शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

११ ज्ञान विज्ञान




एक दिन में आते हैं ६० हजार से ज्यादा विचार



एक सामान्य आदमी के मन में २४ घंटे में लगभग ६०,००० विचार चलते हैं और एक राजनैतिक व व्यापारिक मस्तिष्क में कितने विचार चलते हैं, शायद इसका आंकलन कोई मनोवैज्ञानिक भी नहीं कर सकता है । मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इन सभी विचारों में ९५ से ९८ फीसदी विचारों की पुनरावृत्ति होती है । पूरे २४ घंटों में सिर्फ २ से ५ फीसदी नए विचारों का आगमन होता है जो व्यक्तित्व के विकास के लिए पर्याप्त् नहीं होता । कोई भौगोलिक राज्य उतना बड़ा नहीं होता । कोई भौगोलिक राज्य उतना बड़ा नहीं होगा, जितना मनोराज्य । इसमें विचार और कल्पनाआें की संख्या इतनी अधिक है, जिसको पाना कोई सहज कार्य नहीं है। सम्भवत: इसीलिए व्यक्ति दूसरे से जितना परेशान नहीं होता उससे कहीं अधिक स्वयं के विचारों से होताहै । किसी कार्य में रचनात्मकता लाने के लिए मस्तिष्क में समुचित विचारों के आने की आवश्यकता होती है । विचारों के आने की आवश्यकता होती है । विचारों का रिपिटिशन मस्तिष्क में जितना अधिक होता है रचनात्मकता उतनी ही कम होती जाती है । यही कारण है कि व्यक्ति के उम्र के बढ़ने के साथ-साथ उसके मस्तिष्क और मन में विचारों का अम्बार खड़ा हो जाता है और साथ-साथ उन पर उसका नियन्त्रण भी धीरे-धीरे समाप्त् होने लगता है । यही कारण है कि उसके मन में विचारों की पुनरावृत्ति आवश्यकता से अधिक होने लगती है, जिसको सुधार पाना संभव नहीं हो पाता है और उसे सठियाया हुआ व्यक्ति घोषित कर दिया जाता है । हमें नहीं मालूम कि ये हजारों असंयमित विचार हमारे मस्तिष्क में अरबों कोशिकाआें को कितनी क्षति पहंुचाते होंगे । बिल्कुल उसी प्रकार जैसे असंयमित ट्रैफिक प्रतिदिन हजारों बेगुनाहों की जान सड़कों लेते हैं । कुछ लोगों का भ्रम है कि विचारों के बढ़ने से बुद्धि का नियन्त्रण उस पर कम हो जाता है जिससे अन्तर्विरोध बढ़ता है तथा निर्णय लेने की शक्ति कम हो जाती है । जिसके कारण मस्तिष्क में इतने रासायनिक परिवर्तन होते हैं जिससे मन में कई रोग पनपनें लगते हैं।



