मंगलवार, 16 जून 2015




प्रसंगवश
अधिक लौह तत्व से अल्ज़ाइमर का खतरा
वैसे तो लौह तत्व स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है क्योंकि यह उस तंत्र का हिस्सा है जो शरीर की कोशिकाआें को ऑक्सीजन पहुंचाता है । मगर हाल में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि मस्तिष्क में बहुत अधिक लौह तत्व हो तो अल्जाइमर नाम रोग का खतरा बढ़ता है । 
पहले किए गए अध्ययनों से पता चला था कि अल्जाइमर से पीड़ित लोगों में लौह तत्व भी अधिक पाया जाता है । हाल के अध्ययन से संकेत मिलता है कि लौह तत्व की अधिकता रोग के जल्दी शुरू होने के लिए जिम्मेदार हो सकती है । 
ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न विश्वविघालय के शोधकर्ताआेंने सात वर्षो तक ऐसे ११४ लोगों का अध्ययन किया जिनमें स्मृति-दंश (याददाश्त कमजोर होने) के हल्के-फुल्के लक्षण नजर आने लगे थे । उनके मस्तिष्क मेंलौह का स्तर जानने के लिए उनके सेरेब्रो-स्पाइनल तरल (वह तरल पदार्थ जो मस्तिष्क और मेरूरज्जू में भरा होता है) में एक प्रोटीन फेरिटिन का मापन किया गया । फेरिटिन वह प्रोटीन है जो लौह तत्व से जुड़ता है । अध्ययन से शुरू में जिन व्यक्तियों के सेरेब्रो-स्पाइनल तरल में अधिक फेरिटिन था, उनमेंअल्जाइमर की शुरूआत भी पहले हुई थी । 
शोधकर्ता दल ने यह भी पाया कि अल्जाइमर रोग का जोखिम पैदा करने में सर्वाधिक भूमिका आिएि४ नामक जीन की है और यह जीन अधिक लौह से संबंधित होता है । शोधकर्ताओ का मत है कि लौह एक अत्यन्त क्रियाशील तत्व है और यह तंत्रिकाआें को तनावग्रस्त कर देता है । 
वैसे लौह तत्व को कम करने का एक अच्छा तरीका है कि आप नियमित रूप से रक्तदान करें । मगर यह तरीका शायद बुजुर्गो के संदर्भ में काम नहीं आएगा क्योंकि इससे वे एनीमिया के शिकार हो सकते है । 
अलबत्ता एक दवा है डीफेरिप्रोन जो मस्तिष्क मेंलौह की मात्रा को कम करती है जबकि शेष शरीर पर असर नहीं डालती है । पार्किसनरोग में यह असरदार पाई गई है । शोधकर्ता इस दवा का परीक्षण अल्जाइमर में करने को उत्सुक है ।

सम्पादकीय 
शब्द पढ़वाकर व्यक्ति की पहचान 
एक ही शब्द के अर्थ अलग-अलग व्यक्ति के लिए अलग-अलग होते हैं । इसलिए जब कोई व्यक्ति शब्दों को पढ़ता या पढ़ती है तो दिमाग में उत्पन्न तरंगों का पैटर्न भी अलग-अलग होता है । स्पैन के बास्क सेंटर ऑन कॉग्नीशन, ब्रैन एंड लैंग्वेज के ब्लेयर आर्मस्ट्रॉन्ग और उनके साथियों का ख्याल है कि दिमागी तरंगों के इस पैटर्न से व्यक्ति की पहचान की जा सकती है । उनके विचार से यह फिंगरप्रिंट, आंखोंकी पुतली के स्कैन के पैटर्न के अलावा एक और विधि साबित हो सकती है । आर्मस्ट्रॉन्ग के दल ने ४५ वालंटियर्स को ७५ संक्षिप्तक्षर पढने को कहा (जैसे ऋइख, ऊतऊ वगैरह) जब वालंटियर्स उन शब्दों को उच्चरित करने में मशगूल थे तब शोधकर्ताआें ने उनके दिमाग में पैदा हो रहे संकेतोंको रिकॉर्ड करके एक कम्प्यूटर में भेज दिया । 
कम्प्यूटर ने इन संकेतोंका विश्लेषण करके हर वालंटियर का एक मस्तिष्क तरंग खाका तैयार कर लिया । इससे बाद इन वालंटियर्स को वही शब्द एक बार फिर पढ़ने को कहा गया और कम्प्यूटर के द्वारा उनकी पहचान करवाने की कोशिश की गई । कम्प्यूटर ने ९४ प्रतिशत मामलोंमें व्यक्ति की सही पहचान कर ली । वैसे तो व्यक्ति के दिमाग में पैदा होने वाले विघुतीय संकेतों के आधार पर व्यक्ति की पहचान के प्रयोग पहले भी हो चुके है । इन तकनीकों का एक फायदा यह है कि इनमें पहचान के लिए पासवर्ड वगैरह से मुक्ति हो सकती है, यह काम सतत ढंग से किया जा सकता है । 
मगर दिक्कत यह है कि सही पहचान मात्र ९४ प्रतिशत मामलों में ही हो पाई । यदि इस तरह की पहचान के आधार पर किसी गोपनीय कक्ष में प्रवेश की अनुमति वगैरह को जोड़ना है तो ९४ प्रतिशत का आंकड़ा पर्याप्त् नहीं है । दूसरी समस्या यह है कि इस तरह की पहचान प्रणाली में व्यक्ति की खोपड़ी पर इलेक्ट्रोड वगैरह लगाने पड़ेगे, तभी तो उसके मस्तिष्क की विघुतीय तरंगों को पकड़ पाएंगे । अलबत्ता, मजेदार बात यह है कि हर व्यक्ति शब्दों के अर्थ को थोड़ा अलग-अलग संजोकर रखता है और यह बात उसके उच्चरण मेंझलकती है । इससे और कुछ नहीं, इतना पता तो चलता है कि मस्तिष्क में शब्दार्थ की हमारी स्मृति वाला हिस्सा कुछ विशेष ढंग से काम करता है और ये स्मृतियां लगभग स्थाई होती है । 

सामयिक
जमीन की लूट का अंतहीन सिलसिला
अनुराग मोदी
भारत में सार्वजनिकजमीन की सरकारी लूट का संस्थानीकरण प्रांरभ हुए ५०० वर्षों से ज्यादा हो गए हैं । यह सिलसिला आज भी न केवल बदस्तूर जारी है बल्कि अब तो इसमें लाभार्थी के रूप में निजी क्षेत्र भी जुड़ गया है । 
नरेन्द्र मोदी सरकार के भूमि-अधिग्रहण संशोधन अधिनियम को लेकर बवाल मचा हुआ है । आरोप हैं कि यह संशोधन किसानों की निजी जमीन को कार्पोरेट हित में अधिग्रहण करने के लिए लाया जा रहा है। हम इस कानून के दायरे से बाहर निकलकर राज्य द्वारा सामुदायिक जमीन के अधिग्रहण और उसे उद्योगों को देने के मसले को देखने से समझ आएगा कि कंपनियों के लिए जमीन की सरकारी लूट का यह गोरखधंधा ४०० साल से भी ज्यादा पुराना है । 
इतिहास बताता है कि किस तरह राज्य पहले बाकायदा नियम,कानूनों और नीति के नाम पर सामुदायिक जमीन को अपने हक में लेता है और फिर इस जमीन को व्यापारिक हित में लुटाता है । इसे दो उदाहरणों से समझते हैं । पहला इतिहास में अंग्रेजों के उदाहरण से और दूसरा वर्तमान में म.प्र. सरकार द्वारा 'लैंड बैंक' के जरिए सामुदायिक जमीन को सार्वजनिक हित में अधिग्रहण कर उद्योेगों के नाम पर कंपनियों को देने से ।
ब्रिटेन में ३१ दिसंबर,१६०० को एक चार्टर के जरिए रानी एलिजाबेथ प्रथम भारत और कुछ अन्य देशों से व्यापार करने के लिए ईस्ट कंपनी को प्रभाव में लाई थीं । इसके चार्टर में कुछ अन्य अधिकारों के साथ कंपनी को उन देशों में जमीन खरीदने का अधिकार देना महत्वपूर्ण था । सूरत में कारखाना डालने के बाद, भारत में अपने पाँव जमाने के लिए अंग्रेज जमीन के एक ऐसे टुकड़े के लिए छटपटा रहे थे जो उनके अपने स्वामित्व का हो और जहाँ वो अपना किला बना सके । लेकिन मुगल राजा उन्हेें कहीं भी पैर नहीं जमाने दे रहे थे । आखिर अंग्रेज सफल हुए । उन्होंने दक्षिण भारत में जहाँ मुगल प्रभाव नहीं था वहां चंद्रागेरी के राजा से ६ मील लम्बा और एक मील चौड़ा समुद्र किनारे का टुकड़ा, ६०० पौंड स्टर्लिंग सालाना किराए पर लिया । 
सन् १६३९ में उस जमीन पर भारत में अपनी पहली किलेदार बस्ती बसाई । इस रहवासी हिस्से पर अपनी प्रभुसत्ता प्रदर्शित करने के लिए अंग्रेजोंे ने इस किले के अन्दर के अपने हिस्से को 'सफेद नगर' (व्हाइट टाउन) और स्थानीय लोेगों की बसाहट को 'काला नगर' (ब्लैक टाउन) का नाम दिया जो बाद में मद्रास कहलाया । यह भारत के  इतिहास में किसी भी व्यापारिक हित रखने वाली कंपनी का राज्य के स्वामित्व की जमीन खरीद कर अपना स्वामित्व स्थापित करने का पहला मामला था ।     
सन् १८५७ के विद्रोह के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों से छीन कर ब्रिटेन की रानी और सरकार ने सत्ता सीधे अपने हाथ में ली, तब दुनिया और देश के इतिहास का सबसे बडा भूमि-अधिग्रहण हुआ । इसमें विशेष था आदिवासी के हक के  जंगल और जमीन को राज्य के आधीन लाना । इसका सबसे पहला शिकार थे म.प्र. के होशंगाबाद जिले के पंचमढ़ी के जंगल में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने वाले आदिवासी सरदार भभूत सिंग कोरकू । उन्हें सन १८६२ में जबलपुर जेल में फांसी दे दी गई और उसकी सारी जमीन (लगभग १५ हजार एकड़) पर देश का पहला आरक्षित जंगल 'बोरी'  बना । 
बाद में भारत में अंगे्रजों की वन नीति और कानून बनाने वाले बोडेन पॉवेल ने वर्ष १८७५ ने 'वन कानून' बनाने के कारण देते हुए लिखा है,: राजा महाराजा के जमाने में कोई कानून नहीं होता था । उनकी मनमर्जी चलती थी इसलिए हम एक कानून बनाकर इस जमीन का प्रबंधन करेंगे । लेकिन सन् १८७८ में अंग्रेजों द्वारा कानून बनने के समय म.प्र. का मंडला जिला जहां उस समय सिर्फ २.३ प्रतिशत जमीन 'आरक्षित वन' थी वहीं इस कानून बनने के बाद १५ साल में १८९३ तक, जिले का आधा भू भाग आरक्षित वन में बदला जा चुका    था । (इस आरक्षित वन से होकर गुजरना या उसमें से पेड़ के गिरे पत्ते भी उठाना-उस समय भी अपराध था और आज भी अपराध है) आजादी के समय देश में १४ करोड़ ७ लाख एकड़ जमीन वन विभाग के पास  की थी । 
इस कानून के बनने के  पहले राजा महाराजा के समय में जिस जमीन को राजा के शिकारगाह और महल आदि के निर्माण के लिए आरक्षित किया गया था उसके अलावा बाकी जमीन और जंगल लोगों के उपयोग के लिए खुले थे लेकिन, अंग्रेजों के कानून से यह सरकारी बन गए । इन जंगलों में आज भी स्थानीय समुदाय चोर करार देकर प्रताड़ित किए जाते हैं । अंग्रेजों द्वारा इनका व्यापारिक हित के लिए उपयोग इतिहास के पन्नों में दर्ज    है । सरकार ने जहां आजादी के बाद लाखों एकड़ जंगल औद्योगिककरण के नाम पर कंपनियों के हवाले किए वहीं सन् १९९० के रियो सम्मलेन में जंगल के 'ग्लोबल पब्लिक गुड्स' बनने के बाद से इन जंगलों को कंपनियों के लिए खुला करने के  लिए लगातार योजना बनाई जा रही हैं । आखिरकर अब जंगलों को वनीकरण के नाम पर कंपनियों के लिए पूरी तरह खोलने के रास्ते खुल गए हैं ।
म.प्र. के उदाहरण पर नजर डालंे, तो समझ आएगा कि केन्द्र सरकार की सोच में परिवर्तन के  साथ किस तरह से प्रदेश सरकारों की सोच बदलती है । वर्ष २००७ से     म.प्र. सरकार सिर्फ बड़े शहरोें के आसपास के गाँवों की इस जमीन को मद परिवर्तन कर इसे नजूल या कहें सरकारी जमीन में बदलकर उद्योगों को दे रही थी । उदाहरण के लिए :- भोपाल जिले की हुजूर तहसील के ग्राम अचारपुरा, मनियाखेडी खोत और इस्माइल नगर के ५९२.३७ एकड़ जमीन जो अक्टूबर २००७ के तहसीलदार की रिपोर्ट में चरोखर (चराई) के लिए आरक्षित दिखाई गई हैं । इस जमीन को ३० अक्टूबर को उप सचिव पर्यावरण और गृह निर्माण ने एक आदेश के जरिए 'बाहय नजूल' मद में परिवर्तित कर शिक्षा जोन के लिए आरक्षित कर दिया । इसके बाद ५/११/०७ को 'धीरू  भाई अंबानी ट्रस्ट' ने इस जमीन में से कुल १२५ एकड़ जमीन, ११० एकड़ 'धीरू भाई अंबानी इंस्टिट्यूट ऑफ इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी एंड कम्युनिकेशन' और १५ एकड़  बी. पी. ओ के आवंटन के लिए आवेदन दिया और २१.११.०७ को इस आवेदन को म.प्र. के राजस्व मंत्री ने एक नोट-शीट के जरिए अपनी सैद्धांतिक मंजूरी भी दे दी । 
केन्द्र में सत्ता परिवर्तन और नए 'भूमि-अधिग्रहण' अधिनियम आने के बाद, म.प्र. सरकार ने अब बाकायदा नीति बनाकर प्रदेश के  सभी छोटे-बड़े शहरों में उद्योगों को जमीन देने के लिए १ अप्रैल २०१५ को एक नीति जारी की । पूरे प्रदेश में लगभग ३०० ऐसे क्षेत्र चिन्हित भी कर लिए जिसमें राज्य मार्ग और स्मार्ट सिटी भी शामिल हैं । इसके लिए बाकायदा इस नीति के तहत, उद्योग विभाग को या उनके निगमों के आधिपत्य की अविकसित, विकसित, विकास की जा सकने वाले भूमि व्यावसायिक प्रयोजन के लिए देने का अधिकार दिया । गौर करिए यह जमीन कहां से आएगी ? म.प्र. सरकार के 'लैंड बैंक २०१४' दस्तावेज पर नजर डालें तो समझ आएगा कि म.प्र. सरकार ने इसमें लगभग ६५ हजार हेक्टेयर (१.५ लाख एकड़) सरकारी जमीन उद्योग को देने के लिए चिन्हित की है । १८६ औद्यागिक क्षेत्रों में ६२२२ हेक्टर ४५  आधुनिक औद्योगिक विकास केन्द्रों में ८७७४ हेक्टेयर, के अलावा विभिन्न राजमार्गो के नजदीक इन्वेस्टर कारिडोर के लिए १६.३३४ हेक्टेयर भूमि सुरक्षित था । 
यह सरकारी जमीन है कौन सी ? अगर हम म.प्र. सरकार के कमिश्नर लैंड रिकार्ड्स की वेब साइट पर प्रदेश के सभी जिलों के नगरीय क्षेत्रों 'लैंड बैंक' की जमीनों की विवरण तालिका में इन में से कुछ जमीनों की नोइयत देखें तो समझ आएगा कि यह जमीन असल में सार्वजनिक जमीन है जैसेचरनोई, खलिहान, श्मशान, तालाब, कदीम, पारतल, आबादी, पहाड़ और ना जाने क्या-क्या नाम से दर्ज हैं । यह सब मुगलों से लेकर अंग्रेजों के समय तक जो जमीन समुदाय के अनेक तरह के उपयोेेेग के लिए नियत थी । जिस काम के लिए जमीन नियत होती थे उन्हें गांव के'बाजुल उर्ज' (राजस्व रिकार्ड) में दर्ज कर दिया जाता था । म.प्र. राजस्व संहिता के  खंड ४ के अनुसार चरोखर, निस्तार और कास्त, पहाड़ आदि निस्तार मद की इस जमीन को 'बाह्य नजूल जमीन' में नहीं बदला जा सकता ।  
केन्द्र का अध्यादेश आने के बाद अकेले म.प्र. सरकार १.५ लाख एकड़ से भी ज्यादा सामुदायिक हक की जमीन को सरकारी जमीन बताकर उद्योगों को देने की योजना 'लैंड बैंक, २०१४' में बना चुकी हैं  तो फिर पूरे देश के स्तर पर क्या हो रहा होगा? आज जरूरत है सार्वजनिक जमीन की इस लूट के खिलाफ किसान, आदिवासी, दलित और जनसंगठन आवाज उठाएं  ।

