सोमवार, 19 सितंबर 2016


प्रसंगवश
वायुमण्डल में इतनी ऑक्सीजन कहां से आई ?
ऑक्सीजन का महत्व तो हम सभी जानते हैं । पृथ्वी पर मौजूद हवा सांस लेने योग्य है क्योंकि इसमें पर्याप्त् मात्रा में ऑक्सीजन है । मगर वायुमण्डल में इतनी ऑक्सीजन सदा से नहीं रही है । वायुमण्डल में ऑक्सीजन की मात्रा तभी बढ़ी थी जब करीब ४७ करोड़ वर्ष पहले वनस्पति ने पानी से निकलकर धरती पर जड़े जमाना शुरू किया । 
दरअसल तात्विक रूप में ऑक्सीजन पृथ्वी के वायुमण्डल में २४ अरब वर्ष पहले प्रकट हुई थी । इसे महाऑक्सीकरण घटना कहते हैं । मगर उस समय यह बहुत कम मात्रा में ही थी । आजकल वायुमण्डल में जितनी ऑक्सीजन पाई जाती है वह स्तर तो मात्र लगभग ४० करोड़ वर्ष पहले स्थापित हुआ था । और इसके बाद ही पृथ्वी पर बड़े-बड़े जंतुआें का विकास संभव हुआ था । तो वैज्ञानिकों के बीच यह बहस चलती रहती है कि इतनी मात्रा में ऑक्सीजन कैसेऔर कहां से आई थी ।
आजकल हम जिस हवा में सांस लेते है उसमें ७८ प्रतिशत नाइट्रोजन २१ प्रतिशत ऑक्सीजन के अलावा शेष १ प्रतिशत में कार्बन डाईऑक्साइड जल वाष्प तथा अन्य गैसे पाई जाती है । 
एक्सेटर विश्वविद्यालय के शोधकर्ताआेंने वर्तमान में मौजूद या अतीत में मौजूद रहे पेड़-पौधों को आधार बनाकर कम्प्यूटर अनुकृतितैयार करके यह समझने की काशिश की है कि शुरूआती जमीनी वनस्पतियों ने ऑक्सीजन के निर्माण मेंक्या योगदान दिया है ?
जमीन पर जड़े जमाने वाले पहले-पहले पादप सरल ब्रायोफाइट थे । ब्रायोफाइट ऐसे पौधे होते है जिनमें तरल पदार्थो (पानी व खनिज लवण) को पूरे शरीर में पहुंचाने के लिए नलिकाए नहीं होती । इस जानकारी को लेकर कम्प्यूटर अनुकृति के आधार पर स्पष्ट हुआ कि पृथ्वी पर ऑक्सीजन का वर्तमान स्तर ४० करोड़ वर्ष पहले एक किस्म मे ब्रायोफाइट्स (मॉस) की गतिविधियोंके कारण बना होगा । मॉस को आप दीवार पर उगने वाली काई के रूप में जानते ही हैं । इसके बाद पेड़-पौधों का विकास हुआ और इसने पृथ्वी पर ऑक्सीजन चक्र को स्थायित्व प्रदान किया । 
जीवन की उत्पत्ति पर नई समझ
स्वयं की प्रतिलिपि बनाना जीवन का एक बुनियादी गुण है । जीवों में यह गुण तीन तरह के अणुआें की बदौलत आता है - डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड (डीएनए), राइबो न्यूक्लिक एसिड (आरएनए) और   प्रोटीन्स । डीएनए वह अणु है जिसमें सारी आनुवंशिक सूचनाएं सहेजी जाती हैं । इस सूचना को कार्यरूप देने के लिए डीएनए से आरएनए बनाया जाता है । और इस क्रिया में प्रोटीन्स की भूमिका होती है । आगे भी आरएनए से प्रोटीन बनाने में कई अन्य प्रोटीन की भूमिका होता है और ये प्रोटीन आरएनए द्वारा ही बनाए जाते हैं । दूसरे शब्दों में ये तीन तरह के अणु कार्य संपादन के लिए परस्पर निर्भर है । 
बहस का विषय यह रहा है कि जीवन के शुरूआती दौर में भी क्या यह परस्पर निर्भरता मौजूद थी । कई वैज्ञानिक मानते हैं कि शुरू-शुरू में आरएनए ही तीनों भूमिकाएं निभाता था । अब इस मत को प्रयोगों को कुछ समर्थन प्राप्त् हुआ है । शोधकर्ता एक ऐसा आरएनए बनाने में सफल हुए हैं जो लगभग किसी भी अन्य आरएनए की प्रतिलिपि बना सकता है । इससे लगता है कि आनुवंशिक सूचना के भंडारण के मामले मेंसंभवत: आरएनए डीएनए से पहले आया होगा । इसी की बदौलत उन जीवों का निर्माण हुआ होगा जिनमें आज भी आरएनए आनुवंशिक सूचना के भंडारण का काम करता है । 
अलबत्ता, शोधकर्ताआें ने जो आरएनए बनाया है वह एक काम नहीं कर सकता - वह स्वयं की प्रतिलिपि नहीं बना पाता । मगर यदि शुरू में अकेला आरएनए ही जीवन का आधार था तो उसमें स्वयं की प्रतिलिपि बनाने की क्षमता तो होनी ही चाहिए । 
हालांकि इस शोध को महत्वपूर्ण माना जा रहा है मगर यदि मात्र आरएनए से शुरूआत की बात सही है तो शोधकर्ताआें को यह दिखाना होगा कि उनके द्वारा निर्मित आरएनए स्वयं को द्विगुणित कर सकता है । यदि ऐसा नहीं हो पाता तो शुरूआती जीवन का आगे बढ़ना अनिश्चित सा हो जाता है । 
सामयिक
प्रवासी पक्षी खरमोर
मनीष वैद्य

मध्यप्रदेश में शुरूआती बारिश अच्छी होने और दूर-दूर तक घास के मैदान बन जाने से इस बार लुप्त्प्राय प्रवासी पक्षी खरमोर (लेसर फ्लोरिकन) बड़ी संख्या में यहां पहुंच रहे हैं । बीते कुछ सालों से अवर्षा और सूखे की वजह से यहां हर साल पहुंचने वाले प्रवासी खरमोर पक्षियों की तादाद तेजी से घटने लगी थी । 
मध्यप्रदेश के ग्वालियर, श्योपुर, रतलाम, झाबुआ, व धार जिले की आबोहवा और यहां के बड़े घास के मैदान हजारों मील दूर रहने वाले इन पछियों को इतने पंसद है कि वे यहां हर साल पहुंचते है । मगर इन्हें इस मौसम के अलावा यहां कभी नहीं देखा गया है । 
खरमोर का आकार साधारण मुर्गी की तरह होता है पर देखने में यह उससे सुन्दर लगता है । इसे चीनीमोर, खर तीतर या केरमोर भी कहते हैं । इसके नर और मादा काफी एक जैसे दिखते हैं । इसका सिर, गर्दन और नीचे का भाग काला   और ऊपर का हिस्सा हल्का सफेद  या चकत्तेदार होता है । इसके पंख भी सुन्दर होते हैं । प्रणयकाल में   नर चमकीले काले रंग का हो जाता है । 
खरमोर घास, कोमल पत्ते, पौधों की जड़ें, टिड्डे और अन्य कीड़े-मकोड़े खाता है । सुन्दर सुराहीदार गर्दन और लम्बी पतली टांगों वाले खरमोर की ऊंची कूद देखने लायक होती है । मादा को आकर्षित करने के लिए नर एक बार में ४०० से ८०० बार तक कूदता    है । 
जुलाई के आखरी पखवाड़े से मध्य अक्टूबर तक सोनचिरैया परिवार के ये पक्षी मध्यप्रदेश के जंगलों में मेहमान बनकर आते हैं और फिर वापिस उड़ जाते हैं अपने देस को । ये खास तौर से यहां प्रणय के लिए ही आते है । 
इन प्रवासी पक्षियों को देखने के लिए यहां बड़ी तादाद में लोग जुटते हैं । ये बहुत शर्मीले होते हैं और जरा सी आहत पाते ही उड़ जाते हैं । यहां पहुंचने के करीब महीने भर बाद मादा खरमोर अंडे देती है और नर-मादा दोनों उन्हें सहेजते हैं । सात दिन बाद इन अण्डों से बच्च्े निकल आते हैं । बर्ड लाइफ इंटरनेशनल ने १९९४ में प्राप्त् आंकड़ों के आधार पर इनकी वैश्विक आबादी २२०० बताई थी जबकि अकेले भारत में लगभग ४,२५० बताई जाती है । अब सरकार के साथ आसपास रहने वाले किसान भी खरमोर को बचाने के लिए आगे आ रहे है । 
ये दुर्लभ पक्षी लुप्त्प्राय प्रजाति के हैं, इसलिए सरकार भी हर साल बड़ें पैमाने पर तैयारियां करती हैं, ताकि इनकी तादाद बढ़ सके । बीते कुछ सालों के आंकड़े बताते हैं कि इनकी संख्या लगातार घट रही थी । लेकिन इस बार शुरूआती मानसून में ही अच्छी बारिश होने से घास       के मैदान हरे-भरे हो गए तो   सैलानी खरमोर बड़ी तादाद में पहुंच रहे हैं । 
ये पक्षी मानसून के दौरान मध्यप्रदेश के कुछ खास जंगलों में कहां से आते हैं और वापिस कहां चले जाते हैं, यह फिलहाल तक पक्षी विज्ञानियों के लिए शोध और उत्सुकता का विषय रहा है । अब इसका पता लगाने के लिए रेडियो चिप का सहारा लिया जा रहा है । देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान इनके प्राकृतिक रहवास को लेकर शोध कर रहा है । बीते साल भी संस्थान के वन्यजीव वैज्ञानिक और पक्षी विज्ञानी यहां आए थे । इस बार फिर अक्टूबर में दल प्रदेश के चिन्हित स्थानोंपर खरमोर पर नजर रखेगा । बीते साल ३ पक्षियों को रंगीन छल्ले पहनाए गए थे । अब इन छल्लेदार पक्षियों को ढूंढा जाएगा । प्रदेश में आने वाले खरमोरों को रेडियो चिप लगाई जा रही है । इसकी मदद से इनके प्रवास की स्थिति, प्रवास मार्ग, भौगोलिक स्थिति और अन्य जानकारियां हासिल की जा सकेगी । तब यह पता चल पाएगा कि ये मानसून के अलावा बाकी समय कहां रहते हैं । 
दरअसल खरमोर सामान्यतया २० से.मी. ऊंची घास के सघन मैदानों में अपना प्रजनन काल बिताने यहां आते हैं । इनके रहवास और घास मैदानों का भी अब विशेष तौर पर अध्ययन किया जा रहा है । इस अध्ययन में बैंगलुरू का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सांइस भी शामिल है । इसके आसपास के १०० वर्ग कि.मी. क्षेत्र का सेटेलाइट मानचित्र भी तैयार किया गया है । 
इंस्टीट्यूट में पारिस्थितिकी शोध छात्र चैतन्य कृष्णा बताते हैं कि खरमोर के अलावा ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, बंगाल ब्लैकबर्ड आदि कई पक्षी घास के मेदानों में ही रहते हैं । उक्त अध्ययन से यह आकलन भी हो सकेगा कि वास्तव में घास के लिए अब धरती पर कितनी जगह बची   है । अब यह जरूरी होता जा रहा है कि जंगल की तरह हम घास के मैदानों में संरक्षण की भी सुध लें । कृष्णा ने महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए बताया कि ६ हेक्टर घास मैदानों के अध्ययन में पता चला है कि इस पर १६० प्रकार की जीव और वनस्पतियां निर्भर है । 
करीब तीन दशक पहले प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी डॉ. सालिम अली ने जब रतलाम से करीब २० कि.मी. दूर सैलाना के पास पहली बार खरमेार को देखा तो वे चहक उठे । वे कहा करते थे कि खरमोर हमारे लिए प्रकृति का एक बेशकीमती तोहफा   है । बाद में उन्हीं की पहल पर सरकार ने यहां खरमोर के प्रवास काल को सुखद बनाने के लिए विशेष अभयारण्य बनाया । 
मध्यप्रदेश सरकार ने सैलाना में १४ जून १९८३ को खरमोर अभयारण्य के लिए साढ़े आठ सौ हेक्टर से ज्यादा वन भूमि और करीब साढ़े चार सौ हेक्टर कृषि भूमि अधिग्रहित की थी । यह पूरा इलाका खेतोंऔर ऊंची-नीची घास की बीडों से आच्छादित है । यहां का वन अमला मानसून के साथ ही खरमोर के आने का इंतजार करने लगता    है । खरमोर या उनके अंडे देखे जाने की सूचना देने वाले किसानों को नगद धन राशि का इनाम दिया जाता है । खरमोर को बाधा न पहुंचे, इसके लिए यहां के किसान नवम्बर तक घास नहीं काटते है ।  
अकेले सैलाना खरमोर अभयारण्य के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष २००५ से २०१२ के बीच प्रतिवर्ष २०-३५ खरमोर ही सैलाना पहुंचे   थे । बीते दो सालों में तो इनकी तादाद घटकर दर्जन के आसपास ही सिमट गई थी । इससे वन्यजीव प्रेमियों की चिंताएं बढ़ गई है । वन्यजीव प्रेमी अजय गडीकर बताते है कि इस बार भी सैलाना में खरमोर  आ चुके हैं । धार झाबुआ जिलों में और ग्वालियर के घाटीगांव और श्योपुर के कूनो अभयारण्य में भी ये देख जाते है । 
सैलाना के बाद धार जिले के सरदारपुर में करीब ९ वर्ग कि.मी. क्षेत्र में तथा झाबुआ जिले के पेटलावद में भी विशेष अभयारण्य बनाए गए हैं । यहां १४ गांवों के ३० हजार किसान अपनी १३ हजार हेक्टर जमीन पर खेती तो कर सकते हैं लेकिन इसे न बेच सकते हैं और न कोई निर्माण कर सकते हैं । सरदारपुर में अब ढाई सौ वर्ग मीटर क्षेत्र को इको सेंसिटिव जोन में बदला जा रहा है । यहां बारिश के पानी को रोका जाएगा और जल संरक्षण की कई तकनीके इस्तेमाल की जाएगी । जैविक खेती और सौर ऊर्जा को बढ़ावा दिया जाएगा । लकड़ी काटना पूरी तरह से प्रतिबंधित होगा तथा किसी तरह का निर्माण नहीं हो सकेगा । पेटलावद मेंभी करीब   ९० लाख रूपए खर्च कर घास के बड़े मैदान बनाए गए हैं । यहां २००९ में आखिरी बार खरमोर देखे गए    थे । 
खरमोर पर विशेष अध्ययन करने वाले प्राणी शास्त्री डॉ. तेजप्रकाश व्यास बताते हैं कि खरमोर के कम आने की वजह अभयारण्य क्षेत्रों के आसपास खेती मेंभारी मात्रा में रासायनिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग है । इनके सतत इस्तेमाल से खरमोर के खाद्य कीटों पर भी बुरा असर हो रहा है । खेतों में बढ़ती आवाजाही भी इनके एकान्त में खलल पैदा करती है । सैलाना रियासत के विक्रमसिंह बताते हैंकि पहले यहां रियासत के दौरान शिकारवाड़ी हुआ करती थी । तब खरमोर बड़े-बड़े झुंडों में आया करते थे । तब यह जगह बहुत शांत थी पर अब लोगों ने पट्टे की जमीनों पर खेत बना लिए हैं । यहां खेती, अतिक्रमण, खनन जैसी गतिविधियों पर रोक लगाना जरूरी है । 
हमारा भूमण्डल
माईक्रो क्रेडिट में गहराता दलदल  
केरोलिन शुस्टेर

