शनिवार, 20 सितंबर 2008

संपादकीय

संपादकीय

खाने की थाली भी खतरें में है

अगर जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (जीईएसी) कामयाब रही तो कुछ ही महीनों में पहली जैव संवर्धित सब्जी बीटी बैगन आपकी थाली में होगी । बीटी कपास या बीटी मक्का में समाहित बीटी जीन मिट्टी में पाए जाने वाले बैक्टीरिया, जिसे विज्ञान की भाषा में बीटी कहा जाता है, से अलग नहीं है । यही अब बैंगन में समाहित किया जा रहा है । यह जीन पौधे के अंदर ऐसा विषौला तत्व छोड़ता है, जो फल में लगने वाले कीड़ों को मार डालता है । परंपरागत तरीके से उपजा बैंगन बाजार से गायब होने के बाद निश्चित रूप से टाइप-२ डायबिटीज से लड़ने का एक कारगर घरेलू उपाय खत्म हो जाएगा । इसमें सुरक्षा के जो भी दावे किए जा रहे हो, सच्चई यह है कि अब तक ऐसे चिकित्सकीय परीक्षण नहीं किए गए जिनसे यह पता चल पाए कि जैव संवर्धन के बाद सामान्य बैंगन के गुणधर्मोंा में कोई परिवर्तन नहीं होगा । अब तक लोग यह विश्वास करते थे कि बैंगन को अच्छी तरह से धोने से नुकसानदायक कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से मुक्त हो जाएंगे । अब यह विधि कारगर नहीं रह जाएगी । बीटी बैंगन के रसोई में प्रवेश करने के बाद इसके विषैल तत्वों को धोने में सफल नहीं रहेंगे, क्योंकि ये तत्व तो बैंगन के अंदर समाए होंगे । सालक इंस्टीट्यूट आफ बायोलोजिकल स्टडीज, केलिफोर्निया के प्रो. डेव शुबर्ट के अनुसार बीटी छिड़काव ही इस्तेमाल के लिए सुरक्षित नहीं है । फिर बीटी फसलों में निकलने वाला विषैला तत्व (टाक्सिन) बीटी छिड़काव के मुकाबले तो एक हजार गुना अधिक सघन है । बीटी बैंगन के पौधे और इस पर लगने वाले बैंगनों में ऐसा विषैला तत्व होता है जो कीड़े-मकोड़े मारने वाले कीटनाशकों से भी हजार गुना घातक होता है । समस्या यह है कि एक बार बीटी बैंगन के बाजार में पहुंच जाने पर इसमें और साधारण बैंगन में अंतर करना संभव नहीं रह जाएगा । इसके बाद उपयोग करने वाले कितनी भी सावधानी बरतें वे खाने की थाली में बढ़ते खतरे से बच नहीं सकेंगें ।

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

प्रसंगवश

प्रसंगवश
पर्यावरण प्रदूषण में भारत भी आगे है
कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन करने वाले देशों में अमेरिका और चीन के बाद भारत का नंबर आता है । रूस, जर्मनी, जापान, यूनाईटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रिका व दक्षिण कोरिया का नंबर बाद में लगता है । योरप के सत्ताईस राष्ट्रों के कुल उत्सर्जन की मात्रा भारत से थोड़ी ही ज्यादा है । ऊर्जा का उत्सर्जन वर्ष भर में ११.४ अरब टन होने का अनुमान है । सन् २००० में यह मात्रा ८.५ अरब टन से भी कम थी । इसमें से चीन के ऊर्जासंयंत्र ३.१ अरब टन, अमेरिका के ऊर्जा संयंत्र २.८ अरब टन व भारत के ऊर्जा संयंत्र ६३.८ करोड़ टन कार्बन डाईाऑक्साइड का उत्सर्जन करते है । भारत की नेशनल थर्मल पावर कारपोरेशन के सोलह संयंत्र अकेले१८.६ करोड़ टन गैस उत्सर्जित करते है । चीन में ऐसी पांच अमेरिका में दो, दक्षिण अफ्रीका में एक और जर्मनी में एक बड़ी कंपनियाँ है । चीन के हृानेग पावर इंटरनेशनल के संयंत्र २८.५ करोड़ टन गैस उत्सर्जित करते है । इन आँकड़ों से उन लोगों को सचेत होना जरूरी है जो वैश्विक तापमान में वृद्धि के खतरों से चिंतित हैं और पर्यावरण प्रदूषण के दुष्परिणामों को नियंत्रित करने के विषय में पहल कर रहे है । ऊर्जा उत्पादन के लिए लकड़ी, कोयला, गैस, तेल व जीवाश्म आधारित तत्वों का प्रयोग करने से ऐसी गैस का सर्वाधिक उत्सर्जन होता है । संसार में उत्पादित ऊर्जा का ६० प्रतिशत इनसे मिलता है । मगर इससे कार्बन डाईऑक्साइड गैस उत्पन्न होती है। पेड़-पौधे भी ऐसी ही गैस छोड़ते हैं । इसे ग्रीन हाउस गैस कहा जाता है । पिछली दो सदियों में वातावरण में इस गैस की मात्रा २८ प्रति लाख इकाई से बढ़कर ३९ प्रति लाख इकाई हो गई है । इसके कारण न केवल पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, वरन प्राणियों व वनस्पतियों का जीवन तथा कार्यक्षमता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है । सूखा, अकाल, बाढ़, वनों में अग्नि, जल संकट, महामारियाँ व श्वास-हृदय रोग इसके उदाहरण हैं । अनुमान है कि इस सदी में ६ डिग्री फेरनहीट तापमान बढ़ जाएगा और निम्नस्तरीय धरातल पर पानी फैल जाएगा यह जरूरी है कि बिजली या ऊर्जा का उत्पादन बढ़ाया जाए । उसके बिना कृषि, खनन, उद्योग व संचार परिवहन सेवाआें का विकास संभव नहीं है । भारत की अर्थव्यवस्था ८ प्रतिशत से अधिक रफ्तार से तभी बढ़ सकती है जब बिजली व अन्य अधोसंरचना का विकास हो । ***

१ अमृता बलिदान दिवस (२१ सितम्बर) पर विशेष


अमृता बलिदान दिवस (२१ सितम्बर) पर विशेष
अमृता देवी और बिश्नोई समाज
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
आज सारी दुनिया में पर्यावरण संरक्षण की चिंता में पर्यावरण चेतना के लिये सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर विभिन्न कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं । भारतीय जनमानस में पर्यावरण संरक्षण की चेतना और पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों की परम्परा सदियों पुरानी है । हमारे धर्मग्रंथ, हमारी सामाजिक कथायें और हमारी जातीय परम्परायें हमें प्रकृति से जोड़ती है । प्रकृति संरक्षण हमारी जीवन शैली में सर्वोच्च् प्राथमिकता का विषय रहा है । प्रकृति संरक्षण के लिये प्राणोत्सर्ग कर देने की घटनाआें ने समूचे विश्व में भारत के प्रकृति प्रेम का परचम फहराया है । अमृता देवी और पर्यावरण रक्षक बिश्नोई समाज की प्रकृति प्रेम की एक घटना हमारे राष्ट्रीय इतिहास में स्वर्णिम पृष्ठों में अंकित है । सन् १७३० में राजस्थान के जोधपुर राज्य में छोटे से गांव खेजड़ली में घटित इस घटना का विश्व इतिहास में कोई सानी नहीं है । सन् १७३० में जोधपुर के राजा अभयसिंह को युद्ध से थोड़ा अवकाश मिला तो उन्होंने महल बनवाने का निश्चय किया ।नया महल बनाने के कार्य में सबसे पहले चूने का भट्टा जलाने के लिए इंर्धन की आवश्यकता बतायी गयी । इस पर राजा को दरबारियों ने सलाह दी कि पड़ोस के गांव खेजड़ली में खेजड़ी के बहुत पेड़ है, वहां से लकड़ी मंगवाने पर चूना पकाने में कोई दिक्कत नहीं होगी । इस पर राजा ने तुरंत अपनी स्वीकृतिदे दी । खेजड़ली गांव में अधिकांश बिश्नोई लोग रहते थे । बिश्नोईयों में पर्यावरण के प्रति प्रेम और वन्य जीव सरंक्षण जीवन का प्रमुख उद्देश्य रहा है । बिश्नोई समाज के संस्थापक महान सामाजिक संत गुरू जंभोजी महाराज (१४५१-१५३६) ने पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से जीवन में सदाचार में २९ (२०+९) धर्म नियम बनाये थे । इन २९ नियमों को मानने वाले सभी लोग बिश्नोई कहलाने लगे । खेजड़ली गांव में प्रकृति के प्रति समर्पित इसी बिश्नोई समाज की ४२ वर्षीय महिला अमृता देवी के परिवार में उनकी तीन पुत्रियां और पति रामू खोड़ थे, जो कृषि और पशुपालन से अपना जीवन-यापन करते थे । खेजड़ली में राजा के कर्मचारी सबसे पहले अमृता देवी के आंगन में लगे खेजड़ी के पेड़ को काटने आये तो अमृता देवी ने उन्हें रोका और कहा कि ``यह खेजड़ी का पेड़ हमारे घर का सदस्य है यह मेरा भाई है इसे मैंने राखी बांधी है, इसे मैं नहीं काटने दूंगी ।'' इस पर राजा के कर्मचारियों ने प्रति प्रश्न किया कि ``इस पेड़ से तुम्हारा धर्म का रिश्ता है, तो इसकी रक्षा के लिये तुम लोगों की क्या तैयारी है ।'' इस पर अमृता देवी और गांव के लोगों ने अपना संकल्प घोषित किया ``सिर साटे रूख रहे तो सस्तो जाण'' अर्थात् हमारा सिर देने के बदले यह पेड़ जिंदा रहता है तो हम इसके लिये तैयार है । इस दिन तो पेड़ कटाई का काम स्थगित कर राजा के कर्मचारी चले गये, लेकिन इस घटना की खबर खेजड़ली और आसपास के गांवों में शीघ्रता से फैल गयी । कुछ दिन बाद राजा के कर्मचारी पूरी तैयारी से आये और अमृता के आंगन के पेड़ को काटने लगे तो गुरू जंभोजी महाराज की जय बोलते हुए सबसे पहले अमृता देवी पेड़ से लिपट गयी क्षण भर में उनकी गर्दन धड़ से अलग हो गयी, फिर उनके पति, तीन लड़किया और ८४ गांवों के कुल ३६३ बिश्नोईयों (६९ महिलाये और २९४ पुरूष) ने पेड़ की रक्षा में अपने प्राणों की आहूति दे दी । खेजड़ली की धरती बिश्नोईयों के बलिदानी रक्त से लाल हो गयी । यह गुरूवार २१ सितम्बर १७३० (भाद्रपद शुक्ल दशमी, विक्रम संवत १७८७) का ऐतिहासिक दिन विश्व इतिहास में इस अनूठी घटना के लिये हमेशा याद किया जायेगा । समूचे विश्व में पेड़ रक्षा में अपने प्राणों को उत्सर्ग कर देने की ऐसी कोई दूसरी घटना का विवरण नहीं मिलता है । इस घटना से राजा के मन को गहरा आघात लगा, उन्होंने बिश्नोईयों को ताम्रपत्र से सम्मानित करते हुए जोधपुर राज्य में पेड़ कटाई को प्रतिबंधित घोषित किया और इसके लिये दण्ड का प्रावधान किया । बिश्नोई समाज का यह बलिदानी कार्य आने वाली अनेक शताब्दियों तक पूरी दुनिया में प्रकृति प्रेमियों में नयी प्रेरणा और उत्साह का संचार करता रहेगा । बिश्नोई समाज आज भी अपने गुरू जंभोजी महाराज की २९ नियमों की सीख पर चलकर राजस्थान के रेगिस्तान में खेजड़ी के पेड़ों और वन्यजीवों की रक्षा कर रहा है । हमारे देश में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय तथा सभी राज्य सरकारों द्वारा पर्यावरण एवं वन्यजीवों के संरक्षण के लिये अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं । हमारे यहां प्रतिवर्ष ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है । केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के तत्वावधान में एक माह की अवधि का राष्ट्रीय पर्यावरण जागरूकता अभियान भी चलाया जाता है। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि हमारे सरकारी लोक चेतना प्रयासों को इस महान घटना से कहीं भी नहीं जोड़ा गया है । हमारे यहां राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस के लिये इस महान दिन से उपयुक्त कोई दूसरा दिन कैसे हो सकता है ? आज सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि २१ सितम्बर के दिन को भारत का पर्यावरण दिवस घोषित किया जाये यह पर्यावरण शहीदों के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की सच्ची श्रृद्धांजलि होगी और इससे प्रकृति सरंक्षण की जातीय चेतना का विस्तार हमारी राष्ट्रीय चेतना तक होगा, इससे हमारा पर्यावरण समृद्ध हो सकेगा । ***
बड़ी परियोजनाआें में देरी से सालाना बढ़ता है ५० हजार करोड़ का खर्च
केन्द्र और राज्य सरकारों की बड़ी योजनाआें की ठीक से मॉनिटरिंग नहीं होने और उनके क्रियान्वयन में होने वाली अनावश्यक देरी के कारण इन परियोजनाआें की लागत हर साल ५० हजार करोड़ बढ़ जाती है । वाणिज्य और उद्योग मण्डल एसोचैम के एक सर्वेक्षण के अनुसार ८० फीसदी कंपनी प्रमुखों का कहना है कि अनावश्यक देरी के लिए अफसरशाही की व्यवस्था जिम्मेदार है जिनके ढीले-ढाले रवैये के कारण परियाजनाआें की मंजूरी में बेवजह की देरी होती है और परियोजनाआें को अपनी लागत की तुलना में हर साल कम से कम ४० प्रतिशत अतिरिक्त लागत का सामना करना पड़ता है । एसोचैम ने इस बारे में विभिन्न परियोजनाआें से जुड़े करीब ४०० मुख्य कार्यकारी अधिकारियों के बीच सर्वेक्षण कराया जिसमें परियोजना के क्रियान्वयन में अनावश्यक देरी के लिए अफसरशाही पर आरोप लगाए गए हैं ।***

