मंगलवार, 14 मई 2013



प्रसंगवश
बूंद बंूद से घट भरे
    देश में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता चितांजनक स्तर तक पहुंचने के बीच केन्द्र सरकार ने पिछले दिनों नई जल नीति को मंजूरी दे दी है । सरकारी प्रयासों के अलावा हमको भी जल को राष्ट्रीय संपदा समझते हुए प्रत्येक बूंद की हिफाजत का संकल्प लेना चाहिए ।
    सन् १९५१ में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता ५,१७७ क्यूबिक मीटर थी । २०११ में यह घटकर १५.४५ क्यूबिक मीटर हो गई । इसमें लगातार गिरावट के चलते २०२५ तक १,३४१एवं २०५० तक १,१४० क्यूबिक मीटर तक घटने की आशंका है । नई जल नीति में मांग के अनुरूप जल उपलब्धता को बरकरार रखने की चुनौती एवं विशेष रूप से कृषि कार्योके लिए जल भंडारण की क्षमता को सुधारने पर बल दिया गया है । उल्लेखनीय है कि जल उपयोग का ८० प्रतिशत खेती के कामों में उपयोग होता है । इस नीति में पहली बार जलवायु परिवर्तन के खतरे एवं जल सुरक्षा की चर्चा करते हुए अगले तीन-चार दशकों के लिए व्यापक दृष्टिकोण का खाका तैयार किया गया है । इससे पहले राष्ट्रीय जल नीति २००२ में बनाई गई थी ।
    देश में वर्तमान जल भण्डारण क्षमता २५३ बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) है । भंडारण की क्षमता समेत बहुउद्देशीय पनबिजली प्रोजक्टों की योजनाआें के जरिए २०५० तक इसको ४०८ बीसीएम तक पहुंचाया जा सकता है । यद्यपि उस अवधि तक विभिन्न सेक्टरों की पूर्ति के लिए ४५० बीसीएम जल भण्डारण क्षमता की आवश्यकता होगी । देश में प्रति व्यक्ति जल भंडारण क्षमता २०९ क्यूबिक मीटर है । अमेरिका में यह २,१९२ एवं ब्राजील में २,६३२ क्यूबिक मीटर है । चीन में यह आंकड़ा ४१६ क्यूबिक मीटर है ।
    जल संरक्षण के प्रयास के लिए निजी कंपनियां भी आगे आ रही है । इस कार्यक्रम के तहत हिन्दुस्तान युनीलीवर कंपनी ने भारत जल निकाय का गठन किया है । इसके लिए शुरूआत में २० करोड़ का बजट तय किया गया है । इस प्रोजेक्ट के तहत वर्ष २०१५ तक ५० अरब लीटर से भी ज्यादा जल संरक्षण का प्रस्ताव है । लोगोंके बेहतर स्वास्थ्य एवं सफाई के लिए जरूरी न्यूनतम गुणवत्तापरक जल को उपलब्ध कराने के लिए हर राज्य में इस तरह की अथॉरिटी के गठन का प्रस्ताव है ।
संपादकीय 
एक उदाहरण बन गया है पिपलांत्री गांव

देश मेंकन्या भू्रण हत्या रोकने के मामलोंमें त्वरित कार्यवाही के साथ-साथ लोगों की सोच में भी बड़े बदलाव की जरूरत है । यह बात कई बार रेखांकित हुई है । समाज बेटियों की उपयोगिता समझे, इसके लिए लोगों में वैज्ञानिक सोच विकसित की जाए । वैज्ञानिक सोच किस तरह बेटियों को बचाने में मदद्गार साबित होगी, यह बात राजस्थान के छोटे से गांव पिपलांत्री की मिसाल से समझी जा सकती है ।
    राजसमंद जिले का यह गांव न केवल अपने यहां बेटियोंको बचा रहा है, बल्कि उनके बहाने पर्यावरण को प्रोत्साहन भी दे रहा है । यह सब सामुदायिक सहयोग से संभव हुआ । पिपलांत्री के पूर्व सरपंच श्यामसुंदर पालीवाल ने अपनी बेटी की मौत के बाद उसकी याद में पेड़ लगाने की पहल को पूरे गांव ने अंगीकार किया । पिपलांत्री में जब किसी घर में कोई बेटी जन्म लेती है, तो वहां के लोग मिल-जुलकर एक सौ ग्यारह पेड़ लगाते है और उनके फलने-फूलने से लेकर देखरेख तक का पूरा इंतजाम खुद करते है ।
    इस अनूठी पहल से बीते छह वर्षो में इस इलाके में ढाई लाख से ज्यादा पेड़ और उन्हें दीमक से बचाने के लिए इतनी ही तादाद में एलोवेरा (ग्वारापाठा) के पेड़ लगाए जा चुके है । इस पहले से गांव में दो बड़े बदलाव आए । एक, लड़कियों के प्रति समाज का नजरिया बदला, तो दूसरा, बड़ी तादात में फलदार पेड़ पौधों लगने से इलाके का पर्यावरण सुधार ही, गांव के लोगोंके लिए रोजगार के मौके भी बढ़ गए । गांव में इसके लिए एक नई परिपाटी शुरू की गई । किसी भी घर मेंलड़की की पैदाइश पर उसके माता-पिता को एक शपथ पत्र पर दस्तखत करना होता है, जिसमें कुछ शर्तेहोती है । मसलन वे बेटी की शादी कानूनी उम्र से पहले नहीं करेंगे, उसे नियमित तौर पर स्कूल भेजेगे और उनके नाम पर लगाए गए पेड़ों की देखभाल करेंगे आदि । इस सकारात्मक शर्तो के साथ एक अहम काम और किया जाता है, लड़की के पिता से दस हजार रूपये लिए जाते है और उसमें गांव वालों की ओर से एकत्रित किए २१ हजार रूपये मिलाकर उस रकम को लड़की के नाम से खोले गए बैंक खाते में बीस वर्ष के लिए जमा कर देते है जिससे लड़की को आर्थिक आधार मिलता है ।
 सामयिक
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून
चिन्मय मिश्र

    खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लेकर चल रहा अनावश्यक विवाद यह दर्शाता है कि भर पेट वालों के लिए भूखों के बारे में सोचने का समय नहीं है । ना ही उनकी चिंता है कि देश समानता के आधार पर संचालित हो ।
    इक्कीसवीं शताब्दी में पहुंचते न पहुंचते देश के नागरिक एक विचित्र स्थिति में पहुंच गए है । आजादी के ६५ बरस पश्चात्, पहली हरित क्रांति के ४० बरस बीत जाने व हमेंसातवें आसमान का सपना दिखाने वाली नई आर्थिक व उदारवादी नीति के क्रियाशील होने के बीस वर्ष बाद भी हम भोजन के मामले में असुरक्षित क्यों है ? इसलिए खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लागू करने की आंदोलनों की १२ बरस पुरानी मांग, जिस पर सर्वोच्च् न्यायालय सन् २०११ से ही विचार कर रहा है और लगातार निर्देश भी दे रहा है, वह यूपीए-२ के इस पांच सालाना कार्यकाल का फ्लेगशिप कार्यक्रम हो जाता है । ठीक वैसे ही जैसे पिछले कार्यकाल में सूचना का अधिकार कानून और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून था, जिसमें बाद में महात्मा गांधी का नाम जोड़कर हर भारतीय की आत्मा से जुड़ने का प्रयास किया  गया । 
     राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम - २०१३ (संशोधित संस्करण केबिनेट द्वारा स्वीकृत) की प्रस्तावना मेंलिखा है, सभी लोग सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकें, इसके लिए उन्हेंउच्च् गुणवत्तायुक्त आहार को किफायती दर पर उपलब्ध कराया जाए, जिससे सभी मनुष्यों को अपने संपूर्ण जीवन चक्र में खाद्य एवं पोषाहार सुरक्षा प्रदान की जा सके । उपरोक्त कथन से किसी भी तरह की असहमति की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती ।
    खाद्य सुरक्षा अधिनियम के पीछे रात-दिन अपनी जिंदगी हलाकान कर देने वाला आखिर इतना बिफरा हुआ क्यों है ? इसे जानने के लिए इस प्रस्तावित अधिनियम के कुछ प्रावधानों पर निगाह डालना जरूरी है । सुन्दर प्रस्तावना के बाद अगला अनुच्छेद है, पात्रता । इस कानून में पात्रता की परिभाषा है, प्राथमिकता वाले परिवारों को पांच किलोग्राम अनाज प्रति व्यक्ति प्रति माह की पात्रता होगी और अंत्योदय परिवारों को ३५ किलो अनाज प्रति व्यक्ति-प्रति माह की पात्रता होगी और अंत्योदय परिवार मिलकर (कहा जाए - पात्र परिवार) ग्रामीण आबादी के ७५ प्रतिशत और शहरी आबादी के ५० प्रतिशत के बराबर हो जांएगे ।
    इसी अनुच्छेद में यह भी कहा गया है चावल ३ रूपये, गेहूं २ रूपये और मोटा अनाज (कानून में इसे कोअर्स ग्रेन कहा गया है) १ रूपये प्रति किलो की दर से उपलब्ध कराया जाएगा । यहां विशुद्ध रूप से केवल वह भी ५ किलो प्रति व्यक्ति देने की बात कही है । क्या भोजन में किसी और सामग्री जैसे दाल, तेल आदि की आवश्यकता नहीं होती ? वैसे आईसीएमआर (इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च) के अनुसार एक स्वस्थ व्यक्ति को एक माह में १४ किलो अनाज, ८०० ग्राम तेल और डेढ़ किलो दाल की आवश्यकता पड़ती है । यानि प्रतिदिन करीब ४६६ ग्राम । कानून प्रावधान कर रहा है, महज १६६ ग्राम प्रतिदिन । इसके अलावा तेल व दाल नदारद हैं ।
    छत्तीसगढ़ के खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर भी एक नजर दौडाएं । इसके अनुसार केवल वे लोग जो आयकर देते हैं, जिनके पास ४ हेक्टेयर सिंचित, ८ हेक्टेयर असिंचित कृषि भूमि है, या जिनके पास १,००० स्क्वे. फीट का पक्का मकान है, केवल वे ही इस कानून की परिधि से बाहर रहेंगे । इतना नहीं यहां अंत्योदय एवं प्राथमिकता वाले परिवारों को १ रूपये प्रतिकिलो के हिसाब से ३५ किलो अनाज, १० रूपये किलो की दर पर २ किलो दाल, ५ रूपये प्रति किलो की दर से २ किलो चना एवं २ किलो नमक मुफ्त मिलेगा । यानि इसकी परिधि में ९० प्रतिशत लोग होंगे ।
    राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून एक केन्द्रीय कानून होगा । इसमें प्रावधान है कि यह पूरे देश में एक सा लागू होगा । वहीं भारत में एक ओर केरलजैसे विकसित राज्य हैं तो दूसरी और बिहार और ओडिशा जैसे पिछडे राज्य । परन्तु इस कानून मेंअधिकतम पात्र परिवारों की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं है । यह अजीब विरोधाभासी प्रवृत्ति दर्शाता है ।
    इन दिनों सब्सिडी से (खासकर आम आदमी प्रदत्त) देश के रसातल में जाने की बात जोरशोर से उठाई जा रही है । वर्तमान में सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर ८८,९७७ करोड़ रूपये की सब्सिडी दी जा रही है । यदि सरकारी विधेयक पारिता होता है तो यह १,१२,२०५ करोड़ रूपये हो जाएगी । मजेदार बात यह है कि संसद की स्थायी समिति की अनुशंसा यदि मानी जाए तो सब्सिडी घटाकर ९२,४९९.४० करोड़ पर आ जाती है । वहीं भोजन का अधिकार अभियान की अनुशंसाएं इस सब्सिडी की राशि को १,९७,२८४ करोड़ रूपये से २,४६,६०५ करोड़ रूपये मध्य पहुंचाती है । इतनी बड़ी रकम का जिक्र आते ही हाय-बाप शुरू हो जाती है कि इतना पैसा कहां से आएगा । एक स्तर पर यह बात एकदम वाजिब भी नजर आती है । लेकिन जब हम अपनी नजर पैनी करते है तो पाते है कि गतवर्ष कारपोरेट आयकर, एक्साइज ड्यूटी और कस्टम ड्यूटी में कुल कर छूट करीब ५,२८,१६३ लाख करोड़ रूपये पहुंचती है । वहीं सोना, हीरा व जेवरातों पर दी गई छूट करीब ६१,०३५ करोड़ रूपये बैठती है । यानि तकरीबन ६ लाख करोड़ रूपये प्रतिवर्ष । इसके एक तिहाई मेंभारत की पूरी आबादी कम दा पर भरपेट अनाज खा सकती है ।
    एक और विचारणीय तथ्य यह भी है कि आखिर सरकार में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम बनाने की इच्छाशक्ति कैसे निर्मित हो गई । चुनावी राजनीति और खाद्यान्न की राजनीति का सामंजस्य सन् १९९५ में प्रारंभ हो गया था । सबसे पहले समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने कालीहांडी में भूख से हुई मौतों के संबंध में भोजन के अधिकार को मूल अधिकारोंके शामिल करने की बात उठाई थी । बाद में चन्द्रबाबू नायडू का कम्प्यूटीकरण तो उतना कारगर नहीं हुआ, लेकिन कांग्रेस का कम कीमत पर अनाज उपलब्धता का दावा काम कर गया । तमिलनाडु में जयललिता, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह और उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी ने भी इस सस्ते अनाज की उपलब्धता की बात की । अनेक स्थानों पर इस विषय पर सरकारों को दूसरे कार्यकाल का मौका भी मिला ।
    इस बीच सर्वोच्च् न्यायालय ने इस मामले को गंभीरता से लिया और एक के बाद एक दिशा निर्देश देना शुरू    किए । आईसीडीएस मध्यान्ह भोजन (स्कूलों में) व भोजन संबंधी अन्य सारे कार्यक्रम और योजनाआें के पीछे कमोवेश सर्वोच्च् न्यायालय की सद्इच्छा और निर्देश ही थे । इस बीच कांग्रेस ने अपने २००९ के चुनावी घोषणा पत्र में इसे लागू किए जाने की बात  कही । वहीं संभवत: एक तथ्य यह भी है कि सरकार एक कानून बनाकर उसे न्यायालय की निगरानी से बाहर ले आना चाहती है ।
    कानून पर तो बहुत सारी बातें हो सकती हैं, लेकिन एक प्रावधान पर गौर करना आवश्यक है । इसके अध्याय ८ में पीडीएस सुधार के मामले में कहा गया है कि केन्द्र व राज्य सरकारें विभिन्न पीडीएस सुधारों को आगे बढ़ाएंगे । इसमें घर-घर अनाज मुहैया कराने, आईसीटी आवेदन व कम्प्यूटरीकरण, पात्र हितग्राहियों की विशिष्ट पहचान के लिए आधार (यूआईडी) के इस्तेमाल, रिकार्ड में पारदर्शिता, उचित मूल्य दुकानों को खोलने में सार्वजनिक संस्थाआें या निकायों को प्राथमिकता देना, उचित मूल्य दुकानों का संचालन महिलाआें को देने, पीडीएस के तहत विविध उपभोक्ता सामग्री मुहैया कराना और कैश ट्रांसफर, फूड कूपन या अन्य योजनाआेंके तहत् अनाज की पात्रता निर्धारित करने वाली योजनाएं शामिल हैं ।
    इससे साफ जाहिर होता है कि इस कानून का अंतिम उद्देश्य बहुत चालाकी से नकद हस्तांतरण की ओर बढ़ना है । इसके बाद सभी नागरिक बाजार के भरोसे हो जाएंगे और भारतीय अनाज बाजार बहुराष्ट्रीय व महाकाय राष्ट्रीय कंपनियोंके हवाले हो जाएगा और लाखों करोड़ रूपये का सालाना व्यापार कुछ लोगोंके हाथ में सीमित हो जाएगा । इसका सीधा प्रभाव खेती-किसानी पर भी पड़ेगा । इसकी खास वजह यह है कि सार्वजनिक खरीदी न्यूनतम हो जाएगी और किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य की कोई गांरटी नहीं रहेगी । कृषि को दोबारा सशक्त बनाए बगैर खाद्य सुरक्षा की कल्पना ही शेखचिल्ली के सपने जैसी होगी । इसमेंइसे लेकर कोई वायदा नहीं किया गया है कि कृषि क्षेत्र का उर्द्धार होगा ही ।
    कृषि की रासायनिक तत्वोंपर बढ़ती निर्भरता, दालों एवं दलहनों के उत्पादन में लगातार कमी से निपटने की बात भी नहीं की गई है । साथ ही बहिस्कृत एवं जोखिमभरे समूहों के लिए भी इसमें पर्याप्त् प्रावधान नहीं है । कुल मिलाकर यह कानून ऊंट के मुंह मेंजीरा है और कमोवेश एक खानापूर्ति ही है । अगर हम वास्तव में देश से भूख व असहायता को समाप्त् करना चाहते हैं तो आवश्यक है कि देश में रह रहे प्रत्येक नागरिक को सम्मान व समता की दृष्टि से देखा जाए एवं कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना का मखौल उड़ाना बंद किया जाए ।
हमारा भूमण्डल
पानी से हुई क्रांति
स्मृति काक रामचन्द्रन

