गुरुवार, 22 मार्च 2012

लिंगानुपात में पिछड़ता भारत

प्रसंंगवश लिंग अनुपात के मामले में भारत अपने पड़ोसी देशों व दुनिया के कई बड़े देशों से पिछड़ गया है । भारत में प्रति १००० पुरूषों पर ९४० महिलाएं हैं । आजादी के समय यह अनुपात ९४४ था । पड़ोसी देशों में नेपाल में प्रति १००० पुरूषों पर १०४१महिलाएं हैं । इंडोनेशिया में १०००/१००४ और चीन में १०००/९४४ का अनुपात है । पाकिस्तान भी लिंग अनुपात में ९३८ के आंकड़े के साथ भारत की बराबर पर पहुंच रहा है ।
वर्ल्डफेक्ट बुक की रिपोर्ट बताती है कि एशिया ही नहीं ज्यादा आबादी वाले अन्य कई देशों में लिंग अनुपात भारत से अधिक है । अधिकांश विकसित देशों में तो महिलाआें की तादाद पुरूषों से अधिक दर्ज की गई है ।
भारत में मौजूद मुख्य धार्मिक समुदायों को आधार मान कर गणना करने से पता चलता है कि ईसाई संप्रदाय में लिंग अनुपात सबसे अधिक है । दूसरे नंबर पर मुस्लिम व तीसरे पर हिन्दू हैं । लिंग अनुपात के लिए ०-६ वर्ष के बच्चें की गणना की गई । इस आधार पर ईसाई संप्रदाय में लिंग अनुपात ९६४ है, लेकिन यह समूह देश की कुल आबादी का महज २.३ प्रतिशत है । मुस्लिमों में समुदाय में स्थिति राष्ट्रीय औसत से बेहतर है । पिछली जनगणना के मुताबिक इस समुदाय में प्रत्येक १००० पुरूषों पर ९५० महिलाएं हैं । वहीं सिख समुदाय में लिंग अनुपात सबसे कम ७८६ बताया गया है । जैन संप्रदाय में यह अनुपात ८७० है । देश की ८०.५ प्रतिशत आबादी हिन्दुआें की है और इस समुदाय का लिंग अनुपात ९२५ है ।
देश लिंग अनुपात
नेपाल १०४१
इंडोनेशिया १००४
चीन ९४४
ब्राजील १०२५
अमेरिका १०२९
रूस ११४०
जापान १०४१
नाइजीरिया १०१६
फ्रांस १०४१
वियतनाम १०२०
इजरायल १०००
वर्ल्ड फेक्टबुक द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि समूचे विश्व में औसतन प्रत्येक १००० पुरूषों पर ९९० महिलाएं हैं । वैश्विक औसत भारत की औसत लिंग अनुपात की तुलना में काफी अधिक है । इस रिपोर्ट के मुताबिक ब्राजील, अमेरिका, रूस, जापान, नाईजीरिया, फ्रांस वियतनाम व इजरायल जैसे देशों में लिंग अनुपात भारत से अधिक है।
गणेश भट्ट, नईदिल्ली
बाएं झुककर देखने से दुनिया छोटी लगती है

संपादकीय यदि कोई चीज आपको छोटी नजर आती है, तो कोई निर्णय करने से पहले अपनी स्थिति पर गौर कर लें । ऐसा पाया गया है कि बाइंर् ओर झुककर खड़े रहने पर हर चीज को छोटा करके देखने की प्रवृति होती है । बात चाहे किसी इमारत की ऊंचाई की हो या सचिन तेंदुलकर के औसत स्कोर की ।
उपरोक्त दिलचस्प निष्कर्ष नीदरलैण्ड के इरेस्मस विश्वविद्यालय की अनीता ईरलैण्ड और उनके साथियों ने एक अध्ययन के आधार पर प्रस्तुत किए हैं। वे यह जानना चाहती थीं कि क्या मूल्य निर्धारण में व्यक्ति के शरीर की स्थिति का कोई असर पड़ता है । तो उन्होंने ३३ व्यक्तियों से कहा कि वे एक तख्ते पर खड़े होकर किसी सवाल के संख्यात्मक जवाब की गणनाकरें ।
एक-तिहाई सवाल पूछते समय ये ३३ वालंयिटर एकदम सीधे खड़े थे । मगर शेष सवाल पूछते समय तख्ते को कुछ इस ढंग से झुका दिया गया था कि उन्हें सवाल को सही पढ़ने के लिए थोड़ा बाएं या दाएं झुककर खड़े होना पड़ता था ।
एक तो यह देखा गया कि किसी भी सहभागी को किसी भी सवाल का एकदम सही उत्तर नहीं मिला था । अत: उनके उत्तरों को अनुमान माना गया । जब ईरलैण्ड के दल ने उत्तरों का विश्लेषण किया तो पाया कि जब व्यक्ति बाइंर् ओर झुककर खड़ा होता है, तो वह औसतन थोड़ा कम अनुमान लगाता है । ये परिणाम सायकॉलॉजिकल साइन्स शोध पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं ।
यह परिणाम मानसिक संख्या रेखा सिद्धांत से मेल खाता है कि हमारे दिमाग में एक संख्या रेखा मौजूद होती है । जो लोग बाएं से दाएं पढ़ने के आदी होते हैं, उनमें यह प्रवृति होती है कि वे छोटी संख्या को बाइंर् ओर तथा बड़ी संख्या को दाइंर् ओर मानते हैं । अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या यही प्रयोग दाएं से बाएं पढ़ने वाले लोगों पर किया जाए, तो नतीजे कुछ अलग आएंगे । शायद जल्दी ही कोई शोधकर्ता वैसा प्रयोग भी कर लेगा । हमारे लिये यह जानना नि:संदेह रोचक होगा ।

सामयिक

खाद्य सुरक्षा बनाम सुरक्षित खाद्य
वीरेन्द्र पैन्यूली

खाद्यान्न सुरक्षा का आधार महज खाद्यान्नों की आपूर्ति नहीं हो सकता । आवश्यकता इस बात की है कि हमें मिलने वाला अनाज सुरक्षित भी हो । मिलावट व अल्प उपलब्धता की वजह से मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है ।
खाद्य सुरक्षा का मुद्दा अब एक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है । जब हम खाद्य सुरक्षा के मसले को स्वच्छ पेयजल से या इंर्धन से जो खाना पकाने के लिए काम में आता है अथवा उचित सफाई से जोड़ते है तो लगता है कि इस दिशा में अभी बहुत काम करना बाकी है । दुनिया में करीब एक अरब ऐसे लोग हैं, जिनको साफ पेयजल उपलब्ध नहीं है व २ अरब लोगों को उचित शौचालय जल निकासी आदि की व्यवस्था एवं साफ इंर्धन उपलब्ध नहीं है । जिन्हें सब सुविधाएं उपलब्ध भी हैं, उन्हें इसकी अधिक कीमत देना पड़ती हैं । आज पूरे विश्व में स्थाई रोजगार ने ले ली है तो कई नए लोग उन करोड़ों लोगों के संख्या में जुड़ जाते हैं जो छुपी भूख अर्थात कुपोषण से ग्रसित रहते हैं ।
पानी तो कई जगह दूध से ज्यादा महंगा हो रहा है और दूध की बात करें तो मौत के सौदागर उसे घातक रसायनों से बना रहे हैं । सन् १९९८ में ही पश्चिमी उत्तरप्रदेश में सोलह जिलों में करीब एक करोड़ लीटर कृत्रिम विषैला दूध तैयार होता था । इसी से जुड़ा सवाल खाद्यान्नों, मसालों आदि में घातक मिलावट का भी है । कहने का अर्थ है कि हम जो खा रहे है उससे हमारा जीवन सुरक्षित भी है कि नहीं ? इस बात से भी यह तय होगा कि हम खाद्य सुरक्षा के दायरे में हैं कि नहीं । बढ़ते भ्रष्टाचार व घटते उपभोक्ता संरक्षण की वजह से भी हम मात्रात्मक खाद्य सुरक्षा की परिभाषा में होते हुए भी वास्तव में खाद्य असुरक्षा की ओर जा रहे हैं ।
नि:संदेह उत्पादित कुल खाद्यान्न भी खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए जरूरी है परंतु इसे एकमात्र व पर्याप्त् कारक नहीं माना जा सकता है । मान लीजिए खंतों में खूब उगा भी लिया है परंतु यदि उनके भंडारण की व्यवस्था पारिवारिक स्तर पर, सामुदायिक स्तर पर या राज्य या राष्ट्र स्तर पर भी न हो तो भी खाद्य असुरक्षा का दंश सभी को झेलना पड़ सकता है । उड़ीसा में जहां अकाल से मौतें होती हैं, वहीं का समाचार है कि यहां विषाक्त आम की गुठलियों के खाने से भी लोगों की मौतें हुई हैं । जब किसानों ने २००१ में भारी मात्रा में धान उगाया, तो उन्हें सन् २००२ के मध्य तक न तो धान का कोई खरीददार नहीं मिला ना ही भंडारण की कोई व्यवस्था मिली । यहां तक मांग कर डाली कि उन्हें पानी, बिजली के बिल, बच्चें की फीस धान के रूप में दिये जाने की अनुमति दी जाए ।
इससे खाद्य सुरक्षा के संदर्भ मेंदो बातें और भी साफ हो जाती है कि जैसे किसान जब धान के द्वारा बिजली का बिल, बच्चें की फीस आदि के भुगतान की बात कर रहे थे तो सरकार इसे मानने में दिक्कत का अनुभव कर रही हे क्योंकि उसके अनुसार पैसों का काम तो पैसों से ही चलेगा । उसी तरह से जब वह भी काम के बदले अनाज देती है तो उससे भी गरीबों की जरूरतें पूरी नहीं होती हैं । इसी क्रम में गांवों में ही अनाज बैंक बनाकर खाद्य सुरक्षा की रणनीति को लागू करना एक तरफ जहां आवश्यक लग रहा है, वहीं ढांचागत व्यवस्थाआें की कमी होने से इस योजना का लागू करना आसान नहीं होगा ।
आज स्थिति यह हो गई है कि किसान कर्जे लेकर महंगे बीजों और उर्वरकों का उपयोग कर जो फसल उगा रहा है, उसकी बिक्री न होने से या कर्जो को न चुका पाने के कारण जगह-जगह आत्महत्याएं कर रहा है । आंध्र, कर्नाटक, गुजरात में मूंगफली, कपास व अन्य नगदी फसल उगाने वाले किसानों को अच्छी फसलों को उगाने के बाद भी अपने कर्ज को लौटाने के लिए परिवार की जमीनें, गहने आदि बेचने पड़े । यह स्थिति तब है जब खुले विश्व व्यापार व्यवस्था के अन्तर्गत भारत मेंअभी विदेशी अनाज नहीं बिक रहा है । यदि यह क्रमभी शुरू हो जाएगा तब तो अनाज उगाने वाले के घर में ही चूल्हा जलाना मुश्किल हो जायेगा ।
अत: यदि किसी देश में खाद्य सुरक्षा लाना है तो केवल ज्यादा अनाज उगाना ही पर्याप्त् नहीं होगा, परन्तु कभी-कभी अमेरिका जैसे देशों की तरह ऐसे भी निर्णय लेने पड़ेगे कि किसानों को खेतों में कुछ न उगाने के लिए भी धन देना होगा । परन्तु शायद यह अमेरिका जैसा शक्तिशाली और धनी देश ही कर सकता है जो भारत में किसानों को दस डॉलर तक की सब्सिडी देने तक का विरोध करता है और स्वयं अपने किसानों को विभिन्न मदों में लगभग एक हजार डॉलर तक की सब्सिडी दे रहा है ।
जो भी हो तथ्य यही है कि भारत का अन्नदाता किसान आज राशन की दुकान में खड़े होने की स्थिति में आ गया है । अभी तो हरित क्रांति मार देगी । बीजों का पेटेन्ट उसे मार देगा व ऐसे बीजों का प्रचलन भी उसे मार देगा जिन्हें वह एक फसल के बाद अगले फसल के लिए नहीं रख पाएगा । उसे बिजली, पानी, भण्डारण का किराया भी मार देगा । कुल मिलाकर खेतों को खेती के लिए उपयोग करने के बजाए, उसे उन्हें बेचना ज्यादा लाभदायक लगेगा । इससे खेती की जमीन में आई कमी देर सबेर बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्य सुरक्षा देना एक मुश्किल काम बना देगी । तब ऐसे लागों की बन आयेगी, जो कहते हैं कि भविष्य की खाद्यान्न सुरक्षा ऐसे बीजों से ही लाई जा सकेगी, जिन्हें जीन टेक्नोलॉजी का उपयोग कर मनचाहे गुणों वाला गैर प्राकृतिक तरीके से प्रयोगशालाआें में बनाये जायेंगे । ऐसी खाद्य क्या सुरक्षित होगी, यह भी बड़ा सवाल है ?

