण इस प्रक्रिया का परिणाम है जिसके फलस्वरूप मानव जाति विविध बीमारियों से ग्रस्त होकर अकाल मृत्यु पा रही है । सूखे, बाढ़, अकाल, अनावृष्टि आदि विपत्तियों का सामना कर के जानमाल की प्रतिवर्ष क्षति उठा रहा है ।
    ग्लोबल वार्मिग बड़ी भयानक स्थित है । इसके कारण वातावरण में उज२ तथा अन्य गैसें जमा हो जाती हैं, परिणामत: सूर्य की किरणें ऊष्मा तो लाती है पर यह ऊष्मा पृथ्वी पर ही कैद हो जाती है, वातावरण से बाहर नहीं निकल पाती । परिणामत: प्रतिवर्ष धरती का तापमान बढ़ता जाता है । इसके दुष्परिणाम होते है - धु्रवीय ग्लेशियरों का द्रुत गति से पिघलना, सूखा, अनावृष्टि, अतिवृष्टि आदि । इससे समुद्र स्तर बढ़ता है । पर्यावरण चक्र जो अबाध गति से सदियों से चल रहा है, उसे मनुष्य ने अपने क्रिया कलापों द्वारा बाधित किया, उसे भंग किया । ग्लोबल वार्मिग के कारण खुले वातावरण में काम करने वाले - मजदूर, किसान, धूप में अनिवार्य रूप से खड़े रहने वाले विघार्थी, शिक्षक, सेल्समेन आदि बुरी तरह से प्रभावित होंगे । वे अनेक प्रकार की त्वचा संबंधित बीमारियों से ग्रस्त होंगे ।
    इन्फ्रारेड तथा अल्ट्रावायलेट किरणें जो छनकर पृथ्वी पर आती हैं तथा अपेक्षाकृत कम हानिकारक होती है, ओजोन परत के हट जाने से सीधे धरती पर आएगी तथा मनुष्यों, पशुआें तथा फसलों को बहुत हानि पहुँचाएगी । ओजोन परत पृथ्वी के चारों ओर स्थित ज३ की परत है जो कतिपय रसायानों (क्लोरोफ्-लोरोकार्बन) के बहुत उपयोग के कारण क्रमश: नष्ट होती जा रही    है । इसके दुष्परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं । इन  रसायनों के उपयोग को घटाया जा सकता है तथा ओजोन परत बचाया जा सकता है । तुलसी का पौधा ओजोन परत को उतना ही अधिक संरक्षित किया जा सकता है ।
    औद्योगिक आँधी तथा स्वार्थी ठेकेदारों के कारण भारत के जंगल और वन्य प्राणी बड़ी तीव्रता से लुप्त् होते जा रहे हैं । हमारे कानून सख्त नही है, साथ ही वन विभाग के कर्मचारी भी ईमानदार नहीं है । हमारी राजनैतिक पार्टियाँ भी वन विनाश की जिम्मेदार है, सन् २००८ में भू-पोटाराम के नाम पर अदिलाबाद के संरक्षित वन की ८०० हेक्टर घने वन से आच्छादित भूमि को कम्यूनिस्टों ने साफ कर, अपने आधीन कर लिया इस कथित भूपोराटम (जमीन के लिए लड़ाई) के वन विनाश का रोकने का साहस किसी में नहीं था ।
    ग्लोबल वार्मिग का एकमात्र उपाय है - वातावरण में उज२ गैस को कम करना । अभी दिसम्बर २००९ में कोपन-हेगन में आयोजित क्लाइमेटिक चैलेंज जैसी वैश्विक बैठक में दुनिया के १९२ देशों ने भाग लिया । उज२ कम करने का आश्वासन तो मिला है । पर चीन, ब्राजिल, भारत, दक्षिण आफ्रिका जैसे देशों की प्रति औद्योगीकरण पर आधारित है । इन परिस्थितियों में एक मात्र मार्ग रह जाता है । वह है बृहत वृक्षारोपण । वृक्ष ही उज२ सोखने में सक्षम है । जंगलों का संरक्षण, वर्षा जल संरक्षण तथा बृहत वृक्षारोपण द्वारा यह प्रक्रियाबहुत कुछ कंट्रोल में लाई जा सकती है । वर्षा जल सरंक्षण पानी के बचाने का कारगर उपाय    है ।
    विश्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि इस समय दुनिया के लगभग ३१ देशों में पानी का भारी संकट   है । इनमें अधिकतर अफ्रीकी और मध्यपूर्व के देश है । वर्ष २०२५ तक इस सूची में भारत, ईथोपिया, केन्या, नाइजीरिया, पेरू, अफगानिस्तान, आस्ट्रेलिया आदि देश आ जाएेंगे । इस सभी देशों में अच्छी बरसात होती है, पर जल-संचयन संसाधनों के अभाव में सारा वर्ष जल बहकर नदियों और समुद्रों में व्यर्थ चला जाता है । भारत की स्थिति और भी गंभीर है । राजस्थान और कच्छ के मरूस्थल फैलते जा रहे है । पश्चिमी उत्तरप्रदेश, बुंदेलखण्ड, सौराष्ट्र, मराठवाड़ा, उत्तरपूर्वी कर्नाटक, तेलंगाना रायलसीमा, तमिलनाडु का कुछ भाग आदि प्रदेश सूखे भी चपेट मेंप्रतिवर्ष आते जा रहे हैं । ऐसे में वर्षा की प्रत्येक बूंद को संरक्षित करना ही एक मात्र उपाय है । इन्हे निम्न उपायों से संरक्षित किया जा सकता है ।
वर्षा जल संरक्षण :-
(१) सरोवर सरंक्षण :- प्रत्येक गाँव में सरोवर बने तथा पुराने सरोवर पनुरूज्जिवित किये जाएं । (२) छत पर गिरे हुए पानी का संरक्षण :- छत पर गिरे हुए वर्षा जल का एक ओर मोड़ कर, उसे भूमि में उतार देना, जिससे जल स्तर बढ़ता  है ।
(३) सतही सरंक्षण :- धरती की सतह पर गिरे हुए जल को संचयित करना । (४) बंड बांध कर जल का बहते जाने से बचाना ।
    जल से ही वृक्ष पनपते हैं । अत: जहाँ भी पडित या व्यर्थ जमीन हो, उसे वृक्षों से आच्छादित कर देना चाहिए । इसके लिए समाज के सभी वर्गो, धर्मो, जातियों व समुदायों का जुट जाना चाहिए । पेड़ों के काटनेपर प्रतिबंध लगाना चाहिए । ग्राम वन, स्मृति वन, वनस्पति उद्यान, ध्यान वन, सरोवर के चारों ओर वृक्षारोपण आदि कार्यक्रम लिये जा सकते हैं ।
    भारतीय रेलवे विभाग के अन्तर्गत लाखों एकड़ भूमि है, इसे योजनाबद्ध रूप में हरित किया जा सकता है । कार्यालयों, कालोनियों, घरों में अनिवार्य रूप से पौधारोपण होना चाहिए । बृहत वृक्षारोपण कार्य विश्व व्यापक होना चाहिए ।
    वृक्षो रक्षति रक्षित : । वृक्ष को रक्षित करें, वे हमारी रक्षा करेंगे ।
    पौधारोपण हेतु जल आवश्यक है । वर्षा का जल बहुत मात्रा में व्यर्थ चल जाता है । इसे संचित कर, इसका समुचित उपयोग होना   चाहिए । घरों और कालोनियों से निकलने वाला व्यर्थ का जल वृक्षारोपण हेतु उपयोग में लाया जा सकता है ।
    जल, भूमि तथा वृक्ष - इन तीनों के समुचित प्रबंध से वांछित पर्यावरण परिवर्तन लाया जा सकता  है । वृक्ष न केवल उज२ गैस को सोखते हैं, प्रत्युत प्रदेश को शीतल तथा आल्हादकारी भी बनाते है । ये ध्वनि तरंगो को सोखकर, ध्वनि प्रदूषण भी कम करते हैं । रेगिस्तान के चारों ओर शुष्कोदभिद् वृक्षों की दस से बीस पंक्तियां लगाकर, बेरोकटोक बढ़ते हुए रेगिस्तान की रोकथाम की जा सकती है । राजस्थान की रेत बवंडर को रूप में उडकर गर्मिया के मौसम में आगरा तक पहुँचती है । इस प्रकार रेगिस्तान का विस्तार होता जाता है ।    
    जोधपुर स्थित एरिड झोन रिसर्च सेंटर ने पक्तिबद्ध वृक्षारोपण कर रेगिस्तान की बढ़त को रोकने में सफलता पाई है ।
    जहाँ वृक्ष अधिक होते है, वहाँ पतझड में सूखे पत्ते गिरकर मृदा  बनाते हैं । यह मृदा वर्षा  जल को स्पंज की तरह सोखकर रखता है, और धीरे-धीरे छोड़ता है । इससे जहाँ जंगल हो वहाँ झरने सदा बहते हैं,  ऐसे प्रदेश की नदियाँ सदानीरा होती है । जंगल जल भण्डार होते हैं । अत: जल, जमीन और जंगल का अंत: सबंध बड़ा गहरा है ।
    वनस्पति उद्यान - प्रत्येक कालेज, युनिवर्सिटी तथा स्कूल में जहाँ भी काफी जगह हो, वहाँ पर निश्चित ही वनस्पति उद्यान लगाना चाहिए । यू.जी.सी. को यह सुनिश्चित कर देना चाहिए कि प्रत्येक कॉलेज अपने परिसर में वनस्पति उद्यान लगाए, जिसमें स्थानीय औषधियों पौधों का भी समावेश हो । प्रत्येक कॉलेज का विज्ञान निभता छात्रों से मिलकर यह कार्य सुनिश्चित करें । इस प्रकार के वनस्पति उद्यान से न केवल अध्ययन-अध्यापन की सुविधा होगी, प्रत्युत वातावरण पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा । इस उघाने के कारण जीव वैविध्य का विकास होगा ।
 विज्ञान हमारे आसपास
रक्त समूह की कहानी
नवनीत कुमार गुप्त

    मनुष्यों की शारीरिक बनावट लगभग एक जैसी ही होती है, लगभग सभी की दो आंखें, दो कान, एक नाक, मुंह, दो-दो हाथ पैर आदि होते हैं । शरीर के अंगो के साथ ही उनके उपयोग भी एक जैसे ही होते हैं । लेकिन फिर भी एक सी स्थिति में अलग-अलग मनुष्य के शरीर की प्रतिक्रिया क्यों अलग-अलग होती है, इस बात ने कई वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया । 
 
