शुक्रवार, 18 नवंबर 2016


प्रसंगवश
दिनेश भराड़िया - डुप्लेक्स रेडियो तकनीक की खोज
मनीष श्रीवास्तव
    हाल ही में रेडियो तरंगो की दुनिया में एक भारतीय मूल के दिनेश भराड़िया ने अपनी खोज से नई क्रांति ला दी है । डुप्लेक्स रेडियो तकनीक  की खोज के लिए मार्कोनी सोसायटी द्वारा इस साल के पॉल बैरन यंग स्कॉलर अवार्ड दिनेश भरड़िया देने की घोषणा की गई है । यह पुरस्कार मार्कोनी के सम्मान में उनकी बेटी जियोइया मार्कोनी ब्राग ने प्रारंभ किया है ।
    रेडियो तरंगो की दुनिया में मार्कोनी जाना-माना नाम है । रेडियो तरंगों को लेकर उन्होंने कई खोजे की थी । किन्तु एक गुत्थी वे भी नहीं सुलझा पाए थे - एक ही तरंग बैंड पर एक समय में सूचनाआें को प्राप्त् करना तथा उसी दौरान प्रसारित करना संभव है या नहीं । उनके बाद भी कई वैज्ञानिकों ने इसे लेकर कई शोध किए लेकिन किसी को भी यह सफलता अब तक हासिल नहीं हो पाई थी । दिनेश भराड़िया के अनुसार तरंग प्रणाली की यह समस्या बेहद जटिल थी । इसमें जब रेडियो कार्य करता है तो उसे प्राप्त् होने वाली तरंगो को लगभग १०० अरब गुना शोर प्रभावित करता है । प्राप्त् होने वाले सिग्नल आसपास के माहौल पर तथा वहां मौजूद तरंगों से भी प्रभावित होते हैं । इस वजह से एक समय पर सूचनाएं प्राप्त् करने तथा उन्हें भेजना संभव नहीं हो पाता था । किन्तु भराड़िया ने प्रयोगों के आधार पर ऐसी तकनीक बनाने में कामयाबी पा ही ली, जिसके माध्यम से १५० साल पुरानी गुत्थी का समाधान हो गया । भराड़िया ने यह खोज मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के सहयोग से की । सफलता की इस नई इबारत से आमजन को बेहद लाभ  होने वाला है । कई क्षेत्रों में इस नवीन तकनीक से आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिलने वाले हैं ।
    डुप्लेक्स रेडियो तकनीक के कई फायदे हैंजैसे इससे इमेजिंग तकनीक, चालक रहित कार जैसे अनुप्रयोगों में मदद मिलेगी और दो तरफा बातचीत करने वाले रेडियो का निर्माण संभव हो सकेगा । दृष्टिहीनों को भी इस तकनीक से विशेष लाभ मिलेगा ।                       
सम्पादकीय
पौधों में कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता घटी
     अब तक यह माना जाता रहा है कि वाहनों से होने वाले प्रदूषण को कम करने में पेड़-पौधे अहम भूमिका निभाते हैं क्योंकि ये अपने भोजन बनाने की प्रक्रिया में कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते है ।
    यह बात सच भी है, मगर पहली बार यह तथ्य सामने आया है कि बढ़ता प्रदूषण पेड़-पौधों के कार्बन सोखने की क्षमता को घटा रहा है । वाहनों की अधिकांश आवाजाही वाले क्षेत्र में कार्बन सोखने की क्षमता ३६.७५ फीसदी कम पाई गई । यह बात देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान के ताजा शोध में सामने आई है ।
    इस संस्थान में स्थित पौधो में कार्बन सोखने की दर ९.९६ माइक्रो मोल प्रति वर्गमीटर प्रति सेकण्ड पाई गई । जबकि चकराता रोड़ के पौधों में यह दर महज ६.३ रही । इसकी वजह पता चली कि चकराता रोड़ के पौधों की पत्तियां प्रदूषण से ढंक गई है । ऐसी स्थिति में पत्तियों के वेछिद्र अत्यधिक बंद पाए गए, जिनके माध्यम से पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया कर कार्बन डाईऑक्साइड सोखते है, इन छिद्रोंको खोलने के लिए पौधे भीतर से दबाव भी मार रहे हैं ।
    जलवायु परिवर्तन व वन प्रभाव आकलन डिविजन के वैज्ञानिक डॉ. हुकुम सिंह के मुताबिक फोटो सिंथेसिस एनलाइजर से पौधों द्वारा कार्बन सोखने की स्थिति का पता लगाया गया ।
    इस शोध के परिणामों में आधार पर देश के अन्य क्षेत्रों में भी इसी आधार पर शोध अध्ययन होंगे तो पता चलेगा कि उस क्षेत्र के पौधों में कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की वास्तविक स्थिति क्या है । ऐसे शोध से हमें सटीक आंकड़े चाहे न मिले लेकिन हमारे वैज्ञानिक और नीति निर्माताआें को  इसे गंभीरता से लेकर विचार करना होगा, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से इसका सीधा संबंध आता है । 
सामयिक
जलवायु न्याय और पेरिस सम्मेलन
सुश्री जीनत मसूदी

    पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन की विभीषिका से निपटनेेके लिए जलवायु न्याय को एक नए उपकरण के रूप में देखा जा रहा    है । आज विकासशील देश ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में पीछे हैंलेकिन सर्वाधिक विपरीत व विनाशकारी प्रभाव उन्हीं पर पड़ रहे हैं। जलवायु न्याय का सिद्धांत उनके लिए मददगार सिद्ध हो सकता है बशर्ते अमेरिका सहित विकसित देश अपनी अन्यायपूर्ण व एकतरफा विकास नीतियों पर रोक लगाएं ।
    संंयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (यूनाइेटड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन आन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के अन्तर्गत हुआ पेरिस समझौता ऐसा पहला अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज है जिसमें जलवायु न्याय शब्द को शामिल किया गया है । 
     इसकी धारणा में उन तमाम संदर्भों को खोजा गया है, जिन्हें शुद्धत: कानूनी, आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में बांटा जा सकता  है । साथ ही साथ जलवायु परिवर्तन के दृष्टिगोचर प्रभावों जिसमें सबसे महत्वपूर्ण अतीव मौसमी घटनाएं हैं, जिन्हंे जलवायु परिवर्तन और मानवाधिकारों से जोड़ा गया है । उत्सर्जन के लिए समृद्ध एवं विकसित देशों में रहने वाले ज्यादा जिम्मेदार हैंबजाए विकासशील देशों के निवासियों के परंतु जलवायु संकट के सबसे गैर आनुपातिक प्रभाव वे ही महसूस कर रहे हैं । अतएव ``जलवायु न्याय`` शब्द को महत्व मिला और इसे वर्तमान पीढ़ी और भविष्य की पीढ़ी के लिए न्याय की गुहार मान लिया गया ।
    सन् १९९२ में ही यूएनएफसीसीसी ने यह समझ लिया था कि उन लोगों के साथ समानता का व्यवहार होना चाहिए जो कि जलवायु परिवर्तन में योगदान नहीं करते परंतु सबसे ज्यादा जोखिम में पड़े रहते हैं। हालांकि उस समय ``जलवायु न्याय`` शब्द का प्रयोग नहीं हुआ था परंतु यू एन एफ सी सी सी का दस्तावेज जलवायु न्याय के  सिद्धांत पर ही आधारित था । इसके दिशानिर्देश सिद्धान्तों में सभी पक्षों का वर्गीकरण किया गया था जिनकी भिन्न-भिन्न प्रकार की जवाबदेही बैठती है । इसमें साफ  कहा गया था कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का मुख्य स्त्रोत विकसित देश हंै और विकसित देशों में बढ़ता उत्सर्जन भी कमोवेश उनकी (विकसित देशों) आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही  है ।
    गौरतलब है यूएनएफसीसीसी ने चिंता जताते हुए कहा था कि विकासशील देशों की विशेष आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि जलवायु परिवर्तन के  प्रतिगामी प्रभावों से वे ही सबसे ज्यादा जोखिम में रहते हैं। वैश्विक स्तर पर ग्रीन हाउस गैसों के स्तर में हो रही सतत् वृद्धि के दौर में उपरोक्त शब्द ``मसीहाई`` प्रतीत होता है । उदाहरणार्थ भारत के ६५ करोड़ लोग अपनी जीविका हेतु वर्षा आधारित खेती पर निर्भर हैं । यदि समुद्र के स्तर में १ मीटर की भी वृद्धि होती है तो बांग्लादेश के करोड़ों लोग विस्थापित हो जाएंगे । गरम हवाओं के बढ़ते थपेड़ों के चलते अरब क्षेत्र का बढ़ा क्षेत्र रहने लायक ही नहीं बचेगा । सबसे बुरा प्रभाव अफ्रीका महाद्वीप पर पडेग़ा जहां पर पानी का जबरदस्त संकट खड़ा हो रहा है और सन् २०२० तक फसलों की पैदावार में असाधारण कमी आ सकती है। जलवायु परिवर्तन के प्रतिगामी प्रभावों के चलते विकासशील देशों में विकास एवं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम भी खटाई में पड़ सकते हंै ।
    इस पृष्ठभूमि के  मद्देनजर पेरिस समझौता महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि जलवायु संकट से निपटने में यह ``जलवायु न्याय`` की कुछ संकल्पनाओं को महत्वपूर्ण मानता   है । यह यूएनएफसीसीसी में निहित समानता एवं साझा परंतु अलग-अलग जिम्मेदारियों एवं यथायोग्य क्षमताओं पर जोर दे रहा है। वास्तविकता यही है कि पेरिस समझौता लागू होने की स्थिति में पहुंच गया है ।  ५५ देश, जो कि वैश्विक स्तर पर कम से कम ५५ प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करत हैं, इस पर हस्ताक्षर कर चुके हैं । अभी भी इसे अपनाने हेतु १२ महीने का समय बाकी है। वैसे ४ नवंबर को लागू होने के बाद पेरिस समझौता कार्यशील हो   जाएगा ।
    इसी के साथ दि कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सी ओ पी) जो कि पेरिस समझौते के अन्तर्गत निर्णय लेने वाली इकाई है, वह भी गतिशील हो जाएगी । इस तारतम्य में सभी पक्षों को तापमान औद्योगिक काल से पूर्व से २ डिग्री सेल्सियस अधिक के  स्तर पर लाने एवं इस बात के लिए प्रयत्नशील होना होगा कि तापमान औद्योगिककरण पूर्व के काल से १.५ डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़े । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस समझौते के नियम, स्वरूप एवं प्रक्रियाएं तैयार करने का काम संबंधित पक्ष ही करंेगे ।
    मारकेश में चुनौतियां- काप-२२ (मारकेश सम्मेलन) के सामने मुख्य चुनौती यह है कि ऐतिहासिक रूप से अलाभकारी परिस्थिति में रह रहे वैश्विक दक्षिण के लिए समानता आधारित प्रणाली विकसित की जाए । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि राष्ट्रीय तयशुदा योगदान (नेशनली डिटरमाइंड कांट्रीब्यूशन या एन डी सी) यानी सभी पक्षों द्वारा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी तय करने की प्रक्रिया, पारदर्शी बनाने में सहयोग करना । पेरिस समझौते ने कमोवेश सभी पक्षों को ``यथाशीघ्र ग्रीन हाउस उत्सर्जन के  शिखर पर पहुंचने`` एवं ``घरेलू तौर पर इसे कम करने के  तरीकों`` पर विचार करने पर राजी कर लिया है। परंतु एन डी सी को क्रियान्वित करना संबंधित पक्षों राष्ट्रों पर बाध्यकारी नहीं है ।
    सभी पक्षों ने पेरिस समझौता क्रियान्वयन संबंधित अस्थायी कार्य दल को सूचित किया है कि वे ``एम डी सी को राष्ट्रों द्वारा तय किए जाने`` के पक्षघर हैं। अतएव उत्सर्जन में कमी एवं खत्म करने की रणनीति, जिसका मूल सिद्धांत है तापमान वृद्धि को १.५ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जाए, जलवायु न्याय के लिए बहुत महत्वपूर्ण है ।
    दूसरा महत्वपूर्ण कार्य है पेरिस समझौते के विकास हेतु नियमावली तैयार करना । इसके अन्तर्गत उत्सर्जन की समाप्ति एवं टिकाऊ  विकास (अनुच्छेद-६) जलवायु परिवतन से अनुकूलन (अनुच्छेद-७) कार्य करने एवं सहयोग हेतु एक पारदर्शी ढांचे को निर्माण (अनुच्छेद-१३), जिनकी वजह से एन डी जी को अपनाने जलवायु वित्त, तकनीक का हस्तांतरण एवं क्षमता निर्माण, समझौते के क्रियान्वयन को लेकर समय-समय पर आकलन करना (अनुच्छेद-१४) एवं समझौते को लागू करने हेतु प्रोत्साहन देने  हेतु क्रियान्वयन समिति के गठन (अनुच्छेद-१५) को दिशा देने में नियमावली से सहायता मिलेगी । नियमावली जलवायु कार्यवाही की रिपोर्टिंग एवं जवाबदेही तय करने में भी सहायक सिद्ध होगी ।
    ध्यान देने वाला एक और क्षेत्र है ग्रीन क्लाइमेंट फंड (हरित जलवायु कोष) में विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को उत्सर्जन में कमी एवं पेरिस समझौते को अपनाने के लिए प्रतिवर्ष १०० अरब डॉलर की आर्थिक मदद उपलब्ध करवाना । कछ अमीर देश वित्तीय संस्थानों जैसे विश्व बैंक आदि के माध्यम से धन इक्ट्ठा करने को लेकर बेहद सतर्क हैं, जबकि अन्य लोग निजी बैंकों की ओर पहल करना चाहते हैं। इसके अलावा देश एवं परियोजना आधारित वित्तीय आबंटन हेतु यह तय किया जाना आवश्यक है कि कौन सा देश कितना योगदान करेगा ।
    जलवायु परिवर्तन के  खिलाफ संघर्ष का आधार ही जलवायु न्याय के क्षेत्र में प्रगति है । पिछले कुछ वर्षों में जलवायु न्याय आंदोलन को जबरदस्त गति मिली   है । परंतु विकासशील देशों को मुख्य चुनौती मारकेश में होने वाले काप सम्मेलन में इस गति को बनाए रखने में सामने आएगी ।
हमारा भूमण्डल
अमेरिकी किसानों ने नकारी जी.एम. फसलें
भारत डोगरा

