गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

७ विशेष लेख

हर चौथा भारतीय भूखा क्यों है ?
डॉ. वन्दना शिवा/कुँवर जलीस
हमारा देश ज्यों ज्यों वित्तीय दृष्टि से और अधिक आगे बढ़ता जाता है, त्यों त्यों भूख का प्रकोप भी तेजी से बढ़ता है । २००८ में जब हमारी विकास दर लगभग १० प्रतिशत के आसपास थी, उसी समय भारत भूख की राजधानी के तौर पर भी उभर कर सामने आया था । अगर इसे वित्तीय अर्थव्यवस्था और बाजार के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो यह एक विरोधाभास है । अगर इसे जमीन, पृथ्वी, गरीब और सीमान्त लोगों, स्त्रियों और बच्चें की हकदारी के लिहाज से देखा जाये, तो यह कोई विरोधाभास नहीं है । भूख बढ़ेगी, जब भूमिहीनता बढ़ती जायेगी। भूमण्डलीकरण के चलते बड़े व्यापक पैमाने पर भूमि हड़पी जा रही है जिससे किसानों का विस्थापन हो रहा है और लाखों लोग भूमिहीनों की जमात में शामिल हुए जा रहे हैं । भूख बढ़ेगी जब निर्यात के लिये विलासिता की फसलें उगाने की वृत्ति लोगों के लिये खाद्य फसलें उगाने की वृत्ति पर हावी होती जायेगी । भूमण्डलीकरण के चलते पहले पहल भोजन के बजाय निर्यात पहले की नीतियों को बढ़ावा मिला है । भूख बढ़ेगी, जब गैर नवीनीकरणीय संकर और आनुवांशिक रूप से संशोधित बीज किसानों को कर्ज में ढकेलेंगे और वे जो कुछ भी पैदा करते हैं, उन्हें बेंचने के लिये मजबूर कर दिये जाते रहेंगे । ऋणपाश, क्षुधापाश भी है । यही कारण है कि भूखे लोगों की आधी संख्या उन लोगों से बनती है, जो खाद्य पदार्थोंा की फसलें उगा रहे हैं । यह तथ्य कि भारत भूख की राजधानी है, दर्शाता है कि आर्थिक वृद्धि गरीबी और भूख को कम नहीं करती है । वास्तव में वह दोनों को बढ़ाती है । यह तथ्य कि भूख लोगों में अधिसंख्या खुद खाद्य पदार्थ उत्पादकों की है, दर्शाता है कि औद्योगिक कृषि और खाद्य पदार्थ के वैश्वीकृत व्यापार का मॉडल भूख की परिस्थितियों के निर्माण के लिये उत्तरदायी है । ज्यादातर भारतीय भूमण्डलीकरण के चलते और ज्यादा गरीब हुए हैं, क्योकि उन्होंने अपनी जमीन और आजीविका से हाथ धोया है । भूमण्डलीकरण और व्यापार उदारीकरण के दौर से पहले भारतीय जितना खाते थे, उसके मुकाबले आज कमतर खा रहे हैं । १९९१ में प्रतिव्यक्ति खाद्य पदार्थो की उपलब्धता १७७ किलोग्राम प्रतिवर्ष थी, जो २००३ में घटकर १५० किलोग्राम पर आ गयी हैं । प्रतिव्यक्ति भोजन की उपलब्धता ४८५ किलोग्राम प्रतिदिन थी, जो घअकर ४१९ ग्राम पर आ गयी । प्रतिदिन कैलरी में उपभोग भी घटा । यह आँकड़ा २२२० कैलरी प्रतिदिन के मुकाबले कम होकर २१५० कैलरी प्रतिदिन पर आ गया । भोज्य पदार्थोंा की किल्लत के चलते १० लाख बच्च्े हर साल काल के गाल में जा रहे हैं । भारत में गरीबों की स्थिति लगातार बद से बदतर होती जा रही है, क्योंकि उनकी रोजी रोटी को खतम किया जा रहा है । मध्यवर्गोंा के लोगों की भी हालत बिगड़ रही है, क्योंकि वे खराब खा रहे हैं, बेहतर बिल्कुल नहीं, क्योंकि