शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014



प्रसंगवश
कागज पर बढ़ते पौधे, बंजर होती जमीन
अमिताभ पाण्डे

    मध्यप्रदेश में जंगल को लालची मानसिकता के अपराधियों की नजर लग गई है । जंगल के दुश्मन सत्ता का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष संरक्षण प्राप्त् करके ९४.६९ हजार वर्ग किलोमीटर मेंफैले वन क्षेत्र क ो बरबाद करने में लगे हैं । राज्य के कुल भाग के २८ प्रतिशत से अधिक क्षेत्र मेंजंगल है जिनका वन कटाई अवैध उत्खनन के कारण भारी नुकसान हो रहा हैं। जंगल में बड़े पैमाने पर हो रही कटाई के कारण पेड़ पौधे लगातार नष्ट होते जा रहे हैं । वन में रहने वाले जीव जंतुआें की जान संकट में है और जैव विविधता भी नष्ट होती जा रही है । वन वृक्षविहीन जीव जन्तु विहीन होते जा रहे है । जिन बड़े अफसरों पर वन को बचाने की जिम्मेदारी है, उनका ज्यादातर समय वातानुकूलित कमरों में फाइलों को देखने दिखाने में बीत रहा है । मैदानी स्तर पर काम करने वाले निचले स्तर के वन कर्मचारी अपनी जान जोखिम में डालकर पेड़ काटने वालों, वन्य जीव जन्तुआें का शिकार करने वालेां से संघर्ष कर रहे हैं । निचले स्तर के वन कर्मचारी जंगल की कटाई करने वालों से लड़ते हुए कई बार प्राणघातक हमलों का शिकार हुए लेकिन बड़े अधिकारी अपराधियों पर सख्त कार्यवाही नहीं करते । शायद यही कारण है कि जंगल काटने वालों की हिम्मत दिनों दिन बढ़ती जाती है और वन विभाग के कर्मचारी अपनी जान बचाने के लिये अपराधियों से संघर्ष  करने में डरने लगे है ।
    भोपाल सहित मध्यप्रदेश के अनेक जिलों में अपराधियों ने वनकर्मियों पर बीते एक वर्ष में आधा दर्जन से अधिक बार जानलेवा हमले किये लेकिन वनकर्मियों को वरिष्ठ अधिकारियों का पर्याप्त् सहयोग नहीं मिला । भोपाल के कोलार क्षेत्र में तो अवैध कटाई करने से रोक ने वाले एक कर्मचारी को भाजपा विधायक ने इस तरह अपमानित किया कि वह अपनी नौकरी से त्याग पत्र देने का मजबूर हो गया । उधर गुना जिले के मधुसूदनगढ़ वन परिक्षेत्र से पेड़ काटकर ले जा रहे आरोपियों को जब  वन रक्षक जयसिंह, दिलीप गुर्जर ने रोका तो आरोपियों ने लकड़ी से भरा वाहन वनकर्मियों पर चढ़ाने का प्रयास किया । वनकर्मियों को कुचलने की ऐसी कोशिश पहले भी हो चुकी है । निचले स्तर के कर्मचारी अपनी जान की बाजी लगाकर भी वन कटने से नहीं रोक पा रहे हैं ।     वन विभाग के आला अफसरों का हाल यह है कि वे मैदानी स्तर पर काम करने वाले वन कर्मचारियों को परेशानियों को समझ नहीं पा रहे हे अथवा समझना नहीं चाहते हैं, वरिष्ठ अधिकारियों का ध्यान, अवैध कटाई, अवैध शिकार को रोकने, अपराधियों पर सख्त कार्यवाही करने, छोटे वनकर्मियों को उचित एवं तत्काल संरक्षण देने की बजाय नई नई योजनाआें का कागज पर आकर्षण  स्वरूप में बनाकर पेश करने पर अधिक रहता है । 
इन आंकडो के दम पर विभाग नये-नये कीर्तिमान बना रहा है ।                                                                                     
सम्पादकीय
हाथी अपने दुश्मन को शब्दों से पहचानते हैं

 कुछ ही जानवर हाथियोंके लिए खतरा पैदा कर सकते हैं। इनमें मनुष्य प्रमुख है । मगर सारे मनुष्य खतरा नहीं होते । और हाथी यह जानते हैं कि कौन उनके लिए खतरनाक है । कुछ अफ्रीकी कबीले हाथियोंके दुश्मन होते हैंजबकि कुछ समूह दुश्मन नहींहोते । हाथियों में देखकर और सूंघकर इनके बीच अंतर करने की जबरदस्त क्षमता देखी गई है । हाल में एक अध्ययन से पता चला है कि दुश्मनों और अन्य के बीच भेद करने में हाथी कबीलों द्वारा बोले जाने वाले शब्दों का भी उपयोग कर लेते हैं ।
    युके के ससेक्स विश्वविद्यालय की जीव वैज्ञानिक कैरन मैककॉम्ब और ग्रेमी शेनॉन ने अंदाजा लगाया कि शायद अफ्रीकी हाथी मनुष्य की भाषा को सुनकर उसका उपयोग इस काम में करते होंगे । इसको जानने के लिए उन्होंने कीन्या के दोअलग-अलग जनजातीय समूहोंकी भाषा में देखो, देखो, वहां देखो, हाथियों को झुंड आ रहा है रिकॉर्ड कर लिया । यह बात एकदम शांत ढंग से बोली गई थी । इनमें से एक समूह मासई लोगों का था जो पानी और अपने मवेशियों को चराने की जगह हासिल करने के लिए यदा-कदा हाथियों को मारता था । दूसरा समूह काम्बा मूलत: खेतिहर था और शायद ही कभी उन्होंने हाथियों पर हमला किया हो ।
    शोधकर्ताआें ने इस आवाज देखो, देखो, वहां देखो, हाथियों को झुंड आ रहा है रिकॉर्डिंग को कीन्या स्थित एम्बोसेली नेशनल पार्क के ४७ हाथी-झुंडों को सुनाई और हाथियों के व्यवहार को मॉनीटर किया । हाथियों ने मासई जनजाति के पुरूष की आवज सुनी तो वे चौकन्ने होकर हवा मेंसूंघने लगे और निकट आकर झुंड बनाने लगे । काम्बा जनजाति के पुरूषों की आवाज सुनकर ऐसी प्रतिक्रिया नहीं हुई । ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक फ्रिट्ज वॉलर्थ का कहना है कि हम यह तो जानते थे कि हाथी मासई और काम्बा जनजाति के लोगोंको गंध और कपड़ों से पहचानते थे लेकिन यह बुहत ही आश्चर्यजनक है कि वे आवाज का उपयोग भी इसके लिए कर सकते है । शोधकर्ताआें ने यह प्रक्रियामासई महिलाआें और बच्चें की आवाज के साथ भी दोहराइ्रर् । इस मामले में हाथी महिला आवाज सुनकर भाग खड़े हुए जबकि लड़कों की आवाज का ज्यादा असर नहीं पड़ा ।
    एक अध्ययन मेें यह भी पता चला है कि हाथी एक दूसरे को खतरनाक  मनुष्योें के बारे मेें भी बताते है ।
आम चुनाव - १
राष्ट्र से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं
नारायण देसाई

    भारत में चुनावों का स्वरूप दिनों-दिन बदल रहा है । नीतियों और राजनीतिक दलों के बजाए भारतीय राजनीति में व्यक्तित्व हावी होते जा रहे हैं । यह परोक्ष रूप से तानाशाही की  ओर बढ़ना ही है । आवश्यकता इस बात की है नीतियों को आधार बनाकर देश की समस्याओं का हल ढूंढा जाए । एक अकेला व्यक्ति कभी भी भारत जैसे विविधता एवं संकटग्रस्त राष्ट्र का शासन नहीं चला सकता ।
    आगामी अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर कई तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं । भविष्य को लेकर भी कई प्रकार की बातें भी की जा रही हैं । सत्ता की राजनीति से सदा दूर रहकर समाज का काम करने वाले एक लोकसेवक के नाते मेरे सामने आज कई चिंताजनक विषय हैं, जिन्हें मैं  आप सभी के साथ साझा करना चाहता हँू । 
     इन  चुनावों के  बारे में विश्लेषक अलग-अलग अटकल लगा रहे हैं और कुछ तो भविष्यवाणी भी कर रहे हैं । इसी बीच दलों एवं राजनीतिज्ञों द्वारा अपनी ओर आकर्षित करने के लिए तमाम तरीके अपनाए जा रहे हैं । इसमें सबसे ज्यादा अशोभनीय तरीका है जनता के प्रतिनिधि बनने के दावेदार उम्मीदवारों द्वारा अपने प्रतिस्पर्धी दल के नेताओं के खिलाफ भद्दी-भद्दी बातें करना । बरसोंपहले जब आज की तुलना में चुनाव इतने स्पर्धात्मकनहीं थे, तब आचार्य विनोबा भावे ने चुनाव के सबसे विलक्षण चरित्र की व्याख्या करते हुए कहा था कि वह आत्मप्रशंसा और परनिंदा करने वाले होते हैं । उस काल की तुलना में आज यह परिभाषा और भी ज्यादा सही बन गई है ।
    वर्तमान में आत्मप्रशंसा और परनिंदा के सागर में झूठे-सच्च्े वायदों के बीच देश के  मूलभूत सवाल कहीं खो गए हैं और  उनके बजाए तात्कालिक चमक-दमक की बातों से मतदाताओं की आंखें चौंधिया रही हैं । यदि आम चुनाव में देश के मूलभूत प्रश्नों का विचार हो तो ये चुनाव लोकतंत्र को मजबूत करने तथा संविधान के मूल सिद्धांतों को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ने में सहायक होते । यही नहीं, बार-बार होने वाले यह चुनाव हमारे देश की प्रगति के मील के  पत्थर भी बन सकते हैं ।
    हमें दो मुख्य बातों का विचार करना चाहिए । सर्वप्रथम चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवार के व्यक्तिव और उसकी काबीलियत के  बारे में तो सोचना ही चाहिए इसी के साथ हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि यदि उनमें से कुछ उम्मीदवारों की प्रकृति तानाशाह जैसी हो तो उसका प्रभाव देश के लोकतंत्र के लिए घातक साबित हो सकता है। लेकिन व्यक्ति के स्वभाव से ज्यादा जरूरी  है उसकी नीतियों पर विचार करना । यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि चुनाव जीतने के बाद लोग सत्ता में आए दल से उन नीतियों को लागू किए जाने की आशा भी रखेंगे । विरोधी दल भी इन्हीं नीतियों को केन्द्र में रखकर  सत्ताधारी दल का मूल्यांकन करेंगे । इसलिए नीतियों का  सवाल उम्मीदवार के व्यक्तित्व जितना ही महत्वपूर्ण बन जाता है ।
    दूसरी विचारणीय बात है, इस साल होने वाले चुनाव किन मूलभूत सिद्धांतों को केन्द्र में रखकर होंगे ? यह हमारी चिंता का विषय है । जाहिर सी बात है राष्ट्रीय चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर होने  चाहिए । यानि देश के ज्यादातर लोगों के जीवन से संबंधित होने     चाहिए । मूलभूत नीतियों की प्राथमिकता को देखते हुए राष्ट्रीय मुद्दे ऐसे होने चाहिए जो :
    * संविधान के मूलभूत सिद्धांतों को ध्यान में रखकर खड़े किए गए हों ।
    * देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों के जीवन को दीर्घकाल तक प्रभावित करने वाले हों ।
    * उन प्रश्नों को स्पर्श करने वाले हों जो विशेष रूप से समाज के  दलित, वंचित तथा पिछड़ों के जीवन से संबंध रखते हों ।
    हमारी चिंता का विषय यह है कि आजकल चुनाव में जिन मुद्दों पर विचार होता है वह समाज के मुखर या श्रेष्ठी वर्ग को ध्यान में रखकर उठाए जाते हैंऔर जो वर्ग मुखर नहीं होते उनकी आवाज चुनाव के शोर शराबे में दब जाती है। वर्तमान में देश की एक मूलभूत समस्या है रोजी रोटी की । लेकिन राजनीतिक दल प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की प्रशासनिक क्षमता या अक्षमता अथवा भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे ही उठा रहे हैं । इस शोरगुल में कहीं भी करोड़ों भूमिहीन या करोड़ों कम पढ़े-लिखे शहरी व ग्रामीण युवकों के प्रश्न नहीं उठाए जाते । इसी प्रकार जल, जंगल और जमीन से जुड़े सवाल भी देश मूलभूत प्रश्न हैं । देश के सैकड़ों इलाकों में सामान्य जनता, खास तौर से वंचित समाज, इन सवालों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं । लेकिन चुनाव की आंधी में इन आंदोलनों का स्वर दबाया जाता है ।
    भारतीय संविधान के मूलभूत सिद्धांतों द्वारा मान्य स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और न्याय की दिशा में देश कितना आगे बढ़ पाया है यही अपने देश के  लोकतंत्र की सही कसौटी हो सकती है । आज तात्कालिक सवालों पर इतना शोरगुल होता है कि उसकी चकाचौंध में जनता मूलभूत सिद्धांतों तथा सवालों को भूल जाती है और इसी कारण लोकतंत्र कमजोर होता जाता है । हर चुनाव में इस बात पर विचार होना चाहिए कि सच्च्े लोकतंत्र में अंतिम सत्ता किसके हाथ में हो ? मतदाताओं के या उनके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में ? विधायक, सांसद या प्रधानमंत्री के  बारे में चर्चा करने का अपना महत्व हो सकता है,लेकिन यह एक मात्र महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है ।
    महत्व की बात तो यह है कि हर चुनाव के बाद आम लोग मजबूत हों और लोकतंत्र मजबूत हो, न कि केवल सत्ताधारी या विपक्षी दल । यह एक चिंता का विषय है कि हम चुनाव प्रचार की अंधी दौड़ में कहीं सत्ता के असली हकदार मतदाता को गौण बनाकर, उसे बहला-फूसलाकर , ललचाकर, खरीदकर, डरा-धमकाकर और या नशे में चूर कर उसका मत हासिल कर सिर्फ राजनीतिक दलों को ही मजबूत कर रहे हैं । कोई भी दल कभी भी राष्ट्र से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हो सकता एवं उम्मीदवार कभी भी मतदाता से महत्वपूर्ण नहीं हो सकता । इसलिए राष्ट्र का महत्व समझकर सभी दलों को देश के  मूलभूत प्रश्नों पर अपनी नीति घोषित करनी चाहिए । चुनाव जीतकर सत्ता में आ जाने के बाद उस दल की सरकार इन मूलभूत सवालों को हल करने का काम कैसे कर रही है, इस बात की चौकीदारी मतदाताओं को करनी चाहिए ।
    तात्कालिक और दीर्घकालिक मूलभूत प्रश्नों के चयन में विवेक रखना होगा । भ्रष्टाचार नाबूद (नष्ट) होना चाहिए और इस बारे में एकमत होना चाहिए । भ्रष्टाचार में शामिल दोनों प्रकार के  लोग एक तो जो घूस लेते हैंऔर दूसरे जो देते हैं - दोनों को रोकने के  कार्यक्रम बनाने चाहिए । महंगाई पर अंकुश लगना चाहिए और इसके लिए संबंधित राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कारणों पर काबू पाना चाहिए । इसी प्रकार, देश के ग्रामीण और शहरी बेरोजगार युवकों को रोजगार देना यह एक मूलभूत सवाल है । देशी या विदेशी कंपनियों को खनिज के दोहन के लिए खुली छूट देकर उस जमीन पर बसने वाले लोगों को विस्थापित करने की नीति को रद्द किया जाना चाहिए । इसके अतिरिक्त शिक्षा के निजीकरण और व्यापारीकरण के कारण गरीब वर्ग शिक्षा से वंचित हो गया है । इस प्रकार के अनेक मूलभूत सवाल, जो चुनाव के शोरगुल में दब गए हैं, उन्हें आज उठाना निहायत जरूरी हो गया है । 
आम चुनाव - २
बेहतर भविष्य का घोषणा पत्र
सचिन कुमार जैन