    अमेरिका में जी. एम फसलों के आगमन के दो दशक पश्चात यह तथ्य सामने आया है कि वहां के  किसान इन फसलों से तंग आ गए  हैं । वहीं दूसरी ओर भारत में इसे लेकर सकारात्मक माहौल बनाया जा रहा है ।
    हाल के वर्षों में जीएम (जेनेटिकली मोडीफाईड या आनुवांशिक रूप से संवर्धित) फसलों के प्रतिकूल असर या विरोध के बारे में विश्व के अनेक देशों से समाचार मिलते रहे हैं । पर जी.एम फसलों के समर्थक यह कह रहे हैं कि आप संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देशों को देखिए, वहां तो जीएम फसलों का बहुत प्रसार हो रहा है ।
     अब तो अमेरिका से भी ऐसे समाचार मिलने लगे हैं जिससे पता चलता है कि वहां के किसानों का भी जीएम फसलों से मोहभंग होने लगा है । इस संदर्भ में वाल स्ट्रीट जर्नल में १४ सितंबर २०१६ को प्रकाशित लेख है -'बीहाइंर्ड द जीएमओ डील -डाऊट्स अबाऊट द जीएम रिवाल्यूशन` (जी. एम सौदे के    पीछे : जी. एम क्रांति को लेकर संशय) बहुत महत्वपूर्ण है । इस लेख में वर्ष १९९६ में आरंभ हुई जीएम फसलों के अमेरिका में दो दशकों के  अनुभव का मूल्यांकन किया गया   है । लेखक जेम्स वुंजे ने जीएम फसलों के समर्थकों और आलोचकों दोनों का पक्ष इस लेख में दिया है । उनका निष्कर्ष यह है कि बढ़ती संख्या में अमेरिकी किसान सोयाबीन, मक्का, कपास आदि की जीएम फसलों से विमुख हो रहे हैं ।
    इस चर्चित मूल्यांकन में बताया गया है कि जीएम फसलों के आगमन के लगभग एक दशक के  बाद यानि वर्ष २००६ के आसपास जीएम फसलों में खरपतवार की मात्रा बहुत बढ़ गई और इस खरपतवार को दवाओं के छिड़काव से रोकना भी कठिन जो हो गया । इसके अतिरिक्त जीएम बीज जो कुछ ही कंपनियां बेच रही थीं की कीमतें बहुत तेजी से बढ़ रहीं थीं, जबकि फसल की उत्पादकता में विशेष वृद्धि नहीं हो पा रही थी । इन कारणों से अमेरिकी किसानों ने जीएम बीजों को त्यागना आरंभ कर दिया है ।
    जहां एक ओर अमेरिकी किसानों का जीएम फसलों से मोहभंग हो रहा है, वहीं दूसरी ओर अमेरिका व विश्व की सबसे बड़ी जीएम बीज कंपनी मॉन्सेंटो को जर्मनी की विशालकाय रसायन कंपनी बेयर ने हाल ही में ५ अरब डालर के सौदे में खरीद लिया है । विचारणीय है कहीं इन दोनों समाचारों में कोई नजदीकी संबंध तो नहीं है ?
    जरूरी बात है यह कि जब किसानों के बीच आधार कमजोर होगा, तो कोई भी कृषि व्यापार कंपनी अपनी इस कमजोर होती स्थिति में कोई न कोई विकल्प खोजने का प्रयास करेगी। अत: मॉन्सेंटो ने अपने कमजोर होते आधार के बीच बेयर द्वारा बिक्री का सौदा मंजूर कर लिया । जबकि कुछ समय पहले तक वह स्वयं ही एक अन्य बड़ी बीज कंपनी एजंेटा को खरीदने की इच्छुक थी ।
    दूसरी ध्यान देने की बात यह है कि बेयर एक बहुत बड़ी रसायन कंपनी है व मॉन्सेंटो एक बहुत बड़ी बीज कंपनी । इससे पता चलता है कि किस तरह बीज और कृषि रसायन क्षेत्र एक दूसरे के अधिक नजदीक आते जा रहे हैं । इसी तरह चाईना नेशनल केमिकल कारपोरेशन नामक चीन की विख्यात रसायन कंपनी ने बीज की एक अन्य बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी सिजंेटा एजी को ४३ अरब डालर के सौदे में खरीद लिया है । इस तरह के बड़े विलयों से बीज व कृषि रसायनों की एकीकृत विशाल कंपनियां सामने आएंगी जो अपने अपार संसाधनों के आधार पर विश्व में कृषि व खाद्य क्षेत्र पर नियंत्रण हटाने का प्रयास करेंगी ।
    इनमें जीएम बीजों वाली फसलों को प्रमुखता देने वाली कंपनियां शामिल हैं । जीएम तकनीक अपनाने से उन्हें कृषि व खाद्य क्षेत्र में नियंत्रण बढ़ाने में सफलता मिलती है। अत: जीएम खाद्य फसलों को स्वीकृति दिलवाने के प्रयास और तेज होंगे ।
    इस स्थिति में अब यह और जरूरी हो गया है कि खेती-किसानी की रक्षा के लिए, किसानों की हकदारी के लिए और पर्यावरण की रक्षा के लिए प्रयासों को और मजबूत किया जाए । ताकि वैश्विक कृषि व खाद्य क्षेत्र को विशालकाय कंपनियों के वर्चस्व से बचाया जा सके  ।
विशेष लेख
जैव विकास को प्रत्यक्ष देखने का रोमांच
अश्विन नारायण शेषशायी

