गुरुवार, 22 मार्च 2012

कृषि जगत

सोयाबीन का विकल्प
डॉ.जी.एस. कौशल

सोयाबीन की खेती भारतवर्ष, विशेष रूप से मध्यप्रदेश में साठ के दशक में प्रांरभ की गई थी, प्रारंभिक वर्षो में १९७०-८० तक इसका क्षेत्र सीमित (०.३० से ०.५० लाख हेक्टर) था तथा उत्पादकता ४२६ से ९७५ किलो प्रति हेक्टर थी । प्रारंभ में प्रसंस्करण एवं उत्पादन क्रय की व्यवस्था न होने से क्षेत्र बढ़ने के बजाय घटता गया । प्रशासन एवं उद्यमियों द्वारा प्रयास किये जाने के फलस्वरूप अस्सी के दशक में बड़ी संख्या में सोया प्रसंस्करण उद्योग लगाए गए जिससे सोयाबीन के अन्तर्गत क्षेत्र तेजी से बढ़ा ।
इसी के साथ म.प्र. से प्रारंभ होकर इसकी खेती २००८-०९ तक महाराष्ट्र, राजस्थान में की जाने लगी । क्षेत्र वृद्धि के साथ उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि नहीं हो पाई । वर्ष १९७६-७७ की ९८८ किलो उत्पादकता वर्ष २००४-०५ में १००७ किलो प्रति प्रति हेक्टर पर ही है साथ ही पिछले पांच वर्षो की औसत उत्पादकता तो १००५ किलो प्रति हेक्टर है । मध्यप्रदेश के ४८ जिलों में से लगभग ३० जिलों में उत्पादकता १००० किलो से कम है (४२९ किलो से ९८२ किलो प्रति हेक्टर) । होशंगाबाद जिला जो अन्य फसलों की उत्पादकता में अग्रणी रहता है और जहां १.९५ लाख हेक्टर में सोयाबीन बोई जाती है वहां भी उत्पादकता केवल ९८२ किलो प्रति हेक्टर है । अत: अब यह आवश्यक हो गया है कि इस पर गंभीरता से विचार किया जाये ।
विकल्प क्यों - सोयाबीन की फसल लगातार बोए जाने के फलस्वरूप कीट प्रकोप एवं रोग बढ़ते जा रहे हैं, पोषक तत्वों की आवश्यकता भी अधिक हो रही है । इसी के साथ सोयाबीन में घासवर्गीय ख्ररपतवार को खत्म करने के लिये अंधाधंुंध खरपतवारनाशकों का उपयोग हो रहा है, इसके अवशेषों का विपरीत प्रभाव सोयाबीन के बाद बोने वाली गेहूँ की फसल पर स्पष्ट रूप से देखने को मिल रहा है, इन सबके फलस्वरूप लागत मूल्य की वृद्धि होने से सोयाबीन लाभप्रद नहीं रह पा रही है । वर्तमान में सोयाबीन की लागत रूपये ७४३.५६ प्रति क्विटल आ रही है । औसत उत्पादन ११५० किलो एवं शासन द्वारा निर्धारित समर्थन मूल्य रूपये १६९० मान्य किया जावे तो ऐसी स्थिति में कुल उत्पादन की कीमत रूपये १९४३५ होती है । इसमें से लागत मूल्य रूपये ८५५१ घटाने पर रूपये १०८८४ ही बचत प्रति हेक्टर रह जाती है । इसके साथ ही देखा जाये तो मौसम की मार भी सोयाबीन पर ही अधिक पड़ती है । ऐसी स्थिति में वे क्षेत्र जहां उत्पादकता कम है और जहां कीट व्याधियों के साथ मौसम की मार अधिक अधिक पड़ती है, सोयाबीन लाभदायक नहीं है और वहां के कृषक इसे छोड़ने को तत्पर हैं ।
जब भी फसल में परिवर्तन करने की बात आती है तो प्रसार कार्यकर्ता/वैज्ञानिकों एवं कृषकों के सामने अन्य विकल्प न होने के कारण मजबूरन उन्हें सोयाबीन ही अपनाना पड़ रहा है । यह स्थिति अधिक दिनों तक चल नहीं सकती । इसके विकल्प की मांग तेजी से आ रही है, अत: हमें अन्य फसलों की उत्पादकता/उपयोगिता एवं लागत मूल्य पर गहन अध्ययन कर क्षेत्रवार विकल्प तो देने ही होगें, जिससे कृषकों की खेती लाभप्रद बन सके ।
सोयाबीन क्षेत्र वृद्धि में सबसे अधिक योगदान ज्वार का रहा है । पूर्व में ज्वार की जो किस्में बोई जाती थी उनकी अवधि १५० दिनों से अधिक थी ज्वार के बाद कोई दूसरी फसल लिया जाना संभव नहीं होता था । अत: ज्वार को छोड़कर कृषकों ने सोयाबीन की फसल लेना प्रारंभ किया जिससे वर्ष में दो फसलें लेना संभव हो सका । खानपान की पद्धति बदलने एवं बाजार में गेहूँ की उपलब्धता बढ़ने से भी ज्वार की मांग घटने लगी । बाजार में ज्वार की मांग नहीं रही, ऐसी स्थिति में सोयाबीन को बढ़ने का मौका मिल गया ।