    गुजरात के साणंद में १ से ३ फरवरी तक `रोजी रोटी अधिकार अभियान` का पांचवां सम्मेलन सम्पन्न हुआ । इस दौरान जनहित खासकर वंचित वर्गों के अधिकारों की पैरवी करते हुए इस हेतु सतत संघर्ष का संकल्प भी लिया गया ।
    इसी के साथ सांप्रदायिकता और विकास के गुजरात मॉडल को नजदीक से देखा और समझा गया ।  गौरतलब है कि  इस सम्मेलन में न सिर्फ भारत की बल्कि पूरे विश्व विशेषकर दक्षिण एशिया के देशों की सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक स्थिति पर भी विचार किया गया ।
    देश के १५ राज्यों से विभिन्न सामाजिक संगठनों, जनसंगठनों, संस्थाओं और समुदाय के २००० से ज्यादा लोग गुजरात के  साणंद में `रोजी-रोटी अधिकार अभियान` के  सदस्य के रूप में पांचवें अधिवेशन में सम्मिलित हुए । इन सभी ने सामाजिक समानता, शोषण से मुक्ति, बुनियादी अधिकारों को सुनिश्चित करने और बेहतर समाज की स्थापना के  लिए चल रहे सभी अहिंसात्मक जमीनी जनसंघर्षो और आन्दोलनों के प्रति अपनी एकजुटता प्रकट की । सम्मेलन में विभिन्न आंदोलनों एवं संघर्षों में शहादत देने वालों को श्रद्धांजलि अर्पित की गई ।
   अपने घोषणपत्र में अभियान ने स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव, कुपोषण, सतत भुखमरी के शिकार होकर मर जाने वाले बच्चें, महिलाओं, पुरुषों और तीसरे लिंग वाले समुदायों के प्रति संवेदना व्यक्त की । साथ ही उल्लेख किया कि मातृत्व सेवाओं का अभाव महिलाओं का जीवन खत्म कर देता है । इन सबको बचाया जा सकता है। दस्तावेज में उन सभी मेहनतकशों व हजारों किसानों के प्रति भी श्रद्धांजलि अर्पित की गई हैं, जिन्हेंशोषणकारी नीतियों के खिलाफ अपनी आजीविका को बचने का संघर्ष करते हुए आत्महत्या करना पड़ी । साथ ही उन लोगों को भी श्रद्धांजलि दी, जिन्होंने साम्प्रदायिक और जातिगत हिंसा में अपना जीवन खो दिया है ।
    वर्तमान परिस्थितियों की निंदा करते हुए कहा गया कि देश की आजादी के ६७ साल बाद भी बड़ी आबादी को भोजन, पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा, आजीविका और सामाजिक सुरक्षा जैसे बुनियादी हक भी उपलब्ध नहीं हैं ।  इसी के साथ दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, महिलाओं, निशक्तजनों और तीसरे लिंग के लोगों के साथ लगातार हो रहे भेदभाव की भी निंदा की गई ।
    घोषणापत्र में कहा गया कि देश के लोकतंत्र में जिस तरह असहमति व्यक्त करने वालों, जनआन्दोलनों और गरीब समर्थक नीति निर्माण के लिए संघर्ष करने वालों को दबाया जा रहा है, उससे सभी बहुत चिंतित हैं । यहाँ तक कि किसानों, मजदूरों, महिलाओं, धार्मिक अल्पसंख्यकों, छात्रों, युवाओं, लैंगिक अल्पसंख्यकों सहित सभी तबकों के अहिंसक-शांतिपूर्ण जन आन्दोलनों और अधिकार मांगने वाले मेहनतकश लोगों को भी राज्य बहुत ही ताकतवर और क्रूर तरीके से कुचल रहा है । भारतीय लोकतंत्र में विरोध और असहमति व्यक्त करने के लिए दायरा सीमित होता जा रहा है । सम्मेलन में भोजन के अधिकार, लोकतंत्र की मजबूती और सामाजिक न्याय के प्रति संघर्ष जारी रखने की प्रतिबद्धता व्यक्त की गई है ।
    पितृसत्तामक व्यवस्था और महिलाओं के खिलाफ हिंसा के विरुद्ध चल रहे संघर्षों और जनसमर्थक लोकतान्त्रिक राजनीतिक ताकतों के  रूप में संघर्ष कर रहे सभी आन्दोलनों के साथ खड़े होने की प्रतिबद्धता भी व्यक्त की गई । इसी के  साथ डब्ल्यूटीओ, मुक्त व्यापार समझौतों, अन्य अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समझौतों और फसलों पर जीएम तकनीक के प्रयोगों को अनुमति दिए जाने की भर्त्सना करते हुए बताया गया कि इनके माध्यम से देश की खाद्य संप्रभुता की व्यवस्था और संभावनाओं को खत्म करने की कोशिशें की जा रही हैं ।  
    नवउदार पूंजीवाद, भ्रष्ट  शासन व्यवस्था, लोकतांत्रिक मूल्यों को खत्म करने के प्रयासों, प्रकृति संसाधनों की बेशर्म लूट और नागरिक संगठनों के  संघर्षों का गला घोंटने की सरकारों की लगातार चल रही कोशिशों के  परिणामस्वरुप ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूत इमारत खंडहर हो गयी है और सरकार पर से लोगों का भरोसा उठता गया है । आजादी के बाद अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ था । अमीरों के  उपभोग के लिए लोगों के आजीविका के संसाधनों और सार्वजनिक-निजी साझेदारी के नाम पर सामुदायिक संपत्तियों को छीने जाने और कारपोरेट समूहों के लाभ के लिए देश के प्राकृतिक संसाधनों को बांटे जाने की नीतियों और कामों की कड़ी भर्त्सना की गई ।
    `गुजरात के कथित विकास मॉडल` को पूरी तरह से खारिज करते हुए बताया गया कि `गुजरात के शोषणकारी विकास मॉडल` ने न केवल असमानता को और बढ़ाया है, बल्कि नवउदार पूंजीवादी व्यवस्था के  साथ-साथ पितृसत्तामक ताकतों को भी ज्यादा मजबूत किया है । इसके अलावा यह विकास मॉडल गरीब और हाशियों पर खड़े समुदायों के विरोध को कुचलेगा एवं हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक एवं जनकल्याणकारी ताने-बाने को नेस्तनाबूत कर देगा । ऐसी ताकतों के खिलाफ गुजरात में चल रहे संघर्षों और आन्दोलनों के साथ एकजुट रहने और संघर्ष में उनके साथ रहने की भी घोषणा की गई ।
    सभी मेहनतकशों की ओर से कहा गया कि हम सबने खेती की व्यवस्था को संरक्षित किया है । देश की किसान आधारित खाद्य सुरक्षा और संप्रभुता ही हमारी व्यवस्था की रीढ़ है और ये ही हमारे जनसंघर्ष की मूल ताकत है । अतएव सभी मेहनतकश वर्गोंा के इज्जत से जीवन जीने के लिए आवश्यक वेतन, काम की सुरक्षा, बेहतर और शोषण मुक्त  मानवीय कार्यदशाएं, श्रम कानून के कोर क्रियान्वयन और सामाजिक सुरक्षा (जिसमें पेंशन, मातृत्व  लाभ, स्वास्थ्य सेवा समाहित हैं) हेतु प्रभावी कानूनी अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष करने और इस मंतव्य से चल रहे संघर्षों को समर्थन देने का भी प्रण लिया गया । यह मान्यता भी दोहराई गई कि खाद्यसुरक्षा को केवल खाद्य संप्रभुता से ही प्राप्त किया जा सकता है । इसके अलावा मांग की गई किसभी बच्चें, पुरुषों, महिलाओं और तीसरे लिंग से सम्बंधित लोगों को पर्याप्त, विविधता और गुणवत्ता पूर्ण पोषक भोजन सहित अनिवार्य सेवाएं मिलना चाहिए ।
    घोषणापत्र में स्वीकार किया गया कि कई राज्यों में अभियान के  लगातार संघर्ष और समन्वित प्रयासों के चलते लोगों के बुनियादी अधिकारों (जैसे रोजगार गारंटी, व्यापक सार्वजनिक वितरण प्रणाली, विद्यालयों में मध्यान्ह भोजन, लोकव्यापिकृत आईसीडीएस, मातृत्व लाभ और सामाजिक सुरक्षा पेंशन आदि) को हासिल करने में उल्लेखनीय सफलता मिली है । यह संघर्ष उर्जा भी देता है । प्रपत्र में मांग की गई कि प्राकृतिक आपदाओं, सांप्रदायिक-जातिगत हिंसा एवं विस्थापन से प्रभावित लोगों की आजीविका और पोषण सहित खाद्य सुरक्षा का हक सुनिश्चित किया  जाए ।
    दक्षिण एशिया खासतौर पर मध्य और उत्तर-पूर्वी भारत, कश्मीर घाटी, उत्तरी श्रीलंका, युद्धग्रस्त अफगानिस्तान आदि क्षेत्रों के उन लोगों को जिनकी जिंदगियां टकराव और हिंसा ने छीन ली है, के संघर्षों को याद करते हुए कहा गया कि खाद्य सुरक्षा के  अधिकार को संरक्षित करने के लिए शान्ति अनिवार्य है । इस क्षेत्र में शांति बहाल करने, नागरिक स्वतंत्रता सुनिश्चित  करने, लोकतान्त्रिक तरीकों से संघर्ष-प्रदर्शन करने और टकराव को खत्म करने के  लिए स्थान सुरक्षित होना चाहिए ।
    लोगों के भोजन और अन्य संबधित हकदारियों के लिए एकजुट संघर्ष के अभियान को जारी रखने की प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए, खाद्य संप्रभुता और जल-जंगल-जमीन जैसे संसाधनों के संरक्षण, किसानों और कृषि के संरक्षण, वंचित समूहों के मुद्दों और लोकतंत्र को सुरक्षित करने की दिशा में अभियान को आगे ले जाने का संकल्प भी लिया गया । भोजन के अधिकार को हासिल करने के लिए चल रहे वैश्विक आन्दोलनों के  साथ एकजुटता अभिव्यक्त करते हुए और भोजन के  अधिकार के लिए दक्षिण एशियाई आंदोलन के लिए काम करने का  भी निर्णय इस सम्मेलन में लिया  गया ।
हमारा भूमण्डल
पूंजीवाद का यथार्थ
कश्मीर उप्पल

    पिछले बीस वर्षों के आर्थिक उदारीकरण ने भारत में आर्थिक खाई को और चौड़ा किया है । प्रति व्यक्ति आय में असमानता लगातार बढ़ रही है और अत्यधिक शहरीकरण सामान्य जीवनशैली को तहस नहस कर रहा है । पूंजी का अत्यधिक दबाव इसका एक प्रमुख कारण है। अतएव अब यह आवश्यक है कि पूंजीवाद के साथ ही साथ आर्थिक विकास के इतिहास को भी सिलसिलेवार ढंग से समझा जाए । 
    ब्रिटेन, फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन और हालैण्ड जैसे अनेक यूरोपीय देश जिस समय नये-नये उपनिवेश स्थापित कर रहे थे, ठीक उसी समय वे आपसी युद्धों  मंे  भी व्यस्त थे । इसी दौरान मंे यूरोप में दो तरह की क्रान्तियां हो रही थीं । एक वैज्ञानिकऔर दूसरी वैचारिक । हाब्सन के अनुसार पूंजीवाद के विकास में सबसे प्रमुख भौतिक घटक मशीनें थीं । जेम्स वाट द्वारा भाप से मशीनें चलाने के अविष्कार के  फलस्वरूप ब्रिटेन संसार का सबसे अधिक शक्तिशाली राष्ट्र बन गया था । जेम्स वाट और मैथ्यू वाल्टन ने सन् १७८५ और १८०० के बीच भाप के  २८० एंजिन बनाए थे । इनका उपयोग कई उद्योगों और भाप से चलने वाले जहाजों में किया गया था । भाप से चलने वाले इंजिनों की ताकत से ही ब्रिटेन ने फ्रांस, स्पेन और हालैण्ड आदि को युद्ध और व्यापार दोनों में हराया था । औद्योगिक क्रान्ति के दौरान ही ब्रिटेन की अधोसंरचना स्थापित हुई थी । इसके  अन्तर्गत महत्वपूर्ण नगरों, बन्दरगाहों, आन्तरिक जल, रेल, सड़क आदि के  साधनों का विकास हुआ था ।
     ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति में 'के` का फ्लाइंग शटल, हारग्रीब्ज की स्पिनिंग जैनी, रिचर्ड आर्कराइट का वाटरफ्रेम, क्रॉम्पटन का म्यूल, एडमंड कार्टराइट का पावरलूम आदि प्रमुख     थे । इन मशीनों के चलन से ही कारखाना-पद्धति उत्पादन प्रणाली की नींव पड़ी थी । औद्योगिक क्रान्ति के  फलस्वरूप औद्योगिक क्षेत्रों का विकास, बैंक और बीमा संस्थानों का जन्म, संयुक्त पूंजी कंपनियों  क ा उदय और कृषि का यंत्रीकरण जैसे बड़े परिवर्तन हुए । औद्योगिक क्रान्ति से एक और बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि इसके  फलस्वरूप राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय व्यापार का कार्य व्यापारियों के हाथों से निकलकर उद्योगपतियों के हाथों मंे आ गया ।
    इंग्लैण्ड मंे औद्योगिक क्र्रान्ति सन् १७६० मंे शुरु हुई थी जबकि यूरोप के अन्य देशों में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इसका प्रभाव पड़ना शुरु हुआ था । १९वीं शताब्दी के अन्त में अमेरिका, जर्मनी और जापान ने ब्रिटेन के औद्योगिक नेतृत्व को चुनौती दी । सन् १७७६ में संयुक्त राज्य अमेरिका ने स्वयं को ब्रिटेन की सत्ता से मुक्त कर लिया था । अमेरिका में स्वतंत्रता के  बाद नई पूंजी मुख्यत: राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय यातायात और व्यापार मंे लगाई गई । अमेरिका के समुद्री जहाजों ने ही सर्वप्रथम ब्रिटेन की सामुद्रिक शक्ति को चुनौती दी थी ।
    अमेरिका मंे सन् १८६९ में अमरीकी महाद्वीप के एक कोने से दूसरे कोने तक जाने वाली पहली रेल लाइन बनकर तैयार हो गई थी । इसी के साथ अमेरिका मंे भी आर्थिक विकास हेतु एक सुदृढ़ आर्थिक ढांचा बनकर तैयार हो गया था । वर्तमान में अमेरिका ही पूंजीवादी देशों का नेतृत्व कर रहा है । १९वीं शताब्दी के अन्त तक अमेरिका ने औद्योगिक क्षेत्र में प्रत्येक यूरोपीय देश को पीछे छोड़ दिया था । यह कहा जाता है कि पूंजीवाद की जड़ें ब्रिटेन की भूमि मंे हैं परन्तु वह अपने वास्तविक स्वरूप मंे अमेरिका में जीवित है । अमेरिका को पूंजीवाद का 'नर्व सेन्टर` (स्नायु तंत्र) माना जाता है ।
    पूंजीवाद को प्रथम विश्वयुद्ध के बाद सन् १९२९ की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी ने और द्वितीय विश्वयुद्ध ने प्रमुख रूप से प्रभावित किया । जॉन वैजे के  अनुसार पूंजीवाद का भविष्य निरन्तर परिवर्तन होती तकनालॉजी मंे निहित       है । पूंजीवाद की विशाल उत्पादन क्षमता की कार्ल मार्क्स ने भी एक प्रकार से प्रशंसा की है । कार्ल मार्क्स के अनुसार 'मुश्किल से अपने एक शताब्दी के  शासनकाल में पूंजीपति वर्ग ने जितनी शक्तिशाली और जितनी प्रचंड उत्पादक शक्तियां उत्पन्न की हैं, उतनी पिछली तमाम पीढ़ियों मंे मिलाकर भी सामने नहीं आई हैं ।
    आज पूंजीवादी व्यवस्था एक ओर उभार पर भी है और दूसरी ओर वह संकट मंे भी है । सं.रा. अमेरिका में ओबामा के हेल्थकेयर कानून २०१०, बैंक, बीमा और रीयल स्टेट के संकट नए रूप में इसे प्रभावित कर रहे हैं । गौरतलब है कि इन संकटों को अमरीकी शासकीय सहायता के द्वारा हल करने की कोशिश समाजवादी व्यवस्था के  मॉडल का अनुकरण करने की प्रक्रिया लगती है। वैसे पूंजीवादी व्यवस्था मंे सरकारी नियंत्रण कोई नई बात नहीं है । पूंजीवादी व्यवस्था मंे सुधार लाने के  लिए पूंजीवादी देशों में भी कई तरह के  नियंत्रणों का उपयोग किया जाता है । परंतु इन नियंत्रणों को केन्द्रीय नियोजन नहीं कहा जा सकता । उदाहरणस्वरूप संयुक्त राज्य अमेरिका में १९३४ तक संरक्षणात्मक तटकर लगाया गया । राष्ट्रपति निक्सन ने सन् १९९१ मंे स्वर्णकोषों मंे निरंतर कमी को रोकने तथा मुद्रा प्रसार मंे कमी करने के लिए मजदूरी और कीमतों पर प्रभावी नियंत्रण लगा दिये थे। लेकिन आज अमेरिका विकासशील देशोंे के इन्हीं कदमों का विरोध करता है ।
    अमरीका और यूरोप के  पूंजीवादी देशों मंे औद्योगीकरण केवल इन देशों के आर्थिक विकास में परिवर्तन का साधन नहीं रह गया है। आज के  पूंजीवाद ने एक देश के भीतर और बाहर की दुनिया को आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से बदलना शुरु कर दिया है । पूंजीवाद के प्रथम चरण मंे बड़े पैमाने के उत्पादन ने बाहरी बाजारों की खोज को आवश्यक बनाया था । पूंजीवाद के  दूसरे चरण में बड़े पैमाने के उत्पादन के  साथ-साथ तकनीकी एकाधिकार ने बाहरी बाजारों पर नियंत्रण को स्थापित कर दिया है । इसी 'खोज` और 'नियंत्रण` मंे विश्व संकट के बीज छिपे हैं ।
    विश्व की वर्तमान स्थिति पर महान साहित्यकार आक्तावियो पाज का यह कथन सर्वोत्तम टिप्पणी है ''विचारधाराएं समाज के चेहरे पर पड़ा हुआ छद्म परदा है और यह परदा धीरे-धीरे उठ रहा है । विचारधाराओं का युग अब समाप्त हो रहा है ।
 विशेष लेख
अस्तित्व से जूझता राष्ट्रीय पक्षी मोर
नरेन्द्र देवांगन