    जैव विकास का अध्ययन करने के लिए जीव वैज्ञानिक जिस औजार का उपयोग करते है उसे फायलेजेनिटक्स कहते हैं । इसके अन्तर्गत जीव वैज्ञानिक कुछ मापन योग्य गुणों के आधार पर वर्तमान प्रजातियों के बीच अंतरसंबंध खोजने का प्रयास करते हैं ।
    सृष्टिवादियों और वैकासिक जीव वैज्ञानिकों के बीच जीवन की उत्पत्ति को लेकर चली बहस को अक्सर इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है जैसे यह जीव विज्ञान और जीव विज्ञान में आम लोगों के विश्वास के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है । इंग्लैण्ड के तो अधिकांश लोग जैव विकास में विश्वास करते हैं । लगभग १००० लोगों के एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत के ८० प्रतिशत लोग जैव विकास में यकीन करते   हैं । इनमें ८५ प्रतिशत ऐसे लोग भी हैं जो ईश्वर को मानते हैं । 
     यह तो स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन व धर्मो में जीवन की उत्पत्ति को लेकर विचार ईसाई धर्म के जेनेलिस से कहीं अधिक जटिल हैं । जैसा कि राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन संबंधी अपने ग्रंथ में बताया था, ऋगवेदिक संहिता बहु ईश्वरवाद से एकेश्वरवाद में और अंतत: अद्वैत में बदल गई ।
    इसके बाद भारतीय षटदर्शन में स्पष्टत: धार्मिक से लेकर तर्कवादी सांख्य और खुलेआम नास्तिक और भोगवादी चार्वाक, जिसमें सृष्टा के लिए कोई स्थान नहीं है, तक शामिल हैं । विचार और घरानों की इस विविधता को देखते हुए यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है कि वर्तमान में भारतीय हिन्दुआें के लिए जैव विकास की धारणा किसी विवाद को जन्म नहीं देती ।
    आधुनिक जीव विज्ञान पर आते हैं । जीव वैज्ञानिक जैव विकास का अध्ययन कैसे करते हैं ? जैव वैज्ञानिकों द्वारा जैव विकास के अध्ययन के लिए एक औजार का उपयोग किया जाता है जिसे फायलोजेनिटिक्स कहते हैं । इसके अन्तर्गत वैज्ञानिक कोशिश करते हैं कि कुछ मापन योग्य गुणों के आधार पर वर्तमान प्रजातियों के बीच कड़ियां जोड़े । एक बार ये अंतरसंबंध स्थापित हो जांए, तो तार्किक दलीलों का उपयोग करके यह पता करने की कोशिश की जाती है कि इन मौजूदा जीवों के पूर्वजों की प्रकृति क्या रही होगी । ये मापन योग्य गुण किसी जीव की शरीर रचना से संबंधित भी हो सकते हैंऔर आणविक संघटन से संबंधित भी हो सकते हैं ।
    आनुवंशिक पदार्थ होने के नाते डीएनए फायलोजेनेटिक्स या आणविक जैव विकास के अध्ययन के लिए पसंदीदा अणु है । १९७० के दशक में कार्ल वीस ने डीएनए अनुक्रमण (डीएनए के अणु में क्षारों का क्रम पता करने) की नवीनतम तकनीकों का उपयोग करके दर्शाया था कि जीवन के तीन प्रमुख समूह (जगत) है, बैक्टीरिया, आर्किया (जो कई इंतहाई परिवेशोंमें मिलते हैं, जैसे गहराई में उपस्थित गर्म पानी के झरने) और यूकेरिया (सत्य- केन्द्रकी) । यूकेरिया के अन्तर्गत फफूंद, कृमि और मक्खियों, मनुष्य और पौधों समेत वे सारे जैव आते हैं, जो बैक्टीरिया या आर्किया नहीं है ।
    जैव विकास के अध्ययन का बुनियादी संदर्भ बिन्दु वह है जिसे आधुनिक वैकासिक संश्लेषण कहते  हैं । इसके तहत चार्ल्स डारविन के विचारों और ग्रेगर मेंडल के विचारों के बीच तालमेल बनाया गया है । चार्ल्स डारविन जहां जैव विकास के प्रवर्तक है वहीं मेंडल आधुनिक जेनेटिक्स के । आधुनिक संश्लेषण कहता है कि जैव विकास आम तौर पर उत्परिवर्तनों (म्यूटेशन्स) के जरिए होता है । ऐसे प्रत्येक उत्परिवर्तन का हल्का सा असर होता है । और जिस जेनेटिक रूप से परिवर्तित जीव में थोड़ी ज्यादा जीवनक्षमता (फिटनेस), जिसे संतान पैदा करने की क्षमता के आधार पर परिभाषित किया जाता है, होती है वह अन्य से आगे निकल जाता है और उसकी संख्या बढ़ जाती है । इसमें से दूसरे बिन्दु को प्राय: प्राकृतिक चयन या सर्वोत्तम की उत्तर जीविता कहते हैं । डारविन के शब्दों में एक सामान्य नियम है जो सारे संजीवों की प्रगति का मार्ग है - संख्यावृद्धि करो, विविधता बनाए रखो और सबसे शक्तिशाली को जीने दो, सबसे दुर्बल को मर जाने दो ।
    जैव विकास के बारे में आम तौर पर यह माना जाता है कि वह करोड़ों-अरबों सालों में होता है । उदाहरण के लिए, यूकेरिया के साझा पूर्वज लगभग २ अरब वर्ष पहले अस्तित्व में रहे होंगे और इन कई युगों ने जीवन के कई रूपों को जन्म दिया है, जो आज हमें दिखाई देते हैं। ज्यादा हाल के वर्षो में देखे, तो करीब १.५ करोड़ वर्ष पहले वनमानुष अस्तित्व में आए, और इसके बाद अपने वनमानुष पूर्वजों से आदिम मनुष्यों के विकास में करीब १.२ से १.३ करोड़ साल और लगे ।
    मगर फिलहाल तो हम इस पचड़े में नहीं पड़ेगे कि वैज्ञानिकों ने आदिकालीन अजैविक रसायनों की खिचड़ी में से जीवन की उत्पत्ति को समझने की किस तरह की कोशिश की हैं । यहां हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाआें में जैव विकास की प्रक्रियाको प्रत्यक्ष रूप में देखने के लिए क्या तरीके अपनाते हैं ।
    प्रयोगशाला में विकास के प्रयोग में किसी पंसदीदा बैक्टीरिया को निर्धारित परिवेश में कई बार पनपाया जाता है । परिवेश को हम पोषक तत्वों या तापमान व अम्लीयता में परिवर्तन जैसे तनावों या एंटीबायोटिक अथवा अन्य विषैले पदार्थो की सांद्रता के आधार पर परिभाषित करते हैं ।
    मान लीजिए कि जिस बैक्टीरिया आबादी के साथ हमने शुरूआत की थी वह किसी एंटीबायोटिक के प्रति संवेदी थी (यानी उससे प्रभावित होती थी) । मगर उसके जीनोम में एक अकेला उत्परिवर्तन प्रतिरोध पैदा कर सकता है । यह भी मान लेते हैं कि प्रयोग के बर्तन में १० लाख बैक्टीरिया है और प्रत्येक बैक्टीरिया के जीनोम में १० लाख इकाइयां (यानी क्षार) हैं जिनमें से हरेक में सिद्धांतत: उत्परिवर्तन हो सकता है और बेतरतीब  ढंग से उत्परिवर्तन की संभाविता प्रति दस पीढ़ी में एक है । लिहाजा किसी उत्परिवर्तन के द्वारा किसी एक बैक्टीरिया में प्रतिरोध पैदा होने की संभावना प्रति पीढ़ी दस लाख में एक है जो काफी कम है ।
    अलबत्ता, हमने शुरूआत १० लाख बैक्टीरिया से की है । इसका मतलब है कि उस बर्तन में किसी एक बैक्टीरिया में उत्परिवर्तन की संभावना १० में १ है । यह कोई छोटी संभाविता नहीं है । यदि बैक्टीरिया में औसतन हरेक घंटे में प्रजनन करके आबादी दुगनी हो जाती है, तो एक दिन के अंदर प्रतिरोधी बैक्टीरिया के नजर आने की संभावना काफी अधिक हो जाती है । यदि एक अकेला प्रतिरोधी बैक्टीरिया भी तैयार हो जाता है तो वह जल्दी ही पूरी आबादी पर हावी हो जाएगा । हाल में जीनोम अनुक्रमण की तकनीक में काफी प्रगति हुई है और ऐसे प्रयोगों की लागत भी कम हुई है । इसके परिणामस्वरूप उत्परिवर्तनों की खोज की प्रक्रिया काफी आम हो गई है ।
    प्रयोगशाला में किए गए इन अध्ययनों से हमें बैक्टीरिया की बुनियादी शरीर क्रिया (कार्यिकी) के बारे में काफी कुछ समझ मेंआया   है ।  इनमें कनाड़ा के विलियम नवारे की प्रयोगशाला का यह ताजा अवलोकन शामिल है कि एक अकेला प्रोटीन टायफोइड-जनक साल्मोनेला में कई अन्य प्रोटीन के उत्पादन का नियमन करता है और यह प्रोटीन बैक्टीरिया द्वारा रोग पैदा करने के लिए अनिवार्य है । इस प्रोटीन के अभाव में साल्मोनेला के लिए उन अस्त्रों का रख-रखाव बहुत महंगा हो जाता है जिनके दम पर यह टाइफॉइड उत्पन्न करता है । इतनी अधिक लागत को सहन न कर पाने की वजह से साल्मोनेला हाथ खड़े कर देता है और शांति के प्रयास करता है ।
    कई अन्य अध्ययनों में से ऐसे प्रयोगों का उपयोग उत्परिवर्तन की दर नापने के लिए किया गया    है । विकास के अध्ययन की दृष्टि से उत्परिवर्तन की दर का बहुत महत्व   है ।  इसका महत्व संक्रामक रोगों के प्रसार के अध्ययन में भी है ।
    हमने अपने काम के दौरान ई.कोली के विकास का अध्ययन करके यह दर्शाया कि इस बैक्टीरिया के गुणसूत्र के दो अर्धाश एक-दूसरे से कैसे वार्तालाप करते हैं । इसके आधार पर इस वार्तालाप के आणविक कारणों को लेक सवाल उठे हैं । मेरी सहकर्मी दीपा आगाशे की प्रयोगशाला में विकास के अध्ययन का उपयोग यह दर्शाने के लिए किया गया है कि उत्परिवर्तनों का एक समूह है जो कोशिका में बनने वाले प्रोटीन्स की प्रकृति को प्रभावित नहीं करते, मगर इनका कोशिका की कार्यिकी पर जबर्दस्त असर हो सकता है ।
    जैव विकास संबंधी सबसे मशहूर प्रयोगशाला अध्ययन यूएस के रिचर्ड लेंस्की की प्रयोगशाला में चल रहा है । वे पिछले तीस वर्षो से ई-कोली में विकास करवा रहे हैं और करीब ५०,००० पीढ़िया पैदा करवा चुके हैं । तुलना के लिए, मनुष्यों में ५०,००० पीढ़ी की अवधि शायद १० लाख सालों की होगी ।
    लेंस्की के अध्ययनों में एक महत्वपूर्ण खोज यह है कि उत्परिवर्तनों की एक अजीबोगरीब श्रंृखला होती हे जो ई.कोली को साइट्रिक अम्ल का उपयोग करने में समर्थ बना देती है। (ई.कोली सामान्यत: साइट्रिक अम्ल का उपयोग नहीं कर पाता । साइट्रिक अम्ल नीम्बु, संतरे, मौसम्बी का एक प्रमुख घटक होता है और ऊर्जा उत्पादन की कोशिकीय क्रिया का एक महत्वपूर्ण मध्यवर्ती पदार्थ है ।) यह मामला सर्वोत्तम की उत्तरजीविता का लगता है - तर्क यह है कि इस उत्परिवर्तन ने ई.कोली को इस ढेर सारे साइट्रिक अम्ल के उपयोग में समर्थ बनाया है जो शायद पर्यावरण में पोषण के उद्ेदश्य से नहीं पहुंचा   है ।
    एक बात यह है कि लेंस्की के अध्ययनों के मशहूर होने का एक परिणाम यह हुआ है कि इसने सृष्टिवादियों का ध्यान आकर्षित किया है जिसमें से कुछ रोचक चर्चाएं उभरी है । बैक्टीरिया भक्षी वायरसों की खोज को करीब १०० वर्ष हो गए    हैं । बैक्टीरिया भक्षी वायरसों की खोज आणविक जीव विज्ञान में एक युगांतरकारी घटना थी । इसने जैव विकास पर निर्णायक शोध को संभव बनाया क्योंकि ये वायरस काफी तेजी से बहुगुणित होते हैं और जेनेटिक विविधता का पहाड़ खड़ा कर देते हैं जिसके आधार पर प्राकृतिक चयन अपना काम कर सकता है ।
    फेलिक्स डी हेरेल ने दर्शाया है कि बैक्टीरिया भक्षी वायरस अपने शिकार को लेकर काफी नखरैल होते हैं । अर्थात प्रत्येक बैक्टीरिया भक्षी किसी विशिष्ट किस्म के बैक्टीरिया को ही संक्रमित करके मारता है । डी हेरेल बैक्टीरिया भक्षी के खोजकर्ताआें में से एक हैं और ऐसे बैक्टीरिया भक्षी वायरसों की मदद से उपचार के अग्रणी शोधकर्ता हैं । सूक्ष्मजीवों में प्रतिरोध की समस्या के चलते शायद इस तरह के उपचार को एक बार फिर मौका मिलेगा । अलबत्ता, डी हेरेल ने यह भी दर्शाया है कि यदि बैक्टीरिया भक्षी वायरसों की एक जमात को ऐसे बैक्टीरिया के संपर्क में रखा जाए तो उसके पसंदीदा बैक्टीरिया से मिलते-जुलते हों, तो ये वायरस जल्दी ही नए शिकार को अपना भोजन बनाने की सामर्थ्य हासिल कर लेते हैं ।
    आगे चलकर १९४० के दशक में साल्वेडोर लूरिया और मैक्स डेलबु्रक ने बैक्टीरिया भक्षियों और बैक्टीरिया को लेकर कुछ सुन्दर प्रयोग करके जैव विकास के एक महत्वपूर्ण सवाल को संबोधित करने की कोशिश की थी । मान लीजिए कि बैक्टीरिया की एक जमात है जो मूल रूप से एक बैक्टीरिया भक्षी द्वारा खाए जाने के योग्य है मगर आगे चलकर यह आबादी इस हमले के खिलाफ प्रतिरोधी हो जाती है । सवाल यह है कि क्या इन बैक्टीरिया ने वायरस से संपर्क के बाद ये लाभदायक उत्परिवर्तन उत्पन्न किए हैं या क्या प्राकृतिक चयन ने पहले से मौजूद (संयोगवश पैदा हुई) विविधता में से चुनाव किया है ? इसे आम तौर पर अनुकूलन आधारित विकास की बहस कहा जाता है ।
    लूरिया और डेलबुक ने आसान से सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक प्रयोग किए थे जिनमें बैक्टीरिया की कई स्वतंत्र आबादियों को बैक्टीरिया भक्षियों के संपर्क में रखा गया । शोधकर्ताआें ने यह मापन किया कि बैक्टीरिया के प्रतिरोधी रूप किस गति से पैदा होते हैं । अपने प्रयोगों से प्राप्त् परिणामों की तुलना उन्होंने इस प्रक्रिया के दो वैकल्पिक संभाविता आधारित मॉडल्स से की । इस तुलना के आधार पर वे दर्शा पाए कि बाद वाली प्रक्रिया (यानी पहले से मौजूद विविधता में से चयन) ज्यादा संभव है । इस प्रयोग को उतार-चढ़ाव परीक्षण या फ्लक्चुएशन टेस्ट कहते हैं ।
    यह वैज्ञानिक विमर्श की ताकत का प्रतीक है कि इन आसान से प्रयोगों के परिणामों पर आज भी गणितज्ञ और सैद्धांतिक जीव वैज्ञानिक नए-नए दृष्टिकोणों से चर्चा कर रहे हैं । और आणविक व वैकासिक जीव वैज्ञानिकों की नजर में अनुकूलनआधारित विकास का सवाल आज भी बहस का विषय का बना हुआ है ।
प्रदेश चर्चा
म.प्र. : बढ़ती बिजली, बढ़ता घाटा
राजकुमार सिन्हा
    मध्यप्रदेश सरकार अपने विद्युत संयंत्रों से बिजली न खरीद कर निजी उत्पादनकर्त्ताओं से खरीद रही हैं । यह समझ के परे है कि सरकार अपने निवेश को बट्टेखाते में क्यों डालना चाहती है ।
    केन्द्रीय बिजली प्राधिकरण की रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश में पहली बार चालू वित्तीय वर्ष में बिजली का उत्पादन मांग से ज्यादा होने का अनुमान है । म.प्र. में मांग से १२ प्रतिशत अधिक बिजली उपलब्ध है । दूसरी ओर म.प्र. सरकार द्वारा निजी क्षेत्र की बिजली उत्पादन कम्पनियों से हुए अनुबंध एवं उसमें समाहित शर्तों के चलते मांग के बावजूद सरकारी ताप विद्युत गृहों की ११ इकाइयों को रिजर्व शटडाउन में रखना मजबूरी बना हुआ है । 
     अगर इन ११ इकाईयों को पूर्ण कार्यक्षमता पर चलाया जाता तो अतिरिक्त बिजली का प्रतिशत और बढ़ जाता । सरकार द्वारा निजी कम्पनियों से  किए गए अनुबंध दीर्घकालिक हैं। अत: सरकारी ताप विद्युत गृहों को रिजर्व शटडाउन से निजात मिल पाना मुश्किल है । दूसरी ओर इन निजी कम्पनियों को सरकार द्वारा करोड़ों की राशि फिक्स चार्ज (स्थायी शुल्क) के रूप में दी जाती है । फिर सरकार चाहे बिजली खरीदे अथवा न खरीदे ।
    म.प्र. पावर जनरेटिंग कम्पनी में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण अमरकंटक, संजय गांधी, सतपुड़ा एवं सिंगाजी ताप विद्युतगृहों की कार्यक्षमता पचास प्रतिशत से भी कम हो गई है । कोयले की कीमत से ज्यादा कोयला परिवहन खर्च, काम की मूल लागत से कई गुना अधिक दर पर दिए गए ठेकों, लाईजनिंग व कमीशन एजेन्ट के चलते कोयले के साथ आई करोड़ों रुपयों की मिट्टी व पत्थर तथा अतिव्यय ने इनकी बिजली उत्पादन की प्रति यूनिट लागत इतनी उंचाई पर पहुंचा दी है कि वह मेरिट आर्डर डिमान्ड (सबसे कम बोली लगाने वाले) से बाहर हो गई है ।    
    गिरते उत्पादन अनुपात और सरकारी ताप विद्युतगृहों की महंगी बिजली बिकने की प्रतिदिन क्षीण होती जा रही संभावनाओं के बीच म.प्र. पॉवर जनरेशन कम्पनी ने ६५०० करोड़ का भारी-भरकम खतरा मोल लिया है । यह राशि सिंगाजी ताप विद्युत संयंत्र खण्डवा में ६६०-६६० मेगावाट की दो क्र्रिटिकल यूनिटों पर खर्च होना है । इसके लिए १३ प्रतिशत की ब्याज दर से ५२०० करोड़ का ऋण पॉवर फायनेन्स कारपोरेशन से लिया गया है । विचित्र स्थिति है कि मांग और उपलब्धता में भारी अंतर है और उसमें भी सरकारी विद्युतगृह अपनी भागीदारी नहीं कर पा रहे हैं । अर्थात् जनरेशन कम्पनी अपना मूल काम पॉवर जनरेशन ही ठ ीक से नहीं कर पा रही है तो नए ताप विद्युत संयंत्र लगाना समझदारी भरा कदम कैसे हो सकता है । अगर सरकार ने यह ठान ही लिया है तो उसे दो बातें सुनिश्चित करना चाहिए, पहली यह कि संयंत्र कभी बंद नहीं किया जाएगा एवं दूसरी यह कि पेंच की तरह निजी क्षेत्र की किसी कम्पनी को सिंगाजी संयंत्र नहीं दिया जाएगा ।
    म.प्र. सरकार द्वारा निवेश पाने के लालच में ७० से अधिक कम्पनियों से ८५ हजार मेगावाट के बिजली उत्पादन संयंत्र लगाने हेतु एमओयू किया गया है । म.प्र. विद्युत अभियंता संघ के संयोजक व्ही.के.एस. परिहार कहते हैं कि यह सरकार के सामने है कि किसतरह से योजनाकारों ने उनके सामने बिजली की मांग में अभूतपूर्व वृद्धि के आंकड़े पेश कर उसे गुमराह किया है । इसके अलावा इतने अधिक करार करने की वजह से सरकारी बिजली संयंत्रों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। मांग के फर्जी आंकड़ों की वजह से ही सरकार ने आंख बंद कर बिजली की दरें व समझौते की ऐसी शर्तेें भी मान्य की, जिनमें निजी कम्पनियों का हित अधिक था । इसके बावजूद करीब ८५ हजार मेगावाट वाले चार लाख करोड़ रुपये लागत के ऊर्जा संयंत्र न आ पाना चिंता का विषय  है ।
    म.प्र. के ऊर्जा मंत्री पारस चंद जैन का कहना है कि १५००० मेगावाट उपलब्धता के विरुद्ध अधिकतम मांग (पीक डिमांड) मात्र ९००० मेगावाट थी । अत: अधिक से अधिक उद्योग लगाने की जरूरत है जिससे कि बिजली की खपत हो  सके ।    
    यक्ष प्रश्न यह है कि जब उपलब्धता एवं मांग में इतना अंतर है तो नये बिजली संयंत्रों को लगाकर कृषि भूमि को खत्म करना तथा प्रदेश की ग्रामीण जनता को विस्थापित होने पर मजबूर करना कहां की समझदारी है ? क्या पुराने सरकारी संयंत्रों की कार्यक्षमता बढ़ाकर बिजली प्राप्त नहीं की जा सकती है ? क्या ट्रांसमिशन की हानि को नियंत्रित कर स्थापित क्षमता में वृद्धि नहीं की जा सकती है ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या मध्यप्रदेश सरकार वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोतों की ओर जाने की तैयारी कर भी रही है ?
खास खबर
क्या प्रदूषण सिर्फ दिल्ली में है ?
(विशेष संवाददाता द्वारा)

