शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015



प्रसंगवश   
अगले वर्ष उज्जैन में सिंहस्थ महापर्व
अनिल गुप्त
    मेष राशि गते सूर्ये सिंह राशौ बृहस्पतयो ।
    उज्जनिन्यां भवेत् कुंभ सदा मुक्तिप्रदायक: ।
    कुंभ पर्व के लिए गुरू की प्रधानता है । गुरू सिंह मेंजब प्रवेश करता है, तब उज्जैन में कुंभ होता है । इस पर्व में स्नान, दान करने से व्यक्ति पाप मुक्त हो जाता है । सिंहस्थ महापर्व के बारे में कई लोग यह तर्क करते है कि आखिर इस पर्व का शुभारंभ किसने किया । जिज्ञासापूर्ण इस प्रश्न का समाधान साधारण तरीके से नहीं किया जा सकता । धर्मग्रंथ हमारे मूल आधार है, इनमें वर्णित है कि कुंभ मेले को प्रवर्तित करने वाले भगवान शंकराचार्य हैं । उन्होंने कुंभ पर्व का प्रारंभ धार्मिक संस्कृति को सुदृढ़ करने के लिए किया था । उन्हीं के आदेशानुसार आज भी कुंभ पर्व के समय चारोंसुप्रसिद्ध तीर्थोंा के सभी संप्रदायों के साधु-महात्मा लोक कल्याण के लिए एकत्रित होते हैं व योग साधना करते हैं ।
    इसी प्रकार अर्द्धकुंभ के बारे में भी जब गूढ़ अर्थ की बात आती हैं तो कई लोग अनभिज्ञता जाहिर करते हैं । इस बारे में विद्वानों का मत है कि मुगलकाल में हिंदू धर्म की रक्षा के लिए हरिद्वार एवं प्रयाग के साधु-महात्माआें एवं विद्वान मनीषियों ने धर्म की रक्षा के उपायों पर गहन मंथन किया, तभी से हरिद्वार एवं प्रयाग में अर्द्धकुंभ का मेला लगने लगा । शास्त्रों में अर्द्धकुंभ का उल्लेख कहीं-कहीं मिलता हैं ।
    पूर्ण: कुम्भोधि काल अहितस्तं वे
        पश्यामो बहुधा नु संत: ।
    स इमा विश्वांभुवनानि प्रत्यड्:कालं
        तमाहु: परमे व्योमन ।।
    अर्द्धकुंभ पर्व का उद्देश्य पूर्ण कुंभ की तरह ही धर्म की महत्ता स्थापित करना है । इसी में समाज का कल्याण निहित हैं ।
    सिंहस्थ महापर्व में आने वाले विभिन्न अखाड़ों, खालसाआें तथा स्वतंत्र  रूप से रहने वाले साधु-संतों के विभिन्न संप्रदायों (समुदायों) के ध्वज, तिलक जैसे विभेदक चिन्हों के अतिरिक्त माला (कंठी), खड़ाऊ, कमंडल, तिलक, लंगोट, वेशभूषा, दीक्षा पद्धति, व्रतोत्सव एवं दिनचर्या विषयक जानकारी समाजजनों के लिए रोचक एवं ज्ञानवर्धक होती है ।
सम्पादकीय
सर्पदंश की दवा का थमता विकास
     एक ओर तो आधुनिक चिकित्सा तेजी से प्रगति कर रही है, वहीं सांप काटे की दवा के विकास के मामले में हम बहुत पिछड़ रहे हैं । तथ्य यह है कि दुनिया भर में सांप काटने से प्रति वर्ष २ लाख लोग मारे जाते हैं और कई लाख लोग अपंग हो जाते हैं । देखा जाए तो मच्छर के बाद सांप ही दूसरा सबसे ज्यादा जानलेवा जन्तु है ।
    हाल ही में डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (सरहदों से मुक्त डॉक्टर्स) नामक संगठन ने बताया है कि औषधि जगत की अग्रणी कंपनियां सर्पविष की दवा से हाथ खींच रही है । सर्पदंश के उपचार की स्थिति इतनी विकट हो चुकी है कि डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने सर्पदंश को दुनिया की सबसे ज्यादा उपेक्षित जन स्वास्थ्य समस्या कहा है ।
    प्रतिविष के विकास का काम मूलत: धन के अभाव में रूका है । ऐसा नहीं है कि शोधकर्ताआें के पास इस दिशा में कोई विचार नहीं है मगर उन विचारों पर काम करने के लिए धन मिलना मुश्किल हो गया है । प्रतिविष बनाने के लिए आम तौर पर सांप का विष किसी पशु के शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है और फिर उस पशु के शरीर में बनी एंटीबॉडीज को एकत्रित किया जाता है । पशु को विष इतनी कम मात्रा में दिया जाता है कि वह खतरनाक नहीं होता । मगर इस तरीके से प्रतिविष बनाने का मतलब यह होता है कि सांप की हर प्रजाति और हर किस्म के लिए अलग-अलग प्रतिविष तैयार करना जरूरी होता है । सर्पदंश का कोई ऐसा प्रतिविष नहीं जो सारे सांपों के जहर के खिलाफ कारगर हो । इस तरह के सार्वभौमिक प्रतिविष को संभव बनाने के लिए प्रयास चल रहे है । प्रतिविष की खुराक को सस्ता करने की दिशा में एक कोशिश यह भी चल रही है कि पशुआें की बजाय एंटीबॉडीज का उत्पादन बैक्टीरिया में करवाया जाए ताकि लागत कम हो सके । सर्पदंश की दवा किसी अस्पताल में ही देनी होती है मगर दिक्कत यह होती है कि मरीज अस्पताल तक पहुंच ही नहीं पाता । इसके लिए कोशिश करना चाहिए कि घटना स्थल पर प्राथमिक उपचार हो सके और मरीज को अस्पताल पहुचने की मोहलत मिल जाए ।
 सामयिक-१
कॉप-२१ : पृथ्वी को बचाने के प्रयास
रवीन्द्र

    पेरिस जलवायु सम्मेलन बदलती जलवायु और बढ़ते तापमान से विनाश की ओर बढ़ रही पृथ्वी को बचाने हेतु मील का पत्थर साबित हो सकता है । विकसित देश अपनी गलतियां तो स्वीकार कर रहे हैं  लेकिन उन्हें ठीक करने के प्रस्ताव को अभी भी कमोवेश ``वीटो`` कर रहे हैं ।
    पर्यावरण संरक्षण के विषय पर पेरिस में वैश्विक स्तर का सम्मेलन कॉप-२१ शुरु हो चुका    है । सर्वप्रथम सन् १९९२ में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन संधि पर हस्ताक्षर हुए थे तथा उस संधि में सम्मिलित सदस्य देशों के समूह को 'कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टिज़ (कॉप)' का नाम देकर सन् १९९५ में प्रथम सम्मेलन आयोजित हुआ । यह इक्कीसवां सम्मेलन है; अत: इसे कॉप-२१ कहा गया है । वर्तमान में १९६ देश इसमें सम्मिलित हैं। यह 'कॉप', 'यूएनएफसीसीसी (संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा संधि)' द्वारा संचालित होता है ।
     जलवायु परिवर्तन के अंतर्गत ग्रीन हाऊस गैसों व कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने हेतु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सन् १९९७ में 'क्योटो प्रोटोकॉल' लाया गया । इसमें 'सीबीडीआर-आरसी (सामान्य वरन् विभोदित उत्तरदायित्व और संबंधित क्षमताएँ) के द्वारा मुख्यत: विकसित देशों की जवाबदेही ग्रीन हाऊस गैसों व कार्बन उत्सर्जन के लिए निर्धारित की गई । गौरतलब विगत १५० वर्षोंा में ८० प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिए प्रमुख रूप से विकसित देश ही उत्तरदायी हैं । अत: न्यायसंगत निर्णय करके उन विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन में कटौती और उनके द्वारा विकासशील देशों को तकनीकी व वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की भूमिका निर्धारित हुई थी । ८ वर्ष पश्चात् सन् २००५ से 'क्योटो प्रोटोकॉल' क्रियान्वित हुआ तथा पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति अभी तक नहीं हुई है। 'क्योटो प्रोटोकॉल' के अंतिम चरण में विकसित व विकासशील देशों के मध्य कार्बन उत्सर्जन गहरी कूटनीति का विषय बन गया । इसी कारण गत 'कॉप' सम्मेलनों से वैश्विक हित के लिए कोई ठोस समाधान सामने नहीं आ रहे हैं और कार्बन उत्सर्जन में कटौती हेतु सर्वसम्मत सुदृढ़ वैश्विक नीति नहीें बन पा रही है ।
    पेरिस सम्मेलन का प्रमुख उद्देश्य पृथ्वी के तापमान में वृद्धि को इस शताब्दि के अंत तक दो डिग्री सेल्सियस तक नियंत्रित करने का   है । परंतु वर्तमान समय में धरती का तापमान एक डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है और इस समस्या से निपटना एक बड़ी चुनौती है । भारत सहित सभी सदस्य देशों ने अपने-अपने 'आ एनडीसी (नियत राष्ट्रीय निर्धारित योगदान)' घोषित किए हैं । भारत ने सन् २०३० तक अपने कार्बन उत्सर्जन में ३० से ३५ प्रतिशत तक कमी लाने का लक्ष्य रखा है । जिसकी पूर्ति के लिए नवीनीकृत ऊर्जा का विस्तार, वनाच्छादन और जीवाश्म  ंधन के उपयोग में कटौती आदि कार्य शामिल हैं । जलवायवीय परिवर्तन के कारण अनेक प्राकृतिक आपदाएँ हमारे देश के प्रत्येक क्षेत्र में सामने आ रही हैं । जम्मू-कश्मीर में दो बार बाढ़ आ चुकी है । उत्तराखंड की दो वर्ष पूर्व की त्रासदी और हिमालयी क्षेत्रों में अतिवृष्टि आदि कारणों से भू-स्खलन की अधिकता आदि उत्तर भारत में घटित आपदाएँ है । विदर्भ व मरावाड़ा में अनावृष्टि के कारण बारह हजार से अधिक गाँव जल व खाघान्न आपूर्ति की समस्या से ग्रस्त हैं । उड़ीसा और आंध्रप्रदेश,  चक्रवातों की पुनरावृत्ती की समस्या से पीड़ित है तथा वर्तमान में तमिलनाडु अतिवृष्टि के कारण बाढ़ से जूझ रहा है ।
    राष्ट्रीय स्तर पर इनके समाधान हेतु विद्युत उत्पादन में नवीनीकृत ऊर्जा उत्पादन का भाग अधिकतम करके एंव उसके द्वारा उद्योग एवं रेल परिवहन को आपूर्ति, की जाना चाहिए । इसी के साथ जैव विविधता, वनों व पर्यावरण की सुरक्षा भी आवश्यक है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की प्रमुख जवाबदेही है । कार्बन उत्सर्जन में वह चौथे स्थान पर है तथा अमेरिका इस सूची में प्रथम स्थान पर है । अमेरिका का कार्बन उत्सर्जन भारत की तुलना में २२ गुना है और वहाँ जीवाश्म ईधन के उपयोग में निरंतर बढ़ोत्तरों हो रही है । उनके विकास व प्रदूषण में प्रत्यक्ष संबंध है; क्योंकि उनका नवीनीकृत ऊर्जा उत्पादन उपयोग की तुलना में अत्यंत अल्प है । वे कार्बन उत्सर्जन में पर्याप्त कटौती के लिए को वास्तविक धरातलीय प्रयत्न नहीं कर रहे हैं । अत: अमेरिका के द्वारा घोषित 'आ एनडीसी' के लक्ष्यों का पूरा होना बहुत दूर की कौड़ी है ।
