रविवार, 17 जुलाई 2016



प्रसंगवश
गरीबी के जेनेटिक असर
एक ताजा अध्ययन के मुताबिक जेनेटिक्स और पर्यावरण की जटिल परस्पर क्रिया से निर्धारित होता है कि कौन व्यक्ति अवसादग्रस्त होगा । यह देखा गया है कि गरीब परिवारों के बच्च्े सम्पन्न बच्चें के मुकाबले अधिक अवसादग्रस्त होते हैं। इसकी कई वजहें हो सकती है । इनमें कुपोषण, धूम्रपान की ज्यादा आदत और जीवन के संघर्ष से उपजे तनाव शामिल हैं । ये सभी चीजें दिमाग के उस हिस्से को प्रभावित करती हैं जो तनाव से निपटता है । मस्तिष्क की भौतिक संरचना में ये अंतर देखे जा चुके हैं। 
आम तौर पर मस्तिष्क की संरचना में ऐसे अंतर जन्म से ही होते हैं, जिससे लगता है कि माता-पिता द्वारा झेले गए तनाव का असर अगली पीढ़ी में भी नजर आता है । मगर बच्च्े का विकास जन्म के साथ रूक नहीं जाता । ड्यूक विश्वविद्यालय के तंत्रिका वैज्ञानिक अहमद हरीरी का ख्याल था कि जन्म से लेकर किशोरावस्था तक होने वाले परिवर्तनों की भी इसमें कुछ भूमिका होती होगी । उन्होनें अपने विचार की जांच डीएनए संरचना में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर करने की ठानी । 
काफी छानबीन के बाद हरीरी और उनके साथियों ने एक जीन पहचाना जो एक प्रोटीन बनाता है । यह प्रोटीन सिरोटोनिन नामक अणु को तंत्रिका कोशिका में प्रवेश करने में मददगार होता है । यह काफी समय से पता है कि यह जीन अवसाद में कुछ भूमिका निभाता है । हरीरी के दल ने एसएलसी६ए४ नामक इस जीन पर ध्यान केन्द्रित किया । 
पता यह चला कि गरीबी में जी रहे बच्चें में एसएलसी६ए४ के समीप डीएनए में मिथायलेशन ज्यादा हुआ था । मिथायलेशन वह प्रक्रिया है जिसके जरिए डीएन के अणु पर मिथाइल समूह जुड़ जाते है और ये डीएनए के उस हिस्से के कामकाज को प्रभावित करते है । यदि इस जीन के आसपास मिथायलेशन होगा तो इसका असर उस प्रोटीन पर होगा जो सिरोटोनिन को तंत्रिका मेंप्रवेश करवाने के लिए जवाबदेह है । ऐसे में इनके मस्तिष्क में सिरोटोनिन सही जगह पर पहुंच नहीं पाएगा, जो अवसाद का एक प्रमुख कारण है । 
सम्पादकीय
अंतरिक्ष से कार्बन डाईऑक्साइड की निगरानी
 हाल ही में दुनिया के देशों ने पेरिस में जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में कई वचन दिए हैं । इनमें से प्रमुख है ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाना । पेरिस संधि के बाद यह जानना जरूरी है कि विभिन्न देश अपने-अपने वचनों का पालन कर रहे हैं या नहीं । इसके लिए सबकी निगाहें अंतरिक्ष में टिक गई है । कोशिश की जा रही है कि पृथ्वी का चक्कर काट रहे उपग्रहों की मदद से ग्रीनहाउस गैसों की निगरानी की जाएं ।
फिलहाल दो उपग्रह यह काम रहे हैं । पहला है नासा द्वारा निर्मित ऑर्बाइटिंग कार्बन ऑब्सरवेटरी-२ और दूसरा है जापान द्वारा प्रक्षेपित ग्रीन हाउस गैस ऑब्सविंग सैटेलाईट । इन दोनों उपग्रह से प्राप्त् आंकड़ों का मिलान धरती पर प्राप्त् आंकड़ों से करके सटीक बनाने की काशिश चल रही है । अलबत्ता, दुनिया भर की अंतरिक्ष संस्थाएं इस जुगाड़ में है कि वर्ष २०३० तक ऐसे उपग्रहों का एक पूरा बेडा अंतरिक्ष में स्थापित कर दिया जाए ताकि पूरी धरती पर ग्रीनहाउस गैसों का सतत आंकलन किया जा सके । 
यह काम न सिर्फ बहुत महंगा है बल्कि इसमें कई तकनीकी अड़चने भी है । जैसे अभी ये दो उपग्रह धरती के ऊपर हवा के एक स्तंभ में कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन की मात्रा की गणना कर लेते हैं । मगर इससे यह पता नहीं चलता कि इन गैसों का स्त्रोत क्या है जबकि वास्तविक जरूरत तो यही जानने की है । एक ओर समस्या इनके आंकड़ों की विश्वसनीयता की है । नासा के २के आंकड़ो में इस वक्त ०.५ प्रतिशत की घट-बढ़ की संभावना है । अब नासा एक नई प्रणाली विकसित कर रहा है जिसकी विश्वसनीयता कहीं अधिक होगी । चीन भी इस वर्ष दो कार्बन निगरानी उपग्रह छोड़ने की फिराक में है । मगर पैसा एक बड़ी अड़चन है । इस समय ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर जो धरती आधारित विधियां है वे काफी किफायती हैं और कई देश इन्हीं को तरजीह देना चाहते हैं । 
वैसे विभिन्न अंतरिक्ष एजेंसियों के बीच इस संदर्भ में बातचीत हुई है और इन उपग्रहों से प्राप्त् आंकड़ों के वितरण व उपयोग को लेकर कुछ सहमति बनने के आसार हैं । 
सामयिक
जल समस्या : स्थानीयता ही है समाधान
एस.जी. वोम्बाट्कर 
बढ़ते जलसंकट से निपटने की प्रक्रिया में हड़बड़ी भविष्य के  लिए खतरा पैदा कर सकती है । नदी जोड़ परियोजना अपने आप में ही एक विध्वंसक विचार है । आवश्यकता है कि सभी बिंदुओं पर विचार कर एक परिपूर्ण समाधान की दिशा में कदम बढ़ा जाएं । 
वैश्विक तौर पर इस बार का अप्रैल महीना सबसे गरम था और इस बात के संकेत भी मिल रहे हैंकि हम अब तक की सबसे भीषण गर्मी का सामना कर रहे हैं। मीडिया बता रहा है कि जलाशयों में पानी समाप्त हो रहा है तथा किसानों व ग्रामीणों के साथ ही साथ शहरियों के दुर्दिन भी आ रहे हैं। अपनी स्मृति के सबसे भयावह अकाल से भारत के करीब ३० करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं,और वे अब पलायन कर रहे हैं । परंतु यह त्रासदी समाचार पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर स्थान नहीं पा पाई ।
अनेक नेताओं की इस राष्ट्रीय त्रासदी के प्रति हृदयहीनता साफ तौर पर दिखाई दे रही है । यह बात स्वयं की पीठ ठोकने, सार्वजनिक धन से अपनी ``उपलब्धियों`` का बखान करने और अपने वेतन स्वयं बढ़ा लेने के साथ ही साथ अकाल प्रभावित क्षेत्रों में न जाने से और वहां के लोगों से न मिलने से तथा उन्हें समय पर धन आबंटित न करने से साफ नजर आ रही है। इसके लिए सर्वोच्च् न्यायालय को राज्य एवं केन्द्र सरकार को चेताना पड़ा कि सरकारें अपनी प्यासी जनता को पानी पिलाने का कुछ प्रयत्न करें । वैसे तो पानी को लेकर तमाम महत्वपूर्ण मुद्दे हैं लेकिन दो बिंदुओं पर तत्काल विचार होना आवश्यक है। यह हैं- शहरी जलप्रदाय एवं नदी जोड़ परियोजना । 
उपरोक्त विषय पर सरकारें मीडिया में विरोधाभासी रिपोर्ट दे रही हैं। कुछ अधिकारियों का कहना है शहरी क्षेत्रों में पानी की कमी से पार पाया जा सकता है जबकि अन्य का कहना है कि स्थितियां अभी और भी बिगड़ेगी । वही राजनीतिज्ञ अपनी परंपरानुसार अधिकारियों को आदेश दे रहे हैंकि ``पीने के पानी की आपूर्ति में बाधा नहीं आना चाहिए ।`` सरकारों के गैरजिम्मेदाराना रवैये के चलते कुछ लोगों को दो या तीन या कहीं-कहीं तो सात दिनों में कुछ घंटे पानी मिल रहा है और कहीं रोज पानी मिला रहा है और वे पाइप से अपनी कारें धो रहे हैंऔर बगीचे की घास को तर कर रहे हैं। 
खराब सामग्री और गैर जिम्मेदाराना रखरखाव के चलते जब पानी का पाइप फूट जाता है तो भी जलापूर्ति के लिए जवाबदेह अधिकारी सुधार कार्य में सुस्ती दिखाते हैंऔर लाखों-लाख लीटर पानी नालियों में बह जाता है और दूसरी ओर हजारों लोग या तो सार्वजनिक नलों पर लंबी कतार लगाए होते हैंया जलगिरोहों (पानी माफिया)के माध्यम से चलने वाले टैंकरों से पानी खरीद रहे होते हैं। 
एक ओर तो नागरिकोें से विनम्रता से कहा जाता है कि वे सहयोग करें एवं सावधानीपूर्वक पानी का इस्तेमाल करें । परंतु निष्क्रिय पानी मीटर, अवैध नल कनेक्शन और पानी के बकाया बिल पर सख्ती नहीं की जाती है । यह प्रशासनिक असफलता का द्योतक है । यदि किसी नतीजे पर पहंुचना है और बद्तर होती स्थिति को काबू में लाना है तो जनता का सहयोग व भागीदारी दोनों अनिवार्य है । 
जब जलस्त्रोत साथ छोड़ दें तो हमारा ध्यान मांग आधारित आपूर्ति की बजाए उपलब्ध पानी के वास्तविक मांग के आधार पर प्रबंधन पर होना चाहिए । इस हेतु प्रभावशाली ढंग से प्रणाली में सुधार, जिसमें वितरण को योजना अधोसंरचना और नवीनीकरण विद्युत ऊर्जा लागत में कमी और व्यक्तिगत प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए हैं। इसके अलावा,                                         
* पानी की दरों की समीक्षा और अत्यधिक उपभोग वाले उपभोक्ताओं हेतु दर में तेजवृद्धि ।
       * मीटरों के परिचालन अवैध नल कनेक्शन और बकाया बिलों के संदर्भ में वर्तमान कानूनों का अनुपालन जिससे कि गलती करने वाले उपभोक्ताओं और अधिकारियों पर कार्यवाही संभव हो                                         
* पानी के बेकार बहने पर रोक एवं न्यूनतम समय जल आपूर्ति करना ।  
सन् २००२ में नदी जोड़ परियोजना की लागत करीब ५,६०,००० करोड़ रु. आ रही थी । परंतु अब इसकी लागत १०,००,००० करोड़ से कम नहीं पड़ेगी । इसके अन्तर्गत ३० बड़ी नदियों को ३७ विशाल नहरों के माध्यम से एक दूसरे से जोड़ा जाना था । इसमें ``जल आधिक्य`` क्षेत्र से अकाल पीड़ित या ``पानी की कमी`` वाले इलाके के साथ ही साथ बाढ़ एवं अकाल से छुटकारा पाने हेतु करीब ६,००,००० एकड़ भूमि के हस्तांतरण की आवश्यकता पड़ेगी । यह प्रस्ताव अत्यंत आकर्षक दिखाई पड़ता है लेकिन इसके अत्यंत गंभीर परिणाम सामने आएंगे ।
बाढ़ के पानी का संग्रहण भागलपुर (बिहार) के निकट गंगा से किया जाएगा जो कि समुद्र सतह से करीब ६० मीटर की ऊंचाई पर है। यहां पर बाढ़ के समय करीब ५०००० क्यूमेक्स (क्यूबिक मीटर प्रति सेकंड) पानी गुजरता है । जिस नहर में इस पानी को डालना है उसकी अधिकतम चौड़ाई १०० मीटर और गहराई १० मीटर होगी और यह केवल २००० क्यूमेक्स पानी समेट पाएगी । इस तरह इससे तो केवल ४ प्रतिशत बाढ़ से ``छुटकारा`` मिल पाएगा । इसके परिचालन एवं रखरखाव पर अनापशनाप खर्च होगा और यह पूर्वी तट पर गुरुत्वाकर्षण से ६० मीटर के नीचे ही आपूर्ति कर पाएगी । जबकि अकाल प्रभावित क्षेत्र तो दक्खन का पार है जो कि समुद्र तट से करीब १००० मीटर की ऊंचाई पर है । इस तरह नदी जोड़ से न तो बाढ़ की और न ही अकाल की समस्या का समाधान संभव है ।
दूसरा यह कि बाढ़ तो केवल केवल मानसून के चार महीनों में आती है । बाकी ८ सूखे महीनों में गंगा औसतन ५२८० क्यूमेक्स ही बहती है । अतएव नहर को नदी से जोड़ कर मुख्य नहर को बहने देना एक दुष्कर कार्य है और इसमे अत्यधिक खर्चीली तकनीक का प्रयोग करना होगा । इसके अलावा इस प्रक्रिया को स्थानीय लोगों के प्रतिरोध का भी सामना करना पड़ेगा क्योंकि २००० क्यूमेक्स पानी लेने का अर्थ है नदी का ३८ प्रतिशत पानी उठा लेना । इससे स्थानीय तौर पर असंतोष फैलेगा । क्योंकि यह योजना बाढ़ के मौसम में यह बेकार है और शुष्क मौसम में अव्यावहारिक अतएव यह योजना अपने मूलस्वरूप में ही त्रुटिपूर्ण है ।
भारत में अभी भी तमाम अंतराज्यीय जलविवाद चल ही रहे   हैं। अनेक विवाद न्यायाधिकरण मान रहे हैं कि राज्यों के बीच जल बटवारा एक समस्यामूलक स्थिति है । अब तो राज्यों में जिलों के मध्य भी विवाद प्रारंभ हो गए है । ऐसे में नदी जोड़ परियोजना से न केवल सामाजिक असंतोष बढ़ेगा बल्कि राजनीतिक अस्थिरता भी बढ़ेगी । वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक राज्य पानी की मांग कर रहा है। सभी स्थानों पर पानी की कमी से स्थानीय समस्याएं खड़ी हो रही हैं । पिछले दिनों महाराष्ट्र के लातूर में जलस्त्रोतों के निकट पुलिस बल लगाना पड़ा था । 
वर्तमान जल समस्या सेे व्यापक दूरदृष्टि से ही निपटा जा सकता है । अतएव कुछ तात्कालिक के साथ दीर्घकालिक उपाय भी करने होगंे । नदी जोड़ परियोजना पूर्णत : मांग आधारित है। लेकिन व्यापक हल के लिए कुछ और करना होगा । सतलुज-युमना लिंक विवाद या कावेरी नदी जल विवाद से समझा जा सकता है कि नदी जोड़ का हश्र क्या होगा । भारत में वैसे ही पानी की कमी है और विश्व दिनांेदिन गरम होता जा रहा है । हम ऐसे समय काल में प्रवेश कर गए हैं जिसमें बिना सोचे समझे पानी की आपूर्ति करना खतरनाक सिद्ध हो सकता है। आवश्यकता है कि तुरंत सामाजिक संवेदनशील और आर्थिक व्यवहार्य जलप्रबंधन किया जाए । यदि हम एक लोकतांत्रिक एवं प्रभावशील जल प्रबंधन ढांचा बनाने में असफल रहते हैं तो हमारे प्रशासन का लोकतांत्रिक ढांचा संकट में पड़ सकता है । क्योंकि उग्र सामाजिक स्थितियां हिंसा को उकसा सकती    हैं । केन्द्र और राज्य के राजनीतिक नेता घर फूंक तमाशा देखने की प्रवृति से बाज आएं और समझंे कि जलसंकट का एकमात्र समाधान स्थानीय तौर पर पानी का संरक्षण और प्रबंधन ही है। 
हमारा भूमण्डल
बीज बचेगा तो हम बचेंगे 
निक डियरडेन 
वेनेजुएला ने जी.एम. बीजों पर रोकलगाकर और देशज बीजों की खरीदी, बिक्री या निजीकरण पर रोक लगाकर अत्यंत क्रान्तिकारी कदम उठाया है । 
इतना ही उन्होंने एकल फसल पद्धति को भी गैरकानूनी  ठहरा दिया है। आज जबकि सारी दुनिया मान्सेंटो एवं सिजेंटा के एकाधिकार के सामने घुटने टेकती नजर आ रही हैं ऐसे में वेनेजुएला का यह कानून  हम सबके लिए मशाल का काम कर हमारी आंखों के सामने छाए अंधेरे को दूर कर सकता है। क्या भारत के राष्ट्रवादी व स्वदेशी के पैरोकार ऐसा कुछ कर पाने का साहस जुटा   पाएंगे ? 
