गुरुवार, 10 जुलाई 2014



प्रसंगवश   
जंगल का अधिकार लोगों को दें
चंडी प्रसाद भट्ट, गोपेश्वर (उत्तराखण्ड) 
     पर्यावरण का पहला पाठ वहीं पढ़ा जाना चाहिए जहां से पर्यावरण बनता-बिगड़ता है । गांव के लोगों को साथ लेकर और गांव के लोगों के लिए ही पर्यावरण को बनाया और संवारा जा सकता है । इसकी एक समृद्ध परम्परा रही है ।
    पर्यावरण और विकास मेंविरोधाभास जरूरी नहीं है कि हमेशा मौजूद ही रहे । संसोधनों का इतना ही उपयोग हो जितने में संसाधन बचे रहें । संसाधनों के विकास की चिंता भी करनी होगी । कितनी अजीब बात है । मैं कहीं पढ़ रहा था कि देश में सबसे गरीब राज्यों में सबसे अधिक वन है । आखिर इसकी वजह क्या है ? जंगलों को लोगों से जोड़ा जाना चाहिए । इससे जंगल भी बचेंगे और जीडीपी भी बढ़ेगी । जंगलों का अधिकार लोगों को दें । जंगलों की वनस्पतियों, जड़ी बूटियों और पेड़ों की रक्षा का काम लोग करेंगे और बदले में वन उपज से अपनी आर्थिकी मजबूत करेंगे । सरकारी तंत्र इसमें सहयोग करें । उत्तराखण्ड में ६५ प्रतिशत जंगल है । हम सभी जानते हैं कि यह ६५ प्रतिशत जंगल नहीं, बल्कि वन भूमि है । सघन वन तो सिर्फ ४१ प्रतिशत हीं है । सघन वन का विस्तार क्यों नहीं हो रहा है ? साफ है जंगल के रखवालों को ही अपने जंगल से दूर कर दिया । जंगल में खर्चा करने से भले ही आपको तुरन्त कुछ न मिले, पर दस-बीस साल में कायाकल्प हो जाएगा । यह पाया गया है कि जंगल से धन वापसी तो आपको छह माह में ही मिलना शुरू हो जाएगा । जरूरत योजना बनाकर और लोगों को साथ लेकर काम करने की है ।
    हिमालयी क्षेत्र की आपदा का एक कारण और भी था । पहले रहन-सहन, खाना-पीना सब कुछ प्रकृति के अनुकूल हुआ करता था । एटकिंसन ने गजेटियर में लिखा है कि १८८३ में बदरीनाथ में साल भर में दस हजार यात्री आए थे । आज एक ही दिन में दस हजार यात्री बदरीनाथ पहुंच जाते हैं । इतने यात्रियों को लाने वाली बसों और अन्य वाहनों, इनके खाने-पीने, रहने आदि का कुछ तो फर्क पड़ता ही होगा । सवाल भूमि प्रबंधन का भी है । बरसात की बूंदों की भी तीव्रता होती है । खाली मैदान बूंदों की जगह हरीतिमा होनी चाहिए । यह देखा जाना चाहिए कि बरसात की इस मारक क्षमता का प्रभाव कम से कम कैसे किया जाए ?
    पारम्परिक ज्ञान के साथ आधुनिक ज्ञान का समन्वय होना चाहिए । समग्र अध्ययन की जरूरहत है । हिमालय के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है । सबको मिलकर इस पर काम करना चाहिए । जब हमारी जानकारी पूरी होगी तो हमारा कोई भी कदम बेहतरी की दिशा में बढ़ेगा । आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर फैसले किए जाएंगे तो फायदा कम और नुकसान ज्यादा हो सकता है ।
वानिकी विकास और सामाजिक संस्थायें

    वृक्ष और मानव जाति का रिश्ता अनन्त काल से चला आ रहा है । किसी देश की समृद्धि उस देश की वन सम्पदा पर निर्भर करती है । देश के पर्यावरणों में वनों की प्रमुख भुमिका है । पिछले तीन-चार दशकों से देश में हो रही पर्यावरण विघटन की समस्याआें में जो जलवायु में परिवर्तन परिलक्षित हो रहा है, इसका प्रमुख कारण वनों का विनाश ही है । मानव जीवन के तीन बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी और उपजाऊ मिट्टी मुख्य रूप से वनों पर ही आधारित है ।
    भारत में भौगोलिक क्षेत्र के १८.३४ प्रतिशत वन क्षेत्र है । देश में वनों में आधे वन मध्यप्रदेश में है । हमारे देश में प्राचीन काल से वृक्ष पूजा का प्रचलन रहा है । देश में एक तरफ तो श्रद्धा और आस्था का दौर चलता रहा, तो दूसरी ओर बड़ी बेहरहमी से वनों को उजाड़ा जाता रहा है ओर यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है । इन दिनों पहाड़ और नदियां नग्न होती जा रही है । इस देश में बाढ़, सुखा और भुकम्प के खतरे बढ़ते जा रहे है । वनों के विनाश ने ग्लोबल वार्मिंग की विश्वव्यापी समस्या को जन्म दिया जिसके कई दुष्परिणाम धीर-धीरे सामने आ रहे है । भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान का कहना है कि यदि तापमान में ३ डिग्री सेल्सीयस की वृद्धि होती है तो देश में गेहूं की सालाना पैदावार में १० से १५ प्रतिशत तक की कमी हो जायेगी ।
    हमारे देश में प्राचीन काल से ही पेड़ लगाने और सुरक्षित रखने के लिए विभिन्न प्रयास होते रहे है जिसमें सरकार और समाज दोनों ही समान रूप से भागीदार होते थे । इस प्रकार राज और समाज के परस्पर सहकार से देश में खरीद संस्कृति का विकास हुआ जिसने वर्षो तक देश को हरा-भरा रखा । इन दिनों देश भर में वन महोत्सव के अन्तर्गत पौधे लगाने का अभियान चल रहा है । वानिकी विकास में समाज सेवी संस्थाआें की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए समय-समय पर प्रयास होते रहे है । इस अभियान में शैक्षणिक और सामाजिक संस्थाआें के साथ ही बड़ी संख्या में युवा जुड़े और पौधारोपण अभियान को एक जन अभियान बनाया जा सके, इसके लिए ज्यादातर लोगों का विचार है कि इसमें स्थानीय लोगों, वन विभाग और सरकारी अधिकारियों, सामाजिक संस्थाआें और पर्यावरण कार्यकर्ताआें की सामूहिक शक्ति से ही वांछित परिणाम प्राप्त् किए जा सकेगें ।
सामयिक
प्रकृति के साथ छेड़छाड घातक है
सुन्दरलाल बहुगुणा
    यदि भारत को अपना वर्चस्व कायम रखना है तो उसे अतीत की ओर देखना चाहिए अर्थात उसे पुन: वही जीवन पद्धति अपनानी चाहिए जो उसे अरण्य संस्कृति से प्राप्त् हुई थी । जिसमें चिन्तन करने और नए विचारों को प्राप्त् करने के लिए, खुले आसमान के नीचे, पेड़ों के नीचे और नदी के किनारे बैठकर अध्ययन किया जाता था ।
    कोई भी ऋषि नदी के किनारे या पहाड़ की उस चोटी पर बैठकर ध्यान लगाता है जहां से प्राकृतिक सुंदरता अर्थात  जीवंत प्रकृति के दर्शन होते है । इस प्रकार प्रकृति से हमेंस्थाई मूल्यों की प्रािप्त् होती है । आज हमें दो-तीन चीजों की आवश्यकता है पहली तो अपने आज को अपने अतीत से जोड़ने की, जिस प्रकार कोई भी वृक्ष अपनी जड़ों के साथ जुड़ा होता है और अगर उसे जड़ से अलग कर दिया जाय तो वह सूख जाता है उसी तरह किसी भी समाज की जड़ उसका अतीत होता है और अगर उसको उसके अतीत से काट दिया जाए तो वह भी तरक्की नहीं कर पाता है । 
   दूसरी, बात मनुष्य को जिंदा रहने के सभी साधन प्रकृति से मिलते हैं । प्रकृति को जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है और ऑक्सीजन कमरे के अंदर पैदा नहीं हो सकती है । उसे जल की भी आवश्यकता होती है । हर जगह का पानी जिंदा नहीं रहता है जैसे नल के अंदर गया हुआ पानी स्वछन्द रूप से खासकर पहाड़ी नदी में बहने वाले जल की अपेक्षा कम स्वच्छ होता है, क्योंकि वह पानी पहाड़ों से टकरा-टकराकर अपने को स्वच्छ रखता है और उसी पानी को जीवन्त कहा जाता है ।
    शायद दसीलिए हमारे यहां हरिद्वार में गंगा में श्राद्ध तर्पण करने के पीछे भी यही सोच काम करती हो, क्योंकि गंगा, अपना हरिद्वार तक का सफर पहाड़ी क्षेत्र में बहकर तय करती हे उसके बाद उसका पानी, उसकी गति कम हो जाती है और गति कम होते ही वह प्रदूषण का घर बन जाती है । इस प्रकार दूसरा तत्व स्वच्छ पानी है ।
    जीने के लिए तीसरा साधन अन्न है और वृक्ष हमेंफलों के द्वारा पोषण देते हैं । हम वृक्षों को इसलिए उगाते हैं ताकि हमें उनसे अन्न की प्रािप्त् हो । शुरू में अन्न, मनुष्य की खुराक नहीं थी । शुरू-शुरू में हम पशुपालक थे और पशुआें के साथ अपना जीवन यापन करते हुए फलों का सेवन करते थे, लेकिन उस दौरान स्त्रियों को काफी कष्ट होता था क्योंकि उनके साथ रहने वाले पशु सब घास तथा अन्य पौधों को चर लिया करते थे जिससे फिर उस स्थान पर हरियाली की कमी हो जाती थी और उन्हें उस स्थान को छोड़कर अन्य स्थानों पर जाना होता था इसलिए उन्होंने धीरे-धीरे घास के बीजों को पकाकर खाना शुरू किया और इस तरह मनुष्य ने अन्न पैदा करना, उसे संग्रह करना और उसे पका कर खाना शुरू कर दिया ।
    जब से मनुष्य ने अन्न की खेती करना और उसे संग्रह करना शुरू किया तभी से दुनिया में अधिकांश लड़ाइयां शुरू होने लगी । अब समय आ गया है जब पूरी मनुष्य जाति को अपने भविष्य के बारे में नए सिरे से सोचना होगा । सबसे पहले तो हमें आधुनिक युग के नए अवतार प्रदूषण का हल निकालना होगा । आज पूरे विश्व में प्रदूषण ने अपना जाल इस तरह से बिछाया हुआ है जबकि आज से कुछ साल पहले तक लोगों ने प्रदूषण शब्द के बारे में सुना तक भी नहीं      था ।
    आज समाज की प्रगति के आगे कई समस्याएं मुंह बाएं खड़ी है उनमें पहली है, युद्ध का भय क्योंकि आज गरीब से गरीब देश भी अपनी अधिकांश कमाई अनुत्पादक कार्योंा जैसे हथियारों को जमा करने और सेनाआें पर खर्च करने में लगा रहा है, इस कारण से वहां की सामान्य जनता को नुकसान हो रहा है । समाज का दूसरा बड़ा खतरा प्रदूषण है । आज आबादी बढ़ने के साथ-साथ नागरिक सुविधाएं भी बढ़ रही हैं जिससे धूल, धुआं और शोर जैसे तीन दैत्य हमारे देश को प्रदूषित करते जा रहे हैं । हवा में बढ़ते धूल और धुएं के कारण पत्तों के ऊपरभी धूल जमती जा रही है, जिससे हमें सांस लेने में भी दिक्कत होने लगी है और हम लोग कई सांस संबंधी समस्याआें से ग्रस्त होते जा रहे हैं ।
    आज भी मुझे सन् ७२ में संयुक्त राष्ट्र विज्ञान परिषद् की पत्रिका में छपे एक कार्टून की याद आती है जिसमें, एक बौना आदमी एक बड़े पेड़ को अपनी बांह के बीच में पकड़कर दौड़े जा रहा है, दौडे जा रहा है किसी ने उससे पूछा - कहां जा रहे हो  ? जरा ठहरो .... उसने कहा, देखता नहीं है कि सीमेंट की सड़क मेरा पीछा करती आ रही    है । इस प्रकार काफी सालों से मनुष्य को सभी तरह की सुख-सुविधाएं प्रदान करने की लालसा के कारण आज ऐसे कई निर्माण कार्यो पर जोर दिया जा रहा है जिससे हमारी प्रकृति और हमारे स्वास्थ्य को घातक नुकसान हो रहा  है ।
    एक परिभाषा है, कि जंगल एक समुदाय है जैसे समाज में अनेक प्रकार के लोग एक साथ रहते हैं उसी तरह से जंगल में भी कई प्रकार के वृक्ष, लताएं, झाड़ियां और जीव-जन्तु मिलकर एक समुदाय बनाते हैं और वे सभी एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं । वनों के संरक्षण में कई ऐसे औषधीय पेड-पौधे और जड़ी-बूटियों का रोपण हो रहा है लेकिन शायद वो अधिक उत्तम न हो ।
    अगर वे उत्तम किस्म के न हो तो उनके गुण धर्मो में भी अंतर होगा । प्रकृतिके साथ छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए । अब समय आ गया है जब हमें अपनी प्रकृतिके साथ छेड़छाड़ करनी बंद कर देनी चाहिए और विकास के साथ-साथ प्रकृति के पुर्नजीवन के बारे में भी सोचना चाहिए । इसके अलावा मनुष्य को प्रकृति के साथ मिलकर रहने की आदत बनाने का भी प्रयास करना चाहिए ।
    पहाड़ हमारे जल की मीनारें है और हमारे जीवन के लिए जल बहुत महत्वपूर्ण है जलसंकट का तो कोई मुकाबला ही नहीं कर सकता है । इसी प्रकार खेती भी सभी के लिए अनिवार्य है, अगर हमने भविष्य की जाति को जिंदा रखना है तो हमें अपनी कृषि व्यवस्था को जिंदा रखना होगा । हालात जैसे भी हों, इतने कम समय में अन्न की बढ़िया खेती नहीं हो सकती । अब पहले वाली विशुद्धता भी खत्म हो गई है, उसमें कीटनाशक भी शामिल हो गए हैं और उसका जैविक स्तर भी बिगड़ गया है ।
    हमारे यहां दो तरह की खाद्य पदार्थ होते हैं । एक तो, विशुद्ध, साधारण खाद्यो वाली और दूसरी जैविक खाद्यो वाली होती है जिसे अमीर लोग ही खरीदते और खाते हैं । अब तो ऐसी स्थिति हो गई है कि हम टमाटर जैसी चीज में भी जिनेटिक इंजीनियरिंग के द्वारा मांस डालकर उसमें मांस पैदा कर दिया । ऐसे में, अब हमारा टमाटर भी शाकाहारी की जगह मांसाहारी ही हो गया है । प्रकृति के साथ इस तरह की छेड़छाड़ ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह की छेड़छाड़ से हमारे पर्यावरण के साथ-साथ हमें भी भारी नुकसान को झेलना होगा ।
वन महोत्सव के अवसर पर विशेष
हरियाली और रास्ता
गिरीश त्रिवेदी

    मन में विचार आया चलो घूम आते है । तो हम टहलने के लिये किस तरफ जाएंगे । क्या हम कारखानों की तरफ जाएंगे या कांक्रींट की अट्टालिकाआें के चक्कर लगाएंगे । नहीं, हम जाते हैं प्रकृति की तरफ । जिधर हरियाली होगी उधर जाएंगे, जंगल हमें भायेंगे, घने वृक्षों की जिधर प्रचुरता होगी उधर जाएंगे । हम कुंज, उपवन, बाग-बगिचों की तरफ  जाएंगे । ऐसा क्यों है ?