हमारा भूमण्डल

भारत में एण्डोसल्फान पर प्रतिबंध
डॉ एस. एज़हिल वेंदान

एण्डोसल्फान एक कार्बनिक -क्लोरीन कीटनाशक है जिसका उपयोग कई खाद्य फसलों और नगदी फसलों में किया जाता है । यह पानी में आसानी से नहीं घुलता । धूप में तो यह आसानी से विघटित हो जाता है, मगर छाया में या नम स्थान में यह मिट्टी के कणों से चिपक जाता है और इसे विघटित होने में बहुत समय लगता है । एण्डोसल्फान एक तंत्रिकाविष है और हल्के सिरदर्द से लेकर गंभीर विषाक्तता तक उत्पन्न करता हे । इससे संपर्क का परिणाम मौत भी हो सकता है, जो इसकी मात्रा व अन्य कारकोंपर निर्भर है ।
यूएस पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी ने एण्डोसल्फान को अत्यन्त विषैला पदार्थ के रूप में वर्गीकृत किया है । जन्तुआें पर कुदरती पर्यावरण में किए गए प्रयोगों में एण्डोसल्फान का कैंसरकारी खतरा साबित हुआ है । अलबत्ता, मनुष्यों में इसके कैंसरकारी गुण का कोई प्रमाण नहीं है ।
एण्डोसल्फान को ७५ से ज्यादा देशों में प्रतिबंधित किया गया है । अर्जेटाइना, पेरू और चिली जैसे देशों में एण्डोसल्फान पर प्रतिबंध के बाद वैकल्पिक कीटनाशकों की मांग में वृद्धि हुई है । हाल में, एण्डोसल्फान पॉइजनिंग की रिपोट्र्स और राजनैतिक दबाव के चलते भारत में एण्डोसल्फान पर प्रतिबंध के लिए काफी हंगामा मचा था ।
कीटनाशक हानिकारक कीटोंके खिलाफ कारगर हथियार हैं मगर ये कभी-कभी गैर-लक्षित या गैर हानिकारक और लाभदायक जीवों को भी प्रभावित करते हैं । कई बार ये हवा, पानी या मिट्टी में बने रहते हैं । अधिकांश संश्लेषित रासायनिक कीटनाशक पर्यावरण के लिए विभिन्न स्तरों तक विषैले होते हैं । सजीवों पर कीटनाशकों के विषैले असर संपर्क के तरीके, मात्रा, संपर्क की अवधि और व्यक्तिगत गुणधर्मोपर निर्भर करते हैं । कृषि में प्रयुक्त कीटनाशकों से संपर्क मूलत: भोजन व संदूषित पेयजल के जरिए होता है । असुरक्षित ढंग से इस्तेमाल, त्वचा से सीधे संपर्क और सांस के जरिए किसानोंका कीटनाशकों से संपर्क होने की संभावना ज्यादा होती है ।
१९५० से लेकर आज तक मानव आबादी बढ़ने के साथ विश्व स्तर पर कीटनाशकों का उपयोग ५० गुना बढ़ गया है । निम्नलिखित कीटनाशकों की वजह से देश के विभिन्न भागों में १९५८-२००२ के बीच कई दुघटनाएं हुई हैं : पेराथियोन, बीएचसी, एण्ड्रिन, डीडीटी, डाएजिओन, एल्युमिनियम फॉस्फाइड, मिथाइल आइसोसायनेट, कार्टेप हायड्रोक्लोराइड, फोरेट और एण्डोसल्फान । इनमें से डीडीटी, डाएजिओन, एल्युमिनियम फॉस्फाइड, मिथाइल आइसोसायनेट, कार्टेप हायड्रोक्लोराइड, फोरेट और एण्डोसल्फान पर अब तक प्रतिबंध नहीं लगा है ।
पूर्व में केरल में एण्डोसल्फान पर प्रतिबंध लगा था और हाल में बिहार में इस पर प्रतिबंध लगाया गया है । भारत में कीटनाशक कानून (१९६८) के सेक्शन ९(३) के तहत २१७ कीटनाशकों का पंजीयन है, जबकि ६५ तकनीकी दर्जे के कीटनाशकों का उत्पादन देश में ही होता है ।
दुनिया भर में भारत एण्डोसल्फान का सबसे बड़ा निर्माता है । भारत में इसका उपयोग भी सबसे ज्यादा होता है । भारत में कृषि वैज्ञानिक आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण तमाम कीटों के नियंत्रण के लिए एण्डोसल्फान के उपयोग की सलाह देते हैं : जैसे अमरीकन बोलवर्म (हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा), एशियन आर्मीवर्म (स्पोडोप्टेरा लिटुरा) । अकेले अमरीकन बोलवर्म ने भारत में ५००० करोड़ रूपए की फसलों का नुकसान किया है । फिलहाल देश में विभिन्न फसलों की रक्षा के लिए एण्डोसल्फान ही सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाना वाला कीटनाशक है ।
कीट प्रबंधन के संदर्भ में कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोधी कीट सबसे प्रमुख समस्या रहे हैं । अधिकांश पोलीफैगसकीटों में सामान्यत: उपयोग किए जाने अधिकांश कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित हो गया है । इनमें अमरीकन बोलवर्म और एशियन आर्मीवर्म शामिल हैं । प्रतिरोध पैदा हो जाने के चलते कई सारे कीटनाशक नाकाम हो गए हैं । इस वजह से किसान अपने खेतों में इनकी ज्यादा से ज्यादा मात्रा डाल रहे हैं और एण्डोसल्फान जैसे अपेक्षाकृत ज्यादा विषैले कीटनाशकों का उपयोग कर रहे हैं ।
हानिकारक कीटों की आबादी को नियंत्रण में रखने, कीटनाशकों के विरूद्ध प्रतिरोध के विकास से बचने और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए आजकल एकीकृत कीट प्रबंधन रणनीति की सलाह दी जाती है । भारत में कई कृषि विश्वविद्यालय, स्वैच्छिक समूह, व एनजीओ एकीकृत कीट प्रबंधन, जैविक खेती और गैर-रासायनिक प्रबंधन कार्यक्रमों में शामिल हैं । ये किसानों में जागरूकता व प्रशिक्षण के कार्यक्रम भी चलाते हैं । भारत सरकार की फंडिंग संस्थाएं, जैसे भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद, विज्ञान व टेक्नॉलॉजी विभाग, जैव टेक्नॉलॉजी विभाग, और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग वैज्ञानिकों व स्वैच्छिक कार्यकर्ताआें को पर्यावरण मित्र खेती के कार्यक्रम चलाने के लिए वित्तीय सहायता दे रही हैं । इसके बावजूद, जानकारी के अभाव, निरक्षरता, गरीबी व प्रतिस्पर्धा के चलते किसान रासायनिक कीटनाशकों का अंधाधंुध उपयोग कर रहे हैं ।
भारत एक कृषि प्रधान विकासशील देश है । करीब ६०-७० प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं । एकीकृत कीट प्रबंधन या जैविक खेती पूरे देश में लागू नहीं किए जा रहे हैं । शायद ५-१० प्रतिशत किसान ही पर्यावरण-मित्र कीटनाशक प्रबंधन के तरीकों को अपनाते हैं । पर्यावरण मित्र कार्यक्रम बड़े किसानों के समान ही छोटे किसानों के लिए भी आकर्षक नहीं हैं क्योंकि इनमें मेहनत और हुनर की जरूरत होती है ।
विकासशील देशों में कीटनाशक छिड़काव के समय सुरक्षा हेतु विशेष पोशाकें न तो उपलब्ध है, न ही किसान व छिड़काव करने वाले मजदूर इनका खर्च वहन कर सकते हैं । आम तौर पर छिड़काव करने वाले लोग नंगे पैर ही छिड़काव का काम करते हैं । उनके पास चश्मे, दस्ताने, पूरी बांह के कमीज या रेस्पिरेटर जैसा कोई सुरक्षा उपाय नहीं होता है । इसके विपरीत विकसित देशों में किसान परिष्कृत सुरक्षा उपायों के साथ काम करते हैं ।
इसके अलावा समशीतोष्ण इलाकों में कीट की समस्या गर्म इलाकों की तुलना में कम होती है । बदकिस्मती से भारत की जलवायु गर्म है और फसलों पर कीटों का हमला ज्यादा होता है । कीटनाशक के मुद्दे को सुलझाने के लिए वैकल्पिक संसाधनों की तत्काल जरूरत है । भारत में जैविक कीटनाशकों और अन्य संसाधनों की मांग पहले ही बढ़ चुकी है । जर्मनी में जहां एण्डोसल्फान पर प्रतिबंध है, फसलों की सुरक्षा के वैकल्पिक तरीके उपलब्ध करा रहे हैं । मगर सवाल यह है कि क्या ये तरीके भारतीय परिस्थिति के लिए उपायुक्त हैं ।
भारत एण्डोसल्फान का प्रमुख उत्पादक, उपभोक्ता व निर्यातक है । जहां तक एण्डोसल्फान पर प्रतिबंध का सवाल है, निर्णय प्रक्रिया में चिकित्सा विशेषज्ञों, पर्यावरणविदों, समाज वैज्ञानिकों रणनीतिज्ञों की अपेक्षा कीट प्रबंधन विशेषज्ञ, खासकर कीट वैज्ञानिक अहम भूमिका निभाते हैं । जरूरत इस बात की है कि मैदानी स्तर पर अधिक संख्या में एकीकृत कीट प्रबंधन कृषक शालाएं खोली जाएं और जैविक खेती के कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाए । जिनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों का उपयोग करके हम कीटनाशक का उपयोग कम कर सकते हैं । अन्यथा एण्डोसल्फान पर प्रतिबंध खेती में दिक्कतें पैदा कर सकता है ।

महिला दिवस पर विशेष

माँ कभी नहीं थकती
भारत डोगरा

यह मत पूछो कि समाज ने तुम्हें क्या दिया बल्कि यह सोचो कि समाज को तुम क्या दे सकते हो । मेथी मां का जीवन इस विचार का सजीव उदाहरण है । उन्होंने गाँव के कल्याण तथा विकास में असाधारण योगदान दिया तथा सूचना का अधिकार, मनरेगा जैसे बड़े सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाई है ।
राजस्थान के जिला अजमेर में किशनगढ़ प्रखंड के अन्तर्गत खेड़ा गाँव में रहने वाली पैंसठ वर्र्षीय दलित महिला मेथी मां जब बहुत छोटी थी तभी उनके माता-पिता का देहांत हो गया । वे प्रवासी मजदूर थे जिनकी चम्बल नदी में डूबने से मृत्यु हो गई थी । माता-पिता की मृत्यु के बाद एक शराबी रिश्तेदार ने मेथी मां को चन्द रूपयों के लिए उम्रदराज व्यक्ति को सौंप दिया । उनका उम्रदराज पति एक दुर्घटना में इतनी बुरी तरह घायल हो गया कि उसके बाद कभी बिस्तर से उठ नहीं सका । मेथी ने इस विपत्ति की घड़ी में लंबे समय तक उसकी हर संभव देखभाल की ।
इन सब परेशानियों के बावजूद, मेथी जब बेयरफुट कॉलेज (समाज कार्य व अनुसंधान केंद्र, तिलोनिया) के कार्यकर्ताआें के संपर्क मेंआइंर् तो वह अपने गांव की सेवा के लिए तैयार थीं । उसने प्रसाविका (प्रसव में सहायिका दाई) का प्रशिक्षण लिया और जल्द ही काम में कुशलता हासिल कर ली । साथ ही उसने धुआँ-रहित चूल्हा बनाना भी सीख लिया और अपने गाँव के रसोईघरों में अनेक धुआँ-रहित चूल्हे स्थापित किए ।
मेथी के गांव में एक शराब का ठेका था जिसकी वजह से गांव की महिलाएं तथा बच्च्े बेहद परेशान थे । मेथी ने महिलाआें को एकजुट करके इस शराब के ठेके खिलाफ ऐसी मुहिम छेड़ी कि इसे गांव से बाहर निकाल कर ही दम लिया ।
गरीब परिवार की एक महिला को गाँव के एक दबंग परिवार ने डायन कहकर बहुत मारा-पीटा था । मेथी मां ने इस इस अन्याय के विरोध में गाँव वालों को एकजुट किया । जल्द ही उस दबंग परिवार ने माफी मांगी और उस गरीब महिला को दोषमुक्त घोषित किया गया । पंचायत चुनावों में दलित महिलाएँ प्राय: उन्हीं क्षेत्रों से विजयी होती थीं जहाँ उनके लिए सीट आरक्षित होती थीं लेकिन मेथी मां को इतना जनसमर्थन प्राप्त् था कि वे अनारक्षित सीट पर जीत सकीं ।
जब सेंटर समाज कार्य एवं अनुसंधान केंद्र ने सूचना का अधिकार (आर.टी.आई.) और नरेगा का महत्व बताया तो मेथी माँ ने बड़ी तत्परता के साथ दिल्ली, जयपुर, ब्यावर और उदयपुर में धरने तथा रैलियों में भाग लिया । मामला चाहे आग लगने पीड़ित अरामपुरा गांव के निवासियों की मदद का हो या फिर कालीडुंगड़िया गांव में हुए हमले में पड़ित व्यक्ति के लिए जयपुर फुट की व्यवस्था करने का, मेथी माँ किसी भी तरह के योगदान देने के लिए स्वयंसेविका के रूप में हमेशा तैयार रहती हैं ।
उन्हें अपनी असाधारण सफलताआें का तनिक भी गुमान नहीं है । वे बड़ी आसानी से कह जाती है - यह सब सेंटर (बेयरफुट कॉलेज) की मदद और मार्गदर्शन से संभव हुआ है । मेथी बाई कहती हैं वास्तव में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हर इंसान दूसरे इंसान के दु:ख को कम करने में अपना योगदान करे ।
८४ वर्षीय गाल्कू मां कई बच्चें की दादी-नानी हैं और अब तो वह परदादी-परनानी भी बन चुकी हैं । लेकिन इन सभी रिश्तों से ऊपरभी इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय छवि है माँ की । करीब तीस साल पहले किशनगढ़ प्रखंड के पानेर गाँव में महिला समूह के संगठन से जुडने के बाद उनके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया । वह खासकर अरूणा रॉय के मार्गदर्शन को याद करके उनके प्रति आभार व्यक्त करती हैं । उनके समूह की महिलाआें ने सेंटर से अपने गांव में एक शिशु देखभाल केंद्र स्थापित करने का निवेदन किया और सबकि राय-सहमति से गाल्कू मां को इस काम की जिम्मेदारी सौंपी गई ।
गाल्कू मां बताती हैं कि उन्हीं दिनों से पूरा संगठन सरकारी पदाधिकारी को किसी काम के लिए रिश्वत देने के सख्त खिलाफ था । संगठन में बार-बार यह सवाल भी उठाया जाता था कि महिलाआें को पुरूषों के मुकाबले कम वेतन-मजदूरी क्योंदी जाती है फिर न्यूनतम मजदूरी पाने के लिए एक लंबा संघर्ष चला जिसमेंपुरूषों ने भी महिलाआें का साथ दिया । लेकिन कई अन्य कार्यकर्ताआें के साथ-साथ उन्हें भी गांव के पुरूषों से रह-रहकर अपमान और कटाक्ष भरे तो कभी उपहास के शब्द सुनने को मिले । लेकिन गाल्कू और उनके साथी इसे नजरअंदाज करते हुए अपने काम में लगे रहे जिसके फलस्वरूप गांव मेंे महिलाआें के स्वास्थ्य तथा लड़कियों की शिक्षा के स्तर में सुधार होने लगा ।
कई अन्य स्थानों पर बलात्कार तथा शोषण की घटनाएं होने पर तो गाल्कू मां उन जगहों पर जाकर विरोध प्रदर्शन में भाग लेती और यथासंभव मदद करती थीं । जयपुर में आयोजित सूचना के अधिकार के एक धरने में वह लगातार ५३ दिनों तक शामिल रहीं । उनसे पूछा गया कि जब वे इन विरोध-प्रदर्शनों में शामिल होती थी तो क्या उन्हें डर नहीं लगता था, तो उन्होनें तपाक से कहा - जो चोरी और डकैती करते हैं, उन्हें डरना चाहिए । जो व्यक्ति न्याय के लिए लड़ता है उसे डरने की कोई जरूरत नहीं होती ।
गाल्कू मां ने वार्ड पंचायत का चुनाव लड़ा तो बड़े आराम से जीत गई । जरूरतमंद महिलाआें तथा बुजुर्गोंा के पेंशन तथा अन्य लाभप्रद योजनाआें के सही-सही लागू होने पर उन्होनें विशेष ध्यान दिया । उन्होंने यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि रोजगार प्रािप्त् में गरीबों को प्राथमिकता मिले और स्वयं नरेगा के कार्यस्थलोंपर जाकर निरीक्षण करतीं और व्याप्त् गड़बड़ियों का पता लगाती थी ।
आज से तीस साल पहले रामकरण जी के द्वारा सेंटर से संयोजित सात दिनों की एक कानून संबंधित प्रशिक्षण कार्यशाला में पिंगुन गांव, दुदु प्रखंड, जिला जयपुर की एक दलित महिला रूकमा मां ने भाग लिया था । तभी से पैंसठ वर्षीय रूकमा सामाजिक बदलाव के लिए महिलाआें को एकजुट करने में लगी हैं । जब गांव में महिला-समूह का निर्माण हो रहा था तो महिलाआें ने उन्हें प्रसाविक (दाई) के प्रशिक्षण के लिए चुना । एक कुशल प्रसाविका होने के नाते कई अन्य महिलाआें से करीबी संपर्क बनाने में उसे सहूलियत हुई ।
रूकमा एक बार न्यूनतम मजदूरी न मिलने के खिलाफ अनशन मेंशामिल होने भीम गई थी । कुछ दिनों तक अनशन के बाद पुलिस बलों ने उसे व उसके साथियों को जबरदस्ती धरना स्थल से हटा दिया । इस घटना के तुरन्त बाद ही वह एक दूसरे बड़े संघर्ष में शामिल हो गई । यह संघर्ष जमीदार के विरोध मेंथा जिसने उस जमीन पर कब्जा कर लिया था जिससे होकर बरसात का पानी तालाब में जाता था । इस जमींदार ने एक ऐसी दीवार खड़ी कर दी थी कि पानी की दिशा बदल गई और पानी तालाब की बजाए जमींदार के खेतों में जाने लगा था । इस वजह से गांववालों पर भारी विपत्ति आ गई । पदाधिकारियों द्वारा कार्यवाही न किए जाने पर उन्होनें महिलाआें को इकट्ठा किया जिसमें परिणामस्वरूप लगभग २५०० औरतें एकजुट हो गई और ५०० औरतें पदाधिकारी से मिलने गई । जब पदाधिकारियों से सहायता का आश्वासन मिला तो औरतों ने वापस गांव आकर पदाधिकारियों की मौजदूगी में बाधा बनी दीवार गिरा दी और बरसात का पानी पुन: तालाब में जाने लगा ।
रूकमा ने राजस्थान की रूपकंवर सती घटना के विरोध में भी बड़े पैमाने पर लोगों को संगठित किया । वह सूचना का अधिकार (आरटीआई) धरने के लिए लगातार ४० दिन ब्यावर में और ५३ दिन जयपुर में मौजूद रहीं । इस प्रकार के अनेक प्रेरणादायी उदाहरण हैं ।