वेनेजुएला की प्रगतिशील राष्ट्रीय असेम्बली (संसद) के भंग होने के कुछ ही समय पूर्व सदस्यों ने एक ऐसा कानून पारित किया जो कि एक वास्तविक लोकतांत्रिक खाद्य प्रणाली की नींव रखेगा । देश ने न केवल जीनांतरित (जी.एम.) बीजों को प्रतिबंधित कर दिया बल्कि एक ऐसा लोकतांत्रिक ढांचा भी तैयार कर दिया है जो कि यह सुनिश्चित करेगा कि बीजों का निजीकरण न होने पाए एवं देशज ज्ञान को कारपोरेट्स को न बेचा जा सके । राष्ट्रपति मोडुरो ने नए वर्ष के पूर्व इस प्रस्ताव को कानून बनाने की मंजूरी दे दी क्योंकि इसके बाद वहां मोडुरो विरोधी सदन शपथ लेने वाला था । 
गौरतलब है ह्युगो शावेज के दिनों से ही वेनेजुएला कृषि व्यापार (एग्रीबिजनेस) के खिलाफ रहा है। इस दौर में यहां का सन् २००४ में ५ लाख एकड़ में मोन्सेंटो मक्का की पैदावार रोकने का निर्णय अत्यंत प्रसिद्ध हुआ था । वास्तव में देश के लिए शावेज की औपचारिक रणनीति यह थी कि वे उत्पादन के एक ऐसे पर्यावरणीय समाजवादी मॉडल की बात करते थे जो कि मानव एवं प्रकृति में आपसी  सामंजस्य बैठाता हो । इसका एक मात्र लक्ष्य था खाद्य सार्वभौमिकता या खाद्य उत्पादन पर लोकतांत्रिक नियंत्रण ।
लेकिन यह देश में कृषि व्यापार को पैर जमाने से नहीं रोक पाया । विशाल कृषि व्यापार ने एक तरह से एक ऐसा युद्ध ही छेड़ दिया जिसके माध्यम से वे विश्वभर में जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण आधार ``बीज`` पर पूर्ण  एकाधिकार प्राप्त कर लें । कृषि व्यापार समूह अफ्रीका, लेटिन अमेरिका, एशिया और यूरोप तक में नए व क ोर बौद्धिक संपदा कानूनों की वकालत कर रहे हैं जिससे कि वह अधिक आसानी से पारंपरिक  ज्ञान एवं संसाधन प्राप्त कर उन्हें पेटेंट करवा कर, उनसे प्राप्त लाभ पर अपना एकाधिकार जमा लें ।
कृषि व्यापार समूह देश के सांसदों के साथ इस प्रकार से ढोंग रच रहा था जिससे कि जी एम बीजों को इस आधार पर अनुमति मिल जाए कि इन बीजों के माध्यम से, देश जो वर्तमान में खाद्यसंकट से जूझ रहा है, उससे मुक्ति मिल जाएगी । लेकिन वेनेजुएला में एक दमदार किसान आंदोलन जो अंतर्राष्ट्रीय किसान नेटवर्क, ला विआ केम्पेसिना के अन्तर्गत कार्य करता है, ने जोरदार मंुहतोड़ जवाब दिया । उन्होंने सन २०१३ के एक कानून को पारित ही नहीं होने दिया जिसके बाद ``पिछले दरवाजे से जी. एम. को प्रवेश मिल जाता ।`` इतना ही नहीं उन्होंने दो वर्षोंा तक चली एक लोकतांत्रिक पहल के माध्यम से सांसदों, आंदोलनकारियों, किसानों और देशज समूहों को साथ में शामिल कर एक वास्ताविक प्रगतिशील बीज कानून भी तैयार करवा दिया ।
इसके परिणाम स्वरूप क्रिसमस के पहले यह कानून पारित हो गया । यह कृषि पारिस्थितिकी प्रणाली को प्रोत्साहित करता है । यह एक ऐसा कृषि स्वरूप है जो प्रकृति के सान्निध्य में कार्य करता है और रासायनिक खादों कीटनाशकों एवं एकल फसलों को नकारता है । 
इस कानून का लक्ष्य है देश को अंतर्राष्ट्रीय खाद्य बाजारों से स्वतंत्र कराना । इस कानून ने बीजों का  निजीकरण  गैरकानूनी  करार दिया है और यह इसके एवज में लघु एवं मध्यम स्तर की कृषि एवं जैवविविधता को प्रोत्साहित करता    है । इसका अनुच्छेद ८, ``भाईचारे की भावना तथा बीजों के मुक्त आदान प्रदान को प्रोत्साहित करता है तथा बीज का बौद्धिक या पेटेंट संपत्ति या निजीकरण आदि किसी भी अन्य प्रकार के रूप में निषेध करता है ।``
वेनेजुएला का यह प्रयास कई मायनों में अत्यन्त प्रभावशाली है क्योंकि सर्वप्रथम यह इसलिए कि इस समय देश अत्यन्त भीषण खाद्य संकट से गुजर रहा है। इसके परिणामस्वरूप इसकी अंतर्राष्ट्रीय बाजारों पर काफी निर्भरता काफी बढ़ गई है और देश के भीतर और बाहर से वेनेजुएला को लगातार अस्थिर करने के उपाय किए जा रहे हैं । एक टिप्पणीकार का कहना है, ``वेनेजुएला के लोेगों को ताबड़तोड़ खाद्य उत्पादन बढ़ाने के छलावे से बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता ।`` खाद्य सार्वभौमिकता तो तभी प्राप्त की जा सकती है कि जबकि कृषि की सघन प्रणालियों को लंबी अवधि के लिए अपनाया जाए ।
यह कानून इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि  इसकी वजह से वेनेजुएला में निर्णय लेने की प्रक्रिया एकदम जमीनी स्तर तक पहंुच गई है । अब बीजों के नियमन में सामान्य नागरिकों की भी शाश्वत भूमिका तय हो गई है। सत्ता के विकेंद्रीयकरण हेतु एक लोकप्रिय परिषद का गठन किया गया है जो किअधिकारियों और राजनेताओं के साथ मिलकर एक दीर्घकालिक नीति का निर्माण करेगी । अंतत: वेनेजुएला को यह भान हो गया है कि खाद्यसुरक्षा के विचार को वास्तविकता में बदलने का एकमात्र रास्ता आर्थिक लोकतंत्र है। ऐसे सारे देश जो कि कृषि व्यापार से संघर्ष कर रहे हैंवेनेजुएला उनके लिए उम्मीद की एक मशाल   है ।
वन महोत्सव पर विशेष 
वनाधिकार में है आग का समाधान
सुरेश भाई 
जंगल बचाने की आड़ में वनवासी समुदाय को वनों से बेदखल कर दिया गया । परिणामस्वरूप वन अनाथ हो गए । वन विभाग और वनों का रिश्ता तो राजा और प्रजा जैसा   हैं । यदि वन ग्राम बसे रहेंगे तो उसमें रहने वाले अपना पर्यावास, आवास व पर्यावरण तीनों का पूरा ध्यान रखते है। परंतु आधुनिक वन प्रबंधन का कमाल जंगलों की आग के रूप में सामने आ रहा है। 
पिछले दिनों उत्तराखण्ड के जंगल जल रहे थे । आग इतनी भयावह थी कि वायु सेना और एनडीआरएफ की कोशिशें भी नाकाम लग रही हैं । वैसे देश के अन्य भागों के जंगल भी आग की चपेट में हैं । एक अनुमान है कि प्रतिवर्ष लगभग १८ हजार हेक्टेयर जंगल जल जाते हैं । लेकिन उत्तराखण्ड के जंगलों में जनवरी माह से ही लगातार आग लगी हुई है। 
अब तक यहाँ लगभग २५०० हैक्टेयर जंगल आग में स्वाह हो गये हैं । पिछले १५ वर्ष में यहाँ के लगभग ३८ हजार हैक्टेयर जंगल जल चुके हैं  । चिन्ता की बात तो यह है कि वन विभाग प्रतिवर्ष वनों में वृद्वि के आंकड़े ही प्रस्तुत करता है परिणामस्वरूप आग के प्रभाव के कारण कम हुये वनों की सच्चई सामने नहीं आती है ।  
देशभर के पर्यावरण संगठनों ने कई बार माँग की है कि ``वनों को गाँव को सौंप दो ।`` अब तक यदि ऐसा हो जाता तो वनों के पास रहने वाले लोग स्वयं ही वनों की आग बुझाते । वन विभाग और लोगों के बीच में आजादी के बाद सामंजस्य नहीं बना है। लाखों वन निवासी, आदिवासी और अन्य लोग अभयारण्यों और राष्ट्रीय पार्कांे के नाम पर बेदखल किये गये हैं । 
इसके साथ ही जिन लोगों ने पहले से ही अपने गाँव में जंगल पाले हुये है, उन्हें भी अंग्रेजों के समय से वन विभाग ने अतिक्रमणकारी मान रखा है। वे अपने ही जंगल से घास, लकडी व चारा लाने में सहज महसूस नहीं करते हैं। यदि वनों पर गाँवों का नियन्त्रण होता और वन विभाग उनकी मदद करता, तो वनों को आग से बचाया जा सकता था । वनांे में अग्नि नियन्त्रण के लिये लोगों के  साथ वन विभाग को संयुक्त रूप से प्रयास करने की आवश्यकता है । 
आम तौर पर माना जाता है कि वनों में आग का कारण व्यावसायिक दोहन करवाना भी हैं । जब वन आग से सूखेंगे तभी इनका कटान करना नियमानुसार हो जाता हैं क्योंकि सूखे, जडपट एवं सिर टूटे पेड़ों के नाम पर ही व्यावसायिक कटान किया जाता है, जो आग से ही संभव है । वनों की आग प्रकृति में कार्बन की मात्रा बढा रही है । आग के कारण वनों से जीव-जन्तु गांँव की ओर आने लगते हैं । ऊँचाई के वर्षा वाले वनों का आग की चपेट में आना इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि यहाँ से निकलने वाला पानी घाटियों तक पहुँचते ही सूख जाता है। इससे ग्लेशियरों की पिघलने की दर बढ़ती है । गौरतलब है कि उत्तराखण्ड में जहाँ ६० प्रतिशत जलस्त्रोत सूख चुके हैं वहाँ भविष्य में क्या होगा ?