    मनुष्य प्रकृति का अंग है अत: प्रकृति के पास जाकर उसके मन को शांति मिलती है । प्रकृति से जितना हम दूर रहेंगे बेचैनी बढ़ेगी, थकान बढ़ेगी । प्रकृति का संग जितना ज्यादा छूटेगा हम विकृत होते जायेंगे, हम तनावग्रस्त हो जाएंगे, झूंझलाहट बढेगी और अंतत: हम शारीरिक और मनोरूग्ण हो जायेगे । 
     पहाड़, बहती नदियां, खुला आसमान, हरिभरी धरती, समुद्र पंछी, तितलियाँ और पशु ये सब हमारे मन को लुभाते हैं क्योंकि ये प्रकृति के अंश है । इन सब में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है - हरे भरे बड़े-बड़े वृक्ष । वृक्षों के बिना सब कुछ खाली खाली लगेगा ।
    जितने अधिक वृक्ष उतना बड़ा स्वर्ग । इस वाक्य को आप किसी भी दृष्टिकोण से परखें, खरा उतरेगा । वृक्ष धरती के देवता है । पशु, पक्षी और मनुष्य सभी के जीवन का आधार है । इसीलिये तो हम वृक्षों की पूजा करते हैं अर्थात् सम्मान देते हैं ।
    यदि हम धरती को स्वर्ग बनाना चाहते हैं तो हमें पूरी धरती को वृृक्षों से पाट देना चाहिये । सोच के देखें आपके घर के बाहर कोई वृक्ष नहीं है या एक अथवा दो वृक्ष हरे भरे खड़े है तो कौन सी स्थिति मनभावन सूंदर है, निश्चित ही वृक्षों से सुशोभित द्वार सबके आकर्षण का केन्द्र होगा और हमारी गली मोहल्ले में पंक्तिबद्ध पेड़ खड़े हो तो वह दृष्य तो निश्चित ही ्न्नयनामिराम होगा । इसमें कोई संशय नहीं है ।
    वृक्षों से हमें कितना पर्यावरण संतुलन, कितना आर्थिक लाभ होता हैं और कितना इनका वैज्ञानिक महत्व  है । यह तो लगभग हम सभी जानते   हैं । मैं तो बस यह कहना चाहता हॅूं कि वृक्षों के महत्व को समझने के साथ ही हमने यह समझ रखा है कि वृक्ष संवर्धन तो सार्वजनिक कार्य है । इसका हमारे निजी जीवन के प्रयत्नों से कोई लेना-देना नहीं है । यह कार्य नगर पालिका, महानगर पालिका और राज्य सरकारें करेगी । कुछ ही गिने चुने नागरिकों को छोड़ बाकी हम सब इस बारे में सोचना भी नहीं चाहते है, ये बड़ी हमारी भूल है ।
    भारत हमारा देश ही नहीं, भारत हमारा घर है । अत: संपूर्ण भारत को सजाना, स्वर्ग बनाना मात्र सरकारों से संभव नहीं । हम सभी नागरिकों का व्यक्तिगत, निजी दायित्व है कि हम सब अपने अपने निजी प्रयासों से हमारे घर, दुकान, कारखाने और कार्यालय के आसपास पौधारोपण करें और वृक्षों का संवर्धन करें ।
    सबसे महत्व की बात है कि सार्वजनिक स्तर पर लगाये गये पेड़ों से किसी का लगाव नहीं होता, ममत्व नहीं होता । प्राय: नागरिकों द्वारा उपेक्षित होते हैं ये पेड अत: पूर्ण विकसित हो पाना मात्र ईश्वर कृपा पर निर्भर रहता है ।
    मेरा सोचना है कि हम अपनी सोच बदले और वृक्ष संवर्धन के लिये निजी प्रयत्न करें और शौक से, रूची से करें । हमें अपने-अपने परिवेश में ऐसे स्थानों को निगाहों से चुने जहाँ-जहाँ पेड लगाना उचित होगा और जिन्हें हम कुछ काल तक पानी देने, दिलवाने में समर्थ हों अर्थात् आसानी से पानी दे सकें । फिर इन चुने हुए स्थानों पर वृक्षारोपण करें ।
    इसका बहुत बड़ा फायदा यह होगा कि इन हमारे स्वयं के हाथों से, निजी प्रयास से लगाये गये पेड़ हमें अपने लगेंगे । उनसे ममत्व जुडेगा उन पेड़ों से अत्यधिक प्रेम होगा । वहाँ से आते-जाते हमारी नजरें उन  पर ही रहेगी । हम उन पेड़ों के पास खड़े     रहेगे । प्रतिदिन के हो रहे विकास पर हमारी सूक्ष्म दृष्टि होगी । हम उस पेड को प्रेम करेंगे और वह भी हमें प्रेम करेगा जिस कारण हम आनन्द की अनुभूति करेंगे । हमें उस पेड की रक्षा करने, खाद पानी देने में किसी श्रम का कष्ट नहीं होगा । इसके विपरीत हम अपने पेड़ को पानी डालकर सन्तुष्ट होंगे । यह सुख चीर जीवीं होता है । हमारी मृत्यु पर्यन्त इनकी याद इनको देखना हमें आनन्दित करता रहेगा । हमारे जीवन का हर कार्य हम सुख की चाहत से ही करते हैं । इस दृष्टिकोण से भी अर्थात् हमारे निजी सुख की वृद्धि के लिये यह काम करना बुद्धिमत्ता      है ।
    मानसून आ रहा है तो क्यों न अभी ही इस कार्य को प्रारंभ कर दिया जाय । पेड कौन से लगाए यह आपकी मर्जी का विषय है लेकिन पेड़ लगाते समय निम्न बातों का विचार करना ठीक रहेगा :-
(१) अपने क्षेत्र में आसानी से पनपने वाले पेड़ लगाएं ।
(२) फलदार वृक्ष लगाएँ । जिन पेड़ों पर पक्षियों और मनुष्य के खाने लायक फल लगते हो उन्हें सर्वाधिक प्रधानता है । अपने-अपने क्षेत्र के अनुकूल जैसे जामुन, इमली, चीकु, फालसा, अंजीर, रामफल, आम, शहतूत, बडगुंदा आदि में से भी आप पौधे चुन सकते हैं । जब वृक्ष बड़े होकर फल देने लगेंगे तब आप देखेंगे वृक्षों पर कई तरह के सुन्दर-सुन्दर पक्षी आ रहे हैं । तितलियाँ भी बढ़ेगी । पक्षियों का कर्णप्रिय संगीत फिर वहाँ गंुंजेगा । यह आपके द्वारा निर्मित किया हुआ स्वर्ग होगा ।
    गली मोहल्ले के बालक जो आज नेचर को भूल गए हैं, वे जो मोबाईल, लेपटॉप, टीवी और वीडियो गेम की दुनिया में कैद हो गये हैं वे भी अब वृक्ष के फलों से आकर्षित होकर प्रकृति के साथ खेलेंगे । वृक्षों की लंबी-लंबी शाखाआें पर फिर से सावन के झुले लगेंगे । कोई गरीब व्यक्ति आपके जामुन जैसे पेड़ के टोकरी भर फल तोड़ बेच कर परिवार पालन भी कर सकता है । यह सब आप चाहें तो हो सकता है ।
(३) लम्बी आयु के घनी छायादार वृक्ष जैसे बरगद, इमली, पीपल भी लगा सकते हैं ।
(४) औषधीय वृक्ष जैसे नीम, आंवला और पीपल भी लगाने आवश्यक है ।
(५) सुन्दर वृक्ष जैसे अशोक, गुलमोहर और बादाम के बारे में भी सोच के देखें । वैसे तो अनगिनत प्रकार के पेड़ हैं । आप अपनी पसंद के लगाए ।
    यदि आप दो-तीन पेड से अधिक लगाना चाहते है तो अपने आस पड़ोस के पन्द्रह से बीच वर्ष के लड़कों को एकत्र करें उन्हें अपनी योजना बताए और सलाह लें कि क्या वे ऐसा चाहते हैं । मेरा अनुभव है । योजना सुनते ही सभी लड़के उत्साहित हो उठते है । फिर बहुत सरलता से पूरी योजना क्रियान्वित हो जाती है । इसका दूसरा लाभ यह है कि दल का हर सदस्य हर पेड को अपना पेड समझता है, फिर उन पेड़ों की सुरक्षा भी कई गुना बढ़ जाती है चूंकि सबकी निगाहें उन वृक्षों की निगरानी करती रहती हैं ।
    हमें हमारी भारत माता को सुन्दरता से सजाना और प्रदूषण मुक्त करना हमारा निजी कर्तव्य है । हम स्वयं भी प्रदूषण फैलाते हैं । मल त्याग कर, कूडा फेक कर वसुंधरा को मैला तो हम नियमित रूप से करते ही हैं फिर वृक्षारोपण करना भी हमारा दायित्व है, इसे पूरा कर हम धरती को स्वर्ग बना सकते है ।
हमारा भूमण्डल
एंटीबायोटिक : अपने पैरों पर कुल्हाड़ी
मार्टिन खोर

    उस स्थिति की कल्पना ही डरावनी है जब साधारण चोट से हुए संक्रमण से मनुष्य के जीवन को खतरा हो जाएगा । लेकिन आगामी कुछ ही दशकों में यह एक वास्तविकता होगी । वहीं दूसरी ओर पिछले करीब तीन दशकों से नई पीढ़ी का एक भी नया एंटी बायोटिक सामने नहीं आया ।
    बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां अपना सारा धन केंसर, रक्तचाप, मधुमेह या कोलेस्ट्राल कम करने वाली दवाइयों की खोज पर लगा रही है। इसकी वजह है इन दवाओं को लंबे समय तक उपयोग में लाना होता है और इससे कंपनियों को भारी मुनाफा होता है । 
     विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी जारी करते हुए कहा है कि बीमारी पहुंचाने वाले अनेकजीवाणुओं (बेक्टीरिया) का उपचार अब सामान्य एंटीबायोटिक से संभव नहीं है और आधुनिक उपचार के लाभ बड़ी मात्रा में घटते जा रहे हैं । सूक्ष्म जीवाणु प्रतिरोध से संबंधित २३४ पृष्ठ की विस्तृत रिपोर्ट में ११४ देशों के आंकड़ों के माध्यम से बताया गया है कि किस तरह विश्व के प्रत्येक क्षेत्र में यह खतरा मंडरा रहा है और यह किसी भी देश को प्रभावित कर सकता है। एंटीबायोटिक से प्रतिरोध का अर्थ है जीवाणु से उत्पन्न संक्रमण का उपचार करने में एंटीबायोटिक असमर्थ होना ।
    रिपोर्ट में कहा गया है कि `समस्या इतनी गंभीर हो चुकी है कि इसने आधुनिक चिकित्सा की उपलब्धियों के लिए खतरा पैदा कर दिया है । विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहायक निदेशक जनरल केजुकी फूकुड़ा जिन्होंने इस जीवाणु प्रतिरोध कार्यक्रम का समन्वय किया है, का कहना है, `एंटीबायोटिक के बाद का काल यानि ऐसी स्थिति या समय जबकि एंटीबायोटिक का असर समाप्त हो चुका होगा और जिसे हम भविष्य की कपोल कल्पना मानते थे वह २१वीं सदी की वास्तविक संभावना बन चुकी है ।`
    रिपोर्ट में चेतावनी देते हुए कहा गया है, `त्वरित व समन्वित कार्यवाही के बिना विश्व एंटीबायोटिक के बाद के  ऐसे काल में प्रवेश कर जाएगा जहां पर सामान्य संक्रमण और छोटी-मोटी चोटें जिनका कि दशकों से उपचार संभव रहा है, की वजह से लोग पुन: मरने लगेंगे । गौरतलब है प्रभावशील एंटीबायोटिक  ही वह एक स्तंभ है जिससे हमारी आयु बढ़ी है, जीवन स्वास्थ्यकर हुआ है और हम आधुनिक चिकित्सा के लाभ ले पाते हैं । 
    अगर हम संक्रमण की रोक हेतु उपायों में सुधार नहीं करते और इस दिशा में  ठोस कदम नहीं उठाते तथा एंटीबायोटिक के  उत्पादन, उनको लिखने और इस्तेमाल करने के ढंग में परिवर्तन नहीं लाते तो ऐसी दशा में विश्व में सार्वजनिक स्वास्थ्य वस्तुओं में लगातार हानि होगी और इसके  विध्वंसक परिणाम सामने आएंगे ।
    सूक्ष्म जीवाणु विरोधी प्रतिरोध  निगरानी संबंधी वैश्विक रिपोर्ट` में बताया गया है कि अनेक जीवाणुओं में प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गई है । जिससे अन्य अनेक प्रकार के संक्रमण फैल रहे  हैं । इस रिपोर्ट में मुख्यतया सात जीवाणुओं में उत्पन्न प्रतिरोधकता जो कि गंभीर बीमारियां जैसे खून की नलियों में संक्रमण (सेप्सिस), डायरिया, निमोनिया, मूत्र नलिका में संक्रमण और सूजाक (गोनोरिया) के  लिए जिम्मेदार होते हैं, के  संबंध में बताया गया है ।
    चिंता की खास बात यह है कि जीवाणुओं की प्रतिरोधकता ने प्रचलित `आखिरी उपाय` वाले एंटीबायोटिक को भी हरा दिया है । ये वे शक्तिशाली दवाइयां हैं, जिन्हें चिकित्सक आखिरी उपाय के  रूप में प्रयोग लाते हैं, जबकि अन्य उपाय काम करना बंद कर देते हैं, जिन्हें सामान्यतया पहली पीढ़ी की औषधियां कहा जाता है । इसके बाद चिकित्सक नई दूसरी पीढ़ी या पंक्ति की औषधि लिखते हैं, जिसकी कीमत  सामान्यतया ज्यादा होती है । जब ये भी काम नहीं करतीं तब और भी नई और अधिक शक्तिशाली (कई बार इनके काफी दुष्प्रभाव भी सामने आते हैं) एंटीबायोटिक का इस्तेमाल मरीज को अत्यंत महंगा भी पड़ता है ।
    यदि यह तीसरी पीढ़ी पंक्ति या `आखिरी उपाय` की औषधियां उपलब्ध न हो या मरीज के हिसाब से अत्यधिक महंगी हों या एंटीबायोटिक प्रतिरोधकता के चलते यह भी मरीज पर कारगर न हो तो मरीज लंबे समय तक बीमार बना रहता है या संक्रमण के गंभीर होने की दशा में उसकी मृत्यु भी हो सकती है ।
    पूर्ववर्ती समय में प्रतिरोधकता विकसित हो जाने की स्थिति में या संक्रमण के उपचार में इनके असफल रहने की दशा में नए एंटीबायोटिक की खोज की जाती थी । लेकिन पिछले २५ वर्षों में ऐसे अविष्कार सामने नहीं आए हैं । बेक्टीरिया विरोधी दवाइयों की संपूर्ण श्रंृखला की अंतिम खोज सन् १९८० के  दशकमें हुई  थी । इस बीच अनेक रोग इन शक्तिशाली एंटीबायोटिकों केे खिलाफ प्रतिरोधकता उत्पन्न करते जा रहे     हैं । इसमें शामिल है ई. कोली, के. निमोनिया, स्टेफऑरियस, एस. निमोनिया, साल्मोनेलिया, शिंगेला एवं एन.गोनोरी । इस रिपोर्ट में पाए गए मुख्य बिंदु हैं :-
