बुधवार, 14 जनवरी 2015



प्रसंगवश
डेढ़ दशक में बदल गई जिंदगी 
ईक्कीसवीं सदी के इन पहले १५ बरसों में कई बदलाव आए हैं । जो चीजें कभी जिंंदगी का अहम हिस्सा थीं, वो एक-एक करके हाशिए पर जाती रहीं और नई चीजों ने उनकी जगह ले ली । पिछले १५ साल में ऐसे कई बदलाव आए हैं, जिनको हम रोज ही महसूस करते हैं । आइए, याद करते हैं उन सहूलियतों को, जिन्होंने सदी के शुरूआती १५ सालों में हमारी जिंदगी बदल दी और जिनको हमने भुला दिया । 
२१वीं सदी की शुरूआत तक हर गली-मोहल्ले में एसटीडी-पीसीओ बूथ की भरमार थी । हाथों में जब से मोबाइल फोन फोन आया, पीसीओ बूथ छोड़िए, टेलीफोन की घंटी बजना भी कम हो गई । इंटरनेट के आने से फैक्स का जमाना भी जाता रहा । अब बस ये सरकारी दफ्तरोंमें अफसरों की टेबल पर रखे मिलते है । फ्लॉपी और पेजर भी गुजरे जमाने की बात हो गयी है । 
मोबाइल फोन के कारण अब हर हाथ में कैमरे हैं । चंद साल पहले के दिन याद कीजिए । जब कहींबाहर जना होता था तो कैमरे और उसके रोल लेकर जाते थे । अब डिजिटल कैमरे चलन में है, जिसमें रोल की जरूरत  नहीं ।स्मार्ट फोन से दुनिया अब आपकी जेब में है । नेट यूजर्स को कैफे की जरूरत नहींहोती । बिजनेस, स्टडी या इंटरटेनमेंट, हर काम आसान । खर्चा भी पहले से कम । याद होगा कम्प्यूटर लैब में जाने से पहले जूते-चप्पल बाहर निकालते थे । अब ऐसा नहीं । लगता है लैपटॉप को देखकर कम्प्यूटर भी मेन फ्रैंडली हो गया । एक और खास सुविधा मिली । वह ऑटोमेटिक ट्रेलर मशीन  (एटीएम) । पहल चंद रूपये निकलवाने के लिए बैंकों की लाइन में खड़े रहना पड़ता था । 
अब शादियां बैक्वेंट हॉल, कम्युनिटी और होटल सेंटर में होती है । वेडिंग प्लानर आपकी ड्रेस, मंडप, टेंट, मीनू तक पहले ही बता दते हैं, आपकी जेब के हिसाब से । सुपर बाजर ने जीवनशैली को बदला है । शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, मल्टीप्लेक्स में एक छत के नीचे शॉपिंग सुलभ हुई है । टिक्की और समोसे की पार्टियों से अब दोस्त खुश नहीं होते । पिज्जा, डोसा, चाऊमीन, हॉटडॉग जैसे कितने ही व्यंजन है, जो पार्टियों में स्टेटस सिंबल है । इनका क्रेज इस कदर बढ़ा कि विदेशी कंपनियों ने छोटे शहरों में अपने प्रतिष्ठान खोल दिए । 
सम्पादकीय 
वैज्ञानिक शोध की समीक्षा व्यवस्था पर सवाल
ऐसा देखा गया है कि कई बार शोध पत्रिकाएं किसी शोध पत्र को नामंजूर कर देती हैं मगर आगे चलकर वही शोध पत्र अपने विषय में मील का पत्थर साबित होता है । आमतौर पर वैज्ञानिक शोध पत्रिकाआें में समकक्ष शोधकर्ताआें द्वारा समीक्षा की प्रक्रियाअपनाई जाती है जिसके अन्तर्गत कोई भी शोध पत्र प्रकाशन हेतु प्रस्तुत होने पर उसे संबंधित विषय के अन्य शोधकर्ताआेंके पास भेजकर उनकी राय मांगी जाती है । तो सवाल उठता है कि इसके बावजूद कैसे महत्वपूर्ण शोध पत्र खारिज हो जाते हैं।
कुछ शोधकर्ताआेंने इस सवाल की छानबीन करने का बीड़ा     उठाया । इस टीम का नेतृत्व किया टोरोंटो विश्वविघालय के समाज वैज्ञानिक काइल साइलर ने । टीम ने तीन शोध पत्रिकाआें - एनल्स ऑॅफ इंटरनल मेडिसिन, ब्रिटिश मेडिकल जनरल और दी लैंसेट - को दस वर्ष पूर्व भेजे गए १००० शोध पत्रों का अध्ययन किया । टीम ने यह भी विश्लेषण किया कि आगे चलकर जब इनमें से कोई शोध पत्र अंतत: प्रकाशित हो गया, तो उसकी गुणवत्ता कैसीथी । इन आंकड़ों के आधार पर टीम का पहला निष्कर्ष तो यह था कि उक्त शोध पत्रिकाआें में कचरे को छांटने और ठोस शोध को प्रकाशित करने की बढ़िया क्षमता है । मगर वे कई बार ऐसे शोध पत्रों को पहचानने में चूक हो जाती हैं जो आगे चलकर उस विषय में निहायत अहम साबित होते हैं । 
साइलर ने उनके दल ने इस अध्ययन में पाया कि उक्त तीन पत्रिकाआें में कुल १००८ शोध पत्र प्रस्तुत किए गए थे और उनमें से मात्र ६२ प्रकाशित हुए थे । इनके द्वारा अस्वीकृत ७५७ शोध पत्र अन्यत्र प्रकाशित हुए थे और शेष १८९ में या तो व्यापक बदलाव हुए थे या वे अप्रकाशित रह गए थे ।  इसमें  एक मत यह भी है कि समकक्ष वैज्ञानिकों द्वारा समीक्षा का तरीका खामियों से भरा है । साइलर की टीम के अध्ययन से लगता है कि यह तरीका काफी अच्छे परिणाम देता है और फिलहाल समीक्षा का यही सर्वोत्तम तरीका उपलब्ध है । 
सामयिक
जी.एम. जिन्न का बोतल से बाहर आना 
कोलिन टोडहंटर
जी एम खाद्यान्न उद्योग दुनियाभर में ऐसे मामलों में उलझ रहा है जिसमें कि या तो अवैध रूप से खेतों में परीक्षण किया गया है या अवैध व्यावसायिक उत्पादन किया गया है । यह उद्योग नियमन के दायरे मेें आने को तैयार ही नहीं है । गौरतलब है जी एम जीन का संदूषण जिन्न यदि एक बार खुले में आ गया तो फिर वापस नही जा सकता । 
जीनवाच एवं ग्रीनपीस पिछले करीब १० वर्षो से जीनांतरित (जी  एम) संदूषण (विकार) रजिस्टर में आंकडे एकत्रित कर रहे है और इसमें सन १९९७ से सन २०१३ के अंत तक के मामले दर्ज हैैं । इंटरनेशनल जर्नल आफ फूड कंटेमिनेशन में लेखक द्वारा प्रकाशित नए दस्तावेज में फसल एवं देशों में उपलब्ध आकड़ों  या दर्ज ४०० मामलांे का विश्लेषण किया गया है । इस तथ्य के बावजूद कि दुनियाभर में कहीं भी आधिकारिक तौर पर जी एम चावल नहीं उगाया जाता है । 

संदूषण के एक  तिहाई मामले जीएम चावल के ही   हैैं । लेखकों का कहना है इतनी बड़ी संख्या मंे मामले सामने आने का संबंध राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार आयात होकर आने वाले जी एम  चावल के सामान्य परीक्षण से हो सकता है । सबसे ज्यादा संदूषित खाद्य पदार्थ जर्मनी में आयात किये जाते हैैं,  इसी वजह से यहां बहुत अधिक परीक्षण भी किया जाता है । इन वैज्ञानिकोें ने अवैध जी एम फसलों से पैदा हुए संदूषण पर ज्यादा ध्यान दिया है । इसी के समानांतर विश्वभर में बिना किसी वैघता के हो रहे वाणिज्यिक उत्पादन पर भी ध्यान दिया गया है । इसके गैरआधिकारिक (अव्यावसायिक) जी एम संदूषण के नौ मामले सामने आए हैैं जिनका जी एम फसलों पर पर्यावरणीय या खाद्य सुरक्षा विश्लेषण नहीं किया गया हैैं । लेखकों का तर्क है कि यदि एक    बार जीएम संदूषण हो गया तो     इसे नियंत्रित कर पाना कठिन हो जाएगा ।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ जीनांतरित फसलांे के संदूषण (संकर परागण, मिलावट आदि) ने ही संख्या को बढ़ाने में योेगदान दिया है बल्कि इसके परीक्षण के तरीके (सामान्य एवं लक्षित देना) भी इसके लिए उत्तरदायी हैैं । दस्तावेज का निष्कर्ष हैैं कि सभी प्रायोगिक जीनांतरित फसलों के परीक्षण के लिए कोई तयशुदा मानक उपलब्ध नहीं है, जिसकी वजह से जी एम संदूषण का पता लगाना असंभव भले ही नहीं हो लेकिन अत्यन्त कठिन हो गया है । बायोटेक औद्योगिक सलाहकार एवं प्रोमर इंटरनेशनल के उपाध्यक्ष डॉन वेस्टकाल को १३ वर्ष पूर्व ९ जनवरी २००१ को उद्धत करते हुए टोरंटो स्टार ने लिखा था, जीएम उद्योग से बाजार ने जरूरत से ज्यादा ऐसी उम्मीदंे लगा ली है कि जी एम उत्पाद से बाजार पट जाएगा और हम और आप कुछ भी नहीं कर पाएंगे । इसके बाद आपके सामने सिवाय आत्म-समर्पण के कोई और चारा नहीं है । यह महज अस्पष्ट उम्मीद भी नहीं है। यह उद्योग द्वारा थोपी गई अंतराष्ट्रीय आपराधिक रणनीति है । 
जीनांतरित गेहँू को व्याव-सायिक उपयोग हेतु उगाने की अनुमति अमेरिका या विश्वभर मंे कहीं भी नहीं दी गई है । इसके  बावजूद अमेरिका के कृषि विभाग (यू एस डी ए ) ने पिछले वर्ष घोषणा की थी कि आरेगॉॅन के गेहँू के खेत में बिना अनुमति वाला जीनांतरित गेहँू उगाया हुआ पाया गया है । सन्१९९४ से मोन्सेंटो ने अमेरिका के १६ राज्यों की ४००० एकड़ से ज्यादा भूमि पर राउंडअप रेडी गेहँू के खेतांे में २७९ परीक्षण किए हैैं । अमेरिकी कृषि विभाग ने स्वीकार किया है कि सन् १९९८ से सन् २००५ के मध्य मोन्सेंटो द्वारा जीएम उत्पादों के  परीक्षण खुले खेतों मे हुए हैैं । 
जीनांतरित गेहँू ने खेतो की हद पार कर ली है और आरेगान (और संभवत १५अन्य राज्यों में भी) के  व्यावसायिक गेहँू उत्पादन खेतोें में अपना रास्ता बना  बना लिया । इसके माध्यम से फैले स्वदोहराव (या प्रतिकृति) जेेनेटिक संदूषण से अमेरिका का पूरा गेहँू उद्योग ही दागदार हो गया है । इसके पहले वर्ष २००६ में अमेरिका कृषि विभाग बायर क्राप साइंस के जीनांतरित लिबर्टीलिंग ६०१ चावल के विपणन की अनुमति दे चुका है। इस जीनांतरित चावल की किस्म ने खाद्य आपूर्ति एवं चावल के निर्यात में अवैध रूप से संदूषण को मूर्त रूप दिया है । अमेरिकी कृषि विभाग ने सफलतापूर्वक  ''संदूषण के माध्यम  से अनुमति नीति'' (अप्रूवल बाय कंटेमेनेशन) को अनुमति दे दी है ।
वर्ष २००५ में जीवविज्ञानी पुष्प भार्गव ने आरोप लगाया था कि ऐसी खबरें मिल रही हैं कि भारत में किसानांे को जीनांतरित फसलों की बिना अनुमति प्राप्त अनेक किस्मंे बेची जा रही हैैं । अरुण श्रीवास्तव ने वर्ष २००८ में लिखा था भारत में जीनांतरित भिंडी को अवैध रूप से बोया जा रहा है और गरीब किसानों को सभी तरह की सब्जियों के ''विशेष बीज'' बोने के लिए लालच दिया जा रहा है । उनका प्रश्न था कौन जानता है कि कितनी जगह अवैध रूप से जीनांतरित चावल बोया गया   होगा ?