हर वर्ष करोडों रुपये के पौधारोपण करने की जितनी आवश्यकता है उससे कहीं अधिक जरूरत वनों को आग से बचाने की हैं । वनों पर ग्रामीणों को अधिकार देकर सरकार को वनाग्नि नियंत्रण में जनता का सहयोग हासिल करना चाहिए । गाँव के हक-हकूक भी आग से समाप्त हो रहे हैं । बार-बार आग की घटनाओं के बाद भूस्खलन की सम्भावनाएं अधिक बढ़ जाती    हैं । जिन झाड़ियों, पेड़ों और घास के सहारे मिट्टी और मलबे के ढेर थमे हुये रहते हैं वे जलने के बाद थोड़ी सी बरसात में सड़कों की तरफ टूटकर आने लगते हैं ।   
उत्तराखण्ड एक आपदा घर जैसा बन गया । वहाँ इस बार भी भूस्खलन की घटनायें हो सकती हैं । इसके चलते फायरलाइन बनाने के नाम पर केन्द्रीय वन और पर्यावरण मन्त्रालय से और अधिक पेड़ों को काटने की स्वीकृति की सूचनायें भी मिल रही है। ऐसे वक्त में पहले तो लोगों के सहयोग से अग्नि नियन्त्रण के उपाय ढूढ़ें जायें, दूसरा चौड़ीपत्ती के वनों की पट्टी बनाने के लिये नौजवानों की ईको टॉस्कफोर्स बनाने की आवश्यकता है ।  स्थानीय लोग आग बुझाते हुए जान भी गंवा देते   हैं । उन्हें शहीद का दर्जा मिलना चाहिए । वनाग्नि के दौर में उत्तराखण्ड के राज्यपाल ने वन महकमें की सभी छुटिट्याँ रद्द कर दी थी लेकिन वन विभाग के  पास ऐसा कोई मानव समूह नहीं है कि वे अकेले ही लोगों के सहयोग के बिना आग बुझा सके । 
कृषि जगत
पानी को सुखाती आधुनिक तकनीक
कुलभूषण उपमन्यु
भारतीय हमने ऐसी सारी नई तकनीकों को अपना लिया जो कि सतह के नीचे से पानी को आसानी से निकाल लेती है। परंतु उसके पुनर्भरण की ओर से आँखे मूंद    लीं । परिणाम हम सबके सामने है । परंतु हम अब भी चेत नहीं रहे हैं । 
दुनिया में जब भी नई तकनीक आई है, उसने पुराने तौर तरीकों और तकनीकों को बदल दिया है। जब तक ये बदलाव उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ाने वाले या श्रम को बचाने वाले रहते हैं, इनका स्वागत होता है और विस्तार भी । हर नई तकनीक ने एक नए व्यावसायिक वर्ग को जन्म दिया है, जो उस तकनीक के साथ रोजी रोटी के लिए जुड़ जाता है और निहित स्वार्थ की भूमिका निभाता रहता है। इसी तरह मानव विकास का क्रम चलता आया है। चिंता की बात तब पैदा होती है, जब कोई तकनीक जीवन के आधार हवा, पानी और मिट्टी (भोजन) की उपलब्धता पर संकट पैदा करने की भूमिका में आ जाती है या इनके महत्व के प्रति लापरवाह बना देती   है । 
  भारत वर्ष में यदि जल के बढ़ते संकट को देखें तो दो बातें उभर कर सामने आती हैं। एक तो पानी की मात्रात्मक उपलब्धता में कमी आ रही है और मांग दिनों दिन बढ़ती जा रही है। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में पिछले कुछ दशकों में, तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी हो गई है। यह बढ़ोतरी हिमालय में स्थानीय कारणों से और भी ज्यादा हुई है। हिमालय में बर्फ पड़ना कम हो गया है। सदियों से ग्लेशियरों के रूप में संचित जल के भंडार भी तेजी से पिघलने लगे हैं। 
हिमालय के ९० प्रतिशत ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं। इससे पानी के लिए संघर्ष बढ़ रहा है। उदाहरण के लिए पंजाब में पिछली अमरेन्द्र सिंह की सरकार ने राज्य की नदियों में आ रही जलस्तर की कमी को आधार बना कर इन नदियों के जल बंटवारे के १९८० तक के सभी समझौतों को विधानसभा में प्रस्ताव पास करके  रद्द कर दिया था। इससे स्थिति की गंभीरता को समझा जा सकता है । 
पंजाब के आधे ब्लॉक भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण भी संकट से गुजर रहे हैं। ट्यूबवैल तकनीक और मुफ्त बिजली ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है। लोग बड़े पैमाने पर ज्यादा पानी खाने वाली गन्ना और धान जैसी फसलें उगाने लगे, जिससे भूजल नीचे जाता    गया । उसे निकालने की तकनीक में सुधार आता गया । इससे भूजल की स्थिति की ओर किसानों का ध्यान ही नहीं जा सका । सरकारें भी वोट बैंक की राजनीति करती चली गई । 
मुफ्त बिजली से भूजल की जो अनदेखी हुई उसका दीर्घकालीन दुष्प्रभाव किसानों पर ही पड़ेगा । जिन इलाकों में १०-२० फूट से रह्ट (पर्शियन व्हील) से पानी निकाल लिया जाता था, वहां सैकड़ों फूट नीचे से पानी निकालने की जरूरत पड़ने लगी है, जिसके  लिए ज्यादा बिजली चाहिए, ज्यादा बिजली के लिए ज्यादा कोयला जलाना पड़ेगा या पहाड़ों में कृत्रिम जलाशय बना कर बिजली बनानी पड़ेगी । कोयले का धुंआ और जलाशयों से निकलने वाली मीथेन तापमान में वृद्धि करेगी । इससे ग्लेशियर और बर्फबारी से प्राप्त जल में और कमी आएगी । यह दुष्चक्र अब स्थायी है ।
सतही जल में कमी से भूजल भरण में भी कमी आती है, लेकिन तकनीक का घमंड हमें सोचने नहीं देता है । हम दूर से नहर बना कर, बड़ा जलाशय बना कर पानी ले आएंगे या जमीन से और गहरे ट्यूबवैल लगा कर निकाल लेंगे । तकनीक प्रकृति के प्रति इस तरह की लापरवाही का जब कारण बन जाती है तो मनुष्य जीवन के लिए सुविधा के नाम पर खतरे का कारण भी बन जाती है । इस समय हमें वैकल्पिक, प्रकृति मित्र तकनीकों की खोज करनी चाहिए, किन्तु निहित स्वार्थ हमेशा इस तरह की कोशिश और विचार का विरोध करते हैं। क्योंकि उनके आर्थिक तात्कालिक हित उससे जुड़े रहते हैं। 
ऐसी बात करने पर आपको विकास विरोधी बताएंगे या कोई दलगत राजनीति का ठप्पा लगाकर दबाने का प्रयास करेंगे । आखिर जीत तो सच्चई की ही होगी, किन्तु उसमें काफी समय की बर्बादी हो जाती है और कुछ लोगों को कष्ट भी उठाने पड़ जाते हैं। बड़े बांधों से नहरें, गहरे ट्यूबवैल और नल तकनीक ने स्थानीय जल स्त्रोतों के प्रति लापरवाही का भाव पैदा कर दिया   है । तालाब, कुंए, बावड़ियां गायब हो रही हैं। कहीं गंदगी की भेंट चढ़ गई,  कहीं नाजायज कब्जों और भूमि उपयोग में बदलाव की । तालाबों की जगह पार्किंग स्पॉट बन गए । समस्या के स्थानीय समाधान की संस्कृति लुप्त होती चली गई । 
अब नदी जोड़ो जैसे कार्यक्रमों की शरण में जाने की सोच बन रही है, जिसमें लाखों लोगों के विस्थापन की स्थितियां बनेंगी । इतने बड़े स्तर पर विस्थापन झेलना अब भारत के बस की बात नहीं है । आजादी के बाद के बड़ी परियोजनाओं के विस्थापित अब तक नहीं बस पाए तो नए कैसे बस पाएंगे। हिमाचल का उदाहरण लें तो भाखड़ा और पौंग के विस्थापित आज तक भटक रहे हैं। इसलिए तालाबों, कुआेंऔर छोटे छोटे जल स्त्रोतों के द्वारा स्थानीय स्तर के समाधान ज्यादा कारगर होंगे । स्थानीय स्तर पर संरक्षित पानी को कम पानी से सिंचाई वाली आधुनिक तकनीकों द्वारा प्रयोग करके बड़ी राहत किसानों के लिए हासिल की जा सकती है । 
इस काम के लिए जलागम विकास कार्यक्रमों को कुछ सुधारों के साथ लागू करके रास्ता निकला जा सकता है । बहुत कम इलाके ऐसे बचेंगे जहां के लिए पानी दूर-दराज से नहरों द्वारा लाने की जरूरत पड़ेगी । दूसरी बड़ी समस्या उद्योगों और शहरी मल जल के कारण जल प्रदूषण और औद्योगिक जरूरतों के लिए पानी की बढती मांग है । बहुत से उद्योगों को बड़ी मात्रा में पानी चाहिए किन्तु पानी को शुद्ध करके वापस नदी में छोड़ने की व्यवस्थाएं  ठीक नहीं हैं, जिसके कारण रासायनिक और जैविक कचरा नदियों में पहंुच रहा है । यमुना, हिंडन, सिरसा आदि अनेक नदियों का जल किसी भी काम के लायक नहीं बचा है । जल जीव नष्ट हो गए हैं । 
गंगा तक के सफाई अभियानों का असर देखना अभी बाकी है । हालांकि सरकारें हजारों करोड़ रुपए इस कार्य पर खर्च कर रही हैं। समस्याएं तो पैदा होती ही रहेंगी, किन्तु घमंडी तकनीकों के बूते जीवन के बुनियादी आधारों हवा, पानी, मिट्टी (भोजन) के प्रति लापरवाह व्यवहार से जो समाधान ढूंढे जाएंगे वे नई समस्याएं ही पैदा करेंगे, जिसके चलते विकास का स्वरूप टिकाऊ नहीं हो सकता । अत: जरूरी है कि नम्रतापूर्वक प्रकृति को मां समझते हुए प्रकृति मित्र तकनीकों के विकास के प्रयास हों, ताकि शस्यश्यामला धरती सदा जीवनदायिनी बनी रहे । 
खान-पान
प्रोटीन का स्त्रोत - दालें
नवनीत कुमार गुप्त
भोजन की थाली में विभिन्न पोषक तत्वों का होना स्वास्थ्य के लिए अहम होता है । इसलिए सदियों से, अनजाने में ही सही, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, विटामिन, वसा एवं अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व युक्त खाद्य सामग्रियों को आहार में शामिल किया गया है । 
हर देश में चाहे भोजन का स्वरूप एवं स्वाद अलग हो लेकिन कोशिश यही रहती है कि शरीर के पोषण के लिए आवश्यक हर तत्व आहार मेंशामिल हो सके । भारतीय थाली मेंदाल अभिन्न रूप से जुड़ी रही है । चाहे बात दाल-रोटी की हो या दाल-चावल की, हर भारतीय का खाना दाल के बिना अधूरा होता है । असल मेंदाल प्रोटीन का अहम स्त्रोत है । इसलिए दाल को प्राचीन काल से हमारी थाली में शामिल किया गया  है । इसके अलावा कृषि प्रधान देश होने के कारण भी हमारे यहां सदियोंसे दालों का उत्पादन और उपभोग किया जाता रहा है । 
हमारे यहां अरहर, उड़द, मंूग, चना, मटर, मसूर, मोठ, राजमा आदि दालें काफी पसंद की जाती है । दालों से बने व्यंजनों जैसे दाल-मखनी, दाल-तड़का, गुजराती दाल आदि के भी सैकड़ों प्रकार    होंगे । हमारे देश में अलग-अलग क्षेत्रों में दाल बनाने के बर्तन भी अलग-अलग मिल जाएंगे । कहीं पर हांडी मिलेगी तो कहीं पर कड़ाही । यानी दालें हमारी विविधता में एकता का प्रतीक है । और हां, मीठे के शौकीनों के लिए दालों से बनने वाले विभिन्न प्रकार के लड्डू भी काफी पंसद किए जाते हैं । 
विकसित और विकासशील दोनों तरह के देशों में दलहनी फसलें किसानों के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । विश्व का आधे से अधिक दलहन उत्पादन विकासशील देशों द्वारा किया जाता   है । अकेला भारत ही कुल वैश्विक उत्पादन मेंलगभग एक चौथाई की हिस्सेदारी रखता है ।
दालें विकासशील देशों में निम्न वास, उच्च् रेशा युक्त प्रोटीन का अहम स्त्रोत हैं । ये उन स्थानों में अति महत्वपूर्ण प्रोटीन स्त्रोत हैं जहां अजैविक उत्पादों से प्रोटीन की पूर्ति की जाती है । इसके अलावा दालों से कैल्शियम, लौह और लायसिन जैसे महत्वपूर्ण सूक्ष्म पोषक तत्व भी मिलते है । 
दलहन उत्पादन का ६० प्रतिशत मानवीय उपयोग के काम आता है । लेकिन दालों के बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि मानव आहार में इनकी मात्रा और इनका प्रकार हर क्षेत्र के हिसाब से अलग-अलग देखा गया है । विकासशील देशों में जहां कुल आहार में दालों की मात्रा ७५ प्रतिशत है वहीं विकसित देशों में इनकी मात्रा केवल२५ प्रतिशत है । कुल उत्पादन में से कुछ प्रतिशत मात्रा का उपयोग जानवरों के आहार के रूप में किया जा रहा है ।