    बोलिविया में पानी के निजीकरण के विरोध में पनपा जनसंघर्ष अंतत: यहां पहली देशज सरकार के गठन के साथ अंतिम पायदान पर पहुंचा । पानी के माध्यम से हुए आमूलचूल राजनीतिक परिवर्तन ने यह बता दिया है कि आम आदमी अपने संघर्ष के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्त् कर सकता है । भारत में पानी के निजीकरण की जोरदार वकालत की जा रही है ।
    आम नागरिकों के निजीकरण विरोधी अभियान ने एक बड़ी क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया जिसके तहत् अंतत: बोलिविया की पहली देशज सरकार बनी । नीचे गिरते भूजल स्तर और खत्म होती प्राकृतिक संरचनाआें के कारण जल सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु दुनियाभर मेंपीने लायक पानी के स्थाई प्रबंधन हेतु बहस के साथ ही मुफ्त जल उपलब्धता के मूलभूत अधिकार पर भी इन दिनोंबहस जारी है । खासकर तब जबकि कई देशों में जीवन के लिए अनिवार्य इस संसाधन के निजीकरण का प्रयास जारी है । 


     उस देश में जहां हर चीज का निजीकरण हो गया था और सरकार भी बाहरी ताकत से संचालित थी वह बोलिविया अब ऐसे देश में तब्दील हो गया है, जो अपने संसाधनों पर नियंत्रण रखता है, अपने धन का प्रबंधन करता है और अपनी जनता की भलाई के लिए काम करता है । यह बात जल कार्यकर्ता और संयुक्त राष्ट्र में बोलिविया के पूर्व राजदूत पाब्लो सोलोन ने अपने भारत दौरे में इस लेटिन अमरिकी देश में पानी के निजीकरण पर लगाम लगाने के अनुभवोंऔर उससे आए बदलावों को साझा करते हुए कही ।
    श्री सोलोन ने बताया कि जलप्रदाय करने वाली निजी कंपनियों को खदेड़ने के लिए बोलिविया के लापाज शहर में १९९७ में और कोचाबांबा में १९९८ में पानी के निजीकरण विरोधी संघर्ष शुरू हुआ था जो सात से अधिक सालों तक लगातार चला, जिसमें तीन जानें गई और सैकड़ों महिला-पुरूष जख्मी   हुए ।
    उन्होनेंं याद करते हुए बताया कि निजी कंपनियों का एक मात्र उद्देश्य था - मुनाफा कमाना । उन्होनें कोई निवेश नहीं किया । वे देश के बुनियादी संसाधनोंका उपयोग कर सिर्फ मुनाफा ही कमाना चाहते थे । कोचाबांबा में उनका (कंपनियोंका) पहला काम था ३०० प्रतिशत जल दरें बढ़ाना । इससे लोग सड़कों पर आ गए । बोलिविया में पानी को धरती माता का खून माना जाता है इसलिए पानी के निजीकरण से आम आदमी गुस्से में था । सोलोन ने कहा गैस, बिजली, रेलवे सबका पहले से ही निजीकरण हो चुका था । लेकिन जब निजी कंपनियों को जलक्षेत्र भी प्रस्तावित कर दिया गया तो इससे लोग उत्तेजित हो गए, वे संगठित हुए और अपने संसाधनों को वापस प्राप्त् करने की मांग करने लगे ।
    कंपनी की जो पैसा दे सकता था उसे अच्छी सेवाएं देने की कंपनी की नीति ने गरीबों को अलग-थलग कर दिया । इस नीति का परिणाम यह हुआ कि लोग पानी की गुणवत्ता और संसाधनों में समानता के अधिकारों की मांग करने लगे । निजी कंपनियां बुनियादी ढांचे और उन्हें प्राप्त् संसाधनों जैसे - बांध, शुद्धिकरण संयंत्रों की भी देखभाल नहीं कर रही थी । इसके बावजूद निजी कंपनी ने लापाज शहर से साल भर मंे ३० लाख डॉलर की कमाई की । जो धन लोगों के विकास के लिए काम आना था उसे कंपनियों को लुटा दिया गया ।
    जनवरी २००० में कोचाबांबा में नागरिकों का समन्वय पानी और जीवन की रक्षा के लिए महासंघ का गठन हुआ और इस घटना से जन आंदोलन को प्रोत्साहन मिला । लोग सड़कों पर निकल आए, जन आंदोलन ने शहर बंद करवा दिया तथा किसी के भी शहर में आने तथा बाहर जाने पर पांबदी लगा दी गई । पहले सरकार ने लोगों का दमन किया जिससे इस दौरान कुछ लोगों की जानें भी गई । लेकिन, बाद में सरकार को झुकना पड़ा और वह निजी कंपनियों के साथ हुए अनुबंधों को खत्म करने के लिए राजी हुई । पाब्लो सोलोन लेटिन अमेरिकी देशों के समूह के एकता एवं व्यापार संबंधित मामलोंके राजदूत और सचिव रह चुके है । उन्होनें संयुक्त राष्ट्र में पानी के मानवाधिकार, अंतर्राष्ट्रीय धरती दिवस, प्रकृति से सामंजस्य और देशज समूहों के अधिकारों से संबंधित प्रस्तावों का नेतृत्व किया  है ।
    निजीकरण रद्द करवाने वाले जनआंदोलन का प्रभाव स्थानीय राष्ट्रवादी आंदोलन के लिए नींव का पत्थर साबित हुआ जिसके तहत बोलिवियावासी अपनी सरकार चुनने के लिए आगे   आए । पहली बार मूल निवासियों ने अपनी ताकत पहचानी और वोट के लिए आगे आए । उन्होनंेंअपना राजनीतिक संगठन बनाने का निर्णय लिया । सन् २००५ में पहली बार हमेशा की तरह ३० प्रतिशत के बजाए ५४ प्रतिशत मतदान हुआ ।
    उन्होनें भारत से आग्रह किया कि वह बोलिविया के अनुभव से सीख लेते हुए जलक्षेत्र में पब्लिक-प्रायवेट-पार्टनरशिप (सार्वजनिक-निजी भागीदारी) से बचे । उन्होंने कहा यह हमारा धन (करों से इकट्ठा होने वाला) है जिसे निजी कंपनियां इस्तेमाल करती है वे बहुत थोड़ा या फिर बिल्कुल भी निवेश नहीं करती हैं तो फिर सरकार को अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण क्यों नहीं बरकरार रखना चाहिए ? जनता को युद्ध छेड़ना पड़े इससे तो बेहतर यही है निजीकरण को अभी से रोक दिया जाए ।
विशेष लेख
नदी का जीवंत परितंत्र
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    सरित (प्रवाहमान) परितंत्र के अन्तर्गत झरने, नदियाँ, सरिताएं आती है । जल के इन स्त्रोतों में अधिकतर क्रियाशील प्राणी निवास करते हैं । इन अलवणीय सरित-परितंत्रों में समुद्र की अपेक्षा कम विस्तार होता है और गहराई भी कम होती है । इन परितंत्रों में तापक्रम, वायुतत्व एवं अकिंचन प्राप्त् होने वाले लवण तत्व भी परिवर्तनशील रहते हैं । प्रकाश की मात्रा, पानी का गंदलापन (मटमैला होना), कीचड़ (पंक), पानी का प्रवाह-वेग इत्यादि सीमाकारक के रूप में कार्य करते हैं । ग्रीष्म ऋतु में वाष्पन के कारण जल की अधिकता, इन जल न्यासों की जैविक, भौतिक एवं रासायनिक स्थितियों में परिवर्तन लाती है और पारिस्थितिकी को प्रभावित करती है ।
    प्रत्येक परितंत्र में जैव-अजैव घटकों में कार्यात्मक संतुलन बनाये रखने की प्रवृत्ति पाई जाती है । सभी घटकों का उतार चढ़ाव एक निश्चित सीमा के अंदर रखने के लिए परिवर्तन से उत्पन्न स्थिति को आवश्यक प्रतिक्रिया द्वारा स्वत: ही सामान्य बना लिया जाता है । प्राकृतिक रूप से संतुलन की इस स्वनियामक प्रवृत्ति को समस्थायित्व या समस्थिरता (होमियो स्टेसिस) कहते हैं । जैविक तंत्रों की यह वह प्रवृत्ति होती है जो परिवर्तन का प्रतिरोध करती है तथा संतुलन की स्थिति में रहती है । वस्तुत: अपने इसी उदात्त गुण के कारण वर्तमान कलुषता पूर्ण स्थिति में भी पारिस्थितिक तंत्र जीवंत है । 
   जीवन चलने का नाम है, प्रगति का नाम है और गतिशीलता का नाम है । इस मर्म - धर्म को नदी से अधिक कौन समझ सकता है । पार्वतीय नदियाँ, पर्वत से सागर तक बिना रूके, बिना थके जाती    है । कल-कल निनाद के कारण ही यह सलिलाएं, नदियां कहलाती है । जो पर्वत से उतरते वक्त शब्दा होती है और ज्यों-ज्यों मैदानी भाग में आती है शांत हो जाती हैं । यह नदियां अपनी गोद में असंख्य प्रकार के जीवों का जीवन दुलारती है । रेत हो या कीचड़ सबमें ही नदी का परितंत्र सुरक्षित रहता है । नदी का परितंत्र विशिष्ट अर्थात् नायाब होता है । नदी की आबपाशी (अथाह जलराशि) का सभी लोग वंदन करते है ।
    नदी एक जीवंत प्रवाहमान कलाकृति होती है जो प्रकृति को नवजीवन देती है । पर्वत, नदियाँ, सागर और बादल ही तो नदी का सुदर्शन चक्र बनाते हैं, प्रकृति सजाते हैं । नदी के जल में सर्जनात्मक लहरें उठती हैं जो नन्हें-नन्हें जीवों (प्लवकों एवं तरण को) में नवजीवन का संचार करती है । इन प्लवकों में जो हरित लवक युक्त होते है वह वनस्पति प्लवक कहलाते हैं और वे सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण करते  हैं । भोजन का निर्माण करते हैं और ऑक्सीजन अवमुक्त करते हैं । इससे परितंत्र पुष्ट होता है । यही सूक्ष्म प्लवक अन्य जीवों का आहार बनते हैं । इससे खाद्य श्रृंखला का संचरण होता है और परितंत्र समृद्ध होता है ।
    परिपूर्ण होता है नदी का जीवन । जीवन का अर्थ है कि उसे भरपूर जिया जाये, वह भी केवलअपने लिए नहीं वरन् परमार्थ के लिए है । परितंत्र की जीवंतता के लिए नदी, पानी को प्रवाह देती है क्योंकि नदी यह बात शिद्दत से जानती है कि पानी कहीं ठहर जाये तो सड़ जाता है, तलछट में पंकिल हो जाता है । नदी तो पंक में भी सृजन का पैगाम देती है और जीवनाधार देती है ताकि  कमल दल उग सके । यॅूं तो सभी जीवधारियों का जल जीवन से रिश्ता होता है किन्तु यह रिश्ता सौन्दर्ययुक्त होकर जितना कमल के फूल में दिखता है उतना अन्यत्र नहीं । कमल पंक से पोषण पाकर उससे निर्लिप्त् रहकर, सतह पर जलतर्पण करता है और सूर्य को अहर्य देता है ।
    पत्थरों से प्यार करती है नदियाँ । पहाड़ों से निकलकर नदी की जलधारा, असंख्य छोटे-बड़े पाषाण खण्डों को स्पर्श करती हुई बड़ी निष्पंक धवलता एवं शुभ्रमयता से उतरती है । निर्झरता में नदी अलमस्त दिखलाई देती है तो मैदान में आकार गंभीरता समा जाती है नदी की देह में । गहन संघर्ष करते हुए भी सम्पूर्णता अर्थात् शिवम् पूर्णा के साथ जीना चाहती है नदी । नदी की कल-कल ध्वनि कभी विकल नहीं करती है । वह सदा कर्णप्रिय होकर संगीत सुरों को साधती रहती है । प्रकृति के कण-कण में संगीत की झंकार रहती है ।
    अपनी मातृवत्सला गोद में जल जीव जात का बोध रखते हुए, निरन्तर सदानीरा रहती है जीवंत   नदी । नदी में हर जीव का दूसरे जीवों से रिश्ता अटूट बना रहता है । सभी के संबंध अर्न्तग्रर्थित रहते है । जैव तत्वों का अजैव तत्वों से रिश्ता ही उनके अस्तित्व का नियामक होता   है । यॅूं तो नदियों में स्वयं शुद्धिकरण की नैसर्गिक व्यवस्था होती है किन्तु हमने विगत कुछ दशकों  से नदियों का बहुत नुकसान किया है । अपने स्वार्थ के लिए उनके प्रवाह को बाँध लिया है । इससे बीमार होने लगी है नदियाँ । हमें नदियों के स्वास्थ्य की और उपचार की चिंता करनी ही चाहिए, ताकि मरती हुई तथा निर्जल होती हुई नदियों को नवजीवन मिल सके । नदियों में पुनर्रचना की क्षमता होती है । किन्तु अवांछनीय तत्वों के जमाव ने नदियों के जीवन को असहज किया है । इन विजातीय तत्वों का निष्कासन कार्यान्वित करना जरूरी है । ताकि नदियों का कायाकल्प हो जाये ।
    हमारी धरती के पृष्ठ पर नदियोंका सघन जाल है किन्तु प्रत्येक नदी की अपनी विशिष्टता होती है और वह अपने परिक्षेत्रीय भू-भाग की संपोषिता होती है । नदी का जलीय परितंत्र जितना महत्वपूर्ण होता है उतना ही महत्वपूर्ण होता है नदी परिक्षेत्र का पर्यावरण । प्रकृति में नैसर्गिक रूप से कुछ नदियोंको यह सौभाग्य मिला है कि उनमेंआकर अन्य नदियाँ अपने अस्तित्व को विलीन करती है और मुख्य प्रवाह में जलवृद्धि का चक्र बना रहता है । प्रत्येक नदी के अपने जैविक एवं अजैविक कारक होते हैं । सभी नदियों में जीव जात समान रूप से नहीं पाये जाते है । यही कारण है कि कुछ नदियाँ अति विशिष्ट हैं, कुछ विशिष्ट हैं तो कुछ साधारण हैं । किन्तु पर्यावरण की दृष्टि से सभी वरणीय एवं वंदनीय है ।
    किसी भी नदी की मुख्य धारा के दोनों किनारों पर उगी हुई वनस्पतियों (वृक्ष, लताएं एवं झाड़ियाँ) नदी के जल का पान करती हैं और तृप्त् रहती है । नदी के किनारों के पिछले गढ्ढों तथा हदों में जलीय खरपतवार के साथ विविध प्रकार के जीव-जन्तु निवास करते हैं जिससे जैव विविधता संरक्षित रहती है । विकास परियोजनाआें के कार्यान्वयन ने नदियों के प्राकृतिक स्वरूप के साथ खिलवाड़ किया है । फिर भी नदियों के परितंत्र ने जीवंत परिणाम ही दिया है । मानवीय सरोकार नदियों के साथ सदा से जुड़े रहे हैं ।
    मानवीय सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है । नदियों के किनारे ही गांव, बस्ती और शहर विकसित हुए । नदियाँ न केवलपेयजल वरन कृषि कार्य एवं उद्योगोंहेतु भी जल की पोषक है । मल्लाह एवं मछुआरों का जीवन यापन सीधे तौर पर नदियों से जुड़ा  है । नदियाँ के तटो पर ही तीर्थ हैं । अपनी श्रृद्धा एवं विश्वास के अनुसार इन तीर्थ स्थलों पर पूजा अनुष्ठान सम्पन्न होते है । अत: पेड़-पुजारी तथा पूजा सामग्री के विक्रेता एवं अन्य पर्यटन उद्योग से नदियाँहमें समृद्धि प्रदान करती है । हमारी लोक संस्कृति, नदी संस्कृति एवं जल प्राचीन सग्रर्थित है । नदियों के जीवन परितंत्र के अभाव में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है ।
    नदियाँ है तो किनारे भी है । दोनों किनारों को जोड़ने वाले सेतु भी है । दोनों किनारों पर नाव पार लगाती है । हम पर्यावरण परायण के भाव के साथ नदी परितंत्र की चर्चा कर रहे है । नदियोंके पवित्र जल मेंजनमानस आस्था को डुबकी लगाता है । नदी अपनी धारा और लहरों के नर्तन को बखूबी जानती  है । मछलियोंके संघर्ष को पहचानती है । नदी भी निभाहती है धरा का बंधन और उर्वरता का प्रबंधन ताकि अन्नपूर्णा रहे हमारी धरती ।
    पानी की पावमानी के साथ अपने पथरेख पर चलती है ममता मयी नदी । जब पथरेख पर कोई अबरोध आता है तो नदी की धारा अपना मार्ग बदलती है । हमारे द्वारा नदियों के तटों पर अतिक्रमण करके अनियंत्रित रूप से किये जाने वाले निर्माण कार्योने नदियों को क्षुब्ध किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि क्षुब्ध नदियों ने मौनव्रत धारण किया है तभी तो हमारी नदियां रासायनिक व्याधियों से ग्रस्त होकर भी चुप हैं । यह रासायनिक औघोगिक उपशिष्ट हमारी नदियों में उढेल दिये जाते है । तमाम नाले नदियों में मिलकर उन्हें अशुद्ध बना रहे हैं । प्रदूषित नदियों में जीवन सुरक्षा को खतरा है । नदी में मछलियाँ भी रहती है और मगरमच्छ भी रहते है । सबका अपना-अपना जीवन है । खाद्य श्रृंखला है और उसके बीच कहीं संघर्ष है तो कहीं सहजीवन है । प्रकृति ने सबकुछ संजोया है । जो कुछ खोया है वह मनुष्य ने ही खोया है । नदियोंने लहर-लहर में प्यार पिरोया है । नदी खुश होती है जब कोई उसके जल का अंज्जलि में भरकर पान करता है ।
    हमें नदियों के परितंत्र को संवार कर उन्हें नवजीवन देना ही होगा क्योंकि नदियाँ हमारे जीवन का आधार है । नदी है तो सागर है । सागर है तो वर्षा है । नदी है तो वन है । नदी है तो मैदान उर्वर है । उर्वरता है तो अन्न है । अन्न है तो पोषण है और हमारा जीवन प्राण है । अत: मानवीय अस्तित्व एवं सरोकारों से सीधे जुड़ी होती है सलिलाएं । अरण्य है तो नदियाँ है । नदियाँ है तो नीर है नीर है तो तृिप्त् है । नीर है तो नीरजा (लक्ष्मी देवी) हैं और सुख-समृद्धि   है । नदियाँ है तो सभ्यता है । सभ्यता है तो संस्कृति है । संस्कृति है तो संस्कार है । संस्कार है तो सदव्यवहार है । संस्कार है तो संकल्प है । संकल्प है तो संसार है । संसार है तो प्रेम का विस्तार है । समस्त सृष्टि प्रेम बंधन मेंबंधा हुआ वृहत परितंत्र ही तो है । प्रकृति के अनुपम उपहार रूपा नदियों के परितंत्र को जीवंत रखे यही हमारा संकल्प  रहे । नदियां के प्रवाह को देखकर हमारी चितवृत्ति ठहरकर शांत हो जाती है उदातत्ता पाती है ।
विरासत
रामायण में वन चेतना
चंदनसिंह नेगी

