शनिवार, 16 दिसंबर 2006

नाम भी सुन्दर, काम भी सुन्दर

नाम भी सुन्दर, काम भी सुन्दर

-कुमार सिद्धार्थ

दस मार्च १९८४ को राष्ट्रपति भवन में चिपको आंदोलन के नेता सुन्दरलाल बहुगुणा को राष्ट्रीय एकता पुरस्कार से सम्मानित करते हुए राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने कहा था ''सुन्दरलाल तेरा नाम भी सुन्दर है और काम भी सुन्दर और इस जमाने में जब आदमी - आदमी का कत्ल करने पर आमादा है तू पेड़ों को कत्ल होने से बचा रहा है।'' उन्हीं सुन्दरलाल बहुगुणा को रचनात्मक कार्योंा हेतु पेड़ों की कटाई रोकने में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए १९८६ के जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा की गई थी। श्री बहुगुणा के इसी रचनात्मक आंदोलन की वजह से सरकार का ध्यान पर्यावरण की सुरक्षा के इस पहलू की तरफ गया।

आज से तेंतीस वर्ष पूर्व सन् १९७३ को ''चिपको आंदोलन का उदय गोपेश्वर में हुआ। जिसके असली जनक हैं- चंडीप्रसाद भट्ट। लेकिन चिपको आंदोलन के प्रचार प्रसार और दुनिया भर में चिपको आंदोलन का संदेश पहँुचाने में सुन्दरलाल बहुगुणा का उल्लेखनीय योगदान रहा है। इस आंदोलन का प्रारंभ तब हुआ जब राज्य सरकार ने इलाहाबाद की एक खेलकूद सामग्री उत्पादक कंपनी को अंगू के पेड़ स्वीकृत किए, जबकि स्थानीय लोगों द्वारा कृषि यंत्रों के निर्माण हेतु अंगू के पेड़ों की लकड़ी काटने की अनुमति मांगने पर कह दिया गया था कि वन में अंगू लकड़ी नहीं है। जैसे ही कंपनी के लोग पेड़ काटने के लिए गोपेश्वर पहँुची लगभग १०० लोग जिनमें महिलाएँ भी थीं, अपने गाँवों से ढोल-नगाड़े लेकर समारोह के साथ जंगल पहँुच गए। उनका एक ही नारा था - ''चिपको''। वे वृक्षों से चिपक गए और कहा कि हम इन्हें नहीं काटने देंगे।

इसके बाद चिपको आंदोलन का उत्तराखंड में व्यापक प्रसार हो गया तथा सारे देश का ध्यान इसकी ओर आकर्षित हुआ। वास्तव में इसके पहले वहाँ की जनता का वन संबंधी अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष का लंबा इतिहास है।

''चिपको'' आंदोलन की वास्तविक उपलब्धि यह रही कि पहली बार पहाड़ के लोगों को यह एहसास हुआ कि जंगल कितने जरुरी हैं। साफ हवा पानी के लिए तो है ही, गरीब आदमी की रोटी भी है, जिसके बगैर जीवन संभव नहीं है। इस आंदोलन ने वन और वन संपदा पर स्थानीय लोगांंे के आजन्म अधिकार को अभिव्यक्ति दी थी। जंगल के लुटेरों और ठेकेदारों के तेज हथियारों के विरुद्ध पेड़ों से चिपक कर उन्हंे बचाने की जो मासूम शैली अपनाई गई, वह देश और विदेश में अनोखी मानी गई।

वनों के उजड़ने का सबसे गहरा असर महिलाआें पर हुआ, क्योंकि मीलों दूर से जलाऊ लकड़ी ढोकर लाना, जानवरों के चारों के लिए घास की खोज में भटकना पहाड़ी स्त्रियों के भाग्य में जैसे हमेशा के लिए लिखा हुआ है। ''चिपको'' महिलाआें और पुरूषों और बच्चों का एक मुख्य आंदोलन बन गया। इस तरह बहुगुणाजी के अथक प्रयासों से ''चिपको'' ने पेड़ और मनुष्य के जैविक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्तों के साथ-साथ आर्थिक रिश्ते पर भी ऊँगली रखी।

सुन्दरलाल बहुगुणा की पहल का रुख पर्यावरण की समस्याआें, वन-विनाश और भू-स्खलन के प्रति लोगों को जागरुक बनाने की ओर रहा है- ओर इस तरह प्रकृति के दर्शन और अरण्य संस्कृति की सुरक्षा का। बहुगुणाजी का कहना है कि ''पहाड़ मिट्टी के क्षरण और पानी के निरन्तर सूखते हुए स्त्रोतों के कारण धरती से उजड़ चुके हैैं। पर्वतीय जनता के पुनर्वास से ही जुड़ा हुआ देश की बाढ़, सूखे और रेगिस्तान के विस्तार के रुप में बढ़ते हुए पर्यावरणीय संकट में रक्षा का भी सवाल है।''

''चिपको'' आंदोलन ने इस शाश्वत सत्य को उजागर कर कि मनुष्य को धरती से सीधा पोषण पाने का जन्म सिद्ध अधिकार है, रुढ़ चिन्तन के आधार पर खड़ी अर्थव्यवस्था के खोखलेपन को पहाड़ों के संदर्भ में प्रकट किया। यही कारण है कि उसके पारिस्थितिकीय स्वरुप के खिलाफ कई प्रश्न चिह्र खड़े किए हैं और यथा स्थिति को कायम रखने वाली शक्तियों ने सब स्तरों पर उसके खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। यह मानव जाति के सामने उपस्थित अस्तित्व के प्रश्न का उत्तर देने में असफल हुई राजनीति के, उन्हीं प्रश्नों का समाधान करने के लिए उदित परिस्थिति का जो अब भविष्य की आशा है, अपने को जिन्दा रखने का अंतिम प्रयास है। सौभाग्य से विज्ञान ने राजनीति का साथ छोड़कर मनुष्य और प्रकृृति के प्रेममूलक संबंधों की स्थापना करने वाली परिस्थितियों को अपनी सेवाएँ अर्पित की हैं।

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