    इन दिनों दिल्ली में प्रदूषण खतरनाक स्तर तक जा पहुंचा है । भले ही इसका तात्कालिक कारण पटाखे या पंजाब-हरियाणा में जलाये जा रहे फसलों के अवशेष हों, पर मूल कारण यह है कि हमारा नगर नियोजन प्रकृति के अनुकूल नहीं है। इसीलिए प्रदूषण भी सिर्फ दिल्ली की समस्या नहीं है, बल्कि देश के अनेक शहरों मेंस्थिति कुछ फंसी ही है ।
    विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अभी हाल ही में वायु प्रदूषण को लेकर एक रिपोर्ट जारी की थी । इसमें २००८ से २०१५ के बीच ९१ देशों के सोलह सौ शहरों में वायु प्रदूषण का ब्यौरा दिया गया था । इस रिपोर्ट में दुनिया के २० सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से १३ शहर भारत के थे । इनमें ग्वालियर को दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बताते हुए इलाहाबाद, पटना, लुधियाना, कानपुर और रायपुर जैसे शहरों के बाद दिल्ली को भी इसी श्रेणी मेंे शामिल किया गया था । 
     इस रिपोर्ट का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि डब्ल्यूएचओ ने वायु प्रदूषण मापने का जो मानक तैयार किया है, उसके अनुसार पीएम २.५ (सांस के साथ जाने वाले पार्टिकल्स) का कान्सट्रक्शन प्रति घनमीटर १० माइकोग्राम से अधिक नहीं होना चाहिए । लेकिन वायु प्रदूषण से जुड़ी यह रिपोर्ट बताती है कि ग्वालियर में पीएम २.५ का जमाव सर्वाधिक १७६ माइकोग्राम प्रति घनमीटर यानी करीब १७ गुना से भी अधिक पाया जाता है । इलाहाबाद में यह १७०, पटना में १४९, रायपुर में १४४ तथा दिल्ली में इसका स्तर १२२ यानी १२ गुना के आसपास पाया जाता है । लेकिन दिल्ली में अभी भी जो धुंए की धुंध छाई हुई है, वह इससे कई गुना अधिक हो सकती है ।
    ध्यान रहे कि वायु प्रदूषण को मापने में पीएम यानी पर्टीकुलेट  मैटर इन साइज (२.५-१० माइक्रो मीटर कान्सट्रक्शन) को बहुत अहमियत ही नही दी जाती है, बल्कि इस प्रदूषण को मापने के लिए यह एक गंभीर पैमाना भी है । इसी पैमाने के आधार पर दिल्ली से पहले ग्वालियर को सबसे अधिक प्रदूषित शहर घोषित किया गया था । अभी कुछ समय पहले भी वायु प्रदूषण से जुड़ी अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट एनवायरमेंटल परफॉरमेंस इंडेक्स (ईपीआई) आई थी । इस रिपोर्ट में वायु प्रदूषण के मामले में भारत की गंभीर स्थिति को बयान करती है ।
    दिल्ली के पर्यावरण को सबसे बड़ा खतरा सार्वजनिक परिवहन की अपर्याप्त्ता से है । इसी लिए वहां निजी वाहनों की संख्या बढ़ती जा रही है और धुंए के कारण वायु प्रदूषण फैलता जा रहा है । बढ़ते वायु प्रदूषण की एक वजह यह भी है कि सड़कों व मेट्रो रेल लाइन के विस्तार के कारण पेड़-पौधे लगातार नष्ट किए गए है । वायु प्रदूषण संबंधी पिछले दो-तीन साल के आंकड़े गवाह है कि दिल्ली में सांस और दमे के दर्जनों मरीज दम तोड़ रहे हैं । उन बच्चें की स्थिति तो और भी खराब है, जिनके नाजुक फेफड़े इस प्रदूषण को झेलने में अक्षम हैं । यह एक कड़वा सच है कि दिल्ली का पर्यावरण कुछ तो नगर के अनियोजित विकास की भेंट चढ़ रहा है तथा बचे-खुचे पर्यावरण को वहां वाहनों की बढ़ती संख्या, फसलों के अवशेष जलाने से उठने वाला धुंआ और आतिशबाजी लील रही है ।
    एक सच्चई यह भी है कि बढ़ते वाहनों के कारण ट्रेफिक जाम की समस्या भी उत्पन्न हो रही है । ट्रेफिक जाम के कारण दिल्ली जैसे शहरों में न केवल लोगों का समय बर्बादा हो रहा है, बल्कि उन्हें आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ रहा है । सेंटर फॉर ट्रांसफार्मिग इंडिया की हालिया रिपोर्ट बताती है कि ट्रेफिक जाम में अकेले दिल्ली जैसे शहर में १० करोड़ रूपए की वार्षिक हानि लोगों को झेलनी पड़ती है । हालांकि, पिछले दिनों दिल्ली सरकार के ऑड-इंविन प्रयोग और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने वाहनों पर शिकंजा कसकर वायु प्रदूषण और ट्रेफिक जाम पर लगाम लगाने की कोशिश की थी, पर ये प्रयोग भी कोई खास कामयाबी नहीं दिला सके ।
    विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस रिपोर्ट को केन्द्र में रखकर जब हम नगरों की वास्तविक स्थिति से जुड़े आंकड़ों पर नजर डालते हैं तो पता चलता है कि भारत की कुल आबादी का ३५ फीसदी हिस्सा शहरों में रहता है । यह शहरी वर्ग सकल घरेलू उत्पाद का मात्र छह फीसदी पैदा करता है । वही राजस्व में इसका योगदान ९० फीसदी है । दुनिया के बीस में से सबसे अधिक आबादी वाले पांच शहर भारत में है । अर्थात् आज के महानगरों, की आबादी का ६५ फीसदी हिस्सा दिल्ली, मुम्बई और कोलकाता में निवास करता है । यानी, देश में शहरी आबादी जिस तेजी से बढ़ रही है, उससे २०३० तक इसके ७० फीसदी से अधिक हो जाने का अनुमान है ।
    इस संदर्भ में प्रसिद्ध मैकिंजे कंपनी ने हाल ही में जो रिपोर्ट जारी की है, वह ध्यान देने योग्य है । इस रिपोर्ट के अनुसार आबादी बढ़ने पर नगरीय ढांचे में परिवर्तन को संभालने के लिए भारत को भविष्य में पांच सौ से अधिक शहरों की आवश्यकता पड़ेगी । उस समय निजी वाहनों और उनसे निकलने वाले धुंए की क्या स्थिति होगी, इसका अंदाजा यहां खुद ही लगाया जा सकता है । शहरों की चकाचौंध से प्रभावित होकर चार्ल्स डिक्रिन्स ने अपनी पुस्तक ए टेल ऑफ टू सिटीज में लिखा है कि शहर अब थकने लगे है । वक्त के साथ कदम ताल करते -करते अब उनकी सांसें उखड़ने लगी है ।
    दरअसल, चार्ल्स ने नगरों की यह कहानी यूरोप में औघोगीकरण के बाद टूटते-बिखरते शहरों के विषय मेंदोहराई थी । उन्होनें अपनी पुस्तक में नगरों में उत्पन्न उस युग का दर्द निराशा, छटपटाहट और उम्मीदों का फलसफा बयान किया था । असल में आज दिल्ली व मुम्बई जैसे महानगर अपनी जो कहानी बयां कर रहे हैं, उनका दर्द भी चार्ल्स डिकिन्स के शहरी दर्द से कहीं ने कहीं मेल खाता ही है । यह तो कहने की आवश्यकता ही नहीं है कि आज हम जो शहर यूरोप की तर्ज पर विकसित कर रहे हैं, उनमें भौतिकवाद व उस दुनिया की चमक-दमक का बाहुल्य है । नि:संदेह हम नगरों के भौतिक और बुनियादी ढांचे के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकते, पर यूरोप की कार्य-संस्कृति, अनुशासन, प्रतिबद्धता, समय पालन, यातायात अनुशासन, पर्यावरण संरक्षण और कानून व्यवस्था जैसे तंत्र का भी हमें अपनी नगरीय व्यवस्था में समावेश करने की अब महती आवश्यकता है ।
    शहर गगनचुंबी इमारतों, सड़कों, पार्को और चम-चमाती कारों का ही ढांचा मात्र नहीं हैं, बल्कि वे तो विकास के बहुत बड़े केन्द्र भी     है । इसलिए शहरोंके सुनिश्चित विकास के साथ ही हमें वहां एक ऐसी प्रदूषण मुक्त संस्कृति विकसित करनी पड़ेगी, जहां लोगों का निजी वाहनों पर दबाव कम हो और प्रकृति के साथ तारतम्य अधिक हो । विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट व दिल्ली की फिजा में छाए धुंए ने हमें एक मौका प्रदान दिया है कि हम सभी बढ़ते वायु प्रदूषण पर गंभीरता से विचार करें ।
पर्यावरण परिक्रमा
कूड़ा जलाने से हवा हो जाती है खराब
    भारत को लेकर चौंकाने और चिंता में डालने वाली रिपोर्ट आई     है । यहां पर सड़क के किनारे कूड़ा जलाए जाने से जो धुंआ पैदा होता है, वह सामान्य हवा को एक हजार गुना तक जहरीला बना देता है । उसमें सांस लेने से तमाम तरह की बीमारियों का अंदेशा बना रहता है । यह बात अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट में कही गई    है ।
    रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में हर साल करीब दो अरब टन कूड़ा पैदा होता है । इसमें से करीब आधे कुड़े को जलाकर खत्म किया जाता है । जो कूड़ा जलाया जाता है, उसका ज्यादातर भाग आबादी वाले इलाकों में जलाया जाता है । बहुत से शहरों में कूड़े को एकत्रित करने के लिए कोई तरीके वाली व्यवस्था नहीं है । भारत में ऐसे तमाम शहर हैं । इन्हीं शहरों में सड़कों और गलियों के किनारे जहां-तहां कूड़ा पड़ा रहता है और उसे निस्तारण के नाम पर एकत्रित करके जला दिया जाता है ।
    बैगलूरू जैसे शहरो में हालात कमोबेश यही है । यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर माइकेल बर्जिन के अनुसार अगर कहीं आग लगे कूडे के ढेर के पास खड़े होकर सांस ली जाए तो सामान्य हवा से एक हजार गुना ज्यादा जहरीली हवा शरीर में जाएगी । कोई व्यक्ति दिन में सिर्फ एक मिनट के लिए ऐसी हवा में सांस ले ले तो उसके शरीर कई नुकसानदायक तत्व पहुंच जाते हैं । यह रिपोर्ट एक साइंस जर्नल में प्रकाशित हुई है ।

