बुधवार, 15 अप्रैल 2015



प्रसंगवश
गौरेया के संरक्षण के लिए जन जागरूकता जरूरी
 श्रीराम माहेश्वरी

प्रकृति के सौंदर्य का अनुभव पक्षियों के बिना संभव नहीं है । पर्यावरण के संरक्षण के लिए जिस तरह जल, वायु और वृक्ष आवश्यक हैं, वैसे ही पारिस्थितीकीय संतुलन के लिए वन्य-प्राणियों, जलीय-जीवों तथा पक्षियों का अहम स्थान है । पक्षियों में एक छोटी सुन्दर घरेलू चिड़िया का नाम है गौरेया । इसके संरक्षण के लिए विश्व गौरया दिवस भी मनाया जाता है । 
पिछले कुछ दशकों में गौरेया सहित अनेक पक्षियों की संख्या कम होना चिंता का विषय है । यह पक्षी विश्व के कईदेशों में पाया जाता है । हमारे घर-आँगन में यह चिड़िया हर कहीं फुदकतीदिखाई देती थी । इसकी चीं-चीं-चीं की मधुर आवाज अब कम सुनाई देती है । गौरेया चिड़िया अन्य पक्षियों की तुलना में मानव समाज के सबसे नजदीक है । इसलिए इसे घरेलू चिड़िया कहा जाता है । यदि भवनों में इसे उपयुक्त स्थान नहीं मिलता है तो यह पेड़ों तथा झाड़ियों के झुरमुट में अपना घौंसला बनाती   है । इस चि़़डिया की खासियत है कि यह सर्दी और गर्मी दोनों मौसम में सदैव खुश रहती है । 
संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में खास कीडों पर नियंत्रण के लिए आरंभ इस चिड़िया को १८५७ में पहली बार लाया गया । यह फसल के हानिकारक कीड़ों को खाने के कारण पर्यावरण मित्र चिड़िया है । बाद में इसकी प्रजाति और संख्या में वृद्धि हुई । अमेरिका में आज यह होम लैंडबर्ड है । भारत में इसकी दो उपजातियाँ मिलती हैं । नर और मादा में अंतर होता है। इसके पंख कुछ सफेद, कुछ बादामी तथा कुछ भूरे होते हैैं । इसकी चोच भूरे रंग की तथा मोटी होती है । वैसे गौरेया साल भर अंडे देती है, परन्तु ज्यादातर यह फरवरी से मई तक अण्डे देती है । इसके अंडे राख के रंग के होते हैं जिन पर भूरी चित्तियाँ होती हैं । ये धीमी आवाज में चीं-चीं करती है, मिट्टी में खेलती हैं और कई बार खूब लड़ती भी है । गौरेया की दूसरी जाति जंगली चिड़ी के नाम से जानी जाती है । भारत में यह करीब सभी स्थानों पर पाई जाती है । मादा गौरेया के गले में पीला निशान नहीं होता है । पीठ पर लाल-भूरे धब्बे होते हैं । यह चिड़िया कम घने वन क्षेत्र में विचरण करती है ।                                        

समुद्री प्रजातियों की गणना 
वर्गीकरण वैज्ञानिकों ने एक महत्वाकांक्षी योजना हाथ में ली है जिसके तहत समुद्रो में रहने वाली जन्तु प्रजातियों की गिनती की जा रही है। वर्ल्ड रजिस्टर ऑफ मैरीन स्पीशीज (थठिचड) नामक इस समूह की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि समुद्र की लहरों के नीचे २,२८,४४५ ज्ञात जीव प्रजातियां निवास करती है । समूह ने कम से कम १९०४०० ऐसी प्रजातियों के नाम सूची में हटाए भी है जो एक ही प्रजाति को अलग-अलग प्रजाति मान लिए जाने के कारण दिए गए थे । 
थठिचड का मुख्यालय बेल्जियम के फ्लैडर्स मैरीन इंस्टीट्यूट में है और इस सूची को बनाने में २०० वर्गीकरण वैज्ञानिक काम कर रहे हैं । योजना के तहत मूलत: प्रकाशित साहित्य का विश्लेषण किया जा रहा है । पिछले दिनोंप्रकाशित अपनी नवीनतम रिपोर्ट में समूह ने कहा है कि उसने २०१४ में १४५१ प्रजातियों को सूची में जोड़ा है । समूह के सह-अध्यक्ष यान मीज का कहना है कि उन्होनें सारे जीवों की लगभग पूरी सूची बना ली है जिन्हें कभी न कभी देखा गया है और उनका विवरण दिया गया है । एक अनुमान के मुताबिक समुद्रों में निवास करने वाली प्रजातियों की संख्या ७-१० लाख के बीच है । जबकि थठिचड ने अभी मात्र सवा दो लाख को ही सूचीबद्ध किया है । अर्थात अभी काफी सारा काम बाकी है । 
थठिचड ने जो सबसे बड़ी बात पता लगाई है, वह यह है कि दुनिया भर में प्रजातियों के जो विवरण है उनमें विभिन्नता के चलते कई बार एक ही प्रजाति को विभिन्न अलग-अलग प्रजातियां मान लिया गया था । वर्ष २००८ में समूह ने ऐसे ५६,४०० पर्यायवाची खोजे थे । कई प्रजातियों के तो ५०-५० नाम तक मिले हैं । मसलन, एक जीव है ब्रेडक्रम्बस्पॉन्ज । इसे अलग-अलग वैज्ञानिकों ने ५६ अलग-अलग नामों से पहचाना है । अंतत: पता चला कि ये सब एक ही प्रजाति हेलीकॉण्ड्रिया पेनेसिया के विभिन्न नाम है । समूह के सदस्यों का कहना है कि वे यह तो जानते थे कि प्रजातियों का दोहराव हुआ है मगर उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यह दोहराव इतने बड़े पैमाने पर पर हो सकता है । एक से अधिक नाम वाली प्रजातियों का रिकॉर्ड तो एक घोंघे खुरदरे पेरिविकल के नाम है । प्राणी साहित्य में इसका विवरण ११३ अलग-अलग नामों से हुआ है । 
सामयिक
उद्योगों से नही मिटेगी गरीबी 
अविनाश चन्द्र

गरीबी एवं बेरोजगारी दूर करने के औद्योगिक उपाय लगातार असफल होते जा रहे हैं । हम जितना अधिक उद्योग निर्भर होते जा रहे है उतने अधिक गरीब होते जा रहे हैं और हमारे देश में बेरोजगारी भी लगातार बढ़ती जा रही है । 
गरीबी किसी सरकारी, विदेशी धन या दान से नहीं मिटेगी । वह तो गरीबों को, श्रमिकों को उनकी मेहनत का पूरा हिस्सा मिलने से मिटेगी । उन्हें पूरा हिस्सा तभी मिल सकता है, जब जल, जंगल, जमीन, लघु खनिज का स्वामित्व तथा नियन्त्रण स्थानीय एवं प्राथमिक उत्पादकों श्रमिकों के हाथ में हो ।  आज तो उस पर कब्जा रखने वाले, अपनेे लिये बड़ा हिस्सा चाहते हैं,  और लेते भी हैं । 
उत्पादन के यह  प्राथमिक साधन, हवा और पानी की तरह, प्राथमिक उत्पादकों एवं श्रमिकों को मुफ्त मिलने चाहिए केवल तभी श्रमिकों का शोषण मिट सकता है यानी गरीबी दूर हो सकती हैं । जिस घोड़े की पीठ पर हम चढ़े हुए हैं,  उससे उतरे बिना शोषण और गरीबी कैसे मिट सकती है ? इसके लिए सारी दुनिया में जमीन तथा प्राकृतिक संसाधनों का नये सिरे से वितरण जरुरी है । 
बेकारी, नौकरी देने से नहीं बल्कियुवाओं को जीवन के अति-बुनियादी वस्तुओं के निर्माण में लगाने से दूर होगी । नौकरी मांगने वालों को अनुत्पादक से उत्पादक बनाना होगा । इससे बेकारी जड़ से दूर हो जाएगी और हमारा देश, जीवन की बुनियादी खाद्य वस्तुओं,तथा वस्त्रों में खाद बीज एवं कीटनाशक दवाओं में, गाय के दूध में ,गांव-गांव में छोटे-छोटे सिंचाई के  साधनों में, पीने के पानी में तथा जड़ी -बूटियांे से सम्बद्ध प्राथमिक औषधियों से जीवन पूर्ण स्वावलम्बी भी बन जाएगा । 
औद्योगिक क्रान्ति के तीन ही मुख्य आधार थे, अंहकार युक्त महत्वाकांक्षा अतिलोेभ-अतिभोग से भरी लालसा और व्यापारिक प्रतियोगियों का डर कि वे दुनिया में तमाम जमीनों-जंगलों, प्राकृतिक संसाधनों पर गुलामों की खरीद-बिक्री पर, खदानों पर ,बाजारों  आदि पर हमसे पहले कब्जा न कर लें । ऐसे       प्रतिस्पर्र्धियों को नष्ट कर देने और अपना एकमात्र कब्जा बना लेने की भावना औद्योगिक क्रान्ति में थी । औद्योगिक क्रान्ति में सत्ता तो थी, लेकिन उसमें शिष्टाचार, लावण्य व माधुर्य का लेशमात्र भी अंश नहीं   था । यह कथित क्रान्ति मानवजाति के लिये भयंकर अभिशाप थी और आज भी बनी हुई है । दुनिया की सारी समस्याओं की जड़ और आज के संकट के मूल में यह कथित शैतानी औद्योगिक क्रान्ति और इसके साथ विकसित होने वाला पारम्परिक एवं वर्तमान अर्थशास्त्र है ।
आज दुनिया के सभी देशों में जो  संघर्ष प्रधान राजनीति प्रचलन में है, उसके कारण देशों के बीच युद्ध का न होना असंभव है । युद्ध होते ही रहेंगे । दुनिया में अनन्त काल तक भी राजनीति के इस स्वरूप से कभी शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती । ऐसी राजनीति जिससे देशों के बीच कभी युद्ध न हो, उस विषय पर अभी शोध किया जाना बाकी है ।
आज का यन्त्रवाद काफी हद तक अमानवीय है । लेकिन हमारी इसी वर्तमान व्यवस्था पर कथित आधुनिक औद्योगिक सभ्यता टिकी है। आज की दुनिया में नवआर्थिक साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद के रूप में विश्व व्यापार संगठन के अन्तर्गत दुनिया के देशों, संसदों और सरकारों को गुलाम बनाता जा रहा है और इससे देशों में टकराव संघर्ष और युद्ध-जैसी स्थिति बनी ही रहती है। गांधी ने छोटी-सी पुस्तक''हिन्द स्वराज्य'' में अमानवीय यन्त्रवाद, साम्राज्यवाद और युद्ध के विरुद्ध बिगुल फूंका था । 
ज्ञातव्य है जब तक ऐसे हालात रहेंगे ''हिन्द  स्वराज्य'' सदैव प्रासंगिक रहेगा । पश्चिम के रंग में रंगे हुए हमारे देशी काले अंग्रेजों को इस पर ईमानदारी से   शोध-खोज करना चाहिए । वर्ष २००८ में दुनिया के अनेक देशों में खाद्य दंगे हुए थे और अनाज के भण्डार लूटे गये थे । संयुक्त राष्ट्र संघ का भण्डार भी समाप्ति की ओर था । दुनिया की खाद्य समस्या को हल करने हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ चिन्तित था । 
विश्व खाद्य एवं कृषि संग ठन के ४०० कृषि वैज्ञानिकों ने तीन वर्षों तक शोध किया और निष्कर्ष निकाला कि अब दुनिया को खाद्य संकट से बचाने का एक ही रास्ता है कि दुनिया भर में खेती भारतीय परम्परा के तौर-तरीकों से की जानी चाहिए । क्योंकि उसी तरह से किया गए उत्पादन के माध्यम से लोगों का स्वास्थ्य ठीक रहेगा, स्थानीय समाज नहीं उजडेग़ा और पर्यावरण का विनाश नहीं होगा । दुनिया में अब सिर्फ  खाद्य उत्पादन की नहींं बल्कि इन तीन बातों की भी जरुरत महसूस की जाने लगी है । 
यदि हम ऐसा वैश्वीकरण चाहें जो विश्व के लिये वास्तव में हितकर हो तो वह व्यापारिक  नहीं बल्कि सांस्कृतिक वैश्वीकरण ही हो सकता है। इस हेतु सबसे पहले किसानों को शोषण से मुक्त करना होगा । दुनिया के सारी सभ्यताएं परोपजीवी और किसानों के शोषण पर आधारित हैं । अत: सारी दुनिया की लिए शोषण रहित एक नई सभ्यता एवं नये सांस्कृतिक वैश्वीकरण के साथ-साथ जमीनी स्तर पर मानव मुक्ति से दृष्टि की मानवों के स्वतन्त्र भाईचारे  एवं संस्कृतियुक्त समुदायों की जरूरत पडेग़ी ।  
हमारा भूमण्डल 
महाकाय तेल कपंनियों को खतरा
हन्नाह मेककिनॉन