विश्व वानिकी दिवस पर विशेष

वन घायल हैं डरी सी नदियाँ
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

जंगलों को पनपने में सदियाँ लग जाती हैं किन्तु जंगल काटने वाले उसे चंद दिनों में ही काट डालते हैं । जंगल चुपचाप कट जाता है । पहले जंगलों के प्रति आदमी के मन मेंआस्था रहती थी । वह जंगल के बीच जंगली बने रहकर भी जंगल का अमंगल करने की सोचता तक नहींथा । वह सदियों से इस तथ्य को जानता है कि जंगल भी जलचक्र के नियंता हैं । पादप अपने पादो से पानी पीते है और सूर्य ताप उन्हें पनपाता है । जंगलों से आदमी क्या कुछ नहीं पाता है । जंगल ही जल को सहेजते हैं । जंगल ही तो शिव जटारूप होते है जिनमें जल संचय की क्षमता है ।
जंगली परिस्थितियां ही पर्वतों की थाती हैं । छोटे-बड़े पर्वत इन जंगलों को अपने कंधोंपर उठाये रहते हैं। पर्वतों से ही नि:सृत होती हैं नदियाँ । हिमाच्छादित पर्वतों के पेड़ों की जड़ों से बूंद-बूंद रिसता है जल, और यही धारा के रूप में पेड़-पौधों के पद प्रक्षालित करता हुआ प्रवाहित होता है । भारत का किरीट हिमालय वॉटर टावर यूँ ही नही कहलाता है । हिमालय ही तो सदानीरा नदियों का पिता धर्म निभाता है । पर्वतों से फूटतेहुए झरने-जल प्रपात ही तो नदियों का गात (शरीर) बनाते हैं । कल-कल करते झरने गीत प्यार के गाते है । वन घायल हो तो सहम जाते है प्रपात, सरिताएं और सलिलाएं ।
सृष्टि में कोई भी रचना अकारण नहीं है । हर वनस्पति का अपना हरित आधार है । हर वन्य जन्तु का अपना रूप रंग आकार है । हर जीव परितंत्र में अपना योगदान करता है और अभय रहता है । किन्तु जंगलों में मानुषी हस्तक्षेप ने सारे संतुलन को बिगाड़ा है । आदमी ने स्वार्थ में पेड़ों को काट डाला है । जंगल साफ हुए तो मिट गई सभ्यताएं । पर्यावरण में भर गई कल्मषाएं । हमें यह याद रखना होगा कि यदि कहीं एक पेड़ भी कटता है तो सम्पूर्ण परितंत्र आहत होता है और अपना धैर्य खोता है ।
अगर सृष्टि शरीर है तो नदियाँ सरस नाड़ियाँ हैं । जंगल फेफड़े हैं । हरियाला आवरण त्वचा है और पेड़ पौधे रोम हैं । हर अंग का एक दूसरे से तालमेल है । प्रकृति में पंचतत्वों का ही तो खेल है । हर तत्व का भव-भूमि से बंधन है । किसी एक के भी आहत होने पर दूसरा भी रूठता है । नेह बंधन टूटता है । इसी टूटन को हमें रोकना है । वनों को घायल करने वालों को टोकना है ताकि हमारे जल स्त्रोत सूखने न पायें । नदियाँ डरे नहीं वरन् उल्लसित रहें और हम सरसता पायें । आज हमारी प्रकृति को आत्मीय संवेदना की दरकार है । हमें समझना होगा कि प्रकृति की भी एक सम्मुन्नत संसद है, सरकार है । अत: हमें प्रकृतिके प्रति विधायक भाव रखना होगा । नदियों के प्रति संवेदना को उकेरती प्रसिद्ध साहित्यकार अज़हर हाशमी की कविता में कहा गया है :-
वन घायल हैं डरी सी नदियाँ
बैचेनी से भरी सी नदियाँ
लहरें थी जिनकी मुस्काने
कहाँ गई वे परी सी नदियाँ
भारी भरकम उधर है गायब
इधर लुप्त् छरहरी सी नदियाँ
प्राणी जिनसे जल पीते थे
कहाँ गई तश्तरी सी नदियाँ
सभ्य कहे जाने वालों ने
खोटी कर दी खरी सी नदियाँ
जख्मी जंगल पुकारते हैं
मरहम से फिटकरी सी नदियाँ
अब भी कोशिश करें अगर हम
जी उठेंगी मरी सी नदियाँ ।
पर्वत शिवम् हैं तो नदियाँ पूर्णा हैं । और सरसता को पाकर ही धरती अन्नपूर्णा है । पर्वतों से नि:सृत नदियों में नित नूतन जल गतिमान रहता है जो दौड़कर सागर तक जाता है । नदियों का पथ रेख बनाता है । इठलाती -बलखाती नदियॉ ही तो जल-परमीता हैं । नदियाँ ही रामायण हैं और नदियाँ ही तो गीता है । नदियाँ संस्कृति प्रणीता हैं । नदी सरीखे व्रल द्रव्य का भाव त्रिवेणी बहती है । किन्तु इनकी दुर्दशा आज यहाँ कुछ कहती है । जंगलों के अमंगल के कारण ही नदियाँ अनमनी होकर बह रही है । जहरीले प्रदूषण के रूप में पाप हमारा सह रही है । प्रदूषण से नदियाँ ही नहीं समुद्र भी आहत हैं । धरती में भी कहीं नहीं राहत है । हर बादल, पर्जन्य (जल पूर्ण) नहीं होता है । कहीं अतिवृष्टि कहीं अनावृष्टि के रूप में कहर बरपाता है । जंगल भी वर्षा के विरह गीत गाता है । अब तो नदियों के तट भी सूने ही रह जाते हैं । थके हुए परिंदे-पंछी भी तरू छाँव नहीं पाते हैं । हमें जंगलों को मुदमंगलकारी बनाना ही होगा । मरूस्थलों में फिर से हमें अरण्य सजाना ही होगा ।
हिमालय वनों का सरंक्षक है । और वन जल के संरक्षक है वन ही मेघोंको आकर्षित करते हैं । ऊँची पर्वत श्रृंखलाआें के शीर्ष ही हिमवान हैं जहाँ हिम नदियाँ (ग्लेशियर) हैं । यही हिमनद ही तो नदियों के पोषक हैं । आज हिमालय तेजी से क्षर रहा है क्योंकि अस्थिर पर्वतों पर बड़े-बड़े बाँध बनाने से जहाँ नदियों का दम घुटा हे, वही पहाड़ों के ऊपर बोझ बढ़ा है । हमें हिमालय के क्षरण को रोकना होगा । परिक्षेत्र के राज्यों जम्मू कश्मीर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड के जनमानस को हिमालय नीति अभियान से जोड़ना होगा । बेहतर होगा कि समन्वय प्राधिकरण गठित किया जाये । पहाड़ों पर जल संरक्षण वन रोपण की समवेत नीति बनाई जाये ताकि पहाड़ों का जज्बा और नदियों का प्रवाह बना रह सके औरहिमालय हिमवान रहे ।
यूँ तो हम चिंता कर रहे हैं कि ग्लोबल वॉर्मिग तथा हरित गृह प्रभाव के कारण हिमालय हिम से रीत न जाये किन्तु मीडिया द्वारा आंकड़ों के सब्जबाग दिखलाए जा रहे है । यह विरोधाभाष क्यों । आंकड़ों के अनुसार वर्ष १९९७ से वर्ष २००७ तक सघन वनों का क्षेत्रफल ३३.१ लाख हेक्टेयर बढ़ा है । जानकारों के अनुसार यह मामूली बात नहीं है । यानि पिछले दस वर्षो में देश के वन क्षेत्र प्रतिवर्ष तीन लाख हेक्टेयर की दर से बढ़े है । ध्यान देने योग्य यह भी है कि इस समयावधि में ब्राजील और इंडोनेशिया जैसे देशों में प्रतिवर्ष २५ मिलियन हेक्टेयर जंगल काटे गए है । हमारी सरकार बढ़ी हुई हरियाली को जन जागरूकता का परिणाम बतला कर अपनी पीठ थपथपा रही है । किन्तु दूसरी और वन की परिभाषा को ही बता नहीं पा रही है । अत: आंकड़ों की बाजीगरी छोड़कर सही वन नीति एवं जल नीति के प्रति गंभीर होना चाहिए ।
केन्द्र सरकार ने गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित करके उसके रखरखाव के लिए प्राधिकरण का गठन किया है । आशा है गंगा प्रवाह पथ पुन: स्वच्छ हो सकेगा । प्राधिकरण को कार्य करने में कहीं अड़चनों का सामना भी करना पड़ेगा क्योंकि अनेक पक्षकार होगें अनेक विचार होंगे किन्तु विभिन्न मंत्रालयों को तालमेल से काम करना होगा । राष्ट्रीय नदी घोषित करने का उद्देश्य मूलतत्व तथा कार्यक्रम को विस्तार देना प्रतीक्षित है । सम्बन्धित राज्यों का उत्तरदायित्व व्यय तथा प्रबंधन की रूपरेखा बननी है ताकि प्राधिकरण सक्षमता के साथ कार्य कर सके । जरूरत है कि कानून के साथ-साथ जन चेतना को भी जाग्रत किया जाये । आस्था एवं विश्वास को बनाये रखा जाए । नदियों के रक्षक जंगल होते हैं । अत: जंगलों की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए क्योंकि जंगल बचेगें तो बहेगी नदियाँ ।
यदि हम चाहते हैं कि हमारी कुदरत-कायनात में जिन्दगानी बनी रहे तो हमें उगाना होगा हरा भरा जंगल अपने अंदर । एक जीवंत एहसास के साथ ताकि बहती रहे सरस भाव धारा हमारे अर्न्तमन में । मन में विचार और विचार से संकल्प बनेगा । तभी हम अपने वन और नदियों की रक्षा कर सकेंगे । जब तक जंगल है तभी तक है प्राणवायु, जिससे हम सप्राण है । जन-जन तक यह संदेश भी पहुंचा सकेगे कि जल ही जीवन है और जीवन क्या है, जीव और वन का मिला जुला रूप इसलिये इनकी सुरक्षा जरूरी है ।