माइक्रोफाइनेंस का उद्देश्य गरीब व वंचितों को ऋण की उपलब्धता और उन्हें छोटे व्यापार के लिए मदद करना था । परंतु धीरे-धीरे इसने पांरपरिक वित्तीय बाजार का शोषण आधारित मॉडल अपना    लिया । आज गरीब लोग अपने ही बुने जाल में फंस गए हैं ।
माइक्रोफाइनेंस का महिमा मंडन कुछ इस तरह से किया जाता है कि इससे गरीब लोगों, खासकर महिलाओं, के हाथ में धन आता है जिससे कि छोटा या थोड़ा बड़ा व्यापार प्रारंभ किया जा सकता है । यह छोटे-छोटे ऋण प्राप्त करने में न्यूनतम कार्यवाही करना पड़ती है जिससे कि यह एक वैश्विक जुनून सा बन गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने २००५ को ``माइक्रो क्रेडिट वर्ष`` घोषित किया था और इसके अगले ही वर्ष २००६ में बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक को नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया  था । 
        इसके बाद के दशक में माइक्रो क्रेडिट फाइनेंस माइक्रो क्रेडिट महिलाओं के सशक्तिकरण हेतु एक दूरगामी कदम माना गया जिससे कि आर्थिक विकास की पहल संभव है । इतना ही नहीं इसने मुख्यधारा की व्यावसायिक बैंकिंग में भी प्रवेश कर लिया। उद्यमिता को लेकर यह व्यापक सहमति बनती गई कि आप इसमें बस ऋण डाल दो और इसे प्राणवान बना लो । ऐसा अनुमान है कि सूक्ष्म वित्त संस्थानों (माइक्रो फाइनेंस इंस्टि्टयूशन, एम एफ आई) में विश्वभर में करीब ९ करोड़ लेनदार (ऋण लेने वाले) हैं और इस क्षेत्र ने वर्ष २०१२ में ८१.५ अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर का ऋण प्रदान  किया ।
इस बीच एम एफ आई कई उभरते हुए क्षेत्रों जैसे मोबाइल बैंकिंग, बीमा एवं बचत, शिक्षा ऋण और डिजिटल वित्तीय सेवाओं में भी प्रवेश कर गया । जैसे-जैसे वित्तीय सेवाओं एवं उत्पादों का क्षेत्र विस्तारित होता गया वैसे वैसे इसका विकास मिशन भी फैलता चला गया । गरीब महिलाओं को ऋण उपलब्ध कराने की धारणा अंतत: दौरान मजबूत वित्तीय प्रणाली के एक ऐसे व्यापक विचार में बदल गई जो कि गरीब एवं कम आय वाले समुदायों की मदद कर सके । जिस तरह माइक्रो क्रेडिट (छोटे ऋण) आंदोलन बढ़ता गया, उसी दौरान ``वित्तीय समावेश`` की चुनौती भी वर्तमान परिस्थितियों में उभकर सामने आई । 
वर्तमान स्थिति यह है जिन लोगों के पास धन की कमी है उनके लिए इसका इस्तेमाल कर पाना अधिक खर्चीला बन गया है। आवश्यकता इस बात की है। वित्तीय सेवाओं पर मूलभूत विचार हो कि किस तरह इसे अधिक समावेशी बनाया जा सकता है। करोड़ों लोगों को जो कि अभी पारंपरिक बैंकिंग क्षेत्र से बाहर छूट गए हैं उन्हें इसमें शामिल करने हेतु वित्तीय सेवाओं के विस्तार में क्या बुराई है ? बैंकिग के अधिक समावेशी और लोकतांत्रिक प्रकार वास्तव में उन लोगों और समुदायों को वित्तीय सेवाओं के दायरे में ला सकते हैं जो कि अभी मुख्य बाजार में नहीं है। परंतु अकादमिक शोध एवं नीति विश्लेषक दोनों ही सावधान रहने हेतु चेता रहे हैं । 
अर्थशास्त्री चारलोट्टे वेगनेर ने माइक्रो फाइनेंस की वृद्धि का अध्ययन किया और पाया कि सन २००० के दशक के मध्य में पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली मंे भी ऋण को लेकर इसी प्रकार की भरमार महसूस की गई थी । ठ ीक उसी प्रकार से उछाल और बुलबुले के फूटने जैसी अति संवदेनशीलता माइक्रो फाइनेंस से भी सामने आ सकती    है ।
सवाल उठता है ऋण के तेज विस्तार ने कहीं इस क्षेत्र को अस्थिर वैश्विक ऋण बाजार के सामने जोखिम भरा तो नहीं बना दिया है ? भारत से जुड़ी अत्यधिक ऋणग्रस्तता की समस्या को लेकर ऋण लेने वालों द्वारा की जारी रही आत्महत्याआंें की परेशान कर देने वाली कहानियां कमोवेश इसी ओर इशारा कर रही  हैं । एक उथल पुथल भरा बाजार और ऋण वापसी को लेकर बढ़ता दबाव अंतत: वित्तीय समावेश को लेकर वैश्विक पहल का अनचाहा परिणाम हो सकता है। माइक्रो फाइनेंस में छिपी हुई लागत को लेकर मेरा जमीनी नृतत्वशास्त्रीय कार्य दो वर्ष पूर्व लेटिन अमेरिका में ऋण की पारंपरिक संस्कृति के अध्ययन से प्रारंभ    हुआ । 
इसके पीछे यह भी उद्देश्य था कि इन विकास परियोजनाओं में शामिल व ऋण लिए हुए परिवारों, पास-पड़ौस व समुदायों का इसे लेकर कैसा अनुभव है। अंतत: मैंने पाया कि महिलाएं जिस आर्थिक विश्व को दिशा देने का प्रयास कर रही हैं, ऋण तो उन्हें ही बहा ले जाता है। वास्तविकता तो यह है कि पेराग्वे में वित्तीय सेवा उद्योग में जिनमें माइक्रोक्रेडिट लेनदार से लेकर ऋण वसूली अधिकारी तक सभी शामिल हैं, ने मुझे बताया कि जब ऋण की बात होती है तो लगता है कि जैसे वे ``साइकल चला रहे हैं ।`` इसका साधारण सा अर्थ यह है कि वह जिस तरह साइकिल चलाने के लिए एक पैडल मारते हैं और उसे गतिमान बनाए रखने के लिए दूसरा । ठीक  उसी तरह उन्हें एक ऋण चुकाने के लिए दूसरा ऋण लेना पड़ता है ।
``ऋण की इस साइकिल`` के पहिए चलाए रखने का अर्थ है ऋण प्राप्त करने के नए अवसरों की लगातार खोज करते रहना । गौरतलब है यह ऋण विकास संगठनों, उपभोक्ता ऋण, स्थानीय व्यापार, बचत एवं ऋण को-आपरेटिव वित्त कंपनियों से औपचारिक तौर पर और अनौपचारिक ऋण दोस्तों एवं परिवार से लिए गए थे। इनका लक्ष्य छोटे व्यापारिक संस्थान खोलने के साथ ही उपभोग और आय में सहजता का मिश्रण था । माइक्रो क्रेडिट जिसका उद्देश्य वित्तीय समावेश था और इसमें अत्यन्त आसान अर्हताएं जैसे ऋण का इतिहास और आय या बराबरी की राशि की गारंटी की आवश्यकता नहीं थी। परंतु अंतत: इससे भी ``साइकल चालन`` ऋण व्यवस्था को सहयोग मिला ।
अनचाहे परिणाम : शोध से सामने आया कि ``वित्त के लोकतांत्रिकरण`` हेतु माइक्रो उद्यमिता उसी राह पर चली जिस तरह से गिरवी का बाजार चलता है। इसे विशेषकर अमेरिका की ``सब प्राइम लेडिंग`` जोखिम भरे ऋण अधिक ब्याज पर देना का पर्याय भी कहा जा सकता है। सामाजिक न्याय को लेकर बैंकिंग क्षेत्र तक पहंुच को लेकर बेचैनी, वो भी खासकर महिलाओं के लिए, अच्छी बात है । 
परंतु यह उस पूर्ववर्ती परिस्थिति जिसमें घरों के स्वामित्व को लेकर भी सामाजिक न्याय संबंधी बेचैनी, जिसमें तमाम लोगों को गिरवी बाजार से बहिष्कृत कर दिया गया था, से अलग नहीं   थी । यदि व्यापक फलक पर देखें तो इसका यह अर्थ निकलता है कि वित्तीय क्षेत्र अपने लाभ के एक स्त्रोत के रूप मेंअत्यन्त असुरक्षित समुदायों जिसमें फिर महिलाएं हों या कम आय वाले गृहस्वामी, दोनों को ही अपना लक्ष्य बना रहा है ।
माइक्रो क्रेडिट (ऋण) की अदायगी की दर अत्यन्त ऊँची अर्थात् ९८ प्रतिशत तक है । यह इसलिए कि महिलाओं को हमेशा इस बात का डर लगा रहता है कि ऋण अदा न करने पर वह अपनी वर्तमान जीवन शैली से वंचित हो जाएगी और उन्हें भी ``ऋण साइकल चालन`` में फंसना पडेग़ा । मेरा जिन लेनदारों से साबका पड़ा उनमें से अधिकांश का कार्य बिना ऋण के नहीं चल सकता था । यह  ठीक वैसा ही है जैसा कि विकसित विश्व में तमाम लोग अब बिना क्रेडिट कार्ड के नहीं जी     सकते । 
गिरवी बाजार की तरह से विकसित इस वित्तीय समावेशी धारणा को लेकर कुछ क ोर प्रश्न किए जाने की आवश्यकता है, जिससे कि बढ़ते ऋण से उनका बचाव हो सके । हमने महिलाओं से कहा कि वे अपने ऋण के भुगतान हेतु एक दूसरे पर और अपने परिवारों पर निर्भरता  बढ़ाएं । यह नई ``सब प्राइम लेंडिग`` जिस तरह से उनके जीवन व जीविका को नई शक्ल दे रही है ऐसे में हमें पूछना होगा कि ये समुदाय कब तक अकेले ही जोखिम उठाते रहेंगे ? 
वातावरण 
ताजमहल : धूमिल पड़ता प्रेम प्रतीक
डॉ.ओ.पी. जोशी

