मंगलवार, 14 मई 2013

प्रदेश चर्चा
पंजाब : समृद्धि का दूसरा चेहरा
कुमार कृष्णन

    पंजाब की हरित क्रांति के सफलता मेंदलितों का अभूतपूर्व योगदान रहा है, लेकिन उससे मिलने वाले लाभों से ये समुदाय आज भी वंचित है । जनसंख्या में इनकी हिस्सेदारी जहां ३ फीसदी है वहीं पंजाब की मात्र १.५ फीसदी जमीन पर ही उनका मालिकाना हक है । स्थिति अब बंधुआ मजदूरी तक पहुंच गई ।
    पंजाब खुशहाल है और खेती-किसानी के कारण हुई हरित क्रांति का लाभ भी सबको मिला । लेकिन असलियत इससे भिन्न है । यहां का दलित समाज बिल्कुल भूमिहीन है और कई जगहोंपर तो वह बंधुआ मजदूर की स्थिति में है । हरित क्रांति करने वाले किसानों को खेत मजदूर की आवश्यकता है और दलित मजदूरों को पैसे की आवश्यकता है । अनेक मजदूर कर्ज के दबाव मंे परिवार सहित बंधुआ बनकर किसान के साथ लगे हैं । इस गुलामी को समाप्त् करने के लिए सिर्फ कानून ही पर्याप्त् नहीं है, मानसिकता भी चाहिए । पंजाब में दलितों के लिये उपलब्ध जमीन पर दबंगों तथा सामंतों का कब्जा है । भूमि सुधार की हर प्रक्रिया को नकार दिया गया है । यहां हुई हरित क्रांति के कारण जमीन के दाम काफी बढ़ गए हैं । जिन मकानों तथा कॉलोनियों में दलित लोग रह रहे हैं, वे भी उनके अपने नहीं हैं । इस स्थिति में बैंक का लाभ ले पाना भी इन गरीबों के बूते की बात नहीं है ।
     यामलात जमीन जिसे आजादी के पूर्व से ही दलितों के लिये सुरक्षित रखा गया था, उसे भी सरकार दलितों को वितरित करने में असफल रही है । पंजाब में दलितों की संख्या ३० फीसदी होने के बावजूद उनके पास महज डेढ़ फीसदी के पास ही भूमि है । यहां लगभग चार लाख एकड़ जमीन जो आजादी के पूर्व से ही दलितों के लिए वैधानिक रूप से सुरक्षित रखी गई थी, उस पर दबंगों का कब्जा है । आवासहीन भूमिहीन दलित परिवारों को सरकार की किसी भी योजना के तहत भूमि अधिकार सुनिश्चित कराने का कोई प्रावधान नहीं है । भू-हदबंदी कानून का क्रियान्वयन अब तक अपूर्ण है । वर्ष १९५२ में जमींदारी उन्मूलन के पश्चात पंजाब में जिन भूमिहीन और आवासहीनों को अधिकार देना सुनिश्चित किया गया था, उन्हें आज भी जमीन नहीं मिल पायी है । जमींदारों द्वारा अलग-अलग नामों से हजारों एकड़ भूमि अपने नाम रख ली गई है ।
    पटियाला क्षेत्र में पटियाला, महाराज के अधीन ७८४ छोटी-बड़ी जागीरें थी, जिन्हें क्षेत्र में लगान वसूलने का अधिकार दिया गया था । इसे ठप्पा प्रथा कहा जाता था । १९ वीं सदी में इस लगान प्रथा के खिलाफ किसानों के छोटे-बड़े आंदोलन भी हुए । आजादी के बाद भी अनौपचारिक रूप से जमींदारों के माध्यम से यह प्रथा चल रही है । पंजाब की दो तस्वीर है । हरित क्रांति के कारण बड़े जमींदारों ने अपनी बड़ी जोत के कारण अधिक धन और अधिकार हासिल कर लिया । हरित क्रांति की प्रक्रिया में लघु तथा सीमांत किसानों के लिए अवसर नहीं थे ।
    यामलात भूमि कानून के मुताबिक २८ एकड़ जमीन पर एक निश्चित शुल्क देकर गरीब परिवार लीज ले सकते है । पंजायत सचिव और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा बिना सूचना के ही यह औपचारिकता पूरी कर ली जाती है । वराणवाला गांव के गुरदीप सिंह के मुताबिक विगत दस वर्षोसे किसी भी खुली प्रक्रिया के तहत दलितोंने यामलात जमीन की नीलामी की प्रक्रिया में भाग ही नहीं लिया है । वास्तव में पंचायत के द्वारा जमीन की नीलामी की सूचना सार्वजनिक रूप से प्रसारित नहीं की जाती है ।