एलपीजी सिलेंडर अब सुन्दर और आकर्षक होगे
    घरेलू रसोई गैस उपभोक्ताआें के लिए अच्छी खबर है । भारत सरकार के पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय आगामी दिनों में ऐसे पारदर्शी रसोई गैस सिलेंडर उपलब्ध कराएगा । इसमें लीकेज होने, आग लगने या फटने की समस्या ही नहीं होगी ।
    इसके साथ ही सिलेंडर में पुरानी सील की जगह अब नए प्रकार की सील लगी होगी, जिससे यदि कोई आपके सिलेंडर में से गैस निकलेगा तो पता चल जाएगा । अगर सब कुछ सही रहा, तो अगले साल तक सभी गैस कंपनियां अपने उपभोक्ताआें को पारदर्शी रसोई गैस सिलेंडर देगा ।
    सुविधाजनक होगा सिलेंडर :- एचसीपीएल एवं बीपीसीएल गैस कंपनी ने कई जिलों में नई सील लगे सिलेंडर की आपूर्ति शुरू कर दी है । टेंपर्ड प्रूफ सील में खास तरीके के प्लास्टिक का उपयोग किया जाएगा । सील पर विशेष प्रकार के होलोग्राम की पट्टी लगाई जाएगी जो सिलेंडर के पूरे नोजल को कवर करती है । यह एक बार सिलेंडर पर लग गई तो पूरी तरह फिट हो जाती है । खोलने-निकालने की कोशिश करने पर यह सील टूट जाती है, जिसे वापस नहीं लगाया जा सकता है ।
    सरकार के मुताबिक सालभर में पारदर्शी सिलेंडर हर जगह उपलब्ध कराया जाएगा । इसके बाद मंत्रालय सभी गैस एजेंसियों द्वारा सप्लाई किए जाने वाले सिलेंडर की सील बदलेगा, जिससे गैस की रीफिलिंग, कालाबाजारी पर पूर्णत: रोक लगाया जा सकता है । पारदर्शी रसोई गैस सिलेंडर की सिक्युरिटी करीब २४००-२४५० रूपये होगी । पुराने उपभोक्ता ९५० से १००० रूपये अतिरिक्त देकर पुराने सिलेंडर को बदलकर पारदर्शी सिलेंडर ले    सकेगें ।
    पुरानी सील की जगह नई की प्लास्टिक ऐसी, जिसे निकालने पर चटक जाएगी । अभी पुरानी सील की प्लास्टिक इतनी पतली नरम होती है कि अगर इस पर गरम पानी डाला जाए तो यह फैल जाती है । जिसे निकालकर अवैध रीफिलिंग कर लेते हैं, जिससे उपभोक्ता को पता नहीं लग पता है कि सिलेंडर से गैस निकली है या नहीं । नई सील लगाने के बाद अगर सील से जरा भी छेडछाड़ की गई, तो वह चटक जाएगी और दुबारा नहीं जुड़ेगी ।
 तय मात्रा से ज्यादा नमक खाते हैं भारतीय
    भारतीय अपने खाने में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा तय की गई मात्रा का दोगुना नमक लेते है । ज्यादा नमक खाने से ह्दय रोग का खतरा बढ़ता है और समय से पहले मौत होने लगी है । जार्ज संस्थान की ओर से किए गए अध्ययन में कहा गया है कि १९ वर्ष से अधिक उम्र के लोग रोजाना १९.९८ ग्राम नमक खाते हैं । डब्ल्यूएचओ ने रोजाना पांच गा्रम नमक के सेवन को ही उचित माना है । देश के दक्षिणी और पूर्वी हिस्से के लोग नमक का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करते हैं ।
    उच्च् रक्तचाप में नमक सबसे बड़ी भूमिका निभाता है । रक्तचाप बढ़ने से ह्रदय रोग का खतरा बढ़ जाता है । देश में हर साल करीब २३ लाख लोग ह्रदय रोग के कारण मौत के शिकार होते हैं ।    
१० वर्ष में भूजल खतरनाक स्तर तक नीचे चला जाएगा
    यदि धरती के संसाधनों का बेतहाशा दोहन जारी रहा तो आबोहवा में बदलाव के कारण देश में अगले १० वर्षो में ६० प्रतिशत भूजल खतरनाक स्तर पर नीचे चला जाएगा, जबकि २५ प्रतिशत उपजाऊ जमीन बंजर होना शुरू हो जाएगी ।
    विश्व वन्य जीव कोष की जीवंत ग्रह शीर्षक की २०१६ की ताजा रिपोर्ट के अनुसार मानवीय गतिविधियों के कारण वैश्विक तापमान बढ़ने से वर्ष २०८० से २१०० तक खाघान्न उत्पादन में ४० प्रतिशत की कमी होने की आशंका  है । इसके अलावा ७० प्रतिशत जलस्त्रोतों के प्रदूषित होने का खतरा है । देश मे साफ पानी में रहने वाली ७० प्रतिशत मछलियां लुप्त् होने के कगार पर हैं, जबकि ५७ प्रतिशत उभयचर लुप्त्प्राय है । वर्ष १९९१ से अब तक ३८ प्रतिशत दलदली क्षेत्र समाप्त् हो चुके हैं।
    रिपोर्ट के अनुसार समुद्र का जल स्तर प्रतिवर्ष १.३० मिलीमीटर से बढ़ा तो समूचे दक्षिण एशिया में भारत में जलवायु परिवर्तन का खतरा सबसे ज्यादा होगा । यदि वर्ष २१०० तक समुद्र का जल स्तर एक मीटर बढ़ गया तो १४००० वर्ग किलोमीटर तटवर्ती इलाका जलमग्न हो जाएगा । बाढ़, सुखा और लू के कारण २००० से २०१५ के बीच ५००० से ज्यादा लोगों की जानें   गई । वन्य जीवों की प्रजातियों के न रहने से इको प्रणाली ध्वस्त हो जाएगी और स्वच्छ हवा, पानी खाना जैसे प्राकृतिक संसाधन समाप्त् हो जाएंगे । श्री लंबेरतिनि ने कहा कि जैव विविधता के समाप्त् होने के खतरे के मद्देनजर मानव जाति को उत्पादन और उपभोग के तौर-तरीकों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है ।
    पिछले ४० वर्षो में उत्तरप्रदेश के बुंदलखंड और महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में कम बारिश हो रही है । विश्व में २०२० तक दो तिहाई वन्य जीवों का अस्तित्व समाप्त् हो जाने का खतरा है । वर्ष १९७० से २०१२ के बीच मछली, पक्षी, स्तनधारी, उभयचर और सरीसृप ५८ प्रतिशत तक कम हो चुके है । डब्ल्यू.डब्ल्यू. एफ के अंतर्राष्ट्रीय महानिदेशक डॉ. मार्कोलंबेरतिनी ने कहा - हमारे जीवनकाल में ही वन्य जीव अभूतपूर्व दर से नदारद होते जा रहे है । यह सिर्फ इस बात के लिए चिंता का विषय नहीं है कि जिन खूबसूरत वन्य जीवों को हम प्यार करते हैं, वे समाप्त् होते जा रहे हैं, बल्कि जैव विविधिता, जंगलों, नदियों और समुद्रों के लिए जरूरी है ।
कानून के शासन में भारत ६६वें पायदान पर
    कानून के शासन मामले में ०.५१ स्कोर के साथ भारत ६६ वें स्थान पर है । अमेरिकी शोध संगठन वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट (डब्ल्यूजेपी) ने अपने रूल ऑफ लॉ इंडेक्स २०१६ में दुनिया के ११३ देशों की रैकिग की है । अधिकांश कारकों में भारत चीन और पाकिस्तान से आगे है ।
बेहतर स्थिति  (शीर्ष  पांच देश)
रैकिंग  देश             स्कोर
१    डेनमार्क        ०.८९
२    नॉर्वे        ०.८८
३    फिनलैंड        ०.८७
४    स्वीडन        ०.८६   
५    नीडरलैंड    ०.८६   
    कानून के दायरे में सरकार - डेनमार्क शीर्ष पर है । भारत का स्थान ३५वां और स्कोर ०.६४ है । पाकिस्तान का स्थान ७२वां है । रूस और चीन भी हमसे पीछे है । दोनों का स्थान क्रमश: १०० और १०४ है ।
    भ्रष्टाचार मुक्त सरकारी महकमें- डेनमार्क शीर्ष पर है । भारत ०.४४ स्कोर के साथ ६९वे स्थान पर है । पाक ९७ स्थान पर   है । सरकार की पारदर्शिता - नॉर्वे शीर्ष पर है । भारत ०.६६ स्कोर के साथ २८वें स्थान पर हैं । पाकिस्तान और चीन क्रमश: ७९ और ८९ हैं ।
    मूलाधिकारों की रक्षा - डेनमार्क शीर्ष पर । भारत ०.५० स्कोर के साथ ८१वें स्थान पर हैं । रूस, पाकिस्तान और चीन क्रमश: ९७,१०१ और १०८ वें स्थान पर हैं ।
    नागरिक सुरक्षा - सिंगापुर शीर्ष पर है । भारत ०.५६ स्कोर के साथ १०४वें स्थान पर है । चीन ४१वें पाकिस्तान ११३ वें स्थान पर है ।
    सरकारी नीतियों का क्रियान्वयन - सिंगापुर शीर्ष पर    है । भारत ०.४६ स्कोर के साथ ७७वें स्थान पर है । वहीं चीन और पाकिस्तान क्रमश: ८० और १०९ स्थान पर है ।
ज्ञान-विज्ञान
इंग्लैण्ड की अदालत मेंप्रदूषण का मुकदमा
    युनाइटेड किंगडम सरकार को इस बात के लिए अदालत का सामान करना पड़ेगा कि वह वायु प्रदूषण को संभालने में असफल रही हैं । एक पर्यावरण समूह क्लाएन्ट- अर्थ ने वहां के हाईकोर्ट में याचिका दायर की है कि अदालत सरकार को आदेश दे कि वह वायु की गुणवत्ता के संदर्भ में ज्यादा कारगर व बेहतर योजना बनाए ।
       यह याचिका हवा में नाइट्रोजन डाईऑक्साइड नामक गैस की उपस्थिति से संबंधित है । यह गैस हार्ट अटैक और स्ट्रोक्स की संभावना में वृद्धि करती है और सांस संबंधी समस्याआें को जन्म देती है । नाइट्रोजन डाईऑक्साइड मुलत: सड़क यातायात के कारण हवा में घुलती रहती है । 
 