अमेरिकी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाली पांच-छह महाकाय तेल (सुपरमेजर) कंपनियां 'बिग आइल' कहलाती हैं । ये दुनिया के सबसे प्रदूषित टार सेण्ड तेल (जिसमें कच्च्े तेल में बड़ी मात्रा रेती, मिट्टी व बिटुमन होता है) का व्यापार भी करती हैं जो कि साधारण कच्च्े तेल से करीब ४ गुना अधिक प्रदूषण (ग्रीन हाऊस गैस) फैलाता है । 
अमेरिका व कनाड़ा में इसके खिलाफ चल रहा जबरदस्त विरोध अब असर दिखाने लगा है जो कि हमारे भविष्य के लिए एक शुभ संकेत है । आप विज्ञान की उपेक्षा कर सकते हो, विज्ञान का विरोध कर सकते हो या ऐसी राजनीति के  समर्थक हो सकते हो जिसका विज्ञान  में विश्वास न हो, लेकिन आप विज्ञान को परिवर्तित नहीं कर सकते । 
       वर्ष २०१४ को अब तक के  सबसे गर्म वर्ष के खिताब से नवाजा गया है, परंतु यह लगातार ३८वां ऐसा वर्ष है जिसमें कि तापमान औसत से अधिक रहा है। केलिफोर्निया मानव स्मृति के सबसे बड़े अकाल-की चपेट मेें है और बढ़ती तीव्रता के  साथ 'शताब्दी में एक ही बार'' आने वाले तूफान, बाढ़ें, आगजनी, और अकाल तो जैसे चुटकुले हो गए हैं । ''बिग आइल'' (पेट्रेालियम मंे ४० प्रतिशत की हिस्सदारी) इस तथ्य को नहीं झुठला सकती कि उनके उत्पादों की वजह से भयानक जलवायु परिवर्तन हो रहा है । न ही दुनिया अब इस सत्य से मंुह मोड़ सकती हैं कि अधिकांश जीवाश्म ईध्ंान को जमीन के भीतर ही रहना चाहिए । विज्ञान तो इस मसले पर निश्चयात्मक है और दूसरी ओर निर्णय लेने वालों के पास इसे गंभीरता से लेने के उपक्रम घटते जा रहे हैं । 
पिछले वर्ष सितंबर में न्यूयार्क में ४ लाख लोेेेगांे ने इतिहास के अब तक के सबसे बड़े जलवायु मार्च में भाग लिया और विश्व के सैकड़ांे अन्य नगरो में भी हजारों-हजार लोेग ऐसे मार्च में शामिल हुए थे । पूरे उत्तरी अमेरिका के निवासियों ने ''टार सेण्ड'' की  पाइप लाइनों को रोक दिया । इस महाद्वीप में एक भी बड़ी टार सेण्ड पाइप लाइन नहीं बची थी जिसे जनविरोध का सामना न करना पड़ा हो । इस देरी से प्रदूषण पर थोड़े समय के लिए रोक लगी और जीवाश्म (फासिल्स) ईंधन से बढ़ते जोखिम पर भी लोेगों का ध्यान  गया । 
इस तरह के विरोध से न केवल जलवायु परिवर्तन और जीवाश्म ईधन के आपसी संबंधों पर स्थिति स्पष्ट हुई बल्कि कुछ हद तक तेल निकालने वाली परियोजनाएं भी दबाव में आई । अनेक देश व भूस्वामी अब इसके विरोध में खड़े हैं और जोखिम से प्रभावित वैश्विक समुदाय अब जलवायु परिवर्तन के प्रभावांे की अनदेखी नहीं करना चाहता इसीलिए यह आंदोलन     दिन प्रतिदिन जोर पकड़ता जा रहा   है ।
वर्ष २०१४ अंत में तेल की कीमतांे में आई अभूतपूर्व कमी के  पहले ही टार सेण्ड एवं उत्तरी धुव्र समुद्र (महासागर) में जीवाश्म परियोजनाएं रद्द हो गई थीं। यह महज विशाल अर्थव्यवस्था के कारण नहीं हुआ बल्कि  अत्यधिक लागत, बहुत अधिक जोखिम एवं अधिक कार्बन उत्सर्जन वाली परियोजनाओं की वजह से हुआ था । सन् २०१४ की शुरूआत में जबकि तेल की कीमत १०० डालर प्रति बैरल से अधिक थीं उस दौरान भी अनिश्चित अर्थव्यवस्था (सार्वजनिक चिंता एवं परिवहन की सीमाओंं) के चलते तीन टार सेण्ड परियोजनाएं वापस ले ली गई थीं । विश्लेषकों का कहना है कि सन् २०१४ में तेल की कीमतों में आई गिरावट से टार सेण्ड परियोजनाओं में ५९ अरब डॉलर की आवक टल गई है और इसकी वजह से आगामी तीन वर्षोंा में ६,५०,००० बैरल तेल कम निकलेगा । 
बिग आइल के लिए तो यह बुरी खबर है लेकिन जलवायु के लिए जबरदस्त खुशखबरी । ऐसे देश और क्षेत्र जो कि अपने बजट का संतुलन बनाने हेतु बिग आइल को आधार बना रहे हैं आज संघर्ष कर रहे हैं और हर किसी को यह कटु अनुभव हो रहा है कि तेल की कीमतें, अस्थिर हैं  अनिश्चित हैं एवं इनका पूर्वानुमान भी असंभव है । संकटग्रस्त संपत्तियां और बिना जले कार्बन के विचार ने भी पिछले तीन वर्षोंा में और अधिक ध्यान खींचा है । बैंक ऑफ इंग्लैंड के  गवर्नर ने काफी स्पष्ट से कहा है कि अधिकांश जीवाश्म ईंधन भंडार तो जलने लायक ही नहीं है। यही बात अंतराराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी और विश्व बैंक जैसी संस्थाएं भी यही कह रही हैं । यह बात पर्यावरण कार्यकर्ताओं की चेतावनी का ठीक दोहराव ही    है । 
इसे लेकर मुख्यधारा की अर्थव्यवस्था की बकवाद भी बदल रही है । इस सबसे ऊपर जनशक्ति से चलित आंदोलनों जीवाश्म ईंधन से निवेश बाहर निकालने की बात कह रहे     हैं । इन आंदोलन में अरबों लोग शामिल हो रहे हैं लेकिन वे अभी भी उद्योग को पटकनी देने के लिए काफी नहीं हैं । लेकिन वे ध्यान अकर्षित करने और यह सिद्ध करने को काफी हैं कि इन परियोजनाओ से निवेश निकालना किस प्रकार नैतिक रूप से उचित है । 
हमें यह स्वीकार करना होेगा कि यह एक  धीमी प्रक्रिया है । हमारे सामने शाश्वत चुनौती यह है कि राजनीति व राजनीतिज्ञ शर्तों से और महज ६-८ साल से परे जाकर चिंतन करंे । खासकर तब जबकि इसके  मायने यह हों कि जीवाश्म ईंधन लॉबी की ओर पीठ  कर ली गई है क्योंकि वह दशकांे तक अपनी दोस्ताना राजनीति चलाने के लिए धन की वर्षा करती रहेगी । ऐसा कहा जाता है कि सभी उम्मीदें खत्म नहीं होतीं । अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने जलवायु पर कुछ प्रेरणादायी एवं साहस भरी टिप्पणियां की हैं । कीस्टोन को लेकर उनके अंतिम निर्णय की प्रतीक्षा है और उनके हालिया वक्तव्य से लग रहा है कि वह ठीक निर्णय लेगंे, यथास्थिति में परिवर्तन लाएंगे और पाइपलाइन को अस्वीकृत कर देगें । 
चीन और अमेरिका के मध्य हुआ जलवायु समझौता भी आशावादी है और इसकी वजह से वैश्विक राजनीतिक विमर्श एक अर्थपूर्ण दिशा ले रहा है। दुनियाभर के राजनीतिज्ञ अब जलवायु परिवर्तन का ताप महसूस कर रहे हैं । कनाड़ा में यह चुनाव का वर्ष है, ऐसे में राजनीतिज्ञ जो पहले विशाल टार सेण्ड अधोसंरचनाओं की वकालत करते थे, अब पीछे हट रहे  हैं । इससे साफ संदेश जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन पर कार्यवाही न करने की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है ।
पुर्नचक्रित ऊर्जा ने जीवाश्म ईंधन पर रोक लगाई है । सन् २०१४ में सौर ऊर्जा में जबरदस्त इजाफा  हुआ है और अमेरिका में इस वर्ष की पहली तीन तिमाहियों में सौर ऊर्जा की क्षमता मंे असाधारण वृद्धि हुई है और वहां इस दौरान नव उत्पादित  ऊर्जा में इसका योगदान ३६ प्रतिशत था । जबकि सन् २०१२ में यह मात्र ९.६ प्रतिशत ही था । जर्मनी में जून में एक दिन देश की आधी बिजली सौर ऊर्जा से तैयार हुई जो कि अपने आप में एक रिकार्ड है । इतना ही नहीं इसकी लागत में भी लगातार कमी आ रही है और गुणवत्ता में सुधार हो रहा है। इस दिशा में अगला कदम यातायात में बिजली एवं सौर   बिजली के उपयोग से सामने आया  है । 
तेल की घटती कीमतें पुर्नचक्रण (रिन्युएबल) के लिए नया खतरा है क्योंकि जीवाश्म ईंधन पर विश्व के  अनेक देशों में अनावश्यक सब्सिडी दी जा रही है । वर्ष २०१५ के अंत में पेरिस मेंं जलवायु पर चर्चा प्रस्तावित है और वहां वैश्विक नेता इकट्ठा हांेगे और किसी नए समझौते पर पहंुचेगंे । हम सांस रोके इस बात की प्रतीक्षा नहीं कर रहे हैंकि नेता इस अवसर में शानदार ढंग से किसी समझौते पर पहंुचेगंे बल्कि हम एक बात को लेकर निश्चित हैं कि उन्हें इसकी तपन अवश्य महसूस होगी । 
हमें वर्र्ष २०१५ में इस मिथक को समाप्त कर देना चाहिए कि जीवाश्म ईंधन हमारे भविष्य के लिए अपरिहार्य है । ''बिग आइल'' को लेकर यथास्थिति नहीं बनी रह सकती क्यांेकि अब यहां हम अपने समुदायों एवं अर्थव्यवस्थाओं का निर्माण करेंगे और अपना जीवन ऐसी ऊर्जा के ईद गिर्द बिताएंगे जो सुरक्षित, विश्वसनीय एवं स्वच्छ हो । 
विशेष लेख 
जल संरक्षण में तालाबों की भूमिका 
शिवरतन सिंह चौहान 
जल के अनेक नाम है । इन नामों में जल का नाम जीवन और अमृत होना इस बात की ओर संकेत करता है प्राणियों का जीवन धारण करना जल पर आधारित है एवं अवलम्बित है । यों कहे, कि जल प्राणियों एवं वनस्पतियों का भी प्राण है । जल के विभिन्न नाम अधोलिखित हैं, यथा :- पानी, पानीय, सलिल, नीर, कीकाल, अम्बु, आप, वारिक, वारि, तोयपय, उदक, जीवन, अम्भ, अणे, घनरस तथा अमृत । 
यदि एक पंक्ति में अमृत की व्याख्या की जाय तो कह सकते हैं कि  अमृत वै आप:  अर्थात अमृत को देने वाला जल ही है । 
गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं  रसो%हमप्सु-कौन्तेय ।  अर्थात है अर्जुन जल में रस रूप में मैं ही विराजमान हूँ, ऐसा कह कर जल की अपूर्व महिमा का श्रीकृष्ण ने बखान किया है । 
जल अपने शुद्ध स्वरूप में एक ही होता है, किन्तु अन्य भौतिक पदार्थोंा के संयोग से वह कसैला, मीठा, तीखा, खट्टा, नमकीन अथवा मटमैला आदि हो जाता है । ये विशेषण इसे अन्यान्य स्वरूप प्रदान करते हैं । इसकी रसायन जाने वाले प्रबुद्ध जन कहते हैं कि जल में दो भाग हाइड्रोजन और एक भाग प्राणवायु (ऑक्सीजन) का मिश्रण(क२ज) जल बनता है । भौतिक स्वरूपों में इसकी उपस्थिति क्रमश: तरल, ठोस और गैस रूप में विभाजित है । तरल स्वरूप इसका सहज स्वरूप पानी नाम से जाना जाता है जिसे पीने, नहाने आदि  विभिन्न कार्योंा में उपयोग किया जाता है । ठोस स्वरूप में बर्फ इसका जीवन्त उदाहरण है तथा तीसरा व अन्तिम स्वरूप में वाष्प एवं बादल इसके उदाहरण हैं । जीव शरीर की संरचना में जिन पांच तत्वों का उल्लेख है, उनमें जल दूसरा प्रमुख तत्व है :- 
ज्ञिति, जल, पावक, गगन, समीरा । 
पंच रचित अति अधम  शरीरा ।। 
प्राणान्त के बाद जब पार्थिव शरीर विनिष्ट होता है तब प्रत्येक तत्त्व जो शरीर संरचना के प्रमुखांश हैं, अपने-अपने मूल तत्त्व में विलीन हो जात हैं । चम्बल के किनारे बसे गाँव उदी में जन्मे देश के यशस्वी महाकवि स्वनाम धन्य शिशु (मूलनाम शिशुपालसिंह शिशु) इटावा के उद्गार है :- 
लपटें उठ-उठ पंच फैसला अपना सुना रही हैं । 
जिसकी थी जो चीज जहाँ की उसको दिला रही हैं ।। 
बूंद सिन्धु को, किरण सूर्य को, सांस पवन को सौंपी । 
शून्य-शून्य को किया हवाले, भस्म धरिण को सौंपी ।। 
गोस्वामी तुलसी ने रामचरित मानस में जल संसाधन  (जल स्त्रोत) इस प्रकार बताये हैं 
वापी, कूप,सरित, सर,  नाना । 
सलिल सुधा सम मनि सोपाना ।। 
