शुक्रवार, 17 मार्च 2017


प्रसंगवश
नदियों के संरक्षण से बच सकती है, संस्कृति 
शिवराजसिंह चौहान, मुख्यमंत्री, मध्यप्रदेश
    विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताएँ नदियों के तट पर ही विकसति हुई  है । नर्मदा घाटी भी इसका अपवाद नहीं है । नर्मदा घाटी का सांस्कृतिक इतिहास  गौरवशाली रहा है । माँ नर्मदा का आसपास की धरती को समृद्ध बनाने में बहुत योगदान रहा है । नर्मदा नदी को मध्यप्रदेश की जीवन-रेखा कहा जाता है । माँ नर्मदा को भारतीय संस्कृृति में मोक्षदायिनी, पापमोचिनी, मुक्तिदात्री, पितृतारिणी और भक्तों की कामनाआें की पूर्ति वाले महातीर्थ का भी गौरव प्राप्त् है ।
    नमामि देवि नर्मदे-नर्मदा सेवा यात्रा अभियान इतिहास की उसी परम्परा का पुनर्जीवन है, जो कि प्रदेश के नागरिकों को माँ नर्मदा के ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक पहलुआें से परिचित करायेगी ।
    मुझे इस बात प्रसन्नता है कि आज नमामि देवि नर्मदे-नर्मदा सेवा यात्रा अभियान एक जन आंदोलन बन गया है । सभी लोग बड़े उत्साह और उमंग के साथ दुनिया के सबसे बड़े नदी संरक्षण अभियान में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं ।
    माँ नर्मदा भविष्य में प्रदूषित न हो इसलिये हमने फैसला लिया है कि १५ शहरों के दूषित जल को नर्मदा मेंनहीं मिलने देंगे । इसके लिये हम १५०० करोड़ रूपये की राशि से सीवरेज ट्रीटमेंट प्लान्ट लगा रहे हैं । नर्मदा नदी के तट के सभी गाँवों और शहरों को खुले में शोच से मुक्त किया जायेगा । नर्मदा नदी के दोनों और बहने वाले ७६६ नालों के पानी को नर्मदा में जाने से रोकने से सुनियोजित प्रयास किये जायेगे । नदी के दोनों ओर हम सघन वृक्षारोपण करेंगे ताकि नर्मदा में जल की मात्रा बढ़ सके । नर्मदा के तट पर स्थित गाँवों और शहरों में ५ कि.मी. की दूरी तक शराब की दुकानें नहीं होगी । सभी घाटों पर शवदाह गृह, स्नानागार और पूजा सामग्री विसर्जन कुण्ड बनाये जायेगे ताकि माँ नर्मदा को पूर्णत: प्रदूषण रहित रखा जा सके । मेरे विचार से हमें नदियों के महत्व को समझते हुए पूरी दूनिया में नदियों को बचाने के लिये लोगों को जागरूक करना चाहिये ।
सम्पादकीय 
कमर की बढ़ती चर्बी से दिल को खतरा

    आपकी कमर की साइज आपके स्वास्थ्य को खतरे में डालती है । खासकर आपके दिल को । कमर की साइज ज्यादा होगी तो दिल को खतरा भी ज्यादा होगा । हार्ट अटैक, स्ट्रोक, डायबिटीज का खतरा बढ़ेगा । फिर चाहे आपका वजन कुछ भी हो । इंग्लैंड में यूनिवर्सिटी ऑफ वुल्वरहैंप्टन के शोधकर्ताआें ने ये दावा किया है । उन्होंने सभी हाइट के लोगों के लिए बकायदा एक चार्ट तैयार किया है । इसमें बताया है कि हाइट के अनुसार आपकी कमर की साइज ज्यादा से ज्यादा कितनी होनी चाहिए । इसे उन्होंने वेस्ट टू हाइट रेशियों नाम दिया है । इसे कमर की साईज को हाइट के स्क्वेयर रूट से डिवाइट कर निकाला गया है जो महिलाआें और पुरूषों के लिए समान है ।
    रिसर्च टीम के प्रो. एलन नेविल ने कहा, अब तक सिर्फ बॉडी मास इंडेक्स ही स्वास्थ्य शरीर का पैमाना माना जाता है । वजन ज्यादा होने को दिल की बीमार के रिस्क से जोड़ा जाता है । लेकिन ऐसा नहीं है । बीएमआई में हाइट और वेट का रेशियों लिया जाता है । लेकिन आपके कुल वजन में कितने मसल्स हैं और कितने फैट, इसका पता बीएमआई से नहीं चलता है । जरूरी नहीं कि किसी का वजन ज्यादा है तो उसमें फैट ज्यादा होगा । ये वजन उनके हेल्दी मसल्स का भी हो सकता है । वैसे ही अगर किसी का वजन कम भी है तो उसमें फैट ज्यादा हो सकता है ।
    शरीर में सबसे ज्यादा फैट कमर मेंजमा होता है । यहीं आसपास शरीर के सभी मेजर ऑर्गन्स होते है । ये फैट उन ऑर्गन्स को घेरे रहता है और उन पर सीधा असर डालता है । कमर की साइज ज्यादा फैट से बढ़ती है । यानी उससे ज्यादा होने पर हार्ट अटैक, स्ट्रोक, डायबिटीज जैसी बीमारियों का खतरा करीब ३३ प्रतिशत तक बढ़ जाता है । बीएमआई की तरह हमारे रेशियों के इंटरनेशनल सर्टिफिकेशन का काम अभी बाकी है । ये रिसर्च स्कैंडिनेवियन जर्नल ऑफ मेडिसिन एण्ड साइंस इन स्पोर्ट्र्स में प्रकाशित हुई है ।
सामयिक
नर्मदा, मात्र नदी नहीं है
अनिल माधव दवे

    दर्शन मात्र से ही कल्याण करने वाली पुण्य सलिला नर्मदा को जानने की जिज्ञासा ने मुझे यात्रा के लिए प्रेरित किया । यात्रा के समय नदी के दोनों किनारों, घाटों, तीर्थो को देखने और नर्मदा तट के आसपास निवासरत समाज, वनवासियों से सीधे संवाद के अनुभवों के साथ अमरकंटक से भरूच तक की यात्रा समाप्त् हुई ।
    इस यात्रा ने मुझे नर्मदा को देखने, नदी संस्कृति को समझने और नदी संसार की संगति-विसंगतियों का अनुभव करने का अवसर दिया । इस बीच नदी, पानी, किनारों की जीवन शैली और संस्कृति को   जाना । यही नर्मदा संरक्षण के लिये कार्य व योजनाआें के सृजन का आरम्भिक बिन्दु था । 
     नर्मदा का जल उसकी गति, गति से उत्पन्न कल-कल स्वर साधारण नहीं है । यह एक वैज्ञानिक और रासायनिक प्रक्रिया है । इसमें बारह प्रकार के तत्व पनपते है । यही तत्व जीवन देते हैं और प्राणों को पुष्ट करते हैं । यह तथ्य आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी अपने शोध और अनुसंधानों से पृष्ट कर दिया है । भारतीय मनीषी मानवीय विचारों को प्रकृतिस्थ बनाना चाहते थे इसीलिए उन्होंने अपने आश्रम, तपोस्थलियाँ नदियों के किनारे प्रकृति की गोद में ही बनाई । मध्यप्रदेश की जीवन रेखा कहीं जाने वाली पुण्य सलिला नर्मदा इस शोध परम्परा के केन्द्र में थी । देव सरिता गंगा के किनारे यदि मानव सभ्यता के विकास की परम्परा रही तो उस परम्परा को आयाम दिया है ।
    नर्मदा की घाटी, उसके किनारे की पर्वत कंदराआें, वन-बल्लरियों के बीच बने ऋषि आश्रमों में निरन्तर संचालित शोध और अनुसंधानों ने । अतीत के आख्यानों से यह तथ्य स्पष्ट है कि नर्मदा मात्र एक नदी नहीं है । यह प्रकृति की तृष्टि-पुष्टिदायक जीवन रेखा भी है और सभ्यताआें की सृजक और सिद्धांतों की जन्मदायी भी ।
    मूलत: नदियां और जल के महत्व को सभी जानते है फिर भी पूरे संसार में जल को अशुद्ध किया जा रहा है । ऐसा भी नहीं है कि जल संरक्षण या जल संवर्धन के प्रयत्न नहीं हो रहे है, बहुत हो रहे है लेकिन उनके परिणाम प्रयत्न के अनुपात में नहीं आ रहे हैं । न धरती से रसातल की ओर खिसकते जल में विराम लगा और न प्रवाहित सरिताआें में अशुद्धि मिलाने का कुचक्र रूका । इसका एक मात्र कारण यही लगता है कि न विचारों में शक्ति थी न चिन्तन में, इसीलिए परिणाम नहीं आए ।
    नर्मदा समग्र ने नर्मदा पर काम करने से पहले एक दर्शन की आवश्यकता महसूस की । इस दर्शन में तीन मूलभूत सिद्धान्त बनाये   गये ।
    पहला नदी का एक जीवमान इकाई माना जाये । यदि जीवमान इकाई मानेंगे तो इसको देखने की दृष्टि भिन्न होगी, व्यवहार भिन्न   होगा ।
    दूसरा नर्मदा अमरकंटक से भरूच तक ओर प्रत्येक सहायक नदी के उद्गम और संगम तक एक इकाई है ।
    तीसरा सम्पूर्ण नदी संसार को लेकर जो विचार हो, वह समग्रता के साथ हो । इन तीनों सिद्धान्तों के कारण हमारा भाव, हमारा व्यवहार बदल जायेगा, हमारी दृष्टि बदल जायेगी । नर्मदा अंचल में बसे वनवासी नर्मदा को मैया कहते हैं । जब भी कहते हैं तो भाव उसी अनुरूप होते हैं और व्यवहार भी वैसा होता है ।
    यात्रा के दौरान हर पड़ाव पर चोपाल में स्थानीय लोगों के साथ होने वाली चर्चा में एक मुख्य बात सामने आई नर्मदा में मिलने वाली सहायक नदियों का जल निरन्तर सूख रहा है । मैने यात्रा में अपनी आंखों से शक्कर, साकरी गंगा और दूधी नदी को देखा जो बूंद भर पानी भी नर्मदा में नहीं ला रही थी । नर्मदा की ४१ सहायक नदियों में से अधिकांश नदियों ने प्रदूषित गंदे नाले का रूप ले लिया है । नर्मदा का अस्तित्व पहाड़ों और जंगलों से रिस-रिस कर आने वाले जल पर निर्भर   है । साथ ही सहायक नदियों के मिटते अस्तित्व का नर्मदा पर असर पड़ना भी स्वाभाविक हैं । इसीलिये सहायक नदियों के जंगलों का संरक्षण आवश्यक है । जंगलों की अंधाधंुध कटाई बड़ी चिन्ता का विषय है । यदि इनका संरक्षण नहीं किया गया तो आने वाले समय में नर्मदा में जल स्तर खतरनाक ढंग से कम हो जायेगा ।
    नर्मदा मात्र नदी नहीं है । एक जीवन शैली है । इसकी अपनी कला व संस्कृतिहै । अपना अर्थशास्त्र है, अपना व्यवहार है । इसीलिये भारतीय ऋषियों ने गहन चिंतन के बाद प्रकृति के सभी तत्वों के प्रति ईश्वर दृष्टि रखने के लिए प्रेरित  किया । हमारी संस्कृति में नदियों, पशु-पक्षी, वृक्ष को देवरूप मानकर पूजा गया, देवत्व का स्थान दिया गया । एक मनीषी परम्परा विकसित की गयी । बदलते परिदृश्य में वह मनीषी परम्परा विखण्डित हुई है । हमारी देखने की, समझने की दृष्टि में परिवर्तन आया, हमारा व्यवहार बदला और इस बदले व्यवहार से ही नर्मदा का अस्तित्व खतरे में आ  गया । नीति निर्धारकों के लिए जल का भण्डार है, जिसका अधिकतम उपभोग व उपयोग वे करने की योजना बनाते रहते हैं । नर्मदा जी के ंसंरक्षण को लेकर उठी इसी चिंता की समाज के साथ बैठकर, विचार करने, मंथन करने, कार्य योजना बनाने और क्रियान्वयन करने के लिए नर्मदा समग्र ने अन्तर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव की शुरूआत की । यह महोत्सव उत्सव आयोजन मात्र नहीं है ।
    देश दुनिया के लोगों के साथ मिलकर नदियों के प्रति सह-अस्तित्व और सांकरी दृष्टि विकसित करने का प्रयास है । यह प्रयास भारतीय संस्कृति, दर्शन और अनुसंधान का समायोजन है । इसके लिये सम्पूर्ण नदी संसार की समझना आवश्यक है । इसे किसी फाइव स्टार होटल के वातानुकूलित कक्ष में नहीं समझा जा सकता । इसे नर्मदा के किनारे उसको कल-कल ध्वनि और जल के स्पन्दन को ह्दय से अनुभव करके ही समझा जा सकता था । नदी को समझने में जीवन, जीवन सिद्धान्त, समाज और सभ्यता का मूल समाहित है । इसीलिये बांद्राभन में नर्मदा के किनारे नर्मदा तथा संगम स्थल की नदी महोत्सव के लिये चुना गया, ताकि विचार और वृत्ति, सृजन के समीप हो और यथेष्ठ चिंतन हो सके ।
