सोमवार, 17 अक्तूबर 2016


प्रसंगवश   
अपने आप खिलता प्लास्टिक का फूल
    पिछले वर्षोमें अनुसंधान की बदौलत ऐसे पदार्थ विकसित किए गए हैं जो आकार बदलते हैं । ऐसे पदार्थो से आप ऐसी वस्तुएं बना सकते हैं जो समय-समय पर आकार बदलेगी । इन्हें मार्फिग पदार्थ कहते है । इन पदार्थो से बनी वस्तुआें को आकार बदलने के लिए किसी बाहरी संकेत की जरूरत होती है । जैसे तापमान में परिवर्तन, अम्लीयता में परिवर्तन, प्रकाश में परिवर्तन वगैरह । अलबत्ता, ऐसे पदार्थ काफी उपयोगी साबित हुए है ।
    अब नॉर्थ कैरोलिना विश्वविघालय के सर्जाई शेको और उनके साथियों ने ऐसा मॉर्फिग पदार्थ विकसित करने में सफलता प्राप्त् की है जो निर्धारित समय पर आकार बदल लेता है । कहा जाए, तो इन पदार्थोमें एक आंतरिक घड़ी उपस्थित है  ऐसे पदार्थो से बनी वस्तुआें का एक फायदा यह है कि ये अपने काम के हिसाब से आकार ग्रहण कर सकते है । खास तौर से शरीर के अंदर फिट करने के उपकरणों के लिहाज से ये बहुत उपयोगी साबित होगे क्योंकि शरीर में फिट करने के बाद बाहर से कोई संकेत देना संभव नहीं होता ।
    ऐसे पदार्थ के निर्माण के लिए शेको के दल ने शुरूआत मुलायम पोलीमर्स से की । पोलीमर्स में कुछ रासायनिक बंधन तो स्थायी होते हैं । इनकी वजह से ये पदार्थ एक स्प्रिंग की तरह काम कर सकते हैं - इन्हें दबाकर छोड़ेगे तो ये वापिस अपना मूल आकार ग्रहण कर लेंगे । जैसे रबर का टुकड़ा । मगर पोलीमर्स में अधिकांश बध्ंान आकार में स्थायी परिवर्तन के लिए जिम्मेदार होते हैं - ये समय के साथ टूटते हैं और नए सिरे से जुड़ जाते हैं । इस प्रक्रिया की रफ्तार को बदला जा सकता है । इसी गुण की बदौलत यह संभव हो पाता है कि एक निर्धारित समय में वह वस्तु आकार बदल लेगी । अपनी बात को प्रदर्शित करने के लिए शेको के दल ने एक डिब्बा बनाया जिसमें कोई तोहफा रखा था । यह डिब्बा एक पूर्व निर्धारित समय पर खुल जाता था । इसी अवधारणा पर प्लास्टिक का एक फूल तैयार किया है, इस फूल को रखा रहने दे तो समय आने पर यह अपने आप खिल   जायेगा ।
सम्पादकीय
 एसीएफ बने अवार्ड पाने वाले पहले भारतीय
     मध्यप्रदेश के युवा वन अधिकारी रितेश सिरोठिया प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड-क्लार्क आर बाविन वाइल्ड लाइफ एन्फोर्समेंट अवार्ड पाने वाले पहले भारतीय बन गए हैं ।
    अंतर्राष्ट्रीय संस्था एनीमल वेल्फेयर इंस्टीट्यूट एवं स्पेशीज सर्वाईवल नेटवर्क द्वारा वन्य-प्राणी अपराध नियंत्रण के क्षेत्र में दिया जाने वाला यह पुरस्कार श्री सिरोठिया को पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीका के जोहासंबर्ग शहर में विलुप्त्प्राय जंगली जीव-जन्तु एवं वनस्पति का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के १७वें सम्मेलन में सक्रेटरी जनरल जॉन स्केनलॉन द्वारा दिया गया ।
    संस्था ने श्री सिरोठिया का चयन उनके द्वारा वन्य-वाणियों को बचाने में किए गए गहन प्रयासों और राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय वन्य-प्राणी कानूनों के प्रभावी प्रवर्तन के लिए दिया है । श्री रितेश सिरोठिया वर्तमान में मध्यप्रदेश स्पेशल टॉस्क फोर्स और राज्य टागर स्ट्राइक फोर्स के प्रभारी है । सिरोठिया को इसी वर्ष फरवरी में राज्य शासन द्वारा भी पेंगोलिन शिकार और उसके अंगोंके अवैध व्यापार में लिप्त् अंतर्राष्ट्रीय गिरोह का पर्दाफाश कर आठ राज्य के ७६ आरोपी को न्यायिक हिरासत में भेजने के लिए पुरस्कृत किया गया था । श्री सिरोठिया के नेतृत्व मेंअब तक एसटीएसएफ की टीम पेंगोलिन और बाघ का शिकार करने वाले १११ लोगों को १० राज्य में गिरफ्तार कर चुकी है । इनमें एक म्यांमार और एक तिब्बत का विदेशी नागरिक भी शामिल है ।
    वन्य-प्राणी अपराध नियंत्रण के क्षेत्र में दिए जाने वाले क्लार्क आर बाविन वाइल्ड लाइफ इन्फोर्समेंट अवार्ड के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय - स्तर की जूरी पूरी दुनिया में वन्य-प्राणी अपराध नियंत्रण के लिए कार्यरत एजेंसी के अधिकारियों में से उत्कृष्टतम कार्य करने वाले अधिकारी का चयन करती है । यह पुरस्कार प्रत्येक तीन वर्ष एक बार में दिया जाता है । श्री क्लार्क बाविन संयुक्त राज्य अमेरिका के वन अधिकारी थे । उन्होनें अपने सेवाकाल में वन्य-प्राणियों के अवैध व्यापार नियंत्रण में अप्रतिम योगदान दिया था । यह पुरस्कार उनकी स्मृति में दिया जाता है ।
सामयिक
एंथ्रोपोसीन : भूगर्भ इतिहास में एक नया युग
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

    पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन में भूवैज्ञानिकों के एक समूह ने सुझाव दिया कि हाल के वर्षो में धरती मां पर मानव जाति का गहरा प्रभाव पड़ा है ।
    अब समय आ गया है कि पृथ्वी के भूवैज्ञानिक इतिहास में एक नया युग जोड़ा जाए जिसे एंथ्रोपोसीन कहा जाए (एंथ्रोपो ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका उपयोग मानव जाति के लिए किया जाता है । उन्होंने सुझाव दिया है कि वर्तमान युग में होलोसीन के नास से जाना जाता है जिसमें से एंथ्रोपोसीन का उदय हुआ है । कहा जा रहा है कि एंथ्रोपोसीन ६६ साल पहले (१९५०) से शुरू किया जाए जो होलोसीन युग की समािप्त् दर्शाएगा ।  होलोसीन करीब ११७०० साल पहले अंतिम हिम युग के साथ शुरू हुआ था । उस समय ज्यादातर हिम युगीन जानवर मर कर खत्म हो गए थे और लगभग ११ हजार साल पहले मनुष्यों ने शिकारी संग्रहकर्ताआें के रूप में तथा स्थायी समुदायों के रूप में खेती और कृषि की खोज करके पृथ्वी के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था । 
     इंसान ने संसार को क्या बना दिया ? वह क्या बात है जिसने इस युग को एक कुदरती आधार की बजाए मनुष्य के आधार पर परिभाषित करने को प्रेरित किया है ? ११ हजार साल पहले चलते है, उस समय वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर प्रति दस लाख भाग में २२० (पीपीएम) था । यहां तक कि ८ हजार साल पहले तक यह करीब २६० पीपीएम था । लेकिन १९वीं शताब्दी के शुरू में पश्चिम में औद्योगिक क्रांति की शुरूआत के साथ भूगर्भ से कोयला निकालकर उसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर परिवहन और उद्योगों के लिए होने लगा था । अन्य प्रमुख जीवाश्म ईधन, तेल (पेट्रोलियम) और प्राकृतिक गैस खोजी गई और उनका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने लगा । कार्बन युक्त जीवाश्म ईधन के जलने से कार्बन डाईऑक्साइड मुक्त होने लगी ।
    कार्बन डाईऑक्साइड ग्रीन हाउस गैस का एक उदाहरण है जो सूरज की रोशनी को तो धरती पर आने देती है लेकिन पृथ्वी और समुद्रों से निकली गर्मी को वापिस आकाश में लौटने नहीं देती । एक सरल उदाहरण के जरिए समझते है कि जब एक कार सूरज की रोशनी में खड़ी है और उसके कांच चढ़े हुए हैं, तब सूरज की रोशनी कार के अंदर तो आ सकती है लेकिन वापस बाहर जाने वाली गर्मी कांच के चढ़े होने की वजह से अंदर ही बनी रहती है । यही प्रभाव ग्रीन हाउस में भी इस्तेमाल होता है जहां पौधे और सब्जियां    ठंडी जलवायु में उगाई जाती है ।   इसे ही ग्रीनहाउस प्रभाव कहा    जाता है ।
    इन सालों के दौरान उद्योगों, यातायात और अन्य उपयोगों से कार्बन डाईऑक्साइड की एक बड़ी मात्रा जमा होती गई है । यह गैस पृथ्वी से पलायन नहीं कर सकती । (पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण खिंचाव की वजह से कार्बन डाईऑक्साइड दूर नहीं जा सकती जबकि हाइड्रोजन या हीलियम जैसी हल्की गैसें अंतरिक्ष में पलायन कर जाती हैं ।) इस प्रकार औद्योगिक क्रांति के चलते पर्यावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर २८० पीपीएम से बढ़कर आज ४१३ पीपीएम हो चुका है । नतीजन, पिछले दो दशकों में धरती की सतह का औसत तापमान १.५ डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है ।
    इसी कारण ग्लेशियरों का पिघलना शुरू हुआ और प्रतिवर्ष समुद्र के जल स्तर में ३.२ मि.मी. की बढ़ोतरी हो रही है । समुद्र स्तर के बढ़ने से बहुत चिंतित है । उसने ऑस्ट्रेलिया से पूछा है कि क्या वह जमीन खरीदकर वहां बसने के बारे में सोच सकता है ।
    ग्रीन हाउस गैसों (कार्बन डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, ओजोन, मीथेन ...... ) के कारण समुद्रों और भूभागों की गर्मी बढ़ने के साथ-साथ प्लास्टिक और उसका मलबा धरती और समुद्र में बिखरे हुए है । प्लास्टिक प्रदूषण हाल ही की घटना है । इसके साथ ही मानव जनसंख्या सन १८५० में १.२ अरब से बढ़ते-बढ़ते आज ७ अरब हो गई है । इसके कारण जंगलों और जंतुआें का विनाश हुआ और इसने भीड़भाड़ और संबंधित समस्याआें को जन्म दिया है ।
    क्या किसी गैस की वजह से पृथ्वी की जलवायु में इस तरह की विशाल उथल-पुथल पहली बार हुई   है ? इसी तरह की घटना बहुत पहले घटी थी, जिसे ऑक्सीजन संकट (या महान ऑक्सीकरण घटना) कहते   हैं । यह २.४ अरब वर्ष पहले घटी   थी । उस समय पृथ्वी पर सायनोबैक्टीरिया कहलाने वाले जीवाणुआें का समूह बहुत प्रचुर था जिन्होंने प्रकाश संश्लेषण शुरू किया था । इस प्रक्रिया में ये जीवाणु ऊर्जा उत्पादन के लिए कार्बन डाईऑक्साइड का इस्तेमाल करते थे और अपशिष्ट पदार्थ के रूप में ऑक्सीजन गैस छोड़ते थे । सायनोबैक्टीरिया प्रजनन बहुत तेजी से करते है (हर ३० मिनिट में एक से दो हो जाते हैं) इसके चलते पर्यावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत अधिक हो गई थी । इसमें से कुछ पृथ्वी के कार्बनिक पदार्थ और लौह द्वारा स्थिर हो जाती थी लेकिन बची हुई जहरीली गैस का प्रतिशत हवा में २० प्रतिशत तक हो गया   था । इसने कई जीवधारियों को जलाकर भस्म कर दिया था और काफी लंबे समय के बाद, ही इस ऑक्सीजन का इस्तेमाल करने में समर्थ जीवों (एरोबिक जीवों) का प्रादुर्भाव हुआ था ।
    अलबत्ता, हमारे पास ज्यादा समय नहीं है और हमें बहुत तेजी से जीवाश्म ईधनों, प्लास्टिक और जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार अन्य पदार्थो में कटौती करना होगा। हालांकि कई निहित स्वार्थ आज भी यह मानने से इंकार करते है कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और इसके लिए जीवाश्म ईधनों का इस्तेमाल जिम्मेदार है । हर छोटा से छोटा प्रयास महत्वपूर्ण है क्योंकि बूंद-बूंद से घट भरता है ।
हमारा भूमण्डल
देशज बीजों पर बढ़ते खतरे
ग्रेन
    बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियां अब सरकारों को इस बात के लिए बाध्य कर रही हैं कि बहुपक्षीय समझौते कर वे देशज बीजों के अधिकार भी कारपोरेट को सौंप दें। जापान, आस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया जैसे विकसित राष्ट्र इससे सहमत भी दिखाई दे रहे हैं। जबकि भारत व चीन इसके खिलाफ  हैं।
    अभी ट्रांस पेसेफिक पार्टनरशिप (टी पी पी) पर किए गए हस्ताक्षरों की स्याही सूखी भी नहीं थी कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में बंद दरवाजों के पीछे एक और व्यापक व्यापारिक संधि को लेकर समझौता वार्ताएं शुरू हो गई हैं। टी पी पी की तरह रीजनल इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आर सी ई पी -क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी) ने सदस्य देशों ने कारपोरेट की शक्तियों के विस्तार की गुजांइश बढ़ा दी है जबकि इससे आम जनता को अपने लिए प्राकृतिक संसाधनों जैसे भूमि, सुरक्षित भोजन, जीवनरक्षक दवाएं एवं बीजों पर अधिकारों की प्राप्ति उल्लेखनीय कमी आएगी । 