ताजमहल को आधुनिक विश्व का आश्चर्य कहा जाता है। आज यह स्मारक खतरे में है और इस पर मंडराते सारे खतरे मानव निर्मित हैं । परंतु इनसे निजात पाने का कोई प्रयास सामने नहीं आ रहा है । वैसे अब वहां पर्यटक के  हरने के समय को कम करने की प्रक्रिया पर चर्चा चल रही है । उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके सकारात्मक प्रभाव सामने आंएगे ।
आगरा में यमुना किनारे बने ४०० वर्ष पुराने प्रेम के प्रतीक ताजमहल पर दो प्रकार के खतरे मंडरा रहे हैं । पहला खतरा ताज की बाहरी स्वरूप को प्रभावित कर रहा   है । यह ज्यादातर वायु प्रदूषण से जुड़ा है तो दूसरा खतरा इसकी नींव पर   है । यह यमुना के बहाव में परिवर्तन, पानी की कमी एवं उसके प्रदूषण से संबंधित है । ताज एवं प्रदूषण के संदर्भ में चिंताएं हमेशा से बनी रही हैं। 
सन् १९४० में भारतीय सर्वेक्षण की रिपोर्ट में भाप के इंजन से पैदा धुएं से ताज पर किसी प्रकार के प्रभाव का कोई जिक्र  नहीं है। ताज के बाहरी भाग पर वायु प्रदूषण के प्रभाव के संदर्भ में संभवत: सर्वप्रथम सन् १९७७ में अमेरिका के न्यूजर्सी स्थित आर.टी. पी. एनवायरमेंटल एसो. केड़ा सुनिल हंगल ने अध्ययन कर बताया था कि डीजल जनरेटर्स से पैदा होने वाला धुआं ताज को खराब कर रहा है। उस समय शहर में कार्यरत ८० हजार जनरेटर्स सल्फर डायआक्साइड एवं नाइट्रोजन डायआक्साइड की मात्रा कारखानों से निकलने वाली गैसों से भी अधिक थी ।
बाद में आंध्र विश्वविद्यालय के पर्यावरणविद् प्रो.टी. शिवाजीराव ने भी जनरेटर्स के काले धुएं को ताज के लिए खतरनाक बताया    था । सन् १९८० के आसपास कुछ अध्ययनों से ज्ञात हुआ कि रेल्वे यार्ड, आगरा का ताप बिजलीघर एवं लोहा ढलाई के कारखानों से पैदा धुएं में उपस्थित गैसें भी ताज के लिए खतरनाक हैं । धुएं में मौजूद सल्फर डायआक्साइड तथा नाइट्रोजन सल्फाइड की संगमरमर पर प्रतिक्रिया से केल्शियम सल्फाइड व अन्य रसायन बनते हैं जो पीले रंग के तथा भूरे होते हैं । इन्हीं के कारण ताज में पीलापन दिखाई देता है इसे स्टोन केंंसर भी कहा जाता   है । 
सन् १९८३ में मथुरा तेलशोधक कारखाने की स्थापना के समय भी यह कहा गया था कि यहां से पैदा धुआं ताज को प्रभावित  करेगा । भारत सरकार के पर्यटन विभाग के सुझाव पर सन् १९९४ में आगरा विकास प्राधिकरण तथा पुरातत्व विभाग ने ताज सहित आगरा की अन्य इमारतों पर अध्ययन कर बताया था कि पर्यटकों की बढ़ती संख्या भी इन इमारतों के लिए खतरा पैदा कर रही है । ताज के अंदर व बाहर ध्वनि प्रदूषण निर्धारित स्तर से ज्यादा पाया गया । शोर की ध्वनि तरंगें भी ताज के लिए खतरनाक बतायी गयी । अधिक पर्यटकों के आने से बढ़ी नमी एवं ताज को छूने से शरीर की गर्माहट तथा हाथांे की गंदगी भी इसकी संुदरता को बिगाड़ रही है । 
सन् २००३ में किये गये एक अध्ययन में बताया गया था कि आगरा देश का ऐसा शहर है जहां वायु का प्रवाह प्रत्येक २०-२५ दिनों में बदल जाता है । राजस्थान से आने वाली हवा के साथ रेत के महीन कण उड़कर आते हैं वे ताज को नुकसान पहंुचाते हैं । ताज के आसपास के सूखे स्थानों से उड़ी धूल भी इसे प्रभावित करती है । आसपास स्थित श्मशानों से पैदा धुआं भी ताजमहल पर प्रभाव डालता है । यहां प्रतिदिन १०० दाहसंस्कार होते हैं । आगरा एवं मथुरा के मध्य बढ़ता आवागमन एवं सी.एन.जी. का उपयोग भी वायु प्रदूषण बढ़ाकर ताज को प्रभावित कर रहा है । 
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट अनुसार आगरा में सन् २०१४ के मुकाबले सन् २०१६ में धूल का प्रदूषण बीस गुना बढ़ा है । संगमरमर के बड़े बड़े पत्थरों को गिरने से रोकने के लिए लगायी गयी लोहे की बड़ी बड़ी कीलों का जंग भी पीलेपन का एक संभावित कारण हो सकता है ।
प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो आर. नाथ ने कुछ वर्षोंा पूर्व कहा था कि ताज की इमारत को बचाने पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है जबकि इसका आधार यानी नींव उपेक्षित है। वैसे ताज की नींव की जानकारी व्यवस्थित रूप से कहीं भी उपलब्ध नहीं है । न तो बादशाहनामा में एवं न ही औरंगजेब द्वारा पिता को लिखे गये पत्रों में इसका उल्लेख मिलता   है । काफी वर्षों पूर्व नींव की गहराई जानने हेतु नर्सरी के क्षेत्र में बोरिंग की गयी थी जिससे अनुमान लगाया गया था कि इसकी नींव ६२.३ फीट गहरी है। ताज की नींव को मजबूती के लिए यमुना से जल की मात्रा एवं उसकी शुद्धता दोनों जरुरी है । जल की मात्रा में कमी इसकी नींव में उपयोग की गई लकड़ी सिकुड़कर इमारत में असंतुलन पैदा कर सकती है । साथ ही प्रदूषित जल लकड़ी को सड़ा भी सकता है। सन् २०११ में आगरा के सांसद रामशंकर केरिया ने बताया था कि ताज की मीनारों के गिरने का खतरा बढ़ गया है । 
अप्रैल २०१४ में उ.प्र. सरकार के सिंचाई मंत्री ने यमुना से ताज के पास पानी छोड़ने की घोषणा की थी ताकि जलस्तर बढ़ सके एवं आर्द्रता बराबर बनी रहे । रुड़की इंजीनियरिंग कालेज के कुछ विशेषज्ञों ने अध्ययन कर बताया था कि ताज लगभग ८० से.मी. धंस गया है । संसद की विज्ञान प्रौद्योगिकी, पर्यावरण व वन पर, कांग्रेसी सांसद अश्विनी कुमार की अध्यक्षता में गठि त स्थायी समिति ने जुलाई २०१५ में संसद में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में बताया है कि यमुना का प्रदूषण ताज के लिए बहुत खतरा है। साथ ही समिति का यह भी कहना है कि ताज की सुंदरता को बचाने हेतु सरकारी विभाग एवं एजेंसियां कठोर कदम नहीं उठा रही हैं । देश की शान एकं प्रेम के इस महान प्रतीक को प्रदूषण के प्रहारों से बचाना अनिवार्य है ।
विज्ञान जगत
कैसे उड़ती है पतंग
नरेन्द्र देवांगन

वर्ष १७५२ में बेजामिन फ्रेंकलिन ने अपना विश्वविद्यालय ऐतिहासिक पतंग प्रयोग किया था जिसने आकाश में चमकने वाली रोशनी यानी तड़ित में विद्युत आवेश होने की पृष्टि की थी । 
इस प्रयोग को करने के लिए फ्रेंकलिन ने घर में पतंग बना कर उसकी डोरी में एक धातु की चाबी बांध दी थी और आंधी तूफान में बिजली कड़कने की समय उसे उड़ाया था । पतंग और उसकी गीली डोर से होते हुए विद्युत आवेश ने चाबी पर पहुंच कर चिगारी उत्पन्न की थी जिससे सिद्ध हुआ था कि आकाश में चमकने वाली बिजली में विद्युत आवेश होता है ।
सन् १८४७ में एक पतंग की सहायता से संयुक्त राज्य और कनाड़ा के बीच नियाग्रा नदी पर एक केबल खींची गई थी । यह केबल नदी पर बनाए गए पहले झूला पुल का एक भाग थी । 
वायुयानों के विकास में भी पतंगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा   है । ऑस्ट्रेलिया के लारेस हार्ग्रेव द्वारा वर्ष १८९३ में बनाई गई बॉक्स के आकार की पतंग ने उड़ने की वस्तुए बनाने की तरीका ही बदल दिया    था । वायुयान के आविष्कारक राइट बंधुआें ने अपने वायुयान उड़ाने के प्रयोग में विग वार्पिग के सभी परीक्षण बॉक्सनुमा पतंगों पर ही किए थे, जिनके आधार पर उन्हें वर्ष १९०३ में पहला वायुयान बनाने में सफलता मिली थी । 
टेलीफोन के आविष्कारक ग्राहम बेल ने भी पतंगे बनाई । उन्हें पूरी आशा थी कि पतंगे लोगों से भरे वायुयान को उड़ने में भी सक्षम  होगी । उन्होनें बॉक्स-पतंगा को जोड़कर बड़ा रूप दिया ताकि वे मनुष्यों को आकाश की सैर करा सके । 
वायुमण्डल मे हवा के तापमान, दबाव, आर्द्रता, वेग एवं दिश के अध्ययन के लिए पहले पतंग का ही प्रयोग किया जाता था । वर्ष १८९८ से १९३३ तक संयुक्त राज्य मौसम ब्यूरो ने मौसम के अध्ययन के लिए पतंग केन्द्र बनाए हुए थे जहां से मौसम नापने की युक्तियों से लैंस बॉक्स पतंगें उड़ाकर मौसम संबंधी अध्ययन किए जाते थे । आजकल इसके लिए विज्ञान और प्रौघोगिक के अभूतपूर्व विकास से नई-नई तकनीक आ गई है । 
किसी पतंग की हवा में उड़ने की क्षमता उसकी बनावट और उससे बंधी कन्नी की स्थिति पर निर्भर करती है । आम तौर पर उड़ाई जाने वाली साधारण आकार की पतंग तब उड़ती है जब उसकी कवर्ड साइड यानी निचली सतह की ओर से हवा का दबाव पड़ता है । कन्नी की ऊपर वाली डोरी पंतग को हवा में खिंचती है जिससे पतंग को ऊंचाउड़ने के लिए पतंग के नीचे वाले हिस्से में हवा के सापेक्ष एक कोण बन जाता है । पतंग के इस कोण को एंगल ऑफ अटैक कहते है । 
पतंग की बनावट और एंगल ऑफ अटैक यदि दोनों बिल्कुल सही हो तो हवा पतंग की कन्नी वाली सतह पर तेजी से टकरा कर पीछे वाली सतह पर भी कुछ दबाव उत्पन्न   करेगी । पतंग के सामने और पीछे वाली सतह के बीच उत्पन्न वायु के बाद का अंतर पतंग को ऊंचा उठाता है । इसे लिफ्ट भी कहते है । पतंग की निचली सतह पर लगने वाले दबाव से पतंग आगे बढ़ती है - इसे थ्रस्ट कहते है । सामने वाली सतह पर पड़ने वाले वायु के दबाव को ड्रेग कहते हैं । इस प्रकार पतंग को हवा में बनाए रखने के लिए लिफ्ट ड्रेग थ्रस्ट डोरी के खिंचाव और गुरूत्व बल के बीच सामजस्य होना जरूरी है । 
कोई भी पतंग अपनी सद्दी से बंधी कन्नी या ब्रिडल की सहायता से उड़ती है । इस कन्नी में दो या दो से अधिक डोरिया होती है जिन्हें लग्स कहते हैं जो पतंग को डोरी से जोड़ती है । कन्नियां के पतंग से जुड़ने के स्थान को कर्षण बिन्दु कहते हैं । ये कर्षण बिन्दु ही एंगल ऑफ अटैक का निर्धारण करते है और कन्निया उड़ती हुई पतंग की आकृति बनाए रखने के लिए पतंग पर दबाव बनाए रखती है । पतंग को हवा में अधिक ऊंचाई पर उड़ाने में पतंग की दुम, झालर आदि सहायक होते हैं । 
पहले तो पतंगो का उपयोग दूरस्थ स्थानों को संकेत देने, लेम्पों व झंडो को ले जाने में किया जाता था । नौसेना द्वारा दुश्मन के ठिकानों पर टारपीडो को तैराने में, आकाश मार्ग से पतंग पर कैमरा लगाकर चित्र खींचने तथा मनुष्य को आकाश में उड़ने के लिए भी पतंगों का प्रयोग किया जाता था । परन्तु आज पतंगबाजी सिर्फ मनोरंजन के लिए की जाती है । 
विज्ञान हमारे आसपास
टाइटेनियम की खोज की कहानी 
डॉ. विजयकुमार उपाध्याय