प्रदेश चर्चा

झारखंड : प्रदूषण का गुणगान
उमाशंकर एस./संजीव कुमार कंचन

विश्व बैंक की कार्यप्रणाली को देखकर कहा जा सकता है कि हाथी के दांत खाने के और तथा दिखाने के और । झारखंड की उषा मार्टिन की स्टील निर्माण इकाई से फैलते प्रदूषण ने न केवल आसपास के निवासियों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाला है बल्कि समीपवर्तीकृषि भूमि को भी बंजर बना दिया है । इस दोहरी मार के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय वित्त संस्थाआें द्वारा तीसरी दुनिया के देशों में प्रदूषण फैलाने वाली इकाईयों को दी जा रही आर्थिक मदद अपनी कहानी खुद कह रही है ।
रेल जैसे ही धीमे-धीमे झारखंड के जमशेदपुर नगर की ओर बढ़ती है वैसे-वैसे आकाश लाल होता दिखाई देने लगता है औद्योगिक इकाई से उड़ती घनी लाल धूल जिसमें कि बिना जले कोयले की धूल एवं राख का अंबार है । यह इकाई है उषा मार्टिन समूह के स्वामित्व की एक मध्यम स्तर की लौह एवं स्टील मिल । जमशेदपुर के एक उपनगर आदित्यपुर में करीब १२० हेक्टेयर में फैली यह मिल सन् १९७४ से कार्यरत है । इस इकाई में दो छोटी (ब्लास्ट) भटि्टयां, तीन कोयला आधारित स्पंज आयरन भटि्टयां जिनकी क्षमता ३५० टन प्रतिदिन है और तीन बिजली चलित भटि्टयां हैं, जिनमें स्टील निर्माण होता है । भारत के पूर्वी हिस्से में प्रदूषण फैलाती स्पंज आयरन इकाईयों को सामान्य तौर पर देखा जा सकता है, लेकिन उषा मार्टिन इकाई के मामले में यह इसलिए षड़यंत्रकारी प्रतीत होता है क्योंकि इसे विश्व बैंक की निजी क्षेत्र विकास शाखा अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम (आईएफसी) से धन प्राप्त् होता है ।
वर्ष २००२ में अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम ने उषा मार्टिन में १४.५ प्रतिशत हिस्सेदारी (२४०.६ लाख अमेरिकी डॉलर) हासिल कर ली थी । वित्त निगम के अनुसार यह धन उन्हें स्पंज आयरन भट्टी के साथ ७.५ मेगावाट का बिजली संयंत्र डालने के लिए दिया गया था और इस संयंत्र का परिचालन भट्टी से निकलने वाली बेकार गरम गैसों से होना था । अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम दक्षिण एशिया के तत्कालीन निदेशक डिमिट्रिज टस्टिरागोस का कहना था कि कंपनी के द्वारा इस अंचल में पर्यावरण संरक्षण एवं सामाजिक सुधार के क्षेत्र में किए जा रहे प्रयत्नों ने हमें इस परियोजना में निवेश करने हेतु प्रेरित किया है । धन की स्वीकृति देते हुए निगम का निष्कर्ष था कि उषा मार्टिन धन प्रािप्त् हेतु पर्यावरण प्रभाव के पैमाने के हिसाब से बैंक की बी श्रेणी में आती है । इस श्रेणी का अर्थ है ऐसी परियोजनाएं जिनमें सीमित मात्रा में प्रतिकूल सामाजिक एवं पर्यावरणीय प्रभावों की संभावनाएं हो और ये अक्सर विशिष्ट स्थान मूलक होती हैं तथा थोड़े बहुत प्रयास के पश्चात इनके विपरीत प्रभावों को समाप्त् किया जा सकता है ।
झुरकुली के तारकनाथ शिकायत करते हुए कहते हैं, मिल की स्टील पिघलाने वाली भट्टी से निकलने वाली घनी लाल बस्ती के सभी ८० परिवारों को प्रभावित कर रही है । सभी लोग जिसमें कि विशेषकर बच्च्े शामिल हैं सांस संबंधी समस्याआें से प्रभावित हैं । यहां पर किसी भी तरह की स्वास्थ्य सेवा भी उपलब्ध नहीं है । हम उपचार के लिए शहर जाना पड़ता हैं ।
इस इलाके का पानी का महत्वपूर्ण स्त्रोत सीतारामपुर बांध भी मिल के बिना उपचारित जल के बांध में जाने से प्रदूषित होता जा रहा है । झारगोविन्दपुर के गणेश मण्डल बताते हैं कि मिल भटि्टयों से निकला अपना ठोस अपशिष्ट मुख्य रेलवे लाईन के पास में फेंक देती है जिसकी वजह से १०० परिवारों का जीवन प्रभावित हो रहा है । बारिश में भारी धातुएं जमीन में समा जाती हैं । रात में अत्यधिक उत्सर्जन की वजह से सुबह उठने पर हम अपने पूरे गांव पर लाल धूल की मोटी परत जमी हुई पाते हैं ।
अनेक निवासी जो पहले खेती पर निर्भर थे अब नजदीक की औघोगिक इकाइयों जिसमें उषा मार्टिन भी शामिल है, में दिहाड़ी पर काम करने लग गए हैं । मण्डल का कहना है कि उषा मार्टिन मिल से होने वाले प्रदूषण ने कृषि भूमि को अनुपजाऊ बना दिया है । गांव के लोगों को मिल में रोजगार तो मिलता है लेकिन केवल ठेकेदार के माध्यम से जो कि इनके द्वारा अर्जित धन का बढ़ा हिस्सा ले उड़ता है । इतना ही नहीं संयंत्र में अक्सर व्यवसायगत दुर्घटनाएं भी होती रहती हैं । अनेक दुर्घटनाआें की वजह से वर्ष २००७ से अब तक ६ मजदूरों की मृत्यु भी हो चुकी है ।
कार्यवाही का अभाव - मिल से होने वाले उत्सर्जन का बड़ा कारण है बिजली की भट्टी की प्रक्रिया, जिसमें कि व्यवस्थित द्वितीयक उत्सर्जन नियंत्रण प्रणाली अभी तक स्थापित नहीं की गई है । झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी आर.एम. चौधरी का कहना है नागरिकों से बार-बार वायु, जल एवं ठोस अपशिष्ट प्रदूषण की शिकायतें मिली हैं जिनसे तदुपरान्त नोटिसों के जरिए मिल को भी अवगत करा दिया गया है । जनवरी २०१० में बोर्ड की शर्तो का पालन न करने पर मिल को कारण बताओ नोटिस भी दिया गया था जिसमें कहा गया था कि संयंत्र का निरीक्षण स्वतंत्र एजेंसियों से क्यों नहीं कराया गया । पर्यावरणविदो ने पाया कि जमशेदपुर स्थित प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कार्यालय बहुत कम कर्मचारियों के साथ कार्य कर रहा है और यहां की प्रयोगशाला भी कार्यशील नहीं है । वैसे मिल द्वारा दिए गए नोटिस पर किसी भी तरह की कार्यवाही नहीं की गई हैं ।
वहीं दूसरी ओर उषा मार्टिन जमशेदपुर मिल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं प्रमुख विजय शर्मा का कहना है कि शिकायतों पर गंभीरता से कार्य किया गया है । उनका मानना है कि हमारी स्टील पिघलाने वाली भट्टी २५ वर्ष पुरानी है और इसमें कुछ कम अवधि की प्रक्रियाआें में आए परिवर्तन से उत्सर्जन में वृद्धि हो गई है । हम वायु उत्सर्जन पर नियंत्रण हेतु एक उच्च् क्षमता वाली प्रणाली जून २०१२ तक स्थापित कर देंगे । विजय शर्मा का यह भी कहना है कि विस्तार कार्यक्रम के चलते वर्ष २०१३ तक हमारा वार्षिक स्टील उत्पादन १० लाख टन पहुंच जाएगा और इससे उत्पन्न ठोस अपशिष्ट को संयंत्र में पुन: इस्तेमाल कर लिया जाएगा और बाकी को किसी दूरस्थ स्थान पर पर्यावरण अनुकूल तरीके से निस्तारित कर दिया जाएगा ।
त्रुटिपूर्ण मान्यता - मिल के ७.५ मेगावाट का विद्युत संयंत्र संयुक्त राष्ट्र स्वच्छ विकास प्रणाली (एसडीएम) योजना के अन्तर्गत पंजीकृत है । लेकिन इसमें प्राथमिक पर्यावरण अनुपालन रोकथाम तक की सुविधा नहीं है जो कि क्रेडिट जारी करने का एक महत्वपूर्ण घटक है । यह रियो घोषणा पत्र की कार्यसूची के उस उद्देश्य का उल्लघंन है जो कि प्रदूषण के न्यूनतम होने की बात कहता है । दक्षिण एशिया-अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम के निदेशक थामस डेवनपोर्ट से गतवर्ष एक साक्षात्कार में जब भारत में अच्छे निवेश के बारे में पूछा गया तो उन्होनें उषा मार्टिन को एक दीर्घावधि वाला बेहतर निवेश बताया था ।
प्रदूषण के बारे में पूछने पर अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम का कहना है निगम समय-समय पर अपने ग्राहकों द्वारा अपनाई जा रही पर्यावरणीय एवं सामाजिक प्रक्रियाआें के आकलन हेतु ग्राहकों के स्थल का भ्रमण करता है । हम मजबूत पर्यावरणीय एवं सामाजिक परिणाम सामने लाने हेतु ग्राहकों के साथ मिलकर प्रयत्न करते हैं । इसी तरह हम उषा मार्टिन के साथ मिलकर भी सकारात्मक पर्यावरणीय एवं सामाजिक प्रभाव पाने हेतु कार्य करेंगे ।

पर्यावरण परिक्रमा

चांदे के टुकड़ों की लगी, काला बाजार में बोली

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने घोषणा की है कि चंद्रमा की सतह से लाए गए चट्टानों के टुकड़े गायब हो गए हैं ।
कई सालों से चल रहे एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिए सामने आया कि इन टुकड़ों की कालाबाजार में मांग है और इनकी बिक्री भी होती है । साथ ही किसी देश ने आधिकारिक तौर पर बिक्री की, तो किसी देश ने इसकी ऊंची कीमत लगाई । १९७२ में नासा के अपोलो-१७ मिशन और १९६९ में अपोलो मिशन के दौरान चंद्रमा की सतह से ३७० टुकड़े एकत्रित किए गए थे । इसमें से २७० टुकड़े अलग-अलग देशों में बांटे गए, जबकि १०० टुकड़े अमेरिकी राज्यों में बांटे गए थे । लेकिन, अब इनमें १८४ टुकड़े ऐसे हैं, जो गुम हो गए, चोरी हो गए या जिनका कोई पता नहीं है। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने आदेश दिया था कि टुकड़ों को ५० अमेरिकी राज्यों और १३५ देशों में बांट दिया जाए ।
टुकड़ों की खोज के लिए नासा के पूर्व एजेंट जोसेफ गुथिज ने १९९८ में स्टिंग ऑपरेशन लूनर एक्लिप्स शुरू किया । उन्हें पता लगा कि गद्दाफी सरकार और रोमानिया ने अपने हिस्से के चांद के टुकड़े खो दिए । होंडुरास ने जोसेफ को ही एक टुकड़ा बेचने के लिए ५० लाख डॉलर की मांग की । रूसी सरकार ने १९९३ में आधिकाधिक तौर पर लूना-१६ मिशनसे हासिल चांद की टुकड़ों की नीलामी की । जोसेफ का कहना है कि इन टुकड़ों की कालाबाजार में भी बिक्री होती है । असली और नकली दोनों ही टुकड़ों की ऊंची बोली लगाई जाती है।
एक गुमनाम संग्रहकर्ता द्वारा चांद की सतह की ०.२ ग्राम धूल साढ़े चार लाख डॉलर में खरीदी और कथित तौर पर कैलीफोर्निया की एक महिला ने चांद का टुकड़ा ऑनलाइन बेचने की कोशिश की थी ।

इस सदी में मिट जाएगा ११८३ प्रजातियों का नामो-निशान
पक्षियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है । अनुमान है कि १०० साल में पक्षियों की ११८३ प्रजातियां विलुप्त् हो सकती है । इस समय दुनिया में पक्षियों की ९९०० ज्ञात प्रजातियां है। विभिन्न कारणों से पक्षियों की प्रजातियों का विलुप्त् होना जारी है और १५०० से लेकर अब तक भगवान के डाकिए कहे जाने वाले इन खुबसूरत जीवों की १२८ प्रजातियां विलुप्त् हो चुकी है ।
ख्यात पक्षी विज्ञानी आरके मलिक के मुताबिक बदलती जलवायु, आवासीय ह्ास, मानवीय हस्तक्षेप और भोजन पानी में घुल रहे जहरीले पदार्थ पक्षियों के विनाश के प्रमुख कारण है। यदि पक्षियों के उचित संरक्षण के प्रयास नहीं किए गए तो आने वाले १०० वर्ष में इनकी कुल प्रजातियां का १२ प्रतिशत हिस्सा यानि की ११८३ प्रजातियां विलुप्त् हो सकती हैं । खूबसूरत तोता भी संकट में है । पक्षी विज्ञानियों के अनुसार, तोते की विश्वभर में ३३० ज्ञात प्रजातियां हैं, लेकिन आने वाले १०० साल में इनमें से एक तिहाई प्रजातियों के खत्म हो सकती है ।
श्री मलिक के मुताबिक पक्षियों की विलुिप्त् का एक बड़ा कारण उनका अवैध व्यापार और शिकार भी है । तोते और गौरेया जैसे पक्षियों को लोग जहां अपने घरों की शान बढ़ाने के लिए पिजरों में कैद रखते हैं । वही तीतर जैसे पक्षियोें का शिकार किया जाता है। राष्ट्रीय पक्षी मोर जहां बीजों में मिले कीटनाशकों की वजह से मारा जा रहा है, वही पर्यावरण को स्वच्छ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला गिद्ध जैसे पक्षी पशुआें को दी जाने वाली दर्द निवारक दवा की वजह से मौत का शिकार हो रहा है । गिद्ध मरे हुए पशुआें का मांस खाकर पर्यावरण को साफ रखने में मदद करता है, लेकिन उसका यह भोजन ही उसके लिए काल का संदेश ले आता है ।
विभिन्न तरह के गिद्धोंके अतिरिक्त ग्रेट इंडियन बर्स्टड, गुलाब सिर वाली बत्तख, हिमालयन क्वेल, साइबेरियन सारस आदि प्रमुख है, जिन पर गंभीर संकट मंडरा रहा है।

