गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017


प्रसंगवश
पॉलीथिन प्रतिबंध की दिशा क्या हो ?
   पंकज चतुर्वेदी
मध्यप्रदेश सरकार ने आगामी एक मई से पूरे प्रदेश में पॉलीथिन के उपयोग पर पाबंदी की घोषणा की है । सरकार के स्तर पर कागजोंपर जितनी आसानी से ऐसे निर्णय हो जाते हैं व उनकी घोषणा हो जाती है, उतनी आसानी से इन निर्णयों को यथार्थ के धरातल पर उतारना कठिन होता है । शायद यही कारण है कि पूर्व में की गई प्रतिबंध की घोषणाआें के बाद आज भी पूरे प्रदेश में पॉलीथिन का उपयोग जारी है । 
प्रदेश में प्रतिदिन लगभग ७५० टन पॉलीथिन का उपयोग विभिन्न रूपों में होता है । किन्तु चिंताजनक यह है कि इसमें से आधी से ज्यादा पॉलीथिन अमानक स्तर की होती है, जिन्हें विज्ञान की भाषा में ४० माइक्रॉन से कम पतली पॉलीथिन कहा जाता है । ४० माइक्रॉन से कम पतली पॉलीथिन पर्यावरण, मानव और पशु सबके लिए खतरनाक है । ये अमानक पॉलीथिन जलने पर डायऑक्सेन जैसी विषैली गैसोंका उत्सर्जन करती है, जो सांस के साथ हमारे फेफड़ों के कैसर जैसी घातक बीमारी का कारण बन सकती   हैं । अमानक पॉलीथिन का उपयोग जिस तरह से फ्रीज मेंसब्जी-भाजी रखने तक में हो रहा है, वह मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत घातक है ।
इन तमाम दोषों के अतिरिक्त ४० माइक्रॉन से कम पतली पॉलीथिन को फेंकने या जलाने पर यह नष्ट होने के बजाय उस स्थान की उर्वरता को समाप्त् कर देती है, जिसके चलते सीधा नुकसान हरियाली और वृक्षोंका    है । जानवर के द्वारा इसे खा लेने की स्थिति में यह उसकी आंतों में फंसकर मृत्यु का कारण बन सकती है या दुधारू पशु की दुध देने की क्षमता मिट सकती है । 
वैसे होना यह चाहिए कि हम स्वत: पॉलीथिन का उपयोग पूर्णत: बंद कर दें । इस विषय में सरकारों के भरोसे, किसी नियम-कायदे की उम्मीद से बेहतर यह होगा कि हम आज ही से खुद के स्तर पर पॉलीथिन का उपयोग बंद करने की शुरूआत कर दें, तो पॉलीथिन देने वाले लोग भी इसे कम करने लगेगें । वैसे प्रदेश के पॉलीथिन विक्रेता संघ के लोग इस नए सरकारी आदेश के विरूद्ध कोर्ट जाने की तैयारी में हैं । इसके जवाब में सरकार को भी तैयार रहना होगा, अन्यथा इस आदेश का पालन आगे टल भी सकता है ।                         
भारतीय ने खोजा खारे पानी को मीठा बनाने का फॉमूला

अमेरिका में भारतवंशी छात्र चैतन्य करमचेदू ने खारे पानी को पीने लायक बनाने का एक सस्ता और आसान तरीका खोज निकाला है । उसके इस शोध ने कई बड़ी तकनीकी कंपनियों और विश्वविघालयों का ध्यान अपनी ओर खिंचा है । चेतन्य ने अपने स्कूल की कक्षा में किए गए एक प्रयोग के चलते पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है । वह ओरेगांव के पोर्टलैंड में रहता है और जेसुइट हाई स्कूल सीनियर का छात्र है । चेतन्य ने सोखने की उच्च् स्तरीय क्षमता वाले एक पॉलीमर के जरिए समुद्री पानी में घुले नमक को उससे अलग करने में सफलता पाई । नमक हटने के बाद बचा पानी लायक हो गया था । पॉलीमर में किसी सामान्य यौगिक की आपस में जुड़ी श्रृंखलाआें से निर्मित बड़े कण मौजूद होते हैं । चैतन्य बताते है कि यह पॉलीमार पानी के कणों से नहीं, बल्कि नमक के कणों के साथ जुड़ता है । 
पानी के अणुआें के साथ नमक के अणुआें के जुड़ने से खारा पानी बनता है । समस्या इनके जुड़ाव को खत्म करने की थी । चैतन्य ने इस पर गौर किया कि समुद्री पानी पूरी तरह नमक से संतृप्त् नहीं होता । अर्थात समुद्री पानी के १० फीसदी अणु नमक के अणु के साथ जुड़े रहते हैं, जबकि ९० फीसदी अणु नमक के अणु से जुड़े नहीं होते । ज्यादातर शोधकर्ता पूरे समुद्री पानी को लेकर सोचते रहे हैं, लेकिन चैतन्य ने नया नजरिया  अपनाया । उसने नमक के अणुआें से जुड़े १० फीसदी समुद्री पानी की बजाय उससे नहीं जुड़े ९० फीसदी समुद्री पानी को पेयजल में बदलने पर ध्यान केन्द्रित किया और सफल रहा । 
चैतन्य के अनुसार पानी के लिए समुद्र सबसे अच्छा स्त्रोत है । पृथ्वी के लगभग ७० फीसदी हिस्से में समुद्र है । ये और बात है कि समुद्री पानी बेहद खारा होता है और उसे किफायती तरीके से पेजयल में बदलने में तमाम वैज्ञानिक दशकों से लगे है । कई विज्ञानियों को सफलता भी मिली, लेकिन उनके तरीके महगे और अव्यावहारिक साबित हुए । ऐसे मेंचैतन्य ने अपने हाई स्कूल की प्रयोगशाला मेंखुद एक सफल प्रयोग किया । उनका यह प्रयोग इस समय पर दुनिया भर में चर्चा का विषय बना हुआ है । 
सामयिक
पराल प्रदूषण पर नियंत्रण
डॉ. ओ.पी. जोशी
कृषि के मशीनीकृत होने की एक बीमारी पराल या पुआल का जलाना भी है । साल में तीन फसल लेने का लालच न केवल मिट्टी की उर्वरता नष्ट कर रहा है । बल्कि पुआल जलाने जैसे गंभीर संकट भी पैदा कर रहा है । 
दीपावली के बाद दिल्ली में फैले खतरनाक प्रदूषण का एक कारण आसपास के राज्यों में पराल जलाना भी बताया गया था । धान की फसल काटने के बाद खेतों में जो डंठल या ठूंठ खड़े रह जाते हैं उन्हें पराल, पराली या पुआल कहते हैं । इसे जलाने पर पोषक पदार्थोकी हानि के साथ साथ प्रदूषण फैलता है एवं ग्रीनहाऊस गैसें भी पैदा होती हैं । देश में प्रतिवर्ष १४ करोड़ टन धान व २८ करोड़ टन अवशिष्ट पराल या पुआल के रूप में निकलता है । दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के कारण न्यायालय ने इसके जलाने पर रोक लगायी है । यह रोक या प्रतिबंध कितना सफल होगा यह शंकास्पद है । 
परालों के जलाने से पैदा प्रदूषण की समस्या आधुनिक कृषि एवं तेज रफ्तार जिंदगी से भी जुड़ी हुई है । पुराने समय से जब परम्परागत विधियों से मानव श्रम लगाकर धान की कटाई की जाती थी तो बहुत ही छोटे २-३ इंच लंबे डं ल बचते थे । साथ ही किसान चरवाहों को भेड़ों सहित खेतों में चराई के लिए आने देते थे जिससे भेड़े छोटे छोटे डंठलों को खाकर खेतों को साफ कर देतीं    थीं । इस कार्य में थोड़ा ज्यादा समय लगता था परंतु यह एक    पारस्परिक लाभ की प्रदूषण रहित प्रक्रिया थी । 
वर्तमान में आधुनिक कृषि के तहत अब मशीनों से कटाई की जाती है जिससे एक फीट (१२ इंच) से ज्यादा ऊंचे डंठल बचे रह जाते हैं । धान की कटाई के बाद लगभग एक माह के अंदर ही किसानों को रबी फसल की बुआई करना होती है   अत: डंठल पराल जलाना उन्हें   सबसे ज्यादा सुविधाजनक लगता   है । किसानों को प्रदूषण से ज्यादा चिंता अगली फसल बुआई की होती है ।
वैसे कृषि से जुड़े कुछ लोगों का मत है कि डंठल काटे बगैर ही उनके साथ गेहँू को बुआई की    जाए । गेहूँ की सिंचाई से जब पराल सड़ेगे तो पोषक पदार्थ मिट्टी में पहुंचकर गेहँू की फसल को लाभ पहंुचाएगे । इस संदर्भ में किसानों का अनुभव है कि खड़े डंठलों से बुआई तथा खेतों के अन्य कार्यों में  दिक्कतें आती हैं । आधुनिक कृषि से जुड़े व्यापारी बताते हैं कि ट्रेक्टर के साथ एक ऐसी मशीन लगायी जा सकती है जो डं ठल काटती है उन्हें एकत्र करती है एवं गेहँू की बुआई भी कर देती है ।
इस मशीन का उपयोग यदि किसानों को व्यावहारिक लगे तो सरकार इसको प्रोत्सहित करे । इसमें एक समस्या यह आयेगी कि किसान एकत्र किए डंठलों या पराल का क्या करें ? यह भी संभव है कि कुछ समय तक रखने के बाद किसान मौका देखकर उन्हें जला दें । इन स्थितियों में पराल का कोई लाभदायक उपयोग रखा जाना ही समस्या से निदान दिला सकता है। कई उपायों पर प्रारम्भिक स्तर पर कार्य भी हुए हैं । पंजाब में ही एक पायलट प्रोजेक्ट के तहत परालांे का उपयोेग ऊर्जा उत्पादन में किया गया है । देश में हरित क्रांति के जनक डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन ने धान के डंठल /ठूंठ का उपयोग पशुचारा, भूसा, कार्डबोर्ड एवं कागज आदि बनाने में करने का सुझाव दिया है । इस हेतु उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अनुरोध भी किया है । 
पिछले दिनों पंजाब में भटिंडा में आयोजित एक जनसभा में प्रधानमंत्री ने भी किसानों से अनुरोध किया है कि वे पराली जलाये नहीं । यह मिट्टी के लिए अच्छी खाद है। ज्यादातर विशेषज्ञों का मत है कि पराल का उपयोग पशुचारा एवं भूसा बनाने में किया जाना चाहिये क्योंकि बढ़ती जनसंख्या के दबाव से चरागाह कम हो रहे हैं ।अच्छी गुणवता का पशुचारा या भूसा बनने पर दूध  उत्पादन बढ़ाकर लाभ कमाया जा सकता है। इससे पराल एक लाभकारी स्त्रोत हो जाएगा । 
इस संदर्भ में सबसे बड़ी समस्या यह है कि धान के डंठल व सूखी पत्तियों में ३० प्रतिशत के लगभग सिलीका होता है जो पशुओं की पाचन शक्ति को कम करता    है । साथ ही थोड़ी मात्रा में पाया जाने वाला लिग्निम भी पाचन में गड़बड़ी करता है। किसी सस्ती तकनीक से सिलीवा हटाने के बाद ही पशुचारा बनाना लाभकारी हो सकता है । महाराष्ट्र में धान की पुआल के साथ यूरिया एवं शीरा मिलाकर उपयोग की विधि बनायी गयी है । 
दिल्ली के जे.एन. यू. के पर्यावरण विज्ञान के छात्रों ने फसल अवशेषों से बायोचार बनाया है जो जल को साफ करने के साथ साथ भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढ़ाता है। इस समस्या के संदर्भ में कुछ वैज्ञानिकोंतथा विशेषज्ञों का सुझाव है कि जुगाली करने वाले पशुओं के आमाशय (स्टमक) में पचाने हेतु चार अवस्थाएं होती हैं । पशुओं में बकरे बकरियों को काफी योग्य पाया गया है क्योंकि इसके आमाशय में पचाने की क्षमता ज्यादा होती है । अत: इसके लिए पराल से बनाया चारा उपयोगी हो सकता है । 
बकरे बकरियों के संदर्भ कई अन्य महत्वपूर्ण बाते भी हैं । जिनसे कुछ इस प्रकार हैं जैस इनकी संख्या अन्य पशुओं को तुलना में ज्यादा तेजी से बढ़ती है, इनका दूध मंहगा बिकता है तथा इनकी कीमत भी अन्य पशुओं की तुलना में ८-१० गुना कम होती है । इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दिल्ली में पराल से पैदा प्रदूषण में बकरे बकरियां कमी ला सकते हैं ।
जब तक पराल/पराली या पुआल का कोई लाभदायक उपयोग नहीं निकलता तब तक किसानों को इसे जलाने से रोकना संभव नहीं  होगा । लाभदायक उपयोग में ज्यादा सम्भावनाएं पशुचारे एवं भूसे में ही दिखायी देती हैं। इस विज्ञान व तकनीकी के युग में ऐसा कर पाना संभव भी है ।
हमारा भूमण्डल
वैश्विक सेवा समझौता के निहितार्थ 
योर्गोस एल्टिन्टिज