भारत में खुले खेतों मेें जी एम फसलों के परीक्षण भी कहानेी जैवसुरक्षा नियमों के खुल्लम खुल्ला उल्लंघन, जल्दबाजी में अनुमति, निगरानी  क्षमताओं की कभी, संदूषण के खतरे को लेकर सामान्यतौर पर भेदभाव एवं सांस्थानिक पद्धतियांे की कमी की कहानी है । पूरे यूरोप में भारत द्वारा निर्यात किए जाने वाले बासमती चावल में संदूषण  (विकार) को लेकर चिंताएं जाहिर की जा रही   हैैं । पिछले दिनों पश्चिम बंगाल सरकार ने कहा था कि उसे बांग्लादेश से व्यावसायिक जीएम बैंंगन बीजों के  ''घुसपै ठ'' की जानकारी प्राप्त हुई   है । 
बांगलादेश ने जीएम सब्जी-बीटी बैगन को व्यावसायिक रूप से जारी किया है जो कि मिट्टी में स्थित बेक्टीरीयम बेसिलस थुरुंजिंसिस से निकली जीन के प्रवेश से तैयार होता है । राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कृषि सलाहकार प्रदीप मजुमदार ने कहा है ''संभावना है कि व्यावसायिक बीजों ने घुसपै ठ की होे या उनकी तो तस्करी की गई हो । इससे पहले कि किसानों को नुकसान हो हमें बीटी बैंगन की स्थानीय देशज किस्मों पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों का आकलन करना ही  होगा ।''
जीएम वाच वेबसाइट के  अनुसार, अगर ऐसा होता है, तो यह जीएम उद्योेेेेेग की सोची समझी और समय पर खरी उतरी रणनीति का हिस्सा होगी जिसके अनुसार ''पहले संदूषण फैला दो और बाद में नियमय संबंधी अनुमोदन के लिए दबाव   डालो ।'' गौरतलब है अब तक कहीं भी बीटी बैंगन की सुरक्षा संबंधी स्वतंत्र जांच नहीं हुई है । जब कि उद्योग के स्वयं के परीक्षण बताते हैकि यह जहरीला  है । 
पश्चिम बंगाल के कृषि मंत्री पुर्णेन्दु बोस का कहना है 'हमने सुना है कि बांग्लादेश से सटे बंगाल के जिलो में बीटी बैंगन के बीज पाए गए हैं । हम अभी जी एम बीज जारी नहीं होने देगें और बिना व्यवस्थित अध्ययन के तो निश्चित तौर पर नहीं ।''
भारत में पिछली सरकार ने जी एम फसलों के खेतोें में परीक्षण पर रोक लगा दी थी लेकिन वर्तमान सरकार ने हाल ही में जी एम बैंगन व सरसांे की दो किस्में की खेतों में परीक्षण की अनुमति दे दी है । पिछले ही साल वैज्ञाानिकों एवं गैरसरकारी संगठनों के सदस्यांे ने कोलकाता एवं अन्य स्थानांे पर बांग्लादेश जो कि इस सब्जी के उद्गम और किस्मों की विविधता का केन्द्र हैं मंे जीनांतरित बैंगन को लगाए जाने यह कहते हुए विरोध किया था कि इसमें भारत की फसलों में संदूषण में वृध्दि होगी । अब यह चिंता मूर्तरूप लेती जा रही है । 
अन्य जगहों के अनुभव बताते है कि जी एम जीन का जिन्न यदि एक बार बोतल से बाहर आ जाता है तो फिर वापस नहीं जाता ।  
हमारा भूमण्डल 
सभ्य राष्ट्रों के यंत्रणागृह
विलियम बम
अमेरिकी सीनेट ने हाल ही में इसकी गुप्तचार एजेंसियों द्वारा बंदियों को दी जा रही यंत्रणाओं और यातनाओं संबंधी रिपोर्ट सार्वजनिक की है । दूसरे विश्वयुद्ध के समाप्ति के तत्काल बाद से विश्व में अपने विरोधियों को यंत्रण एवं यातना देने का नया दौर प्रारंभ हुआ । 
सन् १९६४ में ब्राजीली सेना ने अमेरिका द्वारा प्रायोजित तख्तापलट के माध्यम से वहां की उदार सरकार को बेदखल कर अगले २१ वर्षों तक कठोरता से शासन   किया । सन १९७९ में सैनिक शासन ने एक क्षमा कानून पारित कर अपने सदस्यों द्वारा दी गई यंत्रणा एवं अन्य अपराधों से क्षमा दे दी । यह क्षमा अभी भी जारी है । इससे पता चलता है कि ''तीसरी दुनिया'' कहलाने वालों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है । वैसे अमेरिका में सेना द्वारा यंत्रणा और उनके राजनीतिक तारणहारों को स्वमेव क्षमादान मिल जाता है क्योंकि वे अमेरिकी हैं और ''अच्छे व्यक्तियों के समूह'' से वास्ता रखते हैं ।  
सीनेट की खुफिया समिति द्वारा सी आई ए द्वारा दी गई यंत्रणाओं संबंधी रिपोर्ट के सार्वजनिक होने से अमेरिकी विदेश नीति की नकारात्मक छवि सामने आई है । परंतु अमेरिकियों एवं दुनिया को क्या पुन: यह याद दिलाने की आवश्यकता है कि अमेरिका यंत्रणा देने वाला एक अगुआ राष्ट्र है । ओबामा द्वारा यह कहे जाने कि ''उन्होंने कार्यभार ग्रहण करने के बाद यंत्रणा देने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है, के  बावजूद यह घिनौना कार्य रूका नहीें है । ओबामा के प्रथम शपथ ग्रहण के पश्चात उन्होंने और सी आई ए के नए निदेशक लीओन पानेट्य ने स्पष्ट तौर पर कहा था ''व्याख्या'' (रेंडिशन) को समाप्त नहीं किया गया है। उस दौरान लास       एंजल्स टाइम्स ने भी इसे स्पष्ट किया था ।    
अमेरिका में ''सहयोग'' का अनुवाद '' यंत्रणा'' है । इसकी सहज व्याख्या है कि यंत्रणा की आउट-सोर्सिग करना । इसके अलावा और कोई कारण नहीं है कि बंदियों को लिथुआनिया, पोलैंड, रोमानिया, मिस्त्र, जोर्डन, केन्या , सोमालिया या हिंद महासागर के द्वीप डियेबो गार्सिया सहित अमेरिका द्वारा स्थापित अन्य यंत्रणा केन्द्रोंमें ले जाया जाएगा । कोसोवो और डियेबोगार्सिया क्यूबा स्थित ग्वाटानामों सैन्य केन्द्र की तरह यंत्रणा देने के बड़े केन्द्र है । 
इसके  अलावा  २२ जनवरी  २००९ को जारी इस प्रमुख प्रशासनिक  में आदेश क्रमांक १३४९१ के अनुसार ''कानूनी तरीके से पूछताछ सुनिश्चित'' किया जाना है और यही पर बड़ा गड्ढा या घालमेल है । इसमें बार -बार मानवीय व्यवहार करने जिसमें यंत्रणा की अनुपस्थिति भी शामिल है और जो केवल उन्हीं पर लागू होगा जिन्हें ''सशस्त्र संघर्ष'' की वजह से बंदी बनाया गया है । इस तरह से ''सशस्त्र संघर्ष'' की परिधि से बाहर बंदियांे को अमेरिकीयों द्वारा यंत्रणा दिए जाने पर स्पष्ट रूप से निषेध नहीं किया गया है तथा ''आतंकवाद से निपटने'' वाले वातावरण में यंत्रणा को लेकर स्पष्टता नहीं है ।  
इस प्रशासनिक आदेश के  तहत सी आइ ए उन तरीकों से ही पूछताछ कर सकती है जो कि सेना के  दिशा-निर्देशांे (आर्मी फील्ड मेन्युअल) के अनुरूप हों । इन दिशा-निर्देशोंं में अभी भी एकांतवास, बोधात्मक का संवेदी वंचन (हानि), अत्यधिक संवेदी  दबाव, नींद से वंचित करना, डर और असहायता प्रविष्ठ करना,  सोच मेें परिवर्तन वाली दवाईयां देना, पर्यावरणीय असंतुलन जैसे तापमान एवं शोर एवं बैठने उठने आदि की तनावपूर्ण स्थितियां शामिल हैं जो कि अमेरिकी अपवादवाद ने अन्य लुभावने उदाहरण हैं । 
सीनेट समिति द्वारा सवाल-जवाब किए जाने के  बाद न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा कि ''उन्होंने यह संभावना खुली रखी है  कि नए नियमों के अन्तर्गत राष्ट्रपति ने जो सीमित अधिकार की अनुमति दी है समिति उससे ज्यादा आक्रामक प्रणाली इस्तेमाल कर सकती है । पेन्ट्टा ने यह भी कहा कि एजेंसी जार्ज बुश प्रशासन की ''व्याख्या'' की प्रणाली बनाए रखेगें । उन्होंने कहा  लेकिन एजेंसी किसी ऐसे देश को जो यंत्रणा देने या अन्य कारणों से जाना जाता हैं अपने मानवीय मूल्यों का उल्लंघन करते हुए किसी संदिग्ध व्यक्ति को उसे नहीं सौपेगी ।  आखिरी वाक्य वास्तव में एक बचकाना बचाव ही है । क्योंकि उन्ही देशोंं का चुनाव किया जाता है जो कि कैदियों को यंत्रणा देने में सक्षम एवं राजी हो । न्यूयार्क टाइम्स का कहना है कि ओबामा एवं पेन्ेट्टा के  पदभार ग्रहण करने के चार महीने बाद में यंत्रणा देना नई ऊॅचाईयों पर पहुॅच गया ।
रिपोर्ट इस बात की ओर इशारा कर रही है कि ९/११ की पुनरावर्ती रोकने की चाहत में वाशिंगटन यंत्रणा के प्रति लालायित हो रहा है । राष्ट्रपति ९/११ के काल के बाद हुई अतियों से डर बतला रहे हैं जबकि वास्तविकता यह है कि यहां यंत्रणा उतनी ही पुरानी है जितना कि यह देश । कोई और सरकार इतना खौफ नही फैलाती जितना की यह देश । वह इसे सिखाती है, इसके  दिशा निर्देशो की आपूर्ति करती है,   संबंधित उपकरण उपलब्ध कराती है,  अंतरराष्ट्रीय यंत्रणा केन्द्र स्थापित करती है, अपहरण करके लोेगों को इन स्थानों पर ले जाती है, एकांतवास, जबरन खिलाना जैसे अनेक कार्य करती है । 
सन् २०११ में ब्राजील ने सैनिक शासन जो कि सन् १९८५ में समाप्त हुआ था, द्वारा किए गए अपराधों की जांच के लिए राष्ट्रीय सत्यता आयोग गि त किया । लेकिन ओबामा ने सी आइ ए द्वारा दी गई यातनाओं से संबंधित जांच में शामिल होने से इंकार कर दिया । इस तरह की अनेक गतिविधियांे से स्पष्ट हो गया कि अमेरिका द्वारा अपने स्वयं के कानूनों, अंतरराष्ट्रीय कानूनों  और मानव गरिमा के मूलभूत कानूनों को तोड़ने के प्रति किसी भी जवाबदेहीे का पालन नहीं किया है । 
इसलिए विश्व भी ओबामा के साथ वैसा ही व्यवहार करेगा, जैसा कि उसने जार्ज बुश के साथ किया   है । वही दूसरी ओर सीनेट की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के कुछ ही क्षणों पूर्ण ओबामा द्वारा जारी लिखित वक्तव्य में कहा गया है ''अमेरिका को अद्वितीय बनाने की हमारी ताकतों में शामिल है अपने अतीत का खुलेतौर पर सामना करना, अपनी कमियों का सामना करना और बेहतर करने हेतु परिवर्तन करना ।'' इस तरह का बनावटी रोना अधिकांश अमेरिकी राजनीतिज्ञ रोेते रहते हैं । 
बुश और ओबामा प्रशासन द्वारा दी गई यंत्रणाओं हेतु यदि उन्हें अमेरिका में जवाबदेह नहीं ठहराया जाता तो सार्वभौमिक न्यायप्रणाली के अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों के तहत उनके खिलाफ कार्यवाही की जानी    चाहिए । सन १९८४ में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने एक ऐतिहासिक कदम उठाया था  और ''यंत्रणा एवं अन्य क्रूरताएं, अमानवीय या विकृत व्यवहार या दंड के खिलाफ सम्मेलन'' का मसौदा तैयार किया था । जो कि सन १९८७ में प्रचलन में आये और अमेरिका ने सन १९९२ मंे इस पर हस्ताक्षर किए थे । इस सम्मेलन के अनुच्छेद -२ की धारा-२ में लिखा है 'राज्य के विरूद्ध युद्ध का खतरा हो या आंतरिक राजनीतिक अस्थिरता हो या कोई भी अन्य सार्वजनिक आपात स्थिति निर्मित हो गई है । किसी भी अपवाद जनक हालात में भी यंत्रणा को न्यायोचित नहीं  हराया जा सकता ।'' 
इस तरह की शानदार व सुस्पष्ट भाषा का अर्थ है मानवता के प्रति गर्व की अनुभूति  और अब हम इससे पीछे नहीं हट सकते । अगर हम आज किसी एक व्यक्ति को इस कारण यंत्रणा देते है कि उसमें कुछ जानकारियां निकलवानी जिसमें कि कुछ लोगों की जान बचा सकती    है । तो कल हम उसके सहयोगियों का पता लगाने के लिए यंत्रणा देगंे । इस तरह से हम ''राष्ट्रीय आपातकाल'' या कुछ अन्य ''उच्च् उद्देश्यों'' की प्राप्ति के लिए गुलामी की प्रथा को पुन: प्रांरभ करने को प्रश्न हो रहे हैं । अगर आप यंत्रणा की खिड़की को थोड़ा सा भी खोलते हैं तो काले समय की ठंडी सिरहन हवा पूरे कमरे में भर जाएगी ।
पुनश्च: कारण संख्या १३३३६: क्यों पंूजीवाद हमारी मृत्यु का कारण है ?