दलहनी फसलें कई प्रकार से धारणीय विकास में योगदान देती    है । फसल चक्रण की दृष्टि से दलहनी फसलें महत्वपूर्ण है । इन फसलों को अधिक उर्वर मिट्टी की आवश्यकता नहीं होती है । अनेक दालें मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में भी अहम योगदान देती है । मिट्टी में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने के कारण दाले मृदा उर्वरता में अहम भूमिका निभाती है । इनसे मिट्टी में ऐसे सूक्ष्मजीवों की वृद्धि होती है जो फसल की उपज को बढ़ाने में सहायक होते है । 
इसके अलावा दालें प्रोटीन का ऐसा स्त्रोत है जिनसे कार्बन फुटप्रिंट में कम वृद्धि होती   है । अन्य प्रोटीन स्त्रोतों की तुलना में इन्हें पानी भी कम चाहिए होता है । एक किलोग्राम मांस, चिकन, सोयाबीन का उत्पादन करने में दालों की तुलना में क्रमश: १८, ११ और ५ गुना अधिक पानी लगता है । इसी तरह प्रोटीन के अन्य स्त्रोतों की तुलना में इनके उत्पादन में होने वाला कार्बन उत्सर्जन भी काफी कम होता है । 
दलहनी फसल के वैश्विक उत्पादन की मात्रा अलग-अलग है । दलहन का औसत वैश्विक उत्पादन २०१० में ८१९ किलोग्राम प्रति हैक्टर था जबकि भारत में इसकी मात्रा बहुत कम, ६०० किलोग्राम प्रति हेक्टर थी । इसी दौरान अमेरिका और कनाड़ा में यह दर १८०० किलोग्राम प्रति हेक्टर थी । 
हमारे देश में वर्ष २०१५ कृषि क्षेत्र के लिए एक चुनौतीपूर्ण साल था । देश के कई हिस्सोंमें रूखे मौसम और सूखे के कारण किसानों के लिए यह परेशानी भरा साल लगातार दूसरा वर्ष था । दक्षिण-पश्चिमी मानसून २०१५ में लंबी अवधि औसत के सामान्य स्तर से १४ प्रतिशत कम रहा, जिसका असर खरीफ फसलों पर पड़ा । इसके बाद जो उत्तर-पूर्वी मानसून आया, वह तमिलनाडु एवं आसपास के क्षेत्रों में भारी विनाश का कारण बना । इससे वहां अभूतपूर्व बाढ़ का संकट     आया । वैसे दाल एवं तिलहनों का उत्पादन पिछले कई वर्षो से मांग की तुलना में लगातार कम होता रहा है । दालों का उत्पादन २०१४-१५ में १९२.४ लाख टन से कम होकर १७२.० लाख टन रह गया । 
इसी के चलते अरहर की कीमतें एक साल पहले के ७५ रूपये प्रति किलोग्राम से उछल कर १९९ रूपये प्रति किलोग्राम तक पहंुच गई और अभी भी ये कीमतें नियंत्रण के बाहर है । न केवल अरहर, उड़द की कीमतें बल्कि खुदरा बाजार में लगभग सभी प्रमुख दालों की कीमतें वर्तमान में लगभग १४० रूपये प्रति किलोग्राम के आसपास बनी हुई है । ऐसी स्थिति को देखते हुए सरकारों को दालों की उपलब्धता के लिए बार-बार बाजार में हस्तक्षेप करने को बाध्य होना पड़ा है । 
किसानों के लिए एक अच्छी खबर यह रही कि पिछले वर्ष सरकार ने प्रमुख दालों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में २७५ रूपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की । इसके अलावा दालोंके बढ़ते भावों की स्थिति पर नियंत्रण करने के लिए सरकार ने ५०० करोड़ रूपये की एक संचित राशि के साथ एक मूल्य स्थिरीकरण कोश की स्थापना की है । 
असल में विभिन्न पोषक तत्वों की एक निश्चित मात्रा हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होती है । प्रोटीन भी हमारे स्वास्थ्य के लिए एक अहम तत्व है जिसके स्त्रोतों में दालें, सोयाबीन, दूध, मांस आदि शामिल  है । लेकिन पानी की कम आवश्यकता एवं कम कार्बन फुटप्रिंट के कारण दालों को आहार में शामिल करना धारणीय विकास और प्रकृति दोनों के लिए लाभकारी   होगा । इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा २०१६ को अंतर्राष्ट्रीय दलहन वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है । २३ जनवरी २०१६ को तुर्की में आयोजित कार्यक्रम में इसका औपचारिक शुभारंभ किया गया था । 
प्रदूषण
देश मेंबढ़ता इलेक्ट्रॉनिक कचरा 
संध्या रायचौधरी
इंटरनेशनल टेलीकम्यू-निकेशंस यूनियन के आंकड़ो के अनुसार भारत और चीन में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी को पीछे छोड़ चुकी है । सिर्फ इन दो देशों में मोबाइल फोन का आंकड़ा ७ अरब पार कर चुका है । 
चीन की तरह भारत में भी सस्ते से सस्ता फोन उपलब्ध है । लेकिन गंभीर और खतरनाक बात यह है कि इससे इलेक्ट्रानिक क्रांति में खतरे ही खतरे उत्पन्न हो जाएंगे जो इस धरती की हर चीज को नुकसान पहुंचाएंगे । 
फिलहाल भारत में एक अरब से ज्यादा मोबाइल ग्राहक हैं । मोबाइल सेवाएं शुरू होने के २० साल बाद भारत ने यह आंकड़ा इसी साल जनवरी में पार किया है । दुनिया  में फिलहाल चीन और भारत ही दो ऐसे देश है, जहां एक अरब से ज्यादा लोग मोबाइल फोन से जुड़े   हैं । देश में मोबाइल फोन इंडस्ट्री को अपने पहले १० लाख ग्राहक जुटाने में करीब ५ साल लग गए थे, पर अब भारत-चीन जैसे आबादी बहुल देशों की बदौलत पूरी दुनिया में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी के आंकड़े यानी ७ अरब को भी पीछे छोड़ चुकी है । 
ये आंकड़े बताते हैं कि अब गरीब देशों के नागरिक भी जिन्दगी में बेहद जरूरी बन गई संचार सेवाआें का लाभ उठाने की स्थिति में हैं, वहीं यह इलेक्ट्रानिक क्रांति दुनिया को एक ऐसे खतरे की तरफ से ले जा रही है जिस पर अभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है । यह खतरा है इलेक्ट्रानिक कचरे यानी ई-वेस्ट   का । 
आईटीयू के मुताबिक भारत, रूस, ब्राजील समेत करीब १० देश ऐसे है जहां मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज्यादा है । रूस में २५ करोड़ से ज्यादा मोबाइल है जो वहां की आबादी से १.८ गुना ज्यादा है । ब्राजील में २४ करोड़ मोबाइल है, जो आबादी से १.२ गुना ज्यादा है । इसी तरह मोबाइल फोनधारकों के मामले में अमेरिका और रूस को पीछे छोड़ चुके भारत में भी स्थिति यह बन गई है कि यहां करीब आधी आबादी के पास मोबाइल फोन है । 
भारत की विशाल आबादी और फिर बाजार मेंसस्ते मोबाइल हैंडसेट उपलब्ध होने की सूचनाआें के आधार पर इस दावे में कई संदेह भी नहीं लगता । पर यह तरक्की हमें इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर ले आई है, जहां हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि आगे कितना खतरा है । हालांकि इस बारे में थोड़े बहुत आकलन-अनुमान अवश्य है जिनसे समस्या का आभार होता है । 
जैसे वर्ष २०१३ में इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजूकेशन एण्ड रिसर्च (आईटीईआर) द्वारा इलेक्ट्रानिक कचरे (ई-वेस्ट) का प्रबंधन और साज-संभाल विषय पर आयोजित सेमीनार मेंपर्यावरण एवं वन मंत्रालय के विज्ञानियों ने एक आंकलन करके बताया था कि भारत हर साल ८ लाख टन इलेक्ट्रानिक कचरा पैदा कर रहा है । इस कचरे में देश के ६५ शहरों का योगदान है पर सबसे ज्यादा ई-वेस्ट देश की वाणिज्यिक राजधानी मुम्बई में पैदा हो रहा है । हम अभी यह कहकर संतोष जता सकते है कि हमारा पड़ोसी मुल्क चीन इस मामले में हमसी मीलों आगे है । 
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन दुनिया का सबसे बड़ा ई-वेस्ट डंपिग ग्राउंड है । उल्लेखनीय यह है कि जो टीवी, फ्रिज, एयर कंडीशनर, मोबाइल फोन, कम्प्यूटर आदि चीन मेंबनाकर पूरी दुनिया में सप्लाई किए जाते है, कुछ वर्षो बाद चलन से बाहर हो जाने और कबाड़ में तब्दील हो जाने के बाद वे सारे उपकरण चीन या भारत लौट आते हैं । निसंदेह अभी पूरी दुनिया का ध्यान विकास की ओर है । विज्ञान की तरक्की ने हमें जो साधन और सुविधाएं मुहैया कराई है, उनसे हमारा जीवन पहले के मुकाबले आसान भी हुआ है । 
कम्प्यूटर और मोबाइल फोन जैसी चीजों ने हमारा कामकाज काफी सुविधाजनक बना दिया है । इसकी लिस्ट काफी लंबी है और फैक्स मशीन, फोटोकॉपी, डिजिटल कैमरे, लैपटॉप, प्रिंटर, इलेक्ट्रानिक खिलौने व उपकरण, एयर कंडीशनर, माइक्रोवेव कुकर, थर्मामीटर आदि चीजों ने हमें चारों तरफ से घेर लिया है । दुविधा यह है कि आधुनिक विज्ञान की देन पर सवार हमारा समाज जब इन उपकरणों के पुराने या बेकार होने पर उनसे पीछा छुड़ाने की कोशिश करेगा, तो ई-वेस्ट की विकराल समस्या से कैसे निपटा जाएगा । 
यह चिंता भारत-चीन जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों के लिए ज्यादा बड़ी है क्योंकि कबाड़ में बदलती ये चीजे ब्रिटेन अमेरिका जैसे विकसित देशों की सेहत पर कोई असर नहीं डाल रही है । इसकी एक वजह यह है कि तकरीबन सभी विकसित देशों ने ई-कचरे से निपटने के प्रबंध पहले ही कर लिए है और दूसरी कि वे ऐसा कबाड़ हमारे जैसे गरीब मुल्कों की तरफ ठेल रहे हैं । जाहिर है हमारे लिए चुनौती दोहरी    है । पहले तो हमे देश के भीतर ही पैदा होने वाली समस्या से जुझना है और फिर विदेशी ई-वेस्ट के उस सतत प्रवाह से निपटना है, जिसे लेकर कोई ज्यादा बैचेनी भारत और चीन समेत दूसरे कई गरीब विकासशील देशों में नहीं दिखाई देती । 
हमारी चिंताआें को असल में इससे मिलने वाली पूंजी ने ढांप रखा है । विकसित देशों से मिलने वाले चंद डॉलरों के बदले हम यह मुसीबत खुद ही अपने यहां बुला रहे हैं । दूसरी तरफ मोबाइल फोन और इसी तरह अन्य इलेक्ट्रानिक सामानों की बढ़ती फेहरिस्त हमें इनसे जुड़े खतरों की तरफ धकेल रही है । ई-कबाड़ पर्यावरण और मानव सेहत की बली भी ले सकता है । मोबाइल फोन की ही बात करे तो कबाड़ में फेके गए इन फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक जमीन में स्वाभाविक रूप से घुलकर नष्ट नहीं होते । 
सिर्फ एक मोबाईल फोन की बैटरी अपने बूते ६ लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है । इसके अलावा एक पर्सनल कम्प्यूटर में सीसा, फॉस्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे घातक तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते है और विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं । कम्प्यूटर स्क्रीन के रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड़ किरण पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में सीसा (लेड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह होता है । 
समस्या इस वजह से भी ज्यादा विनाशकारी है क्योंकि हम सिर्फ  अपने ही देश के ई-कबाड़ से क्काम की चीजें निकालने की आत्मघाती कोशिश नहीं करते बल्कि विदेशों से भी ऐसा खतरनाक कचरा आयात करते हैं । ग्रीनपीस ने अपनी रिपोर्ट टॉक्सिक ट्रैश: रीसाइक्लिंग इलेक्ट्रानिक वेस्ट्स इन चाइना एण्ड इण्डिया में साफ किया है कि जिस ई-कबाड की रिसाइक्लिंग पर युरोप में २० डॉलर का खर्च आता है, वही काम भारत-चीन जैसे मुल्कों में महज चार डॉलर में हो जाता है । वैसे तो हमारे देश में ई-कबाड़ पर रोक लगाने वाले कानून है । 