२ सामयिक


सामयिक
पुर्नउत्पादन : आम के आम, गुठलियों के दाम
मार्क आनस्लो
पुनर्चक्रीकण की न केवल महत्ता है बल्कि यह इन दिनों बड़ी चर्चा है । लेकिन कागज, टिन, प्लास्टिक की बोतलें या एल्युमिनियम फॉइल को इनके मूल स्वरूप में लौटाने का मतलब है बड़ी मात्रा में पानी, रसायनों और खासतौर से ऊर्जा का व्यय । ऐसे में एक नया विचार आकार ले रहा है कि अपनी आयु पूरी कर लेने के पश्चात भी उत्पादों को पुन: उपयोगी अवस्था में लाए जा सकें । बस यही पुनर्निमाण की वह अवधारणा है जो इस दिशा में जारी अनुसंधान और विकास के पीछे काम कर रही है । सच पुछा जाए तो यह कोई नई अवधारणा भी नहीं है । पुराने इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों को पुन: प्रयोग लायक बनाने में या घिसे हुए टायरों को रीट्रेड करने का चलन तो हम अपने आसपास वर्षोंा से देख रहे हैं। अलबत्ता ग्राहक जरूर इन्हें शक की निगाह से देखते है फिर भी निर्माण की बढ़ती लागत ओर कचरे की बढ़ती समस्या हमें उत्पादों की नई क्षेणी के बारे में सोचने को मजबूर कर रही है । वेक्स आर.डी.सी. के रचना विभाग के निदेशक के स्पर ग्रे को हाल ही में एक मोबाईल फोन निर्माता की ओर से ऐसे यंत्र के विकास का दायित्व सौंपा गया है जिसे आसानी से उन्नत किया जा सके या पुन: प्रयोग लायक बनाया जा सके। ऐसे समय जब अकेले ब्रिटेन में हर साल १.५ करोड़ मोबाईल फोन बदले जा रहे हों और ७.५ करोड़ पुराने फोन देश में अलमारियों में धूल खा रहे हों तो निश्चय ही ग्रे की ओर उद्योग बड़ी अपेक्षा भरी नजरों से देख रहा है। श्री ग्रे का कहना है कि हम ऐसे उत्पाद की रचना की दिशा में कार्य कर रहे हैं जिसके पुर्जोको आसानी से अलग-अलग किया जा सके । वे बताते है कि हम उसके ढांचे को एक खास पोलिमर गोंद से चिपकाएंगे जिसे एक निश्चित तापमान या कंपन देने पर उसे खोला जा सकेगा, ग्राहक उत्पाद की आयु पूर्ण होने पर निर्माता को वापस लौटा देगा, जहां उसे खोलकर पुर्जोंा को अलग कर पुन: उपयोग में लाया जा सकेगा । श्री ग्रे का दावा है कि एक दूसरा विकल्प यह भी है कि ग्राहक खुद अपने फोन को उन्नत कर सकें । उनका दल पुराने यंत्र के खराब पुर्जोंा को नए उन्नत पुर्जोंा से बदले जाने की योजना पर काम कर रहा है । इसमें कूड़े की संभावना को नकारते हुए नए प्रवर्तन की भी गुंजाईश है । यांत्रिकी के क्षेत्र में पुनर्निर्माण के लिए हमेशा से ही अच्छे अवसर मौजूूद रहे हैं। वाहन यांत्रिकी के क्षेत्र की नामी कम्पनी एमसीटी मिशेल कॉट्स ने मोटर वाहन उद्योग के गियर बाक्स सुधारने में महारत हासिल है। अब वे लोग कार्यक्षेत्र में विस्तार करते हुए पवनचक्कियों एवं जल टरबाइनों के क्षेत्र में भी रख रहे हैं । कंपनी को इस बात का अफसोस है कि समय प्रतिबद्धता के इस दौर में रचनाकार (डिजाइनर) अपने उत्पादों की आयु समाप्त् होने के बाद की स्थिति पर विचार ही नहीं करते हैं । इलेक्ट्रानिक उत्पादों के पुनचक्रीकरण से बेहतर है उन्हें पुन: प्रयोग काबिल बना देना । अखरने वाली बात यह है कि समुद्री जनरेशन जैसे नए तकनीकी क्षेत्रों में समस्या यह है कि इंजीनियर मशीन को कार्य क्षम बनाने में ही इतने व्यस्त हैं कि पुननिर्माण के बारे में सोचते ही नहीं हैं । उनका कहना था कि लेकिन पवनचक्कियों के क्षेत्र में पुराने गियर बॉक्सों को पुन: प्रयोग लायक बनाया जा सकता है इससे पर्यावरण और लागत दोनोें ही स्तरों पर अच्छे लाभ प्राप्त् होंगे । लॉबोरो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मार्टिन गूसी एक्टिव रिसायकलिंग लि. के एक दल में शामिल हैं जो इलेक्ट्रानिक उत्पादों के वृृहद स्तर पर पुन: प्रयोग लायक बनाए जाने की संभावनाएं तलाश कर रहा है । वे आजकल पुराने सोनी मोबाईल उपकरणों को घरेलू ऊर्जा एवं जल मापकों जैसे निरीक्षण यंत्रों का दिमाग की तरह इस्तेमाल करने की परियोजना पर कार्य कर रहे हैं । यूरोप में कचरा क्षेत्र में इलेक्ट्रानिक कचरे का योगदान निरन्तर बढ़ रहा है । अकेले ब्रिटेन में हर साल कोई नौ लाख टन इलेक्ट्रानिक कबाड़ कूड़ाघरों में भेज दिया जाता है । निर्माता की जवाबदेही सुनिश्चित करने वाली पहलों ने जो उत्पादकों को पुराने इलेक्ट्रानिक उत्पादों को वापस लेने के लिए बाध्य करती हैं ने भी उन्हें इस दिशा में गंभीरता से सोचने को मजबूर कर दिया है । पर्यावरण हित के मद्देनजर इलेक्ट्रानिक उत्पादों को पुन: उपयोग लायक बनाना या उनके पुर्जोंा को पुन: उपयोग करना उनके पुनर्चक्रीकरण से बेहतर विकल्प है । किंतु साथ ही यह भी आवश्यक है कि इस तरह के पुननिर्माण के लिए बहुत उन्नत तकनीक की आवश्यकता भी न हो। इस दिशा में पर्यावरण उद्यमी समूह बायोरीजनल बहुत अच्छी पहल लेकर आया है । वे लोग पुरानी भवन निर्माण सामग्री को विभिन्न स्थानों से इकट्ठा करवाकर उन्हें पुन उपयोग लायक बनाकर नए निर्माणों को उपलब्ध कराते हैं । पुनर्चक्रीकरण के अंतर्गत चूरा करने, लौह उत्पादों को गलाने या लकड़ी को छिलपट बनाने में बड़ी मात्रा में उर्जा लगती है । जबकि बायोरीजनल का दल पुराने फर्श के पटियों, लकड़ी और लोहे के सामान को साफ कर पुन उपयोग में लाए जाने लायक बनाकर बाजार में खपा देता है । यह केंद्र न लाभ न हानि के आधार पर दल के प्रतिवर्ष लगभग पांच हजार टन सामग्री को उपचारित कर देते हैं । लेकिन पुननिर्माण की यह अवधारणा आसानी से पचती नहीं है । खरीदों और फेको की प्रचलित धारणा से कुछ अलग करना उपयोगकर्ताआें और निर्माताआें को बहुत श्रमसाध्य होगा । लोगों के सोच को बदलना पड़ेगा । ब्रिटेन में लोग नई चीजें ही खरीदना पसंद करते हैं । शायद यहां बहुत धन है । वैसे मसला सामाजिक मान्यता का भी है । यूरोप के ही कुछ भागों में अब पुन: निर्मित उत्पाद खरीदना सामाजिक रुप से अच्छा माना जाने लगा है । पुननिर्माण के मामले में कुछ कानूनी अड़चने भी हैं । उदाहरण के लिए ऐसे उत्पाद अगर ठीक से कार्य न करें तो जिम्मेदारी किसकी होगी । पुनर्चक्रीकरण के मौजूदा प्रावधान के अंतर्गत संभव है कि अंत में जाकर पुन: निर्माण के विरुद्ध ही फैसला दिया जाए । वे पुन: उपयोग के जटिल विकल्प के बजाए निर्माताआें से पिघलाकर भूल जाओ जैसे आसान विकल्प अपनाने के लिए भी कह सकते हैं । इस तरह पुनर्निर्माण के लिए उन्हीं क्षेत्रों में ज्यादा संभावनाएं हंै जो आज भी इस प्रक्रिया को प्रयोग में ला रहे हैं । श्री ग्रे कहते हैं अगर हमें लगातार वस्तुएं खरीदने का शौक है तो हम इनमें किसी तरह पुनर्निर्मित वस्तुआें का समावेश करें, हमारे पास सिर्फ यही एक विकल्प हैं । ***

३ हमारा भू-मण्डल


हमारा भू-मण्डल
बहुराष्ट्रीय निगमों की गिद्ध दृष्टि
शॉन हेटिंग
पिछले ३० वर्षोंा मे विश्वभर के देशों द्वारा अपनाई गई आर्थिक नीतियां (नवउदारवाद) अरबों लोगों को भूखमरी की ओर धकेल रहीं है । बड़े कारपोरेट संस्थानों के हित में लागू नीतियों के माध्यम होता जा रहा है । इन संस्थानों का सूत्र वाक्य है अगर लोग कीमत अदा करने में सक्षम नहीं हैं तो उन्हें खाना भी नहीं मिलेगा । १९७० में नवउदारवाद अवधारणा के मूर्तरूप लेने के पूर्व सरकारें अपने छोटे कृषकों को अनेक रियायतें देती आ रही थीं जिनमें नवीन शोध, कम ब्याज पर ऋण, वितरण सेवा, यातायात एवं प्रसंस्करण सेवाएं भी शामिल थीं । बीज, खाद और उपररणों पर सब्सिडी के माध्यमसे भी छोटे कृषकों की मदद की गई वहीं विकासशील राष्ट्रों ने अपने यहां आयात पर ऊँची दर से शुल्क लगाकर छोटे एवं मध्यम कृषकों के हितों की रक्षा की । कई सरकारों ने सहकारिता के माध्यम से छोटे कृषकों की सहायता की । यहीं वजह थी कि १९५० से १९८० तक लघु एवं मध्यम दर्जे के कृषकों ने अपने देशों की खाद्य आवश्यकताआें की बखूबी पूर्ति की । सरकारों ने गरीब उपभोक्ताआें के हितों को दृष्टिगत रखते हुए चुनिंदा खाद्य उत्पादों पर सब्सिडी दी। परंतु इस नई व्यवस्था ने सबकुछ उलट-पुलट कर दिया । १९८० के प्रारंभ में अमेरिका, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आय.एम.एफ.) और विश्व बैंक ने मिलकर तीसरी दुनिया के देशोंपर अपने ऋणपाश के माध्यम से इन नीतियों को अपनाने के लिए दबाव बनाना प्रारंभ किया । स्थानीय सरकारों ने अपनी सार्वजनिक आस्तियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेचना प्रारंभ कर दिया । विदेशी कंपनियों को राष्ट्र में पूंजी लाने और वापस ले जाने की छूट दी, खाद्य सब्सिडी बंद की, निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र विकसित किए, कामगारों के अधिकारों को कुचला, पर्यावरण कानूनों को शिथिल किया और मजदूरी बढ़ाने पर रोग लगाई । एशिया अफ्रीका और लातिन अमेरिकी देशों ने अपने यहां खाद्य पदार्थेंा पर आयात शुल्क कम कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए नए बाजार खोल दिए । वहीं दूसरी ओर अमेरिका और यूरोप की सरकारों ने अपने कृषि व्यवसाय के महाबली संस्थानोंको न सिर्फ सब्सिडी देना जारी रखा वरन कुछ चुनिंदा उत्पादों पर भारी आयात शुल्क जारी रखकर दोहरा फायदा पहुंचाया । परिणामस्वरुप १९८० के मध्य तक अन्य अमेरिका और यूरोप के सब्सिडी प्राप्त् खाद्य पदार्थोंा से गैर बराबरी की प्रतियोगिता मेें घिरा हुआ पाया । आय.एम.एफ. अमेरिका और विश्वबैंक द्वारा निर्देशित इस दोहरी नीति ने जहां बड़े खाद्य संस्थानों और बड़े कृषकों को निर्यात के अवसर दिए वहीं तृतीय विश्व के छोटे कृषकों को ऐसी फसलें उगाने के लिए मजबूर किया जिनकी यूरोप और अमेरिका को आवश्यकता थी । उदाहरण के लिए केन्या को यूरोप के लिए फूल उत्पादन और ब्राजील को अमेरिका के लिए सोयाबीन उत्पादन के निर्देश मिले । परिणाम यह हुआ कि स्थानीय खाद्य आवश्यकता की आपूर्ति बाधित हुई । १९९५ में विश्व व्यापार सदस्य बनने के लिए राष्ट्रों से इसके कृषि समझौते (ए.ओ.ए.) पर दस्तखत की अपेक्षा थी । दुनिया के सबसे बड़े कृषि बहुराष्ट्रीय निगम कारगिल के एक पूर्व कर्मचारी द्वारा तैयार ए.ओ.ए. के मसौदे से सर्वाधिक लाभ अमेरिका और यूरोपियन संघ और इनके बड़े कार्पोरेट संस्थानों को होने वाला था । कुछ ही वर्षो पहले मुक्त व्यापार की वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खाद्य पदार्थोंा की कीमतों में कमी हुई थी । किंतु हाल ही में अमेरिका और यूरोप से आए सब्सिडी प्राप्त् खाद्य पदार्थो से दक्षिणी देशेां का बाजार पट गया है । जिसकी वजह से मक्का, दलहन और अनाज उत्पादक कृषकों को बड़ा झटका लगा है । कई छोटे किसान तो दिवालिया हो गए है । सिर्फ मेक्सिकों में ही ५० लाख छोटे किसान और कृषि मजदूर शहरों की ओर पलायन कर गए हैं वजह है अमेरिका का आयाजित खाद्य उत्पाद परिणामस्वरुप दसियों लाख हेक्टेयर कृषि भूमि अब बिना जुती पड़ी है और खाद्य पदार्थ यूरोप और अमेरिका से आयात किए जा रहे हैं । नवउदारवाद और मुक्त व्यापार ने खाद्य उत्पादन, वितरण के क्षेत्रों में एकाधिकार स्थापित किया है । आज विश्व के कुल खाद्यान्न व्यापार के ८५ प्रतिशत हिस्से पर मात्र छ: निगमों का नियंत्रण है ।कोको के व्यापार के ८३ प्रतिशत हिस्से पर मात्र तीन कंपनियों का नियंत्रण है और विश्व के केला व्यापार के ८० प्रतिशत पर भी मात्र तीन कंपनियों का नियंत्रण है । इस एकाधिकार के सहारे बहुराष्ट्रीय कंपनियां अब खाद्य उत्पादों की कीमतों का निर्धारण अपने हिसाब से करके अनपेक्षित लाभ कमा रहीं है । जैविक ईधन भी खाद्य उत्पादों की कीमत बढ़ने के लिए जिम्मेदार है । बढ़ती इंर्धन आवश्यकताआें की पूर्ति के लिए नवउदारवादी नीति निर्माताआें ने इस विकल्प को प्रोत्साहन दिया है ।परम्परागत रूप से अफ्रीका, एशिया और लातिन अमेरिकी देशों में मक्का, सोयाबीन और पाम तेलों का उत्पादन मुख्यत: पशुआें की खाद्य आवश्यकताआें को ध्यान में रखकर किया जाता था परंतु आज यह अमेरिका और यूरोप की इंर्धन आवश्यकताआें के लिए किया जा रहा है । इन फसलों की खातिर ब्राजील और पेराग्वे जैसे देशों में तो जंगल साफ कर इन फसलों की खेती की जा रही है । फलस्वरूप वहां एक और तो पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है दूसरी ओर गरीब तबके के लाखों लोगों के लिए अपेक्षाकृत सस्ते अनाज तक पहुंच कठिन होती जा रही है। डब्ल्यू.टी.ओ., आय.एम.ए., विश्वबैंक, अमेरिका और यूरोपियन संघ सभी के पास ताजा खाद्य संकट से निपटने के लिए सुझाव मौजुद हैं । उनका कहना है कि उदारवाद की राह में अभी भी शुल्कों के रूप में जो रूकावटे मौजूद हैं उन्हें भी हटा दिया जाना चाहिए, इसी से खाद्य पदार्थो की कीमतें घट पाएंगी । उदारवाद के ऐसे दुष्परिणाम देख लेने के बाद भी अगर ये संस्थाएं इस तरह से अपनी बात पर अड़ी हुई हैं तो उनकी मंशा पर संदेह की गुंजाईश बनती है । वेनेजुएला, बोलिविया और निकारागुआ जैसे नई सोच वाले लातिन अमेरिकी देशों ने खाद्य संकट से निपटने के लिए नवउदारवादी धारणा के निर्देशों की अनदेखी करना शुरू कर दिया है । क्यूबा को साथ मिलाकर इन देशों ने अपना एक क्षेत्रीय मुक्त व्यापार विकल्प अमेरिका का बोलिवेरियाई विकल्प (अल्बा) के रूप में खड़ा किया है । अल्बा के माध्यम से सदस्य देशों की खाद्य सुरक्षा के उद्देश्य से इन्होंने मिलकर पांच वृहद स्तर की कृषि परियोजनाएं प्रारंभ की है जो सोयाबीन, चावल, पोल्ट्री और दुग्ध उत्पादों का उत्पादन करेंगी । लेकिन सभी जगह ऐसा नहीं है । दक्षिण के अधिकांश देशों की सोच पुरानी है यही वजह है कि वहा जनता की भलाई के लिए ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया है । अब अगर वहां के नागरिक खुद के बारे में सोचते हुए कोई साहसिक निर्णय लें तो ही उनकी सरकारें इस दिशा में कुछ करेंगी वरना खाद्य पदार्थोंा की कमी और कुपोषण ही उनकी नियति होगी । खाद्य समस्या को लेकर विश्व में हो रहे जन प्रदर्शनों से कुछ आशा जरूर बंधती है । बड़े निगमों की खाद्य श्रृंखला पर नियंत्रण को खत्म करने के लिए खुद जनता को ही आगे आना होगा । सिर्फ आम इंसान ही एक मुक्त, प्रजातांत्रिक, सम्मानपूर्ण, समतामूलक राष्ट्र का निर्माण कर सकता है जहां कोई इसलिए भूखा नहीं रहेगा कि उसके पास खाना खरीदने के लिए धन नहीं है । ***
प्रसारकों ने बनाया स्व नियमन तंत्र
समाचार प्रसारकों ने उच्च्तम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय स्व नियमन तंत्र का गठन किया है । देश के निजी समाचार और समसामयिक कार्यक्रमों के प्रसारकों के संघ न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन(एनबीए) ने न्यूज ब्राडकास्टिंग स्टेंडर्ड डिस्प्यूट्स रिड्रेसल एथॉरिटी का गठन किया है जो उनकी आचार संहिता और प्रसारण मानकों को लागू करेगी । सरकार और प्रसारकों के बीच करीब दो वर्षोंा तक इस मुद्दे पर चल रहे विवाद के बाद हाल ही में प्रसारकों ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को संहिता का प्रारूप सौंपा था । निजी टेलीविजन चैनलों के लिये नियामक और कंटेंट कोड बनाने के उद्देश्य से सरकार के ब्राडकास्टिंग सेवा नियमन विधेयक लाने के विचार का प्रसारकों ने कड़ा विरोध किया था । प्रसारक इस उद्योग के लिये स्व नियमन तंत्र बनाने के पक्षधर थे , जिसका सरकार ने भी समर्थन किया है ।

४ ओजोन परत संरक्षण दिवस पर विशेष


ओजोन परत संरक्षण दिवस पर विशेष
ओजोन पर्त में क्षति
सन्दीप बिसारिया
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है, जहां हमारा जीवन संभव है । वायुमंडल ठोस, द्रव्य व गैस के कणोंसे मिलकर बना है । हमारी पृथ्वी चारों ओर से वायुमंडलीय कवच से घिरी हुई है । यह कवच दिन में सूर्य की तेंज पराबैगनी किरणों से हमारी रक्षा करता है, और रात में पृथ्वी को ठंडी होने से बचाता है । वायुमंडल में ७८ प्रतिशत नाइट्रोजन, १६ प्रतिशत आक्सीजन, ०.०३ प्रतिशत कार्बन डाई आक्साइड गैस है, इसके अतिरिक्त अन्य गैसों में नियान, हाइड्रोजन, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड भी अल्प मात्रा में पायी जाती है । वयुमंडल को मुख्य चार मंडलों में विभाजित किया गया है, जिन्हें क्षोभ मंडल, समताप मंडल, मध्य मंडल व ताप मंडल कहते है । क्षोभमंडल वायुमंडल की सबसे निचली पर्त है । इस मंडल में ऊचांई बढने के साथ तापमान कम हो जाता है । समता मंडल में ऊँचाई के साथ तापमान में बहुत कम परिवर्तन होता है । धुवों पर इसकी मोटाई अधिक होती है, जबकि विषुवत् रेखा पर इसका अस्तित्व कभी-कभार नही के बराबर होता है । मध्य मंड़ल में पहले तो तापमान बढ़ता है, परन्तु बाद में कम हो जाता है । तापमंडल में तापमान लगभग १७०० सेन्टीग्रेड तक पहुंच जाता है, और इसकी कोई निश्चित सीमा नही होती है । समतापमंड़ल में ही ओजोन गैस से निर्मित एक पर्त पायी जाती है, जिसे ओजोन पर्त कहते है । ओजोन पर्त के इस मंडल में पाये जाने के कारण ही इसे ओजोन मंडल भी कहते है । यह ओजोन मंड़ल पृथ्वी से २०-२५ किमी पर सबसे अधिक है और लगभग ७५ किमी की ऊचांई से ज्यादा पर यह न के बराबर हो जाता है । ओजोन हल्के नीले रंग की सक्रिय वायुमंडलीय गैस है । यह समताप मंडल में प्राकृतिक रूप से बनती है । यह आक्सीजन का ही रूप है । एक ओजोन अणु में तीन आक्सीजन परमाणु होते है । इसका रासायनिक सूत्र ०३ है । वायुमंडल में ओजोन का प्रतिशत अन्य गैसों की तुलना में कम है । यह हवा में व्याप्त् दूसरे कार्बनिक पदार्थोंा से शीघ्रता से क्रिया करती है । इसकी खोज जर्मन वैज्ञानिक किस्चियन श्योन बाइन ने सन् १८३९ में की थी । जब सूर्य की घातक पराबैगनी किरणें वायुमंडल में आक्सीजन के साथ क्रिया करती हैं, तो प्रकाश विघटन के कारण ओजोन की उत्पत्ति होती है और यही ओजोन एक पर्त के रूप में सूर्य की तेज पराबैगनी किरणों को अवशोषित कर सम्पूर्ण जीव-जगत की रक्षा करती है । प्राणवायु आक्सीजन अपने तीन आक्सीजन परमाणुआें से मिलकर ओजोन गैस का निर्माण करती हैं, जिसकी थोडी सी मात्रा भी प्राणी के लिये मृत्यु का आमंत्रण होती है, परन्तु हर्ष का विषय है कि यह ओजोन गैस समताप मंडल में एक रक्षक छतरी की भांति कार्य करती है । सम्पूर्ण जैव मंडल के लिये यह ओजोन छतरी रक्षा कवच कहलाती है । वे रसायन जो ओजोन परत को क्षति पहुंचाते है, उन्हें ओजोन क्षयक रसायन कहते हैं । इनमें क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स (सी.एफ.सी), मिथइल ब्रोमाइड आदि प्रमुख है । इनकी खोज सन् १९२८ में हुई थी । क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स फ्लोरीन, क्लोरीन व कार्बन से मिलकर बनते है । सी.एफ.सी. का उपयोग फ्रीजव एअर कंडीशनर में प्रशीतलक के रूप में होता है । इसलिये ये हमारे लिये उपयोगी है, परन्तु रासायनिक गुणों के आधार पर ये हमारे पर्यावरण के लिये अनुकूल नहीं है । सन् १९७२ में अमेरिकी वैज्ञानिक रोलैन्ड ने अपने शोध के आधार पर यह बताया कि उत्तरी व दक्षिणी गोलाद्धों के वायुमंडल में क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स के कण पाये गये है । साथ ही वैज्ञानिकों ने प्रयोगों द्वारा यह भी सिद्ध हुआ कि ये क्लोरोफ्लोरो कार्बन अणु निष्कीय होने के साथ-साथ स्थायी भी होते है, जो सैकड़ों वर्षो तक वायुमंडल में उपस्थित रहते है । यह अणु पराबैगनी किरणों से क्रिया करके क्लोरीन मुक्त करते है, जो ओजोन को आक्सीजन में विधटित कर क्लोरीन के आक्सीजन बनाते है । यह क्लोरीन आक्साइड पुन: एक मुक्त आक्सीजन परमाणु के साथ मिलकर आक्सीजन और एक क्लोरीन परमाणु बना देते हैं । यह क्रम इसी प्रकार चलता रहता है । वैज्ञानिक रोलैन्ड के अनुसार एक क्लोरीन परमाणु के लगभग एक लाख अणुआें को नष्ट कर सकता है । वर्ष १९८० के आरम्भ में डा. फोरमैन ने अपने उपकरणों की सहायता से अपने शोध के आधार पर बताया कि अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन पर्त बहुत पतली हो गयी है । बसन्त ऋतु में इस परत की मोटाई ५०-६० प्रतिशत तक घट जाती है । आरम्भ में डा. फोरमैन की इस बात पर किसी ने विश्वास नही किया, लेकिन जब उनका यह महत्वपूर्ण शोध कार्य प्रतिष्ठित अर्न्तराष्ट्रीय वैज्ञानिक शोध पत्रिका नेचर में प्रकाशित हुआ, तब सम्पूर्ण विश्व स्तब्ध रह गया । इसके पश्चात इस विषय पर अध्यनरत् अन्य वैज्ञानिकों ने भी डा. फोरमैन की खोज की पृष्टि की और बताया कि अंटार्कटिका के ठीक ऊपर ओजोन पर्त बहुत अधिक पतली हो गयी है , जिसे ओजोन छिद्र कहते है । जिसका आकार संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के पूरे भू-भाग और गहराई माउण्ट एवरेस्ट के बराबर है । वर्ष २००० में अमेरिकी वैज्ञानिक माईकल केरिलों ने बताया कि अंटार्कटिका के ठीक ऊपर बसन्त ऋतु में ओजोन छिद्र का आकार८.८६ करोड़ वर्ग किलो मीटर के बराबर हो गया है । वैसे तो ओजोन परत की क्षति का दुष्प्रभाव प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सारी पृथ्वी पर पड़ेगा । एक रिर्पोर्ट के अनुसार आस्ट्रेलिया के ऊ पर तो सन् १९६० से ही ओजोन पर्त के पतली होने का खतरा मंडरा रहा है । शायद इसीलिये सबसे अधिक चर्म रोगी आस्ट्रेलिया मेंहै । यहां लगभग अधिकांश नागरिक धूप में निकलने से पहले तापमान किस्म के चर्म रोग प्रतिरोधक क्रीम, लोशन व तेल का उपयोग अपनी त्वचा की सुरक्षा के लिये करते हैं। ओजोन पर्त की क्षति से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले दक्षिणी ध्रुव में स्थित कुछ देश जैसे आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अमेरिका का दक्षिणावर्ती भाग, दक्षिण अफ्रीका व न्यूजीलैण्ड आदि है । ओजोन पर्त की क्षति से होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरूप वायुमंडल में तापमान बढ़ रहा है । वातावरण में इस प्रकार तापमान के बढ़ने को ग्रीन हाउस प्रभाव कहते है । वैज्ञानिकों के अनुसार अगर तापमान में वृद्धि इसी प्रकार होती रही तो आने वाले समय में मौसम में अनेंक प्रकार के परिवर्तन जैसे असमय बारिश, सूखा व बाढ़ आदि हो सकते हैं । तापमान बढ़ने का प्रभाव मुख्य रूप से हिमालय पर वर्षोंा से प्राकृतिक रूप से जमी बर्फ के ऊपर पड़ेगा । हिमालय पर प्राकृतिक रूप से जमी बर्फ को ग्लेशियर कहते है । हिमालय में ग्लेशियर के इस प्रकार पिघलने से समुद्र में जल स्तर बढ़ेगा, जिसके परिणाम स्वरूप समुद्र तट पर बसे अधिकांश शहरों के आंशिक या पूर्ण रूप से डूबने का गंभीर खतरा है । मान्ट्रियल में वर्ष १९८९ में एक आचार संहिता पर अर्न्तराष्ट्रीय सहमति हुई, जिसके अनुसार सन् २००० तक सभी विकसित देश सी.एफ.सी. व अन्य ओजोन क्षयक रसायनी का उत्पादन व उपयोग पूर्णरूप से समाप्त् करने का प्रावधान है । विकासशील देशों के लिये प्रतिबंध की समय सीमा सन् २०१० तक निर्धारित की गयी है । इस आचार संहिता में विकासशील देशों के लिये सी.एफ.सी. व अन्य ओजोन क्षयक रसायनों का उत्पादन व उपयोग पूर्णस्वरूप से समाप्त् करने के लिये आर्थिक व तकनीकी सहायता देने का भी प्रावधान है। सारे संसार में १६ सितम्बर का दिन अन्तर्राष्ट्रीय ओजोन परत संरक्षण दिवस के रूप में मनाया जाता है । अक्टूबर १९९५ तक लगभग १५० देशों ने इस आचार संहिता पर हस्ताक्षर करके आचार संहिता को मानने का निश्चय किया है । भारत ने भी ओजोन परत की हानि के दुष्परिणामों को देखते हुए वर्ष १९९२ में मान्ट्रियल संहिता पर हस्ताक्षर करके ओजोन क्षयक रसायनों का उपयोग पूर्णरूप करने का निर्णय लिया है । ***
केंद्र ने शौचालय निर्माण की लागत एक हजार रूपए बढ़ाई
सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने शौचालय के निर्माण की मौजूदा इकाई लागत १५०० रूपये से बढ़ाकर २५०० रूपये कर दिया है । ग्रामीण विकास मंत्री डॉ. रंघुवंश प्रसाद सिंह ने बताया कि वर्ष २००४ में इकाई लागत केवल ६२५ रूपये थी जिसे २००६ में बढ़ाकर १५०० कर दिया गया था लेकिन २००८ में यह राशि बढ़कर २५०० रूपये कर दी गई है । उनहोंने बताया कि २००४ में लाभार्थी को १२५ रूपये देने पड़ते थे लेकिन २००६ में लाभार्थी का हिस्सा ३०० रूपये कर दिया गया । डॉ. सिंह ने बताया २००८ में इकाई लागत बढ़ाये जाने के बावजूद लाभार्थी का हिस्सा नहंी बढ़ाया गया है ।

५ जनजीवन


जनजीवन
हम भी पड़े हैं शहरो में
भारती चतुर्वेदी
२००७ में एक इतिहास बना और बिगड़ा । इस दौरान पृथ्वी पर जीवन के आरंभ होने के पश्चात् पहली बार गांवों की बनिस्बत शहरों में रहने वालों की संख्या अधिक हो गई । मानवीय बसाहट के व्यवहार में आए इस परिवर्तन ने कई नए गुल खिलाए । इसमें अनौपचारिक क्षेत्र में पुनर्चक्रीकरण मुख्य है। कई विशाल शहरी बसाहटों में गरीब लोग अपनी जीविका के लिए अपशिष्ट के व्यवस्थापन, अपशिष्ट उठाना,छंटाई करना, फेंक दिए गए वस्तुआें को मरम्मत के अतिरिक्त अपशिष्ट व्यापार पर निर्भर हैं । वैश्विक अध्ययन से हमें पता चलता है कि कुछ गरीबी से निजात पा गए हैं । परंतु अधिकांश अभी भी गरीब बने हुए हैं और न्यूनतम मजदूरी कमाते हुए किसी तरह अपना पेट भरते हुए जिंदा हैं । इसे कुछ हद तक ग्रामीण गरीबी से मुक्ति भी कहा जा सकता है । दुनियाभर के पुनर्चक्रीकरण करने वालों से बातचीत से पता चलता है कि इनमें से अधिकतर विशेषत: कचरा बीनने वाले अपनी जीविका को बचाए रखने के लिए जबरदस्त संघर्षरत हैं । इस तरह के संघर्ष और रणनीतियों की सफलता की कहानी कोलम्बिया के बोगोटा शहर में मार्च २००८ में आयोजित एक सम्मेलन में उभर करआई । देशों की सीमा से मुक्त कचरा बीनने वालों का यह अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन लेटिन अमेरिका का तीसरा व प्रथम वैश्विक सम्मेलन था । बोगोटा आसोसिएशन ऑफ रिसायकलर्स की मेजबानी में आयोजित इस सम्मेलन को अनेक कचरा बीनने वाली सहकारिता समितियों ने मदद की थी । इस सम्मेलन का उद्देश्य इससे संबंधित बातचीत की एक वैश्विक प्रक्रिया को प्रारंभ करना था। पिछले दशक में इस बात पर आम सहमति बनी है कि शहरों का स्वरूप कैसा हो व इसे किस तरह पाया जा सके । कल्पना लोक जैसे ये शहर विश्वस्तर के शहर कहलाते हैं । वैसे इनका कहीं कोई अस्तित्व नहीं है परंतु इस तरह की आम सहमति गिरते-पड़ते उस धुंधले विचार की ओर दौड़ रही है । तकरीबन सभी बड़े शहर रेम्प पर चल रहे उन माडलों की तरह हैं जो कि एक सी प्रतीत होती हैं । इनमें कुछ कमोवेश निर्धन शहरी समूह जो अपने सपनों को साकार करने में असमर्थ हैं, भी अधिकाधिक तौर पर इस एकरूपता को अंगीकार कर लेना चाहते हैं । कुछ मामलों में बड़े स्तर पर नकल और कुछ में थोपे हुए विकास के कारण एक आदर्श शहर का बना बनाया सांचा उभर आता है । इसमें शहरी सेवाएं और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन भी सम्मिलित होता है । नीति निर्माता, नगरपालिकाएं, दान देने वाले संस्थान, शहरी विशेषज्ञ ओर अनियमित शोधकर्ता इस भुलावे से बंधे रहते हैं । यहां पर दो बातें होती हैं । पहली बात तो यह है कि विकासशील विश्व की नियति है कि वह उन प्रवृत्तियों को औपचारिक रूप से आत्मसात कर लेता है जो कि दानदाताआें अथवा शहरी सरकारों द्वारा उसे दिखाई जाती है । विकासशील देशों के महापौरों को विकसित विश्व में अध्ययन भ्रमण हेतु ले जाया जाता है । जहां पर वे अधिकाधिक पद्धति और प्रक्रियाआें के बारे में सीखते हैं। इस विचार में घरेलू उद्यम की गुंजाईश बहुत कम होती है । अधिकांश मामलों में यह ज्ञानअर्जन अफसरशाही द्वारा ही होता है अतएव इसमें किसी भी प्रकार के सार्वजनिक योगदान की संभावनाएं धूमिल हो जाती है। सेनफ्रांसिस्कों का ही उदाहरण ले, यहां उपशिष्ट के निपटान के संबंध में प्रगति तो हो रही है परंतु उन बेघरों के बारें में कोई विमर्श नहीं हो रहा जो एल्युमिनियम के खोखे (केन) बीन कर कूड़ा करकट को पुनर्चक्रण करने वाले अधिकारिक समूह के पास तक पहुंचाते हैं । पूरे विश्व में इस अनौपचारिक क्षेत्र को सभी चर्चाआें से बाहर रखा जाता है । दूसरा जब इस तरह के ज्ञान को कार्यान्वित करने का प्रयास किया जाता है तो पता चलता है कि इस पर पहले ही प्रभावी तंत्र और विचारों ने आरंभिक पहल कर ली है परंतु इसमें किसी सार्थक जनभागीदारी की कोई सूचना नहीं होती और ये कभी कभार ही व्यापक सामाजिक मांग और आवश्यकताआें के प्रति जवाबदेह होती है । परिणाम स्वरूप नीति निर्धारण और उसके जमीनी कार्यान्वयन मेंअलगाव की वजह यह है कि गरीब इस ज्ञान और जानकारी तंत्र का हिस्सा ही नहीं होता । इस बात पर किसी का ध्यान नहीं जाता कि ठोस अपशिष्ट के मामले में मनौपचारिक पुनर्चक्रीकरण क्षेत्र को कमतर आंका जाता है । बोगोटा सम्मेलन उनकी इन अदृश्य और चुप्पी भी उपस्थिति से ही संचालित था । आखिरकार विकासशील शहर की एक प्रतिशत जनसंख्या अपशिष्ट के निपटान और पुनर्चक्रीकरण से अपनी जीविका चलाती है परंतु यह औपचारिक ज्ञान वाला समुदाय उन्हें इससे बाहर कर देना चाहता है । इसका सबसे दुखद पक्ष यह है कि यह वंचित समुदाय अपने भविष्य के निर्णय में भागीदारी भी तक के कबाड़ बीनने वालों ने अपशिष्ट निपटान के संस्थागत होने की वजह से विस्थापित होने की बात कही । सफाई का स्तर बढ़ाने एवं अपशिष्ट की मात्रा बढ़ने की वजह से निजी कंपनियों की हिस्सेदारी को इसका कारण बताया जा रहा है । नई व्यवस्था में पारम्परिक रूप से कचरा बीनने वालों के लिए स्थान नहीं है । सुनाई गई व्यथाआें की वैश्विक तुलना भी की जा सकती है । एक तुर्की कुर्दजो कि वहां की असोसिएशन का अध्यक्ष था, का कहना था कि उसे तो दोहरी मार पड़ती है एक तो वह स्थानीय घृणा के पात्र अल्पसंख्यक समुदाय का है और दूसरा वह कचरा बीनने वाला है । नगर निगम के अधिकारी उसे और उसके सहयोगियोंको मारते है अगर वे पुनर्चक्रीकरण हेतु अपशिष्ट नगर निगम द्वारा स्वीकृत निजी कंपनी को नहीं देते । वेनुजुएला में भी बहुत अवसाद भरी स्थिति है । जबकि शेवाज के नेतृत्व में वहां कचरा बीनने वालों के एक समुह को बिना किसी सामाजिक सुरक्षा और कम मजदूरी पर एक ऐसे पुनर्चक्रीकरण कारखाने में जबरन मजदूरी कराई जाती थी जिसे सरकार ने ठेका दिया था । इस संस्था ने उन्हें एक ऐसी सहकारी समिति की सदस्यता लेने को बाध्य किया जिस पर वास्तव में कंपनी का ही अधिकार था । अंतत: कर्मचारियों ने कारखाने पर कब्जा कर लिया । कोलम्बिया में आयोजित इस सम्मेलन में विश्वभर में कचरा बीनने वालों के अधिकारों को लेकर चल रही बहस पर भी चर्चा हुई । इस संबंध में किसी तंत्र का निर्माण सिर्फ कहानियां कहने के लिए नहीं बल्कि इनकी आवाज उस औपचारिक क्षेत्र तक पहुंचाने के लिए आवश्यक है जिससे कि इन्हें न्यायोचित और औपचारिक रूप से अपशिष्ट निपटान के जरिए जीविकोपार्जन की अनुमति मिल सके । बराबरी की नागरिकता के व्यापक परिप्रेक्ष्य मेंऔर सामाजिक बदलावों के मद्देनज़र कचरा बीनने वालों का तंत्र बनना अब और भी जटिल हो गया है । अगर नीति निर्धारित योजना में भी जटिल हो गया है । अगर नीति निर्धारित योजना मे इनके सम्मिलन के तैयार भी हो जाएं तो भी सामाजिक तौर पर इन्हें अस्पृश्यता सहनी ही पड़ेगी । फेरी वालों या मछुआरों के बजाय कचरा बीनने वालों से निपटना होगा । ४० देशों में भारत के भी दो प्रतिनिधि थे । वे लेटिन अमेरिका व मिस्त्र के कचरा बीनने वालों के सेहत और वेशभूषा देखकर चकित थे । प्रत्येक समूह का मानना था कि उन्हें अभी बहुुत लम्बा रास्त तय करना है । किसी भी तंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि यह होती है कि वह एक परम्परा कायम कर सके और और यह प्रयास भी होना चाहिए कि वह सभी दिशाआें में फैलेऐसे प्रयास भी होने चाहिये । ***
फैल रहा है समुद्री रेगिस्तान
ताजा अनुसंधान से पता चला है कि पिछले पचास वर्षोंा में समुद्रों मे ंऐसे क्षेत्रों का विस्तार हुआ है , जहां ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम है । इसका सम्बंध संभवत: वैश्विक जलवायु परिवर्तन से है । शोधकर्ताआें का मत है कि यदि यही रूझान जारी रहा तो समुद्री इकोसिस्टम पर घातक असर हो सकते हैं । समुद्रों के अंदर एक गहराई पर पानी में ऑक्सीजन की मात्रा नयूनतम होती है। ताजा अनुसंधान दर्शाता है कि यह परत ऊपर -नीचे दोनों तरफ फैल रही है और आसपास के समुद्रों में भी फैलती जा रही है । आम तौर पर जलवायु के मॉडल्स बताते हैं कि जब मानवीय क्रियाकलापों के कारण समुद्र सतह गर्म होगी तो समुद्र के पानी का मंथन उतनी अच्छी तरह से नहीं हो पाएगा । ऐसा होने पर अंदर के पानी में ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाएगी । जर्मनी के किएल विश्वविद्यालय के लोथर स्ट्रामा के नेतृत्व में किए गए उपरोक्त अनुसंधान से संकेत मिलता है कि यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है । उन्होंने पाया कि पिछले पचास वषों में समुद्र की इस परत में ऑक्सीजन की मात्रा घटती गई है ।

६ ऊर्जा जगत


ऊर्जा जगत
तेल की कीमत चुकाता आम आदमी
प्रो. रामप्रताप गुप्त
पिछले आठ-दस सालों में तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमत में तीव्र गति से वृद्धि हुई है । सन् १९९९ में तेल की कीमत मात्र १० डालर प्रति बैरल के लगभग थी जो कुछ दिनों पूर्व १४० डालर से भी अधिक हो गई थी । एक वर्ष पहले ये ९५ डालर प्रति बैरल थी। इस भारी वृद्धि की पृष्ठभूमि में जब हम भारत में तेल की आंतरिक कीमतों पर नजर डालते हैं पर हम पाते हैं कि सरकार के हर संभव रहे हैं कि ये या तो स्थिर रहें या इनमें न्यूनतम वृद्धि की जाए । पिछले एक वर्ष में तेल के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य में ५० प्रतिशत की वृद्धि के बाद भारत सरकार ने ५ जून को इसकी कीमत में ६.७ प्रतिशत की वृद्धि की है । हमारी सरकार तेल की कीमतों को स्थिर बनाए रखने में अपनी सफलता को एक उल्लेखनीय उपलब्धि मानती है । प्रश्न यह उठता है कि कीमतों के निम्नस्तर का लाभ जनता के किस वर्ग को मिल रहा है और इन्हें स्थिर बनाए रखने की लागत किस वर्ग द्वारा उठाई जा रही है ? भारत में तेल की कुल खपत का ७५ प्रतिशत भाग आयातित होता है तथा २५ प्रतिशत देश में उत्पादित होता है । इन वर्षो में सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों के परिणामस्वरूप तेल के आयात में दिनोदिन वृद्धि हो रही है । तेल का आंतरिक उत्पादन सार्वजनिक क्षेत्र की ओएनजीसी और आइल इण्डिया द्वारा किया जाता है । कुछ निजी कंपनियां भी तेल के नए स्त्रोतोंको खोजने का प्रयास कर रही हैं परंतु अभी तक उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली है । इन दिनों आम जनता के बीच यह धारणा फैलाई जा रही है कि तेल उत्पादन के क्षेत्र में कार्यरत हमारी सार्वजनिक क्षेत्र की ये कंपनियां भारी मुनाफा कमा रहीं हैं, क्योंकि तेल की उत्पादन लागत उसकी बढ़ती कीमतों की पृष्ठभूमि में बहुत कम होती है । इसी पृष्ठभूमि में यह भी कहा जा रहा है कि तेल के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य में वृद्धि की स्थिति में भी आंतरिक मूल्य को स्थिर रखने के प्रयास में जो घाटा होता है उसे बजाय मूल्य वृद्धि के आंतरिक तेल उत्पादक कंपनियोंके मुनाफे और सरकारी करों की दर में कमी करके पूरा कर लिया जाए । यही किया भी जा रहा है । पेट्रोल मंत्री मुरली देवड़ा इस हेतु सरकार पर दबाव बनाने में सफल भी रहे हैं । यदि हम आयतित तेल की कीमत १२० डालर प्रति बैरल चुका रहे हों तो उस स्थिति में एक लीटर डीजल में प्रयुक्त कच्च्े तेल की लागत ३१.७० रू. होगी । इसमें अगर उसके परिशोधन, परिवहन, सरकारी कर आदि की लागत को जोड़ दें तो डीजल की लागत ५४ रू. प्रति लीटर आयेगी । इस समय डीजल पर केन्द्रीय उत्पादन शुल्क ३.७५ रू. प्रति लीटर तथा राज्यों के विक्रय कर औसतन ९ रू. प्रति लीटर हैं । डीजल का वर्तमान विक्रय मूल्य ३९ रू. प्रति लीटर है । इसी तरह ही पेट्रोल के उत्पादन में घाटा ५ से ८ रू. प्रति लीटर, केरासीन पर ३३ रू. प्रति लीटर और प्रति गैस सिलेण्डर ३५० रू. है । आयातित कच्च्े तेल की ऊँची कीमतें एवं देश में उससे उत्पादित डीजल, पेट्रोल, केरोसीन, रसोई गैस आदि के मूल्यों को निम्नस्तर पर बनाए रखने के कारण सरकार को अनुमानत: १,८५,००० करोड़ रू. का वार्षिक घाटा होता है । इस घाटे का सरकार देश में तेल उत्पादन करने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के मुनाफे से पूरा कर रही है । अगर सरकारी तेल कंपनियों का मुनाफा आयातित कच्च्े तेल के उत्पादों की देश में नीची कीमतों के कारण होने वाले घाटे को पूरा करने में प्रयुक्त नहीं किया जाता तो उस राशि के अन्य अनेक उपयोग संभव थे, जिनसे राष्ट्र वंचित हो रहा है । प्रश्न यह है कि देश में उत्पादित तेल पर प्राप्त् लाभ के आयातित तेल के उत्पादों के मूल्यों को नीचा रखने से उत्पन्न घाटे को पूरा करने में प्रयुक्त न कर अगर अन्यत्र उपयोग किया जाता तो उससे लाभ प्राप्त् करने वाला जनता का कौन-सा वर्ग होता और आज इन उत्पादों की निम्नस्तरीय कीमतों का लाभ लेने वाला वर्ग कौन-सा हैं? डीजल और पेट्रोल की निम्नस्तरीय कीमतों का मुख्य लाभ दिन प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या के कारों और दुपहिया वाहनों के स्वामियों का मिल रहा है । सस्ता डीजल सर्वजनिक परिवहन के स्थान पर निजी परिवहन कारों, के उपयोग को प्रोत्साहित कर रहा है । विगत वर्षोंा में सार्वजनिक परिवहन की तुलना में निजी परिवहन की सुविधाआें में कई गुना वृद्धि हुई है । ऐसा कहा जा सकता है कि केरोसिन और रसोई गैस की कीमतों के निम्नस्तर का लाभ जनता को मिल रहा है । परंतु केरोसिन के एक बड़े भाग का उपयोग वाहनों के स्वामी डीजल में मिलावट के लिए कर रहे है । इसी तरह रसोई गैस का उपयोग भी कारों, जीपों आदि को चलाने के लिए किया जा रहा है । कुल मिलाकर सस्ते पेट्रोल डीजल का मुख्य लाभ उच्च् आय वर्ग के लोग मिलाकर सस्ते पेट्रोल डीजल का मुख्य लाभ उच्च् आय वर्ग के लोग ही ले रहे है एवं सस्ते केरोसिन और रसोई गैस के लाभ का एक बड़ा हिस्सा भी हड़पकर आम जनता को वास्तविक लाभ से वंचित कर रहे हैं । साथ ही सार्वजनिक वाहनों के स्थान पर निजी वाहनों जैसे कारों, दुपहिया वाहनों आदि के बढ़ते उपयोग के कारण भी पेट्रोल, डीजल की खपत में वृृद्धि के कारण हमारा तेल का आयात भी अनावश्यक रूप से बढ़ रहा है । अगर हमारी सरकार तेल उत्पादों की कीमतों को कम न रख कर उन्हें आयातित मूल्यों के समकक्ष करने की नीति अपना लेती तो उस स्थिति में सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों को आयतित तेल का घाटा पूरा करने का दायित्व नहीं उठाना पड़ता और उस स्थिति में सरकार इस राशि का उपयोग देश में शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के विस्तार और गुणवत्ता में सुधार के लिए प्रयुक्त कर पाती। उल्लेखनीय है कि हमारा देश स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय आय का मात्र १.२ प्रतिशत खर्च करता है और इसी दृष्टि से उसका स्थान विश्व के अंतिम १० राष्ट्रों में है । इसी तरह शिक्षा पर हम राष्ट्रीय आय का ४ प्रतिशत से भी कम खर्च करते हैं जबकि कोठारी आयोग ने सन् १९६६ में ही इस पर कम से कम ६ प्रतिशत खर्च करने का सुझाव दिया था । शिक्षा और स्वास्थ्य पर कम व्यय का मुख्य शिकार गरीब वर्ग के लोग ही होते हैं । इस तरह डीजल, पेट्रोल आदि की कीमतें कम रखने और घाटे को सार्वजनिक क्षेत्र की देशी तेल उत्पादक कंपनियों के लाभ से पूरा करने का मुख्य शिकार भी देश के गरीब वर्ग के लोग ही रहे हैं । तेल उत्पादों के मूल्यों को निम्नस्तरीय रखने की सरकारी नीतियां मुख्य रूप से मध्यम एवं उच्च् आय वर्ग के लोगों के हित में हैं। परंतु दूसरी ओर होने वाले घाटे की पूर्ति के प्रयासों के कारण सरकार शिक्षा एवं स्वास्थ्य, साफ व सुरक्षित पेयजल की पूर्ति जैसे संवैधानिक दायित्वों को भी पूरा नहीं कर पा रही है । व्यापक हितों की दृष्टि से इस नीति पर पुर्नविचार करने की आवश्यकता है । ***

७ खास खबर


खास खबर
राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस घोषित करने की मांग
(विशेष संवाददाता)
खेजड़ली के शहीदों की स्मृति को सम्मान देने और नयी पीढ़ी को इस बलिदानी घटना से परिचित कराने के लिये पर्यावरण डाइजेस्ट ने अपने शुरूआती दौर से ही प्रयास प्रारंभ कर दिये थे । इस शहीदी दिवस को देश का पर्यावरण दिवस बनाये जाने के लिये अनेक स्तरों पर लोक चेतना अभियान चलाया गया । इसी क्रम में पत्रिका के सम्पादक ने पिछले दिनों राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल से भेंट कर इसमें उनके सहयोग, समर्थन और आशीर्वाद मांगा । राष्ट्रपति भवन में २१ अगस्त २००८ को सौजन्य भेंट के दौरान राष्ट्रपति को सौंपे गये ज्ञापन तथा यूनिवार्ता समाचार एजेन्सी द्वारा २१ अगस्त को ही दिल्ली में प्रसारित समाचार को हम पाठकों की जानकारी के लिये अविकल रूप में दे रहे हैं ।
डॉ. खुशालसिंह पुरोहितएम.ए.,पी-एच.डी.,डी.लिट्.पर्यावरणविद्सम्पादक, मासिक पर्यावरण डाइजेस्ट
समन्वय, १९- पत्रकार कॉलोनीरतलाम (म.प्र.) ४५७ ००१दूरभाष : (०७४१२)२३१५४६मोबा. : ९४२५०- ७८०९८ई-मेल : kspurohit@rediffmail.com
क्र. ०१ दि. २१.०८.०८
प्रतिष्ठा में ,
महामहिम श्रीमती प्रतिभा पाटिल
भारत की राष्ट्रपति राष्ट्रपति भवन,
नई दिल्ली
विषय : खेजड़ली में प्रकृति रक्षार्थ शहीद हुए ३६३ बिश्नोईयों के बलिदान दिवस २१ सितम्बर को भारत का पर्यावरण दिवस घोषित करने विषयक ।
महोदय,
भारतीय जनमानस में पर्यावरण संरक्षण की चेतना और पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों की परम्परा सदियों पुरानी है । हमारे धर्मग्रंथों, हमारी लोक कथाआें और हमारी जातीय परम्पराआें ने हमेशा हमें प्रकृति मित्र बनने की प्रेरणा दी है । प्राचीन काल में प्रकृतिसंरक्षण हमारी जीवन शैली में सर्वोच्च् प्राथमिकता का विषय रहा है । प्रकृति संरक्षण के पुनीत उद्देश्य के लिये प्राणोत्सर्ग की घटनाआें ने समूचे विश्व में भारत के प्रकृति प्रेम का परचम फहराया है । अमृतादेवी और पर्यावरण रक्षक बिश्नोई समाज की पेड़ रक्षा में अपने प्राणों का बलिदान करने की घटना हमारे राष्ट्रीय इतिहास में स्वर्णिम पृष्ठों में अंकित है । सन् १७३० में राजस्थान के जोधपुर राज्य के छोटे से गांव खेजड़ली में घटित इस घटना की विश्व में कोई सानी नहीं है । यह घटना गुरूवार २१ सितम्बर १७३० (भाद्रपद श्ुाक्ला दशमी, विक्रम संवत् १७८७) की है । प्रकृति प्रेमी महिला अमृता देवी के नेतृत्व में एक खेजड़ी के पेड़ को कटने से बचाने के लिये ३६३ बिश्नोईयों ( ६९ महिलायें एवं २९४ पुरूषों) ने अपने प्राणों की आहूति दे दी थी । बिश्नोई समाज का यह बलिदानी कार्य आने वाली अनेक शताब्दियों तक प्रकृतिप्रेमियों में नयी प्रेरणा और उत्साह का संचार करता रहेगा । इसमें जरूरी होगा इसकी स्मृति और स्पंदन को नयी पीढ़ी तक निरंतर पहुंचाने की कोई व्यवस्था हो । इस दिशा में विनम्र प्रयास के रूप में हमनें पर्यावरण डाइजेस्ट में पिछले दो दशकों में हर वर्ष इस विषय पर सामग्री पाठकों तक पहुंचायी है । यह पत्रिका देश की पहली पत्रिका है जिसके अब तक १० अमृता विशेषांक निकाले जा चुके हैं । हमारे देश में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय तथा राज्य सरकारों द्वारा पर्यावरण एवं वन्यजीवों के संरक्षण के लिये अनेक कार्यक्रम चलाये जारहे हैं। प्रतिवर्ष ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है । राष्ट्रीय पर्यावरण जागरूकता अभियान सहित अनेक अभियानों का आयोजन होता है । यह विडम्बना ही कही जायेगी कि हमारे लोक चेतना प्रयासों को इस महान घटना से कहीं नहीं जोड़ा गया है। आज सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि २१ सितम्बर के दिन को राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस घोषित किया जाये,यह पर्यावरण शहीदों के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की सच्ची श्रद्धांजली होगी । इससे प्रकृति संरक्षण की जातीय चेतना का विस्तार हमारी राष्ट्रीय चेतना तक होगा , इससे पर्यावरण संरक्षण के हमारे राष्ट्रीय प्रयासोंको नयी गति और शक्ति मिलेगी । इस कार्य में हमें आपके सहयोग, समर्थन और आशीर्वाद की आवश्यकता है । हमें आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि २१ सितम्बर के दिन को राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस घोषित करने के पुण्य कार्य में आपकी ओर से प्रभावी पहल शीघ्र ही होगी ।भवदीय(डॉ. खुशालसिंह पुरोहित)
वार्ता द्वारा जारी समाचार२१ सितम्बर को भारत का पर्यावरण दिवस घोषित करने की मंाग नई दिल्ली २१ अगस्त (वार्ता) । राजस्थान के जोधपुर जिले के खेजड़ली में पेड़ों की रक्षा करते हुए शहीद हुए ३६३ बिश्नोईयों के बलिदान दिवस २१ सितम्बर को भारत का पर्यावरण दिवस घोषित करने की मांग की गई है । पर्यावरणविद् और पर्यावरण पत्रिका मासिक पर्यावरण डाइजेस्ट के संपादक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील को पत्र लिखकर यह मांग की है । खेजड़ली गांव में २१ सितम्बर १७३० को खेजड़ी के एक पेड़ को बचाने के लिए प्रकृति प्रेमी महिला अमृतादेवी के नेतृत्व में ३६३ बिश्नोईयों ने प्राणों की आहूति दे दी थी । उन्होंने कहा कि २१ सितम्बर को राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस घोषित किया जाना चाहिए यह पर्यावरण शहीदों के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की सच्ची श्रद्घांजलि होगी । सन् १७३० में जोधपुर के राजा अभय सिंह ने नया महल बनाने के लिए पड़ोस के गांव खेजड़ली के पेड़ काटने के आदेश दिए थे । खेजड़ली में राजा के कर्मचारी बसे पहले अमृता देवी के आंगन में लगे खेजड़ी के पेड़ को काटने आए तो अमृता देवी ने उन्हें रोका और कहा कि यह खेजड़ी का पेड़ हमारे घर का सदस्य है यह मेरा भाई है इसे मैंने राखी बांधी , इसे मैं नहीं काटने दूंगी । इस पेड़ की रक्षा के लिये अमृतादेवी उनके पति, तीन लड़कियों और ८४ गांवों के कुल ३६३ बिश्नोईयों , ६९ महिलाएं और २९४ पुरूषों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी और खेजड़ली की धरती बिश्नोईयों के बलिदानी रक्त से लाल हो गई थी ।
डॉ. पचौरी आईपीसी के दोबारा अध्यक्ष चुने गए
टाटा ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (टीईआरआई) के निदेशक आर.के पचौरी को दूसरी बार जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) का अध्यक्ष चुना गया है । उल्लेखनीय है कि इस पैनल ने डॉ. पचौरी के निर्देशन में कार्य शुरू करने के कुछ ही समय बाद मौसम बदलाव पर अपनी चौथी समीक्षा रिपोर्ट में इस दिशा में तत्काल कदम उठाने की सिफारिश करने के साथ ही विश्व में तमाम मीडिया समूहों के साथ साझेदारी कर मौसम में बदलाव के कारण होने वाले नुकसान के प्रति लोगों को जागरूक करने का कार्य किया । संयुक्त राष्ट्र के इस पैनल के जिनेवा में आयोजित पूर्ण सत्र के दौरान ही डॉ.पचौरी को इसका अध्यक्ष चुना गया । भारत सरकार ने वैश्विक रूप से पर्यावरण विज्ञान एवं अनुसंधान के क्षैत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए डॉ.पचौरी को इस वर्ष पद्म विभूषण से सम्मानित किया ।

८ विज्ञान जगत


विज्ञान जगत
आविष्कारक की जवाबदेही का सवाल
डॉ. डी.बालसुब्रमण्यन
क्या किसी आविष्कारक को इस बात के लिए जवाबदेह ठहराया जा सकता है कि उसके आविष्कार का क्या उपयोग किया जाता है ? यह सवाल बार-बार सिर उठाता है । हाल ही में यह सवाल स्विस रसायनज्ञ अल्बर्ट हॉफमैन के संदर्भ में उठा है, जिनकी मृत्यु १०२ वर्ष की उम्र में पिछले माह हुई थी । डॉ. हॉफमैन ने १९३८ में दिमाग पर असर डालने वाली दवा लायसर्जिक एसिड डाईएथिलएमाइड की खोज की थी । इसे आम लोग एल.एस.डी के नाम से जानते हैं । उस समय वे बेसल में सैंडोज़ दवा कंपनी में कार्यरत थे । उनके शोध कार्य के आधार पर औषधि वैज्ञानिकों और चिकित्सकों का उपयोग मनोचिकित्सा में किया जा सकता है मगर यह काम किसी चिकित्सक की देखरेख में किया जाना चाहिए और दवा की खुराक पर नज़र रखनी होगी । मगर जल्दी ही लोगों ने इस दवा का उपयोग एक आनंद औषधि यानी प्लेज़र ड्रग के रूप में करना शुरू कर दिया । जिन लोगों ने इस दवा का उपयोग पारलौकिक आनंद की अनुभुति के लिए किया, उनमें से कुछ अपना दिमाग गंवा बैठे जबकि कुछ लोग तो जान से ही हाथ धो बैठे । डॉ. हॉफमैन की बहुत आलोचना हुई और कुछ लोगों ने तो दुनिया में एल.एस. डी. पेश करने के लिए उन्हें निजी तौर पर दोषी ठहराया । अलबत्ता डॉ. हॉफमैन ने अपने बचाव में यह दलील दी थी, एल.एस.डी.का इतिहास बखुबी दर्शाता है कि जब इसके ज़ोरदार असर को लेकर गलतफहमी हो जाती है और इसे प्लेज़र ड्रग मानने की भूल की जाती है, तो परिणाम घातक हो सकते हैं । डॉ. हॉफमेन अकेले नहीं हैं । वे उन खोजकर्ताआें की जमात के हिस्से हैं जिन पर बुराई को जन्म देने का आरोप लगता रहता है । मसलन डी.डी.टी. एक रसायन है जिसकी खोज एक रसायन प्रयोगशाला में आज से करीब ८० साल पहले हुई थी । १९६० के दशक से ही इसने दुनिया भर में मलेरिया नियंत्रण मे अहम भूमिका निभाई है । मगर इसके एक दशक बाद ही यह पता चलने लगा था कि इसके अंधाधुंध उपयोग के कुप्रभाव होते हैं । डी.डी.टी. के अंश हर तरफ पाए जाने लगे-पेड़-पौधों, जंतुआें, यहां तक कि मां के दूध में भी । इस वजह से इसके उपयोग पर प्रतिबंध लग गया । जिस चीज़ को मानवता के लिए वरदान कहा गया था, वह एक अभिशाप साबित हुई । तो क्या डी.डी.टी. के लिए पौल मुलर को दिया गया नोबल पुरस्कार वापिस ले लिया जाना चाहिए ? प्लास्टिक और व अन्य कृत्रिम पोलीमर्स भी विज्ञान के असाधारण अविष्कार हैं । इनके बगैर आज की दुनिया की कल्पना भी नहीं की जा सकती । वास्तव में पोलीमर्स ने ही रासायनिक उद्योग ड्यूपॉन्ट को यह नारा देने को प्रेरित किया है : बेहतर जीवन, रसायन शास्त्र के साथ । पालीमर्स मानव सहूलियत, उपयोगिता व कल्याण के रसायण शास्त्र का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है । मगर दूसरी ओर, इन्होंने पूरे पर्यावरण में गंदगी फैलाई है, नालियों को चोक कर दिया है और कई प्राणियों का जीवन खतरें में डाल दिया है । प्रकृति में भी पोलीमर्स पाए जाते हैं । जैसे पेड़-पौधों व जंतुआें के शरीर में कई पोलीमर्स बनते हैं । मगर इनकी खूबी यह है कि ये समय के साथ नष्ट होते हैं और धीरे-धीरे गायब हो जाते हैं । इनके विघटन का काम मूलत: सुक्ष्म जीवों द्वारा किया जाता है । दूसरी ओर, कई कृत्रिम पोलीमर्स इस तरह से जैव-विघटनशील नहीं होते । इसी के मद्दे नज़र यह आव्हान जाता है कि प्लास्टिक का उपयोग कम से कम करें । यह सही है कि प्लास्टिक के व्यापक इस्तेमाल ने बड़े पैमाने पर नुकसानकिया है मगर क्या इसके लिए पोलीमर विज्ञान के प्रवर्तकों को दोषी ठहराया जा सकता है । कोई आविष्कारक या खोजकर्ता जादुई चिराग को रगड़ता है और जिन्न बाहर आ जाता है । यह जिन्न देवदूत भी हो सकता है या हो सकता है कि साक्षात शैतान हो । कई बार तो अविष्कारक को वह पदार्थ बनाना भी नहीं पड़ता । वह तो सिर्फ विचार विकसित करता है । आइंस्टाइन ने बम नहीं बनाया था। उन्होंने तो भौतिक शास्त्र के तर्क के आधार पर दर्शाया था कि थोड़े से पदार्थ को ऊ र्जा की विशाल मात्रा में तब्दील किया जा सकता । इन्हीं आइंस्टाइन ने बम की विनाशकारी शक्ति से भयभीत होकर अमरीकी राष्ट्रपति को पत्र लिखकर बम न बनाने का अनुरोध भी किया था । सन् १९७० का दशक जीव विज्ञान में अभूतपूर्व प्रगति का दौर था । इसी दौर में हमने अपने शरीर की कोशिकाआें में जीन्स को पहचानना सीखा था, इन्हें एक जगह से काटकर दूसरी जगह, किसी दूसरे जीव की कोशिका में रोपना सीखा था । इसके साथ ही डी.एन.ए. टेक्नॉलॉजी के युग का आगाज़ हुआ था । जिस काम को करने में प्रकृति को करोड़ो साल लगे थे, उसे हम प्रयोगशाला में चंद दिनों में करने के काबिल हो गए । इसके साथ ही, किसी अज्ञात सुक्ष्मजीव को पर्यावरण में छोड़ने के नैतिक मुद्दों और खतरनाक परिणामों पर विचार करना ज़रूरी हो गया और विचार किया भी गया । नोबल पुरस्कार विजेता पौल बर्ग के नेतृत्व में कई सारे जीव वैज्ञानिक स्व-प्रेरणा से कैलीफोर्निया में मिले ताकि इस नई जैव-टेक्नॉलॉजी के विविध संभावित परिणामों- जैविक, पर्यावरणीय, सामाजिक और नैतिक-पर विचार-विमर्श कर सकें । इस बैठक के अंत में वे इस नतीजे पर पहुंचे कि स्व-प्रतिबंध की एक नीति की जरूरत है । मुमानियत कीफेहरिस्त लंबी थी । यह निर्णय हुआ कि इस पर समय-समय पर पुनर्विचार किया जाएगा और आकलन के आधार पर छूट दी जाएगी । दुनिया भर के जीव वैज्ञानिकोंसे अनुरोध किया गया कि वे इन दिशा निर्र्देशों का पालन करें । उल्लेखनीय बात है कि एक पेशेवर समूह के रूप में जीव वैज्ञानिकों ने इन दिशा निर्देशों का पालन स्वैच्छिक रूप से किया है । इसका मतलब यह हुआ कि सबसे पहले तो बोतल से निकलने वाले जिन्न का एक आकलन किया गया कि वह क्या कर सकता है और फिर उसे क्रमश: बोतल से निकलने दिया गया । आज भी तकनीकी रूप से यह संभव है कि नए जीव विज्ञान का इस्तेमाल करके खुद का क्लोन बनाया जा सके मगर उक्त दिशा निर्देश इसका निषेध करते हैं । यदि कोई ऐसा करता है, तो चाहे उसके देश उसके देश में इसके खिलाफ कानून हों या न हों, दुनिया भर के जीव वैज्ञानिक उससे कन्नी काट लेंगे, उसका कैरीयर खटाई में पड़ जाएगा । रोचक बात यह है कि जहां वैज्ञानिक एक समूह या श्रेणी के रूप में साथ आकर इस तरह का आत्म-संयम बरतते हैं, वहीं व्यापारी, राजनेता और यहां तक कि सामाजिक नेता भी ऐसा नहीं करते । कुछ धार्मिक नेताआें के बीच ज़रूर कुछ हिचकते कदम उठाए गए हैं ताकि विभिन्न धर्मोंा के बीच आम सूत्र खोजे जा सकें और सह-अस्तित्व का धरातल तैयार किया जा सके । इस तरह के संवाद ज़्यादा होंगे तो कई विवाद के मुद्दे सामने रखे जा सकेंगे और समाधान पाने की कोशिश हो सकेगी । कम से कम इतना तो हो ही सकेगा कि शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के तौर-तरीके खोजे जाएं । यह एक मामला है जहां विज्ञान रास्ता दिखा सकता है । ***
रक्त के विकल्प की नई आशा
दशकों से कई क्लिनिकल ट्रायलों की असफलता और विवाद क ेबाद शायद अब २००८-०९ में कृत्रिम रक्त उपलब्ध हो पाएगा । यह उम्मीद जगाई है टेक्सास के हीमोबायोटेक ने । हीमोबायोटेक कम्पनी ने रक्त का विकल्प विकसित करने का दावा किया है , जो अन्य प्रतिस्पर्धी उत्पादों से ज्यादा सुरक्षित है । उसकी योजना है कि इस रक्त कापरीक्षण सर्जिकल रोगीयों पर किया जाए । यह परीक्षण भारत और संयुक्त राज्य में इस साल के अंत तक कर दिया जाएगा । रक्त के विकल्पो की खोज इसलिए की जा रही है कि जरूरत पड़ने पर आसानी से रोगी को रक्त मिल सके और उनकी जान बचाई जा सके । हीमोटेक का रक्त ऑक्सीजन वाहक रसायन हीमोग्लोबीन के एक प्रकार पर आधारित है । इसे गाय के रक्त से हीमोग्लोबीन प्राप्त् करके बनाया जाता है । इसकी विशेषता यह है कि इसमें हीमोग्लोबीन के अणु आपस मेंएक - दूसरे से जोड़ दिए गए हैं । यह इसलिए जरूरी है क्योंकि स्वतंत्र हीमोग्लोबिन ज़हरीला होता है और यह रक्त वाहिनियाँ को सिकोड़कर उनमें से रक्त प्रवाह नहीं होने देता है । मगर पूर्व में हीमोग्लोबिन को जोड़कर तैयार किए गए रक्त के विकल्पों के परीक्षण के दौरान कई रोगियों की मौत हो गई थी । ये मौतें रक्त उत्पाद के कारण ही हुई थीं क्योंकि इन्हीं परिस्थितियों में वे रोगी बच गए थे जिन्हें सिर्फ सैलाइन दिया गया था । हीमोटेक का दावा है कि उसने इस समस्या का हल कर लिया है ।

९ खाद्य पदार्थ


खाद्य पदार्थ
अंगूर : तुझसे कैसे रहें दूर ?
डॉ. किशोर पंवार
जब बागों में फूलों की और बाज़ार में फलों की बहार होती है, विशेष रूप से अंगूर की । तो फलों की दुकान और सड़क किनारे हाथ ठेलों पर अंगूर ही अंगूर दिखाई देते हैं । इन्हें देखते ही खरीदने का मन करने लगता है । अंगूर के गुच्छेदेखने में भी बड़े सुंदर लगते हैं । ऐसा लगता है कि किसी ने हरे-पीले बड़े-बड़े मोतियों को एक गुच्छे में बांध दिया हो । बहुत कुछ हैअंगूर पर लिखने को । जैसे बचपन में पढ़ी कहानी खट्टे अंगूर-अम्लानी द्राक्षानी । एक लोमड़ी जंगल में अंगूर की बेल पर लगे अंगूर के गुच्छोंको खाने के प्रयास में बार-बार ऊपर की ओर उछलती है । परंतु कई बार की कोशिश के बाद भी उसके हाथ अंगूर नहीं आते । तब वह अंगूर खट्टे हैं कहकर वहां से चल देती है। मज़ेदार बात यह है कि अंगूर की एक जाति का नाम फॉक्स ग्रेप भी है । जो खट्टी होती है। यानी कहानी में कुछ दम है । अंगूर पर लिखने के लिए अंगूर की बेटी भी है - दुनिया का सबसे पुराना और लोकप्रिय पेय पदार्थ । पूरी दुनिया में यह एक बहुत बड़ा उद्योग है । कई सरकारों इसकी बदौलत ही चलती हैं । इसके चलते ही वाइन किंग और पीने वाले को पीने का बहाना चाहिए जैसे जुमले पढ़ने को मिलते है ।अंगूरी की बेल अंगूर के पौधे का नाम है वायटिस वाइनीफेरा । वाइन का अर्थ है बेल । तो अंगूर की बेल होती है । यह बहुत मज़बूत और मोटी होती है । यह अपने लिपटने वाले जंतुआेंसे सहारे पर लिपट जाती है । यह एक बहुवषी कठोर लता है जिसे हम कठलता यानी लायना भी कह सकते हैं । अंगूर के तने पर एकान्तर क्रम से एक पती और एक प्रतान यानी कुडलित धागे नुमा रचना (टेड्रिल) लगी होती है । यही बेल को किसी मज़बूत सहारे पर लिपटकर चढ़ने में सहायता करती है । प्रतान हवा में झूलते रहते हैं, किसी ठोस सहारे के संपर्क में आते ही संपर्क वाले हिस्से और उसके विपरीत दिशा में असमान वृद्धि होने से यह सहारे पर एक छल्लेनुमा रचना बना लेते हैं । इस तरह यह बेल सहारे से लिपट जाती है । प्रतान का बाकी हिस्सा कुंडलित होकर स्प्रिंग की तरह कार्य करते हुए बेल को तेज़ हवा के झोकों में टूटने व नीचे गिरने से बचाता है । पत्तियां काफी बड़ी हथेली के आकार की सुंदर, गहरी हरी होती हैं । अंगूर की इन्हीं लताआें पर फूल गुच्छों में लगते हैं । फल भी गुच्छों में लगते हैं क्योंकि फूलों से ही तो फलों का निर्माण होता है । अंगुर का पुष्पक्रम पेनिकल प्रकार का होता है । जिसका मुख्य अक्ष शाखाआें में बंट जाता है । प्रत्येक शाखा पर फिर फूल खिलते हें । पुष्पक्रम के ऊपरी हिस्से में पहले और नीचे वाले हिस्से में बाद में । यही कारण है कि गुच्छे में बड़े-बड़े अंगूर ऊपर की ओर लगते हैं ओर फिर नीचे की ओर क्रमश: छोटे होते जाते हंै । इसी वजह से अंगूर के गुच्छे इतने सुंदर और आकर्षक होते हैं । अंगूर के फूल पंचतयी होते हैं अर्थात इनमें पांच अंखुड़ियां और पांच हरी-पीली पुखुड़ियां होती हैं और साथ में मकरंद ग्रंथियां भी । अंगूर: फल भी, औषधि भी अंगूर के फल स्वादिष्ट रसीले ओर ऊर्जा से भरपूर होते हैं । उसके पत्ते भी औषधीय गुणों की खान हैं । पत्तियों में स्रावरोधक और सूजनरोधी गुण होते हैं । इनमें टेनिन क्वेसीटिन टारटेट, इनसीटोल, कोलीन और कैरोटीन प्रचुरता से मिलते हैं । जिन लोगों का लीवर कमज़ोर होता है या जिनकी पित्त निर्माण प्रक्रियाधीमी हो जाती है उन्हें भोजन के रूप में अंगूर के सेवन की विशेष सलाह दी जाती है । आर्युवेद में इससे द्राक्षासव नाम का टॉनिक भी बनाया जाता है जो क्षुधावर्धक एंव बलवर्धक माना जाता है । प्रसिद्ध टॉनिक च्यवनप्राश में अंगूूर भी एक घटक के रूप में डाला जाता है । कुल मिलाकर यह एक श्रेष्ठ फल है ।इतिहास के झरोखे से अंगूर अंगूर की बेल के बारे में इतना सब कुछ जान लेने के बाद आइए, इसका कुछ इतिहास भी जान लें । इसका वैज्ञानिक नाम वायटिस वाइनीफेरा है जो वायटेसी कुल का पौधा है । इसकी लगभग ६० प्रजातियां हैं । इनमें से अधिकांश उत्तरी अमेरिका की देशज हैं । अंगूर मानव द्वारा उपयोग किया जाने वाला सबसे पहला फल है । और तब से आज तक उच्च् ऊर्जा युक्त भोजन का मुख्य स्रोत बना हुआ है । अंगूर पश्चिमी एशिया, उत्तरी अफ्रीका और दक्षिणी यूरोप में बहुत पहले से ही उगाए जात रहे हैं । अंगूर की पत्तियों के जीवाश्म फ्रांस और इटली में प्राचीन काल की चट्टानों में मिलते हैं । इसी तरह अंगूर के बीच भी स्विटज़रलैंड की झीलों के आसपासऔर मिस्र के पुराने मकबरों से प्राप्त् हुए हैं । ये सब अंगूर के पुरातन होने के प्रमाण हैं । मिस्र में अंगूर की खेती एवं इससे शराब बनाने का इतिहास लगभग ५००० वर्ष पुराना है । बाइबिल में नोआ द्वारा अंगूर का बगीचा लगाए जाने का ज़िक्र है जिसे संभवत: फिलिस्तीन में उत्तर से लाया गया होगा । इसी तरह ओल्ड टेस्टामेंट में भी वाइन का ज़िक्र लगभग १६५ और न्यू टेस्टामेंट में १० बार आता है । इससे उस समय अंगूर और वाइन के महत्व का अंदाज लगाया जा सकता है। पुराने यूनानी और रोमन अभिलेखों में भी अंगूर का वर्णन है । इसे फ्रांस में ६०० ईसा पूर्व लाया गया था । वहां की मोनेस्ट्रीज़ ने इसके बगीचे लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । उत्तरी अमेरिका में कोलंबस के प्रवेश के सदियों पूर्व से ही रेड इंडियन जंगली अंगूरों को इकट्ठा करते थे जिनमें फॉक्स ग्रेप (वायटिस लेब्रुस्का) और रिवर बैंक ग्रेप (वायटिस वलपीना) शामिल थे । कोलंबस के ५०० वर्ष पूर्व नोर्समेन ने इस द्वीप की यात्रा की थी और वहां उग रहे जंगली अंगूरों को देखकर इसे वाइनलैंड नाम दिया था । वायटिस वाइनीफेरा अमेरिका में करीब १६१६ में लाया गया । वर्तमान में इस प्रजाति की करीब ५००० किस्में उगाई जाती हैं । भारत में अंगूर की बेलें विभिन्न आगंतुकों द्वारा फारस और अफगानिस्तान से लगभग १३०० ईस्वीं में लाई गई थीं । वर्तमान में अंगूर की खेती पूरी दुनिया के शीतोष्ण और उपकटिबंधीय क्षेत्रों में होती है । वायटिस वाइनीफेरा अंगूर की सबसे लोकप्रिय प्रजाति है । ऐसा माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति कैस्पियन सागर तट पर एशिया में हुई । जंगली अंगूर की कई प्रजातियां आज भी यूरोप, निकट पूर्व और उत्तरी भारत में पाई जाती हैं ।रंग-बिरंगे अंगूर अंगूर का फल बेरी श्रेणी का है अर्थात एक ऐसा रसीला फल जिसमें सिर्फ एक या दो बीज होते हैं । अंगूर के फलों के रंग में भी बहुत विविधता देखी जाती है। सफेद, हरे, गुलाबी, लाल और गहरे जामुनी यानी लगभग काले । इन फलों के छिलके पर एक पतली मोम की पर्त चढ़ी होती है जिस पर फफूंद और यीस्ट की करोड़ों कोशिकाएं चिपकी रहती है - एक फल पर लगभग १ करोंड़ । अंगूर की शक्कर को किण्वन से शराब में बदलने का कार्य इन्ही के जिम्मे है । इनमें पाए जाने वाले एन्जाइम शक्कर को अल्कोहल में बदल देते हैं । अंगूर के रस मेंे मुख्यत: पानी और १८ से २५ प्रतिशत तक शक्कर होती है तथा कुछ कार्बनिक अम्ल होते हैं । शक्कर में ग्लूकोज़, फ्रक्टोज़ होती हैं। अम्लोंे में टारटेरिक और मेलिक अम्ल प्रमुखता से रहते हैं । शक्कर व कार्र्र्बनिक अम्लों के कारण ही अंगूर खट्टे-मिठे लगते हैं । अंगूर में अमीनो अम्ल, विटामिन, लवण और ऑक्सीकरण-रोधी एन्थोसाइनिन भी होते हैं । यही कारण है कि अंगूर एक श्रेष्ठ फल और पोषक पदार्थ हैं ।अंगूर की बेटी शराब को शायरों ने अंगूर की बेटी कहा है । दुनिया भर में उत्पादित लगभग ८० प्रतिशत अंगूर का उपयोग तो वाइन नामक शराब बनाने में किया जाता है । शेष १० प्रतिशत ताज़े फल के रूप में खाए जाते हैं और बाकी सुखाकर ड्राईर् फ्रुट्स के रूप में । ताजे खाए जाने वाले अंगूरों की उम्दा किस्मों को टेबल ग्रेप्स या डेसर्ट ग्रेप्स कहते हैं । शराब बनाने वाली किस्मों को वाइन ग्रेप्स और बाकी को रेज़िन (किशमिश) कहा जाता हैं मस्कट और ऐलेक्जेंड्रिया, थामसन सीडलेस और सुल्तान । जबकि प्रचलित टेबल ग्रेप्स हैं नियाग्रा एम्पुर, हैदराबाद का अनाब-ए-शाही और पूसा सीडलेस । ये दोनों भारत में विकसित की गई हैं । अंगूर से शराब बनाना उतना ही पुराना है जितनी हमारी सभ्यता । शराब दुनिया का सबसे ज्यादा प्रचलित पेय है । इसे बनाने वाले सदियों से इसके साथ ही रहते आए हैं- खमीर के रूप में । ग्रेप वाइन के तीन जाने-माने रंग हैं सफेद, लाल और गुलाबी । सफेद वाइन बनाने के लिए अंगूर को छिलके उतराने के बाद किण्वित किया जाता है । रेडवाइन के लिए काले-लाल अंगूरों को छिलके सहित और रोज़ वाइन बनाने के लिए किण्वन शुरू होने के बाद छिलकों का हटाया जाता है । ड्राय वाइन बनाने के लिए किण्वन तब तक चलने देते हैं जब तक सारी शर्करा शराब में न बदल जाए । वहीं स्वीट वाइन के लिए थोड़ी शक्कर उसमें रहने देते हैं । शेम्पेन बनाने के लिए किण्वन जारी रहते हुए ही उसे क्रिकेट के खिलाड़ियों को जीतने की खुशी में सबके सामने सामने शेम्पेन की बोतल खोलने में मज़ा क्यों आता है । ***
वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए याचिका
मध्यप्रदेश के पेंच बांध अभयारण्य में राष्ट्रीय राजमार्ग के प्रस्तावित विस्तार के विरोध को लेकर भारतीय वन्य जीव न्यास (डब्ल्यूटीआई) ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है । संगठन का कहना है कि राजमार्ग के विस्तार से जंगली पश्ुाआें की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है ।

१० पर्यावरण परिक्रमा

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पर्यावरण परिक्रमा
भोपाल गैस पीड़ितों के पुनर्वास हेतु अधिकार संपन्न आयोग गठित
केन्द्र सरकार ने भोपाल गैस पीड़ितों के पुनर्वास और इस दर्दनाक हादसे से जुड़े अन्य मामलों के निस्तारण के लिए अधिकार सम्पन्न आयोग के गठन का फैसला किया है । केन्द्रीय रसायन, उर्वरक एवं इस्पात मंत्री राम विलास पासवान ने बताया कि केन्द्र सरकार ने इस मामले में गत ११ जुन को केन्द्रीय मंत्री अर्जुन सिंह की अध्यक्षता में मंत्री समूह जीओएम का गठन किया था । जीओएम की सिफारिशों को मानते हुऐ सरकार ने आंदोलनरत् संगठनों के समूहों की मांग के आधार पर गैस पीड़ितों के पुनर्वास के लिये अधिकार सम्पन्न आयोग गठित करने का फैसला किया है ।ु श्री पासवान ने बताया कि सरकार ने १९८४ में भोपाल गैस त्रासदी के बाद स्थानीय लोगों में जहरीली गैस के कारण फैली विचित्र किस्म की बीमारियों के संक्रमण को रोकने और इनके इलाज के लिये भोपाल में गठित भारतीय चिकित्सा शोध परिषद आईसीएमआर का काम फिर से शुरू करने का फैसला किया है । आईसीएमआर ने १९९४ में शोध कार्य बंद कर दिया था । उल्लेखनीय है कि पांच लाख ७४ हजार लोग इस त्रासदी के कारण विभिन्न बीमारियों से पीडित हुये थे और ५२९४ लोग मारे गये थे । उन्होंने बताया कि सरकार ने आंदालोनरत संगठनों की मांग के आधार पर यूनियन कार्बाइड कंपनी के जहरीले कचरे के निस्तारण का काम अदालती कार्रवाई लंबित होने के कारण न रोकने का फैसला किया है । गौरतलब है कि यूनियन कार्बाइड कंपनी की डाओ केमिकल द्वारा खरीदे जाने के बाद नयी कंपनी ने कचरे को हटाने की जिम्मेदारी पुरानी कंपनी पर डालते हुए इससे पल्ला छाड लिया था । कचरे की सफाई की जिम्मेदारी तय करने को लेकर अदालत में मामला चल रहा है । श्री पासवान ने बताया कि इस बीच देश के प्रमुख उद्योगपति रतन टाटा ने इस कचरे को हटाने का प्रस्ताव पेश किया था बशर्ते सरकार डाओ कंपनी के खिलाफ मुकदमा वापस ले ले । लेकिन सरकार ने इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए राज्य सरकार के सहयोग से जहरीला कचरा हटाने की जिम्मेदारी ली है । श्री पासवान ने बताया कि सरकार डाओ कंपनी द्वारा कृषि मंत्रालय के कुछ अधिकारीयों से सांठगांठ कर चार कीष्टनाशकों के उत्पदान का लाईसेंस हासिल करने की शिकायतें मिलने पर इसकी जांच ब्यूरो से कराने का फैसला किया है ।
ताजमहल की खूबसूरती केा प्रस्तावित कूड़ाघर से खतरा
अपनी खूबसूरती के लिए दुनिया भर में विख्यात ताजमहल को वर्षोंा तक मथुरा रिफाइनरी से निकलने वाली गैसों की चुनौती झेलने के बाद अब पास ही बनने वाले एक कूड़ाघर से खतरा हो गया है । इस कूड़ाघर से निकलने वाली मीथेन ओर अन्य गैसों से भी इसके पीला पड़ जाने की आशंका हो जाएगी । आगरा के कुबेरपुर में बनने वाले इस कूड़ा घर को लेकर पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता भी सचेत हो गए है । प्रस्तावित कूड़ा घर की ताजमहल और यमुना से नजदीकी बेहद खतरनाक है और ताजमहल के नजरिए से संवेदनशील भी है । मीथेन गैस और कचरे से ताजमहल के आसपास का पर्यावरण दूषित हो जाएगा । १६ लाख आबादी वाले आगरा में किस मात्रा में कूड़ा पैदा होता है, इसके बारे में अलग-अलग अनुमानित आंकड़े हैं । वर्ष २००० के सरकारी आकड़े के अनुसार शहर में प्रतिदिन ३५० टन कूड़ा पैदा होता है, जबकि जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन के मुताबिक आगरा में ६५० टन कचरा रोजाना पैदा होता है, जबकि राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान के अनुसार यह आंकड़ा २,००० टन का है । आगरा के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों की वजह से पहले भी कई परियोजनाएं स्थानांतरित या बंद की जा चुकी है और इस परियोजना के भी हर पहलू का भली-भांति अध्ययन होना चाहिए । ताज महल से निकट के साथ ही कुबेरपुर में प्रस्तावित कूड़ा घर की ढलान यमुना की ओर है । इसका मतलब है कि यहां जमा तरल कचरा दो सौ मीटर दूर यमुना नदी में गिरेगा । उधर, उत्तरप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी ने कहा कि प्रदूषण समस्या के हर पहलू पर विचार किया जा रहा है और सभी की संतुष्टी के बाद ही इस पर आगे बढ़ा जाएगा ।
पेट्रोल में मिलाया जा सकता है २० फीसदी तक इथेनाल
राष्ट्रीय जैव इंर्धन नीति में कच्च्े तेल की ऊंची कीमतों और खपत को देखते हुए पेट्रोल में वर्ष २०१७ तक २० प्रतिशत इथेनाल के मिश्रण की सिफारिश निहित होने की संभावना है । इससे लगभग २० हजार करोड़ रूपये प्रति वर्ष की बचत की जा सकेगी । अधिकारिक सूत्रों के अनुसार राष्ट्रीय जैव इंर्धन नीति का प्रारूप केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पंवार की अध्यक्षता में गठित मंत्री समूह ने विचार विमर्श के बाद अपनी सिफारिशों के साथ केन्द्रीय मंत्रिमण्डल को भेज दिया है जिसे शीघ्र मंजूर कर लिया जायेगा । वर्ष २०१७ तक पेट्रोल और डीजल में २० प्रतिशत इथनोल मिश्रित करने का लक्ष्य योजना आयोग ने सुझाया है और इसे मंत्री समूह ने स्वीकार कर लिया है । फिलहाल भारत अपनी जरूरत का ७० प्रतिशत इंर्धन आयात करता है । वर्ष २००७-०८ के दौरान दो लाख ७२ हजार ६९९ करोड रूपये का कच्च तेल आयात किया गया । इसी अवधि के दौरान देश में ६१ हजार ५०४ करोड़ रूपये नैप्था. पेट्रोल. डीजल और डीजल के आयात पर खर्च किये । देश में इंर्धन की बढ़ती खपत के मद्देनजर जैव इंर्धन को बढ़ावा देने की प्रक्रिया में अक्टूबर २००८ तक पेट्रोल और डीजल में पांच प्रतिशत इथेनाल मिलाने का लक्ष्य निर्धारित कर दिया गया था । जम्मू कश्मीर पूर्वोतर, अंडमान निकोबार द्वीप समूह और लक्ष्यद्वीप को इससे अलग रखा गया । प्रस्तावित जैव इंर्धन नीति में जटरीफा और अन्य अखाद्य तिलहनों का न्यूनतम मूल्य तय करने का प्रावधान भी होगा । विशेषज्ञों का कहना है कि जैव इंर्धन की फसलों का चयन सावधानीपूर्वक करना होगा और किसानों को उनकी उपज का पर्याप्त् मूल्य दिलाने के उपया करने होंगे । उनका कहना है कि बिना सुरक्षा उपाय किये इस नीति को लागू करने के गंभीर परिणाम आ सकते है और यह देश को एक नये खाद्यान्न एवं पर्यावरणीय संकट की ओर धकेल सकती है । एक अनुमान के अनुसार अगले बीस वर्ष में विश्व की कुल ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिये २० प्रतिशत हिस्सा जैव इंर्धन का होगा । पिछले वर्ष अमरीका में मक्का के कुल उत्पादन का एक तिहाई हिस्सा जैव इंर्धन बनाने में इस्तेमाल किया गया । इसी तरह से ब्राजील में गन्ने के कुल उत्पादन का ५५ प्रतिशत हिस्सा इथेनाल बनाने में इस्तेमाल होता है । इसके अलावा चीन और ब्राजील में लगभग पांच करोड़ एकड़ भूमि पर मक्का की फसल उगाई जा रहीं है जिसका इस्तेमाल जैव इंर्धन के लिए होना है । यूरोपीय संघ ने तय किया है कि वर्ष २०२० तक इस्तेमाल होने वाले कुल इंर्धन का १० प्रतिशत हिस्सा जैव इंर्धन होगा । विशेषज्ञों का कहना है कि स्थानीय स्तर पर वनों को काटने पर कार्बन सोखने की क्षमता घटेगी जो जैव इंर्धन का इस्तेमाल करने से होने वाले लाभ को कम या बेअसर कर सकती है । उनका मानना है कि केवल बंजर जमीन पर जैव इंर्धन की फसलों को मंजुरी दी जानी चाहिए । एक अनुमान के अनुसार भारत प्रति वर्ष दो करोड़ टन तेल के बराबर जैव इंर्धन का उत्पादन कर सकता हैं । इसे हासिल करने के लिये भारत को दो करोड़ हेक्टेयर बंजर जमीन का इस्तेमाल जैव इंर्धन की फसलों के लिये करना होगा। मध्यप्रदेेश में जट्रोफा की व्यावसायिक खेती की जा रही है । सरकार का दावा है कि ऊर्जा फसलों के लिये बंजर भूमि का इस्तेमाल किया जा रहा है । आंधप्रदेश उत्तरप्रदेश, दिल्ली, गोवा, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में जैव इंर्धन मिश्रित पेट्रोल और डीजल की बिक्री शुरू कर दी गयी है। फिलहाल पेट्रोल और डीजल में पांच प्रतिशत इथेनाल मिलाया जा रहा है । देश में इथेनाल मुख्य रूप से गन्ने से बनाया जा रहा है । सरकार का दावा है कि इससे एक ओर जहां किसानों की आय बढ़ेगी वहीं दूसरी ओर बढ़ते तापमान को काबू में लाया जा सकेगा । बायोडीजल के लिए जट्रोफा की खेती पर जोर दिया जा रहा है । इथेनाल उत्पादन में भारत का विश्व में चौथा स्थान है । हालांकि देश में इथेनाल के उत्पादन की पूरी क्षमताआें का दोहन नहीं किया जा रहा है । जानकारों का कहना है कि ऊर्जा फसलों को उगाने में सावधानी बरतने और समन्वय बनाये रखने की जरूरत है । इन फसलों को वन क्षेत्रों और खाद्यान्न पर वरीयता नहीं दी जानी चाहिए । हालांकि जैव इंर्धन से तापमान नियंत्रित करने में मदद मिलेगी लेकिन पूरा विकल्प नहीं है । यदि इसे ठीक तरीके से लागू नहीं किया गया तो यह ऐसी गंभीर समस्याएं पैदा कर सकता जो वैश्चिक तापमान से कहीं ज्यादा खतरनाक होंगी ।
बंजर धरती करे पुकारवृक्ष लगाओ करो श्रृंगार

११ कविता

११
कविता
वृक्षदेव
प्रेमवल्लभ पुरोहित राही
बरसों पुराना बुजुर्गोंा का पाला पोसाघनी छांव से लद्-गद बटरोहीघसियारी दीदीऔर परिंदों काअपनेपन का रिस्तावह, विशालकाय वृक्ष देव उन लोगों नेनिर्ममता से काट डालाजो केवल आदमी जैसे हं ।हां तभी सेपेडों की घनेरी छायादुपहरी धूप लगतीफल कषैलेघर में सांसरूकी - रूकी सी लगती है ।
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बंदूक साथ में रखकर छात्रों को पढ़ाएेंगें

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ज्ञान विज्ञान
बंदूक साथ में रखकर छात्रों को पढ़ाएेंगें
शायद ही किसी ने सोचा हो कि गुरू को ईवर का दर्जा देनेे वाले सामाजिक मूल्यों में इस कदर गिरावट आएगी कि शिक्षकों को बंदूक साथ रखकर शिष्यों को पढ़ाना पड़ेगा । इस कड़वी सच्चई की शुरूआत उस अमेरिकी समाज में देखने को मिलेगी जो सारी दुनिया को पश्चिम की आधुनिक और व्यवस्थित जीवनशैली सिखाने का दावा ताल ठोंककर करता है । अमेरिका में टेक्सास के डिस्ट्रिक्ट स्कूल के शिक्षकों को छात्रों से सुरक्षित रहने के लिए बंदूक रखने की अनुमति दी गई है । यहां के हेराल्ड इंडिपेंडेट स्कूल डिस्ट्रिक्ट के अधीक्षक डेविड थ्वेट ने बताया कि स्कूल के शिक्षक कक्षा में बंदूक रख कर छात्रों को पढ़ा सकेंगें । स्कूल के पहले बोर्ड ने आम राय से इस योजना को अमलीजामा पहनाने की मंजूरी दे दी है । साथ ही अभिभावकों ने भी इस पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई है । श्री थ्वेट ने कहा कि आखिकार यह सुरक्षा का मामला है इस पर कोई कोताही नहीं बरती जा सकती । बकौल श्री थ्वेट शायद यह दुनिया का पहला स्कूल होगा जिसमें शिक्षक बंदूक के साए में शिष्यों को ज्ञान का पाठ पढ़ाएेंगें । गौरतलब है कि अमेरिका में हाल ही में छात्रों द्वारा शिक्षण संस्थानों में गोलीबारी किए जाने की वारदातों के बाद पिछले कुछ समय से शिक्षकों और छात्रों को लायसेंसशुदा हथियार साथ रखने की अनुमति देने की मांग उठ रही थी ।
२९ हजार टन कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन कम होगा
यदि कोई १ साल में २९००० टन कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन कम करे, जो ५००० कारों के धुएं के बराबर है तो यह पर्यावरण को कितना लाभ पहुंचाएगा । यहां कीएक सॉफ्टवेयर कम्पनी ने पिछले एक साल में यह अनूठा काम किया है । इसे देखते हुए एवीएसी लि. ने कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को रोकने के लिए १० लाख डॉलर का निवेश किया है । यह निवेश यूजरफुल कॉर्पोरेशन में किया जा रहा है, जिसने यह कार्य किया है । यह कार्य एक सॉफ्टवेयर के जरिए किया जा रहा है । यूजरफूल कॉर्पोरेशन के अध्यक्ष टिम ग्रिफिन के मुताबिक यह सॉफ्टवेयर करीब ३०००० सरकारी और निजी कम्प्यूटरों में लगाया गया है । यूजरफुल एक वेब सर्विस है और यह यूजर को कम्प्यूटर प्रबंधन में मदद करती है । साथ ही इससे वे हार्डवेयर का भी लाभ ले सकते हैं । केवल इस एक कम्प्यूटर की मदद से वे १० स्वतंत्र वर्कस्टेशन भी बना सकते हैं। इससे बिजली के बिल में भी कटौती जी का सकेगी और हार्डवेयर वेस्ट (कचरा) को भी ८० फीसदी तक कम किया जा सकेगा। एवीएसी के वरिष्ठ निवेश प्रबंधक जैक्स ला पोंटी ने बताया कि यूजरफुल के कार्य की पहुँच पूरी दुनिया में करने के लिए एवीएसी लि. ने इसमें १० लाख डॉलर का निवेश किया है। यूजरफुल के सॉफ्टवेयर कार्यक्रम ग्रीन कम्प्यूटिंग ( पर्यावरण हितैषी) के रूप में दुनियारभर में मानक कायम कर रहा है । जहां तक निवेश पर राजस्व मिलने की बात है तो कंपनी को दुनिया में उपलब्ध अवसरों की वजह से आसानी से मिलेगा । ग्रिफिन के अनुसार एवीएसी के निवेश की मदद से यूजरफुल नए लोगों को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकेगी और अपनी बिक्री को भी बढ़ा लेगी । वे कहते हैं कि हमारे पास एक बेहतरीन उत्पाद है । एवीएसी ने अलबर्टा की कंपनियों की भी मदद की है, जाकि वे अपनी क्षमताएँ बढ़ा सकें दरअसल , थर्ड पाटी्र निवेशको की ओर से नई कंपनिायें को ज्यादा ाध्न नहीं मिल पाता है ।एवीएसी के अध्यक्ष व सीईओ रॉस ब्रिकर का कहना है कि हमारी कंपनी संरक्षण, मार्केटिंग और कामकाजी मदद भी यहां की कंपनियों को देती रही है ।इसके कुछ फायदे इस प्रकार हैं :* यूजरफुल की मदद से यूजर सेंट्रल वेबसाइट से डेस्कटॉप को नियत्रित और प्रबंधित कर सकेगा ।* इसके अलावा यूजरफुल से एडमिनिस्ट्रेटिव टूल्स, लायसेंस की भी परेशानी खत्म होगी । आम व्यक्ति भी वेब ब्राउसर से डेस्कटॉप को नियंत्रित कर सकेगा , विशेषज्ञ की जरूरत नहीं होगी ।* यूजरफुल को अपनाने से संगठन या कंपनियों की डेस्कटॉप लागत में करीब ५० फीसदी तक की कटौती की जा सकती है ।* दुनिया के एक प्रतिशत सॉफ्टवेयर भी इस तकनीक को अपनाते हैं तो यह २ करोड़ ६० लाख कारों के प्रदूषण को खत्म करने के बराबर होगा ।
फसलों पर ग्रीन हाउस का असर
करोड़ों लोग भोजन के लिए पौधों पर ही आश्रित रहते हैं । जलवायु परिवर्तन का एक असर यह भी देखा जा रहा है कि फसलें अब कम पौष्टिक होती जा रही है । यह निष्कर्ष उन ४० अध्ययनों के विश्लेषण से निकला है जो वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड बढ़ने से फसलों पर होने वाले असर को देखने के लिए किए गए थे । ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बाढ़ों में तो बढ़ोतरी हुई ही, साथ ही अनावृष्टि व सूखे की परेशानियां भी बढ़ी हैं । इसके कारण गरीब देशों का सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ है । ऊपर से यदि फसलों की पौष्टिकता कम जोती है तो गरीब देशों के लोगों पर दोहरी मार पड़ेगी । पूर्व में किए प्रयोगों के आंकड़ों में बहुत विविधता थी और इस आधार पर कुछ भी कहना मुश्किल था । अब इस तरह के प्रयोग करने की नई तकनीकें विकसित हुई हैं और ज़्यादा विश्वसनीय परिणाम मिलने लगे हैं । इन प्रयोगों में यह देखा जा रहा है कि वायुमंडल में गैसों की मात्राएं घटने - बढ़ने से फसल की उपज और गुणवत्ता पर क्या असर होते हैं । डेनियल टॉब और उनके साथियों ने मिलकर करीब दो दशकों के शोध कार्य के आधार पर कुछ डरावने परिणाम प्रस्तुत किए हैं । इनसे पता चलता है कि जब कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा अधिक रहती है तब गेहूँ , बाजरा, चावल और आलू में प्रोटीन का स्तर लगभग १५ प्रतिशत कम हो जाता है । इस बदलाव का कारण यह है जिब पौधों को कार्बन की ज्यादा मात्रा मिलती है तब वे प्रोटीन की जगह ज़्यादा कार्बोहाइड्रेट बनाने लगते हैं। फसलों में प्रोटीन घटने का असर विकासशील देशों के लोगों के पोषण पर होगा । संपन्न राष्ट्रों के लोग तो प्रोटीन की पूर्ति मांस-मछली के उपभोग से करते हैं, लेकिन लगभग ३० गरीब राष्ट्रों के लोग प्रोटीन के लिए फसलों पर ही निर्भर करते हैं । जैसे बांग्लादेश के करीब ८० प्रतिशत लोग प्रोटीन के लिए फसलों पर निर्भर हैं । ***

बुधवार, 17 सितंबर 2008

१३ पर्यावरण समाचार

१३
पर्यावरण समाचार
देश का पहला एनर्जी पार्क भोपाल में बनेगा
म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने कहा है कि प्रदेश का पहला एनर्जी पार्क भोपाल में स्थापित होगा । पार्क के लिये भूमि का चयन शीघ्र किया जायेगा । उन्होंने कहा कि ऊर्जा संरक्षण के लिये राज्य स्तरीय डिमाण्ड साईड मेनेजमेण्ट (डीएसएम) सेल की शीघ्र स्थापना की जायेगी । ऊर्जा संरक्षण का काय करने वाली इकाई को विशेष पुरस्कार मिलेगा । श्री चौहान पिछले दिनों भोपाल में रिन्यूऐबल एनर्जी पॉवर प्रोजेक्ट पर केन्द्रित एक दिवसीय सेमिनार को संबोधित कर रहे थे । मध्यप्रदेश ऊर्जा विकास निगम द्वारा आयोजित इस सेमीनार की अध्यक्षता ऊर्जा मंत्री डॉ. गौरीशंकर शैजवार ने की। मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि राज्य सरकार वैकल्पिक ऊर्जा के स्त्रोतों का दोहन करने के साथ ही ऊर्जा संरक्षण के लिये कटिबद्ध है । उन्होंने कहा कि पारम्परिक ऊर्जा स्त्रोतों के साथ ही गैर पारम्परिक स्त्रोतों से विद्युत उत्पादन के इच्छुक निवेशकों का प्रदेश में स्वागत है। मुख्यमंत्री ने सेमीनार में आये निवेशकों को आश्वस्त किया कि अक्षय ऊर्जा आधारित परियोजनाआें को राज्य सरकार वांछित सुविधाएं उपलब्ध करायेगी । मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि आदिवासियों के घरों को सौर ऊर्जा से रोशन करने के लिये हितग्राही के १५ प्रतिशत अंशदान को राज्य सरकार द्वारा वहन किया जायेगा । उन्होंने सोलर लालटेन और सोलर कुकर के क्रय पर १००० रूपये की अनुदान राशि देने की भी घोषण की । श्री चौहान ने १५ से २५ घनमीटर के बायोगैस संयंत्रों पर प्रति घनमीटर २५०० रूपये की अनुदान और सौर ऊर्जा आधारित १००० लीटर क्षमता के गरम जल संयंत्रों की स्थापना पर ४५०० रूपयों की प्रोत्साहन राशि दिये जाने की भी घोषणा की । मुख्यमंत्री श्री चौहान ने बायोमॉस आधारित परियोजनाआें को बढ़ावा देनेे के लिये पानी की उपलब्धता में राज्य सरकार द्वारा सहयोग करने की बात कही। श्री चौहान ने ३३ के.व्ही. सब स्टेशन से तकनीकी क्षमता अनुसार पॉवर एव्यूकेशन की अनुमति देने और पर्यावरण क्लीयरेंस की प्रकिय्रा को सरल बनाने की भी सहमति दी । मुख्यमंत्री श्री चौहान ने प्रदेश में सौर ऊर्जा पर आधारित परियोजनाआें को बढ़ावा देने के उद्देश्य से विद्युत की दरों के निर्धारण के लिये राज्य सरकार द्वारा विद्युत नियामक आयोग के समक्ष प्रस्ताव भेजने की भी घोषण की । श्री चौहान ने ऊर्जा संरक्षण को व्यापक आधार देने के लिये शीघ्र ही शासकीय संस्थानों में गर्म पानी के सौर संयंत्रों की स्थाना को अनिवार्य करने की भी घोषणा की । श्री गौरीशंकर शैजवार ने कहा कि अक्षय ऊर्जा के क्षैत्र में प्रदेश में तेजी से काम हो रहा है । उन्होंने कहा कि अपरम्परागत ऊर्जा स्त्रोतों से ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देना समय की जरूरत है । ऊर्जा विकास निगम के अध्यक्ष दिलीपसिंह शेखावत ने कहा कि वैकल्पिक ऊर्जा के क्षैत्र में निगम द्वारा सम्पूर्ण प्रदेश में उल्लेखनीय उपलब्धियां प्राप्त् की गई हैं । उन्होंनंे बायोगैस से ऊर्जा उत्पादन की ३३५ मेगावाट क्षमता की परियोजनाआें का उल्लेख करते हुए कहा किदेश में पहली बार मध्यप्रदेश में सौर ऊर्जा आधारित विद्युत परियोजनाएं स्थापित होने जा रही हैं । श्री शेखावत ने कहा कि पिछले साढ़े चार साल में ३० हजार आदिवासी एवं पिछड़ा वर्ग परिवारों के घरों को सौर ऊर्जा से रोशन किया गया है ।
म.प्र. माध्यम के प्रबंध संचालक मनोजश्रीवास्तव पुरस्कृत मध्यप्रदेश माध्यम की दो फिल्मों को नई दिल्ली में ५४ वें राष्ट्रीय फिल्म समारोह में राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने तीन पुरस्कार प्रदान किये । राष्ट्रपति श्रीमती पाटिल ने मध्यप्रदेश माध्यम के प्रबंधक संचालक मनोज श्रीवास्तव को प्रोड्यूसर क रूप में मध्यप्रदेश के पर्यटन पर आधारित फिल्म रेंडेवू विथ टाइम को बेस्ट प्रमोशनल फिल्म की श्रेणी में रजत कमल एवं ५० हजार रूपये का नगद पुरस्कार तथा फिल्म के निर्देशक राजेंद्र जांगले को रजत कमल एवं ५० हजार रूपये का नगद पुरस्कार प्रदान किया । इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति श्रीमती पाटिल ने मध्यप्रदेश की जीवन रेखा नर्मदा पर आधारित दूसरी फिल्म रागा रिवर नर्मदा के लिए राजेंद्र जांगले एवं संज विजयवर्गीय को उत्कृष्ट छायांकन के लिए रजत कमल एवं ५० हजार रूपये का नगद पुरस्कार प्रदान किया । इस फिल्म के लिए प्रसिद्ध ध््राुपद गायक रमाकांत गुंदेचा एवं उमाकांत गुंदेचा को बेस्ट म्यूजिक डायरेक्शन के लिए रजत कमल एवं ५० हजार रूपये का नगद पुरस्कार प्रदान किया गया ।***