    यूरोपीय संगठन और अमेरिका की नीति जलवायु परिवर्तन के विषय पर कमोवेश एक समान   है । दोनो ही विकासशील देशों को उपयुक्त तकनीकी तथा जलवायवीय वित्तीय सहायता देने पर सहमत नहीं हैं । अपने कार्बन उत्सर्जन मेंे कमी लाने के विषय पर भी वे हठधर्मिता प्रदर्शित कर रहे हैं । चीन भी विश्व के मुख्य कार्बन उत्सर्जकों में से एक है तथा उसने व अमेरिका ने मात्र अपने परस्पर हितों को साधने के लिए कुछ सीमा तक कार्बन उत्सर्जन में कमी करने के समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं । इसका पर्यावरण संरक्षण से को सीधा संबंध नहीं है। अफ्रीका महाद्वीप का उत्सर्जन  तुलनात्मक रूप से कम है । परंतु विकसित देशों के कारण उसे अपने विकास से समझौता करना पड़ रहा है । एक मुख्य विषय प्रशांत महासागरीय व आर्कटिक क्षेत्र के द्वीपीय देशों, आस्टे्र्रलिया और दक्षिणी अमेरिका के अनेक राष्ट्रों में निवास करने वाले स्वदेशी लोगों से जुड़ा है; जिसमें अखिल विश्व के तटीय क्षेत्रों में रहने वाले मूल निवासी भी सम्मिलित हैं । वे सभी अपने परिक्षेत्र में भू-संरक्षण और वनसंरक्षण के लिए कुछ हद तक उत्तरादायी हैं । परंतु हिमखंड़ों के पिघलने, सामुद्रिक जलस्तर के बढ़ने और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से उनके अस्तित्व व जीवनशैली दोनों पर संकट मंडरा रहा है । यह परिस्थिति जलवायवीय शरणार्थियों की समस्या भी उत्पन्न कर सकती   है । अत: इनके हितों को साधने हेतु एवं व्यावहारिक हल निकालने के  लिए अनेक देशों के नेताओं और उनके उच्च् प्रशासनिक अधिकारियों को भी इस सम्मेलन में चर्चा हेतु आमंत्रित किया गया है ।
    इस सारी समस्या का हल सभी देशों द्वारा वैश्विक कल्याण हेतु अपने-अपने उत्तरदायित्व को पूर्णत: समझकर उचित कार्यवाही करने से निकल सकता है । संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा, सार्वदेशिक, कार्बन उत्सर्जन कटौती व हरित (नवीनीकृत) ऊर्जा के उत्पादन का वार्षिक विश्लेषण वर्तमान में क्रियान्वित करना अनिवार्य है । वैसे यह सन् २०२४ में प्रस्तावित है । भारत द्वारा दृढ़ता से पर्यावरण की सुरक्षा के पक्ष में,   अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने पर सर्वकल्याणकारी जलवायु परिवर्तन नीति क्रियान्तिवत करवाने का मार्ग प्रशस्त होगा । जिससे सर्वसम्मति से जलवायु नीति व अर्थनीति में समन्वय स्पष्ट करके विकसित और विकासशील देशों के सार्वभौमिक हित साझा होते हैं । इसके पश्चात् सुरक्षित नवीनीकृत ऊर्जा का विकेन्द्रीकृत उत्पादन करके राष्ट्रों को ऊर्जा स्वावलम्बी बनाने की जरुरत भी है । इस हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा शोध व अनुसंधान के क्षेत्र में अंतर्रोष्ट्रीय केन्द्रों की स्थापना करना मुख्य कार्य है । 
    आने वाला पखवाड़ा हमारे पृथ्वी ग्रह के भविष्य के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है ।
सामयिक-२
जलवायु परिवर्तन और भारत की प्रतिबद्धता
राजकुमार कुम्भज

    जलवायु परिवर्तन का संकट दिनों दिन गहराता जा रहा है । भारत ने स्वमेव अपने कार्बन उत्सर्जन के मापदडों में परिवर्तन की घोषणा कर पूरे विश्व के सामने एक बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है ।
    जलवायु परिवर्तन के संकट को देखते हुए भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ को भरोसा दिलाया है कि वह वर्ष २०३० तक कार्बन उत्सर्जन में ३३ से ३५ फीसदी तक कटौती करेगा । इसके अलावा अपनी अक्षय ऊर्जा उत्पादन क्षमता में ४० फीसदी तक का इजाफा करेगा । गौरतलब है इसी वर्ष ३० नवंबर से ११ दिसंबर तक पेरिस में हो रहे विश्व जलवायु सम्मेलन के पूर्व दुनिया के सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन में कमी के  अपने-अपने लक्ष्य प्रस्तुत करने हैं । भारत का मौजूदा लक्ष्य सन २०२० तक २० से २५ फीसदी कमी का था जो सन २०१० तक १२ फीसदी पाया जा चुका है । पेरिस के विश्व जलवायु सम्मेलन में विश्व पर्यावरण संधि संपन्न हो जाने की प्रबल संभावना   है । भारत पहले से ही कहता रहा है कार्बन उत्सर्जन की अधिक मात्रा के चलते विकसित देशेां की जिम्मेदारी ज्यादा है । 
     भारत ने अपनी ओर से पर्यावरण बचाने की जो महत्वपूर्ण रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंपी है, उसमें पर्यावरण के लिए भारत के रोड मैप में सबके साथ न्याय की हिमायत की गई है । भारतीय प्रस्ताव में कहा गया है कि सन् २०३० तक गैर जीवाश्म ऊर्जा का हिस्सा बढ़ाकर ४० फीसदी किया जाएगा । तीन अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का निपटान अतिरिक्त जंगल लगाकर प्रस्तावित है । इसी के साथ भारत ने यह आश्वासन भी दिया है कि नदियों की साफ-सफाई से भी उत्सर्जन कम करना सुनिश्चित करेंगे और नवीनीकरण ऊर्जा के तौर पर १७५ गीगावॉट बिजली पैदा की जाएगी ।
    इस लक्ष्य को प्राप्त करने में भारत के समक्ष कुछ बड़ी चुनौतियां हैं,  आबादी और गरीबी । विश्व की कुल ढाई फीसदी भूमि पर भारत में विश्व की १७ फीसदी आबादी निवास करती है । लगभग इतनी ही आबादी पशुओं की भी है । सबसे उल्लेखनीय तथ्य है कि ३० फीसदी गरीब आबादी की जरूरत पूर्ति पर ऊर्जा खपत बढ़ेगी । इस सबके लिए भारत को सन् २०१५ से २०३० के दौरान तकरीबन २५ अरब डॉलर की जरूरत पडेगी । यह एक महत्वाकांक्षी और अनिवार्य विकासवादी लक्ष्य है ।
    एक अन्य आरंभिक अनुमान के अनुसार भारत की अक्षय ऊर्जा उत्पादन वृद्धि, कृषि, वन विस्तार, बुनियादी ढांचा, जल संसाधन व परिस्थितिकी तंत्र के लिए इसी समयावधि के दौरान तकरीबन २०६ अरब डॉलर की आवश्यकता होगी । भारत के नीति आयोग का कहना हैंकि निम्न कार्बन उत्सर्जन के लिए भारत को समग्र रूप से ८३४ अरब डॉलर चाहिए । सबसे बड़ा सवाल यही है कि इतनी बड़ी रकम का इंतजाम कहां से और कैसे होगा ?
    पेट्रोलियम पदार्थों कोयल, गैस, औद्योगिक अपशिष्ट, फ्रिज, एसी, कृषि और मोटरयान आदि से कार्बन उत्सर्जन होता है । इस सबसे भी एक बहुत बड़ा कारण शहरी बस्तियों के आसपास कार्यरत वे ईंट भट्टे भी हैंजिनमें अपरंपरागत सस्ते ईंधन का इस्तेमाल किया जाता है । ईंट भट्टों में सामान्यत: कटे-फटे पुराने टायर और प्लास्टिक के कचरे से ही इंर्धन का काम लिया जाता है जो न सिर्फ मनुष्यों और मवेशियों के लिए घातक है बल्कि संपूर्ण वायु मंडल को सांस नहीं ले पाने की हद तक प्रदूषित भी करते हैं । इसकी एक प्रमुख वजह शहरीकरण का निरंतर विस्तार भी है। बढ़ती जा रही आबादी को देखते हुए मकानों का निर्माण भी अभी और अधिक बढ़ेगा । देश भर के नये नाकों पर खडे  रहने को विवश वाहनों और ट्रैफिक जाम से होने वाले प्रदूषण का आंकलन अलग से किया जा सकता है ।
    कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए वन विस्तार, गैस आदि का उपयोग बढ़ाए जाने की जरुरत है। सन् २०३० तक २.५ से ३ अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता का विकास किया जाना अति-आवश्यक है । भारत ने कहा है कि हम कार्बन उर्त्सजन की तीव्रता  सन् २०३० तक ३३ से ३५ फीसदी तक ले आएंगे । यही नहीं भारत ने यह भी कहा है कि हम ग्रीन हाउस गैसों का उर्त्सजन में भी सन् २०२० तक २० से २५ फीसदी तक कमी लाएंगे। 
    यहाँ यह देखना भी कोई कम दिलचस्प नहीं होेगा कि भारत की ३० फीसदी आबादी गरीब है २० फीसदी लोगों के पास मकान नहीं हैं और २५ फीसदी लोगों तक अभी भी बिजली नहीं पहंुच पाई है । सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जब इस संख्याबल का भी विकास होगा और वह उपभोक्ता बन जाएगी तो कार्बन उर्त्सजन का आंकड़े कितना आगे बढेग़ा ।
    भारत का उत्सर्जन चीन और अमेरिका के बाद तीसरे क्रम पर पहुंच गया है । हालांकि भारत के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अभी भी बहुत कम ही है । चीन दुनिया का सबसे अधिक २५ फीसदी कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ने वाला देश है । चीन में जैव इंर्धन की खपत भी सबसे ज्यादा होती है। जबकि औद्योगिक देशों में प्रति व्यक्ति के हिसाब से अमेरिका का दूसरा क्रम  है अर्थात् वह तकरीबन १९ फीसदी प्रदूषण फैलाता है। ये दोनों देश कुल मिलाकर दुनिया के लगभग आधे प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं । तीसरे  क्रम पर भारत आता है जो छ: फीसदी से अधिक प्रदूषण पैदा करता है ।
    जहाँ तक पर्यावरण बचाने की वकालत करने और खुद को इसका अगुआ बताने वाले देश जर्मनी और ब्रिटेन का सवाल है, तो सूचना बड़ी दिलचस्प है कि ये दोनों देश दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले शीर्ष १० राष्ट्रों में शामिल हैं । 
    हमारे सामने सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण सवाल यही है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को कैसे सीमित किया जा सकता है। वायुमंडल में सभी गैसों की मात्रा सुनिश्चित है और ७५० अरब टन कार्बन, कार्बन डाई ऑक्साइड की शक्ल में वातावरण में उपलब्ध है । कॉर्बन की मात्रा बढ़ने के साथ ही साथ पृथ्वी के गरम होने का खतरा बढ़ जाता है। भारत में अभी भी ऐसे परिवार बड़ी संख्या में हैंजो भोजन तैयार करने में परंपरागत ईंधन अर्थात् लकड़ी-कोयले का ही इस्तेमाल करते हैं । इसी कारण से अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां परंपरागत इंर्धन के बहाने भारत पर दबाव बनाती हैं । भारत में ईंधन गैस का अभाव नहीं है । अभाव है तो बस इसे जनता तक पहुँचाने वाले नेटवर्क का ।
    भारत ने अगले सात साल में अपारंपरिक ऊर्जा निर्माण का लक्ष्य एक लाख पचहार हजार मेगावॉट रखा है। सन् २०३० तक सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य ३७५ गीगावॉट   है । अगर निश्चित समय में यह लक्ष्य प्राप्त करने में भारत को सफलता प्राप्त हो जाती है तो बहुत संभव है कि भारत का कार्बन उर्त्सजन सीमित हो जाएगा । गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की ७० वीं वर्षगां ठ को संबोधित करते हुए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जलवायु प्रक्रिया के साथ जलवायु न्याय का भी जिक्र किया था । अगर हम सिर्फ  जलवायु परिवर्तन की चिंता करते हैं तो कहीं न कहीं हमारे निजी सुख को ही सुरक्षित करने की बू आती है लेकिन यदि हम जलवायु न्याय की भी बात करते हैं तो गरीबों को प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रखने का संवदेनशील संकल्प भी उभर कर सामने आता है ।
 हमारा भूमण्डल
सतत विकास लक्ष्य : कब पूरे होगे ?