भूमंडलीकरण के द्वारा `जंक फूड' या `प्रोसेस्ड फूड' भारत पर जबरन थोपा जा रहा है । भारत अब कुपोषण का अधिकेन्द्र बन चुका है । गरीबों का कुपोषण, जिन्हें पर्याप्त् भोजन नहीं मिलता है और अमीरों का कुपोषण, खाद्य संस्कृति के अमरीकीकरण की वजह से जिनकी खुराकों में गिरावट आ चुकी है । भारतीय मध्यवर्ग दरअसल कम धान्य (उशीशरश्री) खा रहा है । १९७२-७३ में शहरी भारतीय २३ प्रतिशत धान्य पर खर्च करते थे । भारत अब दुनिया में सबसे ज्यादा संख्या में भूखे बच्चें, सबसे ज्यादा संख्या में मधुमेह रोगियों और अन्य जीवनशैली रोगियों का घर बन चुका है । आर्थिक वृद्धि और भूख में बढ़त, दोनों साथ साथ घटित हो रही हैं। ९ प्रतिशत वृद्धिदर के साथ भारत एक आर्थिक सुपर पावर के रूप में देखा जा रहा है । किसानों और आदिवासियों की जमीनों के भारी पैमाने पर अधिग्रहण पर टिकी है यह वृद्धिदर । कृषि, टेक्सटाइल कारोबार और लघु उद्योगों में लगे करोड़ों लोगों की आजीविका का भारी पैमाने पर विध्वंस हुआ है । भूमंडलीकरण की शक्तियों ने बुनियादी सुरक्षाआें को ढहा दिया । भारतीय किसानों के पास बीज सुरक्षा थी, क्योंकि ८० प्रतिशत बीज किसानों के अपने थे और २० प्रतिशत बीज सार्वजनिक क्षेत्र के बीज फार्मोंा से आता था । भूमंडलीकरण ने भारत को मजबूर किया है कि वह बीज बाजार में मोनसैंटो जैसे बायोटेक दानवों को घुसने दे । और मोनसैंटो की वृद्धि किसानों की जान की कीमत पर होती है । २ लाख से ज्यादा किसानों को आत्महत्या करनी पड़ी, क्योंकि वे ऊँची लागत वाले गैर नवीकरणीय, अविश्वसनीय बीज के चलते ऋण पाश में जकड़ उठे । भारतीय किसानों के पास बाजार सुरक्षा थी, क्योंकि ८० प्रतिशत बीज किसानों के अपने थे और २० प्रतिशत बीज सार्वजनिक क्षेत्र के बीज फार्मो से आता था । भूमंडलीकरण ने भारत को मजबूर किया है कि वह बीज बाजार में मोनसैंटो जैसे बायोटेक दानवों को घुसने दे । और मोनसैंटो की वृद्धि किसानों की जान की कीमत पर होती है । २ लाख से ज्यादा किसानों को आत्महत्या करनी पड़ी, क्योंकि वे ऊँची लागत वाले बीज के चलत़े ऋण पाश में जकड़ उठे । भारतीय किसानों के पास बाजार सुरक्षा थी । किसान उन फसलों को उगाते थे जिन्हें देशवासी खाया करते थे । ये राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा प्रणाली के धान और गेहूँ की फसलें उगाते थे जिससे उन्हे अपनी उपज का लाभकारी मूल्य मिल जाया करता था और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये गरीब लोग खरीद सकने लायक कीमतों पर खा़द्यान्न प्राप्त् कर लेते थे । व्यापार उदारीकरण द्वारा थोपे गये नीति परिवर्तनों ने किसानों के लिये खाद्य सुरक्षा और आजीविका सुरक्षा को सुनिश्चित करने में सरकार की भूमिका को लगातार घटाया और कमजोर किया है, खास करके उन उपायों को वापस लेने के लिये बाध्य करके जो लोगों की सहायता करते हैं । इसके साथ ही, सामुदायिक अभिक्रमों को बढ़ावा देने के स्थान पर भूमंडलीकरण ने ऐसी नीतियों