सोमवार, 16 अक्तूबर 2017


प्रसंगवश
स्वच्छता में तेजी से आगे बढ़ रहा मध्यप्रदेश
सुरेश गुप्त, अपर संचालक, जनसंपर्क, म.प्र. भोपाल
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान को शुरू हुए तीन साल हो गए है । इन तीन सालों में स्वच्छता के मामले में जितनी प्रगति मध्यप्रदेश ने की, उतनी अन्य कोई राज्य नहीं कर पाया । आज की स्थिति  में तो प्रदेश के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में मिशन के क्रियान्वयन ने जन-आंदोलन का रूप ले लिया है । लोग अपनी बस्ती, ग्राम, शहर और जिले को खुले मेंशौच से मुक्त बनाने के लिए सरकार के प्रयासों से अलग खुद भी नवाचार कर रहे है । 
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जन्मदिन को सेवा दिवस के रूप में मनाते हुए मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान व मंत्री परिषद् के सदस्यों ने शौचालय निर्माण के लिए गड्ढे खोदे । इधर, प्रदेश में १५ सितम्बर २ अक्टूबर (गांधी जयंती) तक स्वच्छता सेवा पखवाड़ा भी मनाया गया । सैकड़ों ऐसे उदाहरण है, जो बताते है कि प्रदेश स्वच्छता के मूल मंत्र को जन-सेवा से जोड़कर इस दिशा में तेजी से डग भर रहा है । स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के तहत प्रदेश की सभी २२ हजार ८२४ ग्राम पंचायतों के एक करोड़ १८ लाख १५ हजार आवासीय घरों में स्वच्छ शौचालय की सुविधा उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर प्राणपण से काम किया जा रहा     है । 
राज्य सरकार का संकल्प प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र को खुले मेंशौच से मुक्त बनाना है । अभियान में अब तक ११ जिले, ५१ विकासखंड, ७५३२ ग्राम पंचायत व १७ हजार ९८९ ग्राम खुले में शौच से मुक्त हो चुके  है । वर्ष २०१३-१४ में ग्रामीण क्षेत्र में ५ लाख, १५ हजार ५८४ शौचालय थे, जो अब बढ़कर ७८ लाख ८१ हजार से ज्यादा है । अब स्वच्छता अभियान सुखद आश्चर्य पैदा करता है । 


सम्पादकीय 
दुनिया में दो अरब लोग साफ पानी से वंचित 
दुनिया के सामने आतंकवाद, बेरोजगारी के अलावा भी बहुत बड़ी परेशानी खड़ी हो रही है । वह परेशानी है साफ पानी की । बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतेरस ने कहा कि दुनिया में सभी क्षेत्रों में पानी को लेकर तनाव बढ़ रहा है । 
संरा के १९३ सदस्य देशों में से एक चौथाई अपने पड़ोसी देशों की नदियों या झीलों के पानी को साझा करते हैं । इसलिए यह जरूरी है कि राष्ट्र पानी के बंटवारे और दीर्घकालिक इस्तेमाल को सुनिश्चित करने के लिए सहयोग करें । यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि २०५० तक समूची दुनिया में साफ पानी की मांग ४० फीसदी तक बढ़ जाएगी । उन्होंने चेतावनी दी कि दुनिया की आबादी का एक चौथाई हिस्सा ऐसे देशों में रहेगा जहां साफ पानी की बार-बार कमी होगी । 
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया के दो अरब लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिलता जिससे उन्हें हेजा, आंत्रशोध आदि जानलेवा बीमारियों के होने का खतरा रहता है । 
पानी की मांग में हो रही बेतहाशा बढ़ोत्तरी, भूमिगत जल के स्तर में कमी लाने वाली कृषि पद्धतियां, उसका प्रदूषित होना और योजनाआें के अभाव के चलते पानी की उपलब्धता का प्रभावित होतीहै । 
देश के नौ राज्यों जिनमें बिहार, गुजरात, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु, झारखंड और उत्तरप्रदेश की तकरीबन १३९५८ बस्तियां शामिल हैं, जिनका भू-जल प्रदूषित है । सन् १९५७ में योजना आयोग के अनुसार देश में २३२ गांव बेपानी थे, लेकिन आज उनकी तादाद तकरीबन दो लाख से भी ज्यादा है । 

सामयिक
बाढ़ नियंत्रण का बढ़ता खर्च 
भारत डोगरा

बाढ़ की त्रासदी अब देश की नियति हो गई है, जो जल जीवन के लिये जीवनदायी वरदान है, वही अभिशाप साबित हो रहा   है । 
बाढ़ जैसी आपदाओं के नियंत्रण के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें अरबों रुपए खर्च करती   हैं । देश हर तरह की तकनीक में पारंगत होने का दावा करता है, लेकिन जब हम बाढ़ की त्रासदी झेलते हैं तो ज्यादातर लोग अपने बूते ही पानी में जान व सामान बचाते नजर आते हैं । 
पिछले दिनों देश का एक बड़ा भाग बाढ़ की आपदा से त्रस्त था । भारत में बाढ़ में दो तथ्य महत्वपूर्ण हैं - पहली महत्वपूर्ण बात तो यह है कि जितना क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित होता है वह बाढ़ नियंत्रण पर अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद बढ़ रहा है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कई स्थानों पर बाढ़ की उग्रता बढ़ रही   है ।
ऐसा क्यों हुआ इसके अनेक कारण बताए जाते हैं। जैसे जल निकासी के रास्तों को अवरुद्ध करते हुए नयी बस्तियाँ बसाना (विशेषकर शहरी क्षेत्रों में या शहरीकृत हो रहे क्षेत्रों में), सड़कों, नगरों और रेल मार्गों के निर्माण के समय निकासी की पर्याप्त व्यवस्था न करना, संसाधनों के अभाव या दुरुपयोग के कारण वर्षा से पहले नालों की सफाई जैसे जरूरी कार्य न करना आदि । अलग-अलग जगहों पर ये सभी कारण महत्वपूर्ण हो सकते हैं, कहीं कम तो कहीं ज्यादा, पर केवल इनके आधार पर यह नहीं समझा जा सकता है कि बाढ़ नियंत्रण पर कई हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बाद भी बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में इतनी वृद्धि क्यों हुई है ।
वास्तविकता तो यह है कि बाढ़ का बढ़ता क्षेत्र और इसकी बढ़ती जानलेवा क्षमता को तभी समझा जा सकता है यदि बाढ़ नियंत्रण के दो मुख्य उपायों-तटबंधों और बांधों पर खुली बहस द्वारा यह जानने का प्रयास किया जाए कि अनेक स्थानों पर क्या बाढ़ नियंत्रण के इन उपायों ने ही बाढ़ की समस्या को नहीं बढ़ाया है और उसे अधिक जानलेवा बनाया है ? राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की रिपोर्ट (१९८०) में भी नियंत्रण के उपायों की इन सीमाओं की ओर ध्यान दिलाते हुए ऐसी परिस्थितियों का भी जिक्र था जब इनका निर्माण, रख-रखाव या संचालन उचित न होने से बाढ़ की समस्या और उग्र भी हो सकती है। 
आठवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज (१९९२) में भी इस बात पर जोर दिया गया है कि जो बाढ़ नियंत्रण परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं, उनका आलोचनात्मक मूल्यांकन इस बात को ध्यान में रखते हुए किया जाए कि इनसे कितनी सुरक्षा मिल सकी, परियोजना बनाते समय इसके क्या उद्देश्य समझे गए थे व वास्तविकता क्या रही है। दस्तावेज में कहा गया है कि इस मूल्यांकन में तकनीकी व प्रशासनिक गलतियाँ अवश्य स्पष्ट होनी चाहिए, आगे मुख्य प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि इन गलतियों को दूर किया जाए ।
तटबंधों की बाढ़ नियंत्रण उपाय के रूप में एक तो अपनी कुछ सीमाएं हैं तथा दूसरे निर्माण कार्य और रखरखाव में लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण हमने इनसे जुड़ी समस्याओं को और भी बहुत बढ़ा दिया है । तटबंध द्वारा नदियों को बाँधने की एक सीमा तो यह है कि जहाँ कुछ बस्तियों को बाढ़ से सुरक्षा मिलती है वहां कुछ अन्य बस्तियों के लिए बाढ़ का संकट बढ़ने की संभावना भी उत्पन्न होती है । 
अधिक गाद लाने वाली नदियों को तटबंध से बाँधने में एक समस्या यह भी है कि नदियों के उठते स्तर के साथ तटबंध को भी निरंतर ऊंचा करना पड़ता है । जो आबादियाँ तटबंध और नदी के बीच में फंस कर रह जाती हैं, उनकी दुर्गति के बारे में तो जितना कहा जाए कम है। केवल कोसी नदी के तटबंधों में लगभग ८५ हजार लोग इस तरह फंसे हुए हैं । ऐसे लोगों के पुनर्वास के संतोषजनक प्रयास बहुत कम हुए हैं ।  
इतना ही नहीं, तटबंधों द्वारा जिन बस्तियों को सुरक्षा देने का वायदा किया जाता है उनमें भी बाढ़ की समस्या बढ़ सकती है । यदि वर्षा के पानी के नदी में मिलने का मार्ग अवरुद्ध कर दिया जाए और तटबंध में इस पानी के नदी तक पहंुचने की पर्याप्त व्यवस्था न हो तो दलदलीकरण और बाढ़ की एक नयी समस्या उत्पन्न हो सकती है। यदि नियंत्रित निकासी के लिए जो कार्य करना था उसकी जगह तो छोड़ दी गयी है पर लापरवाही से कार्य पूरा नहीं हुआ है तो भी यहाँ से बाढ़ का पानी बहुत वेग से आ सकता है। 
तटबंध द्वारा 'सुरक्षित` की गयी आबादियों के लिए सबसे कठिन स्थिति तो तब उत्पन्न होती है जब निर्माण कार्य या रख-रखाव उचित न होने के कारण तटबंध टूट जाते हैं और अचानक बहुत सा पानी उनकी बस्तियों में प्रवेश कर जाता है। इस तरह जो बाढ़ आती है वह नदियों के धीरे-धीरे उठते जल-स्तर से कहीं अधिक विनाशकारी होती है ।
एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यावरण विनाश बहुत हुआ है । पर्वतीय क्षेत्रों में पानी का वेग भी बहुत होता है तथा यहां से बहुत सा मलबा, मिट्टी-गाद आदि नीचे के जलाशयों और नदियों में पहंुचते हैं व वहाँ बाढ़ की गंभीरता को बढ़ाते हैं । 
बाढ़ की बढ़ती हुई विनाशलीला के लिए पर्वतों में वन-कटान, विस्फोटों का अधिक उपयोग, असावधानी से किया निर्माण व खनन कार्य इन सब की बहुत भूमिका रही है। जब तक पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यावरण विनाश नहीं रुकेगा, तब तक बाढ़ से बढ़ते विनाश को नहीं थामा जा सकता  है ।
हमारा भूमण्डल
जलवायु समझौते के प्रभावहीन होने का खतरा
मार्टिन खोर 
वर्तमान में दुनिया बेसब्री से इंतजार कर रही है कि अमेरिका पेरिस समझौते में रहेगा या छोड़  देगा । अमेरिका के छोड़ने पर यह लगभग निश्चित है कि जलवायु परिवर्र्तन के हानिकारक प्रभावों को रोकने के लिए पैदा हुई है वैश्विक सहमति पर इसका विपरीत प्रभाव होगा । 
दिसंबर २०१५ को पेरिस समझौता दुनिया के १९५ देशों ने स्वीकार किया, जो नवंबर २०१६ में प्रभावशील हुआ । संकटग्रस्त मानवीय अस्तित्व तथा ग्लोबल वार्मिंग के विपरीत प्रभावों को कम करने के लिए भागीदार सभी देशों की सरकारों ने सहयोग की ओर हाथ बढ़ाया । इसके बाद अमेरिका में चुनाव हुए एवं डोनाल्ड ट्रम्प का प्रशासन प्रारम्भ हुआ । 
अपने चुनाव अभियान में ट्रम्प ने कहा था कि वे अपने जलवायु परिवर्तन के समझौते से अमेरिका को अलग करेगें । अपने इस कथन को पूरा करने हेतु मार्च २०१७ में ट्रम्प ने एक कार्यकारी आदेश जारी कर पूर्व राष्ट्रपति ओबामा की स्वच्छ ऊर्जा योजना को रद्द कर दिया । साथ ही उन्होंने यह कहा कि अमेरिकी निवासियों को अब ज्यादा मूर्ख नहीं बनने देगें । क्योंकि जलवायु समझौता वित्तीय तथा आर्थिक बोझ से भरा है। उन्होंने राजकोशीय बजट २०१८ में पूर्व राष्ट्रपति प्रशासन की वह व्यवस्था भी समाप्त कर दी जिसके तहत यू. एन. ग्रीन क्लाईमेट फण्ड को बड़ी मात्रा में आर्थिक सहायता प्रदान की जाती थी ।