अब ग्लोबल वार्मिंग का काम तमाम



वैज्ञानिकोें ने ग्लोबल वार्मिंग से निपटने की कारगर राह तलाश ली है । रियोडिजेनेरियो में विकसित और विकासशील देशों के रहनुमा कार्बन उत्सर्जन में कटौती पर भले ही एकमत नहीं हो पाए, लेकिन नई खोज इस संकट से उबारने में क्रांतिकारी साबित होगी । शोधकर्ताआें ने डीएनए की संरचना से मिलता-जुलता ऐसा सिंथेटिक क्रिस्टल तैयार किया है जो कार्बनडाई ऑक्साइड को जज्ब कर लेता है । वैज्ञानिकों का मानना है कि फैक्ट्रियों, वाहनों में सिंथेटिक क्रिस्टल जोड़कर खतरनाक कार्बन उत्सर्जन पर लगाम कसी जा सकती है । यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया लॉसएंजिल्स (यूसीएलए) के रसायन वैज्ञानिक प्रो. ओमर एम याघी ने बताया कि उनकी टीम ने डीएनए की संरचना जैसा त्रिआयामी सिंथेटिक क्रिस्टल तैयार किया है । याघी की प्रयोगशाला से जुड़े और इस प्रोजेक्ट में अहम भूमिका निभाने वाले एच डेंग ने बताया कि डीएनए सूचनाआें को क्रमबद्ध करने की सबसे खूबसूरत संरचना करने वाली कोडिंग की बात आई तो डीएनए का सहारा लिया गया । डेंग के अनुसार सिंथेटिक क्रिस्टल को कार्बन उत्सर्जन करने वाली इकाई से जोड़ दिया जाता है । यह सीओटू (कार्बन- डाई आक्साइड) को वातावरण में मिलने ही नहीं देता, मौके पर ही पकड़ लेता हैै। उनहोंने बताया कि सिंथेटिक क्रिस्टल में आर्गेनिक और इन-आर्गेनिक यूनिट दोनोंे का ही इस्तेमाल किया गया है । केमिस्ट्री और मैटेरियल साइंस में सिंथेटिक क्रिस्टल का कंसेप्ट बिल्कुल नया है । सिंथेटिक क्रिस्टल ने वैज्ञानिकों में नई उम्मीदें जगाई हैं । इस तकनीक से कार्बन डाई ऑक्साइड एक जगह इकट्ठा तो हो जाएगा, लेकिन बाद में उसका कया होगा ? इस सवाल का जवाब वैज्ञानिक इंर्धन में तलाश रहे हैं । यूसीएलए के प्रो. ओमर एम याघी ने बताया कि उम्मीद है कि निकट भविष्य में हमारे पास कार्बनडाई ऑक्साइड को इंर्धन में बदलने वाली तकनीक भी होगी जो कार्बन डाई ऑक्साइड को विघटित कर इंर्धन में बदल देगी ।



