मंगलवार, 25 मई 2010

१ सामयिक

मशीन में पिसती सभ्यता
भारत डोगरा
आज से करीब तीन शताब्दी पहले जो औद्योगिक क्रान्ति ब्रिटेन में आरंभ हुई थी, उसका एक महत्वपूर्ण आधार यह था कि कपड़े की हाथ से कताई बुनाई के स्थान पर मशीन से कताई-बुनाई की जाए । कताई की मशीन और पावरलूम से ब्रिटेन में पहले के मुकाबले सस्ता कपड़ा बन सका । यही वह समय था, जब ब्रिटेन का दुनिया भर मेंराज फैल रहा था और वहां के व्यापार पर बिटेन का नियंत्रण था और वहां के व्यापार पर बिट्रेन वहां यह कपड़ा सस्ते में बेच सकता था । इससे भारत सहित दुनियाभर में लाखों हाथकरघे पर बुनने वाले बुनकरों का रोजगार उजड़ गया । उनमें से बहुत से बेरोजगारी, तंगहाली व भूख से मर गए । उस समय दूसरो का बाजार छीनने की जिद में ब्रिटेन व यूरोप के अन्य देशों को तो सफलता मिल गई, पर क्या पूरी दुनिया की दृष्टि से यह एक अच्छा बदलाव था ? आज २०० वर्ष गुजर जाने के बाद हमें ठंडे दिमाग से इस बारे में सोचना चाहिए । एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक तथ्य जिस ओर प्राय: घ्यान नहीं दिया गया है, वह यह है कि ब्रिटेन के अपने बुनकरो ने भी कपड़ा उत्पादन के मशीनीकरण का बहुत विरोध किया था । उन्होंने कारखानों पर हमले भी किए और अनेक मशीनों को तोड़ दिया । बाद में बड़ी सख्ती से उनके इस विरोध को दबा देने से पहले यह याद रखना चाहिए कि वे केवल अपनी रोजी रोटी की रक्षा कर रहे थे । हाथकरघा बुनकरों का दृष्टिकोण समझने के लिए यह जानना भी जरूरी है कि औद्यौगिक क्रान्ति के आगमन से पहले इन बुनकरों के जो संगठन थे, उनमें किसी का रोजगार छीनने की संभावना उत्पन्न हो, तो चाहे वह सस्ता उपाय हो पर उसे अच्छा नहीं माना जाता था । यहां तक कि इसके लिए कुछ सजा भी दी जाती थी । परंतुु साम्राज्यवाद के दौर मेंजो ताकतें सामने आइंर्, उनका सोचने का तरीका अलग था और जो पहले बुरा माना जाता था, दंडनीय माना जाता था, वह इस नए दौर की ताकतों का मुनाफा दुनिया भर में बढाने के लिए अच्छा माना जाने लगा । पर यदि इनकी संकीर्ण सोच से हटकर देखा जाए तो हाथ के हुनर के स्थान पर मशीन के आ जाने का ब्रिटेन के पूरे समाज को क्या लाभ हुआ है । यह कहना कठिन है । मशीन द्वारा सस्ते उत्पादन का मुख्य आधार यह था कि उत्पादन प्रक्रिया में तेजी आ जाए जिससे कारीगरों की संख्या में कमी आ सके ।पहले से कहीं अधिक उत्पादन के लिए भी अब पहले से कम कारीगरों की जरूरत थी जो लोग इस प्रक्रिया में इस कार्य से हटे उन्हें मिलों में मजदूर बनने के अवसर प्राप्त् हुए । उस समय मिल मजदूरों की जो चिंताजनक स्थिति थी, वह निश्चय ही कारीगरों की पहले की स्थिति से बदतर थी । इतना ही नही बुनकरों को पहले जो अच्छी गुणवत्ता का कपड़ा अपने हाथ से बनाने का संतोष लुप्त् होता गया क्योंकि बड़े कारखानें का मजदूर तो एक मशीनीकृत प्रक्रिया का छोटा सा हिस्सा मात्र बन कर रह गया है । सवाल उठता है कि अत्यधिक मशीनीकरण होने के बाद औद्यौगिक क्रान्ति के अग्रणी देशों के कारीगर व किसान कहां गए ? जिस तरह यह देश अपने-अपने साम्राज्यवाद की लड़ाइयां लड़ रहा है, उस स्थिति में यह आश्चर्य की बात नहीं थी कि मशीनीकरण ने इस समाजों से जिन लोगों को परंपरागत रोजगार से हटाया, उनमें से सबसे अधिक फौज में गए । अपने-अपने साम्राज्यवादी हितों को आगे बढ़ाने के लिए इन देशों ने अपने सैनिकों व उपनिवेशों के सैनिकोंको अनेक युद्धों में झोका व अंत में पहला विश्वयुद्ध हुआ । इस युद्ध का अंत टकराव का कोई बुनियादी हल निकाले बिना ही हो