भारतीय पत्रकारिता दिवस पर 
पर्यावरण और मुख्यधारा मीडिया
आशीष कुमार
दुनिया में पर्यावरण का महत्व जितनी तेजी से बढ़ रहा है, मीडिया में पर्यावरण का कवरेज उतनी ही तेजी से कम क्यों हो रहा है ? केवल प्राकृतिक आपदाआें के समय ही मीडिया में हो-हल्ला क्यों मचता है ? सामान्य दिनों में पर्यावरण के मुद्दे क्यों अहम नहीं होते हैं ? पर्यावरण के प्रति मीडिया की उदासीनता को लेकर अब यह सारे सवाले उसके अंदर और बाहर दोनों ही जगहों से उठ रहे है । 
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय मीडिया में पर्यावरण की खबरों को राजनीति, अपराध, खेल व व्यवसाय की खबरों के मुकाबले कम तरजीह दी जाती है । पर्यावरण की खबरों को कुल खबरों के अनुपात में आधी फीसदी से भी कम हिस्सेदारी मिल पाती है । इस मामले में दुनिया के बाकी हिस्सों की तस्वीर भी कोई अलग नहीं ।  
एक अध्ययन के अनुसार अमेरिकी टीवी चैनलों पर पर्यावरण के मुद्दे लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं । वहां २०१० में पर्यावरण की खबरों की हिस्सेदारी करीब २ फीसदी थी, जो २०११ में घटकर महज एक फीसदी रह गई । इस अध्ययन में सबसे ज्यादा चौकाने वाला पहलु यह था कि ८५ फीसदी अमेरिकी लोग टीवी या अखबारों में पर्यावरण पर मौजूदा कवरेज के मुकाबले अधिक व गंभीर कवरेज चाहते थे । 
आमतौर पर मुख्यधारा मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सामान्य दिनों में पर्यावरण को लेकर हल्का-फुल्का नजरिया ही पेश करता है । पर्यावरण पत्रकारिता के नाम पर टीवी में केवल स्पॉट रिर्पाटिंग ही देखने को मिलती है । सुनामी, भूकंप, प्राकृतिक आपदाएं ही उन्हें कवरेज के लिए मजबूर कर पाती है । उनके लिए केवल गाउंड जीरों से रिर्पोटिग का ही महत्व है, जिसमें सनसनी हो । इन प्राकृतिक आपदांए की खबरों को भी तथ्यों और गंभीरता के बजाए डरावने अंदाज में पेश किया जाता   है । खबरों को देखकर लगने लगता है कि दुनिया आज खत्म हुई या कल खत्म हुई । केदारनाथ की प्राकृतिक आपदा की कवरेज के दौरान भी यही पैटर्न देखने को मिला था । 
अधिकांश मीडिया चैनलों का केदारघाटी आपदा की स्पॉट रिर्पोटिग करते हुए हादसे व हादसे में हताहत हुए लोगों पर ज्यादा फोकस रहा । मीडिया ने हादसे के कारणों के पीछे के कारकों की जांच पड़ताल करने की ज्यादा जिम्मेदारी नहीं    उठाई । प्राकृतिक आपदा के तुरन्द बाद की कवरेज को भीषण दुर्घटना के नजरिए से सही ठहराया जा सकता है, लेकिन असली मुद्दा आपदा के बाद पर्यावरण के नजरिए से इंवेस्टीगेटिव रिपोर्टिग का दिखाई नहीं देना है । राष्ट्रीय मुख्यधारा मीडिया में कहीं भी दिखाई नहीं दिया कि इसके पीछे बड़े बांध, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा किया जा रहा अंधाधुंध खनन, व्यावसायिक उद्देश्यों से नदियों की तलहटी में बनाए जा रहे होटल, अव्यवस्थित धार्मिक पर्यटना भी जिम्मेदार हो सकते हैं ?
पर्यावरण की रिपोर्टिग विज्ञान की रिपोर्टिग से अलग होती है । जब पर्यावरण के मसले पर बात होती है तो इसके साथ आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक पहलु भी जुड़े होते हैं, लिहाजा पर्यावरण पर बात करते समय मीडिया के पास एक बड़ा दायरा होता है । बतौर उदाहरण, यदि कहीं बड़े बांधों का निर्माण किया जा रहा है तो इसमें पर्यावरण के मुद्दे के साथ बांध के निर्माण से जुड़ी कंपनियां, योजना को अनुमति देने वाला सरकारी व राजनीतिक महकमा, योजना के कारण विस्थापन को मजबूर स्थानीय निवासियों के भी हित व अहित जुड़े - जुड़े होते हैं । इन हालतों में मीडिया के लिए समस्या वहां आती है, जब उपरोक्त हित व अहितों के साथ मीडिया के भी हित-अहित भी जुड़े होते हैं या फिर उन हित-अहितों को मीडिया के जरिए साधने की कोशिश की जाती हैं । 
भारतीय परिदृश्य में यह भी देखने को मिलता है कि एक कॉरपोरेट घराना जो बांध बनाने, होटल, खनन या सड़क निर्माण से जुड़ा हुआ है, उसका मीडिया में भी पैसा लगा हुआ है । भारत के तमाम कॉरपोरेट घरानों के या तो समाचार चैनल चल रहे हैं या समाचार चैनलों में हिस्सेदारी है । ऐसे में इन समाचार चैनलों या अखबारों से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि ये पर्यावरण के मसले पर गंभीर नजरिया अपनाएंगे । मीडिया का कोरपोरेट मालिकाना ढांचा इसे पर्यावरण के प्रति इसे बेबाक होकर बोलने से रोकता है । 
पर्यावरण पत्रकारिता के प्रति उदासीन रवैए के पीछे मीडिया का रेवन्यू मॉडल भी कम जिम्मेदार नहीं है । पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे बड़े प्रोजक्टों को चलाने वाली कंपनियों से तमाम मीडिया संस्थानों को सालाना करोड़ों रूपये विज्ञापन के रूप में मिलते हैं । यदि कोई मीडिया संस्थान पर्यावरण के प्रति सहानुभूति रखते हुए कोई खबर चलाने की भी हिम्मत करेगा तो उसको विज्ञापनों के रूप में दी जाने वाली रकम तुरन्त बंद कर दी  जाएगी । साथ ही, अन्य मीडिया संस्थान को वही रकम देकर चलाए जा रहे प्रोजेक्ट को विकास के मसीहा के रूप में प्रचारित करवाया जाएगा । 
इसी रणनीति के तहत केदारनाथ की आपदा के दौरान व बाद में टिहरी बांध को बाढ़ से बड़े रक्षक के तौर पर दिखाने की कोशिश की गई थी । कई समाचार चैनलों पर विशेष पैकेज चलाए गए, जिसमें बताने की कोशिश की जा रही थी कि यदि टिहरी बांध न होता तो ऋषिकेश-हरिद्वार से नीचे का सैकड़ों किलोमीटर का मैदानी क्षेत्र बाढ़ के कारण तबाह हो गया होता । टिहरी बांध ने ही केदारघाटी के सैलाब को रोका । 
इस दौरान अखबारों में भी टिहरी प्रोजेक्ट के विज्ञापनों की भी अच्छी खासी संख्या देखी गई । मीडिया व्यवसाय व्यवहार की थोड़ी भी समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति केदारघाटी आपदा के दौरान टिहरी प्रोजेक्ट की महता को बताने वाले टीवी कार्यक्रमों व विज्ञापनों की मंशा को आसानी से समझ सकता है । ऐसे गठजोड़ में मुख्यधारा मीडिया भी संतुलित चुप्पी में ही अपनी सहज भलाई समझता है । 
यही कारण है कि मुख्यधारा मीडिया से ज्यादा वैकल्पिक पत्रिकाआें, ब्लॉग, वेबसाइट व गैर सरकारी संगठनों के पर्चो में पर्यावरण की चर्चा अधिक दिखाई देती है । इन व्यक्गित स्तंभों के सामने मुख्यधारा मीडिया की तरह कोई समझौता करने की मजबूरियां नहीं होती हैं । इसका उन्हें श्रेय दिया जाना चाहिए, जिसकी बदौलत ही पर्यावरण का मसला आम लोगों में एक विचारधारा के रूप में दाखिल हुआ है । 
विविधताआें से भरे भारत देश के प्रत्येक हिस्से के लिए विकास का समान मॉडल लागू नहीं किया जा सकता है । पहाड़ी, रेगिस्तानी, मैदानी, समुद्रतटीय इलाकों की जरूरतें, प्राकृतिक ढाचा व सांस्कृतिक बनावट-बुनावटे अलग  है । हिमालय, जम्मूकश्मीर, पूर्वोत्तर की संरचना शेष भारत से जुदा है । पर्यावरण के लिहाज से हिमालय के लिए ग्लेशियर का मुद्दा अहम है तो उत्तराखंड के लिए चीड के पेड़ों का अनियंत्रित विस्तार । पूर्वोत्तर के लिए डिफोरेसटेशन का मुद्दा मायने रखता है तो उड़ीसा, झारखंड व छत्तीगढ़ में खनन का । इन सभी मसलों पर पर्यावरण से संबंधित असरदार कवरेज तभी संभव है जब संपादक से लेकर रिपोर्टर तक इसमें रूचि दिखाएं । जब पर्यावरण में हो रही हलचल संपादकों के दिलों में भी टीस पैदा करें । 
मुख्यधारा मीडिया में खबरों के मामले में निर्णय लेने वाले पदों में पर्यावरण से संबंधित कोई पद नहीं है, अपवाद के तौर पर विज्ञान संपादक का पद तो मिल भी सकता है, लेकिन पर्यावरण संपादक जैसा कोई पद नहीं हैं । पर्यावरण की इनवेसिटगेटिव रिपोटिग के लिए समय की जरूरत होती है । ऐसे में संपादकीय विभाग द्वारा सामान्यत: किसी पत्रकार को इतनी छूट नहीं दी जाती है कि वह पूरा समय लेकर मामले की तह तक जा सके । इसलिए पर्यावरण की रिपोर्टिग केवल स्पॉट रिपोर्टिग तक ही सिमट कर रह जाती है  । साथ ही संपादकीय विभागों में मानसिक स्तर पर यह आम राय होती है कि सामान्य दिनों में पर्यावरण की खबरें क्राइम व पॉलिटिकल खबरों की तरह पाठकों  व दर्शकों को अपील नहीं कर पाती  हैं । 
मुख्यधारा मीडिया में पर्यावरण पत्रकारिता के लिए विशेषज्ञों की कमी है । पर्यावरण पत्रकारिता को पूरी तरह से समर्पित पत्रकार गिने-चुने ही हैं । सामान्यत: किसी भी मीडिया हाउस में विज्ञान या पर्यावरण के मुद्दों पर अपने पत्रकारों को प्रशिक्षण देने की व्यवस्था भी नहीं   है । 
मीडिया के स्थानीय होने का ट्रेड भी समस्या की प्रमुख वजह है, जिसके कारण पर्यावरण के गंभीर मसले भी केवल स्थानीय संस्करणों में ही छपकर रह जाते हैं, राष्ट्रीय फलक पर बहस का केन्द्र नहीं बन पाते हैं । 
मीडिया संस्थानों के क्षेत्रीय कार्यालयों में पर्यावरण विशेषज्ञ रिपोर्टरों की कमी के कारण पर्यावरण के मुद्दों को ऐसे पेश किया जाता है जिससे वह विकास में बाधक नजर आने लगते हैं । स्थानीय पत्रकार अधिकांश मामलों में पर्यावरण और विकास के साथ जुड़ी हुई गहरी राजनीति को उजागर नहीं कर पाते  हैं । 
हालांकि, इन तमाम पहलुआें के बावजूद भी यही कहा जाएगा कि मीडिया का दायरा बढ़ने के साथ लोगों में पर्यावरण की प्रति जागरूकता बढ़ी है । इसकी वजह से ही पर्यावरण का विषय अभिजात्य वर्ग से निकलकर आम लोगों तक पहुंचा पाया है । मीडिया की सक्रियता के कारण ही भारत के समुद्री तटों पर आए फेलिन व हुदहुद जैसे तूफानों से होने वाली संभावित भारी जान-माल की हानि से बचा जा सका है । लेकिन, इस सबके बावजूद पर्यावरण के प्रति मीडिया की वर्तमान भूमिका से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है । 
मीडिया के द्वारा पर्यावरण के मुद्दे को निरन्तरता में देखे जाने की जरूरत है, जिससे विकास और पर्यावरण के आपसी संबंधों की नए सिरे से पड़ताल हो सके । बांध, पानी, नदी व समाज को लेकर एक बड़े फलक पर बात करने की आवश्यकता है । मीडिया के लिए कॉरपोरेट व सत्ता के सवाल ज्यादा अहमियत रखते है या पर्यावरण   के यह मीडिया को ही तय करना  है । 
विशेष लेख 
भूगोल का आध्यात्म
सचिन कुमार जैन
पूरी सृष्टि हमेशा ही प्रवास पर रहती है । हिमालय पर्वत भी चार करोड़ वर्षों में ६००० किलोमीटर का सफर कर अफ्रीका से एशिया महाद्वीप पहुंचा है । नेपाल के जंगलों का सफर हमें अतीत के अनुभव से समझा रहा है कि स्थायित्व का हमारा आशय कमोवेश निरर्थक है । आवश्यकता इस बात की है कि हम इस घरती पर एक मेहमान की तरह ही रहें और आने वाले सहयात्री को सौंपते जाएं ।   
जंगल, पर्वत और झरने लगते तो आध्यात्म का विषय हैं, परंतु पहले यह भूगोल का विषय हैं और आध्यात्म भूगोल का विषय भी है । इन दृश्यों को जब मैंने भूगोल के  साथ जोड़ा तो मुझे इन पर्वतों की ऊँचाई से ज्यादा गहराई का अंदाजा हुआ । वास्तव में आज भारत पृथ्वी के जिस हिस्से पर है (यानी एशिया में) वह २२.५ करोड़ साल पहले ऑस्ट्रेलियाई तटों के आसपास तैरता एक द्वीप था । टेथिस महासागर इसे एशिया से अलग करता था । इसका जुड़ाव एशिया से नहीं था । धौलागिरी के यह ऊंचे पहाड़ लाखों साल पहले अस्तित्व में थे ही नहीं ।
         भारत तब गोंडवाना या गोंडवाना भूमि का हिस्सा था । इसमें दक्षिण के दो बड़े महाद्वीप और आज के अंटार्कटिका, मेडागास्कर शामिल  थे । भारत, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका जैसे देशों से मिलकर बनी यह भूमि । गोंडवाना यानि गोंडो का जंगल । इस अंचल का अस्तित्व ५७ से ५१ करोड़ साल पहले माना जाता है । ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक एडवर्ड सुएस ने यह नाम दिया था । आज जमीन, जिस सीमा रेखा और राजनीतिक नक्शे के लिए लोग लड़ रहे हैं, वह पहले ऐसा नहीं था और आगे भी शायद ऐसा नहीं रहेगा । भू-भाग बदलते रहे हैं और आगे भी बदलते रहेंगे । तब यह कैसा राष्ट्रवाद, जबकि राष्ट्रों की कोई स्थाई सीमा-रेखा ही नहीं है ?