     आर सी ई पी आसियान के दस सदस्य देशों के  बीच संभाव्य समझौता है और इसमें क्षेत्र के ६ सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार हैं, आस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, न्यूजीलैंड एवं दक्षिण   कोरिया ।
    हाल ही में लीक हुए आर.ई. सी.पी. समझौते के अनुसार जैवविविधता एवं खाद्य उत्पादन एवं औषधि की उपयोगिता को लेकर कानूनी अधिकारों की बात सामने आने पर बातचीत करने वाले देश दो खेमों मे बंट गए हैं। आस्ट्रेलिया, जापान एवं कोरिया की ``कोर रुख`` वाली सरकारें कारपोरेट के कानूनी अधिकारों को मजबूत करने में लगी हुई हैं । यह देश प्रयासरत हैंकि
    * यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी सदस्य देश यू पी ओ वी १९९१ में शामिल हांे या कम से कम ऐसे राष्ट्रीय कानून बनाएं जो कि अंतर्राष्ट्रीय बीज समझौते के अनुरूप हों । इससे मॉन्सेंटो एवं सिजेंटा सरीखे कारपोरेट्स को अगले २० वर्षों तक के लिए बीजों, जिसमें किसानों द्वारा बचाए गए बीज भी शामिल हैं, पर         एकाधिकार प्राप्त हो जाएगा । यह तो विश्व व्यापार संगठन (डब्लू टी ओ) द्वारा व्यापार संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकार (ट्रिप्स) की आवश्यकताओं को भी पीछे छोड़ रहा है ।
    * यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी सदस्य देश माइक्रोेआर्गेनिज्म (सूक्ष्मतम जीवाणु) के पेटेंट की सुरक्षा हेतु बूडापेस्ट संधि में शामिल हों । बूडापेस्ट संधि ने ऐसी प्रणाली तैयार की है जिसमें कारपोरेशन ऐसे माइक्रोआर्गेनिज्म का नमूना तयशुदा जीन बैंक में यह बताते हुए रख सकते हैंकि यह उनका अविष्कार है जबकि उस पदार्थ तक पहुंच अभी भी सीमित ही है ।
    * आर ई सी पी सदस्य यह सुनिश्चित करें कि कारपोरेट बीज उत्पादक के अधिकारों का उल्लंघन में सिर्फ दीवानी दंड (उपचार) का नहीं बल्कि आपराधिक उपचार या दंड (जैसे वस्तु की जब्ती या कारावास) का प्रावधान हो ।   
    * यह सारे प्रयास``ट्रिप्स से आगे``जाकर डब्लू टी ओ-ट्रिप्स समझौते को पीछे छोड़ रहे हैं । पिछले दरवाजे से नए बौद्धिक संपदा मापदंड स्थापित कर यह संधि डब्लू टी ओ को भी पीछे छोड़ रही है। गौरतलब है कुल मिलाकर बौद्धिक संपदा अधिकार स्पष्टतया आर्थिक अधिकार हैंजिन्हें सरकारें इनाम में देती हैंया नवाचार को बढ़ाने के लिए । जबकि इसमें यह ध्यान नहीं रखा जाता कि यह अन्यायपूर्ण कानूनी एकाधिकार एवं किराया वसूली को बढ़ावा दे रहा है ।
    आसियान का दूसरा खेमा जिसमें चीन, भारत और कुछ हद तक न्यूजीलैंड भी शामिल हैं, इन प्रस्तावों को अस्वीकार कर रहे हैंं। इनमें से कुछ राष्ट्र इस बात पर सहमत हैं कि इस तरह की आवश्यकताओं की पूर्ति जापान द्विपक्षीय आर्थिक भागीदारी समझौते के अन्तर्गत होने वाले व्यापारिक लेनदेन में या अभी लागू न होने पाई टी पी पी के माध्यम से कर सकता है । परंतु ये देश नहीं चाहते कि इन्हें आर सी ई पी के माध्यम से उन पर थोपा जाएं । आसियान के देशों में भारत और चीन चाहते हैंकि आर सी ई पी के बौद्धिक संपदा अधिकार वाले अध्याय में संयुक्त राष्ट्र संघ जैवविविधता सम्मेलन (सी बी डी) के अन्तर्गत दिए गए अधिकारों एवं बाध्यताओं को शामिल किया जाए । ये है :
    * आसियान और चीन यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि आर ई सी पी सदस्य देश जो कंपनी पेटेंट के लिए आवेदन कर रही है उसके महत्व को स्वीकारते हुए उन्हें यह बताने के बाध्य करें कि वह उस जैविक पदार्थ (जेनेटिक मटेरियल) पाए जाने वाले स्थान को ``उद्घाटित`` करे और यह भी बताए कि उसने इस प्रक्रिया में पारंपरिक  ज्ञान का कितना प्रयोग किया है ।
    * चीन और भारत तो इस दिशा में और भी आगे जाकर कह रहे हैंकि आर ई सी पी इस तरह के खुलासे न करने पर विभिन्न प्रकार की रोक भी लगाए ।
    * भारत तो इससे भी दो कदम और आगे जाकर मांग कर रहा है कि आर सी ई पी के सभी सदस्य सी बी डी नागोया समझौते को माने व उसका क्रियान्वयन करे । साथ ही जैवविविधता से संबंधित लाभों की हिस्सेदारी करें । (आसियान देश इसके खिलाफ हैं।)
    ऐतिहासिक तौर पर भारत और चीन जैसे देशों का पारंपरिक  ज्ञान अत्यंत समृद्ध है । इन देशों ने देखा है कि पश्चिमी वैज्ञानिक इनको चोरी-छिपे ले जाकर इसमें थोड़ा बहुत हेर-फेर कर इसका पेटेंट करवा लेते हैं । इसी वजह से अब वे पश्चिम को कानूनी प्रक्रिया का लाभ इसलिए नहीं देना चाहते जिससे कि इन       संसाधनों का दुरुप्रयोग न हो और स्त्रोत देशों को इनकी उपलब्धता सिर्फ भुगतान पर ही न उपलब्ध हो । जबकि वे अभी इसका मुफ्त उपयोग कर रहे हैं ।
    वैसे इस तरह की कोई भी पहल जमीनी स्तर पर समुदायों को शायद सुरक्षित न रख पाए । उनके  ज्ञान एवं बीजों के इस्तेमाल हेतु नए नियम बनाकर और गुप्त समझौते कर आर सी ई पी एशिया के  किसानो, मछुआरों एवं देशज समुदायों की संपत्ति को आंचलिक व्यापार प्रणाली का हिस्सा बना लेगी । इसके भयानक विध्वंसक परिणाम सामने आएंगे क्योंकि इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का काफी गहरा प्रभाव पड़ रहा है। वर्तमान में अलनीनो के प्रलयंकारी प्रभाव एशिया के तमाम खेतों में दिखाई दे रहे हैं । इससे चावल की आपूर्ति संकट में पड़ गई है और भूखे किसान जबरदस्त प्रतिरोध कर रहे हैं । हाल के समय में फिलीपींस में इसका सर्वाधिक बुरा प्रभाव पड़ा है । जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में यदि एशिया-प्रशांत की सरकारें वास्तविक खाद्य सुरक्षा चाहती हैंतो उन्हें बौद्धिक संपदा को लेकर एकाधिकारवादी प्रवृति को छोड़ना होगा ।
    आवश्यकता इस बात की है कि वे आर सी ई पी को लेकर चल रही चचाओं से स्वयं को पूर्णतया अलग कर लें बजाए इसके कि वे कारपोरेट को नई शक्तियां और सुविधाएं दें । उन्हें चाहिए कि वे स्थानीय समुदायों की मदद करें और उनके माध्यम से खाद्य सार्वभौमिकता प्राप्त करंे । गौरतलब है कि यह सार्वभौमिकता उनके बीजों, भूमि, ज्ञान और पानी में निहित है ।
दीपावली पर विशेष
संकट में है माँ लक्ष्मी का वाहन
डॉ. गोपाल नारसन
    मां लक्ष्मी के वाहन उल्लू की रक्षा करने के बजाए लक्ष्मी साधक ही उल्लू की जान के दुश्मन बन जाते है ।
    अपने स्वार्थ के लिए उल्लू की बलि देकर अंधविश्वासी लोग सोचते हैं कि लक्ष्मी उन पर मेहरबान हो जाएंगी परन्तु क्या मां लक्ष्मी अपने ही वाहन उल्लू की बलि से प्रसन्न हो सकती है ? कदापि नहीं, बल्कि उल्टे मां लक्ष्मी की कृपा भी ऐसे अन्धविश्वासों को नहीं मिल पाएगी । निशाचर प्राणी उल्लू संरक्षित वन्यजीव है, जिसकी जान लक्ष्मी भक्तों के ही कारण खतरे में है । 
     वन्य जीवन तस्कर उल्लू का व्यापक स्तर पर दीपावली पर उल्लू की बलि के लिए उल्लू शिकार करते हैं । दीपावली पर धन की देवी लक्ष्मी के वाहन कहे जाने वाले उल्लू की पूजा-अर्चना करने के बजाए धार्मिक अंधविश्वासा के चलते कुछ  स्वार्थी लोग उल्लूआें की बलि दे रहे हैं । कहीं आस्था के नाम पर तो कहीं पौरूष शक्ति बढ़ाने के लिए उल्लू के अंगों का नाजायज उपयोग उल्लू की जान का दुश्मन बना हुआ है ।
    नेपाल से लेकर भारत के विभिन्न शहरों में उल्लूआें की तस्करी का बाजार गर्म है । वन्य जीव तस्कर उल्लूआें के प्रति इतने बेरहम है कि उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते समय उल्लू कहीं आवाज न निकाले और तस्कर पुलिस की पकड़ में न आ जाए इसके लिए उल्लूआें को एक-एक सप्तह तक भूखा रखा जाता है । नेपाल और नेपाल की सीमा से लगे भारतीय इलाकों में उल्लूआें की बड़े पैमाने पर तस्करी हो रही है । इस तस्करी में एक किलोग्राम वजन से लेकर दस किलोग्राम वजन तक के उल्लू वन तस्करों का शिकार    बनें । जिन्होंने उल्लूआें की जान का सौदा कर बीस करोड़ रूपए तक का बड़ा अवैध कारोबार कर    डाला । लेकिन धन की देवी लक्ष्मी की सवारी उल्लू की तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा है ।
    जब उल्लू ही नहीं रहेगे तो धन की देवी लक्ष्मी आपके घर आएंगी कैसे ? पहले हर गांव शहर के पुराने वृक्षों की खोखर उल्लूआें का आशियाना हुआ करते थे । उल्लूआें का वृक्षों की साख पर बैठना आम बात हुआ करती थी । तभी तो उल्लूआें को लेकर एक कहावत भी है, हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्ता क्या होगा ? लेकिन आज उल्लू ही गर्दिश में है । जब से तन्त्र-मन्त्र और काले जादू के नाम पर उल्लूआें का अवैध व्यापार होने लगा है । तब से उल्लू पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं । उल्लू संकटापन्न श्रेणी का वन्य जीव है इस कारण इसकी नस्ल बचाये रखने के लिए जनजागरूकता के साथ कानूनी सख्ती बरतने की भी आवश्यकता  है । लेकिन उल्लूआें की तस्करी व शिकार होने पर भी आज तक दोषियों को पकड़ा नहीं जा सका, ऐसे में वन्य जीव कानून भी सिर्फ दिखावा बनकर रह गया है ।
    पूजा पाठ के लिए उल्लू के शारीरिक अवशेषों के इस्तेमाल की सलाह देकर कुछ तान्त्रिक इस दुर्लभ वन्य जीव का अस्तित्व मिटाने में लगे है । प्रकृति-मित्रों की माने तो भारत के साथ-साथ नेपाल, पाकिस्तान, भूटान, बंगलादेश और दक्षिण पूर्वोत्तर देशों में काले जादू के लिए उल्लूआें  की मांग तन्त्र-मन्त्र के चक्कर में बढ़ जाती है । पाकिस्तान बार्डर अटारी क्षेत्र, अमृतसर, दिल्ली, उ.प्र. के श्रावस्ती, सिद्धार्थनगर, महाराजगंज, इलाहाबाद, बनारस, गोरखपुर, लखनऊ, कुशीनगर, देवरिया, बलरामपुर आदि क्षेत्रों के साथ-साथ आसाम, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र में विभिन्न जगहों पर उल्लूआें की अवैध मण्डी है । जहां तस्करी के माध्यम से उल्लू बिक्री के लिए पहुंचते हैं।
    उल्लूआें की इसी तस्करी और उनके शिकार के कारण उल्लू की जान खतरे मेंहै । वन्य जीव तस्कर अधिकतर मटमैले रंग के उल्लू का ही शिकार करते है । कुछ लोगों में यह भ्रान्ति है कि उल्लू के खून से न्यूकोडरमा, अस्थमा व नपुंसकता का इलाज हो सकता है लेकिन इसमें वैज्ञानिक स्तर पर कोई सच्चई नहीं है । काले जादू के लिए हानर्ड व ब्राउन फिस उल्लू का प्रयोग किया जाना बताया गया    है । उल्लू को पकड़ने के लिए शिकारी गोंद लगी लम्बी  डण्डी का प्रयोग करते है । इस प्रक्रिया में पचास प्रतिशत उल्लू डर व सदमे के कारण ही मर जाते है, शेष भी एक सप्तह में दम तोड़ देते हैं । ऐसे में उल्लू की संख्या लगातार कम हो रही है और यह संकटापन्न वन्यजीव अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जीवन की भीख मांग रहा है ।
    तस्करी व मौत के शिकार वन्य जीव उल्लू की घटती संख्या के कारण उल्लू अब दिखने बंद हो गए है । उल्लू को संस्कृत में उल्लूक, नत्रचारी, दिवान्धर्धर, बंगाली में पेचक, अरबी में बूम, लेटिन में आथेनेब्रामा इण्डिका नाम से जाना जाता है । वही उल्लू को कुचकुचवा, खूसट, कुम्हार का डिंगरा, धुधवा व धुग्धु भी कहा जाता है । उल्लू की सबसे खास बात यह होती है कि वह अपना सिर १६० कोण से भी अधिक घूमा सकता है । निशाचर पक्षी होने के कारण उल्लू चूहे व खरगोश आदि खाकर अपनी उदर पूर्ति करता है ।
    ऐसे दुर्लभ जीव जो कि लक्ष्मी का वाहन भी माना जाता है को मारना निश्चित ही पाप है । यदि हमें अपने घर में लक्ष्मी चाहिए तो उल्लू को मारने से तौबा करनी होगी, साथ ही मां लक्ष्मी को खुश करने के लिए दुर्लभ होते जा रहे उल्लू की जान वन्य जीव तस्करों से बचाने के लिए आमजन को आगे आना होगा तभी लक्ष्मी के प्रिय वाहन उल्लू को सुरक्षित रखा जा सकता है ।
    जब उल्लू बच जाएगा तो लक्ष्मी भी सहज ही प्रसन्न हो  जाएंगी ।
कविता
ये जो धुँधलका है, काफी है
सरोज कुमार

उतने ही दिखो और देखो
जिसमें जिन्दगी निरापद चली चले,
रोशनी की और जरूरत नहीं है
ये जो धुँधलका है,
कॉफी है !