टिसा के लागू हो जाने के  बाद राष्ट्रों की सार्वभौमिकता समाप्त होने की पूरी संभावना है । सोचिए यदि एक राष्ट्र को अपने यहां कानून बनाने के लिए किसी कंपनी की पूर्व सहमति अनिवार्य हो तो राष्ट्र नाम की संस्था का कोई औचित्य भी है? निजीकरण और खुलेपन का यह दोमुंही राक्षस अंतत: पूरी विश्वव्यवस्था को लील जाएगा ।
व्यापार में सेवा अनुबंध (ट्रेड न सर्विस एग्रीमेंट या टिसा) प्रस्तावित नई वैश्विक संधि है जिसका लक्ष्य है व्यापार में आ रही है रुकावटों को खत्म करना । दूसरे शब्दों में कहें तो जो कुछ भी राष्ट्र व समाज के हित में बाकी बचा है उसे समाप्त कर कारपोरेट सेवा प्रदाताओं का वैश्विक बाजार पर कब्जा सुनिश्चित कराना एवं रोजगार का एक ऐसा मॉडल तैयार करना जो कि शोषण पर आधारित हो, टिसा का उदे्दश्य है। इसमें अर्थव्यवस्था का पूर्ण वित्तीयकरण संभव करना शामिल    है । 
दि इंटरनेशल ट्रेड यूनियन कान्फेडेरेशन (आई टी यू सी) ने हाल ही में टिसा के पिछले साढ़े तीन वर्षों में चर्चा के २० दौर पूरे हो जाने बाद समझौते के गुप्त दस्तावेजीकरण का खुलासा किया है । इससे पता चलता है कि यदि इस पर सहमति बन गई, हस्ताक्षर हो गए और यह लागू हो गया तो, इसके कामाकाजी विश्व पर गंभीर विपरीत प्रभाव पड़ेगंे । इसकी व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह यातायात, ऊर्जा, खुदरा सेवाओं, ई-कामर्स, संचार, बैंकिंग, भवन निर्माण, निजी स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा आदि सभी पर लागू होगा और इसका प्रभाव क्षेत्र, यूरोपीय संघ, सं.रा. अमेरिका, एशिया और अमेरिका के तमाम देशों तक फैला होगा ।  
टिसा ``प्लेटफार्म इकॉनामी`` (इसे गिग इकनामी, भी कहते हैं। इसका आशय है ऐसा श्रम बाजार जिसमें बजाए स्थायी कार्य देने के लघु अवधि हेतु संविदा या फ्रीलांस कार्य को प्राथामिकता दी जाए । एक ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमें अंतिम समय में ही निर्णय लिए जाते हैं ।) को मजबूत बनाने और आर्थिक लाभ पहुंचाने में मदद करेगा । इसे हम उबेर जैसी अंतर्राष्ट्रीय कंपनी के आनलाइन, मांग आधारित व्यापारिक मॉडल से ठीक से समझ सकते हैं। इस तरह की कंपनियां सर्विस प्रदाताओं के मध्य अन्यायपूर्ण प्रतिस्पर्धा, असुरिक्षत अनौपचारिक श्रमिकों को नियुक्त करना एवं करों के भुगतान से परहेज कर अपना व्यापार चमकाती हैं ।
अंकेक्षण (अडिटिंग), वास्तुशिल्प, खाता बही (अकाउंटिग) रखना और इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्र प्लेटफार्म इकॉनामी को अभी तक शोषणरहित स्थान उपलब्ध करवाते रहे हैं । और टिसा यह सुनिश्चित करेेगी कि इस तरह की कंपनियों को भविष्य में भी किसी भी तरह के निषेध का सामना न करना पड़े जैसा कि उबेर को फ्रांस में करना पड़ा    था । टिसा के अन्तर्गत कामगारों के लिए और भी कई अरुचिकर अचंभे हैं । 
गौरतलब है सेवाएं चार तरह से उपलब्ध कराई जाती हैं, सर्वप्रथम सीमा पार प्राप्त की गई सेवाएं यानी कि जब कोई मरीज उपचार के लिए किसी अन्य देश के अस्पताल में जाता है । दूसरा विदेश मंे उपभोग जैसे पर्यटन, तीसरा व्यावसायिक उपस्थिति जैसे कि जब एक बैंक विदेश में अपनी शाखा खोलता है और चौथा प्राकृतिक व्यक्तियों की उपस्थिति । चौथे प्रकार के सेवा प्रदान को मोड -४ के नाम से जाना जाता है। यह वास्तव में लघु अवधि का पलायन है। उदाहरण के लिए एक सूचना तकनीक (आईटी) विकासकर्ता किसी उच्च् तकनीक वाली कंपनी में छ: महीने के किसी प्रोजेक्ट पर कार्य करता है । उपरोक्त व्यक्ति की रोजगार संबंधी शर्ते हैं वेतन, छुट्टी एवं स्वास्थ्य बीमा । इसी हेतु विशिष्ट प्रोजेक्ट हेतु पूर्ण कार्य सौंपने एवं गुणवता सुरक्षा हेतु उसके साथ अनुबंध किया जाएगा । यह कार्य अत्यन्त कुशल, चलायमान (मोबाइल) और लोचदार प्रोफेशनल जैसे कि सूचना तकनीक क्षेत्र में होते हैं, के लिए है । परंतु नर्सो, केटरिंग कर्मचारियों एंव दंत चिकित्सा सहायकों के लिए ऐसा कोई अनुबंध नहीं है । 
इस संधि का प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि विभिन्न सरकारंे टिसा को किस तरह से अपनाती हैं। कामगारों की अनेक श्रेणियां जिसमें कम या मध्यम कुशलता के कामगार शामिल हैं, के सामने विदेशों में कमतर सेवा शर्तों को अपनाने का दबाव आ सकता   है । जबकि उस देश के श्रम कानूनों में अधिक सुरक्षित प्रावधान मौजूद होंगे । ऐसा सिर्फ  इसलिए होगा क्योंकि श्रम कानून संविदा (कांट्रक्ेट) प्रोजेक्ट पर लागू नहीं होते । प्रश्न उठता है कि सरकारें यह कैसे सुनिश्चित करेंगी कि मोड ४ से लाभान्वित होने वाले के पास यथोचित कौशल मौजूद है । 
टिसा में इसके निर्धारण हेतु तकनीकी योग्यता आदि संबंधी मापदंड भी मौजूदा हैं । टिसा का एक अन्य अनुषंग नियमन राष्ट्रों की सार्वभौमिक सामर्थ्य को भी चुनौती देता है । इसके लागू हो जाने के बाद सरकारें के लिए अनिवार्य होगा कि वे नियमनों के निर्धारण हेतु न केवल कंपनियों को पूर्व सूचना दें बल्कि सेवाप्रदाताओं जिसमें विदेशी भी शामिल हैं, को उस पर टिप्पणी करने की अनुमति भी दें । सुनने में तो यह अहानिकर ही प्रतीत होता है । परंतु इस संबंध में यह ध्यान में रखना होगा यह टिप्पणियां नियमन बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ होने के पहले ही आ जाएंगी । साथ ही रजामंदी न होने पर कंपनियां सरकार को एक निवेश ट्रिब्युलन जो अत्यन्त विवादास्पद निवेशक राज्य विवाद निपटारा प्रणाली के अन्तर्गत गठित होगा, में ले जा सकती हैं । इससे राष्ट्रीय नियामक के सारे अधिकार ही खत्म हो सकते    हैं ।  
टिसा के अन्तर्गत बातचीत कर रहे देश यातायात सेवाओं को पूरी तरह से खोलने पर राजी हो गए हैं । इसमें समुद्री, वायु एवं भूतल यातायात के अलावा एक्सप्रेस डिलीवरी सेवा भी शामिल है। यातायात यूनियनों का मजबूत तर्क है कि इससे मजदूरी और यातायात कर्मचारियों की सुरक्षा दोनों में कमी आएगी । उनका कहना है कि जब यूरोपीय संघ की सीमाएं पूर्वी यूरोप की प्रतिस्पर्धा के समक्ष खोल दी गई थीं तब ट्रक ड्राइवरों के साथ ऐसा ही घटित हुआ था ।
टिसा में वित्तीय सेवाएं भी शामिल हैं । शायद ही ऐसा कोई भी लेन देन होता हो जिसमें वित्तीय सेवा शामिल न हो । रुकावटें कम करने से टिसा वित्त बाजारों को और अधिक मजबूती प्रदान करेगा । इसका सीधा सा अर्थ यह है कि बड़े अंतर्राष्ट्रीय बैंकों को अधिक अवसर मिलेंगे और वर्तमान में घरेलू स्तर पर कार्य कर रहे छोटे बैंको को संविलन या अधिग्रहण के माध्यम से समाप्त कर दिया जाएगा । वैसे कोई भी रास्ता हो नतीजा तो वही निकलेगा । ऐसे बैंकजो इतने बड़े हैं कि धराशायी नहीं हो सकते वे टिसा के माध्यम से और भी बड़े हो जाएंगे और इससे वित्तीय प्रणाली में जोखिम अधिक बढ़ जाएगा । इस समझौते की रूपरेखा बनाने वालों की मंशा वित्तीय बाजार के नियमनांे को समाप्त करना भी है। उदाहरण के लिए टिसा के अन्तर्गत आया कोई देश यदि अपने यहां किसी खतरनाक वित्तीय उत्पाद जारी करने की अनुमति दे देता है तो सभी टिस देशों में वह स्वमेव जारी हो जाएगा । 
सार्वजनिक सेवाएं और सार्वजनिक खरीदी भी सभी के लिए खुल जाएंगी । हालांकि यूरोपीय संघ एवं अन्य देशों ने यह भरोसा दिलाया है कि ऐसा मामला नहीं है । जबकि रहस्योद्घाटन से साफ जाहिर होता है कि इस समझौते के बाद निजीकरण की वापसी असंभव हो जाएगी । ``प्रतिस्पर्धात्मक तटस्थता`` जैसे तत्व के माध्यम से राज्य के स्वामित्व वाले उपक्रमों एवं निजी क्षेत्र को एक ही तराजू से तोलने की वजह से निजी प्रदाताओं की पहुंच बाजार में बिना रुकावट के बन जाएगी और इस कदम से स्थितियां और भी जटिल हो जांएगी । अंत में आता है मितव्ययता का भूत । इससे तात्पर्य यह है कि सार्वजनिक सेवाओं पर खर्च कम किया जाए व उनकी गुणवत्ता घटाई जाए ।
सामाजिक पर्यावरण
हलमा : पर्यावरण रक्षा का अनुष्ठान
श्रीमती भारती सोनी 