     ऐसे कुछ कारकों में रक्त भी एक कारक है । रक्त को समझने में वैज्ञानिकों को काफी समय लगा । रक्त हमारे शरीर का आधार है । यह ऐसा तरल है जो ऑक्सीजन और पोषक तत्वों को शरीर की करोड़ों कोशिकाआें तक पहुंचाता है और इन कोशिकाआें से अनुपयोगी तत्वों जैसे कार्बन डाईऑक्साइड, यूरिया और लैक्टिक एसिड आदि को शरीर से बाहर निकालने में मदद करता है । इसके अलावा यह शरीर की प्रतिरोध क्षमता के विकास में सहायक होता है । शरीर की अम्लीयता नियमित रखने के अलावा रक्त शरीर के तापमान का नियंत्रण भी करता है ।
    रक्त की विभिन्न विशेषताआें का परिचय सबसे पहले रोगविज्ञानी कार्ल लैंडश्टाइनर (१८६८-१९४३) ने कराया । लैंडश्टाइनर ने अपने कैरियर के आरंभ मेंबीमारी और संक्रमण पर शोध किया । उनका अधिकांश समय रक्त और उसके विभिन्न घटकों के अध्ययन में गुजरा ।
    सदियों पहले समाज में यह धारणा थी कि संसार में दो रक्त समूह हैं : एक अच्छे व्यक्तियों में और दूसरा बुरे व्यक्तियों में पाया जाता है । समय के साथ यह विचार बदला । लैंडश्टाइनर के समय यह धारणा प्रचलित थी कि सभी मनुष्यों का रक्त एक-सा होता है । लेकिन उस समय तक रक्त का ट्रांसफ्यूजन (रक्ताधान) यानी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में रक्त स्थानांतरित करने का काम आम नहीं था । यह संयोग ही होता था कि दानदाता का रक्त ग्रहण करने वाले के रक्त से मेल खा जाए । इसके अलावा रक्ताधान की तकनीक भी उन्नत नहींथी इसलिए रक्त पाने वाले को इससे उतना लाभ नहीं होता था जितना होना चाहिए ।
    रक्ताधान के कई मामलों में रक्त की कोशिकाआें के थक्के बनने के कारण अक्सर व्यक्ति को आघात और पीलिया हो जाता था और उसकी मौत भी हो जाती थी । ऐसा हीमग्लूटिनेशन की वजह से होता   था । १९०१ में लैंडश्टाइनर ने पता लगाया कि ऐसा रक्त के रक्त सीरम के सम्पर्क मेंआने की वजह से होता है । उन्होंने नतीजा निकाला कि अलग-अलग लोगों के रक्त की  बनावट अलग-अलग थी और इसी कारण से रक्तदाता की कोशिकाआें और रक्तग्राही की कोशिकाआें में समानता और असमानता उत्पन्न होती है ।
    अपने इस सिद्धांत की पुष्टि के लिए उन्होंने वियना युनिवर्सिटी हॉस्पिटल में कई दर्जन मरीजों के रक्त के नमूने लिए । अपनी प्रयोगशाला मेंउन्होंने रक्त की लाल कोशिकाआें को हर नमूने के रक्त सीरम से अलग किया । ऐसे सैकड़ों नमूनों की जांच और रक्त की लाल कोशिकाआें के परीक्षण के बाद उन्होंने पाया कि कुछ मामलोंमें रक्तदाता का रक्त कुछ सीरम नमूनों के साथ मिलाने पर थक्कों में बदल जाता था जबकि कुछ नमूनों के साथ ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती थी ।
    पूरे एक साल तक परीक्षण और रक्त की पेचीदा संरचना का अध्ययन करने के बाद उन्होंने रक्त समूहों पर अपने विचार प्रस्तुत    किए । लैंडश्टाइनर यह समझाने में कामयाब रहे कि इंसानी रक्त प्रमुख रूप से तीन तरह का होता है । ये प्रकार  रक्त कोशिकाआें की प्लाज्मा झिल्ली से जुड़े एंटीजन से तय होते हैं । इस सिद्धांत  का प्रयोग करके लैंडश्टाइनर ने मानव के रक्त को तीन समूहों में बांटा : ए, बी और सी । बाद में सी को ग्रुप ओ नाम दिया गया । एक साल बाद उनके दो साथियों - अल्फ्रेड फॉन डिकास्टेलो और एड्रियानो स्टरली ने और ज्यादा लोगों की जांच की और एक चौथे ब्लड ग्रुप का भी पता लगाया और इसे एबी ग्रुप नाम दिया गया ।
    दरअसल रक्त का वर्गीकरण लाल रक्त कोशिकाआें की सतह पर वंशानुगत एंटीजेनिक सामग्री की मौजूदगी या गैर-मौजूदगी के आधार पर किया जाता है । ये एंटीजन प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, ग्लाइकोप्रोटीन या ग्लाइकोलिपिड्स के रूप में हो सकते हैं । इनमें से कुछ एंटीजन विभिन्न ऊतकों की अलग-अलग तरह की कोशिकाआें की सतह पर मौजूद होते हैं । इंटरनेशनल सोसायटी फॉर ब्लड ट्रांसफ्यूजन के मुताबिक इंसानी रक्त को तीस अलग-अलग तरह से समूहोंमें बांटा जा सकता है । किसी सम्पूर्ण रक्त समूह विवरण में लाल रक्त  कोशिकाआें की सतह पर मौजूद सभी ३० तत्वों का वर्णन होता है ।
    रक्त के प्रकारों की खोज एक क्रांतिकारी कदम था । लेकिन उस दौर का वैज्ञानिक समुदाय इस खोज को स्वीकारने और इसका प्रयोग करने को लेकर आशंकित था । १९०७ में यानी लैंडश्टाइनर की खोज को सार्वजनिक किए जाने के चार साल बाद न्यूयॉर्क के सेनाई हॉस्पिटल में डॉक्टर र्यूबिन ओटनबर्ग ने ब्लड टाइपिंग सिद्धांत को पूरी दुनिया में काफी हद तक स्वीकारा जाने लगा ।
    लेकिन ब्लड टाइपिंग का इस्तेमाल करके बड़े स्तर पर रक्ताधाम सबसे पहले प्रथम विश्व युद्ध के दौरान किया गया । ह्वदय, फेफडों और शरीर के अन्य महत्वपूर्ण अंगों की सर्जरी पहले रक्ताधान की कमी के कारण असंभव सी मानी जाती थी लेकिन अब ये काम आसान हो गया । ब्लड टाइपिंग आधारित रक्ताधान की बदौलत बहुत सी जिन्दगियां बचाई जा सकी ।
    लेकिन ब्लड टाइपिंग की यह अवधारणा अब भी अधूरी थी । लैंडश्टाइनर अब भी इंसान के रक्त के अध्ययन मेंजुटे थे । लैंडश्टाइनर ने देखा कि बहुत थोड़े मामलों में रक्त दाता और रक्तग्राही के ब्लड ग्रुप का पूरी तरह मिलान करने के बावजूद रक्त पाने वाले की रक्त कोशिकाएं नए रक्त को स्वीकारने से इंकार कर देती थी जिससे खतरनाक और कभी-कभी घातक परिणाम हो जाते थे । इस प्रकार लैंडश्टाइनर और उनक सहयोगी डॉक्टर एलेक्जेंडर वाइनर रक्त के एक और महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व से परिचित हुए । इससे इंसान के रक्त में आरएच फैक्टर की खोज हुई । इसे आरएच फैक्टर इसलिए कहा गया क्योंकि इसे पहले रीसस बंदर में खोजा गया था ।
    आरएच फैक्टर रक्त की लाल कोशिकाआें की सतह पर उपस्थित होता है । लगभग ८५ प्रतिशत लोगों की लाल रक्त कोशिकाआें की सतह पर आरएच फैक्टर होता है और इन्हें आरएच पॉजिटिव कहा जाता है । बाकी लोग आरएच निगेटिव होते    हैं । लैंडश्टाइनर और वाइनर ने अंदाजा लगाया कि अगर आरएच निगेटिव वाले लोग आरएच पॉजिटिव रक्त का एक से ज्यादा रक्ताधान पाते हैं तो उनके रक्त में एंटी फैक्टर विकसित हो जाते हैं । इसलिए यह साबित हो गया कि सफल रक्ताधान के लिए महत्वपूर्ण है कि रक्त की किस्म के साथ-साथ आरएच फैक्टर भी मेल खाए । इस अध्ययन से एक और कमाल की खोज हुई । आरएच फैक्टर का पता चलने से नवजात बच्चें की एरिथ्रोब्लास्टोसिस फैटालिस या हिमोलिटिक बीमारी की वजह पता चली । ऐसा तब होता है जब मां और भ्रूण के रक्त की किस्में आपस में नहीं मिलती हैं और इसके नतीजे में मां की एंटीबॉडीज भ्रूण को घायल कर देती हैं । इस जानकारी के साथ ही अब प्रसव से पहले के चरण में इन पेचीदगियों का पता लगाना और उनका इलाज करना संभव हो गया है ।
    ब्लड टाइपिंग और आरएच फैक्टर की खोज के कुछ अप्रत्याशित उपयोग भी निकले हैं । १९०२ में लैंडश्टाइनर ने वियना इंस्टीट्यूट ऑफ फारेंसिक मेडिसिन के मैक्स रिक्टर के साथ मिलकर एक व्याख्यान दिया था जिसमें उन्होंने अपराधों को हल करने में मदद के लिए रक्त के सूखे हुए धब्बों की टाइपिंग की एक नई विधि के बारे में बताया था । ब्लड टाइपिंग से मेडिको-लीगल मामलों में एक नया अध्याय खुला है और इन मामलों को सुलझाने में काफी मदद मिल रही  है ।
    लैंडश्टाइनर ब्लड टाइपिंग और आरएच फैक्टर के बारे में अपनी खोजों को और पुष्ट तो बना रहे थे लेकिन उन्हें ये पता नहीं चल पाया कि ब्लड ग्रुप पीढ़ी दर-पीढ़ी आगे बढ़ते हैं । १९१० में फॉन डंजर्न और हर्शफेल्ड ने रक्त समूहों के वंशानुक्रमण की पहली अवधारणा प्रस्तुत की ।
    जिस व्यक्ति की लाल रक्त कोशिकाआें की सतह पर ए किस्म का एंटीजेन होता है उसका रक्त ए प्रकार का होता है । जिसके रक्त की लाल कोशिकाआें की सतह पर बी किस्म का एंटीजेन होता है उसका रक्त बी प्रकार का होता है । जिस व्यक्ति का रक्त एबी किस्म का होता है उसके रक्त मेंदोनों एंटीजन होते हैं और जिस व्यक्ति का रक्त ओ ग्रु का होता है उसकी लाल रक्त कोशिकाआें की सतह पर कोई एंटीजन नहीं होता । प्लाज्मा में इनके विपरीत एंटीबॉडीज पाई जाती है । लाल रक्त कोशिकाआें की सतह पर एंटीजन के साथ इन एंटीबॉडीज का मिश्रण नहीं होना चाहिए वरना थक्का बनने लगता है ।
    तो इस प्रकार ऑस्ट्रियाई मूल के कार्ललैंडश्टाइनर के अनुसंधान की बदौलत मानव रक्त के व्यवहार से जुड़ी एक पहेली को सुलझाया गया । अपने काम से औपचारिक रूप से सेवानिवृत्त होने के काफी समय बाद तक भी वे सूक्ष्मदर्शीसे शोध करके उन तमाम चीजों को नोट करते रहते थे जा अध्ययन के दौरान उन्हें पता चलती थी । १९४३ में लैंडश्टाइनर की मृत्यु दिल का गम्भीर दौरा पड़ने से उस स्थान पर हो गई जहां उन्होंने अपना लगभग पूरा जीवन ही गुजारा था - यानी उनकी प्रयोगशाला में । लैंडश्टाइनर ने जो भी खोज की, उसमें वो अग्रणी थे । इसके बावजूद वे प्रचार-प्रसार और भाषण देने से बचते रहते थे । वे बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे और उनके काम को उनके जीवन काल के दौराना पुरी दुनिया में प्रसिद्धि और मान्यता मिली । १९३० में उन्हें शरीर क्रिया विज्ञान/चिकित्सा के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था ।
दृष्टिकोण
वन्यप्राणी संरक्षण और मिथ्या सक्रियता
डॉ. लक्ष्मीनारायण मित्तल