    इन महोत्सवों में देश दुनिया के वैज्ञानिकों, सामाजिक कार्यकताआें, बुद्धिजीवियों, शिक्षकों, शोधार्थियों, कला, संस्कृतिविशेषज्ञों, नर्मदा सेवियों में जल में स्थित जीवन के सभी तथ्यों पर मंथन किया । इन सैकड़ों विद्धानों के निष्कर्षो ने बांद्राभान घोषणा पत्र जारी किया, जिसके अनुसरण में नर्मदा को हरी चुनरी ओढ़ाने का प्रयास, जल शुद्धिकरण के लिये तांबे-चांदी के सिक्कों की घाटी पर उपलब्धता, नदी के घाटी की सफाई, नर्मदा जयंती व अन्य आयोजनों में प्लास्टिक से बने दीपक के स्थान पर पत्तों व आटे से बने दीपक से दीपदान करने के लिये प्रेरित करना, जहरीले रसायनों से निर्मित मूर्तियों को नर्मदा में प्रवाहित न कर वैकल्पिक व्यवस्था करना जैसे कार्यो व योजनाआें का क्रियान्वयन और संचालन किया जा रहा है ।
    नर्मदा समग्र का प्रयास है वर्तमान परिस्थितियों में नदी के सभी पक्षों को समझना और नदी के समग्र  आयामों पर विचार कर एक ऐसी सामाजिक चेतना और दृष्टि प्रवाहित करना जिससे नदी संरक्षण की परम्प्रा विकसित हो । प्रदूषित होती नदी को शुद्ध करने के लिये सामाजिक, राजनैतिक और सरकारी उपक्रम सभी के साझे प्रयत्न हो, एक सामूहिक कार्य संस्कृति विकसित हो । वस्तुत: नर्मदा यात्रा के समय नर्मदा अंचल वासियों के साथ चौपाल में होने वाले संवाद और मंथन से जो विचार उठे, जो संकल्प बने यह उनका क्रियान्वयन है ।
    यदि समाज आगे आ गया तो नदियों का सदा नीरा बनाये रखने इसके अस्तित्व को सर्वोपरी बनाने, इसकी जेब विविधता के संरक्षण के साथ होने वाले प्रदूषण और इसके स्वास्थ्य में गिरावट को कम करने की पहल सार्थक होगी । यह संभव हो गया तो नर्मदा संरक्षण के सृजन का आरंभिक बिन्दु निश्चित ही विराट में परिणित होगा । 
हमारा भूमण्डल
बुढ़ापे और मृत्यु पर विजय के प्रयास
डॉ. विजयकुमार उपाध्याय

    भारत की पौराणिक कथाआें के मुताबिक देवताआेंने अमृतपान किया था जिसके फलस्वरूप वे अजर-अमर हो गए थे ।  न तो कभी उन पर बुढ़ापा आता था, और न उनकी मृत्यु होती थी । बुढ़ापे और मृत्यु पर विजय प्राप्त् करने के प्रयास आधुनिक काल के वैज्ञानिक भी कॉफी लंबे अरसे से करते आए है । 
    यह जानते हुए भी कि मृत्यु अपरिहार्य है, मानव को अमरता प्राप्त् करने की लालसा सदा से रही है । आधुनिक वैज्ञानिक नए-नए अविष्कारों की बदौलत अभी तक अमरता तो नहीं प्राप्त् कर सके हैं, परन्तु मानव को सौ-डेढ़ सौ वर्षो की आयु दिलाने में सक्षम होते दिखाई पड़ रहे हैं । प्रमुख शोध पत्रिका लैंसेट में कुछ समय पूर्व प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि सन १९९० में विश्व स्तर पर मानव की औसत आयु जहां सिर्फ ६५.५ वर्ष थी, वहीं अब स्वास्थ्य सुविधाआें में विकास के कारण यह ७१.५ वर्ष हो गई । 
     भारत में स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि दस वर्ष पहले की तुलना में आज पुरूषों की औसत आयु पांव वर्ष  बढ़कर ६७.३ वर्ष और महिलाआें की औसत आयु बढ़कर ६९.५ वर्ष हो गई है । उम्मीद है कि चिकित्सा विज्ञान में तेजी से हो रहे विकास के फलस्वरूप लोगों की औसत आयु में लगातार वृद्धि होती रहेगी ।
    सितम्बर २०१३ में गूगल द्वारा कैलिफोर्निया लाइफ कम्पनी (कैलिको) की स्थापना की गई । इस कम्पनी का मुख्य उद्देश्य ऐसे वैज्ञानिक तरीकों की खोज करना है जिनके द्वारा मानव की औसत आयु में वृद्धि की जा सके । संयुक्त राज्य अमेरिका की एक कम्पनी का नाम है सिंथिया केन्यन । इस कम्पनी के वैज्ञानिकों को कुछ समय पूर्व कुछ कीटों के जीवन काल को ६ गुना बढ़ाने में सफलता मिली थी । यह कम्पनी भी कैलिको कम्पनी से जुड़ गई है ।
    अमेरिका के एक प्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक क्रेग वेंटर ने ह्यूमन लॉन्गेविटी नामक कम्पनी की स्थापना की है । इस कम्पनी की योजना है कि २०२० तक दस लाख मानव जीनोम अनुक्रम का डैटा बेस तैयार कर लिया जाए । इस डेटा बेस में उन लोगों के आंकड़े भी शामिल होंगे जिनकी उम्र सौ से अधिक हो चुकी है । क्रेग वेंटर का विश्वास है कि उनकी कम्पनी द्वारा तैयार डेटा बेस उन वैज्ञानिकों के लिए बहुत उपयोगी साबित होगी जो मनुष्य के औसत जीवन काल को बढ़ाने की दिशा में शोध करने में लगे हुए हैं । इस दिशा में उपयोगी शोध करने वालों को प्रोत्साहित करने के लिए पुरस्कार देने की भी योजना बनाई गई है । अमेरिका में एक अन्य ऐसे ही पुरस्कार की घोषणा की गई है पौलो आल्टो लॉन्गेविटी पुरस्कार । इसमें हर वर्ष दस लाख डॉलर का पुरस्कार ऐसे व्यक्ति को दिया जाएगा जिसने मनुष्य के औसत जीवन काल को बढ़ाने की दिशा में महत्वपूर्ण खोज की हो ।    
    इस पुरस्कार का उद्देश्य ऐसी विधि की खोज कराना है जिसके द्वारा मनुष्य के जीवन काल की अधिकतम सीमा १२० वर्ष से ऊपर ले जाई जा सके । इस पुरस्कार की स्थापना अमेरिका के एक बड़े व्यवसायी जून यून द्वारा की गई है । सन् २०१३ में हार्वडे विश्वविघालय में कार्यरत कुछ वैज्ञानिकों द्वारा की गई खोज भी काफी चर्चित रही थी । इस शोध से पता चला था कि बूढ़े चूहों में एक विशिष्ट प्रकार के प्रोटीन की कमी हो जाती है । दो वर्ष की आयु वाले एक चूहे के शरीर में जब यह प्रोटीन प्रविष्ट कराया गया तो उसके शरीर के ऊतक ६ महीने के चूहे के समान हो गए । इसके अलावा कुछ ऐसी औषधियां भी हैं जिनका उपयोग बुढ़ापे को कुछ हद तक रोकने में कारगर पाया गया है ।
    ऐसी ही एक दवा का नाम है मेटमार्फिन जो सामान्य तौर पर मधुमेह के रोगियों को दी जाती है । एक अन्य दवा है रेपामारबिन जो अंग प्रत्यारोपण तथा एक विशेष प्रकार के कैंसर की चिकित्सा हेतु उपयोग में लाई जाती है । जब चूहों पर इसका प्रयोग किया गया तो उनके जीवन काल में २५ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई ।
    आयु वृद्धि हेतु दवाआें के अलावा कुछ अन्य विधियोंभी कारगर पाई गई हैं । जैसे, कुछ शोधकर्ताआें ने पशुआें पर किए गए प्रयोगों से निष्कर्ष निकाला है कि जरूरत से कम आहार का सेवन भी आयु को बढ़ाता है । वैज्ञानिकों ने पाया है कि जब जानवरों को सीमित मात्रा में आहार उपलब्ध कराया गया तो वे अधिक समय तक जीवित रहे । एक अन्य शोध में वैज्ञानिकों ने पाया कि यदि युवा चूहे का खून बढ़े चूहे के खून में प्रविष्ट करा दिया जाए तो उसकी मानसिक क्षमता बहाल हो जाती है । अब वैज्ञानिक यह जानने  का प्रयास कर रहे हैं कि क्या अल्जाइमर रोगियों पर भी ऐसा ही प्रभाव पड़ सकता है ? इसके लिए मानव प्रयोग किए जा रहे हैं ।
    वैज्ञानिक यह जानने का प्रयास कर रहे हैं कि शरीर को चलाने वाली अलग-अलग प्रणालियां समय के साथ सुस्त क्यों पड़ जाती है और फिर पूरी तरह रूक क्यों जाती है ? संयुक्त राज्य अमेरिका के कैलिफोर्निया स्थित सेंस फाउडेंशन के संस्थापक तथा प्रसिद्ध आणविक जीव वैज्ञानिक आउब्रे डी गे्र का विचार है कि हमारा शरीर एक प्रकार की जैविक मशीन है । इसमें समय के साथ होने वाली खराबियों का इलाज करके इस मशीन को चालू रखा जा सकता है ।
    अब वैज्ञानिक यह पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं कि क्या मानव सदैव यौवनावस्था में रह सकता है ? पिछले कुछ समय में वैज्ञानिक शोध काफी तेजी से इस दिशा में बढ़ा है । सन् २०१४ के अंत मेंअमेरिका के साक इंस्टिट्यूट फॉर बायोलॉजिकल स्टडीज में कार्यरत कुछ वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने वह स्विच ढूंढ लिया है जिसका बुढ़ापा शुरू करने से सीधा संबंध है । वस्तुत: हमारे शरीर में टेलोमरेज नामक एक ऐसा एंजाइम मौजूद है जो हमारी कोशिकाआें को बढ़ने का निर्देश देता है । जब इस एंजाइम की कमी होने लगती है तो नई कोशिकाएं बनना बंद होने लगती हैं जिसके कारण बुढ़ापे की शुरूआत हो जाती है । वैज्ञानिकों का मानना है कि जब शरीर में टेलोमरेज बनाने वाला स्विच निष्क्रिय हो जाता है तो बुढ़ापे का आगमन होने लगत है । उन्हें आशा है कि यदि इस स्विच को नियंत्रित किया जाय तो बुढ़ापे के आगमन को रोका जा सकता है ।
    वैज्ञानिक इस बात का पता लगा चुके हैं कि वस्तुत: यौवन का राज शरीर के बाहर नहीं बल्कि शरीर के अंदर डी.एन.ए. से जुड़ी जैविक घड़ी को खोज लिया है । युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में एपिडेमियोलॉजी एण्ड कम्युनिटी हेल्थ डिपार्टमेन्ट की प्राध्यापिका श्रीमती दोनी केली ने विचार व्यक्त किया है कि यह घड़ी शरीर में मौजूद कोशिकाआें, ऊतकों और अंगों की उम्र की गणना करती है । श्रीमती केली का मानना है कि यदि इस घड़ी में बढ़ती उम्र की प्रक्रिया को उलट दिया जाए तो व्यक्ति चिरयुवा बना रह सकता है ।
    वैज्ञानिक इस घड़ी का अध्ययन गहराई से कर रहे हैं । वे समझने का प्रयास कर रहे है कि क्या यह जैविक घड़ी जवान बने रहने की गुत्थी सुलझा पाएगी ? क्या यह घड़ी बुढापा लाने वाले कारकों को नियंत्रित कर पाएंगी ? यदि हम समझ जाएं कि हमारी उम्र कैसे बढ़ती है तो हम इस प्रक्रिया को उलट सकते हैं । इस घड़ी की क्रिया प्रणाली को समझकर जवान बने रहने और बढापे को दूर रखने का रहस्य समझा जा सकता है ।
    वैज्ञानिक इस दिशा में भी काम कर रहे हैं कि यदि बुढ़ापे के कारण और इससे पैदा होने वाली समस्याआें की जड़ तक पहुंचा जाए तो बुढ़ापे को आने से रोका जा सकेगा । मानव जीनोम का अनुक्रम पता लगाकर सबसे पहली कृत्रिम कोशिका का निर्माण करने वाले अमरीकी वैज्ञानिक के्रग वेंटर का अगला शोध इसी विषय से जुड़ा है । इस परियोजना में के्रग वेंटर के साथ स्टेम कोशिका की खोज करने वाले डॉ. रॉबर्ट हरीरी भी शामिल हैं । इन दोनों ने मिलकर ह्यूमन लॉन्गेविटी नाम की एक कम्पनी बनाई है । जहां जीनोमिक्स और स्टेम कोशिका संबंधी जानकारी को मिलाकर बुढ़ापे से लड़ने और जवान बने रहने के तरीके ढूढे जाएंगे ।
विशेष लेख
जल की किल्लत का मुकाबला कैसे करे ?