(१) के. निमोनिया अस्पताल में लगे संक्रमण जैसे निमोनिया, खून की नलिका संक्रमण, नवजातों में संक्रमण और गहन चिकित्सा इकाई में भर्ती मरीजों में संक्रमण का मुख्य कारण हैं । कुछ देशों में के.निमोनिया संक्रमणों को कार्बापेनेम से उपचारित करने पर आधे से ज्यादा लोगों पर इसका असर होना बंद हो गया है ।
(२) ई. कोलाई द्वारा फैले मूत्र नलिका के संक्रमण के प्रति लोरोक्यूलोनॉल्स एंटीबेक्टेरियल औषधियों के खिलाफ प्रतिरोधकता सर्वव्याप्त हो गई है । सन् १९८० में ये औषधियां सबसे पहले जारी की गई तो इनके विरुद्ध प्रतिरोधकता वस्तुत: शून्य थी । आज अनेक देशों में आधे से ज्यादा मरीजों पर यह उपचार अप्रभावशाली हो चुका है।
(३) यदि नई दवाइयां नहीं खोजी गई तो सूजाक जैसा यौन संक्रमण शीघ्र ही लाइलाज हो जाएगा ।
(४) सूजाक के उपचार के अंतिम उपाय के रूप में तीसरी पीढ़ी की सेफालोस्पोरिंस से उपचार अब असफल हो गया है और अनेक देशों ने इसे सत्यापित भी किया है ।
(५) एंटीबायोटिक प्रतिरोधकता से लोग अधिक समय तक बीमार पड़े रहते हैं और मृत्यु का जोखिम भी बढ़ गया ह्ै ।
    उदाहरण के लिए ऐसे लोग जो एमआरएसए (मेथिसिलिन प्रतिरोधकता स्टेफायलो कोकस ऑरियस) से प्रभावित हैं, को लेकर अनुमान है कि गैर प्रतिरोधक संक्रमण से मरने वालों की बनिस्बत उनकी मृत्यु की ६४ प्रतिशत अधिक संभावना है । अस्पतालों में एमआरएसए से संक्रमण अनेक मामले सामने आते हैं ।
    रिपोर्ट में चार खतरनाक बीमारियों टीबी, मलेरिया, एचआईवी और इन्लूएंजा के  प्रति बढ़ती प्रतिरोधकता की चिंताजनक स्थिति भी सामने रखी है । इसके अलावा पशुधन क्षेत्र में भी प्रतिरोधकता बढ़ रही है, क्योंकि वहां भोजन हेतु उपयोग में आने वाले पशुओं की वृद्धि हेतु खुलकर एंटीबायोटिक का उपयोग हो रहा है । इससे जानवरों में मौजूद जीवाणुओं में भी प्रतिरोधकता बढ़ रही है । मनुष्यों द्वारा इनके मांस को उपयोग में लाने पर ये जीवाणु उनमें प्रवेश कर जाते हैं । वैसे यूरोपीय संघ ने पशुओं की वृद्धि हेतु एंटीबायोटिक का उपयोग प्रतिबंधित कर दिया है, लेकिन अन्य देशों में अभी भी इसकी अनुमति   है ।
    विश्व स्वास्थ्य संग ठन ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में निम्न उपाय लागू करने पर जोर दिया है :-
    देशों में इस समस्या को ढूंढने और निगरानी हेतु मूलभूत प्रणालियां तैयार की जाएं ।
    एंटीबायोटिक के इस्तेमाल को कम करने हेतु संक्रमणों को रोका जाए ।
    वास्तविक आवश्यकता की स्थिति में ही इन्हें लिखा जाए और उपयोग किया जाए। बीमारी के  उपचार हेतु  ठीक प्रकार के एंटीबायोटिक लिखे जाएं ।
    उभरती नई प्रतिरोधकता के  समानांतर नए एंटीबायोटिक खोजे जाएं एवं अन्य उपाय करे जाएं ।
कृषि जगत
आदिम भारिया और आधुनिक कृषि
साकेत दुबे

    मध्यप्रदेश की आदिम जनजाति  भारिया अपनी परंपरागत कृषि प्रणाली और पारंपरिक खाघान्नों की मदद से स्वयं को स्वस्थ व स्वावलंबी बनाए हुए थी । आधुनिक कृषि ने न केवल उन्हें दूसरों पर आश्रित कर दिया है बल्कि उनका पौष्टिक खाद्यान्न छीनकर उन्हें कुपोषित भी बना दिया है ।    
    मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के तामिया विकासखंड के पातालकोट इलाके की रहवासी आदिम जनजाति भारिया की ढाहिया (बेवर) कृषि  परम्परा को कृषि नीति निर्धारकों ने कुछ इस तरह बदला कि वे नए और पुराने तौर-तरीकों के बीच अंतर्द्वंद्व में उलझ गए ।  इसने काफी गड़बडियां पैदा की हैंऔर जैसे कि वे अपनी परंपरागत फसलों के उत्पादन लेने में पिछड़े हैं ।  कोदों, कुटकी, जगनी आदि पौष्टिक फसलों के स्थान पर सोयाबीन, गेहूं, जैसी नकद फसलों से उनका कोई भला नहीं हुआ । कुटकी तो करीब-करीब गायब हो  गई । इसका स्थान बाजार की घटिया किस्म की सफेद कनकी ने ले लिया है । इससे उनकी पारंपरिक खाद्य सुरक्षा का मामला गड़बड़ाया और खानपान बदला और उनके बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं । 
    केन्द्र और राज्य सरकारें यह लगभग मान चुकी हैंकि आधुनिक कृषि विकास की वजह से आदिम जनजातीय समूहों में परंपरागत कृषि पद्धति अब समाप्त हो चुकी है। जबकि वह आज भी अपनी परंपरागत खेती का हिमायती है व करता है । वहीं राज्य का आदिम जाति अनुसंधान की वर्ष २०१०-११ की रिपोर्ट बताती है कि 'यहां आधुनिक खेती का अभाव देखा जाता है । इसकी मुख्य वजह गरीबी  है ।
    निष्कर्ष में कहा गया है कि वे नई कृषि तकनीक का प्रयोग भी करने लगे हैं । इसके पूर्व इसी संस्थान के २००४-०५ के एक अन्य अध्ययन में कहा गया है कि पातालकोट के भारियाओं की प्रति एकड़ वार्षिक आय ५६६ रु. है । इस अध्ययन में शामिल गांव सुखभाण्ड, हारमऊ, घटलिंगा, गुढ़छतरी और पलानी गैलडुब्बा में चालीस परिवारों के पास कुल १५५.७० एकड़ भूमि   है । इसमें से केवल १५ एकड़ सिंचिंत है । ये परिवार आज भी कृषि के मामले में पिछड़े हुए हैं ।
    मेरे हालिया अध्ययन में सामने आया कि पलानी गैलडुब्बा का भूमिहीन सुकाली (६० साल) और उसका छोटा बेटा बिराज (२१ साल) विधान सभा की जमीन पर खेती करते हैं और वह सभा द्वारा दिए गए बीज-खाद का प्रयोग करते हैं । वह आधुनिक कृषि के तौर-तरीकों को ज्यादा नहीं अपनाता । मौसम के  कारण इस बार उनकी फसल चौपट हो गई है । इसी गांव का सुमरसी कहता है कि यहां आज भी उत्पादन कम होता है । उसके  पास चार हेक्टेयर जमीन है । उसने भी विधानसभा के द्वारा दिए गए बीजों को बोया, इनसे उत्पादन अधिक नहीं हुआ बल्कि नुकसान हो गया । उसने इस साल दो बार यानी रबी और खरीफ में विधान सभा द्वारा दिए गए मक्का,  कोदों-कुटकी, चना, गेहूँ आदि फसलंें बोई थीं ।
    वह कहते हैं, हमारा पुराना तरीका ज्यादा बेहतर है लेकिन क्या करें अधिक उत्पादन के चक्कर में नई चीजें अपना तो लेते है और फिर नुकसान उठाते हैं । सरकारी मदद तो सिर्फ पटवारी की रिपोर्ट पर निर्भर करती है । सुकाली का परिवार शिक्षित है लेकिन वे अपनी पढ़ाई को गैरजरुरी मानते हुए कहते हैं कि इसका कोई मतलब ही नहीं   निकला । 
    सरकारी अध्ययनों का निष्कर्ष कि वे बदलती कृषि को स्वीकारते चले जाएं । उनके बदलाव की प्रक्रिया के  तहत जो तथाकथित लाभकारी योजनाएं संचालित की जा रहीं हैं, उनका लाभ उन तक पहुंचे और इसकी निगरानी की  जाए । हालांकि यह विरोधाभास है कि कृषि में वे आज भी पिछड़े माने जाते हैं, फलत: उनका आदिम होने का दर्जा बरकार रखा जा सके । लेकिन कहीं भी तुलनात्मक रूप से यह नहीं तलाशा जाता है कि भारियाओं के हित में सही कौन सी पद्धति है/थी । बदलाव के दौरों के  बीच राज्य सरकार तो आदिवासियों की कोदो कुटकी आदि फसलों पर शोध के  लिए केन्द्र खोलने की तैयारी में है । इसका प्रस्ताव तो लोकसभा चुनाव के  पहले ही केन्द्र सरकार को भेजा जा चुका है ।
    भारिया की कृषि परंपरा बहुत बेचारगी से देखा गया । इसे वेरियर एल्विन और हवालिस जैसे शोध अध्ययनकर्ताओं ने और पुष्ट किया । इन्होंने अपने अध्ययन में एक जंगल गीत का उल्लेख किया है, जो पातालकोट के भारिया कृषि हालात को लेकर उनके नजरिए को उजागर करता है । इस गीत का एक अंश है-वह कोर भूमि में बोवनी कर रहा है/ जहाँ उसका हल-बक्खर टूट जाता है/वह उसे फिर से बनाता है/वह बोवनी के लिए हल चलाता है/और बीज छितरा देता है । परन्तु यहाँ उसके कड़े परिश्रम के मुताबिक वह फसल नहीं ले पाता है ।
    जबकि यह एक तथ्य है कि साठ के दशक तक तो वह अपनी कृषि परंपरा में हल चलाता ही नहीं था । खेत को खुरपी/फावड़ा से बनाता था और बीज छितरा देता था। टाटा इंस्टीट्यूट की शोध अधिकारी सरला देवी राय तो इसकी पुष्टि उसी दौर में ही अपने शोध में कर चुकीं थीं । उनका कहना था कि उनके अपने तरीके से जमकर कोदो-कुटकी आदि पैदा होता था । गौरतलब है अनुसूचित जनजातियों के विकास की नीतियां को तय करने वालों की समितियों में एल्विन हमेशा अहम् भूमिका में रहे हैं । उन्होंने भी भारिया की कृषि परंपरा को पिछड़ा मानकर नए विकास की सिफारिशें की थीं ।
    हरित क्रान्ति के दौर में तो परंपरागत खेती पूरी तौर पर प्रतिबंधित कर दी गई । मजबूरी में उसने धीरे इन नए तरीकों को अपनाना आरंभ कर दिया। आदिम घोषित किए जाने पर भारिया विकास प्राधिकरण जैसी एंजेंसियां भी सामने आईं । कृषि विभाग ने मिलकर इसने जिस तरह से योजनाओं को क्रियान्वित किया उनका लाभ सिर्फ कागजों पर है हकीकत में हालात कुछ और बिगड़ते गए । अस्सी के दशक के आते तक तो उनकी भूमि का विधिवत बंदोबस्त नहीं हुआ था और राजस्व रिकार्ड भी नहीं था । यह प्रक्रिया भी लंबी चली । इसी बीच भूमि सुधार, खाद-बीज वितरण, बायोगैस संयंत्र, अनाज कोठियां, कृषि यंत्र, डीजल पंप, लो लिफ्ट पंप, सिंचाई कूपों का विकास, उद्वहन सिंचाई, बैल जोड़ी वितरण आदि जैसे अनेक कार्य किए गए ।
    अस्सी के दशक तो इन्हें सारी सुविधाएं शत-प्रतिशत अनुदान पर दी गईं। लेकिन १९८३ से इस अनुदान में बीस प्रतिशत हिस्से को ऋण मानकर दिया । यहीं से वह कर्जदार बना । तमाम किस्म के कृषि प्रशिक्षणों के जरिये उन्हें आधुनिक कृषि सिखाई गई और दावा किया कि वे उन्नति की ओर हैं । भारिया विकास प्राधिकरण अपने गठन के बाद से आज तक तो करोड़ो रुपया उनकी कृषि को उन्नत करने के उद्देश्य से खर्च कर चुका हैं । लेकिन इतने विकास के  बाद भारिया की खाद्य सुरक्षा खतरे में क्यों है ? गैर सरकारी संगठनों की रिपोर्ट के मुताबिक यहां के ५६ फीसदी से ज्यादा बच्चे कुपोषित पाए गए हैं । जबकि महिला बाल विकास इसे नकारता है ।
    वैसे यहां सब लोगों तक सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं   पहुंचा । सरकारी अध्ययनों में यह साफ हुआ कि यहां के तीन सौ से अधिक परिवारों में से केवल दो सौ परिवार लाभान्वित हुए हैं । इसकी वजह सरकारी नुमाइंदों का नीचे तक जाने की कठिनाई है । वे सीधे पहुंच वाले गांवों तक तो पहुंचते हैं  लेकिन जड़मादल जैसे दुर्गम स्थानों तक     नहीं । इसका एक उदाहरण बायो गैस संयंत्रों की स्थापना का है । कारेआम में तो चार संयंत्र लगा दिए गए लेकिन शेष गांवों के लिए टंकियां जंगलों में पड़ी मिलीं । आधुनिक विकास के  नतीजे में कुपोषण भोग रहे भारिया आज भी अपने जीवन को बचाने के लिए संघर्ष उनके अपने तौर-तरीके से ही हैं ।
स्वास्थ्य
विद्यालय केंटीन, बीमारी का नया ठिकाना
अमिताभ पाण्डेय

    भारत  के विद्यालयों में स्थापित केंटीन बच्चें के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं । इसकी अनेक वजहें हैं । इस तरह की लापरवाही न केवल बच्चें को बीमार कर रही है, बल्कि वह उनके मानस पर जीवनभर स्वच्छता के प्रति अनाग्रह बना रही है । आवश्यकता इस बात की है कि विद्यालयों के केंटीन बच्चें के लिए आदर्श बने एवं वे जीवनभर स्वच्छ व पौष्टिक भोजन के प्रति जागरूक बने रह सकें ।
    अपने बच्चें की सेहत को लेकर चिंता करने वाले माता पिता यह जानकर हैरान हो सकते हैं कि विद्यालयों की कैंटीन भी बच्चें को बीमार कर सकती है । इसका कारण कैंटीन में साफ सफाई का पर्याप्त प्रबंध न होना और उसमें बिकने हानिकारक खाद्य पदार्थ हैं । कैंटीन में बच्चें को खाने पीने के लिए जो खाद्य-पेय पदार्थ उपलब्ध कराए जाते हैंउनकी गुणवत्ता सुनिश्चित करने की कोई नियमित व्यवस्था नहीं है । इन पदार्थों को बनाने वाले स्वच्छता, शुद्धता संबंधी कितने नियमों का पालन करते हैं इसकी भी कोई गारंटी देने वाला नहीं हैं । कैंटीन के साफ सुथरे वातावरण की चिंता भी विद्यालय प्रबंधन से जुड़े लोग कम ही करते हैं । इससे जुड़े अधिकांश शीर्ष अधिकारियों ने कितनी बार कैंटीन का निरीक्षण किया इसका सीधा और स्पष्ट जवाब बहुत कम विद्यालयों से ही मिल सकेगा । इससे जाहिर होता है प्रबंधन कैंटीन की साफ-सफाई और वहां बिकने वाले खाद्य-पेय पदार्थों की गुणवत्ता को लेकर गंभीर नहीं है ।  