म.प्र. का झाबुआ क्षेत्र आजाद की भूमि है । यहां वीरता और देश भक्ति के तराने कंधों पर बंदुक लेकर गुंजते हैं । वहीं दूसरी ओर शिवोपासक भील समुदाय केल ोग सिंहनाद करते हुए गेती और फावड़े कंधों पर सजाकर मां धरती की प्यास बुझाने को आतुर है ।  
भारत के ह्रदय प्रदेश झाबुआ के सरल स्वभाव के भोले भाले आदिवासी, भीली संप्रदाय के लोग आज विश्व में उपजी ग्लोबल वार्मिग जैसी बड़ी समस्या का समाधान निकालने में जुटे है । उनका यह प्रयास हम सबके लिए प्रेरणा का उदाहरण है । सभी इस परम्परा से जुड़े है । असंख्य धरती पुत्र - बच्च्े, जवान, बुढ़े, महिला पुरूष में यहां कोई भेदभाव नहीं बिना किसी आर्थिक सहायता के ये सब जब एक साथ परमार्थ की भावना के साथ निकलते है । तब क्षेत्र के सभी लोग इनसे प्रेरित होकर इनका साथ देते   है । इसी सामुहिक प्रयास का नाम है हलमा । 
झाबुआ की भूमि पथरीली होने के कारण यहां का किसान बहुत मेहनत से खेती कर पाता है । आर्थिक रूप से कमजोर होने से ये पुर्णत: प्रकृति पर ही निर्भर है । मानसून का कम या ज्यादा होना इनके जीवन स्तर पर बहुत प्रभाव डालता है । जिले में साप्तहिक हाट बाजार इनके लिये मुख्य बाजार है । वस्तुआें का आदान प्रदान, खरीददारी इन्हीं बाजारों तक सिमटी हुई है । भीलों को कड़ी मेहनत के बाद भी अपनी मूल मेहनत के दाम भी ठीक से नहीं मिल पाता है । यही एक कारण है कि यहां का किसान हर वर्ष पलायन करता है और दूसरे प्रदेश में जाकर जीवन यापन करने को बाध्य है । 
इन सभी समस्याआें के बावजूद भील समुदाय अपनी संस्कृति के बहुत जुड़ा हुआ है । तीज-त्यौहार, शादी-ब्याह अन्य उत्सव सभी साथ मिलकर मनाते है । ताड़ी इनका मुख्य पेय है जो इनकी खुशीयों को कुर्राटी और हुंकारी भरने का जोश दिलाता है । स्वयं आनंदित होकर आनंद का विस्तार करते हुए एक दूसरे की सहायता की भावना ही इनकी संस्कृति का मुख्य आधार    है । यही परम्परा हलमा कहलाती    है । 
जब कोई व्यक्ति यदि किसी बड़ी समस्या में फंस जाता है और बहुत प्रयासों के बाद भी यदि वह उसका समाधान नहीं निकला पाता है, तब वह अपने समाज और मित्रों को सहायता के लिये हलमा के लिये आव्हान करता है । तब सामूहिक रूप से एक साथ समस्या का सामना कर निराकरण व समाधान करते है । तब हलमा सार्थक होता है । 
यह सामूहिक प्रयास जो हर क्षेत्र में आदिवासी व वनवासियों में होता है भीली मैं हलमा के नाम से पुकारा जाता है । पथरीली भूमि पर कठिन परिश्रम और ग्लोबल वार्मिग जैसे विश्वव्यापी समस्या का असर इनके खेती के व्यवसाय पर बहुत पड़ा है । बहुत सी बार सुखे का सामान भी इनको करना पड़ता है । फिर भी ये अपनी निराशा व दुर्भाग्य के सहारे ना रहकर इस समस्या के बारे में चिंतनशील रहते है और सामूहिक रूप से विचार विनिमय के बाद हलमा का आयोजन करते है । 
हलमा एक भागीरथी प्रयास है जो प्यासी धरती माता की प्यास बुझाने और उसे हरी भरी व श्रृंगारित करने का संकल्प किये हुए है । 
सन् २००३ व २००४ में हलाम परम्परा को विस्तृत व सार्थक रूप प्रदान करने का प्रण लिया    गया । समाज सेवी राजाराम व भंवरसिंह ने यह कार्य सम्हाला, इन्होने ग्रामीण युवाआें का एक संगठन बनाया जिसमें परोपकार की भावना से ३२ युवक जुड़े जो जिज्ञासु, सशक्त व कार्य करने में सक्षम थे । उनकी समस्याआें का समाधान कर उन्हें दूसरों के सहयोग के लिये प्रेरित किया गया । सारी समस्याआेंको सुनकर निर्णय लिया गया एक भागिरथी प्रयास हलमा का । जो शिवजी की कथा का सार था धरती माता प्यासी है अत: शिव की जटाआें के आकार के गड्डे पहाड़ियों पर खोदे जायेंगे, माँ गंगा उनमें अवतरित होकर निवास करेगी । 
वैज्ञानिक दृष्टि से धरती का जल स्तर बढ़ाने में यह बहुत सार्थक पहल थी । तब २००४ में झाबुआ की पहाड़ी हाथीपावा पर जटा रूपी गड्डे खोदे गये जिसमें हजारों लोगों ने परमार्थ की भावना से कार्य किया, पहाड़ी पर दरगाह होने के कारण मुस्लिम संप्रदाय ने विरोध किया, परन्तु दूसरे ही वर्ष उनकी जमीन का जल स्तर बढ़ने से सहर्ष इन सबके साथ सहयोग हेतु तैयार हो गये । 
वर्ष २००५-२००६ से शहर के सामान्य जन भी इस हलमा में सहभागिता करने लगे - आस्था और विश्वास के चलते धर्म संभाए, रैलिया, कावड़ यात्रा व गोरी यात्रा के आयोजन लगातार हुए और हलमा जिले प्रदेश से निकलर देश विदेश तक प्रचारित होने लगा । 
स्वामी अवधेशानंद, शंकराचार्य, वासुदेवाचार्य, बाबा सत्यनारायण जैसे संतों ने धर्म के माध्यम से इस परम्परा में सम्मिलित होकर सराहा, इसी समय ५०० फिर ११०० शिवलिंगों का वितरण कर जल संरक्षण के साथ इसे जोड़ा फिर हलमा द्वारा तालाबों का निर्माण किया जाने लगा । 
हेण्डपम्प व पुराने जल स्त्रोतों को सुधार कर नवीनीकरण किया । अब तक हलमा सारे समाज का उत्सव बन गया । सभी की समझ में आ गया कि हलमा परमार्थ का कार्य है, बाद में पहाड़ियों पर शीव की जटाआें सी खुदाई के अनुरूप ही शिवगंगा नाम की संस्था ने इसे पूर्ण सहयोग किया जिसके फलस्वरूप प्रतिवर्ष यह उत्सव बड़े ही जोश और उत्साह से मनाया जाने लगा है । 
पिछले वर्षो के लगातार प्रयासों से जमीन में पानी का स्तर बड़ा है । इस बात से प्रेरित होकर कई प्रदेशों के ओर विदेशों के विद्यार्थी व वैज्ञानिक इस महोत्सव में हिस्सा लेते है - धर्मा और विज्ञान से मिलकर हलमा की सार्थकता से झाबुआ आज विश्व में अपना स्थान बनाने को तैयार है । बड़े तकनीकी संस्थान अब यहां विद्यार्थियों को प्रशिक्षण के लिये भेजते है । संक्षेप में कहे तो -  (१) हलमा जल संवर्धन के लिये परमार्थ का कार्य है (२) हलमा एक भीली परम्परा है (३) हलमा में किसी तरह का आर्थिक लेन देन नहीं है (४) हलमा में सभी एक समान है (५) हलमा धरती मां की प्यास बुझाने का एक संकल्प है । 
इस वर्ष यह हलमा ४ व ५ मार्च को झाबुआ की हाथीपावा की पहाड़ियों पर होगा जिसमें ४० हजार परिवार शामिल होगें । इसके लिये ११ विकास खण्डों के ४४० गांव शामिल है । इसमें शामिल सभी लोगों को मानना है कि परिश्रम, स्वाभिमान और स्वावलंबन से विकास होगा । इसको आधार हलमा मानकर परम्परा को जीवन्त रखे हुए है । 
कदमों में दृढ़ता हाथों में नव विश्वास जगाते है । नजरों से उन्मुल गगन आराधन पंख उड़ाते है । ये असंख्य है वीर जो धरती माँ की प्यास बुझाते है । शिव के उपासक जटा पर गंगा को लहराते है । 
विज्ञान हमारे आसपास
तारे : उद्भव और विकास
डॉ. विजयकुमार उपाध्याय

सन १९४४ की एक रात वाल्टर वादे नामक एक अमरीकी खगोल वैज्ञानिक कैलिफोर्निया में माउंट विल्सन की चोटी पर स्थित अपनी दूरबीन से ब्रह्मांड का अध्यन कर रहे थे । 
द्वितीय विश्व युद्ध पूरे जोर-शोर से चल रहा था । उस कारण माउंट विल्सन की तराई पर स्थित पेसाडोना तथा लॉस एंजिल्स नगर की बत्तियां बुझी हुई थी । वाल्टर वादे अपनी दूरबीन को अधिकतम दूरी पर स्थित बिन्दु पर केन्द्रित करने का प्रयास कर रहे थे । इस कार्य में ब्लैक आउट के कारण सुविधा हो रही थी । यह काम नगरों में जलती बत्तियों के कारण पहले संभव नहीं हो पाया था । लंबे एक्सप्रोजर के कारण फोटोग्राफिक प्लेट पर बहुत धुंधले तारे से आने वाले प्रकाश को भी ग्रहण करना संभव हो गया । 
वाल्टर वादे २० लाख प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित एंड्रोमेडा नामक मंदाकिनी (गैलेक्सी)की ओर अपनी दूरबीन की सहायता से लिए गए फोटोग्राफ मेंअरबों तारों से निर्मित एंड्रोमेडा मंदाकिनी का स्पष्ट चित्र आया । इससे लगभग २० वर्ष पूर्व एडविन हबल ने इसी दूरबीन का उपयोग कर इसी मंदाकिनी का चित्र लिया था । इस चित्र में पाया गया था कि मंदाकिनी के बाहरी भाग में स्थित कुंडलाकार भुजाएं (स्पाइरल आर्म्स) असंख्य तारों से बनी हुई है । साथ ही इसमें सबसे अधिक चमकीले तारे गर्म नीले तारे हैं । ये गर्म नीले तारे खगोलीय आकाशदीप के समान दिखाई पड़ते है । 
वादे की रूचि मुख्य रूप से एंड्रोमेडा मंदाकिनी के केन्द्रीय धंुधले भाग के अध्ययन में थी । वादे के पूर्व जितने खगोलविदों ने इस क्षेत्र के चित्र लिए थे उनमें भी अलग-अलग तारे दृष्टिगोचर नहीं होते थे । इससे इतना तो स्पष्ट था कि एंड्रोमेडा के केन्द्रीय भाग में वैसे चमकीले नीले तारे मौजूद नहीं थे जैसे कि हबल द्वारा इस मंदाकिनी के बाहरी भाग में चित्रित किए गए थे । 
वादे जानना चाहते थे कि क्या एंड्रोमेडा के केन्द्रीय भाग में कोई तारा मौजूद है ? और यदि कोई तारा मौजूद है तो वह किस प्रकार का है ? वादे को आशा थी कि एंड्रोमेडा के केन्द्रीय भाग में लाल दानव तारे मौजूद हो सकते हैं । ये तारे एंड्रोमेडा के बाहरी भाग में मौजूद नीले तारों के समान चमकीले नहीं हो सकते । पृथ्वी से एंड्रोमेडा की अत्यधिक दूरी के कारण इसके केन्द्रीय भाग में स्थित ये तारे काफी धंुधले दिखाई पड़ते हैं । संभवत: ये इतने धंधुले होंगे कि बहुत आदर्श परिस्थिति में ही चित्रित किए जा सकेंगे । 
लाल प्रकाश के प्रति संवेदनशील फोटोग्राफिक प्लेट का उपयोग करते हुए वादे ने बिल्कुल अंधेरी रात में एंड्रोमेडा मंदाकिनी के केन्द्रीय भाग का चित्र प्राप्त् करने में सफलता प्राप्त् कर ली । इस चित्र में असंख्य धंुधले तारे दिखाई पड़ रहे   थे । 
वादे द्वारा किए गए अध्ययनों से प्राप्त् निष्कर्ष काफी महत्वपूर्ण है । इससे यह पता चला है कि किसी भी मंदाकिनी में मूल रूप से दो प्रकार के तारे होते हैं । इन दो प्रकार के तारों में मुख्य अंतर उनकी आयु का है । एक प्रकार के तारे नए हैं जबकि दूसरे प्रकार के तारे पुराने । इन्हीं निष्कर्षो के आधार पर तारों के निर्माण तथा विकास संबंधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है । इन सिद्धान्तों में यह बताया गया है कि तारे कैसे उत्पन्न होते हैं । समयानुसार उनमें क्या-क्या परिवर्तन आते हैं, तथा पुराने हो जाने पर उनका क्या होता है । 
खगोलविदों की धारणा है कि किसी भी तारे के जीवन की शुरूआत संभवत: किसी डार्क नेबुला मेंहोती  है । कोई भी ऐसा नेबुला किसी खौलते हुए द्रव के समान संक्षुब्ध रहता है जिसमें संवहन धाराएं उठती गिरती रहती हैं । ऐसे नेबुला में गैस तथा धूल कणों के छोटे-छोटे गोले अथवा पॉकेट बन जाते हैं । इस प्रकार नेबुला में जब कोई गोला बन जाता है तो उसमें मौजूद कणों के आपसी गुरूत्वाकर्षण बल के कारण यह गोला संकुचित तथा घना होने लगता है । यह गोला जैसे-जैसे अधिक से अधिक घना तथा संकुचित होता जाता है वैसे-वैसे इसका भीतरी दाब तथा तापमान लगातार बढ़ते जाते हैं । अंत में दाब तथा तापमान इतने अधिक हो जाते हैं कि इसके कारण हाइड्रोजन गैस हीलियम में परिवर्तित होने लगती है । इसके फलस्वरूप ऊर्जा उत्पन्न होने लगती है । इस प्रकार यह गोला एक तारा बन जाता है । 
किसी भी अंधेर नेबुला में किसी गोले या पॉकेट का निर्माण एक तारे के सम्पूर्ण जीवन इतिहास की घटना है । जब किसी तारे का निर्माण हो जाता है तो उसके भीतर उत्पन्न होने वाली ताप ऊर्जा के कारण उस तारे के आयतन मेंप्रसार होने लगता है । इस प्रकार जब प्रसार बल तथा तारे के भीतर मौजूद संकुचन बल साम्यावस्था में आ जाते हैं तो यह तारा एक स्थिर अवस्था में पहुंच जाता है । हमारा सूर्य अभी इसी प्रकार की साम्यावस्था में है । 
किसी भी तारे के ऐसी स्थिति मेंपहुंचने पर उस तारे के भीतर की नाभिकीय भट्टी अपनी पूरी क्षमता के साथ काम करने लगती है तथा तारा अपने चारोंओरअंतरिक्ष में अपनी ऊर्जा को विकरित करता है । तारे के क्रोड में मौजूद हाइड्रोजन गैस नाभिकीय ईधन का काम करती है जिसके जलने से हीलियम रूपी राख पैदा होती है । 
अब एक प्रश्न यह उठता है कि किसी तारे द्वारा इस प्रकार ऊर्जा उत्पादन की स्थिर अवस्था कब तक बनी रहती है । बहुत अधिक भारी भरकम तारे अपने क्रोड के बहुत ऊंचे तापमान के कारण अपने ईधन भण्डार का उपयोग बहुत शीघ्र कर लेते हैं । अनुमान है कि ऐसे तारों का सम्पूर्ण ईधन सिर्फ १० लाख से २० लाख वर्षो की अवधि में समाप्त् हो जाता है । हमारे सूर्य जैसे कुछ कम भारी तारे अपने सम्पूर्ण ईधन भण्डार का उपयोग १० अरब से २० अरब वर्षोमें कर लेते हैं । अनुमान है कि अपनी उत्पत्ति के समय से अब तक हमारा सूर्य अपने ईधन भण्डार का लगभग आधा भाग उपयोग में ला चुका है । सूर्य से भी अधिक हल्के तारे अपने सम्पूर्ण ईधन भण्डार का उपयोग लगभग ५० से ६० अरब वर्षो में करते हैं । 
अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि किसी तारे में मौजूद सम्पूर्ण हाइड्रोजन ईधन समाप्त् हो जाने के बाद क्या होता है ? वैज्ञानिकों की धारण है कि जब किसी तारे का सम्पूर्ण हाइड्रोजन भण्डार समाप्त् हो जाता है तो उसका पुन: संकुचन होने लगता है । इस संकुचन के कारण तारे के क्रोड का तापमान बढ़ने लगता है । इस स्थिति में क्रोड के बाहर स्थित आवरण में मौजूद हाइड्रोजन भण्डार नाभिकीय भट्टी को एक बार फिर ईधन की आपूर्ति करने लगता है । इसके कारण तारा अधिक प्रकाशमान हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में तारे के भीतर से लगने वाला प्रसार बल बाहर से भीतर की ओर लगने वाले संकुचन बल से अधिक हो जाता है । इसके कारण तारा फैलने लगता है । तारे के फैलने के कारण इसक बाहरी सतह धीरे-धीरे ठण्डी होने लगती    है । इस प्रकार यह तारा लाल रंग का एक विशाल तारा बन जाता है । इस विशाल तारे को लाल दानव (रेड जाएंट) तारा कहा जाता है । 
लाल दानव अवस्था के बाद तारे के जीवन में ऐसी परिस्थिति आती है जब तारा बार-बार फैलने तथा बार-बार सिकुडने लगता है । ऐसे तारे को पल्सर कहा जाता है । इस प्रकार बार-बार फैलता तथा सिकुड़ता तारा अपने जीवन के अगले चरण में नवतारा (नोवा) बन जाता है । नवतारा की अवस्था में तारे की बाहरी परत तारे से टूट कर अलग हो जाती है तथा अंतर्तारकीय अंतरिक्ष में खो जाती है । बाहरी परत के टूट जाने के बाद तारे का जो केन्द्रीय भाग बच जाता है वह आकार में काफी छोटा (लगभग पृथ्वी के आकार के बराबर) तथा काफी चमकीला रहता है । 
ऐसे तारे को श्वेत वामन (व्हाइट डवार्फ) तारा कहा जाता है । श्वेत वामन तारे काफी सघन होते  हैं । इनका घनत्व काफी अधिक होता है । अनुमान है कि औसत तौर पर श्वेत वामन तारे का घनत्व हमारे सूर्य से लगभग दो लाख गुना अधिक होता है । उनका द्रव्यमान सामान्य तौर पर सूर्य का लगभग आधा तथा उनका व्यास पृथ्वी के व्यास के आधे से चार गुना तक पाया जाता है । श्वेत वामन तारे मेंनाभिकीय ऊर्जा स्त्रोत बिल्कुल ही नहीं बचा रहता । इस कारण इनमें ऊर्जा का उत्पादन नहीं होता । परन्तु पहले की अवशिष्ट ऊर्जा को ये विकिरण द्वारा धीरे-धीरे बाह्य अंतरिक्ष में भेजते रहते हैं । तथा शनै: शनै: ठण्डे होते रहते हैं । इस प्रकार ये प्रकाशित होकर बिल्कुल काले पड़ जाते हैं । 
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भारतीय मूल के अमरीकी वैज्ञानिक सुबह्मण्यम चन्द्रशेखर का मत था कि किसी भी संकुचनशील तारे के परमाणुआें के भीतर एक संपीडन रोधी बल उस तारे के संकुचन को एक सीमा के बाद रोक देगा । इसके कारण श्वेत वामन तारे का निर्माण होगा । परन्तु चन्द्रशेखर की धारण थी कि सभी तारे श्वेत वामन तारे नहीं बन सकते । 
हमारे सूर्य के सापेक्ष सिर्फ चार गुना तक भारी तारे ही श्वेत वामन तारे बन सकते हैं। इससे अधिक भारी किसी भी तारे में उपर्युक्त संपीड़न को इसके इलेक्ट्रॉनों द्वारा रोकने की सामर्थ्य एक सीमा के बाद समाप्त् हो जाएगी । सघन हो जाएंगे तथा उनका गुरूत्वाकर्षण बल इतना अधिक हो जाएगा कि इसकी सतह से किसी भी वस्तु का ब्राह्य अंतरिक्ष में पलायन संभव नहीं   होगा । यहां तक कि प्रकाश    किरणें भी इससे बाहर नहीं निकल पाएंगी । 
इस कारण से ये बिल्कुल भी नहीं दिखाई पड़ेगे । ऐसे तारे कृष्ण विवर (ब्लैक होल) कहे जाते  हैं । जिस समय डॉ. सुब्रह्मण्यम चन्द्रोखर ने कृष्ण विवरण संबंधी अपनी परिकल्पना प्रस्तुत की संसार के अधिकांश खगोलविदोंने उनकी खिल्ली उडाई थी तथा कृष्ण विवर के अस्तित्व को असंभव तथा हास्यास्पद बताया था । परन्तु आज से लगभग चार दशक पूर्व किए गए अत्याधुनिक खगोल वैज्ञानिक प्रेक्षणों से कृष्ण विवर के अस्तित्व की पुष्टि हुई तथा चन्द्रशेखर सुब्रह्मण्यम को भौतिक शास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया । 
तारे के जीवन का अंतिम चरण सुपरनोवा अवस्था का होता    है । इस अवस्था में तारों के अन्दर भंयकर तथा शक्तिशाली विस्फोट होता है । यह विस्फोट हजारों मेगाटन क्षमता वाले परमाणु बम के विस्फोट 
से भी अधिक भंयकर तथा शक्तिशाली होता है । 
पर्यावरण परिक्रमा
प्रवासी चिड़िया के लिये रोक दिया ब्रिज प्रोजेक्ट 
अमेरिका मेंएक प्रवासी चिड़िया के अंडोंको बचाने के लिए ४७२ करोड़ रूपए का प्रोजेक्ट रोक दिया गया है । प्रोजेक्ट के तहत एक पुल बनाया जाना है । तीन हफ्ते पहले ही निर्माण शुरू होना था । लेकिन अब इन अंडोंसे बच्च्े बाहर आने और चिड़ियों के घोसला छोड़ने के बाद ही पुल का काम शुरू किया जाएगा । 
कैलिफोर्निया के सैनफ्रां-सिस्को से करीब ५० किमी दूर रीचमंडसेन राफेल ब्रिज है । यह शहर के पूर्वी इलाके को पश्चिम से जोड़ता है । ८.८५ किलोमीटर लंबे इस पुल में एक लेन और जोड़े जाना है । साथ ही कुछ सुविधाएं शुरू की जानी हैं । इसके लिए करीब ४७२ करोड़ रूपए का प्रोजेक्ट तैयार किया गया है । निर्माण का काम शुरू करने से पहले २४ पेड़ हटाए जाने हैं जो पुल के रास्ते में आ रहे हैं । पर इनमें से एक पेड़ पर ऐन्स हमिंगबर्ड प्रजाति के पक्षी ने अंडे दे रखे हैं । १५-२० दिनों में इनमें से बच्च्े बाहर आएंगे । लिहाजा तय किया गया कि पक्षी और उसके बच्चें के घोसला छोड़ने तक प्रोजेक्ट रोक दिया जाए । शहर के मेट्रोपोलिटन ट्रान्सपोर्टेशन कमीशन के प्रवक्ता रेन्चलर ने बताया प्रवासी पक्षी के अंडों की सुरक्षा के लिए यह कदम उठाया गया है । इलाके के हर प्रोजेक्ट के दौरान इस तरह की सावधानी बरती जाती है । इसके लिए सख्त निर्देश है । 
अमेरिका में एन्स हमिंगबर्ड प्रजाति की चिड़िया बड़ी तादाद में पाई जाती है । ये बहुत छोटे आकार की होती हैं । अमेरिका के दूसरे इलाकोंमें कैलिफोर्निया आती हैं । इस कारण इन्हें प्रवासी पक्षी माना जाता है । अमेरिकी माइग्रेटरी एक्ट के तहत भी इस पक्षी को सुरक्षा मिली हुई है । 