    वायु मंडल में बढ़ते प्रदूषण के स्तर को नियंत्रित करने के प्रयास किए जा रहे है परन्तु जब तक ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में आम जन तक यह चेतना नहीं पहुंचती तब तक सारे प्रयास निरर्थक ही हैं । भारतीय पौराणिक परम्परा में वनों को सामाजिक जीवन में जो महत्व दिया गया है वह हम विस्मृत कर गए  हैं । अगर हम अपने पूर्वजों की दी गयी परम्परा को न भूलते तो आज प्रदूषण की समस्या ही न होती । वाल्मीकि के रामायण और महाभारत दो ग्रन्थ भारतीय आध्यात्मिक सामाजिक नीतिगत बिन्दुआें का विस्तृत ज्ञान देते है परन्तु हमने पर्यावरणीय दृष्टिकोण से इन ग्रन्थों का अध्ययन किया होता और उसका पालन करते तो हम भारतीय धरती पर बढ़ते जलवायु प्रदुषण पर अंकुश लगा सकते थे । 
     आदि कवि वाल्मीकि की ऐतिहासिक कृति रामायण भले ही आम आदमी के लिए रामचन्द्र की एक कथा भर हो जो हमेंसमाज की बेहतरी का संदेश देती है परन्तु रामायण के माध्यम से कवि वाल्मीकि ने वृक्षों-वनों की महत्ता का विस्तृत विवेचन किया है इस संदर्भ में आज वाल्मीकि की रामायण अधिक प्रासंगिक हो गयी है । सम्पूर्ण रामायण में वृक्षों और वनों के अभाव में कोई घटना नजर ही नही आती । कवि वाल्मीकि अनेक घटनाआें से यह बताने का प्रयास करते है कि वृक्षों के प्रति मनुष्य का क्या कर्तव्य है वास्तव में रामायण में पग-पग में पेड़ है और वे हर घटना के साक्षी भी हैं । वनों की सघनता वहां नजर आती है ।
    भरत जब भारद्वाज मुनि के आश्रम में पहुंचते है तो वे बताते है कि उनके साथ विशाल सेना है फिर भी इस आशंका से हाथियों, घोड़ो और सैनिकों से आश्रम के वृक्ष, जल, भूमि और पर्णशालाआेंको कोई नुकसान न हो इसलिए मैं अकेला आया हूँ । रामायण काल में वृक्ष भी पारिवारिक सदस्यों के समान ही मूल्यवान समझे जाते थे पाविारिक सदस्यों की भांति ही उनकी भी कुशल क्षेम पूछी जाती थी । वशिष्ठ और भरत जब महर्षि भारद्वाज से मिलने पहुंचे तो उन्होंने पेड़ पौधों व पशु पक्षियों के कुशलसमाचार भी जाना । लंका विजय के उपरान्त अयोध्या लौटते हुए राम जब महर्षि अगस्तय के आश्रम में उनसे मिलते है तो ऋषि से याचना करते हुए कहते है कि अयोध्या जाते हुए मार्ग के सभी वृक्ष मौसम न होने के बाद भी फल-फूलों से लदे हो अमृत के समान उनकी सुगंध हो ।
    रामायण में जहां भी आश्रमों का वर्णन मिलता है वे सघन वनों से घिरे दिखायी देते है उनके आसपास सरोवर होते है, जल जतुआें भी उपस्थिति होती है । कवि वाल्मीकी ने रामायण में जितने विशाल वृक्षों का वर्णन किया है वह सघन वनों की कल्पना के लिए पर्याप्त् है । लंका में वनों की सघनता के कारण अंधकार छाया रहता था । राम और रावण वाल्मिकी के दो ऐसे पात्र है जो विपरीत धु्रव वाले कह रहे जा सकते है परन्तु दोनों के बीच एक समानता यह थी कि दोनों ही सघन वनों के स्वामी थे ।
    आज हम योगवाद के जिस कालखण्ड से गुजर रहे है, वहां हम अपने पॉराणिक ग्रन्थों को पढ़ने और आनंद देने तक ही सीमित है । वर्तमान जरूरत के अनुसार हमें पर्यावरणीय प्रेरणा भी रामायण जैसे ग्रन्थों से लेनी चाहिए यही आज की जरूरत भी है । पौधों को देखने से अधिक उसे बचाना जरूरी है । वनों वृक्षों के प्रति संवेदन शीघ्र होकर ही हम अपने तथा अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए सुरक्षा कवच प्रदान कर सकते है ।                                               
जनजीवन
सूखा और जन सामान्य
डॉ. लक्ष्मीनारायण मित्तल

    वर्तमान में दुनिया के २०% विकसित देश दुनिया के ८०% संसाधनोंका अदयनीय प्रयोग करते हैं और शेष ८०% अविकसित या विकासशील देश मात्र २०% प्राकृतिक संसाधनों का संचयित प्रयोग करते हैं ।
    प्राचीन भारतीय जीवन शैली प्रकृति के साथ सहअस्तित्व की थी और पाश्चात्य (यूरोपीय) संस्कृति मानव श्रेष्ठ है, इस पर विश्वास करती है और शेष प्रकृति के शोषण को अपना अधिकार मानती है ।  उपनिषदों में कहा गया है - त्याग करते हुए उपभोग करो (त्येन त्यकतेन मुजीथ:) ।
    पर्यावरण शब्द दो शब्दों का युग्म है - परि -चारों और की स्थिति और आवरण का अर्थ है -घेरा यानि प्रकृति में जो भी हमारे चारों और है, वह हमारा पर्यावरण है ।