रितेन्द्र अग्रवाल

    सभ्यता के प्रारंभिक दौर से ही मनुष्य के जीवन में जल शुरू से ही जीवन का आधार रहा है । शायद यही वजह है कि देश के प्राचीन, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं शहरों की बसाहट नदियों के किनारे पर है ।
    जल हर जगह, हर मनुष्य के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन राजस्थान जैसे रेगिस्तानी प्रदेश में जल की पूजा की परम्परा रही है । इसीलिये पश्चिमी भू-भाग में कुंऐ, बावड़ियां और सरोवर नदियों के  समान सुन्दर बने हैं । परन्तु पिछले कुछ समय से हमारी सोच में बदलाव आया जिससे जल का दुरूपयोग और जल के स्त्रोतों की उपेक्षा होने लगी । यही वजह है प्राचीन जल स्त्रोत नष्ट हो गये, जिससे देश में जगह-जगह जल संकट के हालात उत्पन्न हो गये । 
     सम्पूर्ण विश्व में सम्पूर्ण जल मण्डल का २.६ प्रतिशत भाग ही शुद्ध जल के रूप में पाया जाता है, शेष महासागरों में स्थित है । इस २.६ प्रतिशत का भी ७७.२३ प्रतिशत भाग हिम टोपियों, हिम खण्डो तथा हिम नदो के रूप में है । कुल २२.२१ प्रतिशत जल भू जल के रूप में ४१ किमी की गहराई तक स्थित है । शेष अल्प मात्रा मृदा, झीलों, जीवमण्डल तथा वायुमण्डल में पाया जाता है ।
    जल संसाधन की दृष्टि से भारत की स्थिति चिन्ताजनक है । यहां औसत वार्षिक वर्षा ११७ सेमी  है । विश्व में भारत ११० से.मी. से अधिक वर्षा वाले देशों में उच्च् थान पर है किन्तु केवलमोयसिंग राम (मेघालय) में ही ११४८ सेमी वार्षिक वर्षा होती है । दूसरी ओर राजस्थान के जैसलमेर में वर्षा का औसत मात्र १० सेमी है । इस असमान वितरण से प्रतिवर्ष देश का कोई न कोई भाग जल अभाव से ग्रस्त रहता है । 
    आंकलन के अनुसार भारत में वर्षा से करीब ४२०० घन कि.मी. जल प्राप्त् होता है  । चूंकि जलवायु उष्ण है और उचित जल प्रबंधन का अभाव है इसलिये करीब प्राप्त् जल का एक तिहाई भाग वाष्पन द्वारा वायुमण्डल तथा सागरों में विलीन हो जाता है ।
    लगभग २० प्रतिशत जल जमीन द्वारा सोखने से भू जल में परिवर्तित हो जाता है । जो वास्तव में प्राप्त् जल है, वह है १८६९ घन कि.मी. इसके भी क्षेत्रीय वितरण में भारी असमानताएें है । क्योंकि देश के दसवे हिस्से में २०० सेमी से अधिक वर्षा होती है जबकि एक तिहाई क्षेत्र के ७५ सेमी से भी कम वर्षा होती   है । वर्षा की मात्रा के साथ-साथ वर्षा वाले दिनों में भी असमानता है । अत: जल संसाधन की सबसे बड़ी समस्या असमान वितरण है ।
    अभी तक हमने सतही एवं प्राप्त् जल की बात की । अब बाते करते है, भूजल की । भारत में भू जल की अनुमानित मात्रा करीब ४३३.९ घन किमी है जिसका करीब ४२ प्रतिशत भाग उत्तरी भारत के जलोढ़ मैदानी क्षेत्रों में पाया जाता है । चूंकि जलोढ़ मिट्टी में अधिक जल संधारण क्षमता होती है । इसके उलट दक्षिणी भारत में आग्नेय कठोर चट्टानो में जल रिसाव मंद मंद होता है, इसलिये भू जल अल्प मात्रा में पाया जाता    है । इस पर भी भारत में कुल भू जल अल्प मात्रा में पाया जाता है । इस पर भी भारत में कुल भू जल का केवल ३६.३७ प्रतिशत के लगभग उपभोग होता है ।
    जल का उपयोग जीवन की मूलभूत आवश्यकताआें की पूर्ति के लिए किया जाता है । इसमें घरेलू उपभोग से लेकर कृषि, उद्योग आदि में होता है । देखा जाये तो जल का सर्वाधिक उपयोग कृषि तथा उद्यान में होता है । घरेलू उपभोग में थोड़ा अंश ही आता है इसमें करीब ७ प्रतिशत ही उपयोग होता है ।
    देखा जाये तो कुल जल संसाधन की उपलब्धता के सापेक्ष केवल १० प्रतिशत के करीब उपयोग हो रहा है । चूकि इसका वितरण असमान है, इसलिए सर्वत्र जलापूर्ति नहीं हो पाती । परिणामस्वरूप जल संकट उत्पन्न हो जाता है ।
    गौर कीजिये हम १० प्रतिशत ही जल उपभोग कर रहे है फिर भी जल संकट है । माना कि वितरण असमान है । फिर भी देखिये हमारे  अधिकतर इकाईयों में जल शोधक संयत्र है और जलापूर्ति के नियम है फिर भी ? ऐसा इसलिये क्योंकि हम उद्योगों का गंदा जल सीधे नदियों में, या फिर अन्य स्त्रोतों में प्रवाहित कर देते है जिससे समस्त जल प्रभावित हो रहा है ।
    ठीक इसी तरह कृषि में जल की जरूरत काफी है, चूंकि उष्ण वातावरण है तो जरूरत ज्यादा ही    है । फिर हम वह फसल उगाते है, जिनमें पानी की आवश्यकता ज्यादा रहती है । जैसे चावल, गन्ना जूट  आदि । इसके साथ ही भूमि के अधिकतम उपयोग के लिए बहुफसली खेती करते है जिससे जल की मांग बढ़ती है ।
    घरेलू कार्य के लिए खाना पकाने, स्नान करने, कपड़े धोने आदि के लिए उपयोग होता है । इसके अलावा पशु पक्षियों और पौधों के लिए भी प्रदूषण रहित जल की आवश्यकता होती है ।
    अब देखिये नदियों के किनारे शहर होने पर भी शुद्ध जल की उपलब्धता दूभर है क्योंकि नगरों के अशुद्ध जल ने इन जल स्त्रोतों को प्रदूषित कर दिया है । कानपुर, वाराणसी, गंगा किनारे, कोलकाता हुगली किनारे, आगरा, दिल्ली यमुना किनारे इसके उदाहरण है, जहां नगरीय प्रदूषित जल सीधा नदियों में आकर मिल रहा है । नदी में जल आने के प्राकृतिक स्त्रोत छोटे-छोटे नाले और छोटी नदियां तथा तालाब जैसे जलीय स्त्रोतों में जल की कमी होने से नदी में जल का निरन्तर प्रवाह प्रभावित हो रहा है । 
    अब आप कहेंगे बेकद्री  कैसी ? तो साहब घर से शुरू हो जाइये - आप पीने के लिये पानी लेते है एक गिलास । कुछ घुंट पीकर छोड़ देते हैं । वह छूटा पानी बेकार हो  गया । आप ब्रश करते, दाढ़ी बनाते है वाश बेसिन पर खड़े होकर और पूरे समय नल से पानी चलता रहता है ।  आप नहाते है - शॉवर से उसमें पानी बेकार जाता है । बाल्टी में लेकर नहाये । अगर बर्तन धोन, कपड़े धोने से जो गंदा पानी शेष रहे, उससे टॉयलेट साफ किया जा सकता है, घर में पोंछा लगवाया जा सकता है । यह बात परिवार विशेष के संदर्भ में अलग-अलग हो सकती है ।
    अब देखिये - सुबह- सुबह पानी नल में आता है । प्रेशर थोड़ा कम हुआ आपने पाईप लाईन में बूस्टर लगा दिया । यानि आपके घर के आगे सप्लाई अवरूद्ध । हम पानी की सोच समझकर ईमानदारी से उपयोग लाना चाहिये । पानी को एक से ज्यादा कामों में प्रयोग ले ।
    पानी की बेकद्री को हम यहां भी देख सकते हैं । जब आपने नल खुला छोड़ दिया और पानी बह रहा  है । पाईप लाईन लीक हो गई, पानी बह रहा है । आप अनदेखी कर रहे  है । अगर राह में कहीं पाईप लाईन टूटी या पानी बहता नजर आया तो आप देखकर भी अनदेखा कर निकल जाते हैं । इसके अलावा बढ़ता शहरीकरण जिससे तालाबों, नदियों के केचमेंट क्षेत्र का अतिक्रमण हुआ है या फिर इनके आसपास बसावट कर क्षेत्र कम कर दिया गया है जिससे पानी की आवक घट गई या फिर स्त्रोत ही सूख गए ।
    भू जल का दोहन भी सोच समझकर करे अन्यथा स्त्रोत जल के अभाव में सूख जायेंगे । ध्यान रहे पानी का दोहन रिचार्ज क्षमता से ज्यादा न हो । बेहतर होगा हम पानी को दो-तीन बार उपयोग में लाये या फिर वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाकर गंदे पानी को साफ करके इस्तेमाल में लाये तो पानी को कुछ सीमा तक सहज सकते है ।
    खेती में कम पानी की फसले, और ऐसे उपाय करे कि पानी कम लेगे । स्प्रिंकलर का प्रयोग करे, ड्रिप सिंचाई करे । बेहतर हो हम क्षेत्र के पुराने जल तंत्रों बावड़ी, तालाब, पोखर आदि को ठीक करा कर, ठीक से रख रखाव करे तथा प्रयोग में लाये । अगर तालाब, पोखर बावड़ी नहीं है तो क्षेत्र में जल संचयन के लिए चेक डैम, तालाब, पोखर, स्टोरेज टैंक आदि का निर्माण कर प्रयोग ले । छत पर भी वर्षा जल संचयित कर नीचे टयूबवेल, भूतल टैंक में पानी को प्रवाहित कर जल संचयन किया जा सकता है ।
    संचयन एक बात है । प्रथम है, जो जल उपलब्ध है उसको ईमानदारी से २-३ बार उपयोग में लेना । जल के संदर्भ में आगामी समय कष्टप्रद है । आज से ही चेतिये, कल संवारिये । जल है तो कल है, वर्ना क्या कल है ?
विज्ञान जगत
चिकित्सा में उपयोगी कागजी सेंट्रीफ्यूज
अश्विन शेषशायी
    कागजी सेंट्रीफ्यूज यानी पेपरफ्यूज लगभग १ लाख २५ हजार चक्कर प्रति मिनट की रफ्तार से घूम सकता है और गुरूत्वाकर्षण से ३०,००० गुना ज्यादा बल पैदा कर सकता है । यह किसी भी नैदानिक प्रयोगशाला के लिए उपयुक्त है और इसकी लागत मात्र १४ रूपए है ।
    आधुनिक विज्ञान एक नफीस उद्यम है जिसके लिए उच्च् कोटि की कुशलता और काफी पैसे की जरूरत होती है । यदि विज्ञान के लाभ आम लोगों तक पहुुंचाने हैं तो यह एक बड़ा अवरोध साबित होता  है । स्वास्थ्य के क्षेत्र में यह समस्या विशेष रूप से उभरती है । हमारे पास आज ऐसी टेक्नॉलोजी है जिसकी मदद से हम कई सारे जीवों में जेनेटिक परिवर्तन कर सकते हैं और एक मायने में ईश्वर-ईश्वर खेल सकते हैं । मगर दूर-दराज के किसी गांव में अत्यंत सामान्य नैदानिक जांच करने के मामले में हम समस्याआें सेे घिर जाते हैं । 
     इसका एक कारण यह है कि आजकल किसी आधुनिक नैदानिक प्रयोगशाला या अस्पताल में जिस ढंग की टेक्नॉलॉजी इस्तेमाल की जाती है वह पोर्टेबल नहीं होती या इतनी महंगी होती है कि उसका उपयोग किसी दूरस्थ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में करना मुश्किल होता है, ख्रास तौर से यदि उपयुक्त हुनर उपलब्ध न हों ।
    सवाल है कि क्या यह जरूरी है कि नैदानिक टेक्नॉलॉजी महंगी और पेचीदा हो ? स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के एक इंजीनियर मनु प्रकाश की प्रयोगशाला में इस समस्या का मुकाबला किया जा रहा है । कुछ समय पहले उन्होेने एक सस्ता ओेरिगैमी सूक्ष्मदर्शीबनाकर पेश किया था । इसे फोल्डस्कोप नाम दिया गया था । अब उन्होंने एक प्रकाशन में पेपरफ्यूज नामक एक उपकरण का विवरण दिया है । यह कागज से बना सेंट्रीफ्यूज उपकरण  है ।
    जैव चिकित्सा प्रयोगशालाआें में सेंट्रीफ्यूज एक महत्वपूर्ण उपकरण होता है । इसमें एक रोटर होता है जो निहायत तेज गति से - प्रति मिनट हजारों चक्कर की दर से घूमता है । इसके इस घूर्णन की वजह से बाहर की ओर बल लगता है । इस बल की मदद से किसी मिश्रण के घटकों को उनके वजन के हिसाब से अलग-अलग किया जा सकता है । उदाहरण के लिए, रक्त कई किस्म की कोशिकाआेंका मिश्रण होता है । सेंट्रीफ्यूज मेंथोड़ी दरे के लिए रक्त को घुमाया जाए, तो इन अलग-अलग कोशिकाआें को अलग-अलग किया जा सकता है ।
    एक छोटे-से टेबल-टॉप सेंट्रीफ्यूज की कीमत लाखों रूपए हो सकती है और यदि बड़ी मशीन लेना हो, दसियों लाख रूपए हो सकती    है । ऐसे नफीस सेंट्रीफ्यूज को काफी सावधानीपूर्वक चलाने और रख-रखाव की भी जरूरत होती है । इस वजह से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में इनका उपयोग लगभग असभंव ही होता है ।
    मगर हम सबनेचित्र मेंदिखाया गया लट्टू तो देखा भी होगा और उसके साथ खेले भी   होंगे । यह एक गोलाकर चकती होती है जो एक लचीली डोरी को बार-बार खींचने और ढीला छोड़ने पर घूमती है । इसी खिलौने में थोड़ा फेरबदल करके गुब्बारे वाले समुद्र तटोंपर बेचते हैं । इसमें तो लाइटें भी लगी होती हैं जो चकती के घूमने के साथ जलती-बुझती रहती हैं । इसे बनाने में बहुत पैसा नहीं लगता और इसे चलाने में किसी खास हूनर की जरूरत भी नहीं पड़ती है । ऐसे खिलौने कम से कम २००० सालों में हमारे साथ रहे हैं ।
    स्टेनफोर्ड की उपरोक्त प्रयोगशाला के पोस्ट-डॉक्टरल फैलो साद भामला आर उनके साथियोंने इस खिलौने की मेकेनिक्स को समझा और यह पता किया कि डोरी के तनाव को कैसे एक ऐसे बल में तबदील किया जाता है जो डोरी से जुड़ी चकती को घुमाता है । उन्होंने देखा कि सिद्धांतत: एक उपयुक्त लट्टू खिलौना प्रति मिनट १० लाख चक्कर तक की गति पैदा कर सकता है ।
    अपनी गणनाआें की बुनियाद पर इन शोधकर्ताआें ने लट्टू सेंट्रीफ्यूज (पेपरफ्यूज) डिजाइन किया जो १,२५,००० चक्कर प्रति मिनट की गति से घूमता है और गुरूत्व बल से ३०,००० गुना ज्यादा बत उत्पन्न करता है । यह प्रयोगशालाआें और नैदानिक कार्योंा के लिए उपयुक्त है । चूंकि यह पूरी तरह कागज से बना है, इसकी कीमत मात्र १४ रूपए है ।