साकिको फुकुडा-पार्र

    संयुक्त राष्ट्र संघ सदस्य देशों ने सतत या सुस्थिर विकास लक्ष्यों को सन् २०३० तक प्राप्त किए जाने का मन बनाया है । परंतु इसे न तो देशों पर बाध्यकारी बनाया गया है और न ही इसके लिए वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित की गई है। इसका स्वरूप अत्यन्त व्यापक एवं जटिलताओं से भरा है ।
    पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र में सतत विकास लक्ष्य २०३० (एसडीजी) को अपनाने को लेकर एक दुर्लभ सुखाभास व्याप्त था । इस अवसर पर वहां उत्सवी माहौल था । इस नए कार्यक्रम को लेकर सिर्फ सरकारी प्रतिनिधि ही नहीं बल्कि नागरिक समूह के कार्यकर्त्ता भी उत्साहित थे जिसने सुस्थिर विकास को लेकर रूपांतरित करने वाले परिवर्तन का वायदा किया है। परंतु क्रियान्वयन ही वास्तविक परिवर्तन ला सकता है । एसडीजी विकास संबंधी सोच को लेकर एक महत्वपूर्ण परिवर्तन है। यह एक अन्तरराष्ट्रीय परियोजना है । 
     शीत युद्ध समाप्ति के बाद घोषित घटते बजट वाले शताब्दी विकास लक्ष्य (एमडीजी) की कार्यसूची दानदाता एजेंसियों के रहमों करम पर आश्रित थी और इसमें आधारभूत समायोजन को लेकर अनेक विवाद भी खड़े हुए थे। गौरतलब है सन् १९९० के दशक में गरीबी को खत्म करने को लेकर एक नैतिक दबाव पैदा हुआ था । जो बाद में वैश्विक मानदंड बन गया था । इसने एक साझा उद्देश्य को फली भूत किया जो कि कमोवेश उल्लेखनात्मक ही था । वहीं दूसरी ओर एस डी जी का अभ्युदय रियो + २० प्रक्रिया से हुआ है । इसमें बढ़ती पर्यावरणीय अस्थिरता और असमान सामाजिक विकास वाली स्थिति को परिवर्तन के एजेंडे पर लिया गया   था । इन्हें तैयार करने की प्रक्रिया में सिर्फ विकास विशेषज्ञ ही नहीं बल्कि सरकारें, नागरिक समूह व निजी क्षेत्र भी शामिल थे । इस प्रक्रिया में अत्यन्त सशक्त रूप से विकसित राष्ट्रीय सरकारों के अलावा कोलंबिया जैसे मध्य आयवाले देश भी शामिल थे ।
    एसडीजी में गरीबी, असमानता और पर्यावरणीय सुस्थिरता को वैश्विक मान्यता दी गई है और स्वीकार किया है कि इसे लेकर जितनी चुनौती अफ्रीकी देश लाइबेरिया के सामने है उतनी ही ब्रिटेन के सामने भी है । इस बात में कोई शक नहीं है कि एसडीजी में एमडीजी की कमियों को दूर करने के काफी गंभीर प्रयास किए गए हैं ।
(१) सरलता एवं लघुकरण : एमडीजी के जिस मूल्य को सर्वाधिक सराहा गया वह था इनकी सरलता । इसके विपरीत एसडीजी की व्यापक आलोचना खासकर विकास विशेषज्ञों द्वारा इसलिए की जा रही है कि यह हास्यास्पद  रूप से अत्यन्त भीड़ भरे प्रतीत होते हैं । लेकिन सरलता का अर्थ सरलीकरण भी होता है ।
    एसडीजी लक्ष्यों ने ``विकास`` के  अर्थ को मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति तक सीमित कर दिया था । जिसकी वजह से विकास का विचार जो कि मूलत: उत्पादक क्षमता में वृद्धि, शक्ति के केन्द्रों में एवं सामाजिक संबंधों में परिवर्तन एवं मानव स्वतंत्रता का विस्तार होता है, को दरकिनार कर दिया गया था । एसडीजी सिर्फ संख्या में ही ज्यादा नहीं है बल्कि यह विकास के एजेंडे में बदलाव के लिए महत्वाकांक्षी कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं और वे उन संस्थानों में सुधार की आवश्यकता भी बताते हैं जो कि इसके क्रियान्वयन हेतु मूलत: जिम्मेदार हैं ।
(२) गरीब देशों के लिए अन्यायपूर्ण माप : संदर्भ के महत्व को रेखांकित करते हुए घोषणापत्र में कहा गया है कि एसडीजी के लक्ष्य ``परिभाषित और वैश्विक`` हैं । वहीं राष्ट्रीय सरकारें अपने राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर स्वयं अपने लक्ष्य तय कर सकती हैं । इसके ठीक विपरीत संयुक्त राष्ट्र नेतृत्व द्वारा एमडीजी के अन्तर्गत राष्ट्रीय अनुकूलता के विचार का उग्रता से विरोध किया गया था । वह लक्ष्य ``सभी के लिए एक से`` के आधार पर तय कर दिए गए जिन्हें संदर्भों की अनदेखी करते हुए सन् २०१५ तक पूरा करना था ।
    निगरानी तंत्र भी ऐसा था जिसने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु देशों की शुरुआती स्थिति को ध्यान में ही नहीं रखा था । जाहिर सी बात है जिन देशों ने काफी पीछे से शुरुआत की थी, विशेषकर उपसहारा अफ्रीका के अत्यन्त अल्प विकसित देश, वे लक्ष्यों की पूर्ति में पीछे रह गए । परिणामस्वरूप उन्हें असफल घोषित कर दिया गया । यद्यपि अध्ययन बताते हैं कि उन्नति की रफ्तार देखें तो स्पष्ट होता है कि कुछ अफ्रीकी देशों ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है ।
(३) असमानता का लक्ष्य चूका : हालांकि आज तकरीबन सभी देशों के सामने सबसे बड़ी चुनौती असमानता है। लेकिन एमडीजी में इसे शामिल ही नहीं किया गया था । इन लक्ष्यों का एजेंडे में शामिल होना यह सिद्ध करता है कि हमारा आर्थिक मॉडल अभी भी असमानता में वृद्धि कर रहा है । एसडीजी (क्र) १० जिसका उद्देश्य देश के भीतर और देशों के अन्तर्गत असमानता को कम करना है, पर हुई चर्चा सर्वाधिक विवादास्पद राजनीतिक बहस साबित हुई । इसके दस लक्ष्यों में अनिवार्यत: आर्थिक संचालन हेतु सांस्थानिक सुधारों पर ध्यान दिया गया है ।
      इसके बावजूद यह मूलपा  वास्तव में एक ``पथ प्रदर्शक``भर    है । वास्तविक चुनौती तो राजनीतिक रूप से ऐसे विवादास्पद मुद्दों पर विजय सुनिश्चित कराना है, जो क्रियान्वयन के दौरान कहीं गुम न हो जाएं । इस बात के लेकर स्वाभाविक तौर पर जोखिम बना हुआ है कि १७ लक्ष्यों वाले इस जटिल एवं महत्वाकांक्षी एजेंडे को कहीं सरलीकरण के माध्यम से कूढ़े के  ढेर में न फेंक दिया जाए । वैसे इसकी शुरुआत एस डी जी वैश्विक लक्ष्य के प्रचार में निजी पहल को शामिल करने से हो भी चुकी है, जिसने कि अपनी प्रक्रिया में इसका सरलीकरण, इसके शीर्षकों को छोटा करने एवं इनकी पुर्नव्याख्या के माध्यम से प्रारंभ भी कर दिया है । बारबरा एड्म्स ने अपने हालिया ब्लाग में लिखा है कि, ``सुस्थिर (सतत) विकास का विचार तो पूरी तरह विलुप्त हो चुका है। क्योंकि इनमें ``न्यायोचित`` ``समावेशी`` एवं ''सुस्थिर'' जैसे शब्दों को हटाकर उनकी जगह ``जिम्मेदार`` और ``मजबूत'' जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाने लगा है ।
    एक अन्य जोखिम चयनात्मकता का है । इस वजह से ऐसे लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की अवहेलना हो सकती है जो कि आधारभूत मुद्दों को संबोधित हों । ऐसा व्यापक विश्वास बना था कि एमडीजी की वजह से सक्रियता तो बढ़ी है परंतु सभी उद्देश्य एवं लक्ष्य एक से नहीं थे । उदाहरणार्थ रोजगार एवं भूख सन् २००८ में आए वित्तीय संकट एवं मंदी की मार पड़ने तक निर्धन सहकर्मा जैसे थे । नए एसडीजी में १७ लक्ष्य एवं १६९ उद्देश्य या बिंदु हैं,इनमें से कौन से मुट्ठी भर अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर पाएंगे, प्रयत्न की ओर कदम बढ़ा पाएंगेे या संसाधन इकट्ठा कर पाएंगे ? क्या लक्ष्य क्रमांक १० जिसके अंतर्गत राष्ट्रांे के भीतर एवं राष्ट्रों के बीच असमानता कम करना या उद्देश्य या बिंदु क्रमांक ५ अ जिसमें कि भूस्वामित्व में महिलाओं के कानूनी अधिकारों को सुनिश्चित करने की बात ही गई है, को आवश्यक राजनीतिक ध्यानाकर्षण उपलब्ध हो पाएगा ? एक और जोखिम या खतरा है राष्ट्रीय अनुकूलता की अनुमति प्रदान करना । यह एसडीजी की महत्वाकांक्षाओं पर पानी फेरने का स्पष्ट निमंत्रण है । इस मोर्चे पर खास चुनौती असमानता के लक्ष्य के  क्रियान्वयन को लेकर है । यह उन थोड़े से लक्ष्यों में से एक है जिसकी पूर्ति करने हेतु पिछले दशक में सामने आई विभिन्न धारणाओं में परिवर्तन करना होगा । इसमें उस आर्थिक मॉडल में भी बदलाव करना होगा जिसे पिछले दशक में प्रोत्साहित किया गया था ।
    निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि सतत् विकास लक्ष्य एक तयशुदा राजनीतिक सहमति भर है जिसमें इसे लागू कर पाने हेतु किसी प्रक्रिया या प्रणाली का निर्माण ही नहीं किया गया है। अब सारी जिम्मेदारी नागरिक समूहों पर आन पड़ी है कि वे एसडीजी को लागू करवाने का भार अपने कंधांे पर उठाएं ।
विशेष लेख
भारतीय दर्शन में पारिस्थितिक सन्तुलन
तारादत्त जोशी
    सतत पोषणीय विकास और पारिस्थितिक सन्तुलन को बनाये रखने हेतु जो व्यवस्था भारतीय दर्शन में देखने को मिलती है वह विश्व के किसी अन्य दर्शन और संस्कृति में नही है ।
    सम्पूर्ण भारतीय दर्शन प्रकृति प्रेम में रचा बसा है । भारतीय दर्शन मेंप्रकृति के प्रत्येक घटक की परितन्त्र के लिये आवश्यकता और महत्व को देखते हुये इन्हेंधर्म और ईश्वर से सम्बद्ध किया गया है । प्रकृति को प्रभावित करने वाली शक्तियों को उपासना द्वारा शान्त करके प्रकृति संरक्षण इस दर्शन की विशेषता है ।
    भारतीय दर्शन मेंप्रकृति व जीवन के मूल कारकों (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर) को ब्रह्म माना गया है । अभी तक सम्पूर्ण ब्रह्मांड में धरती के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रह में जीवन की उपस्थिति का प्रमाण नहीं मिला है । धरती का तापमान और इसमें जल और वायु की उपस्थिति आदि परिस्थितियाँ इसमें जीवन को संभव बनाती है । 
     इसीलिये प्राचीन भारतीय दर्शन धरती को माता और स्वयं को पुत्र कहकर धरती को नमन करता है । सन्तति की उत्पत्ति के कारक स्वरूप बीज का अपना महत्व है किन्तु धरती के अभाव मेंबीज और बीज के अभाव में धरती अधूरी है । बीज और धरती एक दूसरे के पूरक हैं । धरती बीज को धारण कर सन्तति को जन्म देती है और उसका पोषण करती है । सन्तति का अस्तित्व कायम रहे इसके लिये धरती का होना आवश्यक है ।
    भारतीय दर्शन में धरती को माँ सम्बोधित कर इसके प्रति जनमानस में श्रद्धा उत्पन्न कर इसके अनुचित दोहन को रोकते हुए इसे भावी पीड़ी हेतु सुरक्षित रखने को प्रेरित करती  है । जीवन के कारक स्वरूप धरती को ब्रहम मानते हुए कहा गया है   कि -
    यद्बह्म पृथ्वी भूत्वा लोकान धारयसि प्रभो
    तस्मै ते शतसो देव नमोस्तु परमेश्वर ।
    वेद और विज्ञान दोनों ही जीवन की उत्पत्ति जल से मानते हैं  । जल के बिना जीवन संभव नहीं है । भारतीय दर्शन की विशेषता यह है कि यह जल को उत्पत्ति के कारक रूप में ही श्री हरि नाम से सम्बोधित कर इसकी महत्ता स्थापित करते हुये मानव में इसके प्रति श्रद्धा एवं आस्था उत्पन्न कर जल की सुरक्षा और स्वच्छता का उपाय भी सुझा देते है ।
    भारतीय दर्शन में जल को जीवन और नदियों को जीवनदायिनी कहा गया है तथा प्रत्येक नदी को किसी न किसी रूप में धर्म और ईश्वर से सम्बद्ध किया गया है । जिससे कि मानव इसकी स्वच्छता को बनाये  रखे । जल ही जीवधारियों में रक्त रूप में प्रवाहित होकर प्रत्येक कोशिका तक प्राणवायु का संचार करता है । जल को ब्रहम मानते हुये कहा गया है कि -
    यद्बह्मं गदिदं लोके जलरूपं त्वमेवहि
    प्रीणासि तेन रूपेण जगत्सर्व चराचरम् ।
    जीवन को बनाये रखने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है और वनस्पतियॉ जल, वायु और सूर्य के सहयोग से भोजन का निर्माण करती हैं । शेष जीवधारी भोजन के लिये प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वनस्पतियोंपर निर्भर रहते हैं । जीवन के लिये भोजन (अन्न) और अन्न के लिये जल की महत्ता गीता मेंभाषित है -
    अन्नाद्भवन्ति भूतानि, पर्यन्याद्न्नसमभव: 
    जीवन की निरन्तरता को बनाये रखने में सूर्य का महत्वपूर्ण योगदान है । धरती स्वयं सूर्य को भाग है । सूर्य ही जलवृष्टि को संभव बनाते हैं । सूर्य के बिना जीवन की कल्पना भी संभव नहीं है । इसीलिये वैदिक ऋषियों द्वारा सूर्य से कभी विलग न होने की कल्पना की गयी है ।
    ऑक्सीजन, यौगिक स्वरूप जल का मूल तत्व और जीवधारियों के जीवन का आधार है । वैदिक दर्शन में वायु को यन्त्र के धूम्र से जीवाणु रहित बनाकर प्रदूषण रहित वायुमण्डल की कामना करते हुये वायु को ब्रहम मानकर उपासना की गयी है -