    याचिका में कहा गया है कि यूरोपिय संघ ने १९९९ में हवा में नाइट्रोजन डाईऑक्साइड की सीमा तय की थी और यह कानून २०१० में प्रभावी हो गया था । मगर आज भी यूरोप के अधिकांश हिस्सों में इस सीमा का उल्लघंन जारी है । यूरोप के कईशहरों में नाइट्रोजन डाईऑक्साइड का स्तर विश्व के अन्य शहरों के मुकाबले अधिक है क्योंकि यूरोप में अधिकांश कारे डीजल पर चलती है।  यूके में ४३ से ३७ क्षेत्र इस सीमा का उल्लघंन कर रहे   हैं ।
      पूर्व में यह मामला यूरोपीय अदालत के समक्ष आया था कि जिसने यह फैसला सुनाया था कि राष्ट्रीय अदालतें वायु प्रदूषण को कानूनी सीमा में रखने के लिए सरकारों को कार्यवाही का आदेश दे सकती है । तब यह मुकदमा वापिस यूके के सर्वोच्च् न्यायालय में पहूंचा । सर्वोच्च् न्यायालय में २०१५ में पर्यावरण मंत्रालय को आदेश दिया कि वह लोगों के साथ विचार-विमर्श के बाद जल्दी से जल्दी तत्काल कार्रवाई की ठोस योजना बनाये, लेकिन ठीक से शुरू नहीं हो पाई ।
    क्लाएन्ट अर्थ और अन्य अभियानकर्ताआें का कहना है कि सरकार जानबूझकर ढील दे रही है क्योंकि उसका मानना है कि जैसे-जैसे पुराने डीजल वाहनों का स्थान नए डीजल वाहन लेंगे, समस्या स्वत: हल हो जाएगी । मगर इसमें एक दिक्कत है - विभिन्न अध्ययन बताते है कि नई डीजल कारें पुरानी कारों की अपेक्षा कहीं ज्यादा नाइट्रोजन डाईऑक्साइड छोड़ती है । याचिकाकर्ताआें के मुताबिक एकमात्र हल यह है कि डीजल कारोंको पूरी तरह सड़कों से हटा दिया जाए । इसके अलावा ट्रक और कार में भी जरूरी परिवर्तन करना होंगे ताकि वे कम प्रदूषण फैलाएं ।
    बरहाल, इस मुकदमे से इतना स्पष्ट है कि प्रदूषण नियंत्रण की सीमाएं सिर्फ कागज की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं है, उन पर अमल करना भी जरूरी है ।

मोटापे से लड़ाई में शकर टैक्स की सिफारिश
    विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी ताजा रिपोर्ट में सिफारिश की है कि शकरयुक्त पेय पदार्थो पर टेक्स लगाया जाना चाहिए ताकि मोटापे और मधुमेह पर काबू पाया जा    सके ।
        विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पिछले सप्तह एक रिपोर्ट जारी की है फिस्कल पॉलीसीज फॉर डाएट एंड प्रीवेंशन ऑफ नॉन-कम्प्यूनिकेशन डीसीसेज (भोजन व असंक्रामक रोगों की रोकथाम हेतु वित्तीय नीतियां) रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष १९८० से २०१४ की अवधि में विश्व स्तर पर मोटापा दुगना हुआ   है । आज कम से कम ११ प्रतिशत पुरूष और १५ प्रतिशत महिलाएं मोटापे की श्रेणी में आते    हैं । संख्या के मान से देखे तो करीब ५० करोड़ लोग मोटापे के शिकार   है । यहां तक कि वर्ष २०१५ में ५ वर्ष से कम आयु के ४.२ करोड़ बच्च्े भी मोटे की श्रेणी में शुमार थे । इससे जु़़डा हुआ तथ्य यह है कि विश्व स्तर पर ४२.२ करोड़ लोग मधुमेह के मरीज है । 
     मोटापे के मामले में प्रतिशत के हिसाब से अमेरिका सबसे ऊपर है मगर यदि संख्यआें के हिसाब से देखेगे तो चीन में भी मोटे लोगों की संख्या अमेरिका के बराबर ही है ।
    विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के मुताबिक मोटापे में वृद्धि का एक बड़ा कारण शकरयुक्त पेय पदार्थ है जो कई देशों में बहुत लोकप्रिय है । फिलहाल संगठन की सिफारिश तो यह है कि व्यक्ति को अपनी कुल ऊर्जा की जरूरत में से अधिक से अधिक १० प्रतिशत सीधे शकर से प्राप्त् करना चाहिए ।
    इसका मतलब है कि एक अच्छे खाते-पीते व्यक्ति को दिन भर में अधिक से अधिक ५० ग्राम शकर का सेवन करना    चाहिए । यदि इसे ५ प्रतिशत किया जा सके तो और भी बेहतर है । शकर के अन्तर्गत ग्लूकोज, फ्रुक्टोज और सामान्य शकर शामिल है ।
    देखा गया है कि शकरयुक्त पेय पदार्थो का सेवन करने वाले लोग इस सीमा से कहीं ज्यादा शकर गटक जाते हैं । संगठन के मुताबिक यदि इन पेय पदार्थो को महंगा कर दिया जाए तो इनकी खपत कम   होगी । संगठन के असंक्रामक रोग व स्वास्थ्य प्रोत्साहन विभाग के टेमो वकानिवालु का कहना है कि इस बात के प्रमाण है कि ऐसे पदार्थ महंगे हो तो लोग इनका सेवन कम करते हैं । लिहाजा संगठन चाहता है कि सरकारें अपने-अपने देश में इन शकरयुक्त पेय पदार्थो पर अतिरिक्त टेक्स लगाएं और लोगों को मोटापे की महामारी से बचाएं ।

पक्षियों के समान मछलियां भी गाती हैं
    वैसे तो समंदर बहुत ही शांत प्रतीत होते हैं मगर अब शोधकर्ताआें ने मछलियों के वृंद गीत सुने हैं और उनका विश्लेषण करने की कोशिश कर रहे हैं ।
    ऑस्ट्रेलिया के पर्थ विश्वविघालय के रॉबर्ट मेककॉले पिछले तीस वर्षो से इन मछलियों के  गीतों को सुनने की कोशिश करते रहे हैं । हाल ही में उनके दल ने समुद्र में दो जगह ध्वनि रिकॉडिग की व्यवस्था की और परिणामों ने उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया । 
     यह व्यवस्था उन्होंने पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में पार्ट हेडलैण्ड के तट पर और तट से २१.५ किलोमीटर की दूरी पर की और पूरे १८ महीनों तक समंदर के शोर को रिकॉर्ड किया ।
    मैककॉले का कहना है कि अधिकांश ध्वनियां तो इकलौती मछलियां की होती है मगर कभी-कभी जब ये ध्वनियां एक साथ आती है तो वृंद गान का रूप ले लेती हैं । इन रिकॉर्डिग के विश्लेषण के आधार पर उन्होंने सात अलग-अलग किस्म के वृंग गान पहचाने  हैं जो पौ फटने के समय और गोधुली की बेला में सुनाई पड़ते हैं ।
    मैककॉले का कहना है कि ध्वनियां मछलियों के जीवन में कई भूमिकाएं अदा करती हैं । प्रजनन, भोजन और अपने इलाके की रक्षा जैसे कई संदर्भो मेंे इन ध्वनियों की भूमिका देखी गई है ।
    जैसे रात्रिचर मछलियां शिकार के दौरान झुंड में साथ-साथ बने रहने के लिए कुछ ध्वनियों का इस्तेमाल करती है जबकि दिन में सक्रिय मछलियां अपनी आवाज का उपयोग अपने इलाके की रक्षा हेतु करती है ।
    शोधकर्ताआें का कहना है कि ध्वनियों को रिकॉर्ड करके आप मछलियों की हलचल और उनकी इकोसिस्टम की निगरानी कर सकते है ।
    खास तौर से इस तरीक से आपको लंबे समय के आंकड़े   मिलते हैं । इस अध्ययन से एक   बात तो साफ हो जाती है कि   समंदरो में शोरगुल मछलियों के रहन-सहन को प्रभावित कर सकता है ।
प्रयास
प्राणवायु अभियान : पौधारोपण की अनुठी पहल
क्रांतिदीप अलूने

    केन्द्रीय भू-जल सर्वेक्षण बोर्ड नई दिल्ली द्वारा गत वर्षो में रतलाम जिले के ६ विकासखण्डों रतलाम, जावरा, बाजना, आलोट, पिपलोदा एवं सैलाना में से चार विकासखण्डों रतलाम, जावरा, आलोट एवं पिपलौदा को गिरते भू-जल स्तर को देखते हुए ओवर एक्सलॉइटेड झोन घोषित किया  गया । क्षेत्र में भू-जल स्तर खतरनाक स्थिति से नीचे चला गया ।
    क्षेत्र को धीरे-धीरे रेगिस्तान में बदलने की कगार पर पहुंचाने से बचाने के लिये कलेक्टर बी.चन्द्रशेखर द्वारा पूर्व में किये गये वृक्षारोपण कार्यो से हटकर शत-प्रतिशत उत्तरजीविता सुनिश्चित करने वाले वृक्षारोपण कार्य को अंजाम दिया गया । इस सम्पूर्ण कार्य को प्राणवायु अभियान के रूप में संचालित किया गया । जिले में इस अभियान अन्तर्गत चार श्रेणियां निर्धारित करते हुए विभिन्न प्रजातियों के लगभग छ: लाख ३६ हजार २७८ पौधे लगाये गये । 
     पौध रोपण के पूर्व विस्तृत कार्य योजना तैयार की गई । आवश्यक तकनीकी प्रशिक्षण दिया गया । मॉनिटरिग के लिये दल गठित किये गये । पौधों की सिंचाई एवं सुरक्षा के लिये पौध रक्षक नियुक्त किये गये । समस्त अभियान को समयसीमा निर्धारित करते हुए संचालित किया गया । परिणाम स्वरूप आज रतलाम जिले में एक समय में एक साथ लाखों की संख्या में पौधे लहलहा रहे है जो आने वाली पीढ़ी को सतत पर्यावरण संरक्षण के लिये प्रेरित करते रहेगे ।
    प्राणवायु अभियान के  अन्तर्गत सड़क किनारे किये गये प्रत्येक एक किलोमीटर के दायरे में पौध रोपण और जहां एक साथ पचास पौधे लगाये गये की सुरक्षा के लिये एक पौध रक्षक को रखा गया । पौध रक्षक मनरेगा योजना के मस्टर रोल पर तकनीकी एवं प्रशासकीय स्वीकृति अनुसार रखा गया । पौध रक्षकों को भुगतान मनरेगा योजनान्तर्गत ही किया जा रहा है । प्रत्येक पौध रक्षक को प्राणवायु अभियान लिखी हुई दो टी-शर्ट एवं एक टोपी प्रदान की गई ताकि उसकी पहचान सुनिश्चित की जा सके ।
    पौध रक्षक मार्ग के दोनों और लगे पौधों की सिंचाई स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कराये गये जल स्त्रोंतो से करने के साथ ही उनकी सुरक्षा भी कर रहा है । स्थानीय रूप से उपलब्ध क्रॅटिली झाड़ियां अथवा ट्री गार्ड बनाकर पौधों की सुरक्षा भी सुनिश्चित की जा रही है । पौध रोपण का कार्य स्थानीय जनप्रतिनिधियों एवं विधायकों की उपस्थिति में जिले में कई स्थानों पर समारोहपूर्वक प्रारंभ किये गये ताकि आमजन को पौधों के  संरक्षण एवं बचाव के लिये जागरूक व प्रेरित किया जा सके ।
    प्राणवायु अभियान अन्तर्गत लगाये गये पौधो की सुरक्षा करने वाले छात्र या छात्र समूह सम्मानित हांेगे । शासकीय परिसरों में होने वाले पौध रोपण कार्य में पौधों की सिंचाई एवं सुरक्षा का दायित्व संबंधित संस्था प्रमुख का है । शालाआें, छात्रावासों आदि में विद्यार्थियों का विभिन्न नामो से समूह गठित कर रोपित पौधों की सिंचाई एवं सुरक्षा का दायित्व सौपा गया है । सबसे उत्तम पौधे पाये जाने  पर संबंधित विद्यार्थी अथवा समूह सम्मानित होगे ।
    नंदन फलोघान में लगने वाले पौधों की सिंचाई एवं सुरक्षा हितग्राही स्वयं कर रहा है । जिसकी प्रशासकीय स्वीकृति अनुसार उसे मजदूरी भी मिल रही है । ग्राम में स्थित खुली या पड़त भूमि पर सघन वन या उद्यान विकसित करने के कार्य में संबंधित क्षेत्र के वन विभाग के बीटगार्ड द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए उसकी सिंचाई एवं सुरक्षा का दायित्व निभाया जा रहा है । पहाड़ियों पर पौध रोपण व सिटिंग के कार्य में सिंचाई एवं सुरक्षा का कार्य भी संबंधित बीट गार्ड द्वारा किया जा रहा है ।
    प्राणुवायु अभियान अन्तर्गत सड़क के किनारे किये जाने वाले वृक्षारोपण मेंअधिकांशत: उन पौधों का रोपण किया गया है जिनको सामान्य तौर पर मवेशी नुकसान नहीं पहुंचाते है । सड़क किनारे यदि शासकीय भूमि पर्याप्त् रूप से उपलब्ध नहीं हुई वहां निजी भूमि पर पौध रोपण का कार्य किया गया । रोपित होने वाले पौधे जिस कृषक की भूमि पर पुष्पित और पल्लवित होंगे उन पौधों और वृक्षों का मालिकाना हक उसी कृषक का रहेगा ।
    इस अनूठी पहल के सूत्रधार जिला कलेक्टर बी. चन्द्रशेखर के अनुसार इस अभियान का मुख्य उद्देश्य निरन्तर कम होती हरियाली को बनाए रखना एवं उसमेंवृद्धि करना है ।
    सभी जानते हैं कि मनुष्य को जीवित रहने के लिये सबसे आवश्यक प्राणवायु होती है और यह भी कि वह हमें मात्र पेड़ पौधों से ही प्राप्त् होती है फिर भी निरन्तर पेड़ पौधे कम हो रहे हैं । अत: यह आवश्यक है कि पौधारोपण के कार्य को हम अपने जीवित रहने की प्रक्रिया से जोड़कर देखे । इसलिये पौधरोपण के इस अभियान को प्राणवायु नाम दिया गया है जिससे कि आम जनता की सहभागिता बढ़े और पौधे लगाते समय एवं उनकी सुरक्षा के समय यह बात उनके मन में रहे कि वे अपने एवं भविष्य की पीढ़ी के लिये प्राणवायु की उपलब्धता सुनिश्चित कर रहे हैं ।
    प्राय: हम देखते है कि प्रतिवर्ष लगाए गए पौधे सुख जाते हैं या नष्ट हो जाते हैं । पौधो की उत्तरजीविता अत्यन्त कम रहती है । इसका प्रमुख कारण निम्नानुसार होते हैं - पौधे की गुणवत्ता, उसे लगाने हतु किया गया गढ्डा, पौधा लगाने की प्रक्रिया, आवश्यक खाद, कीटनाशक, मिट्टी और लगाने के बाद उसकी पुख्ता सुरक्षा पर पर्याप्त् ध्यान न दिया जाना । प्राणवायु अभियान के तहत हमने सभी बिन्दुआें पर फोकस किया है जिससे शतप्रतिशत पौधे जीवित रहे और बड़े पेड़ों के रूप में विकसित हो ।                
कविता
धरती प्यार लुटाती अपनी
वृन्दावन त्रिपाठी रत्नेश