भारतीय वैज्ञानिकों को मिली औषधि क्षेत्र में नयी सफलता

भारतीय वैज्ञानिकों ने एक ऐसा फंगस(फफंूद) विकसित किया है, जो कैंसर जैसी घातक बीमारियों के इलाज में कारगर है । देहरादून स्थित भारतीय वन अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित इस फफंूद से उपचार तो होगा ही, साथ ही यह व्यावसायिक रूप से भी फायदेमंद है ।
इस फफंूद से मलेशिया की एक कम्पनी द्वारा निर्मित दवाएं पहले से ही बाजार में उपलब्ध हैं, लेकिन एफआरआई के वैज्ञानिकों ने इस फफंूद को भारत की परिस्थितियों के अनुकूल बनाया है, ताकि कि इसे समूचे उत्तर भारत में उगाया जा सके। एफआरआई के फोरस्ट डिवीजन के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एनएसके हर्ष के अनुसार संस्थान ने एक ऐसे फफंूद गैनोडर्मा ल्यूसिडियम का पता लगाया है, जो पापलर तथा अन्य पादक प्रजातियों के तने पर उगता है । यह एचआईवी कैंसर जैसी लाइलाज बीमारियों के उपचार में सक्षम है ।
डॉ. हर्ष के अनुसार अनुसंधान से साबित हो गया है कि भारत में भी गैनोडर्मा फफंूद आसानी से उगाया जा सकता है । उन्होनें एफआरआई परिसर में पापलर तथा अन्य पादक प्रजातियों के वुड ब्लॉक पर इस फफंूद को उगाकर इसमें समाहित औषधीय गुणों का अध्ययन किया । इससे पहले एशिया में चीन, जापान तथा कोरिया में गैनोडर्मा फफंूद को उगाया जाता था । मलेशिया की एक दवा निर्माता कंपनी इस फफंूद से तैयार दवाएं रिशी, लिग चि तथा लिग झि की बाजार में पहले से ही बिक्री कर रही है ।

सड़कों हादसों की भेंट चढ़ता है सालाना एक लाख करोड़

सड़क हादसों में जान गंवाने के मामले में भारत पूरी दुनिया में अव्वल तो है ही, लेकिन इस कारण देश के बजट का दस फीसदी हिस्सा भी एक तरह से पानी में बह जाता है । अंतरराष्ट्रीय सड़क फेडरेशन (आइआरएफ) के अनुसार, भारत में सालाना करीब एक लाख करोड़ रूपये (२० लाख डॉलर) से ज्यादा की धनराशि सड़क दुर्घटनाआें की भेंट चढ़ जाता है ।
आइआरएफ ने सड़क हादसों पर काबू नहीं कर पाने के लिए सरकार की आलोचना की है । उसका कहना है कि राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी के कारण सड़क हादसों पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है । गैर सरकारी संगठन आईआरएफ के अध्यक्ष के.के. कपिला का कहना है कि हर साल होने वाले इस भारी आर्थिक नुकसान की, जानकारी सरकार को है । श्री कपिला ने कहा कि यह दुखद है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का तीन फीसदी हिस्सा सड़क हादसों के कारण प्रत्येक वर्ष बर्बाद हो जाता है ।
सरकारी आकड़ों के अनुसार सड़क दुर्घटनाआें की अगर यही रफ्तार रही तो आने वाले वर्षोमें इससे होने वाला नुकसान एक लाख करोड़ से काफी ज्यादा हो सकता है। राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, सड़क दुर्घटनाआें में वर्ष २०१० में देश में करीब १,३०,००० लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था । योजना आयोग द्वारा २००१-०३ के बीच किए गए एक अध्ययन का हवाला देते हुए आईआरएफ ने कहा कि वर्ष १९९९-२००० में सड़क दुर्घटनाआें के कारण देश को करीब ५५,००० (दस अरब डॉलर) करोड़ रूपये का नुकसान हुआ था । एक दशक में इस कारण होने वाला नुकसान लगभग दो गुना हो गया है । श्री कपिला ने कहा कि सड़क हादसों पर लगाम कसने के लिए मोटर वाहन अधिनियम १९८८ में व्यापक बदलाव किए जाने की जरूरत है । सड़क दुर्घटनाआें में प्रभावितों के लिये तत्काल चिकित्सा सहायता मिलने की कारगर व्यवस्था का अभाव होने और पुलिस एवं अन्य सरकारी कार्यवाही का डर से भी दुर्घटनाग्रस्त को तत्काल मदद के लिये लोग आगे नहीं आ रहे है, इन दो बड़े कारणों से सड़क दुर्घटनाआें में होने वाली मौतों की संख्या बड़ रही है ।

स्वास्थ्य

खतरे मेंहै एचआईवी अधिनियम
सोनल मथारू

संयुक्त राष्ट्र संघ का लक्ष्य है कि वर्ष २०१५ तक एचआईवी के नए मरीजोंपर रोक लग सके । लेकिन वैश्विक आर्थिक संकट के चलते इस दिशा में कार्य करने में रूकावटें खड़ी हो रही है । वहीं दूसरी ओर भारत सरकार एड्स पीड़ितों के उपचार को लेकर स्वयं को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने में हिचकिचा रही है । ऐसे में एक ओर वर्तमान में संक्रमित मरीजों और दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र संघ के लक्ष्यों की प्रािप्त् असंभव सी नजर आ रही है ।
पिछले वर्ष अक्टूबर में दिल्ली स्थित सरकारी अस्पताल में एक एचआईवी पीड़ित महिला के नवजात शिशु को नेविरापाईन की खुराक देने से इंकार कर दिया था । मां से बच्च्े को एचआईवी का हस्तान्तरण रोकने वाली इस औषधि को जन्म के ७२ घंटो के अंदर दिया जाना अनिवार्य है । राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नेक) के दिशानिर्देशों के अनुसार अस्पतालों में नेविरापाईन का मौजूद होना अनिवार्य है । लेकिन अस्पताल के अधिकारियों से यह लिखकर देने की जिद करने पर कि अस्पताल में उपरोक्त औषधि उपलब्ध नहीं है, के पश्चात ही उन्होनें बच्चें को यह औषधि दी । एक अन्य घटना में एक एचआईवी पीड़ित महिला को फुटपाथ पर ही अपने बच्चें को जन्म देना पड़ा क्योंकि अस्पताल में उसे भर्ती करने से मना कर दिया था ।
मुद्रिका जो कि दिल्ली में स्वतंत्र रूप से एड्स पीड़ितों के साथ कार्य करती हैं, ने इस घटना पर दुख जताते हुए कहा कि इस बीमारी से पीड़ित लोगों को प्रतिदिन इसी तरह के भेदभाव एवं असमानता का सामना करना पड़ता है । अन्य नागरिक समूहों के साथ मिलकर वे संघीय स्वास्थ्य मंत्रालय से मांग कर रही हैं कि वह संसद के शीतकालीन सत्र में एचआईवी/एड्स अधिनियम पारित करवाए । स्वास्थ्य विभाग द्वारा स्वास्थ्य सेवा कार्यकर्ताआें, अधिवक्ताआें, गैर सरकारी संस्थानों एवं एड्स के मरीजों के साथ चार वर्ष तक विचार विमर्श करने के पश्चात सन् २००६ में इस संबंध में एक अधिनियम का मसौदा तैयार किया था जिसमें भेदभाव के खिलाफ धारा के साथ ही साथ मुफ्त जांच एवं उपचार का भी प्रावधान था ।
लेकिन स्वास्थ्य एवं कानून, मंत्रालयों की अकर्मण्यता के चलते अधिनियम की प्रस्तुति में विलंब हो रहा है। एडवोकेसी समूह लायर्स कलेक्टिव के वरिष्ठ अधिकारी रमन चावला का कहना है संसद में इस अधिनियम को प्रस्तुत किए जाने की मांग करने गए प्रतिनिधित्व मंडल से स्वास्थ्य मंत्री गुलाब नबी आजाद ने कहा कि सरकार मुफ्त इलाज को लेकर स्वयं को कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं बनाना चाहती । इस अधिनियम को वर्ष २००७ में कानून मंत्रालय को भेजा गया था । तब से यह दोनों मंत्रालयों के बीच उलझ रहा है । विश्व एड्स दिवस (१ दिसम्बर २०११) पर आजाद ने आश्वासन दिया था कि अधिनियम जो कि वर्तमान में कानून मंत्रालय के पास है, १० दिन के भीतर स्वास्थ्य मंत्रालय के पास लौटा दिया जाएगा । नागरिक समूह इस बात से निराश है कि स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा कानून मंत्रालय को भेजे गए अधिनियम के बारे में उन्हें कुछ भी नहीं बताया जा रहा है । उन्हें यह भी डर है कि अधिनियम को इस तरह तोड़ मरोड़ दिया गया होगा जिससे कि उपचार हेतु पहुंच ही सीमित हो जाएगी । कामनवेल्थ, ह्यूमन राईट्स इनिशिएटिव (राष्ट्रमंडल मानवाधिकार पहल) के वेंकटेश नायक का कहना है कि प्रस्तावित अधिनियम को इस तरह रोके नहीं रखा जा सकता ।
सरकार के एचआईवी संबंधी वर्तमान कार्यक्रम में प्रथम चरण का एंटी रिट्रोवायरल (एआरवी) उपचार नि:शुल्क उपलब्ध है लेकिन दूसरे चरण का उपचार (उन लोगों के लिए जिनकी प्रथम चरण के खिलाफ प्रतिरक्षा पैदा हो गई है) आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता है । एआरवी की वजह से सामने आए संक्रमणों जैसे चेहरे पर निशान या अंधत्व से संबंधित औषधियां तो अस्पतालों में बहुत ही कम मिल पाती है । अंधत्व का शिकार हुए मरीजों को दिए जाने वाले इंजेक्शन गुनासायक्लोविर का मूल्य ४५००० रूपये प्रति खुराक है । गैर सरकारी संगठन नई उमंग के अध्यक्ष प्रदीप दत्ता का कहना है इस इंजेक्शन के न मिल पाने की वजह से मेरे तीन साथी अंधे हो चुके हैं । यूएन एड्स के राष्ट्रीय समन्वयक चार्ल्स गिलक्स का कहना है एक अच्छा कानून एचआईवी प्रभावित मरीजों को बिना भेदभाव के उपचार की पहुंच को सुनििचशत बना देगा ।
भारत के एचआईवी/एड्स कार्यक्रम के सामने बढ़ता वैश्विक धन संकट भी है । राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम को धन उपलब्ध करवाने वाली अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां अब केवलनिम्न आय वाले देशों को ही धन दे रही हैं । लायर्स कलेक्टिव के निर्देशक आनंद ग्रोवर का कहना है भारत को अब एक मध्य आय वर्ग देश के रूप में गिना जाने लगा है । नाको को वर्तमान दौर (२००७ से २०१२ तक) में २५ प्रतिशत धन सरकार से, बचा हुआ विश्व बैंक एवं ब्रिटेन के अंतर्राष्ट्रीय विकास एवं वैश्विक कोष विभाग (डीआईएफडी) जैसी संस्थाआें से प्राप्त् होता है । अगले दौर (२०१२ से २०१७ में) अनेक एजेंसियों द्वारा हाथ खींच लेने की वजह से धन की आवक में कमी आने की संभावना है । इस कमी को पूरा करने के लिए नाको के अन्तर्गत आने वाली कुछ गतिविधियों जैसे कंडोम को प्रोत्साहित करना, को राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में समाहित करने पर विचार चल रहा है । गिलक्स का कहना है यह अनुमान लगाया जा रहा है कि नाको के बजट को लेकर यथास्थिति बनाए रखी जाएगी । लेकिन इसके अन्तर्गत केवल रोकथाम ही रहेगा । संयुक्त राष्ट्र के वर्ष २०१५ के नए संक्रमणों के शून्य लक्ष्य की प्रािप्त् के लिए उपचार केन्द्र एवं कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने के लिए और अधिक धन की जरूरत पड़ेगी ।

कविता

नदी - जंगल बचे रहेंगे तो
अज़हर हाशमी
न तो काटें, न कटने दें जंगल
तब ही दुनिया को मिल सकेगा जल ।
जंगलों का हरा - भरा रहना
जैसे धरती पे नीर के बादल ।
वन की हरियाली से ही तो नदियाँ
अपनी आँखो में आँजती काजल ।
बहती नदिया धरा की धड़कन है ।
यानी धरती का दिल सघन जंगल ।
नदी - जंगल बचे रहेंगे तो
लाभ-शुभ-स्वास्थ्य, सर्वदा मंगल ।