एनवारोमेंटल प्रोटोकाल एजेंसी (ई.पी.ए.) के बाजट में एक तिहाई की कमी की गयी । २०१६ में एजेंसी का बजट ८.१ बिलीयन डॉलर का था । डोनाल्ड ट्रम्प के ये सारे क्रिया कलाप उस समय हो रहे हैं जब विश्व पर्यावरण एक बहुत ही खतरनाक स्थिति में है। वर्ष २०१६ काफी गर्म रिकार्ड किया गया एवं जलवायु परिवर्तन के कई विनाशकारी प्रभाव दुनिया के अलग-अलग भागों में देखे गये । इन प्रभावों में समुद्र तल का बढ़ना, वर्षा में बदलाव, तूफान, चक्रवात, सूखे का फैलाव व ग्लेशियर्स का पिघलना प्रमुख थे। 
हवाई स्थित मोरा लोवा वैधशाला ने वायु मंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा ४१० पीपीएम (पाट्र्स पर मिलीयन) रिकार्ड की एवं बताया कि जल्द ही यह मात्रा ४५० पी पी एम तक पहुंच जावेगी । जहां वैश्विक तापमान को ०२ डिग्री सेल्सियम पर सीमित करने की सम्भावना ५० प्रतिशत बढ़ी रह जावेगी । पेरिस समझौता एक प्रतीक तथा अभिव्यक्ति है। जो वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को रोकने के प्रयासों पर आधारित   है । यह समाझौता स्वैच्छिक है एवं किसी देश पर कोई बंधन या शर्त नहीं लगाता है । 
देश की सरकारें कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन घटाने की सीमा स्वयं तय करके उसके अनुसार योजनाएं नीतियां बनाना हेतु स्वतंत्र  है । साथ ही निर्धारित समय में उत्सर्जन यदि नहीं कम हो तो कोई दंड का प्रावधान भी नहीं है। इस समझौते की सबसे बड़ी कमजोरी यह बताई गयी कि तापमान १.५ से ०२ डिग्री सेल्सियस  तक सीमित करने पर ज्यादा जोर दिया गया जबकि दुनिया के वर्तमान की पर्यावरणीय हालत अनुसार  इसे २.७ से ०४ तक कम किया जाना जरूरी है । 
अमेरिका यदि समझौते से बाहर होता है तो  समझौते की शर्तों के अनुसार यह चार वर्षों के बाद मान्य होगा । यानी चार वर्षों तक चाहते या न चाहते हुए भी अमेरिका का इस समझौते से जुड़ा रहेगा । अमेरिका का इस समझौते से अलग होना जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभावों को रोकथाम के वैश्विक सहयोग से एक बड़ा आघात होगा । अमेरिका के अलग होने पर दो प्रकार की सम्भावनाएं बतायी जा रही है । प्रथम तो यह कि इससे दूसरे देशों की मानसिकता बदलेगी एवं वे भी अलग होने की सोच सकते हैं । इस परिस्थिति में पेरिस समझौते का अंत भी क्योटो-प्रोटाकोल के समान   होगा । 
दूसरी सम्भावना एक सकारात्मक है जो यह दर्शाती है कि अमेरिका के अलग होने के बाद भी शेष बचे राष्ट्र अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति से इसे मजबूती से लागू करे । अभी-अभी कुछ राजनीतिज्ञों ने एक तीसरी सम्भावना बतायी है जिसके अनुसार आगामी चार वर्षों में अमेरिका में कोई नया नेतृत्व उभरे जो पेरिस समझौते के प्रति ज्यादा समर्पित    हो । डोनाल्ड प्रशासन को १०० दिन पूर्ण होने पर २९ अप्रैल को वाशिंगटन तथा अन्य शहरों में हजारों की संख्या से वहां के लोगों ने प्रदर्शन कर पेेरिस समझौते से अलग होने का विरोध किया ।
संयुक्त राष्ट्र के पूर्व सेक्रेटरी जनरल बान की मून तथा हावर्ड के प्रोफेसर राबर्ट स्टेविंस ने अपने एक लेख में दृढ़ता से कहा है कि अमेरिका को दुनिया के हित के लिए इस समझौते में बने रहना चाहिये । कई कामियों के बावजूद वर्तमान में पेरिस समझौता एक ऐसा मंच है जहां पर कई देशों के शासक जलवायु परिवर्तन से पैदा समस्या से निजात पाने हेतु एकमत है एवं एक दूसरे को सहयोग भी देने हेतु भी प्रयासरत    है । पेरिस समझौता प्रभावशाली न रहने पर विश्व एक दिशाहीन या डांवाडोल स्थिति में पहुंच जावेगा, जहां जलवायु परिवर्तन का संकट और गहरायेगा ।
दीपावली पर विशेष 
पर्यावरण संरक्षण एवं मानव जीवन
डॉ. अर्चना रानी
अनंतकाल से मानव का प्रकृति से घनिष्ठ संबंध रहा है । भारत की प्राचीनतम संस्कृति अरण्य संस्कृति तो मात्र प्रकृति की उपासना ही है । सनातन सत्य की तरह हमारे धार्मिक ग्रन्थ, हमारी प्राचीनकालीन मूल संस्कृति तथा उसमें अन्तर्निहित सिद्धान्त हमें सिखाते है कि हमें प्रकृति की उपासना जीवन साध्य के रूप में करनी है । 
उन्नत हिमालय के शिखरों से लेकर अरावली, विध्याचल और नीलगिरी पर्वतमालाआें के बीच विस्तृत रूप से फैली हुई घाटियों, कलकल करती हुई  बहती नदियों तथा उपजाऊ मैदानों में वृक्ष कुंजों से सुशोभित ऋषि आश्रम, गुरूकुल ज्ञानपीठ तथा पवित्र नदियों के निर्मल जल से सिंचित वन उपवन, खेत-खलिहान एवं सामाजिक रीति-रिवाज इसके साक्षात प्रमाण है ।
यदि कश्मीर को पृथ्वी का स्वर्ग कहा जाता है तो निश्चय ही इसके पीछे प्राकृतिक वनस्पतियों, झीलों और पर्वतों की अहम भूमिका है । यही कारण है कि प्राकृतिक सौन्दर्य के समक्ष कोई भी मानव निर्मित छवि टिक नहीं पाती है । इस देश की महान संस्कृति में वृक्षों, जल, अग्नि, भूमि तथा जीव-जन्तुआें की पूजा, अर्चना और वंदना की परम्परायें प्रतिष्ठित हैं । 
प्रकृति ने हमें इस संसार में अद्भूत और अनोखी रचनाएं उपहार में दी है । इसीलिए हमारे पूर्वजों, ऋषि-मुनियों ने प्रकृति को माँ की तरह पूजा और शस्य-श्यामला भूमि की तथा पंच तत्वों की उपासना    की । ये सभी हमें प्रकृति के साथ जीने की कला सिखाते हैं, हमें अर्न्तदृष्टि देते हैं, तथा जीवन दर्शन के विकल्प सुझाते हैं । आज भी यदि परमात्मा की पहचान करनी हो, नैसर्गिक आनंद की अनुभूति प्राप्त् करनी हो तो वन्य जीव-जन्तुआें से सुशोभित जंगली, रंग-बिरंगी पुष्पाच्छादित पर्वतमालाआें, झरनों, नदियों के क्षेत्र में जाना होगा । 
भारतीय संस्कृतिमें प्रकृति के प्रति अनुराग और संरक्षण की चिंतन धारा विद्यमान है । प्रकृति से अनुराग भारतीय संस्कृति में इस सीमा तक समाया हुआ है कि यहां मनुष्य मन के प्रकृति से पृथक अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की गई है और वनों एवं जीवों को प्रकृति का अभिन्न अंग माना गया है । ईश्वर की रचना में सब कुछ अनूठा एवं विलक्षण है । 
हमारी संस्कृति में पृथ्वी का माता का स्वरूप दिया गया है । प्राचीन काल में मनुष्य यह मानता था कि जब तक नदी, झरने, पशु, पक्षी, जंगल और पहाड़ का अस्तित्व है, उसका जीवन भी तब तक ही रहेगा । जिस जंगल के वृक्षों से फल तोड़कर वह पेट भरता है, यदि वह जंगल स्वयं ही नहीं बचेगा तो मनुष्य का स्वयं का जीवन भी बचाना असंभव रहेगा । जिस जल धारा का पानी पीकर वह प्यास बुझाता है यदि वह जलधारा सूख गयी तो उसका जीवन भी समाप्त् हो जायेगा । उस समय मनुष्य प्रकृति के प्रति आत्मीयता की भावना रखता था और प्रकृति के प्रति सहचर की भूमिका का निर्वाह करता था ।
मानव सभ्यता का आरंभ प्रकृति के आसपास वनोंमें ही    हुआ । आदिमानव प्रारम्भिक दौर में वनों में उसी भांति रहा करते थे जिस भांति वन के जीव जन्तु आज भी वनों में रह रहे है । हजारों या लाखों वर्ष बाद मनुष्यों की बुद्धि जब थोड़ी परिपक्व हुई तब उन्होंने अपना घर बार स्थापित किया । बाद में केवल ऋषि-मुनियों के आश्रम ही वन में रह गए, क्योंकि उन्हें एकान्त प्रिय था । वन में रहकर वे साधना करते थे तथा इसी क्रम में उन्होंने दुर्लभ जड़ी बूटियों की खोज की । मनुष्य तथा जीव जगत के अन्य सभी प्राणी शांति के आकांक्षी रहे है । पक्षी भी एकान्तमय प्राकृतिक वातावरण में रहना पंसद करते हैं, तथा केवल प्रात: और संध्या में ही थोड़ा कलरव करना पंसद करते हैं । मनुष्य आदिकाल से प्रकृति के सानिध्य में रहा तथा छोटी-छोटी टोलियों में रहना उसने पंसद किया । हमारे लाखों गांव इस तथ्य की पुष्टि करते हैं । प्राचीन नगरों की आबादी निश्चय ही अधिक थी, परन्तु उस समय वहां भी अनियंत्रित शोर-शराबा नहीं था । परन्तु धीरे-धीरे मनुष्य के जीवन मूल्य बदल गए तथा प्रकृति के प्रति मनुष्य की आत्मीयता की भावना लुप्त् होती गयी । 
मनुष्य का दृष्टिकोण भौतिकवादी, उपभोक्तावादी और व्यवसायिक होता गया और वह प्राकृतिक संसाधनों का मनमाना दोहन करने लगा । पहाड़, नदी, झरने, वनस्पतियां और जीव-जन्तु मनुष्य की अर्थ लोलुपता और स्वार्थ भावना का शिकार होते चले गये । मानव की प्रकृति विरोधी गतिविधियों के कारण हरे-भरे वन उजड़ गए तथा वर्तमान समय में मानवीय हस्तक्षेप के कारण प्रकृति की मूलभूत संरचना में ऐसे अवांछनीय परिवर्तन हुए कि पर्यावरण असंतुलित एवं प्रदूषित हो गया । इस स्थिति में पर्यावरण असंतुलन व प्रदूषण के लिए उत्तरदायी कारकों को दूर करके पर्यावरण संरक्षण के लिए अपेक्षित प्रयास करना आवश्यक है । 
वृक्षों का असीमित और अनियंत्रित अंधाधंुध कटान तो होता रहा, किन्तु नये वृक्ष लगाने की आवश्यकता नहीं समझी गयी । परिणामत: अधिकांश वन समाप्त् हो गये । वनों में वास करने वाले जीव-जन्तुआें का वास स्थल नष्ट हो गया । अनेक जीव-जन्तु विलुप्त् हो गए और अनेक विलुप्त् होने के कगार पर पहुंच गए । वृक्षों के कटान के बाद पहाड़ों की वृक्ष विहीन नंगी चोटियों से वर्षो का पानी मिट्टी काटकर नदियों का जलस्तर ऊंचा उठा देता है । परिणामस्वरूप मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ आ जाती है, जबकि वृक्ष वर्षा के पानी को रोककर मिट्टी को कटने और बहने से बचाते है । वर्षा के जल का संचय कर जल प्रबंधन का बेहतर उपोग किया जा सकता   है । 
कृषि कार्य मेंप्रयोग होने वाली सभी कीटनाशक तथा रासायनिक उर्वरक अपना विषैला प्रभाव फसल पर छोड़ने के साथ-साथ पक्षियों, पशुआें पर भी छोड़ते   हैं । जल में घुलकर ये रसायन जलाशयों में पहुंचकर मछलियों को विषाक्त कर देते हैं । इस प्रकार फसल पक्षियों तथा मछलियों के माध्यम से ये रसायन मांसाहारी तथा शाकाहारी दोनों प्रकार के व्यक्तियों को हानि पहुंचाते है । ये रसायन मिट्टी से छनकर भूमिगत जल में मिल जाते हैं और कुंआें, नदियों व हैडपम्पों के जरिए मनुष्य तक पहुंचते हैं । विश्व भर में शुद्ध पेयजल की मात्रा में दिन-प्रतिदिन होती कमी चिंता का विषय तो है ही, साथ ही साथ जल प्रबंधन में अकुशलता तथा व्यक्तिगत स्तर पर लापरवाही इस समस्या को और गंभीर बना रही है । 
हम लोग जहां रहते है वहां जलवायु, वनस्पतियाँ, प्राकृतिक संसाधन, जीव-जन्तु आदि सभी पर्यावरण के ही अंग है । नदी, सरोवर, कुंए आदि का जल किस प्रकार स्वच्छ रहे, पर्यावरण की जानकारी होना प्रत्येक व्यक्ति के लिए 