    अपने सिद्धांत के प्रदर्शन के तौर पर भामला और उनके साथियों ने पेपरफ्यूज का उपयोग रक्त से प्लाज्मा के पृथक्करण के लिए करके देखा प्लाज्मा के पृथ्क्करण के लिए रक्त के कोशिकीय पदार्थ को तली मेंबैठा दिया जाता है । ये लोग एक कदम और आगे बढ़े और पेपरफ्यूज का उपयोग करकेे रक्त में से मलेरिया परजीवी को भी पृथक कर लिया  ।
    अभी इसे आम उपयोग का उपकरण बनने में वक्त लगेगा किंतु इतना तय है कि रोजमर्रा के साधारण से  खिलौने को नवाचारी ढंग से प्रयोगशाला के एक उपकरण में बदलने का प्रयास जैव चिकित्सा के इस अत्यंत उपयोगी अस्त्र को दूर-दराज के इलाकों में ले जाने में बहुत मददगार हो सकता है ।   
पर्यावरण परिक्रमा
इस साल जमकर सताएगी गर्मी
    अंतरराष्ट्रीय मौसम वेबसाइट स्काईमेट के वरिष्ठ विज्ञानी महेश पलावत की माने तो पिछले साल की तुलना मेंये साल ज्यादा गर्म हो सकता है । स्काईमेट के अनुसार इस साल एक से दो डिग्री सेल्सियस ज्यादा तापमान रह सकता है । पारा ४९ डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है ।
    फरवरी महीने में ही मैदानी इलाकों में जोरदार गर्मी पड़ने लगी जबकि पहाड़ी इलाकों में अभी भी बर्फबारी  हो रही है । मौसम में आए इस बदलाव की वजह ग्लोबल वार्मिग को बताया जा रहा है । इसके अलावा बार-बार आ रहे पश्चिम विक्षोभ और स्थानीय शहरी कारक को भी जिम्मेदार माना जा रहा है ।
    मौसम विभाग के वरिष्ठ विज्ञानी डॉ. रविन्द्र विशेन ने भी संभावना जताई कि इस साल गर्मी कुछ ज्यादा हो सकती है । फरवरी में इतनी अधिक गर्मी पड़ने की वजह उन्होंने भी पश्चिमी विक्षोभ को बताया । उन्होंने यह भी कहा कि अभी अधिकतम तापमान और मानसून में पहले की बारिश के बारे में कुछ कहना थोड़ी जल्दबाजी   होगी ।
    जानकारों की माने तो साल दर साल गर्मी बढ़ रही है और सर्दी घट रही है । इसके लिए अर्बन हीट आइलैंड भी एक बड़ी वजह है । इसका मतलब है कि बढ़ती शहरीकरण से जुड़े गतिविधियां । आबादी के बढ़ते दबाव में यहां हरित क्षेत्र कम होता जा रहा है, जबकि कांक्रीट का जगल बढ़ता जा रहा     है । हरित क्षेत्र कम होने से शहरों में प्रकृतिका संतुलन गड़बड़ा रहा है ।
भोपाल सहित ३०० स्टेशनों पर नहीं मिलेगी कोल्ड ड्रिंक
    अब जबलपुर, भोपाल समेत ३०० स्टेशनों पर कोल्ड ड्रिंक नहीं बेची जा सकेगी । लोकसभा में केन्द्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री द्वारा कोल्ड ड्रिंक में जहरीले तत्व मिले होने की जानकारी देने के बाद पश्चिमी मध्य रेलवे (पमरे) जोन के कमर्शियल विभाग ने यह निर्णय लिया है । इस आदेश के बाद अब स्टेशनों पर कोक, पेप्सी सहित किसी भी कंपनी के कोल्ड ड्रिंक की बिक्री नहींहो सकेगी ।
    राज्यसभा में केन्द्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते ने पिछले दिनोंलिखित जानकारी दी थी कि कोका कोला और पेप्सी जैसी दो बड़ी कंपनियों के ५कोल्ड ड्रिंक  ब्रांड की जांच कराई गइ्र थी, जिनमेंलेड के अलावा केडमियन और क्रोमियम जैसे दो घातक तत्व भी पाए गए हे । ये तत्व स्प्राइट, माउंटेन ड्यू, ७अप, पेप्सी, कोका कोला के लिए नमूने मेंपाए गए है । इन नमूनों को जांच के लिए कोलकाता स्थित नेशनल टेस्ट हाउस में भेजा गया था । रिपोर्ट के मुताबिक स्वास्थ्य मंत्रालय ने पिछले साल अप्रेल मेंबोतलों में बेचे जाने वाली दवाइयों, कोल्ड ड्रिंक, शराब, जूस और अन्य पेय पदार्थो की जांच के निर्देश दिए थे ।
    पिछले दिनों में पमरे ने रेलवे कैंटीनों पर बिकने वाले खाद्य पदाथों की एक सूची जारी की है जिसमें इन प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादोंका नाम नहीं है । रेलवे अधिकारियों ने कोल्ड ड्रिंक के स्टॉक की जानकारी लेकर सभी स्टॉल को हटाने के लिए कहा है । कोल्ड ड्रिंक बंद करने का निर्णय लेने वाला पमरे देश का पहला रेलवे जोन बन गया है । इस आदेश के जारी होने के बाद पश्चिम मध्य रेलवे के तीन रेल मण्डल जबलपुर, भोपाल, कोटा के अन्तर्गत आने वाले तकरीबन ३०० स्टेशनों पर कोल्ड ड्रिंक की बिक्री पर रोक लगा दी गई है ।
    पमरे ने रेलवे बोर्ड को भी पत्र लिखकर दूसरे १६ रेल जोन में भी कोल्ड ड्रिंक की बिक्री पर रोक लगाने का अनुरोध किया है । ट्रेन मेंचलने वाले पेंट्रीकार का ठेका आईआरसीटीसी देती है । ट्रेन में कोल्ड ड्रिंक को प्रतिबंध करने के लिए रेलवे बोर्ड और आईआरसीटीसी को निर्णय लेना है ।
    स्टेशनों पर मिल्क और हेल्थ ड्रिंक (फ्रूट ज्यूस) की बिक्री पर जोर दिया गया है । इसके बाद इस साल ५ हेल्थ ड्रिंक कंपनियों को प्रोडक्ट बेचने की अनुमति दी गई है । इनमें दो मिल्क प्रोडक्ट को भी शामिल किया गया है । उधर कोल्ड ड्रिंक कंपनी के अधिकारियों ने जांच  रिपोर्ट को ही गलत बताया है ।
रक्त की कमी दूर करने वाला गेंहू देश में विकसित
    भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने लोगों में रक्त की कमी की बढ़ती समस्या के समाधान के लिए गेंहू  की एक नई किस्म तथा संतृप्त् वसा के सेवन से ह्दय पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को कम करने के लिए सरसों की एक नई किस्म विकसित की है । संस्थान ने पिछले वर्ष धान, गेंहू, सरसों और दलहनों की १३ किस्में विकसित की, जिनमें गेंहू की एक ऐसी किस्म है जो लोगों में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी पूरा करेगी तथा सरसों की किस्म तेल ह्दय रोग का प्रभाव कम करेगी ।
    सरसों की किस्म पूसा डबल जीरो सरसों ३१ देश की पहली उच्च् गुणवत्ता वाली किस्म है । इसमें तेल में पाए जाने वाले ईरूसिक अम्ल (संतृप्त् वसा) की मात्रा दो प्रतिशत से कम तथा खली में पाए जाने वाली ग्लूकोसिनोलेट्रस की मात्रा ३० पीपीएम से कम है जो कि मानव स्वास्थ्य के अनुकूल है । संस्थान की निदेशक रविन्दर कौर ने बताया कि इस संस्थान के शिमला केन्द्र ने गेंहू की एचएस ५६२ किस्म विकसित की है, जिसमें सूक्ष्म पोषक तत्व - लौह ३८.४ पीपीएम और जस्ता ३४.५ पीपीएम है ।
    यह किस्म उच्च् गुणवत्ता वाली रोटी और ब्रेड बनाने के लिए उपयुक्त है । इसके अलावा गेंहू  की पूसा उजाला एचआई १६०५ एवं पूसा तेजस एचआई ८७५९ क्षेत्रीय केन्द्र इन्दौर द्वारा विकसित की गई है । ये किस्में सिंचित अवस्था में देश के मध्य क्षेत्र के लिए उपयुक्त है । ये किस्मेंअधिक उत्पादकता, बेहतर गुणवत्ता के साथ-साथ जैविक एवं अजैविक दबाव प्रतिरोधी है ।
    पूसा द्वारा सब्जियों की पांच नई किस्में भी विकसित की गई है । इनमें लौकी की पूसा संतुष्टि, मटर की पूसा श्री, कद्दू की पूसा सब्जी पेठा, बेगन की डीबीएल२, गोभी की पूसा अश्वनी तैयार की गई है । अन्य सब्जियों की १४ किस्मों में प्याज, पूसा रिद्धी, गुच्छे वाली प्याज पूसा सौम्या, बाकले की पूसा उदित, चप्पन कद्दू की पूसा पंसद, खीरे की पूसा बरखा, धारीदार तोरई की पूसा नूतन, गोभी की, पूसा कार्तिकी, गाजर की पूसा रूचिरा एवं पूसा असिता, मूली की पूसा श्वेता, पूसा जामुनी एवं पूसा गुलाबी, करेले कि पूसा रसदार आदि दिल्ली एवं राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए जारी की गई है । खाद्यान्न एवं सब्जियों के साथ पुष्पीय फसलों में ग्लेडियोलस की पूसा सिंदूरी, गुलदाउदी की पूसा गुलदस्ता एवं   गेंदे की पूसा बहार किस्मों को विकसित किया गया ।
कई हिस्सों में पीने लायक पानी नहीं
    देशभर के करीब ६६७०० इलाकों में पेयजल पीने लायक नहीं है, क्योंकि यह आर्सेनिक और फ्लोराइड से प्रभावित हैं, यह बात खुद केन्द्र सरकार ने स्वीकारी है ।
    पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने पिछले दिनों राज्यसभा को बताया कि देश में ६६६६३ इलाकों में पेयजल आर्सेनिक और फ्लोराइड से प्रभावित हैं, उन्होंने सदन में कहा कि सरकार जनता को साफ, स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने की दिशा में काम रही है और इस संबंध में विभिन्न योजनाएं लाई गई हैं उन्होंने कहा कि पाइप के जरिए २०२२ तक ८० प्रतिशत जनसंख्या को पानी पहुंचाया जाएगा, पेयजल राज्य का विषय है और केन्द्र राष्ट्रीय ग्र्रामीण पेयजल और अन्य कार्यक्रम के जरिए राज्य सरकार की तकनीकी और वित्तीय मदद देता है ।
    मंत्री ने कहा, बिना ट्रीटमेंट के पानी को पेयजल के रूप में उपलब्ध नहीं कराया जाता । श्री  तोमर ने कहा कि अन्य राज्यों के लिए २५००० करोड़ रूपये की विशेष योजना तैयार की गई है, जिसमें से १२५० करोड इस साल के लिए तय किया गया है, जबकि ७६० करोड़ रूपये राज्यों को दिए जा चुके हैं । देशभर में विभिन्न हिस्सों में पेयजल उपलब्ध कराने के लिए ९११३ ड्रिकिंग वॉटर स्टेशन स्थापित किए जाने और एक लाख स्कूलों में प्रत्येक दिन १००० लीटर आरओ का पानी उपलब्ध कराने पर भी काम चल रहा है ।
ऑरियन के जरिए अंतरिक्ष में जाएंगे अंतरिक्ष यात्री
    अमेरिका की स्पेस एजेंसी नासा अंतरिक्ष यात्रियों को आगामी मिशन के तहत सुदूर अंतरिक्ष में भेजने की योजना बना रही है । नासा की योजना स्पेस कैपसूल ऑरियन के जरिए चंद्रमा के ऑर्बिट मेंअंतरिक्ष यात्रियों को भेजने की है । स्पेस कैपसूल ऑरियन को नासा की भावी और महत्वपूर्ण योजनाआेंको देखते हुए बनाया भी गया है । नासा की योजना के तहत वर्ष २०३० में इस कैपसूल के माध्यम से अंतरिक्ष यात्री सफल और सुरक्षित तरीके से अंतरिक्ष मेंघूम सकेंगे । अभी तक इस मिशन को एक्सप्लोरेशन मिशन १ के नाम से ही जाना जा रहा है ।
कृषि जगत
बारहनाजा और खाद्य सुरक्षा
विजय जड़धारी

    बारहनाजा शब्द आपको किसी शब्दकोश में ढूंढ़ने से नहीं मिलेगा । यह शब्द कृषि विज्ञानियों के मानस में भी नहीं है, किंतु पारंपरिक कृषि विज्ञान के पारखी उत्तराखंड के किसान इसे पीढ़ियों से जानते हैंऔर समझते हैं।
    बारहनाजा का शाब्दिक अर्थ है बारी अनाज । किंतु इसमें सिर्फ अनाज नहीं हैं, अपितु दलहन, तिलहन, शाक-भाजी, मसाले व रेशा आदि भी शामिल हैं। विविधता युक्त फसलों को मिश्रित रूप में उगाना ही बारहनाजा है । बारहनाजा में सिर्फ १२ फसलें शामिल हो । या नहीं है ।  इसके अंतर्गत अलग-अलग क्षेत्रों में २० के लगभग प्रजातियां शामिल हैं। लेकिन एक खेत में २० तरह की फसलें उगाई जाती हों यह भी संभव नहीं है। अलग अलग इलाकों में भौगोलिक परिस्थिति व खान-पान के अनुसार कहीं दस-बारह तो कहीं इससे कम प्रजातियां उगाना बारहनाजा का प्रतीक है ।
     बारहनाजा खरीफ के महत्वपूर्ण फसल चक्र के अंतर्गत उगाया जाता है। बारहनाजा हमारी खाद्य सुरक्षा और पोषण के लिए तो उपयोगी है ही, साथ ही यह खेती और पुशपालन के पारंपरिक रिश्ते को भी मजबूत बनाता है। इन फसलों को अवशेष चारा-भूसा पशुओं की चारा सुरक्षा का प्रतीक है । धरती मां की गोद में ही तरह-तरह की फसलें लहलहाती हैं। वह सबका पोषण करती है । एकल फसलें तो पोषण के साथ-साथ धरती का अत्यधिक शोषण भी करती हैं,किंतु बारहनाजा में शामिल कई प्रजातियों धरती मां को वापिस पोषण देती हैं। ये फसलें मिल जुल कर अपना फसल समाज भी बनाती हैं। धरती के पर्यावरण को मजबूत बनाने वाली यह पद्धति वैज्ञानिक कृषि से कहीं कम नहीं है । यह समृद्ध परंपरा सदियों से चली आ रही है ।
    यदि हम पीछे मुड़कर देखें तो पता चलता है कि जब आधुनिक माने गए कृषि विज्ञान का विकास नहीं हुआ था,तब उत्तराखंड के किसान पारंपरिक खेती और जैव विविधता के बल पर संपन्न और स्वावलंबी थे । उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध इतिहासकार शिवप्रसाद डबराल एक शताब्दी पूर्व के गढ़वाल के इतिहास का वर्णन करते हुए यहां की खेती के बारे में लिखते हैं: ``परिवार के सभी व्यक्ति व्यस्त रहते थे । कृषि और पशुपालन से संबंधित कार्य इतने अधिक थे कि परिवार में किसी को नि ल्ले रहने का अवसर नहीं मिलता था । पुरुष के लिए कार्य की भरमार थी । पुरुष रात गोठ  या छनों (गोशाला, घास-फूस से बने कच्च्े आवास) मंे बिताते थे और दिन में खेती के कार्यों में व्यस्त रहते थे, शीतकाल में भीड़ों (दिवालों) का निर्माण कर अपने सीढ़ीदार खेतों का विस्तार करते थे ।``