खतरनाक कचरा प्रबंधन और निगरानी नियम १९८९ की धारा ११(१) के तहत ऐसे कबाड़ की खुले में रिसाइक्लिंग और इसके आयात पर रोक है, लेकिन नियम-कायदों की अनदेखी का आलम यह है कि अकेले दिल्ली की सीलमपुर, जाफराबाद, मायापुरी, बुराड़ी आदि बस्तियों में सम्पूर्ण देश में आने वाले ई-कचरे का ४० फीसदी हिस्सा रिसाइकिल किया जाता है । हमारी तरक्की ही हमारे खिलाफ न हो जाए और हमारा देश दुनिया के ई-कचरे के डंपिग ग्राउंड में तबदील होकर न रह जाए इस बाबत सरकार और जनता, दोनों स्तरों पर जागृति की जरूरत है । 
पर्यावरण परिक्रमा
खतरे में है हिमालय के ५१ घास मैदान
कुदरत की अनमोल देन बुग्याल (उच्च् हिमालयी क्षेत्र मेंघास के मैदान ) पर खतरा मंडरा रहा है । केंद्र सरकार के निर्देश पर हुए वन विभाग के ताजा सर्वेक्षण में खुलासा हुआ कि टिहरी जिले के ५१बुग्यालों में भू-धंसाव हो रहा है । इसके चलते वनस्पति और बुग्यालों की घास नष्ट हो रही है । विभाग ने रिपोर्ट तैयार कर मुख्यालय को भेज दी है । केंद्र सरकार ने अप्रैल माह में प्रदेश के वन मुख्यालय को पत्र भेजकर हिमालयी क्षेत्र में बुग्यालों के सरंक्षण के प्रयास और इसकी रिपोर्ट बनाने के निर्देश दिए थे ।  इसके बाद टिहरी वन प्रभाग ने भिलंगना ब्लॉक के पिंसवाड़, घुत्तु, गंगी और गेंवाली गांवों की हिमालयी पहाड़ियों में बुग्यालों का सर्वेक्षण किया । जून में सर्वेक्षण के आधार पर रिपोर्ट तैयार की गई, जिसमें खुलासा हुआ कि जिले के हिमालयी क्षेत्र के ११,३९९.६० हेक्टेयर में फैले ५१ छोटे-बड़े बुग्यालों में से अधिकतर भू-धंसाव की चपेट में हैं । वन गुर्जर और ग्रामीण मवेशियों के लिए इन बुग्यालों में जाते हैे , जिस कारण पशुआें के खुरों से बुग्यालों में पाई जाने वाली घास और औषधीय पौधे नष्ट हो रहे हैं । भिलंगना रेंज के उप प्रभागीय वनाधिकारी हेमशंकर मैंदोला ने बताया कि घास और जड़ी-बूटी मानवीय गतिविधियों से नष्ट हो रही हैं । इसे रोकने के प्रयास किए जारहे हैं । 
टिहरी के प्रभागीय वनाधिकारी आरपी मिश्रा ने बताया कि बुग्यालों का संरक्षण हमारी प्राथमिकता है । जिन क्षेत्रों में ज्यादा नुकसान हो रहा है, वहां घर और जड़ी-बूटियों की सुरक्षा के लिए कार्ययोजना तैयार की जा रही है । 
वाटर हार्वेस्टिंग एंड रीचार्ज किट बनाई
वॉटर हार्वेस्टिंग एंड रीचार्ज के लिए देश में पहली किट का पेटेंट कराया गया है । इसके चार मॉडल्स को सीआरपीएफ के सहायक कमांडेंट पंकज तिवारी ने ग्वालियर में तैयार किया है । चीफ कंट्रोलर डिजाइन पेटेंट एंड ट्रेडमार्क कोलकाता ने इसे रजिस्टर्ड कर लिया है । हालांकि इसका व्यावसायिक तौर पर निर्माण शुरू नहीं हुआ है । प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस किट को जल संसाधन विभाग को भेज दिया है । 
इस किट को २० से ५००० स्क्वेयर फीट तक के क्षेत्र में लगाया जा सकता है । इस किट से जमीन में रिचार्ज होने वाला पानी फिल्टर होकर उस क्षेत्र की जमीन में पानी का स्तर बढ़ाता है और वहां की पानी की क्वालिटी को बेहतर करता है । पंकज तिवारी ने दो साल की खोज के बाद इसे तैयार किया है । इसमें ग्रेवल, चारकोल, सैंड व पेवल का इस्तेमाल किया गया है । बरसात का पानी एक बड़े ड्रम या अन्य उपकरण में आएगा और ग्रेवल, चारकोल, सैंड व पेवल से फिल्टर होकर जाएगा । इस पानी को पीने आदि के लिए भी उपयोग किया जा सकता है । 
बरसात का पानी पूरी तरह शुद्ध नहीं होता है । वायु प्रदूषण के अलावा बरसाती पानी में धुंआ, धूल के सस्पेक्टेड पार्टिकल, एल्गी, बैक्टीरिया आदि होते हैं । यह पानी जमीन में यदि सीधे रीचार्ज किया जाए तो उसे मिट्टी पूरी तरह शुद्ध नहीं कर पाती । इस किट के माध्यम से जमीन में जाने वाले पानी की क्वालिटी भी बेहतर हो जाती है । 
इस किट की फिटिंग सहित कुल कीमत लगभग १० हजार रूपए आती है । अभी इस किट का निर्माण किसी कंपनी ने शुरू नहीं किया है । ग्वालियर में वरिष्ठ नागरिक सेवा संस्थान के माध्यम से इस  किट को तीन स्थानों पर लगाया जा चुका है । इसका बड़े स्तर पर निर्माण शुरू  करने के लिए बात चल रही है । व्यावसायिक तौर पर उत्पादन होने से इसका लागत मूल्य काफी कम हो सकता है । 
अमेरिका में बन रहा अमरता का गांव
मनुष्य का सपना रहा है कि वह हमेशा युवा रहे यानी उसका जीवन लंबा हो जाए और वह स्वस्थ रहे यानी अमर हो जाए । इस सपने को साकार करने के लिए अमेरिका में प्रयास शुरू हो गए   हैं । 
अमेरिका के टेक्सास प्रांत के कोम्फोर्ट में इम्मोर्टल विलेज या अमरता का गांव बनना शुरू हो गया    है । इस गांव की टाइमशिप बिल्डिंग में दुनिया का सबसे बड़ा क्रायोप्रेजर्वेशन सेंटर बनेगा । यहां करीब ५० हजार शरीर रखे जाएंगे, इस आशा में कि ये शरीर एक दिन जी उठेंगे । इस सेंटर में जीवन को लंबा करने के लिए शोध करने अंगों, ऊतकों और कोशिकाआें को रखने पर भी ध्यान दिया जा रहा है । इस सेंटर की डिजाइन ख्यातनाम आर्किटेक्ट स्टीफन वालेंटाइन ने बनाई है । उनका कहना है कि यह मानव को भविष्य में ले जाने जैसा है । 
यह जानवरों और मनुष्यों को अत्यंत कम तापमान पर जमा कर रखने की प्रक्रिया है । यह इस आशा में की जाती है कि भविष्य में ये जी उठेंगे । इसका उद्देश्य भविष्य में उन लोगों को ठीक करना है जो  दवाआें से ठीक नहीं हो सकेगे । 
यह प्रक्रिया इस आशा पर टिकी है कि लांग टर्म मेमोरी, व्यक्तित्व और पहचान लंबे समय तक जीवित रहने वाली कोशिकाआेंमें स्टोर रहते हैं जो दिमाग में रहती हैं । यदि इन्हें संरक्षित कर लिया जाए और भविष्य में इन तक पहुंच बनाई जा सकती है । यानी यह दिमाग के टाइम ट्रेवल करने जैसा है । कैलिफोर्निया में सेंस रिसर्च फाउंडेशन है । से फाउंडेशन उम्र की वजह से होने वाली बीमारियों के बारे में रिसर्च करता है । इसकी प्रमुख ऑब्रे डे ग्रे कहती है कि क्रायोप्रेजर्वेशन दवा ही है ।
क्रायोनिक्स की इस बात के लिए आलोचना होती है कि यह धनवान लोगोंकी सनक है । यह निश्चित मौत की जगह उन लोगों को जमी हुई अवस्था में मौजूद रहने का रास्ता देती है वह भी तब तक जब तक कि उन्हें छि र से जीवित करने की तकनीक विकसित नहीं हो जाती । अभी दुनिया में करीब १२५० ऐसे लोग है जो कानूनी तौर पर जिंदा हैं, वो ऐसी हालत में रखे जाने का इंतजार कर रहे हैं यानी क्रायोप्रेजर्वेशन  का इंतजार कर रहे हैं । अमेरिका के अलावा ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के दूसरे देशों में अब ऐसे केंद्र खोले जा रहे है, जहां लोगों के शरीर को बेहद सर्द माहौल में रखा जाएगा । 
संगम तट के कल्पवृक्ष को संक्रमण का खतरा
संगमनगरी का १०० साल पुराना कल्पवृक्ष खतरे में है । झूंसी में गंगातट के ढलान पर कृल्पवक्ष की जड़ों से मिट्टी की कटान तेज हो गई है । धार्मिक आस्था के कारण लोग मन्नतें प्रार्थनाएं पूरी होने की उम्मीद में इसकी जड़ों को मिट्टी खोदकर ले जाते हैं, जिससे संक्रमण फैल गया है । उसके तने का बड़ा हिस्सा खोखला हो गया   है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कल्पवृक्ष के मौजूदा हालात की रिपोर्ट तलब की  है । 
पिछले दिनों तूफान में इलाहाबाद में दर्जनों पेड़ उखड़ गए थे । तब स्थानीय लोगों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कल्पवृक्ष बचाने के लिए पत्र लिखे । मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से भी गुहार लगाई गई । ढलान पर खड़े इस वृक्ष की जड़ों से, झाड़फूंक के लिए मिट्टी निकाली जाती है और लगातार जड़े खुल रही है । कवक, शैवाल और अन्य जीवाणुआें के संक्रमण से इसका तना खोखला होने लगा है । प्रधानमंत्री दफ्तर से भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण के इलाहाबाद स्थित मध्य केन्द्र से इस बारे में रिपोर्ट तलब की गई । 
इस पर केन्द्र के वैज्ञानिक डॉ. जी.पी. सिन्हा, डॉ. अच्युतानंद शुक्ला, सेंटर फार सोशल फारेस्ट्री और इको रिहैबिलिटेशन की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. कुमुद दुबे तथा वन विभाग के अधिकारी केपी दुबे ने संयुक्त रूप से इस कल्पवृक्ष का मुआयना किया और वीडियो  बनाया । 
प्रधानमंत्री दफ्तर को भेजी रिपोर्ट में इन अधिकारियों ने भी इस वृक्ष पर मंडरा रहे खतरों को गिनाते हुए संरक्षण की सिफारिश की है । वनस्पति सर्वेक्षण के मध्य केन्द्र के विभागाध्यक्ष डॉ. जीपी सिन्हा ने यूपी के प्रधान वन संरक्षक को पत्र लिखा है । उन्होनें कहा है कि प्राचीन वृक्ष के संरक्षण के लिए मुख्य तने का कवक, बैक्टीरिया से बचाना जरूरी है और इसके रोगों का उपचार शुरू करना आवश्यक है । मिट्टी की कटान से बचाने के लिए चबूतरा बनाकर श्रेयस्कर होगा । 
इको रिहैबिलिटेशन की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. कुमुद दुबे कहती है कि भारतीय ग्रन्थोंमें इस वृक्ष को मनोकामना पूर्ण करने वाला माना गया है । ऐसी लोक मान्यता प्रबल है । मंकी ब्रेड ट्री के नाम से मशहूर वृक्ष को कल्पवृक्ष की संज्ञा दी गई है । हिन्दी में इसे गोरख इमली, कल्पवृक्ष व पारिजात कहते हैं । अरबी पौधे बुहीबाव से इसका अंग्रेजी नाम बावोबाव या ब्रेड ट्री लिया गया है । सेमलकुल के इस वृक्ष का वानस्पतिक नाम एंडेन्सोनिया डिजिटेटा है । 
म.प्र. को बब्बर शेर देने के लिए गुजरात राजी
कुनो पालपुर अभयारण्य श्योपुर में गुजरात के एशियाटिक लॉयन (बब्बर शेर) की नई बसाहट बसाने की १० साल से जारी कवायद अब पूरी होगी । गिर के शेर म.प्र. को देने पर गुजरात सरकार तैयार हो गई है । हालांकि इसकी वजह बढ़ती संख्या के चलते उनका हिंसक होना है । गुजरात में ऐसे १७ शेर पिंजरे में बंद किए गए हैं । वैसे म.प्र. को  शेरों का १६ सदस्यीय १० शेर और ६ शेरनी परिवार दिया जाएगा, जिसे एयर लिफ्ट करने की तैयारी हो रही है । शिफ्िटंग के मद्देनजर दिल्ली में हुई बैठक में रणनीति बनाई गई, जिसके तहत गुजरात के वन अधिकारी जल्द ही अभयारण्य का दौरा करेगे ।
हमारे आसपास
लुप्त् हो रही हैं छिपकलियां 
नरेन्द्र देवागंन
सरीसूपों (रेंगने वाले जन्तुआें) में छिपकलियां प्रमुख हैं । इनकी लगभग ६००० प्रजातियां पाई जाती   है  । ये विश्व के सभी भागों में पाई जाती है, किन्तु उष्णकंटिबधीय प्रदेशों में अधिक सामान्य है । भारत में इनके ८कुल हैं जिनकी लगभग २५० प्रजातियां पाई जाती है । अधिकांश स्थलीय होती है मगर वृक्षीय, बिल बनाने वाली यानी भूमिगत और जलीय छिपकलियां भी कम नहीं है । 