    केन्द्र सरकार की गलत नीतियों ने भारत के राष्ट्रीय पक्षी मोर के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है । केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने मोरपंखों की खरीद व परिवहन की खुली छुट देकर मोर के शिकार का रास्ता खोल दिया है । मोरपंखों के व्यापार की छूट होने के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इंडियन पिकॉक के नाम से मशहूर भारत के मोरपंखों की इटली, फ्रांस, डेनमार्क व अमरीका में बेहद मांग के चलते मोरपंखो की तस्करी को बढ़ावा मिला है । आज तक ढीले-ढाले रवैये के चलते वन व पुलिस विभाग दस-बीस शिकारियों को भी नियमों के तहत सजा नहीं दिलवा पाए हैं और न जुर्माना वसूल सके हैं । पंखों की तस्करी के धन कमाने की लालसा का यही हाल रहा, तो मोर के दर्शन दुर्लभ हो जाएंगे । 
     १९६० में टोक्यो में पक्षियों का परीक्षण करने वाली अंतर्राष्ट्रीय परिषद की बैठक में प्रस्ताव पारित किया गया था कि प्रत्येक राष्ट्र अपना राष्ट्रीय पक्षी घोषित करें । इसी प्रस्ताव के तहत १९६३ में जनवरी के अंतिम सप्तह माघ मास की पंचमी के दिन भारत सरकार ने मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया था । मोर को पक्षियों का राजा भी कहा जाता है । भारत सहित श्रीलंका और म्यांमार में भी मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया हैं । सौदर्य का प्रतीक मोर राजा-महाराजाआें के दरबार की शोभा बढ़ाने वाला रहा है । सुन्दर पंखों वाला मोर कलासाधकों की कलाकृतियों में प्रमुख स्थान रखता है ।
    मोर दुनिया का सर्वाधिक सुन्दर पक्षी है । इसमें सुन्दरता, आत्मबल, धैर्य, मैत्री आदि भावनाआें का समागम मिलता है । अन्य जन्तु प्रजातियों के समान मोर में भी नर सुन्दरता में मादा से बाजी मार ले गया है । नर पक्षी की देह दुम सहित करीब दो मीटर लंबी होती है, जबकि मादा एक मीटर से ज्यादा बड़ी नहीं होती । मादा का पूरा बदन भूरा मटमैला और अनाकर्षक होता है, जबकि नर उन्नत ग्रीवा, सिर पर काली कलगी, मायल भूरे पंख और अद्भुत रंग विधान में रंगे पुच्छ-पंखों सहित बहुत ही मनोहारी दिखाई देता है ।
    मोर को सर्द और गर्म दोनों ही तरह की जलवायु प्रिय है । इसीलिए यह हमारे देश में प्राय: सब जगह पाया जाता है । हिमालय के पहाड़ों में भी डेढ़ हजार मीटर की ऊंचाई तक मोर का मिल जाना सामान्य बात है । मुगल बादशाहों की तरह ही मोर के हरम मेंभी तीन से पांच तक रानियां होती हैं । वर्षा ऋतु इस पक्षी का जननकाल होता है । उस समय कामातुर नर मादा के सामने मस्त होकर नाचता है । उसके आतुर कंठ से निकली पीहू....पीहू की आवाजें भीगे मौसम को और अधिक मादक बना देती हैं । अंतत: मोरनी मोर के नृत्य पर रीझकर उसे अपनी देह समर्पित कर देती है । कुछ समय पश्चात वह जमीन पर बने घास-फू स के घोंसले में ६-७ अंडे देती है । अंडों और बाद में बच्चें की संभाल का सारा भार मोरनी पर ही आता है । मोर इस कठिन समय में निष्ठुर बनकर पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुंह  मोड़ लेता है ।
    स्वभाव से मोर बहुत चतुर पक्षी है तथा इसके आंख व कान बहुत तेज होते हैं । जरा-सा खटका होते ही नर-मादा सम्मिलित रूप से पीहू....पीहू चिल्लाकर आसमान सर पर उठा लेते  हैं । शत्रु को निकट पाकर, ये पंखों को फटकारते हुए तुरंत ऊपर उड़ जाते हैं । इनकी उड़ान शुरू में तो धीमी होती है, लेकिन कुछ देर बाद ये अच्छी गति से उड़ने लगते हैं ।
    मोर पूरे दिन खेतों में घूमता रहता है । यह सर्वभक्षी जीव है और अनाज के अतिरिक्त मेढ़क, कीड़े-मकोड़े, छोटे सांप आदि सब कुछ खा जाता है । सांझ ढले तक खूब खाकर यह पेटभर पानी पीता है, और फिर चैन से अपने रैन बसेरे की राह लेता है ।
    मोर मनुष्यों की बस्ती के आसपास रहते हैं । ग्रामीण लोगों का अपार स्नेह पाकर मयूर बहुत ढीठ स्वाभाव का हो गया है और खड़ी फसल से उड़ाने पर भी नहीं उड़ता । यह जानता है कि ग्रामीण उसे मारेंगे नहीं, इसलिए इसके पास पहुंचना आसान होता है । ये बहुत अधिक दूर या ऊंचाई पर नहींउड़ सकते व नियत स्थानों पर रात बिताते  हैं । इसलिए शिकारियों के लिए इनको निशाना बनाना आसान होता है । अत: मोर धीरे-धीरे विलुप्त् होता जा रहा है । शिकारियों का कहना है कि इन्हें पकड़ना मुश्किल भी हो, तो जहरीला दाना डाल देते हैं ।
    सूखे के कारण राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, उत्तरप्रदेश में भारी संख्या में मोरों का शिकार हो रहा है । प्राकृतिक  रूप से झड़ने वाले मोरपंख पर खून नहीं लगा होता । शिकारियों द्वारा मोरों की हत्या कर मोरपंखों को नोचे जाने पर खून लगा होने के कारण उसका कुछ हिस्सा काट दिया जाता है । डीडीटी के अंधाधंुंध छिड़काव तथा कीटनाशकों से उपचारित बीजों के कारण भी मोर मारे जाते हैं ।
    कहने को राष्ट्रीय पक्षी मोर की हत्या को गैर जमानती माना गया है । वन्य जीव संरक्षण अधिनियम १९७२ के तहत मोर को अनुसूची-१ में श्रेणीबद्ध किया गया है । अनूसूची-१ में श्रेणीबद्ध पक्षियों के प्रति किसी भी अपराध के लिए १ से ७ वर्ष का कठोर कारावास व ५० हजार से लेकर ५ लाख रूपये तक का जुर्माना हो सकता है । लेकिन पुलिस व वन विभाग की ढिलाई व कड़े कानूनों की अनदेखी के कारण समूचे देश में प्रतिदिन लगभग २०० मोरों का शिकार हो रहा है या उनकी हत्या हो रही है । अकेलेराजस्थान में प्रतिदिन औसतन १० मोर मारे जाते हैं ।
    कई जीवों की तरह मोर भी लोगों की चिकित्सा-मान्यता का शिकार है । पंजाब के देहाती इलाकों में मोरपंखों का उपयोग दवा के रूप में भी होता है । मान्यता है कि सांप द्वारा डसा हुआ व्यक्ति यद इन पुखों को सुलफी में भरकर पी ले, तो उसके शरीर से सांप का जहर उतर जाता है । यह कहां तक सच है, कहना कठिन है ।
    भारतीय जन जीवन के हर पक्ष के साथ मोर बहुत गहराई से जुड़ा है । प्राचीन भारत में मौर्य और गुप्त् वंश के सम्राट तो इस पक्षी को संरक्षक के रूप में पूजते थे । उस समय की भारतीय मुद्राआें पर मोर का ठप्पा अंकित होता था । सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों से पता लगता है कि मोर को उस समय लोग देवता के रूप में पूजते थे ।
विज्ञान हमारे आसपास
सीएफएल: बचत के साथ साइड इफेक्ट्स
जी.अनंतकृष्णन