    इस कथन की पुष्टि कर्नल फिशर की सन १८८३ की रिपोर्ट से भी होती है। उनके अनुसार गढ़वाली किसान के पास पैसा तो नहीं था, लेकिन उसे खेती से भोजन, वस्त्र के लिए भांग का रेशा और भेड़ों से कंबल के लिए ऊन मिल जाती थी । अनाज के बदले वह नमक ले लेता था । अकुशल भूमिहीन तो थे ही नहीं । जिनके पास भूमि नहीं थी वे कला और दस्तकारी के साथ बटाई पर खेती करते थे । कुमाऊं के संदर्भ में भी इस प्रकार के विवरण ले. कर्नल पिचर और वाल्टन की रिपोर्टों से उपलब्ध है । पिचर ने सन् १८३८ मंे लिखा कि गढ़वाल और कुमाऊं के किसान विश्व के किसी भी भाग के किसानों से कोई कम नहीं हैं । इनके पास रहने के लिए संुद मकान हैंऔर अच्छी पोशाक हैं,आस-पास के वनों में प्रचुर मात्रा में जंगली फल और सब्जियां उपलब्ध हैं।
    सन् १८२५ में ट्रेल ने पर्वतीय क्षेत्र से मैदान मंडियों में बिक्री के लिए जाने वाली वस्तुओं की एक सूची तैयार की थी । इसमें सभी प्रकार के अन्न गेहूं, चावल, ओगल व मंडुआ दालें, तिलहन, हल्दी, अदरख, केशर, नागकेशर, पहाड़ी दालें, चीनी, कुटकी, निरबिषी, आर्चा, चिरायता, मीठा विष, वृक्षों की छालें, जड़ी-बूटियां, चमड़ा कपड़ा रंगने की वस्तुएं, औषधियां, लाल मिर्च, दाड़िम, अखरोट, पांगर, चिलगोजा, भांग, चरस, घी, चुलू तेल, मधु-मोम, कस्तूरी, बाज पक्षी, सुहागा, शिलाजीत, खड़िया, मिट्ठी-कमेड़ी, भोजपत्र, पहाड़ी कागज, रिगांल, भावरी बांस, लकड़ी के बर्तन, खाले, चंवर, टट्ठू, गाय-बैल, सुवर्ण चूर्ण, कच्च लोहा, तांबे की छड़ें और ऊनी वस्त्र को शामिल किया  था । इन वस्तुओं को बेचने के लिए लोग दल बनाकर पैदल भाबर की मंडियों में जाते थे और वहां से नमक, गुड़ व कपड़ा आदि खरीदकर लाते थे । यह समृद्धि उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दिनों तक भी कायम रही ।
    इसका मतलब यह नहीं कि हम अट्ठारहवीं सदी की ओर लौट चलें । किन्तु तब की समृद्धि यदि आज के युग में लौट आए तो यहां के निवासियों का जीवन कितना खुशहाल होगा ? हम आधुनिक संसाधनों का उपयोग भी करें और जैव विविधता से भी हमारे भंडार भरे रहें तो यह वास्तविक और स्थाई विकास होगा । इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं । एक जमाने में उत्तराखंड के लोग निस्संदेह समृद्धशाली थे ।
    विविधता के मामले में धन-धान्य से भरपूर पहाड़ों के अधिकांश हिस्से में हर एक किसान का अपना बीज भंडार या बीजुंडा था । घर का बीज, घर की खाद, घर के बैल, घर की गाय, घर के कृषि औजार, खेती पर कुछ भी बाह्य लागत नहीं लगानी पड़ती थी । यह एक स्वावलंबी कृषि पद्धति थी, और सचमुच यह पहले नंबर पर किसान की जीवन पद्धति और संस्कृति थी । इसमें खाद्य सुरक्षा और पोषण की गारंटी थी । कायदे से आधुनिक कृषि विज्ञान के आगमन से इसे और मजबूत होना चाहिए था । किंतु आज हम जैव विविधता के मामले में कंगाल हो गए हैं और उपज में भी खस्ता हाल हैं । 
    ऐसी फसलों का ज्यादा विस्तार होना चाहिए था जो कुदरती खनिज लवण, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन और ऊर्जा देती हैं और हमें अनेक बीमारियों से बचाती हैं। किंतु हरित क्रांति आने के बाद खेती की स्वावलंबी जीवनधारा टूटने लगी । वैज्ञानिकों ने उपज बढ़ाने पर जरूर जोर दिया, उपज बढ़ी भी किंतु यह क्रांति एकल प्रजातियों पर केन्द्रित हो गई । इसने विविधता से किसानों का ध्यान हटा कर लालच की ओर मोड़ कर एकल फसलों पर जोर दिया ।
    किसान बारह के बीज, रासायनिक खादें, कीटनाशक, खरपतवार नाशक, जहरों पर आश्रित हो गए, खेती रासायनिक उपकरणों से नशेबाज हो गई, पहाड़ों में सदियों से चली आ रही बारहनाजा कृषि-पद्धति के स्थान पर एकल सोयाबीन उगाने पर जोर दिया जाने लगा । अब उत्तराखंड के कुछ अनुभवी किसानों ने एकल प्रजातियों के दुष्प्रभाव से सीख लेकर बारहनाजा की विविधता को पुन: लौटाने के अपने प्रयास प्रारंभ किए हैं ।
    निस्सदेंह बारहनाजा खुशहाली, समृद्धि और भविष्य की आशा का प्रतीक है । यह विविधतायुक्त फसलों का ऐसा परिवार है, जो अनेक क्षेत्र की जलवायु व पर्यावरण के अनुसार एक दूसरे के साथ जुड़ा है । ये फसलें एक दूसरे की मित्र और सहयोगी हैं। सिर्फ खेत में नहीं, खान-पान में भी ये एक दूसरे की पूरक हैंऔर खाद्य सुरक्षा व पोषण के लिए सभी तरह के तत्व इसमें विद्यमान हैं। यह खान-पान आरोग्य की कुंजी भी है ।
    अभी चार-पांच दशक पहले हर एक गावं में पंचायती अनाज भंडार हुआ करते थे । आज की भाषा में एक तरह से अनाज बैंक या यूं कहें स्वयं सहायता समूह की परंपरा यहीं से शुरू  हुई । गांव के पंच एक व्यक्ति को गांव के अन्न भंडार के लिए भंडारी पद पर नियुक्त करते    थे । उसके पास भंडार की चाबी होती थी, उसे गांव में काफी प्रतिष्ठा मिलती थी । उसकी सहायता के लिए एक लिखने वाला (लिख्वार) तथा एक मठपति (खजांची) रहता था । लेखा-जोख लिख्वार के पास तथा अनाज की पूरी जिम्मेदारी भंडारी की होती थी । गांव में एक परि प्रहरी रहता था जो बैंकों की जानकारी की जानकारी के लिए आवाज लगा कर सूचना देता था । कहीं-कहीं यह प्रहरी `डाल हांकन` (तंत्र-मंत्र के द्वारा ओला वृष्टि को रोकन) का कार्य भी करता था ।
    लोगों को भंडार में अनाज देना पड़ता था । निश्चित मात्रा में पाथा (नाली) का हिसाब होता था । नई फसल आने पर १ पाथा धान, २ पाथा मंडुआ, २ पाथा झंगोरा,१ सेर दाल, १ माणा मिर्च, १ पाथा गेहूं और घी-तेल आदि जमा किया जाता था । इस तरह गांव के भंडार में दोणों या खारों अनाज जमा हो जाता था । जरूरतमंद लोग इस अनाज को उधार लेे जाते थे । उधार में डेढ़ गुणा करके वापस देना पड़ता था । कभी -कभी बहुत कम समय के लिए जब अनाज या अन्य सामग्री दी जाती थी तो इसे पैछा करते थे । इसमें जितना ले जाते थे उतना ही वापस करते थे । अनाज की जरूरत विशेष उत्सव, शादी या अन्य कार्योके लिए होती थी । दूसरे गांव के लोग भी इसका लाभ उठाते थे । किसी-किसी गांव में धन भी जमा होता था और उधार दिया जाता था ।
    इस तरह गांव का अनाज कोष व धन बढ़ता जाता था। पंचायती अन्न  भंडार हर तरह से दुख-दर्द, विवाह-उत्सव श्राद्ध में तो काम आता ही था, साथ ही दैवी आपदा, सूखा या अकाल के आड़े वक्त काम आता   था । तब असली ग्राम स्वराज्य था । किन्तु आज यह व्यवस्था इतिहास की वस्तु बन गई है। अब बाजार नजदीक आ गया है, जगह-जगह खाद्यान्न की दुकानें खुल गई हैंऔर स्वयं सहायता समूह नए अंदाज में खूब बन रहे हैं । लेकिन इनमें वह आत्मा गायब हो चुकी है जो लांकतांत्रिक समाज व्यवस्था की रीढ़ है ।
ज्ञान-विज्ञान
हिंद महासागर में एक जलमग्न महाद्वीप

    हाल के अनुसंधान व विश्लेषण से पता चला है कि हिंद महासागर मेंएक महाद्वीप जलमग्न हो गया था और आज यह हिंद महासागर की तलहटी में भारत और मैडागास्कर के बीच है । इस जलमग्न महाद्वीप की खोज दक्षिण अफ्रीका के विटवाटर्सरैंड विश्वविद्यालय विश्वविद्यालय के लुइस आश्वाल और उनके साथियोंने की  है ।
    ऐसे महाद्वीप की उपस्थिति का पहला संकेत यह था कि हिंद महासागर के कुछ हिस्सों में गुरूत्वाकर्षण असामान्य रूप से अधिक है । इसका मतलब है कि इस क्षेत्र में भूपर्पटी ज्यादा मोटी है । इसकी व्याख्या के लिए  एक परिकल्पना यह प्रस्तुत की गई थी कि यहां कोई विशाल भूखंड समुद्र के अंदर समाया हुआ है । 
     अत्याधिक गुरूत्वाकर्षण वाला एक स्थान मॉरिशस है । इसके आधार पर आश्वाल ने २०१३ में प्रस्ताव दिया था कि संभवत: मॉरिशस एक जलमग्न महाद्वीप के ऊपर विराजमान है ।
    हालांकि मॉरिशस द्वीप मात्र ८० लाख साल पुराना है किंतु इसके समुद्र तटोंपर कुछ जिरकॉन क्रिस्टल मिलते हैं जिनकी उम्र लगभग २ अरब साल है । ऐसा प्रतीत होता है कि यहां ज्वालामुखियों के विस्फोट के साथ प्राचीन महाद्वीप के टुकड़े जमीन पर आ गए होंगे । यही कारण है कि यहां जिरकॉन क्रिस्टल के इतने प्राचीन नमूने मिले हैं । इस जलमग्न महाद्वीप को आश्वाल की टीम ने मॉरिशिया नाम दिया है ।
    उनके मुताबिक करीब साढ़े आठ करोड़ वर्ष पूर्व तक मॉरिशिया एक छोटा-सा महाद्वीप था (लगभग वर्तमान मैडागास्कर के बराबर) । यह भारत और मैडागास्कर के बीच स्थित था । उस समय भारत और मैडागास्कर एक-दूसरे के ज्यादा समीप थे । कालातंर में ये दूर हटने लगे और मॉरिशिया भूखंड पर तनाव पैदा हुआ जिसकी वजह से वह बिखरने लगा । यही टुकड़े हिंद महासागर की गहराई में बैठे हैं और असामान्य गुरूत्वाकर्षण पैदा कर रहे हैं ।
    अब इस क्षेत्र में जलमग्न महाद्वीप के और भी अवशेष मिले    हैं । इस बात के प्रमाण हैं कि हिंद महासागर के कई अन्य द्वीप भी मॉरिशिया के अवशेषोंपर टिके हैं - इनमें कार्गाडेस केराजोस, लक्षद्वीप और चागोस द्वाीप शामिल हैं ।

कीटनाशक के असर से मधुमेह का खतरा
    एक अध्ययन में पता चला है कि ऑर्गेनोफॉस्फेट आधारित कीटनाशकों के उपयोग से मधुमेह होने का जोखिम बढ़ जाता है । ऑर्गेनोफॉस्फेट और मधुमेह के बीच कड़ी का अंदेशा कई रोग-प्रसार वैज्ञानिक
अध्ययनों से किया गया था । अब मदुरै कामराज
विश्वविद्यालय के जी. वेलमुरूगन और उनके साथियोंद्वारा किए प्रयोगों ने इस कड़ी को पुष्ट किया है ।
     ऑर्गेनोफॉस्फेट समूह के कीटनाशकों में पैराथियॉन, मैलाथियॉन वगैरह से तो सभी परिचित हैं । यह भी जानी-मानी बात है कि इनसे लगातार संपर्क से कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएं होती     है ।  
     चूहों पर किए गए प्रयोगों में देखा गया कि १८० दिनों तक ऑर्गेनोफॉस्फेट की खुराक देने के बाद उनके खून में ग्लूकोज में उपस्थित
बैक्टीरिया ने कीटनाशक को लघु-श्रृंखला वसा अम्लों में विघटित कर दिया । इनमें एसीटिक अम्ल प्रमुख था । इसी की वजह से रक्त शर्कराका स्तर बढ़ा और ग्लूकोज असिहष्णुता भी पैदा  हुई ।
    जैव वैज्ञानिकों ने ऑर्गेनोफॉस्फेट के संपर्क मेंआए चूहों की आंतों के बैक्टीरिया के संपूर्ण जीनोम का विश्लेषण किया तो पाया कि उनमेंऑर्गेनोफॉस्फेट का विघटन करने वाले जीन अति-सक्रिय थे ।
     भारत के गांवों में जो लोग लगातार कीटनाशकों के संपर्क में आते हैं उनमें मधुमेह का प्रकोप अन्य लोगों की अपेक्षा तीन गुना ज्यादा होता     है । कीटनाशक-प्रेरित मधुमेह में आंतों के बैक्टीरिया की भूमिका इस बात से जाहिर होती है कि मधुमेह पीड़ित व्यक्तियों के मल में एसिटेट की मात्रा सामान्य से ज्यादा होती है ।

समंदर के पेंदे में रोशनी और सूक्ष्मजीव
    वैज्ञानिकों ने गहरे समुद्र के पेंदेमें मौजूद लाल मिट्टी में अनोखे सूक्ष्मजीव खोजने का दावा किया    है । ये सूक्ष्मजीव प्रकाश संश्लेषण की क्रियाद्वारा कार्बन डाईऑक्साइड और पानी से कार्बोहाइड्रेट का उत्पादन करते   हैं । सवाल यह है कि प्रकाश संश्लेषण के लिए प्रकाश आवश्यक होता है, तो इन सूक्ष्मजीवों को वहां गहराई में प्रकाश कैसे मिलता है ।
    गहरे समुद्र की लाल मिट्टी लौह ऑक्साइड से बनी होती है और इसमें सूक्ष्मजीवी सक्रियता देखी गई है । समुद्र की गहराई मेंहाइड्रो-थर्मल सुराख होते हैं जिनमें रासायनिक क्रियाआें से गर्मी पैदा होती रहती है । ये सूक्ष्मजीव इसी गर्मी में फलते-फूलते हैं । सूक्ष्मजीवों की कई प्रजातियां इन स्थानों पर पाई जाती हैं, मगर इस प्राकृतवास की भलीभांति खोजबीन नहीं की गई है ।
     लाल मिट्टी में सूक्ष्मजीवों की पहचान का यह काम महाराष्ट्र एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन ऑफ साइन्स के अगरकर शोध संस्थान, राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, इसरो तथा भौतिकी अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने संयुक्त रूप से किया    है । इन्होंने गहरे समुद्र की लाल मिट्टी में पाए गए विविध सूक्ष्मजीवों के जीन्स का क्षार अनुक्रम पता किया   है । इस समृद्ध सूक्ष्मजीव संसार में खास तौर से छड़ आकार के बैक्टीरिया पाए गए हैं । ये वहां मौजूद मीथेन-उत्पादक बैक्टीरिया की प्रक्रियाआें से उत्पन्न रोशनी का उपयोग प्रकाश संश्लेषण हेतु करते  हैं ।
    सूक्ष्मजीव हमें यह समझने में मदद कर सकते हैं कि लौह धातु ने इनके विकास को कैसे दिशा दी   है । इस शोध का एक लाभ यह भी है कि हमेंयह निर्णय करने में मदद मिलेगी की मंगल ग्रह पर कहां कदम रखने से जीवन मिलने की संभावना ज्यादा है ।
मलेरिया अपना प्रसार कैसे बढ़ाता है ?