    आज से लगभग बीस साल पहले सभी गरीब परिवारों के पास पशुधन था । यह इंर्धन और स्वरोजगार का एक सुरक्षित माध्यम था । अब गांवों में चारागाह की व्यवस्था पूरी तरह से समाप्त् हो चुकी है और चारागाह की जमीन पर प्रभावशील लोगों का कब्जा है । इसलिये पशुआें को रखना संभव नहीं है । फसल की कटाई के बाद से भी खेत से भूसा तथा चारा लेने की अनुमति नहीं है । जमींदारों के यहां से पशुआें का गोबर उठाने की भी अनुमति नहीं है । इंर्धन के लिये गोबर कंडे बनाने हेतु भी जमीदारों के यहां नि:शुल्क मजदूरी करनी पड़ती है ।
    वर्ष २००१ में यामलात भूमि के मामले में सर्वोच्च् न्यायालय के द्वारा पारित आदेश में प्रमुख रूप से दलितों के लिये आरक्षित भूमि पर गैर दलितों के अधिकार को समाप्त् करने की बात कही गयी थी । भारत विभाजन के बाद पूरे पंजाब में ३.१ लाख एकड़ भूमि आवासहीनों तथा भूमिहीनों को दिया जाना सुनिश्चित किया गया था, जिसमें से मात्र १.१० लाख एकड़ भूमि का वितरण किया गया । वर्ष १९६१ के एक सरकारी आदेश के बाद यह भूमि पंजाब सरकार को हस्तांतरित कर दी गयी थी । बाद में इस जमीन की औपचारिक नीलामी कर दी गयी । आज इस जमीन का अधिकांश हिस्सा गरीब भूमिहीनों को मिलने की बजाय बड़े लोगों को हस्तांतरित कर दिया गया है । जिन भूमिहीन परिवारों को १९६१ के पूर्व चिन्हित किया गया था, उसे भी भूमि का आवंटन नहीं किया गया ।
    चंडीगढ़ विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक डॉ गोपाल अय्यर के मुताबिक आजादी के बाद पूरे पंजाब में ७ लाख एकड़ भूमि यामलात भूमि के रूप में अधिसूचित की गयी  थी । इस सामुदायिक भूमि का ३५ फीसदी हिस्सा दलित परिवारों को सुरक्षित रखने के प्रावधान तय किये गये । इसमें तीन लाख एकड़ भूमि को कृषि योग्य मानते हुए इसका वितरण भी कर दिया गया था । जबकि चार लाख एकड़ भूमि को अनुपयोगी बता कर ग्राम पंचायतों तथा राजस्व विभागों को सौंप दिया गया । आज इस चार लाख एकड़ भूमि से एक बड़ा हिस्सा अवैध रूप से प्रभावशील लोगों के कब्जेमें है ।
    वरिष्ठ अधिवक्ता गगनदीप कौर का कहना है कि यामलात भूमि के कानून मेंबदलाव की आवश्यकता   है, क्योंकि जिस मकसद से इस भूमि पर दलित भूमिहीनों के रक्षा के प्रावधान रखे गये थे, वह पूरा नहीं हो पा रहा है । भूमि सुधार जेसे मसलों से छुटकारा पाने के लिये गरीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों के लिये सरकार ने कई योजनाएं चला रखी है । इन योजनाआें का लाभ हासिल करना कठिन है । जगह-जगह लागों ने हमसे यह कहा कि हमसे सारे कार्ड ले लीजिये, हमें सिर्फ एक एकड़ जमीन दे दीजिए ।
    पंजाब में हर गांव में जातिय आधार पर गुरूद्वारा या धर्मशाला बने हुए है । अपने-अपने अस्तित्व के तलाश में लोग इकट्ठे हो रहे है । इससे संगठनात्मक ताकत बढ़ी है और सम्मान का एजेंडा भी मजबूत हुआ है । विनोबा भावे ने एक प्रयास किया था कि जमीन का मसला मिल बैठकर समाज हल करे लेकिन सरकार के सहयोग के अभाव में यह प्रयोग समाप्त् हो गया । प्रयोग को समाप्त् करने में कई ताकतों ने सरकार को साथ दिया, क्योंकि जमीन पर ग्राम समाज का अधिकार बाजारीकरण को रोक रहा था । अब तो कंपनियों को व्यावसायिक खेती के लिये जमीन दी जा रही है । पंजाब के अलग-अलग हिस्सों में यामलात भूमि को बड़ी-बड़ी कंपनियों को हस्तांतरित करने की प्रक्रिया आरंभ भी कर दी गयी है ।    

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