टाइटेनियम एक प्रमुख धात्विक तत्व है जिसका रंग चांदी के समान सफेद हैं । इसका रासायनिक संकेत ढळ तथा परमाणु संख्या २२   है । 
इस तत्व के पांच समस्थानिक पाए जाते हैं जिनमें सबसे अधिक प्रचुरता ४८ परमाणु भार वाले समस्थानिक की है जो कुल समस्थानिकों का ७३ प्रतिशत है । इसका आपेक्षिक घनत्व ४.५१ गलनांक १६६८ डिग्री सेल्सियस तथा क्वथनांक ३२६० डिग्री सेल्सियस है ।
टाइटेनियम की खोज कुछ विलम्ब से हुई । सन् १७८९ में इंग्लैण्ड के एक पादरी विलियम ग्रेगर ने इल्मेनाइट खनिज से सफेद रंग का एक धात्विक ऑक्साइड पृथक किया । उन्होंने इसका नाम मेमाकिन रखा था । 
सन १७९५ में जर्मन रसायनविद एम. क्लैथपरोथ ने रूटाइल नामक अयस्क से भी एक धात्विक ऑक्साइड पृथक किया तथा इसका नाम टाइटेनियम रखा । यूनानी मायथॉलॉजी में पृथ्वी के बेटे को टाइटन नाम से पुकारा जाता   था । कुछ समय बाद पता चला कि ग्रेगर तथा क्लैथरौथ द्वारा पृथक किए गए धात्विक ऑक्साइड एक ही थे । उस समय से इस तत्व का नाम टाइटेनियम प्रसिद्ध हो गया । 
शुद्ध टाइटेनियम को पृथक करने का श्रेय स्वीडिश रसायनविद बर्जीलियस को जाता है जिन्होनें सन १८२५ में इससे पृथक किया । परन्तु बाद में पता चला कि बर्जीलियस द्वारा पृथक की गई धातु शुद्ध टाइटेनियम नहीं थी । उसने कई प्रकार की अशुद्धियां मिली हुई थी । सन १८७५ में रूसी वैज्ञानिक किरोलोव ने शुद्ध टाइटेनियम को पृथक करने में सफलता प्राप्त् की । परन्तु इस खोज से संसार के अन्य वैज्ञानिक अपरिचित रहे । सन १८८७ में स्वीडन के नील्सन तथा पेटर्सन नामक दो रसायविदों ने भी शुद्ध टाइटेनियम धातु को पृथक करने में सफलता प्राप्त् की । परन्तु यह टाइटेनियम भी पूरी तरह शुद्ध नहीं था । इसमें भी ५ प्रतिशत अशुद्धि मिली हुई थी । 
सन १८९५ में फ्रांसीसी रसायनविद हेनरी मॉइसां ने आर्क भट्टी में टाइटेनियम ऑक्साइड का हाइड्रोजन द्वारा अपचयन कर ९८ प्रतिशत शुद्ध टाइटेनियम प्राप्त्   किया । सन १९१० में संयुक्त राज्य अमेरिका के रसायनविद हंटर ने नील्सन तथा पेटर्सन की विधि में थोड़ा संशोधन कर शुद्ध टाइटेनियम धातु प्राप्त् करने में सफलता प्राप्त्   की । परन्तु वास्तविकता यह थी कि यह टाइटेनियम भी शत प्रतिशत शुद्ध नहीं था । इसमें अल्प परिमाण में कुछ अशुद्धियां शामिल थी । 
शुरू-शुरू में इल्मेनाइट तथा रूटाइल नामक अयस्कों के विश्लेषण से प्राप्त् टाइटेनियम ऑक्साइड का कोई उपयोग नहीं हो पा रहा था । लोग इसे व्यर्थ की वस्तु समझते थे । सन १९०८ में दो अमरीकी वैज्ञानिकों ने विचार व्यक्त किया कि टाइटेनियम ऑक्साइड का उपयोग सीसे (लेड) तथा जस्ते के यौगिकों के स्थान पर सफेद वर्णक (व्हाइट पिगमट) प्राप्त् करने हेतु किया जा सकता है । सीसे तथा जस्ते से प्राप्त् वर्णकों की तुलना में टाइटेनियम से प्राप्त् वर्णक द्वारा अधिक क्षेत्र का रंगा जा सकता है । साथ ही टाइटेनियम प्राप्त् वर्णक सीसे  तथा जस्ते से प्राप्त् वर्णकों के समान विषैला भी नहीं होता । इसके बाद धीरे-धीरे टाइटेनियम ऑक्साइड का उपयोग चमड़ा, कपड़ा, कांच तथा पोर्सलेन को रंगने हेतु किया जाने लगा । इससे कृत्रिम हीरे भी बनाए जाने लगे । 
कुछ समय बाद टाइटेनिय के एक अन्य यौगिक टाइटेनियम टेट्राक्लोराइड का भी उपयोग किया जाने लगा । इस यौगिक में एक विशेषता यह पाई जाती है कि यह बहुत धंुआ पैदा करता है । अत: प्रथम विश्व युद्ध के समय से ही युद्ध  कार्योंा में इसका उपयोग होता आ रहा है । 
सन १९२५ के पूर्व जो भी टाइटेनियम धातु के रूप में प्राप्त् किया गया था, उसमें कुछ नेकुछ अशुद्धि मौजूद रहती थी जिसके कारण वह भंगुर किस्म का रहता   था । सन १९२५ में फान आर्केल तथा डी बोर नामक दो डच वैज्ञानिकों ने टाइटेनियम टेट्राक्लोराइड के विलयन से शत प्रतिशत शुद्ध टाइटेनियम धातु प्राप्त् करने में सफलता पाई । देखा गया कि विशुद्ध टाइटेनियम लचीला तथा सुघटय था जिससे चादर, पत्तियां तथा तार बनाए जा सकते थे । 
पाया गया कि लोहे की तुलना में इसका आपेक्षिक घनत्व लगभग आधा होते हुए भी यह लोहे से अधिक मजबूत   है । साढ़े छ: सौ डिग्री सेल्सियस जैसे उच्च् तापमान पर भी इसकी मजबूती बनी रहती है । यही कारण है कि उच्च् तापमान पर काम में लाए जाने वाले कलपूर्जो तथा औजार टाइटेनियम से बनाए जाते   हैं । 
आजकल कहीं - कहीं सुपरसोनिक जेट विमान टाइटेनियम से बनाए जाते है । इसके दो कारण हैं । पहला कारण तो यह है कि यह मजबूत होता है । दूसरा कारण है कि यह हल्का होता है । विमान उद्योग में टाइटेनियम का उपयोग धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है । वायुयानों में टाइटेनियम का उपयोग इंजिन के कलपुर्जो तथा मुख्य ढांचा दोनों ही के निर्माण में किया जाता है । 
टाइटेनियम का उपयोग अंतरिक्ष अनुसंधान एवं तकनीक में भी किया जा रहा है । इस धातु से अंतरिक्ष यान के ढांचे तथा इंजिन आदि बनाए जाते हैं । इस दिशा में सबसे पहला प्रयोग १८ अगस्त १९६४ को रूस में किया गया था । इस प्रयोग में टाइटेनियम से निर्मित संसार के सबसेपहले अंतरिक्ष यान को प्रक्षेपित किया गया । सन १९६९ में तत्कालीन सोवियत अंतरिक्ष यात्रियों गियोगी शेनिन तथा वालेरी कुबासोव द्वारा अंतरिक्ष में किए गए प्रयोगों में यह पता चला कि अंतरिक्ष के निर्वात् में टाइटेनियम की वेल्डिग तथा कतरन आसानी से की जा सकती है । 
आजकल टाइटेनियम का उपयोग घड़िया तथा कैमरोंके निर्माण मेंभी काफी अधिक किया जा रहा  है । साइकल का निर्माण करने वाली कुछ कम्पनियां टाइटेनियम से सायकल की बॉडी का निर्माण कर रही है । ऐसी सायकलें काफी हल्की होती है जिससे सायकल चालक को इसे चलाने में शरीर की कम ऊर्जा खर्च होती है । 
आजकल टाइटेनियम का उपयोग रसायन उद्योग में काम आने वाले उपकरणों के निर्माण में भी किया जा रहा है । हालांकि ऐसे उपकरण का क्रय मूल्य स्टील से बने उपकरणों की तुलना में बहुत अधिक हैं, परन्तु स्टील से बने उपकरणों की तुलना में टाइटेनियम से बने उपकरण बहुत अधिक टिकाऊ होते है क्योंकि इन पर अम्ल, क्षार या जंग का प्रभाव नगण्य होता है । 
टाइटेनियम शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में भी बहुत उपयोगी साबित हो रहा है । टाइटेनियम तथा टाइटेनियम की मिश्र धातुआें से बने शल्य औजार काफी लोकप्रिय हो रहे है । इन औजारों की बढ़ती लोकप्रियता के कईकारण है । उदाहरणार्थ ये औजार काफी हल्के है इन पर जंग नहीं लगता तथा ये टिकाऊ होते है । 
भूपटल में विभिन्न तत्वों की प्रचुरता के दृष्टिकोण से टाइटेनियम नौवे स्थान पर है । भूपटल में इसकी औसत प्रचुरता ६३२० भाग प्रति दस लाख है । इसके अलावा कुछ उल्का पत्थरों में भी यह पाया जाता है । सिलिकेट उल्का पत्थरों में इसकी प्रचुरता १८०० भाग प्रति दस लाख आकी गई है । अमरीकी अंतरिक्ष यान अपोलो द्वारा चन्द्रमा की मिट्टी के कुछ नमूनों के विश्लेषण से पता चला कि चन्द्रमा की सतह पर टाइटेनियम की काफी मात्रा मौजूद  है । 
भूपटल न टाइटेनियम युक्त लगभग ७० प्रकार के खनिज पाए जाते है जिनमें प्रमुख दो है, इल्मेनाइट तथा रूटाइल । इसके अलावा स्फीन भी एक प्रमुख खनिज माना जाता है जिसे टाइटेनाइड भी कहा जाता है । इल्मेनाइट का नामकरण रूस के इल्मेन नामक पर्वत के नाम पर किया गया था जहां सबसे पहले इस खनिज की खोज की गई थी । यह काले रंग का एक कठोर खनिज है जिसका आपेक्षिक घनत्व ५ है । इसे लोग गलतफहमी से मेग्नेटाइट समझ लेते है, क्योंकि यह प्राय उन्ही प्राकृतिक अवस्थाआें में पाया जाता है जिनमें मैग्नेटाइट मिलता है । परन्तु दोनों में अन्तर   यह है कि मैग्नेटाइट जहां चुम्बकत्व के गुण से युक्त होता है वहीं इल्मेनाइट में चुम्बकत्व नहीं पाया जाता ।
इल्मेनाइट-मैग्नेटाइट का विशाल भंडार संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यूयार्क से कुछ दूर सैनफोर्ड लेक के निकट सन १८३६ में ही पाया गया था । परन्तु उस समय लोग न तो इल्मेनाइट का कोई उपयोग जानते थे और न मैग्नेटाइट से उसे अलग करने की विधि ज्ञात थी । इल्मेनाइट की उपस्थिति के कारण यहां प्राप्त् होने वाले मैग्नेटाइट भी उपयोगी साबित नहीं हुआ था । अत: उस समय खनन कार्य शुरू नहीं हो पाया । बीसवी शताब्दी में जब लोगों ने टाइटेनियम की उपयोगिता समझी तथा मैग्नेटिक संपरेटर द्वारा दोनों खनिजों को अलग करने की विधि का विकास हुआ तो यहां पर खनन कार्य शुरू हुआ । 
रूटाइल भूरे लाल रंग का एक खनिज है जिसकी कठोरता मो पैमाने पर ६-६.५ है । इसका आपेक्षिक घनत्व ४.२ है । सामान्य तौर पर यह इल्मेनाइट तथा गार्नेट के साथ समुद्री किनारों पर बालू के साथ पाया जाता है । 
आज संसार में इल्मेनाइट का वार्षिक उत्पादन लगभग ३० लाख मीट्रिक टन है । रूटाइल का वार्षिक उत्पादन ३.५ लाख मीट्रिक टन है । इल्मेनाइट का सबसे बड़ा उत्पादक नॉर्वे है (वार्षिक उत्पादन ८.५ लाख मीट्रिक टन) । इल्मेनाइट के उत्पादन में दूसरे स्थान पर आस्ट्रेलिया (वार्षिक उत्पादन ८.२५ लाख मीट्रिक टन) तथा तीसरे स्थान पर संयुक्त राज्य अमेरिका है (वार्षिक उत्पादन लगभग ६.७५ लाख मीट्रिक टन) । इल्मेनाइट का उत्पादन करने वाले अन्य प्रमुख देशों में शामिल है मलेशिया, श्रीलंका तथा भारत । 
रूटाइल का सबसे अधिक उत्पादन ऑस्ट्रेलिया में होता है (वार्षिक उत्पादन लगभग १.२० लाख मीट्रिक टन) । रूटाइल का उत्पादन करने वाले अन्य प्रमुख देशों में शामिल हैं संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत तथा श्रीलंका । 
भारत में इल्मेनाइट का कुल वार्षिक उत्पादन लगभग ७७००० मीट्रिक टन तथा रूटाइल का कुल वार्षिक उत्पादन लगभग ३४०० मीट्रिक टन है । 
पर्यावरण परिक्रमा
एक नए शोध के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग की शुुरूआत आज नहीं, बल्कि आज से २०० पहले शुरू हो गई थी, ग्लोबल वार्मिंग आज एक वैश्विक समस्या के रूप में उभर कर सामने आई है । 
आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के शोध के मुताबिक औघोगिकीकरण की शुरूआत में ही ग्लोबल वार्मिंग की शुरूआत हो गई थी । मुख्य शोधकर्ता नेरीली अबराम ने बताया कि औघोगिकीकरण की शुरूआत में जब इंसान ने छापाखाना और भाप या कोयले से चलने वाले जहाजों तथा ट्रेनों का इस्तेमाल शुरू किया तब से ही ग्लोबल वार्मिंग की समस्या शुरू हो गई । 
श्री अबराम ने एक बयान में कहा कि यह अद्भुत खोज है, यह ऐसी बात है जहां विज्ञान हमें हैरान करता है लेकिन नतीजे स्पष्ट है, हम जिस ग्लोबल वार्मिंग का सामना कर रहे है वह करीब १८० साल पहले शुरू हुई थी । डॉ. हेलेन मैकग्रेर ने कहा कि निश्चित रूप से १८ वीं शताब्दी के दौरान ही मानवीय गतिविधियों के कारण वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों का स्तर बढ़ना शुरू हुआ था । 
श्री अबराम ने कहा कि इससे पहले वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी के लिए आज के दौर को जिम्मेदार माना जाता रहा है, लेकिन उनकी टीम ने इसका पता लगाया है कि छोटे स्तर पर मानवीय गतिविधियों के कारण वातावरण में आया बदलाव ही इस वृद्धि के लिए जिम्मेदार है । डॉ. हेलेन ने कहा कि पूर्व के कई अध्ययनों में १९०० से पहले के आंकड़ों का अध्ययन नहीं किया गया इसलिए उनकी टीम ने ५०० वर्ष पुराने आंकड़ों का विश्लेषण करना शुरू किया । 

