गुरुवार, 15 मार्च 2018

सामयिक
पर्यावरण सम्मत होली और प्रकृति संरक्षण
कुमार सिद्धार्थ
विविधता मेंएकता भारतीय संस्कृति की विशेषता ाहै । होली के दिन हर गली और हर घर रंगोंमें सराबोर नजर आता है । हर रंग का महत्व होता है । भारत में हर अवसर लिए एक रंग है । हर रंग जीवन को शक्ति देता है और जीवन को एक अलग महत्व देता है । लेकिन बदरंग होती होली की परम्परा से प्रकृति और पर्यावरण पर सीधा असर पड़ने लगा है ।
भारत देश के परंपरा, संस्कृति और त्योहार लोगो को एक दूसरे के नजदीक लाते है और उन्ही त्योहारोंमें से एक है रंगो का महोत्सव होली । हमारे देश में रंगों के त्योहारों होली का अपना अनोखा महत्व है । होली का अथ है सूख, शांति, अच्छे धन-धान्य तथा समृद्ध जीवन की कामना । प्रेम, सद्भावना और मेलजोल के लिए हम आपस में अबीर-गुलाल और रंग बिरंगे रंगों का प्रयोग करते है तब मानो ऐसा प्रतीत होता है कि सारे भाषा, धर्म और संस्कृतिके भेद और उंच-नीच की दीवारें टूट गई है ।
लेकिन बदलते हालातों में होली की परंपरा अब उतनी खूबसूरत नहीं रह गई, जितनी पहले हुआ करती थी । आधुनिक होली हमारे प्रकृतिऔर पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हो रही है । पानी, लकड़ी और रसायनों का बढ़ता प्रयोग इसके स्वरुप को दूषित कर रहा है । पर्यावरण के प्रति सजग लोग और समाज इसके लिए जरुर प्रयासरत है, लेकिन इसके बावजूद हजारोंक्विंटल लकड़ियां, लाखों लीटर पानी की बर्बादी और रासायनिक रंगों का प्रभाव मनुष्य की सेहत और पर्यावरण पर हो रहा है ।
हर गली-मोहल्ले में होली जलाई जाती है और सैंकड़ों टन लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है । एक होली में औसतन ढाई क्विंटल लकड़ी जलती है । यदि हम एक शहर में जलने वाली होलिका दहन स्थलों की संख्या से हिसाब लगाएं तो लगभग १२ लाख किलो लकड़ी हर साल होली पर जला दी जाती है । होली पर इस तरह हर साल लाखों क्विंटल लकड़ी जलना चिंताजनक है । जबकि पुराने जमाने में घर-घर से लकड़ी लेकर होलिका जलाने की प्रथा थी । अब समय आ गया है कि हर चौराहे पर सामूहिक होलिक का दहन किया जाना चाहिए । दूसरा विकल्प यह भी है कि अपना देश कृषि और पशुधन की अपार संपदा से भरापूरा है । यहां पशुआें के बहुतायत में होने से गोबर होता है । मध्यप्रदेश गोपालन और संवर्धन बोर्ड के अनुसार मध्यप्रदेश में उपलब्ध पशुधन से रोजाना १५ लाख किलो गोबर निकलता है । १० किलो गोबर से पांच कंडे बनाए जा सकते है । यानी प्रदेश मेंरोज साढ़े सात लाख कंडे बन सकते है । इसलिए लकड़ी की जगह कंडो की होली जलाकर एक सामाजिक सरोकार को नुकसान होने से बचाया जा सकता है ।
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के रसायन शास्त्री डॉ. मानसकांत देब कहते है कि लकड़ी के बजाए कंडे की होली के कई फायदे है । लकड़ी के बराबर कंडे की होली का वजन बीस गुना से कम होता है । इसलिए धुआं भी कम होता है । तेज आंच मेंकंडे तुरंत जलकर खत्म हो जाते है । जबकि जली लकड़ी की बची हुई राख हवा में मिलकर और धातक हो जाती है साथ ही हजारों किलो कार्बन हवा में घुलता है ।
कोई त्यौहार बाजार के प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकते है इस वजह से होली के त्यौहार की प्रकृति ही बदल गई है । अब प्राकृतिक रंगोंके जगह रासायनिक रंग, ठंडाई की जगह नशा और लोक संगीत की जगह फिल्मी गीतोंने ले लिया है । रंगों में रसायनों की मिलावट होली के रंग मेंभंग डालने का काम करता है ।
प्रकृति मेंअनेक रंग बिखरे पड़े है । पहले समय में रग बनाने के लिए रंग-बिरंगे फूलोंका प्रयोग किया जाता था, जो अपने प्राकृतिक गुणोंके कारण त्वचा को नुकसान नहीं होता था । लेकिन बदलते समय के साथ शहरों और आबादी का विस्तार होने से पेड़-पौधो की संख्या में भी कमी होने लगी । सीमेंट के जंगलो का विस्तार होनेे से खेती कृषि प्रभावित हुई है । जिससे फूलोंसे रंग बनाने का सौदा महंगा पड़ने लगा ।
होली पर हम जिसे काले रंग का उपयोग करते है, वह लेड ऑक्साइड से तैयार किया जाता है । इससे किडनी पर खतरा होता है । हरा रंग कॉपर सल्फेट से बनता है, जिसका असर आंखो पर पड़ता है । लाल रंग मरक्यूरी सल्फाइट के प्रयोग से बनता है । इससे त्वचा का कैंसर हो सकता है । ऐसे ही कई रासायनिक रंग है, जो स्वास्थ्य को हानि पहुंचाते है । इसलिए हमें सोचना होगा कि होली के त्यौहार पर अपनों को रंगनेके लिए प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाए, जो न तो हानिकारक होते है और न ही पर्यावरण को काई नुकसान पहुंचता है ।
क्या आप जानते है कि होली पर हम किस हद तक पानी की बर्बादी करते है? बेशक दुनिया का दो तिहाई हिस्सा पानी से सराबोर है, लेकिन इसके बावजूद भी पीने के पानी की किल्लत हर जगह है । अनुमान है कि होली खेलने वाला प्रत्येक व्यक्ति रोजमर्रा से ५ गुना ज्यादा पानी खर्च करता है । इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पूरे इलाके मेंहोली खेलने के दौरान कितने गैलन पानी बर्बाद होता है ।
अब वक्त आ गया है कि बिगड़ते पर्यावरण को बचाने के लिए हमेंअपने त्यौहारों के स्वरुप को भी बदलना होगा । ऐसे में होली के त्यौहार को भी पर्यावरण सम्मत रुप से मनाये जाने पर गंभीरता से सोचा जाना चहिए । अब जैविक खेती से लेकर जैविक खाद का प्रयोग प्रचलन में है । जैविक होली के प्रयोग के लिए देश  के कुछ शहरों में सक्रिय संगठन लोगों को जागरुक करनेके लिए आगे आए है । ये संगठन जैविक होली को अपनाना होगा । इसी तरह के विकल्पोंऔर प्रयोगों से होली के स्वरुप और परंपरा को बरकरार रखा जा सकेगा और प्रकृति के संरक्षण के दिशा में एक कदम बेहतरी की ओर बढ़ा सकेंगे ।                                       ***

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