हमारा भूमण्डल 
पेयजल पुन: सार्वजनिक क्षेत्र मे
रेहमत/गौरव द्विवेदी 
स्थानीय निकायों द्वारा पेयजल सुविधा निजी हाथों में सौंपे जाने के प्रतिकूल प्रभाव अब खुलकर सामने आने लगे हैं । विश्व के करीब २३५ स्थानीय निकायों, जिनमें से अधिकांश विकसित, औद्योगिक व समृद्ध देश के हैं, ने सर्वाधिक पेयजल एवं कचड़ा निपटाने की सुविधाएं पुन: अपने अधिकार क्षेत्र में ले ली हैं । 
इण्डोनेशिया की राजधानी जकार्ता में जलप्रदाय के निजीकरण अनुबंध को स्थानीय अदालत ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इससे शहर के ९९ लाख रहवासियों के  पानी के मानवाधिकार का उल्लंघन हो रहा है। जकार्ता में पानी का निजीकरण अनुबंध खत्म किया जाना सेवाओं के कंपनीकरण के खिलाफ जारी जन संघर्षोंा की एक महत्वपूर्ण जीत है। 
जकार्ता की जलप्रदाय व्यवस्था का निजीकरण दुनिया के शुरूआती बड़े निजीकरणों में शामिल था । १८ वर्ष पूर्व स्थानीय शहरी निकाय ने जलप्रदाय व्यवस्था का ठेका पाम लियोनेज जया और आयत्रा आयर जकार्ता नाम की निजी कंपनियों के समूह को दिया था । ठेका देते समय निजी कंपनियों ने जलप्रदाय व्यवस्था के सुधार का आश्वासन दिया गया था । परंतु खराब सेवा के कारण कंपनियों से किया गया अनुबंध खत्म करने की माँग को लेकर स्थानीय समुदाय ने लंबा अभियान चलाया और निजीकरण अनुबंध को स्थानीय न्यायालय में चुनौती दी गई। अंतत: न्यायालय ने इस अनुबंध को खारिज कर दिया । अब स्थानीय शहरी निकाय ने जलप्रदाय व्यवस्था पुन: अपने हाथ में ले ली है । जलप्रदाय और स्वच्छता सेवाओं के निजी क्षेत्र से नगरीय निकायों के अधिकार क्षेत्र में अंतरण को पुनर्निगमीकरण कहा जाता है । इसका यह अर्थ लगाया जा रहा है कि पानी के निजीकरण का दौर खत्म हो रहा है और हम पुन: बेहतर, जवाबदेह और स्थायी सार्वजनिक जलप्रदाय की ओर बढ़ रहे हैं । लातूर (महाराष्ट्र) सहित दुनियाभर में अब ऐसे उदाहरण दिखाई देने लगे हैं ।
ट्रांसनेशनल इंस्टीट्यूट, मल्टीनेशनल ऑब्जरवेटरी और पीएसआईआरयू नामक स्वयंसेवी समूहों ने हाल ही में पुनर्निगमीकरण की विश्वव्यापी घटनाओं का अध्ययन कर ''अवर पब्लिक वाटर यूचर: द ग्लोबल एक्सपीरियंस विथ रिम्युनिसिपलाईजेशन`` शीर्षक से एक रिपोर्ट, पुस्तक के रूप में प्रकाशित की है । इस रिपोर्ट में पुनर्निगमीकरण के उभरते विश्वव्यापी रूझानों की ओर ध्यान दिलाते हुए पानी के निजीकरण के भविष्य पर बड़े सवाल खड़े किए गए हैं । रिपोर्ट के अनुसार मार्च २००० और मार्च २०१५ के बीच ३७ देशों के २३५ नगरीय निकायों में पानी के पुनर्निगमीकरण से १० करोड़ नागरिक लाभांवित हुए । आश्यर्च-जनक तथ्य यह है कि इनमें से १८४ मामले उच्च् आय वाले देशों के हैं  तथा शेष ५१ मामले कम आय वाले देशों के हैं । ज्यादातार मामले फ्रांस और अमेरिका के हैं जहाँ क्रमश: ९४ और ५८ नगरीय निकायों ने पुनर्निगमीकरण किया । वर्ष २००० और २०१० की अपेक्षा वर्ष २०१० और २०१५ के मध्य पुनर्निगमीकरण की दर दुगनी हो गई, जिससे सिद्ध होता है कि इस ओर रुझान बढ़ रहा है और इसे अपना चुके कई देशों के नगरीय निकाय अब इस प्रक्रिया को अन्य देशों में आगे बढ़ाने में मदद कर रहे हैं ।
इस प्रक्रिया से एक बार पुन: सिद्ध हुआ है कि निजी कंपनियों की बजाय सार्वजनिक क्षेत्र बेहतर सेवाएँ प्रदान कर सकता है। पिछले वर्षों में देखा गया कि बड़ी-बड़ी कंपनियों द्वारा हथियाई गई निजीकृत जलप्रदाय व्यवस्थाएँ समुदाय की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरीं। इसलिए उन्हें कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। खराब सेवा और पानी की खराब गुणवत्ता के लिए अकरा (घाना), दार-ए-सलाम (तंजानिया), जकार्ता (इण्डोनेशिया), रेने (फ्रांस) और केमरॉन सिटी (अमेरिका) का निजीकरण बदनाम रहा है । बर्लिन (जर्मनी), ब्यूनसआयर्स (अर्जेंटीना) और लातूर (भारत) में निजी कंपनियोंने बुनियादी सेवाओं पर निवेश नहीं किया जिससे स्थानीय समुदाय ने इन्हें खारिज कर दिया । अलमाटी (कजाखिस्तान), मापूतो (मोजाम्बिक) सांता फे (अमेरिका), जकार्ता (इण्डोनेशिया), ब्यूनस आयर्स (अर्जेटीना), लापाज (बोलिविया) और कुआलालंपुर (मलेशिया) में अनुबंधकर्ता कंपनियों ने संचालन खर्च और जलदरों में बेतहाशा वृद्धि की थी । 
ग्रेनोबल, पेरिस (फ्रांस) और स्टुटगार्ड (जर्मनी) में निजी जलप्रदायकों ने अपने फायदे के लिए वित्तीय पारदर्शिता और अटलांटा (अमेरिका), बर्लिन (जर्मनी) और पेरिस (फ्रांस) में सार्वजनिक निगरानी से परहेज किया । अंतालिया (तुर्की) और अटलांटा (अमेरिका) में कर्मचारियों की छँटनी और खराब सेवा के कारण पुनर्निगमीकरण करना पड़ा । हेमिल्टन (कनाड़ा) में निजीकरण अनुबंध खारिज करने के  कारण पर्यावरणीय समस्याएँ थीं। पुस्तक में दुनियाभर के २३५ पुनर्निगमीकरण प्रकरणों का उल्लेख है जिनमें से ९२ निजीकृत अनुबंध टिकाऊ नहीं होने के कारण नगरीय निकायों ने स्वयं इन्हें समाप्त करने का फैसला किया। शेष मामलों में या तो अनुबंध का नवीनीकरण नहीं किया गया अथवा निजी कंपनियाँ स्वयं ही अलग हो गई ।
इस रिपोर्ट में उल्लेखित हर मामला अपने आप में अलग है लेकिन पुनर्निगमीकरण से खर्च में कमी, संच ालन क्षमता में वृद्धि, जलप्रदाय तंत्र में निवेश और पारदर्शिता होने के ठोस प्रमाण मिले हैं । इसके अतिरिक्त रिपोर्ट में इसके बाद सार्वजनिक जलप्रदाय सेवाओं को ज्यादा जवाबदेह, सहभागी और पर्यावरणीय दृष्टि से टिकाऊ बनाने में मदद मिलने के प्रमाण दिए गए हैं । पेरिस की नगरपालिका को जलप्रदाय का निजीकरण खत्म करने पर पहले ही वर्ष में साढ़े ३ करोड़ यूरो (करीब २३१ करोड़ रुपए) की बचत और ह्यूस्टन (अमेरिका) की नगरपालिका को सालाना २० लाख डॉलर (करीब साढ़े बारह करोड़ रुपए) की सालाना बचत हुई। पुनर्निगमीकरण के बाद दार-ए-सलाम (तंजानिया), बर्लिन (जर्मनी) और मेदिना सिदोनिया (स्पेन) में जलप्रदाय तंत्र में काफी निवेश बढ़ा तथा पेरिस और ग्रेनोबल (फ्रांस) में पारदर्शिता और जवाबदेही में बढ़ोत्तरी देखी गई । ब्यूनस आयर्स (अर्जेटीना) में जल दरें कम हुई जिससे सभी को पानी मिलना और उसका समतामूलक बँटवारा सुनिश्चित हुआ । अध्ययन में कुछ ऐसे मामलों का भी उल्लेख है जिनमें निजी कंपनियाँ पुनर्निगमीकरण के खिलाफ न्यायालयों में गई और नगरीय निकायों से हर्जाना भी माँगा।
पुस्तक में पुनर्निगमीकरण के दौर में मिले सबकों की विस्तृत विवेचना है । जो निकाय जलप्रदाय को सार्वजनिक क्षेत्र में लाना चाहते हैं उनकी सहायता के लिए पुस्तक में एक चैकलिस्ट दी गई है। निजीकरण या पब्लिक-प्रायवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के बदले नगरीय निकायों की क्षमता वृद्धि हेतु पब्लिक-पब्लिक पार्टनरशिप (जन-जन भागीदारी)   मॉडल सुझाया गया है जिसमें नगरीय निकायों के साथ जनता या अन्य सार्वजनिक निकायों की भागीदारी होती है । अध्ययनकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि इससे वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों को सामाजिक दृष्टि से बेहतर, पर्यावरणीय दृष्टि से टिकाऊ और अच्छी गुणवत्ता की सेवाएँ प्रदान की जा सकती हैं । पुनर्निगमीकरण को ट्रेड यूनियनों के लिए एक अवसर बताते हुए कहा गया है कि इससे कार्यस्थल की परिस्थितियों में भी सुधार लाया जा सकता है। इसके अलावा सार्वजनिक जलप्रदाय में लगे कर्मचारियों की क्षमता बढ़ाई जा सकती है और सार्वजनिक सेवाओं की दरों को और बेहतर बनाया जा सकता है ।
पुस्तक में अध्ययन के अनुभवों, सबकों और बेहतर तरीकों द्वारा नागरिकों, कर्मचारियों और नीति निर्माताओं सहित सभी को जोड़ने का प्रयास किया गया है ताकि मानव जीवन के आधार, पानी को फिर से सार्वजनिक क्षेत्र में लाया जा सके । भारत भी पानी के निजीकरण से अछूता नहीं हैं । ऐसे में गहन शोध के बाद तैयार यह पुस्तक भारत के लिये भी महत्वपूर्ण है । 