नितान्त आवश्यक है । स्थानीय वनों का क्षेत्र कितना है तथा उसे कितना होना चाहिए, मिट्टी के कटाव को किस प्रकार रोका जा सकता है, वायु को प्रदूषित होने से किस प्रकार बचाया जा सकता है, इन पर गहनता से अध्यन का अनुसरण किया जाना आवश्यक है । प्रत्येक व्यक्ति, समाज, राष्ट्र यहां तक की समग्र विश्व इसके संरक्षण के लिए चिन्तित है । सारे विश्व में पर्यावरण के प्रति एक व्यापक चेतना पैदा होना तथा व्यक्ति स्तर पर इसके लिए दायित्व बोध का होना एक महत्वपूर्ण विषय है । 
पर्यावरणीय अवक्रमण विश्वव्यापी समस्या है, जिसका समाधान पर्यावरण संरक्षण से ही संभव है । जनाधिक्य के कारण पर्यावरण प्रदूषण की गंभीर समस्या उत्पन्न हो जाती है । आधुनिक यंत्रीकृत सभ्यता हमारे जीवन की खुशियों को हर प्रकार से छीन रही है, हमें प्रकृति से दूर कर रही है, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने का समय आ गया है । वर्तमान समय में मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का पृथ्वी की उत्पादन क्षमता से अधिक दोहन कर रहा है ।
युवा पीढ़ी को बताना होगा कि प्रकृति और मनुष्य के बीच का सन्तुलन शताब्दियों - सहस्त्राब्दियों पुराना है । आज आवश्यकता इस बात है कि मनुष्य प्रकृति और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बने । 
विज्ञान हमारे आसपास 
गर्भवती मोरनी और मोर के आंसू 
कंवर बी. सिंह 
पिछले दिनोंराजस्थान हाई कोर्ट के न्यायाधीश ने राष्ट्रीय पक्षी मोर के बारे मेंएक हैरतअंगेज तथ्य का खुलासा किया । यह खुलासा उन्होनें तब किया जब वे गाय और मोर दोनों को पवित्र बताने का प्रयास कर रहे थे । उन्होंने कहा कि मोर आजीवन ब्रह्मचारी रहता है । वह मोरनी के साथ कोई यौन क्रिया नहीं करता । मोरनी तो मोर के आसू पीकर गर्भवती हो जाती है ।
माननीय न्यायाधीश के इस कथन ने एक महत्वपूर्ण तथ्य को रेखांकित किया है - इतिहास के आरंभ से ही हर संस्कृति मेंजानवर और पक्षी लोगों को नैतिक मार्गदर्शन प्रदान करते आए है । पक्षियों समेत ईश्वर के समस्त जीव-जन्तुआें को अनुकरणीय आदर्श के रूप में देखा गया है । कितने सारे देशों के राष्ट्रीय प्रतीकों में पक्षी को स्थान मिला है । यू.एस में बाल्ड ईगल (उत्तरी अमेरिका का सफेद सिर वाला गरूड़) इसका एक प्रमुख उदाहरण  है । 
नारीद्वैष और पितृसत्ता भारतीय समाज का कलंक रहे है । वैसे विज्ञान भी कभी-कभी लिंगभेदवाही हो सकता है । अभी हाल तक ऐसा माना जाता था कि पक्षियों में नर हॉरमोन की उपस्थिति नर के लैगिक लक्षणों का नियमन करती है - जैसे प्रजनन ऋतु में मोर को अपने सुन्दर पंख फैलाकर प्रदर्शन करना या कई पक्षियों में गीत गाना वगैरह । मगर सच्चई बिल्कुल विपरीत है । पक्षियों में अधिकांश नरनुमा लक्षण उनमें टेस्टोस्टेरोन नामक हॉरमोन की उपस्थिति की वजह से पैदा नहीं होते बल्कि मादा हॉरमोन एस्ट्रोजन की अनुपस्थिति की वजह से प्रकट होते हैं । इसका मतलब है कि पक्षियों में मादा विशेष स्थिति रखती है, नर तो एस्ट्रोजन के न होने पर चूक से बन जाते हैं । 
अन्य पक्षी प्रजातियों के समान, नर मोर में भी एस्ट्रोजन का निर्माण नहीं होता और इसकी वजह से उनमें इतने सुन्दर भड़कीले पंख पाए जाते है । इनको प्रदर्शित करके वे मादा को संभोग के लिए आकर्षित करने का प्रयास करते है । दूसरी ओर, मोरनी में एस्ट्रोजन का निर्माण होता है, जिसके चलते उसके पंख काफी अलग होते है । कोई मादा पक्षी यदि प्रजनन अंगो में किसी गड़बड़ी की वजह से एस्ट्रोजन बनाना बंद कर दे तो वह कभी कभार नर बन सकती है । पक्षियों में इस तरह के आमूल परिवर्तन के कई उदाहरण है । 
माननीय न्यायाधीश ने मोर के बारे में जो वक्तव्य दिया वह अब काफी मशहूर हो चुका है । इसमें उन्होंने कुंआरे जन्म की बात कही । यह हमारे पुराणों में एक सदगुण माना गया है । महाभारत में कर्ण का जन्म तो एक उदाहरण है  । प्राचीन ग्रंथों में ऐसे कई उदाहरण मिल  जाएंगे । 
कुंआरा जन्म एक रोचक यौन गड़बड़ी है । कई पक्षी व अन्य जानवर यौन संबंध के बिना भी प्रजनन कर सकते है । अर्थात इनकी मादाएं नर के योगदान के बगैर भी संतानोत्पति कर सकती है । इसे पार्थेनोजेनेसिस या अनिषेचजनन कहते है । अर्थात ऐसा प्रजनन जिसमें नर शुक्राणु के द्वारा अंडे का निषेचन न हो । किन्तु मोर जैसे जिन पक्षियों मुर्गियां, टर्की, कबूतर में पार्थेनाजेनेसिस देखा गया है, उनमें भू्रण का विकास विकृत हो जाता    है । बहुत कम बार ऐसा होता है कि पार्थेनाजेनेसिस का कोई उदाहरण नहीं देखा गया है । अत: नर और मादा के बीच समागम एक सामान्य भ्रूण के निर्माण के लिए अनिवार्य है, जिससे मोर के चूजे पैदा हो सकें । 
अब एक बड़ा सवाल यह है कि पक्षी संभोग कैसे करते है ?
कुछ बड़े पक्षियों - जैसे हंस, बतख और शुतुरमुर्गो में एक छोटा सा लिंग (शिशन) होता है । किन्तु अधिकांश पक्षियों में शिश्न नहीं पाया जाता । शिश्न-विहीन इन सारे पक्षियों में प्रजनन मार्ग क्लोएका नामक प्रकोष्ठ के अंदर खुलता है । क्लोएका आंत के अंतिम छोर के निकट होता है । इसी में आंत का भी समापन होता है । अत: पक्षियों में मलाशय और प्रजनन मार्ग क्लोएका में जुड़ जाते हैं । यही स्थिति मोर में भी पाई जाती है । 
इनमें संभोग का अर्थ होता है कि नर व मादा पक्षी को क्लोएका चंद क्षणों के लिए पास-पास आकर सट जाते हैं । इसे बोलचाल की भाषा में क्लोएकल चुंबन कहते हैं । यह चंद सेकण्ड की यौन अंतर्क्रियाहै जिसके दौरान नर अपने शुक्राणु मादा के क्लोएका में पहुंचा देता है । इस दौरान रोने-गाने, आंसू बहान-पिलाने का वक्त नहीं होता । 
यह जानते हुए कि जोड़ी बनाना और एकपत्नी प्रथा हमारे यहां एक बड़ी बात मानी जाती है, तो मुझे लगा कि यह देखना दिलचस्प होगा कि मोर मोरनी का अपने अभिभावकीय (मातृत्व-पितृत्व) दायित्वों में प्रदर्शन कैसाहोता है । मशहूर पक्षी वैज्ञानिक डेविड लीक का अनुमान है कि लगभग ९० प्रतिशत पक्षी एक-एक का संबंध बनाते है । यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें नर और मादा दोनो मिलकर संतोनों की देखभाल करते हैं । 
अलबत्ता, मोर जिस तरीके से जीवन यापन करते हैं उसे बहुपत्नी प्रथा कहते है । एक-एक नर की कई मादा साथिनें होती है और ये मादाएं नर मोर से संपर्क सिर्फ संभोग के लिए करती है । एक बार संभोग हो जाने के बाद नर मोर को अंडे सेने या चूजों की देखभाल करने की कोई परवाह नहीं होती । सारे अभिभावकीय दायित्व मादा अकेलेही निभाती है । कहने का मतलब है कि हमारा नायक पक्षी किसी मायने में अभिभावकीय गुणों का अच्छा उदाहरण नहीं है । 
पुराने समय में अंधविश्वास और ईश्वर का भय तर्क और सहजबुद्धि पर हावी रहता था । मगर विज्ञान ने प्राकृतिक विश्व के बारे में हमारी समझ को काफी विस्तार दिया है और जीव-जन्तुआें के सेक्स के ईद-गिर्द बुन गए कई मिथकोंको निराधार साबित कर दिया है । 
प्रदेश चर्चा 
छ.ग. : तालाब खत्म करने से प्यासा है बस्तर
पंकज चतुर्वेदी

बस्तर अंचल में रोजगार के नए अवसर सृजित करने के लिए कल-कारखानों, खेती के नए तरीकों और पारम्परिक कला को बाजार देने की कई योजनाएँ सरकार बना रही है, लेकिन यह जानना जरूरी है कि जब तक इलाके में पीने को शुद्ध पानी नहीं मिलेगा, ऐसी किसी भी योजना का सफल होना संदिग्ध है । पारंपरिक जल संसाधनों की साज संभाल से ही पानी का प्रबंधन करना आसान होगा ।
हर समय तर रहने वाला बस्तर अब पूरे साल बूंद-बूंद पानी को तरस रहा है । खासतौर पर शहरी इलाकों का विस्तार जिन तालाबों को सुखा कर किया गया, अब कंठ सूख रहे हैं तो लोग उन्हीं को याद कर रहे हैं । दो दशक पहले तक बस्तर इलाके में २५,९३४ तालाब हुआ करते थे, हर गांव में कम से कम तीन-चार ताल या जलाशय । ये केवल पानी की जरूरत ही नहीं पूरा करते थे, आदिवासियों की रोजी रोटी व इलाके के मौसम को सुहाना बनाने में भी भूमिका अदा करते थे । 
वर्ष १९९१ के एक सरकारी दस्तावेज के मुताबिक इलाके के ३७५ गांव-कस्बों की सार्वजनिक जल वितरण व्यवस्था पूरी तरह तालाबों पर निर्भर थी । आज हालात बेहद खराब हैं । सार्वजनिक जल प्रणाली का मूल आधार भूजल हो गया है और बस्तर के भूजल के अधिकांश स्त्रोत बेहद दूषित हैं । फिर तालाब ना होने से भूजल के रिचार्ज का रास्ता भी बंद हो गया । इन दिनांे वहां जम कर बारिश हो रही है और शहर-कस्बे लबालब है । सड़कों, घरों में पानी भर रहा है, लेकिन तालाब खाली हैं और बाशिंदों के कंठ भी रीते हैं । यहां के तालाब महज जल संासधन ही नहीं हैं, बल्कि बड़ी आबादी के लिए मछली, कमल गट्टा आदि के माध्यम से जीवकोपार्जन का साधन भी हैं । तालाबों के दूषित होने से हजारों परिवारों के सामने रोजी-रोटी का संकट भी खड़ा है ।
यह बात सरकारी दस्तावेज में दर्ज है कि जब बस्तर, केरल राज्य से भी बड़ा एक विशाल जिला हुआ करता था, तब उसके चप्पे-चप्पे पर तालाब थे । आज जिला मुख्यालय बन गए जगदलपुर विकासखंड में २३०,कांकेर विकासखंड में २७५, नारायणपुर में ५२३, कोंडागांव में ६२३, बीजापुर में ३०२ और दंतेवाड़ा में १७५ तालाब हुआ करते थे ।  दुगकोंदल में ४१०, फरसगांव में ६७८ कोंटा में ४४०, कोयलीबेड़ा विकासखंड में ५०३ तालाब हुआ करते थे । सुकमा, दरभा, भोपालपट्नम  जैसे दूभर इलाकों का जनजीवन तो तालाबों पर ही निर्भर था । सनद रहे कि इलाके में ग्रेनाईट, क्वार्टजाइट जैसी चटट्ानों का बोलबाला है और इसमें सरंध्रता बहुत कम होती है । इसके चलते बारिश का जल रिसता नहीं है व तालाब व छोटे पोखर    वर्षा को अपने में समेट लेते थे । आज के तालाबों के हालात तो बेहद दुखद हैं ।
बस्तर संभाग का मुख्यालय जगदलपुर है । बस्तर तो एक गांव है, कोंडागांव से जगदलपुर आने वाले मार्ग पर । सन् १८७२ में महाराज दलपत राय अपनी राजधानी बस्तर गंाव से उठा कर जगदलपुर लाये    थे । इसी याद में विशाल दलपतसागर सरोवर बनवाया गया था । कहा जाता है कि उस समय यह झीलों की नगरी था और आज जगदलपुर शहर का जो भी विस्तार हुआ है, वह उन्हीं पुराने तालाबों को पाट कर हुआ है । दलपतसागर का रकबा अभी सन् १९९० तक साढ़े सात सौ एकड़ हुआ करता था जो अब बामुश्किल सवा सौ एकड़ बचा है। पानी की पूरी सतह जलकुंभियों से पटी है व सफाई के अभाव में तालाब बेहद उथला हो गया है । थोड़ा-सा पानी बरसने पर शहर की कई कालोनियां पानी में डूब जाती हैं और वहां के वाशिंदे हल्ला-ग्ुाल्ला करते हैं कि पानी उनके घर में घुस रहा है। जबकि हकीकत तो यह है   कि ये पूरी रिहाईश ही पानी के घर में घुस कर बसाई गई हैं। जल निधियों से समृद्ध ऐसे शहर में अब दलपत सागर तथा गंगा मुंडा तालाब को छोड़ कर अन्य तालाबों का कोई अता-पता नहीं है । 
