रविवार, 15 मार्च 2015

ज्ञान-विज्ञान
नई तकनीक से बदल देंगे क्षतिग्रस्त मस्तिष्क 
इटली के एक सर्जन की मानें तो दुनिया का पहला मानव सिर प्रत्यारोपण अगले दो साल में संभव हो सकता है । सर्जन ने इस विलक्षण ऑपरेशन के लिए तकनीक विकसित करने का दावा किया है । इटली के तुरिन एडवांस्ड न्यूरोमोड्यूलेशन ग्रुप के सर्जन सर्गियोंकैनावेरो ने तकनीक का विवरण देते हुए कहा कि उन्हें विश्वास है कि इससे डॉक्टरों को सिर को एक नए शरीर में प्रत्यारोपित करने में मदद मिलेगी । कैनावेरो ने २०१३ में पहली बार इस तरह का विचार सामने रखा था । 
इस तकनीक के तहत प्राप्त्कर्ता के सिर और डोनर के शरीर को ठंडा किया जाता है ताकि उनकी कोशिकाआें के ऑक्सीजन के बिना जीवित रहने का समय बढ़ाया जा सके । कैनावेरो ने कहा कि गले के आसपास के टिश्यू को अलग किया जाता है और इंसान की रीढ़ की हडि्डयों को काटे जाने से पहले बड़ी रक्त नालिकाआें को छोटे ट्यूब की मदद से जोड़ा जाता है, सफाई से हडि्डयों को अलग करना बहुत महत्वपूर्ण है, इसके बाद प्राप्त्कर्ता के सिर को डोनर के शरीर में लगाया जाता है और रीढ़ की हड्डी के दोनों सिरों को जोड़ा जाता है । कैनावेरो की आगामी जून माह में अमेरिका के मेरीलैड के अन्नापोलिस मेकं अमेरिकन एकेडमी ऑफ न्यूरोलॉजी एंड ऑथरेपेडिक सर्जन्स के वार्षिक सम्मेलन में परियोजना की घोषणा करने की योजना है ।  
परजीवियों की करामातें 
यह बात तो काफी समय से पता है कि परजीवी जन्तु अपने मेजबान के व्यवहार को बदल देते   हैं । जैसे यह देखा गया है कि कुछ कृमि जिस चींटी के शरीर में रहते है उसके व्यवहार पर असर डालते है । चींटी का पेट लाल हो जाता है और वह पेट को ऊपर उठाकर चलने लगती है । इस वजह से वह किसी पके हुए फल की तरह नजर आने लगती है जिसे कोई पक्षी धोखे में खा लेता है । कृमि को फायदा यह होता है कि उसके जीवन चक्र का अगला चरण पक्षी में ही पूरा होता है इसलिए उसे किसी पक्षी के शरीर में पहुंचना जरूरी होता है । चींटी का व्यवहार यह कृमितभी बदलता है जब वह किसी पक्षी के शरीर में जाने की अवस्था में आ जाता है । 
यही बात मनुष्यों के संदर्भ मेंभी कही गई है । कहते है कि एक प्रोटोजोआ परजीवी टोक्सोप्लाज्मा गोंडी अपने मेजबान मनुष्य के व्यवहार को बदलता है और वह व्यक्ति  ज्यादा खतरे उठाने को तैयार रहता  है । परजीवी मेजबान का यह रिश्ता अब एक फीता कृमि और कोपेपॉड नामक एक जीव के बीच भी देखा गया है । मैक्स प्लांक, इंस्टीट्यूट फॉर इवॉल्यूशनरी बायोलॉजी की निना हैफर और मैनफ्रेड मिलिस्की ने एक कोपेपॉड मे परजीवी फीता कृमि प्रविष्ट करा दिए । ये फीता कृमि इस कोपेपॉड के शरीर में जीवन चक्र का कुछ हिस्सा बिताने के बाद किसी मछली के शरीर मेंपहुंचने को उत्सुक रहते है । ये जब मछली में पहुंचने की अवस्था में आते है तो कोपेपॉड को अति-सक्रिय कर देते हैं ताकि वह खूब घूमे-फिरे और किसी मछली द्वारा खा लिया जाए । 
हैफर और मिलिस्की यह देखना चाहते थे कि यदि एक के बजाय दो परजीवों हो तो क्या होगा तो उन्होनेंं एक कोपेपॉड में दो कृमिप्रविष्ट करा दिए । शोध पत्रिका इवॉल्यूशन में अपने शोध पत्र में उन्होनें बताया कि ऐसा करने पर वह कोपेपॉड और भी अधिक सक्रिय हो गया । मगर जब कोपेपॉड में डाले गए कृमिअलग-अलग उम्र के थे तो मामला कुछ पेचीदा रहा । 
जब दो अलग-अलग उम्र के कृमि कोपेपॉड मेंडाले गए तो उनकी जीवन चक्र की अवस्थाएं भी अलग-अलग थी । ज्यादा उम्र वाले कृमि के लिए वक्त आ चुका था कि वह किसी मछली मेंपहुंचे जबकि कम उम्र वाले कृमि के लिए कोपेपॉड में ही बने रहना जरूरी था । यानी ये दो कृमि कोपेपॉड के व्यवहार पर विपरीत प्रभाव डालने के इच्छुक थे । एक उसे सक्रिय बनाना चाहता था तो दूसरा निष्क्रिय । प्रयोग में देखा गया कि इस संघर्ष में बड़ी उम्र वाला कृमि जीत गया वह कोपेपॉड को सक्रिय बनाने में सफल हुआ । 
हैफर के मुताबिक इससे लगता है कि बड़ी उम्र का कृमि दूसरे कृमि के असर को खत्म करने के लिए कुछ करता है । उनके मुताबिक यदि दोनों अपना-अपना असर दिखाते तो कोपेपॉड की सक्रियता बीच में कहीं रहनी थी । इस प्रयोग से एक तो यह पता चलता है कि परजीवी अपने फायदे के लिए मेजबान की जीवन शैली को प्रभावित करते है और दूसरा कि वे एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा भी करते हैं। 