     सरकार के जिन विभागों के  पास खाद्य-पेय पदार्थों की गुणवत्ता की जांच का जिम्मा है वे भी कैंटीन की आकस्मिक जांच नहीं करते हैं । निजी विद्यालयों से लेकर सरकारी विद्यालयों तक में कैंटीन का हाल खराब है । शायद यही कारण है कि मध्यान्ह भोजन को खाकर बच्चें के बीमार हो जाने की शिकायतें अक्सर मिलती रहने के बाद भी कैंटीन की साफ-सफाई और वहां बनने बिकने वाले खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता का लेकर सरकारी स्तर पर नियमित प्रभावी कार्यवाही अब तक शुरू नहीं हो सकी है । यदि इस संबंध में नियम कानून बनाए भी गए हैंतो उनका क्रियान्वयन देखने को नहीं मिल रहा है ।
    हाल ही में दिल्ली के लगभग २५० सरकारी एवं निजी विद्यालयों की कैंटीन और वहां बिकने वाले खाद्य एवं पेय पदार्थो को लेकर एक अध्ययन किया गया । दिल्ली विश्वविद्यालय के  खाद्य तकनीक विभाग द्वारा भास्कराचार्य महाविद्यालय के सहयोग से कराए गए इस अध्ययन के बाद जो रिपोर्ट तैयार हुई वह कैंटीन की अव्यवस्था व गंदगी का खुलासा करती हैं ।  
    इस रिपोर्ट में यह तथ्य उजागर हुआ कि कैंटीन में तैयार होने वाले खाने की गुणवत्ता  ठीक नहीं है । वहां का पानी भी अशुद्ध है व पीने योग्य नहीं है । अशुद्ध पानी के सेवन से बच्चें के पेट तक पहंुचने वाले हानिकारक जीवाणु बच्चें को उल्टी-दस्त सहित अन्य बीमारियांे का शिकार बना रहे  हैं। कैंटीन में तैयार होने वाला खाना जो लोग बनाते हैं उन्हें इस बात कि जानकारी नहीं है कि खाने की चीजों को स्वच्छ और गुणवत्ता के साथ कैसे तैयार किया जाए । सब्जियों को सही तरीके से धोना, जिस बर्तन में खाना तैयार किया जाना है उसको गंदगी मुक्त रखने का काम भी प्रतिदिन जल्दबाजी में ही किया जाता है ।
    इस अध्ययन के अनुसार २५० विद्यालयों में से ४० प्रतिशत पाठशालाओं में खाना बनाने के बर्तन साफ नहीं मिले । १७ प्रतिशत विद्यालयों में कैंटीन के कर्मचारी अशिक्षित मिले । २९ प्रतिशत शालाओं में खाना बनाने में उपयोग किए जाने वाले चाकू सहित अन्य बर्तन पूरी तरह साफ नहीं मिले । ८० प्रतिशत विद्यालयों की कैंटीन के कर्मचारी बिना एप्रेन और दस्ताने पहने हुए काम करते मिले । ४५ प्रतिशत पाठशालाओं की कैंटीन  में तो वहां काम करने वाले कर्मचारी खुद ही खांसी, सर्दी, जुकाम सहित अन्य संक्रामक बीमारियों के शिकार पाए गए । १० प्रतिशत से अधिक विद्यालयों की कैंटीन में पेयजल स्त्रोत गंदगीयुक्त वातावरण में पाए गए जहां का पानी शुद्ध नहीं था ।
    इधर मध्यप्रदेश के विद्यालयांेें की कैंटीनोंका हाल भी ज्यादा अच्छा नहीं है । यदि यहां भी इसी प्रकार कोई अध्ययन किया जाए तो यह तथ्य सामने आएगा कि कैंटीन  की व्यवस्था ठीक नहीं है । इस मामले में निजी विद्यालयों का हाल भी सरकारी जैसा ही है। विद्यालयों की कैंटीन की चिंता विद्यालय प्रबंधन की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं रहती है इसी कारण बच्च्े बीमार होते रहते हैं ।
    आवश्यकता इस बात की है कि विद्यालयों में बनने बिकने वाली खाद्य सामग्री पेय पदार्थ गुणवत्तायुक्त हों, कैंटीन साफ सुथरी, वहां काम करने वाले कर्मचारी प्रशिक्षित हों इसकी जिम्मेदारी सरकार के स्तर पर तय की जाना चाहिए । कैंटीन का आकस्मिक निरीक्षण हो इसके लिए लगातार अभियान चलाया जाना चाहिए ।
    पाठशालाओं में बच्चें को पौष्टिक और गुणवत्तायुक्त खाद्य पेय पदार्थ उपलब्ध हों इसके लिए सख्त नियम कानून बनाए जाएंं । कैंटीन में बिकने वाले हानिकारक खाद्य पदार्थोें की बिक्री प्रतिबंधित की जाना      चाहिए । इस संबंध में जंक फूड का जिक्र करना भी जरूरी होगा । जंक फूड से आशय बर्गर, पिज्जा, पेस्ट्री, केके, सोडा, केंडी, जेम्स और अत्यधिक नमक व शक्कर वाले खाद्य पदार्थों से है जो बच्चें को स्वादिष्ट लगते हैं। स्वाद के चक्कर में बच्च्े अपने स्वास्थ्य का कितना नुकसान करते हैं इसका उन्हें पता नहीं होता । जंक फूड को चिकित्सकों द्वारा नुकसानदायक बताए जाने के बाद भी विद्यालयों में भी इसकी बिक्री खूब हो रही है । यह बच्चें को बीमार बना रहा है । अब समय आ गया है कि बच्चें को इससे होने वाले नुकसान के बारे में शालाओं में बताया जाए और इसे कैंटीन में मिलने बिकने पर रोक लगाई जाए ।
    यहां यह बताना भी जरूरी होगा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी जंक फूड को बच्चें के लिए नुकसानदेह बताया है । संगठन ने वर्ष २०११ में  एक अध्ययन रिपोर्ट का उल्लेख करते हुए विद्यालयों में जंक फूड की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का निर्देश दिया । इस निर्देश पर भारत में अब तक अमल नहीं हो सका है, जबकि दुनिया अनेक देशों के विद्यालय जंक फूड को कैंटीन  से बाहर कर चुके हैं ।
    ब्रिटेन में तो वर्ष २००५ से ही पाठशालाओं में जंक फूड की बिक्री पर प्रतिबंध लगा हुआ है । वर्ष २०१० में संयुक्त अरब अमीरात ने भी जंक फूड की बिक्री पर रोक लगा दी । इसके साथ ही कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, मेक्सिको, स्कॉटलैंड सहित अनेक देशों ने जंक फूड को विद्यालयों में बेचने पर प्रतिबंध लगा रखा है । अमेरिका मेंं भी विद्यालयों में जंक फूड को नहीं बेचा जा सकता है ।  भारत के विद्यालयों में भी जंक फूड की बिक्री बंद किए जाने पर अभी विचार हो रहा है । इसकी बिक्री तत्काल बंद किए जाने के आदेश क्यों नहीं किए जा रहे है ?
    क्या हमारे देश की सरकार को बच्चें के स्वास्थ्य की ज्यादा चिन्ता नहीं है ? देश को बीमार नहीं स्वस्थ बच्चें की जरूरत है क्योंकि स्वस्थ और शिक्षित बच्च्े ही देश का भविष्य हैं । इससे होने वाले नुकसान से बच्चें को बचाने की जिम्मेदारी केवल सरकार की ही नहीं समाज की भी है । हम अपने बच्चें को जंक फूड से होने वाले नुकसान बताएं तो उसका असर भी अवश्य ही देखने को मिलेगा । सरकार और समाज की ओर से इसके लिए नियमित जागरूकता अभियान चलाए जाने की भी जरूरत है ।
प्राणी जगत
कुत्ते रोते क्यों हैं
श्रुति शर्मा

    एक दिन रात को मैं सोने ही जा रही थी कि कुत्तों के रोने की आवाजें आने लगी । मेरे दिमाग में एक सवाल ने दस्तक दी कि क्या ये कुत्तों के रोने की आवाज है ? दुनिया भर में तो हर इलाके के, हर समुदाय के लोग कुत्ते की इस आवाज को रोना ही बताते हैं लेकिन क्या वास्तव में ये कुत्तेकी रोने की आवाज  है ? और दूसरा सवाल यह उठा की क्या ये रात को ही इस तरह की आवाजेंनिकालते होंगे ? कौन-सी स्थितियां होंगी जिसमें कुत्ते इस तरह की आवाजें निकालते होंगे ? पूरी रात इन्हीं सवालों के साथ बीत गई । अगले दिन से मैंने इन सब सवालों के जवाब पता लगाने और कुत्तों का अवलोकन करना शुरू किया । बहुत कुछ खंगालने, लोगों के अवलोकन और और खुद के अवलोकन से बहुत रोचक व महत्त्वपूर्ण बातेंउभरी । इस लेख में कुत्ते की आवाजों को समझने का प्रयास किया गया हैं । 
 कुत्तों से तो ह्म सब अच्छी तरह परिचित हैं । कुत्तेसड़कों, गलियों में यहां-वहां मटर गश्ती करते दिख जाते हैं ।  लोगों में कुत्त पालने का शौक भी   है । कई लोगोंके घर मेंकुत्ते परिवार का हिस्सा बन जाते हैं,देखभाल और प्यार पाते हैं तथा परिवार की सुरक्षा और उनका मनोरंजन भी करते हैं ।
    हम सभी ने कुत्तों को अलग-अलग तरह की आवाजें निकालते सुना है: भौंकना, रोना, गुर्राना,चीखना   आदि  । हम जानवरों की भाषा समझ नहीं पाते, उनकी आवाजों के अर्थ कुछ अनुमान से और कुछ अवलोकन करके निकाल पाते हैं ।
    आइए, कुत्तों की आवाजों को विस्तार में समझने की कोशिश करते  हैं । कुत्तों में आवाजें निकालने के कई तरह के कारण होते हैं । परंतु सम्प्रेषण एक मुख्य कारण हैं । मध्य रात्रि में अक्सर कुत्तों के रोने पर दुनिया में हर कहीं के लोगों की मान्यता है कि अगर कुत्ता रो रहा है तो उसे भूत या यम दिखाई दे रहा है । यानी कुत्तों का रोना अशुभ संकेत देता है । लेकिन सच्चई तो यह है कि कुत्तोंकी आवाज रोने की नहींे होती । अंग्रेजी में इस आवाज को हाउलिंग कहा जाता है । हिन्दी में इसका कोई दूसरा पर्यायवाची न होने की वजह से हम हिन्दी में भी इसे हाउलिंग ही कहेंगे ।
    हम जानते हैं कि भेड़िए कुत्तों के पूर्वज हैंऔर यह भी निश्चित है कि कुत्तों को हाउलिंग की परंपरा भेड़ियों से ही मिली है । रात में सियारों, भेड़ियों, लोमड़ियों की भी हाउलिंग सुनी जा सकती है । इस कुल के सभी जंतु, जैसे भेड़िया, कुत्ता, सियार, लोमड़ी सभी हाउल करते हैं । हाउल करने वाले जंतु झुंड में रहते हैं । हाउलिंग को समझने के लिए कुत्तोंके कान और उनके सुनने की क्षमता की बात करना जरूरी है ।
    कुत्तों में सुनने की क्षमता हम इंसानों से कहीं ज्यादा होती है । कुत्तों के कान बहुत संवेदनशील होते हैं । अत: ये बहुत दूर से आई हुई आवाजों को भी बहुत साफ सुन पाते हैं । हम इंसान २० कू (हर्टज) से २०,००० कू की आवृत्ति की ध्वनि को सुनने मेें सक्षम हैं । दूसरी ओर, कुत्ते ४० कू से ४०,००० कू की आवृत्ति तक की ध्वनि को सुन सकते  हैं । हर्टज यानी प्रति सेकण्ड कंपनों की संख्या । तो २० कंपन प्रति सेकंड २० हर्टज होगा और २०,००० हर्टज यानी २०,००० कंपन प्रति सेकंड ।
    अर्थात जो ध्वनि इंसानोंको सुनाई नहीं दे पाती वह कुत्तों को सुनाई देती है । इसी वजह से कुत्ते रात के समय ज्यादा हाउलिंग करते सुने जाते हैं क्योंकि उस समय चारों तरफ सन्नाटा होता है तथा दूर की आवाजें कुत्तों को आसानी से सुनाई दे जाती हैं और वे प्राय: हाउल करने लगते हैैैं । हालांकि कुत्तेदिन मेंभी हाउल करते हैं मगर शोर के बीच हम सुन नहीं पाते या उस ओर ध्यान नहीं जाता है । हाउल के कारणों के बारे में आगे जानेंगे ।
    कुत्तों को एक विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है जिसमें उनके लिए जिस सीटी का प्रयोग किया जाता है उसमें पराध्वनि ( अल्ट्रासोनिक साउंड) का प्रयोग किया जाता है । इंसान इस ध्वनि को नहीं सुन सकते परन्तु कुत्तों के कान पराध्वनि के प्रति संवेदनशील होते हैं और वे इस पर तुरंत प्रतिक्रिया दिखाते हैं ।
हाउल के कारण
    कुत्तों के रात में हाउल करने का एक कारण तो यही है कि उन्हें रात की खामोशी में बहुत दूर की आवाज साफ सुनाई देती है । अगर कोई कुत्ता बहुत दूर से हाउल कर रहा हो तब कुत्ता उसे सुनकर उसके जवाब मेंहाउल करता है ।
    कुत्तोंके कानोंतक अगर किसी वाहन के सायरन या इसी तरह की कोई ध्वनि पहुंचती है तब कुत्ता प्राय: हाउल करने लगता है । इसी संदर्भ मेंदो बातें सामने आई हैं । एक तो यह कि सायरन या तेज ध्वनि से परेशान होकर कुत्तेहाउल करते हैं और दूसरी यह कि सायरन की ध्वनि को कुत्ते किसी और कुत्ते की हाउल समझ बैठते हैं और उसकी प्रतिक्रिया में हाउल करते हैं ।
    वैसे जंतुआें के डॉक्टर कहते हैं कि जरूरी नहीं कि हर कुत्ता हमेशा किसी तेज ध्वनि से परेशान होकर ही हाउल करता हो । कुछ शोधकर्ताआेंने इस बात को खारिज करते हुए कहा है कि कुत्ते हाउल तभी करते हैंजब उन्हें किसी तरह का दर्द हो रहा हो और यह दर्द किसी भी कारण से हो सकता है या किसी आवाज से परेशान होकर भी ।