    वन्य प्राणियों पर क्रुरता न हो, इसके लिए कई कानून बनाये गये हैं । अभी पिछले दिनों स्कूलोंमें जीव-विज्ञान की प्रयोगशालाआें में मेढ़कों और अन्य जानवरों की चीर फाड़ पर रोक लगाने की आवाज उठी और सरकार ने इस पर रोक लगायी है ।
जैन और कुछ और धर्मवलम्बियों के स्कूलों में तो इसमें बरसों से रोक लगी हुई है । कहते हैं अब कम्प्यूटर के आ जाने से उसमें चीर फाड़ सिखाया जा सकता है । शायद यह किसी तरह का और एक विडियो गेम हो ।
    मदारियों पर तो बहुत दिनों से जानवरों का खेल दिखलाने पर रोक लगी हुई है । सर्कस में जानवरों का खेल दिखलाने पर भी रोक है । 
     परन्तु घर पर कुत्ता या बिल्ली पालने पर रोक नहीं है । भारत में अब मध्यम परिवार भी कुत्ता पालने लगे है । विदेशों में तो इन जानवरों को अकेलेव्यक्ति का साथी माना जाता है ।
    जंगलों का काटना जारी है । आधुनिक विकास की अवधारणों ने जंगलों को बहुत छोटा कर दिया है । इसी से अखबारों में कभी-कभी समाचार मिलते रहते है कि लक्कड़बग्गा जैसे जंगली जानवर इंसानों की बस्ती में आ जाते है ।
    मदारियों पर रोक है, सर्कस वालों पर रोक है, परन्तु जंगल काटकर जंगली पशुआें की रिहाइश छिनने पर रोक नहीं है । मूलत: घोड़ा, गाय, गधा, कुत्ता, बिल्ली ये सब जंगली जानवर है । मनुष्य के जीवन उपयोगी होने से इन्हें पालतू शब्द से अभिहित किया है ।
    गाय का दूध उसके बछड़े के लिए है । कीट-नाशकों का प्रयोग करके हम करोड़ों कीट-पतंगों को नष्ट कर देते हैं । इन पर रोक नहीं है । मांसाहार के लिए पशुआें के वध पर रोक नहीं है । गाय के चमड़े से बनी वस्तुआें पर रोक नहीं है । परन्तु चूहे या मेढ़ंक के चीर फाड़ पर रोक है जिससे शिक्षार्थी को प्रयोगात्मक ज्ञान प्राप्त् करते है । 
    असल में कुल बात आधुनिक विकास की परिभाष से सम्बद्ध है । विकास के नाम पर जंगली जानवरोंके रिहायशी जंगलों को काटना वाजिब है परन्तु गरीब मदारी के शो पर रोक है । हम यह क्यों भूल जाते हैं कि सर्कस में या मदारी द्वारा जानवरों का प्रदर्शन प्रशिक्षण की कला है जिससे उनका जीवन यापन होता है । हमनें इस कला पर कुठाराघात कर दिया है ।
    बुद्ध ने जानवरों को न मारने को अहिसां कहा है । परन्तु अहिंसा में भी जायज हिंसा की अनुमति है । यह अहिंसा का सिद्धान्त किसी वाद से संबंधित नहीं है । यह स्थान और काल की परिस्थिति पर निर्भर करता है । अच्छा हो जानवरों पर अत्याचार, विषय पर व्यापक विचार हो और आधुनिक विकास के नाम पर जो अत्याचार जानवरों पर हो रहे हैं, उन पर रोक लगायी जाये ।

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

स्वास्थ्य
कैंसर : कारण एवं निवारण
डॉ. ईश्वरचन्द्र शुक्ल/वीरेन्द्र कुमार

    कैंसर एक ऐसी बिमारी है जिसे सुनकर ही मृत्यु का भय सताने लगता है । इस बीमारी के बारे में जागरूकता फैलाई जाती है कि कैसे इससे बचा जा सके तथा क्या उपचार किया जाये । अनुमानत: अमेरिका में प्रतिवर्ष लगभग दो लाख व्यक्तियों की मृत्यु कैंसर से होती है । तम्बाकू के अधिक सेवन, मोटापा, शारीरिक श्रम का अभाव तथा अल्पाहार से भी कैंसर होता है । भारत में २०१० में लगभग पाँच लाख लोगों की मृत्यु कैंसर से हो चुकी है । विश्व में कैंसर से मरने वालों में भारत द्वितीय स्थान पर है । पुरूषों में मुँह (२३%), अमाशय (१३%), फेफड़ों (११%) तथा स्त्रियों में गदर्न (१७%), आमाशय (१४%) एवं स्तन (१०%) कैंसर मुख्य रूप से होता है ।