विस्फोटक रसायन से बनेगी मधुमेह की दवा 
अमेरिका के येल विश्वविघालय के वैज्ञानिकों ने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान विस्फोटक बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाले एक रसायन के जरिए अब मधुमेह की कारगर दवा बनाने का दावा किया है। 
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान डिनीट्रोफीनोल (डीएनपी) नाम का यह रसायन फ्रांस के हथियार बनाने वाले कारखानों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता था । इसे पीरिक एसिड के साथ मिलाकर विस्फोटक बनाए जाते    थे । कुछ दिनोंबाद यह देखने में आया कि जिन कारखानों में इसका इस्तेमाल हो रहा है वहां काम करने वाले मजदूर पसीने से लथपथ हो जाते हैं । इसके कारण उनका वजन भी बहुत ज्यादा घट रहा है । स्टैनफोर्ड विश्वविघालय के वैज्ञानिकों को इस पर शोध करना शुरू कर दिया । यह शोध विज्ञान पत्रिका साइंस जर्नल में प्रकाशित हुआ है । 
इस दौरान पता लगा कि इस रसायन के साथ संपर्क में आने वालों के शरीर की वसा बहुत तेजी से घटने लगी है । वैज्ञानिकों को लगा कि यह रसायन वजन घटाने वाली दवाआें में इस्तेमाल किया जा सकता है । बस फिर क्या था आनन फानन में बाजार में इस रसायन से युक्त २० किस्म की दवाएं बाजार में आ गई । १९३० के आते-आते इस दवा के फायदोंसे ज्यादा दुष्प्रभाव लोगों पर दिखने लगे । यहां तक की एक व्यक्ति की इसे खाने से मौत भी हो गई । जब यह खबर प्रकाशित हुई तो दवा बाजार से हटा ली गई । 
लगभग ८५ वर्षो बाद वैज्ञानिकों को एक बार फिर से डीएनपी रसायन की याद आई और उन्होनें इसके बेहद कम इस्तेमाल से मधुमेह की दवा बनाने का इरादा कर लिया । इस बार नई दवा में डीएनपी रसायन का बहुत कम इस्तेमाल किया गया यानी पहले जितना किया गया था उसका सौंवा हिस्सा ही लिया गया । 

माचीस की तीलियों से अनाज सुरक्षा
आपको सुनकर यह भले ही अजी लगे लेकिन यह सच है कि देश के अनेक हिस्सों में किसान अनाज भण्डारण की सुरक्षा के लिए अत्यन्त जहरीली सल्फास की गोलियों की जगह माचिस की तीलियों का सहारा ले रहे हैं।
   राष्ट्रीय समेकित नाशी जीव प्रबंधन अनुसंधान केन्द्र के निदेशक चितरंजन चट्टोपाध्याय ने पिछले दिनों एक सम्मेलन में जानकारी दी कि उ.प्र., हरियाणा तथा कई अन्य राज्यों के किसान माचीस की तीलियों और खान पकाने की गैस के पुराने पाइप से अनाज भण्डारण की सुरक्षा करते है ।
   उन्होने बताया कि किसान कीटनाशकों की जगह अनाज की एक परत के बाद माचीस की पांच-छह तीलियां डाल देते है फिर उसके ऊपर अनाज की एक परत डालते है । इसी तरह यह क्रम चलता रहता है, अनाज भण्डारण को सुरक्षित रखने के लिए कुछ किसान गैस पाईप के छोटे-छोटे टुकड़े काटकर अनाज के बीच में डालते हैं इससे कीडें अनाज को नुकसान नहीं पहुँचाते है । 

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