    बिजली की बचत करने वाले फ्लोरेसेंट लैम्पस की लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही है, लेकिन इससे निकलने वाले घातक अपशिष्ट पदार्थो के सुरक्षित निस्तारण को लेकर कोई पहल नहीं की गई है । इस वजह से यह पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य के लिए एक बड़ी समस्या बनती जा रही है ।
    हवा, मिट्टी और पानी में धीरे-धीरे लगातार जो पारा घुलता जा रहा है, उससे स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है । लेकिन ऐसा लगता है कि हमारे नीति निर्धारकोंको इसकी कोई चिंता नहीं है । हमारे देश में हर साल बड़ी मात्रा में घातक और जटिल धातु नगर निकायों के लैंडफिल्स (कचरा भराव स्थलों) और हवा में छोड़ी जा रही है । यह धातु और कोई नहीं, बल्कि पारा है जो तथाकथित ग्रीनसोर्स  फ्लोरेसेंट लैम्प्स से निकल रही है । आज देश में बिजली की मांग और कार्बन उत्सर्जन में कमी करने के प्रयास के तहत करोड़ों की संख्या में इन फ्लोरेसेंट लैम्प्स का इस्तेमाल किया जा रहा है । 
     भारत में फ्लोरेसेंट ट्यूबलाइ्टस (एफटीएल) और कॉम्पैैक्ट फ्लोरेसेंट लैम्प्स (सीएफएल) के घरेलू उत्पादन में हर साल आठ टन पारे का और आयातित सीएफएल में तीन टन पारे का इस्तेमाल किया जाता है । पर्यावरण व वन मंत्रालय भी स्वीकार करता है कि जितनी तेजी से इन लैम्पों की लोकप्रियता बढ़ी है, उसके मुकाबले उससे निकलने वाले जहरीले अपशिष्ट पदार्थो के निस्तारण की दिशा मेंबहुत कम काम किया गया है ।
    आज से पांच साल पहले पर्यावरण व वन मंत्रालय ने इस मामले में फ्लोरेसेंट लैम्प के संदर्भ में पारे के पर्यावरण अनुकूल प्रबंधन को लेकर एक कार्यबल गठित किया था । इस पैनल की रिपोर्ट बहुत ही स्पष्ट है । इस मुद्दे को अब और अधिक नहीं लटकाना चाहिए और लैम्प्स की अवधि खत्म होने के बाद उसके जहरीले अपशिष्ट पदार्थो के निस्तारण का दायित्व उद्योग व सरकार दोनों को उठाना चाहिए ।
    यह सर्वाविदित है कि जब पारा उसके यौगिक मिथाइल मरक्यूरी में तब्दील हो जाता है तो वह मछलियों में संचित होने लगता है । जब ये मछलियां खाई जाती है तो मानव के स्वास्थ्य, खासकर भ्रुण को गंभीर नुकसान पहुंचता है । पारे की वाष्प जब सांस में जाती है तो इससे भी कई स्वास्थ्य संबंधी लक्षण उभरते हैं । अन्य स्वास्थ्य संबंधी प्रभावों पर भी इस समय शोध जारी है ।
    लैम्पों के निस्तारण की समस्या को मंत्रालय के कार्यबल ने भी स्वीकार किया है । कार्यबल की रिपोर्ट के अनुसार फेंके गए लैम्पों से निकले पारे का एक अंश हवा में घुल जाता है, जबकि शेष हिस्सा मिट्टी में मिलकर सतही और भूमिगत पानी को प्रदूषित कर देता है । यह समस्या बड़े शहरों में ज्यादा गंभीर है, जहां बाजार में आने वाले कुल ४० करोड़ सीएफएल और २५ करोड़ एफटीएल में से बड़ा हिस्सा खपता है । एक और उल्लेखनीय तथ्य यह है कि विकसित देशों की तुलना में भारत मे बनने वाले फ्लोरेसेंट लैम्पों में पारे की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है । इस बात का खुलासा कई स्वतंत्र शोधकर्ताआें व स्वयं कार्यबल की रिपोर्ट में भी हुआ है ।
    नियमों की बात करें तो भारत में फ्लोरेसेंट लैम्प्स को न तो शहरी अपशिष्ट माना गया है और न ही इन्हें खतरनाक अपशिष्ट पदार्थो की श्रेणी में रखा गया है । पारा और उसके योगिकों को खतरनाक अपशिष्ट पदार्थ (प्रबंधन, संचालन एवं सीमापार परिवहन) नियम २००८ की अनुसूची २ के तहत श्रेणी ए मे ंसूचीबद्ध किया गया है । लेकिन जब इनका उपयोग घरों और कार्यालयों में इस्तेमाल होने वाले लैम्पों में किया जाता है तो जाहिर है कि ये शहरी कचरे में पहुंच जाते हैं ।
    जीवाश्म ईधन, खासकर कोयले को जलाने से वातावरण में उत्सर्जित होने वाले पारे की जो व्यापक समस्या है, उससे उलट फ्लोरेसेंट लैम्प्स मनुष्य जनित प्रदूषण का द्वितीयक स्त्रोत है । इस छोटी लेकिन लगातार बढ़ती समस्या को नियंत्रित करना कहीं आसान है बनिस्बत कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्रों से निकलने वाले पारे को नियंत्रित करना ।
    आश्चर्य की बात तो यह है कि न तो केन्द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय और न ही राज्य सरकारें ने इस समस्या से निपटने के लिए अपनी ओर से कोई बड़ी पहल की है । दिसम्बर २०११ में तत्कालीन केन्द्रीय पर्यावरण व वन राज्य मंत्री  श्रीमती जंयती नटराजन ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में  बताया था कि मंत्रालय और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने राज्य सरकारों को पत्र लिखकर उनसे कहा था कि वे ऐसी रिसाइक्लिंग इकाइयां स्थापित करने के लिए प्रोत्साहन दे जहां फ्यूजड़ सीएफएल और एफटीएल को अच्छी तरह से एकत्र किया जाए और फिर उनसे पारा निकालकर उसे वैज्ञानिक तरीके से रिसाइकिल किया जाए ।
    राज्य सरकारें शहरी ठोस अपशिष्ट पदार्थ (प्रबंधन एवं संचालन) नियम २००० को ही समुचित रूप से क्रियान्वित नहीं कर पाई है, यहां तक कि सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के तहत भी वे इसमें विफल रही हैं । ऐसे में उन्हें फ्लोरेसेंट लैम्प्स की समस्या का कोई समाधान नजर नहीं आता । चेन्नई नगर निगम के साथ भी यही स्थिति है । यह शहर की सीमा पर बने दो विशालकाय डम्प साइट्स पर रोजाना टनों कचरा डंप करता है । इस लेखक ने सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन देकर चेन्नई नगर -निगम से यह जानना चाहा था कि वह फ्यूज्ड फ्लोरेसेंट लैम्प्स और बैटरियों के संग्रहण और उनके निस्तारण के लिए क्या तरीके अपनाता है । इसका जवाब उसने इस तरह से दिया - ये आइटम शहरी ठोस अपशिष्ट पदार्थो की श्रेणी में नहीं आते और इसलिए यह चेन्नई नगर-निगम की जिम्मेदारी नहीं हैं । हालांकि सच तो यह है कि ये लैम्प्स हर जगह निगम की कचरा-पेटियों में ही फेंके जाते हैं ।
    इससे यह साफ है कि सरकारी स्तर पर लोगों के स्वास्थ्य के प्रति कितनी उदासीनता व्याप्त् है । अदालतों द्वारा समय-समय पर पर्यावरण संबंधी सवालों पर दिखाई गई सक्रियता के बावजूद राज्यों और उनके प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वातावरण में इस अत्यन्त घातक पदार्थ को छोड़े जाने को लेकर कोई कदम नहीं उठाए हैं । पारे के निस्तारण की यह समस्या हमारे शहरों के लिए एक मौका भी है । इसके जरिए वे न केवल एक समस्या के समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं, बल्कि शहरी ठोस अपशिष्ट पदार्थ नियमों को भी पूरी समग्रता के साथ क्रियान्वित कर सकते है । उपभोक्ता के स्तर पर ही कचरे को अलग-अलग करके और रिसाइकिल होने वाले पदार्थो को संग्रहित करके अपशिष्ट पदार्थो के निस्तारण की पूरी श्रृंखला बनाई जा सकती है । इससे बैटरियों, प्लास्टिक, कांच और धातुआें के रूप में पर्यावरण पर पड़ने वाले दबाव को कम किया जा सकेगा । शहरी ठोस अपशिष्ट पदार्थ नियमों में भी यही व्यवस्था की गई है, लेकिन पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से हमारे यहां इसका क्रियान्वयन ही नहीं हो पाया है ।
    फ्लोरेसेंट लैम्प्स के मामले में एक रास्ता यह है कि इसके खराब होने पर उसे स्थानीय निकायों या किसी भी मान्यता प्राप्त् रिसाइकिल उद्योग को सौंपने पर उपभोक्ता को कुछ नगद राशि प्रोत्साहन स्वरूप मिले । यह राशि एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पॉन्सिबिलिटी (निर्माता की विस्तारित जवाबदेही) सिद्धांत के तहत लैम्प्स निर्माताआें से वसूल की जा सकती है ।
जनजीवन
ज्ञान के सामूहिक सृजन की ताकत 
प्रो. माधव गाडगिल

    विकी सॉफ्टवेयर एक जबर्दस्त नवाचार है जो सहयोगी ढंग से सूचना के निर्माण की इजाजत देता है । इसके रचयिता यदि इसे पेटेंट करा लेते तो खूब पैसा कमा सकते थे । मगर उन्होंने इसे मुफ्त में उपलब्ध करवाया, जिसें चलते विपुल संभावनाएं खुल गई ।
    विश्वकोश यानी एनसाय-क्लोपीडिया सदियों से ज्ञान के सागर रहे हैं और पारंपरिक रूप से ये विशेषज्ञ-निर्देशित व व्यापारिक रूप से तैयार किए जाते रहे हैं । मगर वर्ल्ड वाइड वेब के साथ सृजनात्मक साझा संसाधन जैसी अवधारणाएं पनपीं । यह उन लोगों के लिए एक मंच है जो चाहते हैं कि उनकी रचनाएं - पाठ्य वस्तु, चित्र, संगीत-सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हों सिर्फ मजे के लिए नहींबल्कि परिवर्तन करने के लिए, तर्क करने के लिए, उसे बेहतर बनाने के लिए । यह सकारात्मक फीडबैक की प्रक्रिया है जिसमें रचनाएं और रचनात्मकता में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है । बाजार के पुजारियों को लगता है कि निजी मुनाफे  के खाद-पानी के बगैर सृजनात्मक साझा संसाधन तो सदा बंजर ही रहने चाहिए थे । मगर तथ्य यह है कि पिछले वर्षोंा में यह एक हरा-भरा बगीचा बन गया है, जिसकी देखरेख वे लोग बहुत प्यार से कर रहे हैं जो निजी लाभ से आगे भी देख पाते हैं । 
     विकीपीडिया एक विशाल वटवृक्ष है जो सार्वजनिक बगीचे में फल-फुल रहा है । पहला पेड़ एक सार्वजनिक विश्वकोश -न्यूपीडिया - था जिसे विशेषज्ञों ने तैयार किया था । वह ज्यादा दूर तक नहीं पहुंचा । विशेषज्ञ व्यस्त लोग होते हैं और आम तौर पर निजी मुनाफे की तमन्ना काफी शक्तिशाली होती है । ये लोग इस जन-भावना से प्रेरित उद्यम में नेतृत्व की भूमिका न ले सके ।
    यह समय था जब विकीपीडिया ने यह दबंग निर्णय लिया कि किसी भी विषय पर आलेख में योगदान करने के लिए किसी भी आम व्यक्ति का स्वागत होगा, बशर्तेंा कि यह योगदान सूचना के स्वीकार्य स्त्रोतों पर आधारित हो । लोगों, खासकर विशेषज्ञों को दूसरों की गलतियां निकालने से ज्यादा मजा किसी और चीज में नहीं आता, तो इंटरनेट पर वैध सूचना तक  पहुंचने का एक उम्दा मार्ग यह है कि शुरूआत के लिए वहां कुछ सूचना डाल दी जाए, भले वह गलत ही क्यों न हो ।
    विकीपीडिया सारे आगंतुकों को आमंत्रित करता है कि वे हर आलेख में प्रस्तुत सूचना के हर टूकड़े की जांच करें, गलतियां दूर करें और उसकी गुणवत्ता में सुधार करें । इसने विश्ेाषज्ञों को भी प्रेरित किया और आज वे काफी उत्साह से विकीपीडिया के इस समावेशी, समतामूलक नवाचार में भागीदारी कर रहे हैं ।
    ज्ञान के साझा संसाधन की इस नई संस्कृति में विशेषज्ञ पूर्व की अपनी वर्चस्वपूर्ण, एकाधिकारवादी भूमिका की बजाय सहयोग औा मार्गदर्शन की एक रचनात्मक भूमिका में ढल  गए हैं  । इस प्रकार, विकीपीडिया सूचना का मानक स्त्रोत बन गया है, पेशेवर गणितज्ञों के लिए भी क्योंकि इसमें जो सामग्री है उसे बनाने में कामकाजी गणितज्ञों ने योगदान किया है और विकीबुक्स के रूप में सामूहिक  रूप से गणित की असाधारण पाठ्य पुस्तकेंे विकसित की हैं ।
    इस प्रक्रिया का संतोषजनक परिणाम यह है कि विकीपीडिया पर जानकारी की विश्वनीयता किसी भी व्यावसायिक विश्वकोष के तुल्य रखी जा सकी है जबकि विकीपीडिया पर जानकारी की मात्रा किसी भी व्यावसायिक विश्वकोश के मुकाबले हजारोंगुना ज्यादा है । और सबसे बड़ी बात है कि यह जानकारी एकदम अधुनातन होती है । भारत के पूर्वी तट पर सूनामी के आगमन के चंद घंटों के अंदर विकीपीडिया पर इस घटना की प्रामाणिक तस्वीरेंऔर जानकारी उपलब्ध थी । खुशी की बात है कि सारी प्रमुख भारतीय भाषाआें में अपने-अपने विकीपीडिया हैं और हिंदी, तमिल, तेलुगु में ५०-५० हजार आलेख हैं ।
    आम लोग जब सामूहिक रूप से कार्य करते हैं, तो वे सार्वजनिक भलाई के अद्भुत स्त्रोत साबित होते हैं । दूसरी ओर, यह दुखद तथ्य है कि जब विशेषज्ञों को एकाधिकारवादी भूमिका दी जाती है तो वे सार्वजनिक हित को छल सकते हैं । मसलन, गोवा के खनिज व भूविज्ञान विभाग से उम्मीद की जाती है कि वह नियमित रूप से खदानों का निरीक्षण करे, सही आंकड़े रखे और यह सुनिश्चित करे कि खनन कार्य के कारण अनावश्यक पर्यावरणीय व सामाजिक लागतेंन वहन करनी पड़ें ।         मगर गोवा में गैर-कानुनी खनन के सम्बन्ध में शाह आयोग की रिपोर्ट में बताया गया है कि अधिनियम के तहत निर्दिष्ट ढंग से लौह खदानों का निरीक्षण नहीं किया गया था । इस वजह से इकॉलॉजी, पर्यावरण, खेती, भूजल, तालाबों, नदियों और जैन विविधता को नुकसान पहुंचा । आयोग ने इस सारे नुकसान के लिए स्पष्ट रूप से कई सरकारी विशेषज्ञों को दोषी ठहराया है । मेरा अपना अध्ययप दर्शाता है कि निजी संस्थाआें के विशेषज्ञ  खदानों के पर्यावरण प्रभाव आकलन में गलत जानकारियां देने के दोषी हैं ।
    विकीपीडिया एक विश्वकोष है, उपलब्ध ज्ञान को संग्रहित करने की एक कवायद है । इसके अलावा, सहयोग की इसी समावेशी संस्कृति में नए ज्ञान का सृजन भी उतने ही कारगर ढंग से किया जा सकता है क्योंकि आम लोग अपने अनुभव से काफी कुछ जानते हैं ।
    मैंने इस बात का एक अद्भुत उदाहरण तब देखा था जब में बांस की इकॉलॉजी और प्रबंधन को लेकर फील्ड अनुसंधान कर रहा था । वनकर्मी का निर्देश था कि बांस के तनों के आधार पर से कटींला छिल्का हटाना होगा ताकि अन्य तनों को बढ़ने का मौका मिले । गांव के लोगों  ने मुझे बताया कि यह गलत है, कांटे हटा देने से नए अंकुर गाय-भैसों व अन्य जंगली जानवरों के चरने के लिए खुल जाते हैं । इससे बांस के पेड़ों पर प्रतिकू ल असर पड़ता है । तीन साल तक सावधानीपूर्वक किए गए फील्ड अध्ययन से पता चला कि गांव के  लोग एकदम सही थे ।
    इस तरह की स्थान व समाज सापेक्ष जानकारी को व्यवस्थित रूप से रिकॉर्ड करना बहुत महत्तवपूर्ण हो सकता है । मसलन, ऑस्ट्रेलिया में एक सिटीजन्स रिवर वॉच प्रोग्राम (नागरिक नदी निगरानी कार्यक्रम) है जिसमें स्थानीय लोग नदी के एक हिस्से को अपना लेते हैं और उसकी निगरानी करत हैं । सरकार सारे ऐसे लोगों के लिए एक-दो दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करती हैं । प्रशिक्षण में पानी के प्रवाह और गुणवत्ता का आकलन करने की आसान तकनीकें सिखाई जाती हैं । पानी की गुण्वत्ता का आकलन उसमें उपस्थित जंतुआें के आधार  पर किया जाता है । जैसे डेमसलफ्लाई साफ पानी में ही रहती है जबकि काइरोनोमिड्स अत्यंत प्रदूषित पानी में देखे जाते हैं । असंख्य स्वैच्छिक प्रेक्षक ऐसे आंकड़े अपलोड करते हैं । इसके लिए आसान ऑनलाइन डैटा एंट्री फॉर्म्स बनाए गए हैं । ये आंकड़े सर्व सम्बंधितों द्वारा छानबीन व सुधार के लिए खुले रहते हैं ।
    ऐसे नागरिक-वैज्ञानिक आंकड़ों ने ऑस्ट्रेलिया में नदियों की स्थिति का बढ़िया ज्ञान-कोश तैयार कर दिया है । यदि विशेषज्ञ अपने आप में सिमटकर काम करते रहते तो ऐसा डैटाबेस कभी तैयार नहीं हो सकता      था । विशेषज्ञों की संख्या बहुत कम है, वे बहुत खर्चीले हैं और उन्हें एकाधिकारवादी भेमिका देना खतरनाक हो सकता है । इसके अलावा, आंकड़ों के संग्रह और जांच में सारे सम्बन्धित नागरिकों को शामिल  करने से यह सुनिश्चित हो जाता है कि गलतियां, जानबुझकर की गई गलतबयानी समेत, तुरंत पकड़ में आ जाती हैं । ऐसे नागरिक-विज्ञान प्रोजेक्ट आज दुनिया भर में जड़ें जमा रहे हैं । केरल के लोगों को गिट्टी खदानों के बारे में कोई समुचित डेटाबेस नहीं है । इनमें से अधिकांश कथित रूप से गैर-कानूनी हैं, पर्यावरण के लिए विनाशकारी हैं और सामाजिक रूप से खतरनाक  हैं । आखिर यह केरल ही तो था जहां वैज्ञानिकों ने साइलेंट वेली प्रोजेक्ट का एक खुला व पारदर्शी पर्यावरणीय व टेक्नो-आर्थिक आकलन करके सरकारी संस्थाआें के शिंकजे को तोड़ना शुरू किया था ।
    आज इस नई सदी में पत्थर खदानों का एक डाटाबेस तैयार करने के लिए स्वैच्छिक कार्यकर्ताआें का एक दल आसानी से खड़ा किया जा सकता है क्योंकि आसानी से उपलब्ध जीपीएस उपकरणों की मदद से भौगोलिक स्थिति सही-सही पता चल जाती है और उपग्रह से प्राप्त् तस्वीरें भूमि उपयोग का पैटर्न साफ-साफ दर्शा देती हैं - पत्थर खदानें, उनसे प्रभावित जलमार्ग, उनके द्वारा शुरू किए गए  भुस्खलन, और उनके द्वारा नष्ट किए गए खेत व प्लांटेशन । स्थानीय बाशिंदे शामिल होकर तेजी से जरूरी भौगोलिक आंकड़े इकट्ठे कर सकते हैं और साथ ही इनके द्वारा उत्पन्न रोजगार, अन्य आर्थिक प्रभाव, सामाजिक, व स्वास्थ्य सम्बन्धि असर की विस्तृत जानकारी भी जुटा सकते हैं । वे यह भी पता कर सकते हैं कि क्या सम्बन्धित ग्राम सभा इस उद्यम का समर्थन करती है या विरोध करती है । यदि केरल शास्त्र साहित्य परिषद और विज्ञान भारती जैसे संगठन प्रयास करें, तो चंद हफ्तों में दही एक समृद्ध व विश्वसनीय डैटाबेस तैयार हो जाएगा ।
    वास्तव में तो यह काम अब तक शुरू भी हो जाना चाहिए था । जैन विविधता कानून, २००२ समस्त पंचायत निकायों को जैव विविधता का लोक रजिस्टर बनाने का अधिकार व निर्देश देता हैं । इस रजिस्टर में वे कई तत्व शामिल होंगे जिनकी चर्चा ऊपर की गई है । पर्यावरण के कारको का प्रत्यक्ष अवलोकन एक महत्तवपूर्ण शैक्षणिक औजार होगा, इस बात को समझते हुए केंद्रीय शिक्षा सलाहकार मंडल (केब) ने उस कार्यक्रम का जोरदार समर्थन किया है जिसके तहत देश भर में छात्रों के पर्यावरण शिक्षा प्रोजेक्ट्स की मदद से वर्ष २००५ तक ऐसा डैटाबेस तैयार करने का लक्ष्य रखा गया था ।
    यही बात ग्यारहवी पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पर्चे में भी कही गई थी । मगर ये औपचारिक प्रावधान किसी काम नहीं आए क्योंकि हमारे शासक राजनीति की तकरीबन ढाई हजार साल पुरानी चीनी संहिताओ ते चिंग की इस बात के कायल हैं, प्राचीन लोग जिन बातों का पालन करते थे, उनके बारे में उन्होंने लोंगो को रोशनी नहीं दी, बल्कि उन्होंने इनका उपयोग लोगों भोंचक्का करने के लिए किया, लोगों पर शासन करना मुश्किल होता है जब उनके पास बहुत अधिक ज्ञान हो । लिहाजा किसी राज्य पर ज्ञान के जरिए शासन करना राज्य को डांवाडोल करने जैसा है । किसी राज्य पर अज्ञान के जरिए राज करने से राज्य में स्थिरता आती है ।
    विश्व के नागरिक आज राष्ट्र-राज्यों के कई कुप्रबंधित जहाजों को डांवाडोल करने को तैयार हैं । लोगों द्वारा ज्ञान के उद्यम की बागडोर अपने हाथों में लेना इस क्रांति की दिशा में एक कदम होना चाहिए । केरलको नागरिक-विज्ञान के तरीके को अपनाने में अग्रणी भूमिका निभाते हुए आज के एक महत्तवपूर्ण मुद्दे - ईश्वर के अपने देश में पत्थर खदानों द्वारा पर्वतों की तबाही - पर ध्यान केंद्रित करना होगा ।
पर्यावरण परिक्रमा
खाद्य सुरक्षाके लिए जल संरक्षण जरूरी