     कैंसर में कोशिकाआें का विभाजन अनियंत्रित गति से होता है जिसे मेडिकल भाषा में नई वृद्धि (न्यूओप्लास्म) कहा जाता है । जब साधारण वृद्धि किसी एक स्थान पर सीमित होती है तो उसे अर्बुद कहते हैं जो कि कैंसर कारक नहीं होता । लेकिन जब यह अर्बुद निकटवर्ती कोशिकाआें को प्रभावित करता है तब इसे कैंसर युक्त कहा जाता है । कैंसर का एक स्थान से दूसरे स्थान पर फैलना अपरूपान्तरण (मेटासिस) कहलाता है ।
    कैंसर के योगदान मेंदो जीन मुख्य होते हैं जिन्हें आन्कोजीन, तथा सप्रेसर जीन कहा जाता है । आन्कोजीन सामान्य कोशिका विभाजन करते है लेकिन जब अधिकता हो जाती है तो अर्बुद बनता है । इसके विपरीत सप्रेसर जीन कोशिका विभाजन रोकती है या उसकी मृत्यु हो जाती है । इसे एपोटोसिस कहते हैं, यदि यह जीन लुप्त् है या काम नहीं कर रहा है तो आन्कोजीन का प्रभाव कम नहीं होता है तथा कोशिका कैंसर युक्त हो जाती है ।
    कैंसर वंशानुगत नहीं होता लेकिन जीन का उत्परिवर्तन व्यतिक्रम पैदा हो जाता है । कैंसर कारक पदार्थ जैसे - उपपरिवर्तक एन-नाइट्रोसो अवशेष जो कि लाल मांस में होते है कैंसर कारक होते हैं । एक्रिल एमाइड जो कि सब्जियों विशेषत: आलू को उच्च् ताप पर भूनने से पैदा होता है कैंसर कारक होता है । एस्पर्जिलस फ्लैक्स नामक फफूँदी जो कि भंडारित अनाज, मूंगफली, मक्खन पर होता है, से एल्फोटोक्सिन पैदा होता है । अप्राकृतिक मिठास पैदा करने वाले पदार्थ जैसे एसपर्टेम मसालेदार तथा धूर्मित भोजन मनुष्यों में कैंसर पैदा करता है । अर्बुद विषाणु जैसे हिपैटायटिस बी, यकृत कैंसर, मानव पैपिलोना विषाणु, जननांग कैंसर, मानव टी-कोशिका ल्युकोमिया-सिम्फोमा विषाणु, ल्यूकोमिया तथा एपस्टिन-बार विषाणु नाक तथा गले का कैंसर पैदा करते हैं ।
    कैंसर होनें के अनेकों कारण हो सकते हैं आजकल का खान पान रहन-सहन वातावरण का प्रदूषण, औषधियों एवं कीटनाशकों का उपयोग, पराबैंगनी किरणें आदि सभी कैंसर कारक हैं । लेकिन मुख्यत: रेडियो धर्मिता वाले पदार्थ, रैडान गैस, एक्स-किरणों का विकिरण, रासायनिक पदार्थो के सम्पर्क में रहना या उनका उपयोग करना, एराजीन तथा इण्डोसल्फान कीटनाशक, एसबेस्टस, लेड, मरकरी, कैडमियम, बेन्जीन, निकेल, आर्सेनिक, नाइट्रोसामीन तथा पॉलीक्लोरीनेटेड डाइफेनिल यौगिक, तम्बाकू, धूम्रपान तथा एल्कोहल का सेवन हैं ।
    कैंसर ऐसी बीमारी है जिसके लक्षण प्रारंभ में प्रकट नहीं होते अपितु इसके अधिक बढ़ जाने पर ही ज्ञात होता है । लेकिन कुछ केंसर जैसे अर्बुद जो कि शरीर की सतह के पास हो या ऐसी सृजन जो  कि स्तन अथवा अण्डकोष मेंहो आसानी से पता चल जाते है । त्वचा कैंसर एक मस्से, किसी विशेष निशान अथवा घाव जो कि ठीक न हो रहा हो द्वारा जाना जा सकता है ।
    मुख कैंसर में मुख के अंदर या जिव्हा पर सफेद दाग देखे जा सकते हैं। यदि अर्बुद कोशिका के अंदर है तो उसका पता तब तक नहींलगता जब तक कि अर्बुद बढ़कर शरीर के अन्य अंगों या रक्तवाहिनियों पर दबाव नहीं बनाता । आंत के कैंसर में कोष्ठबद्धता, दस्त होना तथा मल के आकार में परिवर्तन होता है । ब्लैडर या प्रास्टेट कैंसर में ब्लैडर की क्रियाबदल जाती है जैसे बार-बार या रूक-रूक कर पेशाब आना । यदि कैंसर मस्तिष्क में फैल गया है तो चक्कर आना, सरदर्द होना या अनिश्चितता पैदा होती है । फेफड़ें के कैंसर में खांसी आती है तथा सांस छोटी हो जाती है । अग्नाशय कैंसर में तब तक कोई लक्षण नहीं प्रकट होते जब तक निकटवर्ती नाड़ियों पर बने दबाव से दर्द नहीं होता या यकृत के कार्य को बाधित करके पीलिया रोग नहींपैदा हो जाता । इसी प्रकार आंत का अर्बुद कोष्ठबद्धता तथा उल्टी के लक्षण प्रकट करता है । अर्बुद के कारण पेट तथा सीने में दर्द होता   है । ल्यूकोमिया या रक्त कैंसर में रक्ताल्पता, थकावट तथा जोड़ों का दर्द होता है । अन्य लक्षणों में शरीर में दुर्बलता आना ज्वर का रहना, ग्रंथियों की सूजन, पसीना तथा थकावट रहना होता है ।
    जो चिकित्सक कैंसर का निदान एवं उपचार करते हैं उनको आनकोलोजिस्ट कहा जाता है । कैंसर का निदान एक्स-किरणों, सीटी स्कैन, एम.आर.आई. स्कैन, पी.ई.टी. रेडियोधर्मीस्कैनिंग तथा अल्ट्रासाउण्ड स्कैन द्वारा किया जाता है । इसके अतिरिक्त एफ.एन.ए.सी. तथा बायोप्सी द्वारा भी कैंसर का निदान किया जाता है । कैंसर उपचार के कई तरीके अपनाये जाते हैं । इनमें से शल्य चिकित्सा, विकिरण विधि, रसायन चिकित्सा, जैव चिकित्सा, हारमोन चिकित्सा आदि मुख्य है । शल्य चिकित्सा में शरीर के उस भाग को निकाल दिया जाता है जिसमें कैंसर प्रारंभ हुआ है । यह चिकित्सा की सर्वोत्तम विधि है । विकिरण समस्थानिक द्वारा कैंसर ग्रस्त कोशिकाआें को इस प्रकार नष्ट किया जाता है कि सामान्य कोशिकांए अप्रभावित रहे इससे अर्बुद सिकुड़ जाता है । इस क्रिया में कैंसर ग्रस्त कोशिकाआें के डी.एन.ए. को पूर्णता मार दिया जाता है । इस विधि में कैंसर कोशिकाएं नष्ट होती हैं साथ ही स्वस्थ्य कोशिकाएं भी नष्ट हो जाती है ।
    रसायन चिकित्सा में विकिरण उपचार के पहले या उसी समय प्रति कैंसर औषधियों का प्रयोग किया जाता है । यह चिकित्सा कैंसर के उपचार हेतु अत्यन्त सफल है । दवाइयाँकभी-कभी गोलियों के रूप में ली जाती है लेकिन सामान्यत: इन्जेक्शन के रूप में शिराआें द्वारा दी जाती है । इस विधि में लाभ यह है कि औषधि एक स्थान पर नहीं रहती बल्कि पूरे शरीर में जाती है तथा अर्बुद को सिकोड़ती है जिससे शल्य चिकित्सा सरल हो जाती है । पार्श्व प्रभाव के रूपमें इससे कैंसर कोशिकाआें के अतिरिक्त मुंह, भोजन नली, बोन मेरो, और स्वस्थ कोशिकाएं भी प्रभावित होती हैं जिससे उल्टी होना, बालों का गिरना, पेचिस तथा रक्त गणना कम हो जाती है । लेकिन शीघ्र ही स्वस्थ्य कोशिकाआें में सुधार हो जाता है । जैविक उपचार में प्रतिरक्षा तन्त्र द्वारा कैंसर कोशिकाआें को अवरोधित किया जाता है अथवा मार दिया जाता है । मोनोक्लोनल प्रतिरक्षी को अंत:क्षेपण द्वारा संक्रमति स्थान पर दिया जाता है जिससे सूजन आती है तथा अर्बुद सिकुड़ने लगता है ।
    हारमोन उपचार में कैंसर कारक हार्मोन के उत्पादन को उलट दिया जाता है जिससे कैंसर कोशिकाएं अवरोधित होती है या पूर्णत: मर जाती है । कुछ अंगो का जैसे अंडकोष, अधिवृक, पियूषिका जो कि हारमोन पैदा करते है को निकाल दिया जाता है जिससे कैंसर कारक हारमोन का उत्पादन बन्द हो जाता है या नियंत्रित हो जाता है । उदाहरणार्थ हारमोन टेस्टोस्टेरान पौरूष ग्रंथि के कैंसर को बढ़ावा देता है । यदि किसी औषधि द्वारा इस हारमोन उत्पादन को रोक दिया जाय जो कि अण्डकोष से आता है, तो पौरूष ग्रंथि का कैंसर रूक सकता है । लेकिन इसके भी पार्श्व प्रभाव होते हैं। स्त्री हारमोन एस्ट्रोजेन तथा प्रोजेस्टेरान स्तन कैंसर को बढ़ावा देते हैं । प्राय: इस केंसर को रोकने में एस्ट्रोजेन का स्तर कम किया जाता है कि कैंसर को रोकता है । इसके लिए अधिकतर प्रयोग होने वाली औषधि, टेमोक्सीकेन या फारेस्टोन होती है । जीन उपचार में कैंसर पैदा करने वाले जीनों को हटाकर दूसरे जीनों का प्रत्यारोपण किया जाता है ।
    कैंसर एक जानलेवा कष्टकारी बीमारी है जिससे बचने का कोई कारगर उपाय नहीं लेकिन जीवन शैली में परिवर्तन लाने तथा खान पान में संशोधन करके कुछ हद तक कैंसर होने की संभावना को कम किया जा सकता है । लम्बे अध्ययन से यह ज्ञात हो चुका है कि फल तथा सब्जियाँ कैंसर रोकने में सहायक हो सकते हैं । खाद्य पदार्थो के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि स्वास्थ्य कारक भोजन में फल एवं सब्जियों का उचित समावेश किया जाये । जो लोग फल तथा सब्जियाँ नहीं खाते हैं उनको कैंसर होने की संभावना उनकी तुलना में जो फल तथा सब्जियाँ खाते हैं दो गुना हो सकती है ।
    एक विषद अध्ययन में निम्नवत सावधानियाँ बरतने पर कैंसर से बचाव किया जाना बताया गया है । राष्ट्रीय कैंसर संस्थान द्वारा यह बताया गया है कि फलों तथा सब्जियों का सेवन दिन में लगभग पाँच बार किया जाय तो कैंसर की संभावना कम होती है । पशुआेंके मांस के स्थान पर मुर्गा, मछली, अखरोट, बादाम आदि फलीदार पदार्थ तथा दूध से बने पदार्थ का अधिक सेवन किया जाये । शराब तथा तम्बाकू का प्रयोग कम से कम किया जाये । अनाजों को जितना संभव हो उतना उनके प्राकृतिक रूप मेंलिया जाय । इसके साथ ही स्तनों का स्वयं निरीक्षण भी करते रहना चाहिए । युवावस्था में शरीर की भार वृद्धि को बचाना चाहिए । राष्ट्रीय कैंसर अनुसंधान संस्था ने विषद अध्ययन में पाया कि मोटापा तथा कैंसर में गहन संबंध हैं । यदि शरीर का भार कम कर लिया जाये तो कोलन, स्तन कैंसर, गुर्दा कैंसर तथा गले के कैंसर से रक्षा हो सकती है । स्तन कैंसर से बचे मरीजों के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि निदान के उपरांत व्यायाम करने से कैंसर से मृत्यु तथा पुनरावृत्ति में कमी की जा सकती है । इसी प्रकार कोलन कैंसर में भी शारीरिक व्यायाम द्वारा इसके घातक परिणाम तथा पुनरावृत्ति को रोका जा सकता है ।
    अच्छा स्वास्थ्यवर्धक जीवन जीने के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को इसका ज्ञान होना चाहिए कि कैंसर उपचार के लाभ तथा हानि क्या हो सकते हैं । कैंसर के भय को जीने के उत्साह से जीतना चाहिए । प्रतिदिन नई खोज की जा रही है जिससे कैंसर का उपचार किया जा सके ।
कविता
मेरी धरती माँहै कितनी प्यारी
नर्मदा प्रसाद सिसोदिया

मेरी धरती माँ है कितनी प्यारी ।    
हरी-हरी भरी-भरी तेरी क्यारी ।।
आई बसंत महकी-महकी फुलवारी ।
कली-कली खिली-खिली धूप से सुनहरी ।

    जरी गोटे से जड़ी-जड़ी ओढ़ी चुनरी ।
    मेरी धरती माँ है कितनी प्यारी ।।

श्रृंग शिखर, झरने है सुखकारी ।
आश्रय देती, जीव जन्तु की हितकारी ।
नदियन को कल-कल पानी भरे पनिहारी ।
अभिशापों को सहकर है, तारनहारी ।

    दूर-दूर-दूर सुनाती ममता की लोरी ।
    मेरी धरती माँ है कितनी प्यारी ।।

सागर से तूफान उठे, गाती स्वर लहरी ।
हिमालय और अरावली वन जाते प्रहरी ।।
प्रदूषित है जल, थल, हवा और हिम गिरी ।
जग की करनी धरती माँ ने निहारी ।

    तेरी छाया में रहते दिवस दुपहरी । 
    मेरी धरती माँ है कितनी प्यारी ।।
पर्यावरण परिक्रमा

चांद पर सब्जियां उगाने की योजना

    अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा चांद पर वर्ष २०१५ तक पौधे और सब्जियां जैसे शलजम और तुलसी उगाने की योजना बना रही  है । इसका उद्देश्य यह पता लगाना है कि पृथ्वी के इस उपग्रह पर मानव रह सकते हैं अथवा नहीं । नासा ने बताया कि इस योजना पर लूनर प्लांट ग्रोथ हैबिटेट टीम ने काम शुरू कर दिया है । इसके लिए कॉफी कैन आकार के कप (स्टील ग्रोथ चेंबर) के इस्तेमाल पर विचार किया जा रहा है । इसे वहां के जलवायु में मौजूद कठोर तत्वों से पौधों की रक्षा करने के अनुरूप डिजाइन किया जाएगा । इन्हें कैमरा, सेंसर और इलेक्ट्रानिक उपकरणों से युक्त किया जाएगा जिससे पौधों की पृथ्वी की तुलना में अच्छी या बुरी दशा का पता चल सकेगा ।
    इस चेंबर को इस तरह विकसित किया जाएगा कि यह चांद पर अंतरिक्षयान में पांच से दस दिनों की अवधि में अंकुरण में सहायक  हो । इस विशेष कप में शलजम और तुलसी के पौधों को उगाने की कोशिश होगी । इन्हें व्यावसायिक अंतरिक्ष यान से भेजा जाएगा ।
    चांद पर पहुंचने के बाद बीजों को अंकुरित होने के लिए इसमेंखास तरीके से पानी डाला जाएगा । सील बंद ग्रोथ चेंबर में पहले से ही इतनी हवा रहेगी जो इसके विकास के लिए पर्याप्त् होगी । जबकि अंकुरण के लिए प्राकृतिक सूर्य की रोशनी का इस्तेमाल किया जाएगा । इनकी पांच से दस दिनों तक धरती से निगरानी की जाएगी । इन जानकारियों से इन सवालों को जानने में मदद मिल सकेगी कि क्या चांद पर इंसान रह और काम कर सकते है ।