छिपकलियों के रंग उनकी रक्षा में सहायक होते हैं । सामान्यत: उनकी खाल कंटीलेशल्कों से ढंकी रहती है । खाल के नीचे हडि्डयों की प्लेटें होती है । इनके अंग सामान्यत: पूर्ण रूप से विकसित होते हैं और चढ़ने वाली छिपकलियों के पैरों में चिपकने वाली गादियां होती हैं । अधिकांश छिपकलियां इच्छानुसार अपनी पूंछे तोड़ सकती है । टूट कर गिरी हुई पूंछ कुछ समय तक फुदकती रहती है, जिससे पीछा करने वाला उसको देखने मेंलग जाता है और छिपकली बच कर निकल भागती    है । 
अधिकांश छिपकलियां अंडे देती हैं । कुछ ऐसी भी प्रजातियां है जो बच्च्े देती है । सामान्यतया छिपकलियां अपने अंडे धरती पर देती हैं और सेती हैं । किन्तु उत्तरी गोलार्द्ध की कुछ छिपकलियां अपने अंडों को शरीर के अंदर ही सेती है और उनसे बच्च्े पैदा होते हैं । किन्तु बच्च्े देने की यह प्रक्रिया स्तनधारी प्राणियों से नितांत भिन्न है, जिनमें भू्रण गर्भाशय में विकसित होकर शिशु का रूप धारण करके जन्म लेता है । 
छिपकलियां सामान्यत: कीड़े-मकोड़े और अन्य छोटे प्राणियों का शिकार करती है । कुछ प्रजातियां पूरी तरह शाकाहारी होती है । मेक्सिको मेंपाई जाने वाली कुछ प्रजातियों को छोड़कर शेष सभी अविषैली होती है । बहुत सी जातियों का मांस खाया जाता है और ऐसा विश्वास है कि कुछ में औषधीय गुण होते हैं । लगभग २ दर्जन प्रजातियों की खाल से सुन्दर वस्त्र, जूते, स्लीपर और घरेलू वस्तुएं बनाई जाती है । 
ऐगौमिड एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया में पाई जाने वाली छिपकलियां हैं, जिनसे सजावटी उपांग पाए जाते हैं, जैसे मुकुट और गले की थैलियां । उनमे रंग-बिरंगी रेखाकृतियां देखने को मिलती है । खाल पर हडि्डयों की प्लेटें नहीं होती और दुम साधारणत: लंबी तो होती है, किन्तु जल्दी टूटकर नहीं गिरती । इस कुल की भारत में पाई जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि छिपकलियां इस प्रकार है । ड्रेको प्रजाति की उड़ने वाली छिपकली जो वृक्षों पर रहती    हैं । इनमें पंखो जैसी सुन्दर रंगों वाली झिल्लियां रहती हैं जिनके सहारे ये एक पेड से दूसरे पेड पर चली जाती है । पंख जैसे गले वाली छिपकली सिटाना पोंटिसेरिआना क्यूवियर क्रोधित होने पर अपने गले के उपांगो को इतनी तेजी से खोलती और बंद करती है कि चिंगारियां निकलने का आभास मिलता है । 
यूरोमैट्रिक्स हार्डविकाई नाम की छिपकली को पाला जा सकता   है । कहा जाता है कि कुछ आदिवासी इसको खाते हैं । इसकी वसा लेप के रूप में इस्तेमाल की जाती है । गड्ढों से शीत निष्क्रिय छिपकलियों को खोद कर निकाला जाता है और घोड़ों की औषधि में प्रयोग किया जाता है । माबूया कैरिनेटा प्रजाति की छिपकली प्राय: समस्त भारत में २५०० मीटर की ऊंचाई  तक, खाली मकानों और ढीली चट्टानी भूमियों में रहती है । यह पेड़ों पर भी पाई जाती है । इस छिपकली से एक औषधीय तेल भी निकाला जाता है । 
जलवायु परिवर्तन से छिपकलियांे के विलुप्त् होने का खतरा उपत्पन्न हो गया है जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व के कुछ भागों में १२ प्रतिशत छिपकलियां पहले ही गायब हो चुकी है । एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि यदि विश्व का तापमान बढ़ना जारी रहा तो २०८० तक छिपकलियांे की कुल प्रजातियों में से २० प्रतिशत विलुप्त् हो सकती है । 
गेको, इगुआना और गिरगिट जैसी छिपकलियांे को अक्सर ठंडे खून वाला प्राणी माना जाता है । इसका मतलब है कि उनके शरीर का तापमान बाहरी वातावरण के अनुसार बढ़ता और घटता रहता है । छिपकलियां अपने शरीर के तापमान को बढ़ाने के लिए धूप सेंकती हैं जब उनके शरीर का तापमान ज्यादा बढ़ जाता है तो छाया में चली जाती है । 
वैज्ञानिकों का कहना है कि विश्व के कई भागों में तापमान इतना ज्यादा हो गया है कि छिपकलियां पर्याप्त् भोजन हासिल करने को भी बाहर नहीं निकल पाती हैं । इसका परिणाम यह होता है कि वे कमजोर होकर मर जाती हैं । इन छिपकलियांे को गर्मी लेने के लिए धूप में निकलना जरूरी होता है । लेकिन गर्मी ज्यादा होने के कारण उन्हें छाया में लौटना पड़ता है । एक निश्चित सीमा के बाद छिपकलियां अनुकूलित नहीं हो सकती है । 
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि स्थानीय छिपकलियांे की ४० प्रतिशत संख्या विलुप्त् हो जाएगी और २०८० तक छिपकली की २० प्रतिशत प्रजातियां गायब हो जाएंगी । वैज्ञानिकों  ने मेक्सिको में २०० स्थानों पर छिपकलियांे की लगभग ४८ प्रजातियों का अध्ययन करके यह पता लगाया है कि १९७५ से १९९५ के बीच लगभग १२ प्रतिशत छिपकलियां विलुप्त् हो चुकी थी । हालांकि उनके प्राकृतिक आवास में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ था । 
धूप में नीले रंग की छिपकलियांे के शरीर के तापमान में बढ़ोतरी को दर्ज करने वाले एक उपकरण से पता चला कि स्थानीय तापमान इतना बढ़ गया कि इनके लिए उसका सामना करना मुश्किल हो गया है । 
ज्ञान-विज्ञान
पक्षियों की घटती उम्र और शहरी परिवेश 
शहर की भीड़ भरी जिन्दगी बहुत ही तनावपूर्ण होती है जिसके कारण हार्मोन स्तरों में बदलाव हो रहा है साथ ही प्रतिरक्षा प्रणाली पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है । अब एक पक्षी ग्रेट टिट पर हुए नए शोध से पता लगा है कि यह परिवंश बुढ़ाने की प्रक्रिया को भी तेज कर सकता है । 
      शहरी परिवेश  बुढ़ाने की प्रक्रिया को कैसे प्रभावित करता है इसे जांचने के शोधकर्ताआें ने चिड़िया के चूजों पर शोध किया । ये चूजे शहरों या गावों में रहने वाले पक्षियों के चूजे   थे । इन्हेंशहरी और ग्रामीण माता-पिता के साथ रखा गया । १५ दिनों तक अवलोकन करने के बाद शोधकर्ताआें ने प्रत्येक चूजे के रक्त का नमूना लिया और कोशिकाआें में टीलोमेयर की लंबाई नापी । टीलोमेयर का संबंध उम्र से होता है । प्रत्येक गुणसूत्र के सिरों पर उपस्थित टीलोमेयर गुणसूत्र को नुकसान से बचाता है । प्रत्येक कोशिका विभाजन के बाद टीलोमेयर की लम्बाई कम होती जाती है । 
बायोलॉजी लेटर्स शोध पत्रिका मेंअपने शोध पत्र में उन्होनें बताया है कि शहरी क्षेत्रों में पले चूजों के टीलोमेयर का आकार औसतन अपेक्षाकृत छोटा था । चाहे उनका जन्म स्थल कोई भी हो मगर शहरी वातावरण में पले चूजा के टीलोमेयर गांवों में पले चूजों की अपेक्षा ११ प्रतिशत छोटे थे । 
कोशिकीय स्तर पर टीलोमेयर की लंबाई का द्योतक माना जाता है । यह भी देखा गया है कि टीलोमेयर में क्रमिक गिरावट की वजह से उम्र संबंधी परेशानियां पैदा होती है । जैसे यकृत रोग या ह्दय व रक्त संचार से संबंधित बीमारियां ।
शोध के परिणाम बताते है कि शहरी प्रदूषण तनाव बढ़ने का कारण है जिसकी वजह से डीएनए को नुकसान पहुंचता है । हो सकता है कि ग्रेट टिट के चूजों में कोशिकीय उम्र गिरावट का कारण भी यही है । वैसे अभी यह साफ नहीं है कि यह स्थिति कितनी व्यापक है मगर संभव है कि मनुष्य समेत समस्त शहरी जीवों में छोटा टीलोमेयर कमतर औसत आयु का सबब हो । इस पर भी शोध की आवश्यकता है । 

पॉलीथीन से डीजल बनाया गया 
वैज्ञानिकों ने पॉलीथीन को उपयोगी पदार्थो में बदलने का एक तरीका खोज निकाला है । हालांकि यह अभी प्रायोगिक दौर में ही है मगर इससे उम्मीद बंधी है कि जल्दी ही व्यापारिक स्तर पर पॉलीथीन से ईधन बनाना संभव हो जाएगा । 


     पॉलीथीन वह पदार्थ है जिसका उपयोग हम कई तरह से करते है - खास तौर से  थैलियां । एक अनुमान के मुताबिक हम प्रति वर्ष १० करोड़ टन पॉलीथीन की वस्तुएं बनाते हैं और इनमें से अधिकांश को फेंक देते हैं । फेंकी गई पॉलीथीन की वस्तुएं कचरा भराव स्थलों पर, नदी-नालों में, शहर की नालियों में और समुद्रों में पहुंच जाती हैं । ये बहुत धीरे-धीरे विघटित होती है । 
पॉलीथीन दरअसल एथीलीन नामक हाइड्रोकार्बन के अणुआें को जोड़-जोड़कर बनाया गया पॉलीमर  है । एथीलीन को पॉलीथीन में बदलने के लिए दो उत्प्रेरकों के मिश्रण का उपयोग किया जाता है । एथीलीन के अणु में दो कार्बन होते हैं जो आपस में दोहरे बंधनों से जुड़े होते    हैं । एक उत्प्रेरक इनमें से एक बंधन को तोड़ देता है । अब एथीलीन के हर अणु के पास दूसरे अणु से बंधन बनाने की गुंजाइश होती है । दूसरा उत्प्रेरक इस क्रिया में मदद करता है । जब ये बंधन बनते हैं तो धीरे-धीरे लंबी-लंबी कार्बन श्रृखलाएं बन जाती है । यही पॉलीथीन है । पॉलीथीन के टिकाऊपन का राज यह है कि इसमें कार्बन परमाणुआें के बीच मात्र इकहरे बंधन होते हैं, जिन्हें तोड़ना मुश्किल होता है । 
इन्हीं उत्प्रेरकों का उपयोग करके ईविन स्थित कैलिफोर्निया विश्वविघालय के जिबिन गुआन और शंघाई की चायनीज एकेडमी ऑफ साइन्सेज के जेंग हुआंग ने पॉलीथीन से निपटने का तरीका विकसित किया है । उन्होनें इन उत्प्रेरकों के थोड़े परिवर्तित रूप का उपयोग किया । यह परिवर्तित रूप नॉर्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय के मॉरिस बुकहार्ट ने विकसित किया है । इस उत्प्रेरक की विशेषता यह है कि यह कार्बन-कार्बन इकहरे बंधन को तोड़ देता है और उन्हें फिर से जोड़ता है । जब ये जुड़ते है तो बहुत लंबी-लंबी श्रृंखलाएं नहीं बनाते बल्कि छोटी-छोटी श्रृंखलाएं बनाते है - लगभग उतनी लंबी जैसी कि डीजल वगैरह में पाई जाती है । 
तो गुआन और हुआंग ने इस उत्प्रेरक का उपयोग पॉलीथीन पर करने का विचार किया । पॉलीथीन में तो लाखों कार्बन वाली श्रृंखलाएं होती है । उन्होनें कचरे मे से पॉलीथीन की थैलियां इकट्ठी की और उनमें थोड़ा डीजल मिला दिया । अब इस मिश्रण को उक्त उत्प्रेरकों के साथ रखा गया तो २४ घंटे बाद जो उत्पाद मिला उसमें कार्बन की अपेक्षाकृत छोटी श्रृंखला वाले हाइड्रोकार्बन थे । 
साइन्स एडवांसेस नामक पत्रिका में अपने काम का विवरण देते हुए उन्होंने बताया है कि अभी यह प्रक्रिया बहुत धीमी है । ये उत्प्रेरक बहुत मंहगे भी हैं । इसके अलावा, ये जल्दी ही खुद भी विघटित हो जाते   हैं । इसलिए अभी यह प्रक्रिया व्यापारिक स्तर पर काम नहीं आएगी, मगर उन्हें उम्मीद है कि रास्ता मिल गया है और आगे काम करके ये इसे एक उपयोगी तकनीक मेंबदल देंगे ।

पानी से जमीन पर मछलियों की छलांग 
हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि मछलियों ने विकास के दौर में जमीन पर रहने की कला कम से कम तीस बार सीखी है । इसी अध्ययन ने यह भी स्पष्ट किया है कि संभवत: पानी से निकलकर जमीन पर रहने वाली प्रथम मछलियां समुद्री थी । 
विकासविद मानते है कि पहली बार किसी मछली ने पानी से जमीन पर कदम करीब ३५ करोड़ साल पहले रखा था । और ऐसा नहीं है कि सारे उभयचरों (यानी पानी व जमीन दोनों जगह रहने वाले जन्तुआें) का विकास इसी मछली से हुआ है । कम से कम ३० बार स्वतंत्र रूप से अलग-अलग प्रजातियों ने पानी से जमीन पर आना सीखा है । 