    यद्ब्रह्मं वायुरूपेण सर्वेषा प्राणसज्ञक: त्वयं चेष्टयसि भूतानि स्थावराणि चराणि च ।
    पारिस्थितिक तन्त्र में वृक्षों की उपयोगिता और महत्व को देखते हुये देवता मानकर उपासना की गई है । आयुर्वेद में धरती की प्रत्येक वनस्पति को किसी ने किसी औषधीय गुण से युक्त बताया गया है । पेड़ को दशपुत्रों के बराबर बताकर वृक्ष की महत्ता स्थापित की गयी है । वृक्ष के प्रत्येक भाग में ईश्वर का वास बताया गया है । मूले ब्रह्मा त्वये विष्णु शाखामध्ये महेश्वर: पात्रे-पात्रे देवानां वृक्षराज: नमोस्तुते । यह प्राचीन भारतीय दर्शन की देन है कि आज भी तुलसी से लेकर विशाल वट और पीपल वृक्षों की पूजा होती है और इसी कारण आज तक इन वृक्षों का अस्तित्व बना हुआ है ।
    परितन्त्र में पाये जाने वाले विशालकाय जन्तु हाथी से लेकर चूहे तक पक्षियों में गरूड़ से लेकर उलूक तक, जलचरों में मत्स्य, कच्छप और सरीसृप में मगर से लेकर विषैले नागों तक को किसी न किसी प्रकार धर्म और ईश्वर से सम्बद्ध किया गया है । ताकि मानव में इन सबके प्रति प्रेम उत्पन्न हो सके । ऐसा करने का एक मात्र उद्देश्य पारिस्थितिक सन्तुलन बनाये रखना ही हो सकता है । प्रकृति प्रेम और संरक्षण की इतनी उदात्त भावना विश्व के अन्य दर्शन में मिलना सर्वथा दुर्लभ है ।
    यद्यपि कुछ प्रगतिवादी विचारक इस दर्शन को काल्पनिक कह सकते हैं । किन्तु प्रकृति संरक्षण की आवश्यकता आज वैश्विक स्तर पर अनुभव की जा रही है । इसीलिये पृथ्वी सम्मेलन और पृथ्वी दिवस मनाने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है । विकास की लूट-खसोट कर संसाधनों का प्रयोग वाली, वर्तमान शैली के कारण ही आज गंभीर समस्यायें जन्म ले रही है । वायु मण्डल विषाक्त धूम्र से भर गया है प्राणवायु दूषित हो गयी है । औद्योगिक और मानवजनित कचरा ढोते-ढोते जीवनदायिनी नदियाँ थक गयी हे । अत्यधिक कीटनाशकों के प्रयोग से भूमि में दूषित एवं जहरीला अन्न उत्पादित हो रहा है । वनों के अनियान्त्रित कटान से जीवधारियों की कई प्रजातियाँ लुप्त् हो गयी है और कई लुप्त् होने की कगार पर     हैं । बची हुई प्रजातियाँ मानव बस्तियों की ओर प्रस्थान कर रही   हैं । परितंत्र में असंतुलन उत्पन्न हो गया है और हम जल व वायु संकट की ओर अग्रसर हैं ।
    यदि हमें दीर्घकाल तक धरती में जीवन के अस्तित्व को बनाये रखना है तो प्रकृति संरक्षण के भारतीय सिद्धान्तों के अनुरूप चलना होगा । जल और वायु को दूषित होने से बचाना होगा और संसाधनों की लूट खसोट बन्द करनी होगी । जैव विविधता को बचाने के लिये समुचित प्रयास करने होंगे ।
    किन्तु वर्तमान समय में हम भौतिक सुख सुविधाआें के आवेश में जकड़े हुये जिस मूल्य विहीन सांस्कृतिक शैली को अपना रहे है उसे देखकर लगता है कि कनडियन फिल्म निदेशक ए.ओ.साबिन का कथन है - जब आखीर पेड़ कट जायेगा, आखरी नदी के पानी में जहर घुल जायेगा और आखरी मछली का शिकार हो जायेगा, तभी इंसान को एहसास होगा कि वह पैसे नहीं खा सकता है । शीघ्र ही सत्य हो    जायेगा । अत: पारिस्थितिक सन्तुलन का वैदिक सिद्धान्त सर्वथा वैज्ञानिक समयानुकूल और आज की आवश्यकता है । इसे अपनाकर ही हम अपने पारितंत्र को बचा सकते   हैं ।
महिला जगत
जलवायु परिवर्तन और महिलायेें
हिलेरी बांबरिक

    जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक विपरीत प्रभाव महिलाओं और लड़कियों पर पड़ता है । लैंगिक समानता की ओर बढ़ने के लिए आवश्यक है कि कृषि एवं अन्य अधोसंरचनात्मक ढांचे में होने वाले निवेश मेें तुरंत वृद्धि की जाए । आवश्यकता है महिलाओं की आजीविका और उनके जीवन को बचाने के अथक प्रयासों की ।
    वैश्विक  नेता यदि लैंगिक समानता को लेकर गंभीर हैं तो उन्हंे जलवायु परिवर्तन के संबंध में भी गंभीर होना होगा । पेरिस जलवायु वार्ता में जलवायु संबंधी कार्यवाही को लेकर सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं पर्यावरण समूहों जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, डाक्टर्स फार क्लायमेट एक्शन एवं नो मोर कोल माइन्स (अब और कोयला खदान नहीं) ने स्पष्ट तौर पर कुछ बातें कही हैं । परंतु ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी को लेकर एक अन्य बाध्यकारी तथ्य है कि वर्तमान में जलवायु संबंधी अकर्मण्यता महिलाओं की आजीविका और उनके जीवन को नुकसान पहुंचा रही है ।
     विषम प्रभाव : जलवायु परिवर्तन का प्रभाव विश्व के अमीर देशों के बजाय गरीब देशों पर बहुत ज्यादा पड़ता है। इन समाजों की महिलाओं के लिए एक बुरी खबर यह है कि इसके प्रभाव लैंगिक तटस्थ नहीं होते । अमीर समुदाय जलवायु जनित घटनाओं जैसे लू या गरम हवा चलना, बाढ़ से निपटने में लगने वाली आर्थिक लागत और स्वास्थ्य प्रभावों से ठीक से निपट सकते हैं लेकिन गरीब देश इस मामले में भाग्यशाली नहीं होते । गरीबी खराब स्वास्थ्य, सीमित आधारभूत संरचनाओं एवं पारिस्थितिकी तंत्र के ह्ास से जुड़ी होती है । अतएव इससे जलवायु प्रभाव से पड़ने वाले जोखिम में वृद्धि होती है ।
    जलवायु परिवर्तन विशेषकर महिलाओं के लिए अत्यंत खराब है क्यांेकि विश्व के गरीबों में उनकी संख्या ज्यादा है और इस वजह से उन्हें इनसे अधिक खतरा   है । इतना ही नहीं जलवायु परिवर्तन की वजह से भी लोगों का गरीबी से बाहर निकल पाना कठिन हो जाता  है ।
    विश्वभर में मौसम की ज्यादती पुरुषों के बजाए महिलाओं को ज्यादा मारती है । ज्यादती के बढ़ने के साथ ही साथ लैंगिक असंतुलन बढ़ता जाता है । बांग्लादेश में सन् १९९१ में आए समुद्री तूफान में मारे गए १,५०,००० व्यक्तियों में से ९० प्रतिशत महिलाएं थीं । इन विध्वंसों में बचे हुए लोग गरीबी, सामाजिक नियंत्रणों और निर्णय लेने की भूमिका संबंधी सामाजिक परिस्थितियों या आडम्बरों से भी प्रभावित होते हैं । उन्हें तैरना जैसी सामान्य गतिविधि का मूलभूत ज्ञान भी नहीं होता । यदि वे कहीं आकस्मिक तौर पर रहने की व्यवस्था कर भी लेते हैं तो महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा का जोखिम भी बढ़ जाता है ।
    महिलाओं को मच्छरों से काटने वाली बीमारियों का खतरा भी ज्यादा होता है क्योंकि पानी लाने एवं फसल काटने जैसे कार्य वे ही करती हैं, जिसमें कि मच्छरों से निकट संपर्क ज्यादा होता है । बाढ़ के बाद अत्यधिक नमी के साथ तापमान वृद्धि की वजह से मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियों की आशंका बढ़ जाती है। बच्चें के साथ ही साथ गर्भवती महिलाओं को भी मलेरिया का खतरा ज्यादा होता है । बीमारी या महामारी फैलने की दशा में महिलाएं ही सुश्रुषा ज्यादा करती हैं इससे उनकी आर्थिक उत्पादकता को भी नुकसान होता है ।
     बढ़ती खाद्य असुरक्षा भी महिलाओं और लड़कियों को ज्यादा प्रभावित करती है। महिलाओं को कुछ पोषण तत्वों की आवश्यकता पुरुषों एवं लड़कों से अधिक होती है, वह भी उनके क ोर परिश्रम पर जाने की आयु के पूर्व  । कुछ संस्कृतियों में महिलाएं एवं बच्च्े तब तक खाना नहीं खाते जब तक कि वयस्क पुरुषों ने अपना पूरा पेट न भर लिया हो । इससे भी महिलाओं का स्वास्थ्य को खतरा बढ़ जाता है क्योंकि परिवारों में भोजन की कमी तो बनी ही रहती है । चंूकि भोजन की कमी लगातार बढ़ती जा रही है और यह महंगा भी होता जा रहा है ऐसे में महिलाएं परिवार को भोजन उपलब्ध करवाने के एवज में अपनी दवाई सहित अनेक अनिवार्य वस्तुओं का त्याग कर देती हैं।
    पानी की कमी के चलते हुए उन्हें भारी वजन लेकर लंबी दूरी तय करना पड़ती है । यह न केवल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है बल्कि इससे महिलाओं की आय अर्जन संबंधी गतिविधियों एवं शिक्षा में भागीदारी घटती है । इतना ही नहीं इससे लैंगिक समानता के अवसर और अधिक सीमित हो जाते हैं । अधिक तापमान शारीरिक श्रम की क्षमता को भी सीधे-सीधे सीमित कर देता है । भोजन, पानी और भूमि की बढ़ती कमी से भविष्य में संघर्ष बढ़ेगंे और जबरिया पलायन भी होगा । सामाजिक विघटन की ऐसी स्थिति में महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा में वृद्धि होगी । एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जलवायु परिवर्तन के प्रमुख कारक महिलाओं एवं लड़कियों के स्वास्थ्य को सीधे-सीधे नुकसान पहंुचाते हैं ।
    घर के अंदर लकड़ी से खाने बनाने की वजह से प्रदूषण होता है और यहां भी सर्वाधिक प्रभावित लड़कियां और महिलाएं ही होती है। चूल्हे से फैले प्रदूषण की वजह से फेफड़ों की क्षमता में कमी, टीबी एवं निमोनिया जैसी बीमारियां भी बड़ी संख्या में होती हैं । प्रतिवर्ष करीब विश्वभर में ४० लाख महिलाएं समयपूर्व मृत्यु की शिकार हो जाती है ।
    भविष्य का रास्ता :- सौभाग्यवश अमीर देश काफी कुछ कर सकते हैं । वह अपना उत्सर्जन कम करने के साथ ही साथ सोची समझ विकास परियोजनाओं की वजह से जोखिम में पड़े समुदायों की गरीबी में कमी, स्वास्थ्य की बेहतर, व्यवस्था जलवायु परिवर्तन पर रोक एवं महिलाओं का सशक्तिकरण संभव है। सुस्थिर कृषि तकनीकों का शिक्षण, या घरों में पानी और सौर ऊर्जा के लिए अधोसंरचना उपलब्ध करवाने वाली परियोजनाएं तैयार की जा सकती हैं । बायोगैस संयंत्र एक ऐसी तकनीक है जिससे बहुत सारे लाभ प्राप्त हो सकते हैं । इससे समानांतर तौर पर सेनिटेशन और गोबर प्रबंधन के साथ मुत एवं भोजन पकाने हेतु साफ इंर्धन विकल्प के साथ ही जैविक खाद भी प्राप्त हो सकती है ।
    बायोगैस प्रणाली से सीधे सीधे स्वास्थ्य में सुधार (पेट संबंधी, आंख संबंधी एवं सांस संबंधी बीमारियां) होता है एवं कार्बन उत्सर्जन एवं वनों के विनाश में भी कमी आएगी । बेहतर कृषि प्रणालियां एवं खाद्य उत्पादन के चलते आमदनी बढ़ने के गरीबी से छुटकारा    मिलेगा । गौरतलब है उपरोक्त भूमिका अकसर महिलाएं ही निभाती है। स्थानीय समुदायों को साथ लेकर जीवन परिवर्तन के अनगिनत अवसर पैदा किए जा सकते हैं । महिलाओं और उनके समुदायों को स्वास्थ्य एवं आर्थिक लाभ तुरंत पहंुचाए जाने की आवश्यकता है । दीर्घावधि उपायों में कार्बन उत्सर्जन की कमी और समुदायों में लचीलापन पैदा करना शामिल है ।
    उत्सर्जन मेें कमी को हम जितना टालेंगे वह अधिक महँगा और कम प्रभावशाली होता जाएगा, इसमें बहुत सारे लोग मारे जाएंगे । इनमें से अधिकांश महिलाएं ही होगी । पेरिस सम्मेलन में एक सौदेश्य वैश्विक समझौतों पर सहमति अब सन्निकट दिख पड़ती है । समय आ गया है कि जब विश्व कोयले पर अपनी निर्भरता समाप्त करने और इसके बदले स्वच्छ ऊर्जा और अधिक स्वस्थ, अधिक समृद्ध एवं लैंगिक समानता वाले भविष्य की ओर कूच करे ।
वानिकी जगत
हर इंसान के लिए ४२२ पेड़
डॉ.डी. बालसुब्रमण्यन

    पृथ्वी पर कितने पेड़ हैं ? विश्व भर के ३८ शोधकर्ताआें के दल द्वारा किया गया अध्ययन नेचर जर्नल में प्रकाशित हुआ है । इसमें बताया गया है कि दुनिया भर में ३० खरब पेड़ मौजूद है । अर्थात प्रति व्यक्ति ४२२ पेड़ इस ग्रह के हर व्यक्ति के लिए एक छोटा सा जंगल । वास्तव में यह धरती मां का उपहार है ।
    शोधकर्ताआें ने इन आंकड़ों का अनुमान कैसे लगाया ? उन्होनें तीन प्रमुख तरीकों का इस्तेमाल किया । पहला उपग्रहों से प्राप्त् चित्रों की मदद से, दूसरा जंगलों की ४,३०,००० सूचियों के आधार पर पेड़ों का घनत्व निकालकर, और तीसरा कम्प्यूटेशनल तरीके से प्रति हेक्टर में पेड़ों की संख्या की सैद्धांतिक गणना करके । पेड़ को कैसे परिभाषित किया गया ? पेड़ वह वनस्पति है जिसके काष्ठीय तने का व्यास छाती की ऊंचाई (यानी साढ़े चार फीट) पर १० से.मी. से अधिक हो । 
     लगभग १३.९ खरब पेड़ (विश्व के करीब ४३ प्रतिशत) उष्णकटिबंधीय और भारत जैसे अर्धउष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में है । ७.४ खरब पेड़ (२५  प्रतिशत) रूस, स्कैंडिनेविया और उत्तरी अमेरिका के उप-आर्कटिक क्षेत्र के बोरीयल जंगलों में, और ६.१ खरब (या २२ प्रतिशत पेड़ शीतोष्ण क्षेत्र में है ।