    दर्शनों में पंच महाभूतों -पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश को तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है, वैदिक परम्परा में इन्हें देवत्व की उपाधि दी गई है । जैन दर्शन ने इन्हें जीवों की उपाधि दी है -यानि मात्र मानव ही नहींे अपितु तथाकथित जड़प्रकृति भी प्राणवान है ।
    जैन दर्शन ने पर्यावरण असन्तुलन का कारण असंयम माना है । महावीर स्वामी ने सत्रह प्रकार के संयमों की बात की है - मुख्यत:इन्हें जीव संयम और अजीव संयम में बाँटा गया है ।
    असंयम पर्यावरण को प्रदूषित करता है स्वयं का भी अहित करता है, इसके लिए संकट, कष्ट और दृ:ख का कारण बनता है और (जड़) प्रकृति को स्थायी या अस्थायी क्षति पहुँचाता है ।
    आज प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुध दोहन, हमारी लोभ की प्रकृति को दर्शाती है । हमनें कृत्रिम आवश्यकताआेंको स्वीकार कर लिया है । उपभोक्तावादी संस्कृति कल की, अपने आने वाली पीढ़ी और दूसरों के कल्याण की बात नहीं सोचती ह्ै । यह सुविधावादी मनोवृति लोभ और विकास के कृत्रिम धारण पर आधारित है ।
    हम किसी भी प्राकृतिक वस्तु के स्वभाव, गुण और धर्म को नहीं बदल सकते । उसके उत्पादन की गति नहींबढ़ा सकते, केवल उसके रूप को बदल सकते हैं । लौह अयस्क या कच्च तेल पृथ्वी के नीचे से अपनी गति से बनेगा, मानव केवल छेड़छाड़ करके उसके रूप को बदल सकता  है । लोहे से मोटर कार बना सकता है । कच्च्े तेल से पेट्रोल बना सकता है । परन्तु कच्च तेल उत्पादन की गति को बदलने की सामर्थ्य मनुष्य मेंनहीं है ।
    पश्चिमी अर्थशास्त्र हमें सिखलाता है कि हमारी आवश्यकताएँ अनन्त हैं और हमारी पूर्ति सीमित    है । असल में यह नितान्त गलत धारणा है । एक तो किसी एक समय हमारी शारीरिक आवश्यकताएँ सीमित है - किसी एक समय हमें न्यूनतम कपड़ों की आवश्यकता है, एक छ: फुट जगह रहने के लिए चाहिये और भोजन भी सीमित । गांधीजी कहते थे कि प्रकृति हमारी आवश्यकताआेंको पूर्ण करने में सक्षम है परन्तु हमारे लालच को पूरा करने में नहीं ।      हाँ हमें भावों के क्षेत्र में असीमता चाहिये । प्रेम घृणा, क्रोध, स्नेह, अनुराग, जुगप्सा, वीरता ये भाव असीमीत हैं परन्तु इनकी पूर्ति मानव मन से होती है जो इस प्रकार के असंख्य भावों से भरी है । उसकी कोई कमी नहीं है ।
    जैन धारणा के अनुसार पर्यावरण के किसी एक तत्व का अंसतुलन हिंसा है । पानी का गैर जरूरी प्रयोग हिंसा है षड् जीव निकायों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु वनस्पति)भी हिंसा न करने के संदर्भ में जैन दर्शन के जो निर्देश है - वे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये सर्वाधिक मूल्यान है ।
    महाराष्ट्र में भयंकर सूखा पड़ा है क्योंकि किसानों को पानी न देकर कोकाकोला बनाने वालों को या कल्लखानों को लाखों गैलन पानी दिया जा रहा है । खेती में भी महाराष्ट्र के प्रमुख राजनीतिज्ञों की शुगर लाबी है इसी से किसान अन्न पैदा न करके गन्ना उत्पादन करना चाहते है । आज महाराष्ट्र में गन्ना सस्ता है, चारा महंगा है । पानी सबसे  महंगा हो गया है । महाराष्ट्र के हजारों ग्रामीण मुम्बई की झोपड़ियों, फुटपाथों पर देह टिकाने लायक जगह की मजबूरी में है । वाटर शेड बनाने में कहते है, महाराष्ट्र अग्रणी राज्य रहा है । वहाँ हर दूसरे साल सूखा पड़ता है, परन्तु सरकार की लापरवाही यह है कि स्टेट वाटर बोर्ड और वाटर अथॉरिटी की कोई बैठक पिछले वर्ष से अभी तक नहींहुई है ।
    अग्नि का असंयम ऊर्जा के क्षेत्रों में कमी ला रहा है । प्राचीन भारतीय मूल्यों में एक वृक्ष या एक पत्थर का जीवन भी उतना ही मूल्यवान है जितना एक मनुष्य  का । मुनि और श्रावक वनों की सुरक्षा करते थे उन्हें काटते न थे । जैन साहित्य में वनस्पति की रक्षा के लिए अनेक निर्देश है । सबसे बढ़कर भारतीय दर्शन और जैन और बौद्ध साहित्य इच्छाआें के संयम की बात करते है । यही पर्यावरणीय संतुलन का आधार होगा । यदि हम पदार्थो के भोग मेंसंयम बरतेगे और प्रकृति का शोषण नहींकरेंगे तो अपनी  आने वाली पीढ़ी के लिए भी पर्याप्त् प्राकृतिक संसाधन छोड़कर जायेंगे । 
    पहले देशाटन पैदल होता  था । आज आदमी दो कदम भी पैदल नहींचलना चाहता है । यातायात का संयम पेट्रोलियम पदार्थो को संरक्षित करेगा ।
    हम असंयमी होकर प्रकृति का लगातार शोषण करेंगे तो धरती की प्राकृति संसाधनों की उपलब्धता की अपनी मर्यादा और सीमा है, यदि इन सीमाआें को ध्यान में रखकर उपयोग के लिये मर्यादा पूर्ण आचरण होगा तभी धरती पर जन्म लेने वाली हमारी भावी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित रह पायेगा ।
पर्यावरण परिक्रमा
तारापुर पॉवर प्लांट में रेडिएशन से बढ़ा खतरा

    जिस परमाणु ऊर्जा के लिए सरकार हर हद से गुजरने के लिए तैयार दिखती है । उस तरह का एक प्लांट महाराष्ट्र के एक गांव में मौत की वजह बन गया है । तारापुर का प्रसिद्ध एटॉमिक एनर्जी प्लांट की वजह से लोग पल-पल मरने को मजबूर है । हर तरफ मौत की बीमारियां दिखती हैं । लोग बेबस है और सरकार नाकाम ।
    मुम्बई से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर ठाणे जिले में तारापुर है, जहां देश का सबसे पुराना परमाणु पॉवर प्लांट है । जिससे पूरे महाराष्ट्र में बिजली की सप्लाई होती है । तारापुर अटॉमिक पॉवर स्टेशन से सटा घिवली गांव है । इस गाँव में रहने वाले अविनाश पहले मजदूरी किया करते थे, लेकिन पिछले कुछ बरसों से लगातार तारापुर परमाणु प्लांट पर सवाल खड़े हो रहे हैं । खासतौर से जापान के फुकुशीमा हादसे के बाद इन सवालों में और इजाफा हो गया है । स्थानीय लोगों का आरोप है कि रेडिएशन की वजह से लोगों को कैंसर हो रहा है । इस गांव में तकरीबन १५००० की आबादी वाली इंसानी बस्ती है । अविनाश पहले मजदूरी किया करते थे । लेकिन रेडिएशन की चपेट में आने के बाद अब गांव में पेंटर का काम करते है । दरअसल अविनाश का घर न्यूक्लियर पॉवर प्लांट का बाऊंड्रीवाल से बिल्कुल सटकर है और यही वजह है कि रेडिएशन का असर अविनाश पर इस कदर हुआ कि उनके दोनों हाथों की उंगलियां अब ज्यादा काम नहीं कर पाती है । पिछले कई सालों में रेडिएशन ने अविनाश के शरीर के व्हाइट ब्लड सेल को कमजोर कर दिया जिसके चलते बिमारियोंसे उसकी लड़ने की ताकत यानी उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता लगातार घटती गयी । इससे उसके हाथों की उंगलियां सिकुड़ने लगी और हडि्डयां कठोर होने लगी है ।

कचरा, अब कचरा नहीं कंचनहै
    स्वीडन अब नार्वे से कचरा आयात करेगा । चौंकाने वाला है, लेकिन वजह बेशकीमती है । दरअसल, स्वीडन में कचरे से बिजली बनाने का काम जोरों पर है । इतना कि उन्होनें अपने देश का सारा कचरा खत्म कर डाला । वहीं हमारे देश में ५१०० नगरीय निकाय है । इनमें हर साल निकलता है ६० लाख टन कचरा । इसमें औघोगिक कचरे को भी शामिल करें तो हमारे यहां करीब १० हजार मेगावट बिजली पैदा करने की संभावनाएं है । लेकिन सरकारी उदासी से इस दिशा में हुई सारी कोशिशें नाकाम रही है ।
    भारत में कचरे से बिजली बनाने की पहली कोशिश को २६ साल हो गए । कचरा बढ़ता जा रहा है । बिजली की मांग भी । मगर हम कचरे से बिजली नहीं बना पा रहे   है । कई प्रयोग दम तोड़ चुके है।  बदइंतजामी के चलते कई विशेषज्ञ पलायन कर चुके है और दूसरे देशों में परचम फहरा रहे है । सॉलिड वेस्ट से बिजली का पहला प्लांट १९८७ में लगा । दिल्ली में तिमारपुर के पास ।
    डेनमार्क तकनीक से १० मेगावॉट के इस प्रोजेक्ट के लिए नगर निगम को हर दिन १२ हजार टन कचरे की आपूर्ति करनी थी । प्रोजेक्ट एक दिन भी काम नहीं कर पाया । वजह थी कई स्तरों पर छटाई के बाद बचने वाला कचरा किसी काम का नहीं था । डेनमार्क तकनीक में कचरे को जलाकर भाप से बिजली बननी थी मगर जलाने लायक कचरा मिला ही नहीं । इसके बाद कचरे से बिजली बनाना भारत के लिए नाकामियों से भरा रहा । तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के समय १९९५-९६ में लखनऊ में एक और कोशिश हुई । चैन्नई की एशिया बायो एनर्जी ने ५ मेगावॉट का प्रोजेक्ट लगाया । तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने ८० करोड़ रूपए लागत के इस बहुप्रचारित प्लांट का उद्घाटन किया ।
    बमुश्किल छह महीने भी बिजली नहीं बनी । नाकामी की वजह कचरे का बदतरीन प्रबंधन । सन् २००२ में नागपुर में ६ मेगावॉट का प्रोजेक्ट भी परवान नहीं चढ़ पाया । द एनर्जी एंड रिर्सोस इंस्टीट्यूट (टेरी) के सीनीयर फैलो डॉ. सुनील पांडे कहते है, भारत में शुरूआत से ही गड़बड़  है । हमारे नगरीय निकाय जानते ही नहीं कि बिजली बनाने के लिए कचरे का प्रबंधन कैसा होना चाहिए ? कचरे का ठीक तरीके से संग्रहण पहली पायदान है । इसमें बिजली तो अंतिम उत्पाद है ।
    दिल्ली में वर्ष २००२-०३ में १०-१२ मेगावाट बिजली के तीन प्लांट की तैयारी हुई । चार हजार टन कचरे के निपटान की उम्मीदों से भरी यह योजना शुरू होने के पहले ही समाप्त् हो गई । इसमें दो प्लांट आस्ट्रेलिया की ईडीएल कंपनी शुरू करने वाली थी । मामला अस्पतालों के कचरे पर जा अटका, जिसे शहरी कचरे से अलग किया जाना था । नगर निगम की गाइडलाइन के मुताबिक अस्पतालों से निकलने वाले कचरे को जलाया नहीं जा सकता है । अस्पतालों के पास अपने इंसेनरेटर थे नहीं । विवाद बढ़ा तो कंपनी ने हाथ खींच लिए । पावर कंसल्टेंट अतुल मिश्रा का मानना है कि कचरे को इकट्ठा करना और उसे ढंग से प्रोसेस करना मुश्किल नहीं है । यह तकनीक महंगी भी नही है । विदेशों में कारगर है मगर हमारे यहां हर स्तर पर मुश्किलें दूसरी ही है ।
    लखनऊ प्लांट बंद होने के बाद कचरे से बिजली का मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया । अदालत ने बंद होने की वजह जानने के लिए विशेषज्ञों की एक समिति बनाई और वित्तीय मदद के लिए पांच प्रोजेक्टस को ही हरी झंडी दी । नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा विभाग के संयुक्त सचिव आलोक श्रीवास्तव बताते हैं, स्वीडन की मदद से कर्नाटक, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में ये प्रोजेक्ट लगाए जा रहे है । इनके नतीजों के आधार पर ही विस्तार होगा । उनका सुझाव है कि सबसे पहले नगरीय निकायों और राज्य सरकारों को कचरे का बेहतर प्रबंधन करना होगा । इसके साथ ही जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन को भी इससे जोड़ना फायदेमंद होगा ।