    कृषि वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने जल को खाद्य सुरक्षा का आवश्यक तत्व बताते हुए कहा है कि इसकी मात्रा में हो रही कमी के प्रति लोगों को जागरूक किए जाने की जरूरत है ताकि जल संरक्षण को बढ़ावा दिया जा सके । केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति आर.बी. सिंह ने जल दिवस के अवसर पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि जल संरक्षण के लिए नयी नीति बनाने तथा इसके लिए संकल्प लेने के जरूरत है । डॉ. सिंह ने कहा कि भारत में मात्र २० दिनों के लिए जल का भंडारण हो सकता है जबकि अमेरिका में यह तीन वर्ष के लिए है । उन्होनें कहा कि १९५१ में देश में प्रति व्यक्ति ५२०० क्यूबिक मीटर पानी था जो अब घटकर १५०० क्यूबिक मीटर रह गया है ।
    डॉ. सिंह ने कहा कि जल के अंधाधुंध उपयोग के कारण लगभग ६० वर्ष में इसकी मात्रा घटकर एक चौथाई रह गई है । उन्होंने इस स्थिति को बहुत ही खतरनाक बताते हुए कहा कि पंजाब और हरियाणा के कई हिस्सों में भू-गर्भ जल डार्क जोन में पहुंच गया है और उत्तरप्रदेश के अनेक हिस्सों में ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो रही है । उन्होनें कहा कि भू-गर्भ जल का स्तर जब गिरता है तो काफी गहराई से पंप को पानी निकालना पड़ता है जिसके कारण ऊर्जा की खपत अधिक होती है और अपेक्षित मात्रा में पानी भी नहीं निकलता है ।
    डॉ. सिंह ने कहा कि सरकार ने सिंचाई की योजनाआें पर बहुत अधिक राशि खर्च की है लेकिन इन योजनाआें के अधूरी रहने के कारण किसानों को वर्षो से इसका लाभ नहीं मिल रहा है । उन्होनें कहा कि कुछ सिंचाई १५-२० वर्ष पहले शुरू हुई थी जो अब भी अधूरी है । अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान, भारत, श्रीलंका के संयोजक बी आर शर्मा ने कहा कि भू-गर्भ जल की समस्या से जूझ रही पंजाब सरकार ने मई माह में धान लगाने पर रोक लगा दी है और इसकी बुवाई जब जून में होती है । उन्होनें कहा कि इसके कारण नौ प्रतिशत पानी और बिजली की बचत होती है ।   डॉ. शर्मा ने कहा कि वैज्ञानिकों को सिंचाई को लेकर शिक्षित और जागरूक करना चाहिए ।

गंगा में रोज गिरता है ८० मिलियन लीटर कचरा
    काशी नदियों का शहर था, जहां कभी मंदाकिनी, गोदावरी, किरणा और सरस्वती आदि नदियां काशी में प्रवाहमान थी । इनमे पांच नदिया गंगा, यमुना, सरस्वती, ध्रुतपापा और किरणा पंचगंगा घाट पर मिलती थी । लेकिन अब प्रदूषण के चलते गंगा को छोडकर सभी नदियॉ गंदगी का सोता ही रह गयी है । विशेषज्ञों के मुताबिक गंगा में बढ़ते प्रदूषण का कारण इसमें गिरने वाले नालों का पानी, अस्सी और वरूणा नदी से निकलने वाला कचरा भी है ।
    आंकड़ों के मुताबिक वरूणा नदी से प्रतिदिन करीब ८० एमएलडी (मिलियन लीटर डेली) कचरा गंगा में गिरता है । वहीं अस्सी से ३० एमएलडी । अगर सभी नालों को मिलाया जाए, तो ३०० एमएलडी गंदा पानी निकलता है । १०० एलएलडी को ट्रीटमेंट प्लांट के जरिए साफ किया जाता है ।
    पर्यावरण विशेषज्ञ अमिताभ भट्टाचार्य कहते है कि यह शहर नदियों, जलाशयों और नालों का शहर था । वर्तमान में सभी जलाशय और छोटी नदियां विलुप्त् हो गई । फिर भी लोग नहीं चेते हैं ।

भारत वैश्विक आईपी सूचकांक में पिछड़ा

    वर्ष २०१४ के लिए जारी हुए अमेरिकी चैबर्स ऑफ कॉमर्स के अंतराष्ट्रीय बौद्धिक संपदा (आईपी) सूचकांक में भारत को सबसे नीचे जगह मिली है । सूचकांक में २५ देशों को शामिल किया गया है, जहां की अर्थव्यवस्थाआें में पर्याप्त् विविधताएं है । चैबर के वैश्विक बौद्धिक संपदा केन्द्र (जीआईपीसी)  सूचकांक के दूसरे संस्करण की ही भांति भारत का प्रदर्शन सबसे बुरा रहा है । खासकर पेटेंट, कॉपीराइट और अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में भारत का प्रदर्शन अत्यधिक बुरा रहा ।
    चैंबर द्वारा जारी किए बयान के मुताबिक जिन देशों को २०१२ और २०१४ के दोनों सूचकांको में शामिल किया गया है, उनमें भारत का प्रदर्शन सबसे बुरा रहा । क्योंकि भारत ने अपने आईपी माहौल में गिरावटको अनुमति  देना जारी रखा है । रिपोर्ट में कहा गया है कि इन्नोवेश के दशक के घोषित प्रतिस्पर्धी एजेंडे के बाद भी भारत गलत रास्ते पर बढ़ रहा है । वह आईपी अधिकारों का महत्व कम कर रहा       है ।
    इसमें कहा गया है कि बाध्यकारी लाइसेंसों का लगातार उपयोग, पेटेट निरस्तीकरण, कमजोर विधायी और प्रवर्तन प्रणाली इन्नोवेशन को बढ़ावा देने और सर्जक की सुरक्षा करने के भारत की प्रतिबद्धता के प्रति गंभीर चिंता पैदा करती है । सूचकांक में शामिल २५ देशों में से किसी को भी संपूर्ण ३० अंक हासिल नहीं हो पाए, लेकिन अमेरिका को सर्वाधिक २८.३ अंक हासिल हुए है । प्रवर्तन की श्रेणी में हालांकि अमेरिका ब्रिटेन और फ्रांस के बाद तीसरे स्थान पर रहा । रिपोर्ट के मुताबिक चीन की पेटेंट व्यवस्था के कुछ पहलुआें में कुछ सुधार दर्ज किया गया है, लेकिन इसके समग्र आईपी माहोल में चुनौतियां बरकरार है ।

मस्तिष्क  जगाता है भूख
    जीवित रहने के लिए भूख जरूरी है, असामान्य भूख मोटापे का सबब बन सकती है, इतना हीं नहीं खान-पान की अनियमितता अब दुनियाभर में महामारी का रूप ले रही है , इसका समाधान कहीं मस्तिष्क की गइराईयों में छिपा है ।
    शोधकर्ता भूख महसूस करने के रहस्य का खुलासा करते हुए मस्तिष्क की उन जटिलताआें का एक आरेख बना रहे हैं, जो भूख लगने पर खाने की ओर दौड़ती है ।
    मैसाचुसेट्स स्थित बेथ इजरायल डेकोनेस मेडिकल सेंटर (बीआईडीएमसी) के अतन्स्त्राविका (एडोक्रोनोलॉजी) मधुमेह और चयापचय विभाग में अनुसंधानकर्ता र्बेंडफोर्ड लोवेल ने कहा कि हमारा लक्ष्य इस बात को समझना है कि कैसे मस्तिष्क भूख पर नियंत्रण करता है ।
    लोवेले ने कहा कि असामान्य भूख मोटेपे और खान-पान संबंधी विकारों को जन्म दे सकती है, लेकिन असामान्य भूख कैसे गलत है और इससे कैसे निबटा जाए, यह समझने के लिए आपको सबसे पहले यह जानने की जरूरत है कि यह काम कैसे करती है । लोवेल, हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में मेडिसन के प्राध्यापक भी है ।
    निष्कर्ष दिखाता है कि अगौती-पेप्टाइम (एजीआरपी) स्त्रायू (न्यूरॉन) को व्यक्त करता है । अगौती - पेप्टाइम मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस में स्थित तंत्रिका कोशिकाआें का एक समूह है । यह तंत्रिका कोशिका समूह गर्मी की कमी से सक्रिय होता है ।
    जब एजीआरपी पशु मॉडलों में प्राकृतिक या कृत्रिम रूप से प्रेरित किया गया तो इसने चूहे को भोजन की सतत खोज के बाद खाने के लिए प्रेरित किया ।
    भूख ने स्त्रायु को प्रेरणा दी कि परानिलयी गूदे मेंस्थित इन एजीआरपी स्त्रायुआें को सक्रिय करे । लोवेल ने कहा कि इस अप्रत्याशित खोज ने हमें यह समझने में एक महत्वपूर्ण दिशा दी कि आखिर क्या चीज है जिससे हमें भूख लगती है ।

जी.एम. याने खतरे की फसल
    भारत में जीन-संशोधित यानी जीएम फसलों के जमीनी परीक्षण के काफी समय ये चले आ रहे विरोध के बरक्स सरकार और संबंधित कंपनियां लगातार इसके पक्ष में दलीलें पेश करती रही हैं । अनेक अध्ययनों की रिपोर्टोंा में कहा गया है कि जीएम फसलों के खतरों को देखते हुए फिलहाल इसकी इजाजत देना एक घातक फैसला होगा । लेकिन केंद्र सरकार के ताजा रूख से ऐसा लगता है कि वह इस मामले में कुछ अतिक्ति हड़बड़ी में है । एक जनहित याचिका के संदर्भ में दिए गए हलफनामे में सरकार ने इस मसले पर जताई जाने वाली आपत्तियों और आशंकाआें को अवैज्ञानिक नजरिया करर दिया है और जीएम फसलों के जमीनी परीक्षण की देश के विज्ञान और अर्थव्यवस्था के हित में बताते हुए सर्वोच्च् न्यायालय से इनके परीक्षण का रास्ता साफ करने की इजाजत मांगी है । पर्यावरण एवं वन मंत्री वीरप्पा मोइली से पहले इस मंत्रालय की कमान संभालने वाली जंयती नटराजन ने जीएम फसलों के खुले परीक्षण की इजाजत देने के लिए बनाए गए दबाव के सामने झुकने से इनकार कर दिया था । उनसे पहले जयराम रमेश ने भी कई आशंकाएं जाहिर की थी । सवाल है कि जिन वजहों से दो मंत्रियों ने इस मसले पर अपनी आपत्ति जाहिर की थी, क्या उनका समाधान कर लिया गया है ? क्या उनके सामने देश के विज्ञान और अर्थव्यवस्था के हित का प्रश्न महत्वपूर्ण नहींथा ? क्या सरकार उन मंत्रियों के साथ-साथ कृषि मंत्रालय की संसदीय समिति के निष्कर्ष और सर्वोच्च् न्यायालय की ओर से नियुक्त तकनीकी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में जीएम फसलों के खतरनाक होने और उनके जमीनी परीक्षण पर लंबे समय तक पूरी तरह पांबदी लगाने की सिफारिशों को भी वह अवैज्ञानिक नजरिया ही मानती हैं ?
    गौरतलब है कि कृषि मंत्रालय की संसदीय समिति ने वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के एक स्वतंत्र समूह से पूरे मामले की गहन जांच कराने के बाद सर्वसम्मति से पेश रिपोर्ट में साफ कहा था कि जीएम फसलों का जीव-जतंुआें पर खतरनाक असर पड़ता है । लेकिन सरकार शायद इन तमाम रिपोर्टोंा और निष्कर्षोंा को ताक पर रख कर आगे बढ़ना चाहती हैं ।
स्वास्थ्य
आयुर्वेद की कार्य प्रणाली को समझने का प्रयास
डॉ.जी. बालसुब्रमण्यन

    पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां नतीजों को देखती  हैं जबकि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में प्रगति का आकलन क्रिया, कारण ओर प्रभाव की क्रियविधि की समझ पर आधारित होता है ।
    पारंपरिक चिकित्सा और आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों में कई फर्क हैं । पारंपरिक चिकित्सा मूलत: अनुभव-आधारित है जबकि आधुनिक चिकित्सा मूलत:घटकवादी है । पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां प्राचीन हैं और कई सहस्त्राब्दियों से अस्तित्व में हैं जबकि आधुनिक चिकित्सा पद्धति अधिक से अधिक ३०० साल पुरानी है । पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में नतीजों को देखा जाता है जबकि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली क्रिया, कारण और प्रभाव की क्रियाविधि की समझ के आधार पर ओग बढ़ती है । पारंपरिक चिकित्सा सीधे इंसानों पर लागू की जाती है जबकि आधुनिक चिकित्सा में पहले जंतुआें की कोशिकाआें और  अंगों पर जांच होती है और उसके बाद इंसानों पर परीक्षण किए जाते हैं । पारंपरिक चिकित्सा में आम तौर पर स्थानीय वनस्पतियों व जंतुआें का उपयोग किया जाता है जबकि आधुनिक चिकित्सा में अणु पृथक किये जाते हैं, प्रयोगशाला में बनाए जाते हैं और उनका उपयोग किया जाता है । पारंपरिक चिकित्सा में आम तौर पर आसवों  तथा मिश्रणों का उपयोग होता है जबकि आधुनिक चिकित्सा में अक्सर इकलौते यौगिक के अणु का उपयोग किया जाता है । पारंपरिक चिकित्सा में  कई सारी घरेलू औषधियां होती है जबकि आधुनिक चिकित्सा डॉक्टर द्वारा निर्देशित दवाईयों पर निर्भर हैं । पारंपरिक चिकित्सा के साथ एक सस्क्ृितांक पक्ष जुड़ा होता है  जबकि आधुनिक चिकित्सा के साथ ऐसा नहींहै । पारंपरिक चिकित्सा सस्ती होती है जबकि आधुनिक चिकित्सा महंगी होती है । और, जहां पारंपरिक चिकित्सा ग्रामीण क्षेत्रों में  ज्यादा प्रचलित है वहीं आधुनिक चिकित्सा शहरों में ज्यादा आसानी से उपलब्ध है । कई आधुनिक अस्पताल और विशेषज्ञ पारंपरिक चिकित्सा को त्रुटिपूर्ण, अनपरखी और यहां तक कि बेकार मानते हैं । इसके चलते परंपरिक चिकित्सा को हाशिए पर धकेल दिया गया हे, जिसका उपयोग सिर्फ बैक-अप के तौर पर होता है । 
     क्या ये दो कभी मिल       सकेंगी ? क्या आधुनिक रसायन शास्त्र  तथा आणविक व कोशिकीय जीव विज्ञान, जेनेटिक्स और औषधि विज्ञान की अपनी आधुनिक समझ के आधर पर हम यह समझ पाएगें कि पारंपरिक चिकित्सा कैसे काम करती है ? मणिपाल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वलियाथन का लक्ष्य यही है । वे एक मशहुर  ह्रदय सर्जन तो हैंही, चिकित्सा के इतिहास के अध्येता भी हैं । उन्होंने आधुनिक जीव विज्ञान के औजारों का इस्तेमाल करते हुए कतिपय आयुर्वेदिक औषधियों को समझने व तर्कसंगत बनाने का एक कार्यक्रम शुरू किया है । बनारस हिंदू विश्वविद्यालय  के प्रोफेसर सुभाष लाखोटिया इस कार्यक्रम में उनके साथी है । प्रोफेसर लाखोटिया एक प्रतिष्ठित आणविक जेनेआिक्सविद और कोशिका जीव वैज्ञानिक हैं । इस कार्यक्रम के तहत ये दो विद्वान आयुर्वेद के दो नुस्खों - अमलाकी रसायन और रस सिंदूर की क्रियाविधि का अध्ययन कर रहे हैं ।
    इस अध्ययन के लिए उन्होंने प्रसिद्ध कोट्टाक्कल आर्य वैद्य शाला से संपर्क किया और शास्त्रोक्त विधि से उक्त नुस्खे बनवाए । इनमें उपस्थित विभिन्न अवयवों की पहचान के लिए क्रोमेटोग्राफी की आधुनिक विधि का उपयोग किया । इसके आधार पर वे सुनिश्चित कर पाए कि औषधि की विभिन्न खेपोंमें कोई अंतर नहीं होगा ताकि नुस्खे की गुणवत्ता, संघटन व शुद्धता को लेकर कोई संदेह न रहे ।
    इसके बाद उन्होंने तय किया कि वे इंसानों पर नहीं जंतुआें पर प्रयोग करेंगे । इसमें प्रोफेसर लाखोटिया का फ्रुट फ्लाई (ड्रॉसोफिला) के साथ काम करने का अनुभव काम आया । फ्रुट फ्लाई वह नन्ही-सी मक्खी होती है जो प्राय: फलों पर मंडराती है । इसका जीवन चक्र अल्पावधि (एकाध माह) का होता है और इसमें जेनेटिक विविधता खूब पाई जाती है । इल्ली अवस्था में इसमें जेनेटिक परिवर्तन आसानी से किए जा सकते हैं । इस तरह से यह देखा जा सकता है कि किसी जीन को हटा देने या जोड़ देने पर शरीर की सामान्य क्रिया पर क्या असर होते हैं । और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हम ड्रॉसोफिला की शरीर रचना, शरीर क्रियाऔर  कोशिका जीव विज्ञान के बारे में काफी कुछ जानते हैं । लिहाजा हम इस मक्खी के ऐसे मॉडल आसानी से बना सकते हैं जिनमें अलग-अलग बीमारियां हों । एक फायदा यह भी है कि इन मक्खियों का अध्ययन बड़ी संख्या में करना आसान है । ऐसा करके नतीजों का सांख्यिकीय विश्लेषण किया जा सकता है । अर्थात ड्रॉसोफिलापारंपरिक  चिकित्सा के अध्ययन के लिए एक अच्छा जंतु मॉडल है ।
    प्रयोग की पहली श्रृंखला में शोधकर्ताआेंने फ्रु ट फ्लाई को भोजन में अमलाकी रसायन या रस सिंदूर की ज्ञात मात्रा (०-२ प्रतिशत) दी । इसके बाद यह अध्ययन किया गया कि  मक्खियों की आयु, तनाव सहने की क्षमता ( जब वातावरण का तापमान बदल जाए) और भूख सहने की क्षमता पर क्या असर होता है । प्रयोगों से पता चला कि ये दो नुस्खे मक्खी की जीव वैज्ञानिक स्थिति पर काफी असर डालते हैं मगर विशिष्ट स्थितियों में कुछ अंतर होते हैं ।
    अमलाकी रसायन आयु को तब बढ़ाता है जब भोजन में ०.५ प्रतिशत मात्रा में दिया जाए । इससे ज्यादा मात्रा उेसा असर नहीं करती, बल्कि हानिकारक होती है । दूसरी ओर, रस सिंदूर का आयु पर कोई असर नहीं      पड़ा । यह भी ज्यादा खुराक देने पर हानिकारक साबित हुआ । अमलाकी रसायन और रस सिंंदूर दोनों ही प्रजनन क्षमता में इजाफा करते हैं मगर दोनों में कुछ अंतर हैं । रोचक बात यह देखी गई कि रस सिंदूर में पारा होता हे (जो जाना-माना जहर है) मगर रस सिंदूर विषैला नहीं था । समझ में यह आया कि रस सिंदूर बनाने की आयुर्वेदिक विधि में मरक्यूरिक सल्फाइड के नैनो-कण(२५-३५ नैनोमीटर साइज के) बन जाते हैं और इस साइज पर पारा हानिकारक नहीं है । आपकी रूचि हो तो पूरा शोध पत्र आसानी से उपलब्ध है ।
    प्रोफेसर लाखोटिया एक कदम और आगे गए । उन्होंने यह देखने का प्रयास किया कि जेनेटिक रूप से परिवर्तित फ्रु ट फ्लाई पर उक्त औषधियों का क्या असर होगा । इन मक्खियों में ऐसे जेनेटिक परिवर्तन किए गए थे इनमें तंत्रिका क्षति होने लगी थी । लिहाजा ये परिवर्तित मक्खियां अल्माइजर और हटिंगटन रोग के मॉडल बन गई थी । टीम ने पाया कि अमलाकी रसायन और रस सिंदूर की पूरक खुराक देने से इंक्लूजन बॉडीज और एमिलॉइड प्लाक के निर्माण पर रोक लगी  (ये दोनोंअल्जाइमर रोग से जुड़े लक्षण हैं) । ये अघुलनशील कण होते हैं जो तंत्रिका तंत्र में विद्युत संकेतों के चालन में बाधा बन जाते हैं ।
    उक्त रसायनों की पूरक खुराक से एपोप्टोसिस(कोशिका मृत्यु) की प्रक्रियापर भी रोक लगी । ऐसा प्रतीत होता है कि अमलाकी रसायन और रस सिंदूर कतिपय प्रोटीन्स का स्तर बढ़ाने में मदद करत हैं । इन प्रोटीन्स को  हठिछझ कहते हैं । ये जीन की अभिव्यक्ति को ज्यादा सुदृढ़ करत हैं । लाखोटिया व उनके समूह ने करंट साइंस के २५ दिसंबर २०१३ के अंक में प्रकाशित अपने शोध पत्र में निष्कर्ष दिया है कि अमलाकी रसायन और रस सिंदूर आजकल आम होते जा रहे तंत्रिका-क्षति विकारों से समग्र राहत प्रदान कर सकता है ।
    इस अध्ययन से लगता है कि परंपरिक चिकित्सा और आधुनिक चिकित्सा का मेल-मिलाप संभव है और उम्मीद की जानी चाहिए  ऐसे और अध्ययन किए जाएंगे ।
ज्ञान विज्ञान
संवेदना की रफ्तार का मापन

    हाथ पर पिन चुभे तो कितनी देर बाद आपको इस बात का पता चल जाता है ? आप कहेंगे तत्काल पता चल जाता है । उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में यही माना जाता था । आम तौर पर पिन चुभने या गर्म तवे पर हाथ लग जाने वगैरह की प्रतिक्रिया इतनी जल्दी होती है लगता है कि हाथ से मांसपेशियों तक खबर पहुंचने में समय ही नहीं लगता ।
    जब उंगली किसी गर्म चीज पर पड़ जाए, तो आपके द्वारा हाथ हटा लेने की क्रिया मांसपेशियोंमें संकुचन की वजह से होती है ।इसका मतलब है कि उंगली से यह संकेत मांसपेशियों तक पहुंचा होगा । चूंकि यह प्रतिक्रिया काफी तेजी से होती है, इसलिए यह बताना खासा मुश्किल काम है कि इसमें कितना समय लगा । मगर हरमन फॉन हेल्महोल्ट्ज ने इसे नापकर ही दम लिया था । 
     हेल्महोल्ट्ज (१८२१-१८९४) एक भौजिक शास्त्री तो थे ही, साथ ही वे एक चिकित्सक और चित्रकार भी थे । उन्होंने ध्वनि, ऊर्जा के संरक्षण वगैरह  क्षेत्रोंमें उल्लखेनीय काम किया । इसके अलावा उन्होंने मांसपेशियों द्वारा किए जाने वाले कार्य और उनमें हो रही आंतरिक क्रियाआें पर भी अनुसंधान  किया था ।
    संवेदना की रफ्तार के मापने के लिए उन्होंने एक विशेष उपकरण बनाया था जिसे हेल्महोल्ट्जपेंडुलम कह सकते हैं ।
    एक मेंडक की एक तंत्रिका को अलग निकाला गया था हालांकि उसे मांसपेशी से जुड़ा रहने दिया गया था । अब करना यह था कि तंत्रिका को एक उद्दीपन देकर देखा जाए कि मांसपेशी कितनी देर बाद फड़कती है ।
    पेंडुलम जब दोलन करता तो अपनी गति के एक खास बिंदु पर वह तंत्रिका को स्पर्श करता था । तंत्रिका को स्पर्श करने का पता दोलक की स्थिति से चल जाता था । अब यह देखना होता था कि मांसपेशी कितनी देर बाद    फड़की । यह बात भी दोलक की स्थिति के आधार पर पता की जाती थी ।
    दोलक की लंबाई को बहुत सटीकता से बदला जा सकता था ताकि उसे एक दोलन पूरा करने मेंलगे समय को नियंत्रित किया जा सके ।
    इस उपकरण को इस तरह सेट किया जाता था कि दोलक तंत्रिका को मांसपेशी से अलग-अलग दूरी स्पर्श  करे । इस तरह कई प्रयोगों के बाद हेल्महोल्ट्ज का निष्कर्ष था कि तंत्रिका में संवेदना संकेत २० मीटर प्रति सेकण्ड की रफ्तार से गमन करता है ।
    मुख्य बात यह है कि इस तरह के प्रयोगों ने शरीर क्रिया विज्ञान को भी एक मापन योग्य व तहकीकात के योग्य विषय बनाने में मदद की ।

