सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

शिक्षा जगत
शिक्षा और समाज की अपेक्षायें 
अनिल सिंह
हमारे समय के प्राय: सभी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक तक संकटों पर नजर डालें तोसाफ देखा जा सकता है कि इनकी बुनियाद में वह विरोधाभास है जोएक तरफ, संविधान और लोकतंत्र के आदर्शों और दूसरी तरफ, मौजूदा समाज की आकांक्षाओं के बीच की टकराहट के नतीजेमें उभरा है। शिक्षा इस लगातार बढ़तेविरोधाभास कोरोकने, नियंत्रित करनेमें खासी भूमिका निभा सकती है, लेकिन वह खुद तरह-तरह के पूर्वाग्रहों, ढांचों और बंधनों में फंसी है ।

सभी मानतेहैं कि 'शिक्षा मुक्ति का साधन है, यह मानव कोबंधनों सेमुक्त करती है और आज के युग में तोयह लोकतंत्र की भावना का आधार भी है । 
जन्म तथा अन्य कारणों सेउत्पन्न जाति एवं वर्गगत विषमताओं कोदूर करतेहुए शिक्षा मनुष्य कोइन सबसेऊपर उठाती है ।` इस सर्व-व्यापी मान्यता के बावजूद समाज में शिक्षा के साथ-ही-साथ विषमता और विभेद का परिदृश्य बड़ा होता जाता है । भारत जैसेविविधता वालेदेश में शिक्षा के तमाम सफल-असफल प्रयोगों के बीच यह बात मुख्य आधार रही है कि लोकतांत्रिक मूल्यों के संरक्षण के लिए सभी को शिक्षा जरुरी है। आधुनिक संस्कृति में जहाँ शिक्षा नेसमानता, व्यक्ति के सम्मान और सामाजिक न्याय जैसेमूल्यों कोस्थापित करनेका प्रयास किया है, वहीं वैश्वीकरण और उदारीकरण नेइन मूल्यों के दमन का संकट पैदा कर दिया है । इस विरोधाभास के बीच उम्मीद की जाती है कि इसका समाधान भी शिक्षा ही निकाले। जाहिर है, आज के दौर में अध्यापन अब इस जिम्मेदारी के  ईद-गिर्द ही होना चाहिए ।  
भारत का संविधान एक ऐसेसमाज का सपना दिखाता है जहाँ सामाजिक सद्भाव और शांति  का आधार न्याय व समता होगा । जिस तरह की शिक्षा प्रणाली खड़ी होरही है वह दरअसल संविधान विरोधी है । स्कूलों में जाति-धर्म, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, शहरी- ग्रामीण का भेद और ढांचा बरकरार है । 
भारत में मौजूदा स्कूली व्यवस्था भी बहु-स्तरीय है। निजी स्कूलों का तो एक श्रेणीक्रम है ही, सरकारी स्कूलों में भी नवोदय विद्यालय,  उत्कृष्टता विद्यालय, केन्द्रीय विद्यालय आदि की श्रेणियाँ हैं । ग्रामीण और शहरी स्कूलों में भी स्पष्ट फर्क है ।  ज्यादा पैसेवालों के स्कूल, मध्यम पैसेवालों के स्कूल, कम पैसेवालों के स्कूल और गरीबों के स्कूल । येस्कूल  भी समाज की ही तरह की बनावट अपनेआप में समेटेहुए हैं और सामाजिक विषमता क ेइसी रूढ़ ढांचेकोमजबूत करतेऔर बढ़ावा देतेहैं । कमजोर तबके के बच्चें के लिए स्कूल में टिक पाना अभी भी एक बड़ी चुनौती है । 'अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा का अधिकार अधिनियम-२००९` के बावजूद संवैधानिक मूल्यों की स्थापना में अभी तमाम अड़चनें हैं।     
वर्तमान समाज औद्योगिक समाज है। सरकार की नीतियां पूंजीवाद के दृष्टिकोण सेतय की जा रही हैं । हम देख पा रहेहैं कि प्रतिस्पर्धा, पूंजीवादी व्यवस्था का केन्द्रीय मूल्य है, जबकि इसके उलट 'एनसीएफ (नेशनल क्रॅरिकुलम फ्रेमवर्क राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा)- २००५` स्कूलों में प्रतिस्पर्धा खत्म करनेकी बात कहता है । सवाल है कि जब तक समाज में यह प्रतिस्पर्धा समाप्त न होजाये, तब तक स्कूलों में कैसेखत्म होसकती है ? एक तरफ संविधान द्वारा निर्धारित मूल्य हैं और 'एनसीएफ` भी उनकी वकालत करता है, दूसरी तरफ भारत में वर्तमान समाज की आंकाक्षाएं और अपेक्षाएं हैं जोनिजी लाभ, मुनोफे, जाति-वर्ग भेद, विषमता, शोषण और अवसरों को भुनानेकी बुनियाद पर खड़ी हैं । ऐसे में स्कूली-शिक्षा की उम्र व्यक्ति के निर्माण की दृष्टि सेअत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है । 
इस समाजीकरण सेही अध्यापन कर्म की सीधी टकराहट है । स्कूली शिक्षा के दौरान अध्यापक, विद्यार्थियों में संविधान की मंशानुरूप लोक-तांत्रिक मूल्यों की जड़ें मजबूत कर सकता है, व्यक्तिगत स्वायंाता का मूल्य विकसित कर एकता है। 'एनसीएफ` का ही एक मार्गदर्शी सिद्धांत ज्ञान को स्कूल के बाहरी जीवन से जोड़ने की वकालत करता है, वह अध्यापक कोइस बात के तमाम अवसर देता है कि बाहर की स्थितियों पर समालोचनात्मक नजर डाली जायेऔर जिस समाजीकरण ने विद्यार्थियों में गैर-बराबरी और विषमता खड़ी की है उसे चुनौती दी जाये। यह अध्यापक की गहरी और व्यापकतैयारी की मांग करता है ।   