कृषि जगत

सोयाबीन का विकल्प
डॉ.जी.एस. कौशल

सोयाबीन की खेती भारतवर्ष, विशेष रूप से मध्यप्रदेश में साठ के दशक में प्रांरभ की गई थी, प्रारंभिक वर्षो में १९७०-८० तक इसका क्षेत्र सीमित (०.३० से ०.५० लाख हेक्टर) था तथा उत्पादकता ४२६ से ९७५ किलो प्रति हेक्टर थी । प्रारंभ में प्रसंस्करण एवं उत्पादन क्रय की व्यवस्था न होने से क्षेत्र बढ़ने के बजाय घटता गया । प्रशासन एवं उद्यमियों द्वारा प्रयास किये जाने के फलस्वरूप अस्सी के दशक में बड़ी संख्या में सोया प्रसंस्करण उद्योग लगाए गए जिससे सोयाबीन के अन्तर्गत क्षेत्र तेजी से बढ़ा ।
इसी के साथ म.प्र. से प्रारंभ होकर इसकी खेती २००८-०९ तक महाराष्ट्र, राजस्थान में की जाने लगी । क्षेत्र वृद्धि के साथ उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि नहीं हो पाई । वर्ष १९७६-७७ की ९८८ किलो उत्पादकता वर्ष २००४-०५ में १००७ किलो प्रति प्रति हेक्टर पर ही है साथ ही पिछले पांच वर्षो की औसत उत्पादकता तो १००५ किलो प्रति हेक्टर है । मध्यप्रदेश के ४८ जिलों में से लगभग ३० जिलों में उत्पादकता १००० किलो से कम है (४२९ किलो से ९८२ किलो प्रति हेक्टर) । होशंगाबाद जिला जो अन्य फसलों की उत्पादकता में अग्रणी रहता है और जहां १.९५ लाख हेक्टर में सोयाबीन बोई जाती है वहां भी उत्पादकता केवल ९८२ किलो प्रति हेक्टर है । अत: अब यह आवश्यक हो गया है कि इस पर गंभीरता से विचार किया जाये ।
विकल्प क्यों - सोयाबीन की फसल लगातार बोए जाने के फलस्वरूप कीट प्रकोप एवं रोग बढ़ते जा रहे हैं, पोषक तत्वों की आवश्यकता भी अधिक हो रही है । इसी के साथ सोयाबीन में घासवर्गीय ख्ररपतवार को खत्म करने के लिये अंधाधंुंध खरपतवारनाशकों का उपयोग हो रहा है, इसके अवशेषों का विपरीत प्रभाव सोयाबीन के बाद बोने वाली गेहूँ की फसल पर स्पष्ट रूप से देखने को मिल रहा है, इन सबके फलस्वरूप लागत मूल्य की वृद्धि होने से सोयाबीन लाभप्रद नहीं रह पा रही है । वर्तमान में सोयाबीन की लागत रूपये ७४३.५६ प्रति क्विटल आ रही है । औसत उत्पादन ११५० किलो एवं शासन द्वारा निर्धारित समर्थन मूल्य रूपये १६९० मान्य किया जावे तो ऐसी स्थिति में कुल उत्पादन की कीमत रूपये १९४३५ होती है । इसमें से लागत मूल्य रूपये ८५५१ घटाने पर रूपये १०८८४ ही बचत प्रति हेक्टर रह जाती है । इसके साथ ही देखा जाये तो मौसम की मार भी सोयाबीन पर ही अधिक पड़ती है । ऐसी स्थिति में वे क्षेत्र जहां उत्पादकता कम है और जहां कीट व्याधियों के साथ मौसम की मार अधिक अधिक पड़ती है, सोयाबीन लाभदायक नहीं है और वहां के कृषक इसे छोड़ने को तत्पर हैं ।
जब भी फसल में परिवर्तन करने की बात आती है तो प्रसार कार्यकर्ता/वैज्ञानिकों एवं कृषकों के सामने अन्य विकल्प न होने के कारण मजबूरन उन्हें सोयाबीन ही अपनाना पड़ रहा है । यह स्थिति अधिक दिनों तक चल नहीं सकती । इसके विकल्प की मांग तेजी से आ रही है, अत: हमें अन्य फसलों की उत्पादकता/उपयोगिता एवं लागत मूल्य पर गहन अध्ययन कर क्षेत्रवार विकल्प तो देने ही होगें, जिससे कृषकों की खेती लाभप्रद बन सके ।
सोयाबीन क्षेत्र वृद्धि में सबसे अधिक योगदान ज्वार का रहा है । पूर्व में ज्वार की जो किस्में बोई जाती थी उनकी अवधि १५० दिनों से अधिक थी ज्वार के बाद कोई दूसरी फसल लिया जाना संभव नहीं होता था । अत: ज्वार को छोड़कर कृषकों ने सोयाबीन की फसल लेना प्रारंभ किया जिससे वर्ष में दो फसलें लेना संभव हो सका । खानपान की पद्धति बदलने एवं बाजार में गेहूँ की उपलब्धता बढ़ने से भी ज्वार की मांग घटने लगी । बाजार में ज्वार की मांग नहीं रही, ऐसी स्थिति में सोयाबीन को बढ़ने का मौका मिल गया ।
वर्तमान में बाजार की मांग में परिवर्तन आया है, खानपान की प्रणाली बदल रही है, खाने में स्वास्थ्यवर्धक मोटे अनाजों की मांग बढ़ रही हैं । इसी के साथ मुर्गीदाने एवं पशुआहार में भी मोटे अनाज विशेष रूप से मक्का, ज्वार की मांग अर्न्तराष्ट्रीय बाजार में बढ़ रही है । ऐसी स्थिति में इन फसलों के दाम भी अच्छे मिल रहे हैं । इसी के साथ कम अवधि की अधिक उपज देने वाली किस्में भी उपलब्ध हैं । इन्हें अपनाने से अधिक उपज, कम खर्चे में दो फसलें भी लेना संभव होगा । अत: बदली परिस्थिति में सोयाबीन के विकल्प के रूप में दलहनी, तिलहनी एवं खाद्यान्न फसलों को लिया जा सकता है ।
विभिन्न फसलों की उत्पादकता एवं आय - परम्परागत फसलें क्षेत्र विशेष के लिए अधिक उपयुक्त है । इनकी मांग स्थानीय रूप से भी अधिक रहती है । इन फसलों में से दलहन एवं तिलहन पूर्ति करने के लिये लगातार आयात भी करना पड़ रहा है, अत: स्थानीय रूप से ही इन फसलों को विकल्प के रूप में अपनाना श्रेयस्कर होगा ।
मक्का - मक्का की मांग कुक्कुट दाने, स्टार्च बनाने के साथ त्वरित खाने (फास्ट फूड) के लिए बढ़ रही है । यदि अधिकतम औसत उत्पादकता १३.६९ क्ंविटल को लिया जावे तो समर्थन मूल्य पर शुद्ध लाभ रूपये ६७०८ होता है । अधिकतम उपज तो उन्नत किस्मों से प्राप्त् की जा सकती है, को लिया जाये तो प्राप्त्यिां रूपये ४९००० तथा शुद्ध लाभ रूपये २४,५०० होगा, जबकि सोयाबीन में प्राप्त्यिां ३३,८०० एवं शुद्ध लाभ राशि १६९०० ही अधिकतम उत्पादन प्राप्त् करने पर होगा, इसके अतिरिक्त पशुधन के लिये मक्का की पौष्टिक कड़वी (चारा) लगातार मिलता रहेगा ।
ज्वार - ज्वार की मांग खाघान्न एवं पशु दाने के लिए लगातार बढ़ रही है इसकी औसत उत्पादन १२.०२ क्ंविटल / हेक्टर है । समर्थन मूल्य रूपये ९८० के आधार पर कुल आय रूपये १३४१६ होती है जबकि लगभग खर्च रूपये ६७०८/ हेक्टर आता है । इस प्रकार शुद्ध बचत रूपये ६७०८ होती है । उन्नत किस्मों के अपनाने से शुद्ध बचत रूपये १४७०० प्रति हेक्टर हो सकती है । इसके अतिरिक्त पशुधन के लिये कड़वी (चारा) अतिरिक्त प्राप्त् होता रहेगा ।
अरहर, उर्द, मूंग - दलहनों की पूर्ति बनाए रखने के लिये देश में लगातार दबाव बढ़ रहा है तथा आपूर्ति बनाए रखने के लिये निरन्तर आयात करना पड़ रहा है । इन फसलों की औसत उत्पादकता क्रमश: अरहर २००० किलो, उर्द १५०० किलो, मूंग १५०० किलो प्राप्त् की जा सके, तो एक तरफ जहां देश में दालों (प्रोटीन) की आपूर्ति संभव हो सकेगी वहीं मिट्टी की उर्वराशक्ति भी बढ़ाई जा सकेगी जो रबी में उत्पादन की जाने वाली फसलों के लिए भी लाभदायक रहेगा । इसी के साथ उन्नत किस्मों की खेती करने पर अरहर, उड़द, मूंग से क्रमश: रूपये २४०००, २४७५० एवं २६२५० की बचत हो सकती है जो सोयाबीन से प्राप्त् बचत रूपये १६९०० से कहीं अधिक है ।
अरहर, मक्का, ज्वार के साथ मंूग एवं उर्द को अंतरवर्तीय फसलों के रूप में सफलतापूर्वक लिया जा सकता है । वर्तमान कृषि परिदृश्य को देखते हुए मिट्टी की उर्वराशक्ति बनाए रखने, दलहनों की आपूर्ति, मुर्गीदाने, पशुधन के चारे की पूर्ति बनाए रखने तथा कृषकों की आर्थिक स्थिति सुधारने को ध्यान में रखते हुए सोयाबीन विकल्प के रूप में ज्वार + उड़द/मूूंग, मक्का/अरहर, मक्का + उड़द + मूंग की अन्तरवर्तीय फसल पद्धति को प्राथमिकता दिया जाना उपयुक्त होगा ।
फिर भी यदि शासन/कृषक सोयाबीन को बढ़ावा देना चाहते हैं तो आवश्यक है कि ज्वार/मक्का/अरहर को सोयाबीन के साथ अन्तरवर्ती फसल के रूप में लें, सोयाबीन की अकेली फसल को बढ़ावा न दें ।

ज्ञान विज्ञान

नशे में शिकार करती है फ्रूट फ्लाई

फलों पर मंडराने वाली फ्रूट फ्लाई की नशाखोरी के आगे बड़े से बड़े शराबी भी पीछे छूट जाते है । बहुत नशा करने के बाद भी वे बीमार नहीं पड़ती । वैज्ञानिकों ने पाया है कि ये ततैया या अन्य परजीवियों को मारने से पहले नशे में धुत हो जाती है ।
अटलांटा स्थित ईमोरी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता की एक टीम नें पाया है कि फ्रूट फ्लाई के लार्वा सड़े हुए या खमोर वाले फलों से केवल खमोर और फफूंद ही नहीं खाते । ये नशे वाले ऐसे अन्य उपोत्पाद (बाईप्रोडक्ट्स) भी चट कर जाते हैं जिनमें चार फीसदी तक अल्कोहल होता है । करंट बायोलॉजी जर्नल में प्रकाशित शोध रिपोर्ट के अनुसार हैरत की बात यह है कि नशे में धुत फ्रूट फ्लाई के लार्वा भोजन कर फैलते है और अल्कोहल का हस्तेमाल कर ततैया को उन्हींके रक्तप्रवाह से मार डालने के लिए करते है । इस शोध के अगुआ टोड स्कलेके ने कहा कि अल्कोहल का उच्च् स्तर फ्रूट फ्लाई के लिए जहरीला हो सकता है । यदि अल्कोहल का स्तर बहुत अधिक हो जाए तो वे बहुत जल्द उसे कम नहीं कर सकती । अध्ययन के दौरान इन मक्खियों के रक्त में ०२ फीसदी अल्कोहल का स्तर पाया गया । यदि ये आदमी होती और इन्हें वाहन चालान होता तो शराब पीकर वाहन चलाने पर रोक के लिए इन्हें चौगुना नशा करना होता ।
फल के जिस टुकड़े पर धुत फ्रूट फ्लाई बैठती है उन्हें परजीवी अक्सर बाधित करते हैं । इनमें ततैया भी है जो फ्रूट फ्लाई के लार्वा में ही अपने अंडे देती है । यदि ये नशा नहीं करे तो छोटी ततैया भी फ्रूट फ्लाई को मार डाले लेकिन ये मक्खियां अल्कोहल बर्दाश्त करने की क्षमता के कारण ही बची रहती है ।

जानवरो की गुप्त् भाषा का खुला रहस्य

प्राणी जगत में उपयोग की जाने वाली गुप्त् भाषा का पता लग गया है । वैज्ञानिकों का दावा है कि संवाद के लिए कुछ प्राणी एक खास किस्म के प्रकाश का प्रयोग करते हैं
पत्रिका करेंट बॉयोलॉजी के मुताबिक वैज्ञानिकों ने पता लगाना शुरू किया कि जानवर धुव्रीकरण का प्रयोग संवाद के लिए कैसे करते हैं । यह प्रकाश की एक प्रकार है जो मनुष्यों को नहीं दिखता है । वैज्ञानिकों ने एक समुद्री जीव कटलफीश की प्रजाति पर अध्ययन किया कि प्राणी जगत में धुव्रीकरण को किस तरह संवाद के लिए इस्तेमाल किया जाता है और जीव विज्ञान में इन संकेतों का क्या महत्व है । ब्रिटेन के ब्रिस्टल विश्वविघालय और ऑस्ट्रेलिया के क्कीसलैंड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के मुताबिक अध्ययन से खुलासा हुआ कि समुद्री जीव सीफालोपोडस को पोलराइज्ड लाइट की कई सारी दिशाआें का कैसे पता होता है। स्तनपायी और कुछ अन्य समूहों में पी-वीजन नहीं है लेकिन प्राणी जगत के कई समूहों में यह होता है । चींटियां, मक्खी और मछली भी ध्रूवी- करण का इस्तेमाल मार्गनिर्देशन के लिए करते हैं ।
जिस तरह से रंग की अहमियत हमारे लिए है उसी तरह पशु भी आपस में संवाद के लिए पी विजन का प्रयोग करते हैं ।

बैक्टीरिया में चुंबक के बंटवारे की दिक्कत

बैक्टीरिया एक-कोशिकीय जीव होते हैं जिनके बारे में गलतफहमी है कि वे सब रोगजनक होते हैं । १९७० के दशक में रिचर्ड ब्लेकमोर ने सबसे पहले चुंबकीय बैक्टीरिया का विवरण दिया था । इन बैक्टीरिया की कोशिका में चुंबक होता है और इसकी मदद से ये पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से सीध मिला सकते हैं । माना जाता है कि यह गुण इन बैक्टीरिया को गहरे समुद्रों में दिशा पता करके आगे बढ़ने में मदद करता है ।