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष 
पर्यावरण संरक्षण, हम सबका दायित्व
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित 
पर्यावरण का संरक्षण वर्तमान युग की बड़ी समस्याआें में से एक है । पर्यावरण और जीवन एक दूसरे के पूरक और पर्याय है । पर्यावरण में समूची मानव जाति और इस ग्रह पर मौजूद सभी जीवों तथा पेड़ पौधों का भविष्य निहित है । 
विश्व पर्यावरण दिवस संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में सारी दुनिया में मनाया जाने वाला सबसे बड़ा उत्सव है । आजकल विश्व भर में पर्यावरण की बहुत चर्चा है क्योंकि वर्तमान में पर्यावरण विघटन की समस्याआें ने ऐसा विकराल रूप धारण कर लिया है कि पृथ्वी पर प्राणी मात्र के अस्तित्व को लेकर भय मिश्रित आशंकाएं पैदा होने लगी हैं । 
पर्यावरण को लेकर मानव समाज की दुर्गति मानव के इस निरर्थक विश्वास के कारण हुई कि प्रकृति में हर वस्तु उसी के उपयोग के लिए हैं । प्रकृति की उदारता, उसकी प्रचुरता तथा उसकी दानशीलता को मनुष्य ने अपना अधिकार समझा और उसकी इसी संकीर्णता से प्रकृति के शोषण से उत्पन्न असंतुलन की स्थिति भयावह हो चुकी है । 
प्रकृति के साथ अनेक वर्षोंा से की जा रही छेड़छाड़ से पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखने के लिए अब दूर जाने की जरूरत नहीं है । विश्व में बढ़ते बंजर इलाके, फैलते रेगिस्तान, कटते जंगल, लुप्त् होते पेड़-पौधे और जीव जन्तु, प्रदूषणों से दूषित पानी, कस्बों एवं शहरों पर गहराती गंदी हवा और हर वर्ष बढ़ते बाढ़ एवं सूखे के प्रकोप इस बात के साक्षी हैं कि हमने अपनी धरती और अपने पर्यावरण की ठीक-देखभाल नहीं की हैं । 
आज से पर्यावरण संतुलन के दो बिन्दु सहज रूप से प्रकट होते    हैं । पहला प्राकृतिक औदार्य का उचित लाभ उठाया जाए एवं दूसरा प्रकृति में मनुष्य जनित प्रदूषण को यथासंभव कम किया जाए । इसके लिए भौतिकवादी विकास के दृष्टिकोण में परिवर्तन करना होगा । करीब तीन सौ साल पहले यूरोप में औघोगिक क्रांति हुई इसकी ठीक १०० वर्ष के अंदर ही पूरे विश्व की जनसंख्या दुगनी हो गई । जनसंख्या वृद्धि के साथ ही नई कृषि तकनीक एवं औद्योगिकरण के कारण लोगों के जीवन स्तर में बदलाव आया । मनुष्य के दैनिक जीवन की आवश्यकताएँ बढ़ गई, इनकी पूर्ति के लिए नये-नये साधन जुटाएँ जाने लगे । विकास की गति तीव्र हो गई और इसका पैमाना हो गया अधिकाधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, इसने एक नई औघोगिक संस्कृति को जन्म दिया । 
आज पूरे विश्व में लोग अधिक सुखमय जीवन की परिकल्पना करते हैं । सुख की इसी असीम चाह का भार प्रकृति पर पड़ता है । विश्व में बढ़ती जनसंख्या, विकसित होने वाली नई तकनीकों तथा आर्थिक विकास ने प्रकृति के शोषण को निरन्तर बढ़ावा दिया हैं । पर्यावरण विघटन की समस्या आज समूचे विश्व के सामने प्रमुख चुनौती है, जिसका सामना सरकारों तथा जागरूक जनमत द्वारा किया जाना  है । 
हम देखते हैं कि हमारे जीवन के तीनों बुनियादी आधार हवा, पानी और मिट्टी आज खतरे में हैं । सभ्यता के विकास के शिखर पर बैठे मानव के जीवन में इन तीनों प्रकृति प्रदत्त उपहारों पर संकट बढ़ता जा रहा है । बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण न केवल महानगरों में ही बल्कि छोटे-छोटे कस्बों और गाँवों में भी शुद्ध प्राणवायु मिलना दुभर हो गया है, क्योंकि धरती के फैफड़े वन समाप्त् होते जा रहे हैं । वृक्षों के अभाव में प्राणवायु की शुद्धता और गुणवत्ता दोनों ही घटती जा रही है । बड़े शहरों में तो वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि लोगों को सांस संबंधी बीमारियां आम बात हो गई है । 
हमारे लिए हवा के बाद जरूरी है जल । इन दिनों जलसंकट बहुआयामी है, इसके साथ ही इसकी शुद्धता और उपलब्धता दोनों ही बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं । एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि हमारे देश में सतह का जल बुरी तरह से प्रदूषित है और भू-जल का स्तर निरन्तर नीचे जा रहा है । शहरीकरण और औघोगिकीकरण ने हमारी बारहमासी नदियों के जीवन में जहर घोल दिया है, हालत यह हो गई है कि मुक्तिदायिनी गंगा की मुक्ति के लिए पिछले कई वर्षोंा से अभियान चल रहा है । 
हमारी पहली वन नीति में लक्ष्य रखा गया था कि देश का कुल एक तिहाई क्षैत्र वनाच्छादित रहेगा, कहा जाता है कि इन दिनों हमारे यहाँ ९ से १२ प्रतिशत वन आवरण शेष रह गया है । इसके साथ ही अतिशय चराई और निरन्तर वन कटाई के कारण भूमि की ऊपरी परत की मिट्टी वर्षा के साथ बहकर समुद्र मेंजा रही है । इसके कारण बांधों की उम्र कम हो रही है, नदियों में गाद जमने के कारण बाढ़ और सूखे का संकट बढ़ता जा रहा हैं । आज समूचे विश्व में हो रहे विकास ने प्रकृतिके सम्मुख मानव अस्तित्व के लिए नई चुनौती खड़ी कर दी है । 
आज दुनियाभर में अनेक स्तरों पर यह कोशिश हो रही है कि आम आदमी को इस चुनौती के विभिन्न पहलुआें से परिचित कराया जाए, ताकि उसके अस्तित्व को संकट में डालने वाले तथ्यों की उसे समय रहते जानकारी हो जाए और स्थिति को सुधारने के उपाय भी गंभीरता से किए जा सके । भारत के संदर्भ में यह सुखद बात है कि पर्यावरण संरक्षण के लिये सामाजिक चेतना का संदेश हमारे धर्मग्रंथों और नीतिशतकों में प्राचीनकाल से रहा   है । हमारे यहाँ जड़ में, चेतन में सभी के प्रति समानता और प्रकृति के प्रति सम्मान का भाव सामाजिक संस्कारों का आधार बिन्दु रहा है । प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों के युक्तियुक्त उपयोग द्वारा ही हमारे पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है । इसमें लोक चेतना में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है । 
पर्यावरण संरक्षण के उपायों की जानकारी हर स्तर तथा हर उम्र के व्यक्ति के लिए आवश्यक है । पर्यावरण संरक्षण की चेतना की सार्थकता तभी हो सकती है, जब हम अपनी नदियां, पर्वत, पेड़, पशु पक्षी, प्राणवायु और हमारी धरती को बचा सके । इसके लिए सामान्यजन को अपने आसपास हवा-पानी, वनस्पति जगत और प्रकृति उन्मुख जीवन के क्रिया-कलापों जैसे पर्यावरणीय मुद्दों से परिचित कराया जाए । युवा पीढ़ी में पर्यावरण की बेहतर समझ के लिए स्कूली शिक्षा में जरूरी परिवर्तन करना होंगे पर्यावरण मित्र माध्यम से विषय पढ़ाने होगे जिससे प्रत्येक विघार्थी अपने परिवेश को बेहतर ढंग से समझ सके । विकास की नीतियों को लागू करते समय पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों पर भी समुचित ध्यान देना होगा । 
समाज में प्रकृति के प्रति प्रेम व आदर की भावना सादगीपूर्ण जीवन पद्धति और वानिकी के प्रति नई चेतना जागृत करना होगी । आज आवश्यकता इस बात की भी है कि मनुष्य के मूलभूत अधिकारों में जीवन के लिए एक स्वच्छ एवं सुरक्षित पर्यावरण को भी शामिल किया जाये । इसके लिए समुचित पहल करना होगी । इतना ही नहीं विश्व के सारे देशोंमें पर्यावरण एवं सरकारी विकास नीतियों में संतुलन आए, इसके लिए सघन एवं प्रेरणादायक लोक-जागरण अभियान भी शुरू करना होगा । 
आज हमें यह स्वीकारना होगा कि हरा-भरा पर्यावरण मानव जीवन की प्रतीकात्मक शक्ति है और समय के साथ-साथ हो रही इसकी कमी से हमारी वास्तविक जीवन ऊर्जा में भी कमी आ रही है । वैज्ञानिकों का मत है कि पूरे विश्व में पर्यावरण संरक्षण की सार्थक पहल ही पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने की दिशा में रंग ला सकती है । वैज्ञानिकों का कहना है कि वैश्विक गर्मी (ग्लोबल वार्मिग), बढ़ता प्रदूषण और घटती वृक्षों की संख्या हमें चेता रही है । अब हमें चेतना होगा, ऊर्जा के लिए प्रदूषण रहित नए उपाय विकसित किए जाएँ और पेड-पौधों को अधिक से अधिक लगाने के सार्थक प्रयत्न किए जाएँ । पौधारोपण की सहायता से पर्यावरण को समृद्ध बनाया जाए । खेती में कीटनाशकों एवं रसायनिक खाद के उपयोग को सीमित करना होगा । 
इस दिशा में भागीरथी प्रयास जरूरी है । भागीरथ प्रतीक है उच्च्तम श्रम का । मनुष्य के श्रम का पसीना गंगाजल से भी ज्यादा पवित्र है । गंगा और भागीरथ के मिथक से ही इसे समझा जा सकता है । भागीरथ जब अपने श्रम से गंगा को धरती पर लाये तो गंगा का नाम हो गया भागीरथी, भागीरथ का नाम गंगाप्रसाद नहीं हुआ । इसी प्रकार अधिक परिश्रमी और असाध्य कार्य के लिए प्रतीक हो गया भागीरथी प्रयास । पर्यावरण के क्षेत्र में भी संरक्षण के भागीरथी प्रयासों की आवश्यकता है । सर्वप्रथम यह हमारा सामाजिक दायित्व है कि हम स्वयं पर्यावरण हितैषी बनें और दूसरों को प्रेरित करें जिससे पर्यावरण समृद्ध भारत बनाया जा सके । 
प्रकृति और मनुष्य के गहरे अनुराग के कारण दोनों के साहचर्य से प्रकृति का संतुलन बना रहता है । मनुष्य के प्रकृति के साथ प्रेममूलक संबंधों में आ रही गिरावट और बढ़ती संवेदनहीनता के दायरों से बाहर निकलकर पुन: प्रकृति की ओर लौटने के लिये हमें हमारी परम्पराआें, शिक्षाआें और संस्कृति की समृद्ध विरासत की ओर लौटना होगा तभी हम अपने पर्यावरण को सुरक्षित रख सकेगें । पर्यावरण दिवस का यही हमारा संकल्प होना चाहिए इसी से इस दिवस की सार्थकता सिद्ध होगी । 