    अगर पालतू कुत्तों की बात करें तो कुत्ते के पालकोंका अवलोकन है कि जब घर में टेलीविजन चल रहा हो या कोई वाद्य यंत्र बज रहा हो तब कुत्ता हाउल करता है । हो सकता है कि कुत्ता वाद्या यंत्र और टीवी की आवाज से परेशान होकर हाउल करता है । ऐसा होगा तो वह उन आवाजोंकी प्रतिक्रिया स्वरूप हाउल करेगा । या यह भी हो सकता है कि वह टीवी और वाद्य यंत्र की आवाज से अपनी आवाज मिलाकर हाउल करेगा ।
    हाउलिंग का एक कारण कुत्ते के अकेलेपन से भी सम्बंधित है । पालतू कुत्तों को अगर उनके पालक घर पर अकेला छोड़, ताला लगाकर कुछ समय के लिए बाहर चले जाते हैं तब कुत्ते घर मेंलगातार जोर-जोर से हाउल करते         है । घर के सदस्योंकी उपस्थिति पाते ही वे हाउल करना बंद कर देते हैं ।
    हाउल से सम्बंधित एक रोचक बात यह है कि हर कुत्तेकी हाउल ध्वनि अलग होती है । इस वजह से कुत्ते अपने समूह के सदस्योंतथा दूसरे समूह के सदस्योंकी हाउल में फर्क समझ पाते  हैं । इसलिए अगर कुत्तों के इलाकों में किसी अन्य समूह का कुत्ता आ जाए और हाउल करे तो इन्हें पता चल जाता है कि इनके इलाके मेंकोई बाहरी कुत्ता आ गया है । कुत्तोंके अपने समूह का कोई सदस्य कहींदूर किसी मुसीबत में फंस गया हो तो उस स्थिति में मुसीबत में फंसाहुआ कुत्ता हाउल करके मुसीबत के बारे में खबर देता है । कुत्तोंमें हाउल करने का एक कारण उनके प्रजनन काल से भी है । कुत्तोंके प्रजनन काल मेंहाउलिंग की प्रक्रिया अधिक होने लगती है ।
    हाउल के कारणों की संभावित स्थितियों की तो लगभग हम बात कर चुके हैं । अब यहां एक सवाल और उठ सकता है कि हाउलिंग के दौरान कुत्तोंका मुंह आसमान की तरफ क्यों होता हैं ? कारण यह लगता कि यदि ध्वनि अधिक आवृत्ति वाली होगी तो बहुत दूर तक पहुंचेगी । हमें भी जोर की आवाज निकालनी हो तो हम भी ऊपर मंुह करके निकालते हैं । आइए हाउल के अलावा कुत्तों द्वारा निकाली गई और भी आवाजों को संक्षिप्त् में समझते हैं ।
    पहले भौंकने के कारणों की बात करते हैं ।
    भौंकना कुत्तों की सबसे प्रचलित भाषा है । कुत्तों का भौंकना भी उनके बीच बातचीत का एक माध्यम है । जैसे कुत्तों के इलाके में कोई दूसरे समूह का कुत्ता आ जाए तो कुत्ते भौंकने लगते हैं । कुत्ते इंसानोंको भी अच्छी तरह  से समझ पाते हैं । जैसे पालतू  कुत्तेतब भौंकते हैं जब उनके मनुष्य परिवार के घर मेंकोई मेहमान आया हो, रात को चौकीदार की सीटी पर भौंकते हैं । किसी की आहट पर भी सौंक सकते हैं ।
    कुत्तेतब भी भौंकते है जब उन्हें कुछ चाहिए और यदि उन्हें कोई नहीं सुन रहा होता है तब अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करवाने के लिए भी भौंकते हैं ।
    कुत्ते भौंककर उनके अंदर की भावनाआें को बाहर निकाल पाते हैं । भौंकना कुत्तों के लिए गुस्सा, डर, प्यार, उत्सुकता जताने का एक माध्यम हैं । कुत्तेहर बार अलग आवाज मेंभौंकते      हैं । हम इंसान तो इतना गौर से भौंकने की ध्वनियों को सुनने में फर्क महसूस नहीं कर पाते परन्तु ये कुत्तेआपस में इन ध्वनियों को समझ पाते हैं । उनके हर बार भौंकने का मतलब अलग-अलग हो सकता है ।
    कुत्तों की तमाम आवाजों में गुर्राना भी शामिल है जिसे अंग्रेजी में ग्राउलिंग कहते हैं । गुर्राने से कुत्तों का साफ मतलब होता है कि उन्हें गुस्सा आ रहा है । कुत्तेउनकी असुविधा बताने के लिए गुर्राते हैं । कुत्तोंके गुर्राने से उनकी तरफ ये संकेत मिलते है कि वे काट भी सकते हैं । डर भी कुत्तोंके गुर्राने का एक कारण हो सकता है । जैसे जब कुत्ते किसी अजनबी को देख लते हैं तब वे डरकर उस पर गुर्राते हैं यह कुत्तों का तरीका होता है अजनबी इंसान को कहने का कि मुझसे दूर हटो ।
    कई नर कुत्ते अपने खाने की वस्तु या हड्डी के लिए बहुत अधिक अपनत्व दिखाते हैं और अगर कोई इन वस्तुआें के आसपास भी फटकता है तो वे गुर्राते हैं । अपने इलाके मेंकिसी को घुसने न देने के लिए भी कई बार कुत्तों को गुर्राते हुए सुना गया है । किसी तरह का दर्द होने पर या चोट लगने पर कुत्तेगुर्राते है । जंतुआें के डॉक्टरों का कहना है कि जब कुत्तों को असहनीय पीड़ा होती है वह समय उनके लिए उलझन  वाला समय होता है और वे गुर्राते हैं ।
    कुत्ते कराहते भी हैं । इसे अंग्रेजी में व्हाइनिंग कहते हैं । कूं-कूं कीध्वनि में कराहते हुए अक्सर कुत्तों को सुना जा सकता है । यह ध्वनि भी ऊंचेसुर में निकाली जाती है परन्तु ये ध्वनि नाक से निकाली जाती है इसको निकालते समय कुत्तों का मुंह बंद होता है । कुत्तों का कराहना तब संभव है जब उन्हें बाहर घूमने जाना हो । मलमूत्र करने जाने के लिए भी कुत्ते कराहते हैं । कई बार कुत्ते कराहने की ध्वनि खत्म होते ही भौंकना चालू कर देते हैं । ठिनठिनाना भी कुत्तों के बीच बात करने का एक माध्यम है । आसान शब्दों में इसे तीखी आवाज में भौंकना भी कहा जा सकता है । अंग्रेजी में इसे व्हीम्पर्स कहा जाता है ।
    कुत्ते तीखी आवाज में तभी भौंकते है जब वे दुखी हों । ऐसी स्थिति में वे उनके समूह के सदस्यों को या मित्र मनुष्यों को अपने दुख के बारे में बताने की या उनसे संवाद बिठाने की कोशिश करते हैं, और इसके बाद उन सदस्यों से सकारात्मक प्रतिक्रियाकी उम्मीद भी करते हैं ।
    कुत्ता उस स्थिति में भी ठिनठिनाना है जब उसे मारा जाता है या ठुकराया जाता है । येल्पिंग भी कुत्तों द्वारा निकाली गई एक तरह की आवाज है जो भौंकने से अलग होती है । इसमें कुत्ता ऊंचे सुर में ध्वनि निकालता है परन्तु भौंकने की तुलना में यह ध्वनि काफी मुलायम तथा धीमी निकलती     है ।
    कुत्तों की इन अलग-अलग आवाजों की समझ बनने के बाद उनके मन की स्थिति को समझने में बहुत आसानी हो जाती है और फिर कुत्तों से दोस्ती करना काफी हद तक आसान हो जाता है ।
पर्यावरण परिक्रमा
सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में दिल्ली, भोपाल और रायपुर
    विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लयूएचओ) की ओर से कराए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि दिल्ली दुनिया का सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर है । एम्बिएंट एयर पाल्यूशन नामक इस रिपोर्ट के २०१४ के संस्करण में ९१ देशों में वायु प्रदूषण की स्थिति का ब्यौरा दिया गया है । राष्ट्रीय राजधानी वायु प्रदुषण का रूवरूप २.५ माइक्रेान्स से कम परएम २.५ सघनता के तहत आता है जो सबसे गंभीर माना जाता है । सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरमेंट की अनुमिता रॉयचौधरी ने कहा कि डब्लयूएचओ का नया विवरण भारत में स्वास्थ्य संबंधी चिंताआें की पुष्टि करता है ।
    सुश्री रायचौधरी ने कहा कि वैश्विक आंकड़ों के अनुसार भारत में वायु प्रदूषण मृत्यु का पांचवां सबसे बड़ा कारण है । ज्यादातर शहरों में वायु प्रदूषण की स्थिति पहले के वर्षोंा के मुकाबले ज्यादा बिगड़ी है । कई ऐसे कारण है जो वायु प्रदूषण को बढ़ा रह हैं । इन कारणों में कोयले से संचालित बिजली संयंत्र, निजी मोटर वाहनों पर निर्भरता और भवनों में ऊर्जा के बड़ी मात्रा में इस्तेमाल जैसी चीजें शामिल हैं ।
    मध्यप्रदेश और उसके पड़ोसी छत्तीसगढ़ राज्य के दो बड़े शहर भोपाल एवं रायपुर अब दुनिया के नक्शे पर विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल हो गए हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लयूएचओ)  के ताजा आंकड़ों ने मध्य प्रदेश और उसके पड़ोसी छत्तीसगढ़ के लिए खतरे की घंटी बजा दी है ।
    भोपाल जहां खतरे की ओर बढ़ रहा हैं, वहीं ग्वालियर शहर दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर दिल्ली से अब ज्यादा दूर नहीं रहा है । गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) सद्प्रयास के अब्दुर जब्बार ने डब्लयूएचओ के नए आंकड़ों को लेकर कहा कि मध्यप्रदेश के ग्वालियर और छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर ने तो वायु प्रदूषण के मामले मेंदेश ही नहीं, दुनिया के तमाम औद्योगिक महानगरों को पीछे छोड़ दिया है, जो एक खतरे की घंटी है । डब्लयूएचओ द्वारा जारी किए गए ताजा आंकड़ों में दिल्ली को दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषित शहर बताया गया है । आंकड़े बताते हैं कि ग्वालियर और रायपुर दोनों शहर वायु में मौजूद सूक्ष्म कणों (पीएम-१०) से होने वाले प्रदूषण के मामले में देश में सबसे आगे हैं । श्री जब्बार कहते हैं कि अति सूक्ष्म कणों (पीएम- २.५) से होने वाले प्रदूषण के मामले में डब्लयूएचओ की रिपोर्ट तो ग्वालियर और रायपुर शहर तो दिल्ली के आसपास खड़े हैं । भोपाल में पीएम - १० की मात्रा तय पैमाने से काफी ज्यादा है, लेकिन स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक समझे जाने वाले पीएम-२.५ से हाने वाले प्रदूषण के मामले मेंभोपाल में स्थिति देश के अन्य शहरों की तुलना में बेहतर है । वायु प्रदूषण पर नजर रखने वाले एनजीओ शुरूआत के राजीव लोचन  ने हवा में पार्टीकुलेट मैटर (पीएम) के बारे में बताया  कि यह हवा में ठोस अथवा तरल के रूप में मौजूद अति सूक्ष्म कण हैं । इनका व्यास २.५ माइक्रोमीटर से कम होता है, इसलिए उन्हें पीएम-२.५ कहा जाता है और जिनका व्यास १० माइक्रोमीटर  से कम होता है, उन्हें पीएम-१० कहा जाता है । उन्होंने बताया कि इन कणों में हवा में मौजूद कार्बन मोनो ऑक्साइड, कार्बन डाई ऑक्साइड, लेड आदि घुले होते हैं और इससे यह जहरीला हो जाता है । पीएम-२.५ का स्तर ६० से अधिक होने पर स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचता है ।

साढ़े चार लाख बच्च्े ई-कचरा ढो रहे है
    देश के करीब साढ़े चार लाख बच्च्े कागज, कलम, पकड़ने की उम्र में बिना पर्याप्त् सुरक्षा के विभिन्न यार्ड और वर्क शॉप में इलेक्ट्रॉनिक ई-कचरा ढोने का काम कर रहे हैं । वाणिज्य एवं उद्योग संगठन एसोचैम की रिपोर्ट के मुताबिक इलेक्ट्रॉनिक कचरा उद्योग मेंदस से १४ वर्ष आयु वर्ग के बच्च्े काम कर रहे हैं । एसोचैम ने इस बाजार में बच्चें के प्रवेश को रोकने और उनकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त् कानून बनाने की आवश्यकता पर भी जोर दिया है ।
    रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के चार प्रतिशत इलेक्ट्रॉनिक कचरे के पुनर्चक्रण के लिए इस्तेमाल होने वाले बुनियादी ढांचे की हालात बद्तर है । इसकी वजह से प्राकृतिक संसाधनों के साथ ही पर्यावरण और इनमें काम करने वाले लागों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ रहा है । करीब ९५ प्रतिशत कचरे का प्रबंधन असंगठित क्षेत्र और इस बाजार में रद्दी का कारोबार करने वाले डीलरों के द्वारा किया जाता है ।
    एसोचैम ने कहा कि वर्ष २०१५ तक देश में इलेक्ट्रॉनिक कचरा मौजूदा १२.५ लाख टन वार्षिक से २५ प्रतिशत की दर से बढ़कर १५ लाख टन पर पहुंच सकता है । देश के कुल इलेक्ट्रॉनिक कचरा उत्पादन के मामले मेंमुबंई  ९६००० टन के साथ सबसे ऊपर है । इसके बाद दिल्ली, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र एनसीआर ६७००० टन, बेंगलूर ५७ हजार टन, कोलकाता ३५०००, अहमदाबाद २६०००, हैदराबाद २५ हजार और पुणे १९००० टन के साथ शामिल है । रिपोर्ट के अनुसार देश इलेक्ट्रॉनिक कचरा उत्पादन में कम्प्यूटर उपकरणों का योगदान सर्वाधिक ६८ प्रतिशत है । इसके बाद दूरसंचार उपकरणों का १२ प्रतिशत, इलेक्ट्रिकल उपकरणों का आठ प्रतिशत और चिकित्सा उपकरणों का सात प्रतिशत तथा अन्य उपकरणों का योगदान पांच प्रतिशत है ।