बिना ट्यूशन वाले बच्च्े पढ़ाई में बेहतर
    नतीजे कहां से अच्छे होंगे, जब एक चौथाई स्कूली बच्चें की बुनियाद ही कमजोर है ? वे पढ़ते तो हैं, लेकिन उनकी समझ में कुछ आता नहीं । उसमें भी दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चें में सीखने-समझने की स्थिति तो और भी बदतर है । ऐसे में मजबूरी का विकल्प बच्चें को अलग से ट्यूशन का है, लेकिन उसके भी नए तथ्य चौकांने वाले है । ऐसा भी है कि ट्यूशन न पढ़ने वाले बच्च्े ट्यूशन पढ़ने वाले सहपाठियों के मुकाबले बेहतर सीख समझ रहे है ।
    प्राइमरी की पढ़ाई में बदलाव के इस नए ट्रेंड (प्रवृत्ति) की सच्चई हाल ही में आए एक सरकारी अध्ययन से सामने आई है । कक्षा-पांच के बच्चें में सीखने-समझने की स्थिति (लर्निग आउटकम) की सही तस्वीर जानने के लिए राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधन एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने ३१ राज्यों के ६६०२ स्कूलोंके एक लाख २२ हजार छात्रोंको शामिल कर एक रिपोर्ट तैयार की है ।
    नेशनल अचीवमेंट सर्वे (एएनएस) नाम की यह रिपोर्ट नए व डरावने संकेत देती है । यह सर्वेबताता है कि पांचवी कक्षा के एक चौथाई बच्च्े थोड़ी सी भी कठिन भाषा को न तो पढ़कर समझ पाते है और न ही सामान्य जोड़-घटाव ही कर पाते हैं ।
    यह सर्वे बताता है कि अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित के मामले में अलग-अलग राज्यों में छात्रों के लर्निग आउटकम में बड़े पैमाने पर भिन्नता दिखती है । समस्या भी इसमें ही ज्यादा है । आधे से अधिक बच्च्े एक झटके में यह नहीं बता पाते कि १९८ से ५५५ कितना अधिक है । तीन चौथाई बच्चें को दशमलव से जुड़े सवालों में दिक्कत होती है । हालांकि वे सामान्य जोड़ आसानी से कर लेते है । इस प्रकार सर्वे एक बिल्कुल नए तथ्य को सामने लाया है ।
    सर्वे बताता है कि जिन बच्चें को स्कूल से रोज होमवर्क मिलता है और उनके टीचर उसे नियमित रूप से चेक करते है, वे बच्च्े अपने उन सहपाठियों से ज्यादा बेहतर सीख-समझ रहे हैं, जो अलग से ट्यूशन पढ़ रहे है । जबकि, माता-पिता पढ़ाई में अपने कमजोर बच्चें को बेहतर करने के लिए मजबूरी में अलग से ट्यूशन का ही विकल्प चुनते हैं ।
    एक तस्वीर और भी खतरनाक संकेत देती है । एक ही कक्षा मेंपढ़ने वाले अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े समुदायों के बच्चें में सीखने-समझने की स्थिति सामान्य वर्ग के बच्चें की तुलना में काफी कमजोर है । दूसरी बात, ज्यादा बेहतर सीखने-समझने और कमतर सीखने-समझने वाले बच्चें के बीच का अंतर अलग-अलग राज्यों में काफी बड़ा है । यह दर्शाता है कि जो बच्च्े पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा काबिल है, उन पर अधिक ध्यान भी दिया जा रहा है, जबकि जो पढ़ाई में उनसे कम है, उन्हें बराबर लाने के लिए पर्याप्त् अवसर और सुविधांए नाकाफी है । हमारी विषमता भरी शिक्षा पद्धति में देखना यह होगा कि अमल कब होगा ।
वनवासी जगत
वनवासी क्षेत्र और राज्यपाल
जितेन्द्र

    पांचवी अनुसूची के अन्तर्गत अधिसूचित क्षेत्रोंके संबंध मेंसंविधान में राज्यपालों के कर्त्तव्य सुनिश्चित किए गए हैं । साथ ही उन्हें इन क्षेत्रों की देखरेख के लिए असीमित अधिकार भी दिए गए हैं । परन्तु अधिकांश राज्यपाल इस दिशा में ठंडा रवैया बनाए हुए हैं और वार्षिक रिपोर्ट के नाम पर केवल खानापूर्ति कर रहे   हैं । दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों में दिनोंदिन अंसतोष बढ़ता ही जा रहा है ।
    भारत में जिन राज्यों में बड़ी संख्या में आदिवासी बसते हैं उन राज्यों के राज्यपालों पर उनकी विशिष्ट प्रशासनिक भूमिका का निर्वहन न करने का आरोप लगाया गया है । आदिवासी क्षेत्रों में आंशिक स्वायत्ता सुनिश्चित करने हेतु संविधान ने राज्यपालों को इन क्षेत्रों में शासन एवं प्रशासनिक कार्यो के निरीक्षण हेतु असीमित असमी शक्तियां प्रदान की हैं । वे आदिवासी क्षेत्रों में स्वशासन एवं विकास की आवश्यकताआें की पूर्ति हेतु किसी भी कानून या विकास गतिविधि की अनुमति दे सकते हैं या अस्वीकृत कर सकते हैं । वे सौहार्द बनाने एवं प्रभावशील शासन हेतु नियम भी बना सकते हैं । 

    राष्ट्रपति को भेजी गई गोपनीय रिपोर्ट में अनुशंसा की गई है कि ऐसे इलाके जो कि संविधान की पांचवी अनुसूची मेंअधिसूचित है और आदिवासियों के हितों की रक्षा करते हैं उस हेतु अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन हेतु राज्यपालों को अधिक जवाबदेह बनाया जाए । ये अनुशंसाएं तब आई हैं जबकि सरकार इन क्षेत्रों हेतु बड़ी मात्रा में धन का आवंटन कर रही है, इनमें से कई क्षेत्र माओवादी असंतोष से घिरे हुए हैं । गत जून में भेजी गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्यपालों के लिए ऐसी प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है, जिसमें कि अधिसूचित क्षेत्रों हेतु नियत संवैधानिक प्रावधानों की वर्णित भावना के अनुरूप निगरानी एवं क्रियान्वयन किया जा सके । आयोग जो कि एक संवैधानिक इकाई है पांचवी अनुसूची के अन्तर्गत अधिसूचित क्षेत्रों के मामले मेंराष्ट्रपति को एक वार्षिक रिपोर्ट भेजता है ।
    सूत्रों के अनुसार राष्ट्रपति जिन्हें स्वयं पांचवी अनुसूची क्षेत्र हेतु विशेष अधिकार प्राप्त् हैं, ने आदिवासी मामलों के मंत्रालय को यह रिपोर्ट प्रेषित कर दी है । मंत्रालय द्वारा समीक्षा के बाद इसे संसद मेंप्रस्तुत किया जाना चाहिए । वैसे मंत्रालय को ही पता होगा कि वह ऐसा क्यों नही कर रहा है । मंत्रालय के सहसचिव ए.के. दुबे का कहना है कि, जटिल प्रक्रियाआें के कारण एवं हिन्दी संस्करण की अनुपलब्धता के चलते हम इसे संसद में प्रस्तुत नहीं कर पाए । लेकिन जटिल प्रक्रियाआें पर कोई प्रकाश नहीं डाल पाए । सन् २००४ में अपने आरंभ के बाद से आयोग अब राष्ट्रपति को पांच रिपोर्ट भेज चुका है । पहली को छोड़कर एक भी रिपोर्ट अभी तक संसद के पटल पर नहीं रखी गई    है ।
    नवीनतम रिपोर्ट मेें राज्यपालो द्वारा पांचवी अधिसूचित मे क्षेत्रों में हो रहे विकास की अनदेखी किए जाने को इंगित किया गया है । राज्यपालों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि आदिवासी क्षेत्रों में विशिष्ट पंचायती राज कानून जिसे पैसा पंचायत (अधिसूचित क्षेत्र विस्तार) अधिनियम के नाम से जाना जाता है के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करना और ऐसे कानून जो इसके विरोध मेें हों उन्हें अलग करना । एक अधिसूचना के तहत राज्यपाल, मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्री परिषद् की सलाह लिए बिना भी राज्य या केंद्र के नियमोें को रद्द कर सकते है या उसमें परिवर्तन कर सकते हैं ।
    लेकिन राज्यपालों की रिपोर्ट में शायद ही कभी खराब शासन, विद्रोह या विस्थापन का उल्लेख हुआ हो । अनुसूचित जाति व जनजाति आयोग के पूर्व आयुक्त बी.डी. शर्मा का कहना है, जब तक राज्यपाल पांचवींअनुसूची की आवश्यकताआें के हिसाब से कानूनों क्रियान्वयन या संसोधन नहीं चाहेगा, तब तक सभी कानून वहां स्वमेव ही लागू रहते हैं । चूंकि राज्यपाल अपने कर्त्तव्यों के निष्पादन में असफल रहे हैं अतएव आदिवासी क्षेत्रों में सामान्य कानून स्वमेव लागू रहते हैं जिनके परिणाम स्वरूप संघर्ष की स्थिति बन जाती  है ।
    गोपनीय रिपोर्ट ने अधिसूचित क्षेत्र के अनुकूल बनाने हेतु सभी कानूनों की समीक्षा की अनुशंसा की है । राज्यपालों से उम्मीद भी की जाती है कि वे प्रतिवर्ष दिसंबर तक आदिवासी सलाहकार समिति के माध्यम से बैठक कर उसकी रिपोर्ट भेज दें । वरिष्ठ पत्रकार बी.जी. वर्गीस कहते हैं कि भारत सरकार ने मौन रखकर यह स्वीकार कर लिया है कि पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत राज्यपाल का अर्थ है राज्यपाल परिषद् जो कि अपने सलाहकारों की मदद से एवे सलाह पर कार्य करती है । उम्मीद की जाती है कि राज्यपाल प्रतिवर्ष राष्ट्रपति को इन इलाकों की स्थिति और उनके द्वारा किए गए हस्तक्षेप की रिपोर्ट भेजेंगे । आयोग ने यह भी सुझाव दिया है कि आदिवासी मामलों का मंत्रालय राज्यपाल की नमूना रिपोर्ट तैयार करने और प्रस्तुत करने हेतु एक सा दस्तावेज जारी करें । इस दस्तावेज में संघीय एवं राज्य के कानूनों की समीक्षा का प्रावधान एवं आदिवासियों के हितों की सुरक्षा हेतु उनकी संवैधानिक प्रावधानों से संगति दर्शाने का प्रावधान भी हो । इसमें उन सभी कदमों की सूची भी होना चाहिए जिससे कि आदिवासियों के संवेधानिक अधिकारों की सुरक्षा हो सके ।
    कानूनों की समीक्षा हेतु राज्यपाल राज्यों द्वारा आदिवासी क्षेत्रों में गठित आदिवासी सलाहकार समितियों (टीएसी) से भी सलाह-मशविरा कर सकते हैं । गत वित्तीय वर्ष में ११ राज्यों में से मात्र ४ राज्यों ने दिसंबर तक आदिवासी सलाहकार समितियों की दिसंबर तक बैठक आयोजित की है । गोपनीय रिपोर्ट में आदिवासी सलाहकार समितियों को भी अधिक जवाबदेह बनाने की बात ही गई है और इनके नियमिति गठन एवं वर्ष में कम से कम दो बार बैठक करने को भी कहा गया है ।
    राज्यपाल न केवलराष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजने में अनियमित हैं, बल्कि रिपोर्ट जिन विषयों को संबोधित होने चाहिए उसे लेकर भी उनमें अस्पष्टता है । राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान के निदेशक आर.आर. प्रसाद जिन्होंेने इन रिपोर्टोंा का विश्लेषण किया है उनके हिसाब से किसी भी रिपोर्ट में विस्थापन, कु:शासन एवं विद्रोह जैसे ज्वलंत मुद्दों पर कोई बात ही नहीं की गई है । उनका कहना है, इन रिपोर्टोंा में शायद उन उद्देश्यों का आकलन किया हो जिनकी कानूनी तौर पर आवश्यकता है । मुख्यतया ये बने बनाए ढर्रे पर विभिन्न योजनाआें के भौतिक लक्ष्यों एवं वित्तीय आवंटनों की सूचना राज्य सरकार के विभागों द्वारा बताए गए आंकड़ों के हिसाब से देने पर ही केंद्रित रहती है । इस हेतु अधिक कठोर प्रणाली बनाने का समय आ गया है, जिससे कि वार्षिक रिपोर्ट इन इलाकों की वास्तविक स्थितियों पर प्रकाश डाल सकें ।
    राष्ट्रपति को प्रस्तुत की गई इन रिपोर्टोंा का कोई व्यवस्थित रिकार्ड भी मौजूद नहीं है । राष्ट्रमंडल मानवाधिकार  पहल ने सूचना का अधिकार कानून के जरिए सन् १९९० से २००८ तक राज्यपालों द्वारा भेजी गई रिपोर्टोंा की प्रति प्राप्त् करने का प्रयास किया परंतु आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने केवल सन् २००१ से यह कहते हुए रिपोर्ट दी कि इस मंत्रालय का गठन सन् १९९९ में ही हुआ है ।  सन् २००८ एवं २०११ में दिल्ली में राज्यपालों की बैठक में तत्कालीन राष्ट्रपति ने अनुरोध किया था कि वे आदिवासी क्षेत्रों के संबंध मेंअपनी भूमिका पर ध्यान दें । अप्रैल २०१२ में केंद्र सरकार ने पहली बार अधिसूचित क्षेत्र के संबंध में उनके संवैधानिक कर्त्तव्योंको लेकर राज्यपालों को दिशा-निर्देश भी जारी किए ।
    केंद्रीय आदिवासी मामलों एवं पंचायतीराज मंत्री वी किशोरचंद्र देव ने आंध्रप्रदेश के राज्यपाल से कहा था कि वे अधिसूचित क्षेत्र में बाक्साइट खनन के लिए हुए सहमति पत्र (एमओयू) को रद्द कर दें, लेकिन राज्यपाल ने इस निर्देश की अनदेखी कर दी । आयोग की रिपोर्ट ने उस मुद्दे को अधिकारिक तौर पर उठा दिया है, जो कि काफी समय से अंदर पड़ा खदबदा रहा था ।
ज्ञान विज्ञान
अब लैब में ही बन गयी किडनी

अमेरिकी वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि प्रयोगशाला में विकसित किए गए एक गुर्दे को सफलतापूर्वक जानवरों में प्रत्यारोपित कर दिया गया है । इनसे मूत्र बनाना भी शुरू कर दिया है । इसी तकनीक से शरीर के अन्य अंग पहले ही बनाकर मरीजों को लगाए जा चुके हैलेकिन गुर्दा अब तक बनाए गए अंगो में सबसे जटिल अंग है ।