चार दशक पूर्व तत्कालीन टाऊन प्लानिंग के अनुसार जगदलपुर में करीब आधा दर्जन से अधिक तालाब हुआ करते थे । जिसका उपयोग यहां के लोग निस्तार के  लिए किया करते थे। तब दलपत सागर व गंगामुंडा के अलावा नयामुंडा तालाब, बाला तराई, केवरामुंंडा, रानमुंडा तथा तत्कालीन अघनपुर तथा वर्तमान में गुरू गोविंद सिंह व छत्रपति शिवाजी वार्ड में दो तालाब थे । लेकिन यहां देखने के लिए महज दो ही तालाब रह गये है। हालांकि अभी कोई तीन तालाब शहरी क्षेत्र में मौजूद है जिनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है । 
दंतेवाड़ा मंे लाल आतंक व पुलिस अत्याचार के ही इतने किस्से होते हैं कि जनता भूल गई है कि वे पानी के लिए भी तरस रहे हैं । यहां भी पुराने तालाबों में हो रहे अतिक्रमण और पटते तालाबों के गहरीकरण को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है । दक्षिण बस्तर जिले के कारली, मांझीपदर, चितालंका, पुरनतरई, टेकनार, कुम्हाररास, चितालूर, दंतेवाड़ा, तुमनार, समलूर, बिंजाम, नागफनी आदि स्थानों में सदियों पुराने विशाल जलाशय हैं। बारसूर को तो तालाबों और मंदिरों की नगरी ही कहा जाता है, यहां के १४७ तालाबों में सौ से ज्यादा तालाब खेतों में तब्दील हो चुके हैं । पुरनतरई, कुम्हाररास, टेकनार, चितालूर, बारसूर के तालाबों से लगे जिन किसानों की खेत हैं, वे अपने खेतों का रकबा तालाबों की सीमा के अंदर तक बढ़ा चुके हैं ।
कांकेर शहर में पानी का संकट स्थाई तौर पर डेरा डाले हुए    है । उदयनगर, एमजी वार्ड जैसे घने मुहल्ले में नल बमुश्किल आधा घंटा टपकते हैं । वहीं जमीन पर देखें तो कांकेर के चप्पे-चप्पे पर प्राचीन जल निधियां हैं जो अब पानी नहीं, मच्छर व गंदगी बांटती हैं । शहर की शान कहे जाने वाले डंडिया तालाब को चौपाटी निर्माण योजना के चलते आधे से ज्यादा हिस्सा पाट दिया गया है । पालिका की चौपाटी की योजना तो चौपट हुई उसके चलते तालाब का हिस्सा भी चौपट हो गया । शहर के माहुरबंद पारा वार्ड के बीचों-बीच स्थित डबरी है तो अब लोगों को याद ही नहीं है क्योंकि उस तक पहुंचने का रास्ता ही भूमाफिया चट कर गए है । इसके साथ ही तालाब के बड़े हिस्से पर दुकानें बना दी गई । शीतलापारा के दीवान तालाब को कचरे से पाट दिया गया ।
शहर के बीचों बीच स्थित गोसाई तालाब का अस्तित्व ही समाप्त हो गया है, क्योंकि उसे बाकायदा सुख कर हजारों मकान बना दिए गए । कांकेर नगरपालिका दफ्तर के ठीक सामने स्थित दुधावा तालाब को बिल्डर देखते ही देखते हड़प गए व सरकारी रिकार्ड में वहां कालोनी दर्ज हो गई । सुभाष वार्ड की डबरी हो या फिर मेला भाठा स्थित काकालीन तालाब, सरकारी अफसरों, नेताओं व बिल्डरों की मिलीभगत से पाट दिए गए । 
हालात अकेले शहरों के ही नहीं दूरस्थ अंचलों के भी भयावह   हैं । बस्तर संभाग के ७० फीसदी सिंचाई तालाबों का पानी सूख चुका है अथवा बहुत थोड़ा पानी बचा है। जलाशयों का पानी सूखने से इतना तो तय हो गया है कि आने वाले दिनों में सिंचाई के लिए पानी नहीं मिलेगा और जल निस्तारी समस्या से भी ग्रामीणों को जूझना पड़ेगा । जलाशयों में गर्मी के दिनों में पानी के जल्दी सूख जाने की समस्या आठ -दस साल से ज्यादा गहराने लगी है। मौसम में परिवर्तन तथा गर्मी में बढ़ोत्तरी को सिंचाई विभाग के अफसर इसका प्रमुख कारण मान रहे हैं । 
बस्तर संभाग में जल संस्थान विभाग की २९२ लघु व मध्यम सिंचाई योजनाएं स्थापित हैं, इनमें से १९५ सिंचाई जलाशय है, तीन बड़े जलाशयों कोसारटेडा (जल भराव क्षमता ५६ मिलियन क्यूबिक मीटर) परलकोट क्षमता ५४ मिलियन क्यूबिक मीटर व मयाना जल भराव क्षमता ५ मिलियन क्यूबिक मीटर को छोड़ दिया जाये, तो शेष लघु योजनाएं हैं,जिनकी जल भराव क्षमता प्रत्येक की औसतन आधा क्यूबिक मीटर से एक क्यूबिक मीटर तक है। जल संसाधन विभाग के संभागीय कार्यालय इंद्रावती परियोजना मंडल के अनुसार कोसारटेड में जलभराव क्षमता का करीब ३५ फीसदी, परलकोट में २४ और मयाना में ७ फीसदी ही पानी बचा है । 
दूसरी तरफ १३७ के आसपास जलाशय ऐसे हैंजहां पानी नहीं है या सूखने की कगार पर है । विभागीय जानकारी के अनुसार सबसे खराब स्थिति मध्यम बस्तर व नारायणपुर जिले के जलाशयों की है। दक्षिण बस्तर में पथरीली जमीन होने से जलाशयों में कुछ ज्यादा ही पानी  ठहरता है, परंतु मई मध्य से लेकर मानसूनी बारिश शुरू होने तक वहां की स्थिति भी संतोषजनक नहीं रहती है ।
बस्तर अंचल में रोजगार के नए अवसर सृजित करने के लिए कल-कारखानों, खेती के नए तरीकों और पारंपरिक कला को बाजार देने की कई योजनाएं सरकार बना रही है, लेकिन यह जानना जरूरी है कि जब तक इलाके में पीने का शुद्ध पानी नहीं मिलेगा, ऐसी किसी भी योजना का सफल होना संदिग्ध है और इसके लिए जरूरी है कि पारंपरिक जल संसाधनों को पारंपरिक मानदंडों के अनुरूप ही संरक्षित पर पल्लवित किया जाए ।
पर्यावरण परिक्रमा
नदी पुनरूद्धार के लिए लोगों को आगे आना चाहिए 
ईशा फांउडेशन के संस्थापक सदगुरू जग्गी वासुदेव ६००० किमी का सफर तय कर पिछले दिनों मध्यप्रदेश आये । रैली फॉर रिवर के प्रणेता सदगुरू ने कहा कि मृत्यु शैया पर गंगा जल दिया जाता है, उसे मोक्षदायिनी माना जाता है । लेकिन बात जब पुनरूद्धार या स्वच्छता की आती है, तो कोई आगे नहीं आता । नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए सोच में बदलावा लाना ही होगा । 
गंगा बेसिन देश के २० फीसदी हिस्से को कवर करता है । सरकारी योजना केवल स्वच्छता के लिए चलाई जा रही है, जबकि जरूरत पुनरूद्धार की है । सरकार चाहे तो ३ साल की कार्ययोजना से ही नदियों का प्रदूषण खत्म कर सकती है । 
नदियों में सिर्फ ४ फीसदी पानी ग्लेशियर से आता है, शेष ९६ फीसदी जंगलों पर निर्भर है । अधिकांश नदियां साल में तीन से चार महीने ही बहती है । भारत में औसतन ४५ से ५० दिन बारिश होती है । नदियों में ३६५ दिन पानी रखना चुनोतीपूर्ण कार्य है । छह-सात साल में स्थिति और बिगड़ी है । यूनिवर्सिटी ऑफ तमिलनाडु के साथ शोध किया, वैश्विक विशेषज्ञों से विचार साझा किए और रैली का बिगुल फंूका । 
नदियों के पुनर्जीवित करने पर सभी को एकमत करना है । हालांकि हमने १६ राज्यों के मुख्यमंत्रियों से एमओयू हस्ताक्षर समस्या हल करने की कोशिश की   है । मध्यप्रदेश के बारे में आपने कहा कि नर्मदा की स्थिति बिगड़ रही है । 
नर्मदा ५८ से ६० फीसदी तक क्षरण और प्रदूषण का शिकार हो चुकी  है । ५० साल पहले की तुलना में नर्मदा के आसपास ९० फीसदी हरियाली खत्म होने से यह स्थिति बनी है । इसमें लोगों को जोड़ने की जरूरत है । 
आइसमेन ने बनाये १८ ग्लेशियर 
लद्दाख की पथरीली बंजर भूमि, जहां बादल भी बरसने से कतराते है, एक इंसान ने अथक प्रयास के दम पर यहां १८ ग्लेशियर बना डाले । आइस मैन के नाम से मशहूर ८१ वर्षीय छिवांग नार्फेल ने ये सभी हिमनद बड़े जतन से तैयार किए हैं । इन हिमनदों से लेह के अनेक गांवों में पानी की जरूरत पूरी हो सकी है । पद्मश्री से सम्मानित छिवांग ने जल संरक्षण का यह महान कार्य दशकों पहले अकेले दम पर शुरू किया था । अब उनके साथ करीब एक हजार लोग और तीन गैर सरकारी संगठन जुड़ चुके हैं । टाटा ट्रस्ट भी उनका साथ दे रहा है ।
लेह के ऊपरी इलाकों में खून जमा देने वाली सर्दी बीतने के बाद अजीब स्थिति होती है । अप्रैल व मई में खेती के समय पानी नहीं होता और जब जून में पानी आता है तो खेती का समय निकल जाता है । तीन दशक पहले छिवांग ने लोगों को इस जटिल परेशानी से उबारने की     ठानी । 
जल संरक्षण के लिए छिवांग ने कृत्रिम हिमनद बनाने की युक्ति अपनाई । उन्होंने गांवों के पास ही पानी को एकत्र करने की ठानी । इसके लिए बड़े आकार के कृत्रिम बांध बनाए । जून-जुलाई मेंबड़ी मात्रा में इनमें पानी एकत्र हो जाता है । सर्दियों में यह पानी जम जाता है और कृत्रिम ग्लेशियर के रूप में जल को संरक्षित रखता है । गर्मियों में इन कृत्रिम हिमनदों का बर्फ पानी मे तब्दील हो जाता है । इस युक्ति ने खेति सहित पेय जल की समस्या से लोगों को मुक्ति दिलाई है । नार्फेल अब तक लेह के फोगत्से, इगु, स्कटी, स्टाकनो, साटो, उमला गांवो के पास कृत्रिम ग्लेशियर बना चुके हैं । नए ग्लेशियर थुक्से, अल्वे में बना रहे है । 
सेवा निवृत्त सिविल इंजीनियर छिवांग बताते हैं कि १९८७ में उन्होंने यह काम शुरू किया था, जो आज भी जारी है । लद्दाख में नब्बे प्रत्तिशत पानी की उपलब्धता ग्लेशियर से होती है । हम पांच से छह हजार फीट ऊंचाई वाले इलाकों में बांध बनाकर सर्दियों से पहले पानी एकत्र करते हैं । हमारा सबसे बड़ा ग्लेशियर फोगत्से गांव के पास है । 
लेह में बनाए गए इन कृत्रिम ग्लेशियरों से दो दर्जन गांवों के करीब पांच हजार लोगों को लाभ मिल रहा है । हर कृत्रिम ग्लेशियर एक दूसरे से सटे दो गांवों की जरूरत को पूरा करने में सक्षम है । 
दुनिया में ८५ करोड़ ३० लाख लोग मर रहे हैं भूखे
दुनिया में ८५ करोड़ ३० लाख लोग भुखमरी का शिकार है । जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों और हिसंक संघर्षो के कारण पिछले एक दशक में पहली बार इस वैश्विक स्तर पर भुखमरी में ११ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है । 
संयुक्त राष्ट्र की ओर से २०३० तक के लिए तय सतत विकास लक्ष्य के तहत पहली बार वैश्विक स्तर पर खाद्य सुरक्षा और पोषण पर रोम में जारी की गयी रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है । रिपोर्ट में कहा गया है कि गत वर्ष भूखे लोगों की संख्या दुनिया में जहां ८१ करोड़ ५ लाख थी वहीं इस साल तीन करोड़ ८० लाख बढ़कर ८५ करोड़ ३ लाख हो गयी है । इसके पीछे जलवायु परिवर्तन और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में हो रहे हिंसक संघर्षो की बड़ी भूमिका है । 
संयुक्त राष्ट्र की पंाच प्रमुख एजेंसियों के अध्यक्षों ने रिपोर्ट की संयुक्त प्रस्तावना में लिखा है यह खतरे की घंटी है जिसे हम अनसुना नहीं कर सकते, जब तक हम मिलकर खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करने वाले कारणों को खत्म करने का प्रयास नहीं करेगे, तब तक २०३० तक दुनिया से कुपोषण खत्म करने का लक्ष्य हासिल नहीं हो पाएगा । एक सुरक्षित और समग्र रूप से विकसित समाज के लिए यह पहली शर्त है । 
रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में भुखमरी और कुपोषण से ग्रस्त बच्चें की संख्या सबसे ज्यादा हिसाग्रस्त क्षेत्रों में है । दक्षिणी सूडान इसका ज्वलंत उदाहरण है । इस साल के शुरू में यहां अकाल पड़ा था । युद्ध ग्रस्त नाइजीरिया, सोमालिया और यमन में भी कुछ ऐसे ही हालात हैं ।  संयुक्त राष्ट्र के अनुसार जिन क्षेत्रों में शांति है वहां भी हालात सामान्य नहीं है । वहां जलवायु परिवर्तन कहर बरपा रहा है । 