यह अध्ययन ऑस्ट्रेलिया के न्यु साउथ वेल्स विश्वविघालय के टेरी ओर्ड तथा जॉर्जिना कुक ने किया    है । इसके लिए उन्होंने उन मछलियों से संबंधित सारा शोध साहित्य खंगाला जिन्होनें जमीन पर आने में सफलता प्राप्त् की थी।  इससे उन्हें ये अनुमान लगाने में मदद मिली कि मछलियों ने यह करिश्मा कितनी बार स्वतंत्र रूप से किया ।
        ओर्ड और कुक ने पाया कि वर्तमान में १३० मछली प्रजातियां ऐसी है जो कुछ हद तक जमीन पर समय बिताती है । इनमें अमेरिकन ईल है जो बरसात के समय तालाबों के बीच कूदती रहती है । ऐसी ही एक मछली लॉन्ग स्पाइन्ड सी स्कॉर्पियन है जो पानी में ऑक्सीजन की कमी होने पर समुद्र किनारे के पोखरों में से उछलकर जमीन पर आ जाती है । इसी प्रकार की एक मछली अटलांटिक मडस्किपर है जो भोजन की तलाश में कीचड़ पर घूमती रहती है । 
शोध पत्रिका इवॉल्यूशन में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताआें ने बताया है कि मछलियों के ३३ कुलों में कम से कम एक प्रजाति ऐसी है जिसने ठोस धरती को अपना अस्थायी आवास बनाया । मतलब कम से कम ३३ बार तो अलग-अलग प्रजातियों ने जमीन पर चहलकदमी करने की आदत बनाई है ।
शोधकर्ताआें ने एक मछली कुल का अध्ययन थोड़ा ज्यादा गहराई में जाकर किया । यह कुल है ब्लेनिडी । ये मछलियां समुद्री हैं और आम तौर पर तटों के उथले पानी में पाई जाती है । इनका अवलोकन करते हुए शोधकर्ताआें ने देखा कि ये काफी समय समुद्र तक की चट्टानों पर फूदकते हुए बिताती हैं । ये पानी के बाहर रहना इतना पंसद करती है कि यदि इन्हें डराया जाए, तो ये पानी की ओर नहीं भागती बल्कि चट्टानों के बीच और अंदर चली जाती है । कहने को इसे समुद्री मछली कहा जाता है मगर यह काफी वक्त पानी से बाहर गुजारती है ।
मौसम
बारिश है तो खुशहाली है
शर्मिला पाल

वे इस दुनिया के अभागे ही कहे जाएंगे, जो बारिश के सौंदर्य से अनजाने हैं । इसकी हर बूंद जीवन के एक अंग का प्रतिनिधित्व करती है । इन बूंदों को देखकर महान दार्शनिक लाओत्से ने कहा था, पानी की तरह हो जाओ । बारिश तो असल में धरती का उत्सव है । 
हमारे देश की मानसूनी बारिश पर यात्रा वृतांत की शक्ल में ब्रिटेन के मशहूर यात्रा वृत्तांत लेखक अलेक्जेंडर फ्रैटर ने एक किताब लिखी है - चेजिंग दी मानसून । उन्होनें किताब लिखने के लिए केरल से चेरापूंजी तक की यात्रा की । वे कहते है, भारत को समझना हो तो मानसून को जाने समझे बगैर संभव नहींहै । वे आगे कहते हैं, बारिश को बस, देखें हो सके तो भीगें । वह टिप टिप टिप बरस रही हो या झमाझम, आप जीवन का आनंद महसूस   करेंगे । हो सकता है आप पल भर में जीवन का मर्म समझ जाएें । झमाझम बारिश ऐसी चीज है जिसके लिए लोग तरसते भी है और उसे कोसते भी है । पर यह ऐसी चीज है जिस पर धरती की खुशहाली कायम है । मानसून वस्तुत: भारत की अर्थव्यवस्था के केन्द्र में है । 
पर्यावरण में हो रहे बदलावों के कारण मानसून पर भी खतरे मंडरा रहे हैं । जलवायु परिवर्तन संबंधी सरकारों की समिति की रिपोर्ट पर गौर करें तो यह स्थिति हमारे देश की कृषि के लिए चिंताजनक हो सकती है । आईपीसीसी के अनुसार कई ऐसी घटनाएं होगी, जिससे मानसून का मिजाज पूरी तरह बदल सकता है । इस दौरान सामान्य बारिश की घटनाएं तेजी से कम हो सकती है । 
भारतीय क्षेत्र में होने वाली बारिश में हर दशक में १० फीसदी की बढ़ोतरी हो रही है । समुद्र का तापमान बढ़ने से अल नीनो जैसी स्थितियां भी बन रही है । अल नीनो ऐसी विशेष स्थिति है जब समुद्र सतह के औसत से अधिक तापमान के कारण पश्चिमी प्रशांत महासागर और हिंद महासागर मेंअधिक दबाव की स्थिति बनती है । इससे देश में सूखे की स्थिति पैदा होने की आशंका रहती है । इस सदी में करीब २० साल सूखे के रहे हैं जिनमें से १३ में अल नीनों की स्थिति रही है । यानी अल नीनों हो तो ६५ प्रतिशत आशंका है कि कम बारिश होगी । अल नीनो का जिक्र सबसे पहले १९२३ में मौसम विज्ञानी सर गिल्बर्ट थॉमस वॉकर ने किया था । 
ज्यादा बारिश चाहिए तो ला नीना की दुआ करें । ला नीना की स्थिति अल नीनों से बिल्कुल उलट है । इस स्थिति में प्रशांत और हिंद महासागर में कम दबाव की स्थिति रहती है जो अधिक बारिश की संभावनाएं पैदा करती है । बीते १०० सालों में १३ अधिक बारिश वाले वर्ष रहे है जिनमें से ६ में ला नीना की स्थिति रही । यानी ला नीना के साथ अधिक बारिश की संभावना ४६ प्रतिशत होती है । 
सामान्य तौर पर मानसून उन हवाआें को कहा जाता है जो मौसमी तौर पर बहती है । यह भारत सहित पूरे दक्षिण एशिया में लगभग चार महीने-जून से सितम्बर तक सक्रिय रहती है । मानसूनी वर्षा उसे कहते हैं जो किसी मौसम में किसी क्षेत्र विशेष में होती है । दुनिया के अनेक हिस्से ऐसे हैं जहां ऐसी वर्षा होती है । इस परिभाषा के अनुसार उत्तर और दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका  के कुछ भाग, पूर्वीएशिया और ऑस्ट्रेलिया भी मानसूनी क्षेत्र में आते हैं । लेकिन पारंपरिक तौर पर अधिकांश मौसम विज्ञानी भारतीय उपमहाद्वीप को ही मानसूनी क्षेत्र मानते है । 
मानसून शब्द की उत्पत्ति पुर्तगाली शब्द मॉनसैओ से हुई है, हालांकि मॉनसैओ शब्द अरबी के मौसिम से निकला है । अरब सागर में बहने वाली मौसमी हवाआें के लिए अरब के मल्लाह इस शब्द का प्रयोग करते थे । उन मल्लाहोंने काफी पहले यह भांप लिया था कि ये हवाएं जून से सितम्बर तक गरमी के दिनों में दक्षिणी-पश्चिम दिशा से और नवम्बर से मार्च तक जाड़े के दिनों में उत्तर-पूर्वी दिशा से बहती    हैं ।
गर्मी के दिनों में समुद्र की ओर से बहने के कारण ही ये हवाएं पर्याप्त् नमी लिए होती है जो मौका मिलते ही बरस जाती है । इन हवाआें की मदद से प्राचीन काल में नाविक यात्राएं करते थे । 
कुछ विशेषज्ञ कहते है कि मानसून की शुरूआत ५ करोड़ साल पहले हुई थी जब भारतीय भूभाग तिब्बती पठार की ओर सरकने लगा था । अनेक भूगोलवेत्ताआें का मानना है कि मानसून वर्तमान स्वरूप में ८० लाख साल पहले अस्तित्व में आया । कुछ विशेषज्ञ चीन में मिले वनस्पति जीवाश्म और दक्षिण चीन सागर से मिले पत्थरों के आधार पर कहते हैं कि मानसून की शुरूआत करीब दो करोड़ साल पहले हुई है । 
जब सूर्य कर्क रेखा के ऊपर होता है है तो भारतीय भूभाग की हवा गर्म होकर ऊपर की ओर उठकर बाहर की ओर बहने लगती है । इससे पूरा क्षेत्र कम दबाव वाला विशाल प्रदेश बन जाता है । यह प्रदेश उच्च् दबाव के क्षेत्र से हवाआें को आमंत्रित करता है । इन दिनों भारतीय उपमहाद्वीप को तीन ओर से घेरे समुद्र  में उच्च् दबाव का क्षेत्र होता है क्योंकि जमीन की तुलना में सागर काफी कम गर्म होता है । 
चूंकि सागर में निरन्तर वाष्पीकरण होता है इसलिए ये हवाएं नमी से लदी होती है । मानसून भारतीय महाद्वीप यानी कन्याकुमारी  तक पहुंचकर दो धाराआें में बंट जाता है । एक धारा अरब सागर की ओर तथा दूसरी बंगाली की खाड़ी की ओर आगे बढ़ती है । अरब सागर से चलने वाली मानसूनी हवाएं पश्चिमी घाट के ऊपर से बहकर भारत में घुसती है और बंगाली की खाड़ी वाली हवाएं बंगाल और उत्तर पूर्व के राज्यों से होकर । हिमालय और भारत के अन्य पर्वतों से टकराकर ये हवाएं ठंडी होती हैं और पूरे भारत में लगभग चार महीने तक बारिश करती है । 
उद्योग-जगत
विद्युत संयंत्र में झटका नहीं विस्फोट
राजेश कुमार/राजकुमार सिन्हा
निजी विद्युत कंपनियों में श्रमिकों एवं कर्मचारियों से संबंधित सुरक्षा नियमों की घनघोर उपेक्षा की जाती है । इसके परिणामस्वरूप अनेक की मृत्यु भी हो जाती है । परंतु निगरानी तंत्र की लापरवाही और मिलीभगत के चलते दोषियों को सजा ही नहीं मिल पा रही है । 
पिछले दिनों मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले के जैतहरी में स्थित हिन्दुस्तान पावर प्राइवेट लिमिटेड (एम.बी.पावर) परियोजना में बायलर की सफाई के दौरान संयंत्र बंद न करने के कारण हुए हादसे में ही तीन लोगों की घटनास्थल पर मृत्यु हो गई और दो दर्जन से भी अधिक श्रमिक घायल हो गये। कम्पनी ने केवल एक व्यक्ति की मृत्यु और ११ लोगों के  घायल होने की खबर ही दी है। यह एकमात्र घटना नहीं है । ऐसे अनगिनत हादसे केवल अखबारों की खबर बन कर ही रह जाते हैं। उन पर ना तो मीडिया ने आगे कोई खोजबीन की, ना ही प्रशासन ने कम्पनियों से सवाल पूछे ।

इसी साल ऐसे ही दो हादसे दो बड़ी विद्युत कम्पनियों मंे हुए । रिलायंस की सासन (सिंगरौली) अल्ट्रा मेगा विद्युत परियोजना में निर्माण के दौरान १९ श्रमिकों की मौत व सैकड़ों के घायल होने के मामले की पुष्टि परियोजना को वित्तीय सहायता देने वाले अमेरिका के एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट (एग्जिम) बैंक के इंस्पेक्टर जनरल ने की । ओआईजी जी की रिपोर्ट के मुताबिक यहां ज्यादातर श्रमिक दैनिक वेतनभोगी ही हैं। दूसरा मामला है अडानी की कोयला बिजली परियोजना का । मुन्द्रा, कच्छ गुजरात में स्थित इस संयंत्र के बायलर से छोडे गये गरम पानी से सात लोगों की मृत्यु हो गई और २१ से ज्यादा लोग बुरी तरह घायल हो गये । यह घटना भी गुमनामी की भेंट चढ़ गई । 
निजी बिजली परियोजनाआंे में श्रमिक अधिकारांे का उल्लंघन आम बात है। बिजली कम्पनियां ज्यादातर कामों के लिये दैनिक वेतनभोगी मजदूर ही काम पर रखती हंै और उनका दस्तावेजीकरण भी नहीं करतीं । कम्पनी स्थाई मजदूरों को जो मजदूरी देती हैंउससे कम मजदूरी पर दैनिक वेतनभोगी मजदूर को रखती हैं इससे जो सुविधाएं स्थाई मजदूर को मिलती हैं उससे भी कम्पनी बच जाती है । इसके अलावा हादसे की स्थिति में कम्पनी अपनी जिम्मेदारी से बच जाती है ।  
इन संयंत्र में अधिकतर मजदूर दूसरे राज्यों से आते हैं। इन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है जैसे, यह मजदूरी निर्धारित नहीं कर पाते हैंऔर जितना कम्पनी देती है उसी में उनको काम करना पड़ता है। इनसे निर्धारित घंटों से अधिक काम करवाया जाता है । उनको बुनियादी सुविधाआंे के अभाव मंे रहना पड़ता है । पलायनकर्ता और असंगठित मजदूरों को स्थानीय प्रशासन भी नजरअंदाज कर देता    है । इनसे स्थानीय मजदूरांे की मजदूरी निर्धारण पर भी असर पड़ता है । इन सभी का फायदा कम्पनी उठाती है। एक तरफ तो प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी विदेश में भारतीय प्रवासी मजदूरों के साथ खाना खाकर उनका हौसला आफजाई करते हैंदूसरी तरफ देश में मजदूरांे की सुरक्षा और अधिकारांे के खिलवाड़ के खिलाफ कोई सवाल नहीं करता । देश के कामगारों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों ? 