मछलियोें के रंग जो नजर नही आते

    कई मछलियां हमें तो मामूली नजर आती हैं मगर एक-दूसरे को वे भड़कीले हरे, लाल, नारंगी रंगों में सजी-धजी दिखाई देती हैं । यह खोज न्यूयॉर्क अमेरिकन प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय के वैज्ञानिकों ने मछली विशेषज्ञ जॉन स्पार्क्स के नेतृत्व में की है ।
    स्पार्क्स और उनके साथियों ने पाया कि १८० से ज्यादा मछली प्रजातियों में प्रतिदीिप्त् यानी फ्लोरेसेंस का गुण होता है । इसका मतलब है कि वे एक रंग का प्रकाश अवशोषित करके किसी दूसरे रंग का प्रकाश उत्सर्जित कर सकती हैं । प्लॉसवन नामक शोध पत्रिका में शोधकर्ताआें ने बताया हे कि फ्लैटहेड (कोसिएला हचिंसी) नामक मछली की आंखों में पीले रंग का फिल्टर लगा होता है । कटिबंधीय प्रशांत महासागर में पाई जाने वाली यह मछली अत्यंत आकर्षक होती है । 
     अपने अध्ययन के दौरान शोधकर्ताआें ने बहामा और सोलोमन द्वीप के आसपास के पानी का सर्वेक्षण किया । सर्वेक्षण दल में वीडियोग्राफर्स भी शामिल थे । इसके अलावा, उन्होंने मेडागास्कर, अमेजन और यूएस ग्रेट लेक्स क्षेत्र की मीठे पानी की मछलियों का भी अध्ययन किया ।
    शोधकता्रआें को हड्डी वाली मछलियों और उपास्थि वाली मछलियों दोनों में जैव-प्रतिदीिप्त् के उदाहरण मिले । वैसे प्रकाश उत्सर्जन करने के उदाहरण तो जीव जगत में बहुत मिलते हैं मगर आम तौर पर वह प्रकाश उनके शरीर में होने वाली किसी रासायनिक अभिक्रिया के परिणामस्वरूप पैदा होता है । दूसरी और, जैव-प्रतिदीिप्त् मेंतो बस एक रंग के प्रकाश को दूसरे रंग के प्रकाश में बदला जाता है ।
    सर्वेक्षण से पता चला कि जैव-प्रतिदीिप्त् समुद्री मछलियों में ज्यादा पाइ्रर् जाती है । शोधकर्ताआें का मानना है कि समुद्र कहीं ज्यादा स्थिर पर्यावरण मुहैया कराता है । समुद्र के अंदर मूलत: नीले रंग का प्रकाश ही पंहुच पाता है क्योंकि पानी में से गुजरते हुए सारा प्रकाश तो सोख लिया जाता है ।
    अधिकांश प्रतिदीप्त् मछलियों की आंखों में पीला फिल्टर पाया जाता है । इसकेलते वे  प्रतिदीप्त् प्रकाश को  आसानी से पकड़ पाती हैं । उदाहरण के लिए कुछ समुद्री मछलियां सामाहूकि रूप से पूर्णिमा के आसपास अंडे देती   हैं । ऐसी परिस्थिति में चांदनी में  प्रतिदीप्त् से उत्पन्न प्रकाश में वे एक-दूसरे को पहचान पाती हैं ।
    मछलियों में जैव-प्रतिदीिप्त् की खोज से प्रतिदीिप्त् के इकॉलॉजिकल महत्त्व पर अध्ययन को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी । इसके अलावा यह अध्ययन जीव वैज्ञानिकों को कई नए प्रतिदीिप्त् प्रोटीन का सुराग दे सकता है । गौरतलब है कि १९६० के अशक में जेलीफिश में पाए गए हरे प्रतिदीिप्त् प्रोटीन (जीएफपी) ने जीन अभिव्यक्ति  से जुड़े एड्स जैसे रोगों के अध्ययन का हुलिया बदल दिया था ।

जीव विज्ञान और सृष्टिवाद

    संयुक्त राज्य अमेरिका में जैव विकास के आधुनिक सिद्धांत और सृष्टिवाद का विवाद बरसों से चला आ रहा है । जहां जैव विकास के सिद्धांत की मूल मान्यता है कि जीवों का क्रमिक विकास अरबों सालों में प्राकृतिक चयन के फलस्वरूप हुआ है, वहीं सृष्टिवादी मानते हैं कि ईश्वर ने एकबारगी सारे जीवों की रचना कर दी है । इस विवाद का ताजा प्रकरण संयुक्त राज्य अमेरिका के टेक्सास प्रांत में सामने आया है । 
     जैव विकास बनाम सृष्टिवाद का विवाद यूएस के विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग रूपों में नजर आता है । कहीं यह कानूनी लड़ाई का रूप लेता है, तो कहीं पालकों के विरोध प्रदर्शन का । दिसबंर २००३ में टेक्सास प्रांतीय शिक्षा मंडल के समक्ष यह मामला विचार के लिए प्रस्तुत किया गया था । एक अनाम व्यक्ति ने प्रांत की जीव विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों की समीक्षा करके बताया था कि उनमें कई तथ्यात्मक गलतियां हैं जिन्हें सुधारा जाना चाहिए । दरअसल ये सारे वे तथ्य थे जिन्हें सृष्टिवादी अस्वीकार करते हैं ।
    इस मामले को सुलझाने के लिए शिक्षा मंडल ने तीन जीव वैज्ञानिकों की एक समिति का गठन किया था । बताते हैं कि समिति ने एकमत से कहा कि उन्हें पाठ्य पुस्तक ों में कोई तथ्यात्मक गलती नहीं मिली   है । इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर शिक्षा मंडल ने उपरोक्त समीक्षा को खारिज कर दिया ।
    मंडल के निर्णय का अर्थ है कि जीव विज्ञान की ये पाठ्य पुस्तकें अगले दस सालों तक चलेंगी । यदि टेक्सास में सृष्टिवादी जीत जाते तो आशंका थी कि वे अन्य प्रांतों में भी दबाव बनाएगें ।
    वैसे प्रांतीय शिक्षा मंडल के स्तर पर तो जैव विकास को मान्य करके सृष्टिवाद को अस्वीकार किया गया है मगर यूएस में सृष्टिवादी विचारधारा का काफी बोलबाला है । मसलन, यूएस के पचास प्रांतों में २००० वयस्कों की एक रायशुमारी में पता चला कि ३३ प्रतिशत लोग जैव विकास के विचार से असहमत हैं और ६० प्रतिशत इसका समर्थन करते हैं । यह रायशुमारी वॉशिंगटन के प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा करवाई गई थी ।
    रायशुमारी में एक मजेदार बात पता चली है । जहां मत विभाजन की स्थिति तो लगभग २००९ में किए गए सर्वेक्षण के समान ही रही मगर यह विभाजन थोड़ा राजनैतिक रूप लेता नजर आ रहा है । जो लोग डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवारों या स्वतंत्र उम्मीदवारों को वोट देते हैं उनमें से दो-तिहाई मानते हैं कि जीवों का क्रमिक विकास हुआ है । दूसरी ओर रिपब्लिकन पार्टी के मतदाताआें में से २००९ में ५४ प्रतिशत और २०१३ में ४३ प्रतिशत ही जैव विकास को स्वीकार करते हैं ।
लघु कथा
मनुष्य और जानवर
विष्णु प्रभाकर
    उस दिन उस के मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमा रेखा को देखा जाये जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है ? दो थे तो दोनोंएक दूसरे के प्रति शंकालु थे । दोनों ओर पहरा था । बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता । दोनों उस पर खड़े हो सकत हैं । वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था ...पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक उनका कमांउर भी । दूसरे देश के के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे ? इतना ही नहीं कमांडर ने उसके कान में कहा, उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं पता नहीं क्या हो जाए । आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छ:तस्कर मार डाले थे ।
    उसने उत्तर दिया जी नहीं! मैं उधर कैसे जा सकता हूँ ?
    और मन ही मन कहा, मुझे आप इतना मुर्ख समझते हैं ? मैं इंसान हूँ अपने-पराये में भेद करना जानता हूँ । इसका विवेक मुझमें है ।
    वह यह सब सोच ही रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँआ पहुंचे । रौबीले पठान थे । बड़े तपाक से हाथ मिलाया । उस दिन ईद थी । उसने उन्हें मुबारकबाद कहा । बड़ी गर्मजोशी के साथ एक बार फिर  हाथ मिलाकर वे बोले इधर तशरीफ    लाइये । हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए ।
    इसका उत्तर उसके पास तैयार था । अत्यंत विनम्रता के साथ मुस्कराकर उसने - कहा बहुत-बहुत शुक्रिया । बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर लेकिन मुझे आज ही वापिस लौटना है और वक्त बहुत कम है । आज तो माफी चाहता हूँ ।
    इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ और बातेंहुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलांचे भरता हुआ बकरियों का एक दल उनके पास से गुजरा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया । एक साथ सबने उनकी ओर देखा । एक क्षण बाद उसने पूछा-ये आपकी हैं ? उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया - जी हाँ जनाब हमारी हैं । जानवर फर्क करना नहीं जानते ।
जीव जगत
एक अनोखी मछली की कहानी
डॉ. अरविन्द गुप्त्े