इन्दौर में वाइल्ड लाइफ पर बनेगी लायब्रेरी
इन्दौर के चिड़ियाघर में प्रदेश की पहली वाइल्ड लाइफ लायब्रेरी खोले जाने की तैयारियां शुरू हो गई है । इसमें वन्य जीवन पर आधारित हर तरह की पुस्तकों के साथ प्रोजेक्टर के माध्यम से डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी दिखाई जाएगी । जू क्यूरेटर एजुकेशन ऑफिसर निहार पारूलकर के मुताबिक इसमें एक हजार से ज्यादा पुस्तकें होगी । चिड़ियाघर में बनाए जा रहे नए भवन के कमरे में जहां पुस्तकों का संग्रह होगा, वहीं हॉल में सौ लोगों की बैठक व्यवस्था होगी । इसकी शुरूआत एजुकेशन प्रोजेक्ट के अन्तर्गत अक्टूबर में वाइल्ड लाइफ वीक के दौरान होगी । शुरूआत के बाद लायब्रेरी को लेकर लोगों के रूझान की मॉनीटरिंग भी की  जाएगी । लायब्रेरी की सुविधा जूलॉजी और वेटरनरी के विद्यार्थियों के साथ ही वन्यप्रेमी भी उठा सकेंगे । अभी एजुकेशन वैन तैयार की जा रही है । इसमें सभी जानवरों की डमी रखी जाएगी । यह वैन स्कूलों में पहुंचेगी, जहां विशेषज्ञ बच्चें को जंगली जानवरों की जानकारी देंगे । इसके साथ ही साइन बोर्ड से भी चिड़ियाघर आने वाले दर्शकों की जानकारी दी जा रही है । 
पूर्वोत्तर की ओर खिसक रही है भारत की धरती
हम हर साल भूकंप की विनाशीलता को हम देखते और सहते हैं । अब नया खुलासा हुआ है कि भारत की धरती धीरे-धीरे खिसक रही है । इससे भविष्य में भूकंप आने का खतरा पैदा हो सकता है । यह सवाल पिछले दिनों संसद में उठा था, लेकिन राजनीतिक शोर में आपके जीवन से जुड़ी यह बात दब गई    थी । भारत सरकार ने वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर यह माना है कि भारतीय प्लेट हर साल ५ सेंटीमीटर की दर से पूर्वोत्तर की ओर खिसक रही है । भारतीय प्लेट के आगे खिसकने की इस प्रक्रिया का ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम यानी जीपीएस के माध्यम से सरकार अध्ययन करवा रही है । 
सरकार ने यह जवाब महाराष्ट्र से भाजपा सांसद नाना पटोले के सवाल पर दिया है । उन्होंने यह पूछा था कि सरकार ने भारतीय भूमि के उत्तर और झुकने संबंधी आंकड़ों तथा पहाड़ों की प्लेटों की अंदरूनी हलचलों का अध्ययन किया है   क्या । दूसरा सवाल पूछा था कि क्या इन हलचलों से देश में भूकंप आने का खतरा है । केन्द्र सरकार ने दूसरे सवाल का जवाब हां में दिया है । कहा है कि भारतीय प्लेट यूरेशियाई प्लेट से टकराती है । इन दोनों के बीच होने वाले परस्पर झुकाव से हिमालय क्षेत्र में भूकम्प आते हैं । सरकार ने कहा है कि नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी, गृह मंत्रालय एवं पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने भूकंप के सामान्य पहलुआें, उनके प्रभावों और होने वाली हानि को कम करने के उपायों की जानकारी स्कूलीबच्चें को देना शुरू कर किया है । 

म.प्र. में ग्रीन एनर्जी कॉरिडोर तैयार होगा 
एमपी पॉवर ट्रांसमिशन कंपनी द्वारा ग्रीन एनर्जी कॉरिडोर की कार्ययोजना तैयार की गई है । इस कार्ययोजना की अनुमानित लागत चार हजार ७०० करोड़ रूपए है, जिसमें ट्रांसमिशन सिस्टम के सुदृढ़ीकरण के कार्य तीन हजार ५७५ करोड़ रूपए एवं नवकरणीय विद्युत परियोजनाआें की प्रदेश की ट्रांसमिशन सिस्टम से जुड़े कार्य १ हजार १२५ करोड़ रूपये की अनुमानित लागत से करवाए    जाएंगे । योजना के तहत मंदसौर, सागर, उज्जैन, सेंधवा, जावरा, कानवन, रतनगढ़, सुसनेर व सैलाना में सब स्टेशन बनेंगे । 
प्रदेश में पांच वर्षो में पांच हजार ८४७ मेगावाट की नवकरणीय विद्युत परियोजनाएं स्थापित होने वाली है । इन परियोजनाआें में सोलर विद्युत परियोजना के अन्तर्गत २५८८ मेगावॉट, पवन (विंड) विद्युत परियोजना के अन्तर्गत २७०४ मेगावाट, लघु सुक्ष्म (मिनी माइक्रो) जल विद्युत परियोजना के अन्तर्गत २८२ मेगावाट एवं जैव इंर्धन (बॉयोमास) के अन्तर्गत २७१ मेगावाट बिजली उत्पादन की संभावना है । 
मध्यप्रदेश पावर ट्रांसमिशन कंपनी लिमिटेड के प्रबंध संचालक रवि सेठी ने जानकारी दी कि मध्यप्रदेश में ट्रांसमिशन सिस्ट्म सुदृढ़ीकरण के काय्र दो चरणोंमें करने की योजना बनाई गई है । प्रथम चरण की अनुमानित लागत २१०० करोड़ एवं द्वितीय चरण की लागत १४७५ करोड़ रूपये रहेगी । 
प्रथम चरण को तीन वर्षो में पूर्ण किया जाना प्रस्तावित है । प्रथम चरण में प्रदेश की संबंद्ध नवकरणीय विघुत परियोजनाआें की क्षमता लगभग ४१०० मेगावॉट हो जाएगी । प्रथम चरण की कार्य योजना वर्ष २०१९-२० तक पूर्ण होने की संभावना है । 
प्रथम चरण में ४०० केवी के तीन सब स्टेशन मंदसौर, सागर व उज्जैन में बनेगे । ४०० केवी की ६९० सर्किट किलोमीटर ट्रांसमिशन लाइनों का नेटवर्क तैयार होगा । कार्ययोजना में २२० केवी के सात सब स्टेशन सेंधवा, जावरा, कानवन, रतनगढ़, सुसनेर व सैलाना में   बनेगे । २२० केवी की १ हजार १९६ सर्किट किलोमीटर ट्रांसमिशन लाइन का नेटवर्क तैयार किया  जाएगा । १३२ केवी की ९५६ सर्किट किलोमीटर ट्रांसमिशन लाइनोंके नए नेटवर्क के साथ १३२ केवी के दो अतिरिक्त ट्रांसफार्मर लगेंगे । 
प्रथम चरण के लिए जर्मनी का केएफडब्यू डेवलपमेंट बैंक परियोजना की अनुमानित लागत का ४० प्रतिशत अंश सॉफ्ट लोन के रूप में ८४० करोड़ रूपए देगा । वहीं मध्यप्रदेश पावर ट्रांसमिशन कंपनी को राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा निधि (एनसीईएफ नेशनल क्लीन एनर्जी फंड) से ४० प्रतिशत अंश के रूप में ८४० करोड़ रूपए का अनुदान प्राप्त् होगा । प्रथम चरण के लिए मध्यप्रदेश शासन द्वारा २० प्रतिशत अंश के रूप में ४२० करोड़ रूपये की राशि प्रदान की जाएगी । सेठी ने जानकारी दी कि केएफडब्यू डेव्लूपमेंट बैंक एवं भारत शासन के आर्थिक मामलों के विभाग के बीच ऋण अनुबंध इस वर्ष ३० जून को हस्ताक्षरित किया गया है । 

म.प्र. में १८ करोड़ पौधे रोपे फिर भी घट गया जंगल
मध्यप्रदेश में वन विभाग ने तीन साल में १८ करोड़ ९ लाख से ज्यादा पौधों का रोपण किया है । इन पौधों को लगाने में ४४ करोड़ से भी ज्यादा की राशि खर्च की गई है, लेकिन इसके सकारात्मक परिणाम आने की बजाय जंगल ही घट गया । 
वन विभाग ने वित्तीय वर्ष १३-१४ से १५-१६ तक तीन साल में २० सूत्रीय कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रोंमें १८ करोड़ से ज्यादा पौधे लगाए है । केन्द्र सरकार द्वारा अखिल भारतीय केन्द्रीय प्रायोजित स्कीम (जीआईएम) के तहत तीन साल में ४४ करोड़ १२ लाख रूपए की राशि जारी की गई । 
पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधीन कार्यरत भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण संस्थान देहरादून द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष २०१३ के मुकाबले वर्ष २०१५ में मध्यप्रदेश में वनक्षेत्र ६० वर्ग कि.मी. घट गया है । राष्ट्रीय वन नीति १९८८ के अनुसार भू-क्षेत्र का कम से कम एक तिहाई यानी ३३ प्रतिशत वन आच्छादित रखने का राष्ट्रीय लक्ष्य हैं, परन्तु प्रदेश में केवल२५ प्रतिशत क्षेत्र ही वनाच्छादित रह गया है । पर्यावरण प्रेमियों ने केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, प्रमुख सचिव पर्यावरण विभाग भोपाल को पत्र लिखकर पर्यावरण की रक्षा की मांग की है । 
स्वास्थ्य
अनाज मेंसूक्ष्म पोषक तत्व 
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

महात्मा गांधी हमेशा इस बात की वकालत करते थे कि पॉलिश किए हुए चावल की बजाय हाथ से कुटे चावल और हाथ की चक्की में पिसे गेहूं का आटा खाना चाहिए । हम तो अनाज को मशीनों के जरिए पॉलिश करते हैं ताकि उन्हें लंबे समय तक संग्रहित रख सकें । 
लेकिन पॉलिशिंग के दौरान चोकर (दाने का कवच) हट जाता  है । चोकर में फलभित्ती और एल्यूरॉन परत होती है जिसमें कई जरूरी पोषक तत्व होते हैं । तो गांधीजी की बात सही थी, मशीन-पॉलिश अनाज में इस तरह के सूक्ष्म पोषक तत्व नहींहोते है । 
यह बात जिस रूप में सामने आती है उसे आजकल हिडन हंगर (अदृश्य भूख) कहते हैं । हो सकता है कि आप रोज भरपेट भोजन करते हो लेकिन फिर भी संभव है कि उसमें शरीर की वृद्धि और स्वास्थ्य के लिए जरूरी ये सूक्ष्म पोषक तत्व नदारद   हो । 
राष्ट्र संघ संस्थाआें का अनुमान है कि यह अदृश्य भूख पूरे विश्व में हर तीन में से एक बच्च्े को प्रभावित करती है, जिसकी वजह से शारीरिक वृद्धि और मस्तिष्क के विकास में कमी आती है । बच्च्े विटामिन ए के अभाव के चलते दृष्टि संबंधी परेशानियों से ग्रस्त होते हैं । भोजन में आयरन का अभाव रक्त संबंधी विकारों की ओर ले जाता है जबकि जिंक की कमी के कारण शारीरिक विकास अवरूद्ध होता है और डायरिया, बालों का झड़ना, भूख की कमी और दूसरी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा होती है । 
१९७० के दशक में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के डॉ. रामलिंगास्वामी द्वारा भारत में एक कार्यक्रम शुरू किया गया था । बच्चें को हर छ: माह में विटाामिन ए की बड़ी मात्रा में खुराक दिए जाने से यह पाया गया कि रतौंधी जैसे रोगों से उन्हें बाहर निकालने में मदद मिली । इसका कारण यह है कि विटामिन ए से बना एक पदार्थ आंख के रेटिना के लिए जरूरी है । यह आंख मेंप्रकाश को विघुत संकेतों में परिवर्तित कर देता है जिसकी वजह से देखने की प्रक्रियामें सहायता मिलती है । 
डॉ. महाराज किशन भान ने जो पहले अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में थे और नई दिल्ली में भारत सरकार के जैव प्रौघोगिकी विभाग के सचिव थे ने एक नमक मिश्रण तैयार किया था । इस मिश्रण में जिंक और आयरन जैसे कुछ सूक्ष्म पोषक तत्व मिलाए गए थे । यह मिश्रण डायरिया और डीहाइड्रेशन (निर्जलीकरण) से पीड़ित बच्चें को दिया गया था । इसके परिणाम काफी सकारात्मक रहे । सूक्ष्म पोषक पूरक पदार्थो, विशेष रूप से जिंक, बच्चें में दस्त में बहुत फायदेमंद पाया गया  था ।  
शरीर के लिए जिंक इतना महत्वपूर्ण क्यों है ? इसलिए कि हमारे शरीर में ३०० से ज्यादा एन्जाइम अपने काम में जिंक का इस्तेमाल एक आवश्यक घटक के रूप में करते हैं । जिंक हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को मदद करने में, डीएनए के संश्लेषण व विघटन में, घावों को भरने में और कई अन्य गतिविधियों में जरूरी है । जिंक की बहुत अधिक मात्रा की जरूरत नहीं होती है । ७० किलोग्राम भार वाले मनुष्य के शरीर में जिंक की मात्रा २ से ३ ग्राम होती है । लेकिन यदि इसकी सामान्य से कम मात्रा हो जाती है तो शारीरिक विकास अवरूद्ध हो जाता है, डायरिया होता है, आंख और त्वचा में घाव दिखाई देने लगते हैं, और भूख मर जाती है । ऐसी स्थिति में रोज जिंक की कुछ मात्रा लेना आवश्यक हो जाता है ।
हैदराबाद के चावल अनुसंधान संस्थान के डॉ. वेमुरी रविन्द्र बाबु के नेतृत्व में कार्यरत समूह ने पूरे १२ सालों की मेहनत के बाद यह करने में सफलता हासिल की है । इस समूह ने एक विशिष्ट प्रकार का धान विकसित किया है जो जिंक में समृद्ध है । इसे डीआरआर ४५ (आईईटी२३८३२) नाम दिया गया   है । इसमें २२.१८ हिस्सा प्रति लाख तक जिंक होता है (जो अब तक जारी किस्मों में उच्च्तम मात्रा है)। यह कीटों के द्वारा होने वाले लीफ ब्लास्ट रोग का थोड़ा प्रतिरोधी भी पाया गया है । 
उच्च् जिंक युक्त डीआरआर धान ४५ का विकास बहुत आसान काम नहीं था । २००४ से शुरू करके, भारत के विभिन्न हिस्सों से चावल की कई हजार किस्मों में जिंक की मात्रा जांची गई थी । इनमें से कुल १६८ किस्मों को चुना गया जिनमें थोड़ी संभावना दिखाई दी थी । उनमें लौह और जिंक की मात्रा की जांच की  गई । उनकी कड़ी  स्क्रीनींग करने के बाद उनका संकरण अधिक पैदावार वाली किस्मों के साथ कराया गया । अंत में यह किस्म आईईटी २३८३२ या डीआरआर ४५ मिली । वास्तव में यह एक लंबी दौड़ रही है और बायोफोर्टिफिकेशन (इसका अर्थ है कि समृद्धता नैसर्गिक है, भान विधि के समान बाहर से नहीं जोड़ी गई है) का यह प्रयास सफल रहा । गौरतलब है कि इस किस्म का जिंक व दूसरे खनिज पदार्थ पॉलिशिंग के दौरान खत्म नहीं होते । इस प्रकार इस चावल को लंबे समय के लिए रखा और इस्तेमाल किया जा सकता है और परम्परागत चावल की तरह ही यह स्वादिष्ट भी है । 
यह भी ध्यान देने की बात है कि यह जीएम (जेनेटक रूप से परिवर्तित) फसल नहींहै । तो यह किसी विवाद के घेरे मेंभी नहीं है । डीआरआर ४५ में एक अतिरिक्त लाभ है कि इसका ग्लाइसेमिक इंडेक्स कम है (परंपरागत धान के ७५ के मुकाबले ५१) । तो यह मधुमेह रोगियो के लिए भी अच्छा है । डॉ. बाबू ने मुझे बताया कि कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स के चलते यह पाचन मेंथोड़ा ज्यादा समय लेता है और आपको देर तक भूख महसूस नहीं होती है । उनका अगला कदम भारतीय  कृषि अनुसंधान परिषद बायोफोर्टिफिकेशन के अंतर्गत इसी तरह की जिंक और दूसरे खनिज युक्त गेहूं, मक्का और बाजरा की किस्में विकसित करना है ।
कविता
वन है जीवन का आधार
डॉ. गार्गीशरण मिश्र मराल 

वन से वर्षा पैदावार, वन है जीवन का आधार । 
दवा, वनोपज, छाया, काठ,
कंद, मूल, फल का वरदान, 
रोके भूमि क्षरण विस्तार
सूखे का भी करे निदान, 
बाढ़, प्रदूषण को दे रोक, प्राणवायु का दे उपहार । 
उर्वर मिट्टी का दे दान, 
मौसम का भी करे विधान,
पशु पक्षी को जीवनदान,
सभी प्राणियों का यह प्राण,
वन प्राणी वन का श्रृंगार मत करो इनका संहार
यह धरती का धानी चीर,
वायु शुद्धि का यंत्र विशेष,
प्रकृति सुंदरी का श्रृंगार,
प्रकृति संतुलन मंत्र अशेष, 
वन से जन, जन से वन रक्षित यह पृथ्वी का जीवन सार । 
ज्ञान-विज्ञान
बारूदी सुरंगों और बीमारियों का पता लगाएंगे माउस
वैज्ञानिकों ने माउस नामक जन्तु में जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए कुछ विशिष्ट गंधों के प्रति अति-संवेदना पैदा करने में सफलता प्राप्त् की है । माउस एक प्रकार का चूहा होता है । अब यह संभव हो जाएगा कि ये माउस बारूदी सुरंगों और कुछ बीमारियों  की गंध को पहचान पाएंगे और डॉक्टरों व सिपाहियों के मददगार बन  जाएंगे । 
     बारूदी सुरंग को पता लगाने में प्रशिक्षित कुत्तों और चूहों की मदद तो पहले से ही ली जा रही थी । नया अनुसंधान दर्शाता है कि कुत्तेकम रक्त शर्करा और कुछ किस्मे के कैंसरों के रासायनिक हस्ताक्षरों को भी सूंध सकते है । माउस भी गंध के प्रति काफी संवेदनशील होता है । इसमें कम से कम १२०० जीन्स गंध संवेदना के लिए जवाबदेह हाते हैं । जहां कुत्तों और चूहों हैं, वहीं मनुष्यों में इनकी संख्या मात्र ३५० होती है । तंत्रिका वैज्ञानिक पौल फाईस्टाइन पिछले कई वर्षो से इस कोशिश में थे कि माउस की गंध संवेदना को और बढ़ाया जाए । यह पता चला कि भ्रूण विकास के दौरान इनमें प्रत्येक गंध तंत्रिका एक खास रसायन के प्रति संवेदी बन जाती है । यानी प्रत्येक गंध ग्राही एक विशिष्ट गंध को पकड़ता है । फाईस्टाइन चाहते थे कि इनमें से चंद ग्राहियों की संख्या बढ़ाई जाए ताकि माउस कुछ विशिष्ट गंध के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो जाए । और उन्होनें जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए सफलता प्राप्त् की कि किसी माउस में कार्य खास गंध ग्राही ज्यादा संख्या में बने । ऐसा ही एक ग्राही एसिटीफीनोन को पहचानता है जिसकी गंध रातरानी के फूलोंजैसी होती है । 
इस तरह से वे और उनके साथी अलग-अलग ग्राहियों की संख्या बढ़ाने में सफल रहे । जब इन   माउस को सादा पानी और विशिष्ट गंधयुक्त पानी दिया गया तो ये दोनों में फर्क कर पाए । यहां तक कि गंधयुक्त पानी में जब गंध वाले रसायन की मात्रा बहुत कम कर दी गई तब भी ये माउस उसे पहचान पाते थे । 
अब कोशिश यह है कि इन माउस को मनचाही गंध के प्रति संवेदी बनाया जाए । जैसे कुछ बीमारियों में मरीज के शरीर से विशिष्ट गंध पैदा होती है । या बारूदी सुरंगों से भी कुछ गंधयुक्त रसायन निकलते है । यदि ये माउस इन्हेंपहचान पाते हैं तो बहुत मददगार साबित होगे । और तो और वैज्ञानिकों की कोशिश है कि यह क्षमता कुछ निर्जीव कम्प्यूटर चिप्स पर आरोपित कर दी जाए, तो जन्तु के उपयोग की जरूरत नहीं रहेगी । अलबत्ता, दिल्ली अभी दूर है । 

मधुमक्खियां अपने छत्ते को ठंडा रखती हैं 
सामान्य मधुमक्खियां एपिस मेलिफेराभी अपने छत्ते के वातावरण को बहुत अधिक उतार-चढ़ाव से बचाती है मगर विशाल मधुमक्खी (एपिस डॉर्सेटा) की तो बात ही कुछ निराली है । जहां सामान्य 
मधुमक्खिंया अपने छत्ते किसी पेड़ के कोटर या चट्टान की खोह में बनाती है वहीं विशाल मधुमक्खियां अपने छत्ते खुले में पेड़ों की शाखाआें पर बनाती है । 
विभिन्न किस्म की मधुमक्खियां अपने छत्ते का तापमान  कम रखने के लिए पानी का छिड़काव करती हैं, अपने पंखों को झलकर हवा चलाती है या कभी-कभी तो एक साथ छत्ते से दूर जाकर मल त्याग करती हैं, जिसके साथ बहुत सारी गर्मी भी चली जाती है । मगर हाल में ही ऑस्ट्रिया के ग्राज विश्वविघालय के जेराल्ड कास्टबर्गर और उनके साथियों ने नेपाल के चितवन राष्ट्रीय उद्यान में पाई जाने वाली विशाल मधुमक्खी के छत्तों का अध्ययन करके कुछ रोचक परिणाम प्रकाशित किए हैं । छत्ते के तापमान का अध्ययन करने के लिए उन्होनें इन्फ्रारेड कैमरोंका उपयोग करके छत्तों की फिल्में उतारी हैं । 
फिल्म से पता चलता है कि किसी भी समय छत्ते पर ठंडे चकत्ते होते हैं जो बनते-बिगड़ते रहते हैं । शोधकर्ताआें ने यह भी पाया कि दिन के सबसे गर्म समय में इन ठंडे चकत्तों की तादाद भी सबसे अधिक होती है । एक ही छत्ते पर उन्होनें हर आधे घंटे में ऐसे छ: चकते बनते  देखे । 
शोधकर्ताआें का विचार है कि ये वे स्थान है जहां से बाहर की ठंडी हवा को खींचकर अंदर भेजा जाता है । इस तरह से अंदर का तापमान थोड़ा कम हो जाता है । शोधकर्ताआें ने पाया कि इसके बाद पूरा छत्ता कंपन करता है । इस कंपन को संभव बनाने के लिए प्रत्येक मधुमक्खी अपने पेट को फुलाती-पिचकाती है । इसका असर यह होता है कि पूरा छत्ता फैलता और सिकुड़ता है । इस तरह से वे अंदर की गर्म हवा को बाहर निकाल देती है । 
इन मधुमक्खियां का छत्ता २ मीटर तक लम्बा होता है । इस पर मधुमक्खियांे की ६-७ परतें बैठी होती है । इसे छत्ते का पर्दा कहते     है । ६-७ मधुमक्खी मोटा पर्दा एक कुचालक का काम करता है मगर तेज गर्मी के दिनों में यह बहुत कारगर नहीं होता है । इसे ज्यादा कारगर बनाने के लिए सबसे अंदर की परत की मधुमक्खियांे अपनी टांगों को सीधा करके एक खाली जगह बना देती है । बाहर की ताजी हवा इस खाली स्थान में भर जाती है और फिर उसे बाहर निकाल दिया जाता है । 
वैसे अभी भी पक्के तौर पर नहीं कह सकते कि छत्ते के अंदर क्या हो रहा है मगर छत्ते की सतह पर ठंडे चकत्तों का पाया जाना आगे बढ़ने में मदद करेगा । अब कोई तरीका सोचना पड़ेगा जिससे छत्ते को नुकसान पहुंचाए बगैर उसके अंदर झांक सके और अपनी बात की पृष्टि कर सकें । 

माइग्रेन की रोकथाम और नमक का सेवन
एक अध्ययन से पता चला है कि ज्यादा नमक का सेवन करने से माइग्रेन की रोकथाम होती है । मगर साथ ही इस अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि अभी इसके आधार पर नमक की मात्रा के बारे में कोई निर्णय न लें क्योंकि ज्यादा नमक खाने से ह्रदय रोग व स्ट्रोक की संभावना बढ़ती है । 
नमक यानी सोडियम क्लोराइड सोडियम और माइग्रेन के आपसी संबंध का लेकर प्रमाण बढ़ते जा रहे हैं । यह पाया गया है कि माइग्रेन के दौरान सेेरेब्रोस्पाइनल ब्रव में सोडियम की मात्रा बढ़ जाती है । सेेरेब्रोस्पाइनल द्रव वह तरल पदार्थ है जो मस्तिष्क और केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में भरा होता है । यह भी देखा गया है कि इस द्रव में सोडियम का स्तर सुबह और शाम के वक्त अधिकतम होता है । यही वे समय है जब अधिकांश लोग माइग्रेन का अनुभव करते हैं । 
हमारे शरीर में सोडियम का लगभग एकमात्र स्त्रोत हमारा भोजन है । लिहाजा कैलिफार्निया के हटिंगटन मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के माइकल हैरिंगटन ने सोचा कि कही माइग्रेन का संबंध व्यक्ति की खुराक से तो नहीं है । इसका पता लगाने के लिए उन्होनें अमेरिका के राष्ट्रीय स्वास्थ्य व पोषण सर्वेक्षण में एकत्रित आंकड़ों का सहारा लिया । इस सर्वे में हर वर्ष हजारों लोगों की जानकारी इकट्ठा की जाती है । इसके तहत लोगों से यह भी पूछा जाता है कि उन्होनें पिछले २४ घंटों में क्या खाया-पीया और क्या इस अवधि में उन्होनें सिरदर्द या माइग्रेन का अनुभव किया । 
  गौरतलब है कि न्यूयॉर्क स्थिति बर्फली विश्वविद्यालय के मेडिकल सेंटर व अनुसंधान केन्द्र की स्वतलाना ब्लिटशतेन ने भी देख है कि माइग्रेन पीड़ित लोग ज्यादा नमक खाए तो उनकी तकलीफ कम हो जाती है । 
अलबत्ता, दोनों ही शोधकर्ताआें का मत है कि अभी पर्याप्त् प्रमाण नहीं है कि माइग्रेन के लिए नमक सेवन की सलाह दी जा सके । खास तौर से इस बात को ध्यान में रखना होगा कि अधिक नमक का सम्बन्ध ह्रदय रोग से प्रमाणित हो चुका है । इसके साथ ही उक्त रक्तचाप वाले रोगियों का भी ध्यान रखना पड़ेगा ।   
सामाजिक पर्यावरण
देश को स्वच्छ रखने की जिम्मेदारी 
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित 