पिछले एक दशक मंे भारत के कोयला बिजली क्षेत्र मंे निजी कम्पनियों की बाढ़ सी आ गई है । भारत सरकार आंख मूंदकर कम्पनियों का हजारांे एकड़ जमीन पर कब्जा  दे रही है । राज्य सरकारें भी वन अधिकार कानून मंे बदलाव कर वनभूमि निजी कोेयला बिजली कम्पनियों को सौंप रही है । सरकारी आंकडों के अनुसार पिछले ३० वर्षों मंे करीब १४००० वर्ग किमी जंगल का कब्जा २३७१६ कम्पनियों को दे दिया गया है । हर साल २५० वर्ग किमी से भी ज्यादा वनभूमि बिजली कम्पनियों, खनन,बांध और कारखानों को सौंपी जाती है । सबसे अधिक जमीन खनिज कम्पनियांे को दी गई है ।  
बिजली परियोजनाएं पानी का भी अत्यधिक उपयोग करती हैं । एकतरफ देश मंे पानी को लेकर हाहाकार मचा है दूसरी ओर इन बिजली परियोजनाआंे ने पानी की लूट मचा रखी है । नदियांे से पानी लेने के बाद नियम और कानूनों को ताक पर रख उनमंे जहर बहाया जा रहा  है । यह पानी पीने से जानवर तो मर ही रहे हैं, खेती भी बर्बाद हो रही है । जीवजन्तु की तमाम प्रजातियां भी खत्म हो रही हैं । इतना ही नहीं अनेक अन्य जलस्त्रोत भी प्रदूषित हो गये हैं । सिंगरौली इसका एक अहम उदाहरण है । यहां लोग प्रदूषित पानी पीने को मजबूर हैं और फेफड़े के कैंसर, टीबी जैसी भयानक बीमारियांे से ग्रसित हैं । 
पिछले पचास सालांे से सरकार सबको बिजली पहुंचाने के  नाम पर हर साल कई बिजली परियोजनाआंे को मंजूरी देती है। लेकिन फिर भी लोगों तक बिजली नहीं पहंुच पा रही है। आज भी कई गांवों के लिये बिजली एक सपना    है । गौरतलब है कि सन् २००१ मंे १०१६६० मेगावॉट के संयंत्र मौजूद थे और ३८ प्रतिशत लोगांे के पास बिजली नहीं थी और सन् २०१५-१६ में बिजली उत्पादन क्षमता २८४३०३ मेगावॉट तक पहंुच गयी जो की पंद्रह साल पहले के मुकाबले डेढ़ गुना अधिक है, लेकिन फिर भी २० प्रतिशत लोगांे के लिये बिजली नहीं  है । हालांकि वर्तमान सरकार सबको वर्ष २०१९ तक बिजली देने का वादा कर रही है। एक ओर सरकार देश के प्राकृतिक संसाधनों को विकास के नाम पर रिलायंस, अडानी और मोजरबियर जैसी बिजली कंपनियांे के हवाले कर रही है। दूसरी ओर पर्यावरण और श्रम कानूनांे में बदलाव कर बिजली कंपनियों को फायदा पहुंचा रही है। मोदी सरकार इन्ही बदलावों को ``इज आफ डुइंग बिजनेस``(व्यापार करने में सहूलियत) कह रही है । 
निजी बिजलीघरांे के हादसांे में मरने एवं जख्मी होने वालों की संख्या का कोई सही आकलन आज तक सार्वजनिक नहीं हुआ है। जब से बिजली क्षेत्र निजी हाथांे मंे आया है तभी से इसमें श्रमिकों की सुरक्षा मंे कोताही व उनके अधिकारांे से खिलवाड़ आम बात हो गई है। रिलांयस, टाटा या अडानी को बिजली कंपनियों मे घाटा हो रहा है । इस पर तो भारत सरकार और उसका प्रशासन चिंतित है लेकिन उनकी परियोजनाओं मंे मजदूरांे की सुरक्षा में कोताही और अधिकारांे से खिलवाड़ के खिलाफ सरकार और प्रशासन से कोई सवाल क्यों नहीं पूछता ? मीडिया भी इन सवालों को नहीं पूछ पा रही है । 
एम.बी.पावर जैतहरी  परियोजना में हुई घटना मंे अनूपपुर के स्थानीय लोगांे का कहना है कि मोजरबियर के कोयला बिजलीघर मंे हुए हादसे मंे कई मजदूर एवं कर्मचारी ९० प्रतिशत से अधिक जल गये थे और मरने वालांे की संख्या तीन से अधिक है। वहीं कम्पनी केवल तीन अधिकारी स्तर के स्थाई कर्मचारियों के मरने की बात कर रही है । लेकिन सफाई जैसे कार्यों मंे मजदूर ही काम करते है और इस बड़े धमाके में  आसपास मंे काम करने वाले मजदूर भी चपेट मंे आये होगंे । इस घटना में कहीं भी मजदूरों के मरने की बात ना तो मीडिया ने उठाई ना कम्पनी ने ही कुछ बताया । इस संयंत्र में दो बायलर हैं जिसमंे से उन्होंने एक बायलर को चालू रखकर दूसरे की सफाई करनी चाही थी । नियम अनुसार दोनों को ही बंद कर सफाई की जानी चाहिए । अगर एक बायलर काफी गरम चल रहा है तो उसी के एकदम बगल मंे ठण्डा बायलर नहीं चलाया जा सकता या फिर उससे सुरक्षा हेतु रेत की बोरी की दीवार दोनों बायलरों के बीच बनानी  चाहिये । लेकिन ऐसा नहीं किया गया था । सफाई मजदूरांे को बायलर की सफाई करने के दौरान आग से बचाव हेतु जो वर्दी दी जाती है वह भी इनको नहीं दी गई थी । 
इन बड़ी बिजली परियोजनाओं ने आदिवासी, किसान और मजदूरों के पास दरबदर भटकने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा    है । यह एक दुखद विडम्बना है कि प्राकृतिक और खनिज संसाधनों को कुछ सीमित निजी हाथों में सौंपने हेतु सरकार हजारांे सालांे से बसे बसाये लोगों को उजाड़ रही है ।
जीव जगत
जिराफ और गाय
डॉ. डी. बालसुब्रम्ण्यन
गाय और जिराफ के बीच क्या संबंध है ? देखने से तो लगता है कि बहुत कम संबंध है । लेकिन आनुवंशिकीविदों का कहना है कि वे एक ही पूर्वज से विकसित हुए हैं और २.८ करोड़ साल पहले अलग-अलग राह पर चल पड़े थे । उस पूर्वज से एक शाखा उस जंतु के रूप में सामने आई थी जिसे ओकापी का अग्रदूत माना जाता है और लगभग १.१५ करोड़ साल पहले ओकापी में आनुवंशिक परिवर्तनों की एक श्रृंखला के परिणामस्वरूप जिराफ प्रकट हुआ था । इस लिहाज से जिराफ गाय के वंश या गोत्र का है । 
जिराफ १७ फीट लंबा, एक टन वजीन (नर १२०० किलो और मादा ८३० लिो) होता है । साथ में ६ फुट लंबी गर्दन, चारों ओर की दुनिया को घूरती उभरी हुई बड़ी-बड़ी आंखें, तेज रफ्तार (अरबी नाम जाराफ है जिसका मतलब तेज चालक है) हैं । उसकी ६० किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार दिलचस्पी, विस्मय और उलझन पैदा करती है । 
गाय और ओकापी की तरह जिराफ भी शाकाहारी है, बबूल की पत्तियोंऔर टहनियों को चट करते हैं वह भी २० इंच लंबी जीभ की मदद से । अफसोस की बात है कि अवैध शिकार और तेजी से घटते घास के मैदान के कारण विश्व में केवल ८०,००० जिराफ ही बचे है । 
जिराफ शारीरिक डिजाइन का चमत्कार है । कल्पना कीजिए कि वह पानी पीने के लिए १६ फीट नीचे झुकता है । रक्त का बहाव नीचे की ओर दौड़ता है । इस तेजी से बहते रक्त की वजह से दिल का दौरा पड़ जाना चाहिए । और जैसे ही पानी पीने के बाद वह अपना सिर वापिस ऊपर उठाता है तो क्या फिर से पूरा रक्त नीचे की ओर नहीं आ जाता होगा ? ऐसा नहीं होता क्योंकि उसका ह्दय और रक्त वाहिनियां इस तरह बनी है कि ऐसा नहीं होता । 
आम जिराफ का ह्दय ११ किलो का होता है (हमारा ३५० ग्राम) और २ फीट लंबा होता है । इसकी धमनियों में भी वॉल्व होते है जबकि हमारी शिराआें में ही वॉल्व पाए जाते हैं । जब सिर नीचे की ओर जाता है तो धमनियों के ये वॉल्व बंद हो जाते हैं और वहां स्पंज के समान रक्त वाहिनियों का झुण्ड होता है जो कि अतिरिक्त रक्त को सोख लेता है । और यह स्पंज ऑक्सीजन युक्त रक्त को मस्तिष्क में भेज देता है ।
असल में इन ७० जीन्स की बदौलत कुछ छोटे-छोटे लेकिन दिखाई देने वाले परिवर्तनों ने ही जिराफ को लंबी गर्दन और टांगो, अति संवेदी तंत्रिका तंत्र, और उच्च् मेटाबॉलिज्म के विकास का तोहफा दिया है । यह उसे ताकत, गति और मजबूती देता है । इस प्रकार ये प्राकृतिक चयन का सही उदाहरण है और चार्ल्स डार्विन का विचार भी यही था । यह सच है कि कैसे ये जीन्स कार्य करते हैं, कौन से रसायन शामिल है वगैरह पर काम किया जाना बाकी है ।
जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इण्डिया में जिक्र किया है कि भारत में पहला जिराफ अफ्रीका से चीन के रास्ते होता हुआ पहुंचा था जिसे वहां के मिंग राजवंश के एक राजा ने यहां के एक स्थानीय राजा को तोहफे के तौर पर दिया था । 
यदि यह पहले से ही वैदिक काल में आ गया होता, तो मुझे लगता है कि यह पवित्र पशु बन जाता और हमारे किसी देवी देवता का वाहन बन गया होता । किसका ? मेरा मत है देवी पार्वती का, जो दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत की पुत्री है ।