पृथ्वी का वायुमंडल अंतरिक्ष की देन है



खगोलविदों के बीच यह एक पहेली रही है कि पृथ्वी के वायुमंडल की उत्पत्ति कैसे हुई है । एक मत यह रहा है कि ज्वालामुखियों के ज़रिए पृथ्वी के आंतरिक हिस्से - मैंटल-से गैसें निकलीं जिनसे वायुमंडल बना है । मगर ताज़ा अनुसंधान से संकेत मिलते हैं कि शायद हमारा वायुमंडल धरती के तंदर से नहंी बल्कि अंतरिक्ष के धूमकेतुआें के ज़रिए बना है । हाल ही में मेंनचेस्टर विश्वविद्यालय के ग्रेग हॉलेण्ड व उनके साथियों ने न्यू मेक्सिको में ज़मीन से सैकड़ों मीटर नीचे से प्राप्त् गैस के नमूने का विश्लेषण करके वायुमंडल की उत्पत्ति का धूमकेतु सिद्धांत प्रतिपादित किया है । हॉलेण्ड व साथियों ने पाया कि मैंटल का रासायनिक फिंगरपिं्रट में क्रिप्टॉन नामक अक्रिय गैस केभारी समस्थानिक यानी आइोटोप९ (क्रिप्टॉन-८६ और क्रिप्टॉन-८४) की मात्रा ज़दा है जबकि हल्के समस्थानिक क्रिप्टॉन-८२ की मात्रा कम है । यह संघटन काफी हद तक उल्काआें के समान है । समस्थानिक का अर्थ होता है कि एक ही तत्व के ऐसे रूप जिने परमाणु भार अलग- अलग होते हैं । मैंटल में क्रिप्टॉन का ऐसा संघटन इस बात का समर्थन करता है कि जब शुरूआत में पृथ्वी बनी थी तब इसकाा काफीसारा पदार्थ उल्का पिंडों के साथ यहां पहुंचा था । ये मूलत: कारबोनेशियस कॉन्ड्राइट्स रहे होंगे । मगर वायुमंडल कहां से खगोलविदों के बीच यह एक पहेली रही है कि पृथ्वी के वायुमंडल की उत्पत्ति कैसे हुई है । एक मत यह रहा है कि ज्वालामुखियों के ज़रिए पृथ्वी के आंतरिक हिस्से - मैंटल-से गैसें निकलीं जिनसे वायुमंडल बना है । मगर ताज़ा अनुसंधान से संकेत मिलते हैं कि शायद हमारा वायुमंडल धरती के तंदर से नहंी बल्कि अंतरिक्ष के धूमकेतुआें के ज़रिए बना है । हाल ही में मेंनचेस्टर विश्वविद्यालय के ग्रेग हॉलेण्ड व उनके साथियों ने न्यू मेक्सिको में ज़मीन से सैकड़ों मीटर नीचे से प्राप्त् गैस के नमूने का विश्लेषण करके वायुमंडल की उत्पत्ति का धूमकेतु सिद्धांत प्रतिपादित किया है । हॉलेण्ड व साथियों ने पाया कि मैंटल का रासायनिक फिंगरपिं्रट में क्रिप्टॉन नामक अक्रिय गैस केभारी समस्थानिक यानी आइोटोप९ (क्रिप्टॉन-८६ और क्रिप्टॉन-८४) की मात्रा ज़दा है जबकि हल्के समस्थानिक क्रिप्टॉन-८२ की मात्रा कम है । यह संघटन काफी हद तक उल्काआें के समान है । समस्थानिक का अर्थ होता है कि एक ही तत्व के ऐसे रूप जिने परमाणु भार अलग- अलग होते हैं । मैंटल में क्रिप्टॉन का ऐसा संघटन इस बात का समर्थन करता है कि जब शुरूआत में पृथ्वी बनी थी तब इसकाा काफीसारा पदार्थ उल्का पिंडों के साथ यहां पहुंचा था । ये मूलत: कारबोनेशियस कॉन्ड्राइट्स रहे होंगे । मगर वायुमंडल कहां सेआया ? दिक्कत यह है कि हमारे वायुमंडल में क्रिप्टॉन के समस्थानिक बहुतायत में हैं । अर्थात् यह मैंटल की गैसों से बना नहीं हो सकता क्योंकि मैंटल में तो भारी समस्थानिक ज्यादा हैं । हॉलेण्ड का कहना है कि यदि वायुमंडल बनने के बाद संघटन बदला होता तो भारी समस्थानिक और ज़्यादा होने चाहिए थे क्येांकि हल्के समस्थानिक ज़्यादा आसानी से अंतरिक्ष में बिखरते रहते हैं । हॉलेण्ड और उनके साथी क्रिस बैलेन्टाइन का मत है कि इसका एकमात्र जवाब यह हो सकता है किसौर मंडल के बाहरी हिससे -क्यूपर पट्टी में ऐसे अनगिनत बर्फीले धूमकेतु हैं जिनका क्रिप्टॉन फिंगरप्रिंट हमारे वर्तमान वायुमंडल जैसा है । तो संभव है कि हमारा वायुमंडल जब तैयार हुआ था जब ऐसे धूमकेतु पृथ्वी से टकराए थे । ऐसा माना जाता है कि अतीत में करीब साढ़े चार अरब वर्ष पूर्व जब बृहस्पति की कक्षा में परिवर्तन हुआ था तब क्यूपर पट्टी में गड़बड़ी पैदा हुई होगी और इसकी वजह से कई वज़नदार बर्फीले धूमकेतु पृथ्वी से टकराए होंगें और इस तरह से पृथ्वी के वायुमंडलन केनिर्माण में योदान दिया होगा ।बैलेन्टाईन का मत है कि ``यह सही है कि प्राचीन धरती पर सैकड़ों ज्वालामुखी फूट रहे थे मगर हमारे वायुमंडल का स्रोत तो सुदूर अंतरिक्ष लगता है । '' ***

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