     गुर्दा खून को साफ करके इसमेंसे फालतू पानी और बेकार के तत्व निकालता है । प्रत्यारोपण के लिए इसकी मांग भी सबसे ज्यादा है । शोध के अनुसार कृत्रिम रूप से बनाए गए गुर्दे अभी तक प्राकृतिक गुर्दे की तुलना में कम कारगर साबित हुए  है । लेकिन पुर्नउत्पादक दवाआें के शोधकर्ताआें का कहना है कि इस क्षेत्र में अपार संभावनाएं है । शोधकर्ताआें का विचार है कि पुरानी किडनी को निकालकर इसमें से सभी पुरानी कोशिकाआें को निकाल दिया जाए । इससे यह मधुमक्खी के छत्ते जैसा ढांचा रह जाएगा । इसके बाद मरीज के शरीर से कोशिकाएं लेकर इसका पुननिर्माण किया जाएगा । वर्तमान अंग प्रत्यारोपण के मुकाबले इसमें दो बड़े फायदे होंगे । पहला तो यह है कि कोशिकाएं मरीज के शरीर से तालमेल बैठा  लेगी । इसलिए शरीर के इनकार से बचने के लिए प्रतिरोधक क्षमता को दबाने के लिए जिंदगी भर दवाइयां खाने की जरूरत नहीं रहेगी । इसके अलावा यह प्रत्यारोपण के लिए अंगों की उपलब्धता को भी बढ़ाएगा ।
    ज्यादातार प्रत्यारोपित अंगों को शरीर अस्वीकार कर देता है लेकिन नए अंग बनने तक अन्य को नमूने के रूप में इस्तेमाल किया जा सकेगा । मैसाचुसेट्स के सामान्य अस्पताल में शोधकर्ताआें ने प्रयोग योग्य कृत्रिम गुर्दे बनाने की दिशा में बड़ा कदम उठाया है । उन्होनें चुहे की एक किडनी ली और उसकी सभी पुरानी कोशिकाआें को धो दिया । बचा हुआ प्रोटीन का जाल बिल्कुल गुर्दे जैसा दिख रहा  था । इसमें अंदर खून की कोशिकाआें और निकासी के पाइप का जटिल ढांचा भी मौजूद  था । प्रोटीन के इस ढांचे को गुर्दे से सही भाग में सही कोशिका को भेजने के लिए इस्तेमाल किया गया जहां वो पुनर्निर्माण के लिए ढांचे के साथ मिल गए । इसके बाद एक खास तरह के भवन, जिसमें चूहे के शरीर जैसे तापमान को पैदा किया गया था में इसे रखा गया । जब इस गुर्दे की प्रयोगशाला में जांच की गई तो प्राकृतिक के मुकाबले इसने २३ प्रतिशत मूत्र निर्माण   किया । इसके बाद शोध दल ने इस गुर्दे को एक चूहे में प्रत्यारोपित कर दिया लेकिन इसकी मूत्र निर्माण क्षमता ५ प्रतिशत तक गिर गई । लेकिन शोधदल के प्रमुख डॉ. हैराल्ड ओट, कहते है कि सामान्य प्रक्रिया का छोटा सा भाग हासिल कर लेना भी काफी है । अगर आप हेमोडायलिसिस पर है और गुर्दा १० प्रतिशत से १५ प्रतिशत काम करना शुरू कर देता है तो आप डायलिसिस से मुक्ति पा सकते है । वह कहते है कि इसकी संभावनाएं असीमित है, सिर्फ अमरीका में ही एक लाख लोग गुर्दे के प्रत्यारोपण का इंतजार कर रहे है और साल में सिर्फ १८,००० प्रत्यारोपण ही होते हैं । हालांकि इंसान पर इसके प्रयोग के बारे मेंविचार करने से पहले ही भारी शोध की जरूरत है ।
बोलने की क्रिया का समन्वय
    जब हम शब्दों का उच्चरण करते हैं, तब दिमाग का एक हिस्सा हमारी जीभ, होठों और स्वर यंत्र का अनोखा समन्वय करता है । दिमाग के इस हिस्से का जो नक्शा तैयार किया गया है उससे पता चलता है कि यह समन्वय कितनी सटीकता से किया जाता है और कैसे हमारे बोलने में त्रुटियां पैदा होती है । 

     यह बात काफी समय से पता रही है कि हमारे बोलने का समन्वय करते हुए दिमाग एक साथ इन सारे अंगो का नियंत्रण करता है । जैसे १८६० में एलेक्जेड़र मेलविले बेल ने दर्शाया था कि वाणी को इस तरह से विभाजित किया जा सकता है और इस सिद्धांत के आधार पर उन्होंने बधिर लोगों के लिए एक लेखन प्रणाली विकसित की थी । मगर अब तक मस्तिष्क के इमेजिंग में इतना विभेदन पैदा नहीं हो पाया था कि हम यह देख सकें कि तंत्रिकाएं इन गतियों का नियंत्रण कैसे करती है ।
    कैलिफोर्निया विश्वविघालय के एडवर्ड चैंग और उनके सहयोगियों ने मिर्गी के तीन मरीजों की मिर्गी पर नियंत्रण के लिए उनके मस्तिष्क में कई इलेक्ट्रोड्स लगाए थे । इन इलेक्ट्रोड्स की मदद से उन्होनें इस बात का अध्ययन किया कि जब ये व्यक्ति किसी शब्द का उच्चरण करते हैं, तो उनके मस्तिष्क के मोटर कॉर्टेक्स में किस तरह की गतिविधि होती है ।
    शोधकर्ताआें का ख्याल था कि हरेक वाणी के लिए तंत्रिकाआें का एक विशिष्ट समूह सक्रिय होता होगा । मगर वास्तविक प्रयोग में देखा गया कि सारी आवाजों के लिए तंत्रिकाआें का एक ही समूह सक्रिय होता है । हरेक समूह जीभ, होंठो, जबड़ों और स्वर यंत्र की मांसपेशियों को नियंत्रित करता है । संवेदी-क्रियात्मक कॉर्टेक्स में तंत्रिकाएं अलग-अलग संयोजनों में सक्रिय होती है । इस संयोजन का परिणाम होता है कि ध्वनि से जुड़े विभिन्न अंग एक साथ एक खास तरह से गति करते हैं और कोई ध्वनि विशेष उत्पन्न होती है ।
    जब विभिन्न ध्वनियों का मानचित्र तैयार हो गया तो देखा गया कि दिमाग में स्वरों और व्यंजनों के क्षेत्र एक-दूसरे से काफी दूरी पर स्थित है । इसीलिए जब हम बोलने में गलती करते हैं तो प्राय: किसी स्वर की जगह दूसरा स्वर या व्यंजन की जगह दूसरा व्यंजन बोल देते हैं मगर व्यंजन की जगह स्वर का उच्चरण नहीं  करते ।  अभी यह प्रयोग अंग्रेजी शब्दों के साथ किया गया है । अब शोधकर्ता विभिन्न भाषाआें को लेकर यही प्रयोग दोहराना चाहते हैं ।
पौधों में भाई-भतीजावाद
    सिर्फ मनुष्यों में भाई-भतीजावाद नहीं होता है । पौधों में भी इसके प्रमाण मिले हैं । ताजा प्रयोग बताते है कि पौधे भी उन बातों पर ज्यादा ध्यान देते हैं, जो उनके निकट संबंधी कहते हैं । जब कोई कीट किसी पौधे की पत्तियां कुतरता है तो कई पौधेंकुछ वाष्पशील रसायन छोड़ते हैं, जो आसपास के पौधों को चेतावनी दे देते हैं कि कीटों का हमला हो रहा है । इस वाष्प-संदेश को पाकर आसपास के पौधे हमले की तैयारी शुरू कर देते हैं ।
    तैयारी के रूप में कुछ पौधे एक अन्य रसायन छोड़ते हैं जो ऐसे कीटों को आकर्षित करता है जो हमलावर कीटों का शिकार करते हैं । कुछ अन्य पौधे ऐसे रसायनों का स्त्राव करने लगते हैं जिससे वे बेस्वाद हो जाते हैं । ये प्रक्रियाएं पौधों की कई प्रजातियां में देखी गई है । 
      अब कैलिफोर्निया विश्व-विघालय, डेविस के रिचर्ड कारबैन ने बताया है कि एक पौधे सेजब्रश में इन चेतावनी संकेतों पर प्रतिक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि वह संदेश किसी निकट संबंधी पौधे से आया है या असंबंधी पौधे से । इसे समझने के लिए कारबैन के दल ने वृद्धि के तीन मौसमों की शुरूआत में एक ही पौधों की अलग-अलग शाखाआें को एक वाष्पशील रसायन से उपचारित किया । यह रसायन उसी प्रजाति के अलग-अलग पौधों में तब स्त्रावित किया था जब उनकी पत्तियों को कुतरा गया था ।
    मौसम के अंत तक शाकाहारियोंने उन शाखाआें को कम नुकसान पहुंचाया था जिन पर निकट संबंधी पौधों से प्राप्त् रसायन डाला गया था बजाय उन शाखाआें के जिन पर डाला गया रसायन थोड़े दूर के सम्बंधियों से आया था । जाहिर है उक्त रसायन ने पौधे में अलग-अलग स्तर की शाकाहारी-रोधक प्रतिक्रियाविकसित की थी । कारबैन पहले दर्शा चुके हैंकि वाष्पशील रसायनों के मिश्रण का संघटन (एक ही प्रजाति) अलग-अलग पौधों में काफी अलग-अलग होता है । अलबत्ता, निकट संबंधी पौधों के बीच कुछ समानता तो होती ही  है । एक तरह से ये पारिवारिक पहचान चिन्ह होते हैं ताकि अन्य को इन संकेतों से फायदा उठाने से रोका जा सके ।
विज्ञान, हमारे आसपास
पका हुआ खाना खाकर हम हुए बुद्धिमान
डॉ.डी. बालसुब्रमण्यन 

    मानव मस्तिष्क का विकास तब शुरू हुआ जब हमने भोजन को पकाना शुरू किया जबकि वानर सब कुछ कच्च ही खाते थे ।
    प्रोसीडिंग्स ऑफ युएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज के २२ अक्टूबर के अंक में ब्राजील की दो महिला वैज्ञानिकों डॉ. फोनेस्का-एजेवेड़ों और हर्क्युलानो-हूजेल ने दावा किया है कि मनुष्यों के दिमाग का आकार तब बढ़ना शुरू हुआ जब उन्होनें भोजन का पकाकर खाना शुरू किया, जबकि हमारे सबसे करीबी वानर (ग्रेट एप्स) आग का उपयोग करना नहीं जानते थे और सब कुछ कच्चही खाते थे । उन्होनें यह दावा किया है कि मस्तिष्क का इस तरह का बदलाव ही मानव विकास की प्रमुख घटना रहा था । और इसके लिए हम आग के उपयोग  के शुक्रगुजार है । 
     उन्होनें इस तरह का दावा क्यों किया ? हम मनुष्यों का दिमाग शरीर के अनुपात में बड़ा होता है । हमारा मस्तिष्क शरीर अनुपात दूसरे प्रायमेट्स की तुलना में अधिक है । हमारे मस्तिष्क में ८६ अरब तंत्रिकाएं या न्यूरॉन्स हैं जबकि ग्रेट एप्स के पास केवल २८ अरब ही है । यह मानव विकास में एक बड़ा बदलाव रहा है । क्यों और कैसे अचानक यह परिवर्तन आया यह सवाल आज तक एक पहेली ही है । और हमारे मस्तिष्क के कामकाज मेंबहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती  है । कंकाल पेशियोंऔर लीवर के बाद मस्तिष्क ही है जो सबसे ज्यादा मेटाबॉलिक ऊर्जा का अवशोषण करता है । हालांकि यह शरीर के पूरे भार का केवल २ प्रतिशत है, मगर यह पूरे शरीर की चयापचयी ऊर्जा का २० प्रतिशत अवशोषित करता    है । दूसरे प्रायमेट्स में यह सिर्फ ०९ प्रतिशत है । इस तरह के ऊर्जा-खर्ची अंग को चलाने के लिए भोजन यानी कैलारी की बहुत अधिक मात्रा की जरूरत होती है ।
    ज्यादा बड़े शरीर को ज्यादा कैलोरी चाहिए और ज्यादा कैलोरी के लिए ज्यादा भोजन चाहिए । इसका मतलब है कि भोजन तलाशने और खाने-पचाने मेंज्यादा समय जाएगा  और भोजन में कैलोरी की मात्रा भी काफी होनी चाहिए । शरीर को मिलने वाली कैलोरी की मात्रा भोजन खाने व पचाने मेंलगने वाले समय पर निर्भर करती है । इसका अंदाजा हम इस बात से लगा सकते हैं कि गौरिल्ला को अपना भोजन पाने-खाने के लिए दिन मेंलगभग १० घंटे लगाना होता हैं ।
    ऐसा अनुमान लगाया गया है कि ऐसा करते हुए उसके शरीर का वजन १२० किलोग्राम के आसपास हो जाता है ।  इतने बड़े शरीर को संभालने के लिए चयापचय दर की गणना क्लाइबर पैमाने के आधार पर की जाती है । यह होती है ७०   (शरीर का वजन) किलौकैलोरी प्रतिदिन । यानी १२० किलोग्राम के गौरिल्ला को दिन में ७०   १२० =  ८४०० किलाकैलोरी की जरूरत रोज होगी । चूंकि मस्तिष्क तंत्रिकाआें को बहुत ज्यादा ऊर्जा की आवश्कयता होती है, इसलिए यह गौरिल्ला जैसे कपि के दिमाग के आकार की अधिकतम सीमा को निर्धारित कर देता है । उनका दिमाग तभी और बड़ा हो सकता है जब वे १० घंटे नहीं बल्कि दिन भर खाते रहें ।
    इसी मोड़ पर कच्च्े और पके हुए भोजन की बात उभरती          है । प्रोसीडिंग्स ऑफ यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज के २९ नवम्बर २०११ के अंक में हार्वड पीबॉडी म्यूजियम के डॉ. रिचर्ड  रैंगहैन ने कच्च्े और पके हुए    भोजन से मिलने वाली ऊर्जा की गणना की थी । 
    श्री रैगंतेन और उनके साथियों ने कच्च्े बनाम पके हुए भोजन का आकलन करने के लिए चूहों के वजन का अध्ययन किया । उन्होंने कुछ चूहोंको कच्च मांस खिलाया और कुछ को पका हुआ मांस । इसी प्रकार से कुछ को कच्च्े शकरकंद खिलाए गए और कुछ को कच्च्े शकरकंद पीसकर खिलाए गए तो कुछ को पके हुए या साबुत या पके हुए पिसे हुए शकरकंद पर रखा गया । उन्होंने पाया कि जिन चूहों को पके हुए मांस या पके हुए शकरकंद पर रखा गया था उनका वजन ज्यादा बढ़ा (और वजन में यह वृद्धि कुल भोजन की मात्रा या उनकी दौड़-भाग से स्वतंत्र थी) । ऐसा लगता है कि पका हुआ भोजन ज्यादा आसानी से पचता है और पकाने की क्रिया में रोगजनक सूक्ष्मजीवों को मारने में भी मदद मिलती है । इसके आधार पर डॉ. रिचर्ड रैंगहैन ने कहा कि भोजन को पकाकर खाना ही हमारे पूर्वजों के फलने-फूलने का कारण रहा     होगा ।
    करीब २० लाख वर्षोंा से ज्यादा समय तक मनुष्यों ने कच्च्े मांस और कंद-मूल पर गुजारा किया था । जब हमने आग बनाना सीख लिया तब भोजन पकाने की शुरूआत हुई । भोजन को पकाकर खाने से ज्यादा पोषक तत्त्व और ऊर्जा मिलने लगी । डॉ. रैंगहैन ने सन् २०१२ में एक किताब प्रकाशित की थी - कैचिंग फायर: हाऊ कुकिंग मेड अस ह्यूमन (आग पर पकड़: पकाने ने हमें इन्सान कैसे बनाया) । उन्होंने बताया था कि हमारे होमिनिड पूर्वजों ने जब भोजन को पकाकर खाने की शुरूआत की तब से उनकी आहार नली छोटी होती गई और मस्तिष्क का आकार बढ़ने लगा ।
    ब्राजील की उक्त शोधकर्ताआें ने इसी बिंदू को आगे बड़ाया है । उनका मत है कि कच्च्े भोजन की अपेक्षा पके हुए भोजन से ज्यादा ऊर्जा मिलती है । अरबोंन्यूरॉन्स को चलाने के लिए प्रतिदिन ६ किलोकैलोरी की आवश्यकता होती है । हमारे रोजमर्रा के सामान्य भोजन से लगभग १८०० किलोकैलोरी मिलती है जिसका २० प्रतिशत या ३६० किलोकैलारी मस्तिष्क के कामकाज में खर्च होती है ।
    इन आकड़ों से पता चलता है कि पका हुआ भोजन कितना कीमती है । यदि ७० किलोग्राम वजन के एक इन्सान को कच्च्े भोजन से प्रतिदिन १८०० किलोकैलोरी प्राप्त् करना है । तो उसे १६-१८ घंटे खाना खाने में बिताना होंगे ।
    इस प्रकार पका हुआ भोजन खाने की बदौलत शुरूआती होमो इरेक्टस को भोजन की तलाश और उसे खाने में कम समय खर्च करना पड़ता होगा । इसके अलावा दिमाग के बढ़ते आकार के चलते सोचने की क्षमता भी आई होगी । एजेरेडो व हर्क्यूलानो हूजेल ने तर्को के आधार पर यह संभावना जताई है कि मानव विकास के दौरान दिमाग का आकार बढ़ने में पके हुए भोजन का बड़ा सकारात्मक महत्व रहा होगा ।
    इस पर्चे पर कई टिप्पणियां और अलोचनाएं आई हैं, जो अपेक्षित भी है । कच्च भोजन (सिर्फ वनस्पति नहीं, फल और मेवे) खाने वाले लोगों ने लिखा है कि वे कच्ची चीजें खाकर स्वस्थ, खुश और दिमागदार रहते    हैं । अन्य लोगों ने इस पर प्रश्न उठाया है कि यह कच्च भोजन भी किसी न किसी रूप से प्रोसेस किया जाता है ।
    लेकिन यह इस बहस का मुख्य मुद्दा नहीं है । मुख्य मुद्दा तो यह है कि आग के उपयोग और भोजन को पकाकर ज्यादा ऊर्जा और पोषक तत्व मिलते हैं । इससे उस महत्वपूर्ण समय में विकास में कैसे मदद मिली होगी जब कई अन्य कारकों ने भी होमो इरेक्टस के उदय में मदद की होगी और फिर      होमो सेपिएन्स अस्तित्व में आया होगा - वही होमो सोपिएन्स जो अपने बड़े दिमाग की बदौलत अतीत में लौटकर यह देखने की क्षमता रखता है कि हमारा दिमाग कैसे बड़ा  हुआ ।     
पक्षी जगत
खरमोर : मालवा का मेहमान पक्षी
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