संस्कृत में विभिन्न स्त्रोतों का परस्पर मिलान करने वाली रचना में किसी विद्वान ने कितना सुंदर सुमेल किया है । रचना यद्यपि संस्कृत में है तथापि सहज व बोधगम्य  है और जन-जन में प्रचलित है :- 
दस कूप समा, वापी, दस वापी समोहद: । 
दस हद समा पुत्र, दस पुत्रो समो द्रुमा: ।। 
(अर्थात १० कूप = १ बावड़ी, १० बावड़ी = १ तालाब, १० तालाब = १ पुत्र एवं १० पुत्र १ वृक्ष के बराबर होते हैं । 
वेद शास्त्र सब कहें बखाना । 
एक वृक्ष दस पुत्र समाना ।। 
अर्थात एक वृक्ष उतनी मात्रा में जल संधारण कर सकता है जितनी मात्रा में दस पुरूषार्थी पुत्र । 
देश के तीनों ओर जलनिधि का अखंड साम्राज्य है पश्चिम में अरब सागर धुर दक्षिण में हिन्द महासागर तथा पूरब दिशा में बंगाल की खाड़ी हिलोरे ले रहे हैं, इन्हीं से देश तर-बतर होता है और उपलब्ध अनुमान के अनुसार चार हजार घन किलो मीटर जल बरसता है जो देश को अनमोल उपहार प्रकृति की ओर से है :-
जल तो जीवन के लिये होता है अनमोल । 
पर वर्षा के रूप में मिलता है बे मोल ।। 
इस प्रकार हम पानी के मामले में अभी भी अमीर हैं और कतई कंगाल नहीं जैसे विश्व के अनकानेक देश है । जल व्यवस्थापन में हम फिसड्डी हैं । मौसम व ऋतुआें में वर्षाकाल तथा वर्षा ऋतु नाम से चौमासा ( लगभग १०० से १२० दिवस) है, जो समय-समय पर अखण्ड जल बरसाता रहता है । 
विगत वर्षोंा में देश सूखे का त्रास झेल रहा है और त्रास दीर्घ कालीन हो गया और भू जल का अथाह दोहन से भूमिगत जल बहुत गहरा पहुंच गया है जो करीब-करीब पहुंच से काफी दूर हो गया है, निराश होने की जरूरत नहीं है -
सहरा में सब्र अपने का दामन न छोड़िये । 
पानी की तलाश है, तो पत्थर निचोड़िये ।। 
देश ने अनावृष्टि और सूखे का सामना हौसले के साथ किया    है । उपरोक्त कारणों से फसलोत्पादन घटा है, पशु आहार घटा है । भूख और प्यास से परेशानी बढ़ी है । मौसम चक्र बदल गया, ग्लोबल वार्मिंग से जल की कमी हो गई । इन सब परेशानियों का एक ही निदान है, कि पानी को संरक्षित करे, पानी को पानी की तरह ना बहाये, इसे बचायें और बरबाद न करे, क्योंकि जल का कोई विकल्प नहीं है सच तो यही है, कि जीवन का मूल मंत्र जल ही है । अर्थात जल है तो जीवन है यानी जल है तो कल है अन्तत: आपने इसे बरबाद किया तो यह आपको बरबाद कर देगा । मध्यप्रदेश के गोंडवाना क्षेत्र में वीरांगना रानी दुर्गावती का काफी वर्ष पूर्व साम्राज्य था जिसने क्षेत्र की पहाड़ियो से जल को निचोड़ा और रानीताल, भंवरताल, चेरीतालऔर आधारताल नाम से तालाबों का निर्माण करवाकर और जल संरक्षण की अद्भुद मिसाल पेश की । छत्तीसगढ़ धान का कटोरा तालाबों की बदौलत है । 
भारत देश में वर्षा का औसत ७५०-१५०० मिलीमीटर है जो लगभग पूरे साल का है । देश में सर्वाधिक जलवृष्टि मिजोरम प्रान्त के स्थान मासिनराम में होती है पूर्व में यह असम के चेरापूंजी के नाम था, परन्तु न्यूनतम वर्षा अभी भी राजस्थान के जैसलमेर के नाम ही   है । 
सूखे के बारे में राजस्थान में यह जनश्रुति प्रचलित है क्या आपने कभी सुनी है :- 
पग पूंगल, घड़ कोटड़े वाहु बाड़मेर । 
जो ये लांघे जोधपुर ठानौ जैसलमेर ।। 
अर्थात सूखा कहता है कि मेरे पग सदा पूंगल (बीकानेर) में रहते हैं, घड कोटड़े (मारवाड़) में, भुजायें सदा बाड़मेर में पानी तलाश करने पर जोधपुर में मिल सका है किन्तु जैसलमेर नगर मेरा (सखा) स्थायी ठिकाना है । 
संत और विचारक लोग सदैव इस अतुलनीय जल सम्पदा के बारे में अपने विचार प्रकट करते रहे और महत्व को प्रतिपादित करते रहे हैंं । आज से लगभग ४०० वर्ष पूर्व स्वामी समर्थ रामदास ने जिन्हें शिवाजी छत्रपति का गुरू होना बताया गया है, ने जल के बारे में यह अमर संदेश दिया था :- 
जन्म स्थली सब जीव की, जीवन्ह जीव कहाय । 
आप नारायण नाम ले, जल ही जान्यो जाय ।। 
अर्थ:- यह जल ही संसार के समस्त जीवों की जन्मस्थली कही जाती है । इसे ही समस्त जीवों का जीवन कहा जाता है इसलिए परमात्मा का स्वरूप  आप नारायण से जाना जाता है । 
जल ही निर्मित तन ढांचा, निर्मित पुन अहर्निश जल जांचा । 
जल कर उत्पत्ति अरू विस्तारा, कहें कहाँ तक कथा    अपारा । 
अर्थ :- यह शरीर (ढाँचा) जल से ही निर्मित है । इसके रक्षण हेतु रात दिन जल की आवश्यकता होती है । इस संसार की उत्पत्ति और विस्तार सब जल से ही है अत: इसकी कथा अपार है । 
तारक मारक उदक कहाये, सुखदायक बहु उदक गिनाये । 
जल विवेक जो कर ही विचार, तत्व अलौकिक लगत   प्रकार ।।
अर्थ :- संसार में जल को तारक (पालनहार) कहा जाता है अर्थात जल को ही संसार का पालन हार कहा जा सकता है । इसके विपरीत उसका मारक स्वरूप (बाढ़ अथवा प्रलय) दृष्टिगोचर होता है । वैसे मुख्य रूप से सृष्टि के लिये सुखदायक है । जल के संबंध में विवेकपूर्ण विचार किया जाय तो यह निश्चित प्रतीत होता है, कि यह एक अलौकिक दिव्य तत्व   है । 
भारत को ५५२ अरब घन मीटर पानी की आवश्यकता है । भारत में वर्तमान में ३००० बड़े बाँंध है जिनमें १६२.२ अरब घन मीटर पानी संग्रहित है ।  ९.८० अरब घन मीटर पानी जमीन से निकाला  जा रहा है । सन् २०२५ में खेती के लिये २५० अरब घन मीटर गृह उपयोग व पीने के लिये २८० अरब घन मीटर व अन्य खर्चो के लिए कुल १५३० अरब घन मीटर पानी लगेगा । जमीन के ७० फीसदी हिस्से में समुद्र, झील, ग्लेशियर व पानी के स्त्रोत है । इनमें ९७ प्रतिशत पानी खारा है और ३ प्रतिशत पानी मीठा व शुद्ध है । भारत में १९५५ में ताजे पानी की उपलब्धता प्रति व्यक्ति ५२७७ घन मीटर थी, जो २००१ में यह १८२० घन मीटर रह गई जो कमी की ओर इंगित करती है । 
पिछले कुछ वर्षो में पानी के तीन उग्र रूप दिखाई दिये - पहला और सबसे खतरनाक यह है कि भूजल स्तर इना गहरा चला गया है कि ड्रील मशीने धरती की छाती में घुसकर पानी खोजती ही रह जाती है और पानी रसा तल में पहुंच गया । दूसरा रूप यह है कि कृषि का वह हिस्सा जो वर्षा जल पर आधारित है वह पानी न रूकने के कारण व्यर्थ बर्बाद हो जाता है और जो हिस्सा सिंचाई पर आधारित है उसे नदियों, नहरों और कूप एवं नलकूपों से पानी नहीं मिल पाता है । तीसरा और अंतिम रूप अत्यन्त उग्र है जो बाढ़ के व जल प्रलय के रूप में प्रतिवर्ष आता है जो सम्पदा, समृद्धि को नष्ट-भृष्ट कर तहस-नहस कर देता है । जल प्रलय को रौद्र रूप इस २०१३ में दिखा । 
महात्मा तुलसीदास द्वारा रचित बहुश्रुत चौपाई में उल्लेख है एवं तालाब की उपादेयता वर्तमान में प्रासांगिक है और तालाब विघा आज भी कसावट में खरी है - 
यथा :- समिटि समिटि जल मरहि तलाबा । 
जिमि सदगुन सज्जन पहि आबा । 
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल राजधानी नगर से सटा हुआ एक अद्वितीय तालाब है । अद्वितीय तालाब इसलिये कि आज तक दूसरा तालाब निर्मित नहीं हो सका और यह इकलौता तालाब रह गया । यह अद्वितीय तालाब धार के परमार शासक मोज ने बनवाया था और उनके अधीनस्थ गौड़ सरदार कालिया ने इसका रूपाकंन व प्रारूप तैयार किया । संभवतया यह विश्व में अनूठा व अद्वितीय बनकर वे मिसाल है । 
जन जीवन
नदी जोड़ने के खतरे
डॉ. ओ.पी. जोशी

नई सरकार ने नदी जोड़ परियोजना को नए सिरे से प्राणवायु देने का फैसला कर लिया है। इस परियोजना से होने वाले लाभ हानि की गणना करने में की गई चुक बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकती है । 
जनवरी २०१५ मंे दिल्ली में आयोजित भारत जल सप्ताह में पर्यावरणविदांे द्वारा जारी चिंताओं को नजरअंदाज कर भाजपा नीत सरकार नेे घोषणा की कि प्राथमिकता के  आधार पर हर हालत मंे नदियां आपस में जोड़ी जाएंगी एवं रास्ते मंे आनेवाली बाधाओं को दूर किया जावेगा । अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार ने सन् २००२ में ५,६७००० करोड़ रु. की नदी जोड़ योजना को अमृत क्रांति नाम देकर प्रारम्भ किया था । 
सर्वोच्च् न्यायालय के  निर्देशानुसार इसे दिसम्बर २०१६ तक पूरा किया जाना था । इस योजना के पीछे प्रमुख तर्क यह दिया गया था कि इससे सिंचाई एवं बिजली उत्पादन मंे जो बढ़ोत्री होगी जिससे सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) लगभग ४ प्रतिशत बढ़ेगी । इसके अन्तर्गत लगभग ३ करोड़ ५० लाख हेक्टर में सिंचाई तथा ३४ हजार मेगावाट बिजली उत्पादन की सम्भावना बतायी गयी थी । देश के सूखे क्षेत्रांे में १७३ अरब क्यूबिक मीटर पानी पहंुचाने तथा जल परिवहन को बढ़ावा देने के साथ-साथ कई अन्य लाभों के भी गुणगान किये गये थे ।
वर्ष २००४ में केन्द्र में बनी डॉ. मनमोहन सिंह सरकार ने इस योजना पर अध्ययन एवं सर्वेक्षण करवाते हुए इसे जारी रखा । इस सभी कार्यो पर सरकार के ५० करोड़ रूपये खर्च हुए थे । सितम्बर २००९ को गंगा प्राधिकरण की बैठक के  बाद तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इसे बंद करने की घोषणा कर दी थी । इसे रद्द करने का आधार यह बताया गया कि जनता को जादुई आंकड़ों पर ध्यान न देकर वास्तविकता समझनी चाहिये क्योंकि इस परियोजना के घातक मानवीय, आर्थिक, पारिस्थितिकीय एवं सामाजिक परिणाम घातक    हांेगे । 
परियोजना रद्द करने की इन बातों को यदि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर देखा जाए तो इस सम्भावित परिणामों को एकदम नकारा नहीं जा सकता है वैसे भी प्रकृति मनुष्यांे द्वारा दिये आंंंकड़ों एवं नियमों के अनुसार नहीं चलती है । किसी भी परियोजना को अपने पक्ष में करने हेतु सरकारें आंकड़ों का ऐसा चित्र जनता के  सामने प्रस्तुत करती है कि उसमें सब कुछ लाभ ही लाभ दिखायी देता है। देश में बड़े बांधों को स्थापित करते समय जो लाभ बताये गये थे उनमें से कई तो आज तक प्राप्त नहीं हुए । 
वर्तमान में दुनिया मंदी के दौर से गुजर रही है एवं देश की आर्थिक हालत भी कोई बहुत ज्यादा मजबूत नहीं है, वहीं शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बजट मंे कमी की जा रही है । ऐसी हालत में इतनी व्यापक एवं मंंहगी योजना लागू करना कहां तक उचित है ? योजना पूर्ण होते होते इसकी लागत बतायी गयी राशी से कई गुना अधिक होगी, तो आखिर इतनी राशि कहां से आएगी ?