को सरकार पर थोपा है जो खाद्य उत्पादन और वितरण प्रविधियों एवं प्रणालियों पर एग्रीबिजनेस कॉरपोरोशनों का नियन्त्रण सुनिश्चित करते हें । ये सब हो रहा है - `निजीकरण', `बाजार पहुँच', आयातों पर से `मात्रात्मक प्रतिबन्धों' की समािप्त् जेसे कार्यक्रमों के जरिये । लोककेन्द्रित सरोकारों को ताक पर रखकर व्यापार एवं कॉरपोरेशन केन्द्रित मॉडल के अपनाने का एक सुस्पष्ट उदाहरण यह तथ्य है कि कानून किसानों को अपने राज्य की सरहद के पार अपनी उपज को ले जाने की इजाजत नहीं देता जबकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ देश मेें कहीं भी अपनी निजी मंडियाँ खोल सकती हैं । वास्तव में, सरकार किसानों ओर समुदायों से जबरदस्ती जमीन का अधिग्रहण करके सुपर हाईवे बना रही है ताकि कृषि उत्पादन के केन्द्रों को बन्दरगाहों और हवाई अड्डों से जोड़ा जा सके और इससे कॉरपोरेशन निर्यात के लिये अपनी जिंसो को तत्काल ढो सकेंगे। व्यापार उदारीकरण द्वारा थोपे नीति परिवर्तनों में कुछ उल्लेख नीचे किया जा रहा है :* भारतीय खाद्य निगम को ढहाते जाना और किसानों से खाद्यान्नों को जुटाने में उसकी भूमिका को घटाते जाना ।* खाद्य पदार्थोंा और खेतिहर उत्पादों के आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबन्धों को हटाना ।* सर्वसमावेशी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में संशोधन - लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत केवल `गरीबी रेखा से नीचे' की जमात को लाभार्थी मानना ।* लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत, गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को बढ़ी कीमतों पर खाद्यान्न मुहैया कराना (उगाही और वितरण लागतों का ५० प्रतिशत बोझ इन विपन्न परिवारों के कंधों पर डालना) ं* एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी एक्ट में संशोधन ताकि कॉरपोरेशन अपनी निजी मंडियाँ स्थापित कर सकें । इन बदली हुई नीतियों से किसानों और उपभोक्ताआें, दोनों को ही घातक असर झेलने पड़े हैं ।किसान * सरकारी उगाही केन्द्रों द्वारा किसानों से खाद्यान्नों की खरीद करने से इन्कार ।* निजी व्यापारियों तथा कॉरपोरेशनों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से खाद्यान्नों की खरीद सुनिश्चित कराने से सरकार द्वारा इन्कार जिससे उत्पादन लागतों से काफी नीचे उतर कर किसानों द्वारा अपनी उपज की अफरातफरी में औने पौने दामोंे पर बिक्री ।* अमीर देशों द्वारा सस्ते, राज राहत पोषित (सब्सिडाइज्ड) खेतिहर उत्पादों की भारतीय बाजार में डम्पिंग, जिससे देशी उपजो की कीमत काफी गिर जाती हैं ।* कृषि में प्रयुक्त होने वाले आगतों की कीमतों का बढ़ते जाना । इन निवेश्य आगतों में बीज भी शामिल है ।* निजी बीज कम्पनियों को अपने गैर-सत्यापित बीजों को बेंचने की अनुमति देने के लिये बीज नियमनों का उदारीकरण करना ।