आगे चलकर पता चला कि बैक्टीरिया कोशिका में यह चुंबक अत्यन्त सूक्ष्म उपांगों से बना होता है । इन्हें मेग्नेटोसोमा कहते हैं । मेग्नेटोसोमा में लौह ऑक्साइड (मेग्नेटाइट) या लौह सल्फाइड (ग्रेगेट) अथवा अन्य चुंबकीय पदार्थ होते हैं । यह मेग्नेटोसोमा इतने सूक्ष्म होते हैं कि एक अकेला मेग्नेटोसोमा बैक्टीरिया में चुंबकीय गुण पैदा नहीं कर सकता । लिहाजा कोशिका के अंदर ये विशेष विन्यास में व्यवस्थित रहते हैं । कुछ बैक्टीरिया में ये एक जंजीर की शक्ल में जमे होते हैं तो किसी बैक्टीरिया में ये बाहरी झिल्ली में धंसे होते हैं । कुछ बैक्टीरिया में मेग्नेटोसोम्स की दो लड़ियां होती हैं जो काशिका के दो सिरों पर स्थिर रहती हैं जबकि कुछ अन्य में ये परस्पर गुंथी होती हैं ।
समस्या यह है कि जब बैक्टीरिया में कोशिका विभाजन होगा तब मेग्नेटोसोम्स दोनों को बराबर-बराबर कैसे मिलेंगे । समस्या को समझने के लिए बैक्टीरिया विभाजन की क्रिया पर गौर करें। बैक्टीरिया में विभाजन के समय पहले तो कोशिका लंबी हो जाती है । फिर बीच में से सिकुड़ने लगती है, जैसे रस्सी बांधकर कसा जा रहा हो । जब इस तरह से कसते-कसते झिल्ली पूरी तरह बंद हो जाती है तो दो कोशिकाएं स्वतंत्र हो जाती हैं । मगर हो सकता है कि सारे मेग्नेटोसोम्स एक ही कोशिका में रह जाएं।
होता यह है कि पहले तो किसी भी अन्य बैक्टीरिया के समान मेग्नेटोस्पा-यरिलम की कोशिका भी बीच में सिकुड़ती है । मगर जल्दी ही इसमें एेंठन पैदा होती है और दो हिस्से करीब ५० डिग्री के कोण पर मुड़ जाते है । फिर एक झटके के साथ ये दोनों हिस्से अलग-अलग होते हैं, जैसे किसी लकड़ी को तोड़ा जाता है ।

ततैया चेहरे पहचानती हैं

कुछ लोग कहते है कि वे किसी शक्ल को एक बार देख लें तो भूलते नहीं । शायद ततैया भी यह दावा कर सकती है कि वे अपनी प्रजाति के अन्य सदस्यों की शक्लें पहचान लेती हैं ।
वर्ष २००२ में न्यूयॉर्क स्थित कॉर्नेल विश्वविद्यालय की स्नातक छात्र एलिजाबेथ टिबेट्स ने प्रयोगों की मदद से दर्शाया था कि सुनहरी ततैया पोलि-स्टेस अपनी ही प्रजाति की अन्य ततैयों को उनके चेहरे पर उपस्थित चिन्हों की मदद से पहचान लेती हैं । उनके प्रयोगों से पहले यदि कोई यह बात कहता तो पागल ही माना जाता ।



मगर अब उनकी बात की ओर पुष्टि हुई है । वैसे वैज्ञानिकों के बीच यह बहस का मुद्दा रहा है कि चेहरे पहचानने की क्षमता जैव विकास के दौरान पैदा हुई है या हर जंतु को यह क्षमता अपने जीवन काल में हासिल करनी होती है । इसी सवाल से प्रेरित हाकर टिबेट्स के एक छात्र माइकल शाहीन ने ततैया की ही एक अन्य प्रजाति पोलिस्टेस मेट्रिक्स मेट्रिक्स और पोलिस्टेस फस्केटस की तुलना करके देखा ।
पोलिस्टेस फस्केटस ततैयों में चेहरों पर ऐसे निशान होते हैं जो उन्हें अलग-अलग पहचानने योग्य बनाते हैैं । पोलिस्टेस फस्केटस और मेट्रिक्स दोनों ही सामाजिक कीट हैं और बस्तियां बनाकर रहते हैं । मगर फस्केटस की बस्तियों में सामाजिक जीवन कहीं अधिक पेचीदा होता है क्योंकि उनकी एक ही बस्ती में कई रानियां होती हैं और उन सबकी संतानें होती हैं । लिहाजा उनमें कोठर सामाजिक क्रम पाया जाता है । इस वजह से उनकी बस्ती में यह जरूरी होता है कि सारे सदस्य एक-दूसरे की हैसियत पहचान पाएं और उसी के अनुरूप व्यवहार करें । दूसरी ओर मेट्रिक्स में एक ही रानी होती है जो बाकी सारे सदस्यों पर राज करती है।


२५ साल पहले

होली बनाम पर्यावरण की होली
पीयूष माथुर

सुपर सोनिक गति से कटते-उजड़ते वन और बैलगाड़ी से भी धीमी गति से बसते वनों भी रफ्तार को देखकर भविष्य में पर्यावरण की कल्पना मात्र से ही शरीर में भय मिश्रित सिहरन उत्पन्न हो जाती है । जो पेड़ आज हमें दिखायी देता है, वह कल नहीं दिखता और जो पेड़ हमने कल बोया था, वह आज नहीं दिखता है ।
यह तो पर्यावरण के प्रति अलगाव भावना और साथ ही काष्टोपज की बढ़ती आवश्यकता का परिणाम है, लेकिन समाज में लकड़ी में आवश्यक उपयोगों ने इस समस्या को और अधिक बढ़ाया है । नि:संदेह हम एक दिन में वन नहीं तैयार कर सकते, लेकिन लकड़ी का सही उपयोग कर के एक दिन में ही कई लाख टन लकड़ी बचा सकते है । होलिका दहन में लकड़ी का बढ़ता प्रयोग चिंताजनक है ।
होली हर्ष, उल्लास एवं पारस्परिक सौहार्द का सबसे अधिक रंग-बिरंगा त्यौहार माना जाता है, लेकिन हमारे रूढ़िवादी दृष्टिकोण, अंधविश्वास और गतवर्ष से इस वर्ष बढ़ी होली जैसे गलत प्रतियोगिता से होलिका दहन अप्रत्यक्ष रूप से वन-दहन का कार्यक्रम बन जाता है । पूरे गांव/नगर की एक होली के स्थान पर प्रत्येक नगर/गांव और मोहल्लोंमें साथ अब तो घर पर भी होली जलाने की गलत परम्परा विकसित हो रही है, इसे सीमित करने की आवश्यकता है ।
होलिका दहन एक प्रतीक की स्मृति मात्र है, इससे किसी भी जाति संप्रदाय या धार्मिक आस्था का सीधा संबंध नहीं आता है । आज जबकि वृक्षों की कमी के कारण भविष्य में ईधन और हरियाली की समस्या खड़ी हो गयी है, ऐसे में यदि हमारी किसी भावना को ठेस पहुंचती हो तो भी संपूर्ण मानवता के हित में हमें कुछ ठोस कदम उठाने होंगे ।
धार्मिक भावनाआें और प्राचीन परम्परा निर्वाह के दृष्टिकोण से प्रत्येक नगर में सामूहिक रूप से एक स्थान पर होली जलायी जा सकती है । इस प्रकार का कार्य सरल नहीं है, लेकिन शहर/नगर के पर्यावरण प्रेमी नागरिक समाजसेवी संस्थायें समाचार पत्र और महिला संगठन मिलकर प्रयास करें तो असंभव प्रतीत होने वाला यह कार्य भी संभव हो सकता है। हमारे यहां लगभग ७५ प्रतिशत नागरिक अपने मन में इस दहन में औचित्य के प्रति अविश्वास/संदेह रखते है तो फिर प्रयोग के बतौर ही सही एक बार दृढ़ होकर इस विरोध को सामुदायिक शक्ति में परिवर्तित कर दे हो सकता है, इससे लकड़ी में वार्षिक दुरूपयोग समारोह का हम नयी दिशा दे सके ।
दरअसल होली का आज जो स्वरूप हो गया है उससे पर्यावरण का नुकसान ही हो रहा है । होलिका दहन में पेड़ों की आहूति कंडे एवं रूचि अपशिष्टों का अपव्यय जहरीलें रंग-रसायनों और आईल पेंटस का चेहरे पर लगाना और उनका घुल कर पेट में जाना, चमड़ी को प्रभावित करना, लोगों में नशावृत्ति को बढ़ावा इससे लड़ाई/झगड़ों में वृद्धि और पेयजल की बर्बादी आदि बातें प्रमुख है, जो प्राकृतिक/सामाजिक पर्यावरण को बिगाड़ती है । यह भी देखने में आया है कि अधिकांश तरूणों का नशे से प्रथम परिचय होलिकोत्सव के दौरान होता है । यह परिचय बाद में आदत बन जाता है । अत: हमें मानवता के समग्र कल्याण के लिये होलिका दहन की प्राचीन परम्परा को सामयिक परिस्थितियों के अनुसार पर्यावरण संरक्षण के दृष्टिकोण से नया परिवेश प्रदान करते हुए सामंजस्यकारी प्रयास करने होंगे तभी यह असंभव कार्य संभव हो सकेगा ।
(पर्यावरण डाइजेस्ट के मार्च १९८७ अंक में प्रकाशित)

खास खबर

तितलियों की बढ़ती तस्करी
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)

तितलियों के लगातार हो रहे विनाश से प्रकृति संतुलन गड़बड़ा सकता है । दु:ख की बात है कि तस्करी के कारण तितलियों के वजूद पर संकट मंडरा रहा है । भारत में नार्थ ईस्ट स्टेटस-मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश, आसाम, पंजाब, हिमाचल व जम्मू-कश्मीर में तितलियों को पकड़ कर विभिन्न राज्यों के साथ-साथ विदेश में तस्करी करके भारी दामों पर इन्हें बेचा जाता है । गहनों एवं सजावटी सामान के तौर पर इस्तेमाल पकड़ कर मारी गई तितलियों को फोटो फ्रेम में बंद कर दीवारों पर सजाने, कानों में गहनों की तरह पहनने और सजावटी सामान के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है ।
पूरे विश्व में हर वर्ष तकरीबन २० मिलियन डालर का तितलियों का अवैध कारोबार बेधड़क चल रहा है । अंतराष्ट्रीय बाजार में कुछ तितलियों की प्रजातियों का गहनों के बराबर का मूल्य है तथा वह काफी मंहगे दामों पर बेची जाती है ।
साधारणतया तितलियों को पकड़ने वाले तस्कर पेट्रोल जेनरेटर, अल्ट्रावायलेट बल्वस, बटरफलाई कलेक्शन जार, विभिन्न रसायन पदार्थ एवं जाल का उपयोग इन्हें पकड़ने के लिए करते हैं । विश्व में तकरीबन तितलियों की २४०० प्रजातियां हैं, जिनमें अकेलेभारत में तकरीबन १५०० प्रजातियां पाई जाती हैं । विभिन्न प्रजातियों की तितलियों का जीवनकाल भी अलग-अलग होता है । पंजाब में तिलियों की १४२ प्रजातियां तथा उनकी १४ फैमिलीज पाई जाती हैं जो कि यहां पर मौजूद १२ नैचुरल वैटलैंडस तथा १० मैन मेड वैटलैंडस में साधारणत: देखी जा सकती हैं । भारत में ही करीब सौ तितलियों की प्रतातियां विलुप्तहोने की कगार पर हैं । पंजाब में पाई जाने वाली कैबेज तितली प्रजाति के संरक्षण में बहुत सहायक मानी जाती हैं ।
अध्ययन के अनुसार एक तितली का अंडे से व्यस्क होने तक का जीवन दो सप्तह से लेकर कई महीनों तक हो सकता है । वास्तव में तितलियों का लारवा प्रकृतिके अनेक जीवों विशेषकर पंछियों का भोजन बनने के कारण भोजन श्रंृखला का अहम हिस्सा है । बहुत से पंछी अपने बच्चें को तितलियों के लारवा को ही भोजन के रूप में देते हैं, क्योंकि इसमें प्रोटीन के तत्व बहुतायात में होते हैं, जिससे शरीर का विकास जल्दी होता है । लारवा के भोजन श्रंृखला का हिस्सा होने के कारण मात्र पांच फीसदी तितलियां ही प्रकृति में बच पाती हैं ।
गहने बनाने वाले व्यापारी पकड़ कर मारी हुई तितलियों के पंख तथा समूची तितली को प्लास्टिक अथवा शीशे की परत चढ़ा कर बतौर गहनों में उपयोग किए जाने वाले पैंडेंट, तितलीयुक्त क्रिस्टल पेपरवेट, तितलियों के चाबीयों के छल्ले तथा इयररिंग्स के तौर पर प्रति पीस ५ से १० हजार रूपए तक बेचते हैं । उपरोक्त बताए गए सभी सजावटी चीजें एवं गहने अधिकतर फिलीपीन्स, थाईलैंड, चीन व जापान के तस्कर इन्हें वहां से पकड़कर अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बेधड़क बेचते हैं । आंकड़ों के अनुसार इनके गहनों व सजावटी वस्तुआें का विश्व में हर वर्ष तकरीबन एक मिलियन डालर का गैरकानूनी गोरखधंधा बेधड़क चलता है । औरतों को चाहिए कि वह तितलियों के बने हुए गहनों का उपयोग न कर इसके संरक्षण में समूची मानवता को सहयोग दें ।
वाइल्ड लाइफ एक्ट १९७२ के अन्तर्गत संरक्षित होने के कारण तितलियों को पकड़ना, मारना व इसकी तस्करी करना कानूनन जुर्म है, परन्तु दु:ख की बात है कि देश में कानून को सख्ती से लागू नहीं किया जा सका जिसके कारण इनकी तस्करी बेधड़क जारी है । गौरतलब है कि १९९४ में इंदिरा गांधी, अन्तर्राष्ट्रीय नेशनल एयरपोर्ट पर दो जर्मन लोगों को ४५००० तितलियों की खेप, १९९६ में दार्जिलिंग के इलाके में एक जापानी टूरिस्ट को १२०० तितलियों की खेप, २००१ में दो रूसी टूरिस्टों को सिक्किम में २००० तितलियों की खेप तथा २००८ में दो चेकोस्लोवाकिया के टूरिस्टों को बेस्ट बंगाल में १३००तितलियों की खेप के साथ गिरफ्तार किया गया ।
हाल ही में सन् २००९-२०१० में रूस के एक बड़े बटर फलाई पोचरस ग्रुप को तकरीबन १६ किलो की विशिष्ट विलुप्त् होने वाली तितलियों की खेप के साथपकड़ा गया, पंरतु कानून की ढुलमुल नीति होने के कारण जमानत देकर साफ छुट गए । जरूरत है कि वाइल्ड लाइफ संरक्षण एक्ट १९७२ को शक्ति से लागू करने की तितलियों की तस्करी को समय रहते रोक कर वातावरण में संतुलन कायम किया जा सके ।