विशेष लेख
आत्मज्ञान की ओर ले जाता विज्ञान
ब्रुस लिप्टन
विज्ञान साबित कर रहा है कि हमारी दस में से नौ बीमारियो का कारण तनाव है । तनाव से ग्रस्त शरीर अपने बढ़ने की सहज प्रक्रिया रोक देता है। उसकी रोगों से लड़ने वाली शक्ति क्षीण हो जाती है । बुद्धि में, चेतना में नियंत्रण रखने वाली क्रिया पर लगाम लग जाती है । ये सब मिलजुल कर स्वास्थ्य बिगाड़ देते हैं, जिजीविषा मिटा देते हैं ।  तनाव तब तो और विकराल रूप ले लेता है, जब किसी को लगने लगता है कि  वह इन असाध्य कठिनाइयोंके सामने लाचार है ।
मजबूरी और तनाव का एक बड़ा कारण है यह भाव कि हमारा जीवन आनुवंशिकी के  वश में होता है । यानी हमारा शरीर, हमारी चेतना, सब कुछ हमारे माता-पिता से मिले आनुवंशिकी तत्वों पर निर्भर    है । यानी जिसे पहले प्रारब्ध कहते थे, वह असल मेें हमारे ही शरीर में, हमारे  जीन में लिखा हुआ है ।  
वैज्ञानिक समझ बढ़ने के साथ-साथ यह दृष्टि तेजी से फैली है । छोटी उमर में विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक, अखबार टी.वी. और फिल्मों  मंे, सभी तरफ वंश के असर के  उदाहरण दिखते हैं। इन्हें देख-देख कर और नई किस्म की    वैज्ञानिक जानकाको उसमें जोड़कर जन साधारण में जो एक  नए तरह का भाग्यवाद बढ़ रहा है वह है आनुवंशिकी का नियतिवाद । इसके अनुसार हमारे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पहलू किसी जीन की चपलता पर टिके  है । हमारे भाग्य में 'ऐसा' ही लिखा है ।  हम क्या  करें । 
हमारे ये आनुवंशिक  तत्व जब चाहे चालू हो जाते हैं, जब चाहे रुक जाते हैं । हम में से कोई भी अपने 'जीन' चुन नहीं सकता । यह नहीं तय कर सकता कि  उसका जन्म किस माता-पिता से होगा । यानी हम अपने 'जीन' बदल भी नहीं सकते । अगर हमें अपने पैदाइशी गुण अच्छे नहीं लगते तो इससे यह भाव पनपता है कि हम अपने से बड़ी ताकत के खेल में मामूली से मोहरे हैं, बस । इसका सबसे प्रबल उदाहरण शरीर की बीमारियांें में झलकता है ।
कैंसर या मधुमेह या हृदयरोग जैसी कई विषम बीमारियां एक परिवार के लोगों को होती रहती हैं। मानसिक विषाद और अलज्हाइमरस जैसी प्रवृत्तियां भी एक पीढ़ी से दूसरी को 'जीन' के साथ मिलती हैं । जिन लोेेेगों के परिवार मंे, अग्रजों में ऐसे रोग पाए गए हैं, वे मानते हैं कि उन्हें भी आगे नहीं तो पीछे ये रोग पकड़ेंगे ही । ऐसे में उनकी जीवनशक्ति 'डी.एन.ए.' की बदमिजाजी के आगे मजबूर हो जाती है ।
लेकिन अब भौतिक विज्ञान और जीवशास्त्र में कुछ ऐसी खोजें हुई हैं जो विषय पर नया प्रकाश डाल रही हैं । सन् १९९० के दशक से विज्ञान की दुनिया अब 'डी.एन.ए.' के उस नियतिवाद से दूर हट रही हैै जो उस पर बुरी तरह से छाया हुआ था । 'जीन' पर आधारित 'जेनेटिक्स' की बजाए अब बात हो रही है 'एपिजेनेटिक्स' की । ग्रीक भाषा से बनाए गए इस शब्द का अर्थ है 'जेनेटिक्स' से ऊपर और परे । यह विधा बता रही है कि आनुवंशिकी पर पर्यावरण का नियंत्रण भी होता है। यही नहीं, किसी जीव का पर्यावरण का बोध भी 'डी.एन.ए' की अभिव्यक्ति काबू कर सकता है । यानी पर्यावरण के बदलने से हमारे वे वंशानुगत गुण-अवगुण भी बदल जाते हैं, जिनके बारे में अब तक विज्ञान यही बताता रहा है कि इन्हें तो आपको ढोना ही था ।
'एपिजेनेटिक्स' का यह नया पाठ  हमें यह भी बताता है कि हम केवल अपनी आनुविंशकी के आगे बेबस नहीं हैं । अब हम किसी 'डी.एन.ए.' की कठपुतली भर नहीं   हैं । चूंकि हम अपने शरीर के पर्यावरण को बदल सकते हैं, उस पर्यावरण के बोध को भी बदल सकते हैं, सो हम अपनी मजबूरी से ऊपर भी उठ  सकते हैं । इससे यह विश्वास भी मिलता है कि हम अपने विवेक से पर्यावरण का नुकसान करने से अपने आप को रोक सकते हैं ।
इसे समझने के लिए आज से कोई ४० साल पहले की बात करते हैं । उन दिनों मैं अपने छात्रों को आनुवंशिकी का 'नियतिवाद' पढ़ाया करता था । उस समय मैं मांसपेशियों की कमजोरियों पर भी कुछ प्रयोग कर रहा था । इन प्रयोगों से ही 'एपिजेनेटिक्स' की विधा निकल कर आई थी । मैंमूल कोशिकाओं के प्रतिरूप तैयार करता था । ये मूल कोशिका की एकदम ठीक नकल होते थे । इन प्रतिरूपी कोशिकाओं को मैं एक-एक कर के अलग करता और उन्हें अलग-अलग वातावरण में रखता, अलग-अलग बर्तनों में ।
इस संस्कार में रखी कोशिकाओं हर १०-१२ घंटे में विभाजित होती हैं, एक से दो हो जाती हैं । फिर अगले १०-१२ घंटे में दो चार, और फिर चार से आठ । इसी तरह दो हफ्तेमें हजारों कोशिकाएं तैयार होती । फिर मैंने तीन भिन्न वातावरण में कोशिकाओं की तीन भिन्न बस्तियां तैयार की । इन 'बस्तियों' का रासायनिक वातावरण एकदम अलग-अलग था । ठीक कुछ वैसे ही जैसे हर व्यक्ति के शरीर का वातावरण अलग होता है और एक ही शरीर के भीतर भी कई तरह के  वातावरण होते हैं । अलग-अलग वातावरण में भी रखी गई इन कोशिकाओं का 'डी.एन.ए.' तो एकदम समान था । उनका पर्यावरण, उनका वातावरण भिन्न था । जल्दी ही इस प्रयोग के नतीजे सामने आने लगे ।  
एक बर्तन में उन्हीं कोशिकाओं ने हड्डी का रूप ले लिया था, एक मंे मांसपेशी का, और तीसरे बर्तन में कोशिकाओं ने वसा या चर्बी का रूप ले लिया । यह प्रयोग इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने के लिए किया था कि कोशिकाओं की किस्मत कैसे तय होती है । सारी कोशिकाएं एक ही मूल से निकली थी । तो नए सिरे से यह सिद्ध हुआ कि कोशिकाओं की आनुवंशिकी नियति तय नहीं करती है। जवाब था : परिवेश । पर्यावरण । वातावरण । हमने यह भी पाया कि जिन कोशिकाओं को पोषण नहीं मिलता वे अकाल जैसे वातावरण में थोड़ी बीमार-सी पड़ जाती हैं । इन कोशिकाओं की चिकित्सा के लिए हमने उन्हें कोई दवा नहीं दी । हमने केवल उन्हें एक अच्छे वातावरण में रख दिया । संुदर वातावरण में लौटते ही ये कोशिकाएं स्वस्थ हो उठी, फलने-फूलने लगीं ।
इस प्रयोग ने यह सिद्ध किया कि कोशिकाएं अपने परिवेश में ढलने के लिए अपना शरीर और पिंजर तो क्या, अपनी आनुवंशिकी तक बदल देती हैं । हर बर्तन में जो पृथक रासायनिक वातावरण उन कोशिकाओं का भाग्य बना रहा था, वह 'जीन' से ऊपर था । इन बर्तनों का पर्यावरण कुछ वैसा ही था जैसा कि हमारे शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में होता है । इसीलिए इन बर्तनों में हुए प्रयोग हम सभी के शरीर के  लिए उपयुक्त उदाहरण हैं । इसे समझने के लिए हमें अपने शरीर को लेकर चली आ रही कुछ 'वैज्ञाानिक' भ्रांतियों को तजना होगा । 
हम अपने आप को चाहे एक व्यक्ति मानें, एक शरीर मानें, सच्चई इससे एकदम परे है । हमारा शरीर कई चीजों को मिल कर बना है । एक औसत आकार के शरीर में लगभग ५० लाख करोड़, कोशिकाएं होती हैं। ५० की संख्या पर तेरह शून्य लगेंगे : ५०,००००००००००००० ! हर कोशिका अपने आप में एक जीव है, एक जीवंत संस्कार, संसार है। यानि हर मनुष्य का शरीर अनगिनत कोशिकाओं का मिला-जुला, भरा-पूरा समाज है । सामाजिकता और मिलजुल कर रहने का सबक अगर सीखना हो तो अपने शरीर से बहुत दूर देखने की जरूरत नहीं है । भीतर झांकिए तो ।
'एपिजेनेटिक्स' की विधा इसी सत्य पर बनी है कि हर शरीर के खून का रासायनिक स्वभाव इन कोशिकाओं का वातावरण बनाता है । यह स्वभाव कोशिकाओं के  आनुवंशिक गुणों-अवगुणों को बदल भी सकता है । तो सवाल उठता है कि खून का रासायनिक स्वभाव कैसे तय होता है ? जवाब है मस्तिष्क । दिमाग ही शरीर का असली रसायनशास्त्री है, शरीर का केमिस्ट है । हमारे भाव और पर्यावरण के बोध के आधार पर मस्तिष्क नसों में रसायन छोड़ता है । ये ही रसायन खून में घुल कर पूरे शरीर में घूमते हैं और कोशिकाओं और अंगों को संचालित करते हैं । उदाहरण के लिए अगर हम आंख खोलते ही किसी प्रियजन को देखते हैं तो मस्तिष्क खून में कुछ खास तरह के रस, कुछ हॉर्मोन छोड़ता है । इनके नाम हैं 'डोपामाइन' और 'ऑक्सिटोसिन'। कुछ ऐसे हॉर्मोन भी होते हैं जो शरीर के विकास को बढ़ाते हैं । इन रसायनों से कोशिकाओं का स्वास्थ्य अच्छा होता है । इसीलिए किसी प्रिय व्यक्ति से मिलने पर चेहरा चमकने, दमकने लगता है । हमें लगता है कि हमें उनका आशीर्वाद मिल गया है । 
इससे  ठीक उलटा होता है जब हम किसी अप्रिय व्यक्ति या वस्तु को देखते हैं तब मस्तिष्क तनाव पैदा करने वाले, शरीर में सूजन पैदा करने वाले रसायन छोड़ने लगता है । यह दिमाग का प्रतिरक्षा तंत्र है क्योंकि तनाव में शरीर वह सब कर सकता है जो प्रसन्न रूप में नहीं  करता । यह आपातकाल से जूझने का एक तरीका है । लेकिन जब कोई व्यक्ति लगातार अप्रिय वातावरण में रहता है तो मस्तिष्क को लगातार आपातकाल का भास होता रहता है, जिसके जवाब में यह लगातार तनाव के रसायन छोड़ता रहता है । इससे व्यक्ति हमेशा तना हुआ रहता है । ऐसा वातावरण बने रहने से कोशिकाओं की स्वस्थ आदतें जाती रहती हैं । कोशिकाएं मरने लगती    हैं । यही कारण है कि ऐसा तनाव मृत्यु का कारण बन जाता है ।
इससे पता यह चलता है कि किसी भी जीव के शरीर और मानस के सबसे ऊपर मस्तिष्क है । और इस मस्तिष्क का स्वभाव कैसे तय होता है ? बुद्धि में होने वाले विचार से । इसका मतलब यह है कि किसी भी व्यक्ति के वंशानुगत स्वभाव को उसकी बुद्धि, उसका विवेक बदल सकता है । इसका मतलब यह है कि हमारे बर्ताव, हमारे कर्म पर हमारा वश है । चाहे दुनिया भर पर न भी हो, लेकिन हमारे अपने स्वभाव को तो हम बदल सकते हैं, अपनी बुद्धि में बारीक बदलाव लाकर । इसके  लिए हमें मस्तिष्क की रूप-रेखा पर एक नजर दौड़नी होगी ।
हमारे मस्तिष्क के दो विभिन्न अंश हैं: चेतन और अवचेतन । दोनों ही अलग-अलग प्रयोजनों के लिए जिम्मेदार हैं और दोनों के सीखने के तरीके भी अलग-अलग हैं । मस्तिष्क का चेतन भाग हमें विशिष्ट बनाता है, वही हमारी विशिष्टता है। इसकी वजह से एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से अलग होता है । हमारा कुछ अलग-सा स्वभाव, हमारी कुछ अनोखी सृजनात्मक शक्ति-ये सब मस्तिष्क के इसी हिस्से से संचालित होती हैं । तय होती हैं । हर व्यक्ति की चेतन रचनात्मकता ही उसकी मनोकामना, उसकी इच्छा और महत्वाकांक्षा तय करती है ।
इसके विपरीत मस्तिष्क का अवचेतन हिस्सा एक ताकतवर प्रतिश्रुति यंत्र जैसा ही है । यह अब तक के रिकॉर्ड किए हुए अनुभव दोहराता रहता है । इसमें रचनात्मकता नहीं होती । यह उन स्वचलित क्रियाओं और उस सहज स्वभाव को नियंत्रित करता है, जो दुहरा-दुहरा कर,हमारी आदत का एक हिस्सा बन चुका है। यह जरुरी नहीं है कि अवचेतन दिमाग की आदतें और प्रतिक्रियाएं हमारी मनोकामनाओं या हमारी पहचान पर आधारित हों। दिमाग का यह हिस्सा अपने सबक जन्म के थोड़े पहले, मां के पेट में ही सीखना शुरु कर देता है । (जीवन के 'चक्रव्यूह' में उतरने से पहले ही 'अभिमन्यु' पाठ  सीखने लगता है !-अनुवादक) यहां से लेकर सात साल की उमर तक वे सारे कर्म और आचरण, जो भावी जीवन के लिए मूल हैं, उन्हें हमारे दिमाग का यह अवचेतन हिस्सा सीख लेता है । फिर से दुहरा लें कि सात साल की उमर आते-आते अवचेेतन दिमाग बहुत कुछ सीख चुका होता है । कैसे ? माता-पिता, भाई-बहन, परिवार-कुनबा और आस-पड़ोस के आचरण की नकल कर के ।
मां के पेट से लेकर सात साल की उमर तक इतना कुछ सीखने के लिए मस्तिष्क का अवचेतन भाग जिस तरंग, जिस आयाम पर चलता है, वह सम्मोहन का आयाम है । सम्मोहन की वजह से शिशु दूसरों की नकल से कई बातें सीख लेता है । यह अकर्मक शिक्षा है जिसके लिए चेतना की जरूरत नहीं होती है । शिशु सम्मोहन के द्वारा हजारों आचरण के नियम सीख लेता है जो उसके रोजमर्रा के जीवन और उस विशेष समाज में रह सकने के लिए जरूरी होते हैं । हर समाज के  नियम अलग होते हैंऔर इसलिए हर समाज के शिशु उन्हीं से अलग-अलग शिक्षा पाते हैं । मनोवैज्ञानिकों को पता चला है कि सात साल तक अवचेतन अवस्था में सम्मोहन से सीखी हुई बातों में लगभग ७० प्रतिशत नकारात्मक होती हैं । इनमें कई विध्वंसक भी होती हैंऔर हमारे व्यक्तिगत सामर्थ्य को कमजोर करती हैं । 
अगर हमारे जीवन और शरीर पर मस्तिष्क का वश चलता है, तो फिर ऐसा क्यों है कि ज्यादातर लोग अपनी अपेक्षाओं के आधार पर अपना जीवन चलाने में असमर्थ होते हैं ? इसका कारण यह भुलावा है कि हम अपने जीवन पर नियंत्रण अपने दिमाग के चेतन भाग से रखते हैं । यह सच्चई के ठीक विपरीत है। मनोविज्ञान और तंत्रिकाविज्ञान यह सिद्ध कर चुके हैंकि हमारे संज्ञान की केवल १-५ प्रतिशत क्रियाएं हमारे चेतन दिमाग से होती हैं । हमारे आचरण और कर्म में ९५-९९ प्रतिशत क्रियाएं हमारे अवचेतन दिमाग से चलती हैं । उस हिस्से से जो सम्मोहन से बना है ।
ऐसा क्यों है ? जवाब चेतन मस्तिष्क के स्वभाव में मिलता है। यह हिस्सा सोच सकता है, विचार कर सकता है । जब चेतन हिस्सा विचार में मगन होता है तब उसे तात्कालिक परिस्थितियों का बोध नहीं रहता । जब चेतना किसी बात पर मनन कर रही है, तब शरीर और जीवन चलाने की कमान अवचेतन मस्तिष्क के पास चली जाती है । यह हमारे दिमाग का वह हिस्सा है जो दूसरों की नकल करने से बना है। सम्मोहन से बना है । चेतन अवस्था में विचार करने वाले दिमाग को उन आदतों को बोध नहीं होता जो दूसरों की नकल से बना है ।
अब चंूकि हमारा आचरण ज्यादातर अवचेतन दिमाग से निर्धारित होता है, और अवचेतन दिमाग का ज्यादातर व्यवहार नकारात्मक और दुर्बल बनाने वाला माना गया है, तो हम बेसुधी में अपना नुकसान करते हैं । ऐसा काम करते हैंजो खुद हमें बरबाद करता   है । अपने अवचेतन दिमाग के  उत्पात से बेखबर हम अपने आपको परिस्थितियों के आगे मजबूर महसूस करते हैं। अपनी सारी कमियों या खोट का ठीकरा दूसरों के माथे फोड़ते हैं। कम उमर में विकसित अवचेतन दिमाग का हमारे जीवन पर असर बिलकुल हाल में समझ में आया हो, ऐसा नहीं है। कोई ५०० साल से ईसाईयों के जेसुइट पंथ में यह कहा जाता रहा है कि किसी भी बालक को हमें छह-सात साल की उमर तक के लिए दे दीजिए । फिर वह बड़ा होने के बाद जीवन भर चर्च का ही बना रहेगा । जेसुइट पादरियों के खोले स्कूल दुनिया भर में खूब चले हैं, भारत में भी । उन्हें पता था कि पहले सात साल में सिखाया गया ढर्रा किसी व्यक्ति की जीवन-राह तय कर सकता है । उस व्यक्ति की कामनाएं और इच्छाएं चाहे कुछ और भी हांे तो भी वह इस दौर को भूल नहीं पाता । दुनिया पर प्रभाव रखने वाली कई ताकतों को इसका पता था, किसी न किसी रूप में ।  
क्या यह मान लें कि नकारात्मक बातों से भरे हमारे इस अवचेतन दिमाग से हमें आजादी मिल ही नहीं सकती ? ऐसा नहीं है । इस तरह की आजादी की अनुभूति हर किसी को कभी न कभी जरूर होती है। इसका उदाहरण है प्रेम की मानसिक अवस्था । प्रेम में, स्नेह में अभिभूत व्यक्ति का स्वास्थ्य कुछ अलग चमकता हुआ दिखता है, उसमें ऊर्जा दिखती है । वैज्ञानिकों को हाल ही में पता चला है कि जो लोग रचनात्मक ढंग से सोचने की अवस्था में होते हैं, आनंद में रहते हैं, उनका चेतन दिमाग ९० प्रतिशत समय सजग रहता है । चेतना अवस्था में लिए निर्णय और हुए अनुभव किसी भी व्यक्ति की मनोकामनाओं और महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप होते हैं । तब दिमाग अपने अवचेतन के प्रतिबंधक ढर्रों पर बार-बार वापिस नहीं लौटता है । लेकिन यह रचनात्मक अवस्था सदा नहीं रहती । जल्दी ही अवचेतन कमान पर लौट आता है ।
दिमाग का अवचेतन भाग अगर नए भाव से, सकारात्मक आदतें चेतन हिस्से से सीख सके तो इस समस्या का समाधान निकल आए । ऐसा संभव है । इसके चार सिद्ध तरीके हैं: एक, सम्मोहन के द्वारा, जैसे कि सात साल की उमर के पहले अवचेतन दिमाग सबक सीखता है । दो, नई आदतें बार-बार दोहराने से, जो सात साल की उमर के बाद अवचेतन दिमाग का सीखने का एकमात्र सहज तरीका है । तीन, जब कोई व्यक्ति किसी घनघोर संकट से गुजरता है या कोई सदमा लगता है, तब अवचेतन नए सिरे से सबक सीखने लगता है, जैसे किसी दुर्घटना या किसी गंभीर बीमारी का होना या किसी प्रियजन की मृत्यु हो जाना । चार, आजकल कुछ ऐसी चिकित्सा पद्धतियां आई हैंजो अवचेतन पर ही काम करती हैं । इनमें से कुछ भारत और चीन जैसे देशों की पुरानी, परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों के  सहारे खड़ी हुई हैं । इनमें से एक का नाम है ' एनर्जी साएकॉलॉजी'।
'एपिजेनेटिक्स' अब उपचार के ऐसे तरीकों पर बल देती है जो नियति को बजाए समस्याओं के समाधान अपने आचरण, अपने मस्तिष्क में ढूंढ़ते हैं। यह आत्मसाक्षात्कार आत्मज्ञान के रास्ते की ओर इशारा करता है ।  