ट्रेनो मेंबायो टॉयलेट से स्वच्छता अभियान 
आम बजट पेश करते हुए पिछले दिनों वित्त मंत्री ने कहा कि २०१९ तक सभी ट्रेनों में बायो टायलेट्स लगा दिए जाएंगे । बायो टायलेट्स यानी जैविक-शौचालय । वास्तव में बायो टायलेट्स एक नया विचार है और इसकी शुरूआत सबसे पहले जापान से हुई । गंदे और बदबूदार सार्वजनिक शौचालयों से निजात दिलाने के लिये जापान की एक गैर सरकारी संस्था ने जैविक-शौचालय विकसित किए । ये खास किस्म के शौचालय गन्ध-रहित तो हैं ही, साथ ही, साथ ही पर्यावरण के लिये भी सुरक्षित हैं । जैविक-शौचालय ऐसे सूक्ष्म कीटाणुआें को सक्रिय करते हैं जो मल इत्यादि को सड़ने और तेजी से खत्म करने में मदद करते हैं । इस प्रक्रियाके तहत मल सड़ने के बाद केवल नाइट्रोजन गैस और पानी ही शेष बचते हैं, जिसके बाद पानी को फिर री-साइकिल कर शौचालयों में इस्तेमाल किया जा सकता है । 
भारत में बायो टॉयलेट का आविष्कार भारतीय रेलवे और डीआरडीओ यानी डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन द्वारा संयुक्त रूप से किया गया है । इनमें शौचालय के नीचे बायो डाइजेस्टर कंटेनर में एनेरोबिक बैक्टीरिया होते हैं जो मानव मल को पानी और गैसों में तब्दील कर देता है । इन गैसों को वातावरण में छोड़ दिया जाता है । भारत की डिब्रूगढ़ राजधानी ट्रेन दुनिया की पहली बायो वैक्यूम टॉयलेट युक्त ट्रेन है । 
सन् २०१९ तक भारतीय रेलवे के सभी ५५,००० कोचोंको १,४०,००० बायो टॉयलेट के साथ फिट किया जाएगा । तीन से पांच साल के भीतर जल पुनचक्रण की क्षमता १.२ करोड़ लीटर से बढ़ाकर २० करोड़ लीटर करने का लक्ष्य तय किया गया है । ३१ मार्च २०१६ तक रेलवे ने १०,००० डिब्बों में लगभग ३५,००० बायो-टॉयलेट को स्थापित कर लिया है । भारतीय रेलवे ने खुले तल वाली पुरानी टॉयलेट सीट की जगह बायो-टॉयलेट की शुरूआत २०१४ में ही कर दी थी । 

प्रदेश का पहला उल्लू अभ्यारण्य हामूखेड़ी में बनेगा 
म.प्र. के उज्जैन शहर की धार्मिक-पौराणिक-ऐतिहासिक कारणों से तो पहचान है ही अब एक और नई पहचान उल्लू घर के रूप में होगी । 
शहर से करीब १० किलोमीटर दूर इस उल्लू घर को विकसित किए जाने की दिशा में वन विभाग ने प्रस्ताव शासन को भेज दिया है । हामूखेड़ी गाँव उज्जैन से करीब १० किलोमीटर दूर है जहाँ प्राचीनतम मंदिर है । यहां उल्लुआें की संख्या इतनी ज्यादा है कि इस गाँव को अन्य क्षेत्र के लोग उल्लुआें का गाँव के नाम से भी पहचानते हैं । यहाँ विकसित किए जाने वाला उल्लू अभ्यारण्य अपनी किस्म का प्रदेश का पहला अभ्यारण्य होगा । 
वन विभाग के सूत्रोंने बताया कि इस क्षेत्र में तेंदूपत्ता के पेड़ बहुतायात में है जो कि उल्लुआें को डेरा बनाने के लिए पंसदीदा पेड़ है । इन पेड़ों के कारण ही इस स्थान को चुना गया है । दूसरी वजह यह है कि यहाँ स्थित मंदिर में दर्शनार्थियों की आवाजाही बनी रहती है और सप्तह के अंतिम दिनों में यह संख्या बढ़ जाती है । दर्शनार्थी प्रसाद चढ़ाते हैं इस कारण यहाँ चूहों की भी अधिकता है और चहा उल्लुआें का प्रिय भोजन है  १० हजार से अधिक तेंदूपत्ता पेड़ होने के कारण इस पूरे क्षेत्र को एक पार्क के रूप में विकसित किया जा सकता है । जहाँ उल्लुआें का डेरा रहेगा । शहर से दूर होने के कारण यहाँ इतना प्रदूषण नहीं हैं । इस वजह से भी उल्लुआें सहित अन्य पक्षियों के लिए यह स्थान सुविधाजनक है । वन विभाग उल्लू अभ्यारण्य विकसित करने के साथ ही आसपास कैफेटेरिया आदि भी विकसित करेगा ताकि उल्लू घर देखने आने वाले बाहर के पर्यटकों को आवश्यक सुविधाएँ मुहैया हो सके । यह प्रयास भी किये जा रहे हैं कि उल्लू अभ्यारण्य विकसित होने के बाद पर्यटकों की चहल-पहल बढ़ती है तो उनके वाहन निश्चित सीमा के बाद रोककर बैटरी चलित वहन सुविधा उपलब्ध कराई जाए ताकि पक्षियों-उल्लुआें के लिए कोलाहल पैदा न हो । 