धरती प्यार लुटाती अपनी, खुशी लुटाता अम्बर है,
मानुष बना अमानुष क्यों तू, लिए हाथ में खंजर है ।

तेरी प्यास बुझाती नदियाँ, देती तुझको जीवन हैं ।
तरूआें में तेरी साँसे हैं, हर बूटी उगी संजीवन है ।।
धरती की गोदी हरियाली पर, तेरा डर क्यों बंजर है ।
मानुष बना अमानुष क्यों तू, लिए हाथ में खन्जर है ।।

पर्वत की छाती से जल ही पार निकलती है ।
पर तेरे हाथ की बन्दूकें अपनों पर आग उगलती है ।।
सत्कर्म बिना ऐ तू मानव, बिना पूंछ एक बन्दर है ।
मानुष बना अमानुष क्यों तू लिए हाथ में खंजर है ।।

पत्थर या डण्डे से मारो, वृक्ष सदा फल देते हैं ।
प्राण वायु अर्पित करके, खुद गरल वायु पी लेते हैं ।
मानवता की सेवा में क्यों नहीं डालता लंगर हैं ।
मानुष बना अमानुष क्यों तू, लिए हाथ में खंजर हैं ।।

घास-फूस खाकर भी गाये, अमृत-सा दुध पिलाती हैं ।
अपने सुन्दर बछड़ों से, धरती का रूप सजाती हैं ।।
कृपामयी है प्रकृति समूची सबको बनना सुन्दर है ।
मानुष बना अमानुष क्योंतू लिए हाथ में खंजर है ।।
वानिकी जगत
क्षतिपूर्ति वृक्षारोपण की सीमा का सवाल
जगदीश प्रसाद शर्मा
    भारत में धरती को माँ कहकर सम्बोधित करने एवं सुबह उठते ही सबसे पहले धरती माँ को प्रणाम करने की परम्परा रही हैं ।
    हरियाली धरती माँ का चीर है और पहाड़ों पर स्थित वृक्ष धरती माँ के सिर के बाल (केश) है । भरी सभा में दु:शासन द्वारा द्रोपदी के केश को पकड़कर घसीटने और फिर चीरहरण करने के फलस्वरूप महाभारत के भीषण युद्ध मेंहमारे देश का भारी विनाश हुआ था, जिससे हम अभी तक नहीं उबर पाये हैं । हम सबकी धरती माँ के हरियाली रूपी चीर का हरण करने से होने वाला महाभारत निश्चित ही हमारे लिये बहुत ही विनाशकारी एवं आत्मघाती सिद्ध होगा । 
     वर्ष २०१२ में भारत सरकार द्वारा जारी निर्देशों के अनुसार ५० प्रतिशत से कम वनक्षेत्र वाले प्रान्तों को विकास कार्योंा के लिये उपयोग में लाई जाने वाली वनभूमि के बदले वृक्षारोपण हेतु समतुल्य गैर वनभूमि उपलब्ध कराना अनिवार्य था । वर्ष २०१४ में सरकार ने उपरोक्त ५० प्रतिशत की सीमा को घटाकर ३३ प्रतिशत कर दिया । इससे निश्चित ही भारत में वनावरण का प्रतिशत घटने से यहाँ की जलवायु प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो रही है । मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने पिछले वर्ष केन्द्र सरकार से ३३ प्रतिशत सीमा को घटाने का निवेदन था, अगर भारत सरकार द्वारा इसे मान्य कर लिया गया तो धरती माँ की हरी चुनरी और सिकुड़ जायेगी ।
    नर्मदा नदी पर बने वृहद सरदार सरोवर बाँध के फलस्वरूप गुजरात की धरती माता की प्यास बुझने से वहाँकृषि पैदावार भी बढ़ी है और लोगों की प्यास भी बुझ रही    है । नर्मदा नदी का अस्तित्व पूर्णत: मध्यप्रदेश के वनोंके अस्तित्व पर ही निर्भर है । जैसे-जैसे मध्यप्रदेश के जंगल घटते जायेंगे वैसे-वैसे नर्मदा नदी की जलधारा भी सिकुड़ती जायेगी और जिस दिन मध्यप्रदेश के अधिकांश जगल नष्ट हो जायेंगे उस दिन यह बारहमासी नदी केवल बरसाती नदी ही रह जायेगी ।
    इससे न केवल नर्मदा नदी पर बने बांधों से पन-बिजली का उत्पादन बंद हो जायेगा बल्कि मध्यप्रदेश और गुजरात में कृषि उत्पादन भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित होगा और नर्मदा जल पर आश्रित लोग पानी के अभाव में प्यासे मरने लगेंगे । उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में किसी समय बारहमासी रही शिप्रा और ताप्ती जैसी नदियाँ अब वनों के विनाश के कारण सूखकर केवल बरसाती नदियाँ ही रह गई है ।
    हमारे चारों तरफ कई गंजे पुरूष तो देखे जा सकते हैं लेकिन कोई स्त्री गंजी नजर नहीं आती क्योंकि स्त्री के सिर को ढंकने के लिये ईश्वर ने स्त्री को गंजा नहीं बनाया । इसी तरह धरती माँ भी गंजी नहीं होनी चाहिये अर्थात् उसके केश रूपीवृक्ष अर्थात् जंगल बने रहने चाहिये, हमें ईश्वर की यही आज्ञा   है । नहाते समय किसी गंजी व्यक्ति को सिर पोंछने के लिये तौलिये की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उसके सिर पर पानी नहीं टिकता ही नहीं लेकिन स्त्री को अपने बाल सुखाने के लिये समय लगता है क्योंकि उनमे पानी रूक जाता है ।
    अगर धरती माँ के सिर पर वृक्षरूपी केश रहेंगे तो इनके कारण रूकने वाला पानी धरती मेंशनै: शनै: रिस-रिस कर जायेगा जिसका कुछ अंश हमारे कुंआें के जलस्तर को ऊंचा करेगा और कुछ अंश छोटे-बड़े झरने बनकर नदियों और तालाबों में जाकर उन्हें जिन्दा रखेगा । इसीलिये धरती माँ के सिर के बाल और उसकी हरी चुनरी का बने रहना हमारे अस्तित्व के लिये अति आवश्यक है क्योंकि हमारे शरीर के पाँच तत्वों में से जल और वायु (आक्सीजन) तो हमें वृक्षों के कारण ही प्राप्त् हो रही है । भोजन के बिना कुछ दिनों तक तो हम जीवित रह सकते हैं लेकिन ऑक्सीजन के अभाव में तो जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती, जिस कारण हम तुरन्त ही अकाल मृत्यु को प्राप्त् हो जायेंगे और पानी के बिना भी हम जल्द ही मौत के मुँह में समा जायेंगे ।
    ऐसी स्थिति में विकास के नाम पर विभिन्न परियोजनाआें के लिये वनभूमि देने हेतु जंगलों का नाश करना, विकास न होकर हमें मौत के मुँह में धकेलना ही होगा । मध्यप्रदेश में अगर मुख्यमंत्री की राय को स्वीकार कर लिया जाता है तो इसके फलस्वरूप सर्वप्रथम मध्यप्रदेश की जनता के प्रभावित होने के पश्चात् दूसरा नम्बर गुजरात की जनता का ही आयेगा । इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेश के पड़ौसी राज्यों यथा - राजस्थान, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ के लोग भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित होंगे । अभी तक तो भारत एवं विश्व में लोग यही मान रहे है कि हमारे यहां धरती और वन को देवता मानकर पूजा जाता है । इस प्रकार वन और धरती दोनों ही पूजनीय है ।
विज्ञान हमारे आसपास
कैसे निर्मित होता है धु्रवीय प्रकाश ?
डॉ. विजयकुमार उपाध्याय