स्वच्छ भारत अभियान का उद्देश्य गलियों, सड़को, गॉवो और शहरों सभी को साफ सुथरा करना   है । यह अभियान हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन २ अक्टूबर २०१४ से निरन्तर चलाया जा रहा है । 
इस अभियान के द्वारा खुले मेंशोच, अस्वच्छ शौचालयों को नवीन शोचालयों में परिवर्तित करने, सर पर मेला ढोने की प्रथा का उन्मूलन करने, नगरीय ठोस अपशिष्ट प्रबंधन और ग्रामीण क्षेत्र में स्वच्छता के संबंध में लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए कार्य करना है । 
एक स्वस्थ्य राष्ट्र के निर्माण में स्वच्छता की अहम भूमिका होती है । इस अभियान का बड़ा लक्ष्य     ५ वर्षो में भारत को खुले में शौच से मुक्त देश बनाना है । इस अभियान में देश में बड़े पैमाने पर प्रोदयोगिकी का उपयोग कर ग्रामीण क्षेत्रों में कचरे का इस्तेमाल कर उसे पूंजी का रूप देते हुए जैव उर्वरक और ऊर्जा के विभिन्न रूपों में परिवर्तित करना शामिल है । 
स्वच्छता अभियान एक राष्ट्रीय अभियान है । इसमें प्रत्येक नागरिक की भागीदारी आवश्यक    है । इसके द्वारा जन-जन में स्वच्छता के प्रति जागरूकता जरूर आएगी । शहरों और ग्रामों के कचरों का निस्तारण वैज्ञानिक पद्धति से करने पर जहां एक ओर पर्यावरण स्वच्छ होगा वही दूसरी और उपयोगी पदार्थ भी बनाये जा सकेंगे । कचरे को जैविक तथा अजैविक दो भागों में विभाजित कर जैविक कचरे से केंचुए के माध्यम से जेविक खाद बनायी जा सकती है । इस प्रक्रिया को वर्मिकम्पोस्ट कहा जाता है । दूसरे कचरे से भारी मात्रा में ऊर्जा पैदा की जा सकती हैं । इससे एक और कचरे का निस्तारण हो जायेगा तो दूसरी ओर प्रदूषण की समस्या भी दूर   होगी । 
आज हमारे देश में प्लास्टिक एक गंभीर मसला है । आज हर जगह प्लास्टिक की बोतलों व गिलासों में बंद पानी को प्रोत्साहित किया जा रहा है । प्लास्टिक की बोतल में बंद पानी को प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जा रहा है । सार्वजनिक कार्यक्रमोंमें प्लास्टिक, थर्मोकोल और एल्युमिनियम फॉयल से निर्मित यूज एण्ड थ्रो पात्र प्रयोग में लाये जाते    हैं । कार्यक्रम खत्म होते ही समारोह स्थल पर इस कचरे के ढेर लग जाते है । यह कचरा वजन में अत्यन्त हल्का होने के कारण उड़कर आसपास के क्षेत्रों में फैल जाता है । शहरो, कस्बो और गॉवों के नैसर्गिक सौंदर्य पर यह कचरा कलंक की तरह है । बढ़ते औद्योगिकरण, आर्थिक विकास और बाजारवाद के प्रभाव के कारण प्राकृतिक सामग्री जैसे पत्तों से निर्मित पत्तल, दोने जो कि परिवेश के लिए अनुकूल और स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित होते है लेकिन इनका प्रयोग लगभग बंद सा हो गया है । 
भारत में ४५ करोड़ों लोग शहरों में विभिन्न स्तरों पर रहते हैं । ताजा आकड़े बताते हैं कि भारत के ४ महानगरों की १ करोड़ से ज्यादा आबादी हैं । १० लाख से अधिक आबादी वाले ५३ शहर हैं १० लाख से कम आबादी वाले शहरों की संख्या ४६८ है । यह सब मिलकर रोजाना ६० हजार टन कचरा उत्पन्न करते हैं और इस कचरे में से केवल ६० प्रतिशत कचरा उठाया जाता है और प्रक्रिया स्थानों तक पहुंचाया जाता   है । ज्यादातर कचरा अवैज्ञानिक तरीके से गॉव के बाहर खड्डे में डाल दिया जाता है । भारत में पैदा होने वाला कचरा अमेरिका या यूरोप के कचरे से अलग होता है । भारतीय कचरे का उष्मांक मूल्य प्रति किलो ६००-८०० केलोरी होता है, जबकि यूरोप अमेरिका में इससे कहीं अधिक अर्थात ३५०० कैलोरी प्रति किलो होता है । भारतीय कचरे में ७२-८१ प्रतिशत जैव कचरा १६-१८ प्रतिशत प्लास्टिक, कागज तथा कांच और बाकी घरेलू घटक व रसोई का कचरा होता है । जैव कचरे में पानी की मात्रा इतनी अधिक होती है उससे बिजली बनाना फायदेमंद नहीं होता  है । 
हमारे देश में करीब १५ लाख ई कचरा सालाना पैदा होता   है । ई कचरे से निजात पाने के लिए उपकरणों का प्रयोग घटाने की रणनीति अपनानी होगी । एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि सुरक्षा मानकों के अभाव में ई-कचरा के निपटारे मे लगे कर्मचारियों में ७६ प्रतिशत लोग श्वास संबंधी बीमारियों से पीड़ित है । भारतीय उद्योग संगठन के एक अध्ययन में कहा गया है कि देश में ई-कचरा पैदा करने वाले राज्यों में महाराष्ट्र प्रथम है, इसके बाद के क्रम में तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली और गुजरात राज्य आते है । 
सरकारी और निजी कार्यालय और औद्योगिक संस्थान ७१ प्रतिशत ई-कचरा पैदा करते है जबकि घरों का ई-कचरे में योगदान १६ प्रतिशत    है । ई-कचरे में प्राप्त् वस्तुआें और उत्पादों को फिर से इस्तेमाल करने लायक बनाने के लिए भारत मुख्य रूप से असंगठित क्षेत्र पर निर्भर है । लगभग ९५ प्रतिशत ई-कचरा शहरों के स्लम बस्तियों में एकत्र किया जाता है । इनमें काम करने वाले लोग बिना किसी बचाव उपकरण के काम करते हैं । ई-कचरे के गलत ढंग से निपटान से न केवल स्वास्थ्य पर बल्कि पर्यावरण पर भी नकारात्मक असर होता है । 
भारतीय शहरों में ग्रामीण इलाकों की अपेक्षा शहरों में १० गुना अधिक कचरा पैदा होता है । हमें इस समस्या की गहराई जानने के लिए देखना होगा कि विकसित देशों की तुलना में हम कहा खड़े है ? अमेरिका में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसत कचरा २ किलो हैं और कनाड़ा में लगभग ३ किलो होता है । भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसत कचरा २५०-३५० ग्राम तक है । यद्यपि हम बहुत कम कचरा पैदा करते हैं लेकिन हमारी विशाल जनसंख्या और कचरे के निपटान का उचित प्रबंध ना होने के कारण स्वच्छता के मामले में विश्व स्तर पर हम बहुत पीछे हैं । इस समस्या से कैसे निपटे और स्वच्छता में उच्च् स्तर पर कैसे पहुंचे ये दोनों चिंताए हमारे स्वच्छता अभियान में शामिल करनी होगी । 
हम जानते हैं कि आधुनिक कचरे का दो तिहाई हिस्सा वही होता है जो किसी वस्तु या खाद्य सामग्री की पैकिंग के रूप में प्रयोग में लाया जाता है । महात्मा गांधी के जन्मदिन से शुरू हुए इस अभियान में गांधी के इस विचार पर ध्यान देना होगा जिसमें उन्होंने कहा था सुनहरा नियम तो ये हैं कि जो चीज लाखों लोगों को नहीं मिल सकती उसे लेने से हम दृढ़तापूर्वक इंकार कर दे त्याग की यह शक्ति हमें एकाएक नहीं मिल जाएगी पहले तो हमें ऐसी मनोवृत्ति विकसित करनी चाहिए की हमें उन सुख सुविधाआें का उपयोग नहीं करना है जिनसे लाखों लोग वंचित है और उसके बाद तुरन्त ही अपनी मनोवृत्ति के अनुसार हमेंशीघ्रता पूर्वक अपना जीवन बदलने में लग जाना चाहिए । 
इस प्रकार हमारे राष्ट्रपिता की बातों का सरल अर्थ इतना ही है कि आवश्यकता कचरे के कम उत्पादन करने अर्थात व्यक्गित उपभोग को कम करने की है । 
स्वच्छता अभियान मात्र एक अभियान नहीं है बल्कि जन आंदोलन है । स्वच्छता का सीधा संबंध पर्यावरण से होता है । आज जगह-जगह दिखने वाले कचरे के ढेर ने हमारी नदियों, मन्दिरों, तीर्थक्षेत्रों, ग्रामों और शहरों सभी को अस्वच्छ कर दिया है । ऐसी स्थिति में हम हमारे प्रयासों को सही कैसे ठहरा सकते है जब हम हर कदम पर गंदगी बढ़ाते जा रहे हैं । गंदगी को साफ करने के कार्यको समाज क्षुद्र कार्य मानता है । सफाई करने की ओर निम्रता का दृष्टिकोण रखा जाता है । हम सफाई जैसे महत्वपूर्ण कार्य को जातिगत पेशा मानते है । गंदगी, अस्वच्छता हम फैलाए लेकिन उसे साफ कोई दूसरा करें । 
स्वच्छता का कार्य बहुत पहले से हमने समाज के एक विशेष वर्ग को दे रखा है । यही वर्ग आज तक कचरे से लेकर मल-मूत्र तक साफ करते आया है और पीढ़ी दर पीढ़ी उसी वर्ग का इसमें लगे रहना हम सब के लिए लज्जा का विषय होना चाहिए । पर्यावरण संरक्षण और स्वच्छ भारत अभियान को जन आन्दोलन बनाने में नागरिकों की सक्रिय सहभागिता आवश्यक है ।
आर्थिक जगत 
लूट खसोट के नए तरीके
जया रामचन्द्रन 

प्राकृतिक संसाधनों के  निर्यात पर आधारित देशों का बड़े पैमाने पर आर्थिक शोषण किया जा रहा है । दुखद यह है कि इसमें भारत एवं चीन जैसे विकासशील देश भी शामिल हैं जो स्वयं अपने साथ भेदभाव की शिकायत करते रहते    हैं । कम मूल्य के बिल बनवाने से निर्यातक देशों को राजस्व का जबरदस्त घाटा उठाना पड़ता है। इसकी कीमत उन्हें अपने शिक्षा, स्वास्थ्य व सामाजिक कल्याण के  लिए धन की कटौती के रूप में चुकानी पड़ती है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक नई रिपोर्ट में अन्य देशों के अलावा चीन, जर्मनी, भारत, इटली, जापान, नीदरलैंड, स्पेन, स्विटजरलैंड, ब्रिटेन व अमेरिका को उस सूची में शामिल किया है जो कि तमाम वस्तु आधारित विकासशील देशों (कमाडिटी डिपेंडेंट डेवलपिंग कंट्रीज या सी डी डी सी) से कम राशि के ``व्यापार बिल`` बनवा कर लाभान्वित हो रहे हैं । 
व्यापार त्रुटिपूर्व बिलिंग का अर्थ है कि सीमा शुल्क (कस्टम डयूटी) बचाने के लिए जानबूझकर कम राशि का बिल बनवाना । जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास सम्मेलन (अंकटाड) का कहना है कि इस प्रक्रिया के द्वारा विकासशील देशों से पूंजी को गायब किया जा रहा है और अवैध रूप से वित्तीय प्रवाह किया जा रहा है। तकरीबन ९० प्रतिशत विकासशील देशों को अपने यहां से कच्च्ेमाल के निर्यात से होने वाली आय में से अरबों डॉलर की आमदनी करों के रूप में प्राप्त नहीं हो पा रही है, जो कि अन्यथा देश के विकास पर खर्च  होती । ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि सन् २०३० तक टिकाऊ विकास लक्ष्य (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स) प्राप्त करने हेतु प्रतिवर्ष ३.९ खरब डॉलर की आवश्यकता पड़ेगी ।
अंकटाड के अनुसार सन् २०१२-१३ में विकासशील देशों में से प्रत्येक तीन में से दो देश सी डी डी सी की श्रेणी में आते थे । इससे यह भी आभास होता है सन् २००९-१० एवं २०१२-१३ के मध्य कच्च्े माल पर तकरीबन आधे विकासशील देशों की निर्भरता इसके निर्यात पर बढ़ी   है । कच्च्ेमाल निर्यात (कमॉडिटी) पर न्यूनतम विकसित  (एल डी सी) अर्थात संवेदनशील देशों की निर्भरता तो और भी बढ़ गई है । सन् २०१२-१३ में न्यूनतम विकसित देशों में से ८५ प्रतिशत देश सी डी डी सी की श्रेणी में आ गए थे। इतना ही नहीं सन् २००९-१० की तुलना में उनकी स्थिति और भी बद्तर हो गई है। अंकटाड के आंकड़ों से जाहिर होता है कि विकासशील देशों की कमाडिटी निर्यात पर अत्यन्त निर्भरता है । इसके अलावा इनका निर्यात अत्यंत सीमित दायरे में होता है और इससे मिलने वाले राजस्व की निर्भरता गिने चुने प्राथमिक उत्पादों तक सीमित   है । उदाहरण के लिए सन् २०१२-१३ में अफ्रीका के ४५ सी डी डी सी देशों में से कोई भी देश जो इनका निर्यात करता है का ६० प्रतिशत निर्यात प्राथमिक तौर पर तीन वस्तुओं का ही होता रहा ।
अंकटाड ने संबंधित आंकड़े दो दशकों के गहन अध्ययन के बाद जारी किए हैं । इनमें निर्यात संबंधी विभिन्न कच्च्ेमाल जैसे कोको, तांबा, सोना व तेल आदि शामिल हैं और इसमें नमूना देशों के तौर पर चिली, आइवरी कोस्ट, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका और जांबिया को शामिल किया गया है। अंकटाड के सचिव मुखिशा किटुयी का कहना है कि इस शोध ने इस मुद्दे की व्यापकता को विस्तार से सामने रखा है और यह तथ्य भी सामने लाया है कि कुछ विकासशील देश अपने स्वास्थ्य एवं शिक्षा के बजटों के लिए चंद कच्च्ेमाल (कमॉडिटी) के निर्यात पर निर्भर हैं। उनके अनुसार किसी एक विकासशील देश का कमॉडिटी निर्यात उसके कुल निर्यात का ९० प्रतिशत तक हो सकता है । इसके अलावा इस अध्ययन ने अवैध व्यापार के इस नये स्वरूप पर नए सिरे से सवाल भी खड़े किए हैं । अतएव आयातक देशों एवं कंपनियों को यदि अपने सम्मान को बनाए रखना है तो उन्हें पारदर्शिता बढ़ानी होगी और अंकटाड के इस शोध में सहयोग करना होगा ।
अंकटाड अध्ययन ने स्पष्ट किया है कि सन् २००० एवं २०१४ के मध्य दक्षिण अफ्रीका से ७८.२ अरब डॉलर के कम राशि (अंडर इनवायसिंग) के बिल काटे गए जो कि कुल सोना निर्यात का ६७ प्रतिशत बैठता है । इसमें जिन देशों के साथ अधिकतम व्यापार किया गया उनमें प्रमुख हैं भारत (४० अरब डॉलर), जर्मनी (१८.४ अरब डॉलर), इटली (१५.५ अरब डॉलर) एवं ब्रिटेन (१३.७ अरब डॉलर)। इसी तरह सन् १९९६ से २०१४ के मध्य नाइजीरिया द्वारा अमेरिका को तेल की कुल आपूर्ति में से ६९.८ अरब डॉलर की या २४.९ प्रतिशत की अंडर इनवाईसिंग की गई । 
जांबिया ने सन् १९९५ से २०१४ के मध्य स्विटजरलैंडको २८.९ अरब डॉलर मूल्य के तांबे का निर्यात किया । यह उसके कुल तांबा निर्यात का ५० प्रतिशत बैठता है । लेकिन यह निर्यात स्विटजरलैंड की खाताबहियों में कहीं भी नजर नहीं आता । इसी क्रम में देखे तो चिली ने सन् १९९० से २०१४ के मध्य नीदरलैंड (हालैंड) को १६ अरब डॉलर मूल्य का तांबा निर्यात किया जिसका उल्लेख वहां की खाताबहियों में है ही नहीं । इसी तरह आइवरी कोस्ट ने सन् १९९५ से २०१४ के मध्य नीदरलैंड को १७.२ अरब डॉलर जो कि उनके कुल कोका निर्यात का ३१.३ प्रतिशत होता है, निर्यात किया । लेकिन नीदरलैंड के खातों में इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है । इस मामले में चीन भी पीछे नहीं है। दक्षिण अफ्रीका द्वारा सन् २००० एवं २०१४ के मध्य भेजे गए कच्च्े लोहे के निर्यात में से ३ अरब डॉलर की राशि की बिलिंग ही नहीं  हुई । अंकटाड के इस नमूना अध्ययन का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न देशोंऔर  विकासशील देशों के आपसी शोषण को समझना था ।   
विशेष रिपोर्ट 
विकास का फलसफा क्या हो ?
चिन्मय मिश्र 