सोलर एनर्जी पर क्या सरकार को भरोसा नहीं ?
म.प्र. सरकार सोलर एनर्जी को भविष्य की बिजली आपूर्ति का बड़ा स्त्रोत बताकर बड़ी-बड़ी योजनाएं बना रही हो, लेकिन उसे खुद भरोसा नहीं है कि प्रदेश की बिजली आपूर्ति में ये ऊर्जा बड़ा योगदान दे पाएगी । यही वजह है कि बिजली कंपनियां के माध्यम ये ऊर्जा विभाग ने निजी कंपनियों से अगले २० सालों के लिए बिजली खरीदने के बड़े अनुबंध कर लिए है । स्थिति ये है कि प्रदेश की बिजली खपत सामान्यतौर पर १५,००० मेगावाट है, लेकिन अनुबंध १७,००० मेगावाट के कर लिए हैं । 
अगले २० साल तक लगातार २१ हजार मेगावाट बिजली खरीदी का अनुबंध करने वाले ऊर्जा विभाग ने सोलर एनर्जी से अगले दस साल में १००० मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा है । इस बिजली से भोपाल जैसे पांच शहर को २४ घंटे लगातार बिजली की आपूर्ति की जा सकती है, बावजूद इसके २१००० मेगावाट बिजली खरीदी के निजी अनुबंध सरकार के अविश्वास को जाहिर करती है । 
अभी ऊर्जा विकास निगम के माध्यम से पुलिस, नगरीय निकाय समेत तमाम सरकारी भवनों पर सोलर पैनल से बिजली उत्पादन के एमओयू किए हैं । नगरीय निकायों ने भी सोलर पैनल पर ३० फीसदी तक की छूट की घोषणा की है । बिजली विशेषज्ञ अंकुर श्रीवास्तव का कहना है कि जब खुद बिजली बनाएंगे तो कंपनियोंकी मांग   घटेगी । अनुबंध सरकार पर बोझ ही बढ़ाएंगे ।

नैनो तकनीक से होगा मिनटो मे जंग की छुट्टी
राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला (एनएमल), जमशेदपुर के वैज्ञानिकों ने नैनो तकनीक का इस्तेमाल करते हुए एक ऐसा पदार्थ तैयार किया है जिससे लोहे पर लगा जंग और एल्युमिनियम, पीतल तथा काँसे पर से काले दाग पांच मिनट में ही निकल जायेंगे । साथ ही उन्होंने ऐसा पारदर्शी पेंट भी तैयार किया है जो भविष्य में उनमें जंग नहीं लगने  देगा । इन जंगरोधी उत्पादों को यहां पिछले दिनों सम्पन्न अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले में प्रदर्शन के लिए रखा गया  था । इनकी तकनीक झारखंड के जमशेदपुर स्थित एक कंपनी को हस्तांतरित की गई है तथा आगामी दिनों में इन उत्पादों के बाजार में आने की उम्मीद है । एनएमएल के वैज्ञानिक डॉ. आर.के. साहू ने बताया कि कंपनी रब्जी क्लीन नाम से यह जेल बाजार में ला रही है । इसे जंग लगे सामान पर लगाकर पांच मिनट छोड़ देना होता है । उसके बाद किसी कपड़े से पोछने पर जंग बिल्कुल साफ हो जाता है । आम तौर पर कांसे या पीतल के बर्तन पर काले दाग पड़ जाते है जिन्हें हटाने के लिए बाजार में उपलब्ध मौजूदा रसायन लगाने के बाद उसे काफी देर तक रगड़ना पड़ता है । इसे तैयार करने में किसी हानिकारक पदार्थ का उपयोग नहीं किया गया है । इसे नैनो तकनीक से प्राकृतिक पदार्थोंा और मेटल ऑक्साइड से तैयार किया गया है । 
जंग हटाने के बाद भविष्य में भी इन्हें सुरक्षित बनाने के लिए ग्रेफाइट पेंट तैयार किया गया है । इसके पारदर्शी होने के कारण पीतल, काँसे या एल्युमिनियम के सामान अपने वास्तविक रंग में ही रहते है । साथ ही एक बार इसकी परत चढ़ा देने पर आम तौर पर १० साल तक यह सामान को जंग से बचाता है ।
कृषि जगत
प्रकाश संश्लेषण और कृषि उपज 
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन 

अपने अधिकांश भोजन, वस्त्र और आश्रय (रोटी, कपड़ा और मकान) के लिए हम पेड़-पौधों पर निर्भर हैं । पेड़-पौधे स्वयं अपनी वृद्धि के लिए मिट्टी और उसके नीचे की धरती, पानी, हवा और धूप पर निर्भर हैं । 
इस तरह से सूरज की रोशनी पौधों की वृद्धि के लिए अनिवार्य कच्च माल है । सूरज की रोशनी, पानी और हवा में उपस्थित कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग करके पौधे वह सब बनाते हैं जो उन्हें स्वयं की शारीरिक क्रियाआें के लिए चाहिए (और साथ ही हमारी जरूरत भी पूरी करते हैं) । इस क्रियाको प्रकाश संश्लेषण कहते हैं और यह मुख्यत: पत्तियों (और उनके जैसे अन्य उपांगों) में सम्पन्न होती है । मनुष्य व कई अन्य जंतु इस बात के भरोसे हैं कि पेड़-पौधे किस मुस्तैदी से प्रकाश संश्लेषण करते हैं, बढ़ते हैं और संख्या वृद्धि करते हैं । 
जाहिर है, मानव आबादी के बढ़ने के साथ, हमेंखाद्यान्न की बढ़ती जरूरतें पूरी करने के लिए अधिक फसलें उगानी पड़ेंगी । इस लिहाज से यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम इस बात का अध्ययन करें कि वनस्पतियों की उत्पादकता कैसेबढ़ाई जाए । 
इलियॉन विश्वविद्यालय के डॉ. स्टीफन पी. लॉन्ग और केलिफोर्निया विश्वविद्यालय के कृष्णा के. नियोगी के नेतृत्व मेंशोधकर्ताआें के एक अतंर्राष्ट्रीय समूह ने इस समस्या पर ध्यान केंद्रित किया है । उनके शोध पत्र का शीर्षक है प्रकाश सुरक्षा से बहाली को बढ़ाकर प्रकाश संश्लेषण तथा फसल उत्पादकता में सुधर और यह साइन्स शोध पत्रिका के १८ नवंबर २०१६ के अंक मेंप्रकाशित हुआ है । 
सूरज की रोशनी की ऊर्जा को पत्तियों में उपस्थित क्लोरोफिल नामक हरे रंग का रंजक पकड़ता है और इस ऊर्जा से रासयनिक क्रियाआें का संचालन किया जाता है । किंतुयह ऊर्जा पत्तियों को नुकसान भी पहुंचा सकती है (याद कीजिए समुद्र तटों पर धूप सेंकने वालों की त्वचा जल भी जाती है) । पौधे ऐसी प्रकाश-जनित क्षति से सुरक्षा के लिए ऊष्मा का उत्सर्जन करते हैं (याद कीजिए हम इसी सुरक्षा के लिए विशेष मरहम और काले चश्मों का उपयोग करते हैं) । 
किंतु इस अतिरिक्त सौर ऊर्जा के शमन का काम तेजी से होना चाहिए । यदि इस शिथिलीकरण में और चक्र को फिर से शुरू करने मेंबहुत समय लगे (कई बार आधा घंटा या उससे भी ज्यादा) तो इसे वक्त की बरबादी ही कहा जाएगा । उपरोक्त समूह का मत है कि यदि हम बहाली की इस प्रक्रिया (जिसे गैर-प्रकाश-रासायनिक शमन यानी एनपीक्यू कहते हैं) को तेज कर सकें तो हम फसलों की उत्पादकता बढ़ा सकेंगे । 
पौधों में एनपीक्यू स्तर को इस तरह बदलने का नियंत्रण तीन प्रोटीन की क्रिया द्वारा किया जाता  है । एक प्रोटीन, जिसका संक्षिप्त् नाम जेडईपी है, एनपीक्यू दर को बढ़ाता  है । वीडीई नामक एक दूसरा प्रोटीन जेडईपी की क्रिया को संतुलित रखने क काम करता है जबकि तीसरा प्रोटिन (नाम पीएसबीएस) एनपीक्यू स्तर को समायोजित करता है । यदि हम इन तीन प्रोटीन्स के स्तरों के साथ उठापटक कर सकें, तो प्रकाश संश्लेषण की कार्यकुशलता को बढ़ाकर फसल की उपज भी बढ़ा सकते है । 
इसी उद्देश्य से उक्त समूह ने तंबाकू के पौधे मेंवीडीई, पीएसबीएस तथा जेडईपी के जीन्स प्रविष्ट कराए और एक जेनेटिक रूप से परिवर्तित पौधा प्राप्त् किया । यह दरअसल मात्र सिद्धांत को दर्शाने वाला प्रयोग था । तंबाकू को ही क्योंचुना गया ? जब यह सवाल विज्ञान लेखक हैना मार्टिन लॉरेंज ने पूछा तो डॉ. लॉन्ग का जवाब था: क्योंकि इसे (तंबाकू के पौधे को जेनेटिक रूप से) परिवर्तित करना आसान है और यह एक फसल है, इसलिए यह पत्तियों की परतें पैदा करता है, जैसी कि हम चाहते हैं । (इसके अलावा) चूंकि प्रक्रिया चावल, सोयाबीन, गेहूं और मटर के समान है, इसलिए हम काफी यकीन से कह सकते हैं कि यह खाद्यान्न फसलों में भी काम करेगी । अलबत्ता, अगला कदम इसी प्रकार के परिवर्तन उन फसलों में करने का है, जिन्हें परिवर्तित करना कहीं ज्यादा मुश्किल है । 
तीनों जीन्स (वीडीई, पीएसबीएस और जेडईपी) से युक्त पौधों को वीपीजेड पौधे कहा गया और उनके प्रदर्शन की तुलना सामान्य, अपरिवर्तित तंबाकू के पौधों से की गई (जिन्हें वैज्ञानिक जगंली किस्म कहते हैं) । वीपीजेड पौधों में एनपीक्यू का शिथिलीकरण अधिक तेजी से हुआ और उनमें बहाली होकर वापिस प्रकाश संश्लेषण जल्दी शुरू हो गया । 
अगले प्रयोग में शोधकर्ताआें ने पौधों पर पड़ने वाले प्रकाश में उतार-चढ़ाव किए ताकि उजाले और अंधेरे (यानी दिन और रात) की परिस्थितियां निर्मित कर सके । इस बार भी वीपीजेड और जंगली किस्मोंकी तुलना की गई । इस प्रयोग में भी कम प्रकाश में वीपीजेड पौधों का प्रदर्शन जंगली किस्म से बेहतर रहा । 
और फिर खेतों में फसल के रूप में उत्पादकता की जांच करने के लिए उन्होंने दोनों तरह के तंबाकू के पौधों को विश्वविघालय के खेतों में बोया । अपरिवर्तित पौधों की बनिस्बत वीपीजेड पौधों में पत्तियों की सतह का क्षेत्रफल ज्यादा था (यानी ज्यादा प्रकाश संश्लेषण), पत्तियों, तने, और जड़ों का वजन ज्यादा था और प्रति पौधा शुष्क भार भी १५-२० प्रतिशत अधिक था । 
शोधकर्ताआें के अनुसार ये परिणाम इस अवधारणा का सबूत पेश करते हैं कि खाघान्न फसलों की उत्पादकता बढ़ाना संभव है । यह सही है कि ये पौधे जेनेटिक रूप से परिवर्तित किए गए हैं । मगर ध्यान रखने की बात यह है कि ये जीन्स वनस्पतियों से ही लिए गए हैं, ये वनस्पति जगत के लिए विदेशी नहीं है । अर्थात इनके उपयोग को लेकर जीएम विरोधी लोगों को बहुत ज्यादा आपत्ति नहीं होनी चाहिए । 
जनजीवन 
श्रम से दूर होती जीवन शैली और नए रोग 
डॉ. रामप्रताप गुप्त 

महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में लिखा है कि हमारे पूर्वजों का जीवन यंत्रों से दूर और शारीरिक श्रम पर आधारित    था । 
हमारे किसान हजारों वर्षोंा से बैलों की सहायता से ऐसी हल से खेती करते गए, जिससे उनके पूर्वज करते थे । वे उन्हींझोपड़ों में रहते रहे, जिनमें उनके पूर्वज रहते थे । महिलाएं उसी तरह आटा पीसती हीं, दही बिलौती रहीं जैसे उनके पूर्वज करते  थे । ऐसा नहींथा कि वे यंत्रों का उपयोग करते नहीं थे, या बनाने में असमर्थ थे । वे यंत्रों का उपयोग केवल उन्हीं कामों में करते थे जिन्हें वे अपनी शारीरिक शक्ति से करने में असमर्थ होते थे । वे जानते थे कि शारीरिक श्रम से बचने के लिए यंत्र बनाए तो एक दुष्चक्र मेंफंस    जाएंगे । शारीरिक श्रम पर आधारित जीवन शैली के कारण वे संक्रामक रोगों को छोड़कर वर्तमान में होने वाले अन्य प्रकार के रोगों से बचे रहते थे । 
उस काल में जीविका, आवास आदि सब शारीरिक श्रम को प्रोत्साहित करते थे । मध्यकाल में जब पुरानी दिल्ली को बसाया था, तो उसकी योजना इस तरह से बनाई गई थी कि निवासी श्रम करने को प्रेरित हों । शहर के केन्द्र में चांदनी-चौक में बाजार की सुविधाएं उपलब्ध कराई गई थी और उसके चारों ओर बस्तियां थी । लोग आसानी से चलकर बाजार जा सकते थे । सारी व्यवस्था वाहन के बिना पैदल चलकर अपनी आवश्यकताआें की पूर्ति करने की दिशा में प्रेरित करती थी । 
औद्योगिक क्रांति के साथ आए परिवर्तनोंने हमें शारीरिक श्रम से दूर कर यंत्रों का गुलाम बना  दिया ।  कम्पनियां लोगों को श्रम से विरत कर यंत्रों का सहारा लेने की दिशा में प्रेरित करने के लिए नए-नए उपकरण बनाने लगी । विक्रय को प्रेात्साहन देने के लिए विज्ञापनों का सहारा लिया गया । आम जनता ने भी उन्हें प्रगति और विकास का पर्याय मान कर गले लगा लिया । 
फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन से उनके हमेशा के लिउ समाप्त् हो जाने का खतरा भी उत्पन्न हो रहा है । बढ़ते उपभोग के इस पहलू की चर्चा फिर कभी होगी, वर्तमान में तो हम श्रम से विरत जीवन शैली के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा तक सीमित रहेंगे । 
एक ओर तो वर्तमान यंत्र आश्रित जीवन शैली हमें श्रम से विरत करती है, जिससे हमारी ऊर्जा की आवश्यकता कम हो जाती है, वहीं दूसरी ओर अत्यधिक वसा, चीनी, मैदा आदि से बनी स्वादिष्ट वस्तुआें का उपभोग बढ़ता जा रहा है जिससे शरीर को आवश्यकता से अधिक ऊर्जा उपलब्ध हो जाती है । इस तरह हमारे शरीर की ऊर्जा की मांग और आपूर्ति में असंतुलन पैदा हो जाता    है । अतिरिक्त ऊर्जा व्यक्ति को मोटापे का शिकार बनाती है । गांधीजी की यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हो रही है कि हम शारीरिक श्रम से बचाने वाले यंत्रों के गुलाम हो जाएंगे । 
वर्ष २०१५ के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार प्रति व्यक्ति उच्च् आय वाले राज्यों में मोटापे के शिकार लोगों का प्रतिशत अधिक है । महाराष्ट्र में पुरूषों और महिलाआें में मोटे व्यक्तियों का प्रतिशत क्रमश: २३.८ और २३.४, तमिलनाडु में २८.२ और ३०.९, आंध्र में ३३.५ और ३३.२ है । दूसरी ओर अल्प आय वाले राज्यों जैसे बिहार में यह प्रतिशत क्रमश: ६.३ और ४.६ प्रतिशत, मध्य प्रदेश में १०.९ और १३.६ प्रतिशत और पश्चिम बंगाल १४.२ और १९.९ है । इस तरह राज्यों की आय के स्तर और मोटापे के प्रतिशत मेंस्पष्ट सम्बंध दिखाई देता है । 
आय के स्तर और मोटापे मेंसीधे सम्बंध के कारण आय वृद्धि के साथ-साथ मोटापा जनित बीमारियों के शिकार लोगों का प्रतिशत भी बढ़ता जाता है । मोटापे के कारण होने वाली बीमारियों में मधुमेह, उच्च् रक्तचाप, हृदय रोग आदि प्रमुख हैं । उदाहरण के लिए मधुमेह के शिकार पुरूषोंऔर महिलाआें का प्रतिशत महाराष्ट्र में क्रमश: ५.९ और ५, तमिलनाडु में ९.७ और ७.१ और आंध्र में ९.८ और ८.२ प्रतिशत है । वहीं बिहार में यह ६.७ और ४.२, मध्य प्रदेश में ६.७ और ५.१ और पश्चिम बंगाल में ११.४ और ७.४ प्रतिशत है । 
इसी तरह उच्च् रक्त चाप के शिकार पुरूषों और महिलाआें का प्रतिशत महाराष्ट्र में ११.५ और ७.१, तमिलनाडु में ११.५ और ६.२ तथा आंध्र में ११ एवं ७.६ प्रतिशत है । दूसरी ओर अल्प आय वाले राज्यों में उच्च् रक्त चाप के शिकार पुरूषों और महिलाआें का प्रतिशत बिहार में ७.५ और ४.४, मध्य प्रदेश में ८.२ और ६.३ तथा पश्चिम बंगाल में ९.९ और ७.८ प्रतिशत है । 
मोटापा या आवश्यकता से अधिक वजन का अर्थ है, बीएमआई २५ किलोग्राम प्रति वर्ग मीटर से अधिक  होना । बीएमआई ज्ञात करने के लिए निम्न सूत्र का उपयोग किया जाता है -बीएमआई वजन = (कि.ग्रा. में)/कद (मीटर में) । 
चिंता की बात यह भी है कि शहरी और उच्च् आय वाले लोगों की वसा एवं चीनी प्रधान खानपान की आदतें ग्रामीण इलाकों में फैलती जा रही है । पूर्व में ग्रामीण क्षेत्रों में मधुमेह और हृदय रोगियों का प्रतिशत शहरवासियों की तुलना में बहुत कम होता था । चिकित्सकों का कथन है कि दिनों-दिन ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले इनके रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है । के.ई.एम. अस्पताल के डीन डॉ. अविनाश सुपे का कथन है कि पूर्व में जहां ९५ प्रतिशत बाल रोगी दस्त के शिकार होते थे, अब उनमेंकई तरह के मोटापे के शिकार और कुछ मामलों में बच्चें को होने वाली मधुमेह के शिकार भी आ रहे हैं । 
प्रसिद्ध जर्नल लेंसेट के अनुसार भारत में कुल बीमारियों में जीवन शैली जनित बीमारियों का हिस्सा ५२ प्रतिशत और कुलमौतों में ६० प्रतिशत हो गया । भारत में पहली बार हृदयाघात के शिकार लोगों की औसत आयु ५० वर्ष है, यह आयु विकसित राष्ट्रों की तुलना में १० वर्ष कम है । जीवन शैली के कारण होने वाली बीमारियों के प्रतिशत में वृद्धि के पीछे शहरों की अनियोजित बसाहट भी है । 
वर्तमान में शहरों में यह आम बात हो गई है कि व्यक्ति के आवास, कार्यस्थल एवं बाजार एक-दूसरे से कई किलोमीटर दूर स्थित होते हैं जिसके चलते एक स्थान से दूसरे स्थान जाते समय वाहन की सुविधा एक अनिवार्य आवश्यकता हो गई    है । एक बार वाहन के आदी होने पर अब हम छोटी दूरी के लिए भी वाहन तलाशते हैं, पैदल चलना अब हमारे जीवन का गिरता अंश हो गया है । 
वर्तमान में हमारी पीढ़ी एक ओर तो नई जीवन शैली जनित नए-नए रोगों का शिकार हो रही है, वहीं जहां अन्य राष्ट्रों में संक्रामक बीमारियों से मुक्ति प्राप्त् की जा चुकी है, हम अब भी तपेदिक आदि के शिकर हो रहे हैं । हाल ही में प्रसारित विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार भारत में तपेदिक के रोगियों की संख्या सरकार के अनुमान की लगभग दुगुनी है । 
विश्व के विकसित राष्ट्र इस रोग से पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं । साथ ही भारत में डेंगू, चिकनगुनिया आदि संक्रामक बीमारियां भी तेजी से फैल रही हैं । सन् २०१० एवं २०१५ की ५ वर्षीय अवधि में डेंगू के मामलों में ३.५ गुना और मृत्यु दर में दुगनी वृद्धि हुई है । इस तरह भारतीय लोग दोहरी मार झेल रहे है । 
सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाआें की अपर्याप्त्ता के चलते एवं निजी क्षेत्रों की मरीजों से येन केन प्रकारेण पैसा छीनने की प्रवृत्ति को देखते हुए इस स्थिति से निपटने और मोटापे से मुक्ति प्रदान करने की त्वरित आवश्यकता है । अनेक लोगों का व्यवसाय ही ऐसा होता है जिसमें शारीरिक श्रम की आवश्यकता नहीं होती । ऐसी स्थिति में हमें सुबह-शाम पैदल घूमने की आदत डालना    होगी । अगर हम तेज गति से चलते हैं तो आधा घण्टा अन्यथा एक घण्टा घूमना आवश्यक है, साथ ही अपने भोजन में वसा, चीनी आदि की मात्रा को भी कम करना होगा ताकि मोटापे की स्थिति पैदा ही न हो । आज जनता को श्रम रहित जीवन शैली के खतरों के प्रति जागरूक करने के व्यापक प्रचार-प्रसार की महती आवश्यकता है । 
ज्ञान-विज्ञान
अब ३डी तकनीक से कैंसर कोशिकाओं का पता चला 

दुनिया भर में हर साल कैंसर की वजह से करोड़ों लोगों की मौत हो रही है । ऐसे में शोधकर्ताआें ने कैंसर रोगियों के खून में उसमें घूम रही ट्यूमर कोशिकाआें (सर्कुलेटिंग टयूमर सेल्स) का पता लगाने और हमेशा के लिए उन्हेंबाहर निकालने की ३डी तकनीक बना ली है । 
यह शोध कॉफी अहम साबित हो सकता है । सर्कुलेटिंग ट्यूमर सेल्स (सीटीसी) ऐसी कोशिकाएं होती हैं, जो शुरूआती चरण के ट्यूमर से निकलती है और रक्तसंचार के जरिये शरीर के अन्य हिस्सों में फैल जाती है । इस शोध के प्रमुख वैज्ञानिक जयंत खंडारे और शाश्वत बनर्जीने कहा कि यह शरीर के अन्य अंगोंमें कैंसर के फैलने का मुख्य कारण है और इसे मेटास्टेसिस कहते है । 
श्री खंडारे ने कहा कि वर्ष २०१३ में कैंसर के कारण ८० लाख २० हजार मौतोंके साथ एक करोड़ ४९ लाख नए मामले दर्ज हुए थे । भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने भारत में वर्ष २०२० तक १७ लाख से ज्यादा नए मामले सामने आने और ८.८ लाख से ज्यादा मौत होने की आशंका जताई है ।
यह शोध अंतराष्ट्रीय पत्रिका एडवांस्ड मैटिरियल्स इंटरफेस की कवरपेज स्टोरी के रूप में प्रकाशित हुआ है । इस पत्रिका ने भारतीय शोधकर्ताआें के एक समूह को पहली बार यह सम्मान दिया है । श्री खंडारे ने कहा कि महाराष्ट्र इंस्टीट्यूट ऑफ फॉर्मेसी, एक्टोरियन इनोवेशंस एंडरिसर्च प्राइवेट लिमिटेड और महाराष्ट्र इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एण्ड रिसर्च मेडिकल कॉलेज, पुणे ने खून के एक छोटे से नमूने मे से सीटीसी का पता लगाने वाला ३डी माइक्रोचैनल तंत्र बनाया है । 

क्या अर्जित गुण संतानों को मिलते है ?

देखा जाए तो अर्जित गुणों के संतानोंतक पहुंचने के सवाल का पटाक्षेप डारविन के विकासवाद के साथ हो चुका था किन्तु यह सवाल इस बार ज्यादा नफासत से उठा है । सवाल यह है कि क्या माता-पिता द्वारा अपने जीवन काल में अर्जित किए शारीरिक गुण संतानों को विरासत में प्राप्त् होते हैं । इस मामले में हाल में किए गए कुछ प्रयोगों से नई समझ उभरी है । 
वेसलेयन विश्वविघालय की सोनिया सुल्तान और जेकब हरमैन ने एक छोटे से फुलधारी पौधे पोलीगोनम पर्सीकेरिया के साथ कुछ प्रयोग करके दर्शाया है कि वाकई कुछ अर्जित गुण संतानों में भी नजर आते हैं । प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित अपने शोध पत्र में उन्होंने इसकी क्रियाविधि पर भी प्रकाश डाला है । 
पोलीगोनम पर्सीकेरियाएक वार्षिक पौधा है । सुल्तान और हरमैन ने ऐसे कुछ पौधों को सुखी मिट्टी और कुछ पौधों को सामान्य मिट्टी में उगाया । इनसे जो बीच प्राप्त् हुए उन्हें अलग-अलग रखा मगर सबको सूखी मिट्टी में बो  दिया । उन्होंने इन नए पौधों के साथ एक प्रक्रिया और की । इनमें से कुछ पौधों के डीएनए में से १५ से २० प्रतिशत तक मिथाइलेशन को हटा दिया । 
दरअसल, मिथाइलेशन वह प्रक्रिया है जिसके जरिए डीएनए में जगह-जगह पर मिथाइल समूह जुड़ जाता है । इसकी वजह से उन हिस्सों में उपस्थित जीन्स या तो निष्क्रिय हो जाते हैं या उनका व्यवहार बदल जाता है । यह प्रक्रियाजीव के जीवन काल में निरन्तर चलती रहती है और  इसकी वजह से उस जीव में कुछ नवीन गुण प्रकट होते हैं । 
दोनों तरह के पौधों को सूखी मिट्टी में उगाने पर देखा गया कि जो पौधे सूखे में पले माता-पिता से उत्पन्न हुए थे उनमें सूखा रहने की क्षमता ज्यादा थी । अर्थात उनकी पौध जल्दी बड़ी हुई, उनकी जड़े ज्यादा गहराई तक पहुंची और उनमें चौड़ी पत्तियां बनी । 
मगर जिन पौधों में मिथाइल समूहों को हटा दिया गया था उनमें माता-पिता के येगुण प्रकट नहीं  हुए । इसके आधार पर सुल्तान का मत है कि किसी जीव के जीवन काल मेंडीएनए का मिथाइलीकरण उसमें कई गुणों के लिए जिम्मेदार होता है और संतानों को ये गुण मिथाइल युक्त डीएनए के माध्यम से ही प्राप्त् होते हैं । 
आम तौर पर देखा गया है कि जब सामान्य कोशिका से प्रजनन कोशिकाएं (जैसे भ्रूण की कोशिकाएं) बनती हैं तो पूरा मिथाइलीकरण समाप्त् कर दिया जाता है । मगर सुल्तान के प्रयोगों से लगता है कि कुछ मामलों में मिथाइलीकरण शेष रह जाता है और यह संतानों को उनके माता-पिता द्वारा अर्जित गुण प्रदान करता है । 
प्रयोगों में एक विशेषता यह थी कि इसमें जेनेटिक दृष्टि से काफी विविध पौधों का उपयोग किया गया था और सब में अर्जित गुणों का अगली पीढ़ी को हस्तान्तरण नहीं देखा गया । इसका मतलब है कि मिथाइलीकरण को अगली पीढ़ी में पहुंचाना स्वयं भी एक आनुवंशिक गुण है जो सब जीवों में नहीं पाया जाता । 