भारतीयों की दिक्कतें दोगुनी हुई


    भारत में लोगों की दुश्वारियां हाल के वर्षो में दोगुनी से भी अधिक हो गई है । जहां हर चौथा व्यक्ति हालिया वर्षो में देश के खराब आर्थिक हालात की मार झेल रहा है । अमेरिकी सर्वेक्षण एजेंसी गैलप के ताजा  सर्वेक्षण रिपोर्ट में यह बात कही गई । सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत मेंदुश्वारिया बढ़ने की वजह से दक्षिण एशिया की दुश्वारियों से भी इजाफा देखने को मिला है । इसमें कहा गया है कि वर्ष २०१० से २०१२ के बीच भारतीयों की औसत पीड़ा में वर्ष २००६ से २००८ के बीच के मुकाबले दोगुना से अधिक इजाफा हुआ है ।
    रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीयों की खुशहाली में आई इस अहम गिरावट की मूल वजह संभवत: देश का निराशाजनक आर्थिक प्रदर्शन है । भारत की विकास दर वर्ष २०१० की पहली तिमाही के ९.४ फीसदी से घटकर वर्ष २०१३ की दूसरी तिमाही में अब ४.४ फीसदी हो गयी है । गैलप ने कहा कि भ्रष्टाचार और लाल फीता शाही रोकने के अलावा श्रमिक ऊर्जा एवं भूमि के मामले में अपने बाजार को उदार बनाने में भारत सरकार की असफलता यह बताती है कि विश्व बैंक क्यों इस देश को व्यापार करने के लिए खराब जगह की सूची में रखे हुए हैं ।
    रिपोर्ट के मुताबिक, दक्षिण एशिया दुश्वारियों के मामले में दुनिया में टॉप पर है । यहां पर २४ प्रतिशत परेशानियॉ है । जबकि २१ में बाल्कन, मध्य पूर्व और उत्तर अफ्रीका शामिल है । गैलप के मुताबिक, दक्षिण एशिया की इस हालत के पीछे भारत के नकारात्मक विकास का योगदान ज्यादा है । नेपाल की स्थिति भी कुछ अच्छी नहीं है । यहां २००६-०८ और २०१०-१२ के बीच १७ पॉईट का इजाफा हुआ । नेपाल की डावांडोल होती राजनीतिक स्थिति के कारण अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है ।

हर साल १३३०० करोड़ की फल-सब्जियां बरबाद
    फल और सब्जियां उत्पादन के मामले में भारत दुनिया में दूसरे नम्बर पर है, लेकिन यहां हर साल १३,३०० करोड़ रूपये के उत्पादन बर्बाद हो जाते हैं । देश में कोल्ड स्टोरेज फैसिलिटीज और रेफ्रिजरेटेड ट्रांसपोर्ट की कमी के चलते ऐसा होता है ।
    अमेरिका की मैन्युफैचरिंग और टेक्नोलॉजी कंपनी इमर्सन की इकाई इमर्सन क्लाइमेट टेक्नोलॉजीज इंडिया की नई रिपोर्ट में यह दावा किया गया है । देश को कोल्ड इंफ्रांस्ट्रक्चर जरूरतों को देखते हुए इमर्सन क्लाइमेट टेक्नोलॉजीज ने चाकन में पहला कोल्ड चेन और डिस्ट्रिब्यूटशन सेंअर बनाया है । इसके जरिए वह इंडस्ट्री के लिए देश में मौजूद टेक्नोलॉजी सौल्यूशंस और सर्विसेज के बारे में अवेयनेस बढ़ाएगी । इमर्सन फूड वेस्टजे एण्ड कोल्ड स्टोरेज रिपोर्ट में स्टीडीज का हवाला देते हुए कहा गया है कि इंडिया में परूट्स, वेजिटेबल्स और ग्रेन्स की बर्बादी सालाना करीब ४४,००० करोड़ रूपये की है । परूट्स एण्ड वेजिटेबल की इस बर्बादी में सबसे बड़ी हिस्सेदारी है । देश के परूट और वेजिटेबल प्रॉडक्शन का करीब १८ फीसदी हिस्सा हर साल बर्बादा हो जाता है । इसकी वैल्यू करीब १३,३०० करोड़ रूपये है । फलों और सब्जियों के खराब होने की बड़ी वजह रेफ्रिजरेटेड ट्रांसपोर्ट सिस्टम और हाई  क्वॉलिटी कोल्ड स्टोरेज फैसिलिटीज की कमी है ।
    इमर्सन की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि जब तक कोल्ड चेन इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार नहीं होगा, तब तक देश के सामने यह प्रॉब्लम बनी रहेगी । रिपोर्ट के मुताबिक अगर कोल्ड स्टोरेज की संख्या नहीं बढ़ती और क्वॉलिटी में सुधार नहीं होता, तो यह समस्या और बड़ी हो सकती है । अभी देश में ६३०० कोल्ड स्टोरेज फैसिलिटीज    है । इनकी इस्टॉल्ड कैपेसिटी ३०११ करोड़ टन है । स्टडीज से पता चला है कि ये कोल्ड स्टोरेज इंडिया की कुल जरूरत का आधा हिस्सा ही पूरा कर पा रहे है । देश में सभी फूड प्रॉडक्ट्स के लिए कोल्ड स्टोरेज कैपेसिटी ६.१ करोड़ टन से ज्यादा होनी चाहिए ।
    रिपोर्ट में कहा गया है कि इस टारगेट तक पहुंचने के लिए २०१५-१६ तक ५५,००० करोड़ रूपये के इनवेस्टमेंट की जरूरत होगी, तभी फलों और सब्जियों की बढ़ती पैदावार को देश में कोल्ड स्टोरेज फैसिलिटीज का स्पोर्ट मिल पाएगा । इंडिया में १.२ अरब लोग रहते है । ऐसे में फलों और सब्जियों के बेहतर इस्तेमाल और इन्हेंं बर्बादी से बचाना सबके हित में है ।
जीवन शैली
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून
सचिन कुमार जैन

    भारत की संसद ने खाद्य सुरक्षा को एक अधिकार के रूप में मान्यता देकर एक ऐतिहासिक काम किया    है । राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (२०१३) बनने का मतलब है कि सरकार का भूखमरी, कुपोषण और खाद्य असुरक्षा की स्थिति में जवाबदेह बन जाना । हालांकि हमें यह स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए कि अब भी खाद्य सुरक्षा या भुखमरी से मुक्ति भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार नहीं है । इसलिए दूर की ही सही पर यह आशंका बनी रहेगी कि इस कानून को कभी भी खत्म किया जा सकता है । 


    इस कानून पर चली बहसों में जो पक्ष उभरे उन्हें तीन वर्गो में रखा जा सकता है । एक वर्ग जो यह मानता है कि सरकार ने बहुत लम्बे समय के बाद एक अच्छा कानून बना दिया है और इसमें अनाजों के अधिकार के जो प्रावधान किए गए हैं उनसे भुखमरी मिट जाएगी । दूसरा वर्ग यह मानता है कि कानून बहुत जरूरी कदम था और है, परन्तु इसमें किए गए प्रावधान भुखमरी और खाद्य असुरक्षा के मूल कारणों से लड़ने के मामले में कमजोर हैं । यानी किसानों और प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित नीतियों और उन आर्थिक नीतियों की आलोचनात्मक समीक्षा का अभाव है, जो असमानता बढ़ा रही हैं । वे यह भी मानते है कि इस कानून में जिस खाद्य सुरक्षा की बात की गई है, उसमें पोषण की सुरक्षा का कोई स्थान नहीं है । तीसरा वर्ग कहता है कि सरकार राजनीतिक लाभ के लिए १.२५लाख करोड़ रूपए रियायत (सब्सिडी) के रूप में बर्बाद कर रही है । इस कदम से आर्थिक विकास के लिए जरूरी सुधार (यानी जनकल्याणकारी कार्यक्रमों पर सरकारी खर्च और सब्सिडी कम करने के उपाय) की प्रक्रिया को आघात पहुंचेगा । वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि देश में मौजूद कुपोषण और खाद्य असुरक्षा के चलते आर्थिक विकास खोखला है । यह कहना भी गैर-वाजिब है कि इस काम पर होने वाले व्यय से कोई रचनात्मक लाभ नहींहोगा । लोगों को देने के लिए अनाज तो किसानों से ही खरीदा जाएगा न ? इससे किसानों को साल भर में ८० हजार करोड़ रूपये का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा । इस तरह की कई सच्चईयों को समझना होगा ।
    इस बहस में उभरे कई सवाल बहुत महत्वपूर्ण भी हैं । सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में व्याप्त् भ्रष्टाचार (अध्ययनों के आधार पर माना जाता है कि लगभग ३५ प्रतिशत संसाधन भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं) को खत्म किए बिना इस कानून के तहत दिए गए अधिकार लोगों तक पहुंच पाएंगे, इस पर शंका बरकरार है । हाल ही में बने कानून में भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा देने के लिए बहुत कमजोर प्रावधान है । यह एक सच्चई है, पर इस आधार पर यह तर्क देना कि सरकार को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून नहीं बनाना चाहिए था, बहुत ही गैर-वाजिब तर्क था ।
    बेहतर होता यदि सरकार पर और दबाव बनाया जाता कि वह पीडीएस, मध्यान्ह भोजन और आंगनवाड़ी जैसे कार्यक्रमोंमें ढांचागत विकास, उनकी गुणवत्ता बढ़ाने और उनकी सामुदायिक निगरानी के लिए स्पष्ट और ठोस प्रावधान बनाए । लोक सभा और राज्य सभा में इस विधेयक पर हुई बहसों में इन सभी पहलुआें पर बात हुई, पर अंतत: वह औपचारिकता ही साबित हुई । विपक्ष ने भी सरकार को कमजोर कानून बनाने में समर्थन दिया ।
    बार-बार यह प्रचारित किया जा रहा है कि सरकार को इस कानून के क्रियान्वयन के लिए सवा लाख करोड़ रूपये का नया आवंटन करना पड़ेगा । वस्तुत: यह झूठा प्रचार है । वास्तव में आज सरकार वैसे ही ९७ हजार करोड़ रूपये इस पर खर्च कर रही है । उसे कानून के क्रियान्वयन के लिए नई व्यवस्था बनाने (जैसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा आयोग, पीडीएस का कम्प्यूटीकरण आदि) पर २५ हजार करोड़ रूपये का नया आवंटन करना होगा ।
    नया कानून न बनता तब भी यह खर्च तो होना ही था क्योंकि पीयूसीएल बनाम भारत सरकार के मामले मेंसर्वोच्च् न्यायालय ने भी सरकार को पीडीएस में ढांचागत बदालव की व्यवस्था बनाने के आदेश दिए हैं । इसके अलावा एकीकृत बाल विकास परियोजना यानी आंगनवाड़ी और स्कूल मेंमध्यान्ह भोजन योजना भी पहले से ही चल रही है । सभी महिलाआें के लिए मातृत्व अधिकारों (छह माह के लिए १००० रूपये प्रति माह की राशि का प्रावधान) की व्यवस्था एक नया और महत्वपूर्ण कदम है ताकि गर्भावस्था से लेकर प्रसव के बाद कुछ महीनों तक स्त्री को आराम, पौष्टिक आहार और जरूरी स्वस्थ्य सेवाएं मिल सकें । जच्च मृत्यु दर, नवजात शिशु मृत्यु दर और बाल मृत्यु दर को कम करने और बच्चें-महिलाआें में कुपोषण को रोकने के लिए यह अत्यन्त जरूरी कदम माना जाना चाहिए । एक तरफ तेजी से हो रहा आर्थिक विकास और दूसरी तरफ कुपोषण का ऊंचे स्तर पर बने हना, यह विरोधाभासी स्थिति है । कुछ लोग सम्पन्न होते जाएं और हर दो मेंसे एक बच्च्े का शारीरिक-मानसिक विकास अवरूद्ध रहे, यह स्थिति भारतीय लोकतंत्र के चारित्रिक पतन की सूचक मानी जा सकती     है । सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह इस स्थिति के संदर्भ में अपना पक्ष स्पष्ट करें ।
    डेनमार्क, स्वीडन ऐसे देश हैं जहां वे अपने सकल घरेलू उत्पाद का ८० से ५० प्रतिशत तक कर राजस्व इकट्ठा करते हैं । भारत में यह स्तर २० प्रतिशत से नीचे है । इतना ही नहीं, सरकार आर्थिक विकास के नाम पर लगभग ६ लाख करोड़ रूपये (कुल करों के बराबर की राशि) की छूट दे देती है । इससे हमारे राजस्व आधे रह जाते हैं । बेहतर होगा कि इन दो बिन्दुआें पर ठोस काम करके वह अपना राजस्व बढ़ाए । भ्रष्टाचार को खत्म करने और नव-उदारवादी नीतियों के विलासितापूर्ण खर्चो को रोकने की दिशा में हमारे उन नीतिकारों और विद्धानों की आवाज नहीं निकलती है जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाए जाने का खूब विरोध कर रहे थे, आखिर क्यों ? यह प्रतिबद्धताआें में अंतर का प्रमाण है ।
    वास्तव में अंतर नजरियों और प्रतिबद्धताआें का ही है । नव-पूंजीवादी नजरिया मानता है कि इस कानून पर होने वाला खर्च रियायत या सब्सिड़ी है, जो कभी वापस नहीं आएगी, जबकि वास्तविकता यह है कि गरीबी, कुपोषण और वृद्धि-बाधित बचपन की चुनौती से जूझ रहे भारत के लिए यह दीर्घावधि विकास के लिए किया गया निवेश है । भुखमरी-कुपोषण से मुक्त होकर ही हम समतामूलक विकास कर सकते हैं । ऑक्सफोर्ड की अर्थशास्त्री सबीना अलकेर ने दी हिन्दू में लिखा था कि भारत में दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में सबसे ज्यादा वृद्धि-बाधित यानी जीर्ण कुपोषण से ग्रस्त बच्च्े हैं, फिर भी भारत सामाजिक सुरक्षा पर मध्यम आय वाले एशियाई देशों की तुलना में आधा ही खर्च करता है ।
    एशिया के उच्च् आय वाले देशों की तुलना में तो भारत का सामाजिक सुरक्षा व्यय महज २० फीसदी है । मध्यम आय वाले एशियाई देश सामाजिक सुरक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का ३.४ प्रतिशत व्यय करते हैं, जबकि भारत १.७ प्रतिशत व्यय करता है । हम इस स्तर पर भी महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के व्यय के कारण पहुंचे हैं । उच्च् मध्यम आय वाले एशियाई देश जीडीपी का औसतन ४ प्रतिशत और उच्च् आय वाले देश १०.२ प्रतिशत सामाजिक सुरक्षा पर व्यय करते हैं । जापान १९.२ प्रतिशत और चीन ५.४ प्रतिशत इस मद पर खर्च करते हैं । यहां तक कि सिंगापुर सामाजिक सुरक्षा के लिए भारत से दुगना यानी ३.५ प्रतिशत खर्च करता है ।
    एक तबका मानता है कि मनरेगा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून जैसे कदमों से लोग आलसी हो रहे हैं और श्रम की कमी के कारण खेती और उद्योग नकारात्मक रूप से प्रभावित होंगे । सच तो यह है कि इन कदमों से असंगठित क्षेत्र में चल रहा शोषण कम होगा । यह कानून भुखमरी और कुपोषण की समस्या को जड़ों से तो नहीं हटायगा पर इससे एक प्रक्रिया की शुरूआत जरूर होगी ।
ज्ञान विज्ञान
सूर्य के धब्बे गिनते-गिनते ४०० साल
    विज्ञान और वैज्ञानिकों के बारे में आम धारणा यह है कि किसी को अचानक कोई विचार आता है और एक सिद्धांत का जन्म हो जाता है । हमारे विज्ञान लेखन ने यह भी काफी प्रचारित किया है कि विज्ञान में संयोगवश या कभी-कभी तो त्रुटिवश हो गए किसी अवलोकन ने किसी महान सिद्धांत का मार्ग प्रशस्त कर दिया । मगर आमतौर पर विज्ञान ऐसे आगे नहीं बढ़ता । काफी लगनपूर्वक कड़ी मेहनत करना और प्रयोगों या अवलोकनों से प्राप्त् आकड़ों का विश्लेषण करना अपवाद नहीं बल्कि सामान्य बात है । 

     उदाहरण के तौर पर खगोल शास्त्री सूर्य के धब्बों का रिकॉर्ड तब से रखते आए हैं, जब दूरबीन का आविष्कार नहीं हुआ था । गैलीलियो ने भी सूर्य धब्बों को रिकॉर्ड किया था । अलबत्ता, शुरूआती प्रेक्षकों को यह पता नहीं था कि सूरज की सतह पर समय-समय पर उभरने वाले ये धब्बे हैं क्या । उन्हें यह तो बिल्कुल भी भनक नहीं थी कि इन धब्बों का सम्बन्ध चुंबकीय क्षेत्र से है ।
    मामले ने तो तब करवट ली जब १८४८ में स्विस खगोलविद रूडोल्फ वुल्फ ने इन धब्बों के व्यवस्थित अध्ययन शुरू किए और एक सूत्र विकसित किया । इस सूत्र की मदद से आज भी वैश्विक सूर्य धब्बा संख्या की गणना की जाती है । इसे वुल्फ संख्या भी कहते हैं । इस संख्या से पता चलता है कि समय के साथ सौर सक्रियता में किस तरह से परिवर्तन हो रहे हैं ।
    ये आंकड़े बहुत मूल्यवान साबित हुए हैं । प्रेडरिक क्लेट वर्ष २०११ में बेल्जियम स्थित रॉयल वेधशाला में स्थित सौर प्रभाव डैटा विश्लेषण केन्द्र के निदेशक बने । यह केन्द्र सन १७०० से लेकर आज तक ५०० प्रेक्षकोंद्वारा एकत्रित सूर्य धब्बों के आंकड़ों का विश्लेषण करता है । इन आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि सौर सक्रियता लगभग ११ वर्ष के चक्र में घटती-बढ़ती है । सूर्य के इन धब्बों में से आवेशित कणों की बौछार निकलती है जो हमारे द्वारा प्रक्षेपित उपग्रहों के अलावा धरती पर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को भी प्रभावित कर सकते हैं ।
    इतने विस्तृत रिकॉर्ड की बदौलत शोधकर्ता यह समझने का प्रयास कर रहे है कि ११ वर्ष का यह चक्र क्यों होता है । इसके अलावा आने वाले वर्षोमें सौर सक्रियता की भविष्यवाणी भी की जा सकती है । एक अनुमान के मुताबिक प्रतिवर्ष कम से कम २०० शोधपत्रों में सौर धब्बों के आंकड़ों का हवाला दिया जाता है । ये शोध पत्र भू-चुंबकत्व, वायुमण्डल विज्ञान और जलवायु विज्ञान जैसे विविध विषयों से सम्बन्ध रखते हैं ।
    मजेदार बात यह है कि आज भी ऐसे आंकड़े एकत्रित किए जा रहे हैं और पूरा प्रयास शौकिया प्रेक्षकों द्वारा किए गए अवलोकनों के सहारे चल रहा है । उपरोक्त केन्द्र हर साल करीब ९० शौकिया प्रेक्षकों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों का संग्रह व प्रकाशन करता है । क्लेट अपने एक अन्य अंशकालिक साथी की मदद से यह काम करते हैं ।
    क्लेट कहते हैं कि इन सैकड़ों वर्ष पुराने सहकर्मियों के साथ काम करने में बहुत मजा आता है । उदाहरण के लिए वे बताते है कि गैलीलियो के सौर धब्बों के आंकड़े बेतरतीबी से लिए गए है मगर उनके चित्र इतने बारीकी से बनाए गए हैं कि उनसे चुंबकीय संरचना की जानकारी प्राप्त् की जा सकती है । इन पूर्वज खगोलशास्त्री ने ये अवलोकन यही सोचकर रिकॉर्ड किए होंगे कि शायद ये महत्वपूर्ण हैं । क्लेट के मुताबिक विज्ञान का यही बुनियादी तत्व है - अंतिम परिणाम से बेखबर अपना काम करना ।