    रिपोर्ट के अनुसार घरेलू स्तर पर कम्प्यूटर, टेलीविजन, मोबाइल और रेफ्रिजरेटर से निकलने वाले कचरे में १००० से अधिक जहरीले पदार्थ पाए जाते हैं जिससे जल एवं मृदा प्रदूषण बढ़ने के साथ लोगों में सिर दर्द चिड़चिड़ाहट, बैचेनी, उल्टी और आंखों में दर्द जैसी समस्या बढ़ जाती है । इन कारखानों में काम करने वाले लोगों को लीवर, किडनी, स्नायुतंत्र से जुड़ी बीमारियां हो जाती है । रिपोर्ट में कहा गया है कि इन कारखानों में काम करने वाले अपने स्वास्थ्य को लेकर सजग नहीं होते । इलेक्ट्रॉनिक कचरे में लीड, कैडमियम, मरकरी, हेकसावैलेंट, क्रोमियम, प्लास्टिक, बेरियम, बेरिलियम और कैंसर जनित पदार्थ भी पाए जाते है ।
    इलेक्ट्रॉनिक कचरा में कम्प्यूटर मानीटर, मदरबोर्ड, कैथोड रेट्यूब, प्रिटेंड सर्किट बोर्ड, मोबाइल फोन एवं चार्जर, काम्पैकट डिस्क, सीडी, हेडफोन, प्लाज्मा टेलीविजन और एयर कंडिशन (एसी) तथा इसके उपकरणों को शामिल किया जाता है । एसोचैम ने कहा कि अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक कचरा सरकारी, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के उद्योगोंसे आते हैं  जबकि घरों से निकलने वाले कचरे का योगदान १५ प्रतिशत है । इसके साथ ही इसमें टेलीविजन, रेफ्रिजरेटर और वाशिंग मशीन का सर्वाधिक योगदान है जबकि कम्प्यूटर का २० प्रतिशत और मोबाइल फोन का दो प्रतिशत है ।

शीतल पेय से बढ़े किडनी स्टोन के मामले
    ठंडे पेय को पानी का विकल्प बना देने के कारण युवाआें में किडनी स्टोन के मामलों में खतरनाक बढ़त देखी जा रही है । कम पानी पीने के अलावा फैट और कारबोहाइड्रेट युक्त आहार प्रमुखता सेे लेने के कारण भी स्टोन की समस्या बढ़ी है । विशेषज्ञों के अनुसार किडनी स्टोन के ३० प्रतिशत मरीजों की आयु २५ से ३५ के बीच है । आजकल किशोरोंऔर युवाआें में खाने के साथ सॉफ्ट ड्रिंक लेने का चलन बढ़ा है । विशेषज्ञों के अनुसार यह चलन स्वास्थ्य पर भारी पड़ रहा है । उनके अनुसार इस तरह की जीवनशैली के कारण लोगोंमें कम उम्र में ही किडनी स्टोन की समस्या बढ़ी है । स्त्रूखे मेवे, चॉकलेट और जंक फूड का उपयोग समस्या को गंभीर रूप दे रहा है । हांलाकि किडनी में स्टोन बनने का कोई स्थायी नुकसान नहीं होता है लेकिन कुछ वक्त के लिए कार्यक्षमता पर खासा असर पड़ता है खासतौर पर घर से दूर रहने वाले युवाआें पर । पर्याप्त् पानी पीना, हरी सब्जियां और दूध लेना व जंक फूड खाने से बचना इसकी रोकथाम के उपाय है ।
    क्या है किडनी स्टोन ? यह किडनी के भीतर कैल्शियम ऑक्जलेट नामक पदार्थ का कड़ा जमाव है । इसके कारण पसली के नीचे व किनारे की ओर तेज दर्द  होता है । दर्द रूक रूककर और घटता-बढ़ता रहता है । पेशाब करने में दर्द एवं उल्टियां या जी मिचलना जैसे लक्षण सामान्यत: दिखाई पड़ते हैं । वैसे तो खाने के बीच पानी भी कम से कम पीना चाहिए जबकि युवा शीतल पेय का अधिक उपयोग कर रहे हैं । वहीं वे दिनभर में आवश्यकता से भी कम पानी का सेवन कर रहे हैं । इस वजह से शरीर के भीतर ऑक्जलेट स्टोन बनने लगा है जो किडनी स्टोन का कारण है । इसके अलावा प्रोटीनयुक्त आहार अधिक मात्रा मेंलेने पर शरीर से यूरिक एसिड का स्त्राव अधिक होता है जो इसका कारण बनता है । कम पानी, ठंडा पेेय, अधिकाधिक प्रोटीनयुक्त आहार, जंक फूड, सोया सॉस जैसे खानपान को अपनाने के कारण २५ से ३५ वर्ष के बीच के मरीज ज्यादा आ रह हैं ।

दुनिया की शीर्ष दो हजार कंपनियोंमें एनटीपीसी
    बिजली बनाने वाली देश की सबसे बड़ी कंपनी एनटीपीसी फोबर्से की सूची में शामिल दुनिया की शीर्ष २००० कंपनियों में ४२४वें स्थान पर है । फोबर्स ग्लोबल सूची दुनिया की बड़ी और प्रभावशाली कंपनियों कंपनियों की वृहत सूची है । इसके साथ किसी कंपनी का नाम जुड़ना काफी महत्त्व का माना जाता है । एनटीपीसी के कोयला और गैस से चलने वाले क्रमश १६ और ७ बिजली संयंत्र हैं । इसके अलावा कंपनी के सौर ऊर्जा चलित सात बिजली संयंत्र भी है तथा सात अन्य संयंत्र संयुक्त उपक्रम के रूप मेंकाम कर रहे हैं । एनटीपीसी के इन संयंत्रों की कुल बिजली उत्पादन क्षमता ४३०३९ मेगावाट है । देश में बिजली की कुलखपत का २८ प्रतिशत हिस्सा इन संयंत्रों से आता है ।
विज्ञान, हमारे आसपास
विमानों के ब्लैक बॉक्स क्या हैं ?
विमल श्रीवास्तव

    पिछले दिनों ८ मार्च २०१४ की मध्य रात्रि को मलेशियन एयरलाइन को बोइंग ७७७ विमान कुआलालम्पुर से बीजिंग जाते समय अचानक आकाश से लापता हो गया था । यह विमान संभवत: अपने २३९ यात्रियों तथा कर्मियों सहित दुर्घटनाग्रस्त होकर महासागर में समा गया था । दुर्भाग्यवश न तो विमान के मलबे का सुराग मिल पाया था, और न ही पता चल रहा था कि दुर्घटना किस स्थान पर हुई थी ।
    लापता विमान की खोज के लिए चीन, ऑस्ट्रेलिया, वियतनाम, भारत, बांग्लादेश तथा मलेशिया सहित अनेक देशों के जलपोत निरन्तर गश्त लगा रहे थे, किन्तु लेख लिखे जाने तक कहीं कुछ सुराग तक नहीं मिल पाया था । ऐसे में खोजकर्ता तथा विमान से संबंधित कंपनियां अपना पूरा ध्यान लगाए हुए थे कि यदि किसी प्रकार विमान के ब्लैक बॉक्स का पता चल पाए तो काम सरल हो   सकेगा । 
     विमानोंमें लगाए जाने वाले ये ब्लैक बॉक्स अपने अंदर महत्वपूर्ण जानकारी समाए रखते हं, जो दुर्घटना के पश्चात उसके कारणों का पता लगाने में अत्यन्त सहायक सिद्ध होती है । आश्चर्य की बात है कि ब्लैक बॉक्स  का रंग काला न होकर  सुर्ख लाल अथवा चटख नारंगी होता है ।
    वास्तव में प्रत्येक विमान में एक नहीं बल्कि दो ब्लैक बॉक्स  होते है, जो बाहर से देखने में बिल्कुल एक जैसे दिखते हैं किन्तु उनके कार्य एक-दूसरे से एकदम अलग-अलग होते हैं । ये दोनों ब्लैक बॉक्स क्रमश: फ्लाइट डैटा रिकार्डर (एफ.डी.आर.) तथा कॉकपिट वाइस रिकार्डर (सी.वी.आर.) कहलाते हैं । जहां एफ.डी.आर. विमान के उड़ान संबंधी आंकड़े रिकार्ड करता है वहीं सी.वी.आर. विमान के यान कक्ष में होने वाली बातचीत रिकॉर्ड करता    है । यह काम ब्लैक बॉक्स उड़ान के दौरान निरन्तर करते रहते हैं ।
    एफ.डी.आर. तथा सी.वी. आर. यद्यपि ब्लैक बॉक्स कहलाते हैं किन्तु नाम के विपरीत इनका रंग काला न होकर गहरा लाल अथवा नारंगी होता है । इन्हें ब्लैक बॉक्स इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनमें  अंकित सूचनाएं तब तक ज्ञात नहीं हो सकती है जब तक कि इन डिब्बों को खोलकर टेप को बाहर न निकाला   जाए । इनका रंग गहरा लाल अथवा नारंगी रखने का मकसद यह होता है कि दुर्घटना के बाद इनको आसानी से ढूंढा जा सके ।
    एफ.डी.आर. तथा सी.वी. आर. बाहर से देखने पर आकार तथा भार आदि में बिल्कुल एक जैसे लगते हैं  किन्तु वास्तव में ये बिल्कुल भिन्न-भिन्न उपकरण हैं । इनकी अंदरूनी बनावट व कार्य प्रणाली एक-दूसरे से बिल्कुल अलग-अलग होती हैं ।
    ब्लैक बॉक्स सामान्यत: आयताकार होते हैं, जिनकी लम्बाई ३० से.मी., चौडाई २० से.मी. तथा ऊंचाई  १३ से.मी. होती है और भार लगभग १० किलोग्राम होता है । इस प्रकार देखने में ये किसी ब्रीफ केस से बड़े नहीं दिखते हैं । इनके बाहरी आवरण अत्यन्त सुदृढ़, जल-रोधक तथा ताप-रोधक होते है जो विमान दुर्घटना के भयंकर आघात तथा कठोर ताप को सहने में सक्षम होते हैं ।
    इन ब्लैक बॉक्सों के माइक्रोफोन तथा अन्य रिकार्डिग यंत्र यद्यपि विमान के यान कक्ष (कॉकपिट) तथा अन्य स्थानों पर लगे होते हैं, किन्तु ये बक्से प्राय: विमान के पिछले हिस्से में लगाए जाते हैं । इन्हें पिछले भाग में लगाने का प्रयोजन यह है कि ऐसा समझा जाता है कि विमान दुर्घटना होने पर अधिकतर मामलों में उसकी पंूछ का हिस्सा नष्ट होने से बच जाता है ।
    दोनों प्रकार के ब्लैक बॉक्सों में एक-एक ध्वनि प्रसारक यंत्र भी लगा रहता है जो एक विशेष प्रकार की बैटरी द्वारा संचालित होता है । इस बैटरी की विशेषता यह है कि जब यह जल के सम्पर्क में आती है तभी अपना कार्य आरंभ करती है, अन्यथा सुप्त् बनी रहती है । अर्थात यदि दुर्घटना के समय विमान किसी नदी, झील या सागर में गिर जाए तो यह बैटरी चालू हो जाती है तथा ध्वनि प्रसारक यंत्र से विशेष प्रकार की बीप-बीप आवाजें आने लगती हैं । इन ध्वनियों को सुनकर खोजकर्ता जल में डूबे ब्लैक बॉक्स  को ढूंढ सकते हैं ।
    एक बार चालू हो जाने के बाद यह बैटरी ३० दिन तक कार्य करती है और तब तक इन्हें ढूंढा जा सकता है । इसी कारण एयर इंडिया के कनिष्क विमान की दुर्घटना के समय सागर की लगभग दो कि.मी. की गहरी तलहटी से इन छोटे-छोटे बक्सों को निकाला जा सका था । यह कार्य कुछ-कुछ भूसे के ढेर में सुई ढूंढने जैसा   था । वास्तव में ८ मार्च २०१४ को गायब हुए मलेशियन एयरलाइन के विमान के संबंध में भी इसी कारण उन ब्लैक बॉक्सों को ढूंढने की जल्दी थी, क्योंकि ३० दिनों के बाद उनसे सिग्नल आने बंद हो जाते हैं और फिर उनका मिल पाना लगभग असंभव हो जाता ।
    ब्लैक बॉक्स कितने मजबूत होते हैं इसका अनुमान आगे के विवरण से लगाया जा सकता है । पहली जनवरी १९७८ को नववर्ष के अवसर पर मुम्बई के निकट एयर इंडिया का सम्राट अशोक नामक जम्बो जेट दुर्घटनाग्रस्त हो गया तथा सम्पूर्ण विमान २१३ सवारों के साथ सागर की तलहटी मेंधंस गया । लगभग तीन दिनों के बाद विमान का मलबा खोजा जा सका तथा ब्लैक बॉक्सों को निकाला गया । इतने भयंकर झटकों तथा   सागर के खारे जल से संपर्क के बावजूद भी ब्लैक बॉक्स बिल्कुल सही पाए    गए ।
    इसी प्रकार ४ अगस्त १९७९ को इंडियन एयरलाइंस का एक एवरो (एच.एस.७४८) विमान मुम्बई के निकट पहाड़ियों से टकरा कर नष्ट हो गया और उसमें सवार सभी ४५ व्यक्तियों की मृत्यु हो गई । आग लग जाने के कारण विमान पूरी तरह से नष्ट हो गया तथा केवल उसके कुछ जले हुए टुकड़े ही पाए गए । इस विमान के ब्लैक बॉक्सों के ऊपरी कवच भी काफी हद तक जल गए थे किन्तु अन्दरूनी हिस्से बिल्कुल सही सलामत पाए गए । उनके अन्दर के टेप भी बिल्कुल सही हालत में  थे । उन्हीं की सहायता से दुर्घटना के कारणों का पता चल पाया ।
    ब्लैक बॉक्सों की शीत, गर्मी, बारिश, आघात आदि को झेल सकने की क्षमता सिद्ध हो चुकी है । इन बॉक्सों के इतने परिचय के बाद सी.वी.आर. तथा एफ.डी.आर को अलग-अलग जानने की बारी आती  है ।
    सी.वी.आर. विमान के यानकक्ष (कॉकपिट) में कर्मी दल के सदस्यों की आपस की बातचीत तथा रेडियो पर किए गए वार्तालाप को रिकार्ड करता है । यह केवल मानवीय आवाज ही नहींबल्कि अन्य ध्वनियां भी,  जैसे इंजिनों का शोर, चेतावनी की घंटियां, बजर, खतरे के संकेत, स्विचों की आवाजें, तथा बजर की आवाजें, यान कक्ष के द्वार के खुलने बंद होने की आवाजें तथा अन्य प्रकार का शोर-शराबा आदि भी रिकार्ड करता रहता   है ।
    वास्तव में सी.वी.आर. काफी कुछ एक घरेलू टेप रिकार्डर जैसा ही होता है । अन्तर सिर्फ यह होता है कि यह अत्यन्त सुदृढ़ ढांचे में सुरक्षित होता है । सी.वी.आर. के टेप की अवधि आधे घण्टे की होती है । आधे घन्टे के बाद पुरानी रिकार्डिग मिटती जाती है तथा नई रिकार्डिग स्वत: होती जाती है । इस प्रकार किसी भी समय सी.वी.आर. को खोला जाए तो उसमें केवल पिछले आधे घण्टे की रिकार्डिग मिलेगी । सी.वी.आर. विमान के इंजिनों से चलने की शक्ति प्राप्त् करता है और इंजिनों के बंद होने पर कार्य करना बंद कर देता है ।