    मध्यप्रदेश के खूबसूरत जंगल, जगलोें मेंउन्मुक्त  विचरते बाघ, हिरण आदि पशु पक्षी पर्यावरण और वन विभाग द्वारा भ्रमण के लिये पर्यटकों को उपलब्ध करवाई जा रही बेहतर सुविधांए देशी-विदेशी पर्यटकों को आकर्षित कर रही  हैं । जिसके चलते पिछले पाँच साल में प्रदेश के राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभयारण्यों में पर्यटकों की संख्या पांच लाख से बढ़कर १४ लाख हो गयी है जिसमें एक लाख विदेशी पर्यटक भी शामिल है ।
    मध्यप्रदेश में ९४ हजार ६८९ वर्ग किलोमीटर में वन क्षेत्र है । प्रदेश में १० राष्ट्रीय उद्यान और २५ वन्य प्राणी अभ्यारण्य है जो विविधता से भरपूर है । कान्हा, बाँधवगढ़, पन्ना, पेंच, सतपुड़ा एवं संजय राष्ट्रीय उद्यान को टाइगर रिजर्व का दर्जा प्राप्त् है । वहीं करेरा (गुना) और घाटीगांव (ग्वालियर) विलुप्त्प्राय: दुर्लभ पक्षी सोनचिड़िया के संरक्षण के लिए और सैलाना (रतलाम) और सरदारपुर (धार) विलुप्त्प्राय दुर्लभ पक्षी खरमोर के संरक्षण के लिये और ३ अभ्यारण्य चंबल केन एवं सोन घड़ियाल और अन्य जलीय प्राणियों के संरक्षण के लिये स्थापित किये गये है । 
     मध्यप्रदेश के रतलाम जिले में सैलाना में खरमोर बड़ी संख्या में प्रतिवर्ष वर्षा ऋतु में चार माह के लिए आते हैं । इनकी राष्ट्रीय स्तर पर घटती हुई संख्या के कारण इस पक्षी को संकटापन्न की श्रेणी में रखा है । इनका रहवास घास का वह क्षेत्र है जो सामान्यत: खेतों के आसपास स्थित है । मालवा क्षेत्र में ग्रामीण लोग इसे भटकुकड़ी नाम से भी पहचानते हैं । सैलाना क्षेत्र के अतिरिक्त धार जिले के सरदारपुर क्षेत्र में भी खरमोर पक्षी प्रतिवर्ष आते हैं ।
    खरमोर पक्षी का आकार साधारण मुर्गी के बराबर होता है । खरमोर पक्षियों के आगमन  से सामान्यत: १० से १५ दिवस पश्चात् नर पक्षी घास के मैदानों में अपनी टेरीटरी निर्धारण का प्रयास करने लगते हैं । इसके शर्मीले होने के कारण इसे दूर से ही देखा जाता है । कई बार नर पक्षी बिना कोई टेरीटरी निर्धारित किए खेतों में घूमते-घूमते भी छोटी छोटी जम्प करते हुए देखे गए हैं । घास की ऊँचाई २० सेमी, होने के पश्चात् नर पक्षी अपनी टेरीटरी स्थापित कर एक स्थल पर कूदना (जम्प) प्रारंभ कर देते हैं । सामान्यत: नर पक्षी तीन से चार फुट की ऊँचाई तक कूदते हैं और कई बार एक दिन में ४०० बार तक भी एक ही स्थल पर कूदते हुए देखे गए हैं । कूदते समय नर पक्ष अपने पंखों का सफेद भाग विशेष रूप से प्रदर्शित करते हैं और एक तेज विशेष प्रकार की टर्र-टर्र आवाज करते हैं जो कि ५०० मीटर तक सुनी जा सकती है । सामान्यत: नर पक्षी ऊँचे स्थलों का कूदने के लिए चयन करते हुए देखे गए हैं, ताकि दूसरे नर पक्षी को स्पष्ट तौर पर उनकी टेरीटरी का आभास हो सके तथा उन्हें मादा को आकर्षित  करने में भी सुविधा      रहे । अक्टूबर के प्रथम सप्तह तक सामान्यत: कूदना अथवा प्रदर्शन करना समाप्त् हो जाता है । खरमोर की इस कूद को निहारने के लिए रतलाम जिले के सैलाना स्थित शिकारवाड़ी क्षेत्र ने पक्षीविदों को हमेशा आकर्षित किया है ।
    एक शताब्दी पूर्व खरमोर पूरे भारतवर्ष में हिमालय की तराई से लेकर दक्षिणी तट तक पाए जाते थे । ऐसा माना जाता रहा था कि समस्त ऐसे खुले क्षेत्र जो घास से परिपूर्ण थे, वहाँ खरमोर पक्षी किसी न किसी अवधि में अवश्य प्रवास करते थे । बीसवीं शताब्दी के मध्य तक ऐसा माना जाता रहा कि खरमोर पक्षी मुख्यत: गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश के विभिन्न भागोंमें प्रजनन के लिए आते हैं और प्रजनन उपरान्त दक्षिणी भारत में पलायन करते रहे हैं । बीसवीं शताब्दी के अन्त तक खरमोर पक्षी की संख्या कम होना स्पष्ट तौर पर पाया जाने लगा और वर्षा ऋतु में प्रजनन के लिए ये केवल कुछ मुख्य घास के मैदानों में ही दिखाई देने लगे । वर्ष १९८० के पश्चात् से खरमोर की संख्या में कमी आने से इनके रहवास इत्यादि के बारे में विशेष ध्यान दिया जाने लगा और कई क्षेत्रों को अभ्यारण्य भी घोषित किया गया । बर्ड लाइफ इन्टरनेशनल द्वारा इसे संकटापन्न घोषित किया गया है ।
    महान पक्षी प्रेमी सालीम अली ने स्वयं सैलाना क्षेत्र में आकर खरमोर संरक्षण के लिए प्रेरणा दी थी । श्री अली की प्रेरणा से मध्यप्रदेश सरकार ने १४ जून, १९८३ को रतलाम जिले के ८५१.७० हेक्टर वन क्षेत्र तथा ग्राम सैलाना और शेरपुर के ४४५.७३ हेक्टेयर राजस्व क्षेत्र को खरमोर पक्षी अभ्यारण्य क्षेत्र वन्यप्राणी संरक्षण के लिए अधिसूचित किया है । राजस्व क्षेत्र सैलाना के अन्तर्गत ३५५ हेक्टेयर क्षेत्र शिकारवाड़ी के नाम से जाना जाता है । यह क्षेत्र पूर्व में सैलाना रियासत का शिकारगाह रहा है, यह खरमोर देखने के लिए उचित स्थान      है । यह क्षेत्र ऊँचा-नीचा होकर चारों और खेतों से घिरा हुआ है । शेरपुर में ९० हेक्टेयर क्षेत्र में घास बीड़ अभ्यारण्य के अन्तर्गत अधिसूचित है ।
    वन विभाग द्वारा प्रत्येक वर्ष उपरोक्त अधिसूचित क्षेत्र को वर्षा ऋतु प्रारंभ होने से पूर्व चराई से रोकने के लिए प्रयास किए जाते हैं । अभ्यारण्य के आसपास के ग्रामीणों से चर्चा की जाकर चराई रोकने के लिए समझाइश दी जाती रही है । वर्षा सीजन समाप्त् होने के उपरान्त वन क्षेत्र मेंउपलब्ध घास को नि:शुल्क ग्रामीणों को उपलब्ध कराया जाता है । खरमोर पर हुए विभिन्न शोध कार्यो से यह स्पष्ट हुआ है कि वर्षा ऋतु प्रारंभ होते ही खरमोर का घास के मैदान  में आना प्रारंभ हो जाता है और सामान्यत: दो-तीन दिवस की अच्छी वर्षा उपरान्त खरमोर की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होती है । वर्षाकाल के प्रथम १५ दिवसों में अच्छी वर्षा होना खरमोर की संख्या अधिक होने के संकेत देता  है ।
खरमोर संरक्षण में जनसहयोग -
    अभ्यारण्य के अधिसूचित क्षेत्र के अतिरिक्त रतलाम जिले में कई घास बीड़ें निजी आधिपत्य में भी विद्यमान     हैं । बी.एन.एच.एस. और विभाग के सर्वे इत्यादि से ज्ञात हुआ है कि इन निजी घास बीडों में भी खरमोर प्रवास करते रहे हैं । वन विभाग के आधिपत्य में न होने से इन घास बीड़ों के प्रबंधन और सुरक्षा इत्यादि के संबंध में वन विभाग द्वारा कोई विशेष प्रयास पृथक से किया जाना संभव नहीं हो पाता था । विभिन्न स्तरों पर अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि निजी क्षेत्रों में आने वाले खरमोर का संरक्षण तब ही संभव है, जब क्षेत्र मालिक को प्रोत्साहन दिया जाए । इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए वन विभाग द्वारा खरमोर संरक्षण इनामी योजना वर्ष २००५ से लागू की गई । इस योजना के अनुसार यदि किसी व्यक्ति द्वारा खरमोर के आने की सूचना दी जाती है और वनकर्मियोंद्वारा खरमोर सूचना के आधार पर पाया जाता है तो सूचना देने वाले व्यक्ति को एक हजार रूपये का इनाम दिया जाता है । यदि सूचना के उपरांत खरमौर का निजी घास बीड़ और खेत में संरक्षण पूर्ण सीजन तक किया जाता है तो संरक्षण करने वाले कृषक को कुल पांच हजार रूपये प्रोत्साहन राशि के रूप में दिए जाते हैं । वर्ष २००५ में इस योजना का प्रचार यथा संभव किया जाकर कुल १२ खरमोर अभ्यारण्य के बाहर क्षेत्र में विभिन्न कृषकों की सहायता से दिखाई देना संभव हो सके । इस योजना के अन्तर्गत घास बीड़ मालिकों द्वारा रूचि ली जा रही है और प्रतिवर्ष खरमोर निजी घास बीड़ों में दिखाई दे रहे है ।
    यह सुखद है कि खरमोर संरक्षण में समुचित जन सहयोग मिल रहा है । वैसे भी आजकल रंग-बिरंगे पक्षियों को निहारने के अवसर समाप्त् होते जा रहे हैं । मनुष्य द्वारा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का सिलसिला लगातार जारी है । दुनिया में बढ़ती प्राकृतिक आपदाआेंके रूप में इनके नतीजे हम भुगत भी रहे हैं । इंसानों की गलतियों का खामियाजा अब पशु-पक्षियों को भी भुगतना पड़ रहा है । ऐसे में प्रवासी पक्षी खरमोर के प्रति मालवी लोगों द्वारा आत्मीयतापूर्ण व्यवहार कर संरक्षण प्रदान करना सचमुच सुखद संकेत है ।
    रतलाम जिले के साथ ही प्रदेश के अन्य क्षेत्रों से भी पक्षी प्रेमी प्रति वर्ष बड़ी संख्या में खरमोर देखने के लिए सैलाना पहुँचते है । पर्यटकों के भ्रमण के लिए उपयोग जानकारी निम्न है :-
१.    उचित अवधि - अगस्त और सितम्बर माह (वर्षा की स्थिति पर निर्भर)
२.    उचित समय -  प्रात: और सांयकाल
३.    उचित स्थल - शिकारवाड़ी (यह स्थल सैलाना से तीन किलोमीटर और रतलाम से २५ किलोमीटर की  दूरी पर स्थित है)
४.    उचित साधन - दूरबीन
५.    उचित सलाह - घास बीडों में घूमने के लिए लांग बूट साथ ले जाने से सुविधा होगी ।
कविता
कहाँ रहेगा आदमी ?
श्याम बहादुर नम्र