वित्त एवं कम्पनी कार्य के  राज्यमंत्री ने वर्ष २००२ में ही जानकारी दी थी कि देश में प्रति व्यक्ति पर १३३८४ रूपये का कर्ज है। हिसार के एक आर.टी.आय. कार्यकर्ता को वित मंत्रालय ने जानकारी दी है कि दिनांक   ११.१२.१४ को देश पर ६७.९ अरब डालर का विदेशी कर्ज है । इतने कर्ज में डूबा देश इस योजना से और कितने कर्ज में डूबेगा ? देश की भौगोलिक स्थिति में जहां पहाड़, मैदान, जंगल, चरागाह, तालाब, झीलें, रेगिस्तान एवं बड़ा समुद्री किनारा है वहां यह योजना किस हद तक सफल होगी ? हमारे यहां नगरांे एवं महानगरों में जब सड़कें चौड़ी की जाती हैंया अतिक्रमण हटाये जाते हैं तो हजारांे लोग न्यायालय से स्थगन आदेश ले आते हैं एवं कार्य रुक जाता है तो फिर देशभर में फैलने वाली इस योजना पर कितने स्थगन आदेश आएंगे एवं कहां कहां कार्य रुकेगा ? इस परिस्थितियों में योजना अपने निर्धारित समय से पूरी नहीं होगी एवं लागत बढ़ती जावेगी ।
इतनी बड़ी योजना के पीछे सबसे बड़ी त्रासदी विस्थापन एवं पुनर्वास की होगी । इस योजना से ३.५ से ५ करोड़ लोगों को विस्थापन सम्भावित है। वैसे भी पुनर्वास का इतिहास देश से अच्छा नहीं है । कई बड़े बांधों के कारण विस्थापित लोगों का पुनर्वास सही ढंग से नहीं हुआ । दक्षिण के नागार्जुन सागर के कई विस्थापितो को अपने बच्च्े तक बेचना पड़े हैं । बड़े बांधों एवं नहरांे से सिंचाई के कारण गाद जमा होने, दलदलीकरण एवंं लवणीकरण की जो समस्याएं पैदा हुई, वे इस योजना में भी पैदा होगी । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मध्य एशिया व पाकिस्तान मे किये गये कुछ अध्ययनों के अनुसार जहां नदियों का पानी समुद्र में जाने से रोका गया वहां भूमि मंे क्षारियता बढ़ी एवं धीेरे धीरे बंजर हो गयी । हमारे देश की नदियां अपने अपने जलप्रवाह क्षेत्रांे से लगभग २ करोड़ ६८ लाख ३० हजार घनमीटर पानी महासागरांे में पहुंचाते है ।
सतत तटीय प्रबंधन राष्ट्रीय केन्द्र के निर्देशक ने हमारे देश मे किये गये अध्ययन के आधार पर बताया है कि जैसे जैसे ताजे पानी के बहाव को समुद्र में जाने से रोका जाता है वैसे वैसे डेल्टा सिकुड़ जाते हैं या डूब जाते हैं । देश को नदियोंे के संदर्भ दो महत्वपूर्ण बातें हैं, प्रथम, तो यह कि इनमें वर्ष भर जल की समान मात्रा नहीं रहती है एवं दूसरी, यह कि सारी नदियों में प्रदूषण का स्तर अलग अलग है एवं वह भी जल की मात्रा अनुसार बदलता रहता है । इस संदर्भ में जल की अधिकता के  समय बाढ़ नियंत्रण एवं कमी के  समय सूखे से रोकथाम किस प्रकार होगी ? नहरों, जलाशयों एवं दलदलांे से जलजलित रोग भी बढ़ते हैं । 
सूखाग्रस्त इथोपिया में जब सिंचाई कार्य का विस्तार किया तो मलेरिया में १० प्रतिशत की वृद्धि हो गयी । हमारे देश में भी हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान ने कहा कि नागार्जुन व तुंगभद्रा बांधांे के कारण         आंध्रप्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु के किसानों में घुटने की एक बीमारी (लाकनी) फैली है । नदियों के मार्ग बदलने एवं नहरों से पानी पहुंचाने का स्थानीय जीवांे पर भी विपरीत प्रभाव होता है । सतलज का पानी इंदिरा गांधी नहर से जब थार के रंेगिस्तान मे पहुंचाया गया तो वहां स्थानीय पौधांे की १५० तथा पक्षियों की २० प्रजातियां धीरे धीरे विलुप्त हो गयी । 
जलवायु परिवर्तन की बातें अब स्थापित हो चुकी है अत: इस योजना को इस आधार पर भी पुन: आर्थिक, सामाजिक, तकनीकों, मानवीय, भौगोलिक सांस्कृतिक, पारिस्थिति-कीय एवं कृषि के पक्षों पर विशेषज्ञों द्वारा वैज्ञानिक आधार पर पारदर्शिता से अध्ययन करवाना चाहिये । ज्यादातर तकनीकी लोग नदियों को सिंचाई एवं बिजली उत्पादक के  भाव देखते हैं जो एकदम ठीक नहीं है। प्रत्येक नदी अपने आप में एक ईकोतंत्र है । उसके अपने पानी के  गुण हैं, बहाव है, अपना क्षेत्र है एवं कईर् प्रकार की वनस्पतियांे के साथ साथ शाकाहारी व मांसाहारी जीव भी है । गंगा डाल्फिन मछलियों के लिए   उपयुक्त है तो चंबल में घड़ियाल पलते हैं । 
नदियां हमारी सभ्यता संस्कृति एवं आस्था से जुड़ी हैं एवं इसलिए उनका धार्मिक महत्व भी    है । ऐसे मेंे नदियों को जोड़ना यानी उनके प्राकृतिक स्वरूप को तोड़ना है जो प्रकृति के विस्द्ध है । बगैर व्यापक अध्ययन के जल्दबाजी में इसे लागू किये जाने पर यह पर्यावरण की सबसे बड़ी त्रासदी साबित हो सकती है । 
कृषि जगत 
किसानों और खेती को बचाने का यत्न
विवेकानंद माथने
कृषि प्रधान भारत में ६० प्रतिशत से अधिकलोग कृषि आधारित जीवन जीते हैं, उसी देश में खेती-किसानी दीर्घकाल से गंभीर संकटमय स्थिति से गुजर रही है । हर प्रदेश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं । फिर चाहे वह वर्षा आधारित खेती करनेवाला विदर्भ का किसान हो या सिंचाई खेती करने वाला पंजाब का जो जी रहे हैं, उन्हें जीवन मृत्यु से भी कठिन लग रहा है । 
देश के ७७ प्रतिशत ऐसे लोेग प्रतिदिन २०रु से कम आमदनी प्राप्त करते है, उसमें अधिकतम संख्या किसान और खेती मजदूरों की ही है । सन १९९१ से नई आर्थिक नीति लागू होने और विश्व व्यापार संगठन के अनुकूल नीतियांं बनाई जाने से स्थिति लगातार गंभीर बनती जा रही है । वर्तमान में खेती-किसानी पूर्णत: उपेक्षित हो चुकी हैं ।
नीति निर्धारकों की खेती संबंधी नीतियों के कारण कृषि उत्पाद का सही मूल्य नहीं मिल पाता । खेती के सभी इनपुट बीज ,खाद् कीटनाशक, बिजली, पानी, सिंचाई के  उपकरण आदि को बाजार के और कंपनियों हवाले कर दिया है और उनकी कीमतें तय करने के अबाध अधिकार भी उन्हें सौंप दिए गए हैं । दूसरी तरफ, किसानों की फसलों के  दाम गिरा दिए जाते हैं, समर्थन मूल्य का खेल खेला जाता है । मुनाफा तो दूर की बात है समर्थन मूल्य उत्पादन खर्च से भी कम रखा जाता है, जिससे किसानों को उनके मेहनत का मूल्य नहीं मिल पाता । कृषि उपज के दाम गिराने के लिये आयात निर्यात ड्यूटी घटाने-बढ़ाने का काम किया जाता है । 
बौद्धिक संपदा अधिकार के  नाम पर किसानों को ज्ञान-विज्ञान व तंत्रज्ञान से वंचित रखकर लूटा जाता है । खेती से गाय-बैल को बाहर करने की नीति अपनाई गयी है। सब्सिडी और कर्जमाफी की राजनीति की जाती है । नीति निर्माताओं का यह तर्क अजीबो-गरीब है कि, किसानों को कृषि उपज के न्यायपूर्ण दाम दिये गये तो मंहगाई बढ़ेगी । यह नीति किसानों के अलावा कहीं और क्यों नहीं लागू होती । उद्योगपतियों को अपने उत्पादन को मूल्य तय करने और उस पर मनमाना मुनाफा वसूलने की पूरी तरह छूट है । देश में सरकारी नौकरों के लिये अलग नियम हैं और किसान मजदूरों के लिये अलग । नौकरों के लिये एक के बाद एक वेतन आयोग बिठाया जाता है और किसानों को उनके मेहनत का सही मूल्य भी प्राप्त नहीं होने दिया जाता । देश में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को भी किसान से कई गुना अधिक मेहनताना मिलता है और साथ में भविष्य की सुरक्षा भी ।
भारत में पारंपरिक बीजों को नष्ट करने का कार्य चल रहा है। रासायनिक खेती को सब्सिडी माध्यम से बढावा देकर जैवविविधतापूर्ण भारतीय पारंपारिक खेती पद्धति को नष्ट करने का काम किया गया । खेती को जानबूझकर घाटे का सौदा बनाया गया है। खेती किसानी और किसानों को बाजार के चक्रव्यूह में फंसाया गया है । इससे किसानों की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है । कार्पोरेट फार्मिग की शुरुआत हो चुकी है । पानी और सिंचाई व्यवस्था निजी हाथों में सौंपी जा रही है। बिजली के निजीकरण से किसानों को सिंचाई के लिये और ज्यादा कीमत देनी पड़ेगी । ग्लोबल वार्मिग का संकट बढ़ रहा है । जैवविविधता नष्ट हो रही है ।
किसानों के अस्तित्व को बनाने रखने, सम्मानपूर्ण जीवन प्रदान करने के लिए देश के सभी किसान आंदोलन के संघर्षशील साथी चिंतक इकट्ठा बैठकर जीवन पद्धति और शाश्वत विकास की राह निर्धारित करें । 
सामाजिक पर्यावरण 
नशीले धूम-छल्लों का संसार
बी.एल. आच्छा
राजकुमार सिद्धार्थ प्रासाद से निकलकर उद्यान में विचरण कर रहे थे । भौतिक विलास से दूर उनके एकांतिक मन में इच्छा जागृत हई कि जनसाधारण के दुख सुख से साक्षात्कार किया जाए । उन्होंने सारथी को बुलवाया । कहा - प्रियात्मन्, साधारण जन से साक्षात्कार की इच्छा से ही आपको कष्ट दिया है । उसके लिए न रथ की अवश्यकता है न, राजसी वेशभूषा  की । जो आज्ञा - कहकर सारथी उनके साथ चल पड़े । 
लौहपथ गामिनी के साधारण यात्री प्रकोष्ठ में वे वरिजमान हुए । बोल-प्रियवर, ये साधारण से जन मुख से धूम्र को उगल रहे हैं ? आपने तो कहा था कि गाड़ियो के धुआँ वाले एंजिन भी अब बाहर कर दिये गये हैं, मगर प्रजाजन तो मुँह से धुआँ उगल रह हैं । सारथी ने कहा - युवराज, ये तम्बाकू से बनी बीड़ी से धूम्रपान कर रहे है । जो थोड़े सभ्य हैं, वे सिगरेट पीते हैं और परमसभ्य सिगार पीते   हैं ।
राजकुमार ने पूछा - यह धूम्र जब पास में बैठने मात्र से आहत कर रहा है तो पीनेवालों को न करता  होगा ? सारथी ने कहा - आप सत्य कह रहे हैं । उधर देखिए, वे निरंतर खाँस रहे हैं, श्वास से पीड़ित हैं । इसीलिए राज्य की ओर से धूम्रपान निषेध की पटि्टकाएँ लगाई गई हैं ।