   
अपनी सुनिश्चित मौत को
अफवाह मानते रहने में
जिन्दगी का लुत्फ है !
   
रोशनी संभावनाआें के माँडने लील कर
जो आँगन लीपती है
उस पर चलने से पैर जलते हैं !
   
ईश्वर कभी नहीं मिला,
पण्डितों को रोशनी में,
वह रीझता रहा,
फकीरों पर
गुफाआें-बियाबानों में !
   
रोशनी से झकाझक
दोपहर कैसी खाली-खाली है,
   
पर सुबह कितनी रसभरी !
शाम कितनी लुभावनी
आँखें बंद करने पर
जो दिखता है
वहाँ नहीं जान पाती
दूरबीन की आँख !
   
तुम फिर उड़ रहे हो
ऊँचे और ऊँचे
रोशनी के शिकार को,
वह फिर तुम्हारे पंख
जला डालेगी !
जिन्दगी एक पहेली है
रोशनी एक उत्तर है,
पहली का मजा
उत्तर की मौजूदगी में नही,
उसकी अनबूझ में छुपा हैं !

वह जो धॅुंधली-धुँधली
दिखाई दे रही है
वही जिन्दगी है
और वह जो एकदम साफ है
मौत है !
विज्ञान-जगत
सितारों के सफर की तैयारी तेज
संध्या रायचौधरी
    सितारोंतक पहुंचने का मतलब हम अपने सौर मण्डल के पार दूसरे ग्रहों तक पहुंच जाएंगे । हो सकता है इसी प्रयास में कोई दूसरी पृथ्वी या परग्रही जीव ही मिल जाए । मानवता की यह सबसे बड़ी छलांग अभी कम से कम तीन साल दूर    है ।
    वैज्ञानिकों ने सितारों के सफर की तैयारी खास तेज कर ली है और निकट भविष्य में इस क्षेत्र से कई आशाप्रद समाचार सुनने को मिलने वाले हैं, भले ही अभी हम सितारों को न छू सकें पर इसकी ठोस भूमिका आने वाले कुछ बरसों में बनने वाली है । इस क्षेत्र और सितारों तक मानव निर्मित सूक्ष्म उपग्रह भेजने की दिशा में चल रहे शोध, विकास और प्रयोग बताते है कि यदि कोई बड़ी अड़चन न आई और शोध प्रयोगों की रफ्तार ऐसी ही बनी रही तो तीन से चार दशक के भीतर ही हम अपने सौर मण्डल के बाहर के सबसे नजदीकी तारे तक अपनी बात पहुंचा देगे और उसकी खोजर खबर जुटाने की स्थिति में होंगे । 
 सफलता की संभावना
    धरती मानवता का पलना है  पर क्या यह जरूरी है कि हम हमेशा पलने में ही रहेें ? साठ साल पहले जब हमने धरती की कक्षा को पार किया था तो यह आश्चर्यजनक और उत्साह मिश्रित स्मरणीय अवसर    था । चांद को छू लिया और अब मंगल पर हमारे जाने की तैयारी है, यान तो गया । पर इतना सब कुछ होने के बावजूद सितारों को छूने का हमारा सपना अभी तक सपना ही    है । किसी का सशरीर दूसरे सौर मण्डल के किसी तारे पर पहुंचना तो खैर अभी असंभव है । मगर तारों तक मानव निर्मित कोई वस्तु या उपग्रह के बारे में अब लगने लगा है कि भविष्य में सफलता हासिल हो सकती है ।
आशा की किरण सौर ऊर्जा
    सितारों तक जाने में सबसे बड़ी बाधा दूरी है । वॉयेजर १ को १९७७ में लांच किया गया था और कुल ३७ सालों में अपने सौर मण्डल से बाहर निकल सका । सबसे नजदीकी तारा भी हमसे ४.३ प्रकाश वर्ष दूर है । एक प्रकाश वर्ष का अर्थ है एक साल में प्रकाश द्वारा तय की गई दूरी । लगभग तीन लाख प्रति कि.मी. की गति से प्रकाश एक वर्ष में ९५ खरब कि.मी. दूरी नाप लेता है । आज सबसे तेज गति का अंतरिक्ष यान प्रकाश की गति का अधिकतम ०.०६ प्रतिशत ही पा सकता है । ऐसे में हम दस बीस तो क्या सैकड़ों साल में भी वहां पहुंचने में कामयाब नहीं होने वाले । जाहिर है एक यात्रा में कई जीवन लग जाएंगे । ऐसे में दो ही रास्ते है या तो बतौर यान धरती का कोई विशाल हिस्सा भेजा जाए जिसमें लोग जीवनयापन करते बीसियों पीढ़ियों बाद सितारों पर पहुंचे, या फिर इतना सूक्ष्म यान हो कि उसे अत्यधिक तीव्र गति से बेहद कम समय में सितारों तक पहुंचाया जा सके । दूर जाना है तो ज्यादा ईधन चाहिए जो भार बढ़ाकर गति कम कर देगा । ऐसे में आशा की किरण बनी है सौर ऊर्जा ।
मददगार सौर पाल
    शोधार्थी ५० साल से इस सिद्धांत पर काम कर रहे हैं कि सौर ऊर्जा अंतरिक्ष यात्रा के लिए सबसे हलका और मुफीद ईधन हो सकता  है । फोटान या प्रकाश कणों से धक्का मारकर संवेग पाने की अवधारणा नई नहीं है । फोटोनिक्स विभाग के विज्ञानी डायरेक्ट एनर्जी सिस्टम पर काम कर रहे हैं । यह लेसर से आगे की चीज है जो एक तरह से लेसर प्रक्रियाआें का समूह है । वे इससे क्षुद्र ग्रहों को निशान बनाकर इन्हें नष्ट करेंगे ।
    इसी विध्वसंक सोच में अंतरग्रहीय यात्रा की गुत्थी का सुलझाव भी मिला है । प्रकाश के कणों या फोटान में संवेग या गति का गुण होता है । यदि कोई चीज उसके रास्ते में आए या उस पर सवार कर दी जाए तो वह उसे ठेल कर गंतव्य तक ले जा सकता है । ऐसे में सूर्य की रोशनी से सोलर सेल या सौर पाल बनाने में अंतरिक्ष यानों के पास सूर्य प्रकाश के रूप में अनंत ईधन होगा । असीमित ईधन से अंतरिक्ष यान खगोलीय दूरियों को पार करने में सक्षम होगा । सौर पाल के सहारे प्रकाश की गति के आसपास की गति पाई जा सकती है । इस तरह नजदीकी तारे तक हम ५-६ साल में पहुंच जाएंगे । पर जो यान भेजा जाए वह बेहद हल्का हो : पतले से कागज सरीखा । इसके लिए स्पेस चिप की कल्पना की जा सकती है ।
४०,००० वेफर स्पेश शिप   
    वेफरसेट मिनिएचर स्पेश क्राफ्ट यानी स्पेश चिप का आकार तो कुल मिलाकर १० सेंटीमीटर का ही होगा और कुल भार एक ग्राम से अधिक नहीं होगा पर इसमें एक सामान्य स्मार्टफोन के बराबर विशेषताएं होगी । कैमरे के साथ सूचना संचार की तमाम खुबियां और कई तरह के सेंसर होंगे । ऊर्जा तो उसे सोलर सेल से मिल ही रही   होगी । किसी रेगिस्तानी और शुष्क तथा ऊंचे स्थान से इसे एक अरब वॉट की लेसर समूह के क्षमता वाले केन्द्र से १०० मिगाबाइट की ताकत से आकाश में प्रक्षेपित किया   जाएगा । जल्द ही अपने सौर पाल के सहारे प्रकाश की बीस फीसदी गति पा लेंगे । तमाम प्रयोगों के बाद पाया गया कि यदि एक ग्राम का स्पेश चिप हो और उसे एक मीटर के सौर पाल से भेजा जाए तो वह चौथाई प्रकाश गति से सफर करता हुआ आधे घंटे में मंगल पहुुंच जाएगा और २० साल में सबसे नजदीक तारे अल्फा संटौरी तक । यही नहीं इस तरह के लेसर समूह वाले विशाल सौर पाल से १०० टन का स्पेस क्राफ्ट भी भेजा जा सकता है पर उसे अल्फा संटौरी तक पहुंचने में २२,००० साल लगेंगे ।
    इसलिए अभी यह सोचना फिजूल है । फिलहाल अगले दो दशक के भीतर तैयार होने वाला उपग्रह नैनो ही सही पर एक बार प्रयोग सफल होने के बाद हर साल हम ऐसे ४०,००० वेफर स्पेश शिप लांच कर सकते हैं, जिनसे अलग-अलग तरह की सूचनाएं हासिल की जा सकती   है ।
२०५० तक संदेशों की उम्मीद
    यूरी गगरिन जिस साल अंतरिक्ष में पहुंचे थे यूरी मिलनर उसी साल पैदा हुए थे । मिलनर का नाम यूरी उसी खुशी में रखा गया था । आज यूरी भी सितारे छूने की बात कह रहे है । रूसी धनपति यूरी मिलनर, भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग और  फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग ने मिलकर स्टार शॉट कार्यक्रम लांच किया है । उद्देश्य है सितारों तक पहुंचना । इस परियोजना में मिलनर ने शुरूआती १० करोड़ डॉलर लगा दिए हैं । मिलनर और उनका इंस्टीट्यूट नोदक या ईधन के लिए एंटी मैटर पर भी दांव लगाने जा रहे हैं ।
    भौतिकविदों का कहना है कि तकनीकी तौर पर संभव है और बहुत सस्ता पड़ेगा । हम निकट भविष्य में ही तारे पर स्पेश शिप और स्पेश चिप भेजने जा रहे हैं । मिलनर के विचार में वाकई  दम है और यह विश्वसनीय भी है । प्रकाश कणों के सहारे सितारों तक पहुंचना भले ही अभी अवधारणा के स्तर से जस ही आगे हो पर भौतिकी के सिद्धांत इसका सर्मथन करते हैं ।
तकनीकी चुनौतियां
    फिलहाल इन व्यावहारिक समस्याआें का कोई जवाब अभी नहीं है कि इतने छोटे से स्पेश क्राफ्ट को अंतरग्रहीय धूल से टकरा कर खत्म होने से बचाने के लिए किया जाएगा या फिर इसकी गति कम करने या यान को रोकने की क्या तकनीक    है ? इस परियोजना के लिए यूरी मिलनर के निवेश वाले एक      अरब डॉलर तो शोध में ही स्वाहा   हो  जाएंगे । फिर आगे क्या      होगा ?