वर्तमान में बाजार की मांग में परिवर्तन आया है, खानपान की प्रणाली बदल रही है, खाने में स्वास्थ्यवर्धक मोटे अनाजों की मांग बढ़ रही हैं । इसी के साथ मुर्गीदाने एवं पशुआहार में भी मोटे अनाज विशेष रूप से मक्का, ज्वार की मांग अर्न्तराष्ट्रीय बाजार में बढ़ रही है । ऐसी स्थिति में इन फसलों के दाम भी अच्छे मिल रहे हैं । इसी के साथ कम अवधि की अधिक उपज देने वाली किस्में भी उपलब्ध हैं । इन्हें अपनाने से अधिक उपज, कम खर्चे में दो फसलें भी लेना संभव होगा । अत: बदली परिस्थिति में सोयाबीन के विकल्प के रूप में दलहनी, तिलहनी एवं खाद्यान्न फसलों को लिया जा सकता है ।
विभिन्न फसलों की उत्पादकता एवं आय - परम्परागत फसलें क्षेत्र विशेष के लिए अधिक उपयुक्त है । इनकी मांग स्थानीय रूप से भी अधिक रहती है । इन फसलों में से दलहन एवं तिलहन पूर्ति करने के लिये लगातार आयात भी करना पड़ रहा है, अत: स्थानीय रूप से ही इन फसलों को विकल्प के रूप में अपनाना श्रेयस्कर होगा ।
मक्का - मक्का की मांग कुक्कुट दाने, स्टार्च बनाने के साथ त्वरित खाने (फास्ट फूड) के लिए बढ़ रही है । यदि अधिकतम औसत उत्पादकता १३.६९ क्ंविटल को लिया जावे तो समर्थन मूल्य पर शुद्ध लाभ रूपये ६७०८ होता है । अधिकतम उपज तो उन्नत किस्मों से प्राप्त् की जा सकती है, को लिया जाये तो प्राप्त्यिां रूपये ४९००० तथा शुद्ध लाभ रूपये २४,५०० होगा, जबकि सोयाबीन में प्राप्त्यिां ३३,८०० एवं शुद्ध लाभ राशि १६९०० ही अधिकतम उत्पादन प्राप्त् करने पर होगा, इसके अतिरिक्त पशुधन के लिये मक्का की पौष्टिक कड़वी (चारा) लगातार मिलता रहेगा ।
ज्वार - ज्वार की मांग खाघान्न एवं पशु दाने के लिए लगातार बढ़ रही है इसकी औसत उत्पादन १२.०२ क्ंविटल / हेक्टर है । समर्थन मूल्य रूपये ९८० के आधार पर कुल आय रूपये १३४१६ होती है जबकि लगभग खर्च रूपये ६७०८/ हेक्टर आता है । इस प्रकार शुद्ध बचत रूपये ६७०८ होती है । उन्नत किस्मों के अपनाने से शुद्ध बचत रूपये १४७०० प्रति हेक्टर हो सकती है । इसके अतिरिक्त पशुधन के लिये कड़वी (चारा) अतिरिक्त प्राप्त् होता रहेगा ।
अरहर, उर्द, मूंग - दलहनों की पूर्ति बनाए रखने के लिये देश में लगातार दबाव बढ़ रहा है तथा आपूर्ति बनाए रखने के लिये निरन्तर आयात करना पड़ रहा है । इन फसलों की औसत उत्पादकता क्रमश: अरहर २००० किलो, उर्द १५०० किलो, मूंग १५०० किलो प्राप्त् की जा सके, तो एक तरफ जहां देश में दालों (प्रोटीन) की आपूर्ति संभव हो सकेगी वहीं मिट्टी की उर्वराशक्ति भी बढ़ाई जा सकेगी जो रबी में उत्पादन की जाने वाली फसलों के लिए भी लाभदायक रहेगा । इसी के साथ उन्नत किस्मों की खेती करने पर अरहर, उड़द, मूंग से क्रमश: रूपये २४०००, २४७५० एवं २६२५० की बचत हो सकती है जो सोयाबीन से प्राप्त् बचत रूपये १६९०० से कहीं अधिक है ।
अरहर, मक्का, ज्वार के साथ मंूग एवं उर्द को अंतरवर्तीय फसलों के रूप में सफलतापूर्वक लिया जा सकता है । वर्तमान कृषि परिदृश्य को देखते हुए मिट्टी की उर्वराशक्ति बनाए रखने, दलहनों की आपूर्ति, मुर्गीदाने, पशुधन के चारे की पूर्ति बनाए रखने तथा कृषकों की आर्थिक स्थिति सुधारने को ध्यान में रखते हुए सोयाबीन विकल्प के रूप में ज्वार + उड़द/मूूंग, मक्का/अरहर, मक्का + उड़द + मूंग की अन्तरवर्तीय फसल पद्धति को प्राथमिकता दिया जाना उपयुक्त होगा ।
फिर भी यदि शासन/कृषक सोयाबीन को बढ़ावा देना चाहते हैं तो आवश्यक है कि ज्वार/मक्का/अरहर को सोयाबीन के साथ अन्तरवर्ती फसल के रूप में लें, सोयाबीन की अकेली फसल को बढ़ावा न दें ।

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