अध्यापक सामाजिक अंतक्रिया या सन्दर्भ की भूमिका का एकमात्र अपरिहार्य उपकरण है। अध्यापक वह है जिसनेसिखाई जानेवाली हर चीज के महत्व पर विचार किया है, साथ ही यह भी सोचा है  कि उसके हस्तांतरण का बेहतर तरीका क्या है। सामाजिक नियंत्रण सेपरेविद्यार्थी में सामाजिक स्थितियों पर समालोचनात्मक चिंतन की दृष्टि पैदा करना और शासन के निर्माण के दौरान इन सामाजिक स्थितियों के बदलाव की संभावना दिखा पाना अध्यापक के बूतेकी ही बात है । यद्यपि सामाजिक नियंत्रण के चलतेस्कूलों सेयह अपेक्षा रहती है कि वह विद्यार्थियों कोवर्तमान समाज की जरुरत और उसकी व्यवस्था के मुताबिक एक मानव संसाधन के रूप में तैयार करे। यह टकराव सिर्फ शिक्षा की विषयवस्तु नहीं, बल्कि नयी समाज-रचना की विषय वस्तु है । अध्यापक की दृष्टि में यह बदलाव अपेक्षित है। 
अध्यापक, शिक्षार्थी में सामाजिक ताने-बानेके सन्दर्भ में अपनी क्षमताओं का उत्तरोत्तर परिमार्जन करते हुए बेहतर मनुष्य होनेकी संभावनाओं की तरफ अग्रसर कर सकता है। उसके लिए जीवन की संभाव-नाओं को खोजना लक्ष्य बना सकता है। शिक्षित होकर समाज में अपनी वयस्क भूमिका के साथ जगह बना लेने से इतर, उसे चुनौतियों और समस्याओें के समाधान के लिए तैयार कर सकता   है । अध्यापक प्रचलित समाजीकरण की जड़  प्रवृत्ति को तोड़कर शिक्षार्थी में एक स्वायत्त व्यक्ति होनेका साहस भर सकता है । आज के बदले सन्दर्भोमें यही अध्यापन कर्म है ।
हर साल परीक्षाओं के दौरान देशभर सेबड़ी तादाद में विद्यार्थियों के आत्महत्या करनेया गहन अवसाद में चलेजानेकी खबरें आती हैं । इतना दबाव, इतना तनाव, इतनी संवाद-हीनता और भरोसेकी कमी.... यह कैसी शिक्षा है, जो जीवन पर भारी   है । अध्यापक भी अवसाद में है कि क्यों बड़ी तादाद में विद्यार्थी जीवन सेअसफल हो रहे हैं ? जीवन के प्रति वह वैज्ञानिक नजरिया क्यों नहीं पनप रहा जिसकी बात 'एनसीएफ -२००५` लगातार कर रहा है ? इसे कैसे बदला जा सकता है ? इसमें अध्यापककी क्या भूमिका है ? वह अपने जीवन को कैसे एक बने-बनाये ढांचे से इतर, नई तरह सेजी सकता  है ? कैसे और लोगों के लिए भी नई तरह से जीने का रास्ता खोल सकता  है ? नए सन्दर्भो में शिक्षार्थी की यह दृष्टि बनाना ही अध्यापन कर्म है । अध्यापक अब सिर्फ कर्मचारियों का एक कैडर भर नहीं, बल्कि वह भूमिका है जो बदले हुए परिदृश्य में शिक्षार्थियों को एक स्वायत्ता व्यक्ति के रूप मेंविकसित होने, बदलती परिस्थितियों के साथ अनुकूलन करने, अलग-अलग विचारों और दृष्टिकोणों का सामना करने और अपनेआसपास के वातावरण के बारे में नयी खोजों से अपने जीवन का पुनर्मूल्यांकन करने में सक्षम बना सके । 
जाहिर है, इसके लिए ऐसे समावेशी और लोकतांत्रिक विद्यालयों की जरुरत है जहाँ अध्यापक सिर्फ लिखाने-पढ़ाने वाला व्यक्ति नहीं, बल्कि एक 'एक्टिविस्ट` की तरह काम करे। समाजीकरण ने जो जड़ता पैदा की  है उसेतोड़ने का प्रयत्न करे। श्रेष्ठता, विषमता और दमन के जिस बोध के साथ विद्यार्थी स्कूलों में आ रहेहैं उस बोध कोअपनेचिंतन, शिक्षण पद्धति और सचेत प्रयास से सवालों की ओर मोड़ सके । यथास्थिति को तोड़ने में खुद साहस दिखायेऔर विद्यार्थियों में ऐसा करने की प्रेरणा भरे । 
ऐसे एक्टिविस्ट अध्यापक ही शिक्षा के माध्यम से लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों की स्थापना कर सकेंगे । पँूजी द्वारा संचालित ढाँचे और स्पर्धाओं सेपरे, शिक्षार्थी कोडॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, मैनेजर या कंपनी सीईओके सीमित विकल्पों सेबाहर चित्रकार, संगीतकार, लेखक, यात्री, कृषक, विदूषक, रंगकर्मी, पक्षी-विशेषज्ञ, मिट्टी या काष्ठ-शिल्पी के रूप में उन्मुक्त जीवन जीनेकी राह दिखानेकी जिम्मेदारी अध्यापन कर्म पर ही है ।         

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