राजकुमार जैसे ही यात्रिका से उतरे मुख्य मार्ग की दुकानों को निहारते हुए बोले - आत्मन्, ये ताम्बूलवाहिनियों पर बंदनवारें कैसीसजी है ? सारथी ने कहा - देव, लोकवाणी में इन्हें गुटका और विदेश वाणी में पाऊच कहते हैं । साधारण जन शाकाहारी किस्म का और मर्दाना लोग तम्बाकुयुक्त गुटके से हर घड़ी ऊर्जा प्रािप्त् के लिए बैचेन हो जाते हैं । तभी राजकुमार का ध्यान दीवारों पर गया । सारथी ने तपाक से कहा - पान गुटके के बाद लगातार पिच्च्-पिच्च् से दीवारों की संस्कृति ही बदल गई हैं । गंदगी से बदहवास होकर राजकुमार आगे बढ़ लिए । 
तब वे एक राज्य-कार्यालय में पहँुचे । द्वारपाल हथेली पर तम्बाकू मेंचूना रगड़ रहा था । घूर कर उनकी ओर देखा । फिर फट्-फट् करते हुए गुटके को अधरोष्ठ ओर दाँतों के बीच उड़ेल दिया । विलम्ब से आहत होकर सारथी ने द्वारपाल से पूछा । आँखे तरेरते हुए द्वारपाल कोने में जाकर पिच्च् कर आया । राजकुमार ने पूछा - यह क्या खा रहा है । सारथी ने कहा - देव, यह भी तम्बाकू चूर्णिका है । मँहगे पान का समाजवादी संस्करण । आम या खास आदमी इसका उपयोग आम जगह कर लेता है । अब तो यह सभी जातियों, वर्गोंा, दलों में जगह बनाकर धर्म-निरपेक्ष हो गया है । राजकुमार ने पूछा - मगर इसका लाभ क्या    है ? सारथी ने कहा - देव, लाभ-अलाभ की बात नहीं है । साधारण प्रजा से लेकर राज्यकर्मी भी इतने चक्करों में उलझे रहते हैं कि यह गुटका ही उनमें नई ऊर्जा का संचार करता रहता है । 
शरीर की टूटन के समय यह शक्ति को लौटाता है । बैर-विरोध में यारी का जोड़क है । काम न बनने की स्थिति में काम-बनावक है । राजकुमार ने मुस्कराते हुए पूछा - प्रियात्मन् । आप तो ऐसे मोहित हैं, जैसे कोई दिव्य औषधि हो । पर क्या यह स्वास्थ्यप्रद है ? सारथी ने कहा - नहीं देव, जैसे हिम, तुषार, उपल आदि जल ही के संस्करण है उसी तरह ये सभी खतरनाक तम्बाकू के ही विविध संस्करण हैं । 
राजकुमार और सारथी भीतर प्रविष्ट हुए । लिपिक महोदय हथेली में तम्बाकू-चूना रगड़ रहे थे । फिर अधिकारियों को प्रस्तुत किया । राजकुमार ने अधिकारी से पूछना चाहा, मगर उनके फू ले मुखमण्डल और पिच्च् मुद्रा को पहचानते हुए बाहर निकल आए । फिर सारथी से पूछा - यह लिपिक चूना क्यों लगा रहा   था ? सारथी ने कहा - देव, कार्यालयों में चूना लगाये बगैर काम सम्पन्न नहीं होते । 
बाहर निकलते ही राजकुमार का ध्यान वाहनों की पंक्तियों पर  गया । पूछा - इतने वाहन यहाँ क्यों खड़े हैं ? सारथी ने कहा - देव, यहाँ देश-देशांतर के खिलाड़ियों के बीच क्रिकेट हो रहा है । राजकुमार ने पूछा - इतने विशाल आयोजनों के लिए धन कैसे आता होगा ? सारथी ने कहा - कई तम्बाकू-सिगरेट उद्योग इन्हें प्रायोजित करते हैं । धूम्रदण्डिका का एक विज्ञापन देखते हुए उन्हें लग रहा था, जैसे धूम्रदण्डिका पीने वालों में ही पौरूष होता है, वर्ना ......... । 
कुछ अन्तराल विश्राम करते हुए वे एक चिकित्सालय में पहुँचे । अनेक रोगियों को विशेष प्रकोष्ठ में त्रस्त देखकर पूछा - इन्हें क्या हो गया है ? सारथी ने का - देव इन्हें कैन्सर हो गया है । कई बार तबाकू से कैन्सर हो जाता है । द्रवित राजकुमार वहाँ टिक न पाए । मार्ग में पूछा - यह रोग हमारे राज्य में ही है ? सारथी ने कहा - नहीं युवराज, विश्व के अनेक देश इस रोग से पीड़ित है । 
द्रवित-पीड़ित राजकुमार प्रासाद में लौटे । वे रात्रि पर्यन्त शयन नहीं कर पाए । राजकुमार की विषादपूर्ण मुखमुद्रा को देख के महाराज ने सारथी से विवरण प्राप्त् किया । फिर राजसभा में राजकुमार ने कहा - राजन्, यह तम्बाकू अनेक रोगों की जननी है । इस पर तत्काल रोक श्रेयस्कर होगी । महाराज ने कहा - वत्स, यह राजाज्ञा साधारण नहीं  है । इससे कोटि कोटि लक्ष मुद्रआें की राजस्व-हानि होगी । अनेक उद्योग बंद हो जाएँगे । लोग बेरोजगार हो जाएँगे । क्रिकेट के प्रायोजक नहीं मिलेंगे । निर्यात के अभाव में विदेशी मुद्रा की हानि होगी । फिर यह तो पूरे विश्व की समस्या है । 
राजकुमार व्यग्र हो गए । बोले - इतने असाध्य रोगों और करूण मृत्युआें के बाद भी तम्बाकू जीवन यात्रा की संजीवनी बनी   रहेगी ? महाराज ने शान्त स्वर में कहा - वत्स, हमने अनेक उपाय किये है । तम्बाकू निर्मित प्रत्येक उत्पाद पर यह छापना अनिवार्य कर दिया है कि तम्बाकू स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।
लेकिन राजकुमार के मुखमण्डल पर आश्वस्ति का भाव नहीं उभर पाया । उनकी आँखों में पिछली यात्रा के चित्र संसार को तम्बाकूमय बना रहे थे । उनकी चिन्ताआें को समझते हुए एक अमात्य ने कहा - देव, यहाँ समय-समय तम्बाकू निषेध दिवस भी मनाये जाते हैं । मगर राजकुमार की चिन्ताआें को समझते हुए सारथी ने कहा - देव, समय-समय पर उपभोक्ता संरक्षण सप्तह, ऊर्जा बचत सप्तह, यातायात सप्तह की तरह रोज ही कोई न कोई दिवस मनाता है । पर दिवस-सप्तह बीता नहीं की ढाक के तीन पात हरे हो जाते हैं । 
सारथी की कटाक्षवाणी को नरमीली करते हुए प्रधान अमात्य ने कहा - युवराज, हमने लोगों में चेतना उत्पन्न करने के लिए भाषण, निवंध आदि प्रतियोगिताएँ आयोजित करवाई हैं । अनेक नारों के लिए पुरस्कार स्थापित किये हैं । हम विज्ञापन भी देंगे । मगर सारथी तब भी चिन्तित थे, उत्तेजित भी । बोले- देव, घर-घर में दूरदर्शिनी सुन्दर आकृतियाँ जब धूम्र-छल्ले बनाती हैं, तो दर्शकों में भी नशीले रोमान की भंगिमाएँ तैरने लगती है । नशीले स्वादिष्ट चटखारे अपनी जादुई अदाआें से बहलाते हैं । जब मन में सारे तटबंध बह जाते है और ये उपाय ......। 
तभी सारथी की नजरें महाराज की भृकुटियों से टकराई । वाणी को एकाएक वल्गा मिल गई । राजकुमार की चिन्ता सघन होती जा रही थी, इस सन्नाटे ने उसे बहनतर बना दिया । कोई समाधान न निकलते न देख राजकुमार सिद्धार्थ तम्बाकूजनित दुखों से संसार को मुक्त कराने के लिए व्यग्र होकर एकान्त की ओर प्रस्थित हो गए । 
पर्यावरण परिक्रमा
सोशल मीडिया में कमेंट पर नहीं होगी गिरफ्तारी
सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा ६६ ए को खत्म कर दिया है । अब सोशल मीडिया पर कुछ लिख देने पर तुरन्त गिरफ्तारी नहीं होगी । इस धारा के तहत् पुलिस को ये अधिकार था कि वो किसी भी सोशल मीडिया यूजर को उसके द्वारा लिखी गई किसी ऐसी बात फर गिरफ्तारी कर सकती थी जो उसे आपत्तिजनक लगे, या इस बात पर कोई शिकायत दर्ज कराए । अब पुलिस को इस तरह की गिरफ्तारी से पहले मजिस्ट्रेट से इजाजत लेनी होगी। 
आईटी एक्ट की धारा ६६ए के मुताबिक यदि कोई व्यक्ति संवाद सेवाआें (इंटरनेट या फोन आदि) के माध्यम से प्रतिबंधित या आपत्तिजनक सूचनाआें का आदान प्रदान कर रहा हो तो उसे गिरफ्तार किया जा सकता है । 
सोच और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आधारभूत बताते हुए न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर और न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन की पीठ ने कहा कि सूचना प्रौघोगिकी अधिनियम की धारा ६६ ए से लोगों के जानने का अधिकार सीधे तौर पर प्रभावित होता है । यह प्रावधान साफ तौर पर संविधान में उल्लेखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित करता है । 
इस धारा से आजादी दिलाई है श्रेया सिंघल ने । सिंघल पूर्व कानून मंत्री एच.आर. गोखले की प्रपौत्री और जस्टिस सुनंदा भंडारे की पोती है।  २०१२ में श्रेया को इस कानून के बारे में पता चला । श्रेया की मां भी वकील है । उनसे बात करने के बाद श्रेया ने एक वकील की मदद से पी.आईएल दाखिल की थी । 
मंकी आइलैंड में रहते हैं चिम्पैंजी
पश्चिम अफ्रीकी देश लाइबेरिया में मंकी आइलैंड है, जो खासतौर से चिम्पैंजी के लिए मशहूर है । घने जंगल के अंदर फारमिग्गटन नदी के पास स्थित यह आइलैंड पर्यटकों की पहुंच से दूर है । यहां ६० से ज्यादा चिम्पैंजी हैं, जिनका कभी मेडिकल रिसर्च के लिए उपयोग किया जाता था । मेडिकल क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञ यहां के चिम्पैजियों को हीरा कहते हैं, जो बीमारी से लड़ने और रिजल्ट देने में सक्षम है । 
लाइबेरियन इंस्टीट्यूट ऑफ बायोमेडिकल रिसर्च सेन्टर ने इन चिम्पैजियों पर कई प्रयोग किए हैं । इसमें सबसे प्रमुख वह प्रयोग था, जिसे १९७० के दशक में हेपेटाइटिस का इलाज ढूंढने के लिए याद किया जाता है । वर्ष १९९५ से २००० के मध्य में एनिमल राइट्स समूहों के भारी दबाव के कारण इस सेंटर मे रिसर्च बंद कर दिया गया था । उसके बाद चिम्पाजियों को आइलैंड पर छोड़ दिया गया । वहां अब वे आराम से रह रहे हैं । यह सेंटर की ही योजना थी कि अब चिम्पाजियों का उपयोग रिसर्च में नहीं हो रहा है, तो क्यों न उन्हें प्राकृतिक वातावरण में रखा  जाए । मंकी आइलैंड पर रहने वाली चिम्पैंजी केवल केयरटेकर को ही करीब आने देते है, पर्यटकों को   नहीं । 
अब ड्रोन कैमरेसे भी होगी बाघोंकी निगरानी 
बाघों की सुरक्षा अब ड्रोन कैमरे से भी होगी । बाघ संरक्षण परियोजना वाले जंगलों के ऊपर जल्द ही ड्रोन कैमरों से निगरानी की जाएगी, ताकि कोई शिकारी या तस्कर बाघों को मार या क्षति न पहुंचा सके । केन्द्र सरकार पायलट प्रोजेक्ट के रूप में ड्रोन निगरानी योजना शुरू करने जा रही है । 