    कुछ क्षेत्रों में जंगल बहुत घने हैं । जैसे ऊपरी बोरीयल या अमेजन के जंगल उष्णकंटिबंधीय  जंगलों से कहीं अधिक घने है (प्रति इकाई क्षेत्र में ज्यादा पेड़) । रोचक (और अपेक्षित) बात यह है कि मनुष्यों की जनसंख्या का घनत्व उष्णकंटिबधीय क्षेत्रों में ज्यादा है, जो यह दर्शाता है कि हम पेंड़ों पर कितना ज्यादा निर्भर है । मनुष्य अनिवार्य रूप से पेड़ों पर निर्भर प्रजाति है । तमिल में हाथियों के बारे में कहा जाता है कि एक जीवित (और मौत के बाद भी) हाथी हजार गिन्नियों के बराबर होता है ।
    यह बात पेड़ों के बारे में तो और भी सही बैठती है । इस निर्भरता को प्राचीनकाल से ही स्वीकार किया जाता रहा है और कई सभ्यताआें में पेड़ों का आदर किया जाता है और यहां तक कि देवता तक माना जाता है । हिन्दु पुराणों में विश्व की उत्पत्ति समुद्र मंथन से मानी जाती है जिसमे कल्पतरू पेड़ और कामधेनु प्रकट हुए थे । कल्पतरू ने सब कुछ (पौधे, जन्तु और मनुष्य) दिया और कामधेनु सभी आवश्यकताआें की पूर्ति करती है ।
    विकासवादी जीव विज्ञान हमें बताता है कि पेड़ और पौधे कैसे   आए । जमीनी पौधों की उत्पत्ति का काल ५०-६५ करोड़ सालों पहले का है । और उनकी उत्पत्ति हरे रंग की शैवाल से हुई जो उथले साफ पानी में पनपती थी और सूरज की रोशनी का उपयोग करके वृद्धि के लिए वायुमण्डल की कार्बन डाईऑक्साइड से ऊर्जा उत्पन्न करती थी । इस प्रक्रिया का जो अपशिष्ट उत्पाद वे छोड़ते थे, वह थी ऑक्सीजन गैस । और जब जमीनी पौधों की संख्या बढ़ी, और वे फैलते गए, तो प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के फलस्वरूप ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती गई ।
    इसका नकारात्मक पक्ष यह रहा कि समय के साथ ऑक्सीजन में वृद्धि से ऑक्सीकरण की मात्रा बढ़ी और कई जीव इसमें भस्म हो गए । इस ऑक्सीजन विषाक्तता के अलावा समय-समय पर पर्यावरणीय हमलों (उल्काआें और धूमकेतुआें की टक्करों) ने कई जीव-रूपों का सफाया किया और उन्हें जीवाश्म में तबदील कर दिया । इस प्रक्रिया में लकड़ी का कोयला और तेल जैसे पदार्थ बने और जमीन में दफन हो गए । इन्हीं को जीवाश्म ईधन कहते हैं ।
    विकासवाद की पहचान है पर्यावरण के साथ अनुकूलन । ऑक्सीजन बढ़ने पर ऑक्सीजन-श्वसन करने वाले जन्तुआें (मनुष्य भी) की उत्पत्ति हुई जो ऑक्सीजन की मदद से भोजन का पाचन करते हैं और उस ऊर्जा के उपयोग से शरीर क्रियाएं चलाते हैं और वृद्धि करते    हैं । इस क्रियामें कार्बन डाईऑक्साइड अपशिष्ट के रूप में बाहर निकलती है ।
    पौधों और मनुष्य के बीच यह लेन-देन का मामला है । हम पेड़-पौधों के अपशिष्ट पदार्थ (ऑक्सीजन) को लेते है और कार्बन डाईऑक्साइड अपशिष्ट के रूप में बाहर निकालते हैं जबकि पेड़-पौधे इसका उलटा करते हैं । यह लेन-देन का सिलसिला लम्बे समय से चला आ रहा है और संतुलन तभी बना रह सकता है जब इनपुट और आउटपुट बराबर रहे । मगर हमने अपनी प्रगति और सुविधा के लिए इस संतुलन को गहरा धक्का पहुंचाया है ।
    हमने ज्यादा से ज्यादा जीवाश्म ईधनों को ऊर्जा के लिए जला डाला, और खुद के लिए और अधिक जगह बनाने के चक्कर में प्रति वर्ष १५ अरब पेड़ काट डाले । कार्बन डाइऑक्साइड एक ग्रीन हाउस गैस है (जो सूरज की रोशनी को धरती पर आने देकर पृथ्वी को गर्म रखती है, लेकिन गर्मी को वापिस आकाश में बिखरने नहीं देती है) इस रूकी हुई गर्मी ने इस ग्रह की जलवायु का नाश करने का काम किया है - पूरी तरह अनिर्वहनीय स्थिति है । इसलिए यह बहुत ही जरूरी है कि पेड़ों को बचाया जाए और वैकल्पिक ईधनों (पवन, सौर, पनबिजली वगैरह) की तरफ ध्यान दिया जाए ।
विज्ञान हमारे आसपास
कीटनाशक : धीमी मौत की आहट
सुश्री आकांक्षा
    पृथ्वी पर जीवन हवा, पानी, जमीन, जन्तु और पौधों पर ही निर्भर है । ये सब शुद्ध व पर्याप्त् मात्रा में होने चाहिये । अफसोस की बात है कि मानव आर्थिक विकास व बढ़ती जनसंख्या की समस्या का सामना करने के लिये ऐसे-ऐसे उपाय अपना रहा है कि इस पृथ्वी पर जीवन का मूल आधार ही नष्ट होने का खतरा हो गया है ।
    जल, हवा, अनाज, फल, सब्जी व अन्य खाद्य पदार्थ अधिकाधिक मात्रा में प्रदूषित हो रहे हैं । खेती योग्य जमीन घट रही है । जमीन का ताप बढ़ रहा है । धु्रवीय हिमखण्ड पिघल रहे है । ओजोन पर्त में छेद बढ़ रहा है जिससे विकीरण का दुष्प्रभाव बढ़ रहा है । इस तरीके से तो आगामी कुछ दशकों में मानव सभ्यता पृथ्वी से गायब हो जायेगी या विकृत हो जायेगी । 
     हाल ही में एक खबर पढ़ी अब तो मां का दूध भी जहरीला हो गया है । जिसमें बताया गया कि पशुआें के दुध मेंनिकल, सीसा व आइरन की मात्रा तय मानक से अधिक पाई गई ।
    यह खबर वाकई में चिंता पैदा करने वाली है । मनुष्य अब कहॉ तक बचेगा ? दूध तो सब को पीना पड़ता है बच्चे को बड़ों को ।
    कीटनाशकों के बुरे प्रभाव के बारे में पत्र-पत्रिकाआें और अखबारों में खबरें अक्सर आती रहती हैं पर इसे रोकने हेतु कोई बड़ा प्रभावी कदम अब तक नजर नहीं आया । क्या यह जहरीले रसायनों का बढ़ता प्रयोग वाकई में गौर करने लायक नहीं है या इस पर तब ध्यान दिया जायेगा जब सारी धरती बंजर हो जायेगी, कृषि योग्य जमीन शून्य हो जायेगी, अधिकांश जनसंख्या बीमार हो जायेगी, कोई दवा स्वास्थ्य देने लायक नहीं बचेगी ?
    पिछले दिनों में कई टीवी चैनलों ने बताया कि दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में पैदा होने वाली सब्जियों में बड़ी मात्रा में जहरीले रसायन, कीटनाशक व अवशिष्ट पाये गये हैं । दिल्ली के एक कोर्ट ने सरकार से इस बारे में जवाब मांगा है । सरकार ने इस पर नियंत्रण के लिये यद्यपि कई वर्षोसे पूर्व से कई आथोरिटी बना रखी है । जैसे - सेन्ट्रल इंसेक्टिसाइड बोर्ड एन्ड रजिस्ट्रेशन कमेटी, फूड सेफ्टी एण्ड स्टेन्डर्ड आथॉरिटी ऑफ इण्डिया, एग्रीकल्चर एण्ड प्रोशेस्ड फूड प्रॉडक्ट्स एक्सपोर्ट डिवलपमेंट अथोरिटी पर जमीन पर कोई फायदा  नजर नहीं आया ।
    सन् २०११ में कृषि विभाग की एक जारी की गई रिपोर्ट में देश के विभिन्न खाघान्न नमूनों में डी.डी.टी., लिंडेन, मोनोकोटफोस जैसे खतरनाक रसायन अधिक मात्रा में पाये गये । इलाहाबाद के टमाटर के एक नमूने में डीडीटी की मात्रा १०८ गुना अधिक, गोरखपुर के एक नमूने में सेब में क्लोरडेन नामक घातक रसायन पाया गया । सन् २०१४-१५ में एक अन्य कमेटी केन्द्रीय कीटनाशक अवशिष्ठ निगरानी योजना ने देश के २०,६७८ नमूनों के आठवेंभाग में प्रतिबंधित कीटनाशक पाये गये ।
    देश में ६७ रासायनिक कीटनाशक प्रतिबंधित है पर काफी संख्या में लोग इनका अंधाध्ंाुध प्रयोग कर रहे है । या तो उन्हें इसकी जानकारी नहीं है अगर है तो अधिक उत्पादन के लालच में इनका प्रयोग कर रहे हैं । कई कृषक भ्रमवश इनका अधिक व बिना जरूरत, पैदावार बढ़ाने के मकसद से इनका प्रयोग करते हैं ।
    कृषि में १३ रसायन नियंत्रित मात्रा के लिए प्रतिबंधित हैंपर इसका ध्यान रखने या चैक करने की जिम्मेदारी किस पर है पता ही नहीं चल रहा ?
    कई रसायन अन्य देशों में प्रतिबंधित कर दिये गये हैं जैसे मोनोकोटोफोस जिससे बिहार के एक स्कूल में२० बच्च्े मर गये थे, इन्डोसल्फोन जिसे ८१ देश प्रतिबंधित कर चुके हैं, भारत में धड़ल्ले से बिक रहे हैं । डीडीटी को अब भी प्रतिबंधित नहीं किया है ।
    अंधाधुंध प्रयोग के कारण औसत भारतीय अपने भोजन में १२.८ से ३१ पीपीएम डीडीटी, गेहूं में १.६ से १७.४, चावल में ०.८ से १६.४, दालों में २.९ से १६.९, मुंगफली में ३.० से १९.१, साग सब्जी में ५.० आलु में ६८.५ पीपीएम कीटनाशक खा रहा है । यह मानक से काफी ज्यादा है । अनाज, फल, सब्जी को पानी से धोने से भी अन्दर पहुंचे जहर को नहीं निकाला जा सकता । आल इण्डिया मेडिकल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडीकल साइन्रेस के एक सर्वे के अनुसार एल्युमीनियम फोसफोइड से रोहतक में ११४ यूपी में ५५, हिमाचल में ३० व्यक्ति मारे गये या बीमार हुए ।
    हरियाणा के कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने कपास के खेत की मिट्टी में मेटासिस्टोक्स, साइपरमैरिन, क्लोरोपाइरीफॉस, क्वीनलफोस, साइपरमैथरीन, ट्राइजोफॉस के अवशेष पायेे ।
    वर्ष २००५ मेंसेंटर फोर साइन्स एण्ड एनवायरमेंट ने पंजाब में उगी कुछ फसलों में कीटनाशकों की मात्रा १५ गुना से ६०५ गुना तक पाई गई । मात्र कीटनाशकों के पैकेट्स पर बारीक अक्षरों में चेतावनी लिखी रहती है जिससे उसका ना के बराबर असर होता है । भारत में खाद्य पदार्थो में कीटनाशकों का अवशेष २० प्रतिशत है जबकि विश्व में यह २ प्रतिशत है । भारत में बिना अवशेषों के ४९ प्रतिशत खाद्य पदार्थ है जबकि विश्व में यह संक्ष्या ८० प्रतिशत है ।
    वर्तमान हालात विभिन्न संचार साधनों में प्रकाशित खबरों के आधार पर इस प्रकार है, निम्न जानकारी प्रकाश में आयी है -
    भारत में कुल ४० हजार कीटों की पहचान की गई इनमें १००० कीट लाभदायक माने गये हैं, ५० फीट साधारण है एवं ७० कीट ही काफी नुकसानदायक है ।
    इन थोड़े से कीटों के लिये देश मेंसैकड़ों की संख्या में घातक रसायनों का हल्ला बोल दिया गया है जैसे रोगोर, मैडा पराई, इमिडाक्लो-रापिअ, मैकोजेब, सॉफ, प्रोफिजिफोस, साइप्रोसिन, बीएचसी, एल्ड्रोन, मिथाइल पैराथियोन, टांक्साफेन, हेप्टाक्लोरलिन्डेन, एसिटामिप्रिड, फैम फिप्रोनल, एन्डोसल्फोन आदि ।
    थकज की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया मेंइतने कीटनाशकों के प्रयोग के बावजूद फसलोंमें नुकसान स्थिर ही है । कई जगह तो इनकी तनिक भी जरूरत नहीं है भारत में बिना इनके, कई स्थानों पर धान की अच्छी फसल ली गई है ।
    अत: इनके प्रयोग पर पुन: विचार करने की जरूरत है । कीटनाशक पदार्थ कीटों को ही नुकसान नहीं पहुचाते वे -
१. भूमि को बंजर बनाते हैं ।
२. लम्बे समय तक जमीन को जहरीला रखते हैं । नदियों का, तालाब का पानी तक जहरीला हो गया है कई स्थानों पर ।
३. जमीन से यह जहर नदियों व समुद्र में जाकर जैव श्रृंखला को प्रभावित करता है । अंत में मनुष्य तक पहुंचता है ।
४. कई प्रजातियों को तो गायब ही कर रहा है जैसे मोर, गिद्ध, कौआ, चील, चिड़ियाएें, लाभदायक कीड़े-मकोड़े स्थान-स्थान पर जनता ने यह महसूस भी किया है कि ये जीव अब नजर नहीं आते या इनकी सामूहिक मौत की खबर सामने आती है ।
५. खेत में काम करने वाले कृषक मजदूर कई तरह की बीमारियों से पीड़ित हो जाते हैं । एक अखबार के अनुसार अबोहर से बीकानेर चलने वाली ट्रेन नं. ३३९ को कैंसर एक्सप्रेस नाम दे दिया है जिसमें बड़ी संख्या में बीमार किसान मजदूर जाते है । पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों के २००१ से २००९ तक २३००७ लोग कैंसर से पीड़ित पाये गये ।
६. मनुष्यों में ये मितली, डायरिया, दमा, साइनस, एलर्जी, प्रतिरोधक क्षमता की कमी, मोतियाबिंद, कैंसर, लिवर-गुर्दे खराब, उल्टी, सिरदर्द व मृत्यु तक देते हैं ।
७. इनके प्रयोग के कुछ वर्षोबाद कम पैदावर से किसान को भयंकर नुकसान होने से आत्महत्याएें होना, उनका इस पेशे से पलायन करना घटित होता है । राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार १९९७ से २००९ के बीच १,९९,१३२ किसानों ने आत्महत्या की है ।
८. भारत निर्यात के लिये बड़ी मात्रा में कीटनाशक का उत्पादन भी करता है । इससे भोपाल कांड जैसे कांड की संभावना आशंका हरदम बनी रहती  है ।
९. इनके प्रचार प्रसार में उद्योगपतियों के आर्थिक हित मुख्य कारक हैं ।
    यह विचारणीय है कि यह उत्पादन बढ़ाने के नाम पर हम प्रकृति को गंभीर नुकसान तो नहीं पहुंचा रहे हैं ? कमाने के चक्कर में दूसरों को जबरदस्ती यह जहर क्यों बांट रहे है ? जीने का अधिकार तो सब को है । जब सब अधिकांश अनाज, फल सब्जी विक्रेता जहरीला पदार्थ बेचेंगे और राज्य सही ढग से कन्ट्रोल नहीं करेगा तो एक आम नागरिक क्या कर सकता है ? मानवाधिकार आयोग को क्या यह बड़ा मुद्दा अभी नहीं लगता ?