जैव विविधता
वन विखण्डन से नष्ट होती जैव विविधता
डेविड एडवर्डस्
जंगलों का विखण्डन वनविनाश जितना ही खतरनाक है। विशाल जंगलों के कटने और मानव आबादी के लगातार संपर्क में आने से जीवन वनसंपदा एवं जैवविविधता सभी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा    है । बढ़ती आबादी और आसमान छूता उपभोक्तावाद विखण्डन की आग में घी का कार्य कर रहे हैं ।
एक समय था जब पृथ्वी उप उत्तरध्रुवीय शीतवनों से लेकर अमेजन व कांगो बेसिन तक विशाल जंगलों से पटी पड़ी थी । जैसे जैसे मानव ने इस ग्रह के कोने-कोने में बसना शुरु किया वैसे-वैसे हमने खेत बनाने और शहर एवं कस्बे निर्मित करने के लिए बड़े क्षेत्रों के पेड़ काट डाले । जंगलों के नाश के जैवविविधता पर नाटकीय प्रभाव पड़े और आज यह हमारे अस्तित्व के संकट का प्राथमिक कारण बन गया है । 
मैं बोर्निया में काम करता था वहां पाम तेल रोपण हेतु बड़े क्षेत्र के उष्णकटिबन्धीय वन काट डाले गए । तकरीबन १५० जंगली चिड़ियाओं के स्थानापन्न के रूप में खेती से संबंधित कुछ प्रजातियों को वहां ले आया गया । अब जंगल सामान्यतया या तो भीतरी हिस्सों में या पाम रोपणी के किनारे ही दिखाई देते हैं । यह प्रक्रिया विश्वभर में दोहराई जा रही है । सांइस एडवांसेस में प्रकाशित नए शोध के अनुसार अब समस्या यह है कि बचे हुए अधिकांश जंगल विखण्डित या टुकड़ों-टुकड़ों में बट गए हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो बचे हुए जंगल रूपांतरित भूमि के विशाल आकार की वजह से तेजी से अन्य जंगलों से अलग होते जा रहे हैंऔर पाया जा रहा है कि उनका आकार लगातार छोटा होता जा रहा है। गौरतलब है कि यह वनविनाश या वन कटाई से भी ज्यादा खतरनाक  है ।
नार्थ केरोलिना स्टेट विश्वविद्यालय के निक हड्डाड की अगुवाई वाले समूह ने दुनिया के पहले वृक्ष आच्छादन हाई रिस्योलुशन सेटेलाइट नक्शे का इस्तेमाल यह मापने के लिये किया कि बचे हुए जंगल एक गैर वन सीमा से कितने पृथक हैं । यह स्थिति किनारे पर वन कटाई गतिविधियों की भरमार, सड़कों से लेकर पशुओं के चारागाह और तेल के कुओं के साथ ही साथ नदियों से पैदा हुई थी । उन्होंने पाया कि बचे हुए ७० प्रतिशत जंगल किनारों से महज १ किलोमीटर (०.६ मील) के अन्दर स्थित हैं । इतना ही नहीं किनारे से महज १०० मीटर टहलते हुए आप २० प्रतिशत वैश्विक जंगल में अपनी आमद दर्ज करा सकते हैं । यदि विभिन्न अंचलों की तुलना करें तो जो स्थिति पाई गई वह और भी अचंभित कर देने वाली थी । यूरोप और अमेरिका में अधिकांश जंगल किनारे से महज १ किलोमीटर की दूरी पर हैं । इन क्षेत्रों में सबसे ''दूरदराज'' स्थित वनों में मानव गतिविधि की बात करंे तो अब यह वन पत्थर फेंकने जितनी दूरी पर स्थित  हैं । ''इस सबसे बच पाना'' इतिहास में इससे पहले कभी भी इतना चुनौतीपूर्ण नहीं था । यदि आप बड़ी मात्रा में दूरदराज या दूरस्थ वनों को देखना चाहते हैं तो आपको अमेजन, कांगो या मध्य एवं सुदूर पूर्वी रूस, मध्य बोर्नियो और पापुआ न्यू गुयाना जाना पड़ेगा । 
जैव विविधता में कमी : यह खोजें उतनी चेतावनी भरी नहीं होती यदि वन्यजीवन, और जंगल जो कि कार्बन संग्रहण एवं पानी जैसी सेवाएं मनुष्यों को उपलब्ध कराते हैं वह वनों के खण्डित (छितरा जाने) से संकट में न पड़ी होती । लंबे समय तक हुए सतत् विखण्डनांे पर प्रयोग करने के बाद हड्डाड एवं उनके साथी बताते हैंकि इन विखण्डनों से जैवविविधता में ७० प्रतिशत तक की कमी आई    है । इससे ऐसी लाखों लाख वन प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा बढ़ता जा रहा है जिनके बारे में हम अभी भी बहुत कम जानते हैं । वन प्रजातियों को किनारे पर रह कर अपना अस्तित्व बचाए रखने में जबरदस्त संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि वे जहां जंगलों के भीतर रहते थे उसकी बनिस्बत यह क्षेत्र अधिक रोशनी वाले, ज्यादा चौड़े एवं गरम  हैं। यह किनारे अनियंत्रित बेलों से भर गए हैं और वहां पर अनेक परजीवी प्रजातियों ने अतिक्रमण कर लिया है जो कि गहरे जंगल में पाई जानी वाली प्रजातियों से बहुत ज्यादा हो गई हैं । उदाहरणार्थ के लिए बोर्नेओं में वनों के छोटे हिस्से में निवास कर रहा चिड़ियाओं का समुदाय बजाए विशाल जंगलों में रहने वाली चिड़ियाओं के पड़ौस के  पॉम वृक्षों में रहने वाले पक्षियों जैसा ज्यादा प्रतीत होता है ।
विशाल कार्बन समृद्ध वृक्षों का इस तरह के बनाए गए जंगल ईकोसिस्टम में बचे रहना बहुत कठिन होता जा रहा है । ये छोटे-छोटे पैबंद इन वृक्षों की व्यवहार्य संख्या बनाए रखने में सफल नहीं हो सकते और यह धीमे-धीमे विलुप्ति की ओर बढ़ते जाएंगे । वैश्विक जंगलों के  मनुष्य के अत्यंत समीप आ जाने चिंपाजी, गोरिल्ला आदि का शिकार हो रहा है और वे विलुप्ति के कगार पर पहुंच रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप बड़े जानवर उन हिस्सों में जा रहे हैंजो कि छोटी कभी प्रजातियों का रहवास हुआ करता था । इसके अलावा शिकारी भी किनारों से कई किलोमीटर भीतर तक खेल की तरह दौड़ कूद लगा रहे हैंजिससे कि जंगल अब काफी छोटे नजर आने लगे हैं । 
प्रबन्धन हेतु कठिन निर्णय : विखण्डन के कपटपूर्ण प्रभावों का अर्थ है कि अब हमें जंगल के  वातावरण को और अधिक बर्बाद होने या वहां अतिक्रमण न होने देने के लिए संरक्षण को सर्वोच्च् प्राथमिकता देनी होगी । इसे रोककर ही हम वैश्विक जंगल विखंडन और जैवविविधता की और अधिक हानि को रोक सकेंगे । परंतु हमें विखंडित क्षेत्रों की अवहेलना नहीं करना  चाहिए । इनमें से कुछ को जैसे ब्राजील का अटलांटिक वन, उष्णकटिबंधीय एंडेम व हिमालय में जैवविविधता की कमी, प्रजातियों पर संकट और भीषण विखंडन का जहरीला मिश्रण झेलना पड़ रहा है । अनेक विलुप्त प्राय प्रजातियां अत्यंत छोटे क्षेत्र में सिमट कर रह गयी हैं । कई जगह तो यह विखंडन चारागाहों और सड़कांे की वजह से हुआ है । यदि हमें इन्हें विलुप्ति से बचाना है तो आवश्यक है कि विशाल विखण्डित क्षेत्रों के मध्य जुड़ाव स्थापित किया जाए एवं वन आच्छादन को पुन: स्थापित किया जाए । 
हालांकि मनुष्य के लालच एवं मांस भक्षण के तेजी से बढ़ने की वजह से इस बात की पूरी संभावना है कि अभी और जंगल नष्ट हांेगे ।  खेती की उपज और उत्पादकता दोनों बढ़ा भी ली जाती हैंतो भी वर्तमान व भविष्य की मांग में अंतर तो बना ही रहेगा । यह कठिन प्रश्न अभी भी अनुारित है कि यह विस्तार कहां पर होगा । छोटे और विखण्डित जंगलों के गिरते स्तर को रोकने से भी इस संकट से निपटने में कुछ सहायता अवश्य मिल सकती है । यह सच है कि विखण्डन की समस्याओं का कोई सरल उत्तर नहीं है । परंतु जंगलों को वैश्विक प्रबंधन योजना की तत्काल सख्त आवश्यकता है ।