    इस रास्ते में अभी बहुत सी तकनीकी चुनौतियां हैं, विकास के तमाम काम होने है । उधर वैज्ञानिक इसका परिणाम अपने जीवन काल में ही देखना चाहते हैं । पर सौर पाल के बारे में शोध और उसके विकास और वेफर सेट के निर्माण के लिए यदि एक दशक दिया जाए तथा सबसे नजदीकी सितारे तक पहुंचने का समय इसमें और जोड़ दे तो यह समय तीस साल बैठता है । इसका मतलब यदि हम सही दिशा में लगातार सफलता पाते हैं तो २०५० से पहले सितारों से संदेशा मिलने की उम्मीद कर सकते है ।
वनस्पति जगत
स्वास्थ्य रक्षक घरेलु पौधे
डॉ. किशोर पंवार
    सोशल मीडिया एक शक्तिशाली साधन है । इसने सूचनाआें के संसार को द्रुतगामी एवं सर्वसुलभ बना दिया है । परन्तु हर तकनीक के दो पहलू होते हैं । ऐसा ही कुछ इन दिनों सोशल मीडिया के साथ हो रहा है । पिछले कुछ दिनों से वाट्सएप पर एक जानकारी साझा कीं जा रही है । इसमें घरों में लगाए जाने वाले इन डोर प्लांट को जहरीले एवं प्राणघातक बताया जा रहा है । कहा तो यह भी जा रहा है कि इनमें से कुछ तो ५-१५ मिनट में जान ले लेते हैं । इनमें डंबकेन (डीफनबेकिया), मनी प्लांट, पॉइनसेटिया और ग्लोरी लिली शामिल है । 
     इसके बिलकुल उलट इन सभी पौधों को नासा द्वारा १९८९ में जारी रिपोर्ट में घरेलू प्रदूषण से मुक्ति दिलाने वाले बताया था । विश्व स्वास्थ्य संगठन और एसोसिएटेड लेंडस्केप कॉन्ट्रेक्टर्स ऑफ अमेरिका भी कहते हैं कि घरेलू वायु प्रदूषकों के हानिकारक प्रभाव से बचने के लिए इन्हें अपने घर के अंदर हो सके तो बेडरूम में रखें । जिन घरों और आफिसों में हवा की आवाजाही कम होती है और एअरकंडीशनरों के चलते प्राकृतिक हवा का प्रवेश नहीं हो पाता वहां रहने व काम करने वाले लोग सिक बिल्डिंग सिड्रोम से पीड़ित हो जाते हैं । इसमें एलर्जी, सिरदर्द, चक्कर आना, जी घबराना और कैंसर तक हो सकता है । स्वास्थ्य के लिए हानिकारक घरेलू प्रदूषकों में फॉमल्डिहाइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड्स तथा कार्बन मोनोऑक्साइड के अलावा कुछ जैविक प्रदूषक भी शामिल हैं । जैविक प्रदूषकों में धूल, फफूंद और परागकण जैसे एंटीजेन शामिल हैं ।
    फार्मेल्डिहाइड गैस कालीनों, पार्टिकल बोर्ड, व्यक्तिगत केअर उत्पाद, लम्बे समय तक टिकी रहने वाली सुंगधियों आदि से निकलती है और आंख, नाक, गले में एलर्जी पैदा करती है और केंसरकारी भी है । बेंजीन, जायलीन, टालुइन जैसे वाष्पशील कार्बनिक पदार्थ एअर फ्रेशनर्स, फर्नीचर, कालीनों, हेअर स्प्रे और अन्य विलायकों से निकलते हैं । ये आंख, नाक, गले को उत्तेजित करते हैं तथा लीवर, किडनी और दिमाग की कोशिकाआें के लिए हानिकारक है ।
    कार्बन मोनोऑक्साइड और नाइट्रोजन डाईऑक्साइड गैसें धुएं में पाई जाती है । ये गैसें, सिरदर्द, एकाग्रता में कमी, उल्टी, फेफड़ों और आंख में जलन पैदा करती है ।
    घरेलू सजावटी पौधे एवं उनके गमलों में रखी मिट्टी जैविक प्रदूषकों से भी हमें बचाती है । मिट्टी में यदि एक्टीवेटेड चारकोल मिला हो तो ये पौधे ज्यादा अच्छी तरह से प्रदूषण निवारण का कार्य करते हैं । प्रति १०० वर्गफुट के हिसाब से कमरे में एक ऐसा पौधा रखा जाना चाहिए ।
    घरो-आफिसों में जिन पौधों को लगाने की पैरवी वैज्ञानिक संस्थानों ने की है उनमें डंबकेन, ग्लोरी लिली, हार्टलीफ फिलोडेंड्रान, पीस लिली, फ्लेमिंगो लिली, स्पाइडर प्लांट, स्नेक प्लांट और ग्वारपाठा (ऐलोवेरा) शामिल है ।
    मैं वनस्पति शास्त्र का शिक्षक हॅू अत: आजकल मुझे रोज ऐसे फोन आ रहे हैं । क्या वाट्सएप पर साझा की जा रही बातें सच हैं ? क्या डंबकेन, पॉइनसेटिया, मनी प्लांट सचमुच जहरीले हैं ? ये तो सालों से हमारे ड्राइंग रूम और बगीचों की शोभा बढ़ा रहे हैं । मगर लोग सचमुच इनसे परहेज करने लगे हैं । ठेलों पर पौधे बेचने वालों ने बताया कि जो डंबकेन पहले लोग महंगा होने पर भी खरीदते थे, अब नहीं खरीद रहे हैं । मेरे कॉलेज में केशवनाम का माली पिछले ३० सालों से पौधों की देखभाल, रख-रखाव कर रहा है । पिछले दिनों ही उसने डंबकेन के एक बड़े पौधे को काट-छांटकर दूसरे छोटे-छोटे गमलों में लगाया है । उसके पास एन्ड्राइड फोन नहीं है । अन्यथा वह भी यह काम करने से मना कर देता । घर पर म्ें तीन-चार तरह के मनीप्लांट और लाल-पीले-सफेद पॉइनसेटिया की देखभाल करता हॅू । मुझे आज तक कोई परेशानी नहीं हुई ।
    आइए इंटरनेट पर घरेलू प्रदूषण को कम करने वाले पौधों की जानकारी को देखते हैं । नासा के अनुसार ये पौधे हैं - ऐलो वेरा, स्पाइडर प्लांट, स्नेक प्लांट, गोल्डन पॉथोस, पीस लिली, फ्लेमिगो लिली, ड्रेसीन, वीपिंग फिग, बैम्बू पाम औश्र डम्बकेन । ये सभी फामल्डिहाइड, बेंजीन, जायलीन, अमोनिया और कार्बन मोनोऑक्साइड का सफाया करते हैं ।
    * ऐलो वेरा (ग्वारपाठा) से तो आप परीचित ही हैं ।
    * स्पाइडर प्लांट - वनस्पति विज्ञान में इसका नाम है क्लोरोफाइटम कोमोसम है । धोली मूसली इसका ही एक प्रकार है । इसकी बहुत सुन्दर हैंगिग बास्केट बनती है ।
    * स्नेक प्लांट - इसे मदर-इन-लॉज टंग भी कहते हैं और यह सूखे पर्यावरण में भी फलता-फूलता है । इसके स्टोमेटा (पत्तियों के रंध्र) रात में खुलते हैं, अत: रात में भी यह बखूबी अपना काम करता रहत है ।
    * गोल्डन पॉथोस - मनीप्लांट जैसा पौधा है जिसकी पत्तियां सुनहरी हरी आभा लिए रहती है । इसमें भी डंबकेन और मनीप्लांट की तरह सुई जैसे रेफाइड्स होते हैं ।
    * पीस लिली और फ्लेमिंगो लिली - एक का पुष्पक्रम सफेद है तो दूसरे का फ्लेमिंगो पक्षी की चोंच के रंग का ।
    * ड्रेसीन - यह भी एक परिचित सजावटी पौधा है जिसके कई प्रकार मिलते हैं । रेकनेक ड्रेसीना, रेड मार्जिन ड्रेसीनो आदि ।
    * वीपिंग फिग - इसका वैज्ञानिक नाम फाइकस बेंजामिना   है । यह एक सुन्दर गहरी हरी चमकदार पत्तियों वाली झाड़ी है । न काटे तो पेड़ बन जाता है ।
    * बैम्बू पाम - खजूर जैसी पत्तियों वाले इस पौधे का वनस्पति वैज्ञानिक नाम है चेमिडोरिया सेफ्रिटिजी ।
    * डम्बकेन - सबसे ज्यादा चर्चा वाट्सएप पर इसी की है । नाम है डिफेनबेकिया । इसके कई प्रकार हैं - बड़े-बड़े चितकबरे पत्तों से लेकर गहरे हरे व सुनहरे पत्तों तक ।
    सवाल यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन और नासा की रिपोर्ट पर भरोसा करें या वाट्सएप पर चल रहे मेसेजों पर । मेरा सुझाव है कि सुनी सुनाई बातों पर भरोसा न करे । जरा इंटरनेट को खंगाले, थोड़ा पढ़े पढाएं ।
    इनमें से अधिकांश पौधे छाया प्रिय हैं, अत: कम धूप और कम पानी में अच्छी तरह से वृद्धि करते हैं । ये जिन हानिकारिक प्रदूषकों को हवा से हटाते है वे प्रकारान्तर से इनके भोजन का हिस्सा बन जाते हैं । रही बात डम्बकेन, मनीप्लांट और गोल्डन पॉथोस में सुइयों की जिनकी वजह से इन्हें जहरीला और प्राणघातक बताया जा रहा है तो तथ्य यह है कि ये सुइयां कैल्शियम ऑक्सलेट से बनी होती है । इन दिनों आप बड़े चाव से अरबी के पत्तों के भजिए वगैरह खा रहे हैं । उनमें भी ये सुइयां भरी पड़ी हैं । उन्हें पकाकर खाने से किसी की जान नहीं गई । बस इतना है कि ठीक से पकाया न जाए तो ये मुंह और गले में चुभती है । मगर डम्बकेन, मनीप्लांट और गोल्डन पॉथोस खाने को कौन कह रहा है ? मेरा तो कहना यही है कि इन्हें छूने से कुछ नहीं होता । हां इसमें इस बात की सावधानी जरूर रखें कि इनका रस आंखों में न जाए ।
    दरअसल ये सभी खूबसूरत इनडोर पौधे आपको वायु प्रदूषकों से बचाते हैं । थोड़ी सावधानी तो जरूरी है ही चाहे डंबकेन हो, कनेर या दूध भरा आंकड़ा । विशेषकर बच्चें से   इन्हें दूर रखे । उन्हें इनके बारे में बतलाएं । इनकी अच्छाइयां भी और सावधानियां भी । किसी भी अनजान पौधों को न चखे, न छुएं । ये  आपकी सेहत का ख्याल ऐसे ही रखते रहेंगे ।
 पर्यावरण परिक्रमा
    दुनिया की ९० फीसदी आबादी जहरीली हवा में सांस ले रही है । यानी हर १० में से ९ लोग प्रदूषित वायु में रह रहा है । हर साल करीब ६० लाख मौतें प्रदूषित हवा से हो रही है । भारत, चीन, मलेशिया और वियतनाम समेत दक्षिणपूर्व एशिया और पश्चिमी प्रशांत देश  सबसे ज्यादा प्रभावित है । जल्द ही कड़े फैसले नहीं लिए तो हालात और बदतर हो जाएंगे । ये जानकारी डब्ल्यूएचओ ने अपनी ताजा रिपोर्ट में दी है जो उन्होनें पिछले दिनों जारी की है ।
    डब्ल्यूएचओ के सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण विभाग की प्रमुख मारिया नियरा का कहना है कि हालिया आंकड़े डरावने है । शहरों की हवा बेहद ही प्रदूषित है । हालांकि ग्रामीण इलाकों की भी हालत अच्छी नहीं है । संगठन ने दुनियाभर में १०३ शहरों के ३हजार अलग-अलग हिस्सों में हवा की गुणवत्ता की जांच की । २००८ से २०१५ के बीच किए गए इस सर्वे में ये जानकारी सामने आई कि इन जगहों में प्रदूषित हवा के लिए जिम्मेदार कारण डब्ल्यूएचओ  द्वारा तय सीमा से अधिक थे । जानकारों का कहना है कि जिस तरह से दुनिया के देश विकास के एजेडे को आगे बढ़ा रहे हैं, उसका सीधा असर पर्यावरण पर हो रहा है ।
    रिपोर्ट में बताया गया वायु प्रदूषण के चलते हर साल करीब ६० लाख लोगों की मौत होती है । सालाना ३० लाख मौतें बाहरी वायु प्रदूषण से हो रही हैं । हालांकि भीतरी वायु प्रदूषण भी कम घातक नहीं है खासकर गरीब देशों में जहां घरों में लकड़ी को जलाने में खाना पकाया जाता है । डब्ल्यूएचओ  का कहना है कि वायु प्रदूषण से करीब ९० फीसदी मौतें कम और मध्यम आय वाले देशों में होती है । भारत, चीन, मलेशिया और वियतनाम समेत दक्षिणपूर्व एशिया और पश्चिमी प्रशांत देश ज्यादा प्रभावित है ।
    डब्ल्यूएचओ  की इस रिपोर्ट  में १.४० करोड़ से ज्यादा जनसंख्या वाले शहरों में दिल्ली सबसे प्रदूषित  थी । इसके बाद काहिरा और ढाका का नम्बर था । रिपोर्ट के अनुसार वायु प्रदूषण की प्रमुख वजह परिवहन बताई गई थी । इसके अनुसार, वाहन संख्या कम कर, साइक्लिंग, पैदल चलने और सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देकर हवा की गुणवत्ता सुधारी जा सकती है । इमारतों को ठंडा और गरम करने वाले उपकरण भी जिम्मेदार है ।
अवैध खनन को लेकर कलेक्टरों को नोटिस
    पिछले दिनों राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण में जस्टिस दलीप सिंह एवं एसएस गरब्याल की भोपाल बेंच ने विनायक परिहार की याचिका पर सुनवाई करते हुए आठ जिलों के कलेक्टरों को आदेश जारी करते हुये नर्मदा नदी में प्रतिबंध की अवधि में हो रहे अवैध रेत खान पर विस्तृत रिपोर्ट मांगी है ।
    याचिकाकर्ता विनायक परिहार ने न्यायाधिकरण द्वारा गठित  एसआईटी की रिपोर्ट के आधार पर माइनिंग कार्पोरेशन के अधिपत्य वाली नर्मदा नदी की रेत खदानों में बिना पर्यावरण स्वीकृति के नदी के अंदर हो रहे नियम विरूद्ध खनन के प्रमाण प्रस्तुत किए । इसे स्वीकार करते हुये एनजीटी ने नरसिंहपुर, होशंगाबाद, हरदा, सीहोर, खरगोन, धार, अलीराजपुर और बड़वानी के जिला प्रशासन से नर्मदा नदी में प्रतिबन्ध के बाद भी पानी के अंदर नाव से हो रहे खनन पर की गई कार्यवाही का पूरा विवरण एक सप्तह के अंदर मांगा है ।
    न्यायाधिकरण ने सभी जिलों की तहसील/गांव अनुसार उपयोग होने वाली समस्त नावों के संबंध में अनेक मालिक और चलाने वाले का विवरण और उनको जिला प्रशासन से नाव उपयोग की अनुमति की जानकारी भी मांगी है । बिना अनुमति के चलने वाली नावों को तत्काल जप्त् करने के निर्देश भी सभी जिलों को दिये गए है । इस संबंध में सभी जिला कलेक्टरों को राजस्व अधिकारियों का एक दल बनाने के भी आदेश दिए गए है ।
    इसमें एसडीएम, एसडीओपी, माइनिंग अधिकारी एवं संबंधित क्षेत्र के तहसीलदार को शामिल करने के निर्देश है । इस जांच दल को अवैध खनन और उसमें उपयोग होने वाले उपकरणों सहित जहां तहां जमा रेत के भण्डारों को भी जप्त् करने के आदेश दिये है । जल्दी ही रेत उत्खनन पर प्रतिबंध की अवधि में अवैध खनन, परिवहन व भंडारण आदि के प्रकरणों में जप्त् किए समस्त उपकरणों, नाव तथा रेत भंडारों को बिना एनजीटी की अनुमति के छोड़ने पर भी प्रतिबंध लगाया गया है । सरकारी अधिवक्ता सचिन वर्मा को सभी जिला कलेक्टरों को इस आदेश की प्रति भेजने को कहा गया है । न्यायाधिकरण की सुनवाई में याचिककर्ता के अधिवक्ता धर्मवीर शर्मा के अलावा माइनिंग कार्पोरेशन व सरकार की ओर से सचिन वर्मा, राज्य प्रदूषण नियंत्रण मण्डल से पारूल भदोरीया, सिया से पुष्पेन्द्र कौरव तथा केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मण्डल से ओमशंकर श्रीवास्तव उपस्थित रहे ।