बूढ़े खून से हानिकारक असर को रोकने की कोशिश

वृद्ध हो चुके खून का काफी नाटकीय प्रभाव होता है और यदि युवाआें को ऐसा खून दिया जाए तो उनमें बुढ़ाने के लक्षण प्रकट होने लगते हैं । मगर इस समस्या से निपटने के तरीके भी खोजे गये हैं और इन तरीकों को खोजते-खोजते वैज्ञानिकों ने वृद्धावस्था की समस्याआें का संभावित समाधान भी पा लिया है । 
सबसे पहले खून के ऐसे असर का पता चूहों पर किए गए कुछ प्रयोगों से चला था । उस प्रयोग में जवान चूहों और बूढ़े चूहों के रक्त प्रवाह को आपस में जोड़ दिया गया था । देखा गया था कि युवा चूहों में बुढ़ाने के लक्षण प्रकट होने लगते हैं  जबकि बूढ़े चूहों की सेहत में सुधार होता है । 
इसके बाद कुछ युवा मनुष्यों का खून बूढ़े चूहों को देने पर पता चला कि ऐसे चूहों में वृद्धावस्था के लक्षण कम हो जाते हैं । जैसे उनकी याददाश्त बेहतर हो जाती है और उनकी मांसपेशियां ज्यादा काम कर पाती हैं । मगर यह भी पता चला था कि बूढ़ों का खून युवाआें का दिया जाए, तो उनमें अंगों की क्षति होने लगती है और मस्तिष्क में वृद्धावस्था के लक्षण दिखने लगते   हैं । 
इन प्रयोगों से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि युवा खून में ऐसा कुछ होता है जो क्षतिकारक है । अब स्टेनफोर्ड विश्वविघालय की हनादी युसूफ ने एक प्रोटीन की पहचान की है, जो संभवत: बूढ़े खून में ज्यादा मात्रा में पाया जाता है और क्षतिकारक है । सुश्री युसूफ ने पाया कि खून में एक प्रोटीन तउअच की मात्रा उम्र के साथ बढ़ती है । ६५ वर्ष से ऊपर के लोगों में इसकी मात्रा २५ वर्षीय लोगों के मुकाबले ३० प्रतिशत तक ज्यादा होती है । अब वे इस प्रोटीन का असर परखना चाहती    थी । 
जब उन्होंने ६० से ऊपर के लोगोंके खून का एक घटक (प्लाज्मा) ३ माह उम्र के चूहों को दिया तो उनके मस्तिष्क में 
वृद्धावस्था के लक्षण दिखने लगे । ३ माह उम्र के चूहे मनुष्य की उम्र के हिसाब से २० वर्ष के होते है । 
मगर जब प्लाज्मा के साथ एक ऐसा पदार्थ भी दिया गया जो तउअच के असर को बाधित करता है तो युवा चूहोंमें हानिकारक असर नजर नहीं आए । 
सुश्री युसूफ ने सोसायटी फॉर न्यूरोसाइन्स की वार्षिक बैठक में बताया कि जब उम्र बढ़ती है तो तंत्रिकाआें की क्षति होती है और मस्तिष्क में सूजन भी ज्यादा होने लगती है । यदि हम इसकी क्रियाविधि को समझ लें तो शायद हम इस  असर को रोक सकेंगे और पलट सकेंगे । 
अर्थ जगत 
मथुरा में पैसा है तो कंस भी है
न्या. चन्द्रशेखर धर्माधिकारी

आज `केशलेस` याने नकद रहित से लेकर `लेसक्रॅश` (कम नगदी) की बात जोर-शोर से चल रही है। अतएव मुझे आचार्य विनोबा  भावे द्वारा श्रम और प्रेम के आधार पर प्रतिपादित कांचनमुक्ति सिद्धांत और प्रयोग विचारणीय लगा । 
विनोबा ने कहा था ``दुनिया में श्रम और प्रेम की प्रतिष्ठा बढ़ने से  कांचनमुक्ति होगी । श्रम नहीं होगा तो अन्नोत्पादन पूरा नहीं होगा । कुछ लोग ज्यादा छीन लेने की कोशिश करेंगे और झगड़ा चलता ही रहेेगा । इसी के लिए प्रेम भी चाहिए, ताकि जो पैदा हुआ उसे बांटकर  खायें । जैसे परिवार में सब अलग-अलग कमाते हैं,फिर भी सब बांटकर खाते हैं, क्योंकि उनमें प्रेम है । वैसा ही प्रेम समाज में होने पर बांटकर खाने का सामाजिक अमल होगा । इन दोनों चीजों के बढ़ने से पैसे का जोर नहीं चलेगा और समाज कांचनमुक्त होगा।`` विनोबा के आश्रम में वैसे ही अन्न और वस्त्र स्वावंलबन चल ही रहा था । सूत खुद कातकर, कपड़े की बुनाई करना तथा अपने परिश्रम से पैदा अन्न का सेवन करना ही आश्रम का व्रत था ।
इसलिए बाजार में कपड़े के या अनाज के भाव गिरें या बढ़ें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता था । इस स्वावलंबन प्रक्रिया के दो भाग किये गये थे । एक था स्वयं का स्वावलंबन और दूसरा समूह का याने आश्रम का स्वावलंबन । इसे कांचन मोचन की उपासना कहा गया था । आश्रम में कुछ बहनें ऐसी थीं जिन्होंने कई सालों से पैसों का स्पर्श ही नहीं किया था ।
वर्तमान परावलंबी समाज रचना के कारण पैसा विनिमय का साधन बना है । इस संदर्भ में विनोबा ने कहा है ``जैसे किसान परावलंबी  है । इसलिए पैसे को प्रतिष्ठा मान बैठा है वैसे ही हमारी सरकार भी परावलंबी यानी परदेशावलंबी बनी   है । वह भी पैसे को ही प्रतिष्ठा मान बैठी है । सरकार के सामने यह समस्या रहती है कि परदेस से फलां-फलां सामान हमें चाहिए और उसे खरीदने के लिए पैसा चाहिए । तो जिस मोहपाश में किसान फंसा हुआ है उसी मोहपाश में सरकार भी फंसी है । व्यापारी तो उसमें फंसे हुए हैं ही । 
नतीजा यह हुआ है कि क्या व्यापारी, क्या मध्यमवर्ग और क्या किसान यानी जनता और सरकार, चारों मिलकर पैसे का गुणगान कर रहे हैं । जनता से पैसा लेकर सरकार गांव वालों को वही पैसा सूद पर दे, यह तो कितनी बुरी बात है। ऐसी बुरी धारणाएं मिटाये बिना क्रंाति नहीं हो सकती । समाज में जरुरत से ज्यादा पैसा पैदा कर दिया गया है । आज पैसे का परिश्रम और पैदावार से कोई संबंध नहीं रहा है । सिर्फ कागज बढ़ाये हैं यानी कृत्रिम पैसा बढाया गया है । ऐसा पैसा पैदा होने से सब लोेग लोभी या रिश्वतखोर बन गये हैं । 
आज रुपये के एक सेर चावल, तो कल आधा सेर । कौन जाने वह किस रोज क्या बोलेगा ? इस झूठे पैसे को हम सिर्फ निबाह ही नहीं रहे हैं बल्कि उसे अपना कारोबारी बना चुके हैं। लक्ष्मी तो श्रम से निर्मित होती है। लक्ष्मी और पैसा एक ही चीज नहीं है। लक्ष्मी तो माँ है, विष्णु-पत्नी है । और पैसा राक्षस है। किसने बनाया पैसा ? वह तो नासिक के छापेखाने में बनता है। उत्पादन तो बढ़ता नहीं और पैसा बढ़ता जाता है । 
एक दिन यशोदा ने कृष्ण से कहा कि मक्खन को मथुरा में जाकर बेचना चाहिए । कृष्ण का जवाब था नहीं उसे गांव में ही खाना चाहिए । यशोदा बोलीं मथुरा में मक्खन बेचने से पैसा मिलेगा । तो कृष्ण बोले मथुरा में अगर पैसा है तो कंस भी है । मथुरा के पैसे का लोभ रखोगे तो कंस का राज्य भी मान्य करना पड़ेगा । इसीलिए पैसे से मुक्त होकर गांव-गांव में `ग्रामस्वराज्य` स्थापित करना  चाहिए । प्रयास करना होगा कि देहाती जनता को अपनी मुख्य आवश्यकताओं के लिए बाजार पर अवलंबित न रहना पड़े । आज देहात के लोग अनाज के अलावा सब कुछ खरीदते हैं । इसलिए आम जनता की वित्त संचय की वासना नहीं छूटती ।
विनोबा ने ब्याजखोरी के बारे में कहा है ``ब्याज को आज व्यापार में मान्य किया गया है। आज की मान्यता के अनुसार इतना ही कह सकते हैं कि अतिरिक्त ब्याज नहीं लेना चाहिए । इस मान्यता पर पुनर्विचार होना चाहिए । इस्लाम ने ब्याज का पूर्ण निषेध किया है । अगर ब्याज का निषेध हो जायेे, तो संग्रह की मात्रा काफी घट     जायेगी ।`` कांचनमुक्ति जीवन मूल्यों के परिवर्तन का प्रयोग है । हमको परिश्रम से निर्माण करना है और परस्पर सहकार से जीवन का नियमन करना है । 
इस तरह निर्माण और नियमन दोनों इस प्रयोग का हिस्सा हैं । चलन का परिवर्तन पैसे मंे नहीं करना है । इसी से जीवन में नियमन आयेगा, लेकिन निर्माण पर भी गंभीरता से विचार करना होगा ।  यह सिर्फ शब्दों की हेराफेरी नहीं है। यह तो अर्थविज्ञान या अर्थनीति का बुनियादी सिद्धांत है । विनोबा कहते हैं ``यदि हम फौरन उपयोग नहीं कर पा रहे हैं और दूसरा कोई वह कर रहा है तो हम अपना पैसा उसके हाथ में सौपते हैं । कुछ मुद्दत के बाद जब वह पैसा हमें वापस देग तो पूरे सोलह आने वापस देने की जिम्मेवारी उस पर न हो । अगर वह पंद्रह आने वापस कर दे तो ऋण-मुक्ति मान लेनी चाहिए । यानी आम जनता के  हित के काम में लगे पैसे में कमोबेशी या कटौती मान्य करना धर्म होगा । अगर यह विचार मंजूर हुआ तो संग्रह की मात्रा भी कम होगी और संग्रह करने की लालसा और मुनाफा के साथ ही अपने परिश्रम से न कमाया हुए पैसे की लालसा समाप्त होगी । ऐसे में `कालेधन` का सवाल भी नहीं रहेगा ।  
महाराष्ट्र के कोकण जिले के गांधी के नाम से प्रसिद्ध अप्पासाहब पटवर्धन जो महात्मा गंाधी के सचिव भी रहे थे के द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की प्रसिद्ध अर्थशास्त्री तथा योजना आयोग के अध्यक्ष धनंजय राव गाडगिळ ने भी सराहना की थी और कहा था कि ``वह सिद्धांत इतना दूरगामी हैं कि वह हमे आज पसंद नहीं आयेगा । लेकिन इसका मूल्य हम पांच सौ साल के बाद समझ सकेंगे`` नकद पैसे की खोज के पहले वस्तु नियमन की पद्धति उपयोग में लाई जाती थी । फिर `चलन` में पैसा और नोटों का आविष्कार हुआ । जिनका संग्रह किया जा सकता है । 
ईश्वर निर्मित सम्पती नश्वर और मानवनिर्मित पैसा `अमर`! यह उल्टा न्याय प्रस्थापित हुआ । इसी के कारण `ब्याज` और `डिवीडेंड` को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई । अमीर अधिक अमीर होने लगे और गरीब अधिक गरीब बने । आर्थिक विषमता बढ़ती गई । अप्पासाहब का सुझाव था कि सरकार घोषणा करे कि मुद्रित नोट छपे हुए साल के लिए ही चलन में रहेगा । उसके बाद सौ रुपये का नोट ९५ रु. में वापस  होगा । बैंक में जमा पैसा बिना लाभ हानि के स्वीकार किया जाएगा । इस साल रखे १०० रुपये के बदले अगले साल ९५ रु. ही वापिस मिलेंगे । 
वैसे भी हम चौकीदार को हर महीने वेतन देते ही हैंना ? उत्पादन परिश्रम करने वालों को तगाई बिना ब्याज की मिलेगी । ताकि अमीर अधिक अमीर और गरीब अधिक गरीब न हो और सरकार भी मुनाफा न कमा सके । 
यह सिद्धांत अव्यवहारिक या हास्यास्पद लग सकता है लेकिन यही हमारे संविधान के उददेशिका की आर्थिक समता के तत्व के अनुकूल है । इसी के कारण सामाजिक विषमता समाप्त करने में मदद मिलेगी । वैसे भी किसी भी प्रकार का उत्पादन या परिश्रम न करते हुए ब्याज और डिविडेंड पर आधारित अर्थशास्त्र सिर्फ स्वार्थशास्त्र या अनर्थशास्त्र ही नहीं है बल्कि वह तो शोषण पर आधारित विपत्तीशास्त्र है। 
आज तो एक की विपत्ती दूसरों को संपत्ती कमाने का सुअवसर देती है। गांधीजी ने जब `नमक-सत्याग्रह` शुरू किया था तब उन्हें `मूर्ख` और पागल ही कहा गया    था । लोग मानते थे कि मुट्ठी भर नमक उठाने से अंग्रेज साम्राज्य कैसे खत्म हो सकेगा ? लेकिन वह सत्याग्रह अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने का प्रथम तथा सशक्त कदम साबित हुआ । जो इस तरह के प्रयोग नहीं करते वे परिवर्तन करने में भी कामयाब नहीं होते। विचारपूर्वक कदम उठाना ही आज के युग की अनिवार्यता है ।
लोक चेतना
पर्यावरण, समाज और सामाजिक संस्थाये
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