मध्यप्रदेश प्रदेश की कुछ रेंज में भी ड्रोन से बाघों की ई-निगरानी की योजना है । जानकार बताते है कि मध्यप्रदेश के साथ-साथ छत्तीसगढ़ को भी इस प्रोजेक्ट से जोड़ने की योजना है । बताया जाता है कि पिछले चार सालों में देश के कई प्रदेशों में बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है, साथ ही मध्यप्रदेश में भी बाघों के संरक्षण को लेकर लंबे अरसे से प्रयास किए जा रहे है । महत्वपूर्ण बात यह है कि पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में भी इस दिशा में प्रयास किए जा रहे है । हालांकि, जानकारों का कहना है कि तमाम उपायों के बावजूद देश में बाघों के शिकार पर पूरी तरह से अंकुश नहीं लग पाने से केन्द्र सरकार चिंतित है । 
पिछले दिनों केन्द्रीय वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने देश के प्रमुख वन्य जीव संरक्षकों के साथ हुई एक उच्च् स्तरीय बैठक में ड्रोन निगरानी परियोजना को हरी झंडी दे दी । इसके तहत बाघों के पुनर्वास व अनाथ शावकों के संरक्षण को भी शामिल किया गया है । वन अफसरों की मानें तो ड्रोन आकाशीय सर्वेक्षण व निगरानी के लिए एक टूल का कार्य करेगा । इससे निश्चित रूप से बाघों के संरक्षण में मदद मिलेगी । 
मध्यप्रदेश में पेपर लैस होगी विधानसभा 
मध्यप्रदेश विधानसभा की कार्यवाही अगले सत्र से ऑन लाइन होने जा रही है । प्रश्न और उत्तर सब ऑनलाईन । इस पहल से हर साल १२०० किलो वजनी तीन लाख पेपर बचेंगे । इनकी प्रिटिंग और पैकेजिंग मिलाकर ५० लाख रूपए का खर्च भी बचेगा । 
अब आम वोटर भी विधानसभा की वेबसाइट पर यह देख पाएंगे कि उनके विधायक क्या प्रश्न कर रहे हैं । अभी गिने-चुने विधायक ही इंटरनेट पर काम के आदी है । इसलिए इनकी ट्रेनिंग भी हो रही है । दो ट्रेनिंग प्रोग्राम हो चुके हैं । पहली बार १२३ और दूसरी बार ४० विधायकों ने इसमें शिरकत की । दिलचस्प यह भी है कि २०१६ में अगले बजट सत्र के पहले विधानसभा में सबकी डेस्क पर कम्प्यूटर होंगे । करीब सवा सौ विधायकों को लैपटॉप दिए जा चुके हैं । 
अगले सत्र में २०० प्रश्नों की भारी भरकम प्रश्नोत्तरी नहीं छपेगी । सिर्फ प्रश्नकाल में पूछे जाने वाले २५ प्रश्नों की छपी हुई कॉपी ही मिलेगी । रोज ८०० प्रश्नोत्तरी छपती हैं । आगामी सत्र में सिर्फ तीन सौ ही छपेंगी । कार्य सूची आनलाईन    होगी ।
विधानसभा के प्रमुख सचिव भगवानदेव इसरानी कहते हैं कि सभी विधायकों के ई-मेल आईडी बन जाने पर जुलाई में आयोजित मानसून सत्र में सभी विधायकों से ऑनलाइन प्रश्न बुलवाए जाएंगे । वे अपने निर्वाचन क्षेत्र से ही प्रश्न भिजवा सकेंगे । उन्हें सत्र के २६ दिन पहले प्रश्न लगाने भोपाल नहीं आना पड़ेगा । 
क्लीन इंडिया प्रोजेक्ट को मिला १००० करोड़ का दान
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपील को स्वीकारते हुए इंडिया इंक ने स्वच्छ भारत अभियान के लिए १००० करोड़ रूपए दिए हैं । प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान के लिए अब तक एलएंडटी, डीएलएफ, वेदांता, भारती, टीसीएस, अंबुजा सीमेंट्स टोयोटा किलोंस्कर, मारूति, टाटा मोटर्स, कोका कोला, डाबर, रेसिक्ट बैकेसर, आदित्य बिड़ला ग्रुप, अडानी, बायोकॉन, इंफोसिस, टीवीएस और कई अन्य कंपनियां आर्थिक सहयोग कर चुकी है । स्वच्छ भारत के इस अभियान में गांवों में शौचालय बनवाना, लोगों के रहन-सहन और बर्ताव में बदलाव लाने के लिए वर्कशॉप, वेस्ट मैनेजमेंट  वॉटर हाइजीन और सेनिटेशन जैसे प्रोजेक्ट शामिल हैं । इनमें से ज्यादा प्रोजेक्ट्स की जिम्मेदारी कंपनियों ने अपने कॉर्पोरेट सोशल रिसपॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) के तहत ली है, वहीं कुछ मेंपब्लिक प्राइवेट हिस्सेदारी भी है । 
विशेषज्ञों की माने तो इससे कॉर्पोरेट हाउसिंग को दोहरा फायदा हो रहा है । एक तरफ तो सीएसआर में अनिवार्य २ प्रतिशत निवेश का लक्ष्य पूरा हो रहा है, दूसरी तरफ वे सरकार की नजरों में अपनी अहमियत भी बढ़ा रहे है । 
शुरूआत में कंपनियों के मालिकों ने झाडू उठाए और अपने कर्मचारियों को भी इस अभियान से जुड़ने को कहा । बाद में धीरे-धीरे कंपनियों ने स्वच्छ अभियान के लिए  प्रोजेक्ट्स डिजाइन करने शुरू कर दिए और इनके लिए अलग से बजट भी सुरक्षित कर दिया । 
ब्लैकहोल में बरकरार रहती हैं सूचनाएं 
ब्लैकहोल में प्रवेश करने के बाद सूचनाएं नष्ट नहीं होती है बल्कि वे उसके भीतर ही मौजूद रहती है । पिछले कई वर्षो से भौतिक शास्त्री इस विषय पर बहस करते आ रहे हैं । विज्ञानियों के इस दल में एक भारतीय मूल का विज्ञानी भी हैं । 
अधिकतर भौतिक विज्ञानियों का मानना है कि ब्लैकहोल में सूचनाएं अवशोषित हो जाती है फिर बिना कोई सबूत छोड़े वे वहां से लुप्त् हो जाती है । युनिवर्सिटी एट बफेलो मेंभौतिकी के सहायक प्रोफेसर देजान स्तोजकोविक ने बताया, हमारे अध्ययन के अनुसार ब्लैकहाल में सूचना के प्रवेश करने पर वह गुम नहीं होती और न गायब होती है । विश्व विघालय के पीएचडी छात्र अंशुल सैनी ने इस अध्ययन में स्तोजकोविक के साथ सह लेखक के रूप में सहयोग किया है । फिजिकल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित यह अध्ययन बताता है कि ब्लैकहोल द्वारा उत्सर्जित कणों के बीच का संपर्क यह बता सकता है कि उनके अंदर क्या छिपा है । यह ब्लैकहोल के बनने के कारकोंके गुणों को बता सकते हैं । यह उसके पदार्थो और ऊर्जा के गुणों के बारे में जानकारी दे सकते हैं । स्तोजकोविक का कहना है कि यह एक अहम खोज है क्योंकि इसमें सूचना गुम नहीं होती । 
स्वास्थ्य
विकास और तकनीक ने बनाया देश को स्वस्थ
रेणु भट्टाचार्य 
इस साल की एक बड़ी खोज तब सफल हुई जब एक लकवाग्रस्त व्यक्ति को उसके पैरो पर खड़ा किया जा सका । यह तकनीक और चिकित्सा का अद्भुत संगम था । वैसे भी पिछले साल रोबोटिक्स, पहनने योग्य टेक्नोलॉजी, शल्य चिकित्सा तथा सूचना प्रौद्योगिकी ने मिलकर कई कमाल किए । एक तो यही था कि उन्होंने एक ऐसी बांह का निर्माण किया जो ने सिर्फ सामान्य हाथ की तरह किसी भी चीज को पकड़ सकती है बल्कि उस वस्तु को महसूस भी कर सकती है । 
मामला यही खत्म नहीं  होता । वास्तव में यह हाथ दिमाग के इशारे पर हरकत करने में भी सक्षम है । भले उतनी तत्परता के साथ नहीं जितना की वास्तविक हाथ करता है पर इतनी सफलता भी आश्चर्य पैदा करने के लिए काफी है । 
मलेरिया की जांच खून के करने की विधि का आना एक बड़ी घटना रही । खास तौर पर इसलिए कि इस जांच के लिए किसी विशेषज्ञ, रसायन, मशीन और खून की जरूरत न होने से इस उपकरण की सहायता से कोई आम व्यक्ति किसी सुदूर गांव में भी मलेरिया की जांच महज चमड़ी के ऊपर से ही कर सकता    है । इसे वेपर नैनो बबल्स तकनीक कहते हैं । 
इसके अलावा दर्जन भर ऐसे उपकरण इस साल ईजाद हुए जिनकी सहायता से गरीब देशों में सस्ती लागत और बिना बिजली के बहुत-सी चिकित्सा जांच की जा सकती है । इस साल कई अचरज भरे चिकित्सा उपकरण और प्रयोग सामने आए तो अनेक ऐसे शोध और उसके बाद बने उपकरण या यंत्र जो वास्तव में मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए बेहद आवश्यक थे । 
भारत पोलियो मुक्त 
स्वास्थ्य के क्षेत्र में पिछले साल भारत को पूरी तरह पोलियो मुक्त मान लिया गया । यह एक बड़ी सफलता  थी । लेकिन दवा प्रतिरोधी टीबी के साथ हुई लड़ाई में       हमारे प्रगति बेहद धीमी रही । मलेरिया और डेंगू से भी हमारी लड़ाई कतई प्रभावी रहीं नहीं । मस्तिष्क ज्वर कई दशकों बाद आज तक भारतीय चिकित्सकों के काबू में नहीं आया । इस साल भी इसके इससे कई मौतें हुई । सुपर बग का कोई तोड़ इस साल भी हम नहीं ढंूढ   सकें । मिनटों में नसबंदी करने के चक्कर में, सही दवा की बजाय चूहा मारने वाली दवा खिला देने से और मोतियाबिंद निकालने में कइयों को अपनी जान और अपनी आंख गंवानी पड़ी । इससे भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था और दवा निर्माण की वैश्विक किरकिरी हुई । 
इबोला जांच किट
सब कुछ बुरा हुआ ऐसा नहीं था । पिछले साल सरकार ने अंतत: पेटेट मिल चुकी दवाआें और चिकित्सा उपकरणों की कीमत को विनियमित कर विभिन्न गंभीर रोगों से ग्रस्त मरीजों को राहत प्रदान करने की दिशा में एक कदम बढाया । आयुष यानी आयुर्वेद, योग, सिद्ध, होमियोपैथी तथा प्राकृतिक चिकित्सा को बढ़ावा देने के कुछ सकारात्मक संकेत दिए । भारतीय शल्य चिकित्सकों ने देश में ही विदेश में भी झण्डा गाड़ा । कई ने अपने अध्ययन, शोध और तकनीकी से पूरे विश्व को प्रभावित किया लेकिन यदि समग्रता में देखा जाए तो देश और व्यवस्था की कसौटी पर देश में  सेहत के क्षेत्र में सुस्ती ही ज्यादा दिखी । 
लेकिन शेष विश्व में विज्ञान की गति कितनी तीव्र है यह बात भी पता चली इबोला की बीमारी जब महामारी बन फैली तो न सिर्फ मरीज की लार और थूक से महज १५ मिनटों में जांच की किट बन गई बल्कि वैक्सीन भी चंद महीनों में तैयार कर लिया गया । साथ ही दूसरी तरह की दवाइयां, टीके और यहां तक कि इबोला के लिए सूंघकर लेने वाली दवाई भी बन गई । ये दवाइयां अभी परीक्षण के दौर में हैं, मगर यह तो तय है कि इतनी शीघ्रता के साथ शोध, विकास, परीक्षण और प्रयोगात्मक स्तर तक उसका निर्माण तथा दवाआें के नियामकों से उसकी सैद्धांतिक स्वीकृति इस बात के गवाह है सब कुछ बहुत तेजी से हो सकता है । 