* किसानों पर कर्जोंा का भारी बोझ, गिरवी का बढ़ता प्रकोप और जमीन से बेदखली का खतरा, विकराल रूप धारण करती विपन्नता, आत्महत्याएँ और किसानों द्वारा अपने शरीर के अंगों की बिक्री ।उपभोक्ता* सरकार द्वारा बीपीएल श्रेणी में आने वाले परिवारों को चिन्हित न कर पाने की वजह से लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली से खाद्यान्नों की पहँुच वाले लोगों की संख्या में भारी कमी ।* जो लोग बीपीएल श्रेणी में आने वाले परिवारों को चिन्हित किये भी जा चुके हैं, उनमें से अधिसंख्य अनाज की बढ़ी कीमतों के कारण सस्ते गल्ले की दुकानों से खरीदारी करने में असमर्थ हैं ।* खाद्य कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी । व्यापार उदारीकरण के दौर में उठाये गये कदमों की वजह से खाद्य कीमतें ६० प्रतिशत से ज्यादा बढ़ी है और दाल जैसी जिन्सों की कीमतों में बढ़त २०० प्रतिशत का आँकड़ा पार कर चुकी है ।* राज्यों द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिये उठाये गये खाद्यान्नों की मात्रा में कटौती । सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बजाय लक्षित वितरण प्रणाली को अपनाना सरकारी खर्चोंो में कमी लाने के नाम पर न्यायोचित ठहराया गया था । फिर भी, व्यापार उदारीकरण के साथ सार्वजनिक वितरण प्रणाली की लागतें ५१६६ करोड़ रूपये थीं । इसके लिये सरकार किसानों को दोषी ठहराती है, जबकि बुनियादी कारण कुछ और हैं - नीति बदलावों के चलते उपभोक्ताआें के के लिये भोजन की लागत बढ़ी हैं, जिसकी वजह से खाद्य पदार्थोंा की बाजार कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत संचालित सस्ते गल्ले की दूकानों से खरीददारी में कमी आयी है । कृषि नीतियाँ जहां एक और विपन्नता फैला रही हैं वहीं दूसरी ओर नकदी फसलों पर विशेष बल दिये जाने से खाद्य उत्पादन में लगातार कमी आती गयी है । १९९० के दशक के शुरूआती वर्षोंा से खाद्य उत्पादन में, निर्यातोन्मुखी कृषि को बढ़ावा देने की वजह से लगातार गिरावट आती गयी है । (गैर सत्यापित बीजों के प्रयोग से फसलों के चौपट होने, लागतों की कीमतों के लगातार बढ़ते जाने, न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था के भंग हो जाने के चलते) खाद्य उत्पादन के लिये घरेलू समर्थन के ढहने से किसान खाद्य उत्पादन के बजाय निर्यातोन्मुखी कृषि की ओर मुड़ते गये हैं - इस आशा में की जो तबाही हुई है, उससे वे उबर सकेंगे । केवल १ वर्ष मेंे ही देश खाद्य उत्पादन में १२.८ प्रतिशत की कमी पहले से ही झेल रहा है । व्यापार उदारीकरण का एक बड़ा प्रभाव यह पड़ा है कि खाद्य उपभोग में सामान्य तौर पर गिरावट आती गयी है । धान्यों का उपभोग १९५० के दशक में १७ किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति माह था और १९९० के दशक में वह घट कर १३.