अब नीनो के प्रभाव से इन क्षेत्रों में सूखे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक  विपदाएं खाद्यान्न संकट उत्पन्न कर रही है । इसके अलावा वैश्विक आर्थिक मंदी ने भी हालात खराब किए है । यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन, अंतरराष्ट्रीय कृषि विकास कोष, बाल विकास कोष, विश्व खाद्य कार्यक्रम और विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से मिलकर तैयार की गयी है । 
सालाना ८३० करोड़ यूनिट बिजली पैदा करने का लक्ष्य
देश में वर्ष २०२२ तक धरती के भीतर मौजूद गर्मी से भी बिजली बनाने के लिये सरकार ने अगले पांच साल में भू-तापीय ऊर्जा (जियोथर्मल) से १,००० मेगावाट क्षमता के प्लांट स्थापित करने का लक्ष्य रखा है । इससे सालाना औसतन ८३० करोड़ यूनिट बिजली पैदा हो सकती है । नवीन व नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रायल (एमएनआरई) इस दिशा में तेजी से काम कर रहा है । देशभर में ऐसी जगहों की पहचान भी कर ली गई है जहां जियोथर्मल से बिजली बनाई जा सकती है । 
केन्द्रीय विद्युत नियामक आयोग (सीईआरसी) ने इसकी लागत का भी अनुमान लगा लिया है । एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि  जियोथर्मल से देश में १०,००० मेगावाट तक बिजली पैदा की जा सकती है । ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) और एमएनआरई इस पर शोध कर रहा है । देशभर में ३४० ऐसी जगहें चिन्हित कर ली गई है, जहां पृथ्वी में मौजूद गर्मी से बिजली बनाई जा सकती है । यह इलाके ११ राज्यों में है । इनमें जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, ओडिशा, आंधप्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य शामिल है । 
पृथ्वी में ३ से ४ किलोमीटर गहराई (क्रस्ट) में उष्मा गर्म चट्टान या पानी के रूप में मौजूद है । इससे बनने वाली बिजली को भू-तापीय (जियोथर्मल) बिजली कहते है । इसके लिए चिन्हित जगहों में से अधिकतर पर पृथ्वी के अंदर का तापमान ३५ डिग्री सेल्सियस है । कुछ जगह बॉयटिंग पाइंट तापमान ८४ डिग्री सेल्सियस तक है । छत्तीसगढ़ के सरगुजा में यह ९८ डिग्री सेल्सियस तक पाया गया है । 
जियोथर्मल प्लॉट से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन लगभग न के बराबर होता है । यह पर्यावरण के लिए अच्छा है । पृथ्वी में उष्मा लगातार बनती रहती है । यह खत्म नहीं होती इसीलिए जियोथर्मल को अक्षय ऊर्जा का दर्जा दिया गया है । 
जियोथर्मल का एक मेगावाट का प्लांट लगाने के लिए सिर्फ ०.७५-१.२ एकड़ जमीन चाहिए । सोलर प्लांट मे ५-८ एकड़ जमीन लगती है । देश में एनटीपीसी, एनएचपीसी ओएनजीसी जैसी सरकारी कंपनियों के साथ टाटा पावर जैसी निजी क्षेत्र की कंपनियां जियोथर्मल से बिजली बनाने की संभावना तलाश रही है । 
सामाजिक पर्यावरण 
पर्यावरण को नजरअंदाज करने के परिणाम
शर्मिला पाल

बढ़ते तापमान का अर्थ केवल पृथ्वी का गर्म होना नहीं है । इसका सीधा प्रभाव अब सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य के हालात पर पड़ रहा है । 
पृथ्वी के बढ़ते तापमान के लिए इंसानी गतिविधियां तो जिम्मेदार है ही लेकिन टेक्नॉलॉजी भी इसका बड़ा कारण है । बढ़ती जनसंख्या के लिए घर मुहैया कराने के लिए जंगलों की कटाई, अधिक से अधिक उपकरणों का प्रयोग, इसका परिणाम बढ़ते तापमान और पर्यावरण में असंतुलन के रूप में सामने आ रहा है । इसके भयावह परिणामों की चेतावनी पिछले कई दशक से वैज्ञानिक देते आ रहे हैं । 
पृथ्वी के जल, थल और वायु के औसत तापमान मेंहोने वाली वृद्धि ग्लोबल वॉर्मिग कहलाती है । इंटर गवर्मेटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के अनुसार ग्लोबल वॉर्मिग का मुख्य कारण ग्रीन हाउस प्रभाव है । यह प्रक्रिया तब होती है, जब सूर्य की रोशनी वातावरण को गर्म करती है । ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण गर्मी वातावरण को भेद कर निकल नहीं पाती हैं और यहीं कैद होकर रह जाती है । इससे पृथ्वी का तापमान तेजी से बढ़ता जा रहा है । 
ग्लोबल वार्मिग का सीधा-सीधा प्रभाव ग्लेशियर्स पर पड़ रहा   है । तापमान के बढ़ने के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे विश्व के कई हिस्सों में बाढ़ की स्थिति बन जाती है । इतना ही नहीं, समुद्र का स्तर बढ़ने से जीवों की कई प्रजातियां खतरे के जद में आ गई है और हमारे इकोसिस्टम का संतुलन बिगड़ता जा रहा है । 
तापमान में वृद्धि के परिणाम बदलते मौसम के रूप मेंहमें नजर आने लगे हैं । ग्लोबल वॉर्मिग के कारण वाष्पीकरण की प्रक्रिया तेज होने लगती है, जिससे अनियत्रिंत बारिश का खतरा बढ़ता है । कई इलाकों में बाढ़ जैसी स्थिति हो जाती है । अत्यधिक बारिश को कई जानवर और पेड़-पौधे सहन नहीं कर पाते, नतीजतन पेड़-पौधे कम हो रहे है और जानवर अपनी जगह से पलायन कर रहे है । इसका प्रभाव इकोसिस्टम के संतुलन पर पड़ रहा है । 
एक तरफ जहां ग्लोबल वॉर्मिग से बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो रही है, वहीं कई देशों में सूखे की समस्या पैदा हो रही है क्योंकि वाष्पीकरण के कारण केवल बारिश की मात्रा नहीं बढ़ है, बल्कि सुखे की समस्या भी बढ़ रही है । इससे विश्व के कई हिस्सोंमें पीने योग्य पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है । सूखे के कारण लोगों को पर्याप्त् भोजन नहीं मिल पा रहा और इससे कई देशों में भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई है । 
जैसे-जैसे तापमान बढ़ता जा रहा है, उसका असर हमारे स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है । अत्यधिक बारिश के कारण जलजनित बीमारियां जैसे मलेरिया, डेंगू का प्रकोप बढ़ रहा    है । वातावरण में कार्बन मोनोऑक्साइड का स्तर बढ़ता जा रहा है, जिससे लोगों को सांस लेने में भी परेशानी का अनुभव होता है । यदि तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो सांस संबंधी बीमारियां और उसके लक्षण तेजी से फैलेगें । 
विश्व स्वास्थ्य संगठन की हेल्थ रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया था कि पूरे विश्व में मध्यम आय वर्ग वाले लोगों में दस्त की वजह से २.४ प्रतिशत लोग और मलेरिया की वजह से ६ प्रतिशत लोगों की मौत होगी । 
यह ग्लोबल वॉर्मिग के एक नए पक्ष के रूप में उभर रहा है जिस पर विशेषज्ञ शोध कर रहे है । ऐसा माना जा रहा है कि जो लोग सूखे, बाढ़, आंधी और ऐसी ही किसी प्राकृतिक आपदा में अपना घर और परिवार खो देते है, उसका प्रभाव उनकी मानसिक सेहत पर पड़ता है । उनमें पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी), गंभीर अवसाद एवं अन्य मानसिक बीमारियों के लक्षण देखे जाते हैं । सूखे की गंभीर स्थिति होने पर कई किसान आत्महत्या जैसा कदम भी उठा लेते हैं । 
आने वाले वर्षो में ग्लोबल वॉर्मिग का सबसे अधिक प्रभाव हमारी कृषि पर पड़ने वाला है । वैसे कई बार हमें इसका परिणाम फसल की बर्बादी के रूप में भुगतना भी पड़ता है । अधिक तापमान के बीच कई पौधों का पनप पाना मुश्किल होता है और धीरे-धीरे उनका अस्तित्व खत्म होता जाता है । बेमौसम बारिश या अत्यधिक सूखे के कारण कई फसलें टिक नहीं पाती । ऐसे में अनाजों के दाम तेजी से बढ़ रहे हैं । पेड़-पौधे हमारे भोजन का मुख्य स्त्रोत होते हैं, ऐसे में इनके खत्म होने से हमारा आधार ही छिन   जाएगा । पूरे विश्व में खाने की कमी हो जाएगी और इसकी अत्यधिक आशंका है कि यह कई देशों के बीच युद्ध का कारण बने । 
ग्लोबल वॉर्मिग के कारण अब कई मौसमों के आने का पता भी नहीं चल पाता । कई बार बसंत समय से पूर्व आता है और समय से पूर्व चला भी जाता है । कई हिस्सों में बारिश का मौसम इतना लम्बा चलता है कि फसले बर्बाद हो जाती है और कुछ इलाकों में गर्मी का लंबा मौसम हमारे जीवन को प्रभावित करता है । 
इकोसिस्टम के असंतुलन से कई जानवरों की प्रजातियां खतरे में आ गई है । कई प्रजातियां लुप्त् हो चुकी है तो कई विलुिप्त् के कगार पर खड़ी है । इस तरह जानवरों के खत्म होने से विश्व भर में संतुलन खतरे में पड़ जाएगा । 
बढ़ती गर्मी के कारण जंगलों में लगने वाली आग की घटनाआें में और इजाफा हो गया है । इससे जंगलों में रहने वाले जीव-जन्तुआें के साथ-साथ उसके आसपास रह रहे लोगों के जीवन पर भी संकट मंडरा रहा है । 
फसलों के खत्म होने के साथ-साथ वस्तुआें के उत्पादन और निर्माण पर भी प्रभाव पड़ रहा है । प्रकृति के लगातार प्रभावित होने से खाद्य उद्योगों पर भी उसका गंभीर असर होने लगा है । लोगों की खाने की जरूरतों को पूरा करना अब एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है । 
यदि समुद्र का स्तर बढ़ेगा तो बाढ़ की समस्या भी बढ़ती जाएगी और इसका प्रभाव हमारी पूरी बिजली व्यवस्था पर पड़ेगा । आंधी, तुफान और तेज बारिश की वजह से पूरा ग्रिड उखड़ सकता है और इससे हमारी पूरी जीवनशैली तहस-नहस हो सकती है क्योंकि बिजली से ही हमारे कई कार्य संचालित होते हैं । 
समुद्र का स्तर बढ़ने से कई देशों के इसके अंदर समा जाने की आशंका बढ़ती जा रही है । जिस तरह से ग्रीनलैंड जैसे देश का अस्तित्व तेजी से खत्म होता जा रहा है उससे आने वाले समय में सुन्दर शहर, देश और यहां तक कि महादेश भी समुद्र में समाकर इतिहास बन जाएंगे । 
यूं तो इंसानों में हिंसा के कई कारण होते है लेकिन आने वाले समय में इसकी मुख्य वजहों में धरती का बढ़ता तापमान भी शामिल हो जाएगा । खाने और पानी की कमी से लोगों में असंतोष पैदा होगा और वे इसे पाने के लिए हिंसा करने से भी नहीं चूकेंगे । यही स्थिति वैश्विक स्तर पर युद्ध का रूप ले सकती     है ।
तापमान में लगातार वृद्धि के कारण घरों और दफ्तरों में एअरकंडीशनर का प्रयोग बढ़ता जा रहा है जिससे घरों या दफ्तरों के अंदर और बाहर तापमान में काफी अंतर पाया जाता है और यही अंतर समस्या का कारण बनता है । इससे त्वचा, म्यूकस मेम्ब्रेन और आंखों में सूखेपन की समस्या हो जाती है । आँखों और श्वसन संबंधी इंफेक्शन की परेशानी बढ़ जाती है । साथ ही तापमान में परिवर्तन के कारण मांसपेशियों मं दर्द महसूस होता है । 
दमा पीड़ितों के लिए इस तरह का परिवर्तन बहुत पीड़ादायी होता है, उन्हें बार-बार इसका दौरा पड़ने का खतरा बढ़ जाता है । लोगों को नाक बहने, मांसपेशियों में दर्द, साइनुसइटिस, जुकाम, गले में खराश और शरीर में दर्द की समस्या लगातार होती रहती है । इन समस्याआें का सबसे बड़ा कारण एअरकंडीशनर होता है । मौसम में अचानक होने वाले बदलाव के साथ कई सारी परेशानियां जुड़ी होती है । इस परिवर्तन के कारण ब्लडप्रेशर कम हो जाता है । जोड़ों में दर्द की समस्या होती है, सिरदर्द और माइग्रेन की आशंका बढ़ जाती है ।