    परजीवी और उसके मेजबान के सम्बंध काफी जटिल होते हैं । परजीवी यानी वह जीव जो किसी अन्य जीव से पोषण प्राप्त् करता है और मेजबान वह जीव होता है जो परजीवी को भोजन उपलब्ध कराता है । कई परजीवी रोग पैदा करते हैं । ऐसा देखा गया है कि परजीवी अपने मेजबान के शरीर में या उसके व्यवहार में ऐसे परिवर्तन करता है ताकि स्थितियां परजीवी के अनुकूल हो जाएं । 
     मलेरिया रोग एक परजीवी प्लज्मोडियम की वजह से होता है । प्लज्मोडियम की कई प्रजातियां हैं । जैसे
प्लज्मोडियम वाइवैक्स, प्लज्मोडियम फाल्सीपैरम वगैरह । यह परजीवी मनुष्य के शरीर में मच्छर के काटने से पहुंचता है । मनुष्य के शरीर मेंपहुंचकर यह अपने जीवन चक्र का एक हिस्सा पूरा करता है ।
प्रदेश चर्चा
राजस्थान : धूल से साँसों में जमती मौत
प्रशांत कुमार दुबे
    राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के जिलाधीश परिसर में जनसुनवाई में आसींद तहसील के रघुनाथपुरा गाँव के गोपी (६४ वर्ष), जो कि बोल सुन नहीं सकते हैं, और उनका एक हाथ भी नहीं है, अपनी व्यथा कहने आये हैं ।
    उन्हें विकलांगता की पेंशन मिलती है । लेकिन पिछले पांच माह से वह भी नहीं मिली है । उनकी पत्नि टीबी की बीमारी से चल बसी घर में १ बेटा और १ बेटी है । बेटी, माँ की मौत के बाद से सदमे में है, लिहाजा बहुत ही गुमसूम रहती है, बस खाना खुराक सभी की पूरी कर देती है । सवाल यह है कि घर खर्च कैसे  चले । तो क्या गोपी मजदूरी भी नहीं कर सकते हैं । इसका जवाब भी है, नहीं । 
     भरी जवानी में गोपी ने आसपास की आरोली पत्थर खदानों में काम करना शुरू  किया । पत्थरों को तोड़ना इनका शगल था । पर अब इन्हें सिलिकोसिस बीमारी हो गई    है । खेती ३ बीघा है लेकिन पत्नि की बीमारी में कर्ज के चलते गिरवी रखा गई । हालांकि गोपी बोल नहीं सकते लेकिन हर आती-जाती सांस के साथ उनके फूलते नथूने और उनकी कराह उनके हाल बयाँ कर देती है ।
    रघुनाथपुरा में केवल गोपी नहीं बल्कि ५६ और लोग हैं जो कि अब सिलिकोसिस की जद में हैं । ऐसा नहीं कि यह कहानी केवल रघुनाथपुरा की है बल्कि भीलवाड़ा की बनेड़ा तहसील के सालरिया पंचायत के श्री जी के खेड़ा गाँव की पीड़ा तो और भी भयावह है । इस गांव में ६० घरों में ७० से अधिक विधवा महिलाएं रहती है। लेकिन इन विधवाओं को जिला प्रशासन से आज तक राहत नहीं मिली है जबकि इन्हें स्वयं भी सिलिकोसिस है । इसी गाँव के शंकर (४२ वर्ष) की मौत पिछले माह ही हुई है। वह सिलिकोसिस का बोझ ज्यादा दिन अपने काँधे पर ढो न सका ।
    सवाल यह है कि जब लोगों को पता चल गया कि ये बीमारी जानलेवा और लाईलाज है तो फिर इन खदानों में काम ही क्यों    करना ! क्योंकि यहाँ पर मनरेगा का काम खुलता नहीं है । काम मांगने और न देने पर कानूनन मजदूरी भत्ता मिलता नहीं है । ऐसे में ले देकर यही विकल्प बचता है और इसमें भी मजदूरी बाहर की अपेक्षा ज्यादा मिलती है । यह साल भर मिलने वाला काम है । बस यही मजबूरी इन मजदूरों को जिंदगी से मोह करते हुए भी मोह भंग करा देती है । सवाल यह भी है कि जब स्थिति इतनी भयावह है तो फिर सरकार क्या कर रही है ।
    अव्वल तो सरकार ने पहले यह माना ही नहीं कि सिलिकोसिस नामक कोई रोग भी है। सरकारी नुमाइंदे मजदूरों को टीबी जानकर उनका इलाज करते रहे । जब स्थिति काबू के बाहर होने लगी तो उच्च्तम न्यायालय को संज्ञान लेना पड़ा । इसके बाद भी प्रशासन ने न तो सिलिकोसिस की जांच में तत्परता दिखाई और न ही प्रमाणपत्र के बाद मिलने वाले मुआवजे को देने में पूरे जिले में अभी केवल १०५० लोगों को ही चिन्हित कर प्रमाणपत्र वितरित किये गए हैंजबकि इन खदानों में काम करने वाले मजदूरों की संख्या २०,००० के करीब है ।  ज्ञात हो कि सिलिकोसिस से पीड़ित व्यक्ति को राहत के रूप में १ लाख रुपए और मृत्यु पर ३ लाख रुपए का मुआवजा दिया जाता है ।
    किन मजदूरों को सिलिकोसिस हुआ है, उसकी पहचान भी बड़ी टेढ़ी खीर है । माह में एक बार न्यूमोकोनोसिस बोर्ड जिला मुख्यालय पर बैठता है और जांच करता है । यह जांच भी एक्सरे के  माध्यम से ही की जाती है, जिससे कई मरीज तो पकड़ में ही नहीं आ पाते हैं । राजस्थान में कहीं पर भी स्वच्छ अक्षर नहीं है जिस पर आसानी से सिलिकोसिस के लक्षण पढ़े जा सकते हैं । इसके अलावा स्वच्छ लक्षण भी राजस्थान में अभी नहीं    है ।
    यह खतरे वाला काम भी है क्योंकि इसमें सुई को फेफड़ों में घुसाकर वहां से नमूना लिया जाता है। हालाँकि भीलवाड़ा में बने दबाव से अब यह बोर्ड माह में २-३ बार बैठने लगा है। पहचान हो जाये तो भी मुआवजे की राशि मजदूरों के खातों तक पहुँचने में बड़ी दिक्कत है। कुछ मजदूरों का खाता तो जन-धन योजना के तहत खुला था, जिसमें ५०,००० रुपयों से ज्यादा की राशि जा नहीं सकती थी, इसलिये उनका चेक वापस आ गया ।
    मजदूर किसान शक्ति  संगठ न (एमकेएसएस) के निखिल डे इस प्रक्रिया पर सवाल खड़े करते हुए कहते हैं कि यह विरोधाभासी प्रक्रिया है । वे कहते हैं कि सिलिकोसिस की पहचान होने पर मजदूर को राहत राशि दी जायेगी । लेकिन यह राशि मिलने के लिये मजदूर को न्यूमोकोनोसिस बोर्ड को यह बताना पड़ेगा कि उसने किस खदान में काम किया है । वे कहते हैं कि सामान्यत: मजदूर कई खदानों में काम करते रहते हैं और खान मालिक भी मजदूरों का चुस्त दुरुस्त रिकार्ड नहीं रखते हैं । इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि कुछ लोगों को सिलिकोसिस केवल इसलिये भी हुई क्योंकि वे अप्रत्यक्ष रूप से इसके प्रभाव में हैं । उन्हें भी सिद्ध करना है कि उन्हें सिलिकोसिस कैसे हुई? जबकि माननीय उच्च्तम न्यायालय का कहना है कि राहत तो सभी को मिलना चाहिए ।
    वहीं यदि मजदूर की मौत हो जाए तो उसके परिवारजनों को ३ लाख रूपये की राशि मिलती है । लेकिन इसके पीछे भी एक प्रक्रिया   है । प्रभावित की मौत होने के बाद न्यूमोकोनोसिस बोर्ड के समक्ष ही उसका पोस्टपार्टम जरूरी है । उसके बाद ही उसे हकदार माना जाएगा । निखिल कहते हैं कि सिलिकोसिस एक लाईलाज बीमारी है और जब एक बार व्यक्ति का प्रमाणीकरण हो गया है कि वह सिलिकोसिस का ही मरीज है, तो फिर इसके क्या मायने हैं? यदि कोई मेडिकोलीगल मामला हो तो बात अलग है ।
    मजदूरों की त्रासदी यहीं नहीं कम होती है। जहाजपुर तहसील के गडबदिया गाँव के  मदनदास का दर्द अलग है । उनके गाँव में १५० मजदूरों में से केवल उनका ही सिलिकोसिस का प्रमाणपत्र बना । लेकिन उसके ठीक दूसरे दिन ही उनके सहित ४० लोगों को एक साथ काम से बिठा दिया गया है । एक तरफ श्रम कानून हैं, दूसरी ओर मदनदास जैसे लोग जमीनी चुनौतियों से जूझ रहे हैं । 
    इन पत्थर खदानों का गणित भी बड़ा ही गजब का है। पत्थर खदान की लीज पाने के लिए आवेदक को जिलाधीश कार्यालय में आवेदन देना होता है । इस आवेदन को कोई भी व्यक्ति  कर सकता है, पर यह भी उतना ही सच है कि खदानें रसूखदारों को ही मिलती है ? कहने को यह सभी के लिए खुली प्रक्रिया है परन्तु यही प्रक्रिया स्थानीय जनों और पंचायती राज के लिहाज से भी एक चुनौती ही है जबकि हम सभी जानते हैंकि स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय समुदाय का ही पहला हक है लेकिन ऐसा होता नहीं है ।
    अब सरकार कह रही है कि खदान मजदूरों के लिए खुली सांस प्रोजेक्ट शुरू होगा जिसमें कि भीलवाड़ा सहित अन्य १९ जिले शामिल हैं । ज्ञात हो कि राज्य के बीस जिलों के ३४ ब्लॉकों में व्यापक स्तर पर खनन का काम होता है। बहरहाल इस पूरी कवायद में यह तो तय है कि अभी हो रहे सारे जतन केवल फटे आसमां में थेगड़े लगाने जैसा है क्योंकि रोकथाम को लेकर तो कोई भी प्रयास नहीं है। हालाँकि इस समस्या का एक सिरा समाज की ओर भी आता है, क्या हम अपने घरों में चमचमाते पत्थरों से परहेज करने की तैयारी कर सकते हैं । 
पक्षी जगत
पक्षी विहार : पक्षियोंका नंदनवन
डॉ. किशोरीलाल व्यास
    हमारी संस्कृति पशु-पक्षियों को संरक्षण प्रदान करती है यदि इन मूल्यों को पुनरूज्जीवित किया जाए तो इस पक्षी विहार की गौरव-गरिमा पुन: लौटाई जा सकती है ।
    पक्षी ईश्वर के दूत होते है। वे प्रेम, सौन्दर्य, आनंद, उन्मुक्तता, स्वच्छन्दता और उदारता के प्रतीक   है । पक्षियों के लिए कहींकोई सीमाएं नहीं कहीं प्रतिबंध नहीं है । मानव के घोर स्वार्थ, अदूर दृष्टिकोण व्यवहार और मनमानी के कारण प्रकृति से कई प्राणियों का लोप हो गया है मनुष्य अपनी वीरता प्रदर्शन या अन्य कारणों से प्राणियों का अंधाधुंध शिकार करता है । 
     सौभाग्य से स्वतंत्रता के बाद ऐसे शिकार पर कानूनी प्रतिबंध लग गया । अपने आरंभिक दिनों में नव अमरीकनों ने, बाइसन नाम प्राणियों का जो कि जंगलों व मैदान में स्वच्छद झुण्ड के झुण्ड घूमा करते थे, इतना भयंकर संहारा किया कि बाइसन जाति के प्राणी प्राय: लुप्त् हो गये । पशुआें-पक्षियों का शिकार, गोश्त, चमड़ा, ऊन, झर, नाखून, सिंग, हडि्डयों, हाथी दांत आदि के लिए आज भी अवैध रूप से अबाध गति से चलता है । दवाई, तेल, फर-कोट, टोपी सजावटी वस्तुआें आदि के लिए शिकार किया जाता है । इन वस्तुआें की अवैध तस्करी कर, विदेश भेजी जाती है । तस्करी के अनेक अन्तर्राष्ट्रीय गुट बने हैं । यद्यपि ऐसे शिकार पर कानूनी प्रतिबंध है, पर यह कार्य गुप्त् रूप से जारी हैं जब तक दण्ड-विधान सख्त नहीं होगा तथा जन-जागरण नहीं आएगा, तब तक पशु-पक्षियों का शिकार अबाध गति से चलता    रहेगा । जंगलों का राजा सिंह प्राय: लुप्त् हैं अन्य लुप्त् होते जीवों में बाद्य, चीता, कस्तुरी मृग हैं जिसका पूरी तरह सफाया हो गया लगता है ।
    हिरण, कुरंग, छिपकलियां, हांगुल या कश्मीरी बारहसिंगा, बिल्ली, नेवला, बंदर, लंगूर, पहाड़ी भेड़, बकरियां, चकोर, मराल, गीदड़, लोमड़ी, काली गर्दन वाला सारस, बाज, सफेद पंख वाली बत्तख, सारंग, तोते आदि कई पक्षी हैं । हाथी, गैंडा जेसाविशाल पशु-समुद्री व्हेल जो दुनिया का सबसे बड़ा जानवर हैं आज इन सभी जीवों व प्राणियों का जीवन खतरे में है । इनसे चर्बी, तेल, हड्डी आदि कई चीजें मिलती है ।