    इस मछली की कहानी की शुरूआत में पहले हमें कुछ बाते समझनी होगी । जुरासिक पार्क नामक अंग्रेजी फिल्म श्रंृखला में एक ऐसा द्वीप दिखाया गया है जिसमें जीवित डायनासौर रहते है । यह केवल एक काल्पनिक कहानी है क्योंकि डायनासौर आज से लगभग साढ़े छह करोड़ वर्ष विलुप्त् हो गए थे और अब उनके जीवाश्म ही पाए जाते हैं ।
    जिस प्रकार डायनासौर अब केवल जीवाश्मों के रूप में पाए जाते हैं उसी प्रकार विलुप्त् मछलियों का एक बड़ा समूह, जिसे एक्टिमिस्टिया कहते हैं, वे भी केवल जीवाश्मों के रूप में पाया जाता है ।  इनके जीवाश्मों ३५ करोड़ वर्ष पुरानी चट्टठानों में मिलते हैं । एक समय में ये मछलियां समुद्र में बहुतायत से पाई जाती थी । इन मछलियों को साधारण भाषा में सीलाकैन्थ कहते हैं । डायनासौरों के समान यह समूह भी लगभग साढ़े छह करोड़ वर्ष पहले ही विलुप्त् हो गया था । इस समूह की मछलियों को जैव विकास की दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है कि उनके शरीर की बनावट इस ओर इशार करती हैं कि मछलियां से धरती पर रहने  वाले जंतुआें का विकास कैसे हुआ   होगा । वैज्ञानिकों की मान्यता है कि ये मछलियां अपने मांसल पंखों की सहायता से जमीन पर चलने लगी और हवा में सांस लेने लगी और इस प्रकार उभयचर जंतुआें (मेढ़क वगैरह) का विकास हुआ । उभयचर जंतुआें के बाद में सरीसृपों, पक्षियों और स्तनधारियों का विकास हुआ । इन मछलियों के जीवाश्म संसार के लगभग सभी बड़े संग्रहालयों में देखे जा सकते हैं । 
     धरती पर रहने वाले जन्तुआें के पूर्वज होने का दावा मछलियांे का एक और समूह करता है । इस समूह की अधिकांश मछलियां भी विलुप्त् हो चुकी है , किन्तु इनकी तीन प्रजातियां संसार के विभिन्न भागों में बच गई हैं । इन मछलियों में फेफेडेनुमा अंग होते हैं जिनकी सहायता से ये मछलियां हवा में सांस ले सकती हैं । जैव विकास से जुड़ी पहेली यह है कि जमीन पर रहने वाले जन्तुआें का विकास फेफड़े वाली मछलियांे से हुआ या दो जोड़ी टांंगो वाली सीलाकैन्थ मछलियों से हुआ ?
    अब हम मूल कहानी पर आते हैं । बात सन १९३८ की है । दक्षिण अफ्रीका के पूर्वी तट पर ईस्ट लंदन नामक एक छोटा सा बंदरगाह है । इस छोटे से कस्बे में एक छोटा सा संग्रहालय है जिसकी संग्रहालय अध्यक्ष मार्जरी लैटिमर नामक ३२ वर्षीय अंग्रेज मूल की महिला थी । मछली पकड़ने वाली एक नाव के कप्तन हेन्उरिक गूजन से उनका परिचय था । जब भी गूजेन समुद्र में मछलियां पकड़ कर लोटते थे तो वे लैटिमर को बुलवा कर पकड़ी गई मछलियां दिखाते थे और संग्रहालय के लायक कोई मछली हो तो सहर्ष भेंट कर ेदेते थे ।
    २३ दिसम्बर १९३८ को गूजेन चालुम्ना नदी के मुहाने से मछलियां पकड़ कर लौटे तो उन्होनें हमेशा की तरह लैटिमर को न्यौता दिया । वैसे तो लैटिमर संग्रहालय से संबंधित किसी अन्य काम में व्यस्त थी, किन्तु उन्होनें सोचा कि उन्हें नाव पर काम करने वाले नाविकों को कम से कम बड़े दिन (२५ दिसम्बर) की शुभकामनाएं तो देना ही चाहिए । वे एक टैक्सी लेकर बंदरगाह पहुंची और नाविकों से बात करके लोट ही रही थी कि उनकी नजर मछलियांे के ढेर के नीचे से झांक रहे एक नीले पंख पर पड़ी । उन्होंने उस पांच फीट लंबी मछली को निकलवा कर देखा । उन्हें लगा कि ऐसी मछली उन्होनें पहले कभी नहीं देखी थी और उसे तुरन्त संग्रहालय में ले जाना चाहिए । किन्तु एक कठिनाई सामने आ गई । टैक्सी ड्रायवर ने उस बड़ी भारी और बदबूदार मछली को ले जाने से मना कर दिया । खैर, काफी जहदोजहद के बाद वह मान गया और मछली संग्रहालय में पहुंच गई । संग्रहालय में उपलब्ध सीमित पुस्तकों को खंगालने पर लैटिमर को लगा कि वह मछली एक विलुप्त् मछली के चित्र के समान दिखाई दे रही थी ।
    तो क्या उनके हाथ एक ऐसी अनोखी मछली आई थी जिसके जीवित होने की कोई संभावना ही नहीं थी ? उन्होनें उस मछली का एक चित्र बना कर पचास मील दूर स्थित ग्राहम्सटाउन स्थित रोड्स विश्वविघालय के प्रोफेसर जे.एल.बी. स्मिथ को भेजा । स्मिथ महाशय थे तो रसायन शास्त्र के प्रोफेसर, किन्तु मछलियों के संबंध में उनके ज्ञान का लोहा सब लोग मानते थे । दुर्भाग्यवश प्रोफेसर स्मिथ उन दिनों छुटि्टयां मान रहे थे । इस बीच लैटिमर के वरिष्ठ अधिकारी यानी ईस्ट लंदन संग्रहालय के संचालक का कहना था कि यह मछली कोई खास नहीं है और इस बदबूदार चीज को संग्रहालय में रखने का कोई फायदा नहीं है । मार्जरी ने मछली को सुरक्षित रखने के लिए उसे एक चादर में लपेट कर फॉर्मलीन में भिगो कर रखा, किन्तु ३-४ दिनों में मछली में सड़न के लक्षण दिखाई देने लगे । तब उन्होनें स्थानीय टैक्सीडर्मिस्ट (जानवरों की खाल में भूसा भरने  वाला)  से उसमें भूसा भरवा लिया । इस प्रक्रिया में सभी आंतरिक अंग निकाल दिए जाते हैं ।
    इस बीच प्रोफेसर स्म्थि को लैटिमर का पत्र और मछली का चित्र मिला । उन्होंने बाद में लिखा कि चित्र देखकर उन्हें लगा था कि जैसे उनके दिमाग में कोई फूटा हो । वे एक ऐसे जंतु को देख रहे थे जिसके बारे में माना जा रहा था किवह करोड़ों वर्ष पहले विलुप्त् हो चुका था । उन्होंने तुरंत लैटिमर को तार भेज कर रहा कि उनके आने तक मछली के आंतरिक अंगों को सुरक्षित रखा जाए । आखिर १६ फरवरी १९३९ को वे ईस्ट लंदन पहुंचे और लैटिमर के कार्यालय मेंएक टेबल पर रखी मछली के ईद-गिर्द कई बार घूम-घूम कर देखा, उसे छूकर देखा और फिर बोल, सुनो बेटी, इस खोज की चर्चा संसार के हर वैज्ञानिक की जुबान पर होगी । और हुआ भी यही । जब स्मिथ का शोध पत्र मशहूर वैज्ञानिक पत्रिका नेचर में प्रकाशित हुआ तो वैज्ञानिक जगत में तहलका मच गया । यह कुछ ऐसा था मानों जीवित डायनासौर मिल गया      हो । चूंकि पकड़ी गई मछली एक नई प्रजाति की थी, स्मिथ ने उसका नाम लैटिमरिया चालुम्नी रखा । जीनस का नाम मार्जरी के उपनाम लैटिमर पर और स्पीशीज का नाम चालुम्ना नदी पर रखा गया ।
    चूंकि मछली के आंतरिक अंग निकाल कर फेंक दिए गए थे । स्मिथ को लगा कि इस प्रजाति की एक मछली और मिल जाए तो उसका पूरा अध्ययन किया जा सकता है । उन्होेंने अफ्रीका के पूर्वी तट के गांवों में सब तरफ मछली के चित्र वाले पोस्टर लगवाए और मछली पकड़ने वाले के लिए इनाम की घोषणा कर दी । एक जहाज के उनके परिचित कप्तन एरिक हंट के कहने पर उन्होनें अफ्रीका के पूर्वी तट पर स्थित कोमोरो द्वीप समूह पर भी ये पोस्टर लगाए । २१ दिसम्बर १९५२ को आन्जुआन नामक द्वीप पर हंट के पास दो स्थानीय व्यक्ति एक बड़ी मछली लेकर आए । यह मछली भी सीलाकैन्थ ही थी और इसे स्थानीय भाषा में मेम या गोम्बोस कहा जाता था । हंट को यह भी पता चला कि इस प्रजाति की मछलियां अक्सर कोमोरो द्वीप समूह में पाई जाती है । हंट ने कहीं से फॉर्मलीन का जुगाड़ किया और मछली के शरीर में इंजेक्शन से पहुंचा दिया । चूंकि उन दिनों कोमोरो द्वीप समूह फ्रांस  के अधीन था, अत: फ्रांसीसी अधिकारियों ने हंट से कहा कि  यदि प्रोफेसर स्मिथ स्वयं इस मछली को लेने नहीं आए तो वे उसे जब्त कर लेगें । तब हंट ने स्मिथ को एक और तार भेज कर तुरन्त कोमोरो पहुंचने का आग्रह किया । स्मिथ को चिंता थी कि वे १४ वर्षो से जिस मछली का ब्रेसब्री से इंतजार कर रहे थे कहीं उसे खो न बैठे । उन्होनें दक्षिण अफ्रीका के प्रधानमंत्री श्री मलान से संपर्क करके उन्हें कोमोरो ले जाने के लिए एक हवाई जहाज उपलब्ध कराने का अनुरोध किया, जिसे मलान ने मान लिया और वायु सेना का एक जहाज उन्हें उपलब्ध करवाया ।
    जब स्मिथ ने कोमोरो पहुंच कर हंट के जहाप मछली को देखा तो खुशी के मारे उनके आंसू छलक पड़े । स्मिथ को एक साबुत मछली मिल गई थी जिसके सारे आंतरिक अंग सुरक्षित थे । साथ ही, स्थानीय निवासियों का उस मछली से परिचय होने के कारण उन्हें यह भी पता चल गया था कि उन्हें और भी मछलियां उस क्षेत्र में मिल सकती है । इन आंतरिक अंगों का परीक्षण करके स्मिथ ने कई शोध पत्र प्रकाशित किए । किन्तु फ्रांस के अधिकारियों को ऐसा लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है और उन्होनें फ्रांस के अलावा अन्य देशों के वैज्ञानिकों के द्वारा सीलाकैन्थ पर शोध कार्य करने पर प्रतिबंध लगा दिया जो १९७० के दशक में कोमोरो द्वीपों के आजाद होने तक जारी रहा ।
    १९५६ में एक दुर्घटना में हंट का जहाज डूब गया और उनकी मृत्यु हो गई । १९६८ में लम्बी बीमारी से परेशान होकर प्रोफेसर स्मिथ ने आत्महत्या कर ली । सन १९८८ में कैप्टन गूजेन की मृत्यु हो गई । मार्जरी लैटिमर ९७ वर्ष की लंबी उम्र जीने के बाद २००४ में संसार से विदा हो गई ।
    सीलाकैन्थ की लम्बाई लगभग ५ फीट और भार ४५ किलोग्राम होता  है । ठंडा वातावरण पसंद होने के कारण ये मछलियां दिन में समुद्र की सतह से ६५० से १३०० फीट तक की गइराई पर किनारे में कटी हुई गुफाआें में आराम करती हैं और रात में शिकार की खोज में सतह पर आती है । अफ्रीका के पूर्वी तट पर इस प्रकार की गुफाआें की संख्या बहुत अधिक होने के कारण वहां पर इन मछलियों को अनुकूल पर्यावरण मिल जाता है । इनका भोजन सभी प्रकार की मछलियां होती हैं । इनके जबड़े का जोड़ लचीला होने के कारण इनका मुंह काफी चौड़ा होता है जिसके कारण ये बड़ी मछलियों को भी निगल जाती हैं । सीलाकैन्थ मछलियों के अंडे लगभग एक साल तक मादा के गर्भ में ही रहते हैं और वहीं फूटते हैं । इनमें से निकलने वाले शिशु जन्म के समय पूरी तरह विकसित होते हैं ।
    फिलहालजीवित सीलाकैन्थ की संख्या का अनुमान लगाना कठिन है, किन्तु समय-समय पर की गई गणनाआें के अनुसार अफ्रीका के तट पर इनकी संख्या एक हजार के आसपास हो सकती है । संसार के वैज्ञानिक दक्षिण अफ्रीका सरकार के साथ मिलकर एक परियोजना के माध्यम से यह प्रयास कर रहे हैं कि इनके शिकार पर पाबंदी लगे और इनकी संख्या बढ़ाई जा सके ।
    किन्तु सीलाकैन्थ की कहानी यहीं खत्म नहीं होती । सितम्बर १९९७ में इंडोनेशिया के सुलावेसी द्वीप में एक सीलाकैन्थ पकड़ी गई । उस समय अमरीकी जीव शास्त्री मार्क अर्डमन और उनकी पत्नी अर्नाज वहां छुटि्टयां बिता रहे थे । उन्होनें बाजार में इस मछली को देखा जरूर किन्तु वे उसका फोटो भर ले सके और किसी अन्य व्यक्ति ने उस मछली को खरीद लिया । तब अर्डमन ने भी सीलाकैन्थ पकड़ कर लाने वाले के लिए इनाम की घोषणा की । ३० जुलाई १९९८ को मछुआरे एक जीवित सीलाकैन्थ को पकड़ कर अर्डमन के पास ले आए । कोमोरो सीलाकैन्थ से इस प्रजाति का रंग भिन्न है और इसे लैटिमरिया मेनाडोएन्सिस नाम दिया गया । क्योंकि इसे मेनाडो द्वीप के समीप पकड़ा गया था । स्थानीय मछुआरे इस मछली से परिचित थे और इसे राजा लाउट (समुद्र का राजा) के नाम से पुकारते थे ।
    धरती पर रहने वाले जन्तुआें के पूर्वजों को लेकर वैज्ञानिकों के दो मतों (फेफड़े वाली मछलियां बनाम सीलाकैन्थ) के विवाद का फैसला इन मछलियों के जीन्स का परीक्षण करके ही किया जा सकता था किन्तु मुश्किल यह थी कि किसी भी सीलाकैन्थ के अंगों को इतनी सावधानीपूर्वक सुरक्षित नहीं रखा गया था कि उनके जीन्स का विश्लेषण किया जा सके ।
    दक्षिण अफ्रीका मेंशुरू की गई सीलाकैन्थ पर्यावरण परियोजना की प्रेरणा स्त्रोत रोड्स विश्वविघालय की प्रोफेसर रोजमेरी डॉरिगटनी थी । उन्होनें कोमोरो द्वीप समूह के गांवों में घूम कर इस परियोजना की जानकारी दी थी और स्थानीय वैज्ञानिकों को किसी सीलाकैन्थ के पकड़े जाने पर उसके आंतरिक अंगों को सुरक्षित रखने का प्रशिक्षण दिया था । मोरोनी कस्बे में उनका प्रतिनिधि सैयद अहमदा नामक पर्यावरणविद था । सन २००३ में कोमोरो द्वीप समूह में एक मछुआरे ने सीलाकैन्थ पकड़ी और उसे वह सैयद अहमदा के पास लेकर आया । अहमदा ने उस मछली के आंतरिक अंगोंको सावधानीपूर्वक निकाल कर स्थानीय विज्ञान केन्द्र के फ्रीजर में सुरक्षित रख लिया । कुछ दिनों के बाद अहमदा को ईस्ट लंदन जाने का अवसर मिला । बर्फ के बक्से में रख कर सीलाकैन्था के आंतरिक अंग वे अपने साथ ले गए और प्रोफेसर डॉरिगटन को दिए । डॉरिगटन ने पहला काम यह किया कि प्रयोगशाला में जाकर इन अंगों का सूक्ष्मदर्शी से परीक्षण करके यह देखा कि वे उचित ढंग से सुरक्षित रखे गए थे या नही ।
    अब समस्या यह थी कि इन अंगों से कोशिकाएं निकाल कर उनके जीन्स का परीक्षण कहा किया जाए ? इस काम के लिए उपयुक्त आधुनिक उपकरण कम उपलब्ध थे । तब उन्होनें वांशिग्टन विश्वविघालय के प्रोफेसर क्रिस अमेमिया से संपर्क  किया । अमेमिया सीलाकैन्थ की कहानी से प्रभावित थे ही तंुरत सहमति देकर काम शुरू कर दिया । उनके द्वारा किए गए जीनोम परीक्षण से यह फैसला होना थ कि हमारे असली पूर्वज कौन है - मांसल पंखो वाले सीलाकैन्थ या फेफडे़ वाली मछलियां ? लगभग १०० वैज्ञानिकों की टीम ने जिसमें वैज्ञानिक और कम्प्यूटर विशेषज्ञ शामिल थे, आखिर सीलाकैन्थ के जीनोम का नक्शा बना लिया । इसके बाद उसके जीन्स की तुलना अन्य मछलियोें, फेफडे वाली मछलियोें के जीन्स के साथ करने का काम शुरू हुआ । इस पर अमेमिया और उनके सहयागियोें ने कई शोध प्रकाशित किए । फेफडे वाली मछलियोें का जीनोम इतना बडा़ होता है कि उसका पूरा विश्लेषण करना संभव नही हो पाया है, किन्तु सीलाकैन्थ के जीनोम पर अब तक हुए काम से लगता है कि फेफडे वाली मछलियां हमारी अधिक निकट की पूर्वज हैैं । सीलाकैन्थ हमारे चचेरे ममेरे पूर्वज है ।
कविता
प्रकृति : जीवंत रहस्य
सुश्री रजनी सिंह

    पर्यावरण के हैं सम्राट, प्रकृति पर है इन सबका राज ।
    पीपल, नीम, अशोक, ढाक, धरती के हैं सिरमौर ताज ।।
    हर्षपूर्ण मधुरिम जन-जीनव, गाते मीठा राग-मल्हार ।
    फड़-फड़ फड़कें हरियाली से, पत्ते उड़ाएँ ठण्डी फुहार ।।
    ज्ञानवंत-गुणशील, दिशा अधिवक्ता बन कानून पढ़ें ।
    स्वस्थ जागृति जगमग ज्योति, दीपवान बन राज करें ।।
    सर्व-गुण सम्पन्न आम- अमरूद, बेर-जामुन-अनार-केला।
    प्रोटीन, कैल्शियम, विटामिन से, हर फल स्वादिष्ट घेरा ।।
    महकाते तन:मन मौलसिरी, मोगरा, जूही, चंपा हरश्रृंगार ।
    पवन संग अपनी सुगंधि से, सुरभित करते घर-द्वार ।।
    बौनसाई बन बौना पौधा, उपयोगी जैसे जापानी ।
    नारंगी, अंजीर, मौसमी सेब, रूप-रंग गजब रूमानी ।।
    गमलों में वृक्षों की उपजन, प्राणी-बुद्धि का कमाल ।
    जैसा चाहे, वैसा लगाओ, है प्रकृतितुम पर मेहरबान ।।
    बात पते की तुम्हें बताते, सुदंर पौधा सच्च पड़ौसी ।
    आड़े वक्त काम आ जाए, रहे बढ़ी प्रेम-पोथी ।।
    जल-वायु पावन कर्ता, संक्रामक रोग विनाशक फलदाता ।
    सगुण-सनातन वृक्ष सुदर्शन, और अनके नाम सुखदाता ।।
    एक बूँद रस आक बने गुणकारी, पर्वत-पौधे देते औषध ।
    कार्बन-डाई ऑक्साइड भोजन ग्राह्य, ऑक्सीजन देते पोषक ।।
पर्यावरण समाचार
    जीन अभियांत्रिकी स्वीकृत समिति याने जीईएसी ने ११ फसलों की प्रायोगिक खेती को पिछले हफ्ते मंजूरी दे दी है । लेकिन अधिकांश राज्यों ने इस एक्ट का विरोध किया है । इन फसलों में मक्का, चावल, जुवार, मुंगफली, गेहूं, कपास, सोयाबीन आदि शामिल हैं । लेकिन ज्यादातर राज्य जीएम फसलों के परीक्षण के लिए तैयार नहीं है जिससे म.प्र., उत्तरप्रदेश, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, बिहार ने इसका विरोध किया है, जबकि पंजाब, महाराष्ट्र ने समर्थन किया है । वहीं गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, आंध्रप्रदेेश, ओडिशा ने कोई फैसला नहीं किया है । जबकि छत्तीसगढ़ तटस्थ है । ये राज्य खाद्य पदार्थो के विरोध में लेकिन कपास के पक्ष में है ।
    जबकि इन्दौर स्थित सोपा याने सोयाबीन प्रोसेसर एसो. ऑफ इंडिया ने सरकार से म.प्र. में जैव विविधता अधिनियम २००२ को लागू करने पर रोक लगाने का अनुरोध किया है । सोपा पहले भी इस तरह की मांग कर चुका है । सिर्फ मध्यप्रदेश में इसे लागू किए जाने से कारोबारी गुस्से में है । स्पष्ट दिशा-निर्देशों के अभाव के कारण कई कंपनिया बंच गई । वही बायोटेक कंपनियों की इससे पौ बारह हो जाएगी तथा वे और निवेश बढ़ाएगी ।
    इन्दौर के सोयाबीन प्रोसेसर एसोसिएशन ऑफ इण्डिया (सोपा) ने सरकार से मध्यप्रदेश मेंजैव विविधता अधिनियम २००२ को लागू करने पर रोक लगाने का अनुरोध किया है । इसे संभवत: राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) के पांच सोयाबीन प्रसंस्करण कंपनियों पर मुकदमा दर्ज करने के आदेश के विरोध में उठाया कदम माना जा रहा है । सोपा पहले भी इसी तरह की मांग कर चुका है ।
    दूसरी तरफ राज्य जैव विविधता बोर्ड ने स्पष्ट किया कि जैव विविधता अधिनियम २००२ एक राष्ट्रीय अधिनियम है और राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने भी माना है कि राज्य को इसे लागू करने का पूरा अधिकार    है । बोर्ड ने बाकी सोयाबीन प्रसंस्करण इकाई को नए नोटिस जारी किए हैं । सोपा के चेयरमेन रमेश अग्रवाल ने हाल में इस संबंध में राज्य के मुख्य सचिव को एक पत्र लिखा था और राज्य सरकार से अनुरोध किया था कि सोयाबीन प्रसंस्करण इकाई पर जैव विविधता अधिनियम लागू नहीं हो ।