धरती की ऊपरी सतह को भू पटल कहते हैं । इसी में खनिज व गैस मिलते हैं । भूपटल के नीचे की सतह को स्थलमंडल कहते हैं । यही महाद्वीपों और महासागरों को आधार देता है । इसकी मोटाई १०० किलोमीटर या इससे कुछ ज्यादा हो सकती है । इस आवरण में मजबूत चट्टानें होती हैं । धरती में स्थलमंडल के नीचे की परत को दुर्बलतामंडल कहते हैं । यह परत द्रवीय या तरल होती है। मजबूत चट्टानों वाला स्थलमंडल इसी परत पर तैरता रहता है । ये तश्तरियां (जिन्हें टेक्टोनिक प्लेट कहते हैं) स्थिर नहीं बल्कि गतिमान होती हैं । यानी भू-गर्भीय घटनाओं और परतों की चारित्रिक विशेषताओं के कारण यह खिसकती रहती हैं । इनकी गतिशीलता के  कारण ही तीन लाख साल पहले कई महाद्वीप मिलकर विशाल पेंजिया महाद्वीप (उस समय का सबसे बड़ा महाद्वीप, जो कई द्वीपों से मिलकर बना था) बन गए थे ।
भारत तब अफ्रीका से सटा हुआ था । २० करोड़ साल पहले धरती के अंदर ताप संचरण की क्रियाओं के फलस्वरूप होने वाली भू-गर्भीय घटनाओं के कारण यह महाद्वीप टूटने लगा और छोटे-छोटे द्वीपों में बंट कर अलग-अलग दिशाओं में जाने लगा । ८.४० करोड़ साल पहले भारत ने उत्तर दिशा में बढ़ना शुरू कर ६ हजार किलोमीटर की दूरी तय की और ४ से ५ करोड़ साल पहले वह एशिया के इस हिस्से से टकराया । इस टक्कर के चलते भूमि का एक हिस्सा ऊपर की ओर उठने लगा । दो महाद्वीपों के टकराने व प्लेटों के एक दूसरे पर चढ़ने के  कारण हिमालय बना । इन पर्वतों पर समुद्री जीवों के अवशेष मिलते हैं । इन पहाड़ों की ऊपरी सतह के  खिरने से जो पत्थर निकलते हैं, वे भी ऐसे ही गोल होते हैं, जैसे नदियों या बहते पानी में आकार लेते हैं,  यानी ये हिस्सा कभी न कभी पानी में रहा है । 
माना जाता है कि भारत का भूभाग ज्यादा  ठोस था और एशिया का नरम, इसलिए एशिया का भूभाग ऊपर उठाना शुरू  हुआ और हिमालय पर्वतीय श्रृंखला की रचना हुई । यहाँ के पर्वतों की ऊंचाई ज्यादा तेज गति से बढ़ी और यह अब भी हर साल एक सेंटीमीटर की दर से बढ़ रही    है । क्योंकि भारतीय विवर्तनिक प्लेट (टेक्टोनिक प्लेट) भूकंपों के कारण अब भी धीमी गति से किन्तु लगातार उत्तर की तरफ खिसक रही है इसका अर्थ है हिमालय अभी और ऊँचा  होगा । हिमालय की ऊंचाई हमेशा से १ सेंटीमीटर की गति से नहीं बढ़ रही थी । यदि यह गति होती तो ४ करोड़ सालों में हिमालय की ऊंचाई ४०० किलोमीटर हो जाती । पर्यावरणीय कारणों और अनर्थकारी मानव विकास की लोलुपता के चलते विवर्तनिक प्लेटों में ज्यादा गतिविधियां हो रही है और भूकंपों के नजरिए से भी यह क्षेत्र बहुत संवेदनशील हो गया है। प्रकृति विरोधी विकास हमें विनाश की ओर ले जा रहा है । हिमालय पर्वत बहुत विशाल होने के बावजूद, बहुत नाजुक पहाड़ भी है। अधिक भारी अधोसंरचनात्मक विकास गतिवि-धियां यहां विनाश ही लाएंगी । 
जब किसी सपाट सड़क पर हम आधुनिक वाहन में पर्यटन के  लिए निकलते हैं, तब क्या हमें कभी यह अहसास होता है कि धरती के  जिस हिस्से पर हम चल रहे हैं, उसका जीवन ४ से ५ करोड़ साल का हो चुका है ? यह अहसास तभी होगा जब हम इसके साथ अपने भीतर के तत्वों को जोड़ेंगे । तभी हम पंचतत्वों को पहचान पाएंगे । वर्ष २०१३ में उत्तराखंड की बाढ़ के बाद समझ नहीं आ रहा था कि पहाड़ पर बाढ़ कैसे आएगी ? वहाँ तो बारिश के पानी को रोकने के लिए कहीं कोई बाधाएं ही नहीं है । गौरतलब है आम तौर पर मेघ बूंदें बरसाते हैं, पर जब बादल फटते हैं तो आकाश से धाराएं बरसती हैं । यानि मौसम का चक्र बदलने की वजह से जमीन और आकाश के  रिश्तों में आई कड़वाहट से मेघ गुस्सा हो रहे हैं । अब वे बूँदें नहीं तूफान बरसाते हैं । संकट का दूसरा दौर हमने उत्तराखंड के पहाड़ों में जंगल काट और जलाकर तैयार कर दिया था । अब पानी की धार को कौन रोकेगा ? ये धार बांधों से तो नहीं रुकने वाली । ये तो जल्दी ही बांधों को भी बहाकर ले जाने वाली है । 
वर्ष २०१३ को अपवाद बताने वाले सन् २०१४ की कश्मीर की घाटी के प्रलय को क्या कहेंगे। वहां पानी ऐसा रुका कि बस साढ़े साती की तरह जम गया....। श्रीनगर का उदाहरण लीजिए । यह एक कटोरे के रूप में बसा हुआ शहर है । झेलम नदी इसके बीच से गुजरती है । कहीं एकाध जगह थी, जहाँ से अतिरिक्त मात्रा में आया पानी बहकर निकल जाता था । इससे पहले वहां वर्ष १९०२ में कुछ ऐसी की बाढ़ आई   थी । परंतु विकास के पैरोकारों ने कहा कि विकास करेंगे तो इससे स्थिरता आएगी । बस इसी विकास के चलते वो नहरें और धारा बिंदु मिटा दिए गए, जहाँ से श्रीनगर का पानी बाहर निकलता था । असम और अरुणाचल प्रदेश में भी पिछले साल बाढ़ आई थी और २ लाख लोग बर्बाद हो गए ।
इस साल कश्मीर के बाद उत्तर-पूर्व में फिर से बाढ़ आ गयी । इसके कारण व परिणाम दोनों ही हम जानते हैं। वैसे भी यह एक्ट आफ गाड नहीं है । सोचिए, हम किसे मूर्ख बनाने की कोशिश कर रहे हैं ? बीमा और मुआवजा कुछ बचा थोड़ी पाते हैं । राहत कार्यों से नदी की बाढ़, आसमान से बरसने वाला प्रलय और हिमालय की बढ़ती ऊंचाई को कुछ समझ पायेंगे ? हर बार की बाढ़ अब पहाड़ों की एक परत को बहा ले जाती है । अब बाढ़ खेत की मिट्टी की सबसे जिन्दा परत को उखाड़ कर ले जाती है । जबकि पहले तो वह उपजाऊ मिट्टी लाती थी । यानि एक बार राहत या मुआवजे देने से अब कुछ न होगा । अगले साल बाढ़ न भी आई, तो खेतों में क्या और कितना उगेगा ? किस सरकार या कंपनी में इतनी मानवता है कि वह उत्तराखंड के पहाड़ों का पुनर्निर्माण करने वाली परियोजना चला सके ? हम विश्व निर्माण की मूल कथा और उसके विज्ञान को जानना ही नहीं चाहता । 
एक नया घर बनाते समय जो कुछ हम फेंक देते हैं, वह मलबा नहीं, बल्कि हमारे अपने अवशेष हैं । हमारा जीवन कुछ सालों का नहीं, बल्कि करोड़ों सालों का है । याद रखिए यह आपदा नहीं, हमारे अपराध हैं । तय कीजिए कौन अपराधी है और कौन दंड देगा ? यह आत्मनिर्णय की घड़ी है । 
स्वास्थ्य 
छत्तीसगढ़ की त्रासदी के सबक
भारत डोगरा
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में नसंबदी से होने वाली मौतों की त्रासदी दिल दहलाने वाली है । इन मौतों के कारणों की सही व विस्तृत जानकारी के लिए अभी तक कई स्तरों पर जांच का इंतजार है । फिर भी इस त्रासदी के कुछ महत्वपूर्ण पक्ष स्पष्ट हो चुके हैं, जिनसे भविष्य के लिए सबक लिए जा सकते हैं । 
परिवार नियोजन कार्यक्रम महत्वपूर्ण भी है और सार्थक भी लेकिन जिस तरह से इसे चलाया जा रहा है, उसमेंकई विसंगतियां हैं । केवलछत्तीसगढ़ में ही नहीं देश के अन्य भागों में भी जब नसंबदी शिविर लगते हैं तो स्वास्थ्यकर्मियों पर नसंबदी के लक्ष्य प्राप्त् करने के लिए जोर लगाया जाता है । उन पर दबाव होता है कि इतनी संख्या में केस लाना है । पैसे व पुरस्कार का प्रलोभन भी दिया जाता है । 
इस कारण ऐसा माहौल बनता है कि कैसे भी अधिक से अधिक महिलाआें को एकत्र कर आनन-फानन नसबंदी कर दी जाती है । इन शिविरों में अधिकतर निर्धन परिवारों की महिलाएं होती है जिनके स्वास्थ्य की अधिक परवाह न करते हुए कैंपो में किसी तरह अधिक से अधिक नसंबदियां करने पर ही जोर दिया जाता है । 
इन शिविरों पर अधिक निर्भरता इस कारण होती है क्योंकि ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं बुरी हालत में हैं । यदि प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र व सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र के स्तर पर उचित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हों, तो स्वास्थ्य पर समुचित ध्यान दते हुए परिवार नियोजन के विविध तरीके उपलब्ध करवाए जा सकते    हैं । ऐसा न हो पाने के कारण ही नसंबदी शिविर लगाने का दबाव बनता है । 
इस मामले मेंमहिला विरोधी सेाच भी सामने आती है - महिलाआें की नसबंदी अधिक कठिन होने के बावजूद ज्यादातर नसबंदियां महिलाआें की ही होती है । यह काफी सामान्य बात है कि सर्जरी के लिए अनुकूल स्थितियों के अभाव में ही महिलाआें की नसबंदी होती है जिससे अनेक स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न होती है । 
मातृ व बाल सुरक्षा के लिए प्राथमिक व सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में स्वास्थ्य सेवाआें को वर्तमान की अपेक्षा बहुत बेहतर करना जरूरी है । आज स्थिति है कि प्रसव के लिए अधिक माताएं इन स्वास्थ्य केन्द्रों में पहुंच तो रही है पर उन्हें समुचित सुविधाएं नहीं मिल रही हैं । इस स्थिति में परिवार नियोजन के विविध उपायों के लिए जरूरी काउंसलिंग भी नहीं हो पाती है । न तो पर्याप्त् डॉक्टर उपलब्ध हैं न पैरामेडिकल स्टाफ । इसके साथ जब लक्ष्य प्राप्त् करने की जल्दबाजी जुड़ जाती है तो गंभीर गलतियों की संभावना बढ़ती है । 
भ्रष्टाचार भी एक बड़ी समस्या है जिससे घटिया दवा व उपकरणों की आशंका बढ़ जाती है । ग्रामीण स्वास्थ्य के लिए उपलब्ध सीमित बजट का भी सही उपयोग नहीं हो पाता है । 
ऐसे माहौल में गलतियों पर लीपापोती करने की प्रवृत्ति पनपती   है । छत्तीसगढ़ में महिलाआें के गर्भाशय अनुचित ढंग से निकालने, नेत्र शिविरों में मरीजों के दृष्टिहीन होने के गंभीर मामलों पर पहले भी उचित दंड नहीं दिए गए थे । वर्ष २०१० में राज्य में मलेरिया से सैकड़ों मौते हुई थी जिन्हें सरकारी रिकॉर्ड में दिखाया ही नहीं गया ।
स्पष्ट है कि देश में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओ व विशेषकर परिवार नियोजन सेवाआें में बहुत सुधार की जरूरत है ताकि हाल की नसबंदी मौतों जैसी गंभीर असहनीय त्रासदियों  से बचा जा सके । 