सामाजिक पर्यावरण
विकास की बली चढ़ते प्राकृतिक संसाधन
डॉ. अवध प्रसाद 
राज्य(सरकारें) समाजहित और विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों पर अपना एकाधिकार स्थापित कर चुकी है । लेकिन विडंबना यह है कि इन संसाधनों का लाभ कंपनियां और पूंजीपति उठा रहे हैंऔर आम नागरिक एवं इन संसाधनों पर अरक्षित आदिवासी समाज स्थापित हो रहा है। भूमि अधिग्रहण अधिनियम २०१३ में परिवर्तन हेतु दूसरी बात अध्यादेश जारी हो गया है ।
प्राकृतिक संसाधन (धरती, जल, हवा, खनिज आदि) मानव निर्मित नहीं हैं । लेकिन मानव सहित अन्य प्राणी अपनी जीविका एवं जीवन के लिये प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते हैं । उपयोेेेग की यह व्यवस्था आदिकाल से चली आ रही है। मनुष्य ऐसा प्राणी है जो इन संसाधनों का उपयोग केवल जीविका के लिये ही नहीं करता बल्कि इसका असीमित शोषण, दोहन अपने स्वार्थ एवं असीमित इच्छा के लिये करता   है । इस इच्छा की पूर्ति के लिये उस पर अधिकार व स्वामित्व स्थापित करता है । 
सार रूप में कहेंतो जमींदार, राजा, राज्य आदि की व्यवस्था इसी के विभिन्न रूप हैं । समाज व्यवस्था में परिर्वतन के साथ साथ प्राकृतिक संसाधनों के  ''स्वामित्व'' के स्वरूप में भी बदलाव आता गया । इस प्रश्न को यहीं छोड़ते हुए आज की स्थिति को देखें तो हम पाते हैंकि प्राकृतिक संसाधनों पर राज्य (सरकार) अपना अधिकार मानता है । परन्तु व्यवहार में इसका उपयोग करने वालों की स्थिति भिन्न है । अपने देश में खेती की जमीन पर किसान खेती करता है और उस पर उसका अधिकार माना जाता है । वन क्षेत्र के निवासियों का जमीन एवं वन पर अधिकार रहा है और उसी का अधिकार है, ऐसी व्यवस्था रही है । 
विकास की गति ने इस प्राकृतिक एवं परम्परागत व्यवस्था को बदल दिया है । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि राज्य (सरकार) सभी प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जताकर स्वंय को उसका स्वामी मानने लगा । इस बात को स्वीकार करते हुये राज्य ''समाज के हित'' एवं विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार एवं उपयोग के कानून बनाता है । पिछले कुछ वर्षोंा में राज्य (सरकार) की ओर से अनेक ऐसे कानून बने एवं वर्तमान मेें भी बनाने के प्रयास हो रहे हैंजिससे किसान, खेती की जमीन, वन वनवासी की जीविका और सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन प्रभावित होता है ।  
भूमि अधिग्रहण कानून, सबसे पहले सन् १८९४ में ब्रिटिश सरकार द्वारा उस समय की परिस्थिति एवं सरकार की सोच के अनुसार बने थे । पिछले वर्षोंा में (२०१३ में) पुराने कानून में दो वर्ष तक व्यापक विचार विमर्श एवं आंदोलन को ध्यान में रखते हुये कानून में संशोधन किया गया । इस कानून में वन क्षेत्र वन में रहने वालों को अधिकार देने के साथ साथ जिसकी जमीन है उसकी स्वीकृति, अदालत में जाने की छूट, खाद्य सुरक्षा (खेती), अधिग्रहण का प्रभाव आदि मुद्दे शामिल किये गये । इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होने के बाद वह कानून बना था ।
पिछले आमचुनाव के बाद एनडीए की नयी सरकार बनी और उसने वर्ष २०१३ में स्वीकृत भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करने का निर्णय लिया । सरकार ने संशोधन को इतना आवश्यक समझा कि अध्यादेश के माध्यम से संशोधन को लागू कर दिया । यह कार्य इस विश्वास से किया कि इसे उसी रूप में दोनों सदनों में स्वीकृत करा लिया जायगा । मंत्री एवं प्रधानमंत्री ने इसे किसान एवं समाज हित में बताया तथा लाभकारी कहा, इस संशोधनोे के  कुछ लाभ भी गिनाये । परंतु पूरे देश में नये कानून का विरोध चल रहा   है । सामाजिक संस्थायें, किसान संगठन, जागरूक नागरिक एवं राजनैतिक दल अपने अपने स्तर पर इसका विरोध कर रहे हैं । परिणामस्वरूप अभी तक नया कानून लोकसभा में पारित हो जाने के  बावजूद राज्यसभा में प्रस्तुत नहीं किया जा सका है । सत्ता पक्ष इसके लाभों के बारे में योजनाबद्ध तरीके  से जानकारी दे रहा है । 
इस सम्बन्ध में ''जनसत्ता'' के सम्पादक की टिप्पणी को याद करना (जनसत्ता ६ मई २०१५) उचित होगा । सम्पादक का कहना है कि सन् २०१३ के भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने की मांग किसानों की तरफ से नहीं आयी थी । यह मांग कंपनियोंकी तरफ से आई थी । प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि किसानों की राय ली जायगी । पर ऐसा कुछ नहीं हुआ । इस प्रकार सामाजिक प्रभाव आकंलन पर भी विचार नहीं किया गया । अन्ना हजारे इस बिल को किसानों को भ्रमित करने वाला मानते हैं । सामाजिक संस्थायें एवं व्यक्ति भी नये कानून में व्यापक संशोधन आवश्यक मानते हैं । उपरोक्त संदर्भ का ध्यान में रखते हुये कुछ विचारणीय मुद्दे सामने आते हैं जिनका उल्लेख समाचार पत्रों में भी पढ़ने में आये हैं । उनमें से कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं । 
* जिसकी जमीन का अधिग्रहण किया जाता है उससे स्वीकृति लेने का प्रावधान नहीं है । 
* अधिग्रहण की गयी जमीन के विरुद्ध न्यायालय में नहीं जाया जा सकता है । 
* सरकार समाजहित में जमीन का अधिग्रहण कर सकती   है । परंतु कौन सा काम ''समाजहित'' मंे है इसका विवरण नहीं दिया गया है । 
* कृषि भूमि का भी अधिग्रहण किया जायगा । इससे उत्पादन प्रभावित होगा । 
* कोरिडोर परियोजना में सड़क के दोनों ओर १-१कि.मी. जमीन औद्योगिक उपयोग के लिये अधिग्रहित की जा सकेगी । इससे खेती की जमीन एवं गांव का बसावट प्रभावित होगी । पैदावार घटेगी और विस्थापन बढ़ेगा । 
* अधिग्रहण के सामाजिक प्रभाव का आकलन महत्वपूर्ण है, कानून में इस प्रावधान को नहीं रखा गया है ।
*''सामाजिक प्रभाव आकलन'' नहीं होने, कृषि भूमि का अधिग्रहण करने आदि कारणों से युवा बेरोजगारी बढेगी । औद्योगिक क्षेत्र में ग्रामीण युवक कम पढ़े युवकों की अपेक्षा पूरी नहीं होने की स्थिति बनने की संभावना है। विस्थापन की समस्या बढ़ने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है । 
* इसका व्यावहारिक परिणाम बड़ी कंपनियों का हित (लाभ) एवं ग्रामीणों, छोटे एवं गृह उद्योगों का अहित होगा जिससे आज भी ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार एवं आय प्राप्त होती है । 

पर्यावरण परिक्रमा
गंगा के प्रदूषण पर डिजिटल ऐप रखेगा नजर 
गंगा को प्रदूषित करने वालों पर अब एक अत्याधुनिक डिजिटल ऐप नजर रखेगा । उच्च् पदस्थ सूत्रों ने बताया कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के सहयोग से अत्याधुनिक प्रौघोगिक पर आधारित एक ऐसा ऐप तैयार किया गया है जिसका इस्तेमाल उन लोगों के खिलाफ किया जा सकेगा जिनकी आदतों में गंगा को प्रदूषित करना शुमार हो चुका है । 
गंगा किनारे बसे शहरों के लोग गंगा में कूड़ा-कचरा बहाने वाले औघोगिक समूहों, गंगा को दूषित करने की आदत से मजबूर व्यक्तियों और प्रदूषण के अन्य स्त्रोंतों की तस्वीरें लेकर नए ऐप पर पोस्ट कर सकेंगे जिसके आधार पर उनके खिलाफ कार्यवाही की जा सकेगी । 
इस ऐप की खासियत है कि इस पर यदि कोई तस्वीर डाली जाती है, तो उपग्रह प्रणाली के जरिये उसकी वास्तविक स्थिति एवं जगह की सही जानकारी मिल जाएगी और मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी नमामि गंगे परियोजना से जुड़े अधिकारी यथाशीघ्र इस पर कार्यवाही कर सकेंगे । प्रदूषित स्थान की तस्वीर अपलोड हो जाने के बाद इसे किसी भी प्रकार से हटाया ही नहीं जा सकता है, इसकी वास्तविक जानकारी, जैसे - स्थान, तारीख और समय तक का पता भी चल जाएगा । 
इस ऐप का इस्तेमाल शुरू हो जाने पर गंगा के उद्गम स्थल से लेकर इसके बंगाल की खाड़ी में गिरने तक के पूरी नदी का प्रदूषण निगरानी कार्यक्रम कागजों के बजाय भौगोलिक सूचना प्रणाली पर आधारित डिजिटल प्लेटफॉर्म पर पहुंंच जाएगा । गंगा पुनरूद्धार योजना से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि यह ऐप भविष्य की कार्य योजनाएं तैयार करने के अलावा इस महत्वाकांक्षी परियोजना से जुड़े कार्यो की निगरानी में भी मदद करेगा । 
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्रीमंडल ने एक पखवाड़े पहले नमामि गंगे के लिए पांच साल के लिए २० हजार करोड़ रूपये देने का फैसला किया है । यह राशि इस परियोजना के लिए गत वर्ष जुलाई में मंजूर २३०७ करोड़ रूपये से अलग है । मंत्रिमंडल की ओर से जिस राशि को मंजूरी दी गई है, वह बहुत ही महत्वपूर्ण है । आंकड़े बताते है कि यह राशि पिछले तीन दशक से गंगा की सफाई के लिए आवंटित राशि से पंाच गुना अधिक है । 
प्लास्टिक से बने डीजल से दौड़ेगी रेल 
वह दिन दूर नहीं जब रेलवे स्टेशनों पर फेंकी गई प्लास्टिक की बोतलों, कपों तथा अन्य पैकेजिंग पदार्थोंा से डीजल बनने लगेगा और उससे डीजल इंजन चलने लगेंगे । 
वैज्ञानिक एवं औघोगिक अनुसंधान केन्द्र (सी.एसआईआर) के तहत स्थापित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पेट्रोलियम (आईआईपी), देहरादून के साथ मिलकर रेलवे प्रतिदिन एक टन से प्लास्टिक कूड़े से डीजल बनाने की क्षमता वाला प्लांट लगाने की योजना बना रही है । प्रायोगिक तौर पर लगाए जाने वाले यह प्लांट यदि आर्थिक रूप से सफल रहा तो इनकी संख्या बढ़ाई भी जा सकती है । 
आईआईपी के अनुसार, इस सिलसिले में तीन बैठकें हो चुकी हैं और आगामी दिनों एक और बैठक होने वाली है । संभवत: यह प्लांट दिल्ली, मुम्बई या जयपुर में से किसी एक जगह लगाया जा सकता है । स्थान का चयन करते समय यह देखना होगा कि वहां स्टेशन से प्रतिदिन एक टन प्लास्टिक कूड़ा निकलता हो । 
आईआईपी ने ऐसी खास तकनीक विकसित की है जिससे प्लास्टिक से यूरो-४ मानक का डीजल बनाया जा सकता है । डीजल की अच्छी गुणवत्ता के लिए आईआईपी विशेष प्रकार के उत्प्रेरक का इस्तेमाल करता है और यही उसकी खासियत है । 
प्लास्टिक से डीजल बनाने के दौरान उत्पाद के रूप मेंजो निकलती है उसका इस्तेमाल प्लांट के संचालन की ऊर्जा जरूरतोंके लिए कर लिया जाता है । नियमों के तहत इस तरह से बने डीजल की खुले बाजार मेंबिक्री नहीं की जा सकेगी । 
यूरोप-अमेरिका में अधिक कार्बन उत्सर्जन 
धरती के बढ़ते तापमान के लिए जिम्मेदार कार्बन डाईआक्साइड गैसोंके उत्सर्जन के मामले में भारत भले ही चीन और अमेरिका के बाद तीसरे स्थान पर हो लेकिन जनसंख्या के अनुपात के लिहाज से वह इस मामले मेंकई देशों से काफी पीछे    है ।
ब्रिटिश पेट्रोलियम की ओर से वर्ल्ड एनर्जी पर जारी ताजा रिपोर्ट के अनुसार एक भारतीय नागरिक की तुलना में ब्रिटेन, जर्मनी, कनाडा और अमेरिका के नागरिक पांच से १२ गुना अधिक कार्बन उत्सर्जन करते हैं जबकि दुनिया की कुल आबादी का छठवां हिस्सा समेटे भारत प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में २०वें स्थान पर है । भारत सालाना १.९३ अरब टन कार्बन उत्सर्जन करता है जबकि जापान महज १२ करोड़ ७० लाख आबादी के साथ १.४ टन कार्बन उत्सर्जन कर रहा है । इस लिहाज से एक जापानी नागरिक भारतीय नागरिक की तुलना में सात गुना अधिक कार्बन उत्सर्जन कर रहा है । 
इसी तरह दुनिया की एक चौथाई से भी कम आबादी वाले देश चीन और अमेरिका वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में ४४ प्रतिशत का योगदान कर रहे है जबकि रूस और यूरोपीय देश इसमें २० प्रतिशत का योगदान कर रहे हैं । इसमें भारत का योगदान महज ५.५ प्रतिशत है । ये आंकड़े इस बात का प्रमाण है कि ग्रीन हाउस गैसों का सबसे ज्यादा उत्सर्जन चीन तथा कई विकसित देशों की ओर से हो रहा है।
भारत के साथ विवशता यह है कि देश की एक चौथाई आबादी के पास अभी भी बिजली की पहुंच नहीं है । ईधन और ऊर्जा के लिए कोयले पर उसकी सर्वाधिक निर्भरता है । घरेलू कामकाज के साथ ही कल कारखानोंमें भी कोयला ही मुख्य रूप से इस्तेमाल होता है । तेल और प्राकृतिक गैस की अपेक्षा कोयला सस्ता पड़ता है । यह भी इसके बढ़ते इस्तेमाल की एक मुख्य वजह है । भारत एक तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था है । ऐसे मे औघोगिक गतिविधियां लगातार बढ़ रही है जिसके लिए बिजली चाहिए । बिजली उत्पादन के लिए ईधन की दरकार   है । कोयला इसका सबसे बड़ा स्त्रोत बना हुआ है । यही वजह है कि भारत दुनिया में कोयले की खपत वाला तीसरा बड़ा देश बन चुका है । पर्यावरण विशेषज्ञ भारत में कोयले के इस कदर इस्तेमाल को लेकर चितिंत है । उनका मानना है कि कोयले पर यह निर्भरता यदि इसी तरह बनी रही तो पर्यावरण को इससे बड़ा नुकसान होगा । 
डाल्फिन का अस्तित्व संकट में 
डाल्फिन को भले ही राष्ट्रीय जलीय जीव का दर्जा मिला हो लेकिन देश में इसी संख्या निराश करने वाली है । गंगा का वाहक समझे जाने वाले इस जलचर की संख्या पूरे विश्व में अब दो हजार ही रह गई है जबकि भारत में इसकी संख्या मात्र चार सौ से कुछ ज्यादा है । सरकारी आंकड़ों के अनुसार चम्बल में ७८, यमुना में ४७, बेतवा में ५, केन में १०, सोन नदी में ९, गंगा में ३५ तथा घाघरा में २९५ है । इस तरह कुल ४७९ डाल्फिन ही भारत में बची है । 
खासकर उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश की सीमा रेखा की चीरती विश्व की सबसे स्वच्छ नदियों में शुमार की जाने वाली चम्बल नदी में डाल्फिन का अस्तित्व खतरे में है । इस जलचर को बचाने की पहल करते हुए वर्ष २००९ में तत्काली प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया   था । इसके पीछे यह मंशा थी कि डाल्फिन के अस्तित्व को बचाया जा सके, लेकिन मौजूदा हालातों को देखते हुए ऐसा नहीं लगता की डाल्फिन को संकट से बचाया जा सकेगा । नदियों के प्रदूषण ने इसके जीवन का सबसे बड़ा खतरा पैदा किया है । इसके अलावा शिकारियों ने भी इस पर गिद्ध दृष्टि जमा रखी है । यही कारण है कि इनकी संख्या में लगातार कमी होती जा रही है । 
वन विभाग के अधिकारी भी मानते है कि हर वर्ष सैकड़ों डाल्फिन विभिन्न कारणों से दम तोड़ रही है लेकिन इन्हें बचाने के कारगर उपाय नहीं किए गए है । डाल्फिन यूं तो देश की विभिन्न नदियों ब्रह्मपुत्र, मेघना समेत गंगा की सहायक नदियों के अलावा नेपाल और बंगला देश में भी पाई जाती है । इसकी संख्या में गिरावट को देखते हुए इसके संरक्षण एवं प्रजनन के लिए ९६० किलोमीटर लम्बी चम्बल नदी के ४२५ किलोमीटर क्षेत्र मध्यप्रदेश से लेकर उत्तरप्रदेश के पचनंद तक के क्षेत्र को राष्ट्रीय सेंचुरी क्षेत्र घोषित किया गया था । 
हालांकि इस सेंचुरी क्षेत्र में डाल्फिन के साथ घड़ियाल, कछुए और मगरमच्छ भी है लेकिन सेंचुरी क्षेत्र में पानी की कमी के चलते डीप पुल सिमटता जा रहा है जिससे अन्य जलीय जीवों के साथ-साथ सबसे ज्यादा डाल्फिन के अस्तित्व को खतरा बढ़ता जा रहा है । जानकारों के अनुसार चम्बल नदी में स्थापित चार बांधों ने इसकी धारा को कुन्द कर दिया है । रेत की सिल्ट डीप पुलों के लिए बाधक साबित हो रही है । उथली नदी में पानी की कमी के चलते जलीय जीवों की जान पर खतरे के बादल मंडराने लगे है ।

विशेष रिपोर्ट
हिमालय के बचने पर ही बहेगी गंगा
कुमार कृष्णन
हिमालय तथा खुद को  बचाने की चुनौती आज दक्षिण एशिया व दुनिया के सामने है। हिमालय के लोगों को अपने जीवनयापन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जल, जंगल, जमीन पर अधिकार पाने के संघर्ष करने पड़ रहें हैं । 
हिमालय सदियों से मैदानों, नदियों तथा समृद्ध मानव समाजों का निर्माणकर्ता और रक्षक रहा है । भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के १६.३ प्रतिशत क्षेत्र में फैले हिमालयी क्षेत्र को समृद्ध जल टैंक माना जाता है । इसमें ४५.२ प्रतिशत भू-भाग में घने जंगल हैं । हिमालय के भारतीय हिस्से में देश के ११ छोटे राज्य हैं । वाबजूद इसके हिमालय के सवाल संसद में नहीं गूंजते ।
आज प्राकृतिक संसाधन लोेगांे के हाथ से खिसक रहे हैं, नदियों मेंं जल की मात्रा पिछले ५० वर्षो में आधी रह गई है और हिमालय ग्लेशियर प्रति वर्ष १८-२० मीटर पीछे हट रहे हैं । इसके अलावा हिमालय आपदाओं का घर बनता जा रहा है । जल विद्युत परियोजनाओं से लेकर सड़कों को चौड़ा बनाने व तेजी से बढ़ता पर्यटकों का आवागमन भी चुनौतिया है । बाढ़-भूस्खलन के साथ ही भूकंप के  खतरे भी बढ़ रहे हैं । केन्द्र सरकार गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए काफी उत्साहित नजर आती है लेकिन मैदानी क्षेत्रों को मिट्टी, पानी, हवा प्रदान करने वाले हिमालय के बिना गंगा का अस्तित्व संभव नहीं  है । ग्लेशियरों, पर्वतों, नदियों व जैविक विविधताओं की दृष्टि से संपन्न हिमालय पर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए, वह नहीं दिया जा रहा है । याद रखिए गंगा बचाओ का नारा हिमालय बचाओ के बिना अधूरा है । 
हमारे देश में हिमालय को लेकर कोई नीति नहीं है । उसे आज योजनाएं नहीं, एक समग्र नीति चाहिए । एक ऐसी नीति, जो हिमालय व उससे जुड़े देश के पर्यावरण के बारे में तो सोचे साथ ही हिमालय क्षेत्र में रहने वाले लोगों की समृद्धि का रास्ता भी इसी पर्यावरण से जोड़कर निकाले । हिमालय में खासकर उत्तराखंड में चिपको, रक्षासूत्र आंदोलनों और बड़े बांधों के  विरोध के बाद हिमालय विकास के पृथक मॉडल पर बहस चल रही है । इसी संदर्भ में गांधी शांति प्रतिष्ठान में सुप्रसिद्ध समाजसेवी राधा भटट की अध्यक्षता में हिमालय नीति के संदर्भ में एक मंथन हुआ । मंथन के बाद सांसदों के नाम खुला पत्र जारी करने, हिमालय लोक नीति का मसौदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सौंपने संबधित राज्यों में हिमालय के विषय पर संवाद करने तथा उत्तर पूर्व पश्चिम हिमालय में बैठक करने के अलावा हिमालय नीति के सवाल पर जम्मू कश्मीर से नागालैंड तक यात्रा करने व सक्रिय संगठनों के साथ संवाद करने के फैसले लिए गए । 
सम्मलेन में सुश्री राधा भटट ने कहा कि हिमालय के सवाल महत्वपूर्ण हैं । गंगा के संदर्भ में सबकी चिंता है, लेकिन हिमालय के बारे में चिंता नहीं दिख रही है । हर साल ग्लेशियर १९ से २० मीटर पीछे हट रहा है, यह चेतावनी है, इसे नीति निर्धारकों को गहराई से समझाना होगा । मैदानी भाग के विकास में हिमालय का अह्म योगदान है। मौजूदा भूमि अधिग्रहण बिल के संदर्भ मे उन्हांेने कहा कि यदि यह लागू हुआ तो क्या देश बचेगा ? हिमालय को लेकर पूरे उत्तर भारत के लोगों को एकजुट होना होगा । 
हिमालय के सवाल पर गंगोत्री से गंगासागर तक की यात्रा के अनुभवों को साझा करते हुए यात्रा के संयोजक एवं पर्यावरणविद् सुरेश भाई ने कहा कि यात्रा के दौरान ४५ से अधिक स्थानों पर बैठक तथा संगोष्ठियों के माध्यम से जनसंवाद किया गया । इस दौरान २००० से अधिक लोगों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को हिमालय नीति अभियान के समर्थन में पत्र भेजे । उन्हांेने कहा कि सरकारें गंगा और हिमालय के सवाल पर अपनी संवेदना तो दिखा रही हैं,  लेकिन गंगा के तट पर रहने वाले लोगों के साथ संवाद स्थापित नहीं किया गया है । 
पत्रकार भारत डोेगरा ने सरकार की विकास नीति पर सवाल उठाते हुए कहा कि विकास योजनाओं से फायदा कम और नुकसान ज्यादा हो रहा है । गांव की योजना गांव में बने, वैकल्पिक ऊर्जा का विकास हो और यह सुनिश्चित किया जाए कि पर्यावरण और खेती को नुकसान नहीं पहुंचे । उन्होंने कहा कि पहाड़ों को जो नुकसान हो रहा है, उसका प्रतिकूल असर मैदानी क्षेत्रों पर भी पड़ रहा है। विकास का सही मतलब टिकाऊ विकास के साथ-साथ सुरक्षा की बुनियाद भी होनी चाहिए ।
वरिष्ठ पत्रकार प्रसून लतांत ने कहा कि अब एक मंच से विस्थापन, गंगा, हिमालय और प्राकृतिक संसाधनों को छीने जाने के विरोध में लड़ाई लड़नी होगी । बड़ी ताकत से ही सरकार को झुकाया जा सकता है । इंडिया वाटर पोर्टल् के सिराज केसर ने कहा कि नई सरकार को लेकर महत्वपूर्ण सवाल है कि उसकी विकास नीति किसके लिए   है । सर्व सेवा संघ, राजघाट वाराणसी से आए अशोक भारत ने हिमालय को लेकर की गई यात्रा के बरेली और वाराणसी के अनुभवों को साझा किया । उन्होंने अभियान को तेज करने के साथ-साथ पूरे मामले को नीति आयोग के समक्ष रखने की आवश्यकता बतायी । 
झारखंड से आए अरविंद अंजुम ने कहा कि पहाड़ यदि स्वस्थ हैं तो वह मैदानी हिस्से की संपत्ति है । प्रमोद चावला ने कहा कि अभियान में संचार की नई तकनीक का इस्तेमाल किया जाना चाहिए । देहरादून से आए प्रेम पंचोली ने अभियान की मजूबती के लिए अन्य संगठनों से बात करने की आवश्यकता बतायी । ऑक्सफेम इंडिया के श्रीयश त्रिपाठी ने हिमालय नीति के जनमसौदे को लागू करने के लिए राजनीतिक अभियान सांसदों को जोड़कर चलाने का सुझाव दिया । बंगलौर से आए इ.पी मेनन ने रचनात्मक  विरोध के लिए युवाओं को प्रशिक्षित करने की बात कही । सर्वोदय समाज सम्मेलन के  संयोजक आदित्य पटनायक ने कहा कि हिमालय बचेगा तो देश बचेगा, इस सत्य से लोगों को वाकिफ कराना होगा । विश्वजीत गोरई ने उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में हो रहे उत्खनन के खतरों से वाकिफ  कराया । 
ग्रीनपीस से आई विपासा ने आंदोलन को सामाजिक आंदोलन बनाकर सरकार पर दवाब बनाने की बात कही । प्रवीण भटट ने कहा कि हिमालय की आवाज प्रधानमंत्री तक कैसे पहुंचे, इस पर एक समन्वित रणनीति तय होनी चाहिए । सर्वसेवा संघ के मनोज पांडेय ने पूरे देश में एक साथ अभियान चलाने की आवश्यकता बतायी । जर्मनी से आई करीना होमेल ने जनजातीय समुदाय की स्थिति के संदर्भ में बताया । सर्वश्री राजेन्द्र सिंह, मेरठ  से आए मेजर डॉ. हिमांशु, पंकज कुमार, त्रिभुवन नारायण सिंंह, पश्चिम बंगाल से सौमित्री देवी, अमुलिका पॉल, काकाली जान्हें, हिमंाशु डंगवाल ,राज रावत, गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव सुरेन्द्र कुमार, के.एल. बंगोत्रा, संदीप ने भी बहस से हिस्सा लिया । 
गौरतलब है गंगा में मिलनेवाली अधिकांश सहायक नदियां हिमालय से ही आती हैं । इसमें निरंतर पानी की कमी, प्रदूषण और गंगा घाटांे पर अतिक्रमण, खनन व गंगा घाटो पर बराज निर्माण आदि ने हिमालय के उद्गम से लेकर गंगासागर तक संकट खड़ा कर रखा है । हिमालयी सुनामी लंबे समय से मैदानी क्षेत्रों मंे तबाही का कारण बन रही है और मैदानों में गंगा मैला ढ़ोनेवाली मालवाहक बन गई है । इन स्थितियों के बावजूद गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए कोई संवाद अब तक नहीं शुरु किया गया है ।