थाली मेंबचे खाने को बचाने के लिए बने कानून
    अकसर शादी, जन्म दिवस व अन्य आयोजनों के दौरान दी जाने वाली भोज पार्टी सहित होटलों में लोग भोजन प्लेट में छोड़ देते हैं, जिसे फेंक दिया जाता है । इसे बचाने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है ।
    पिछलों दिनों इन्दौर के दो युवाआें द्वारा दायर इस याचिका में कुपोषण व भुखमरी के आंकड़े पेश करते हुए कहा है कि जब फ्रांस, इटली सहित अन्य देश फूड सैफ्टी पर कानून बना सकते हैं, तो हमारा देश क्यों नहीं ? याचिकाकर्ताआें ने गुहार लगाई है कि कोर्ट सरकार को इस बारे में कानून बनाने के निर्देश दे या खुद आवश्यक गाइड लाइन जारी करे ।
    यह याचिका इन्दौर के आकाश आर.शर्मा व प्रकाश राठौर ने दायर की है । इसमें बताया है कि फ्रांस व इटली में बने कानून में प्रावधान है । यदि किसी भी प्लेट में खाना छोड़ा या दुरूपयोग किया तो उस पर भारी जुर्माना लगाया जाता   है । हमारे देश को इस तरह के कानून की ज्यादा जरूरत इसलिए भी है क्योंकि विश्व की भुखमरी व कुपोषण मामले में भारत का हिस्सा लगभग एक तिहाई है । उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, विश्व में लगभग ७० लाख लोग कुपोषण व भुखमरी का शिकार है, जिनमें भारत के १९.४ लाख लोग शामिल है ।
    याचिका में कहा गया है कि हमारे देश में शादी व अन्य समाराहों पर होने वाले भोज में कई बार इतने अधिक व्यंजन होते हैं कि इसका बड़ा हिस्सा खराब होने में चला जाता है । चूंकि भोज में खाने के कितने आइटम रखे जाएंगे, इसे लेकर कोई गाइडलाईन या कानून नहीं है, इसके चलते लोग अपनी क्षमता अनुसार मनमाने तरीके से स्टाल्स लगवाते   है । इस कारण लोगों की प्लेट में खाने की बर्बादी होती है । इसी तरह तमाम होटल व रेस्टोरेंट में भी लोग काफी तादाद में झूठा छोड़ते हैं । यह बर्बाद होने वाला भोजन बचे तो देश के करोड़ों लोगों को भूखे मरने से बचाया जा सकता है ।
गंगाजल में रोग मिटाने की क्षमता
    हिन्दुस्तान के करोड़ों लोगों की आस्था का प्रतीक गंगा के पानी में रोगों से लड़ने की अद्भूत क्षमता है । सदियों से चली आ रही इस मान्यता को अब एक नए अध्ययन से भी बल मिला है । इस अध्ययन में कहा गया है कि गंगा में आज भी टीबी और न्यूमोनिया जैसी बीमारियों से लड़ने की क्षमता है ।
    चण्डीगढ़ के इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्रोलॉजी (इमटेक) के वैज्ञानिकों ने यह अध्ययन किया    है । वैज्ञानिकों ने पहली बार गंगा में रोगों को ठीक करने की क्षमता का पुख्ता सबूत भी अपने अध्ययन के साथ पेश किया है । उन्होनें अध्ययन में पाया कि गंगा के पानी में ऐसे नए किस्म के वायरस और बैक्टीरिया होते हैं, जो पानी में गंदगी करने वाले बैक्टीरिया को खा जाते हैं ।
    विज्ञान की दुनिया के लिए गंगा अरसे से अबूझ पहेली बनी हुई थी । हालांकि, कुछ शोधों में यह पहले भी कहा गया था कि गंगा में सड़न पैदा नहीं होने की खास गुण   है । इसका पानी कभी सड़ता नहीं   है । लोग इसका पानी बोतलें में वर्षो से लेकर रखते है ।
रूस की ओर खिसक रहा है क्रीमिया
    वर्ष २०१४ मेंरूस ने यूक्रेन पर हमला करके उसके मुख्य शहर क्रीमिया पर कब्जा कर लिया था । उसके बाद से ही यूक्रेन विभाजित हो गया और क्रीमिया शहर पर हमेशा-हमेशा के लिए रूस का कब्जा हो गया । अब आश्चर्यजनक खबर यह आई है कि क्रीमिया शहर धीरे-धीरे रूस की ओर खिसक रहा है और एक दिन ऐसा भी आएगा, जब वह पूरी तरह रूस में समाहित हो जाएगा।  हालांकि इसमें थोड़े बहुत नहीं, १५ लाख साल लगेंगे ।
    क्रीमिया के खिसकने का दावा रूस के ही वैज्ञानिकों ने किया है । रशियन सांइस एकेडमी के प्रमुख एलेक्जेडंर इपातोव कहते है क्रीमिया पर रूस का कब्जा है, लेकिन वास्तव में वह रूस की ओर खिसक रहा  है ।
विज्ञान हमारे आसपास
पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत कैसेहुई ?
डॉ. अरविन्द गुप्त्े

    सब जीवों की विशेषता यह है कि वे प्रजनन कर सकते हैं यानी अपनी प्रजाति की संख्या बढ़ा सकते हैं । इसका कारण यह है कि जीवों के शरीर में ऐसे पदार्थ से बने होते हैं जिनमें अपने आसपास से पोषण से लेकर अपने शरीर में वृद्धि करने की और फिर  इस शरीर से अपने समान अन्य जीवन बनाने की क्षमता होती है । प्रश्न यह है कि पृथ्वी पर ऐसा पदार्थ सबसे पहले बना कैसे ? दूसरे शब्दों में, पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत कैसे हुई ?
    इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए कई वैज्ञानिक वर्षो से जुटे हुए हैं । रसायन शास्त्री अरेनियस ने यह सुझाव दिया था कि जीवन की शुरूआत किसी अन्य ग्रह पर हुई थी और फिर वहां से जीव बीजाणुआें यान स्पोर्स के रूप में पृथ्वी पर आए । किन्तु यह जीवन की उत्पत्ति की नहीं बल्कि इस बात की व्याख्या है कि जीव कैसे फैले । 
     उन्नींसवीं शताब्दी तक कई लोग यह सोचते थे कि निर्जीव पदार्थो से जीव अपने आप पैदा हो जाते है, जैसे गोबर से इल्लियां या कीचड़ से मेंढ़क बन जाते हैं । किन्तु फ्रांस के वैज्ञानिक लुई पाश्चर ने दिखा दिया कि यह संभव नहीं है । केवल एक जीव से ही दूसरा जीव पैदा हो सकता है । सन १८७१ में अंग्रेज वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने सुझाव दिया कि जीवन की शुरूआत संभवत: गुनगुने पानी भरे एक ऐसे उथले पोखर में हुईर् होगी जिसमें सब प्रकार के अमोनिया और फॉस्फोरिक लवण होंगे जिन पर प्रकाश, ऊष्मा और विद्युत की क्रिया होती रही होगी । इससे एक प्रोटीनयुक्त यौगिक बना होगा जिसमें और परिवर्तन होकर पहले जीव बने होगे ।
    वर्ष १९२४ में रूसी वैज्ञानिक अलेक्जेड़र ओपारिन ने यह तर्क दिया कि वातावरण में स्थित ऑक्सीजन कार्बनिक अणुआें के संश्लेषण को रोकती है और जीवन की उत्पत्ति के लिए कार्बनिक अणुआें का बनना अनिवार्य है । किसी ऑक्सीजनरहित वातावरण में सूर्य के प्रकाश की क्रिया से कार्बनिक अणुआें का एक आदिम शोरबा (प्राइमीवल सूप) बन सकता है । इनसे किसी जटिल विधि से संलयन (फ्यूजन) हो कर नन्हीं बूंद बनी होगी जिनकी और अधिक संलयन से वृद्धि हो कर ये विभाजन के द्वारा अपने समान अन्य जीव बना सकती होगी । लगभग इसी समय अंग्रेज वैज्ञानिक जे.बी.एस. हाल्डेन ने भी इसी से मिलता-जुलता सुझवा दिया है । उनकी परिकल्पना के अनुसार उस समय पृथ्वी पर स्थित समुद्र आज के समुद्रों की तुलना में  बहुत भिन्न रहे होंगे और इनमें एक गरम पतला शोरबा बना होगा जिसमें ऐसे कार्बनिक यौगिक बने होगे जिनसे जीवन की इकाइयां बनती    है ।
    सन् १९५३ में स्टेनली मिलर नामक विद्यार्थी ने अपने प्रोफेसर यूरी के साथ मिलकर एक प्रयोग किया जिसमें उन्होनें मीथेन, अमोनिया और हाइड्रोजन के मिश्रण में अमीनो अम्लों का निर्माण करवाने में सफलता पाई । इससे ओपारिन के सिद्धांत को लगभग सभी वैज्ञानिकों के द्वार मान्य किया जाता है । फिर भी समय-समय पर नए-नए सिद्धांत प्रस्तुत किए जाते हैं । अलबत्ता, कुछ बातों पर आम सहमति है, जैसे :-
    पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत लगभग ४ अरब वर्ष पहले हुई थी । उस समय के समुद्रों के पानी का संघटन आज के समुद्रों के पानी से बहुत भिन्न था । शुरूआत में पृथ्वी के वातावरण में ऑक्सीजन नहीं थी, धीरे-धीरे ऑक्सीजन बनती गई और अंतत: वह वर्तमान स्तर तक पहुंची । ऑक्सीजन बनाने का काम हरे पौधे करते हैं जो प्रकाश संश्लेषण के दौरान वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड ले कर ऑक्सीजन छोड़ते हैं । पृथ्वी पर सबसे पहले विकसित होने वाले हरे पौधे सायनोबैक्टीरिया नामक हरे शैवाल थे । अत: यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सबसे पहले बनने वाले जीव ऑक्सीजन की सहायता से श्वसन नहीं करते थे, अपितु अनॉक्सी श्वसन में काम चलाते थे । आजकल के अधिकांश जीवों को ऑक्सीजन की आवश्यकता पड़ती है ।
    पृथ्वी पर शुरूआती कार्बनिक अणुआें के निर्माण के पीछे निम्नानुसार तीन प्रकार की शक्तियां काम कर रही होगी :
    १. अकार्बनिक पदार्थो से कार्बेनिक पदार्थो का निर्माण पराबैंगनी किरणों या आसमानी बिजली की चिंगारियों से संभव हुआ होगा ।
    २. अंतरिक्ष से आने वाले उल्का पिण्डों के साथ जीवाणुआें का आना ।
    ३. उल्का पिण्डों के लगातार गिरने से होने वाले धमाकों की ऊर्जा से कार्बनिक पदार्थो का संश्लेषण ।
    जीवन की उत्पत्ति के बारे में सबसे ताजा सिद्धांत अमेरिका की जेट प्रोपल्शन प्रयोगशाला से आया है । यहां कार्यरत प्रोफेसर माइकल रसल का तर्क है कि जीवन की शुरूआत समुद्र की गहराइयों में स्थित गरम पानी के फव्वारों में हुई । किस्सा यह है कि १९७७ में प्रशांत महासागर में कार्यरत एक तैरती प्रयोगशाला ने पाया कि बहुत गहरे समुद्र के तल में दरारें है । इन दरारों में से निकलने वाले पानी का तापमान ४००० डिग्री सेल्सियस होता है । इन दरारों को ऊष्णजलीय दरारें (हाइड्रोथर्मल वेन्ट्स) कहते है । पृथ्वी का तल कई प्लेटों से मिलकर बना है । ये प्लेटे खिसकती और एक-दूसरे से टकराती रहती है । जब दो प्लेंटे टकराती है तब पृथ्वी की सतह हिलती है यानी भूकंप होता है ।
    किन्तु समुद्र की गहराइयों में दो प्लेटों के बीच स्थित ऊष्णजलीय दरारों में से रिस कर समुद्र का पानी अंदर जाता है । यहां उसका सामना पृथ्वी की गहराइयों में स्थित पिघली हुई चट्टानों (मैग्मा) से होता है । इनके मिलने से पानी का तापमान ४००० डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है किन्तु वह उस गहराई में स्थित विशाल दाब के कारण भाप नहीं बन पाता और ऊपर की ओर उठता है । जब यह बहुत अधिक गरम और क्षारीय पानी बाहर आकर गहरे समुद्र में स्थित बहुत अधिक ठंडे पानी से मिलता है तब कई खनिज पदार्थ अवक्षेपित हो जाते हैं और एक के ऊपर एक जमा होकर मीनार के समान रचना बनाते हैं । समुद्र के पेदे में इस प्रकार सैकड़ों फीट ऊंची मीनारें बनी हुई है । सन २००० में अटलांटिक महासागर के पंेदे ऐसे पर ऐसी ही मीनारों का एक पूरे शहर के समान जमावड़ा पाया गया ।
    जब इन मीनारों का और अधिक विस्तार से अध्ययन किया गया तब प्रोफेसर रसल को उनके सिद्धांत का आधार मिल गया । होता यह है कि खनिज पदार्थो की मीनारों में स्पंज के समान छिद्र होते हैं । इन छिद्रों में होने वाली रासायनिक क्रियाआें के कारण ऊर्जा बनने लगती है । प्रोफेसर रसल के अनुसार इन छिद्रों में स्थित अकार्बनिक पदार्थो में इस ऊर्जा के कारण कई प्रकार की रासायनिक क्रियाएं होने लगी एवं इनसे पहला जीवित पदार्थ बना । इस जीवित पदार्थ के लिए ऊर्जा का स्त्रोत छिद्रों में ही उपलब्ध होने के कारण उनमें वृद्धि और प्रजनन होने लगे । आज भी समुद्र के पेदे पर स्थित गरम पानी की इन मीनारों में ऐसे जीव पाए जाते हैं जो पृथ्वी की सतह पर और कहीं नहीं मिलते ।
    सवाल यह उठा कि इस सिद्धांत का प्रमाण कैसेजुटाए जाए ? तब प्रोफेसर रसल और उनकी टीम ने अपनी प्रयोगशाला में एक अनोखा प्रयोग शुरू किया । उनकी प्रयोगशाला में ये शोधकर्ता उस क्षण को दोहराने की कोशिश कर रहे हैं जो जीवन के शुरू होने से पहले का क्षण था । समुद्र के पानी से भरे कांच के कई बर्तनों के तलों में लगाई गई सिरिजेस के द्वारा रसायनों का ऐसा मिश्रण छोड़ा जा रहा है जिसका संघटन लगभग उस क्षारीय द्रव के समान है जो ऊष्णजलीय दरारों से निकलता है । जब ये दोनों द्रव मिलते हैं तब खनिज पदार्थ अवक्षेपित हो जाते हैं और मीनार के समान एक रचना बनाते हैं ।  प्रोफेसर रसल को ये मीनारें उनकी परिकल्पना के परीक्षण करने का अवसर दे रही है । उनका कहना है कि केवल कार्बनिक अणुआें का बनना जीवन के निर्माण का आधार नहीं हो सकता । इन अणुआें का केवलबनना पर्याप्त् नहीं है, उनके लिए ऊर्जा के एक स्त्रोत की भी आवश्यकता होती है और इस प्रकार की ऊर्जा उष्णजलीय दरारों पर बनी खनिजों की मीनारों से ही प्राप्त् हो सकती है ।
ज्ञान-विज्ञान
कितनी सफल और उचित है कृत्रिम वर्षा ?