५ किलोग्राम प्रति व्यक्ति पर आ गया। नेशनल न्यूट्रीशन मॉनीटरिंग ब्यूरो, १९९७ के आँकड़ों के अनुसार १९९० से १९९५ के दौरान, ग्रामीण भारत में खाद्य उपभोग घटा है, खासकर धान्यों व ज्वार बाजरों का, जबकि गरीबों के लिये ये ऊर्जा के मुख्य स्त्रोत हैं । उपभोग में गिरावट के मुख्य कारण निम्नवत् है :-* बढ़ती खाद्य कीमतें ;* आजीविका के साधनों का विनाश;* सार्वजनिक वितरण प्रणाली का भंग होना; और* खाद्य उत्पादन से निर्यातोन्मुखी खेतीबाड़ी की ओर मुड़ना । खाद्य उपभोग में गिरावट का सम्बन्ध सीधे-सीधे व्यापार उदारीकरण से जुड़ता है, यह बात अघ:सहाराई अफ्रीका में साफ तौर पर और अधिक देखी जा सकती है । ऋण से जुड़ी शर्तो के कारण थोपे गये ढाँचागत समायोजन और निर्यात पर विशेष जोर दिये जाने की वजह से इस क्षेत्र के ६ सबसे ज्यादा जनसंख्या बहुल देशों (जिनकी आबादी कुल मिला कर इस क्षेत्र के ६० प्रतिशत तक है) ने सकल खाद्य सहायता अन्त:प्रवाहों को गणना में शामिल किये जाने के बावजूद प्रति कैलरी उपभोग में कमी आयी है । सन् १९९५ से डब्लूटीओ के कानूनों को सख्ती से लागू किये जाने लगा, जिसके परिणामस्वरूप भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में तेजी से कमी होती जा रही है । ढाँचागत समायोजन कार्यक्रमों को लागू करने के फलस्वरूप धान्य उपभोग गिरता गया है, यह बात नेशनल सैंपिल सर्वेंा के ३८ वे चक्र से भलीभाँति उजागर होती है । एक तरफ घटता खाद्य उपभोग और दूसरी तरफ कृषि उत्पादन, और कृषि उपजों के प्रापण (झीर्लिीीशाशिीं) में आ रही लगातार कमी को सीधे तौर पर सरकार की कृषि एवं खाद्य नीतियों से जुड़ा हुआ देखा जा सकता है । कॉरपोरेट उपनिवेशवाद ने देश की खाद्य सम्प्रभुता को नष्ट किया है, स्थानीय और क्षेत्रीय खाद्य सुरक्षा के लिये कृषि उत्पादन को तरजीह नदेकर व्यावसायिक फसलें उगायी जा रही हैं । विदेश व्यापार पर लगातार बढ़ते जोर से देश में बड़े पैमाने पर अकाल पड़े थे, जिस पर कॉर्नेलियस वालफोर्ड ने `दि फेमिंसऑफ दि वर्ल्ड' में १८९७ में टिप्पणी की थी'' ......... यह एक असंगति है कि भारत में जहाँ एक ओर अकाल पड़ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर वह दुनिया के अधिकांश हिस्सों को भोजन की आपूर्ति करने में सक्षम है।'' स्वतंत्रता मिलते ही सरकार की प्राथमिकता थी कि किसान उत्पादन करें और सरकार उनसे कृषि उपज का प्रापण करे, जिसके पीछे नीयत यह थी कि कृषि उत्पदान विपुल मात्रा में लगातार होता जाये और किसान भी अपनी उपज का वाजिब मूल्य भी प्राप्त् करते जाये । इसके साथ ही, सार्वजनिक वितरण प्रणाली खड़ी की गयी, ताकि उपभोक्ताआें को उनके द्वारा खरीदे जाने लायक कीमतों पर खाद्यान्न मिल सके । खाद्य उत्पादन और वितरण मेंे सरकार की संलिप्त्ता और ज्यादा जरूरी होती गयी, क्योंकि हरित क्रान्ति ने पहले विभिन्न धान्यों पर आधारित क्षेत्रीय खाद्य सुरक्षा को खतम किया और उसे उसके स्थान पर सिर्फ गेहँू और धान पर विशेष जोर दिया; दूसरे उसने सिर्फ दो राज्यों पंजाब व हरियाणा पर अपने को केन्द्रित किया; और तीसरे उसने महँगी लागतों पर केन्द्रित कृषि को बढ़ावा दिया।***

कोई टिप्पणी नहीं: