सोमवार, 30 अगस्त 2010

Cover Of Books

१ सामयिक

आस्था के नए प्रतिमानोें की तलाश
डॉ.ओ.पी.जोशी

पुरी की प्रसिद्ध जगन्नाथ यात्रा मेंप्रतिवर्ष एक हजार पेड़ों को काटकर रथ बनाए जाते हैं । पर्यावरणविदों का आग्रह है कि इस वार्षिक परम्परा में थोड़ा परिवर्तन कर इन रथों को तब तक इस्तेमाल किया जाए जब तक कि ये टूट न जाएं । क्या धार्मिक समाज इस विचार से सहमत हो जाएगा ?
पूर्वी भारत में स्थित उड़ीसा में प्रतिवर्ष होने वाली पुरी की भगवान जगन्नाथ यात्रा विश्व प्रसिद्ध है । इसमें देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं । इस वर्ष दस दिवसीय यह यात्रा १३ से २२ जुलाई के मध्य सम्पन्न हुई । पुराणों में भी इस यात्रा का वर्णन है । यह यात्रा बारहवीं शताब्दी के जगन्नाथ मंदिर से सुंदर साज-सज्जा के साथ लकड़ी के बने तीन रथों में निकलती है, जिनमेंं जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की सुंदर झांकियां होती हैं। इन तीन रथों के निर्माण के लिए लगभग तेरह हजार घन फीट लकड़ी की आवश्यकता होती है,जिसे एक हजार वृक्षों को काटकर प्राप्त् किया जाता है । मंदिर प्रशासन लकड़ी के ८०० लट्ठे नयागढ़ व खुर्दा के जंगलों से प्राप्त् करता है । इनमें से लगभग ७०-७२ लट्ठों से तीनों रथ के ४२ पहिये बनाए जाते हैं । यात्रा समाप्ती पर इन रथों को तोड़कर प्राप्त् लकड़ी का उपयोग मंदिर के रसोईघरों में भोजन पकाने में किया जाता है ।
कुछ वर्ष पूर्व स्थानीय पर्यावरणविदों ने मंदिर प्रशासन से निवेदन किया था कि भगवान की पूजा के नाम पर एक हजार वृक्षों की कटाई नहीं होना चाहिए । यह श्रद्धा नहीं अंधभक्ति है । क्योंकि भगवान तो स्वयं पेड़ों एवं प्रकृति में विराजते हैं । पर्यावरणविदों ने यह भी कहा था कि उनकी जितनी श्रद्धा व आस्था इस यात्रा में है, उनती ही चिंता पेड़ों के कटने से बिगड़ते पर्यावरण की भी है । अत: इन दोनों के मध्य सामंजस्य होना जरूरी है । पर्यावरणविदों ने मंदिर प्रशासन को यह सुझाव दिया था कि स्थायी रथ बनाए जाएं एवं प्रतिवर्ष उनका उपयोग या फिर यात्रा के बाद रथ खोलकर रख दिए जाएं एवं अगले वर्ष फिर विधि-विधान अनुसार उन्हें जोड़कर तैयार किया जाए । इस तरह प्रतिवर्ष रथ तो नए बनेंगे परंतु लकड़ी वहीं रहेगी, जिससे पेड़ एवं पर्यावरण सुरक्षित रहेंगे ।
मंदिर प्रशासन ने पर्यावरणविदों के इन सुझावों को अस्वीकार करते हुए कहा था कि स्थायी रथ बनाना या उसी लकड़ी से प्रतिवर्ष नए रथ बनाना स्थापित धार्मिक मान्यताआें के विपरित है एवं इससे श्रद्धालुआें की भावना व आस्था प्रभावित होगी । हालांकि पुरी के कुछ वयोवृद्ध लोगों का कहना है कि जगन्नाथा मंदिर की कई प्राचीन परम्पराआें में समय अनुसार परिवर्तन किए गए हैं ।
प्रतिवर्ष पेड़ों को काटकर प्राप्त् लकड़ी से बनाए जाने वाले रथों की परम्परा पर भी कभी की सहमति से विचार कर परिवर्तन किया जाना चाहिए । स्थानीय वन-विभाग के अधिकारियों का मत है कि आगामी १५-२० वर्षोंा तक तो रथा यात्रा के लिए लकड़ी उपलब्ध हो जाएगी परंतु इसके बाद तो समस्या आना ही है । अत: कम से कम पांच वर्षोंा में एक बार नए रथ बनाए जाएं । इससे परम्परा भी जीवित रहेगी एवं पर्यावरण भी बचेगा ।
वैसे समय के साथ-साथ परम्पराआें में परिवर्तन आ रहे हैं एवं समाज इन्हें धीरे-धीरे मान्यता भी प्रदान कर रहा है । गणेश एवं दुर्गा प्रतिमाआें के विसर्जन से होने वाले भारी जल-प्रदूषण की समस्या के संदर्भ में अब लोग धातुआें की प्रतिमाएं स्थापित कर रहे हैं । नवम्बर २००९ में बार्सिलोना में संयुक्त राष्ट्र संघ की जलवायु परिवर्तन पर हुई बैठक में विभिन्न धर्मोंा के लगभग एक सौ धर्मगुरूआें ने पर्यावरण बचाने के कार्योंा को प्राथमिकता से करने हेतु कहा था कि धार्मिक स्थलों के कार्योंा में सौर ऊर्जा का उपयोग हो, जल-संवर्द्धन विधियां अपनाई जाएं, वृक्षारोपण, जंगलों की सुरक्षा एवं धार्मिक ग्रंथों का रिसायकिल कागज पर प्रकाशन हो । ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन के समय में एक हजार वृक्षों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है । भले ही वन-विभाग काटे गए पेड़ों की तुलना में दो गुना या तीन गुना नए पौधे लगाए परंतु ये पौधे वृक्ष को बराबरी नहीं कर सकते हैं ।
वैसे भी अब पर्यावरण सुरक्षा सबसे बड़ा धर्म बनता जा रहा है एवं आस्था भी वही है जो पर्यावरण को बचाए ।
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२ हमारा भूमण्डल

परमाणु ऊर्जा से भगवान बचाएं 

हेलन काल्डिकोट


जिस प्रदार्थ की राख या बचा हुआ हिस्सा रेडियोधर्मी होकर अगले ढाई लाख वर्षोंा तक जहरीला बना रहे, ऐसे पदार्थ के जहरीलेपन की सीमा की कल्पना भी नहीं की जा सकती । भारत में पिछले कुछ वर्षोंा से ऊर्जा के क्षेत्र में परमाणु ऊर्जा को लेकर सुनहरे सपने दिखाए जा रहे हैं ।
इस वक्त दुनियाभर में ४३८ परमाणु रिएक्टर कार्यरत है । परमाणु ऊर्जा उद्योग के सुझावों के अनुसार जीवाश्म इंर्धन पर आधारित ऊर्जा संयंत्रों को परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से बदलने के लिए १००० मेगावाट के २ से ३ हजार नए परमाणु संयंत्र निर्मित करना होंगे । इसका अर्थ हुआ अगले ५० वर्षोंा तक प्रति सप्तह एक परमाणु ऊर्जा संयंत्र का निर्माण ! इस तथ्य के दृष्टिगत कि अमेरिका में सन् १९७८ के पश्चात एक भी नया परमाणु संयंत्र स्थापित नहीं हुआ है, यह विचार ही अव्यावहारिक लगता है । अगर हम जीवाश्म आधारित सारे विद्युत संयंत्र बदलने की सोच भी लें तो हमें यह भी याद रखना होगा कि इस स्थिति में आर्थिक रूप से सक्षम परमाणु इंर्धन की उपलब्धता मात्र ८ वर्ष तक के लिए संभव हो पाएगी ।
वैसे परमाणु उद्योग की अर्थव्यवस्था का अभी तक ठीक-ठाक आकलन ही नहीं हुआ है । उदाहरण के लिए यूरेनियम संवर्द्धन पर आने वाली लागत पर अमेरिकी सरकार जबरदस्त सब्सिडी देती है । संचालन के दौरान दुर्घटना होने की स्थिति मेंअमेरिका में मुआवजे की अधिकतम सीमा ६०० अरब अमेरिकी डॉलर है । इसमें से मात्र २ प्रतिशत जवाबदारी निजी क्षेत्र की है शेष ९८ प्रतिशत अमेरिकी सरकार द्वारा देय है । इसके अलावा अमेरिका में वर्तमान में कार्यरत सभी परमाणु रिएक्टरों को बंद करने (डी-कमीशन) की लागत भी करीब ३३अरब अमेरिकी डॉलर बैठेगी । इसमें वह लागत मौजूद नहीं है, जो कि रेडियोएक्टिव पानी को आगामी दो लाख पचास हजार वर्ष तक सुरक्षित रखने में आएगी ।
यह भी कहा जाता है कि परमाणु ऊर्जा प्रदूषण रहित है । परंतु सच इससे बहुत अलग
है । अमेरिका में विश्वभर में सर्वाधिक यूरेनियम का संवर्द्धन किया जाता है । वहां ऐसी सुविधा वाले पाडुकाह संयंत्र में इसके संवर्द्धन हेतु १५०० मेगावाट वालेकायेला संयंत्र जितनी विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है, जिससे बड़ी मात्रा में कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन होता है । उपरोक्त एवं ओहियो स्थित एक अन्य संयंत्र पोर्ट्समाउथ पूरे देश में उत्सर्जित होने वाली क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) गैस के ९३ प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जवाबदार है । पोर्ट्समाउथ संयंत्र तो २००१ में बंद हो गया है, लेकिन केंटुकी संयंत्र अभी भी कार्य कर रहा
है ।
मांट्रियल समझौते के तहत अब सीएफसी गैस के उत्पादन और उत्सर्जन पर रोक लग गई है क्योंकि यह ओजोन को नुकसान पहुंचाने के लिए कार्बनडाईआक्साइड से २०,००० गुना अधिक गरम होती है । वास्तविकता तो यह भी है कि परमाणु इंर्धन चक्र के प्रत्येक चरण जैसे खनन व पीसने, परमाणु रिएक्टर व कूलिंग टॉवर का निर्माण, यूरेनियम का २० से ४० वर्ष की जीवन अवधि की समािप्त् पर, अत्यधिक रेडियोधर्मीरिएक्टर को डी-कमीशन करने में रोबोटों की सहायता, परिवहन एवं बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मी अपशिष्ट के भंडारण में अत्यधिक जीवाश्म ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है परमाणु उद्योग के इस प्रचार कि यह ऊर्जा पर्यावरण अनुकूल और साफ-सुथरी है, के विरोध मेंयही कहा जा सकता है कि दोनों की बातें महज भ्रामक प्रचार ही हैं । परमाणु रिएक्टर प्रतिवर्ष पानी एवं वायु में करोड़ों रेडियोधर्मी समस्थानिक के सूक्ष्म कण छोड़ते हैं । इनका वायुमंडल में प्रवाह पूर्णतया अनियंत्रित है क्योंकि परमाणु उद्योग की निगाह में ये विशिष्ट रेडियोधर्मी तथ्व जैविक रूप से नगण्य है । जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है । आयोडीन १३१ सेल्लाफील्ड (ब्रिटेन), चेरनोबिल (रूस) और थ्री माईल आईलेण्ड (अमेरिका) से परमाणु दुर्घटना के दौरान निकला था । यह ६ हफ्तोंतक रेडियोधर्मी बना रहा और दूध एवं सब्जियों के माध्यम से मानव शरीर के फेफड़ों व अंतड़ियों में पैठ कर गया और अंत में इससे गर्दन में स्थित थायराईड का कैंसर विकसित हुआ ।
चेरनोबेल के निकट बेलारूस में सन् १९८६ से २००० के मध्य आठ हजार से अधिक बच्चें, किशोरों और वयस्कों में थायराईड कैंसर पाया गया । ऐसी मिसाल चिकत्सा इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलती । वहीं स्ट्रोंटियम - ९० की आयु भी ६०० वर्ष है और यह गाय एवं बकरी के दूध के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश कर स्तन, हड्डीऔर खून का कैंसर पैदा कर सकता है । केईसियम १३७ की आयु भी ६०० वर्ष है और यह जानवरों के मांस में प्रवेश कर जाता है । इसके माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश कर यह सरकोमा नामक मांसपेशियों का कैंसर उत्पन्न करता है ।
प्लूटोनियम २३९ का जीवन ढाई लाख वर्ष का है । यह दुनिया का सर्वाधिक जहरीला पदार्थ है । इसके एक ग्राम के १० लाखवें हिस्से से भी कम से कैंसर हो सकता है । यह हड्डी और यकृत में लोहे की तरह जम जाता है और कैंसर को जन्म देता है । इसके माध्यम से आनुवांशिक बीमारियां हो सकती है, जिससे कि भावी पीढ़ी तक प्रभावित होगी । इसके अलावा क्रिस्टोन, झेनोन, आरगन व ट्रिटियम गैसों से भी आनुवांशिक बीमारियां हो सकती हैं ।
विश्व के ४३८ परमाणु संयंत्रों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे को लेकर सारा विश्व परेशान है ।१००० मेगावाट का परमाणु संयंत्र प्रतिवर्ष ३३ टन रेडियोधर्मी कचरा पैदा करता है । अमेरिका के १०२ परमाणु संयंत्रों की छत पर स्थित कूलिंग संयंत्रोंमें ८०,००० टन अत्यधिक रेडियोधर्मी कचरा पड़ा है । इसे ठिकाने लगाने के लिए अभी तक भंडारण हेतु स्थान ही नहीं मिल पाया है ।
लम्बे समय तक रेडियोधर्मी कचरे को रखना भी अपने आप में एक समस्या है । १९८७ में अमेरिकी संसद ने लासवेगास से १५० कि.मी.उत्तर पश्चिम में नेवेदा में स्थित युक्का पर्वत को इस कचरे के भंडारण के लिए चुना था । परंतु अपने ज्वालामुखी स्वभाव व भूकंप अनुकूल भौगोलिक स्थिति के कारण इस स्थान को भंडारण के उपयुक्त नहीं पाया गया । आतंकवादी हमलों के अंदेशे ने भी अब इसके भंडारण में जोखिम बढ़ा दी है ।
रेडिएशन के संपर्क मेंआने के ५ से ६० वर्ष की अवधि के भीतर कभी भी कैंसर हो सकता है । इसका सर्वाधिक प्रभाव बच्चें, वृद्धों और उन व्यक्तियों पर पड़ता है जिनकी प्रतिरोधक शक्ति का पहले ही हृास हो चुका हो । परमाणु ऊर्जा स्पष्टया जहरीली विरासत छोड़कर जाती है । यह वातावरण को गरम करने वाली गैसों को उत्पन्न करती है, साथ ही यह विद्युत उत्पादन के किसी भी अन्य प्रकार का स्वरूप से अधिक खर्चीली है तथा यह कभी भी परमाणु हथियारों को बढ़ावा दे सकती है ।
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३ स्वतंत्रता दिवस पर विशेष

पूंजीवाद में डूबता भारत
डॉ.बनवारीलाल शर्मा

आत्मनिर्भरता को पिछड़ापन मानने की भूल भारतीय राजनीतिज्ञ लगातार कर रहे हैं । परिणामस्वरूप देश के आर्थिक व प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एक बार पुन: विदेशी पूंजीपतियों के लिए प्रारंभ हो गया । चार सौ वर्ष पहले ईस्ट इंडिया कंपनी का गठन भारत व अन्य प्राकृतिक संसाधनों से भरे देशों पर कब्जे के लिए हुआ था । वर्तमान में ऐसी चार हजार बहुराष्ट्रीय कंपनियां सक्रिय हैं ।
देश इस समय एक नाजुक दौर से गुजर रहा है । कई तरह के बड़े संकट देश के सामने हैं । बड़े उद्योग और अन्य परियोजनाएं खड़ी करने के लिए खेती की जमीन पर बड़े पैमाने पर कब्जा हो रहा है और गांव उजाड़े जा रहे हैं । वर्ष २०५० तक देश की आधी आबादी को शहरों में बसाने की सरकार की योजना है । ऐसे में सवाल उठता है कि भारत तो गांवों का देश है, जब गांव ही नहीं बचेंगे तो भारत कैसे बचेगा ?
वर्तमान में देश की पूरी व्यवस्था जनविरोधी बन गई है । अर्थव्यवस्था और राजनीति पर बड़े-बड़े देशी-विदेशी कारपोरेट घराने वाली हो गए हैं । वे ही देश की राष्ट्रीय नीतियां बनवा रहे हैं । पहले अंग्रेजों का राज था, अब कारपोरेटों का राज खड़ा हो रहा है ।
देश में गरीबी भुखमरी और बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है । उस पर मंहगाई की मार तो आमजन की कमर ही तोड़ रही है । एक तरफ अरबपतियों-खरबपतियों की संख्या बढ़ रही है तो चौथा भारतीय भूखा है, आधी आबादी १२ रू. प्रतिदिन या उससे कम पर जिन्दगी ढो रही है, तीन चौथाई से ज्यादा लोग २०रू. या उससे कम पर गुजर-बसर कर रहे
हैं । सरकार को इन समस्याआें की कोई चिन्ता नहीं, वह तो वृद्धि दर ९ फीसदी लाने की रट लगा रही है । सबसे खतरनाक बात यह है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों-जमीन, जल, जंगल व खनिजों पर सरकार की मदद से बड़ी-बड़ी कम्पनियों का कब्जा हो रहा है । बड़ी संख्या में लोग उजड़ रहे हैं और विस्थापित हो रहे हैं ।
इन विकट समस्याआें से उबरने का कोई तरीका जनता नहीं निकाल पा रही है । सरकारी तंत्र लोगों का दु:ख दर्द नहीं सुनता बल्कि झूठे वायदे और प्रचार करता रहता है । अत: लोग जगह-जगह पर हिंसा का रास्ता पकड़ रहे हैं । इससे निपटने के लिए सरकार पुलिस राज खड़ा कर रही है । देश में गृहयुद्ध की परिस्थिति पैदा हो गई है ।
राष्ट्रीय स्तर पर चिन्ताजनक हालात बन गए हैं । पिछले कुछ वर्षोंा में अंतराष्ट्रीय पटल पर देश का सम्मान गिरा है । पूंजीवादी व साम्यवादी गुटों में बंटी दुनिया से भारत ने अपने को अलग रखा था । वह गुटनिरपेक्ष देशों का नेता रहा है जिनसे उसको आदर सम्मान मिला था । अब सरकार ने गुटनिरपेक्षता त्यागकर अमेरिकी पूंजीवादी गुट में देश को झोंक दिया है । हाल ही में कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन हुआ । उसमें सर्वमान्य मत था क्योटो प्रोटोकॉल कायम
रहे । पर अमेरिकी दबाव में भारत ने अपना यह मत त्याग दिया और अमेरिका से मिलकर एक नया समझौता स्वीकार किया जो तीसरी दुनिया के देशों ने भारत को खूब भला-बुरा कहा है । हम जानते हैं कि इस समय सरकार के बड़े-बड़े पदों पर जो लोग बैठे है वे विश्वबैंक व अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष के नौकर रहे हैंया बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के वकील और शेयर होल्डर रह चुके हैं। इसीलिए उनकी जवाबदेही जनता के प्रति नहीं बल्कि कहीं और है ।
ऐसे माहौल में जगह-जगह जो जनआंदोलन चल रहे हैं उनके लिए स्थान भी सिकुड़ रहा है । स्थानीय आंदोलन देशव्यापी आंदोलन नहींबन पा रहे हैं । साथ ही छात्र संगठन, मजदूर संगठन और किसान संगठन बेअसर होते जा रहे हैैं ।
इस संकट की बेला में सभी जनआंदोलनों, जन संगठनों और देश-समाज की चिंता करने वाले नागरिकों, समाजकर्मियों के सामने बड़ी ऐतिहासिक चुनौती है कि वे एकजुट होकर इस जनविरोधी व्यवस्था को बदलने के लिए देशव्यापी आंदोलन खड़ा करें। जिस कारपोरेटी विकास मॉडल को सरकार देश पर लाद रही है उसे नकारा जाए और उनकी जगह जनहितकारी मॉडल खड़ा किया जाए । संघर्ष और निर्माण का रास्ता अपनाकर देश में बराबरी और सच्ची लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम करने हेतु संग्राम छेड़ा जाए ।
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५ जनजीवन

पेड़-पौधों को बिसराता समाज

रवीन्द्र गिन्नौर

शहरों में रोशनीयुक्त प्लास्टिक के बड़े-बड़े पेड़ देखकर अजीब सी मितलाहट होती है । अगर शहरी बाग-बगीचों में प्राकृतिक वृक्षों एवं पौधों के लिए ही स्थान नहीं है तो इनके होने का क्या फायदा ? आवश्यकता इस बात की है कि शहरों को एक बार पुन: वृक्षों से आच्छादित करने के प्रयास पूरी ईमानदारी से प्रारंभ किए जाएं तभी हम जलवायु परिवर्तन की रफ्तार को धीमा कर सकते हैं ।
अधिकांश शहरवासियों का अब पेड़ों से कोई वास्ता नहीं रह गया है । पेड़-पौधों से जुड़े धार्मिक, सांस्कृतिक, रीति-रिवाजोंके लिए अब हमारे पास समय नहीं
है । दादी मां के नुस्खों को शहरियों ने तिलांजलि दे ही है । पेड़-पौधे पर शहरी जीवन की निर्भरता नहीं रही । धीरे-धीरे यह लगने लगा है कि पेड़-पौधे बेकार हैं । दरअसल पेड़-पौधों की उपयोगिता भरे ज्ञान को हम भूल गए
हैं । यही कारण है कि शहरी बंगलों में विदेशी फूलों के पौधे लगाए जाते हैं और सुंदर दिखने वाली पत्तियों को बड़े जतन से सहेजा जाता है ।
पश्चिमी संस्कृति की चलती बयार से हमारा पेड़-पौधों से रिश्ता टूट सा गया । घर-आंगन में तुलसी चौरा की अनिवार्यता अब कहीं नहीं दिखती । पूजा-अर्चना के लिए फूल एवं फूलमाला की अब कोई जरूरत नहीं रही । जैसे-जैसे परिवार टूटते गए, वैसे-वैसे घर छोटा होता चला गया । रेडी टू ईट के बाजार ने और कहर बरपाया । शहरों में जहां रहने की समस्या है, वहां पेड़-पौधे कैसे लगें ? वहीं दूसरी ओर आबाद होते शहर की चौड़ी होती सड़कें भी पेड़ों को लील रही है ?
दुनिया के बड़े शहर जलस्त्रोतों के किनारे बसे थे । शहरों में सड़कों के किनारे विशाल पेड़ लगाए जाते रहे हैं । नगर के बीच रमणीक उद्यान, अमराई भी दिखती थीं । मगर जमीन की बढ़ती कीमतों ने सब उजाड़ दिया । शहर में ऐसी कॉलोनी बन रही है, जहां न तालाब हैं और न ही पेड़-पौधों का कोई स्थान है । कहीं-कहीं पर्यावरण प्रेम दिखाने के लिए विदेशी पेड़ों को खूब लगाया गया है । ऐसे पेड़ स्थानीय जैव विविधता से बाहर है । अत: इनमें न कोई पक्षी घोंसला बनाता है न कोई कीट पतंगा उस पर आश्रित है ।
घर-आंगन की छोटी सी बगिया तुलसी, चमेली, मोगरा, रातरानी जैसे सुगंधित झाड़ियों से आबाद रहती थी । तुलसी, अदरक, बेल, नीम जैसे पेड़-पौधों का दैनिक जीवन में उपयोग होता रहा था । पेड़-पौधे दवा के भी काम आते थे । नीम की सर्वाधिक महत्ता रही है। इसका अनाज भंडारण के साथ शरीरिक व्याधि मेंभी उपयोग होता था ।
पीपल का पेड़ गांवों की चौपाल का जरूरी अंग था । पीपल का पेड़ सर्वाधिक ऑक्सीजन प्रदान करने वाला है । अब चौपालें भी कांक्रीट की बन चुकी हैं । नीम भी घर से ले लेकर खेती-किसानी के काम आता रहा
है । ग्रामीण जन-जीवन भी पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित होकर पेड़-पौधें से अपना नाता तोड़ रहा है । खेती किसानी रासायनिक खादों पर निर्भर हो चुकी है । पेड़-पौधों के पत्तियों की खाद व जैविक कीटनाशक गौण हो चुके हैं।
गांवों की बदलती आबोहवा में भी फास्ट फूड की घुसपैठ हो चुकी है । इसके कारण कई मौसमी फल पहुंच से बाहर हो चले हैं । मकोईया चार (चिरौंजी), तेन्दू, देशी बेर जैसे कई फलों के स्वाद से वर्तमान पीढ़ी वंचित हो रहीह े । कई तरह के स्वादिष्ट कंद जो अनेक रोगों की रामबाण दवा भी हैं, अब ग्रामीण बाजारों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं । पेड़-पौधें से जुड़ा गांव-गंवई का परम्परागत ज्ञान विलुप्त् हो रहा है । इस ज्ञान से अनजान ग्रामीणों का पेड़-पौधों के साथ सहजीवन परम्परा खत्म हो रही है ।
शहरी संस्कृति और टूटते परिवारों के कारण हमारे धार्मिक रीति-रिवाज, उत्सव अब नहीं हो रहे हैं । अधिकांश सांस्कृतिक पर्व, संस्कार जो पेड़-पौधों के बिना सम्पन्न नहीं होते, अब विस्मृत होते जा रहे हैं । वैशाख माह में वट वृक्ष पूजन, श्रावण मास में बेल पत्र का महत्व, कार्तिक माह की नवमी मे आंवला वृक्ष के नीचे भोजन करने का विशेष महत्व है। पेड़ों से जुड़े अनेक रीति-रिवाज दकियानूसी करार देकर उन्हें अपेक्षित कर दिया गया । आधुनिक युग में ट्री थेरेपी का मूलाधार यही परम्परागत ज्ञान है । वृक्ष वास्तु शास्त्र का आज बोलबाला है, जिसका उपयोग साधन सम्पन्न लोग ही कर रहे हैं ।
बचपन से ही हमारे संस्कार पेड़-पौधों से एक रिश्ता कायम करते थे । संस्कारित शिक्षा उस कान्वेंट शिक्षा के आगे बौनी पड़ गई, जो पेड़-पौधों से परिचित तो कराती है, मगर वह संस्कार नहीं दे पाती जो उनसे रिश्ता बनाता है । इसीलिए हमारे जीवन परिवेश में व दैनिक जीवनचर्या में पेड़-पौधों का उपयोग नहीं रह गया है ।
पेड़-पौधे हमें सब कुछ देते हैं । शुद्ध प्राण वायु के वाहक तो यही हैं । हमारी जैव विविधता सम्पदा इन्हीं के साथ जुड़ी हैं । घर-जंगल की बगिया में इठलाती तितली, गुंजन करते भौंरे, शहद बटोरती मधुमक्खी, कीट पतंगे धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं । पेड़ों के साथ हमारे टूटते रिश्ते से कई रोग फैलने लगे हैं । ऐसे रोगों के निदान के लिए हमारे पास समय है, मगर पेड़-पौधों को सहेजने का वक्त नहीं है । ऐसा क्यों ?
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७ प्रदेश चर्चा

महाराष्ट्र : प्रदूषण को वैधानिक मान्यता
राजिल मेनन

अपना घर साफ रखने के लिए हम पड़ौसी के घर में कचरा नहीं फेक देते । परंतु हमारे नगर निगमों ने इसे परम्परा का रूप दे दिया है । बिना सोचे समझे निम्न आय वर्ग की बस्तियों के पास कचरा घर बना दिए जाते हैं और उनके बीमार पड़ने पर दोष उनकी आर्थिक स्थिति को दिया जाता है । इस खतरनाक प्रवृत्ति से छुटकारा पाना आवश्यक है ।
मुंबई के उपनगर चेम्बूर के निवासी अपने फेफड़ों में हो रही बीमारी के लिए नजदीक में हो रहीे जमीन भराई के परिणामस्वरूप हो रहे प्रदूषण को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं । इस संदर्भ में स्थानीय हृदयरोग विशेषज्ञ संदीप राणे यह जानना चाहते थे कि क्या देवनार में हो रही जमीन की भराई से मृत्यु भी हो रही है ? उनके पास इस संबंध में सन् २००८ में मुंबई के के.ई.एम. अस्पताल द्वारा कराया गया एक अध्ययन भर था । इसके अनुसार चेम्बूर के धूम्रपान न करने वाले ८२ प्रतिशत निवासी फेफड़ों की बीमारी से ग्रसित है । इसके बाद उन्होंने कानून के अंतर्गत प्रार्थना पत्र दिया । इससे उन्हें काफी मदद मिली ।
नगर पालिका से प्राप्त् मृत्यु के आंकड़ों से पता चला कि चेम्बूर में २००७-०८ के दौरान हुई मौतों में से २५ प्रतिशत का कारण श्वास संबंधी बीमारियाँ हैं । चेम्बूर में मौतों के कारण में फेफड़ों में गंभीर अवरोध संबंधी बीमारी एवं अस्थमा प्रमुख थे । अवैज्ञानिक तरीके से कचरा फेंकने के विरूद्ध संघर्षरत स्मोक अफेक्टेड रेजिडेन्ट फोरम (धुंआ प्रभावित नागरिक फोरम) के एक सदस्य राणे का कहना है कि इस खोज ने हमारे अभियान को अधिक शक्ति प्रदान की है । देवनार के निकट अवैज्ञानिक तरीके से कचरा फेंकने से जबरदस्त प्रदूषण फैल रहा है और इसके परिणामस्वरूप मौंते हो रही है ।
नगर पालिका के अधिकारी इस दावे को नकार रहे हैं । नगर निगम के सह कार्यकारी अधिकारी स्वास्थ्य अधिकारी गिरीश पी.अंबे का कहना है कि माटुंगा और चेम्बूर की तुलना नहीं हो सकती । माटुंगा में मध्यम व उच्च् आय वर्ग निवास करता है और चेम्बूर में मध्यम और निम्न आय वर्ग की मिश्रित आबादी है । आर्थिक स्तर भी व्यक्तियों के स्वास्थ्य की स्थिति का निर्धारण करता है ।
श्री राणे अब इन आंकड़ों को उच्च् न्यायालय में प्रस्तुत करने की योजना बना रहे हैं जो कि देवनार भूमि भराव मामले में अवमानना याचिका पर विचार कर रही है । नागरिक फोरम ने गत वर्ष न्यायालय में तब अवमानना याचिका दायर की थी जब नगर निगम ने वहां कचरा फेंकना नहीं रोका । कचरा स्थल पर कचरे का जलना प्रदूषण का प्रमुख स्त्रोत है । हाल ही में उच्च् न्यायालय की समिति ने स्थल पर अपने निगरानी भ्रमण के दौरान पाया कि जैविक स्वास्थ्य अपशिष्ट को नष्ट करने वाले भस्मक में प्लास्टिक की बोतलें एवं सिरिंज भी जलाई जा रही है । कानूनन इसकी अनुमति नहीं है । श्री राणे जो कि इस समिति के सदस्य भी हैं, का कहना है ठेकेदार ने स्वीकार किया है कि अस्पताल से आने वाले अपशिष्ट जिसमें मानव अंग एवं पटि्टयां (इन्हें भस्मक में जलाने की अनुमति है) शामिल है के साथ दूसरे अपशिष्ट भी मिला देता है ।
वायु की गुणवत्ता के अध्ययन भी निवासियों के दावों की पुष्टि करते हैं । राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिक शोध संस्थान (एमईआरआई) के मुंबई कार्यालय और के.ई.एम. अस्पताल द्वारा इस वर्ष मार्च के किए गए अध्ययन से पता चला है कि देवनगर मे भूमि भराव के नजदीक बसी दो बस्तियों में फॉरमाल्डेहाइड की मात्रा अधिक पाई गई है । राणे का कहना है कि फॉरमाल्डेहाइड से कैंसर होता है । भराव के स्थान के नजदीक फॉरमाल्डेहाइड तब बनता है जब अपशिष्ट में सूर्य के प्रकाश और आक्सीजन के रिएक्शन से मीथेन गैस निकलती है । चेम्बूर में पेट्रोकेमिकल्स और रासायनिक खाद के उद्योग भी हैं जो कि इस रसायन को सीधे हवा मे छोड़ते हैं ।
अपने दोवोंे को पुख्ता करने के लिए राणे को अभी और प्रमाण प्रस्तुत करने होंगे । के.ई.एम. अस्पताल के पर्यावरण शोध केन्द्र की विभागाध्यक्ष अमिता अठावले का कहना है कि चेम्बूर के वातावरण में इन विषैले पदार्थोंा के कण काफी ज्यादा हैं परंतु चेम्बूर और देवनार में हुई मौतों को इनसे जोड़ने से पहले निवासियों की जेनेटिक ग्रहणशीलता, स्वास्थ्य का इतिहास, धूम्रपान और शराब पीने की आदतों पर भी गौर करना होगा । उनका कहना है कि अभी तो हम इस भूमि भराव से ज्यादा से ज्यादा बीमार होने की पुष्टि कर सकते हैं । ठोस अपशिष्ट प्रबंधन विशेषज्ञों ने भी रहवासियों का समर्थन किया है । गैर सरकारी संस्था वेस्ट मेनेजमेंट एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष अमिय साहू का कहना है कि नगर निगम गौराई स्थित भूमि भराव स्थल को बंद करने में कामयाब रही है और अब वह यही गलती देवनार में दोहरा रही है ।
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रविवार, 29 अगस्त 2010

८ गांधी पर विशेष

गांधी का समाज परितर्वन का सपना
डॉ.कृष्णस्वरूप आनन्दी

महात्मा गांधी आजाद भारत के जिस स्वरूप की कल्पना कर रहे थे उसको यथार्थ में बदलने का उन्हें मौका नहीं मिला । वास्तव में वे मनुष्य के हृदय परिवर्तन के माध्यम से ही सामाजिक आर्थिक परितर्वन चाहते थे । जोर जबरदस्ती का विकल्प उनके लिए विकास का विदेशी पैमाना था ।
आजादी के बाद गांधी समाज परिवर्तन की दृष्टि से महत्वपूर्ण दो बुनियादी कार्यक्रमों जिसके पहला जमीन के स्वामित्व और वितरण को लेकर था तथा दूसरा ट्रस्टीशिप, को अंजाम देना चाहते थे । ये दोनों कार्यक्रम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
गांधी यह मानते थे कि जमीन, हवा, पानी, धूप जैसी जीवनदायिनी चीजें हमें प्रकृति द्वारा भेंट के रूप में मिली हैं । अत: इन पर किसी व्यक्ति अथवा औद्योगिक घराने का स्वामित्व हर्गिज नहीं होना चाहिए । ये साझी सम्पत्ति हैं और जन-जन को सुलभ रहनी चाहिए ।
हालांकि वे एकाधिकार और निजी स्वामित्व के धुर विरोधी थे, फिर भी वे यह मानते थे कि किसान के पास उतनी ही कृषियोग्य भूमि रहनी चाहिए जिस पर वह खुद अपने कुटुम्बजनों के साथ खेतीबाड़ी कर सके । जमीन को खुद जोत-बो सके, फसलें उगा सके, जैव विविधता एवं जमीन की उर्वरा शक्ति को हमेशा अक्षुण्ण रख सके । जो सच्च्े अर्थोंा में किसान हैं, वे चाहें तो बराबरी के स्तर पर मिलजुल करके आपसी समझदारी, सहभागिता और सहयोग वृत्ति से खेती में सहकारिता या सामूहिक का प्रयोग कर सकते हैं ।
अंग्रेजी राज के बाद गांधी खेती किसानी के क्षेत्र में एक नई क्रांति का सूत्रपात करना चाहते थे, जिसके तहत वे देशभर में भूमिहीन खेतिहर जनगण को जागरूक, संगठित, सक्रिय और आंदोलित करना चाहते थे । बेहद छोटी या सीमांत जोत वाले किसानों को भी इस मुहिम में शामिल किया जाना था । बड़े-बड़े जमींदार ट्रस्ट, ताल्लुकेदार राजे रजवाड़े और नवाब उनके निशाने पर थे । उनकी योजना थी कि इनके खिलाफ भूमिहीन खेतिहर जनता की अगुवाई मेंअचूक सत्याग्रह हो । यदि भूपतियों का हृदय परिवर्तन हो जाए तो अति उत्तम । अन्यथा लोग शांतिपूर्ण ढंग से सीधी कार्यवाही करने को स्वतंत्र होंगे । भूमिहीन व खेतिहर जनता जमींदार की व्यवस्था से पूर्ण असहयोग करेगी और यह भूमि सत्याग्रह सात्विक, शुद्ध और पवित्र उपायों से तब तक अनवरत चलता रहेगा, जब तक जमींदारी की व्यवस्था का अंत नहीं हो जाता ।
व्यक्तिगत स्वामित्व की संस्था का लोप-जिस प्रकार भूमि के मामले में निजी मिल्कियत का निषेध था और आखिरकार राज्य या समुदाय (समाज) को उसका असली स्वामी माना गया था (हां, यह जरूर था कि खुद से खेतीबाड़ी करने वाले किसान को गुजर बसर लायक जमीन की सुनिश्चित उपलब्धता की बात सोची गई थी ) ठीक उसी प्रकार व्यापक समाजोपयोगी वस्तुआें की उत्पत्ति या सेवाआें की आपूर्ति के वृहदकार, पूंजीप्रधान या केन्द्रीकृत संयंत्रों या साधनों पर भी गांधी ने सामुदायिक, सामाजिक या राज्यगत स्वामित्व का विचार रखा था । यहां भी उन्होंने मूलत: अपवाद के तौर पर यह माना था कि ये संयंत्र या साधन समाज या लोक के प्रति समर्पित पूंजीपतयों के संरक्षण में रह सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में कतई नहीं बल्कि समाज की बेशकीमती धरोहर के रूप में । इन औद्योंगिक प्रतिष्ठानों में सारा उत्पादन, निवेश या नियोजन व्यापक लोकहित की भावना से संचालित होगा ।
यहां सेवाआें का वस्तुआें का बहुतायत उत्पादन होगा । ये जन-जन तक पहुंचेंगी । इनमें से अधिकांश वस्तुएं या सेवाएं ऐसी होंगी, जिनका उपभोग विलासिता के तौर पर नहीं बल्कि बुनियादी आवश्यकता के रूप में व्यापक जन समुदाय द्वारा किया जायेगा अथवा जिन्हें विकेन्द्रीकृत, श्रम सघन व छोटी-छोटी विर्निमाण इकाईयां या कार्यशालाएं अनिवार्य साज सरजाम के रूप में इस्तेमाल करेंगी । ये इकाइयां स्थानीय आबादियों या समुदायों में अवस्थित संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए समुचित प्रविधि या तकनीक की मदद से लोगों के द्वारा उत्पादन करेंगी ।
ट्रस्टीशिप की अर्थव्यवस्था लागू करने के लिए शरूआती दौर में गांधी ने सत्याग्रह के माध्यम से पूंजीपतियों के हृदय परिवर्तन की बात कही थी । लेकिन उनका यह भी मानना कि अगर वे सामाजिक दबाव के आगे नहीं झुकते हैं यानी अपने उद्यमों के स्वत्वाधिकार को तिलांजली देकर अगर वे उनके ट्रस्टी या संरक्षक के रूप मेंअपनी सेवाएं देने को तैयार नहीं होते हैं तो न्यूनतम हिंसा का प्रयोग करके राज्य द्वारा उनके प्रतिष्ठानों का अधिग्रहण कर लिया जाएगा । हालांकि राज्य द्वारा ट्रस्टीशिप के सिद्धांत के क्रियान्वयन या उसके अर्थतंत्र के अधिष्ठान को वे अंतिम विकल्प के रूप में देखते थे । कारण वे राज्य को भी संगठित हिंसा का सगुण रूप मानते
थे ।
निजी स्वामित्व पर आधारित पूंजीवाद को बापू ने कभी स्वीकार नहीं
किया । निजी क्षेत्र तथा सार्वजनिक क्षेत्र इन दोनों से आगे बढ़कर वे समूची अर्थव्यवस्था को सामुदायिक क्षेत्र अथवा जनगण क्षेत्र की ओर ले जाना चाहते थे । ट्रस्टीशिप वास्तव में उसी दिशा में एक क्रांतिकारी कदम था ।
ट्रस्टीशिप केवल आर्थिक दर्शन नहीं है । वह राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कि आर्थिक क्षेत्र में । वह संपूर्णता का दर्शन है । लोकतंत्र के संदर्भ मेंट्रस्टीशिप सबसे ज्यादा मौजूं विचार है ।
लोकतंत्र में जनगण संप्रभु है । यह सारी सत्ता का उद्गम स्थल यानी स्त्रोत है । वह संपूर्ण सत्ता प्रतिष्ठान का स्वामी और सृष्टा है । उसके द्वारा चुने गए प्रतिनिधि उसकी तरफ से सारा राजकाज संभालते हैं । अत: जनतंत्र में प्रतिनिधियों को लोकसत्ता के ट्रस्टी के रूप में काम करना चाहिए ।
गांधी मानते थे हमारे पास जो भी विद्या, बुद्धि, कला या सर्जना है, वह सबकी है एवं सब समाज के लिए है । हमें उसका उपयोग सार्वजनिक हितों को साधने और सामाजिक गुणों को बढ़ाने के लिए करना चाहिए । हमें समाज से सिर्फ उतना ही लेना चाहिए जितना हमारे सम्यक जीवन निर्वाह और रचनाकर्म के लिए नितांत आवश्यक है । हमें अपनी मेघा, प्रतिभा, विशिष्टता, साधना या चेतना को समग्र दायित्वबोध के साथ उत्तरोत्तर आगे बढ़ाते जाने का पूरा हक है । कहीं कोई बंदिश नहीं है, लेकिन हमारी रचनाधर्मिता या सृजनात्मकता से अपसंस्कृति नहीं फैलनी चाहिए । हमारी कृति या कला व्यापार की वस्तु नहीं है और न ही वह किसी कारपोरेट घराने, न्यस्त स्वार्थ या शासक वर्ग की चेरी बल्कि वह लोकचेतना के लिए ऊर्ध्वगमन की सीढ़ी है । यह है ट्रस्टीशिप का सांस्कृतिक आयाम ।
गांधी ने भूमि ओर औद्योगिक प्रतिष्ठान के बारे में ट्रस्टीशिप, सामुदायिक या सामाजिक तथा राज्यगत स्वामित्व की जो संकल्पना की थी उसके ठीक उलट दिशा में भूमण्डलीकरण यानी कारपोरेट उपनिवेशवाद हमें ले जा रहा है । भूमि हदबंदी कानून एक-एक करके हटाये जा रहे हैं। मेगा परियोजनाआें और विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए उम्दा, उर्वरा और बहुफसली कृषि भूमि का अधिग्रहण निर्ममता से चल रहा है । एक दूसरी हरित क्रांति के नाम पर सीधे किसान द्वारा खेती के बजाय कारपोरेट कांट्रेक्ट फार्मिंग के पक्ष में माहौल तैयार किया जा रहा है । उद्योगों और सेवाआें पर बहुराष्ट्रीय हमले तेज हो रहे हैं । अनौपचारिक क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले रोजगारी कारोबार दु्रत गति से खत्म हो रहे हैं।
उद्यमियों द्वारा संचालित छोटे व मझोले उद्योगों के दिन अब लद चुके हैं। इस प्रकार भारी पैमाने पर हमारी अर्थव्यवस्था का अ-औद्योगिककरण हो रहा है । वृहदाकार तथा उत्तरोत्तर जटिल होती जाती उन्नत प्रौद्योगिकी पर टिके औद्योगिक संयंत्रों या कल कारखानों में ट्रस्टीशिप के एकदम उलट देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों का कब्जा कायम होता जा रहा है । बहुराष्ट्रीय कारपोरेट गुलामी, जमींदारी और इजारेदारी की शोषण व्यवस्था में देश जकड़ता जा रहा है । जो स्वराज्य स्वदेशी और ट्रस्टीशिप की विचारधारा और लोकव्यवस्था के एकदम उलट है । जरूरत है इस नए कारपोरेट उपनिवेशवाद को ध्वस्त करने की । क्या हम सभी इस चुनौती को स्वीकार करेंगे ?
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१० ज्ञान-विज्ञान

जलवायु को प्रभावित करते हैं जीव
वैज्ञानिकों ने पहली बार इस बारे में सबूत पाने का दावा किया है कि समुद्र में मौजुद सूक्ष्म जीवों ने पारिस्थितिकी संपर्क और प्रतिक्रिया के जरिए वैश्विक जलवायु को प्रभावित किया है । एक अंतराष्ट्रीय दल ने पाया है कि किसी खास कार्बनिक पदार्थ के चारोंओर सूक्ष्म जीवोंका संपर्क समुद्र के रासायनिक गुणों में बदलाव लाता है और वायुमंडल में बादलों के निर्माण को प्रभावित कर वैश्विक जलवायु पर भी असर डालता है । यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी सिडनी के शोध दल के सदस्य जस्टिन सेमेर ने साइंर्स जर्नल में इस बात का ब्योरा दिया है कि किस तरह से किसी गंधवाले रसायनसे मिलते जुलते डाइमीथलसल्फाइड (डीएमएस) की मदद से समुद्री पक्षी और सील अपने शिकार की खोज निकालते हैं । उन्होंने बताया कि यह पदार्थ सूक्ष्म स्तर पर इस उद्देश्य को पूरा कर सकता है और समुद्र में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीव इसकी मदद से उस खाद्य पदार्थ का पता लगा सकते हैं, जो जलवायु के लिए महत्वपूर्ण हैं । श्री सेमर ने बताया कि हमने पाया कि समुद्र के जल में होने वाला पारिस्थितिकी संपर्क और व्यवहारात्मक प्रतिक्रिया समुद्र की चक्रीय प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता
है । मैसाचुसेटे्स इंस्टीटयूट ऑफ टेक्नोलॉजी के प्राध्यापक रोमन स्टॉकर के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने पाया कि सूक्ष्म जीवों के डाइमीथाइल सल्फोनीप्रोपिओनेट (डीएमएसपी) की ओर बढ़ने से यह संकेत मिलता है कि सूक्ष्म जीव समुद्र में सल्फर और कार्बन के चक्र में एक भूमिका निभाते हैं, जिसका धरती के जलवायु पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है । डीएमएस वायुमंडल में बादलों के निर्माण में शामिल है । यह वायुमंडल में उष्मा के संतुलन को प्रभावित करता है ।

पहले मुर्गी आई, बाद में आया अंडा 
पहले अंडा आया या मुर्गी सदियों से चली आ रही इस पहेली का हल खोज लिया गया है । वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि पहले मुर्गी आई, बाद में अंडा, लेकिन मुर्गी कहाँ से आई इसका जवाब अभी वैज्ञानिकों के पास नहीं है । शेफील्ड और वारविक विद्यालय के वैज्ञानिकों की एक टीम ने अपने अध्ययन में पाया कि ओवोक्लेडिन (ओसी१७) नाम का प्रोटीन मुर्गी के अंडे के खोल के निर्माण का अहम हिस्सा होता है । यह मुर्गी के अंडाशय में बनता है । इससे पता चलता है कि मुर्गी पहले आई । हालाँकि अध्ययन में इस बात का खुलासा नहीं है कि प्रोटीन बनाने वाली मुर्गी कहाँ से आई । वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में अंडे की खोल की परमाणविक संरचना की जाँच के लिये अत्याधुनिक कम्प्यूटर का इस्तेमाल किया । उन्होंने पाया कि ओसी-१७ एक उत्प्रेरक के रूप में काम करता है । केल्शियम कार्बोनेट के मुर्गी के शरीर मे रूपांतरण की प्रक्रिया की शुरूआत केल्साइट क्रिस्टल से होती है । यहीं से अंडे का कठोर खोल बनने की शुरूआत होती है । यह खोल जर्दी और तरल पदार्थ को सुरक्षित रखता है, जो आगे जाकर चूजा बना जाता है ।
शेफील्ड विश्वविद्यालय के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ.कॉलिन फ्रीमेन ने कहा कि यह लंबे समय से अनुमानित था कि पहले अंडा आया, लेकिन अब हमारे पास प्रमाण है पहले मुर्गी
आई । प्रोटीन की पहचान पहले ही कर ली गई थी । अब अंडा बनने की प्रक्रिया का पता लगा लिया गया है । यह दिलचस्प है कि कैसे विभिन्न प्रकार के पक्षियोंमें एक ही प्रक्रियाअलग-अलग प्रोटीन का निर्माण करते हैं ।
इलाहाबाद का अक्षय वट

इलाहाबाद स्थित अकबर के किले में एक ऐसा वट है, जो कभी यमुना नदी के किनारे हुआ करता था और जिस पर चढ़कर लोग मोक्ष की कामना से नदी में छलाँग लगा देते थे । इस अंधविश्वास ने अनगिनत लोगों की जान ली है । शायद यही कारण है कि अतीत में इसे नष्ट किये जाने के अनेक प्रयास हुए । हालाँकि यह आज भी हरा भरा
है । यह ऐतिहासिक वृक्ष किले के जिस हिस्से में आज भी स्थित है वहाँ आम-जन नहीं जा सकते । यूँ तो अक्षयवट का जिक्र पुराणों में भी हुआ है, पर वह वृक्ष अकबर के किले में स्थित यही वृक्ष है कि नहीं यह कहना आसान नहीं है ।
 सन् १०३० में अलबरूनी ने इसे प्रयाग का पेड़ बताते हुए लिखा कि इस अजीबोगरीब पेड़ की कुछ शाखाएँ ऊपर की तरफ और कुछ नीचे की तरफ जा रही हैं । इनमें पत्तियाँ नहीं हैं । इस पर चढ़कर लोग नदी में छलाँग लगाकर जान दे देते हैं । ११ वीं शताब्दी में समकालिन इतिहासकार महमूद गरदीजी ने लिखा है कि एक बड़ा-सा वट वृक्ष गंगा-यमुना तट पर स्थित है, जिस पर चढ़कर लोग आत्म हत्या करते हैं । १३ वीं शताब्दी में जामी-उत-तवारीख के लेखक फजलैउल्लाह रशीदुद्दीन अब्दुल खैर भी पेड़ पर चढ़कर आत्म-हत्याएँ किये जाने का जिक्र करते हैं । अकबर के समकालिन इतिहासकार बदायूनी ने भी लिखा कि मोक्ष की आस में तमाम लोग इस पर चढ़कर नदी में कूदकर अपनी जान देते हैं । जिस समय अकबर यहाँ पर किला बनवा रहा था तब उसकी परिधि मे कई मंदिर आ गए थे । अकबर ने उन मंदिरों की मूर्तियों को एक जगह इकट्ठा करवा दिया । बाद में जब इस स्थान को लोगों के लिए खोला गया तो उसे पातालपुरी नाम दिया गया । जिस जगह पर अक्षयवट था वहाँ पर रानीमहल बन गया । हिन्दुआें की आस्था का खयाल रखते हुए प्राचीन वृक्ष का तना पातालपुरी में स्थापित किया गया । अक्षयवट को जला कर पूरी तरह से नष्ट करने के प्रयास जहाँगीर के समय में भी हुए, लेकिन हर बार राख से अक्षयवट की शाखाएँ फूट पड़ीं, जिसने वृक्ष का रूप धारण कर लिया । वर्ष १६११ में विलियम फ्रिंच ने लिखा कि महल के भीतर एक पेड़ है, जिसे भारतीय जीवन वृक्ष कहते हैं । मान्यता है कि यह वृक्ष कभी नष्ट नहीं होता । १६९३ में खुलासत उत्वारीख ग्रंथ में भी उल्लेख है कि जहाँगीर के आदेश पर अक्षयवट को काट दिया गया था, किन्तु वह फिर उग आया ।  इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफे सर योगेश्वर तिवारी अक्षयवट को नष्ट करने संबंधी ऐतिहासिक तथ्योंमें सत्यता पाते हैं व उसे सही भी ठहराते हैं । यह वृक्ष अपनी गहरी जड़ों के कारण बार-बार पल्लवित होकर हमें भी जीवन के प्रति ऐसा ही जीवट रवैया अपनाने की प्रेरणा देता है न कि अनजानी उम्मीदों में आत्महत्या करने की । 
आधुनिकता का अभिशाप है, ई कचरा
आज हमारे आसपास दुनिया का चेहरा तेजी से बदल रहा है । हमारे घर पहले से ज्यादा आधनिक हो गए हैं । घरों में पानी की व्यवस्था से लेकर कपड़ों की धुलाई सभी के लिए नए इंतजाम हो गए हैं और इस नवीनता में निश्चित रूप से बिजली का चमत्कार है, लेकिन यह चमत्कार वरदान के साथ अभिशाप भी बन रहा है । ई-कचरे के रूप में यह अभिशाप आज पृथ्वी के पर्यावरण और उस पर रहने वाले विशाल मानव समुदाय के स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा संकट पैदा कर रहा है । कम्यूटर, टी.वी., डीवीडी प्लेयर, मोबाइल फोन, एम-पी-थ्री व अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरण शामिल है । ई-कचरे में कैडमियम, शीशा, पारा, पोलीक्लोरिनेटेड बाई फिनाइल, ब्रोमिनेटर फ्लेम रिटाडेंट जैसे जहरीले पदार्थ भी शामिल होते हैं, जो कि पर्यावरण के लिए बहुत ही खतरनाक श्रेणी में गिने जाते 
हैं । इस समय विश्व में पैदा होने वाले कुल कचरे मेंई-कचरे का हिस्सा करीब ५ प्रतिशत है, जो प्लास्टिक कचरे के बराबर है । ई-कचरे में लगभग १००० ऐसे पदार्थ होते हैं जो जहरीले होते हैं और जिनका निपटारा यदि सही तरीके से न किया गया तो पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को गंभीर खतरा हो सकता है । सूचना क्रांति के वर्तमान युग ने ई-कचरे की समस्या की और भी गंभीर बना दिया है ।
दुनिया में हर रोज निकलने वाले कचरे में ई-कचरे का अनुपात तेजी से बढ़ता जा रहा है । वर्ष २००९ के पहले तीन महीनों में हमारे देश में १६ लाख से ज्यादा डेस्कटॉप और लैपटॉप बिके । इसी तरह वर्ष २०८-२००९ में लगभग ६८ लाख डेस्कटॉप और लैपटॉप बिके थे । डेस्कटॉप और लैपटॉप की सबसे ज्यादा बिक्री पश्चिमी भारत मेंहोती है, जो तकरीबन ३७ प्रतिशत है । इसके अलावा यह आंकड़ा दक्षिण भारत में २३ प्रतिशत, पूर्वी भारत में २२ प्रतिशत और उत्तर भारत में १८ प्रतिशत की बिक्री के क्रम में है । वर्ष २००९-१० में हमारे देश में कुल मिलाकर ७३ लाख से अधिक डेस्कटॉप और लैपटॉप की बिक्री हुई ।
सबसे ज्यादा ई-कचरा पैदा करने वाले शहर मुंबई, दिल्ली, बंगलुर, चैनई, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद, पुणे, सूरत और नागपुर है । ई-कचरे से संबंधित भारत सरकार के दिशानिर्देश में कहा गया है कि वर्ष २००५ में देश में १,४६,१८० टन ई-कचरा पैदा हुआ । ऐसा अनुमान है कि २०१२ तक यह मात्रा आठ लाख टन तक पहुंच जाएगी । अभी तक भारत में ई-कचरे को बड़े पैमाने पर फिर से इस्तेमाल करने यानी रिसाइकल करने की कोई सुविधा नहीं है । ज्यादातर ई-कचरा असंगठित क्षेत्र में ही रिसाइकिल किया जा रहा है, जहां सुरक्षित तौर-तरीकों की अक्सर अनदेखी कर दी जाती है । लैंडफिल में ई-कचरे को निबटाने का तरीका भी कारगर नहीं है, क्योंकि इनसे जहरीले पदार्थ रिसकर मिट्टी ओर भूजल में मिलने का खतरा बना रहता है ।
भारत सरकार ने खतरनाक कचरे के प्रबंधन, निबटान और सीमा के बाहर ढुलाई के नियम वर्ष २००९ में बना दिया है । इसके लिए पर्यावरण मंत्रालय ने एक टास्क फोर्स का भी गठन किया है । सभी तहर के संसाधनों के रिसाकिलिंग अथवा पुनर्चक्रण पर ध्यान देना चाहिए ।
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११ कविता

हाय प्रदूषण
देवकीनंदन कुम्हेरिया

पों-पों, भों-भों का करें, ट्रक ट्रेक्टर मिल शोर ।
कैसिट भर्राटे भरें, साँझ गिनें ना भोर ।।
साँझ गिनें ना भोर, लाउडस्पीकर बारे ।
रहे खोपड़ी खाय, काल बन रहे हमारे ।।
कविनंदन बेमौसम ही, कर दीने बहरे ।
कौन इन्हें समझाय ? बुद्धि के बंदर ठहरे ।।

उड़कर धरती से धुआं, अम्बर पहुँचे जाय ।
बन तिजाव वो रहा है, बीमारी बरसाय ।।
बीमारी बरसाय, कि जो महिने में आता ।
उसमें से आधा तो, ओषधि में उड़ जाता ।।
जो जनजीवन चहो, प्रदूषण दूर भगाओ ।
पर्यावरण सुधारने को, मिल वृक्ष लगाओ ।।

नदियों के जल ने किया, सदा मनुज-कल्याण ।
रूप बिगाड़ा उसी का, रे पापी इन्सान ।।
रे पापी इन्सान ! डालकर गंदे नाले ।
जनजीवन हो गया, स्वार्थ के हाय हवाले ।।
नंदन जिसका नाम लिये, यम-छाँह न आती ।
लख कुकर्म मानव के, माँ यमुना डकराती ।।

जो दिन भर चुर्री चरें, या पीते हैं सिगरेट ।
वो नर जीवन कर रहे, अपना मटिया मेट ।।
अपना मटिया मेट, दूध छलनी में काढें ।
दोष और कूँ देत, भाग्य में खँूटा गाढें ।।
कविनंदन सोचो-समझोगे - सुख पाओगे ।
स्वस्थ रहे तो कुछ समाज को कर जाओगे ।।
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१२ सामाजिक पर्यावरण

नए कानून के नए शिकार
चिन्मय मिश्र

सूचना का अधिकार कानून के सहारे गुजरात के गिर जंगलों में अवैध खनन के खिलाफ संघर्ष करने वाले ३३ वर्षीय अमित जेठवा की हत्या के साथ इस वर्ष के पहले सात महिनोंमें सूचना का अधिकार कानून के कार्यकर्ताआें की हुई हत्याआें की संख्या ८ तक पहुंच गई है ।
अमित जेठवा की २० अक्टूबर को अहमदाबाद उच्च् न्यायालय परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी । इस वर्ष ३ जनवरी को सतीश शेटट्ी की पूणे महाराष्ट्र, ११ फरवरी को विश्राम लक्ष्मण डोडिया की अहमदाबाद, गुजरात, १४ फरवरी को शशिधर मिश्रा, बेगूसराय, बिहार, २६ फरवरी को अरूण सावंत, बदलापुर महाराष्ट्र ११ अप्रेल को सोला रंगाराव, कृष्णा जिला आंधप्रदेश, २१ अप्रैल को विठ्ठल गीते, बीड जिला महाराष्ट्र और ३१ मई की दत्ता पाटिल, कोल्हापुर महाराष्ट्र की भी नृशंस हत्याएं कर दी गई थीं ।
उपरोक्त सभी हत्याआें के संबंध में संबंधित राज्य सरकारों को एक रटा-रटाया जवाब है, मामले की जांच चल रही है । हम शीघ्र की दोषी को पकड़ लेंगे । गौरतलब है कि जिन ८ आर.टी.आई. कार्यकर्ताआें की हत्या हुई है, उनमें से दो कार्यकर्ताआें सतीश शेटट्ी और विश्राम लक्ष्मण डोडिया ने तो संबंधित राज्य सरकारों से पुलिस सुरक्षा की भी मांग की थी, जिस पर सरकार ने ध्यान ही नहीं दिया ? नतीजा सबके सामने है । इसके अलावा पिछले ७ महीनों में देशभर में आर.टी.आई. कार्यकर्ताआें पर २० गंभीर प्राणघातक हमले भी हुए हैं ।
इन घटनाआें ने अक्टूबर २००५ से अस्तित्व में आए सूचना का अधिकार कानून के खतरनाक पक्ष को सामने ला खड़ा किया
है । इनमें यह संदेश भी जा रहा है कि भारत में कानून का इस्तेमाल सिर्फ शासन और प्रशासन जनता के खिलाफ कर सकता है । अगर जनता सूचना का अधिकार कानून के माध्यम से किसी को कटघरे में खड़ा करना चाहती है तो उसका हश्र भी देख लो । इस संदर्भ में भारत के मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह का कहना है, सूचना का अधिकार कानून का प्रभाव अब स्पष्ट रूप से दिखने लगा है, जो लोग सूचना को बाहर नहीं आने देना चाहते वे खतरनाक तरीके अपना रहे हैं ।
सवाल यह उठता है कि अंतत: सूचना कौन-कौन दबाना चाहते हैं ? इसमें सिर्फ वे गैर सरकारी व्यक्ति नहीं हैं, जो अपने विरूद्ध संभावित कार्यवाही से दुख की बात है कि आरटीआई कार्यकर्ताआें को सरकारी उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ रहा है । पिछले वर्ष से दिल्ली स्थित पब्लिक काज रिसर्च फाउंडेशन ने सूचना का अधिकार कार्यकर्ताआें के लिए एक राष्ट्रीय पुरस्कार देने की शुरूआत की है । इसके अंतर्गत प्रथम पुरस्कार प्राप्त् करने वाले आरटीआई कार्यकर्ता आसाम के अखिल गोगोई को भ्रष्टाचार के मामले सामने लाने की सजा के बतौर कई बार जेल भी जाना पड़ा था । देशभर में ऐसे अनगिनत मामले सामने आ रहे हैं ।
देश का शासन, प्रशासन, उद्योग वर्ग, बाहुबली, भू-माफिया आदि यह बात हजम ही नहीं कर पा रहे हैं कि उनसे कोई कुछ पूछ भी सकता है । प्रधानमंत्री के स्तर पर इस कानून मेंबदलाव की पैरवी होने से इन तत्वों के हौंसले एकाएक बढ़ते नजर आ रहे हैं । आजादी के ६ दशक बाद पहली बार जनता को पूछने का हक मिलने से यह काफी संतोष का अनुभव कर रही थी । परंतु इन हिंसक वारदातों के माध्यम से उनका मनोबल तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है । इस बीच उत्तरप्रदेश के सूचना आयुक्त ब्रजेश कुमार मिश्रा ने एक शिकायतकर्ता रामसेवक वर्मा के खिलाफ पुलिस जांच के आदेश दिए हैं। सूचना आयुक्त का मानना है कि यह व्यक्ति सरकारी अधिकारियों को परेशान करता है । अब इसके बाद और क्या कहा जा सकता है ?
इस संदर्भ में एक और घटना पर गौर करना आवश्यक है । मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले में जागृत आदिवासी दलित संगठन, महात्मा गांधी नरेगा, स्वास्थ्य सेवाआें में अनियमितताआें, राशन दुकानों से खाद्य वितरण जैसी समस्याआें के संबंध मेंकई बार आरटीआई के माध्यम से जानकारी लेकर और कई बार सीधे भी संघर्ष करता है । आदिवासियों का संघर्ष पूर्णत: शांतिपूर्ण होता है । इसलिए प्रशासन उनके विरूद्ध ज्यादा सख्त धाराएं लगाने में असमर्थ रहता है । आदिवासियों में बढ़ती जागरूकता को दबाने के लिए अंतत: प्रशासन ने अपने हथकंडे अपनाए ओर इस संगठन के प्रमुख कार्यकर्ता वालसिंह को लूट और लकड़ी की तस्करी के आरोप में गिरफ्तारी कर लिया । इस प्रकार भ्रष्टाचार का विरोध कराने वाला स्वयं ही अपराधी करार कर दिया गया । यही वास्तविक भारतीय शासनतंत्र है ।
यह लेख लिखते-लिखते ही समाचार मिला कि उत्तरप्रदेश के बहराइच जिले के कटघर गांव का रहने वाला विजय बहादुर उर्फ बब्बूसिंह जो लखनऊ में होमगार्ड में पदस्थ था, उसने अपने गांव में हो रहे निर्माण में बरती जा रही अनियमितताआें को लेकर आरटीआई के अंतर्गत आवेदन दिया था । इस बार जब वह गांव मेंआया तो संबंधित पक्षों ने २७ जुलाई को उसकी हत्या कर दी । इस तरह इस साल हत्याआें का यह आंकड़ा ९ तक पहुंच चुका है । पूणे महाराष्ट्र में मारे गए सतीश शेटट्ी ने १० वर्ष पूर्व पूणे मुम्बई एक्सप्रेस-वे परियोजना में हुए भूमि सौदों में भ्रष्टाचार उजागर किया था । वर्तमान में वे एक कंपनी द्वारा धोखाधड़ी करके अधिग्रहित की गई १८०० एकड़ भूमि से संबंधित दस्तावेजों को शासन से प्राप्त् करने में प्रयासरत थे । वही बब्बू सिंह इसके मुकाबले बहुत छोटे भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करना चाहते थे । परंतु दोनों को अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ा ।
आरटीआई कार्यकर्ता आम आदमी की तकलीफों को समझते हुए स्वयं को एक हथियार में परिवर्तित कर रहे हैं । सेना में संघर्ष के दौरान हुई मृत्यु को सर्वोच्च् बलिदान की संज्ञा दी जाती है । हम सबके लिए संघर्ष करने वालों के बलिदान को क्या इससे कमतर आंका जा सकता है ? मगर यह हम सबका दुर्भाग्य है कि इन कार्यकर्ताआें की असामाजिक मृत्यु अभी भी हत्या की श्रेणी तक ही पहुंची हैं । हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारे ये कार्यकर्ता शहीद हैं और उन्होंने देशहित में सर्वोच्च् बलिदान दिया है ।
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१३ मौसम

धरती क्यों सूखी, बारिश क्यों रूठी ?
श्वेता आनंद

मानसून का लगातार अनियमित होना भविष्य के लिए खतरे की घंटी है । भूजल का कम से कम दोहन और पानी की अधिक खपत करने वाली फसलों की बुआई कम करके ही हम स्वयं को बचा सकते हैं ।
देश में पड़ रही भीषण गर्मी और बारिश में होने वाली देरी से सभी परेशान है और देवताआें को मनाने का सिलसिला भी शुरू हो चुका है । बारिश लोगों के लिए उत्सव और खुशी का माहौल लेकर आती है । यह देश के लिए किसी वरदान से कम नहींहोती ।
मानसून का खेती के संदर्भ में प्रभाव नेशनल अकेडमी ऑफ एग्रीकलचर रिसर्च मेनेजमेंट, हेदराबाद के निदेशक डॉ.प्रमोद कुमार जोशी कहते हैंकि कृषि आज भी हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में १५.७ प्रतिशत का एक बड़ा हिस्सा देती है । भारत की लगभग आधी आबादी आज भी खेती पर ही निर्भर है । अभी मानसून के दगा देने से बाढ़, सूखा अथवा अपर्याप्त् मदद की वजह से खेती आजीविका के लिए उतनी आकर्षक नहीं रह गई है ।
भारत की १४ करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि में से ८ करोड़ हेक्टेयर बारिश पर ही निर्भर, लगभग ६० प्रतिशत खेती कृत्रिम रूप से सिंचित भूमि के सहारे हैं जो खेत में उपलब्ध भूजल पर ही निर्भर करता है, न कि नहरों या बाँधों पर (लेकिन यह भूजल भी उसी समय भरेगा जब अच्छी बारिश होगी) । ऐसी धारणा बनी हुई है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तरप्रदेश का हरित और उपजाऊ क्षेत्र बाँधों के पानी के कारण है, जबकि ऐसा नहीं है, यह इलाका अधिकतर भूजल द्वारा ही सिंचित है ।
वरिष्ठ पर्यावरणकर्मी अनुपम मिश्र कहते हैं, हजारों वर्षोंा से भारत के किसान बारिश पर ही निर्भर रहते आए हैं, सो वे जानते हैं कि परिस्थिति का सामना कैसे किया जाये, कौन सी फसल ली जाए, किसी जगह ली जाए, वर्ष के किस समय ली जाए आदि । हम ज्ञान उनका परम्परागत ज्ञान है, दुर्भाग्य से आज की हालत यह हो गई है कि इन किसानों की जरूरत को सरकारों और बाजार की शक्तियों द्वारा मिल-जुलकर नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है ।
भारत में वर्षाकाल सामान्यतौर पर जून से सितम्बर तक होता है । देश में वर्षा बहुत अधिक भिन्नता लिए होती है । जैसे राजस्थान के कई भागों में बारिश का वार्षिक औसत सिर्फ १०० मि.मी. है तो दूसरी तरफ मेघालय में अधिकतम ११,००० मि.मी. बारिश भी हो जाती है । जाहिर है कि तर्कसंगत रूप से भिन्नता लिए हुए फसलें उगाना ही सही रहेगा ।
उत्तराखण्ड में बड़े बांधों के निर्माण के खिलाफ आंदोलन चलाने वाले विमलभाई कहते हैं, हम लोग प्रकृति द्वारा मानव प्रजाति को विभिन्न प्रकार के भोज्य देने की क्षमता के प्रति सम्मान नहीं दिखा रहे, जबकि प्रकृति अलग-अलग मौसम और क्षेत्र के अनुसार अनाज, सब्जियाँ और फल उत्पादन करने में सक्षम है । हम लोग ठण्ड के दिनों में आम की माँग करते हैं और गर्मियों मे संतरों की ।
खाद्य पदार्थोंा की विविधता में कमी तथा किसानों द्वारा उगाई जाने वाली फसलों के बाजारीकरण से विजय जड़धारी भी बहुत परेशान हैं । उनके बीज बचाआें आंदोलन ने उत्तराखंड में बेहतरीन काम किया है और इस सत्याग्रही आंदोलन के कारण कई खाद्य फसलें, सब्जियों, बीजों, पेड़ों और मसालों को भी संरक्षित करने में सफलता हासिल हुई हे। जिन दिनों भारत में कृषि परम्परागत और मुख्य व्यवसाय माना जाता था उस समय प्रमुख भोज्य पदार्थ रागी ज्वार और बाजरा ही थे, जो बेहद पौष्टिक और सूखा प्रतिरोधी भी थे । लेकिन धीरे-धीरे इस भोजन को गँवार का भोजन (जिसे गाँव वाले खाते हैं ) कहकर दुष्परिणाम किया जाने लगा और उसकी जगह ले ली, चावल और गेहूँ ने जो खाने में स्वादिष्ट है, छूने में कोमल लगते हैं और अमीरों की आँखों को भाते हैं । इसका प्रचार होने के कारण लोग इसे अधिक खाने लगे जिससे इन खाद्य जिंसों का बड़ा बाजार तैयार हो गया । मजबूरी में किसान अधिक पानी पर आधारित तथा रासायनिक उर्वरकों से भरपूर गेहूं-चावल की फसलें उगाने लगे ।
प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए बनाये गए कार्यक्रम भारत निर्माण को प्रचारित करते हुए अक्सर इस बात पर जोर दिया है कि कृषि उत्पादन वृद्धि के लिए गाँवोंमें मानव निर्मित सिंचाई प्रणाली को बढ़ावा दिया
जाएगा । जल भण्डारण और बड़ी-बड़ी सिंचाई परियोजनाएं बीते वर्षोंा के दौरान लगातार असफल सिद्ध हुई हैं । उनसे होने वाली सिंचाई घट रही है, जिससे खेती के कामों का दायरा घट रहा है । एक तरफ बड़े बाँधों और परियोजनाआें के कारण आम जनता के कर (टेक्स) का पैरा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता
है, वहीं इनके कारण सिंचित जमीन के बड़े हिस्से में भी प्रतिवर्ष कमी आ रही है । उपरोक्त तथ्य प्रसिद्ध पर्यावरणविद् हिमांशु ठक्कर द्वारा केन्द्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा सूचना के अधिकार तहत माँगी गई जानकारी के दस्तावेजों में सामने आया है ।
हिमांशु ठक्कर का कहना है कि अधिकारिक आँकड़ों के अनुसार भारत में पिछले १५ वर्ष में बड़ी और मझोले आकार की सिंचाई परियोजनाआें पर एक लाख बयालीस हजार करोड़ रूपया खर्च किया जा चुका है, लेकिन सिंचित भूमि के क्षेत्रफल में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो सकी है, जबकि भारत निर्माण के प्रमुख लक्ष्यों में से एक है सिंचित भूमि को अधिक से अधिक बढ़ाना । यहाँ तक कि इसके पहले चलने वाला कार्यक्रम, जिसे एक्सेलेरेटेड ईरिगेशन बेनेफिट्स प्रोग्राम कहा जाता था, उसमें भी सिंचित भूमि के रकबे में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई थी । बल्कि इसके उलट बड़ी सिंचाई परियोजनाआें के कारण सिंचित भूमि के क्षेत्र में२४ लाख हेक्टेयर की कमी आ गई थी ।
अनुपम मिश्र कहते हैं कि कम से कम पानी एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें भारत कतई गरीब नहीं है, राजस्थान के कई इलाकों में लोग आज भी परम्परागत तरीके से बारिश का पानी एकत्रित करते हैं, और कम से कम पानी में भी कई प्रकार की फसलें उगा लेते हैं ।
पानी के भारी दुरूपयोग और कुप्रबन्धन के बारे में खाद्य और कृषि नीति विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा कहते हैंकि राजस्थान के कुछ शहरों में बड़े-बड़े गोल्फ कोर्स, होटल बडे भवन गन्ने के खेत और संगमरमर की खदानों में पानी की भारी बरबादी की जा रही है । इन सभी की वजह से भूजल तेजी से नीचे जा रहा है । उदाहरण के लिए एक १८ होल वाले गोल्फ के मैदान को हराभरा रखने के लिए जितना साफ पानी उपयोग में लिया जाता है, उतने मे ं२०,००० घरों की पानी की जरूरत पूरी की जा सकती है ।
भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) मानसूनकी भविष्यवाणी सही तरीके से नहीं बता सक ने की वजह से लोगों के गुस्से का केन्द्र बना हुआ है । विज्ञान लेखक पल्लव बागला कहते हैं कि भारत में १९९४ में भीषण बाढ़ आई थी, और १९८७, २००२, २००४ और २००९ में सूखा पड़ा था, जबकि मौसम विभाग ने २०१० में भी सामान्य मानसून की भविष्यवाणी की है । श्री बागला कहते हैं कि इतने महत्वपूर्ण विभाग को किसानों तथा नीति निर्माताआें को मौसम के बारे में एकदम सटीक जानकारी देने में सक्षम होना चाहिए, ताकि वे अच्छी अथवा बुरी से बुरी स्थिति के लिए भी खुद को तैयार कर सकें । पिछले वर्ष भी सामान्य मानसून की घोषणा के बावजूद देश में बारिश औसतन २२ प्रतिशत कम हुई, जिसका सीधा असर चावल की कमी के रूप में हुआ तथा खाद्य पदार्थोंा की मुद्रास्फीति बढ़ती चली गई । ऐसी स्थिति में गरीब किसान सबसे अधिक प्रभावित होता है ।
अच्छी फसल और बारिश की सटीक भविष्यवाणी के बीच सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए राष्ट्रीय जलवायु केन्द्र के निदेशक डी.एस.पई कहते हैंकि यदि अगले दिन बारिश होने की सटीक सम्भावना व्यक्त की जायेगी तो किसान खेतों में सिंचाई नहीं करेगा वरना उसके खेतों में अधिक पानी जमा हो सकता है, जो फसल के लिए नुकसानदायक होगा । मौसम विभाग आम जनता से मौसम सम्बन्धी महत्वपूर्ण आँकड़े छिपाकर रखता है । यदि मौसम विभाग विभिन्न जिलों और तहसीलों के मौसम तथा बारिश सम्बन्धी आँकड़ों का सतत अध्ययन करता रहता तो सूरत में २००६, उड़ीसा में २००८ तथा दामोदर घाटी में २००९ की बाढ़ से होने वाली जन-धन की हानि को रोका जा सकता था ।
सन् २००९ में नासा की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के प्रमुख अन्न उत्पादन क्षेत्र, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भूजल की स्थिति बेहद खराब हो चुकी है । पानी के भारी दुरूपयोग और तथाकथित विकास के नाम पर भवन निर्माण गतिविधियों के चलते जमीन का अधिकर पानी सोखा जा चुका है, जिसे जल्दी से रिचार्ज कर पाना अब असम्भव है । क्योंकि भूजल रिचार्ज करने के लिये प्रकृति की अपनी एक समय सीमा होती है । हमें उस प्राकृतिक प्रकिया का सम्मान करना चाहिए और भूजल को उपयोग सीमित करने के साथ-साथ भूजल पुनर्भरण पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
मानसून को दोष देने की बजाय हमें अपने अन्दर झाँककर देखना चाहिए, कि हम प्रकृति के कितने बड़े दोषी हैं । स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए हमें प्रकृति के साथ चलना होगा, जब हम उसे इतना बिगाड़ चुके हैं तो उसे सुधारने के लिए एक निश्चित वक्त तो देना ही होगा । बात-बात पर मानसून को दोष देने पर बात नहीं बनेगी ।
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१४ दवाईयां