    जब किसी क्षेत्र के लोग सूखे से त्रस्त हो और आसमान से गुजरते बादल पानी न बरसाएं ता ेयह इच्छा उठनी स्वाभाविक है कि किसी तरह इन बादलों से पानी बरसवा लिया जाए । मनुष्य की यही इच्छा विज्ञान के स्तर पर कृत्रिम वर्षा के प्रयासों के रूप में समय-समय पर प्रकट होती रहती   है । 
      दरअसल कृत्रिम वर्षा की तकनीक कोई नई तकनीक नहीं है । लगभग ५० वर्ष या उससे भी पहले से इसके छिटपुट प्रयास होते रहे हैं । इस तकनीक का सबसे प्रचलित रूप यह है कि बादलों पर हवाई जहाज से सिल्वर आयोडाइड का छिड़काव किया    जाए । पर उसके अन्य उपाय भी हैं । बादल पर यह बौछार या क्लाउड सीडिंग करने के लिए अमेरिका में विशेष तरह का ड्रोन विमान भी विकसित किया गया है ।
    इस समय कृत्रिम वर्षा करवाने का सबसे बड़ा कार्यक्रम चीन चला रहा है । जहां लोकतांत्रिक विरोध व न्यायिक हस्तक्षेप की संभावना अधिक है । वजह यह है कि यदि कृत्रिम वर्षा का प्रयोग सफल हो भी जाता है और अधिक वर्षा हो जाती है, तो पास के अन्य क्षेत्रों के लोग शिकायत दर्ज कर सकते हैं कि कृत्रिम ढंग से वह पानी भी बरसा लिया गया जो बादलों ने हमारे यहां बरसाना था । इस तरह की शिकायतें तो कभी समाप्त् नहीं हो सकती और इसके आधार पर मुकदमे भी दर्ज हो सकते है ।
    यह पता लगाना बहुत कठिन होता है कि जो वर्षा हुई वह प्राकृतिक थी या कृत्रिम थी । हो सकता है यह वर्षा सिल्वर आयोडाइड के छिड़काव के बिना भी हो जाती । अर्थात यह पता लगाना भी बहुत कठिन है कि छिड़काव पर जो भारी-भरकम खर्च किया गया वह उचित था या नहीं । दूसरी ओर, कई बार ऐसा भी हुआ है कि सिल्वर आयोडाइड के छिड़काव से भी वर्षा नहीं हुई । यही वजह है कि तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र में कुछ छिटपुट प्रयासों के बावूजद राष्ट्रीय स्तर पर कृत्रिम वर्षा के प्रयास अभी जोर नहीं पकड़ सके हैं ।
    इसके अतिरिक्त एक अन्य संभावना यह बनी हुई है कि युद्ध के दौरान ऐसे प्रयास किए जाएं कि शत्रु देश के किसी विशेष क्षेत्र में कृत्रिम उपायों से भीषण वर्षा करवा दी   जाए । वियतनाम के गुरिल्ला सैनिकों को परेशान करने के लिए ऐसे कुछ प्रयोग किए जाने की चर्चा रही है, हालांकि यह प्रामाणिक तौर पर नहीं पता चल सका है कि ये प्रयास कितने सफल हुए थे । ये प्रयास अधिक सफल रहे तो दूसरे पक्ष के सैनिकों के मार्ग में बाधाएं उत्पन्न की जा सकती है व कृत्रिम बाढ़ की स्थिति भी उत्पन्न की जा सकती है । दूसरी ओर, अपने देश की रक्षा करने के लिए हमलावर सैनिकों को कुछ हद तक रोकने के लिए भी कृत्रिम वर्षा का उपयोग किया जा सकता है ।
    फिलहाल जहां तक शांति काल में सूखाग्रस्त लोगों को राहत देने के लिए कृत्रिम वर्षा के उपयोग का सवाल है, तो यह सुझाव अभी कई समस्याआें से भरा हुआ है । चार-पांच दशकों में यह तकनीक उपलब्ध होने के बावजूद अधिक प्रगति नहीं हुई है और किसी बड़े सूखाग्रस्त क्षेत्र को अभी इससे अधिक राहत नहीं मिल सकी है । इससे पता चलता है कि फिलहाल कृत्रिम वर्षा से बहुत उम्मीदें नहीं की जा सकती । हो सकता है इससे किसी सीमित क्षेत्र में अल्पकालीन सफलता मिल जाए, पर अभी राष्ट्रीय स्तर पर इसे एक व्यापक कार्यक्रम के रूप में अपनाना उचित नहीं होगा ।

यू.के. की आधी प्रजातियों में गिरावट
    वर्ष १९७० से २०१३ के बीच युनाइटेड किंगडम में आधी से ज्यादा जैव प्रजातियों की आबादी में कम देखी गई है । इसके अलावा उनके फैलाव में भी उल्लेखनीय कमी आई है । हालत यह है कि कम से कम १५ प्रतिशत प्रजातियों की संख्या में इतनी कमी देखी गई है कि उनकी विलुिप्त् का खतरा पैदा हो गया है । उपरेाक्त तथ्य हाल ही में प्रकाशित टेस्ट ऑफ नेचर (द्वितीय) रिपोर्ट में व्यक्त किए गए है ।
    इस अध्ययन में ५३ वन्यजीव संगठन शामिल थे । रिपोर्ट में बताया गया कि जिन ४००० जलचर व थलचर प्रजातियों का अध्ययन किया गया उनमें से ५६ प्रतिशत की संख्या अथवा फैलाव     के क्षेत्र मे कमी आई है । कुछ प्रमाण इस बात के भी मिले है कि कम से कम १२०० प्रजातियों के ग्रेट ब्रिटेन से नदारद होने का खतरा है । 
 ृृ    रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रजातियों में गिरावट का मुख्य कारण सघन खेती का प्रकृति पर होने वाला नकारात्मक असर है । रिपोर्ट के मुताबिक खेती में व्यापक बदलाव के चलते कई प्रजातियों के प्राकृतवास तबाह हुए है और पर्यावरण में रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशक रसायनों की मात्रा बढ़ी है । सरकारी कृषि नीतियों के चलते जहां गेहूं व दूध का उत्पादन इस अवधि में दुगना हो गया, वही प्रजातियों के रहवास और भोजन के स्त्रोतों का विनाश हुआ ।
    बदलती कृषि के अलावा जलवायु परिवर्तन और शहरीकरण अन्य प्रमुख कारणों के रूप में उभरे हैं । रिपोर्ट में कृषि सबसिडी पर पुनर्विचार करने की वकालत की गई है क्योंकि इससे जैव विविधता पर असर पड़ रहा है । दूसरी ओर, राष्ट्रीय किसान संगठन के अध्यक्ष ने कहा है कि कृषि में जो भी बदलाव होने थे वे १९९० के दशक तक हो चुके थे ।

एंटीबैक्टीरियल साबुन पर प्रतिबंध
    उपभोक्ताआें को लगता है कि जीवाणु रोधी साबुन और हैण्ड-वॉश सामान्य साबुनों के मुकाबले कीटाणुआें से बचाव में ज्यादा कारगर है मगर इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि ये सामान्य साबुन से बेहतर होते हैं । दरअसल प्रमाण तो यह दर्शात हैं कि ऐसे साबुन फायदे की बजाय नुकसान ज्यादा करते है । यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन की जेनेट वुडकॉक का यह कथन इस संदर्भ में आया है कि अमेरिका में ऐसे साबुनों व अन्य सौंदर्य प्रसाधन सामग्री पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया गया है । भारत में भी ऐसे साबुन और हैण्ड-वॉश काफी संख्या में बिकते हैं और इनका विज्ञापन भी जोर शोर से किया जाता है । 
     वास्तव में यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन ने एंटीबैक्टीरिया साबुनों में इस्तेमाल किए जाने वाले १९ रसायनों पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया है । इनमें से एक प्रमुख रसायन ट्रिक्लोसैन है जिसका उपयोग सर्वाधिक साबुनों, टुथपेस्टों, डियोडोरेंट और क्रीम्स में किया जाता है ।
      ट्रिक्लोसैन का उपयोग १९६० के दशक में सिर्फ अस्पतालों में इस्तेमाल के लिए शुरू किया गया  था । मगर धीर-धीरे सफाई के प्रति जुनून के चलते इसका उपयोग आम उपभोक्ता वस्तुआेंमें होने लगा । २०१० में एक गैर-मुनाफा संस्था नेचुरल रिसार्सेज डीफेंस कौंसिल ने मांग की कि ट्रिक्लोसैन के लाभों और जोखिमों का आंकलन किया जाए ।
    सवाल है कि १९७० से लेकर २०१० के बीच के चार दशकों का अनुसंधान क्या दर्शाता है । जाहं तक मानव स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव का संबंध है, परिणाम मिले-जुले रहे    हैं । 
        अनुसंधान से यह भी पता चला है कि ट्रिक्लोसैन युक्त साबुन और हैण्ड-वॉश एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या को गंभीर बना सकते हैं । जहां साधारण साबुन मात्र इतना करते हैं कि सूक्ष्मजीवों को हाथ से हटा देते हैं, वहां ट्रिक्लोसैन उन्हें मारता है । ताजा अनुसंधान से पता चला है कि ट्रिक्लोसैन बैक्टीरिया की उस प्रक्रिया को निशाना बनाता है जिस पर टीबी की दवा आइसोनि-एजिड भी क्रिया करती है । यदि ट्रिक्लोसैन के अत्यधिक उपयोग से बैक्टीरिया में प्रतिरोध विकसित हुआ तो टीबी का बैक्टीरिया भी प्रतिरोध हो जाएगा । प्रयोगशालाआें में ट्रिक्लोसैन के प्रति प्रतिरोध विकसित होते देखा भी जा चुका है ।
कृषि जगत
खेती किसानी से लुटता किसान
विवेकानंद माथने 
    आज फसल उपजाने, काटने और बेचने के बाद भी किसान ऋणग्रस्तता लगातार बढ़ती जा रही  है । यह लूट ही तो है। भारत के किसान की पैरोकारी न तो यहां की सरकार कुछ कर रही है और ना ही जनता । ऐसे में उसके पास आत्महत्या के अलावा और क्या रास्ता बचता  है ?