    यह जमीन सिर्फ आदमी की नहीं, सभी की है,
    इसकी हर एक चीज इस जगत में हर किसी की है ।
        हक है पर्वतों को कि सीना तान कर रहे खड़े,
        हक है हर एक पेड़ को कि वो उगे, पले, बढ़े ।
    मिल के सागरों से वो बने लहर मचल सके,
    बादलों के भेष में गगन तक उछल सके ।
        उड़ के जब भी चाहे पहॅुंच जाए वो पहाड़ पे,
        रूक सके, बरस सके, शहर पे या उजाड़ पे ।
    पंछियों को हक है, जहाँ चाहें वो उड़ रहें,
    चह-चहाएँ, कूक-गाएँ, फड़फड़ाएँ खुश रहें ।
        हर हिरन को हक है, वह उछाल मारता फिरे,
        शेर को भी हक है, वह दहाड़ मारता फिरे
    आदमी को चाहिये कि सबसे हक को जान ले,
    सबके साथ ही वो जी सकेगा, ऐसा मान ले ।
        पर जमी पे बढ़ रहा है, बेतरह से आदमी,
        लड़ रहा है खुद में, हवस की वजह से आदमी ।
    सब को पाँव के तले दबा रहा है आदमी,
    जीव-जन्तु पेड़ सब चबा रहा है आदमी ।
        आदमी के बोझ और हरकतों से ये जमी,
        नष्ट हो गई तो फिर कहाँ रहेगा, आदमी ।।   
प्रदेश चर्चा
पंजाब : समृद्धि का दूसरा चेहरा
कुमार कृष्णन

    पंजाब की हरित क्रांति के सफलता मेंदलितों का अभूतपूर्व योगदान रहा है, लेकिन उससे मिलने वाले लाभों से ये समुदाय आज भी वंचित है । जनसंख्या में इनकी हिस्सेदारी जहां ३ फीसदी है वहीं पंजाब की मात्र १.५ फीसदी जमीन पर ही उनका मालिकाना हक है । स्थिति अब बंधुआ मजदूरी तक पहुंच गई ।
    पंजाब खुशहाल है और खेती-किसानी के कारण हुई हरित क्रांति का लाभ भी सबको मिला । लेकिन असलियत इससे भिन्न है । यहां का दलित समाज बिल्कुल भूमिहीन है और कई जगहोंपर तो वह बंधुआ मजदूर की स्थिति में है । हरित क्रांति करने वाले किसानों को खेत मजदूर की आवश्यकता है और दलित मजदूरों को पैसे की आवश्यकता है । अनेक मजदूर कर्ज के दबाव मंे परिवार सहित बंधुआ बनकर किसान के साथ लगे हैं । इस गुलामी को समाप्त् करने के लिए सिर्फ कानून ही पर्याप्त् नहीं है, मानसिकता भी चाहिए । पंजाब में दलितों के लिये उपलब्ध जमीन पर दबंगों तथा सामंतों का कब्जा है । भूमि सुधार की हर प्रक्रिया को नकार दिया गया है । यहां हुई हरित क्रांति के कारण जमीन के दाम काफी बढ़ गए हैं । जिन मकानों तथा कॉलोनियों में दलित लोग रह रहे हैं, वे भी उनके अपने नहीं हैं । इस स्थिति में बैंक का लाभ ले पाना भी इन गरीबों के बूते की बात नहीं है ।
     यामलात जमीन जिसे आजादी के पूर्व से ही दलितों के लिये सुरक्षित रखा गया था, उसे भी सरकार दलितों को वितरित करने में असफल रही है । पंजाब में दलितों की संख्या ३० फीसदी होने के बावजूद उनके पास महज डेढ़ फीसदी के पास ही भूमि है । यहां लगभग चार लाख एकड़ जमीन जो आजादी के पूर्व से ही दलितों के लिए वैधानिक रूप से सुरक्षित रखी गई थी, उस पर दबंगों का कब्जा है । आवासहीन भूमिहीन दलित परिवारों को सरकार की किसी भी योजना के तहत भूमि अधिकार सुनिश्चित कराने का कोई प्रावधान नहीं है । भू-हदबंदी कानून का क्रियान्वयन अब तक अपूर्ण है । वर्ष १९५२ में जमींदारी उन्मूलन के पश्चात पंजाब में जिन भूमिहीन और आवासहीनों को अधिकार देना सुनिश्चित किया गया था, उन्हें आज भी जमीन नहीं मिल पायी है । जमींदारों द्वारा अलग-अलग नामों से हजारों एकड़ भूमि अपने नाम रख ली गई है ।
    पटियाला क्षेत्र में पटियाला, महाराज के अधीन ७८४ छोटी-बड़ी जागीरें थी, जिन्हें क्षेत्र में लगान वसूलने का अधिकार दिया गया था । इसे ठप्पा प्रथा कहा जाता था । १९ वीं सदी में इस लगान प्रथा के खिलाफ किसानों के छोटे-बड़े आंदोलन भी हुए । आजादी के बाद भी अनौपचारिक रूप से जमींदारों के माध्यम से यह प्रथा चल रही है । पंजाब की दो तस्वीर है । हरित क्रांति के कारण बड़े जमींदारों ने अपनी बड़ी जोत के कारण अधिक धन और अधिकार हासिल कर लिया । हरित क्रांति की प्रक्रिया में लघु तथा सीमांत किसानों के लिए अवसर नहीं थे ।
    यामलात भूमि कानून के मुताबिक २८ एकड़ जमीन पर एक निश्चित शुल्क देकर गरीब परिवार लीज ले सकते है । पंजायत सचिव और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा बिना सूचना के ही यह औपचारिकता पूरी कर ली जाती है । वराणवाला गांव के गुरदीप सिंह के मुताबिक विगत दस वर्षोसे किसी भी खुली प्रक्रिया के तहत दलितोंने यामलात जमीन की नीलामी की प्रक्रिया में भाग ही नहीं लिया है । वास्तव में पंचायत के द्वारा जमीन की नीलामी की सूचना सार्वजनिक रूप से प्रसारित नहीं की जाती है ।
    आज से लगभग बीस साल पहले सभी गरीब परिवारों के पास पशुधन था । यह इंर्धन और स्वरोजगार का एक सुरक्षित माध्यम था । अब गांवों में चारागाह की व्यवस्था पूरी तरह से समाप्त् हो चुकी है और चारागाह की जमीन पर प्रभावशील लोगों का कब्जा है । इसलिये पशुआें को रखना संभव नहीं है । फसल की कटाई के बाद से भी खेत से भूसा तथा चारा लेने की अनुमति नहीं है । जमींदारों के यहां से पशुआें का गोबर उठाने की भी अनुमति नहीं है । इंर्धन के लिये गोबर कंडे बनाने हेतु भी जमीदारों के यहां नि:शुल्क मजदूरी करनी पड़ती है ।
    वर्ष २००१ में यामलात भूमि के मामले में सर्वोच्च् न्यायालय के द्वारा पारित आदेश में प्रमुख रूप से दलितों के लिये आरक्षित भूमि पर गैर दलितों के अधिकार को समाप्त् करने की बात कही गयी थी । भारत विभाजन के बाद पूरे पंजाब में ३.१ लाख एकड़ भूमि आवासहीनों तथा भूमिहीनों को दिया जाना सुनिश्चित किया गया था, जिसमें से मात्र १.१० लाख एकड़ भूमि का वितरण किया गया । वर्ष १९६१ के एक सरकारी आदेश के बाद यह भूमि पंजाब सरकार को हस्तांतरित कर दी गयी थी । बाद में इस जमीन की औपचारिक नीलामी कर दी गयी । आज इस जमीन का अधिकांश हिस्सा गरीब भूमिहीनों को मिलने की बजाय बड़े लोगों को हस्तांतरित कर दिया गया है । जिन भूमिहीन परिवारों को १९६१ के पूर्व चिन्हित किया गया था, उसे भी भूमि का आवंटन नहीं किया गया ।
    चंडीगढ़ विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक डॉ गोपाल अय्यर के मुताबिक आजादी के बाद पूरे पंजाब में ७ लाख एकड़ भूमि यामलात भूमि के रूप में अधिसूचित की गयी  थी । इस सामुदायिक भूमि का ३५ फीसदी हिस्सा दलित परिवारों को सुरक्षित रखने के प्रावधान तय किये गये । इसमें तीन लाख एकड़ भूमि को कृषि योग्य मानते हुए इसका वितरण भी कर दिया गया था । जबकि चार लाख एकड़ भूमि को अनुपयोगी बता कर ग्राम पंचायतों तथा राजस्व विभागों को सौंप दिया गया । आज इस चार लाख एकड़ भूमि से एक बड़ा हिस्सा अवैध रूप से प्रभावशील लोगों के कब्जेमें है ।
    वरिष्ठ अधिवक्ता गगनदीप कौर का कहना है कि यामलात भूमि के कानून मेंबदलाव की आवश्यकता   है, क्योंकि जिस मकसद से इस भूमि पर दलित भूमिहीनों के रक्षा के प्रावधान रखे गये थे, वह पूरा नहीं हो पा रहा है । भूमि सुधार जेसे मसलों से छुटकारा पाने के लिये गरीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों के लिये सरकार ने कई योजनाएं चला रखी है । इन योजनाआें का लाभ हासिल करना कठिन है । जगह-जगह लागों ने हमसे यह कहा कि हमसे सारे कार्ड ले लीजिये, हमें सिर्फ एक एकड़ जमीन दे दीजिए ।
    पंजाब में हर गांव में जातिय आधार पर गुरूद्वारा या धर्मशाला बने हुए है । अपने-अपने अस्तित्व के तलाश में लोग इकट्ठे हो रहे है । इससे संगठनात्मक ताकत बढ़ी है और सम्मान का एजेंडा भी मजबूत हुआ है । विनोबा भावे ने एक प्रयास किया था कि जमीन का मसला मिल बैठकर समाज हल करे लेकिन सरकार के सहयोग के अभाव में यह प्रयोग समाप्त् हो गया । प्रयोग को समाप्त् करने में कई ताकतों ने सरकार को साथ दिया, क्योंकि जमीन पर ग्राम समाज का अधिकार बाजारीकरण को रोक रहा था । अब तो कंपनियों को व्यावसायिक खेती के लिये जमीन दी जा रही है । पंजाब के अलग-अलग हिस्सों में यामलात भूमि को बड़ी-बड़ी कंपनियों को हस्तांतरित करने की प्रक्रिया आरंभ भी कर दी गयी है ।    
पर्यावरण समाचार
अस्पतालों के कचरे का इलाज जरूरी
    देश में चिकित्सीय कचरा न सिर्फ पर्यावरण, बल्कि स्वास्थ्य के लिहाज से भी चिंता का विषय बनता गया है । राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के ताजा निर्देश पर सीपीसीबी यानी केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने एक जांच के बाद दिल्ली के पांच बड़े अस्पतालों के बारे में जो खुलासा किया, वह इस बात का सबूत है कि आधुनिकतम या विशेषज्ञता का दावा करने वाले ये अस्पताल किस तरह अपने यहां रोजाना इकट्ठा होने वाले चिकित्सीय कचरे और उसके खतरों के मामले मेंघोर लापरवाही बरतते है । राष्ट्रीय हरित पंचाट को सौंपी अपनी जांच रिपोर्ट में बोर्ड ने तीन सरकारी और कुछ विशेष उपचार संबंधी सुविधाआेंवाले निजी अस्पतालों को भी तय मानकों के उल्लघंन का दोषी पाया है ।
    राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अनेक अस्पतालों और क्लीनिकों की जांच में पाया गया कि इस मामले में वहां नियमों को ताक पर रख दिया गया है । देश के दूसरे इलाकों में स्थिति इससे अलग नहीं है । चिकित्सीय कचरे के निपटान में लापरवाही के मामले में तकरीबन डेढ़ साल पहले पर्यावरण वन मंत्रालय ने देश के तेरह सौ से ज्यादा स्वास्थ्य सेवा केन्द्रों को दोषी पाया था ।
    आमतौर पर जैविक चिकित्सीय कचरे को संक्रामक और गैर-संक्रामक, दो श्रेणियों में बांटा जाता है । लेकिन अगर संक्रामक कचरे का निपटान वैज्ञानिक तरीके से नहीं किया गया तो वह दूसरे गैर-संक्रामक कचरे को भी दूषित कर देता है । इससे फ्यूरांस और डायोक्सिन जैसे कई तरह के प्रदूषक तत्व पैदा होते है जो कैंसर, मधुमेह, प्रजनन और शारीरिक विकास संबंधी परेशानियों की वजह बन सकते है । जैव चिकित्सा अपशिष्ट (प्रबंधन एवं निपटान) अधिनियम, १९९८ के तहत अस्पतालों के लिए अनिवार्य है कि वे पर्यावरण के अनुकूल और वैज्ञानिक तरीके से कचरे का निष्पादन करें । लेकिन विडंबना है कि जहां पश्चिमी देशों में जैव-चिकित्सीय कचरे का निपटान एक व्यावसायिक गतिविधि बन चुका है, वहीं हमारे देश में उत्सर्जित ऐसे कचरे मे से महज लगभग आधे कचरे का ही निपटान हो पाता है ।