स्वास्थ्य बड़ा या रूपय्या ?
सुमन नारायणन

बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां येन-केन प्रकरेण अपने उत्पादों को पूरे विश्व पर थोपना चाहती हैं । भारत जैसे देशों में वैधानिक तरीक से बन रही जेनेटिक दवाईयों के निर्यात को बलपूर्वक रोकने के लिए सभी विकसित औद्योगिक देश एकजुट हो गए हैं। इस षडयंत्र के फलस्वरूप जहां भारतीय दवाई कंपनियों को आर्थिक हानि उठानी पड़ेगी वहीं इसके परिणामस्वरूप तीसरी दुनिया के करोड़ों लोग सस्ती दवाईयों से दूर हो जाएगें । इसका सीधा असर इन सबके स्वाथ्य के साथ ही साथ इन देशों की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा ।
कई औद्योगिक देश एसी आपसी प्रयत्नशील हैं, जो कि विकासशील देशों को कम मूल्य की दवाइयों की उपलब्धता को बाधित करेगी, जिसके परिणामस्वरूप वे पेटेंट वाली महंगी दवाइयों पर निर्भर हो जाएगें । इससे विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के ट्रेडमार्क संबंधी दिशानिर्देशों के मद्देनजर किसी ऐसी वस्तु को नकली जाली घोषित किया जा सकता है, जिससे कि पेटेंट का उल्लंघन होता प्रतीत हो रहा हों ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) एवं डब्ल्यूटीओ की नकली को लेकर अपनी-अपनी परिभाषाएं हैं । डब्ल्यूएचओ उन सभी दवाईयों को नकली मानता है, जिनके अवयव या संघटक नकली हो, इनकी मात्रा गलत हो या नकली पैकिंगकी गई हो । डब्ल्यूएचओ को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि इस तरह की दवाई जेनेरिक है या पेटेंट ।
इसके ठीक विपरित डब्ल्यूटीओ को मात्र ट्रेड मार्क उल्लंघन से मतलब है । उसे व्यापार संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकार (ट्रीप) को लेकर भी अनेक आपत्तियां है । जिसमें एक यह भी है कि ये ट्रेडमार्क भले ही एक से ना हों मगर इनमें समानता भी दिखती हों तो उसे नकली करार दिया जा सकता है । जेनेरिक दवाईयों को लेकर ट्रिप का रवैया हमेंशा सख्त रहा है क्योंकि वे कहीं न कहीं पेटेंट की गई मूल औषधि से मिलती-जुलती दिखती हैं। परन्तु ट्रिप भी जेनेरिक औषधियों को नकली नहीं मानता है ।
अमेरिका, यूरोपिय यूनियन, जापान, न्यूजीलैंड एवं आस्ट्रेलिया इस परिभाषा में विस्तार कर बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) में हुए किसी भी उल्लंघन को नकली करार देना चाहते हैं । केन्द्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय में आईपीआर विभाग के निदेशक टी.सी.जेम्स का कहना है कि एंटी काउंटरफीटिंग ट्रीटी (नकल के विरूद्ध संधि) (ए.सी.टी.ए.) के अन्तर्गत ऐसा कोई भी उत्पाद नकली घोषित किया जा सकता है, जिसका पेटेंट केवल एक ही देश में हो । इसके बाद इस बात का कोई अर्थ नहींरह जाता कि उस देश में जेनेरिक दवाईयों का निर्माण एवं आयात वैध हो । जेम्स का कहना है कि औद्योगिक देशों ने केन्या को इस बात के लिए राजी कर लिया है कि ऐसी जालसाजी के खिलाफ कानून पारित कर दें। मोरक्को, मेक्सिको एवं सिंगापुर में भी ऐसे ही कानून बने हुए हैं । अपनी बात को समझाते हुए जेम्स कहते हैं अगर कोई वस्तु पेटेंट वेटिकन में हुआ है तो वह वस्तु केन्या में नकली मान ली
जाएगी ।
सीमा संबंधी मामले - इस तरह की बहुस्तरीय जालसाजी विरोधी संधि के कारण भारतीय जेनेरिक दवाईयों का लेटिन अमेरिका के देशों को निर्यात कमोबेश असंभव हो
जाएगा । क्योंकि इन देशों तक दवाइयों के पहुंचने के बीच में कई देश आते हैं, जो आपस में इसतरह की संधि हेतु प्रयास कर रहे हैं । ये देश हैं मेक्सिको, अमेरिका, जापान, सिंगापुर, आस्ट्रेलिया, मोरक्को, केन्या व यूरोपियन यूनियन । ये सभी समुद्रतटीय देश हैं जो कि भारत एवं लेटिन अमेरिका के बीच में पड़ते
हैं ।
वास्तविकता यह है कि हम ऐसी स्थिति का स्वाद चख भी चुके हैं। २००३ में यूरोपियन यूनियन के देशों ने अपने राष्ट्रीय कानूनों में परिवर्तन करके स्वयं पेटेंट से संबंधित पक्षों के प्रति उत्तरदायी बना लिया है। इसके बाद इन देशों के कस्टम अधिकारी पेटेंटधारी की शिकायत पर आवागमन के दौरान भी वस्तु को जब्त कर सकते हैं ।
पिछले सात वर्षोंा में भारत द्वारा लेटिन अमेरिका को निर्यात की गई जेनेरिक दवाईयों को नियमित रूप से यूरोप के देशों में जब्त किया जा रहा है । गत वर्ष हालैंड के तटीय नगर रोटरडेम के कस्टम अधिकारियों ने ब्राजील जा रही उच्च् रक्तचाप के लिए इस्तेमाल में आने वाली भारत में निर्मित जेनेरिक औषधी लोसारटन को जब्त कर लिया था । गौरतलब है कि यह औषधि इन दोनों देशों में पेटेंट नहीं कराई गई है । डब्ल्यूटीओ की पेनल इस जब्ती के खिलाफ भारत की अपील की सुनवाई कर रही है । भारत के मामले को ब्रिटेन के एक न्यायालय द्वारा दिये गए फैसले से राहत की उम्मीद बंधी है, जिसमें ब्रिटेन कस्टम द्वारा जब्त किए गए मोबाईल फोन्स को छोड़ना पड़ा था । इस मामले में एक बड़ी फोन निर्माता नोकिया की शिकायत पर अधिकारियों ने जब्ती की कार्यवाही की थी, परंतु न्यायालय ने ट्रिप्स के प्रावधानों के अनुसार फैसला देते हुए निर्णय दिया कि नकली होने की अवस्था में भी परिवहन के दौरान वस्तु को जब्त नहीं किया जा सकता ।
निषेधाज्ञा - भारत के दवाई निर्माताआें की मुख्य संस्था इंडियन फामस्यिुटिकल अलाइंर्स को बौद्धिक संपदा के संबंध में सलाह देने वाले रघु कंपनियों की मांग के अनुरूप लचीला नहीं है ।अतएव अब ये कंपनियां सरकारोंसरकारों पर दबाव डालकर जालसाजी के विरूद्ध नए कदम उठा रही है । एसीटीए वर्तमान में प्रचलित बौद्धिक संपदा प्रणाली को अलग तरीकेसेलांघ सकता है । ट्रिप्स के अंतर्गत पेटेंटधारी के पक्ष में निर्णय देने के पहले न्यायालय को पेटेंट की वैधता भी आंकना होगी । इस संदर्भ में मेडिसिन्स सेंस फ्रंटियर्सफॉर एक्सेस टू ईसेंन्सियल मेडिसन की लीना मेघाने का कहना है न्यायालय को दवाईयों तक पहुंच के अधिकार के विरूद्ध किसी एक के संस्थान के पेटेंट संबंधी अधिकारों के मध्य संतुलन बनाना होगा । जालसाजी के विरूद्ध प्रस्तावित समझौता न्यायालयों को इस बात के लिए बाध्य कर देगा कि वे पेटेंट की वैद्यता सिद्ध होने के पूर्व ही जेनेरिक दवाईयों का उत्पादन और वितरण पर रोक लगा दें ।
जालसाजी विरोधी संधि की न्यायालयों से यह मांग रहेगी कि वे पेटेंट के संदिग्ध उल्लंघनकर्ता के बैंक खातों पर रोक एवं उसकी सम्पत्ति भी जब्त कर लें । सुश्रीमेघाने का कहना है कि यह लोगों को डराने का अच्छा तरीका है, जिससे कि वे केवल पेटेंट वाले उत्पाद ही इस्तेमाल करें ।
विकसित देशों की सरकारों ने जेनेरिक दवाईयों के परिवहन पर रोक लगाने के और भी तरीके खोजे हैं । २००८ में उन्होंने विश्व की शीर्ष डाक सेवा इकाई यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन को इस बात के लिए बाध्य किया कि वे पेटेंट का उल्लंघन करने वाले संदिग्ध उत्पादों की पहचान करें एवं उनके परिवहन को रोकें । इस तरह अगर कोई इंटरनेट पर जेनेरिक दवाईयों का आर्डर करेगा तो यह डाक सेवा इस बात के लिए बाध्य है कि वह इसे जालसाली वाली मानकार इस पर रोक लगाए ।
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