मूल बात केवल यह नहीं है कि किसी देश में कितने अस्पताल व डॉक्टर है, अपितु यह भी है कि जरूरतमंद लोगों तक ठीक से उनका लाभ पहुंच रहा है या नहीं । यह सवाल विशेषकर भारत जैसे देशों के संदर्भ में तो बहुत महत्वपूर्ण है जहां अमीर और गरीब, शहर और गांव के बीच स्वास्थ्य सेवाआें की उपलब्धि में बहुत विषमता है । 
अत: जहां एक ओर स्वास्थ्य सेवाआें, डॉक्टरों, नर्सो, तकनीशियनों और सभी स्वास्थ्यकर्मियों की उपलब्धि को देश की जरूरतों के अनुसार बढ़ाने व इनकी गुणवत्ता बनाए रखने की चुनौती है, वहीं दूसरी ओर इससे भी बड़ी चुनौती यह है कि इनकी सेवाएं अधिक जरूरतमंद लोगों तक, विशेषकर दूर-दूर के गांवों के लोगों तक पहुंच सके । 
यदि स्वास्थ्य सेवाआें को जरूरतमंदो तक पहुंचाना है तो सरकार को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाने में अपनी प्रमुख जिम्मेदारी बनाए रखनी होगी । निजी क्षेत्र के माध्यम से सब जरूरतमंदों तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने का कार्य ठीक से नहीं हो सकता है, विशेषकर भारत जैसे देशों में जहां गरीब लोगों की और बहुत कम क्रय क्षमता वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है । 
सामुदायिक स्वास्थ्य प्रयासों की भी बहुत अधिक जरूरत है जिनमें उचित इलाज के साथ-साथ बीमारियों, स्वास्थ्य समस्याआें व दुर्घटनाआें की रोकथाम के प्रयासों को भी समान व समुचित महत्व मिले । 
सभी जरूरतमंदों की स्वास्थ्य आवश्यकताआें को पूरा करने के लिए सरकार को जितने खर्च की आवश्यकता है, उसके अनुकूल ही सरकार को स्वास्थ्य बजट निर्धारित करना चाहिए । इसे उचित प्राथमिकता मिलनी चाहिए व इसमें कोई कटौती नहीं होनी चाहिए । विशेषकर गांवों की स्वास्थ्य जरूरतों के अनुकूल बजट उपलब्ध होना बहुत जरूरी हो गया है । 
अलबत्ता केवल स्वास्थ्य का बजट बढ़ाना पर्याप्त् नहीं है । यदि बजट बढ़ गया पर स्वास्थ्य के क्षेत्र मेंमुनाफाखोरी की प्रवृत्तियां छाई रहीं तो बढ़ा हुआ बजट मुनाफाखोरी की भेंट चढ़ जाएगा । अत: बजट बढ़ाने के साथ मुनाफाखोरी पर रोक लगाना व वास्तविक जरूरत को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र का नियमन करना जरूरी है । 
पर्यावरण परिक्रमा
बन्दर ने अपने साथी को मौत के मुंह से निकाला
पिछले दिनोंउत्तर प्रदेश की औघोगिक राजधानी कानपुर रेलवे स्टेशन पर एक दिलचस्प और सीख लेने वाला नजारा उस समय दिखा जब ११ हजार वोल्ट की हाइटेंशन लाइन से टकराऐ अपने साथी को एक बन्दर मौत के मंुह से खींच लाया । 
एक बन्दर हाइटेंशन तार से टकराकर ट्रेन से नीचे रेल की पटरी के पास में गिर गया । प्लेटफार्म पर सैकड़ों यात्रियों की भीड़ जमा हो   गई । इसी बीच वहां दो बंदर आ   गए । इसमें एक बन्दर ने साथी वानर को काफी हिलाया-डुलाया लेकिन उसमें कोई हरकत नहीं हुई और वह मरणासन्न पड़ रहा । साथी बन्दर ने हार नहीं मानी और उसे बचाने के लिए अच्छे डॉक्टर की तरह पूरे मनोयोग से जुट गया । कभी उसे पलटता तो कभी बगल बह रही नाली के पानी में डुबोता फिर भी बन्दर में कोई हरकत नहीं आई फिर भी वह लगा रहा और अंतत: वह साथी बन्दर की जान बचाने में सफल हो गया । 
प्लेटफार्म पर खड़े एक यात्री राजकुमार ने बताया कि एक ट्रेन के रूकने के बाद यह बंदर उसकी छत पर चढ़ गया लेकिन अचानक वह हाइटेंशन तार की चपेट में आ    गया । इसके बाद वह वह ट्रेन की छत से सीधा रेल की पटरी के बगल में गिर पड़ा । उसे देखकर यही लग रहा था कि वह मर चुका है क्योंकि वह एकदम शिथिल पड़ चुका था । उसकी आंखें बंद हो गई थी । ट्रेन के गुजरने के बाद अचानक वहां दो बन्दर आ गए । उनमें से एक ने मरणासन्न बंदर को हिलाया-डुलाया लेकिन उसके शरीर में कोई हरकत नहीं  हुई । इसके बावजूद उसने हार नहीं मानी और शिथिल पड़ बंदर को उठाकर पानी में डाल दिया । फिर उसे जोर-जोर से हिलाने लगा । इस दौरान उसने उसकी पीठ को दांतों से पकड़कर खूब झकझोरा, लेकिन उसके अंदर किसी प्रकार की हरकत नहीं हुई । 
साथी बन्दर के सीने को भी वह रगड़ता रहा । थोड़ी से हलचल होने पर उसे फिर पानी में डुबोया । उस बंदर ने एक बार फिर उसे पानी से निकाला । उसे उलट-पलट कर देखा । फिर उसके शरीर में कोई हरकत नहीं हुई । इसके बाद उस बन्दर ने उसके पीठ, गर्दन और आंखों के ऊपर रगड़ना शुरू    किया । इससे शिथिल पड़े बंदर के शरीर में अचानक से हलचल हुई । इसके बाद बन्दर ने अपने साथी को पानी से बाहर निकाला । फिर उसे उलट-पलट कर देखा और सीधा उसे बड़े नाले में डाल दिया । इस बार उसका नुस्खा काम कर गया और मरणासन्न बन्दर उठकर बैठ गया । 
वायु प्रदूषण से देश में खाद्यान्न उपज आधी 
वायु प्रदूषण से सीधे तौर पर भारत के खाघान्न उत्पादन पर बुरा असर पड़ रहा है । देश में बढ़ते प्रदूषित कोहरे के कारण फसलों की संभावित उपज आधी रह गई है । सन् २०१० में जितनी फसल संभावित थी, वायु प्रदूषण के चलते पैदावार उसकी ५० फीसद ही हुई । 
पिछले तीस साल के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए वैज्ञानिकों ने भारत का एक सांख्यिकीय मॉडल तैयार किया है । इस मॉडल के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण सघन बसे राज्यों में गेहूं की उपज ५० फीसद तक कम हो गई है । आवश्यक खाद्य सामग्री के उत्पादन में स्मॉग के कारण ९० फीसद तक की कमी आई है । काले कार्बन और अन्य प्रदूषक तत्वों से बना स्मॉग तेजी से देश की मिट्टी के उपजाऊपन को निगलता जा रहा है । सिर्फ प्रदूषित वायु और काला कोहरा ही नहीं वैश्विक तापमान बढ़ने से मौसम में होने वाले बदलावों के चलते भी खाघान्न की दस फीसद उपज कम हो  गई । कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के शोधकर्ताआेंऔर प्रमुख शोधकर्ता जेनिफर बर्नी ने कहा कि सरकारें जब वायु प्रदूषण को दूर करने के उपायों के खर्च और नए कानूनों को बनाने पर चर्चा करती हैं तो वह उस समय कृषि को अपने ध्यान में नहीं    रखती । लेकिन अब वह उम्मीद करती हैं कि उनके इस शोध से वायु प्रदूषण को कम करने के उपायों को बल मिलेगा । ये शोधपत्र मौजूदा पर्यावरण और वायु प्रदूषण का भारतीय कृषि पर प्रभाव शीर्षक से नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित किया गया है ।  
इसमें सरकार को सुझाव दिये है :- 
* वायु प्रदूषण कम करने के लिए बड़ी तकनीकों के बजाय कुछ साधारण उपायों की सलाह दी । 
* ट्रकों में डीजल के लिए बेहतर किस्म के फिल्टरों का उपयोग करने की आवश्यकता । 
* भारत सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में खाना बनाने वाले स्टोव में अधिक शुद्ध ईधन मुहैया कराना चाहिए । 
* ग्रामीण क्षेत्रों में खाना बनाने के लिए बायोगैस बेहतर विकल्प । 
* भारत सरकार को वायु प्रदूषण कम करने को लोगों को राष्ट्रीय स्तर पर प्रेरित करना होगा । 
* बेहतर जन नीतियों से वायु शुद्ध होगी और देश में भुखमरी भी कम होगी । 

खतरनाक है मोबाइल फोन का ज्यादा उपयोग 

मोबाइल टावरों के रेडियेशन के मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ने और कई गंभीर बीमारियां होने के बारे में अब तक चिकित्सा जगत किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सका है लेकिन डॉक्टरों का कहना है कि मोबाइल फोन का अधिक समय तक उपयोग मस्तिष्क सहित कई अंगों के लिए खतरनाक हो सकता है । 
मोबाइल टॉवर के रेडियेशन का मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों के प्रति आगाह करते हुए विशेषज्ञों ने कहा कि इस संबंध में अब तक कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल हैं लेकिन मोबाइल फोन का अधिक समय तक एक कान से उपयोग करने से कई तरह की घातक बीमारिया हो रही है । भारतीय चिकित्सा शोध परिषद् के वरिष्ठ उप महानिदेशक आर.एस. शर्मा ने कहा कि मोबाइल टॉवर के रेडियेशन के प्रभाव के बारे में अभी तक कोई ठोस प्रमाण नहीं मिले हैं और वैश्विक स्तर पर रेडियेशन के मानक तय किए गए है । लेकिन मोबाइल फोन का अधिक समय तक उपयोग नुकसानदेह है । इससे ब्रेन ट्यूमर सहित कई तरह की घातक बीमारियां होने की बात कही जा रही है । 
मोबाइल टॉवर के रेडियेशन से कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां होने की बात अब तक किसी अध्ययन में साबित नहीं हो सकी है । इस संबंध में अभी भी अध्ययन जारी है और वर्ष २०२० तक किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की उम्मीद है । मोबाइल फोन को कभी भी सीने के पास नहीं रखा जाना चाहिए । सोने के दौरान तकीये के नीचे भी नहीं रखना चाहिए और बिस्तर से कम से कम दो फुट की दूरी पर रखा जाना चाहिए । 
छोटे बच्चें पर मोबाइल फोन का गहरा दुष्प्रभाव पड़ रहा है । इस संबंध में वैश्विक स्तर पर मोबी किड नाम से अध्ययन किया गया है जिसमें भारत के साथ यूरोपीय तथा कुछ दूसरे बड़े देश भी शामिल हैं । यह रिपोर्ट इस वर्ष के अंत तक आ जाएगी । इसके बाद सही-सही पता चल सकेगा कि मोबाइल फोन के उपयोग का १० साल तक के बच्चें पर क्या प्रभाव पड़ रहा है । 
केन्द्र सरकार ने घटाया स्वास्थ्य बजट 
सरकार की कमाई घटने का असर सामाजिक योजनाआें पर दिखने लगा है । सरकार ने इस साल के स्वास्थ्य बजट में २० फीसदी कटौती कर दी है । स्वास्थ्य मंत्रालय के दो अधिकारियों ने बताया कि बजट में ६००० करोड़ से ज्यादा की कटौती की गई है । मंत्रालय ने इस पर आपत्ति जताई थी, लेकिन वित्त मंत्रालय नहीं माना । 