भारत मेंभी एक इबोला मरीज पाया गया । सौभाग्य से इबोला के वायरस उसके वीर्य में पाए गए जो कुछ हफ्ते बाद अपने आप नष्ट हो जाते हैं और यह उतना संक्रामक नहीं होता जितना लार या खून में पाया जाने वाला वायरस । 
पिछले साल स्वास्थ्य के क्षेत्र के सबसे बड़े संकट को सुलझाने के बारे में भी तमाम कोशिशें हुई । कहने को परिणाम भी निकले      पर इस मामले में विज्ञान इतनी  तेजी नहीं दिखा सका और किसी  ठोस और व्यावहारिक नतीजें के लिए अभी इंतजार करना पड़ेगा । यह क्षेत्र है कोई नया और प्रभावी एंटीबायोटिक ढूंढने का । टीबी ही नहीं जीवाणु जनित कई बीमारियों के बैक्टीरिया मौजूदा एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधी हो चुके है । आशंका है कि भविष्य में यह वैश्विक तौर पर अकल्पनीय संकट बन सकता   है । नए एंटीबायोटिक की तलाश में वैज्ञानिक समुद्र की तलहटी से मरूस्थल और दुर्गम पहाड़ियों तक जा रहे हैं । हालांकि घोड़े के पिछवाड़े यानी उसकी लीद से मिला बैक्टीरियारोधी रसायन कुछ सफल माना जा रहा है । पर इस तरह की दर्जन भर सूचनाएं है मगर इस्तेमाल मेंआ सकने लायक नया एंटीबायोटिक कोई नहीं । इसी समस्या का हल जीन को संपदित करने की प्रक्रिया में भी खोजा जा रहा है । 
स्टेम सेल के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति ने इस साल दूसरे सभी क्षेत्रों पर अपनी बढ़त बनाए रखी । तमाम दूसरे अंगों के साथ-साथ मेरूरज्जू या स्पाइनल कार्ड बनाने में सफलता पा ली जो इस क्षेत्र में मील का पत्थर कहा जा सकता है । बायेनिक आई का विगत एक दशक से इंतजार हो रहा था पर व्यावहारिक तौर पर इसे देखने का अवसर इसी साल मिला । वैज्ञानिकों का दावा यह भी है कि उन्होनें कृत्रिम रेटिना सफलतापूर्वक तैयार कर लिया है । कार्बन नैनो ट्यूब की मदद से वैज्ञानिक आंख का पर्दा बना कर इस साल पेश कर चुके हैं । 
नेत्रहीनों के लिए यह साल नई रोशनी लेकर आया तो बधिरों के लिए एक भारतीय वैज्ञानिक ने बायोनिक कान विकसित किया जिसे बिना किसी बड़े ऑपरेशन के लगाया जा सकता है । यह विदेशी इम्प्लांट के मुकाबले न केवल सस्ता है बल्कि टिकाऊ भी है । अमेरिकी वैज्ञनिकों ने बधिरों के लिए एक पहने जाने वाली टेक ईजाद की है । आंख और कान के अलावा इलेक्ट्रॉनिक नाक भी इसी साल विकसित होकर सबके सामने आई है । 
ज्ञान-विज्ञान
सवा लाख साल पुराने आभूषण मिले 
ऐसा लगता है कि सजने-संवरने का शौक बहुत पुराना है, कम से कम सवा लाख साल पुराना । क्रोएशिया के एक पुरातत्विक स्थल से कुछ चीजें मिली हें जो संभवत: आभूषणों के रूप में इस्तेमाल की जाती थी । 
इन आभूषणों का विवरण कैन्सास विश्वविघालय के पुरामानव वैज्ञानिक डेविड फेयर और साथियों ने पत्रिका के १२ मार्च के अंक में प्रकाशित किया है । ये बाज के पंजों की हडि्डया है मगर इन पर उकेरने के निशानों को देखकर लगता है कि इनका उपयोग सजने-संवरने के लिए होता होगा । 
दरअसल, बाज के इन १,३०,००० वर्ष पुराने पंजों की खोज एक सदी से भी पहले हुई थी । खोज एक भूगर्भ वैज्ञानिक ड्रागुटिन गोर्यानोविए ने क्रोएशिया में क्रापिना शहर के नजदीक एक शैलाश्रय में की थी । शैलाश्रय में इन पंजों के अलावा पत्थर के औजार, निएंडर्थल की हडि्डयां और दांत भी मिले थे । गौरतलब है कि निएंडर्थल मानवों के पूर्वज माने जाते हैं । गोर्यानोविए ने इन वस्तुआें को पहचान के लिए अपने एक साथी को भेज दिया और बात आई-गई हो गई । 
फ्रेयर ने ये वस्तुएं जग्रीब स्थित क्रोएशिया प्राकृतिक संग्रहालय में २०१४ में देखी । पहली नजर में ही वे समझ गए कि ये कितनी महत्वपूर्ण है । कारण यह था कि इससे पहले शिकारी पक्षियों के पंजे व पंख निएंडर्थल स्थलों से खोजे जा चुके थे और अनुमान लगाया गया था कि इनका उपयोग आभूषणों के रूप में किया जाता होगा । मगर काप्रिना की वस्तुएं उन सबसे पुरानी थीं, संभवत: निएंडर्थल स्थल से मिली सबसे पुरानी । 
इन पंजों पर जो काटने के निशान थे वे शायद उस समय बने होंगे जब इन्हें पक्षी से अलग किया होगा मगर विशेषता यह थी कि इन निशानों को घिसकर चिकना किया गया था । इसके अलावा लगता था कि कई पंजे तो चमकाए भी गए    थे । फ्रेयर के मुताबिक यह स्पष्ट प्रमाण है कि इनका उपयोग झुमकों के रूप में किया जाता होगा । कई मानव वैज्ञानिकों को मत रहा है कि ऐसे प्रतीकात्मक व्यवहार की संभावना सिर्फ आधुनिके मानव यानी होमो सेपिएन्स में ही है जो विभिन्न वस्तुआें का उपयोग किसी स्पष्ट व्यावहारिक उपयोग के अलावा भी करते हैं । मगर क्रोएशिया से प्रापत ये वस्तुएं दर्शाती है कि मानवों के पूर्वज भी चीजोंको उनकी प्रत्यक्ष उपयोगिता से आगे जाकर देखते और इस्तेमाल करते थे । 


धरती पर फिर आएगी सरस्वती 
अब तक अदृश्य रही धार्मिक  महत्व की नदी सरस्वती को धरती पर पुन: अवतरित कराने का बड़ा मिशन शुरू हो चुका है । सैटेलाइट तस्वीरों की मदद से हरियाणा सरकार ने सरस्वती को खोज निकालने का बीड़ा उठाया है । ऐसी मान्यता है कि हजारों साल पहले यह अस्तित्व में थी, लेकिन भौगोलिक परिवर्तनों के चलते यह भूमिगत हो गई है । पुराणों में भी इस पवित्र नदी का जिक्र है । सैटेलाइट तस्वीरों में नदी के मार्ग की पुष्टि हो चुकी है । 
मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा है कि राज्य सरकार आदि बद्री विरासत बोर्ड को यह सरस्वती के उदगम स्थल को उसका सही दर्जा दिलाकर रहेगी । यमुनासागर में एक आम सभा के दौरान खट्टर ने खुदाई कार्य को बड़ी परियोजना के रूप में शुरू करने का ऐलान किया । बीते साल अक्टूबर में सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार हिन्दू संस्कृति से जुड़े स्थलों के संरक्षण और उनके प्रचार के लिए लगातार जुटी हुई है । 
हरियाणा के वन विभाग ने सरस्वती को उसके उद्गम स्थल शिवालिक के चरणपाद आदि बद्री से धरातल पर लाने के प्रयास शुरू कर दिए । उद्गम स्थल के चारोंऔर पानी के कुछ निशान मिले है । पानी की धारा इलाहाबाद की ओर होने के आसार बताए जा रहे है । 

अब रोबोट चाय बनाएगा  
भारत का पहला ३डी ह्माूमनॉयड रोबोट-यानी इंसानी रूप वाला रोबोट तैयार है जिसका नाम है मानव । यह ६० सेंटीमीटर लंबा और २ किलोग्राम भारी है । मानव को ३डी प्रिंटर की मदद से बनाया    गया । इसके पुर्जो को फेक्ट्री में नही बल्कि कम्प्यूटर में फीड किए गए डिजाइन से बनाया है । 
मानव को  दिल्ली में रहने वाले रोबोटिक वैज्ञानिक दिवाकर वेश ने बनाया है । दिवाकर रोबोटिक्स के क्षेत्र में पिछले १० वर्षो से रिसर्च कर रहे हैं । वे मानव को अपने अविष्कारों में से सबसे बड़ा मानते हैं, ऐसा इसलिए कि मानव, मनुष्यों के सारे काम कर सकता    है । पर फिलहाल दिवाकर का ये मानव मानव सिर्फ नाच सकता है । 
मानव में दिवाकर ने गानों पर थिरकने का प्रोग्राम फीड किया हुआ है । दिवाकर का कहना है कि अगर आप एक रोबोट को नचा सकते है तो आप उस से और सभी काम करवा सकते हैं जैसे उसे चलवाना, गिर के खड़े करवाना और साथ ही आवाज को महसूस करना समझ पाए की आवाज कहां से आ रही है । मानव में हमने आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम बुद्धि को डाला है जो एक बड़ी बात  है । इन्हीं सब विशेषताआें के कारण मानव को हमारे आसपास हमारे घरो में चलते-फिरते देख सकेंगे । दिवाकर इस रोबोट मानव को जल्द बाजार में उतारना चाहते है । इसकी कीमत १.५-२ लाख रूपए हो सकती है । 
विश्व के सबसे विकसित रोबोट्स जापानी कपंनी होंडा का असीमो पिछले ३० साल से बन ही रहा है । अभी भी उसमें मनुष्य की बुद्धि नहीं दी जा सकी है । फिलहाल, रोबोटिक्स में जरूरत है की इस बात पर खोज की जाये की हम कैसेहै और उसको रोबोट्स में डालें ।
आज हमारे आसपास कई तरह के रोबोट्स मौजूद है - सफाई करने वाले वैक्यूम क्लीनर, उड़ने वाले झेन - जिन्हें सुरक्षा और फोटोग्राफी के लिए इस्तेमाल किया जाता है ओर इंसान जैसे दिखने वाले - यानी ह्मूमनॉयड रोबोट । अमरीका से रोबोटिक्स की पढ़ाई करने वाले आकाश सिन्हा अब दिल्ली में रोबोटिक्स कंपनी चलाते है । आकाश मानते है की रोबोट्स को घरों में काम करते देखने में अभी वक्त लगेगा । रोबोट्स देखने में तो इंसानी लग गए है पर दिमाग अभी भी इंसानी नही है । वैज्ञानिकों के सामने अभी ये चुनौती है कि वो कैसे रोबोट्स को सोचने पर मजबूर करें ।

चीटियों को भी लगा जंक फूड का चस्का
डिब्बाबंद खाद्य पदार्थो (जंक फूड) की दीवानी केवल युवा पीढ़ी ही नहीं है । शहरी परिवेश में रहने वाली चीटियों की कुछ प्रजातियां भी इस तरह के खाद्य पदार्थो की दीवानी है । एक नए अध्ययन में यह बात सामने आई है । इस निष्कर्ष से उस जिज्ञासा का उत्तर मिलता है कि चीटियों की कुछ प्रजातियां केवल शहरी परिवेश में ही ज्यादातर क्यों पाई जाती है । निष्कर्ष के लिए चीटियों के शरीर में आइसोटोप स्तर का अध्ययन किया गया ।
अमेरिका के नॉर्थ कैरोलिना स्टेट युनिवर्सिटी के मुख्य लेखक क्लिंट पेनिक ने कहा, हम चीटियों के व्यवहार को जानना चाहते हैं । कुछ प्रजातियां मानवीय गतिविधियों  व कुछ इससे इतर दूर वाले इलाकों में रहना पंसद करती  है । शोधकर्ताआें ने २१ प्रजातियों की १०० चीटियों पर यह अध्ययन किया, जिन्हें मैनहट्टन से फुटपाथों, पार्को व अन्य जगहों से एकत्रित किया गया । शहरी प्रजाति की चीटियों के आहार वहीं होते हैं, जो वहां के मानवों के आहार है ।
विरासत
चेर्नोबिल : भारत के लिए सबक 