इन दिनों जैसे-जैसे मौसम में बदलाव होने लगता है, वैसे-वैसे वायरल बुखार के मामले सामने आने लगते हैं । वायरस से होने वाला यह बुखार गला दर्द व नाक बहने की समस्याआें को साथ लेकर आता है जो बच्चें और बड़ों को समान रूप से प्रभावित करता है । किसी के साथ भी ऐसा हो सकता है कि एक सुबह जब वह उठे तो उसके सिर मेंदर्द हो, जोड़ों में दर्द हो या त्वचा पर ददोरे उभर आए हो । वायरस की प्रकृतिके मुताबिक प्राथमिक संक्रमण की अवधि कुछ दिनों से लेकर हफ्तोंतक रह सकती है । यदि बुखार नीचे भी आ जाए तो भी कुछ मामलों में वायरस बढ़ता रहता है जिससे संक्रमण बना रहता है । ज्यादातर वायरल बुखार एक सप्तह में ठीक हो जाते हैं हालांकि कमजोरी हफ्तों तक बनी रह सकती है । 
ग्लोबल वॉर्मिग रोकने के छोटे-छोटे प्रयास ला सकते है बड़ा परिवर्तन । इसे रोकना किसी एक व्यक्ति के बस की बात नहीं, लेकिन छोटे-छोटे प्रयास इसकी गति को कम जरूर कर सकते है । हम चाहे घर पर हो या दफ्तर में हमारी हर गतिविधि पर्यावरण की सुरक्षा को ध्यान में रखकर होनी चाहिए । 
प्रदूषण कम से कम करने और ऊर्जा के साधनों को सुरक्षित रखने का प्रयास करें । जब आप किसी कमरे की लाइट प्रयोग न कर रहे हो या कम्प्यूटर पर काम न कर रहे हो तो उन्हें बंद कर दें । 
सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करें या फिर एक ही स्थान पर जाने के लिए लोग कारपूलिंग करके ईधन की बचत कर सकते    है ।  
ऊर्जा की बचत करने वाले उपकरण ही खरीदें या ऐसी गाड़िया खरीदें जिनमें ईधन की खपत कम होती हो । स्थानीय रूप से उगाई गई सब्जियां या निर्मित उत्पाद ही   खरीदे । इससे ढुलाई में लगने वाले अतिरिक्त ईधन की बचत होगी । 
विज्ञान-जगत 
प्राचीन काल के महान वैज्ञानिक अरस्तू
डॉ. विजयकुमार उपाध्याय

अरस्तू प्राचीन यूनान के एक महान वैज्ञानिक दार्शनिक तथा शिक्षाविद् थे । उनका जन्म ३८४ ईसा पूर्व आएजियन सागर के किनारे एक यूनानी उपनिवेश के स्टैगिरा नामक स्थान पर हुआ था । 
उनके पिता का नाम निकोमैकस था जो मेसिडोनिया के सम्राट अमितास द्वितीय के राज चिकित्सक थे । चूंकि अरस्तू के पिता एक चिकित्सक थे, बचपन से ही अरस्तू के मन मेंजीव विज्ञान के प्रति अभिरूचि जागृत हो गई । वे बचपन से ही जीव जन्तुआें के हावभाव, स्वभाव, खान-पान तथा अन्य आदतों का पर्यवेक्षण काफी गहराई से किया करते थे । 
अरस्तू १७ वर्ष की उम्र में ज्ञान प्रािप्त् के लिए प्लेटो के शिष्य  बने । उनके शिष्य के साथ-साथ वे उनके सहयोगी भी बनते गए । वे प्लेटो द्वारा स्थापित एकेडमी ऑफ एथेस के कार्योमें सक्रिय रूप से हाथ बंटाने लगे । उस समय तक एकेडमी के कार्य कलाप काफी बढ़ गए थे । एकेडमी में विज्ञान से संबंधित कई प्रकार के शोध किए जाने लगे थे । 
विशेष कर गणित एवं खगोल विज्ञान का गहन अध्ययन प्रारंभ हो चुका  था । इन विषयों के साथ-साथ चिकित्सा विज्ञान का भी अध्ययन अध्यापन प्रांरभ किया गया । हालांकि प्लेटो स्वयं गणित में अधिक रूचि रखते थे, परन्तु उनके प्रमुख शिष्य होने के बावजूद अरस्तु की मुख्य रूचि जीव विज्ञान के क्षेत्र में थी । यही कारण था कि परवर्ती वैज्ञानिकों ने प्लेटो को एक महान गणितज्ञ के रूप में माना, जबकि अरस्तू को एक जीव वैज्ञानिक के रूप में । जहां प्लेटो ने ज्यामिति, संख्याआें के गुण इत्यादि के अध्ययन में समय व्यतीत किया तथा इनसे संबंधित सिद्धांतों का प्रतिपादन किया, वहीं अरस्तू ने जीव विज्ञान के अध्ययन में समय बिताया तथा इससे संबंधित सिद्धांत प्रतिपादित किए । 
आज से लगभग दो हजार चार सौ वर्ष पूर्व जीव विज्ञान के संबंध में अरस्तू ने जो शोध कार्य किए और उनके आधार पर जो सिद्धांत विकसित किए वे काफी महत्वपूर्ण  थे । उन्होंने जैविक पदार्थो के लक्षण एवं स्वभाव तथा जीवों की उत्पत्ति पर काफी गहराई से अध्ययन किए । एकेडमी ऑफ एथेंस में रहते हुए ही अरस्तू ने एक महत्वपूर्ण ग्रंथ डायलॉग का लेखन किया था । इस पुस्तक में जीव विज्ञान से संबंधित विभिन्न विषयों की विवेचना संतोषजनक ढंग से की गई थी । परन्तु यह ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं    है । इस पुस्तक के संबंध मेंकुछ जानकारी विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखी गई टीकाआें से प्राप्त् होती है । इन टीकाआें में डायलॉग की काफी प्रशंसा की गई थी । जीव विज्ञान से संबंधित अपने समय का यह सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ था । 
३४७ वर्ष ईसा पूर्व प्लेटो के निधन के बाद एकेडमी ऑफ एथेंस के प्रधान उनके भतीजे स्पेडसिप्पसा बने । धीरे-धीरे एकेडमी में अध्ययन-अध्यापन एवं शोध का वातावरण बिगड़ता गया । एकेडमी का माहौल अनुकूल नहीं रहने के कारण अरस्तू काफी चिन्तित एवं असंतुष्ट रहने लगे थे । अंत में वहां की परिस्थिति इतनी बिगड़ गई कि ऊबकर अरस्तू ने वह स्थान छोड़  दिया । एकेडमी ऑफ एथेंस छोड़ने के बाद वे ऐस्सस चले गए तथा वहीं बस गए । परन्तु वे तो स्वभाव से कर्मठ व्यक्ति थे । उन्हें निष्क्रिय बैठे रहना कभी भी अच्छा नहीं लगता   था । ऐस्सस में भी अपनी सक्रियता पूर्ववत बनाए रखने के लिए उन्होंने एक विद्यापीठ की स्थापना की । इस स्थान पर वे लगातार तीन वर्षो तक शिक्षण कार्य करते रहे । इस विद्यापीठ में अरस्तू के शिष्यों में उस क्षेत्र क राजा हरयिमास भी शामिल थे । कुछ ही समय बाद लेस्बोस निवासी थियोफ्रेस्टस भी इस विद्यापीठ में आकर रहने लगे तथा शीघ्र ही उनकी गणना अरस्तू के प्रमुख शिष्योंमें होने लगी । 
ऐस्सस के सम्राट हरमियास अरस्तू का बहुत सम्मान करते थे । उन्होंने अरस्तू से अनुरोध किया कि वे उनकी पुत्री को पत्नी रूप में स्वीकार करें । अरस्तू ने उनके अनुरोध को मानते हुए उनकी पुत्री से विवाह कर लिया । कुछ समय बाद अपने प्रमुख शिष्य थियोफ्रैस्टस के बहुत अनुरोध पर वे लेस्बोस द्वीप पर जाकर रहने लगे । लेस्बोस द्वीप आएजियन सागर में एशिया माइनर (वर्तमान तुर्की का एक भाग) से थोड़ी दूर स्थित था । 
लेस्बोस वही स्थान है जहां ईसा पूर्व सातवी शताब्दी में सेफ्फो नाम की ग्रीक कवयित्री द्वारा लेस्बियन संस्कृति की शुरूआत की गई थी । लेस्बोस द्वीप पर अरस्तू ने दो वर्षो का समय बहुत ही आनंदपूर्वक व्यतीत किया । यहीं पर उन्होंने जीव विज्ञान से संबंधित अनेक शोध   किए । यहीं रहते हुए अरस्तू ने प्राकृतिक इतिहास, विशेषकर समुद्री जीव विज्ञान के संबंध में गहन अध्ययन किए तथा कई महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रतिपादित किए । 
जिस समय अरस्तू लेसबोस में रह रहे थे, उस समय सिकंदर के पिता फिलिप मेसिडोनिया के सम्राट थे । आजकल प्राचीन मेसिडोनिया का अस्तित्व नहीं रहा । यह स्थान आधुनिक काल में यूनान, युगोस्लाविया तथा बुल्गारिया के बीच विभाजित है । जब फिलिप के कानों में अरस्तू की प्रसिद्धि की खबर पहुंची तो उन्होंने अरस्तू से अनुरोध किया कि वे पेल्ला (मेसिडोनिया) में चलकर रहे । फिलिप की इच्छा थी कि वे उनके पुत्र सिकंदर के गुरू अरस्तू ही    बने । अरस्तू फिलिप के अनुरोध को मानकर मेसिडोनिया में रहने लगे । यहां लगभग सात वर्षो तक रहे तथा सिंकदर को शिक्षा प्रदान करते रहे । सम्राट फिलिप तथा उनका पुत्र सिकंदरदोनों ही अरस्तू से काफी प्रभावित थे । 
३३६ वर्ष ईसा पूर्व सम्राट फिलिप का निधन हो गया । उसके बाद उनका पुत्र सिकंदर गद्दी पर   बैठा । अब अरस्तू का मेसिडोनिया में कोई काम शेष नहीं बचा था । अत: वे मेसिडोनिया छोड़ एथेंस में जाकर रहने लगे जो यूनान में ज्ञान-विज्ञान का प्रमुख केन्द्र था । इस स्थान पर वे ३३५ ईसा पूर्व से ३२२ ईसा पूर्व तक जीव विज्ञान के गहन अध्ययन में व्यस्त रहे । यहां प्लेटो द्वारा स्थापित एकेडमी ऑफ एथेंस के अलावा अरस्तू ने एक नए सस्थान की स्थापना की जिसे पेरिपैटेटिक स्कूल कहा जाता था । पेरिपेटेटिक शब्द ग्रीक भाषा के शब्द पेरिपैटोस से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है उद्यान मेंटहलने का रास्ता । चूंकि शुरू-शुरू में अरस्तू उद्यान में टहलते हुए ही अपने शिष्यों को उपदेश एवं ज्ञान प्रदान करते थे अत: इसे पेरिपैटेटिक स्कूल कहा जाने लगा । 
यह स्कूल भी कालक्रम में एक प्रसिद्ध महाविद्यालय के रूप मेंविकसित  हुआ । इस संस्थान में पठन-पाठन के अलावा छात्रावास तथा पुस्तकालय की भी सुविधा उपलब्ध थी । इस पुस्तकालय में उस काल के प्रसिद्ध लेखकों की पुस्तकों का संग्रह था । इस प्रकार अरस्तू द्वारा स्थापित यह पेरिपैटेटिक स्कूल उस काल में अध्ययन एवं शोध का एक प्रमुख केन्द्र था । काफी दूर-दूर से लोग इस शिक्षा संस्थान में आते थे तथा अध्ययन एवं शोध कार्य करते   थे । 
अरस्तू ने विज्ञान के अलावा भी अनेक विषयों पर अपने लेखनी चलाई तथा कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का सृजन किया । अन्य विषयों में शामिल थे - अध्यात्म, राजनीति, खेल, इतिहास, खगोल विज्ञान  वगैरह । उनके द्वारा लिखित सबसे प्रसिद्ध पुस्तक थी हिस्टोरिया ऐनिमेलियम जो जीव विज्ञान से संबंधित थी । उस काल के दौरान जीव विज्ञान पर लिखी गई यह सबसे प्रमुख पुस्तक थी । इस पुस्तक की रचना अरस्तू ने अपने शिष्य सिकंदर द्वारा विश्व विजय के दौरान एकत्र की गई वस्तुआें के अध्ययन के आधार पर की थी । इस पुस्तक में विभिन्न जीवों के लक्षण, आचरण तथा मनोविज्ञान के विषय में विवरण दिया गया है । साथ ही इस गं्रथ में कई सिद्धांतों की विवेचना की गई है । 
जब अरस्तू पेरिपैटेटिक स्कूल में कार्यरत थे उसी दौरान ३२३ वर्ष ईसा पूर्व उन्हें सिकंदर के निधन का समाचार मिला । जब तक सिकंदर जीवित थे तब तक यूनान में शांति तथा अनुशासन का वातावरण था । सिकंदर के विरोधी भी सिर उठाने का साहस नहीं कर पाते थे । 
ज्ञान-विज्ञान
शार्क अनुमान से ज्यादा जीती हैं
समुद्री पर्यावरण में शार्क का वही स्थान है जो जंगल में शेर या बाघ का । ये सभी अपने-अपने परिवेश में सर्वोच्च् शिकारी हैं । इस लिहाज से इनके संरक्षण का बहुत महत्व है । शार्क के अस्तित्व को लेकर काफी चिंता व्यक्त की गई है और माना गया है कि ये कई जगहों पर खतरे में है । मगर एक ताजा समीक्षा का निष्कर्ष है कि शायद खतरा थोड़ा बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत हुआ  है ।