सेहत पर खर्च करने के मामले में भारत दूसरे देशों से काफी पीछे   है । बीते दो दशकों में आर्थिक विकास भले ही तेजी से हुआ हो, लेकिन इस दौरान तमाम सरकारों ने स्वास्थ्य बजट को बेहद कम रखा है।
बीजेपी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में ऐसा वादा नहीं किया  था । कटौती की कोई वजह नहीं बताई है । लेकिन सरकार के सामने पैसे की समस्यता तो है ही । सरकार के सामने राजकोषीय घाटे को ४.१ फीसदी पर रखने की चुनौती है । 
भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र १५ फीसदी सालाना की रफ्तार से बढ़ रहा है । लेकिन कुल खर्च में सरकार की हिस्सेदारी बहुत कम है । इसका नतीजा खस्ताहाल सरकारी अस्पतलों के रूप में देखा जा सकता है । 
सेहत पर खर्च (जीडीपी की तुलना में)  भारत में - १ फीसदी, चीन में - ३ फीसदी और अमेरिका में ८.३ फीसदी है । भारत में हर साल बांग्लादेश से भी ज्यादा नवजात की मौत होती  है । हर साल डायरिया से ही देश में हजारो छोटे बच्च्े जान गांव देते है । दुनिया के १.२ अरब गरीबों में से एक तिहाई भारत में रहते है । 
एचआईवी बजट भी घटा है, इसे ३० फीसदी घटा कर १३०० करोड़ कर दिया गया है । भारत २०१३ में एचआईवी पीड़ितों की संख्या के लिहाज से तीसरा सबसे बड़ा देश था । एशिया-प्रशांत में हर साल एड्स से संबंधित जितनी मौते होती है, उनमें आधे से ज्यादा भारत में होती है । 
मोदी सरकार इस साल से सभी नागरिकों को मुफ्त इलाज और स्वास्थ्य बीमा देने की योजना बना रही है । 
जीवजगत
सुन्दरता के लिए कुरबान नहींहोंगे जीव
संध्या रायचौधरी
किसी के जीवन की कीमत पर इंसानी देह की सुन्दरता बढ़ाने में भारत ने तौबा कर ली है । जन्तुआें पर क्रूर प्रयोग कर सौंदर्य प्रसाधन बनाने और ऐसे उत्पादों का आयात करने पर प्रतिबंध लगाकर भारत ने अमेरिका और चीन जैसे अग्रणी देशों के लिए नजीर पेश की है । 
इसी के साथ भारत दक्षिण एशिया मेंसौंदर्य प्रसाधनों  के मामले में क्रूरता मुक्त देश बन गया है । ह्यूमन सोसायटी इंटरनेशनल नामक गैर सरकारी संगठन आयात पर रोक लगाने के लिए कई दिनों से अभियान चला रहा था । उन्होनें बताया कि सरकार ने ड्रग्स एण्ड कॉस्मेटिक्स कानून में एक नई धारा जोड़ी है । इसके बाद ऐसे किसी भी सौंदर्य उत्पाद का देश में आयात नहीं किया जा सकता है जिसे बनाने के लिए जन्तुआें पर प्रयोग किए गए हो । 
इससे पहले २३ मई को देश में सौंदर्य उत्पाद बनाने के लिए जन्तु परीक्षण पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था । ह्यूमन सोसायटी इंटरनेशनल ने इस खबर के बाद टिप्पणी में कहा यह एक बड़ी उपलब्धि है जो सरकार उपभोक्ताआें और उद्योग के सहयोग के बगैर संभव नहीं हो सकती थी । हमें पूरा विश्वास है कि अगर दूसरे मामलों में भी जन्तु प्रयोग रोके जा सके तो भारतीय विज्ञान का आधुनिकीकरण होगा और कई जानवर पीड़ा से बच जाएंगे । 
भारत से पहले युरोपीय संघ ने भी ऐसा ही प्रतिबंध अपने सदस्य देशों के लिए लागू किया था । जन्तु अधिकारों के लिए काम करने वाले समूह पेटा ने भी इस फैसले का स्वागत किया है । 
पेटा मेंविज्ञान नीति सलाहकार डॉ. चैतन्य कोदुरी के अनुसार यह पूरी दुनिया को एक संदेश है कि भारत अब शैंपू, या अन्य सौंदर्य उत्पादों के लिए किसी खरगोश को अंधा करना सहन नहीं करेगा । इस फैसलेसे उस उद्योग को बढ़ावा मिलेगा जो जन्तुआें पर प्रयोग नहीं करता । भारत के विपरीत चीन और जापान में सौंदर्य उत्पादों के लिए जन्तुआें पर परीक्षण करना अनिवार्यहै। 
ह्यूमन सोसायटी इंटरनेशल इंडिया के बी क्रुएल्टी (क्रूरता मुक्ति) अभियान की मैनेजर आलोकपर्णा सेनगुप्त ने कहा, इस ऐतिहासिक प्रतिबंध, जिसमें जन्तुआें पर प्रयोग के बाद बनाए गए सौंदर्य उत्पादों का आयात नहीं किया जाएगा, को लागू कर भारत ने दक्षिण एशिया में इतिहास बना दिया है । 
भारत ने कॉस्मेटिक उत्पादों के लिए जन्तु परीक्षणों पर रोक लगा दी है । इस प्रतिबंध के कुछ महीने बाद ही भारत ने ऐसे परीक्षण से गुजरने वाले उत्पादों के आयात पर भी रोक लगा कर कारोबारी हितों की बजाए जीव मात्र के जीवन को अहमियत देने का संदेश दुनिया को देने की कोशिश की है । भारत का यह फैसला न सिर्फ जीव हिंसा को रोकने के लिहाज से महत्वपूर्ण है बल्कि आर्थिक कूटनीति के नजरिए से भी अहम है । 
इस प्रतिबंध को लागू करने के लिए भारत सरकार ने ड्रग एण्ड कॉस्मेटिक कानून में बदलाव किया है । ये नियम स्वास्थ्य मंत्रालय के क्षेत्राधिकार में आते हैं । इसलिए अब  जन्तुआें पर परीक्षण से बने सौंदर्य प्रसाधनों का आयात भी प्रतिबंधित हो गया है । इस नियम में बदलाव का सीधा असर चीन, जापान और अमेरिका से होने वाले आयात पर पड़ेगा । कानून के जानकारों का मानना है कि भारत को इस तरह का प्रतिबंध नहीं लगाने वाले देशों के साथ आयात-निर्यात संबंधी अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध तोड़ने पड़ सकते हैं । अन्तर्राष्ट्रीय कानून के जानकार प्रोफेसर अविनाश हजेला का मानना है कि भारत सौंदर्य  प्रसाधनों के लिए दुनिया का एक बड़ा बाजार है । इस क्षेत्र में चीन, जापान और खासकर अमेरिका की तमाम कंपनियों ने द्विपक्षीय समझौतों के तहत भारत में भारी निवेश किया है । ऐसे में ये कंपनियां भारत में पुराने नियमों की बाध्यता का हवाला देकर हर्जाने का दावा कर सकती है । 
वास्तव में चिंता इस बात की, की जानी चाहिए कि प्रतिबंध प्रभावी तोर पर कितना लागू हो पाएगा । बीते छह दशकों का इतिहास बताता है कि कानूनों की बहुलता के बावजूद भारत इन्हें लागू करने में नितांत अक्षम साबित हुआ है । सौंदर्य प्रसाधनों के जन्तुआें पर परीक्षण को प्रतिबंधित करने के बाद अब तक सरकार ठोस प्रमाण नहीं दे पाई है कि उक्त बदलाव के फलस्वरूप कितने जानवरों को जीवनदान मिला है । समय ही बताएगा कि जन्तुआें पर प्रयोग करके तैयार होने वाले सौंदर्य  प्रसाधनों का आयात तस्करी के माध्यम से भारत की सीमा में किस हद तक रूक पाता है । 
युरोप में अब ऐसा कोई भी सौंदर्य उत्पाद नहीं बेचा जा सकेगा जिसका परीक्षण जन्तुआें पर किया गया हो । युरोपीय संघ में बने सौंदर्य उत्पादों का जन्तुआें पर परीक्षण २००४ में ही रोक दिया गया था । चार साल ऐसे उत्पादों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया जिनमें इस्तेमाल होने वाले किसी पदार्थ का परीक्षण जन्तुआें पर किया गया हो । कंपनियों ने इसका काफी विरोध किया । 
जानवरों की रक्षा के लिए काम करने वाले ह्यूमन सोसायटी इंटरनेशनल संगठन सहित कई संगठनों ने युरोपीय संघ के इस कानून का स्वागत किया है और जानवरों पर परीक्षण को पूरी तरह रोकने का कदम अहम बताया है । उनके मुताबिक इस फैसले के बाद यह दुनिया की इकलौती कॉस्मेटिक इंडस्ट्री होगी जहां जन्तुआें को पीड़ा से नहीं गुजरना पड़ेगा । संगठन ने उम्मीद जताई है कि दुनिया की सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्थाआें वाले युरोपीय संघ का यह कदम धीरे-धीरे पूरी दुनिया पर असर करेगा । दूसरी ओर युरोपीय व्यापार संगठन का कहना है कि इस प्रतिबंध के कारण उद्योग की प्रतियोगी क्षमता पर असर पड़ेगा और यह रोक लगाने में बहुत जल्दबाजी की गई है क्योंकि कई मामलों में जन्तु परीक्षण का कोई विकल्प नहीं है । 
कॉस्मेटिक्स युरोप के प्रमुख बेटी हीरिंक ने कहा है कि इस समय प्रतिबंध लगाकर युरोपीय संघ उद्योग की रचनात्मक क्षमता में अडंगा डाल रहा है । युरोपीय आयोग के मुताबिक २०१० में युरोप की कॉस्मेटिक कंपनियों ने ७१ अरब यूरो कमाए थे और इस उद्योग में करीब एक लाख अस्सी हजार लोग काम करते हैं । आयोग ने कहा है कि वह अपने व्यापार साझेदार अमेरिका और चीन से इस बारे में बात करके युरोपीय मॉडल को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन दिलवाने की कोशिश   करेगा । आयोग इसे युरोपीय संघ के व्यापार एजेंडा और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का अहम हिस्सा बनाएगा । 
फिलहाल युरोपीय संघ के बाहर बने नए कॉस्मेटिक उत्पाद, जिनका जन्तुआें का परीक्षण किया गया हो, युरोप में बिक सकते हैं । लेकिन शर्त यह है कि सिर्फ जन्तु परीक्षण के आधार पर उत्पाद की सुरक्षा साबित नहीं कर सकते, इसके लिए अतिरिक्त परीक्षणों के नतीजें दिखाने होंगे । कुछ सौंदर्य प्रसाधन ऐसे होते हैं जिनमें दवाइयों का इस्तेमाल किया जाता है और इन दवाइयों का परीक्षण जन्तुआें पर किया जाता है । युरोपीय नियमों के मुताबिक ऐसे दवायुक्त उत्पाद युरोप में बेचे जा सकते हैं । 
सुन्दरता निखारने वाली क्रीम, पावडर और लिपस्टिक जैसी कई चीजों को हम तक पहुंचने से पहले जन्तुआें पर जांचा जाता है । परीक्षण के दौरान नुकसानदायक प्रतिक्रियाएं भी हो जाती हैं, जिससे कई बेजुबान जीव अपनी जान गंवा देते हैं । 
जानवरों के हित में काम करने वाले अन्तर्राष्ट्रीय संगठन पेटा के मुताबिक हर साल केवल अमेरिका में ही करीब १० करोड़ जानवर कई प्रयोगों में दवाआें और कॉस्मेटिक उत्पादों के परीक्षण के कारण मारे जाते हैं । इनमें खरगोश, बिल्ली, चूहे, चिड़िया, वगैरह शामिल हैं । कई सौंदर्य उत्पादों के परीक्षण चूहों पर होते है । बिल्ली पर ज्यादातर तत्रिका संबंधी परीक्षण होते हैं । इनमें तनाव संबंधी दवाआें का परीक्षण शामिल है । टूथपेस्ट जैसे कई उत्पादों का परीक्षण हेम्सटर, खरगोश, चूहों जैसे जन्तुआें पर होता है । लिपस्टिक के परीक्षण के लिए चूहों के मसूड़ों पर इसे मलकर देखा जाता है तो शैम्पू के परीक्षण के लिए खरगोश का उपयोग होता है । 
प्रदूषण
पर्यावरण का प्रदूषण कैसे दूर हो ?