भारतीय संस्कृति में पंच तत्वों को जीवन का आधार बताया गया है । मनुष्य और प्रकृति की परस्पर निर्भरता का सन्देश हमारी सांस्कृतिक शिक्षाआें का सार है । हम मानते है कि प्रकृति मेंपर्यावरण के असंतुलन से सम्पूर्ण मानव जाति और इस गृह पर उपस्थित प्राणी मात्र के अस्तित्व को खतरा पैदा हो जायेगा । यही कारण है कि बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण को लेकर हमारे देश में ही अपितु सम्पूर्ण विश्व में चिंता हो रही है । 
जनसंख्या विस्फोट, भौतिक एवं औद्योगिक विकास की तीव्र गति, बढ़ता नगरीकरण, खनिज का अतिशय दोहन, वृक्षों की कटाई, भू-गर्भ जल का निरन्तर दोहन व लगातार भू-क्षरण से हमारी शस्य श्यामला धरती का स्वास्थ्य खराब हो रहा है । 

वैज्ञानिक उपलब्धियों की जगमगाहट में पृथ्वी की स्वचलित जीवनदायी व्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न कर हम स्वयं अपने अस्तित्व को संकटमय बना रहे है । विकास के दौर में कृषकों ने गहन कृषि पद्धति को अपनाया, अधिक उत्पादन की दृष्टि से अधिक मात्रा में रासायनिक दवाई व अंसतुलित मात्रा में रासायनिक उर्वरक के प्रयोग से एक और जमीन बंजर होती जा रही है, वहीं दूसरी ओर रसायनों के हानिकारक प्रभावों से मनुष्य ही नहीं समस्त जीवों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है । 
पर्यावरण से जुड़े कार्यो से व्यक्ति के सामाजिक पर्यावरण से तारतम्य स्थापित करने के प्रयासों को मजबूती मिलती हैं । आजकल बहुआयामी समाजसेवी गतिविधियों के कारण सामाजिक संगठनों का महत्व और उनके सेवा कार्यो की भूमिका बढ़ती जा रही है । भारत में समाज कल्याण कार्यक्रमोंमें युवाआें की भागीदारी बढ़ाने के लिए सन १९०५ में महान राष्ट्रवादी नेता गोपाल कृष्ण गोखले ने भारत सेवक समाज नामक सामाजिक संगठन की स्थापना कर युवाआें को समाज सेवा के लिए प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया  था । इसके बाद अनेक संस्थाआें ने इस क्षेत्र में कार्य किया । सन १९३६ में समाज कार्य के प्रशिक्षण हेतु बम्बई में सर दोराबजी टाटा स्कूल ऑफ सोशल वर्क की स्थापना हुई । इन दिनोंदेश में कार्यरत अनेक संस्थाआें के माध्यम से प्रशिक्षण प्राप्त् हजारों युवा सामाजिक संगठनों में कार्य कर रहे है । इन कार्यो में पर्यावरण संरक्षण की विविध गतिविधियां भी शामिल है । 
पर्यावरण का संरक्षण वर्तमान में विश्व की प्रमुख समस्याआें में से एक है । दुनिया के सभी देशों में लोगों के जीवन को अधिक सुखमय बनाने के लिए नयी-नयी परिकल्पनाएें सामने आ रही    है । सुख की इसी असीम चाह का भार पर्यावरण के लिए संकट पैदा कर रहा है, जो जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिग, प्रदूषण, ओजोन स्तर का क्षय और भूंकप आदि अनेक रूपों में दिखाई दे रहा है । इस कारण पर्यावरण विघटन की समस्या विश्व के सामने प्रमुख प्रमुख चुनौती बन रही है जिसका सामना सरकारों और जागरूक जनता द्वारा किया जाना   है । इसमें सामाजिक संगठनों की भूमिका सेतु की है जो समाज और सरकार के बीच समन्वय का कार्य करते है । 
पर्यावरण संरक्षण के उपायों की जानकारी हर स्तर तथा हर उम्र के व्यक्ति के लिए आवश्यक है । आज दुनिया भर में अनेक स्तरों पर यह कोशिश हो रही है कि आम आदमी को इस चुनौती के विभिन्न पहलुआें से परिचित करा कर इस परिस्थिति को सुधारने के प्रयासों में उसकी भागीदारी प्राप्त् की जा सके । हमारे संविधान में अनुच्छेद ४८ में राज्यों का वन एवं पर्यावरण के संरक्षण का दायित्व सौपा गया है वही अनुच्छेद ५१ में जन सामान्य के लिए प्राकृतिक पर्यावरण जिसमें वन, झील, नदी और वन्य जीव की रक्षा और संवर्धन करने तथा प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखने का दायित्व बताया गया है । 
पर्यावरण संरक्षण की चेतना की सार्थकता तभी हो सकती है जब हम अपनी नदिया, पर्वत, पेड़, पशु-पक्षी और धरती को बचा सके । इसके लिए जन सामान्य को अपने आसपास हवा, पानी, वनस्पति जगत, उद्योग, भूमि प्रदूषण के खतरों और हमारी प्राचीन प्रकृति मित्र जीवन शैली जैसे पर्यावरणीय मुद्दों की जानकारी देने के लिए सामाजिक संगठन आगे आ रहे हैं । पर्यावरण संकट को समझने उससे निपटने और इसके निवारण के उपायों को लागू करने के लिए सामाजिक संगठन मुख्य रूप से निम्न कार्य कर रहे हैं । 
   * सामान्य जन को पर्यावरणीय समस्याआें की तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध करना । * पर्यावरण प्रदूषण से मुक्ति के लिए समाज में जागृति लाना । सरकारी नीतियों को लागु करवाने में सरकारों पर जनमत का दबाव बनाना । * पर्यावरणीय आपदाआें एवं भावी संकटों की जानकारी देकर समाज में वैचारिक चेतना का वातावरण बनाना । * प्राकृतिक संपदाआें का समाज में न्यायोचित वितरण और मितव्ययतापूर्वक उपयोग सुनिश्चित कराना । * स्वयं शुद्ध पर्यावरण में जीते हुए भविष्य की पीढ़ी को पर्यावरणीय संकट के खतरों से सतर्क करतेहुए प्रकृति उन्मुख जीवन शैली अपनाने के लिए प्रेरित करना । 
पर्यावरणीय संरक्षण में समाजसेवी व्यक्तियों और सामाजिक संगठनों की महती भूमिका के अनेक उदाहरण हमारे सामने है । राजस्थान में जोधपुर के पास छोटे से गांव खेजडली में सन १७३० में खेजड़ी के एक पेड़ को बचाने और क्षेत्र की हरियाली को बनाये रखने के लिए ३६३ विश्नोइयो ने अपने प्राणों की आहूति दे दी थी । विश्व में किसी भी देश में इस प्रकार की घटना का उल्लेख नहीं मिलता है जिसमें पेड़ की रक्षा के लिए लोग स्व्यं अपने प्राण न्योछावर कर दे । प्रकृति रक्षा की इस अभूतपूर्व घटना से हमारा देश ही नहीं समूची मानवता गौरवान्वित  हुई । इस घटना से प्रेरणा लेकर अनेक देशों में पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों में लोगों की सहभागिता   बढ़ी । इस घटना से हमने विश्व के सामने प्रकृति के साथ सहजीवन की परम्परा का परिचय देते हुए यह तथ्य रखा कि प्रकृति और संस्कृति के साहचर्य से ही सभ्यता दीर्घजीवी होती है । आज इसी भावना को विस्तारित कर हम मानवता के भविष्य को सुरक्षित रख सकते है । 
पर्यावरण संरक्षण में सामाजिक संस्थाआें और जन सामान्य की सक्रिय भागीदारी की परम्परा में सन १९७३ में चिपको आन्दोलन शुरू करने वाली उत्तराखंड के चमोली जिले की संस्था दशोली ग्राम स्वराज्य मण्डल ने वन संवर्धन और पर्यावरण सुरक्षा के कार्यो में ग्राम समाज का सक्रिय सहयोग प्राप्त् करने में भारी सफलता प्राप्त् की थी । चिपको आन्दोलन की विश्वव्यापी लोकप्रियता ने यह सिद्ध किया कि सामाजिक संगठन लोगों की बुनियादी जरूरतों को ध्यान में रखकर विकास की योजना बनायेगे तो संपूर्ण समाज का सहयोग और समर्थन प्राप्त् होगा । चिपको की परम्परा का विकास हमें देश के अनेक भागों में देखने को मिलता   है । अनेक क्षेत्रीय और राष्ट्रीय सामाजिक संगठन आगे आये जिन्होंने पेड़ लगाने और हरियाली को सुरक्षित रखने के विविध आयामी कार्यक्रमों में न केवल अपनी शक्ति लगायी अपितु समूचे समाज का सहकार प्राप्त् कर सफलता के नए नए कीर्तिमान भी रचे । 
वानिकी विकास में समाज सेवी संगठनों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए समय-समय पर सरकारी प्रयास भी होते रहे हैं । राष्ट्रीय कृषि आयोग ने वर्ष १९७६ में ईधन, चारा, लकड़ी और छोटे मोटे वन उत्पादों की पूर्ति करने वाले पेड़ लगाने के लिए सामाजिक वानिकी कार्यक्रम की सिफारिश की थी । सामाजिक संगठनों द्वारा इस अभियान को चलाने में कई अनुभव आये जिसमें मुख्य रूप से ये सुझाव आया कि स्थानीय आवश्यकता और क्षेत्र विशेष की परिस्थिति में अनुकूल पौधों का चयन कर उनको लगाने के लिए समर्पण भाव से काम करने वाले सामाजिक संगठनों को ही अपेक्षित जन सहयोग मिलता है, और वानिकी विकास में समाज की भागीदारी मजबूत होगी तभी संयुक्त वन प्रबंधन की अवधारणा को सफलता मिल सकती है । 
भारत में पर्यावरण संरक्षण की लोकचेतना के लिए बहुत सारी संस्थाएं और सामाजिक संगठन काम कर रहे है इनमें से कुछ मुख्य संगठनों की चर्चा जरूरी है :- 
(१) बाम्बे प्राकृतिक इतिहास सोसायटी - वर्ष १८३३ में प्रांरभ हुई इस संस्था के लिए वन्य जीवन संरक्षण पर नीति निर्माण, वन्य जीवां पर अनुसंधान और वन्य जीवों से सम्बन्धित प्रकाशन मुख्य कार्य है । यह भारत की सबसे पुरानी संस्था है जिसने प्रजातियों एवं पारिस्थितिकी तंत्र के संबंधोंको लेकर समाज में नयी चेतना पैदा करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है । 
(२) प्रकृति के लिए विश्वव्यापी निधि इस संस्था का आरंभ १९६९ में हुआ था । यह संस्था स्कूल के बच्चें के लिए नेचर क्लब जैसे कार्यक्रम चलाती है । पर्यावरण और विकास के मुद्दों के लिए एक विचार मंच के रूप में भी काम करती है । 
(३) विज्ञान और पर्यावरण केन्द्र- इस संस्था ने भारत के पर्यावरण की स्थिति पर साहित्य निर्माण का महत्वपूर्ण कार्य किया है । पर्यावरण से संबंधित मुद्दों पर जन सामान्य के लिए सामयिक साहित्य निर्माण इसकी विशेषता है । 
(४) तरूण भारत संघ राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में जल संकट से परेशान लोगों ने तरूण भारत संघ के नेतृत्व मेंभूजल पुनर्भरण का एतिहासिक काम किया । जिसकी विश्वव्यापी सराहना हुई । जल पुरूष राजेन्द्र सिंह के नेतृत्व में जन सहयोग से हजारो तालाबों का निर्माण हुआ जिसके परिणाम स्वरूप क्षेत्र की ६ नदियां बारहों महीने कल-कल बहने लगी । इस कार्य की प्रेरणा से देश के कई सामाजिक संगठन इस क्षेत्र में आगे आये ।