शार्क कितनी उम्र जीती है ? इस बात का अनुमान लगाने के लिए वैज्ञानिक अक्सर उनकी रीढ़ की हड्डी की एक पतली स्लाइस निकालकर यह देखते है कि उस पर कितने जोड़ी पटि्टयां बनी है । ऐसा माना जाता है कि इन पटि्टयों की संख्या शार्क की उम्र का वैसा ही पैमाना है जैसी वृक्षों की वार्षिक वलय होती है । मगर वर्ष २०१४ में एक अध्ययन में पता चला थ कि शायद सैंड टाइगर शार्क्स के बारे मे यह बात सही नहीं है । आम तौर पर माना जाता है कि ये शार्क करीब २० वर्ष जीती हैं, वही अध्ययन में पता चला था कि शायद इनकी औसत आयु ४० वर्ष  है  । इसी प्रकार से न्यूजीलैंड की पोर्बीगल शार्क को लेकर किए गए एक अध्ययन में बताया गया था कि शायद इनकी उम्र पूरे २२ साल कम आंकी गई है । 
रीढ़ की हड्डी में बनने वाले पटि्टयों के आधार पर समस्त मछलियों की आयु का आकलन किया जा सकता है । दूसरी ओर टिलियोस्ट समूह की मछलियों की उम्र पता करने के लिए वैज्ञानिक ओटोलिथ को देखते हैं । ओटोलिथ मछलियों के अंदरूनी कान में जमा होने वाले कैल्शियम कार्बोनेट की परते होती है । दिक्कत यह है कि शार्क में ओटोलिथ नहीं होता । इसीलिए इनकी उम्र पता करने के लिए रीढ की हड्डी की स्लाइस का सहारा लिया जाता है । किन्तु होता यह है कि अधेड़ावस्था में जब शार्क की वृद्धि रूक जाती है तो पटि्टयां बननी भी रूक जाती है । यानी यदि इस उम्र के बाद किसी शार्क की रीढ़ की हड्डी की स्लाइस देखी जाएगी तो लगेगा कि वह अभी युवा ही है । 
हाल के एक समीक्षा पर्चे में एलेस्टेयर हैरी (जेम्स कुक विश्वविघालय, आस्ट्रेलिया) ने शार्क मछलियों की उम्र निर्धारण के प्रमाणों की समीक्षा की । उन्होंने दो विधियों की मदद से यह जांचने का प्रयास किया कि क्या रीढ़ की हड्डी की पटि्टयां सही उम्र बताती है । पहली विधि है रासायनिक मार्किग और दूसरी है बम-कार्बन डेटिंग । रासायनिक मार्किग विधि में किया यह जाता है कि जब कोई शार्क पकड़ी जाती है तो उसे एक फ्लोरेसेंट रंजक का इंजेक्शन दिया जाता जो रीढ़ की हड्डी में फिक्स हो जाता   है । जब दोबारा वह शार्क पकड़ी जाती है तो यह देखा जा सकता है कि मार्किग के बाद कितनी पटि्टयां बनी है । इसके आधार पर कहा जा सकता है कि पट्टी गिनने की विधि कितनी कामयाब है । 
बम-कार्बन डेटिंग में इस बात का फायदा उठाया जाता है कि १९५० के दशक में जो परमाणु बम परीक्षण हुए थे उनसे उत्पन्न कार्बन जन्तुआें के शरीर में बना रहता है । इसके आधार पर भी उम्र पता लगाई जा सकती है । इन सबके आधार पर हैरी का कहना है कि शार्क की औसत आयु को काफी कम आंका गया है । 
सौर ऊर्जा के दोहन के लिए कृत्रिम पत्ती
पुणे स्थित राष्ट्रीय रसायन विज्ञान प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा जुगाड़ तैयार किया है जो कुछ मायनों में एक पत्ती की तरह काम करता है और सौर ऊर्जा का दोहन करने में मददगार हो सकता है । 
यह जुगाड़ दरअसल एक सूक्ष्म आणविक संकुल है  जिसमें ऐसी व्यवस्था की गई है कि वह प्रकाश ऊर्जाको सोख सकता है और उसका उपयोग करते हुए पानी का विघटन करके हाइड्रोजन बना सकता है । यह संकुल सोने के अतिसूक्ष्म (नैनो) कणों टाइटेनियम ऑक्साइड विशिष्ट क्वांटम बिन्दुआें से बनाया गया है । 
इस सेल को जब जलीय घोल में डुबाकर धूप में रखा गया तो इसमें तत्काल हाइड्रोजन के बुलबुले बनने लगे । यह यंत्र तार-रहित है और इसकी सौर ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करने की कार्य क्षमता ५.६ प्रतिशत रही जो इसी तरह की तार वाली बैटरियों से कही बेहतर है । 
     हाइड्रोजन  को एक ईधन के रूप में इस्तेमाल करने के अनेक फायदे है और ऐसा माना जा रहा है कि भविष्य का साफ-सथुरा नवीकरणीय ईधन हाइड्रोजन ही होगा । किन्तु हाईड्रोजन को बनाना व भंडारित करना एक चुनौती रही है । राष्ट्रीय रसायन विज्ञान प्रयोगशाला में चिन्नाकोंडा गोपीनाथ के नेतृत्व में विकसित यह सेल हाइड्रोजन निर्माण का एक सस्ता तरीका उपलब्ध करा सकती है । शोधकर्ताआें का कहना है कि यदि इस सेल को किसी वाहन के साथ जोड़ दिया जाए तो यह मौके पर ही पानी के विघटन से हाइड्रोजन पैदा करके ईधन व प्रदूषण की समस्या का समाधान दे सकती है । 
क्या मनुष्य का विकास जारी है ?
यह सवाल कई बार पूछा जाता है कि मनुष्य का विकास थम गया है या अभी जारी है । सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर है कि विकास से आशय क्या है । हाल ही में न्यूयॉर्क के कोलंबिया विश्वविघालय के जोसेफ पिक्रेल औश्र उनके सहयोगियों ने पूरे २ लाख मानव जीनोम्स का विश्लेषण करके बताया है कि मानव आज भी विकासमान है । 
पिक्रेल और उनके साथियों का मत है कि जीव वैज्ञानिक दृष्टि से किसी भी आबादी को विकासमान कहा जा सकता है । यदि उसमें विभिन्न जीन्स का वितरण समय के साथ बदले । पिक्रेल और उनके साथियों ने दो जीन्स के वितरण पर ध्यान केन्द्रित किया है । एक जीन उकठछर३ है जो व्यक्तियों को धूम्रपान करने को उकसाता है । इस जीन के कुछ रूप ऐसे है जो धूम्रपान करने वाले व्यक्ति को ज्यादा ध्रूमपान करने की ओर धकेलते है । प्लॉस 
बायॉलॉजी में प्रकाशित शोध पत्र में पिक्रेल की टीम ने बताया है कि दो पीढ़ीयों के अंतराल में इस जीन की उपस्थिति में १ प्रतिशत की कमी देखी गई है । 
दरअसल, पिक्रेल की टीम ने ८० वर्ष से अधिक उम्र के लोगोंके जीन वितरण की तुलना ६० वर्ष से अधिक उम्र के लोगों से की थी । अलबत्ता टीम कोई पक्का दावा नहीं कर पा रही है क्योंकि उसके पास ४० से अधिक उम्र के लोगों के जीनोम आंकड़े नहीं थे । 
इसी प्रकार से एक अन्य आिएि४ जीन है जिसका एक रूप अल्जाइमर के अलावा ह्दय-रक्त वाहिनी रोगों का खतरा बढ़ाता है । टीम के विश्लेषण के मुताबिक दो पीढ़ियों के अंतराल में इस जीन की आवृत्ति भी घटी है ।
टीम के अनुसार इस जीन की आवृत्ति घटने का एक कारण यह हो सकता है कि आजकल लोग बढ़ी हुई उम्र (४०-५० की उम्र) में बच्च्े पैदा करने लगे हैं । यह वह उम्र है जब जीन के इस रूप वाले लोगों की मृत्यु की संभावना ज्यादा होती है इसका मतलब है कि इस जीन रूपसे युक्त व्यक्तियों की संतानोत्पति से पूर्व मृत्यु की आशंका बढ़ गई है ।  
कृषि जगत
कृषि संकट की जड़ें
जावेद अनीस
राजनीतिक दलों के लिये किसान एक ऐसे चुनावी मुद्दे की तरह है जिसे वे चाह कर भी नजरंदाज नहीं कर सकते क्योंकि यह देश की करीब आधी आबादी की पीड़ा है जो अब नासूर बन चुका है । 
विपक्ष में रहते हुए सभी पार्टियाँ किसानों के पक्ष में बोलती हैंऔर उनकी आवाज को आगे बढ़ाती हैं लेकिन सत्ता में आते ही वे उसी विकास के रास्ते पर चलने को मजबूर होती हैं,जहाँ खेती और किसानों की कोई हैसियत नहीं है। मौजूदा व्यवस्था में किसान अपने वजूद की लड़ाई लड़ने के लिए अभिशप्त हैं।
आज भारत के किसान खेती में अपना कोई भविष्य नहीं देखते हैं,उनके लिये खेती-किसानी बोझ बन गया है । हालात यह हैं कि देश का हर दूसरा किसान कर्जदार है । राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़े बताते है कि यदि कुल कर्ज का औसत निकाला जाए देश के प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतम ४७ हजार रुपए का कर्ज है ।
इधर मौजूदा केन्द्र सरकार की तुगलगी हिकमतें भी किसानों के लिए आफत साबित हो रही हैं, नोटबंदी ने किसानों की कमर तोड़ के रख दी है । आंकड़े बताते हैं  किनोटबंदी के चलते किसानों को कृषि उपज का दाम ४० फीसदी तक कम मिला । जानकार बताते हैं कि खेती-किसानी पर जीएसटी का विपरीत प्रभाव पड़ेगा, इससे पहले से ही घाटे में चल रहे किसानों की लागत बढ़ जायेगी । मोदी सरकार ने २०२२ तक किसानों की आमदनी दुगनी कर देने जैसे जुमले उछालने के अलावा कुछ खास नहीं किया है। आज भारत के किसान अपने अस्तित्व को बनाये और बचाए रखने के लिए अपने दोनों अंतिम हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसके दावं पर उनकी जिंदगियाँ लगी हुई हैं । एक हथियार गोलियाँ-लाठियाँ खाकर आन्दोलन करने का है तो दूसरा आत्महत्या यानी खुद को खत्म कर लेने का ।
दरअसल यह केवल किसानों का नहीं बल्कि पूरे कृषि क्षेत्र का संकट है । १९५० के दशक में भारत के जीडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा ५० प्रतिशत था, १९९१ में जब नई आर्थिक नीतियाँ को लागू की गई थीं तो उस समय जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान ३४.९ प्रतिशत था, जो अब वर्तमान में करीब १३ प्रतिशत के आसपास आ गया है । जबकि देश की करीब आधी आबादी अभी भी खेती पर ही निर्भर है। नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से सेवा क्षेत्र में काफी फैलाव हुआ है, जिसकी वजह से आज भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चुनिन्दा अर्थ व्यवस्थाओं में शुमार की जाने लगी है, लेकिन सेवा क्षेत्र का यह बूम उस अनुपात में रोजगार का अवसर मुहैया कराने में नाकाम रहा है । 
नतीजे के तौर पर आज भी भारत की करीब दो-तिहाई आबादी की निर्भरता कृषि क्षेत्र पर बनी हुई   है । इस दौरान परिवार बढ़ने की वजह से छोटे किसानों की संख्या बढ़ी है जिनके लिए खेती करना बहुत मुश्किल एवं नुकसान भरा काम हो गया है और कर्ज लेने की मजबूरी बहुत आम हो गई है । एनएसएसओ के ७०वें दौर के सर्वेक्षण के अनुसार देश के कुल ९.०२ करोड़ काश्तकार परिवारों में से ७.८१ करोड़ (यानी ८६.६ फीसदी) खेती से इतनी कमाई नहीं कर पाते जिससे वे अपने परिवार के खर्चों को पूरा कर सकें । खेती करने की लागत लगातार बढ़ती जा रही है जिससे किसानों के लिए खेती करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है । 
दरअसल खेती का सारा मुनाफा खेती संबंधी कारोबार से जुड़ी कंपनियाँ कूट रही हैं,भारत के कृषि क्षेत्र में पूँजी अभी भी सीधे तौर पर दाखिल नहीं हुआ है, अगर इतनी बड़ी संख्या में आबादी लगभग जीरो प्रॉफिट पर इस सेक्टर में खप कर इतने सस्ते में उत्पाद दे रही है तो फौरी तौर पर इसकी जरूरत ही क्या है, इसी के साथ ही किसानी और खेती से जुड़े कारोबार तेजी से फल-फूल रहे हैं । उर्वक खाद बीज, कीटनाशक और दूसरे कृषि कारोबार से जुड़ी कंपनियाँ सरकारी रियायतों का फायदा भी लेती हैं । 
यूरोप और अमरीका जैसे पुराने पूँजीवादी मुल्कों के अनुभव बताते हैं कि इस रास्ते पर चलते हुए अंत में छोटे और मध्यम किसानों को उजड़ना पड़ा है क्योंकि पूँजी का मूलभूत तर्क ही अपना फैलाव करना है जिसके लिए वो नये क्षेत्रों की तलाश में रहता है । भारत का मौजूदा विकास मॉडल इसी रास्ते पर फर्राटे भर रही है जिसकी वजह देश के प्रधानमंत्री और सूबाओं के मुख्यमंत्री दुनिया भर में घूम-घूम कर पूँजी को निवेश के लिये आमंत्रित कर रहे हैंइसके लिए लुभावने आफर प्रस्तुत दिये जाते हैंजिसमें सस्ती जमीन और मजदूर शामिल है ।
भविष्य में अगर विकास का यही रास्ता रहा तो बड़ी पूँजी का रुख गाँवों और कृषि की तरफ मुड़ेगा ही और जिसके बाद बड़ी संख्या में लोग कृषि क्षेत्र छोड़ कर दूसरे सेक्टर में जाने को मजबूर किये जायेंगें, उनमें से ज्यादातर के पास मजदूर बनने का ही विकल्प बचा होगा । यह सेक्टोरियल ट्रांसफॉर्मेशन बहुत ही दर्दनाक और अमानवीय साबित  होगा । 
इस साल अप्रैल में नीति आयोग ने जो तीन वर्षीय एक्शन प्लान जारी किया है उसमें २०१७-१८ से २०१९-२० तक के लिए कृषि में सुधार की रूप-रेखा भी प्रस्तुत की गई है । इस एक्शन प्लान में कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए जिन नीतियों की वकालत की गई है उसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सीमित करना, अनुबंध वाली खेती (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) के साथ जीएम बीजों कोबढ़ावा देना और इस क्षेत्र में निजी कंपनियों के सामने मौजूद बाधाओं को खत्म करने जैसे उपाय शामिल हैं । कुल मिलाकर पूरा जोर कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने पर है, यह दस्तावेज एक तरह से भारत में 'कृषि के निजीकरण` का रोडमैप है ।
वातावरण
शहरों में फैलता लैंड-फिल गैसों का खतरा
डॉ. ओ.पी. जोशी

कचरा वातावरण में हानिकारक गैसों को उत्सर्जित करता है । कचरे के सड़ने के साथ ही उसमें मीथेन गैस पैदा होती है, जो लैंडफिल साइट में आमतौर पर विषैली गैसें दूर-दूर तक जहरीले धुएं के रूप में फैलती है । नगरों एवं महानगरों में कूड़े कचरे के सड़ने से निकली विषैली गैसों की समस्या तेजी से फैल रही है ।
हाल ही में दिल्ली के  गाजीपुर कचरा भराव क्षेत्र (लैंड-फिल साइटों) में हुई दुर्घटना से  जानमाल की हानि हुई । यह दुर्घटना दर्शाती है कि स्वच्छ भारत अभियान के तहत हम कचरा एकत्र करने एवं उस भराव क्षेत्र लैंड-फिलया पाटन क्षेत्र (डम्पिंग) तक पहुँचाने में ही सफल रहे, उचित निष्पादन या निपटान में नहीं । देश के ज्यादातर शहरों में एकत्र कचरे का उचित निपटान आधुनिक एवं वैज्ञानिक विधियों से नहीं हो रहा है । कूड़े-कचरे के बढ़ते ढेरों के साथ-साथ नगरों एवं महानगरों में कूड़े-कचरे के सड़ने से निकली विषैली गैसों की समस्या भी फैलती जा रही है । 
कचरे के सड़ने से पैदा इन विषैली एवं बदबूदार गैसों को वैज्ञानिक `लैंड-फील गैस` कहते हैं। विकास की दौड़ में नगर एवं महानगर तेजी से फैलते जा रहे हैं । इस फैलाव हेतु शहरों के आसपास की गड्डांेे वाली या उबड़खाबड़ भूमि  को कचरे से पाट दिया जाता है । एवं फिर समतलीकरण कर वहाँ मकान, सड़कें एवं व्यावसायिक भवन आदि बनाये जाते हैं । देश के कई नगरांे एवं महानगरों में कचरा मैदान पर आलीशन इमारतें एवं रहवासी क्षेत्र बन गए हैं । शहरी कचरे के पृथककरण (कचरे की प्रकृति अनुसार अलग-अलग करना) की उचित व्यवस्था नहीं होने से शहरी कचरे में कारखानों का व्यर्थ, दवाखानों की गंदगी, प्लास्टिक, थर्मोकोल एवं बेकार इलेक्ट्रानिक उपकरण (ई-वेस्ट) भी होते हैं । 
गड्डों के भराव के समय डाला गया कचरा बगैर किसी रासायनिक या अन्य प्रकार के उपचार के डाल दिया जाता है। इस मिश्रित कचरे में उपस्थित विभिन्न प्रकार के रसायन परस्पर सम्पर्क में आकर १०-१२ वर्षेंा के बाद कई प्रकार की रासायनिक क्रियाएँ करते हैं । इस रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरूप कई प्रकार की विषैली बदबूदार गैसें पैदा होने लगती हैं जिन्हंे `लैंड-फिल गैस` कहा जाता है । 
इन गैसों में हाइड्रोजन-सल्फाइड, नाइट्रोजन आक्साइड्स, कार्बन मोनो आक्साइड, मिथेन तथा सल्फर डाय आक्साइड  प्रमुख होती है। किये गये अध्ययनों एवं उनके आधार पर बनाये कुछ नियमानुसार कचरा मैदानों पर कचरा भराव व समतलीकरण के बाद भवन निर्माण या बसाहट के कार्य १५ वर्ष के बाद किये जाने चाहिए । इस अवधि में कचरे के सड़ने सेे पैदा लैंड-फिल गैस उत्सर्जित हो बाहर निकल कर वायुमंडल में मिल जाती है । ये लैंड-फिल गैस इलेक्ट्रानिक उपकरणों के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य एवं भू-जल पर विपरित प्रभाव डालती है । 
हमारे देश में नईदिल्ली, बंगलुरू, अहमदाबाद, गुड़गांव एवं नोएडा आदि क्षेत्रों में कचरा मैदान पर बने भवनों में स्थापित कार्यालय या घरेलू उपयोग के आने वाले कम्प्यूटर, लेपटाप, एसी, टीवी, प्रिंटर तथा अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरणों की कार्य प्रणाली में गड़बड़ी देखी गई है । जैसे कम्प्यूटर पर दी गयी कंमाड बेअसर हो जाती है एवं धातुओं से बने भाग काले होने लगते हैं । 
कम्प्यूटर के भागों में लगी चाँदी व तांबे की धातुएँ मिथेन व हाइड्रोजन-सल्फाइड से प्रभावित होती है । लैंड-फिल गैस के प्रभाव से एक वर्ष चलने वाले कम्प्यूटर व सर्वर आदि २-३ माह में ही खराब होने लगता है। मुंबई के मलाड में विपटा मांइड स्पेस में व्यावसायिक क्षेत्र में कई कम्पनियांे के एक हजार से ज्यादा कम्प्यूटर तथा सैकड़ों सर्वर लैंडफील गैसों से प्रभावित होते देखे गये हैं। इसका कारण यह है कि इस व्यवसायिक क्षेत्र के स्थान पर कचरा-मैदान था जहाँ लगभग एक हजार टन कचरा प्रतिदिन डाला जाता था । 
कचरे के पूरी तरह सड़ने के पूर्व ही व्यवसायिक क्षेत्र विकसित किया गया । यहाँ कार्यरत कम्पनियाँ अब कमरों में एअर प्यूराफायर लगाने पर जोर दे रही है ताकि लैंड-फिल गैसों का प्रभाव कम हो सके । नेशनल सालिड वेस्ट एसोसिएशन ऑफ इंडिया के रसायनविदों ने भी अध्ययन कर इसी बात की पुष्टि की है कि उपकरणों पर हो रहा प्रभाव लैंड-फिल गैसों का ही परिणाम है । 
मनुष्यों में भी इन गैसों के संपर्क में आने पर दमा, श्वसन, त्वचा व एलर्जी रोग बढ़े हैं। महिलाओं में मूत्राशय के कैंसर की संभावना भी बताया गयी है । भूजल में नाइटे्रट की मात्रा बढ़ने का एक कारण ये गैसें भी बताई गयी है । इन गैसों के प्रभावों से बचने हेतु कचरा रासायनिक विधियोंें से उपचारित कर भराव हेतु डाला जावे या भराव वाले स्थानों पर १२-१५ वर्षों के बाद निर्माण कार्य हो ।
कविता
पक्षी और बादल 
रामधारी सिंह दिनकर

पक्षी और बादल, 
ये भगवान के डाकिये है,
जो एक महादेश से 
दूसरे महादेश को जाते हैं । 

हम तो समझ नहीं पाते हैं,
मगर उनकी लायी चिटि्ठयों
पेड़, पौधे, पानी और पहाड़
बॉचते हैं । 

हम तो केवल यह आंकते है
कि एक देश की धरती 
दूसरे देश को सुगन्ध भेजती है । 

और वह सौरभ हवा में तैरती हुए
पक्षियों की पांखों पर तिरता है । 
और एक देश का भाप
दूसरे देश का पानी
बनकर गिरता है ।
पर्यावरण समाचार
अब पुरूषों के लिए प्रजनन-रोधक गोली
फिलहाल पुरूषों के लिए कोई  ऐसा रासायनिक तरीका उपलब्ध नहीं जिसका उपयोग करके वे प्रजनन पर नियंत्रण कर सकें हालांकि यह विचार कई दशकों से चला आ रहा है । अब प्रजनन-रोधक गोली तो नहीं, एक मलहम बनाया गया है जो पुरूषों में शुक्राणुआें के उत्पादन को इतना कम कर देगा कि वे गर्भधारण को संभव नहीं बना पाएंगे । 
इस मलहम के क्लीनिकल परीक्षण यूएस के राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान और जनसंख्या परिषद      के नेतृत्व में २०१८ में शुरू किए जाएंगे । इस परीक्षण में यूके, स्वीडन, इटली, चिली, कीन्या तथा यूएस के कई केन्द्र हिस्सा लेगे । परीक्षण का तरीका यह होगा कि इन देशोंसे तकरीबन ४२० युगलों को भर्ती किया जाएगा । प्रत्येक युगल का पुरूष रोजाना अपने दोनों कंधों पर एक हारमोन युक्त मलहम लगाएगा । ऐसा कुछ दिन करने के बाद जांच की जाएगी कि पुरूष की शुक्राणु संख्या एक हद से कम हो जाए । अब शुरू होगा वास्तविक परीक्षण । 
जब पुरूष के वीर्य मेंशुक्राणु संख्या पर्याप्त् कम हो जाएगी तब एक वर्ष तक उन युगलों का निरीक्षण किया जाएगा । इस दौरान वे गर्भनिरोध की एकमात्र इसी विधि का इस्तेमाल करेंगे । 
उपरेाक्त मलहम त्वचा में अवशोषित होकर रक्त प्रवाह में हारमोन्स का एक मिश्रण प्रविष्ट करा देता है । इस मिश्रण में प्रोजेस्टिन और टेस्टोस्टेरोन नामक दो हरमाने होते हैं । प्रोजेस्टिन वह हारमोन है जो शरीर में शुक्राणु के उत्पादन को दबाता है । पहले किए  गए एक परीक्षण में देखा जा चुका है कि इस मिश्रण के उपयोग से करीब ८९ प्रतिशत लोगों में शुक्राणु संख्या १० लाख प्रति मि.ली. से कम हो जाती है, जो निषेचन करके गर्भधारण के लिए अपर्याप्त् है ।
अब तक जो परीक्षण पुरूष प्रजनन रोधकों पर किए गए थे उनमें दिक्कत यह थी कि उनमें शुक्राणु संख्या पर तो नियंत्रण हो जाता था किन्तु साथ ही शरीर में टेस्टोस्टेरोन का स्तर कम हो जाता था । टेस्टोस्टेरोन शरीर में कई अन्य भूमिकाएं निभाता है । इसका स्तर कम हो जाने की वजह से कई साइड प्रभाव होते है । टेस्टोस्टेरोन की क्षतिपूर्ति मुंह में गोली खिलाकर नहीं हो पाती । मुंह से लेने पर टेस्टोस्टेरोन  शरीर से बहुत जल्दी बाहर निकल जाता है और व्यक्ति को दिन में कई बार गोली खाना पड़ती है । इस मलहम की विशेषता यही है कि इसमें टेस्टोस्टेरोन की क्षतिपूर्ति त्वचा के माध्यम से की जाएगी । यह धीरे-धीरे रक्त प्रवाह में पहुंचता रहेगा और यह इतनी कम मात्रा में पहुंचेगा कि शुक्राणु उत्पादन को बढ़ावा भी नहीं नहीं दे पाएगा । 
यह पहली बार होगा कि पुरूषों की प्रजनन क्रिया में रासायनिक हस्तक्षेप करके गर्भ निरोध के प्रयास होंगे । अब तक पुरूषों के लिए प्रजनन-रोधक के मामले मेंसंयम, कंडोम और नसबंदी के तरीके ही उपलब्ध रहे है । 
उड़ते पानी से ऊर्जा 
दुनिया भर की झीलों-तालाबों - नदियों में से पानी भाप बनकर उड़ता रहता है । इस वाष्पीकरण के लिए ऊर्जा सूर्य से मिलती है । वैज्ञानिकों का विचार है कि यह वाष्पित पानी ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्त्रोत साबित हो सकता है, बशर्ते कि इसके दोहन के लिए टेक्नॉलॉजी विकसित हो पाए । 
कोलंबिया विश्वविघालय के ओजगुर साहिन और उनके साथियों का कहना है कि अकेले यूएस की वर्तमान झीलों और बांधों से जो पानी वाष्पीकृत होता है उससे हर साल तकरीबन ३० लाख मेगावॉट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है । 
इन जलराशियों से वाष्पित होने वाले पानी का दोहन ऊर्जा उत्पादन हेतु करने के लिए इनकी सतह पर वाष्पन इंजिन लगाने    होगें । इससे एक फायदा तो यह होगा कि भाप बनकर उड़ जाने जाने वाले पानी को बचाया जा सकेगा और बिजली का उत्पादन भी किया जा सकेगा । मगर वाष्पन इंजिन अभी बनाया नहीं गया है हालांकि साहिन की टीम ने इसके कुछ प्रारंभिक मॉडल बनाए है । 
इंजिन के एक संस्कारण में पटि्टयों को पानी की सतह के ठीक ऊपर रखा जाता है । जब उसके ऊपर लगे शटर को बंद कर दिया जाता है तो वहां नमी इकट्ठा होने लगती है और पट्टी फैल जाती है । पट्टी फैलने की वजह से शटर खुल जाता है । इस तरह के फैलने सिकुड़ने का उपयोग बिजली बनाने में किया जा सकता है ।