विरासत

परम्परा, ज्ञान और धरोहर का व्यापार
रवीन्द्र गिन्नौरे

विश्वभर में जैव विविधता को व्यापार बनाकर उसके माध्यम से अधिकाधिक आर्थिक दोहन का चलन हमारी सभ्यता को संकट में डाल रहा है । घटते वन और बढ़ता प्रदूषण हमारे सामने एक तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें कि विनाश के अलावा और कुछ दिखाई नहींदे रहा है । आवश्यकता है जैव विविधता की महत्ता को समझा जाए और इसे बचाने के प्रयासो को सम्मेलनों से बाहर निकालकर आम जनता के बीच लाया जाए ।
परम्परागत ज्ञान और सांस्कृतिक धरोहर से सरोकार सखने वाली हमारी प्राकृतिक सम्पदा उपभोक्ता संस्कृति के बाजार मेंअब मूल्यवान हो गई है । जैव विविधता की दृष्टि से सम्पन्न भारत के उन क्षेत्र में घुसपैठ हो चुकी है, जहां दुर्लभ जड़ीबूटियां और मूल्यवान जीवाश्म मौजूद हैं । भौगोलिक विभिन्नताआें से परिपूर्ण हर इलाके में पेड़-पौधों के साथ वन्य पशुपक्षियों का बसेरा अब छिनता जा रहा है । दुर्भाग्य है कि जैव विविधता की कीमत जो समझते है, उसी समुदाय के कुछ लोग इसे बेचने में लगे हैं । भौतिक विकास की लिप्सा में प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग हो रहा है लेकिन जैव विविधता को संजोने का प्रयास आज भी शैशवावस्था में है ।
वैज्ञानिकों को पृथ्वी पर १६ लाख जीव जंतुआें की प्रजातियों की जानकारी है, जिसकी संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है । मगर इसके ठीक विपरीत हजारों प्रजातियां विलुप्त् होती जा रही है । पशु-पक्षी या किसी जंतु की प्रजाति विलुप्त् होने के बाद ही उसकी अहमियत का पता हमें चलता है ।
पृथ्वी के आनुवांशिक संसाधन साझा विरासत हैं, जिन्हें सम्पूर्ण मानव जाति के द्वारा उपयोग में लाया जाना चाहिए । जैव प्रौद्योगिकी उत्पादों के इन महत्वपूर्ण स्त्रोतों से भारी भरकम व्यापारिक लाभ हैं । विकसित राष्ट्र जैव विविधता से सम्पन्न राष्ट्रों से इन्हें लेने के लिए अपना दबाव बना रहे हैं । जबकि जैविक संसाधन उस राष्ट्र की सम्पत्ति हैं, जहां पर ये आनुवांशिक मूल रूप से पाए जाते हैं ।
जैव विविधता के संरक्षण का प्रश्न तभी से उठ खड़ा हुआ, जबसे इसके अनुचित दोहन के विरोधी स्वर उठे । जैव विविधता के संरक्षण का अर्थ है, किसी भी राष्ट्र की भौगोलिक सीमाआें में पाए जाने वाले पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की जातियों को विलुप्त् होने से बचाना । इन जातियों के लगभग पांच प्रतिशत को ही मानव खेतों व बागों में बोता है एवं उगाता और पालता है, शेष ९५ प्रतिशत जातियां प्राकृतिक रूप से वन क्षेत्रों, नदी-नालों एवं समुद्री तटों में स्वमेव उगती एवं पलती हैं ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के आव्हान पर ब्राजील के रियो-डि-जेनेरो पृथ्वी शिखर सम्मेलन में उपस्थित राष्ट्रों ने सामूहिक रूप से धरती की जैव विविधता के संरक्षण का निर्णय लिया था । भारत ने भी इस समझौते को स्वीकृति दी है ।
जैव विविधता की दृष्टि से भारत विश्व के समृद्धतम राष्ट्रों में है । भारत की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति होने के कारण पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की जितनी अधिक प्रजातियां यहां पाई जाती हैं, उतनी विश्व के गिने-चुने राष्ट्रों में ही मिलती हैंे । पृथ्वी पर उपलब्ध चार जैव भौगोलिक परिमंडलों में तीन पराध्रुव तटीय, अफ्रीकी तथा इण्डोमलायन के प्रतिनिधि क्षेत्र भारत में पाए जाते हैं । विश्व के किसी भी देश में दो से अधिक परिमंडलों के क्षेत्र नहीं मिलते हैं । यही कारण है कि यूरोप और अमेरिका की तरह भारत में हिरणों की आठ प्रजातियां पाई जाती हैं । विश्व का सबसे दुर्लभ छोटा चूहा हिरण (माउस डियर) भारत में ही पाया जाता है । अफ्रीकी राष्ट्रों की तरह बब्बर शेर और एण्टीलोप की जातियां भी भारत में पाई जाती हैं ।
उल्लेखनीय तथ्य है कि सारे महाद्वीप में हिरणों की प्रजातियां नहीं पाई जाती । मानव जाति के निकटस्थ चार प्राकृतिक संबंधियों में गुरिल्ला, चिम्पैंजी, ओरंग उटान और गिब्बन में अंतिम जाति गिब्बन भारत के अरूणांचल प्रदेश के वनों में पाई जाती है । यह सभी जीव विषुवत रेखा के सदाबहार वनों के हैं । जलवायु की विविधता के साथ-साथ धरातल की विविधता, लम्बा सागरतट एवं अनेक समुद्री द्वीपों के कारण पशुपक्षियों एवं वनस्पतियों की विभिन्न जातियों का विकास भारत में संभव हो सका है ।
हमारे देश में अभी तक पशुपक्षियोंकी ६५ हजार प्रजातियां (मछलियां २ हजार, रेंगने वाले जीव ४२०, जल स्थर चर जीव १५०, पक्षियों की १२०, स्तनपायी पशुआें की २४० तथा शेष कीट पतंगों की जतियां) एवं पुष्पधारी वनस्पतियों की १३ हजार जातियां पहचानी जा चुकी हैं । तीव्रतर औद्योगिक विकास व कुप्रबंधन से जैव विविधता के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है । पशुपक्षियोंकी अनेक प्रजातियां तेजी से विलुप्त् हो रही हैं ।
मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोयायटी के अनुसार लगभग ११८६ पक्षियों की प्रजातियां सम्पूर्ण विश्व में अब समािप्त् की ओर अग्रसर हैं । सोयायटी के अनुसार इनमें से ७८ पक्षियों की प्रजातियां केवल भारत में विलुिप्त् के कगार पर हैं तथा १८२ प्रजातियां आने वाले दस वर्षोंा के भीतर खत्म हो जाएंगी । संस्था के अनुसार प्रजातियों के विलुप्त् होने की दर ६४० करोड़ वर्ष पूर्व डायनासोर के विलुप्त् होने की दर से भी अधिक है । इनमें ९९ प्रतिशत विलुप्त् हो रही प्रजातियां मूलत: मनुष्यजन्य कारकों के कारण हैं, जिसमें शिकार, आधुनिक कृषि व औद्योगिक विकास मुख्य हैं ।
देश में औषधीय पौधों की लगभग ९५०० प्रजातियां हैं, जिनमें से ७५०० प्रजातियों का उपयोग दवाआें के रूप में किया जाता है । ३९०० औषधीय पौधों का संबंध वनवासियों की खाद्य संबंधी जरूरतों से है । २५० पौधों के बारे में तो इतना तक कहा जाता है कि भोजन के विकल्प के रूप मेंभविष्य में येे ही मनुष्य की जरूरतों को पूरा करेंगे । मुंडारिका एनसाइक्लोपीडिया के कॉदर जॉन हॉफमैन ने लिखा है कि ३५ पौधे ऐसे हैं, जिनसे आदिवासी शराब बनाते हैं । २६ कंद मूल सब्जी के रूप में इस्तेमाल करते हैं । ४४ पौधों को जहरीला बताया गया है और २५ पेड़ों के फुलोंको भी हमारे वनवासी सब्जी की तरह खाते हैं ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अमेरिका में ३३ फीसदी और एशिया में६५ प्रतिशत लोग आयुर्वेद चिकित्सा पर विश्वास करते हैं । मारीशस, नेपाल और श्रीलंका में तो इस चिकित्सा प्रणाली को सरकारी मान्यता प्राप्त् है । भारत, चीन, थाईलैंड, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और इंडोनेशिया में तो प्राचीनकाल से ही जड़ीबूटियों से इलाज की परम्परा रही है । आज इन वनौषधियों को लूटा जा रहा है । भारी पैमाने पर इनकी तस्करी हो रही है । परिणामस्वरूप हमारे वनवासी प्रकृति की इस अमूल्य धरोहर से वंचित होते जा रहे हैं ।
भारतीय जड़ीबूटियों की धड़ल्ले से हो रही तस्करी के पीछ ेहमारे अपने ही लोग भी काफी हद तक जुड़े हुए है ं । सभी महाद्वीपों में ऐसे अनेक देश है ंजहां काफी बड़ी कीमत देकर इन वनौषधियों को खरीदा जा रहा है । इनसे मिलने वाली भारी कीमत ने ही इनकी तस्करी को बढ़ाया है । दो वर्ष पूर्व हुए एक अध्ययन के मुताबिक हर वर्ष ८० हजार टन वनस्पति, जिसमेंदुर्लभ जड़ीबूटियां भी शामिल हैं, वैध और अवैध तरीके से भारत से बाहर लाई गई हैं ।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा आंके गए एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष ५.४ अरब डॉलर मूल्य के जैव संसाधन तीसरी दुनिया के देशों से चुराए जाते हैं । इसका ६० प्रतिशत भाग सिर्फ अमेरिका हड़पता है । जर्मनी की एक दवा कंपनी हॉकिस्ट (हेक्सट्) पिछले कुछ वर्षोंा से भारतीय उपक्रम हाकिस्ट इंडिया के नाम पर केरल के वनों से लेकर हिमालय के पर्वतों तक समूचे भारत के पौधों, पादपों और मिट्टी के नमूने इकठ्ठा कर रही है । दो वर्ष पूर्व यह कंपनी लगभग ९० हजार नमूनों की जांच कर चुकी थी । पिछले कुछ वर्षोंा से छत्तीसगढ़ राज्य से बड़े पैमाने पर जड़ीबूटियां खरीदने वाले दलाल पैदा हो गए हैं, जो इन जड़ीबूटियों को अंधाधुंध बाहर भेज रहे हैं ।
मानव जिंदगी के लिए जिस तरह जमीन, हवा, पानी जरूरी है, उसी तरह वनस्पति और प्राणी भी जरूरी हैं । किन्हीं कारणों से यदि पौधे या प्राणी को क्षति पहुंचती है तो इसका दुष्परिणाम प्रकृतिके सारे क्रियाकलापों में अनुभव किया जाता है ।
जीवन निर्वाह के लिए धन दौलत से हवा, पानी ज्यादा जरूरी है । शुद्ध हवा, पानी व प्राकृतिक संतुलन तभी बना रह सकता है, जब हम सही मायने मेंवसुंधरा को माता समझें और उसके साथ वैसा ही व्यवहार करें ।

पर्यावरण समाचार

यूनियन कार्बाइड के कचरे को जलाने का विरोध

यूनियन कार्बाइड के ३४६ टन खतरनाक अपशिष्ट को पुन: पीथमपुर में लाकर जलाए जाने के निर्णय पर लोक मैत्री समूह (इंदौर) की आयोजित आपातकालीन बैठक में उग्र विरोध करने का निर्णय लिया गया है । बैठक में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. भरत छपरवाल, समाजशास्त्री प्रो. आरडी प्रसाद, डॉ. गौतम कोठारी,इंटक नेता श्यामसुंदर यादव एवं महेंद्र सिकरवार, जवाहर राठौर आदि प्रमुख सदस्यों ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया कि रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय भारत शासन के अतंर्गत गठित टास्क फोर्स समिति द्वारा युनियन कार्बाइड के अपशिष्ट को पीथमपुर में जलाए जाने की अनुशंसा अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है ।
लोक मैत्री द्वारा पूर्व में भी इस कचरे को रामकी इनवायरो इंजीनियर्स के म.प्र. वेस्ट मैनेजमेंट साइट पीथमपुर के भस्मक में जलाए जाने का भरपूर विरोध किया था और १० जुलाई २०१० को तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने पीथमपुर के अपने दौरे के दौरान ही यूका के कचरे को पीथमपुर मेंजलाए जाने के निर्णय को वापस लिया था । मंत्री श्री रमेश ने यूका कचरे से संबंधित मामला ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स (जीओएम) के समक्ष रखा था, जहां यह निर्णय हुआ था कि यूका का कचरा पीथमपुर मेंनहीं जलाया जाएगा और इसके लिए अन्य उपयुक्त स्थान की तलाश की जाएगी ।
टास्क फोर्स द्वारा यह निर्देश दिए गए हैं कि म.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा पीथमपुर स्थित भस्मक को कचरे के उपचार, संग्रह व निपटान सुविधा के परीक्षण की अनुमति दी जाए व केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसका परिवेक्षण करें एवं सफल निपटान के पश्चात म.प्र. प्रदूषण निवारण मंडल इस सुविधा को अपनी नियमित अनुमति दे । टास्क फोर्स द्वारा गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग म.प्र. प्रदूषण निवारण मंडल से पीथमपुर स्थित सुविधा को खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन, हस्तालन एवं परिवहन) नियम २००८ के अंतर्गत यूनियन कार्बाइड के १० मीट्रिक टन टॉक्सिक वेस्ट को पीथमपुर भिजवाने की अनुमति दिलाने में सहयोग करें तथा केंद्रीय प्रदूषण निवारण मंडल दो माह के अंदर इस खतरनाक अपशिष्ट के भस्मीकृत करने के लिए परिक्षण बतौर पर्यवेक्षण करते हुए टास्क फोर्स को प्रतिवेदन सौंपे ।