    आखिर पैदावार कब तक बढ़ाते रहेंगे कम होती जमीन में ? धरती के अनुपात में जनसंख्या को सीमित रखने पर ध्यान क्यों नहीं दिया जाता ? पैदावर बढ़ाने के लिये जैविक खाद, उन्नत बीज, कम पानी वाली फसलें व अन्य वैज्ञानिक तरीके अपना कर खाद्य समस्या को हल करने की जरूरत   है ।  जहर बनाकर किसी देश को भी बेचो शेष में वह मानव जाति को ही नुकसान पहुंचायेगा । धरती को जीने लायक रहने दिया जाये तो बुद्धिमता है ।
पर्यावरण परिक्रमा
उज्जैन में आयुर्वेद से शुद्ध होगी शिप्रा
    म.प्र. के उज्जैन में सिंहस्थ से पूर्व शिप्रा को वैदिक पद्धति से शुद्ध करने की कवायद की जा रही है । सिंहस्थ में शिप्रा शुद्ध और प्रवाहमान बनी रहे, इसके लिए वेद शास्त्र और आयुर्वेद का सहारा लिया जाएगा । ऐसे कईपौधे व वनस्पति हैं, जिनकी जड़ व पत्तों से पानी शुद्ध हो जाता   है । वन विभाग ने ऐसे पौधों को शिप्रा शुद्धीकरण में प्रयोग करने का प्रस्ताव बनाकर प्रशासन को भेजा है। इसमें अपामार्ग (चिरचिड़ा) नागरमोथा (मुश्ता), बच (बचा), हर्रा (हरण), बकुपा रेडग्रास (घास प्रजाति) के पौधों का प्रयोग किया जाएगा । साथ ही कुछ जलीय जन्तुआेंको भी नदी में छोड़ा जाएगा, जो पानी से गंदगी को नष्ट कर देते हैं । मृगल मछली नदी की गहराई में काम करती है । इसके ऊपर रोहू प्रजाति की मछली और कतला ऊपरी सतह पर सफाई का काम करती है । कछुए भी सफाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । नदी में ऑक्सीजन नियंत्रण के लिए कई वनस्पति व जीव हैं । इसके लिए शैवाल को शामिल किया है ।
    संत समाज ने भी वन विभाग के इस प्रस्ताव पर मुहर लगा दी है । संतोंके मुताबिक प्रशासन नदी को साफ रखने के लिए ओजोनेशन प्लांट पर फिजूलखर्चीकर रहा है । मां शिप्रा के शुद्धीकरण में वेद शास्त्र, आयुर्वेद पद्धति व वनस्पति से बेहतर कुछ हो नहीं सकता है । नगर निगम ने सिहंस्थ अवधि (दो माह) के लिए शिप्रा सफाई का ९ करोड़ रूपये का आयोनेशन प्लांट का प्रस्ताव तैयार किया है ।

दुनिया का पहला इलेक्ट्रानिक पौधा विकसित
    स्वीडन के वैज्ञानिकों ने एक बड़ी कामयाबी हासिल की है । एक जीवित पौधे के ट्रांसपोर्टशन सिस्टम यानी संवहन तंत्र में सर्किट लगाकर उसे दुनिया का पहला इलेक्ट्रानिक पौधा बना दिया है । इसे विज्ञान के एक नए युग को शुरूआत माना जा रहा है । स्वीडन के लिकोपिंग यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताआें के दल ने पौधों के अंदर लगाए गए तारों, डिजिटल लॉजिक और प्रदर्शनकारी तत्वों को दिखाया गया है ।
    पौधों में रासायनिक मार्गो पर नियंत्रण से प्रकाश संश्लेषण आधारित ईधन सेल, सेसंर्स (ज्ञानेद्रियों) और वृद्धि नियामकों के लिए रास्ता खुल सकता है । ऐसा भी समय आएगा, जब पौधों की पूरी जैविक क्रियापर इनसान का नियंत्रण हो सकेगा ।
    ऊर्जा की मदद से पर्यावरण और वनस्पति विज्ञान के नए रास्ते खुलेगे । ऐसे उपकरण भी तैयार किए जा सकते है, जो पौधो की आंतरिक क्रियाआेंको व्यवस्थित कर सके  । पौधोंकी सेहत पर निगरानी रखी जा सकेगी । इससे पहले वैज्ञानिकों के पास जीवित पौधे की अंदरूनी प्रक्रिया मापने का अच्छा उपकरण नहींथा । इस शोध से हम पौधों का विकास करने वाले पदार्थो की मात्रा प्रभावित करने में सक्षम है । 
सौर ऊर्जा तीन गुना हुई सस्ती
    अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में सौर ऊर्जा ने एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है । पिछले पांच सालों में सौर ऊर्जा की कीमत प्रति यूनिट तीन गुना कम हुई है । इससे इस क्षेत्र में विकास के कईऔर रास्ते खुल गए है ।
    पांच वर्ष पूर्व शुरू हुए जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सोर ऊर्जा मिशन की औपचारिक शुरूआत के बाद से अब तक सौर ऊर्जा की कीमतों में लगातार कमी दर्ज की गई है । यह जानकारी केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा बनाई एक उच्च् स्तरीय समिति ने अपनी एक रिपोर्ट के प्रारंभिक आंकलन में कही है । रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष २०१० में जहां प्रति यूनिट सौर ऊर्जा की कीमत १८ रूपये थी, वहीं अब पांच रूपये प्रति यूनिट से भी कम हो चुकी है । कुछ माह में इसकी दरों में और कमी देखने को मिल सकती है । इसके लिए सौर ऊर्जा उत्पादकों को आक्रामक बोली, उत्पादन तकनीक में सुधार और सौर ऊर्जा का उपकरणों की कीमतों में आई गिरावट बड़े कारण है । उपकरणों की कीमतों में आई कमी इस क्षेत्र में बढ़ती प्रतिस्पर्धा तथा सब्सिडी के कारण   है । यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसे अभी भी पूरी तरह विकसित होना है उसकी कीमतों में गिरावट महत्वपूर्ण बात   है ।
    रिपोर्ट में कहा गया है कि कीमतों में यह कमी नवीकरणीय ऊर्जा को बहुप्रतीक्षित ग्रिड समता प्रदान करती है । इससे यह उम्मीद पैदा होती है कि सौर ऊर्जा उम्मीद से कहीं जल्दी कोयला अथवा गैस से उत्पादित होने वाली पारंपरिक ऊर्जा को गंभीर टक्कर दे सकती है । हालांकि इसका एक दूसरा पहलू भी है ।

पैडल घुमाकर घर में बना सकेंगे बिजली
    बिजली की किल्लत से जूझ रहे परिवारों के लिए अच्छी खबर है । जल्द ही वे एक विशेष साइकिल के पैडल घुमाकर अपने लिए बिजली बना सकेगे । पैडल मारने से एक फ्लाईव्हील घूमने लगती है जो एक जेनरेटर को स्पिन करती है । यह इस सिस्टम से जुड़ी बैटरी को चार्ज करता है ।
    इस बिजली को बैटरी में स्टोर भी किया जा सकेगा । अपनी ९९ फीसदी संपत्ति दान कर चर्चा में आए भारतवंशी अमरीकी अरबपति मनोज भार्गव ने पहली बार यह मशीन दुनिया के सामने पेश की । अगले साल से मार्च महीने से यह मशीन बाजार मेंउपलब्ध होगी ।
    नई दिल्ली में पिछले दिनों श्री भार्गव ने पैडल घुमाकर सात वॉट के २४ बल्ब जलाने, एक पंखा चलाने और फोन चार्ज करने लायक बिजली बनाने की तकनीक का प्रदर्शन  किया ।
    श्री भार्गव ने कहा, दुनिया के करीब १.३ अरब लोग ऐसे हैं, जिनके  पास बिजली नहीं है । इस उपकरण के जरिए घर-घर में बिजली बनाई जा सकेगी । हालांकि, उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि इससे कुछ बल्ब, एक पंखा और मोबाइल रिचार्ज कर सकने जैसे काम ही हो सकेगे । इससे फ्रिज या एसी नहीं चलाया जा सकेगा । भार्गव ने बताया कि भारत में इस उपकरण को बेचने की शुरूआत उत्तराखंड से होगी, उसके बाद इस पूरे देश में उपलब्ध कराया जाएगा ।
मेट्रो के लिए कटेंगे दो हजार पेड़
    अहमदाबाद शहर में मेट्रो प्रोजेक्ट का कार्य प्रगति पर है । मेट्रो  ट्रेन के तय रूट पर सड़कें ८० फीट चौड़ी करनी पड़ेगी । साथ ही मेट्रो ट्रेन के लिए दो हजार से अधिक पेड़ों को काटना पड़ेगा । मेगा मेट्रो कंपनी ने पेड़ों को काटने के लिए मनपा आयुक्त से मंजूरी मांगी है ।
    मेट्रो मेगा कंपनी के पहले चरण में अहमदाबाद के पूर्व क्षेत्र में वस्त्राल से एपेरल पार्क के बीच एलिवेटेड कॉरिडोर बनाने का कार्य शुरू कर दिया है । यह पूर्ण होने के बाद कंपनी द्वारा पश्चिम क्षेत्र में एलिवेटेड कॉरिडोर बनाने का कार्य शुरू किया जाएगा । मेट्रो मेगा कंपनी  ने वासणा से मोटेरा रूट आए पेड़ काटने के लिए एक फाइल तैयार की है ।
पहले भालू को दया मृत्यु
    इन्दौर में चिड़ियाघर में ३३ साल पहले सोनू पैदा हुआ था..... यही से विदा हो गया । उस पर इंसानों ने दया की या उसने इंसानों की फितरत पर, ये बहस अब बेमानी है, मगर नियम कायदे की किताब सामने रखकर ०५ दिसम्बर को उसे दया मृत्यु देकर मौत की नींद सुला दिया गया ।
    भारत में किसी भालू को और प्रदेश में चिड़ियाघर के किसी भी प्राणी को दया मृत्यु देने का पहला मामला है । औसत उम्र पार कर चुका सोनू ढाई साल से गंभीर रूप से बीमार था । तीन महीने पहले चिड़ियाघर प्रबंधन ने केन्द्रीय प्राणी संग्रहालय को चिट्ठी लिखकर दया मृत्यु की अनुमति मांगी थी । दो दिन पहले ही अनुमति मिली और बिना देर किए सोनू को इस दर्द से निजात दिलाने की तैयार कर ली गई । जिंदगी की आखिरी सुबह सोनू की तीमारदारी में चिड़ियाघर का पूरा स्टॉफ जुट गया । सुबह नहलाया गया ।  फिर पिंजरे को फूलों से खूब सजाया गया । खाने में शहद, सेब और केले दिए गए । सोनू ने भी बड़े चाव से सबकुछ खाया । वो बेफिक्र था ..... अगले पल कुछ भी हो । इस पल को वो जी रहा था । मंत्रोच्चर के बीच पंड़ितों ने उसे गंगाजल भी पिलाया ।
    उसके आखिरी पलों को कैद करने के लिए उस ताने गए कैमरों पर भी उसकी नजर थी । इसी हलचल के बीच रोज सोनू को खाना खिलाने वाला राकेश पिंजरे मेंगया । आज उसने उसे खाना नहीं, बल्कि भारी मन से बेहोशी की दवा दी । चंद मिनटों में ही सोनू की आंखे बोझिल होने लगी और धीरे-धीरे बंद हो    गई । संासे चल रही थी, पर वो निढाल पड़ा था । लगभग १० मिनट बाद ढाई साल से एक ही पिंजरे में बंद सोनू को बाहर निकाला गया । वन संरक्षक वीके वर्मा की मौजूदगी में डॉ. उत्तम यादव और डॉ. प्रशांत तिवारी ने सोनू के गले की नस में १०० एमएल का इंजेक्शन लगाया । लगभग १५ मिनट बाद उसका जिंदगी से नाता टूट गया ।
कविता
हमें न बांधों प्राचीरों में
डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन

    हम पंछी उन्मुक्त गगन के
    पिंजरबद्ध न गा पायेंगे,
    कनक-तीलियों से टकराकर
    पुलकित पंख टूट जायेंगे ।
    हम बहता जल पीने वाले
    मर जायेंगे भूखे-प्यासे,
    कहीं भली है कटूक निबौरी
    कनक-कटोरी की मैदा से ।
    स्वर्ण श्रृंखला के बंधन में
    अपनी गति, उड़ान सब भूले,
    बस सपनों में देख रहे है
    तरू की फुनगी पर में झूले ।
    ऐसे थे अरमान कि उड़ते
    नीले नभ की सीमा पाने,