डॉ. लक्ष्मीनारायण मित्तल 
प्रकृति को विनाश से बचाने के लिए बड़े-बड़े दावे किये जाते है । स्वच्छता अभियान भी पूरे देश में जोर-शोर से चल रहा है । यह कितना बनवाटी है और कितना सच्च, यह किसी से छिपा नहीं है । 
कहते है विश्व के ८० प्रतिशत संसाधनों का उपयोग विश्व के २० प्रतिशत  सम्पन्न लोग करते है और शेष २० प्रतिशत संसाधन विश्व के गरीब जनसंख्या के हिस्से आता है । चाहे ओजोन परत की बात हो या कोई और, सबसे ज्यादा नुकसान वे पहुंचा रहे है जो वातानुकूलित कमरों में पर्यावरण संरक्षण पर बड़ी-बड़ी बहसें करते हैं परन्तु ऐसी गोष्ठियों के बाद खाने-पीने की कागज की प्लेटें, फूल मालाएँ, कागज का कचरा और तामझाम में हुआ कूड़ा करकट पर्यावरण को दूषित ही करता है । यह तो भौतिक कचरा है, बौद्धिक कचरा भी कम नहीं होता, ध्वनि प्रदूषण  ।
असल सवाल जीवन शैली का है । यदि  हम लालच में भौतिक पदार्थो के उपयोग को बढ़ायेगे तो पर्यावरण प्रदूषण होगा ही । असल सवाल जीवन में प्रकृतिके साथ सह अस्तित्व का जीवन है, वह अंधविश्वास कहकर आज नकारा जा रहा है परन्तु प्रकृति के साथ-साथ जीवन का सूत्र था । इसाइयत में आदमी को सबसे बड़ा माना गया है और शेष प्रकृति उसके उपभोग के लिए है । पश्चिमीकरण और आधुनिकता ने हमारे पर्यावरण का दूषित किया है । 
दूसरों को उपदेश देने के स्थान पर यदि हम इस संरक्षण की सोच को जीवन में उतार लेंगे तो हम अपना कल्याण करने के साथ-साथ अपने आने वाली पीढ़ी के लिए भी एक सुरक्षित भविष्य छोड़कर    जायेगें । 
प्रकृति के साथ संवाद को हम अंधविश्वास मानते हैं । परन्तु यही सच्ची कुंजी है । हम यदि अहं पालने वाले कौन होते है कि हम प्रकृति को बचायेंगे । प्रकृति को स्वयं सक्षम है अपनी रक्षा करने के परन्तु शर्त यह है कि हमने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ न की हो । उत्तराचंल की त्रासदी, कश्मीर में तबाही या अन्यत्र आपदा मनुष्य कृत है । हम प्रकृति को निर्जीव मानकर उससे छेड़छाड़ करना छोड़ दे तो अपनी ऊर्जा और शक्ति का सही प्रयोग कर सकेगे । 
प्रकृति की न्याय व्यवस्था मनुष्यकृत नहीं है । वह सम्प्रदाय-सम्प्रदाय, जाति-जाति, धर्म-धर्म व जाति-जाति के भेद करना नहीं जानती । सूरज की रोशनी अमीर-गरीब को बराबर सुलभ है । यह दूसरी बात है कि अमीरों ने सूरज की रोशनी से अपना नाता तोड़ लिया    है । सम्पूर्ण प्रकृति युगो-युगो से भेदभाव रहित निष्पक्ष व सटीक है । 
हम जहाँ है वही से शुरू कर सकते हैं । शर्त है कि अपने अहं को दूर रखे, प्रकृतिसंरक्षण को भाषणबाजी या चोचलेपन से    बचायें । 
ज्ञान विज्ञान
देश की पहली स्मार्ट सिटी दिल्ली में 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की महत्वाकांक्षी स्मार्ट सिटी योजना की आधारशीला दिल्ली में रखी जाएगी। राजधानी दिल्ली में न सिर्फ देश की  पहली स्मार्ट सिटी तैयार होगी बल्कि इसे ग्लोबल सिटी (वैश्विक शहर) की तर्ज पर विकसित कर सभी आधुनिक  सुविधाएं मुहैया कराई जाएगी । 
दिल्ली वालों  को यह खुशखबरी केन्द्रीय शहरी विकास मंत्री वैकेया नायडू ने डीडीए के मुख्यालय पर हाउसिंग योजना - २०१४ के तहत आवंटन प्रक्रिया की औपचारिक शुरूआत करने के मौके पर दी । नायडू ने कहा, हम दिल्ली को वास्तव में एक वैश्विक शहर बनाना चाहते है, जहां लंदन और सैन फ्रांसिस्को जैसी आधुनिक और नवीनतम सुविधाएं हो । हम यहां पर डिज्नीलैंड और युनिवर्सल स्टुडियोज जैसे विश्व स्तर के मनोरंजन स्थल चाहते है । 
मोदी सरकार ने देश में १०० स्मार्ट शहर बसाने की योजना बनाई है । इसके तहत पहला शहर दिल्ली में तैयार होगा । नायडू ने कहा, दिल्ली देश का दिल है और पहली स्मार्ट सिटी यहीं बनेगी । इस दिशा में हमारे प्रयासों में मदद करने के लिए स्पेन के बार्सिलोना शहर ने तकनीकी सहयोग देने का वादा किया  है ।  मैंने बार्सिलोना में देखा है कि वहां आधुनिक इमारतों के साथ ही कई ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजकर रखा गया है । स्मार्ट सिटी के बारे में बताते हुए उन्होनें कहा कि यहां वैश्विक स्तर के शैक्षणिक स्वास्थ्य संस्थान के साथ ही मनोरंजन सुविधाआें का निर्माण किया   जाएगा । 

विलुिप्त् के कगार पर पर्यावरण मित्र गिद्ध
गिद्ध शिकारी पक्षियों के अन्तर्गत आने वाले मुर्दाखोर पक्षी है, जिन्हें गुद्ध कुल में एकत्र किया गया है । ये सब पक्षी दो भागों में बांटे जा सकते हैं । पहले भाग में अमरीका के कॉण्डर, किंग वल्वर, कैलिफोर्नियन वल्चर, टर्की बर्जर्ड और अमरीकी ब्लैक वल्चर होते हैं और दूसरे भाग में अफ्रीका और एशिया के राजगुद्ध, काला गिद्ध, चमर गिद्ध, बड़ा गिद्ध और गोबर गिद्ध मुख्य हैं । ये कत्थई और काले रंग के भारी कद के पक्षी हैं, जिनकी दृष्टि बहुत तेज होती है । शिकार पक्षियों की तरह इनकी चोंच भी टेढ़ी और मजबूत होती है, लेकिन इनके पंजे और नाखून उनके जैसे तेज और मजबूत नहीं  होते । ये झूडों में रहने वाले मुर्दाखोर पक्षी है, जिनसे काई भी गंदी और घिनौनी चीज खाने से नहीं बचती । ये पक्षियों के सफाइकर्मी है, जो सफाई जैसा आवश्यक काम करके बीमारी नहीं फैलनेदेते । 
इन सभी तथ्यों के बावजूद आज जो बात जमीनी स्तर पर खड़ी है वह यह कि यह प्राकृतिक रूप से लाभकारी पक्षी अपनी विलुप्त्ता के कगार पर खड़ा है । दक्षिणी एशिया में गिद्ध की तीन प्रजातियां ९७ प्रतिशत तक विलुप्त् हो चुकी हैं, वहीं एक प्रजाति तो ९९.९ प्रतिशत तक विलुप्त् हो चुकी है । गिद्धों की विलुप्त्ता की प्रक्रिया डोडो समेत बहुत सी जंगली पक्षियों से ज्यादा तेजी से हुई है । भारत में इनको ९ प्रकार की प्रजातियां है । डेढ़ से दो दशक में गिद्धों की संख्या ९७ प्रतिशत नष्ट हो गयी है । २० वर्ष पहले तक भारत में गिद्धों की संख्या लगभग ९.५ लाख थी । अब उनकी संख्या मात्र ३-४ हजार ही शेष रह गई है । गिद्धोंं की तीन प्रजातियों (व्हाइट, बैक्ड, स्लेंडर बिल्ड, लॉग बिल्ड) तेजी से विलुप्त् होती जा रही    है । यह पर्यावरण के परिस्थितिकीय चक्र के लिए अशुभ संकेत है । 

इंसानोंसे पहले की कलाकृति मिली
भूमध्य सागर के निकट जिब्राल्टर की एक गुफा में चट्टानों पर उकेरी गई कुछ रेखाआें को देखकर यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि यह आदिम कलाकृति का एक नमूना है जिसे इंसानों ने नहीं बल्कि निएंडरथल्स ने बनाया है । निएंडरथल्स मानव सदृश जीव थे । 
दरअसल भूमध्य सागर के तट पर स्थित ग्रोहम गुफा में प्राणी वैज्ञानिक और जिब्राल्टर संग्रहालय के निदेशक क्लाइव फिनलेसन और उनके साथी उत्खनन कार्य कर रहे  थे । उन्होनें पाया कि यहां रहने वाले निएंडरथल्स मछलियां, झींगे और पक्षियों का भक्षण करते थे । मगर फिर फिनलेसन और उनके साथी फ्रांसिस्को पैचेको उस गुफा में मौजूद एक संकरी-सी दरार के अंदर घुसकर एक और कोठरी में पहुंच गए । 
उस कोठरी में एक चट्टान पर करीब २० से.मी. लंबा-चौड़ा एक चपटा उभार था, किसी मेज के समान । इस मेजनुमा उभार पर कुछ रेखाएं उकेरी गई थी । टीम का मत है कि ये रेखाएं चट्टान पर बेतरतीबी से चोट करके नहीं बनी होगी । कई बार निएंडरथल अपने शिकार के टुकड़े करने के लिए उसे चट्टान पर रखकर पत्थर के औजारों से चोट करते थे । मगर शोधकर्ताआें ने एक अन्य चट्टान पर ऐसा करके देखा मगर उनका निष्कर्ष है कि ग्रोहम गुफा में पाई गई वे रेखाएं जान-बूझकर, उद्देश्यपूर्ण ढंग से ही उकेरी जा सकती हैं । इन रेखाआें को देखकर लगता है कि निएंडरथल काफी अमूूर्त सोच की क्षमता से लैस थे । 
अब सवाल आया कि यह कलाकृति कितनी पुरानी है । वैसे तो शैल कलाकृतियों की उम्र का अंदाजा लगाना मुश्किल काम होता है मगर फिनलेसन को यकीन है कि ये कलाकृतियां कम से कम ३९,००० साल पुरानी हैं । इस निष्कर्ष का आधार यह है कि इस गुफा में जो तलछट मिली है उसमें पत्थर के कई औजार पाए गए हैं जिन्हें निएंडरथल ने ३०-३९ हजार साल पहले बनाया होगा । ये कलाकृतियां इस तलछट के भी नीचे है । इसका मतलब है कि ये ३९,००० साल से ज्यादा पहले बनाई गई होगी । 
फिनलेसन का मत है कि आधुनिक मानव (होमो) उस इलाके में इसके कम से कम १०,००० साल बाद पहुंच थे, जब निएंडरथल विलुप्त् हो चुके थे । इस हिसाब से देखे तो ये कलाकृतियां आधुनिक मानव ने नहीं बल्कि निएंडरथल्स ने बनाई हैं और इससे साबित होता है कि उनमें अमूर्त सोच की क्षमता थी । फिनलेसन के अनुसार ये अब तक युरोप की सबसे प्राचीन शैल कलाकृतियों के नमूने हैं । इस अध्ययन का विवरण प्रोसीडिग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज में प्रकाशित हुआ है । 
बहरहाल, कई अन्य पुरावेत्ताआें का मत है कि चंद रेखाआें के आधार पर ऐसे व्यापक निष्कर्ष निकालना थोड़ी ज्यादती है । जैसे मानव वैज्ञानिक हैरॉल्ड डिबल को इन रेखाआें और उनके रचयिताआें की पहचान, दोनों को लेकर शंका है । उनका कहना है कि तलछट जमा होने के बाद भी हिलती-डुलती और बहती है । हो सकता है कि उस गुफा में वह तलछट बाहर से आकर जमा हो गई हो । 

जी.एम. फसले, मोनार्क तितलियोंके लिए खतरा
अमेरिका में जीन परिवर्धित (जीएम) फसलों के इस्तेमाल से मोनार्क तितलियां, लुप्त् प्राय प्रजातियों में शामिल होने के कगार पर हैं । पहले इन्हें देश में कहीं भी आसानी से देखा जा सकता था । पिछले दो दशकों में मोनार्क तितली की संख्या में ९० फीसदी की गिरावट आई  है । 
कुछ वैज्ञानिकों ने इस तितली को लुप्त्प्राय जीव में शामिल किए जाने को लेकर याचिका दायर की है, जिसमें कहा गया है कि कई फसलों में तृणनाशक मोनसैटो राउंडअप रहता है, जो मिल्कवीड को खत्म कर देता है । यह मोनार्क तितलियों के लिए भोजन का एकमात्र स्त्रोत है । तृणनाशक इतना प्रभावी है कि यह मध्य-पश्चिम में पाए जाने वाली फसल या सोयाबीन के खेत से मिल्कवीड के पौधे को पूरी तरह समाप्त् कर देता है । इससे मोनार्क तितलियां प्रभावित हो रही   है ।
जनजीवन
स्वच्छता अभियान मेंसमग्र दृष्टिकोण जरूरी 
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित 
सफाई का महत्व सभी के लिये है । कचरे का संबंध हर व्यक्ति से है क्योंकि वह उसका उत्पादक है और कचरे से होने वाले खतरों का सामना भी उसे ही करना है । भारत सरकार द्वारा शुरू किये गये स्वच्छता अभियान के दूरगामी परिणामों के लिये सफाई से जुड़े सभी पक्षो पर विचार करना  होगा । 
मनुष्य का कचरे से संबंध बहुत पुराना है । आदि मानव अपने भोजन के लिये पशु-पक्षियों का शिकार कर मांसाहार करने के बाद बची हुई हडि्डयां एवं अन्य गंदगी कहीं भी फेंक देता था । आज २१वीं शताब्दी में जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि, शहरीकरण, औघोगिकरण और भोगवादी सभ्यता के विकास ने कचरे की समस्या को बहु-आयामी विस्तार दिया है । वर्तमान में यह दुनिया की प्रमुख समस्याआें में से एक है । 
प्रकृति में प्राकृतिक रचना और मानव निर्मित उत्पादनों में बुनियादी अंतर यही है कि प्राकृतिक उत्पाद अपनी उपयोगिता पूर्ण होने पर पुर्नचक्रित होकर पुन: प्रकृति का हिस्सा बन जाते है । वहीं मानव निर्मित वस्तुएं अनुपयोगी होने पर कचरे में शामिल हो जाती है । कचरे को उपभोक्तवादी सभ्यता का उपहार कहा जा सकता है । आज जो देश और समाज जितना अधिक उपभोक्तावादी है, वह उतना ही अधिक कचरा उत्पादक भी है । हमारे देश में भी आदिवासी समाज और ग्रामीण क्षेत्रों में जहां उपभोक्तावाद का असर कम है, वहां कचरा उत्पादन अत्यन्त कम है । 