    अपनी जरूरतों को इस क्रमश: कम करते जाएं । सादगी अपनाएं तथा पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों के प्रति बुद्ध और महावीर, वैष्णवों और संतों का करूणा भाव    अपनाएं ।
    अन्य प्राणियों के जीवन रक्षा का भाव प्राचीनकाल से हमारे परिवारों, समाजों तथा लोक जीवन का एक अनिवार्य अंग है । इसे नवीन पीढ़ी तक कारगर ढंग से पहुंचाए, यही हमारा लक्ष्य होना चाहिए । मानव जाति की सुरक्षा भारतीय जीवन विधान में ही निहित है । पशु-पक्षियों की सुरक्षा हमारी वैदिक परम्परा है । अत: हम इनके अधिकारों के प्रति सजग रहें तथा इनका सम्मान करें ।
    फूलोंके परागण, फलों, बीजों के वितरण आदि में पक्षी बड़े सहायक होते हैं । हमारी संस्कृति में कई पक्षियों को शुभ माना गया है । यथा नीलकंठ, गरूड़, मयुर आदि पक्षियों का आना जीवन का प्रतीक  है । जहां जीवन का आनंद है, वही पक्षी आएंगे ।
    राजस्थान का भरतपुर पक्षी विहार वहां से विशाल जलाशय के कारण है जिसे दो सौ वर्ष पूर्व वहां के नरेश ने निर्मित किया था । आज वहां साइबेरिया से सहस्त्रों मील की यात्रा तय कर हजारों प्रवासी पक्षी आते हैं । पक्षी विहार निर्मित करने के लिए सरोवर के तट पर गहन वृक्षारोपण किया जाना चाहिए । साथ ही पक्षियों की सुरक्षा भी सुनिश्चित की जानी चाहिए ।
    अंतत: वृक्षारोपण द्वारा ही घायल धरती को पुन: जीवनदान दिया जा सकता है । अत: हरित क्रांति कार्यक्रम को जीवन का अनिवार्य अंग बनाया जाना चाहिए । राजस्थान स्थित भरतपुर राष्ट्रीय पक्षी विहार देश का सबसे बड़ी पक्षी उद्यान है । जो लगभग ३० कि.मी. क्षेत्र में फैला   है ।
    आज से दो सौ वर्ष पूर्व भरतपुर के जाट राजा सूरजमल ने एक बरसाती नालों तथा बाण गंगा, परिल और गंभीर नदियों को रोककर, इसी निर्मित किया था । सन् १९५६ में इस क्षेत्रों में पक्षियों के लिए संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया । सूरजमल बड़े प्रतापी, वीर व दूरदृष्टि सम्पन्न राजा थे जिन्होंने मुगलों से वर्षो तक टक्कर ली । युद्ध में लड़ते हुए इनकी मृत्यु १७६३ में नदीम खां मुगल के हाथों में हुई थी ।
    राजा ने काफी लम्बा बांध बना दिया जिससे वर्षा का जल विस्तृत क्षेत्र में फैल गया । कतिपय वर्षो तक पानी संग्रहित होता रहा और जलीय प्रभाव के कारण अनेक पेड़ पौधे, जलीय वनस्पति, मछलियां इत्यादि स्वयं पनपने लगे । पेड़ बड़े और घने हो गये । किसी को पेड़ काटने की अनुमति नहीं थी । क्रमश: इन पेड़ों पर पक्षियों ने अपना डेरा बनाया । कालांतर में हजारों मील की यात्रा तय कर साहबेरिया से सारस तथा अन्य पक्षी आने लगे । इस क्षेत्र में लगभग ३५० प्रजातियों के पक्षी पाये जाते    हैं । जिनमें लगभग २०० भारतीय व १५० विदेशी व प्रवासी पक्षी होते हैं ।
    इस क्षेत्र में साइबेरिया, मंगोलिया, चीन, तिब्बत, मध्य एशिया आदि देशों में बढ़ी मात्रा में पक्षी आते हैं । इस पक्षी विहार में क्रमश: जीव वैविध्य पनपने लगा । चीतल, नील, गाय, जंगली सूअर, गीदड़, नेवले, सांप तथा अन्य छोटे बड़े कई प्राणी बसते है । पेन्टेड स्टार्क, ओपन स्टार्क, द ग्रेट बत्तखे, सारस जैसे पक्षी शीतकाल में यहां आंकर अंडे देते हैं फिर अंडो से बच्च्े निकलकर बड़े होते है । उड़ना और मछली का शिकार करना सीखते हैं और शीतकाल के समाप्त् होते ही लम्बी यात्रा पर निकल पड़ते हैं । हजारों मील उड़कर ये पक्षी अपने मूल स्थानों पर पहुंच जाते हैं ।
    फ्लेमिगो, आर्केटिक टन्र, सारस, इंजीरियल ईगल, स्टेप ईगल, मार्श हैटियर, कैंगर फाल्म आदि पक्षी भी आते हैं । भारतीय पक्षियों में नीलकंठ, बुलबुल, कठफोडवा, कबतूर, मोर और तरह-तरह की चिड़िया होती है । ये पक्षी इन पेड़ों पर अपना आहार व आश्रय पाते हैं । भरतपुर का पक्षी विहार विश्व प्रसिद्ध है । यह एक उथली मानव-निर्मित झील है जो इस बात की द्योतक है कि यदि वर्षा जल को छोटे बांधों द्वारा रोका जाए, तो जल के कारण जैव प्रक्रियाएं आरंभ हो जाती हैं । मनुष्य इस में हस्तक्षेप न करे तो क्रमश: जलीय वनस्पतियां पेड़ पौधे विकसित होते हैं । केचुएं, मछलियां, झिंगे आदि पनपते है । वन्य जीव जन्तु आ जाते हैं और पक्षियों का मेला आरंभ होता है ।
    दुर्भाग्य से झील जल संरक्षण क्षेत्र मं गांव वालों द्वारा पानी को रोक लिये जाने के कारण इस झील में प्रतिवर्ष जलस्तर कम होता जा रहा  है । प्रवासी पक्षियों की संख्या भी घट रही है । विश्व में दूसरे स्थान पर आने वाला यह पक्षी विहार धीरे-धीरे समाप्त् हो जाएगा, यदि इस झील पर ध्यान न दिया । अन्य अभ्यारण्यों तथा विहारों के समान जनसंख्या का दबाव यहां भी देखा जा सकता है ।
    वर्षा जल संचयन द्वारा इस प्रकार के अनेक जलाशय निर्मित किये जा सकते हैं । हमारे देश में जो पानी बरसता है, उसमें से अधिकांश मात्र में जल व्यर्थ बह जाता है । यदि निश्चयपूर्वक ग्रामीण सरोवरों का उद्धार किया जाय, नये जलाशय निर्मित किये जांय, पुराने गाद भरे जलाशयों से मिट्टी निकाल दी जाए, सरोवरों की सीमा निर्धारित की जाए तथा इनकी मेड पर वृक्षों की गहरी बाड़ लगाई जाय, तो सहज ही ये सरोवर पक्षी विहार का रूप धारण कर लेंगे । जल धाराआें को रोककर तथा वृहत् वृक्षारोपण द्वारा जैव विविधता की रक्षा की जा सकती    है ।
खास खबर
नर्मदा सेवा यात्रा, एक जन आंदोलन
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)
    मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी नदी नर्मदा के सरंक्षण को जन -आंदोलन बनाने के लिये मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा ११ दिसम्बर से नर्मदा के उदगम-स्थल अमरकंंटक से नमामि देवी नर्मदे-नर्मदा सेवा यात्रा का शुभारंभ किया गया है । यह दुनिया का सबसे बड़ा नदी संरक्षण अभियान है, जिसमें साधु-संत, जन-प्रतिनिधि और आम लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की गयी है ।
    नर्मदा सेवा यात्रा का संचालन १४४ दिन में लगभग २०० सदस्यों के कोर-ग्रुप द्वारा अमरकंटक से सोण्डवा (प्रदेश में नर्मदा प्रवाह का अंतिम स्थल) से पुन: अमरकंटक तक की यात्रा के रूप में किया जायेगा । यात्रा के दौरान नर्मदा तटीय क्षेत्र मेंचिन्हांकित स्थानों पर संगोष्ठी, चौपाल और विविध गतिविधियाँ होगी, जिनके जरिये जन-समुदाय को नर्मदा नदी के संरक्षण की जरूरत और वानस्पतिक आच्छादन, साफ-सफाई, मिट्टी एवं जल-संरक्षण, प्रदूषण की रोकथाम आदि के बारे मेंजागरूक किया जायेगा । 
    यात्रा अमरकंटक से ११ दिसम्बर से शुरू होकर ११ मई २०१७ को अमरकंटक मेंही समाप्त् होगी । यात्रा का नेतृत्व करने के लिये लगभग २०० विषय-विशेषज्ञों, स्वयंसेवी, समाज-सेवी और जनप्रतिनिधियों का कोर-ग्रुप बनाया गया है ।
    नर्मदा नदी देश की प्राचीनतम नदियों में से है, जिसका पौराणिक महत्व गंगा के समान माना जाता है । नर्मदा अनूपपुर जिले के अमरकंटक की पहाड़ियों से निकलकर मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से होकर करीब १३१० किलोमीटर का प्रवाह-पथ तय कर गुजरात के भरूच के आगे खम्भात की खाड़ी में विलीन हो जाती है । मध्यप्रदेश में नर्मदा का प्रवाह क्षेत्र अमरकंटक (जिला अनूपपुर) से सोण्डवा (जिला अलीराजपुर) तक १०७७ किलोमीटर है, जो नर्मदा की कुल लम्बाई का ८२.२४ प्रतिशत है ।
    नर्मदा अपनी सहायक नदियोंसहित प्रदेश के बहुत बड़े क्षेत्र में सिंचाई और पेयजल का बारहमासी स्त्रोत है । नदी का कृषि, पर्यटन और उद्योगों के विकास में अति महत्वपूर्ण योगदान है । इसके तटीय क्षेत्रों में उगाई जाने वाली मुख्य फसलें धान, गन्ना, दाल, तिलहन, आलू, गेहूँ, कपास आदि   हैं । नर्मदा तट पर ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पर्यटन-स्थल हैं, जो देश-प्रदेश, विदेश के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं । नर्मदा नदी का सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, साहित्यिक रूप से काफी महत्व है ।
    नर्मदा नदी देश की अन्य बड़ी नदियों की बनिस्फत साफ है । इसके बावजूद इसमें प्रदूषण न बढ़े, लोग संरक्षण के प्रति जागरूक हों, उसके संसाधनों का समुचित उपयोग हो और आने वाली पीढ़ियों को स्वच्छ जल मिले, इसलिये इसके संरक्षण के कार्य को जन-आंदोलन बनाया जा रहा है ।
    नर्मदा सेवा यात्रा का उद्देश्य टिकाऊ एवं पर्यावरण हितैषी कृषि पद्धतियों को अपनाने के लिये जन-जागृति, प्रदूषण के विभिन्न कारकों की पहचान और रोकथाम, जल-भरण क्षेत्र में जल-संग्रहण के लिये जन-जागरूकता, नदी की पारिस्थितिकी में सुधार के लिये गतिविधियों का चिन्हांकन और उनके क्रियान्वयन में स्थानीय जन-समुदाय की जिम्मेदारी तय करना, मिट्टी के कटाव को रोकने के लिये पौधे लगाना आदि है ।
    मध्यप्रदेश मेंनर्मदा नदी १६ जिले और ५१ विकासखण्ड से होती हुई १०७७ किलोमीटर का मार्ग तय करती है । यात्रा अवधि में लगभग ११०० कस्बों तथा ग्रामों के लोगों की सहभागिता होगी । कोर-ग्रुप/यात्रा दल इस अवधि में लगभग ३३५० किलोमीटर की यात्रा करेगा । यात्रा उज्जैन, इंदौर, भोपाल, होशंगाबाद और रीवा संभाग के १६ जिले अनूपपुर, डिण्डोरी, मण्डला, सिवनी, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, हरदा, खण्डवा, खरगोन, बड़वानी, अलीराजपुर, धार, देवास, सीहोर और रायसेन जिले से गुजरेगी ।
    यात्रा में विषय-विशेषज्ञों और जन-समुदाय की सहभागिता के लिये चिन्हित कस्बों और गाँव में ग्रामवासियों  के सहयोग से चौपालें होंगी, जिनमें कोर-ग्रुप नदी के सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं धार्मिक महत्व की जानकारी देंगे । इनमें प्रदूषण के कारकों, स्त्रोतों और जीवन के विविध आयामों से संबंधित पर्यावरण संरक्षण की सतत चलने वाली गतिविधियों पर भी चर्चा की जायेगी । नर्मदा नदी के संरक्षण, समस्या आदि पर गाँववालों द्वारा दिये गये सुझावों का भी संकलन किया जायेगा । सहज रूप से जानकारी देने के लिये स्थानीय कलाकारों के सहयोग से नदी संरक्षण पर कार्यक्रम भी होंगे ।