    लाल किरण-सी चोंच खोल
    चुगते तारक-अनार के दाने ।
    होती सीमाहीन क्षितिज से
    इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
    या तो क्षितिज मिलन बन जाता
    या तनती सांसो की डोरी ।
    नीड़ न दो चाहे, टहनी का
    आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
    लेकिन पंख दिये है तो
    आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।
    पागल प्राण बंधेंगे कैसे
    नभ की धुंधली दीवारों में ।
ज्ञान-विज्ञान
स्मृतिलोप जन्म के महीने से जुड़ा है
    आपके जन्म के महीने का असर इस बात पर पड़ता है कि आपको डिमेन्शिया (स्मृतिलोप) का जोखिम कितना है । हालांकि यह प्रभाव मोटापे जैसे कारकों के सामने बहुत छोटा है, मगर इससे पता चला सकता है कि कैसे आपकी जिन्दगी के शुरूआती कुछ महीने आपके संज्ञानात्मक स्वास्थ्य को दशकों बाद प्रभावित कर सकते है । 

     युनिवर्सिटी ऑफ रॉस्टाक (जर्मनी) के गैब्रिएल डोबलहैमर और थॉमस फ्रिट्ज ने जर्मनी की सबसे बड़ी बीमा कंपनी के डैटा का अध्ययन किया । इसमें ६५ से ज्यादा की उम्र के १,५०,००० लोग शामिल थे । उम्र और पैदाइश के महीने के अनुसार देखने पर पाया कि जो दिसम्बर से फरवरी के बीच में पैदा हुए थे उनमें डिमेन्शिया होने का जोखिम जून से अगस्त के बीच पैदा हुए लोगों की अपेक्षा ७ प्रतिशत कम था ।
    यह कोई ज्योतिष का मामला नहीं है । यह जन्म के महीने के पर्यावरणीय कारकों जैसे मौसम और पोषण से जुड़ा है । यह कहना है जेरार्ड वैन डैन बर्ग का जो युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल, यूके के एक अर्थशास्त्री है । उन्होनें आर्थिक हालात के स्वास्थ्य पर असर का अध्ययन किया है ।
       उदाहरण के तौर पर, गर्मीमें जन्मे नवजात तब बहुत छोटे होते हैं जब उनका सामना अपनी पहली सर्दी के श्वसन संबंधी संक्रमण से होता है । अतीत में बंसत और गर्मी में जन्मे बच्चें का जन्म होने वाले ताजे फल वगैरह मिलने बंद हो जाते होंगे । लकड़ी और कोयले से होने वाले प्रदूषण की भी भूमिका रही होगी ।
    पूर्व के अध्ययनों से प्राप्त् साक्ष्यों से पता चलता है कि इस तरह के कारक ताउम्र मेटाबॉलिज्म और प्रतिरक्षा तंत्र को प्रभावित कर सकते हैं और मधुमेह, मोटापा और उच्च् रक्तचाप को जन्म दे सकते हैं । डोबलहैमर और फ्रिट्ज के परिणाम यह दर्शाते हैं कि यह बात डिमेन्शिया पर भी लागू होती है ।
    शुरूआती-जिन्दगी के दूसरे कारक जैसे आर्थिक मंदी और अकाल भी बाद में संज्ञान संबंधी स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, लेकिन ये कारक तो लोगों की जीवन-शैली और परिस्थितियों पर लंबे-समय तक प्रभाव डालते हैं । डोबलहैमर का कहना है कि जन्म के महीने की कड़ी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे पता चलता है कि जीवन का शुरूआती समय महत्वपूर्ण होता है ।
    एक अनुमान के मुताबिक पूरे विश्व के ३७ करोड़ लोग डिमेन्शिया से पीड़ित हैं और हर २० साल के बाद इसके दुगना हो जाने की उम्मीद है । डोबलहैमर का कहना है कि हालांकि आप अपना जन्म का महीना तो बदल नहींसकते लेकिन यह बात मायने रखती है कि आप पूरे जीवन के दौरान क्या करते हैं ।
    दूसरे शोधकर्ताआें का कहना है कि यह अध्ययन सीधे तौर पर तो कुछ नहीं कहता है कि जन्म का महीना और डिमेन्शिया के बीच सीधे-सीधे कोई संबंध है लेकिन कुछ संभावना तो जरूर है ।
चीन ने जनसंख्या नीति बदली
    हाल ही मेंचीन ने अपनी दशकों पुरानी जनसंख्या नीति में आमूल परिवर्तन किया है । पिछले कई वर्षो से चीन एक-संतान नीति का सख्ती से पालन करता रहा है और एक से ज्यादा संतान होने पर दंड की व्यवस्था भी थी । यह नीति क्लब ऑफ रोम की रिपोर्ट लिमिट्स टू ग्रोथ के इस निष्कर्ष पर टिकी थी कि जनसंख्या वृद्धि के कारण विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है । 
       इस व्यवस्था में सबसे पहले २०१२ में बदलाव किया गया था जब कुछ दम्पतियों को दूसरी संतान पैदा करने की पात्रता दी गई थी । दूसरी संतान के लिए कि आज का चीन एक-संतान समाज हो चुका है और नीति बदलने से इस सोच में ज्यादा परिवर्तन आने की गुजाइश नहीं है । कुछ लोग तो कह रहे है कि लोगों के प्रजनन पर नियंत्रण पूरी तरह समाप्त् होना चाहिए, अन्यथा जनसंख्या में विसंगतियां पैदा होती ही रहेगी । पात्रता की शर्त यह रखी गई थी कि दोनों में कम से कम एक अपने माता-पिता की इकलौती संतान हो । अब संभवत: एक-संतान नीति को उतनी सख्ती से लागू नहीं किया जाएगा हालांकि शायद दम्पतियों को दूसरी संतान के लिए सरकार से अनुमति लेनी होगी ।
    जनसंख्या नीति में उपरोक्त परिवर्तन मूलत: जनसंख्या की संरचना में हो रहे प्रतिकूल परिवर्तन के मद्देनजर किया गया है । एक-संतान नीति का सबसे प्रमुख असर तो यह रहा है कि लिंग-आधारित गर्भपातोंमें बहुत वृद्धि हुई है । भारत के ही समान चीन में भी पुत्र प्रािप्त् की इच्छा काफीबलवती है । लिंग पता करने के बाद गर्भपात का मतलब है कन्या भ्रूण हत्या । इस रूझान का परिणाम यह हुआ है कि चीन की आबादी मेंलड़कियों-महिलाआें की संख्या में भारी कमी आई है । २०१०  की जनगणना के मुताबिक चीन में प्रति १००० लड़कों पर लड़कियों की संख्या मात्र ८४७ थी । सामान्य स्थिति में जितनी लड़कियां होना चाहिए थी, उनमें से पूरी ६.२ करोड़ लडकिया नदारद थी । एक अनुमान के मुताबिक यदि रातोंरात चीन में जन्म लेने वाले बच्चें का लिंग अनुपात सामान्य हो जाए, तो भी २०५० में कम से कम १० प्रतिशत लड़कों को शादी के लिए लड़कियां नहीं   मिलेगी । 
    एक-संतान नीति का दूसरा परिणाम यह हुआ है कि चीन की आबादी में बुजुर्गो की संख्या बहुत अधिक हो गई है । इसका मतलब है कि काम करने वाले लोग कम  हैं । देश की करीब १२ प्रतिशत आबादी ६० से ऊपर के लोगों की   है । इसका असर चीन के आर्थिक विकास पर पड़ रहा है ।
    दरअसल चीन की कम्यु-निस्ट पार्टी ने एक-संतान नीति में ढील देने का जो फैसला किया है वह मूलत: आर्थिक विकास की धीमी होती रफ्तार से चिंतित होकर ही लिया गया है । मगर कई विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह से सरकारी नीतियां बदलकर खास कुछ हासिल नहीं होगा । आजकल के युवा वैसे भी एक से ज्यादा बच्च्े नहीं चाहते क्योंकि बच्च्े पालना बहुत महंगा हो गया है । जब २०१३ में एक-संतान नीति में कुछ शर्तो के अधीन छूट दी गई थी तब भी कुल पात्र दम्पतियोंमें से मात्र ६ प्रतिशत ने ही इसका फायदा उठाने के लिए आवेदन दिए थे । विशेषज्ञ कहते है हाल ही मेंचीन ने अपनी दशकों पुरानी जनसंख्या नीति में आमूल परिवर्तन किया है । पिछले कई वर्षो से चीन एक-संतान नीति का सख्ती से पालन करता रहा है और एक से ज्यादा संतान होने पर दंड की व्यवस्था भी थी । यह नीति क्लब ऑफ रोम की रिपोर्ट लिमिट्स टू ग्रोथ के इस निष्कर्ष पर टिकी थी कि जनसंख्या वृद्धि के कारण विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है ।
                     इस व्यवस्था में सबसे पहले २०१२ में बदलाव किया गया था जब कुछ दम्पतियों को दूसरी संतान पैदा करने की पात्रता दी गई थी । दूसरी संतान के लिए कि आज का चीन एक-संतान समाज हो चुका है और नीति बदलने से इस सोच में ज्यादा परिवर्तन आने की गुजाइश नहीं है । कुछ लोग तो कह रहे है कि लोगों के प्रजनन पर नियंत्रण पूरी तरह समाप्त् होना चाहिए, अन्यथा जनसंख्या में विसंगतियां पैदा होती ही रहेगी ।
गंध की अनुभूति और रोगों का सम्बंध
    आपने शायद सोचा न होगा कि आपकी गंध संवेदना इतनी महत्वपूर्ण है । कम से कम चूहों पर किए गए प्रयोग तो बताते हैं कि इसका संबंध आपके प्रतिरक्षा तंत्र के कामकाज से हो सकता है ।
     दरअसल, गंध संवेदना तंत्र और प्रतिरक्षा तंत्र के बीच संबंध धीरे-धीरे स्पष्ट होता जा रहा है । जैसे कहते है कि महिलाएं ऐसे पुरूषों की गंध को ज्यादा पसंद करती हैं जिनके प्रतिरक्षा तंत्र के जीन स्वयं उनके जीन्स से अलग होते    हैं । प्रतिरक्षा तंत्र और गंध संवेदना के इस संबंध को और गहराई से समझने के लिए  क्वीन्स मैरी विश्वविघालय के फल्वियो डीएक्विस्टो और उनके साथियों ने चूहों पर कुछ प्रयोग  किए । 
     डीएक्विस्टो ने जो चूहे लिए थे उनमें एक रीकॉम्बिनेन्ट एक्टिवेटिग जीन (आएजी) नदारद  था ।  यह जीन प्रतिरक्षा तंत्र के विकास का नियंत्रण करता है । यह जीन न तो चूहों में एक कामकाजी प्रतिरक्षा तंत्र विकसित नहीं हो पाता और साथ ही कुछ अन्य जीन्स की क्रिया भी थोड़ी बदल जाती है । इन अन्य जीन्स में गंध संवेदना से संबंधित जीन्स भी शामिल होते हैं ।  डीएक्विस्टो को अध्ययन की प्रेरणा इसी बात से मिली थी क्योंकि उन्हें पता था कि प्रतिरक्षा तंत्र से जुड़ी कुछ बीमारियों वाले व्यक्तियों में गंध की संवेदना कम होती है । ये बीमारियां ऐसी होती हैं जिनमें हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं अपनी ही कोशिकाआें पर हमला कर देता है । इन्हें आत्म-प्रतिरक्षा रोग कहते है ।
प्रदेश चर्चा
राजस्थान : धोखे का बीमा कहां होगा
ज्योत्सना सिंह

    निजी फसल बीमा कंंपनियों एवं निजी मौसम भविष्यवाणी कंपनियों की मिलीभगत से भारत के  किसानों को व्यवस्थित तौर पर फसल बीमा में के अन्तर्गत दावों की धनराशि नहीं मिल पा रही है ।
    प्रतिवर्ष हजारों किसान मौसम की मार के चलते बर्बाद हुई फसल को देखकर आत्महत्या कर रहे हैं । परंतु निजी बीमा और मौसम कंपनियों पर कोई असर नहीं हो रहा है । आवश्यकता है इन पर नियंत्रण की । यदि बीमा कपनियां धोखा देने पर उतारु हो जाएंगी तो उसका बीमा हम कहां कराएंगे ? 