कचरे की श्रेणी में वे सभी पदार्थ आते है, जिनके अनियोजित एकत्रीकरण से किसी न किसी रूप में प्रदूषण होता है और परिणाम स्वरूप मानव एवं अन्य जीवों के जीवन और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । कचरे में प्रमुख रूप से पॉलीथीन, प्लास्टिक, क्राकटी, कागज, कांच, धातु के टुकड़े, रबर और चमड़ा आदि है, जो बाहरों एवं ग्रामीणों क्षेत्रों में बिखरे हुए देखे जा सकते हैं । 
सौंदर्य के प्रति आकर्षण ने मनुष्य में सफाई के प्रति संवेदनशीलता पैदा की है । इसलिये कचरे से निपटने के प्रयास पिछले ५००० वर्षो से निरन्तर चल रहे है । करीब ५००० वर्ष पूर्व ग्रीस से पहली बार कचरे का उपयोग भूमि-भराव में किया गया था, आज भी सारी दुनिया में कचरे को ठिकाने लगाने के विकल्पों में भूमि-भराव प्रमुख है । देश में कचरा प्रबंधन का दायित्व स्थानीय शासन संस्थाआें पर है, किन्तु कमजोर आर्थिक स्थिति और संसाधनों की कमी के कारण अधिकांश संस्थायें इस कार्य को ठीक से नहीं कर पा रही है । 
राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनि-यरिंग शोध संस्थान (नीरी) द्वारा देश के ४३ शहरों से एकत्रित जानकारी से पता चलता है कि शहरी कचरे में ४०-५० प्रतिशत तक ठोस जैव विघटनशील पदार्थ होते है । इसके अलावा राख, बारीक मिट्टी, कागज, प्लास्टिक, धातुएं और कांच वगैरह होते है । ठोस कचरे का आमतौर पर भूमि भराव में उपयोग होता है । इस प्रक्रिया से जल-प्रदूषण होता है, क्योेंकि इन स्थलों से कई विषैले पदार्थ भू-जल में रिस जाते हैं । 
देश में ठोस, अपशिष्ट विर्स्जन विधियां मोटे तौर पर तीन वर्गो में वर्गीकृत की जा सकती है - एक पदार्थ पुर्नचक्रण, दो ताप पुन: प्रािप्त् और तीन - भूमिगत    विसर्जन । कचरे से पदार्थो की पुन: प्रािप्त् और पुर्नचक्रण में कचरा बीनने वालों की भूमिका मुख्य होती है । अन्य विकासशील देशों के समान हमारे देश में कागज, प्लास्टिक और धातुआें के पृथक्करण के लिये और व्यर्थ पदार्थो की खपत के लिये सीमित संसाधन उपलब्ध है । विकसित देशों में नगरीय ठोस अवशिष्ट पदार्थो से ऊर्जा उत्पादन किया जाता है या कार्बनिक खाद बनायी जाती है । हमारे देश में मिश्रित कचरे में कम कैलोरीमान तथा नगर निकायों में संसाधनों की कमी के चलते ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है । 
सफाई प्रकृति की मौलिक विशेषता है । प्रकृति के पांच मूल तथ्य है - धरती, पानी, हवा, आकाश और प्रकाश, इन सभी में अपने आपको साफ करने का स्वाभाविक गुण होता है । प्रकृति के कार्यो में अनावश्यक हस्तक्षेप से गंदगी और प्रदूषण की समस्या पैदा होती है । सामान्यतया गंदगी दूर करने का अर्थ कूड़े-करकट को एक स्थान से दूसरे स्थान पर हटा देना समझा जाता है, यह सफाई नहीं है अपितु गंदगी का स्थानान्तरण मात्र है । 
सफाई का वास्तविक अर्थ है किसी वस्तु को उसके उपयोगी स्थान पर प्रतिष्ठित  करना याने कचरे को संपत्ति में परणित करना । वरिष्ठ सर्वोदयी विचारक धीरेन्द्र मजुमदार के शब्दों में कहे तो सफाई याने सब चीजों का फायदेमंद इस्तेमाल । इस प्रकार सफाई का अर्थ होगा अपने स्थान से हटी हुई चीजों को फिर से उचित स्थान पर प्रतिष्ठित करना और कुड़े-करकट को संपति में परिणित करना । सफाई आर्थिक दृष्टि से ही नहीं सामाजिक दृष्टि से भी एक क्रांतिकारी कदम है । 
हमारे सभी धर्मो में स्वच्छता पर जोर है । इस कारण जहां व्यक्तिगत जीवन में शुचिता की प्रमुखता है लेकिन साम्प्रदायिक स्वच्छता के प्रति ज्यादातर लोग उदासीन रहते है । अपने घर का कचरा दूसरे के घर के सामने, सड़क पर या अन्य स्थान पर डालने में शायद ही कोई संकोच करता है । हम सार्वजनिक स्थान और खासकर सड़क पर कचरा डालना अपना अधिकार मानते है लेकिन इन स्थानों की सफाई को कोई अपना कर्तव्य मानने को तैयार नहीं है । इस मान्यता को बदले बिना स्वच्छता अभियान सफल नहीं हो सकता है । हर नागरिक की अपनी जिम्मेदारी है, यह मानकर हरेक को अभियान में अपने हिस्से का काम करना होगा । 
भारतीय शहरों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसत ४१४ ग्राम कचरा निकलता है इसका ठीक उपचार हो तो पूरा देश स्वच्छ हो सकता है । देश में ५१०० नगरीय निकाय है, इनमें हर साल ६० लाख टन कचरा निकलता है, इसमें औघोगिक कचरे को भी शामिल कर लें तो इस कचरे से १०,००० मेगावाट बिजली बनायी जा सकती है । इस दिशा में प्रयास १९८७ से चल रहे है, लेकिन आज तक समुचित सफलता नहीं मिल पायी है । सबसे पहले नगरीय निकायों एवं राज्य सरकारों को कचरे का बेहतर प्रबंधन करना   होगा । इस दिशा में ठोस पहल करने की आवश्यकता है । जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन से जोड़कर अनेक शहरों में इस प्रकार की परियोजनायें प्रारंभ की जा सकती   है । 
हमारे देश में करीब १५ लाख टन ई-कचरा पैदा होता है । ई-कचरे से निजात पाने के लिये उपकरणों का उपयोग घटाने, और पुन:चक्रण की मिलीजुली रणनीति अपनानी होगी । इलेक्ट्रानिक उपकरणों का उचित रखरखाव करके भी ई-कचरे की मात्रा को सीमित किया जा सकता है । देश में चिकित्सीय कचरा न सिर्फ साफ-सफाई अपितु स्वास्थ्य की दृष्टि से भी चिंता का विषय बनता जा रहा है । वर्तमान में ऐसे कचरे में से आधे का ही सुरक्षित निपटान हो पा रहा है । इसमें केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों प्रदूषण नियंत्रण बोर्डो और चिकित्सा संस्थानों को मिलकर तुरन्त हल खोजना होगा । 
देश में करीब ७ करोड़ लोग गंदी बस्तियों में रह रहे है । कचरा घरों के समीप रहने वाले लोगों का जहरीले कचरे की वजह से स्वास्थ्य खराब हो रहा है । अधिकांश कचरे में सीसे और क्रोमियम का स्तर सामान्य से बहुत अधिक है इससे बीमारियां और विकलांगता बढ़ रही  है । शहरों-कस्बों में दुकानों-घरों के बाहर नालियां अतिक्रमण का शिकार है, सफाई कर्मचारियों द्वारा सफाई करने के बाद भी इन नालियों, गटरों में गंदा पानी रूका रहता है, इस गंदगी से बदबू एवं बीमारियाँ फैलती है । देश में करीब १ करोड़ लोग और १८ लाख बच्च्े अस्वास्थ्यकर स्थितियों में कचरा बीनकर जीविका चला रहे है । देश में ३ लाख लोग, अभी भी मानव मल साफ करने के घृणित कार्य से मुक्त नहीं हो पा रहे है । 
देश में ६६ करोड़ ७० लाख लोगों के पास शौचालय की सुविधा नही है । दूसरी तरफ देखे तो पिछले दस वर्षो में गंगा-यमुना की सफाई पर ११५० करोड़ रूपये खर्च हुए लेकिन गंगा किनारे के १८१ कस्बों से निकलने वाले सीवेज में से सिर्फ ४५ प्रतिशत कचरे की सफाई हो सकी । राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजनायें एक दशक (२०००-२०१०) में २६०७ करोड़ रूपये खर्च हुए, इसमें २० राज्यों की ३८ नदियों पर काम हुआ, परिणाम यह है कि एक भी नदी का स्वास्थ्य उत्तम नहीं कहा जा सकता है । 
इस प्रकार की स्थितियां देश में स्वच्छता से जुड़े अन्य क्षेत्रों में भी देखी जा सकती है । इससे एक विचार सहजता से उभरता है कि कचरा सड़क पर कम है, ज्यादा कचरा तो लोगों के मन में है । आज देश में व्याप्त् भ्रष्टाचार, मिलावट और मृत्यहीनता की सामाजिक गंदगी बढ़ती जा रही है, इसकी स्वच्छता के लिये सरकार और समाज दोनों को ही साफ मन और निर्मल ह्दय से प्रयास करने होंगे । स्वच्छता अभियान के साथ ही राष्ट्रीय चरित्र निर्माण के जन आंदोलन की जरूरत है इसमें जनमानस की भूमिका महत्वपूर्ण  होगी । 
गणतंत्र दिवस पर विशेष 
पर्यावरण से प्रतिद्धंदिता 
डॉ. ओ.पी. जोशी 
भारत में पदभार ग्रहण कहने वाली एनडीए सरकार का रूख कमोबेेश पर्यावरण की अनदेखी करता नजर आ रहा है । पर्यावरणीय संवेदनशील इलाकों में जिस तेजी से निर्माण कार्य स्वीकृति दी जा रही है उससे लगता है कि भारत का वन एवं पर्यावरण मंत्राालय उद्योग मंत्रालय में परिवर्तित गया है और पर्यावरण को विकास को रास्ते का रोड़ा मान रहा है । 
केंद्र की नई सरकार में पर्यावरण की अनदेखी तो मंत्रिमंडल गठन से ही प्रारंभ हो गई थी जब कोई पूर्णकालीन पर्यावरण व वन मंत्री नहीं बनाया गया । प्रकाश जावड़ेकर को वन व पर्यावरण मंत्रालय के साथ सूचना व प्रसारण दिया गया था । इसके बाद निर्धारित समय में सर्वोच्च् न्यायालय में मंत्रालय ने उत्तराखंड की जलविद्युत परियोजनाआें से जैव विविधता पर  पड़ रहे प्रभाव की रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की । यह रिपोर्ट १० अक्टूबर २०१४ को न्यायालय में प्रस्तुत की जानी  थी । इस लेटलतीफी से नाराज होकर न्यायालय ने सरकार से कहा कि वह कुम्भकर्ण जैसा व्यवहार कर रही    है । 
पिछली यूपीए सरकार में पर्यावरण संबंधित काफी कठोर नियम कानून बनाए थे, जिससे कई उद्योगपति एवं औद्योगिक घराने नाराज थे । यह दलील दी जा रही थी कि कठोर नियम कानून से देश में पूंजी निवेश एवं आर्थिक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा । ऐसा लगता है कि एनडीए की सरकार उद्योगपतियों एवं उद्योग घरानों के दबाव में आ गई है एवं पर्यावरण सुरक्षा एवं सुपोषित विकास की बात छोड़कर नियम-कानून शिथिल या कमजोर करने का पुरजोर प्रयास कर रही है । वन व पर्यावरण मंत्रालय से परियोजना मंजूरी की समय सीमा १०५ दिनांे से घटाकर ६० दिन कर दी गई । किसी भी परियोजना के पर्यावरणीय प्रभावों के अध्ययन हेतु यह समय सीमा काफी कम है । वैसे भी हमारे देश में तीन प्रकार के मौसम होते हैं एवं यदि तीनो मौसम में अध्ययन किया जाए तो कम से कम ३०० दिन लगते हैं । मौसम के अनुसार तापमान, आर्द्रता, वायु गति  व दिशा आदि बहलते रहत हैं । अत: ६० दिनों में पूरा अध्ययन संभव नहीं है । 
परियोजना के पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन भी परियोजना के कर्ताधर्ता द्वारा स्वयं की पसंदीदा कंपनी या एजेंसी द्वारा करवाये जाने के प्रस्ताव पर भी विचार जारी है । इसका परिणाम यह होगा कि परियोजना प्रबंधक ऐसी एजेंसी या संस्था से अध्ययन करवायेंगे जिससे उनके अनुकूल रिपोर्ट दे दे । इससे भ्रष्टाचार बढ़ेगा एवं पर्यावरण का ज्यादा विनाश होगा । अभी तक मंत्रालय स्वयं अपने विषय विशेषज्ञों से अध्ययन करवाकर परियोजना की समीक्षा करता था । यह प्रस्ताव भी विचाराधीन है कि यदि किसी परियोजना की स्वीकृतिके बाद दो माह में कोई संगठन या व्यक्ति उसका विरोध नहीं करता है तो यह मान लिया जाएगा कि इससे पर्यावरण को कोई हानि नहीं है । 
किसी भी परियोजना का विरोध विस्तृत रिपोर्ट के अध्यय, संबंधित लोगों, कानूनविदों तथा वैज्ञानिकों की राय के बाद किया जाता है । इस पूरी प्रक्रिया में लम्बा समय लगता है अत: दो माह की अवधि काफी कम है । नर्मदा घाटी परियोजना जैसी विशाल परियोजना रिपोर्ट पढ़ने एवं समझने में ही लंबा समय लग सकता था । खनन, ताप विद्युत कारखानें, नदी घाटी एवं अधोसंरचना आदि से जुड़ी लगभग ३५० से अधिक विचाराधीन परियोजनाआें में से ज्यादातर को सरकार जल्द से जल्द स्वीकृति देने हेतु प्रयासरत है ।