चूहोंमें बिल्ली का डर हटाता परजीवी

    एक परजीवी है जो मनुष्यों समेत कई स्तनधारियों और पक्षियों को संक्रमित करता है । टॉक्सोप्लाज्मा गौंडी नामक यह परजीवी यदि चूहों को संक्रमित कर दे तो उनमें बिल्लियों का खौफ खत्म हो जाता  है ।
    टॉक्सोप्लाज्मा गौंडी एक कोशिकीय जीव है । मनुष्यों में इसका संक्रमण काफी आम बात है । इसके कई अध्ययन किए गए हैं जो बतातें है कि संभवत: यह शिजोफ्रीनिया तथा अन्य व्यवहारगत बदलावों के लिए जिम्मेदार है । वैसे इस विषय के सभी शोधकर्ता इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं । 


     ऐसा माना जाता है कि टॉक्सोप्लाज्मा मस्तिष्क में पहुंचकर वहां की कोशिकाआें का अत्यधिक डोपामाइन बनाने को उकसाता है । डोपामाइन व्यवहारगत लक्षणों के लिए जिम्मेदार होता है । मगर अन्य शोधकर्ता बताते है कि यह कड़ी स्थापित नहीं हुई है । उनका मत है कि जहां टॉक्सोप्लाज्मा संक्रमण में काफी भौगोलिक विविधता है वहीं शिजोफ्रीनिया दुनिया भर में एकरूप ०१ प्रतिशत की दर से प्रकट होता     है ।
    मगर चूहों में इसके असर एकदम अनोखे हैं । आम तौर सारे कुतरने वाले जीव (चूहे वगैरह) बिल्ली की गंध को पहचानकर उससे दूर भागते हैं । मगर टॉक्सोप्लाज्मा संक्रमित होने लगते हैं । और तो और, संक्रमण समािप्त् के कई सप्तह बाद तक भी यह असर बना रहता है । इससे ऐसा लगता है कि यह परजीवी मस्तिष्क की कोशिकाआें पर कुछ ऐसा असर डालता है कि उनके कामकाज में कुछ हद तक स्थायी बदलाव हो जाते हैं ।
    कैलिफोर्निया विश्वविघालय की वेंडी इन्ग्रैम और उनके साथियों ने चूहों पर टॉक्सोप्लाज्मा के असर संबंधी जो अध्ययन किए हैं उनसे शिजोफ्रीनिया के बारे में भी नए सिरे से सोचना जरूरी हो गया है । अब तक ऐसा माना जाता था कि टॉक्सोप्लाज्मा स्वयं मस्तिष्क कोशिकाआें को अतिरिक्त डोपामाइन बनाने को उकसाता है । इसके बाद यह परजीवी मस्तिष्क में सिस्ट बनाकर सुप्तवस्था में पड़ा रहता है । इन सिस्ट का गुण यह होता है कि मस्तिष्क की कोशिकाएं डोपामाइन का अतिरिक्त उत्पादन जारी रखती    है ।
    मगर इन्ग्रैम के प्रयोगों में देखा गया कि टॉक्सोप्लाज्मा मस्तिष्क में सिस्ट बनाने की स्थिति तक पहुंचा ही नहीं, इसके बावजूद चूहे बिल्लियों से निडर बने रहे । अब तक शिजोफ्रीनिया के उपचार में सिस्ट पर ध्यान दिया जाता रहा है । मगर इस शोध के परिणाम बताते हैं कि शायद इसमें सिस्ट का योगदान नहीं है । प्रयोग में देखा गया कि शरीर में परजीवी का नामो-निशान खत्म हो जाने के बाद भी चूहे बेखौफ बने रहे । तो टॉक्सोप्लाज्मा, डोपामाइन व शिजोफ्रीनिया के तिकोन पर पुनर्विचार की जरूरत है ।

पक्षी काफी के पौधे का ख्याल रखते हैं

    कोस्टारिका में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि वार्बलर नामक पक्षी कॉफी को एक नाशी कीट के प्रकोप से बचाने में प्रत्यक्ष भूमिका निभाते हैं । कॉफी का यह कीट दरअसल एक गुबरैला है जो उसके फल (बेरी) में छेद करके नुकसान पहुंचाता  है । 


   इकॉलॉजी लेटर्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि वार्बलर पक्षी एक मध्यम आकार के कॉफी बागान में इस छेरी छेदक गुबरैले की वजह से होने वाले नुकसान में ९४०० डॉलर तक बचत करता है । इस अध्ययन के मुखिया स्टेनफोर्ड विश्वविघालय के डेनिअल कार्प का मत है कि इस अध्ययन से पता चलता है कि देशी वन्य जीवन आपको काफी नगद लाभ पहुंचा सकते हैं । यह छोरी छेदक कीट मूलत: अफ्रीका का है और सारे कॉफी उत्पादक क्षेत्रों में फैल चुका है । बेरी छेदक कीटनाशकों का प्रतिरोधी है और कॉफी की फसल को ७७ प्रतिशत तक नुकसान पहुंचाता है । इसके नियंत्रण में पक्षियों की भूमिका को समझने के लिए कार्प और उनके साथियों ने कोस्टारिका दो कॉफी बागानों को जाली से ढंक दिया । जाली ऐसी थी कि पक्षी उसके अंदर नहीं जा सकते थे ।    
सामाजिक पर्यावरण
भारतीय संस्कृति एवं पर्यावरण
राकेश मोहन कण्डारी
    भारतीय संस्कृति एवं जीवन शैली हमेशा से पर्यावरण संरक्षण की पोषक रही है । भारतीयों के विचार में वन के साथ-साथ वन्य जीवन की रक्षा भी महत्वपूर्ण मानी गई     है । हिन्दू दर्शन के अनुसार प्रत्येक हिन्दू को अपने जीवन के कुछ वर्ष वानप्रस्त (वन) में बिताने की व्यवस्था थी, अग्नि पुराण में ऐसा ही उल्लेख आया है कि वृक्षों के अनैतिक रूप से पालन करने पर अतिवृष्टि होकर अकाल पड़ता है -
    क्रियते पत्र विच्छेदं, सुपष्प फलनिस्तये,
    अनावृष्टि भय घोर तकस्मन्दे से प्रजायते । (अग्नि पुराण)
 भारतीय संस्कृति में वट (बड़) अश्वस्थ (पीपल), विल्व (बेल), वृन्दा (तुलसी) अपराजिता, पद्यम (कमल), कदली (केला), दुर्व (दूब), कुश, अरणी, आम्र (आम), देवदारू, पदम आदि वृक्षों एवं पादपों को देववृक्ष की संज्ञा प्रदान की गई है तथा इन वृक्षों एवं पादपों की पूजा की जाती है । इन वृक्षों के नीचे मल-मूत्र त्याग करना पाप समझा जाता है ।
    वृक्षों की महिमा को ध्यान में रखते हुए हमारे ऋषि मुनियों ने कतिपय सुरम्य काननों, उद्यानों एवं वनों का उल्लेख किया है जैसे अंगिरा वन, नेमिषारण्य वन, कंलिग वन, बदरि वन, इन वनों, उपवनों के अनैतिक विदोहन करने पर अनावृष्टि एवं अकाल पड़ने की संभावना बनी रहती है ।
    देव वन - यह एक विशिष्ट प्रकार की संरक्षण पद्धति है । प्राचीन काल से हमारे पूर्वजों ने दूरदृष्टि से इस संरक्षण पद्धति का सूत्रपात किया, जिसका उद्देश्य मानव मात्र का कल्याण था । इस पद्धति के तहत कुछ विशेष क्षेत्र के वनों में पेड़ काटने पर पूर्णत: प्रतिबंध है तथा पेड़ काटना पाप समझा जाता है ।
    सम्पूर्ण भारत में ऐसे कई देव वन है, जिनके तहत इस विशिष्ट पद्धति से वनों का संरक्षण आज भी जारी है ।
    हिमम हिम मिति वयात योजनायुत दूरत,
    सर्वपापे विर्मुच्येत विष्णु सामुच्यमश्नुते ।। (मानसखण्ड)
    दत्तात्रेय के अनुसार हिमालय के कण-कण में शिव का वास है । हिमालय को देखे-बिना दस हजार योजन दूर से उसका स्मरण मात्र करने से काशीवास जैसे फल मिलता है । जिस स्थान पर हिम भी न हो, तो भी हिमम के उच्चरण मात्र से मनुष्य पापमुक्त हो जाता है और विष्णुधाम को प्राप्त् होता है ।
    तरू (वृक्ष) को गुरू स्वीकार करते हुए भवभूति ने लिखा है -
    धते कुसुमपत्र फलावनीनां धर्मव्यथा वहित शीतमंथारूजंच ।
    यो देहमथयथि चान्य सुख स्यहेता, हास्मैदान्य गुरूवे तरूवे नमस्ते ।।
    अर्थव वेद मेंऔषधि, वनस्पति और पृथ्वी की शान्ति के साथ सर्वारिस्टी की शान्ति की कामना की गई है ।
    ऊँ धौ शान्ति, पृथ्वी शान्ति: औषधय: शान्ति ।
    वनस्पतय: शान्ति सर्वारिष्ठ: शान्ति हि: ।।
    ऋग्वेद के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में जो हिम वनस्पतियां सर्वप्रथम प्राप्त् हुई उनमें से एक सौ सात स्थानों का ज्ञान हमारे ऋषि मुनियों को था -
    औषधि पूर्वा जाता देवेभ्य स्त्रियुंग पुरा ।
    मनै नु नभ्रणामहं रातं धामानि सप्त् च ।।
    भौगोलिक एवं जलवायु के आधार पर हम वनों को सदाबाहर वन, पर्णपाती वन, वर्षा वन, ऊष्ण कटिबंधीय वन आदि कह सकते है । लेकिन भारतीय संस्कृति में कतिपय वनस्पतियों के नाम पर क्षेत्र विशेष के नाम रखे गये है जैसे - कलिंग (कुटज) मागधी (पिप्पली), व्रांहीक (केसर), थवानी (अजवायन), सौराष्ठी (फिटकरी), मलयज (चंदन), केदारज (पधारव), चीनाक (कर्पूर) कहने का आशय है कि वन भारतीय जीवन पद्धति का महत्वपूर्ण हिस्सा है ।
    वन्य जीवों की उपयोगिता के कारण इनका संरक्षण भी भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है । मोर के साथ सरस्वती, सिंह के साथ दुर्गा, शिव के साथ नंदी, लक्ष्मी के साथ उल्लू, देवराज इन्द्र के साथ हाथी, गणेश के साथ मूसक (चूहा) भी पूजनीय है । ज्योतिष में राशियों के नाम भी पशुआें के साथ रखे गये है ।
    लेकिन प्रश्न यह है कि आज कितने लोग अपने बच्चें को वेद, पुराण व स्मृतियों की शिक्षा देते है ?
    ये बातें हमारे पाठयक्रमों में शामिल क्यों नही होती ?
    भारतीय संस्कृति एवं जीवन पद्धति ने हमें प्रकृति के साथ-साथ चलने की शिक्षा दी है । आज सिर्फ यही रास्ता बचा है जो कि पूरी दुनिया को आइना दिखाऐगा और धरती को भी बचायेगा । ग्लोबल वार्मिग, जलवायु परिवतर्न, पर्यावरणीय असन्तुलन, जैव विविधता जैसे महत्वपूर्ण प्रश्नों का एक ही उत्तर है भारतीय संस्कृति एवं जीवन पद्धति  जो पर्यावरण के साथ-साथ प्रकृति एवं वन्य जीवनों के संरक्षण की अनूठी जीवन पद्धति है ।
लघु कथा
रोता विसूरता पेड़
कुंवर प्रेमिल