    कोर ग्रुप स्थानीय समुदाय के सहयोग से पौधा रोपण, मृदा एवं जल-संरक्षण, स्वच्छता, जैविक कृषि प्रोत्साहन, प्रदूषण की रोकथाम से संबंधित साकेतिक गतिविधियाँभी करेगा । वर्तमान में कचरे के प्रबंधन के लिये प्रचलित विधियों को केन्द्र में रखते हुए नर्मदा नदी के प्रदूषण को कम करने के उपायों पर बल दिया जायेगा ।
    यात्रा के दौरान एप्को द्वारा समुदाय स्वच्छता, श्रमदान एवं पौधा-रोपण कार्यक्रम भी होंगे । इनमें राष्ट्रीय पर्यावरण, जागरूकता अभियान से जुड़ी संस्थाएँ भाग   लेगी । एप्को द्वारा नदी स्वच्छता कार्यक्रम में नदी संरक्षण का सांस्कृतिक महत्व, जलीय चट्टानों के पुनर्भरण में नदी का महत्व, नदी प्रदूषण एवं जल गुणवत्ता, नदियों एवं जन-सामान्य का स्वास्थ्य, घाटों की सफाई एवं नदी के किनारों का विकास, स्थानीय वनस्पति एवं वृक्षारोपण द्वारा नदी का पुनर्जीवीकरण की गतिविधियाँ भी होगी ।
होली पर विशेष
पर्यावरण मित्र होली और गोरक्षा
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

    इन दिनों गाय के गोबर से बने कन्डों से होली जलाने के लिए सामाजिक स्तर पर जनचेतना अभियान चलाया जा रहा है । यह एक सामयिक कदम हैं जिससे गोरक्षा और पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्यों में सफलता प्राप्त् की जा सकती है । मालवा क्षेत्र में प्राचीन काल से ही पर्यावरण मित्र होली की परम्परा रही है । मालवा की प्राचीन नगरी उज्जैन में सिंहपुरी की होली का नाम इसमें प्रमुखता से आता है ।
    उज्जैन शहर में सिंहपुरी में विश्व की सबसे प्राचीन होली हमें पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन का संदेश देती है । वनों को बचाने के लिए यहां लकड़ी से नहीं बल्कि गाय के गोबर से बने कंडो की पारंपरिक होलिका का दहन किया जाता है । 
     भारत एक कृषि प्रधान देश   है । हमारी संस्कृति कृषि प्रधान है । विश्व में भारत ही ऐसा देश है जहां सदियों से करोड़ों लोग निरामिषभोजी रहे हैं । वैदिक काल में ही हमने गाय को अवधा मानकर पारिवारिक सदस्य का दर्जा दिया था । वेदों में गाय के लिए विश्व माता संबोधन किया गया है । गाय को गोमाता के रूप में पूज्य मानने में केवल धार्मिक आग्रह ही नहीं है, अपितु ये पशु और मानव संबंधो के मानवीय आधार की सर्वोत्कृष्ट परम्परा और भारत की सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतीक है । महाभारत में यक्ष के प्रश्न अमृत क्या है ? के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर कहते है गाय का दूध ही अमृत हैं ।
    कृषि भारतीय अर्थतंत्र का आधार है । पशु सम्पदा भारतीय कृषि और किसान की बहुमूल्य निधि है । हमारी कृषि प्रणाली में हर स्तर पर पशु पक्षी की महत्वपूर्ण भूमिका है । कृषि में खेत जोतने, बीज बोने से फसल आने तक और फिर कृषि उत्पादन को बाजार तक पहुंचाने के विविध कार्यो में पशु शक्ति का उपयोग होता है । देश में उपयोग आने वाली कुलऊर्जा का एक तिहाई भाग पशु एवं मानव शक्ति से प्राप्त् होता   है । गाय और गोवंश की देश में कृषि, चिकित्सा स्वास्थ्य, ऊर्जा, उद्योग और अर्थव्यवस्था के साथ ही पर्यावरण संतुलन में अपनी भूमिका है । गोवंश को सम्मान देने के लिए ही हमारे राष्ट्रीय चिन्ह में नंदी विद्यमान है ।
    आधुनिक कृषि में हरित क्रांति के बाद रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से खेतों में मृदा में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवाणु की संख्या अत्यन्त कम होती जा रही है । इससे कृषि पैदावार पर विपरीत असर पड़ रहा है । महंगी होती कृषि मेंबढ़ते घाटे के कारा पिछले एक दशक में देश में करीब दो लाख किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा । इसलिए खेती में आज गाय और गोवंश के महत्व को फिर से स्थापित करने की आवश्यकता है ।
    गाय कभी भी किसान के लिए अनुपयोगी नहीं होती है । गाय बूढ़ी हो जाये या दुध देना बंद कर दे तो भी गोबर और मूत्र के जरिये उसका आर्थिक स्वावलंबन बना रहता है । एक गाय प्रतिदिन करीब १० किलोग्राम के हिसाब से वर्ष भर में ३६५० किलोग्राम गोबर देती है, जिससे करीब ६०००० रूपये मूल्य की कम्पोस्ट खाद बनायी जा सकती है । इसके साथ ही करीब १५०० लीटर गो मूत्र उपलब्ध होता है । इससे बनने वाली दवाईयां और कीटनाशक से २०००० रूपये मिल सकते हैं । गोघृत में वायुमण्डल को शुद्ध करने की अलोकिक शक्ति होती है । इसलिए गाय का ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रहा है ।
    देश में आथिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अपना महत्वपूर्ण स्थान होने के बाद भी आज देशी गाय अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है । भारतीय देशी गाय की सेकण्डों नस्लों में से केवल ३३ ही बची है, समय रहते नहीं चेते तो भारतीय गाय की सभी नस्ले समाप्त् होने में देर नहीं लगेगी । इसलिए संकर प्रजनन पर रोक लगाकर भारतीय नस्लों की शुद्धता की रक्षा करनी होगी । गोपालन के लिए सामाजिक स्तर पर अभियान चलाने की आवश्यकता है । हमारे देश में १९५१ में प्रति हजार व्यक्ति पीछे ४३० गोवंश था जो २००१ में प्रति हजार ११० ही रह गया था । यदि गो संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में प्रति हजार २० का औसत हो जायेगा ।
    भारत में पशुआें के वध का सवाल अर्थतंत्र के साथ ही सांस्कृतिक मूल्यों, पर्यावरणीय संतुलन और हमारी जैव विविधता से जुड़ा हुआ   है । पशु पक्षियों के प्रति प्रेम और आदर की भावना हमारी जातीय परम्पराआें ओर संस्कृति की शिक्षाआें में हैं । हम यह कैसे भूल सकते हैं कि हमारे प्रथम स्वतंत्र संग्राम १८५७ की चिंगारी के पीछे गो हत्या विरोध की भावना ही मुख्य थी । यह विडंबना ही कही जाएगी की देश में मांस और चमड़े का व्यापार प्रति वर्ष बढ़ता जा रहा है, सरकार वध शालाआें के आधुनिकीकरण पर करोड़ों रूपये खर्च कर रही है ।
    देश में गोवंश एवं पशुआें की रक्षा के लिए कई कानून बने है । १९६० में भारत सरकार ने पशु क्रूरता निवारण अधिनियम बनाया, जिसमें पशुआें के सहजतापूर्वक परिवहन के लिए भी नियम निर्धारित किये गए । केन्द्र के साथ ही गोवंश के वध एवं अवैध परिवहन को रोकने में राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात सहित अनेक राज्यों में कठोर कानून बनाये गए है । इन कानूनों का व्यवहारिक रूप से पालन सुनिश्चित करना पुलिस के लिए बड़ी चुनौती   है । कानून व्यवस्था और अपराधों से जूझती पुलिस के लिए पुशआें की सुरक्षा के लिए समय का संकट बना रहता है । इसलिए पुलिस, वनरक्षक और अन्य बलों के सामान पशुधन की रक्षा के लिए विशेष सुरक्षा बल के गठन की मांग गो प्रेमी संगठन वर्षो से कर रहे है । इसके अतिरिक्त ग्रामो/शहरों में पशुपालन के प्रति जागरूक पशु पालकों को चारा पानी के लिए अनुदान की व्यवस्था होनी चाहिए ।
कविता
पावन रहे नर्मदा मैया
शक्ति रावत
    आओ मिलकर प्रण लें सारे, शपथ उठाएं मैया ।
    निर्मल, स्वच्छ सर्वदा पावन रहे नर्मदा मैया । ।
    यह प्रदेश की जीवन रेखा, संस्कृति है धारा ।
    इसको संरक्षित करने का, है संकल्प हमारा ।।
    बनी रहे हम सब के उपर इसकी शीतल छैंया ।
    निर्मल, स्वच्छ सर्वदा पावन रहे नर्मदा मैया ।।
    नमामि देवी नर्मदे का घोष बड़ा ही प्यारा ।
    हर तट पर फैले हरियाली, चमके हर एक किनारा ।।
    आने वाले युगों-युगों तक रूके ना इसकी धारा ।
    जन अभियान को सफल बनाएं, है कर्तव्य हमारा ।।
    इसके जल में कंकर, शंकर, इसी में कृष्ण-कन्हैया ।
    निर्मल, स्वच्छ सर्वदा पावन रहे नर्मदा मैया ।।
    आओ मिलकर प्रण लें सारे, शपथ उठाएं भैया ।
    निर्मल, स्वच्छ सर्वदा पावन रहे नर्मदा मैया ।।
पर्यावरण समाचार
गंगा में डाल्फिन की संख्या पता लगाने का सर्वेक्षण
    केंद्र सरकार ने गंगा की लुप्त्प्राय डाल्फिन समेत जलचर जीवों की संख्या पता लगाने के लिए पूरी नदी का सर्वेक्षण शुरू किया है । यह सर्वेक्षण नमामि गंगे कार्यक्रम के तहत किया जाएगा ।
    सर्वेक्षण इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि नदी के जीवों की संख्या से पानी की गुणवत्ता का पता चलता है । इससे मिले वैज्ञानिक डाटा की मदद से सरकार गंगा के पानी की गुणवत्ता सुधारने के लिए उपयुक्त कदम उठाएगी । राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में नरोरा से बिजनौर के बीच सर्वेक्षण का पहला चरण पिछलों दिनों शुरू किया गया ।
    इस दौरान गंगा में करीब १६५ किलोमीटर में राष्ट्रीय जल प्राणी डाल्फिन की संख्या का पता लगाया जाएगा । इलाहाबाद से वाराणसी (करीब २५० किलोमीटर) तक गणना का काम इस सप्तह शुरू होने की उम्मीद है । उत्तराखंड के हर्षिल से भी नदी में मछली की प्रजातियों का पता लगाने का अध्ययन शुरू किया गया है ।
    यह सर्वेक्षण भारतीय वन्यजीव संस्थान के जरिये कराया जा रहा है । पर्यावरण और वन एनएमसीजी के सलाहकार ने कहा कि सर्वेक्षण से डाल्फिन की स्थिति और उनको होने वाले खतरे के स्तर का पता चलेगा । गंगा में पहले भी टुकड़ों में सर्वेक्षण कराए गए लेकिन पहली बार व्यापक और वैज्ञानिक अध्ययन किया जा रहा है । एनएमसीजी के मुताबिक, गंगा में डाल्फिनों के अलावा घड़ियाल और कछुआें की संख्या का भी पता लगाया जाएगा । यह गणना इस साल अक्टूबर तक चलेगी ।
    केद्रंीय जल संसाधन मंत्रालय के सूत्रोंके मुताबिक सर्वेक्षण २०१५ में किया जाना था । लेकिन राज्यों के बीच समन्वय के अभाव में ऐसा नहीं हो सका । हालांकि उत्तरप्रदेश में सर्वेक्षण कराया था । पांच अक्टूबर से आठ अक्टूबर २०१५ के बीच कराए गए  इस सर्वेक्षण में १,२६३ डाल्फिन पाई गई  थी ।
    यह सर्वेक्षण राज्य में ३३५०  किलोमीटर में गंगा और उसकी सहायक  नदियों में कराया गया । वैज्ञानिकों ने कानपुर में गंगा के बढ़ते प्रदूषण के चलते डाल्फिन के विलुप्त् होने पर चिंता जतायी थी ।