     भारतीय मौसम विभाग ने इस वर्ष मानसून में कमी की घोषणा की थी । वहीं दूसरी ओर नोएडा स्थित निजी मौसम भविष्यवाणी एजंेसी ने सामान्य वर्षा का अनुमान लगाया  था । अंतत: मौसम के अंत में भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणी ही सटीक सिद्ध हुई ।  यह किसी एक गलत अनुमान का मामला नहीं बल्कि एक बड़ी समस्या का लक्षण है । वर्तमान में निजी मौसम कंंपनियों की संस्था बढ़कर १० तक पहुंच गई है । लेकिन अभी तक न तो उनकी निगरानी और न ही जवाबदेही तय करने के लिए कोई नियामक संख्था स्थापित हो पाई    है । यह विशेषत: इसलिए जोखिमभरा है क्योंकिइन निजी भविष्यवेत्ताओं का जुड़ाव बीमा कंपनियों से है     जो कि मौसम के आंकड़ों का उपयोग फसल की असफलता की स्थिति    में किसानों के दावों के निपटारे के लिए करती   हैं। वर्तमान ढांचा छल-कपट, भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी को बढ़ावा देता है । ऐसा राजस्थान      के चुरु जिले में सामने आया भी    है ।
    झूठे आंकड़े : सन् २०१२ में चुरु में कम फसल हुई । इस बात से संतुष्ट होकर कि यह खराब मौसम के कारण हुआ है किसान, सरकार द्वारा फसल बीमा के लिए अनुशंसित निजी कंपनी आई सी आई सी आई, लोंबार्ड के समक्ष अपने दावे लेकर पहुंचे । कंपनी ने यह कहते हुए उनके दावे रद्द कर दिए कि एकनिजी कंपनी, नेशनल कोलेट्रल मेनेजमेंट सर्विस लि.(एन सी एम एल) द्वारा उपलब्ध कराए गए मौसम के आंकड़ों में बताया गया था कि फसल के दौरान तापमान और नमी का स्तर सामान्य था । जबकि किसान स्वयं भी एन सी एम एस एल द्वारा जिले में स्थापित स्वचलित मौसम केन्द्रों (ए डब्लू एस) से आकड़ों की प्रति इकट्ठा करते रहे थे । अखिल भारतीय किसान सभा, चुरु के अध्यक्ष निर्मल प्रजापति का कहना है,`` हमें महसूस हुआ कि आइसीआईसीआई के पास उपलब्ध जानकारी झूठी है । इस पर राज्य सरकार ने हस्तक्षेप कर पुणे स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट आफ मैट्रिओलाजी से इन आकड़ों पर विचार मांगे । उनके संस्थान का कहना था कि संस्थान के मौसम संबंधी आंकड़े उसी अवधि में   किसानों द्वारा एकत्रित आंकड़ों से सामंजस्य रखते है । परिणामस्वरूप आईसीआई सीआई लोंबार्ड को किसानों को २५० करोड़ रु. का बीमा देना पड़ा ।
    किसानों को उनका मुआवजा तो मिल गया लेकिन आंकड़ों में किस प्रकार हेराफेरी की गई और इसके लिए कौन जिम्मेदार है, यह जानने के लिए किसी भी प्रकार की जांच नहीं की गई । श्री प्रजापत का कहना है कि निपटारे के दौरान आईसीआई सीआई ने दावा किया कि वे मौसम बताने वाली कंपनी को बदल देंगे । अगले साल मौसम के आंकड़े उपलब्ध करवाने के लिए अब वे स्कायमेट को ले आए हैं । लेकिन इससे किसानों की कोई मदद नहीं होगी । श्री प्रजापति ७का कहना है,`` एमसीएमएसएल मौसम केन्द्र २४ घंटे आंकड़ों का रिकार्ड और संभाल कर रखते थे । हमने वह आंकड़े इकट्ठा किए और उनका आईसीआईसीआई के दावांंें के साथ सत्यापन किया था । लेकिन स्कायमेट तो केवल वर्तमान आंकड़े ही दिखाएगी और जानकारियां बचा कर नहीं रखेगी । अतएव हमारे पास सत्यापन के लिए मौसमी आंकड़े नहीं हांेगे ।
    पटरी से उतरी बीमा प्रणाली : केन्द्र सरकार का राष्ट्रीय फसल बीमा कार्यक्रम (रा.फ.बी.का) के अर्न्तगत मौसम आधारित फसल बीमा योजना (मो आ फ बी यो) विपरीत मौसमी परिस्थितियों की वजह से हुए फसल नुकसान हेतु किसानों को बीमा कवर एवं वित्तीय सहायता प्रदान करता है। इन परिस्थितियों में कम,गैरमौसमी या अतिवृष्टि, गर्मी, पाला गिरना, ओले गिरना और बादल फटना शामिल   हैं । मौसम, हवा और अन्य मापदंडों से संबंधित आंकड़ों के लिए रा फ बी का ने निजी बीमा कंपनियोंको मौसम संबंधी मापदंड रिकार्ड करने हेतु ए डब्लू एस स्थापित करने के  लिए सूचीबद्ध किया है। इन्ही सूचीबद्ध कंपनियों में से ही राज्य या जिला स्तरीय अधिकारी तृतीय पक्ष के रूप में फसल बीमा हेतु मौसम आंकड़े संग्रहित करने हेतु अपने मौसम केन्द्र स्थापित करने वाली कंपनियों का चयन करते हैं । वैसे उपलब्ध आंकड़ों को सत्यापित करने की कोई प्रणाली मौजूद नहीं है।
    राजस्थान के सरकारी अधिकारियों का कहना है कि वह इस बात की नियमित जांच करते हैं कि स्वचलित मौसम केन्द्र ठीक से कार्य कर रहे हैं या नहीं । राजस्थान सरकार के फसल बीमा के सहसचिव बी एस चतुर्वेदी का कहना है, ``यदि कोई एक मौसम केन्द्र काम नहीं कर रहा होता है तो हम उस क्षेत्र से संबंधी मापदंडों को सुनिश्चित करने हेतु पास के किसी केन्द्र से आंकड़े इकट्ठ कर लेते हैं ।``
      किसान निजी कंपनियों के बजाय सरकारी भविष्यवाणियों को प्राथमिकता देते हैं । अखिल भारतीय किसान सभा, राजस्थान के संजय का कहना है, ``भारतीय मौसम विभाग द्वारा उपलब्ध आंकड़ों में गलती हो सकती है लेकिन उनके फसल बीमा कंपनियों से गठजोड़ की उम्मीद कम है । इसके अलावा यदि मौसम विभाग के आंकड़े गलत होगे तो किसान कृषि विभाग से सवाल जवाब कर सकते हैं, परंतु निजी कंपनियों तक किसान की पहुंच बहुत कठिन है ।`` राजस्थान कृषि विभाग के कुलदीप रांका का कहना है रा.फ.बी.का के अन्तर्गत ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसके तहत भारतीय मौसम विभाग आंकड़े उपलब्ध करा सके। वहीं केन्द्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के पूर्व सचिव शैलेंद्र नायक का कहना है,``मांगे जाने पर भारतीय मौसम विभाग विशिष्ट श्रेणी के  आंकड़े भी उपलब्ध करा सकता है । हम मौसम संबंधित तमाम आंकड़े पहले ही कृषि विभाग को दे चुके    हैं ।``
    विशेषज्ञों का कहना है कि गैर सरकारी इकाइयों की भूमिका में स्पष्टता के अभाव का कारण किसी नियामक प्राधिकारी की अनुपस्थिति है। अमेरिका जैसे देशों में जहां पर निजी मौसम कंपनियों का व्यापार खूब फल फूल रहा है वहां की संघीय विमानन एजेंसी (फेडरल एविएशन एजेंसी) उनका नियामन करती है और परिचालन हेतु शर्तों एव नियमों का निर्धारण भी करती है। अमेरिका में सन् १९९५ से २००७ के मध्य अमेरिका में मौसम कंपनियों की संख्या दुगनी हो गई है । फसल बीमा और विद्युत के अलावा अब भवन निर्माण कार्य जैसे अनेक क्षेत्रों में मौसमी आंकड़ों की आवश्यकता पड़ने लगी है। एक राष्ट्रीय एजेंसी ऐसी विशिष्ट सेवाएं उपलब्ध नहीं करवाती अतएव निजी कंपनियां इस उभरते बाजार पर कब्जा तो करेंगी ही ।
    इस बीच भारत में भी निजी मौसम कंपनियों का बाजार लगातार बढ़ रहा है। स्कायमेट भारत की सर्वाधिक लोकप्रिय निजी मौसम कंपनी है । सन् २००३ में प्रारंभ हुई इस कंपनी ने पूरे भारत में २७०० मौसम केन्द्र स्थापित किए हैं जो कि निजी कंपनियों में सर्वाधिक हैं । महाराष्ट्र और राजस्थान इसके दो सबसे बड़े बाजार हैं। चुरु में स्थापित ५० स्वचलित मौसम केन्द्रों में ३० इसी कंपनी के हैं ।
    कंपनी के उप निदेशक ए.एम.शर्मा का कहना है,``हम फसल बीमा कंपनियों को पहले से ही बता देते हैं कि विशिष्ट फसल के मौसम के दौरान भौगौलिक  तौर पर कौन सा क्षेत्र जोखिम भरा रहा सकता है।`` मौसम के उतार चढ़ाव के चलते निजी भविष्यवाणी कंपनियों का बाजार बढ़ेगा और इसी के साथ नियामक प्राधिकारी की आवश्यकता भी बढ़ती जाएगी ।
कृषि जगत
संभव है किसान संकट का समाधान
भारत डोगरा
    ग्रामसुधार के माध्यम से ही किसानों पर कहर बरपाते संकटों से बचा जा सकता है। आवश्यकता है ग्रामीण अर्थव्यवस्था को परिपूर्णता में देखने की । कृषि व अन्य उत्पादक कार्यों को अलग अलग करके देखने से ग्रामीण समाज पर संकट बढ़ता जा रहा है । जबकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सभी स्त्रोत एकदूसरे से जुड़े हुए रहते हैं ।
    किसानों के संकट व खेती किसानी की गंभीर समस्याओं की ओर ध्यान तो बार बार दिलाया जाता है, परंतु समाधान के तौर पर प्राय: अल्प कालीन राहत की ओर ही अधिक झुकाव रहता है। उपज की कीमत बढ़ा देने के अतिरिक्त, क्षतिपूर्ति करने व कर्ज अदायगी पर कुछ रोक लगा देने पर अक्सर जोर दिया जाता है । इस तरह की राहत की जरूरत भी समय समय पर हो सकती है और इसकी मांग भी की जानी चाहिए ।       विशेष तौर पर इस समय जब बहुत से किसान सूखे की गंभीर स्थिति से जूझ रहे हैं तो ऐसी राहत की जरूरत और भी अधिक है। परंतु बहुपक्षीय व जटिल किसान संकट केवल ऐसे उपायों मात्र से हल नहीं हो सकता है । इसके लिए तो कहीं अधिक व्यापक व बहुपक्षीय प्रयास चाहिए जो समग्र रूप में ग्राम सुधार से जुड़ते हों ।
     यदि ऐसा हो तो पर्यावरण की रक्षा व समाज सुधार के कई कार्य भी साथ साथ हो सकेंगे । गांवों में कई रचनात्मक कार्यों के लिए व्यापक एकता बन सकेगी । किसान संगठनों को इन व्यापक संभावनाओं की ओर भी ध्यान देना चाहिए । वैसे भी संकीर्ण आधार का आंदोलन न तो बहुत आगे बढ़ सकता है न टिकाऊ सिद्ध हो सकता है ।
    किसान संगठन स्वयं एक मांग उठाते रहे हैंकि उनके उत्पादन का उचित मूल्य मिले और समय पर भुगतान सुनिश्चित हो । यह मांग बहुत न्यायसंगत तो है लेकिन इसके साथ यह सवाल भी जरूरी है कि कहीं इस स्थान की खेती ऐसी तो नहीं है जो पर्यावरण की दृष्टि से प्रतिकूल   हो । मान लीजिए कि ऐसे स्थान पर बड़े पैमाने पर गन्ना उगाया जा रहा है जहां पानी की कमी है व गन्ने में अधिक पानी लगने के कारण जलसंकट उत्पन्न हो रहा है। इस स्थिति में यदि गन्ने का मूल्य बढ़ाया जाएगा तो गन्ने का उत्पादन और बड़े क्षेत्र में बढ़ाने को प्रोत्साहन मिलेगा व इस कारण क्षेत्र के अन्य सब लोगों के लिए जलसंकट और बढ़ेगा । अत: मांग इस रूप में होनी चाहिए कि किसान जलसंकट हल करने वाली खेती की ओर बढ़ सकें तथा इसके लिए उन्हेंे पर्याप्त सरकारी सहायता प्राप्त हो ।
    अत: किसानों के लिए न्यायसंगत मूल्य की मांग को इस रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए कि किसान मूलत: उन्हीं फसलों को उगाएंगे जो क्षेत्र की मुख्य खाद्य फसलें हैं । इन फसलों को सरकार स्थानीय सार्वजनिक वितरण प्रणाली, राशन की दुकानों, आंगनवाड़ी व पोषण कार्यक्रमों के लिए खरीदेगी । यह खरीद इस मूल्य के आधार पर होगी कि किसानों को पर्याप्त बचत व आय हो । किसान फसल की अच्छी गुणवत्ता सुनिश्चित करेंगे व जहरीली दवाओं आदि का उपयोग फसल में नहीं करेंगे । यदि इस रूप में उचित व न्यायसंगत मूल्य की मांग उठाई जाए तो यह बहुत सार्थक है व खाद्य व पर्यावरण रक्षा से जुड़ जाती है । इस तरह के समग्र कार्यक्रम को अपना कर पर्यावरण की रक्षा व समाज सुधार जैसे अन्य महत्वपूर्ण लक्ष्य भी साथ साथ प्राप्त हो सके ।
पर्यावरण समाचार
प्लास्टिक के इस्तेमाल पर ५००० रू. का जुर्माना
    राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने चण्डीगढ़ में प्लास्टिक सामग्री का इस्तेमाल करने वालों पर ५००० रूपये जुर्माना लगाने की घोषणा की है ।
    न्यायाधिकरण ने इस शहर को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए यह कदम उठाया है । इसके साथ ही न्यायाधिकरण ने प्लास्टिक पर प्रतिबंध संबंधी उसके आदेश के कार्यान्वयन में इच्छा की कमी के लिए चण्डीगढ़ प्रशासन तथा स्थानीय निकाय अधिकारियों की आलोचना की है । एनजीटी के चेयरपर्सन न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली खण्डपीठ ने कहा है, चण्डीगढ़ में प्लास्टिक व सम्बद्ध सामग्री के इस्तेमाल पर पूरी तरह प्रतिबंध हेाना चाहिए । प्लास्टिक का इस्तेमाल किसी भी उद्देश्य से नहीं किया जा सकता है ।
    एनजीटी ने कहा क्षेत्र में अगर कोई भी व्यक्ति प्लास्टिक का इस्तेमाल या प्लास्टिक का काम करता पाया जाता है तो उसे हर बार ५००० रूपये की दर से पर्यावरण जुर्माना देना होगा । न्यायाधिकरण ने चण्डीगढ़ निवासी रिषि देव आनंद की याचिका की सुनवाई करते हुए यह निर्देश दिया । इस याचिका में चंडीगढ़ में कचरा निपटान प्रणाली के पूरी तरह विफल होने का आरोप  लगाया है ।
वर्ष २०१६ भी गर्म रहेगा
    यह साल रिकार्ड स्तर पर अब तक का सबसे गर्म साल रहा है, लेकिन अब अगला साल २०१६ अल नीनो के मौसम पैटर्न के चलते इससे भी अधिक गर्म होने वाला है । संयुक्त राष्ट्र के विश्व मौसम संगठन (डब्ल्ूएमओ) का कहना है कि २०१५ में पृथ्वी की सतह का औसत तापमान उस हद तक चला गया है जिसे सांकेतिक और मुख्य रूप से १९वीं सदी के मध्य से १.० डिग्री सेल्सियस अधिक बताया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र के विश्व मौसम संगठन के प्रमुख माइकल जेराड ने कहा कि हमारी पृथ्वी के लिए बुरी खबर है । विशेष रूप से महासागरों की सतह का तापमान मापे गए तापमान के अब तक के इतिहास का सबसे अधिक तापमान होगा ।