    आपने कभी हंसता, रोता, बिसूरता, बिलखता हुआ पेड़ देखा है ।    
    नहीं तो ।
    मैनें देखा है ।
    कहाँ-कब-ए, चलो, मुझे भी दिखाओ न ।
    मेरे दरवाजे पर लगा था । बल्लू मैंने अपने हाथों से लगाया था । मैने और मेरी धर्मपत्नि ने उसे सींचा, पनपाया, बड़ा किया और जब वह फूलों से लद गया तो खुशियों का दौरा पड़ गया था   मुझे ।
    पेड़ पर से नजरें हटाए नहीं हटती थी । पूरा घर-आंगन भीनी-भीनी खुशबू से भर गया था । मैं और मेरी पत्नी उल्लासमयी नजरों से देखते हुए थकती रहे थे  उसे । क्या करते, हमारी नजरों से वह हट नहीं पा रहा था । तब तक भौंरे और तितलियों के दल के दल फूलों से लिपटने का मजा लेने लगे थे ।
    फिर!
    सुबह-सुबह फूलों का वह पेड़ दहाड़े मारकर रोने लगा । मेरी नींद उचट गई । पत्नी भी भयभीत नजरों से इधर-उधर देखने लगी । अब किसी के रोने-बिसूरने की आवाजें आने लगी । मैं आंगन में दौड़कर आया तो देखा, यह तो वही पेड़ था जो एक दिन पहले सुनहले- रूपहले फूलों को अंगीकार किए फूला नहीं समा रहा था ।
    अब दहाड़े मार-मारकर रो रहा था । थक-थककर बिसूर रहा   था ।
    पेड़ रो रहा था, क्यों    भला ?
    रोता नहीं तो क्या करता । उसके सारे फूल तोड़ लिए गए थे । वह श्री हीन था । तितलियां उससे दूरी बनाकर उड़ रही थी । भौंरे उसे दूर से चिढ़ा रहे थे । उसे हिम्मत बंधाना तो दूर मुझे लगा कि मैं चक्कर खाकर गिर पडूंगा ।
    सांस उखड़ जाएगी मेरी । पर इसके पहले गिरा पेड़, मेरे पैरों के समीप ही गिरकर उस पेड़ ने अपनी दम दोत दी थी ।
महिला जगत
 बांग्लादेश : महिलाआें द्वारा शोषण का विरोध
लौरा गोट्टेस्डायनर

    बांग्लादेश में वस्त्र निर्माण उद्योग में कार्यरत लाखों महिलाओं का शोषण पश्चिम के महाकाय खुदरा व्यापारिक निगम कर रहे हैं । वालमार्ट जो कि अमेरिका में ही शोषण का प्रतीक बन चुका है और अन्य अनेक अमेरिकी निगम बांग्लादेश के  कारखानों में मजदूरों की सुरक्षा और उनका  जीवन स्तर उठाने के लिए किसी भी तरह का कोई योगदान नहीं करना चाहते ।
     न्यूयार्क सिटी फैशन सप्ताह में मॅनहटन, लंदन और मिलान में कपड़े के अनेक बड़े शोरूम अपने यहां बने बनाए वस्त्रों का भंडार बढ़ाने में लगे हुए थे । वहीं दूसरी ओर आधी दुनिया की दूरी पर एक शहर जहां पर वास्तव में पश्चिमी विश्व के कपड़े सिले जाते हैं, की सिलाई मशीनें थमी हुई हैं। बांग्लादेश की राजधानी ढाका में वर्तमान में ३०० से अधिक वस्त्र निर्माण कारखाने बंद पड़े हैं । इसकी वजह है शोषण के लिए बदनाम उद्योग के खिलाफ वहां की महिलाएं सड़कों पर उतर चुकी हैं ।
    प्रदर्शनों का आखिरी दौर १९ सितंबर को प्रारंभ हुआ जब अनुमानत: करीब ५०००० से अधिक महिलाओं ने ढाका में रैली निकालकर यह मांगेेकी कि उनकी मजदूरी १०० डॉलर प्रतिमाह (६००० रु.) से थोड़ी अधिक कर दी जाए । इससे आभास होता है कि रैली का लक्ष्य बजाए सरकारी अधिकारियों या अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील करने के वास्तव में उत्पादन रोकना था । करीब १० हजार महिलाओं के राजधानी के  १८ मील उत्तर में राजमार्ग बाधित कर यातायात रोक दिया । बाकी की चालीस हजार महिलाओं में से अनेकों ने अनेक कारखानों के बाहर प्रदर्शन कर उन्हें एक रोज के लिए उत्पादन बंद करने को बाध्य कर दिया ।
    विरोध प्रदर्शन को अंचल के उद्योग जिले के पुलिस प्रमुख ने सूचना दी कि वस्त्र निर्माण उद्योग में कार्यरत करीब २ लाख लोग सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं और वे वालमार्ट एवं अन्य पश्चिमी कंपनियों को वस्त्र की आपूर्ति करने वाले करीब ३०० कारखानों को बंद करने का प्रयास कर रहे हैं । उनके द्वारा मांगी जा रही मजदूरी करीब १०३ डालर प्रतिमाह है, जो कि वर्तमान में महिलाओं को मिलने वाली  मजदूरी की दुगनी से अधिक   होगी । वर्तमान में यह मजदूरी करीब ३८ डॉलर (२३५६ रु.) प्रतिमाह पड़ती है ।
    इसी बीच कुछ यूरोपीय कंपनियां इस बात पर राजी हो गई कि जिन कारखानों में वस्त्र तैयार होते हैं वे उन कारखानों में सुधार करेंगी और भवन एवं अग्नि सुरक्षा इंतजामों की निगरानी करेंगी । लेकिन इस समझौते का अमेरिका स्थित खुदरा ब्रांडों जैसे वालमार्ट, दी गेप, मेसी स, टारगेट, जे.सी. पेन्नी, नास्ट्राड्रम, फुट लाकर और दि चिल्ड्रन प्लेस ने विरोध किया। वैसे उनके इस कदम का अमेरिका के कई उपभोक्ताआें ने विरोध भी किया है ।
    वेजिंग नान वायलेंस के लेखक मेन्यु कनिंघम-कुक ने बताया कि गत अक्टूबर में वालमार्ट के खिलाफ अमेरिका में हुई हड़तालें वैश्वीकरण की वास्तविकताओं को उजागर करती हैं। घरेलू आपूर्ति श्रंखला के खिलाफ देश भर में हो रही हड़तालें हमें चेता रही हैं। पिछले वर्ष वालमार्ट के खिलाफ हड़तालों ने वैश्विक रूप ले लिया और इसके विरुद्ध अमेरिका, उरुग्वे, भारत दक्षिण अफ्रीका और ब्रिटेन में आंदोलन हुए । अमेरिकी विरोधकर्ताओं ने तो न्यूजर्सी बंदरगाह पहुंचकर वालमार्ट का बांग्लादेश के कारखानों से आने वाले कंटेनर जहाज को भी रोकने का प्रयास किया था ।
    बांग्लादेश के वस्त्र निर्माण कारखानों में विरोध बढ़ता ही जा रहा है। लेकिन मूलभूत प्रश्न यह है कि यह जागरूकता इस बढ़ी वैश्विकता आधारित उत्पादन की अंतिम कड़ी और इन कम मजदूरी देने वाले खुदरा निगमों के विरोध को आपस में जोड़ पाएगी ?
पर्यावरण समाचार
भारतीय युवाआें में १३.३ फीसदी बेरोजगार
    देश में २०१२-१३ में १५ से २९ के युवाआें में बेरोजगारी की दर १३.३ प्रतिशत रही । सरकार की एक रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है । श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट युवा रोजगार - बेरोजगार परिदृश्य २०१२-१३ में एक और दिलचस्प तथ्य सामने आया है कि ऐसे लोग जो लिख पढ़ नहीं सकते यानी निरक्षर है उनके बीच बेरोजगारी की दर निचले ३.७ फीसद के स्तर पर रही ।
    रिपोर्ट में यह तथ्य भी सामने आया है कि वास्तव में जिन लोगों को रोजगार मिला हुआ है, वे अपनी शैक्षणिक योग्यता से कम की नौकरी कर रहे है और ऐसे में समाज मूल्यावन कौशल गंवा रहा है जिससे मजबूत उत्पादकता प्रभावित हो रही है । यह रिपोर्ट मंत्रालय के तहत चंडीगढ़ श्रम ब्यूरो ने तैयार की है । इसके तहत अक्टूबर २०१२ से मई २०१३ के दौरान सभी राज्यों में सर्वेक्षण किया गया । सर्वेक्षण के आधार पर रिपोर्ट में कहा गया है, अखिल भारतीय स्तर पर १५ से २९ साल की आयु के १००० लोगों में १३३ बेरोजगार थे ।
    प्रतिशत के हिसाब से यह आंकड़ा १३.३ फीसद बैठता है । सर्वेक्षण में कहा गया है कि १५ से २९ साल के प्रत्येक तीन युवाआें में एक ने कम से कम स्नातक किया हुआ और वह बेरोजगार है । ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की दर स्नातकों के बीच ३६.६ प्रतिशत पाई गई । वहीं शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा २६.५ फीसदी का रहा । सर्वेक्षण में बताया गया है कि १५ से २९ साल की उम्र के लोगों में जिन लोगों को रोजगार मिला हुआ है । उनमें से ज्यादातर या तो स्वरोजगार में है या फिर अस्थायी कामगार है ।
    यह सर्वेक्षण कुल १,३३,३५४ परिवारों के बीच किया गया । इनमें से ८२६२४ परिवार ग्रामीण क्षेत्रों के और ५०,७३० शहरी क्षेत्रों के हैं । सर्वेक्षण के अनुसार १५ से २५ साल की आयु वर्ग की रोजगार में भागीदारी ३१.२ प्रतिशत, १८ से २९ साल की आयु वर्ग में ४७.३ तथा १५ से २९ साल की आयु वर्ग में ३९.५ फीसद की रोजगार में भागीदारी है ।