    कृषि ऐसा कार्य है जिसके बिना दुनिया रुक जायेगी । पहले किसान एक मालिक की हैसियत से स्वाभिमानी जीवन जीता रहा है क्योंकि कृषि एक राष्ट्रीय कार्य और सामाजिक जिम्मेदारी भी है । कहावत है उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, कनिष्ठ नौकरी । कृषि प्रधान भारत का किसान आज अत्यंत कठिन परिस्थिति का सामना कर रहा है । यह दीर्घकालीन किसान विरोधी नीतियों का परिणाम है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के प्रारंभिक दौर से ऐसी नीतियां जारी हैं । जो बहुसंख्यक किसान और मजदूरोंके जीवन को निरंतर दूभर बना रही है । 
     औद्योगिकीकरण की गलत नीतियों के कारण पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ने से पैदा हुए आसमानी संकट में भी किसान पूरी तरह में फंस गया है ।  
    भारत में कृषि आधारित ग्रामोद्योग व स्वरोजगार की व्यवस्था विद्यमान रही है। यह किसानों को अपनी आजीविका पूर्ति में खेती के अतिरिक्त अवसर प्रदान करती रही । लेकिन कार्पोरेट्स के दबाव में अपनाई गई नीतियों के कारण किसानों से यह काम छीनकर साजिशपूर्ण तरीके से कम्पनियों के हवाले कर दिये गये हैं । अब औद्योगिकीकरण के लिये नये नये तरीके अपनाकर किसानों से जमीन छीनी जा रही हैं ।  जमीन की बेहताशा लूट के कारण कुल कृषि क्षेत्र और प्रति परिवार औसत खेती का क्षेत्र लगातार कम होते जा रहे हैं। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार पिछले बीस साल में देश में कुल कृषि    क्षेत्र में ५ करोड़ हेक्टर की कमी आई है ।
    देश के ७५.४२ प्रतिशत किसानों के पास एक हेक्टर से कम और १० प्रतिशत किसानों के पास एक से दो हेक्टर के बीच जमीन है और केवल ०.२४ प्रतिशत किसानों के पास दस हेक्टर से अधिक खेती का क्षेत्र है । देश में ६० प्रतिशत खेती वर्षा आधारित है ।  
    कृषि उपज बेचने के लिये देश में खुले बाजार में बिक्री या सरकार व्दारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के दरों पर खरीद की व्यवस्था है। दोनों व्यवस्थाओं में किसान को कृषि उपज का उत्पादन खर्च पर आधारित मूल्य प्राप्त नहीं हो सकता । राज्य सरकारों की विविध फसलों के लागत मूल्य निकालने की पद्धति भेदभावपूर्ण, अवैज्ञानिक व अन्यायपूर्ण है। एक अध्ययन के अनुसार सरकार व्दारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम एस पी) वास्तविक लागत खर्च के एक तिहाई के आसपास होता है ।
    एमएसपी वस्तुत: कृषि उपज के दाम नियंत्रित करने का काम करती है। यह संकल्पना ही किसानों के साथ धोखा है । भारत सरकार द्वारा केवल २३ फसलों का (एमएसपी) घोषित किया जाता है । उसमें से मात्र ३ या ४ फसलों को सीमित मात्रा में सरकार खरीदती है । इसके बाद किसान को शोषणकारी बाजार के  भरोसे छोड़ दिया जाता है । जब उपज किसानों के पास आती है तो महंगाई को नियंत्रित करने के लिये समय समय पर आयात-निर्यात शुल्क घटा-बढ़ाकर उपज के दाम गिराये     जाते  हैं । जैसे ही उपज किसानों के हाथ से निकलकर व्यापारी,  कार्पोरेट्स व कम्पनियों के पास पहुंचती हैं, दाम बढ़ जाते हैं । देश में या विदेश में उपज की जमाखोरी करके कृत्रिम रूप से महंगाई बढ़ाई जाती है ।  
    हरित क्रांति के द्वारा कृषि रसायनों और तथाकथित उन्नत संकर बीजों के व्यापार को प्रोत्साहित कर भारत में खाद, बीज, कीटनाशक और कृषि औजारों के बाजार का विस्तार किया गया । इससे खेती के इनपुट में बाजार का प्रवेश व लागत खर्च में एकदम बढ़ोत्तरी हुई । किसानों के जेब से बड़ी रकम कम्पनियों के  पास पहुंचने लगी । कृषि लागत की सारी चीजों की कीमत कम्पनियों के व्दारा निर्धारित होती है, सरकार उस पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं रखती । परंतु किसान यदि कीमतें तय करें तब भी उसके आधार पर बेच नहीं सकता क्योंकि बाजार और सरकारी नीतियां किसान की मजबूरी का लाभ उठाकर हमेशा उसे लूटने के लिये तैयार रहती हैं ।    
    एमएसपी के आधार पर किसान को साल में खेती के काम के लिये मिलने वाली मजदूरी को ३६५ दिनों विभाजित करने पर यह मजदूरी प्रतिदिन केवल २० से ३० रुपये बैठती है जो देश में एक परिवार को जीवनयापन करने के लिये सातवंे वेतन आयोग व्दारा निर्धारित एक दिन के न्यूनतम वेतन के ४ प्रतिशत से भी कम है । देश में प्रत्येक किसान परिवार औसतन ४७००० रुपये का ऋणी है। परिणामस्वरूप दुनिया की भूख मिटाने वाला किसान और उसका परिवार भूखा सोता है। जो कृषि कल तक जीवन का मूलाधार थी, वही उसके गले की फांस बन चुकी है। देश में गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले लोगों में ९५ प्रतिशत संख्या किसानों और उन मजदूरों की है, जो खेती पर निर्भर हैं या खेती से विस्थापित किये गये हैं ।
    भारत में ९० प्रतिशत से अधिक आत्महत्याएं गरीबी से उपजे कारणों से हो रही   हैं । ग्रामीण भारत में किसान परिवारों में हर साल ६० हजार से अधिक आत्महत्याएं हो रही हैं । गत बीस साल में किसान परिवारों में १२ लाख से अधिक आत्महत्याएं हुई     हैं । इनमें से ३ लाख भूमि मालिक किसान शामिल हैं । देश की सरकार किसान की इस बर्बादी से भी संतुष्ट नहीं है। जनता के  विरोध के बावजूद भूमि अधिग्रहण कानून बदलने का प्रयास लगातार जारी है ।
    सरकार किसानों के  अधिकारों के सबंध में विचार करने को ही तैयार नहीं है। वह देश के किसानों के लिये २-३ रुपये किलो में अनाज, या मनरेगा में काम देकर उनका आक्रोश ठ ंडा करना चाहती है। किसानों को वर्ष २००७ में एक बार कर्ज माफी के लिये ७० हजार करोड़ रुपये जारी किये थे । उसका लाभ भी किसानों को कम बैंकों को ही ज्यादा हुआ है । लेकिन भारत सरकार ने सन् २००५-०६ से २०१४-१५ के दौरान कम्पनियों को कम्पनी कर, आमदनी कर, उत्पादन शुल्क और आयात शुल्क में कुल ४५ लाख १७ हजार ४ सौ ६६ करोड़ रुपये याने कि हर साल औसतन ४.५ लाख रुपये की छूट दी है ।
    देश में बैंकों ने कार्पोरेट कम्पनियों का एक लाख करोड़ रुपयों से ज्यादा कर्ज माफ किया है। केंद्र सरकार अपने केवल १ करोड़ कर्मचारियों के वेतन और भत्तों पर हर साल ५.५ लाख करोड़ याने कुल बजट के लगभग २८ प्रतिशत से अधिक राशि खर्च करती है। लेकिन कृषि प्रधान कहे जाने वाले भारत मंे किसान और कृषि का बजट कुल बजट के २ प्रतिशत से कम है ।   
    देश की सरकार किसान और खेती-किसानी के इस गंभीर संकट के निराकरण के लिये जो उपाय कर रही है, वह किसानों के लिये और भी अधिक खतरनाक साबित होने वाले हैं । विश्व व्यापार संगठन के दबाव में आकर सरकार दूसरी हरित क्रांति के द्वारा कृषि में तंत्रज्ञान और पूंजी को और अधिक बढ़ावा देने के लिये प्रयास कर रही है । वह कॉन्ट्रॅक्ट फार्मिंग, कॉर्पोरेट फार्मिंग, कृषि यंत्रीकरण, तंत्रज्ञान, और जीएम फसलों को बढ़ावा देकर कृषि संकट का हल निकालना चाहती है। जीएम तकनीक के माध्यम से जैवविविधता, पारंपरिक बीजों को समाप्त करके बीजों पर कम्पनियों का एकाधिकार स्थापित करके किसानों को बीज के लिये कम्पनियों के भरोसे सौंपा जा रहा है ।
    इससे किसानों की लूट और बढ़ जायेगी, कृषि लागत खर्च में और बढ़ोत्तरी होगी, जैव विविधता प्रभावित होगी और जनता के भोजन में जहर परोसने का काम होगा । दूसरी तरफ सरकार विश्वबाजार से खाद्यान्न खरीदकर की आपूर्ति का विचार कर रही है। इससे देश की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता समाप्त  होगी ।
विशेष लेख
खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण एवं दाले
तारादत्त जोशी
    दालें पूरे विश्व में भेाजन का महत्वपूर्ण अवयव हैं । स्वास्थ्य को पोषकता प्रदान करने, भूमि की उर्वरता बनाये रखने और पर्यावरण को सुरक्षा प्रदान करने की दालों में अद्भूत शक्ति है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष २०१६ को अन्तर्राष्ट्रीय दाल वर्ष घोषित किया है ताकि जनमानस में दालों की पोषकता, भूमि की उर्वरता एवं खाद्य सुरक्षा की दृष्आि से जागरूकता पैदा की सके ।
    जहाँ तक खाद्य सुरक्षा का प्रश्न है किसी क्षेत्र या देश विशेष को तब खाद्य सुरक्षित माना जा सकता है जबकि उस देश या क्षेत्र विशेष में पर्याप्त् मात्रा में खाघान्न उपलब्ध हो, खाद्यान्न की देश के प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँच और प्रत्येक व्यक्ति के पास खाद्यान्न क्रय करने की क्रय शक्ति   हो ।
     स्थाई खाद्य सुरक्षा तब होगी जबकि खाद्य सुरक्षा वर्तमान पी़़ढी के साथ-साथ भावी पीढ़ी को भी उपलब्ध होगी । यह तब संभव है जबकि संसाधनों का इस प्रकार दोहन किया जाये, जिससे वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताआें की पूर्ति होने के साथ-साथ वे भावी पीढ़ी के लिए भी बचे रहे ।
    स्थाई खाद्य सुरक्षा प्राप्त् करना पूरे विश्व के लिए एक चुनौती है क्योंकि एक ओर तो पूरे विश्व में उत्पादन की आधुनिक तकनीकों के प्रयोग से जनसंख्या की वर्तमान आवश्यकताआें को पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है । किन्तु फिर भी पूरे विश्व में जनसंख्या के बड़े भाग को पर्याप्त् खाघान्न और आवश्यक कैलोरी प्राप्त् नहीं है । दूसरी ओर ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही है कि उत्पादन क्षमता से अधिक उत्पादन लिये जाने के कारण भूमि की उर्वरता में लगातार गिरावट हो रही है जिससे भविष्य में बढ़ती हुई जनसंख्या की मांग के अनुरूप खाद्यान्न का उत्पादन बहुत बड़ी चुनौती है । जबकि कृषि योग्य भूमि का लगातार निम्नीकरण हो रहा है ।
    सन २०५० तक विश्व की जनसंख्या लगभग १० अरब होने का अनुमान है । यदि अभी से खाद्य सुरक्षा हेतु पोषणीय प्रयास नहीं किये गये तो भविष्य में गंभीर खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ सकता है । ऐसी स्थिति में दालों का उत्पादन स्थाई खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से लाभकारी सिद्ध हो सकता है क्योंकि दालों में भूमि को पोषण प्रदान करने की अद्भूत क्षमता है ।
भूमि की उर्वरता और दालें -
    स्थाई खाद्य सुरक्षा के लिए भूमि की उर्वरता को बनाये रखना आवश्यक है । किन्तु वर्तमान में रासायनिक खादों के प्रयोग में निरन्तर वृद्धि से भूमि की उर्वरता में लगातार गिरावट हो रही है । दालें भूमि की उर्वरता को बनाये रखने का महत्वपूर्ण साधन हैं । क्योंकि
    (१) अधिकाश दालों की जड़ों में गाँठनुमा संरचनाएं होती हैं । इन गाठों में राइजोवियम जीवाणु होते    हैं । ये जीवाणु वायुमण्डल में उपस्थित नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदलकर नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर देते हैं जिससे धरती की उर्वरता बनी रहती है । अत: फसलचक्र में दालों के उत्पादन द्वारा रासायनिक खादों में निर्भरता को कम करके भूमि की उर्वरता को बनाये रखा जा सकता है ।
    (२) दालों के उत्पादन के लिये अन्य फसलों की तुलना में कम पानी की आवश्यकता होती है । सतही अपवाह के असमान वितरण और अनियमित वर्षा के कारण फसलों की सिंचाई के लिए भूमिगत जल पर निर्भर रहना पड़ता है । एक अनुमान के अनुसार विश्व में कुल आहरित जल का ७० प्रतिशत कृषि क्षेत्र में प्रयुक्त होता है । दालों के उत्पादन से सिंचाई हेतु भूमिगत जल पर निर्भरता कम होगी और पानी की बचत   होगी ।
    (३) अनेक दालें सूखारोधी होती हैं । इन्हें ३०० से ४०० मिमी तक सीमान्त वर्षा वाले क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है । इन क्षेत्रों में अन्य फसलों का उत्पादन या तो नहीं होता है या फिर वे बहुत कम उत्पादन देती है । ऐसे क्षेत्रों में दालों के उत्पादन द्वारा खाद्य सुरक्षा को प्राप्त् किया जा सकता है । क्योंकि दालें अपनी जड़ों द्वारा वर्षा जल को अवशोषित कर भू-जलस्तर में वृद्धि करती है जिससे आगामी फसल के लिए धरती में नमी बनी रहती है । अत: ऐसे सूखे क्षेत्रों में जहाँ पर खाद्य सुरक्षा प्राप्त् करना एक चुनौती है दालों का उत्पादन लाभकारी हो सकता है ।
पोषक तत्व और दालें :-
    आज कुपोषण एक विश्वव्यापी समस्या बनी हुई है । दालों में सभी पोषक तत्व भरपूर मात्रा में पाये जाते हैं । अत: दालों का उत्पादन बढ़ाकर कुपोषण की समस्या को आसानी से दूर किया जा सकता है क्योंकि -
    (१) विश्व के अधिकांश देशों में मांस, मछली, अण्डा, दूध तथा दुग्ध उत्पाद जैसे प्रोटीन के स्त्रोत महंगे होने के कारण गरीब जनसंख्या की पहॅुंच से बाहर होते हैं । इन स्त्रोतों के लिए दालें प्रोटीन का सबसे सस्ता और सुलभ स्त्रोत हैं । अत: दालों के उत्पादन में व्यापक रूप से वृद्धि करके उनकी गरीब जनसंख्या तक पहॅुंच बनाकर उसकी कैलोरी संबंाी आवश्यकताआें को आसानी से पूरा किया जा सकता है ।
    (२) माँस, मछली, दूध आदि प्रोटीन के स्त्रोतों को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखना संभव नहीं हो पाता   है । जबकि प्रोटीन के स्त्रोत के रूप में दालों का जीवनकाल लम्बा होता है । इन्हें दो-तीन वर्ष तक आसानी से बचाया जा सकता है । ग्रामीण क्षेत्र में लोग पारम्परिक पद्धति से दालों को बचा लेते है और इनकी पोष्टिकता में कमी नहीं होती है ।