    पृथ्वी के धु्रवीय क्षेत्रों में भूसतह से कुछ ऊंचाई पर स्थित वायुमण्डल में कभी-कभी आकर्षक रंगीन प्रकाश की छटा दिखाई देती है जिसे धु्रवीय प्रकाश अथवा मेरू ज्योति कहा जाता है । अंग्रेजी में इसे औरोरा कहते हैं । औरोर मूलत: लेटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है प्रभात । उत्तरी गोलार्द्ध में इसे औरोरा बोरियालिस तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में औररोरा ऑस्ट्रेलिस कहा जाता है ।
    धु्रवीय प्रकाश प्राय: हरे-पीले पर्दे की आकृतिमें दिखाई पड़ने वाली प्रकाश की एक पट्टी है । कभी-कभी यह प्रकाश गहरे लाल रंग के दहकते अंगारे के रूप मेंभी दिखाई पड़ता   है । यह प्रकाश उस प्रकाश से मिलता जुलता है जो विघुत डिस्चार्ज के कारण उत्पन्न होता है । 
     कभी-कभी तीव्र धु्रवीय प्रकाश के साथ-साथ वायुमण्डल में सनसनाहट तथा गड़गड़ाहट सुनाई पड़ती है । यह दृश्य प्राय: सूर्य की सतह पर सौर ज्वाला के उद्गार के ठीक एक दिन बाद दिखाई पड़ता है । सौर ज्वालाएं उस समय अधिक पैदा होती हैं जब सौर धब्बों की संख्या बढ़ जाती है । सौर धब्बों की अधिकतम संख्या प्रत्येक ११ वर्षो के अंतराल पर देखी जाती  है ।
    काफी प्राचीन काल से ही लोग धु्रवीय प्रकाश का अवलोकन करते तथा उसके संबंध मेंअटकलें लगाते हुए हैं । आदि मानव ने धु्रवीय प्रकाश के संबंध में अनेक कल्पनाएं की तथा कई कहानियां गढ़ी । कुछ लोगों की धारणा थी कि धु्रवीय प्रकाश स्वर्ग में खेला जाने वाला गेंद का खेल है । इस खेल में एक टीम अच्छी आत्माआें की तथा दूसरी टीम बुरी आत्मआें की रहती है । प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व अपने ग्रंथ मीटियोरोलॉजिका में बताया था कि कभी-कभी रात में जब आकाश साफ रहता है तो अंतरिक्ष में अनेक प्रकार के रंगीन प्रकाश दिखाई पड़ते हैं । इन रंगों के बारे में अरस्तू ने बताया था कि सूर्य की गर्मी के कारण शुष्क वाष्प भूसतह के ऊपर उठती है । भूसतह से काफी ऊपर उठने पर यह वाष्प सूर्य की गर्मी से प्रज्वलित हो उठती है । इसके कारण विभिन्न रंगों के प्रकाश पैदा होते हैं । वस्तुत: रंगीन प्रकाश से संबंधित जिस दृश्य की चर्चा अरस्तू ने की थी वह उत्तरी धु्रवीय प्रकाश की थी ।
    इसी प्रकार चीन में लगभग २६०० वर्ष ईसा पूर्व लिखे गए एक ग्रंथ में ध्रुवीय प्रकाश की चर्चा मिलती है । धु्रवीय प्रकाश की उत्पत्ति के संबंध मेंवैज्ञानिक व्याख्या दिए जाने के प्रयास काफी लम्बे अरसे से होते आए हैं । शुरू-शुरू में लोगों की धारणा थी कि धु्रवीय क्षेत्र में दिखाई पड़ने वाला रंग-बिरंगा प्रकाश उस क्षेत्र में मौजूद बर्फ तथा तुषार की सतह से परावर्तित होने वाला प्रकाश है । कुछ अन्य लोगों की धारणा थी कि धु्रवीय प्रकाश इन्द्रधनुष से मिलता-जुलता प्राकृतिक दृश्य है ।
    सन १६१६ में गैलीलियों ने उत्तरी धु्रवीय प्रकाश के लिए एक नया शब्द औरोरा बोरियालिस प्रयोग किया था जिसका अर्थ है उत्तरी प्रभात । १८वीं शताब्दी में वैज्ञानिकों ने अनुमान लगा लिया था कि धु्रवीय प्रकाश पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र से संबंधित है । सन १७४१ में स्वीडन के एेंडर्स सेल्सियस तथा ओलोप हियोर्टर नामक दो वैज्ञानिकों ने धु्रवीय प्रकाश की घटना के दौरान चुम्बकीय सुई के बर्ताव के संबंध में कई अध्ययन किए थे तथा कुछ सिद्धांत प्रतिपादित किए थे ।
    हाल में किए गए वैज्ञानिक शोधों से पता चला है कि धु्रवीय प्रकाश की उत्पत्ति पृथ्वी के ऊपरी वायुमण्डल में उपस्थित उन परमाणुआें के दहकने से होती है जिन पर पृथ्वी के बाहर से आने वाले इलेक्ट्रॉन तथा प्रोटॉन कण टकराते हैं । बाहर से आने वाले इन इलेक्ट्रॉन तथा प्रोटॉन कणों को धु्रवीय प्रकाशीय कण कहा जाता है । वैज्ञानिकों का विचार है कि धु्रवीय प्रकाशीय कण सूर्य की सतह पर समय-समय पर उत्पन्न सौर ज्वाला से निकलते हैं तथा तीव्र गति से चल कर पृथ्वी तक पहुंच जाते हैं ।
    अब प्रश्न उठता है कि सूर्य से आने वाले कण तो पृथ्वी के सभी क्षेत्रों में पहुंचते है तो फिर उपरोक्त प्रकाश सिर्फ धु्रवीय क्षेत्र में ही क्यों दिखाई पड़ता है ? शोधों के आधार पर वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि धु्रवीय प्रकाश के निर्माण में योगदान देने वाला एक प्रमुख घटक है पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र । सूर्य से आने वाले इलेक्ट्रान तथा प्रोटॉन कण पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र से आकर्षित होकर पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुवों की ओर मौजूद वायुमण्डल में पहुंच जाते हैं तथा धु्रवीय प्रकाश पैदा करते हैं ।
    सूर्य से चल कर पृथ्वी तक जो इलेक्ट्रॉन कण आते हैं वे काफी ऊर्जापूर्ण होते हैं । अध्ययनों से पता चला है कि इन इलेक्ट्रॉन कणों की ऊर्जा एक हजार से दस हजार इलेक्ट्रॉन वोल्ट के बीच रहती है । जब ये इलेक्ट्रॉन धु्रवों के ऊपर स्थित वायुमण्डल के तत्वों पर चोट करते हैं तो उन तत्वों का आयनीकरण ही जाता है ।
    इस आयनीकरण क्रिया में कुछ कम ऊर्जायुक्त इलेक्ट्रॉन भी उत्पन्न होते हैं जिन्हें द्वितीयक (सेंकडरी) इलेक्ट्रॉन कहा जाता है । ये कम ऊर्जायुक्त इलेक्ट्रॉन फिर अन्य अणुआें को आयनीकृत करते है । धु्रवीय प्रकाश का प्रमुख रंग हरा पीला इन्हीं कम ऊर्जायुक्त इलेक्ट्रॉनों द्वारा ऑक्सीजन परमाणुआें के उत्तेजन के कारण उत्पन्न होता है ।    
    कभी-कभी किरणयुक्त ध्रुवीय प्रकाश टूटकर छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखर जाता है तथा पूरे आकाश में फैला हुआ दिखाई देता है । ये छोटे टुकड़े बादल के समान दिखाई पड़ते है । इन टुकड़ों को धु्रवीय प्रकाशीय चकत्ते कहा जाता है । ऐसा दृश्य  प्राय: आधी रात के बाद दिखाई देता है । कभी-कभी एक और विशिष्ट प्रकार का धु्रवीय प्रकाश दिखाई देता है ।
    धुव्रीय प्रकाश की एक सामान्य आकृति पर्दानुमा होती है जिसका रंग प्राय: हल्का हरा या हरा-पीला होता है । इस पर्देका निचला किनारा भूसतह से लगभग एक सौ किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित होता है । इस पर्दे का  ऊपरी सिरा अस्पष्ट रहता है जो भूसतह से लगभग एक हजार किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित होता है । जब इस पर्देको कुछ दूर से देखा जाता है तो यह क्षितिज से ऊपर उठे एक मेहराब (आर्च) के रूप में दिखाई देता है । यह पर्दा जब गतिहीन तथा बिल्कुल शांत दिखाई देता है तो इसकी चमक सब जगह एक समान दिखाई देती है तथा इसे सर्वत्र-सम कहा जाता है ।
    धुव्रीय क्षेत्रोंमें धु्रवीय प्रकाश लगभग रोज ही दिखाई पड़ता है । जैसे-जैसे हम धु्रवों से विषुवत रेखा की ओर बढ़ते है, वैसे-वैसे धु्रवीय प्रकाश दिखाई पड़ने की बारम्बारता क्रमश: घटती जाती है । हालांकि धु्रव क्षेत्रों में रात्रि के दौरान धु्रवीय प्रकाश प्राय: जगमगाता दिखाई देता है, परन्तु इतना तीव्र बहुत कम अवसरों पर रहता है कि इसे सुदूर अक्षांशीय क्षेत्रों से भी देखा जा सके ।
    धु्रवीय प्रकाश प्राय: पृथ्वी पर स्थित दो चुम्बकीय ध्रुव या भौगोलिक धु्रवों के निकटवर्ती क्षेत्रों में ही दिखाई देता है। पृथ्वी के चुम्बकीय धु्रव भौगोलिक धु्रवों से थोड़ा अलग स्थित है । उत्तरी चुम्बकीय धु्रव ७३.५ डिग्री उत्तरी अक्षांश तथा १०० डिग्री पश्चिमी देशांतर पर पश्चिमोत्तर ग्रीनलैंड में एक स्थान पर स्थित है । दक्षिणी चुम्बकीय धु्रव ७१.५ डिग्री दक्षिणी अक्षांश तथा १५१ डिग्री पूर्वी देशांतर पर एंटार्कटिका में वोस्तोक के निकट स्थित है ।
    ध्रुवीय प्रकाश चुम्बकीय धु्रवों के चारों ओर लगभग २३ डिग्री के दायरे में दिखाई पड़ता है । उदाहरणार्थ उत्तरी धुव्रीय प्रकाश जिन क्षेत्रों में दिखाई देता है उनमें शामिल हैं स्कैंडिनेविया का उत्तरी छोर, आइसलैंड का दक्षिणी छोर, हड़सन की खाड़ी का दक्षिणी भाग, उत्तरी लेब्राडोर, मध्य अलास्का तथा साइबेरिया के समुद्री किनारे । उत्तरी धु्रवीय प्रकाश के दृष्टिगोचर होने वाले क्षेत्रों की दक्षिणी सीमा रेखा सैन फ्रांसिस्को, मेक्फिस तथा एटलांटा से होकर गुजरती है । 
    यह सीमा रेखा सौर ज्वालाआें में वृद्धि के दौरान कुछ और दक्षिण की ओर खिसक जाती है । कभी-कभी तो यह सीमा रेखा खिसक कर मेक्सिको सिटी तथा क्यूबा जैसे सुदूर दक्षिण में स्थित स्थानों तक पहुंच सकती है ।
पर्यावरण समाचार
दिल्ली मेंजहरीलें धुंए का संकट
    दिल्ली में धुंध की खतरनाक स्थिति है । ऐसी समस्या देश के अधिकांश महानगरों के आसपास भी गहरा रही है । इससे निपटने के लिए समग्र समझ के साथ चौतरफा उपाय अपनाना जरूरी है ।
    इस समय हालत पिछले साल से बदतर है, जब दिल्ली उच्च् न्यायालय ने कहा था कि दिल्ली में रहना एक गैस चैंबर में रहने जैसा  है ।
    पिछले साल न्यायपालिका की फटकार के बाद केजरीवाल सरकार ऑड-ईवन का फार्मूला लेकर आई थी, लेकिन उस फौरी उपाय से दिल्ली के प्रदूषण स्तर पर खास फर्क नहीं पड़ा । केजरीवाल के मुताबिक ताजा स्मॉग का कारण पंजाब और हरियाणा में जलाई जा रही खूंट (फसल के अवशेष) है । बताया गया है कि वहां लाखों टन धान की खूंट जलाई जा रही है, जिसका धुंआ फैलते-फैलते इस पूरे इलाके पर छा गया है । इसी का असर है कि दिल्ली में प्रदूषण का स्तर सामान्य से तकरीबन २० गुना ज्यादा हो गया है ।
    मुद्दा यह है कि क्या ये हालत सिर्फ खूंट जलाने से पैदा हुंई ? खूंट जलाने की रवायत पुरानी है । दिवाली की आतिशबाजी भी नई नहीं है । इसीलिए फिलहाल बनी हालत का सारा दोष इन्हीं फौरी वजहों पर नहीं डाला जा सकता । दरअसल, सारा दोष पंजाब और हरियाणा के माथे मढ़ देना दिल्ली सरकार के लिए एक आसान बहाना हो सकता है ।
    यह हकीकत है कि राजधानी मेंवाहनों की बढ़ती संख्या, कन्सट्रक्शन स्थलों पर सीमेंट, रेत जैसी सामग्रीयों को बेरोक खुले में रखने और कचरे को बिना उचित उपाय किए जलाने के जारी चलन ने विशाल और घनी आबादी वाले इस महानगर एवं इसके आसपास के पर्यावरण को बिगाड़ा है । जब वातावरण में लगातार ग्रीन हाउस गैसों की परत जम रही हो, तब दिवाली या खूंट जलने से आये धुंए से ऐसी गंभीर स्थिति का पैदा हो जाना लाजिमी है । इसलिए आवश्यकता समग्र समझ और चौतरफा उपायों की है । इस बारे में राष्ट्रीय नीति बनाने की जिम्मेदारी सभी की है । इसमें टालमटोल की गुंजाइश नहीं है