ज्ञान-विज्ञान
मलेरिया हो, तो मच्छर आकर्षित होते हैं
एक ताजा अनुसंंधान से पता चला है कि जब किसी के शरीर में मलेरिया परजीवी होते हैं, तो वह व्यक्ति मच्छरों को ज्यादा आकर्षक लगने लगता है और वे उसे काटने को दौड़े चले आते हैं । वॉशिंगटन विश्वविघालय की ऑड्री ओडोम और उनके साथियों ने अपने शोध पत्र में बताया कि मनुष्य के शरीर में पहुंचकर मलेरिया परजीवी (प्लाज्मोडियम) कुछ ऐसे रसायन बनाता है जो मच्छरोंको आकर्षित करते हैं । 
यह तो सर्वविदित है कि मादा मच्छरों को अंडो की परिपक्वता के लिए प्रोटीन समृद्ध खून की आवश्यकता होती है । अपने सामान्य भोजन के लिए नर और मादा दोनोंतरह के मच्छर फूलों के रस पर निर्भर होते है और उनमें कुछ फूलों से निकलने वाले रसायनों के प्रति आकर्षण पाया गया है । सुश्री ओडोम देखना चाहती थी कि क्या इस तरह के मच्छर आकर्षक रसायन मलेरिया  संक्रमित व्यक्ति के शरीर से भी निकलते हैं । 
मनुष्यों की ओर मच्छरों के आकर्षण के कुछ कारक तो पहले से पता है । जैसे हमारी सांस से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड उन्हें आकर्षित करती है । मगर हाल के अध्ययनों से पता चला था कि मच्छर मलेरिया संक्रमित व्यक्तियों की ओर ज्यादा आकर्षित होते है । क्यों ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि मलेरिया परजीवी जब व्यक्ति के खून में होता है तो वह कुछ वाष्पशील रसायन छोड़ता है जो व्यक्ति के शरीर से पसीने के साथ बाहर आते हैं और मच्छरों को आकर्षित करते हैं । परजीवी के लिए फायदा यह है कि यदि मच्छर उस व्यक्ति को काटेगा तो परजीवी उस मच्छर में प्रवेश कर जाएंगे जो उनका जीवन चक्र पूरा होने के लिए जरूरी है ?
सबसे पहले तो सुश्री ओडोम के दल ने देखा कि मलेरिया परजीवी की कोशिका में एक ऐसा उपांग पाया जाता है जो वनस्पति कोशिकाआें के एक उपांग (प्लास्मिड) जैसा है । इन शोधकर्ताआें ने मलेरिया परजीवी को प्रयोगशाला में पनपाया और उनके द्वारा बनाए गए रसायनों का विश्लेषण किया । इन रसायनों का प्रोफाइल लगभग वैसा ही पाया गया जैसा कि मच्छरों को आकर्षित करने वाले फूलोंका होता है । 
इसके बाद उन्होनें रसायनों का यह मिश्रण कुछ चूहों के शरीर में डाल दिया । ऐसा करने पर मच्छर इनकी ओर अन्य चूहों की अपेक्षा ज्यादा आकर्षित होने लगे । 
जीवजगत का यह एक मजेदार अध्याय है । परजीवी अपने मेजबान के व्यवहार या शरीर क्रिया में ऐसा परिवर्तन कर देते है कि उन्हें नए मेजबान तक पहुंचने में मदद मिले । वैसे ओडोम का मत है कि उनकी यह खोज मच्छरों से बचाव के नए हथियार उपलब्ध करा सकती है। 

हडि्डयों को मजबूत बनाता है, दूध और दही 
भारत में तो बरसों से दूध-दही का सेवन लोग करते आ रहे हैं। उनकी हडि्डयां भी मजबूत हुआ करती थी । अब अमेरिका के हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के तहत एक शोध में यह बात साफ हो गई है कि दूध-दही के सेवन से हिप बोन और अन्य हडि्डयां मजबूत रहती है, बनिस्बत क्रीम के । 
कम फेट वाला दूध और दही शरीर में प्रोटीन, कैल्शियम और विटामीन डी की मात्रा बढ़ाता है । साथ ही सैचुरेटेड फेट की मात्र सीमित करता है । हार्वर्ड से संबंद्ध इंस्टीट्यूट फॉर एजिंग रिसर्च की शिवानी सहानी इस अध्ययन की सहभागी है । हिप बोन में फ्रेक्चर के बाद एक चौथाई लोगों की लगभग एक साल में ही मौत हो जाती है । कोई ३.४ करोड़ अमेरिकियों में लो उेनसिटी बोन की प्रॉब्लम्स है । इसकी वजह से आस्टियोपोरोसिस और फे्रक्चर की शिकायतें आम हो जाती है । खासकर हिप बोन, स्पाइन या रिस्ट में । डेयरी उत्पाद से हमें कई महत्वपूर्ण न्यूट्रिएंटस मिलते हैं, जो हडि्यों को स्वस्थ रखते हैं । मरक्यूलो स्कलेटन रिसर्च टीम की सहयोगी सुश्री साहनी ने जर्नल आर्काइव्ज ऑफ आस्टियोपोरोसिस में उक्त निष्कर्ष प्रकाशित किए है । 
क्रीम में पोषक तत्वों की कमी
क्रीमऔर इसके उत्पाद जैसे आइस्क्रीम में इन पोषक तत्वों की कमी होती है । साथ ही फेट और शुगर का स्तर ज्यादा होता है । इस अध्ययन में दूध-दही का नियमित सेवन करने वाले जिन लोगों को शरीक किया गया था, उनमें बोन  डेनसिटी बेहतर पाई गई । उनका कहना है कि चीज को लेकर अभी और शोध की आवश्यकता है । इस शोध में शामिल ३२१२ भागीदारों से प्रश्नावली और उनके भोजन की स्थिति के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया । 

बगैर ड्रायवर का ट्रक
वैसे तो चालक रहित वाहन आजकल कई कामों में इस्तेमाल हो रहे हैं मगर अब जो योजना प्रस्तुत हुई है वह इन सबसे ज्यादा महत्वाकांक्षी है । इसके तहत ऐसे ट्रक विकसित करने का विचार है जो आम सड़कों पर भी ड्रायवर के बगैर दौड़ सकेंगे । इस ट्रक को नाम दिया गया है इंस्पाइरेशन। 
पिछले कुछ वर्षो में चालक-रहित वाहनों ने कई कंपनियों में जगह बना ली है । खास तौर से इनका उपयोग ऐसे स्थानों पर हो रहा है जहां लोगों की और अन्य वाहनों की आवाजाही कम होती है । जैसे खनन कंपनी रियो टिटो अपनी खदानों से लौह अयस्क को ढोने के लिए चालक-रहित ट्रकों का इस्तेमाल कर रही है । कुछ खेतों में आजकल चालक रहित हार्वेस्टर्स का उपयोग भी हो रहा है। और तो और अमरीकी फौज ऐसे वाहन के विकास मे लगी है जो युद्ध के मैदान में चालक के बगैर चल सके । 
मगर इंस्पाइरेशन की तो बात ही कुछ और है । यह तो आम सड़कों पर बाकी सामान्य वाहनों के साथ ही चलेगा । इसे नेवाडा के हाइवे पर परीक्षण की अनुमति भी मिल गई   है । जाहिर है, चालक-रहित गाडियों में कई फायदे हैं । एक तो ये ज्यादा सुरक्षित होगी, नियमों की अनदेखी नहीं करेगी और ड्रायवर के थकने की कोई चिंता नहीं रहेगी । कहते हैं कि यदि ऐसे ट्रकों को एक कारवां के रूप में चलाया जाए, तो ईधन की बचत भी होगी क्योंकि हवा के प्रतिरोध का सामना सिर्फ आगे वाले ट्रक को करना होगा । 
इंस्पाइरेशन ट्रक को मालूम होता है कि उसे किस लेन में चलना है, गति पर कैसे नियंत्रण रखना है । इसे विकसित करने वाले लोगों का कहना है कि ये नशे में धुत भी नहीं होते । 
इसमें एक कैमरा लगा होता है जो सामने १०० मीटर की दूरी तक नजर रखता है । कैमरा सड़क पर बने चिन्हों को पहचानता है, उनके अनुसार रफ्तार कम-ज्यादा करवाता है । इसमें एक राडार भी लगा है जो २५० मीटर दूर तक चल रहे वाहनों पर नजर रखता है ताकि टक्कर से बचा जा सके । 

पहला स्टेम कोशिका शिशु 
कनाडा में पिछले दिनों एक शिशु का जन्म हुआ है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वह पहला स्टेम कोशिका शिशु है । शिशु का नाम जाइन रजनी है । जिस तकनीक से वह पैदा हुआ है वह तो टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक ही मगर उसका थोड़ा संशोधित रूप है । इसे ऑगमेंट नाम दिया गया है । 
आम तौर पर टेस्ट ट्यूब शिशु के लिए स्त्री के अंडाशय से अंडे प्राप्त् किए जाते हैं, उनका निषेचन (यानी शुक्राणु से मिलन) शरीर से बाहर करवाया जाता है और जब निषेचित भू्रण का थोड़ा विकास हो जाता है तब उसे स्त्री के गर्भाशय में आरोपित कर दिया जाता है । वह वहीं स्त्री हो सकती है जिसके अंडे से भ्रूण बना है । 

कविता
वृक्षों के लिए प्रार्थना 
रिचर्ड सेंट बार्ब बेकर
हे परमात्मा ! 
धरती पर वृक्षों के उपहार के लिए
हम तुम्हारा आभार मानते हैं,
वृक्षों के रूप में 
तुम हमारे बहुत निकट आ जाते हो,
ये वृक्ष हमें हमेशा उनकी याद दिलाते हैं, 
जिन्होंने धरती को जीने लायक तथा
आनंदपूर्ण बनाने के लिए अपना जीवन दे दिया । 
हे सृजनहार !
हमारे पर कृपा कर,
ताकि तुम्हारी बनायी इस धरती के साथ,
वृक्षों के साथ,
सर्व जीवित प्राणियों के साथ 
हम एकरूपता का अनुभव करें
और बदले में हम अपना श्रेष्ठतम देकर
दुनिया को थोडी सी 
अधिक सुन्दर बनाकर जायें । 


पर्यावरण समाचार
ई.कचरा के निपटान मेंलगे ७६ फीसदी लोग बीमार 

सुरक्षा मानकों के अभाव के कारण ई. कचरा (इलेक्ट्रानिक्स कचरा) के निपटारे में लगे कर्मचारियों में से ७६ प्रतिशत लोग श्वसन संबंधी बीमारियों खांसी, दम घुटने, अस्थमा तथा कैंसर, चिड़चिडेपन और आवाज में कंपन से पीड़ित है । 
उद्योग संगठन भारतीय उद्योग एवं वाणिज्य मंडल (एसोचैम) ने एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ई. कचरा को निपटाने के अधिकतर स्थलों पर सुरक्षा मानक नहीं अपनाए गए  हैं । इससे ई कचरा का निपटान करने वाले लोग गंभीर बीमारियों से ग्रसित हो रहे हैं । 
उद्योग संगठन ने एक अध्ययन में कहा है कि केवल दस राज्य ई. कचरे में ७० प्रतिशत की हिस्सेदारी रखते हैं और ६५ शहर ६० प्रतिशत से अधिक कचरे का उत्पादन करते है । ई कचरा पैदा करने वाले राज्यों में महाराष्ट्र पहला, तमिलनाडु दूसरा, आंध्रप्रदेश तीसरा, उत्तरप्रदेश चौथा, दिल्ली पांचवा, गुजरात छठा, कर्नाटक सातवां और पश्चिम बंगाल आठवां राज्य है । सरकारी और निजी कार्यालय तथा औघागिक संस्थान ७१ प्रतिशत ई.कचरा पैदा करते हैं । घरों का ई. कचरे में योगदान मामूली १६ प्रतिशत है । 
ई.कचरे में प्राप्त् वस्तुआें और उत्पादों को फिर से इस्तेमाल करने लायक बनाने के लिए भारत मुख्य रूप से असंगठित क्षेत्र पर निर्भर है । लगभग ९५ प्रतिशत ई. कचरा शहरों की स्लम बस्तियों में एकत्र किया जाता है । इनमें काम करने वाले सभी लोग बिना किसी बचाव उपकरण और प्रणाली के ई. कचरे का निपटान करते हैं । इन लोगों को संभावित खतरों से बचने का किसी प्रकार का प्रशिक्षण नहीं दिया गया  है । ई.कचरे के गलत ढंग से निपटान से न केवल स्वास्थ्य पर बल्कि पर्यावरण पर भी नकारात्मक असर होता है । अध्ययन में कहा गया कि ई.कचरा का सीधा संबंध देश की आर्थिक विकास और उपभोक्ता खर्च से जुड़ा हुआ है । भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास ने करोड़ों लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाया है । उनकी खरीद शक्ति भी बढ़ रही है ।