    विमान दुर्घटना जांच के दौरान सी.वी.आर. के टेप को खोला जाता है, तथा रिकार्ड किए गए वार्तालाप तथा ध्वनियों आदि के लिखित विवरण तैयार किए जाते    हैं । यह काम काफी कठिन होता है क्योंकि अनेक प्रकार की मिली-जुली ध्वनियां तथा वार्तालाप बहुत धीमे तथा क्षीण होते हैं जिनको समझना काफी कठिन होता है । किन्तु अनुभवी विमान दुर्घटना अन्वेषक यह कार्य कर लेते हैं । तत्पश्चात् विमान चालकों की आवाजों से परिचित लोगों की सहायता से बोलने वालों की पहचान की जाती है । इस प्रकार यह पता चल जाता है कि दुर्घटना  से पूर्व कर्मीदल के किस सदस्य ने किस मौके पर क्या कहा था । इन सबके आधार पर सी.वी.आर. की रिपोर्ट तैयार हो जाती है ।
    सी.वी.आर. पर रिकार्ड की गई जानकारी दुर्घटना की जांच में बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध होती हैं । जैसे यानकक्ष में कर्मीदल के सदस्यों की आपसी बातचीत से यह मालूम पड़ सकता है कि दुर्घटना के समय यान कक्ष में वातावरण सामान्य था या चालक दल को किसी प्रकार की कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था । यह भी पता चल जाता है कि यंत्रों का उपयोग सही ढंग से किया गया था या नहीं, तथा क्या विमान के सभी यंत्र सही ढंग से कार्य कर रहे थे अथवा क्या किसी यंत्र से खतरे या चेतावनी की घंटी या अलार्म आया था । यदि दुर्घटना किसी अपहरणकर्ता अथवा बाहरी व्यक्ति के कारण हुई हो, तब उसकी आवाज भी रिकार्ड हो जाती है । इन सूत्रों के आधार पर विमान दुर्घटना से संबंधित अनेक गुत्थियां सुलझाई जा सकती है ।
    एफ.डी.आर. विमान की उड़ान संबंधी सूचनाएं, जैसे विमान की ऊंचाई, गति, दिशा, विमान के ऊपर अथवा नीचे जाने की गति, समय तथा गुरूत्व बल तथा उसके इंजिनोंसे संबंधित ५० से लेकर लगभग २०० से भी अधिक सूचनाएं रिकॉर्ड करता रहता है । इसकी अवधि २५ घंटे या अधिक की हो सकती है। 
    एफ.डी.आर. द्वारा रिकार्ड की गई सूचनाआें के आधार पर विमान दुर्घटना से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त् हो जाती है, जिससे विमान दुर्घटना का कारण जानने में सहायता मिलती । जैसे टेप पर अंकित समय द्वारा यह ज्ञात हो सकता है कि दुर्घटना किस समय घटित हुई थी तथा उसके पूर्व यदि कोई उल्लेखनीय घटना घटी थी तो उसके तथा दुर्घटना के बीच समयान्तर क्या था । दिशा के आधार पर विमान के उड़ान पथ में किसी असामान्य परिवर्तन का पता लग सकता है । इसी प्रकार अंकित की गई गति के आधार पर यह पता चल सकता है कि दुर्घटना से पूर्व विमान सामान्य गति से उड़ान भर रहा था या उसकी गति में असामान्य तेजी या कमी आई थी । गुरूत्व बल के आधार पर यह पता चल सकता है कि विमान कितनी शक्ति से नीचे आया था अथवा भूमि से टकराया  था । इन्हीं सूत्रों के आधार पर जांचकर्ता अपनी रिपोर्ट तैयार करते     है ।
    जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि इन ब्लैक बॉक्सों की सहायता से जांचकर्ता विमान की दुर्घटना से पूर्व की उड़ान का पूरा लेखा-जोखा तैयार कर पाने में सक्षम होते हैं । इस प्रकार जहां एफ.डी.आर. विमान के उड़ान संबंधी चित्रण प्रदान करते हैं वहीं सी.वी.आर. उन दृश्यों में आवाज भर देते हैं । यदि हम इसकी तुलना क्रिकेट कमेन्ट्री से करें तो यह कह सकते हैं कि जहां सी.वी.आर. उड़ान का रेडियो जैसा आंखों देखा हाल सुनाता है, वहीं एफ.डी.आर. उन दृश्यों को एक बिना आवाज वाले टेलीविजन पर दर्शाता  है। यदि दोनों को मिला कर देखा जाए तो पूरा दृश्य सामने आ जाता है ।
    ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब ब्लैक बॉक्सों के कारण ही विमान दुर्घटना  का वास्तविक कारण जानना संभव हो सका है । जैसे वर्ष १९७४ में नैरोबी में लुफ्तांसा (जर्मन एयरलाइन्स) का एक बोइंग ७४७ विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था । जांच के समय जब सी.वी.आर.टेप को सुना गया तो पता चला कि चिमान चालक उड़ान से पूर्व चेक लिस्ट पढ़ते समय विमान की वायु प्रणाली (न्यूमैटिक सिस्टम) को चालू करना भूल गया था । इस कारण उड़ान के समय विमान का एक नियंत्रण साधन लीडिंग एज फ्लैप चालू नहीं हुआ था तथा समुचित उछाल बल प्राप्त् न हो पाने के कारण विमान नीचे गिर गया था ।
    इसी प्रकार पहली जनवरी १९७८ को हुई  एयर इंडिया के जम्बो जेट की दुर्घटना की जांच के दौरान पता चला कि उस दौरान विमान का एट्टीट्यूड डायरेक्टर इन्डीकेटर (ए.डी.आई.) नामक यंत्र काम नहीं कर रहा था । ऐसा इसलिए मालूम चल पाया था क्योंकि सी.वी.आर. टेप में विमान का कप्तन अपने सहचालक से कहता हुआ पाया गया था - ाू खिीींीीर्ााशिींी रीश ींििश्रिशव- अर्थात मेरे यंत्र पलट गए हैं । और उस विमान में ए.डी.आई. ही एक ऐसा यंत्र है जो   पलट सकता है । अब यदि सी.वी.आर. से सहायता न मिलती तो संभवत: दुर्घटना के कारण का पता नहीं चल पाता ।
    इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि ब्लैक बॉक्स विमानें के लिए कितने जरूरी होते हैं । इन्हीं सबकारणों से महानिदेशक नागर विमानन द्वारा भारत के यात्री विमानों में नियमानुसार ब्लैक बॉक्स लगाया जाना अनिवार्य कर दिया गया हैं ।
कविता
हमारी प्यारी धरती माता
डॉ. संजीव गोयल
    प्रथम माँ है निज जननी, और दूजी भारत माता
    किन्तु सारे जग को जीवन देती धरती माता ।।
    हमारी प्यारी धरती माता, हमारी प्यारी धरती माता
    धरती में ही बसते सारे खनिज और इंर्धन
    बनके लहू सा बहता जल, जिससे चलता जीवन ।
    सूरज तपन से मौसम बनता, मन चेतना हो जाता,
    सारे जग को जीवन देती प्यारी धरती माता ।।
    वृक्ष होते बेटी, बेटे, और बेलें बहुआें जैसी,
    लताएँ लगती प्रेमिका, और झाड़ें सौतन जैसी ।
    पौधे होते नाती पोते, मन देख-देख हर्षाता,
    सारे जग को जीवन देती प्यारी धरती माता ।।
    माँ से मिलता कोमल मन और पिता से मिलता कर्म
    धरती माँ से पोषण मिलता और सूरज से श्रम ।
    जीवन भर ऋण लेते लेते, तन माटी-सा हो जाता,
    सारे जग को जीवन देती प्यारी धरती माता ।।
    धरती का मन मौसम होता, हर पल नय कुछ रचता,
    स्वार्थ धुन में मानव कहता, अब न यहाँ कुछ बचता ।
    सब चुप सहती, अति होती तो, सब स्वाह हो जाता,
    सारे जग को जीवन देती प्यारी धरती माता ।।
    सोचे हम तुम क्या करना है, संग जीना है, या मरना है,
    धरती अंबर के साये से माँका, फूलों सा हरपल खिलना है ।
    अपने सत्कर्मोंा से माँ का, श्रृंगार हमें फिर करना है,
    प्रथम माँ है निज जननी, और दूजी भारत माता
    किन्तु सारे जग को जीवन देती धरती माता ।।
ज्ञान विज्ञान
बैक्टीरिया की एक और करामात
    यह तो काफी समय से पता है कि कई परजीवी अपने मेजबान के शरीर पर कुछ इस तरह नियंत्रण करते हैं कि वह इन परजीवियों के प्रसार में मदद करने लगता है । जैसे एक कृमिहोता है हॉर्सहेयर कृमि । यह एक झिंगुर मेंपरजीवी की तरह रहता है । यह अपने मेजबान यानी झिंगुर को मजबूर कर देता है कि वह पानी में डूब जाए । इस तरह से परजीवी पानी में पहुंच जाता है जहां से वह नए मेजबान को संक्रमित कर सकता है । इसी प्रकार से लिवर फ्लूक नाम का नाम का कृमि जिस चींटी को संक्रमित करता है उसे घास की पत्तियोंपर चढ़ने को विवश कर देता है । यहां से गायें उसे खा लेती हैं और लिवर फ्लूक गाय के शरीर में पहुंच जाता है । 
     मगर एक बैक्टीरिया ने तो हद कर दी है । फायटोप्लाज्मा मानक यह बैक्टीरिया सुदंर फुलोंवाले पौधे सदाबहार  को संक्रमित करता है । इस संक्रमण का नतीजा यह होता है कि पौधे के फू ल तो पत्तीदार टहनियों में बदल जाते हैं, इन  फूलों की पंखुड़ियां हरी हो जाती हैं और एक ही जगह पर खूब सारी टहनियां बन जाती हैं जिसकी वजह से एक झाडूनुमा रचना ( विचेस ब्रूम) दिखने लगती है । इस परिवर्तन के चलते पौधा प्रजनन के काबिल नहीं रहता और पत्तियों का रस चूसने वाले कीट इसकी ओर खूब आकर्षित होने लगते हैं । इन कीटों की मदद से बैक्टीरिया नए-नए मेजबान तक पहुंच  जाता है । है ना, नायाब रणनीति ? दरअसल यह बैक्टीरिया एक ओर तो पौधे के शरीर को बदलकर उसे प्रजनन के अयोग्य बना रहा है, वहीं दूसरी ओर कीटों के लिए आकर्षक भी ।
    इस शोध के मुखिया सास्किया होजेनहाउट ने प्लॉसबायोलॉजी नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित अपने पर्चे में बैक्टीरिया की इस कारमात की क्रियाविधि का भी खुलासा किया है । ये बैक्टीरिया एक प्रोटीन एसएपी-५४ की मदद से पौधे को प्रभावित करते हैं । एसएपी-५४पौधे में उपस्थित प्रोटीन आरएडी-२३ के माध्यम से अपना काम करता है । आरएडी-२३ वह प्रोटीन है जो पौधों की कोशिकाआें में पदार्थोंा को नष्ट करता है, उन्हें प्रोटीयोसोम तक पहुंचाता है । प्रोटियोसोम पौधों की कोशिकाआें का कचरा-निपटान केंद्र होता है । एसएपी-५४ जाकर आरएडी-२३ को मजबूर करता है कि वह फू ल बनाने वाले अणुआें को प्रोटियोसोम में भेज दे ।
    यही एसएपी-५४ पौधों के अन्य प्रोटीन्स के साथ क्रिया करके पौधे को कीटों के प्रति ज्यादा आकर्षक बनाता है । देखा गया कि कीट ऐसे पत्तीनुमा फूल वाले पौधों पर ज्यादा अंडे देते हैं । पाया गया कि यदि बैक्टीरिया संक्रमण न हो मगर एसएपी-५४ दिया जाए, तो भी यही असर होता है । शोधकर्ताआें का विचार है कि यह खोज फसलों की उपज बढ़ाने और उन्हें कीट प्रतिरोधी बनाने में मदगार होगी ।

एक सूक्ष्मजीव ने ९० फीसदी प्रजातियों की जान ली थी
    आज से करीब २५ करोड़ वर्ष पूर्व धरती पर ऐसी तबाही मची थी कि उस समय मौजूद करीब ९० प्रतिशत जीव प्रजातियों का विलोप हो गया था । इसे महामृत्यु या ग्रेटडाइंर्ग की संज्ञा दी गई है । यह पर्मियन युग लगभग ३० करोड़ से २५.२ करोड़ पर्ष पूर्व माना जाता है । इतनी भयानक तबाही के कारणों के बारे कई अटकलें लगाई गई हैं । अब इनमें एक और उम्मीदवार जुड़ गया है ।
    ताजा शोध के मुताबिक इस दौर में कुछ सूक्ष्मजीवोंने ऐसे भोजन का उपयोग करने की क्षमता हासिल कर ली थी जो उस समय तक अनुपयोगी पड़ा हुआ था । इस क्षमता के आने के बाद ये सूक्ष्मजीव अति-सक्रिय हो गए थे और इनकी सक्रियता के चलते निर्मित रसायनोंने पूरी धरती को तबाही की ओर धकेल दिया था । 
     ऐसे प्रमाण मिले हैं कि पर्मियन युग के अंत में महामृत्यु के साथ-साथ धरती बहुत गर्म हुई थी और समुद्र अत्यंत अम्लीय हो गए थे । इसके कारणों में प्रमुख यह माना जाता है कि साइबेरिया क्षेत्र में ज्वालामुखियों की सक्रियता के चलते जलवायु परिवर्तन हुआ था । मगर एमआईटी के डेनियल रॉथमैन और उनके साथियोंने इस घटना की एक नई तस्वीर पेश की है । रॉथमैन का कहना है कि महामृत्यु से पूर्व समुद्रों में भारी मात्रा में कार्बनिक पदार्थ जमा हो गया था । मगर इसका उपयोग करने की स्थिति में कोई जीव नहीं था ।
    मगर जल्दी ही एक सूक्ष्मजीव मेथेनोसार्सिना ने यह क्षमता हासिल कर ली । समुद्र में जमा उक्त कार्बनिक पदार्थ में मुख्य रूप से एसिटेट यौगिक थे । मेथोनोसार्सिना ने एक बैक्टीरिया से एसिटेट पचाने के लिए जरूरी जीन्स प्राप्त्  किए ।
    आजकल के विभिन्न सजीवों के जीनोम के विश्लेषण के आधार पर रॉथमैन ने गणना की है कि यह घटना करीब २५ करोड़ वर्ष पहले की है ।  इसके बाद मेथोनोसार्सिना ने एसिटेट भक्षण शुरू किया और इस प्रक्रिया मेंखूब मीथेन पैदा हूई । मीथेन एक जानी-मानी ग्रीनहाउस गैस है । वातावरण में मीथेन बढ़ी तो धरती का तापमान बढ़ने लगा । रॉथमैन ने उस समय की तलछटी चट्टानों के विश्लेषण, खास तौर से समस्थानिक तत्वों के विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि उस समय मीथेन तथा कुछ अन्य गैसों की सांद्रता अत्यंत तेजी से बढ़ रही थी । धरती इतनी गर्म हुई कि ज्यादातर प्रजातियों का जीना मुहाल हो गया ।