    (३) दालों में लगभग सभी पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं । सामान्यतया आहार में प्रयुक्त होने वाली प्रमुख दालों में निम्नवत पोषक तत्व उपलब्ध होते हैं :-
    (१) अरहर - दाल के रूप में अरहर का बहुत अधिक प्रयोग होता है । यह तुर या तुअर नाम से भी जानी जाती है । इस दाल में पोटेशियम, सोडियम, विटामिन-ए, बी१२ एवं विटामिन-डी पाया जाता   है ।
    (२) चना - चने की दाल सबसे अधिक प्रोटीन एवं फाइबर युक्त होती है । इसमें जिंक, फोलेट और कैल्शियम भरपूर मात्रा में पाया जाता है । इस दाल में मौजूद ग्लाइसमिक इंडेक्स मधमेह के रोगियों के लिये लाभदायक है । ऐनिमियाँ, पीलिया और डिसेप्थिया से चना की दाल निजात दिलाती है ।
    (३) मसूर - मसूर की दाल पोषक तत्वों का खजाना कहलाती   है । इस दाल में एल्यूमिनियम, जिंक, कापर, आयोडीन, मैग्नीशियम, सोडियम, फास्फोरस और क्लोरीन के साथ-साथ विटामिन बी१ तथा डी पाया जाता है ।
    (४) मँुग दाल - मुँग की दाल में ५० प्रतिशत प्रोटीन, ४८ प्रतिशत फाइबर, २० प्रतिशत कार्बोहाइट्रेड और १ प्रतिशत सोडियम होता है । आइरन, सोडियम और कैल्शियम युक्त यह दाल रोगियों और गर्भवती महिलाआें के लिये लाभकारी होती है ।
    (५) उड़द - उड़द की दाल सबसे अधिक पौष्टिक होती है । इसमें प्रोटीन, विटामिन बी, थायमिन, राइबोफ्लेविन, नियासिन, आइरन, कैल्शियम, घुलनशीरेशा और स्टार्च पाया जाता है ।
    (६) कालीबीन - अत्यधिक फालेट युक्त इस दाल में सोडियम, कैल्शियम, विटामिन ए, बी तथा डी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । कालीबीन में मौजूद फाइबर रक्त में ग्लुकोज की मात्रा को बढ़ने से रोकता है । यह दाल मधुमेह और हाइपोग्लाइसीमियाँ के रोगियों के लिए लाभदायक है ।
    (७)  लोबिया -  विटामिन ए, बी२ और विटामिन डी युक्त यह दाल अत्यधिक स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है । इसमें कैल्शियम भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है ।
    (८) पर्यावरण और दालें -पर्यावरण और कार्बन फूट फ्रिट की दृष्टि से भी दालों का उत्पादन लाभकारी है । क्योंकि प्रोटीन के अन्य स्त्रोतों की तुलना में दालें कम कार्बन का उत्सर्जन करती है और पानी की बचत करती है ।
    भारत के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो यहाँ पर दालें कीमतों में वृद्धि के कारण चर्चा का विषय बनी हुई   है । उत्पादन में स्थिरता, उपलब्धता में कमी तथा माँग और पूर्ति के बीच असन्तुलन कीमत वृद्धि का कारण है। परिणामस्वरूप देश की आय का एक बहुत बड़ा भाग दालों के आयात पर तो खर्च हो ही रहा है । साथ ही बहुत बड़ी आबादी की पोषक सुरक्षा भी प्रभावित हो रही है ।
    भारत में अधिकांश जनसंख्या गरीब है । दालें, गरीबों का प्रोटीन कहलाती है । दालें भारत की जीवन शैली में सम्मिलित हैं । गरीब व्यक्ति किसी तरह दाल रोटी चल रही है, कहकर अपनी विपिन्नता को प्रकट करता है तो अमीर व्यक्ति ईश्वर की कृपा से दाल रोटी चल रही है, कहकर अपनी स्थिति को प्रकट करता है । यद्यपि सरकार दालों को आयात कर स्थिति सामान्य करने का प्रयास कर रही है। किन्तु कीमतों में फिर भी कमी नहीं हो रही है ।
    भारत दालों के कुल वैश्विक उत्पादन का २५ प्रतिशत उत्पादन कर, विश्व का सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश है किन्तु जनसंख्या अधिक होने और घरेलू मांग के अनुरूप उप्तदन न होने के कारण भारत विश्व का सबसे बड़ा दाल उपभोक्ता और आयातक देश भी है । कुल वैश्विक उपभोग का २७ प्रतिशत और कुल आयात का १४ प्रतिशत आयात भारत द्वारा किया जाता है । २००९ से २०१४ के मध्य देश में १६.४५ मि. टन दालों का आयात किया गया है और ३९२८५ करोड़ रूपये खर्च किये गये हैं ।
    यद्यपि दालों के बोये जाने वाले क्षेत्रफल में १९५०-५१ से २०१३-१४ तक ३१ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । इसी अवधि में दालों के उत्पादन में १०० प्रतिशत वृद्धि हुई है और प्रति हैक्टेयर उत्पादन भी ४६ प्रतिशत वृद्धि के साथ ४४ किलो हेक्टेयर से ७६४ किलोग्राम/हेक्टेयर हो गया है । किन्तु इसी अवधि में जनसंख्या तीन गुना से अधिक वृद्धि हुई है । १९५०-५१ में जनसंख्या ३६.१ करोड़ थी जो २०११ में १२१.१ करोड़ हो गयी है । जिस कारण दालों की माँग में वृद्धि हो रही है । साथ ही कीमतें भी निरन्तर बढ़ रही है ।
    यद्यपि १९५० से २०१३-१४ तक दालों के बोये जाने वाले क्षेत्रफल कुल उत्पादन और प्रति हेक्टयर उत्पादन में वृद्धि हुई है, किन्तु प्रति व्यक्ति दाल उपलब्धता में कमी आयी है । १९७१ में देश में प्रतिव्यक्ति दाल उपलब्धता ५१.५ ग्राम/प्रतिदिन थी जबकि २०१३ में यह घटकर ४१.९ ग्राम/प्रतिदिन हो गयी । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रतिव्यक्ति/दिन दाल उपलब्धता ८० ग्राम होनी चाहिए । ऐसी स्थिति में दालों की अनुपलब्धता और कीमत वृद्धि से गरीब जनसंख्या की प्रोटीन संबंधी आवश्यकताएं प्रभावित हो रही है । दालें गरीबों को प्रोटीन का सस्ता स्त्रोत होती हैं और इनमें गेहूं और चावल की अपेक्षा दो गुना प्रोटीन पाया जाता है ।
    २०३० तक भारत की जनसंख्या बढ़कर १.६८ मिलियन (१६८ करोड़) हो जायेगी और इस समय देश को लगभग ३२ मिलियन टन दालों की आवश्यकता होगी । इस अतिरिक्त आवश्यकता की पूर्ति के लिए दालों के बाये जाने वाले क्षेत्रफल और प्रति हेक्टर उत्पादन दोनों में वृद्धि करने की आवश्यकता है ।
    दालों के उत्पादन में वृद्धि करके,स्थाई खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त् करने के प्रयास करने    होगे । दालों के उत्पादन और बोये गये क्षेत्रफल में वृद्धि करके भूमि की उर्वरता में तो वृद्धि होगी ही साथ ही पानी की बचत होगी । गरीब जनसंख्या की प्रोटीन संबंधी आवश्यकताआें की पूर्ति होगी और कुपोषण की समस्या से भी छुटकारा पाया जा सकता है । दलहनों का उत्पादन किसानों के लिये भी लाभकारी होगा ।
    किन्तु वर्तमान समय में किसान अपनी कृषि भूमि को प्लाटों के रूप में बेचकर लाभ कमाने को आय का साधन बनाने लगे है । कृषि भूमि में रियल स्टेट का कारोबार फलने-फूलने लगा है । उपजाऊ जमीन पर कांक्रीट के जंगल विहने लगे हैं । अत: स्थाई खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त् करने के लिये कृषि योग्य उपजाऊ जमीन की बचत करने के साथ-साथ किसानों में भी कृषि के प्रति आत्मविश्वास पैदा करने की आवश्यकता है ।
खास खबर
सड़क हादसों का बढ़ता कहर
(विशेष संवाददाता )
    किसी भी राष्ट्र में सड़के, आर्थिक व सामाजिक विकास की धुरी होती है । वैकासिक प्रक्रिया में उत्तरोतर वृद्धि के साथ-साथ सड़कों की गुणवत्ता तथा देश की आर्थिक व्यवस्था में काफी सुधार हुआ है । देश में निर्मित नाना प्रकार की सड़कों ने भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए नये द्वार खोले है ।    
    परन्तु विकास का केन्द्र बन गई यही सड़कें, जब नागरिकों के खून से लथपथ होने लगे, तो सवालों के साथ चिताएं भी वाजिब हो जाती है । आलम यह है कि भारत में हर घंटे होने वाले ५७ सड़क हादसों में औसत १७ लोग काल के गाल में समा रहे है । यह स्थिति दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र के लिए तब अधिक अफसोसजनक हो जाती है, जब हम सुनते हैं कि कुल सड़क दुर्घटनाआें (२०१५) में करीब ५५ फीसदी भुक्तभोगी १५ से ३४ आयुवर्ग के किशोर व युवा है । आज देश के हर कोने से सड़क दुर्घटना के मामले प्रकाश में आ रहे हैं । शायद ही कोई ऐसा दिन होता होगा, जिस दिन सड़क दुर्घटना की खबरें समाचार जगत में नहीं तैरती होगी ।
    यातायात और मंत्रालय की शोध इकाई द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार २०१५ में देश में कुल ५,०१,४२३ सड़क दुर्घटनाएं हुई, जिनमें १,४६,१३३ लोगों की जानें चली गई । एक तथ्य यह भी है कि हमारे यहां जितने लोग आपदाआें और युद्ध में नहीं मरते, उससे कहीं अधिक लोग सड़क हादसों में प्रतिवर्ष अपनी जान गंवा देते है । देशभर में प्रतिदिन सन् १३७४ सड़क दुर्घटनाआें में रोजाना ४०० लोगों की मौत हो जाती है । चिंता की बात यह है कि मरने वालों में अधिकांशत: कामकाजी वर्ग के लोग ही होते है । इस कारण देश की अर्थव्यवस्था को गहरा ठेस पहुुंचता है । सरकार की मानें तो सड़क दुर्घटनाआें से हर साल ६० हजार करोड़ रूपये यानी ३ फीसदी जीडीपी का नुकसान हो रहा है ।
    आंकड़े बताते है कि २०१४ की तुलना में २०१५ में सड़क दुर्घटनाआें में २.५ फीसदी बढोत्तरी हुई है । जबकि, इसी दौरान सड़क दुर्घटनाआें में मरने वाले लोगों की संख्या में ४.६ फीसदी की वृद्धि हुई है । वहीं, २०१६ के शुरूआती छह महीने भी सड़क दुर्घटनाआें के मामले में काफी संवेदनशील रहे । इसके बावजूद लोग बेतरतीब ड्राइविंग से बाज नहीं आ रहे है । यातायात नियमों की अनदेखी व जागरूकता के अभाव के कारण सड़क दुर्घटनाआें का आम होना देश की एक बड़ी सामाजिक समस्या बन गई है । हर एक व्यक्ति गंतव्य पहुंचने को लालायित है, बशर्ते इसकी कोई भी कीमत उन्हें चुकानी पड़े । आखिर अपने जीवन और समाज के प्रति इतनी लापरवाही क्यों ?
    देश में सड़क दुर्घटना में वृद्धि होने के पीछे कई कारण उत्तरदायी रहे है । ड्रायवर की गलती सड़क दुर्घटनाआें के अहम कारण बनकर सामने आती हैं । सन २०१५ में ७७.१ फीसदी सड़क दुर्घटनाएं केवल ड्रायवर की गलती से हुई । जबकि वर्ष २०१४ में यह आंकड़ा ७८.८ फीसदी था । ड्रायवर द्वारा की गई गलती में सबसे पहले गति सीमा से अधिक तेज गति से गाड़ी चलाना    है । ६२.२ फीसदी दुर्घटना का कारण तेज गति से गाड़ी चलाना रहा । जबकि अन्य कारणों में ४.२ फीसदी शराब पीकर तथा ६.४ फीसदी अन्य नशीले पदार्थो का सेवन कर गाड़ी चलाना शामिल है । सड़क दुर्घटनाआें की व्यापकता का दूसरा बड़ा कारण चालकों के पास प्रशिक्षण का अभाव के रूप में सामने आया है । अत्यधिक भीड़ वाले जगहों पर स्थिति न संभलता देख नौसिखिए चालक अपना संतुलन खो बैठते है जिसके कारण कई दुर्घटनाएं हो जाती है ।
    देश के कस्बाई तथा कुछ हद तक शहरी क्षेत्रोंमें जहाँ ट्रैफिक नियमों का जोर नहीं है, वहां सिर्फ गाड़ियों में वस्तुआें को ही नहीं, बल्कि लोगों को भी ठूंस-ठूंसकर ले जाया जाता है, जिसके कारण आए दिन दुर्घटनाएं होती रहती है । सन २०१५ में सड़क दुर्घटनाआें का कुल १५.४ फीसदी यानी कुल ७७.११६ दुर्घटनाएं ओवरलोडेड वाहनों के कारण हुई । ऐसे दुर्घटनाआें में २५,१९९ लोगों को जान गंवानी पड़ी । देश में सड़कों की गुणवत्ता और डिजाइन में कई खामियां है । दूसरी तरफ, नागरिकों द्वारा ट्रैफिक नियमों की अनदेखी किसी से छिपी नहीं है । दोपहिया वाहन चालक हेलमेट, जबकि चार पहिया वाहनों में सवार लोग सीट बेल्ट लगाने से बचते नजर आते है ।
पर्यावरण समाचार
अनाजों के कुदरती सम्बंधियों पर खतरा
    एक अध्ययन के मुताबिक तेज गति से होता जलवायु परिवर्तन गेहूं-चावल जैसे फसलों के कुदरती सम्बंधियों के लिए बड़ा खतरा बन सकता है और संभव है कि वर्ष २०७० तक ये जंगली किस्में नदारद हो  जांए । यूएस के एरिजोना विश्वविद्यालय के जॉन विएन्स के नेतृत्व मेंकिए गए इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि इन फसलों के जंगली संबंधी जलवायु परिवर्तन की तेज रफ्तार से तालमेल बनाने मेंअसमर्थ  रहेंगे ।
    गेहूं और चावल दुनिया की दो प्रमुख फसलें है जो इंसानों द्वारा उपभोग की जाने वाली कुल कैलोरी में से आधी उपलब्ध कराती है । ये तथा ज्वार, बाजरा, मक्का जैसे अन्य अनाज घास कुल के पौधें है । वैसे तो इन फसलों को जंगली किस्मों के सफाए का खाद्यान्न सुरक्षा पर सीधे-सीधे कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । मगर आगे का विकास अवरूद्ध हो सकता है । ये जंगली किस्में जेनेटिक विविधता की महत्वपूर्ण स्त्रोत है । चाहे सूखा प्रतिरोधी किस्म का विकास करना हो या किसी रोग के खिलाफ प्रतिरोधी किस्म की दरकार हो, हम इन्हीं जंगली किस्मों का मुंह ताकते हैं ।
    बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित इस अध्ययन में घास की २३६ प्रजातियों का अध्ययन इस दृष्टि से किया गया कि वे जलवायु परिवर्तन के साथ कितनी तेजी से तालमेल बना पाती है । तालमेल बनाने के दो ही तरीके हैं । पहला है कि किसी एक प्राकृतवास के लिए अनुकूलित किस्म जलवायु परिवर्तन के साथ कितनी तेजी से तालमेल बना पाती है । तालमेल बनाने के दो ही तरीके हैं । पहला है कि किसी एक प्राकृतवास के लिए अनुकूलित किस्म जलवायु परिवर्तन होने पर वहां से निकलकर किसी अनुकूल प्राकृत वास में जम जाए । दूसरा तरीका यह है कि उनमें इस तरह से विकास हो कि वे पुराने मगर बदले हुए परिवेश में अनुकूलित  हो जाएं ।
    जहां तक नए प्राकृत वास में पहुंचने का सवाल है तो इसका एक ही उपाय होता है कि संबंधित पौधे के बीज दूर-दूर तक बिखरे और वहां जाकर फले-फूलें । घासों के लिए यह सहज नहीं है क्योंकि उनके बीज बहुत दूर तक नहीं बिखरते  ।