आजादी के ७० वें वर्ष को एक इवेंट में परिवर्तित कर देने की भारतीय राजनीतिज्ञों की करामात के बीच भोपाल स्थित विकास संवाद ने मध्यप्रदेश के कान्हा टाइगर रिजर्व में, ``आजाद भारत में विकास`` विषय पर पत्रकारों का एक वृहद सम्मेलन आयोजित किया । इसमें भारत के १२ राज्यों के करीब ११५ पत्रकारों ने सक्रिय भागीदारी की । 
सम्मेलन हेतु कान्हा का चयन इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि यह भारत के विरोधाभासी विकास नीतियांे को उधेड़ता है । एक ओर जंगल से बेदखल आदिम बैगा, गौंड आदिवासी और पशुपालक यादव हैंतो दूसरी ओर सर्वाधिक आधुनिक व उभरता हुआ पर्यटन व्यवसाय छाती ताने बैठा है ।  एक ऐसा स्थान जहां कुछ बरस पहले तक ``घी`` की मंडी लगती थी अब काली चाय पीने को अभिशप्त है ।   
सम्मेलन के आधार वक्तव्य में वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीवान ने कहा कि संविधान का ७३ वां और ७४ वां संशोधन स्थानीय स्वशासी संस्थानों को न तो मजबूत कर पाया और न ही इच्छित फल ही दिलवा पाया । आज आधा देश भूखा है और हमारी मिट्टी की उर्वरता ५० प्रतिशत ही रह गई है । हमें हमारी नीतियों पर पुनर्विचार करना ही होगा । विकास संवाद के सचिन जैन ने वैश्विक विकास के परिपे्रक्ष्य में टिकाऊ विकास लक्ष्य (एस डी जी) की बात की । सन् २००१ के एस डी जी में १७ मुख्य लक्ष्य हैंऔर १६९ सहायक लक्ष्य हैंउनका मानना था कि यह विकास के श्रेष्ठतम शब्दों का शब्दकोश मात्र है । वैसे यह शांतिपूर्ण समाज संरचना की बात करता है ।  
सघन वन के बीच बैठे होने से पर्यावरण व वन स्वमेव सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दे बन कर उभर रहे   थे । पहले मुख्य वक्तव्य में सेंटर फार साइंस एण्ड इन्वायरमेंट (सी एस ई) के निदेशक और डाउन टू अर्थ के सलाहकार संपादक चंद्रभूषण ने कहा कि नेहरु पर्यावरण विरोधी नहीं बल्कि वैज्ञानिक सोच के हामी थे । उन्होंने काफी पहले ही कह दिया था कि हमें बड़ा बनाने की बीमारी लग गई है । वह इस बात से चिंतित थे कि सरकार और हमारा गुलामी का रिश्ता है । महज १०,००० लोग १२० करोड़ लोगों को संचालित करते हैं। उनके अनुसार भारत का ४० प्रतिशत पानी प्रदूषित हो चुका है । ९० प्रतिशत शहरों की हवा प्रदूषित हो चुकी है । ६० प्रतिशत भूमि का क्षरण हो रहा है। वनों की सघनता कम हो रही है और अब वन वनक्षेत्र के बाहर विकसित किए जा रहे हैं । 
उनका कहना था कि सरकार के पास न तो इस समस्या के निपटारे की सोच है और न साधन । यह काम तो समाज ही कर सकता है । हस्तक्षेप करते हुए वर्धा स्थित हिन्दी विश्वविद्यालय के अरुण कुमार त्रिपाठी ने कहा कि हम आजादी के ७० वें, भारत छोड़ो आंदोलन के ७५ वें, गांधी-नेहरु भेंट के १०० वें एवं अंबेड़कर के १२५ वें जन्म वर्ष में इकट्ठे हुए हैं । उनके अनुसार भारत में विकास के मौजूदा मॉडल को लेकर कोई राजनीतिक मतभेद नहीं है । जी एस टी को लेकर मीडिया का गौरवगान इसी को दर्शाता है। कहीं कोई वैकल्पिक राजनीति नजर नहीं आती जो बताए कि क्या बिना विदेशी पंूजी के काम नहीं चल सकता ? वैश्विक पूंजी के और उग्र राष्ट्रवाद के क्या खतरे हैं? अन्नू आनंद का कहना था कि भारत में पांच करोड़ बाल मजदूर हैंऔर मीडिया का हस्तक्षेप नदारद है । 
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन ने कहा कि विकास का अर्थ समझ पाना ही कठिन है । विगत में बिहार नमक एवं सूखे मेवे को छोड़ दें, तो पूरी तरह से आत्मनिर्भर था । परंतु अब ? बीज सहित तमाम कच्चे माल पर अमेरिका का ही प्रभुत्व है । मनरेगा को पढ़े-लिखे लोगों ने ``नीतियों का लकवा`` बताया था । अतएव विकास नापने का आधार ही प्रश्न के घेरे में है । पत्रकार एवं प्राध्यापक आनंद प्रधान का मत था कि हमारी शुरुआत पराजित मानसिकता से हुई है । बिना आलोचना के हल नहीं ढूंढा जा सकता । ग्रीस का उदाहरण देते हुए उन्हांेने कहा कि पूंजीवाद और लोकतंत्र का साथ-साथ चलना कठिन है। उन्होंने स्मार्ट सिटी को नए उपनिवेशवाद की ओर बढ़ता कदम बताया । सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता व पत्रकार बाबा मायाराम का कहना था, पहले से क्या बदला । हम क्या ज्यादा खाने लगे ? आदमी अब आदमखोर हो गया है। दुनिया विकल्पहीन नहीं है । परंतु विकल्पों को भी विक्रेन्दित करना होगा । हमें परंपरागत ज्ञान के साथ नया ज्ञान भी जोड़ना होगा ।   
साहिर लुधियानवी ने लिखा है, ``अफलास जदा दहकानों के/हल बैल बिके, खलिहान बिके/जीने की तमन्ना के हाथों/जीने ही के सब सामान बिके । दूसरा सत्र प्रसिद्ध अधिवक्ता व विचारक प्रशांत भूषण को समर्पित था । उनका मानना था कि वर्तमान स्थितियों की  विवेचना यदि आर्थिक विकास के नजरिए से भी करें तो हमें इसे दो हिस्सांे सन् १९८० के दशक पहले और इसके बाद में बांटना होगा । इस दौरान आर्थिक असमानता बढ़ी और कभी वापस न लौट पाने वाले प्राकृतिक संसाधनों की लूट आसमान छू गई । 
नवउदारवाद से भ्रष्टाचार के समाप्त होने की उम्मीद थी मगर यह बढ़ता चला गया । बोफोर्स से २ जी तक का सफर इसकी गवाही देता है। भ्रष्टाचार की वजह से सर्वप्रथम गबन को प्रोत्साहन मिलता है और दूसरा नीतियां जनहित में नहीं बल्कि कारपोरेट के हित में बनती हैं । गुजरात का सरदार सरोवर बांध इसका जीता जागता उदाहरण है। उन्होंने कहा कि ग्रामीण न्यायालयों की असफलता अत्यन्त दुखद है। हमने न्याय की अंग्रेजों की पद्धति अपनाई जिसका उद्देश्य जमींदारों को न्याय उपलब्ध करवाना था । आज ८० प्रतिशत जनता न्याय से वंचित है और मात्र दो प्रतिशत को वास्तविक न्याय मिल पाता है । ऊपरी अदालतों के न्यायाधीशों की जवाबदेही तय नहींहै तथा निगरानी व्यवस्था में भी चूक है। इस पर समर अनार्य का कहना था, भारत की न्यायपालिका पर बड़े लोगों  का विश्वास है। इसे विजय माल्या और सोनी सोरी के  मामलों से समझा जा सकता है ।
ध्यान रहे पत्रकारिता सिर्फ विचार नहीं है । बिना तथ्यों के यह पूर्णता तक नहीं पहुंचती । बरगी                बांध-पीड़ितों की ओर से राजकुमार सिन्हा का कहना था कि यह आरोप लगाया जाता है कि आंदोलनकारी विकास विरोधी होते हैं । परंतु हमने तो बरगी बांध बन जाने के बाद पुनर्वास न होने पर आंदोलन किया था । परियोजना रोकी भी नहीं तो फिर अन्याय क्यों ? सम्मेलन के दो महत्वपूर्ण वक्तव्य राजस्थान के ग्रामीण अंचलों के थे, जिन्होंने विकास के आधुनिक व एकतरफा सोच की पोल खोल दी । 
राजस्थान के जैसलमेर जिले के रामगढ़ गांव से आए चतरसिंंह जाम ने कहा कि हमारे यहां भारत में सबसे कम पानी (करीब ४ इंच) बरसता है । इस वर्ष तो अभी तक मात्र ११ (ग्यारह) एम. एम. पानी ही बरसा है । परंतु पानी की कमी नहीं है । वे तमाम तरह की खेती करते हैं और बड़े पैमाने पर पशुपालन भी । उनका कहना था हम पानी रोकते नहीं उसे रमाते हैं । 
भारत के सरकारी जल विशेषज्ञों को शायद उनकी बातों पर विश्वास ही नहीं  होगा । वे कहते हैंआजादी के पहले सबकुछ हमारा था, अब सब कुछ सरकार का हो गया है। जहां वे वंशानुगत भाईचारे को बनाते हुए रमे हैं वहीं जयपुर के पास स्थित लापोड़िया गांव के लक्ष्मण सिंह ने इस उपभोक्तावादी युग में सौहार्द्र की नई नींव रखी है । इस गांव में सारा प्रबंधन पानी से लेकर खेती तक का सामूहिक होता है और मनुष्य से लेकर चूहे तक सभी आपसी मैत्री से रहते हैं । यह अपने आप में विलक्षण गांव है जो भविष्य के बेहतर बनाने के सपने को साकार करता नजर आता है ।
एक अन्य व्याख्यान देविन्दर शर्मा द्वारा भारत में कृषि भी स्थिति को लेकर था। वैसे भारत में कृषि और किसान की दुर्दशा से कौन अपरिचित है। सरकारें भी इनके प्रति अत्यन्त दयालु हैं। अक्टूबर २००७ में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने एक पत्रकार से कहा था, ``आत्महत्या भारतीय दंड संहिता (आर पी सी) के तहत अपराध है परंतु क्या हमने एक भी किसान को इस  अपराध में पकड़ा ? पर क्या आपने कभी इसकी खबर दी ।`` देविन्दर शर्मा का कहना था कि पत्रकारों को भी अपने अंदर झाक कर देखना चाहिए। हम विकास की नहीं हिंसा की अर्थव्यवस्था के पोषक हैं । 
पिछले ५ वर्षांे में दुनिया के अमीरों की संपत्ति २४० अरब डालर बढ़ी है। इससे वैश्विक गरीबी को चार बार दूर किया जा सकता है । किसानों की आत्महत्याएं कृषि की नहीं अर्थव्यवस्था की असफलता है । पंजाब में ९५ प्रतिशत कृषि भूमि सिंचित है तो फिर किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं ? हमारा किसान भगवान भरोसे है तो अमेरिका का सरकार के भरोसे । पिछले दशकों में गेहंू के दामों में १९ गुना वृद्धि हुई और सरकारी कर्मचारियों के वेतन में १८० गुना । हमें आर्थिक विकास के विचार को ही बदलना होगा । इसमें मध्यवर्ग का हस्तक्षेप आवश्यक है ।
तकरीबन सभी इस बात पर एकमत थे कि विकास के इस मॉडल में ही हिंसा निहित है । सुखद स्थिति यह थी कि आधे से ज्यादा पत्रकारों ने चर्चाओं में हस्तक्षेप किया । यह सम्मेलन विश्वास दिलाता है कि पत्रकारिता में सकारात्मक सोच रखने वाले साथियों की कमी नहीं   है । आवश्यकता सामूहिकता और पत्रकारिता के मूल्यों को बनाए रखने की है । स्वस्थ चर्चाएं भी भविष्य को बहुत आशावादी नहीं बना पाई तो फैज अहमद फैज की यह पंक्तियां याद आई, 
फिर अगली रुत की फिक्र करो, 
जब फिर एक बार उजड़ना है ।
इक फस्ल पकी तो भर पाया,
जब तक तो यही कुछ करना है ।