    अलबत्ता, ज्वालामुखी सिद्धांत के समर्थकों का कहना है कि अभी निश्चित रूप से रॉथमैन की बात को सही कहना मुश्किल है ।

हिमालय की ऊंचाइयां मधुमक्खियों के लिए कुछ नहीं
    एल्पलाइन बम्बलबी माउंट एवरेस्ट (९००० मीटर से भी अधिक ऊंचाई) पर पाए जाने वाले हवा के दबाव में मजे में उड़ सकती हैं । प्रयोगशाला अध्ययन में पाया गया है कि वे यह करतब अपने पंखों को ज्यादा चौड़ाई में फड़फड़ाकर करती हैं । हालांकि हिमालय की चौटी पर तो भोजन के अभाव में वे जी नहीं सकतीं लेकिन इस प्रकार की उड़ान उन्हें अनय स्थानों पर शिकारियों से बचने में मददगार हो सकती हैं । 
     कनाडा के वैन्कूवर स्थित ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय मेंपक्षियों की उड़ानों के विशेषज्ञ डगलस आल्टश्यूलर का कहना है कि यह अध्ययन दर्शाता है मधुमक्खियां अनुमान से जयादा ऊंचाई पर उड़ सकती हैं ।
    कई बार बम्बलबी को ४००० मीटर की ऊंचाई पर उड़ते हुए देखा गया है और भोजन की तलाश में तो वे ५६०० मीटर से भी अधिक की ऊंचाई तक चली जाती हैं । अधिक ऊंचाई पर वायु का घनत्व कम हो जाता है जिसके  चलमें पंखों को फड़फड़ाकर पर्याप्त् उछाल नहीं मिलती । और वैसे भी इतनी ऊंचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा कम होने के कारण मधुमक्खियों का जीवित रहना मुश्किल है । इस बात को अच्छी तरह समझा नहीं गया है कि कीटों की शरीर क्रिया के कौन-से गुण उन्हें इतनी ऊंचाई तक उड़ने में सहायक होते हैं ।
    दो जीव-वैज्ञानिकों माइकल डिलन और रॉबर्ट डूडली ने यह देखने का प्रयास किया की बम्बलबी की उड़ान की ऊंचाई की सीमा वायुगतिकी और शरीर-क्रिया की सीमाआेंकी वजह से निर्धारित होती है । चीन के सीचुआन पर्वत पर काम करते हुए इन्होंने पांच नर बम्बलबी (बॉम्बस इम्पेचुओसस) को भोजन की तलाश में ३२५० मीटर ऊंचाई पर पकड़ा और उन्हें प्लेक्सीग्लास चेम्बर में रखा । जब बम्बलबी ऊपर की ओर उड़ना शुरू करती तो उस चेम्बर के अंदर का दबाव कम किया जाता था । दबाव को हर बार ५०० मीटर की चढ़ाई के बराबर कम किया जाता । पांचों मधुमक्खियां  दबाव के लिहाज से ७४०० मीटर की ऊंचाई तक उड़ती रहीं । तीन ८००० मीटर से भी अधिक ऊंचाई तक उड़ती रहीं, और दो ९००० मीटर से भी अधिक की ऊंचाई तक उड़ पाई ।
    मधुमक्खी ऐसा कैसे कर पाती  है ? यह देखने के लिए डिलन और डूडली ने फ्लाइट चेम्बर के ऊपर से लिए गए वीडियों फुटेज का विश्लेषण किया । उन्होंने पाया कि वे अपने पंखों को ज्यादा बार नहीं फड़फड़ाती थीं बल्कि उन्हें ज्यादा बड़े कोण पर नीचे की ओर लाती थी । इससे हवा के ज्यादा अणुआें को नीचे की ओर धकेला जा सकता है । डिलन का कहना है कि पंख फड़फड़ाने की आवृत्ति को बढ़ाना एक तरीका हो सकता है लेकिन शायद इंजीनियरिंग की दृष्टि से मधुमक्खियों ने ज्यादा आसान तरीका अपनाया है ।
    हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि मधुमक्खियां सचमुच एवरेस्ट की ऊंचाई पर उड़ सकती हैं ।
जनजीवन
अपने पर्यावरण के प्रति जागरूक रहे
शैलेन्द्र चौहान

    पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्टाकहोम (सीडन) में सन् १९७२ में ०५ से १६ जून तक विश्व भर के देशोंका पहला अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया था । इसमें ११९ देशों ने भाग लिया और पहली बार एक ही पृथ्वी का सिद्धांत मान्य किया । इसे स्टाकहोम कान्फ्रेंस के नाम से भी जाना जाता है ।
    पर्यावरण संरक्षण के कह बिन्दु है जैसे पर्यावरण प्रदूषण के निवारण, नियंत्रण और उपशमन हेतु राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम की योजना बनाना और उसे क्रियान्वित करना । पर्यावरण की गुणवत्ता के मानक निर्धारित  करना । पर्यावरण सुरक्षा से संबंधित अधिनियमों के अंतर्गत राज्य-सरकारों, अधिकारियों और संबंधितों के काम में समन्वय स्थापित करना । ऐसे क्षेत्रों का परिसीमन करना, जहाँ किसी भी उद्योग की स्थापना अथवा औद्योगिक गतिविधियां संचालित न की जा सकें आदि । उक्त अधिनियम का उल्लंघन करने वलों के लिए कठोर दंड का प्रावधान है । 
     वर्तमान में पर्यावरण के प्रति हमारा व्यवहार इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि हम पर्यावरण के प्रति कितने उदासीन और संवेदन शून्य हैं ? आज हमारे पास शुद्ध पेयजल का अभाव है, सांस लेने के लिए शुद्ध हवा कम पड़ने लगी है । जंगल कटते जा रहे हैं, जल के स्त्रोत नष्ट हो रहे हैं, वनों के लिए आवश्यक वन्य प्राणी भी विलीन होते जा रहे हैं । औद्योगीकरण ने खेत-खलिहान और वन-प्रान्तर निगल लिये । वन्य जीवों का आशियाना छिन गया । कल-कारखाने धुआं उगल रह हैं और प्राणवायु को दूषित कर रहे हैं । यह सब खतरे की घंटी है ।
    भारत की सत्तर प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है । अब वह भी शहरों में पलायन हेतु आतुर है जबकि शहरी जीवन नारकीय हो चला है । वहाँ हरियाली का नामोनिशान नहीं है,बहुमंजिली इमारतों के जंगल पसरते जा रहे हैं । शहरी घरों में कुएं नही होते, पानी के लिए बाहरी स्त्रोत पर निर्भर रहना पड़ता है । गांवों से पलायन करने वाली झुग्गियां शहरों समस्याएं बढ़ाती हैं । यदि सरकार गांवों को सुविधा-सम्पन्न बनाने की ओर ध्यान देतो वहाँ से तोगों का पलायन रूक सकता है । वहाँ अच्छी सड़कें, आवागमन के साधन, स्कूल-कॉलेज, अस्पताल व अन्य आवश्यक सुविधाएं सुलभ होंतथा शासन की कल्याणकारी नीतियों और योजनाआें का लाभ आमजन को मिलने का पूरा प्रबंध हो तो लोग पलायन क्यों करेंगे ? गांवों में कृषि कार्य अच्छे से हो, कुएं-तालाब, बावड़ियों की सफाई यथा-समय हो, गंदगी से बचाव के उपाय किये जाएँ। संक्षेप में यह कि वहाँ ग्रामीण विकास योजनाआें का ईमानदारी-पूर्वक संचालन हो तो ग्रामों का स्वरूप निश्चय ही बदलेगा और वहाँ के पर्यावरण से प्रभावित होकर शहर से जाने वाले नौकरी-पेशा भी वहाँ रहने को आतुर होंगे ।
    पृथ्वी का तापमान निरंतर बढ़ रहा है इसलिए पशु-पक्षियों की कई प्रजातियाँ लुप्त् हो गयी हैं । जंगलों से शेर, चीते, बाघ आदि गायब हो चले   हैं । भारत में ५० करोड़ से भी अधिक जानवर हैं जिनमें से पांच करोड़ प्रति वर्ष मर जात हैं और साढ़े छ: करोड़ नये जन्म लेते हैं । वन्य प्राणी प्राकृतिक संतुलन स्थापित करने में सहायक होते हैं । उनकी घटती संख्या पर्यावरण के लिए घातक हैं । जैसे गिद्ध जानवर की प्रजाति वन्य जीवन के लिए वरदान है पर अब ९० प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं इसीलिए देश के विभिन्न भागों में सड़े हुए जानवर दिख जाते हैं । जबकि औसतन बीस मिनट में ही गिद्धों का झुण्ड एक बड़े मृत जानवर को खा जाता था ।
    पर्यावरण की दृष्टि से वन्य प्राणियों की रक्षा अनिवार्य है । इसके लिए सरकार का वन-संरक्षण और वनों के विस्तार की योजना पर गंभीरता से कार्य करना होगा । वनोंसे लगे हुए ग्रामवासियों को वनीकरण के लाभ समझा कर उनकी सहायता लेनी होगी तभी हमारे जंगल नये सिरे से विकसित हो पाएंगे जिसकी नितांत ट्ठावयकता  है । सभी प्राणी एक-दूसरे पर निर्भर है तथा विश्व का प्रत्येक पदार्थ एक-दूसरे से प्रभावित होता है । इसलिए और भी आवश्यक हो जाता है कि प्रकृति की इन सभी वस्तुआेंके  बीच आवश्यक संतुलन को बनाये रखा जाये ।
    इस २१वीं सदी में जिस प्रकार से हम औद्योगिक विकास ओर भौतिक समृद्धि की और बढ़े चले जा रहे है, वह पर्यावरण संतुलन को समाप्त् करता जा रहा है । अनेकानेक उद्योग-धंधों, वाहनों तथा अन्यान्य मशीनी उपकरणों द्वारा हम हर घड़ी जल और वायु को प्रदूषितकरते रहते हैं । वायुमंडल में बड़े पैमाने पर लगातार विभिन्न घटक औद्योगिक गैसों के छोड़े जाने से पर्यावरण संतुलन पर अत्यंत विपरीत प्रभाव पड़ता रहता है । मुख्यत: पर्यावरण के प्रदूषित होने के मुख्य कारण है - निरंतर बढ़ती आबादी, औद्योगीकरण, वाहनों द्वारा छोड़ा जाने वाला धुआं, नदियों, तालाबों में गिरता हुआ कूड़ा-कचरा, वनों का कटान, खेतों में रसायनों का असंतुलित प्रयोग, पहाड़ों में चट्टानों का खिसकाना, मिट्टी का काटन आदि ।
    सारांश में औद्योगिक विकास, गरीबी और अन्य विकास से उत्पन्न वातावरण, बदलता हुआ सोचने-समझने का ढंग जिम्मेदार है । प्रत्येक कार्य करने से पूर्व हम ये सोचते हैं कि इसके करने से हमें क्या लाभ होगा, जबकि हमें ये सोचना चाहिए कि हमारे इस कार्य से किसी को कोई नुकसान तो नहीं होगा । धरती, नदी, पहाड़, मैदान, वन, पशु-पक्षी, आकाश, जल, वायु आदि सब हमें जीवनयापन में सहायता प्रदान करते है । ये सब हमारे पर्यावरण के अंग है । अपने जीवन के सर्वस्व पर्यावरण की रक्षा करना, उसको बनाए रखना हम मानवों का कर्तव्य होना चाहिए । असलियत तो यह है कि स्वच्छ पर्यावरण जीवन का आधार है और पर्यावरण प्रदूषण जीवन के अस्त्तिव के सम्मुख प्रश्नचिन्ह लगा देता है ।
    पर्यावरण जीवन के प्रत्येक पक्ष से जुड़ा हुआ है । इसीलिए यह अति आवश्यक हो जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने पर्यावरण के प्रति जागरूक रहे और पर्यावरण का स्थान जीवन की प्राथमिकताआें में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्योंा में रहे, लेकिन अफसोसकि हम अब भी चेत नहीं रहे है ।
पर्यावरण समाचार
पीथमपुर में नहीं जलेगा यूका का जहरीला कचरा
    यूनियन कार्बाइड के जहरीले रासायनिक कचरे को जलाने के लिए पीथमपुर में समय पर प्लांट न लगाना रामकी एनवायरो इंजीनियर्स को भारी पड़ गया । समय सीमा बीतने और नियमों का पालन नहीं करने के चलते मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कंपनी की अर्जीखारिज कर दी । ऐसे में अब कंपनी भोपाल से कचरा भी नहीं ला सकती है ।
    रामकी एनवायरो इंजीनियर्स हैदाराबाद की एमपी वेस्ट मैनेजमेंट प्रोजेक्ट कंपनी ने वॉटर (प्रिवेंशन एण्ड कन्ट्रोल ऑफ पॉलूशन) एक्ट १९७४ की धारा (२५/२६) और एयर (प्रिवेशन एण्ड कन्ट्रोल ऑफ पॉलूशन) एक्ट १९७१ की धारा २१ के अन्तर्गत आवेदन दिया था । जिसके बाद केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कंपनी को मल्टी इफैक्ट इवेपारेटर प्लांट लगाने के निर्देश दिए थे । इस शर्त को पूरा नहीं करने के कारण म.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कंपनी का आवेदन खारिज कर दिया है । बताया जाता है कि रामकी प्रबंधन करोड़ों रूपए की लागत से लगने वाले एमईई प्लांट के स्थान पर सामान्य स्प्रे ड्रायर से वैकल्पिक रूप से काम चलाने पर जोर दे रहा था  ।
    प्लांट लगाने के अलावा कंपनी कचरे को जलाने के लिए प्रदूषण बोर्ड को अपनी योजना से संतुष्ट नहीं कर पाई है । अब भोपाल से यूनियन कार्बाइड का कचरा भी कंपनी नहीं ला सकती है और न ही स्टोरेज की अनुमति है । सुप्रीम कोर्ट ने सामान्य पारिस्थितियों में रामकी को कचरा जलाने के निर्देश दिए थे ।
    प्रदेश में औघोगिक अपशिष्ट नष्ट करने के लिए कंपनी को ही अधिकृत किया गया है । अब अनुमति नहीं मिलने की स्थिति में प्रदेशभर के उद्योगों के सामने संकट खड़ा हो गया है कि वे अपनी कंपनियों का कचरा कहां और कैसे नष्ट करेंगे ।
    पीथमपुर में यूनियन कार्बाइड के खतरनाक अपशिष्ट के निपटान का लम्बे समय से विरोध कर रहे लोकमैत्री संगठन ने मध्यप्रदेश प्रदूषण निवारण मण्डल के कदम को जनता के हित में लिया गया फैसला बताया और कहा कि रामकी द्वारा स्थापित भस्मक को तारापुरा गांव की आबादी से ५०० मीटर दूर स्थापित किया जाए ।