नारायण देसाई 

वरिष्ठ सर्वोदयी नेता नारायण भाई का पिछले दिनों निधन अत्यन्त दुखद घटना है । उनका यह लेख दिसम्बर १९८६ में प्रकाशित हुआ   था । तकरीबन तीन दशक बाद भी यह लेख प्रासंगिक बना हुआ है क्योंकि भारत सरकार एक बार पुन: परमाणु के कथित शांतिपूर्ण उपयोेेग से बिजली उत्पादन करने में प्राणप्रण से जुटी    है । इस बीच जापान के फूकिशिमा परमाणु संयत्र दुर्घटना भी सरकारों को अपने निर्णय पर पुर्नविचार हेतु बाध्य नहीं कर पाई  है ।
अप्रैल १९८६ में रूस के चेर्र्नोबिल में हुई भीषण परमाणु दुर्घटना ने भारत को बहुत सबक सिखाये हैं। पहला सबक तो यह सिखाया कि ''शांति के लिए'' अणु कार्यक्रम भी जनता के लिए खतरे से खाली नहीं है । दूसरा सबक यह कि हर परमाणु रिएक्टर में गफलत एवं दुर्घटना होने की संभावना बनी रहती है । तीसरा सबक यह कि ऐसी दुर्घटना होने पर विश्व भर के अणु उघोग के समर्थक एकजुट होकर जनता से उस सत्य को छिपाने का प्रयास करते हैं। चौथा सबक यह कि दुर्घटनाओं के दुष्परिणामों से बचने के लिए हमारे पास न तो पर्याप्त साधन है, न कानूनी व्यवस्था है । और शायद सबसे बड़ा सबक यह सीखने  को मिला कि इने-गिने तबकों तथा राजनैतिकों के निर्णय पर आधारित (केन्द्रीय) व्यवस्था अंतत: आम जनता को बंधक में रखने वाली जनतंत्र विरोधी तानाशाही व्यवस्था सिद्ध होती है ।
आइए हम इन सबको थोड़ा निकट से देखें ।'शांति के लिए परमाणु' यह बड़ा  भ्रामक शब्द है । वास्तव में परमाणु शक्ति पैदा करने वाले हर देश में और विशेष कर अमेरिका और रूस में शांति के लिए अणु और शस्त्रों के लिए अणु का चोली-दामन का संबंध  रहा है । यद्यपि भारत की घोषित नीति 'शांति के लिए अणु' की ही रही है। पर हमारे यहां भी परमाणु के लिए होने वाले शोध का बहुत सारा खर्च सुरक्षा खाते में पड़ता है। हमारे नेता लोग बीच-बीच में यह भी आश्वासन देते रहते हैंकि हम चाहें जिस समय अणु बम बना सकते हैं। अणु कचरे को 'रिसाइकिल' करने की प्रक्रिया ऐसी है कि जिसमें अणुबम के लिए कच्च माल तैयार हो जाता है ।
बहरहाल यहां सोचने लायक विषय तो यह है कि सिर्फ  अणुअस्त्र कार्यक्रम ही नहीं शांति के लिए अणु कार्यक्रम भी खतरे से खाली नहीं   है । रूस का यह रिएक्टर 'शांति' क्के लिए ही बना था । उसमें यह दुर्घटना हो ही गई। यह भी स्मरण रहे कि यद्यपि चेर्नोबिल दुर्घटना आज तक की दुर्घटनाओं में सबसे बड़ी थी, लेकिन यह कोई पराकाष्ठा की दुर्घटना नहीं  थी । भविष्य में इससे भी अधिक भयंकर दुर्घटनाएं हो सकती हैं। यह भी नहीं कि चेर्नोबिल की दुर्घटना इतिहास में प्रथम अणु दुर्घटना थी । दुनिया भर में आज तक छोटी-बड़ी चार हजार दुर्घटनाएं घट चुकी हैं। भारत में भी तीन सौ से अधिक बार छोटी-मोटी दुर्घटनाएं घटी हैं। अलबत्ता अणु वैज्ञानिक और राजनैतिक नेता इन्हें ''असाधारण घटना'' कह कर उसकी भीषणता को छिपाना चाहते है
कविता
लोभ का दुर्योधन
आनंद बिल्थरे 

गगन चुंबी पहाड़
झूमते-गाते, पेड़-पौधें
शर्मीली हवा
थिरकती न दिया,
सब कुछ तो
ेंमुक्त हस्त से दिया है 
प्रकृति ने हमारे लिये 
कि हम पले, बढ़े
उन्नति करें,
मनुषत्व को
देवत्व के
सोपान त्तक पहुंचाये
लेकिन हमारे भीतर बैठा,
मद लोभ का दुर्योधन, 
हमें किसी करवट,
चैन, नहीं लेने देता,
कृष्ण-विदुर की सीख भी,
बेमानी है, उसके लिये
वह सिर्फ
स्वार्थी प्रंपंची,
शकुनियों के मार्गदर्शन में,
पहाड़ तोड़ता,
पेड-पौधे काटता
गंदगी फैलाता,
जहर उगलता,
प्रकृति को ही,
निर्वस्त्र नहीं करता,
समूची आदमियत की,
जड़ो में,
मठा डालता हुआ,
उसे भी लाश में,
बदलने की
चेष्टा कर रहा है । 
विज्ञान जगत 
नित नए रूपों में खिलती धरती 
माधव गाडगिल
नए-नए संसाधनों का उपयोग सीखते हुए, नए-नए पारिस्थितक तंत्रों में प्रवेश करते हुए विस्तारवादी जीवजगत की उत्पादकता की विविधता का स्तर लगातार बढ़ता गया है । 
वर्षा ऋतु समय पर नहीं आती है तो हम सब चिंतित हो जाते हैं । ऐसा उस वर्ष विशेष रूप से होता है । जिसे एल-नीनो वर्ष कहते हैं । जब एल-नीनो नहीं होता है तब दक्षिणी अमेरिकी देश पेरू के पश्चिम में प्रशांत महासागर का पानी ठंडा होता है क्योंकि उस समय सागर की गहराई में स्थित ठंडा पानी सतह पर आ जाता है । इस ठंडे पानी के साथ समुद्र के पेंदे पर जमे हुए पोषक पदार्थ भी ऊपर आ जाते हैं । इनके कारण समुद्री वनस्पति का उत्पादन बहुत बढ़ जाता है । 
इन पौधों को खा-खाकर समुद्री झींगों की संख्या बढ़ जाती है, जिन्हें खाकर मछलियों की संख्या बढ़ जाती है । फिर मछलियों को खाने वाले समुद्री पक्षी और मनुष्य इन मछलियों का खूब शिकार करते हैं । समुद्री टापुआें पर पक्षियों की बीट इकट्ठी होती जाती जिसमें फॉस्फोरस बहुत होता है और पेरू के निवासी इसे खाद के रूप मेंबेचकर अच्छी-खासी कमाई कर लेते हैं । 
किंतु एल-नीनो के वर्ष मेंयह पूरा चक्र बिखर जाता है और पेरूवासी दुख मेंडूब जाते हैं । पेरूवासी ही नहीं, हम भारतवासियों को भी झटका लगता है क्योंकि सागर ओैर वायुमंडल के आपसी सम्बंध इतने दूर-दूर तक होते हैं कि एल-नीनो के वर्ष में कई बार भारत में भी कम वर्षा की स्थिति बन जाती हैं । 
तो ऐसी हैं दूर-दूर तक जुड़े हुए प्राकृतिक चक्रोंकी लीला । इस चक्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले, प्रकाश की ऊर्जा का उपयोग कर सकने वाले, सीधे-सादे सायनोबैक्टीरिया पूरे साढ़े तीन अरब वर्ष पहले पृथ्वी पर प्रकट हुए थे, जबकि आज के मत्स्याहारी पनकौए यानी कार्मोरान्ट मात्र पन्द्रह-बीस करोड़ वर्ष पहले ही अवतरित हुए है । इस लम्बी अवधि में जीवजगत की विविधता फलती-फूलती रही है, विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में ऑक्सीजन और फॉस्फोरस जैसे पदार्थो और ऊर्जा के चक्र अधिकाधिक समृद्ध होते रहे हैं । 
यह सब संभव हो पाता है प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया के  कारण । कुछ नया, अनोखा कर गुजरने की क्षमता ही प्राकृतिक चयन में सफलता की कुंजी है । ऊर्जा के नए स्त्रोतों का दोहन, नए-नए पारिस्थितिक तंत्रों में स्वयं को ढाल लेना, नई चीजों को आहार में शामिल करना, दुश्मनों से बचाव के लिए नए हथियारों, दांव-पेंचों का उपयोग करना इन सबके उदाहरण प्रशांत महासागर के अतीत में देखे जा सकते है ।
पौने चार अरब वर्ष पहले समुद्र की गहराइयों में ऐसे जीव प्रकट हुए जो हाइड्रोजन, लौह, गंधक के यौगिकों के अणुआेंकी ऊर्जा का दोहन कर सकते थे । इसका ठोस सबूत तो हमारे पास नहीं है, किन्तु यह निश्चित है कि साढ़े तीन अरब वर्ष पहले प्रकाश को ऊर्जा का स्त्रोत बना सकने वाले सायनोबैक्टरीया फलने-फूलने लगे थे । उनके लसलसे आवरण पर चिपकी हुई रेत के कारण उनके जीवाश्म आज भी मिलते हैं । 
उस शुरूआती दौर में डीएनए के लिए हानिकारक पराबैंगनी किरणें एक बड़ी चुनौती थी । उस समय वातावरण में ऑक्सीजन बहुत कम थी और पराबैंगनी किरणों को सोखने की क्षमता वाली ओजोन भी नहीं थी । किन्तु पानी पराबैंगनी किरणों को अच्छी तरह सोख लेता है । अत: ऐसी गहराई में प्रकाश की ऊर्जा का दोहन संभव था जहां पराबैंगनी किरणों से मुक्त पर्याप्त् प्रकाश पहुंचे । ऐसे ही स्थानों पर सायनोबैक्टीरिया फलने-फूलने लगे । इनके साथ ही पानी पर तैरने वाले सायनोबैक्टीरिया और अन्य क्लोरोफिलयुक्त बैक्टीरिया भी मौजूद रहे होंगे । इनके उत्पादन के कारण समुद्र के पेंदे में काफी मात्रा में कार्बनिक गाद इकट्ठी हो गई होगी और नाना प्रकार के बैक्टीरिया इन अवशेषों पर बसर करने लगे होंगे । इस सरल तंत्र ने धीरे-धीरे बदलते हुए पहले तीन अरब वर्ष तक अपनी सत्ता को निरन्तर बनाए रखा और आज भी अधिक उन्नत जीवधारियों के साथ-साथ आधुनिक पर्यावरणों का एक भाग बना हुआ है । 
इन क्लोरोफिलयुक्त बैक्टी-रिया के द्वारा ऑक्सीजन के उत्पादन के कारण हवा और पानी में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती गई और जीवजगत के इतिहास में रंग भरने लगा । शर्करा सभी जीवधारियों की ऊर्जा की मुद्रा है । ऑक्सीजन का उपयोग किए बिना ग्लूकोज के एक अणु से जितनी ऊर्जा मिल सकती है उससे पन्द्रह गुना ज्यादा ऊर्जा तब मिलती है जब ऑक्सीजन का उपयोग किया जाए । 
मगर ऊर्जा के दोहन में ऑक्सीजन का उपयोग करने के लिए नई रासायनिक मशीनरी की आवश्यकता थी । जैव विकास की धारा में ऐसी मशीनरी बन गई । और अच्छी मात्रा में ऊर्जा उपलब्ध होने से बैक्टीरिया से बहुत बड़े आकार के और अधिक जटिल संरचना वाले वनस्पति, जंतु, फफूंद बनने की राह आसान हो गई । ये एक कोशिकीय जीवधारी चाबुकनुमा तंतुआें की मदद से पोषक पदार्थ के कणों को अपनी ओर खींच सकते थे । यही नहीं, कुछ जंतु तैर सकते थे और बैक्टीरिया, वनस्पतियों और अन्य जंतुआें का शिकार भी कर सकते थे । 
यह जरूर है कि इन जीवधारियों के शरीर नरम होने के कारण इनके जीवाश्म नहीं बनते और इसलिए इनके अस्तित्व का कोई प्रमाण आज मिल नहीं सकता । अत: हमारे पास आज जो मजबूत प्रमाण है वह केवल पिछले साठ करोड़ वर्षो का है । इस अवधि में बहुकोशिकीय जंतु अवतरित हुए जिन्होंने बड़े शरीरों की सुरक्षा के लिए अपने शरीरों को कांटो से भर लिया, कंकालबना लिए, शरीर के बाहर सुरक्षा कवच चढ़ा लिए । इन कवचों कंकालों को बनाने के लिए नई-नई जैव रासायनिक मशीनरियों का आविष्कार हुआ ।