गया, ,अत: तनाव सुलगते रहे जिसके फलस्वरूप द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ । इसके बाद भी तेज अनियंत्रित मशीनीकरण को एक समस्या के रूप में नहीं समझा गया । इसके फलस्वरूप एक ओर बेरोजगारी स्थाई समस्या बन गई वहीं दूसरी ओर जिन रोजगार की रचना हुई उनमें न तो रचनात्मकता थी व नही वे अधिकांश लोगों को संतोष दे सके । बढ़ते धन के बावजूद बोरियत, अलगाव व अवसाद की समस्याएं बढ़ती रहीं । कृषि मेंमशीनीकरण का सबसे प्रतिकूल असर यह हुआ कि टिकाऊ खेती, मिट्टी के उपजाऊपन व पर्यावरण की रक्षा वाली खेती के लिए जिस मानवीय कौशल, निष्ठा व श्रम की जरूरत थी, उस की कमी ही समस्या बन गई । इन सब कारणों से मशीनीकरण के लाभ के बारे में पुनर्विचार करने की जरूरत तो पहले से महसूस की जा रही थी परंतु जब से ग्रीनहाऊस प्रभाव गैसों के अधिक उर्त्सजन से जलवायु बदलाव का संकट उत्पन्न होने की समझ बनी है तब से इस पर पुनर्विचार और जरूरी हो गया है । इस नई समझ का अर्थ यह है कि औद्यौगिक क्रांति के बाद जो भी मनुष्य की श्रम-शक्ति या पशुआें की उर्जा से होने वाले कार्य का विस्थापन, फॉसिल इंर्धन, कोयला आदि से चलित मशीनीकरण से हुआ, उस सबने धरती की जीवनदायी क्षमता को ही स्थाई क्षति पंहुचाई है । यदि इस नई समझ के आधार पर देखें तो विश्व के करोड़ों हाथकरघा बुनकरों की रोजी-रोटी को नष्ट करना अब अधिक बड़ी भूल मालूम होती है । महात्मा गांधी ने अपने समय में इस बारे में बहुत महत्वपूर्ण चेतावनी दी थी । अत: आज जरूरी है कि तेज, अनियंत्रित मशीनीकरण के बारे में हम नए सिरे से पुनर्विचार करें । ***गोरैया का घरौंदा शेक्सपीयर के हैमलेट व छायावादी कवियित्री महादेवी वर्मा की कविताआें की पात्र रही गोरैया उत्तराखंण्ड से विलुप्त् होती जा रही है । कभी घर-आँगन में चारों ओर चहकने वाली इस चिड़िया की फिक्र अब भारत सरकार को भी सता रही है इस चिड़िया के घरोंदे को फिर से आबाद करने के लिए कई स्वयंसेवी संस्थाआें ने भी सरकार से हाथ मिलाये है । ऐसा ही प्रयास उत्तराखंण्ड की आर्क नामक संस्था ने भी किया है । आर्क यानी एक्शन एंड रिसर्च फॉर कन्जर्वेशन इन हिमालयाज ने विश्व गोरैया दिवस के मौके पर उत्तराखंड में घोसला बनाने का एक कार्यक्रम शुरू किया है इसके तहत लोगों में आकर्षक घोसलों को बाँट कर उनसे इस चिड़िया के रक्षण की अपील की गई है । आर्क में महत्वपुर्ण भूमिका निभाने वाले प्रतीक पंवार बताते है कि दो साल पूर्व जब उन्हे यह कार्यक्रम शुरू करने का खयाल आया तो उन्होंने इसका फील्ड ट्रायल करवायाँ और योजना की संभावित सफलता की जाँच की अपने घोंसलों की बाबत वे कहते है - यह घोंसला मासूम पक्षी गोरैयाके अंडों को शिकारी पक्षियों से बचाना एवं इनकी वंशवृद्धि में सहायता पहुँचाने के उद्देश्य से बनाया गया है साथ ही , इससे पक्षी को निवास के लिए एक सुरक्षित स्थान मिलेगा ।

६ जनजीवन

धन की बौछार करती बस्तियां
अंकुर पालीवाल
राजीव आवास योजना ऐसी पहली गृहयोजना है जो बस्ती निवासियो को संपत्त्ति के अधिकार प्रदान करती है और इसमेें १० लाख करोड रूपये के निवेश की संभावना है । वही मीडिया रिपोर्ट इशारा कर रही है कि इस योजना को धन कौन उपलब्ध कराएगा इसे लेकर मंत्रालयोंं मे मतभेद है । राजीव आवास योजन अथवा रे कहलाने वाली इस योजना के लिए केन्द्रीय आवास एवं शहरी गरीबी निवारण मंत्रालय व योजना आयोग चाहते है कि इस हेतु निजी नियोजकोें को आमंत्रित किया जाए या निजी सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) मॉडल को अपनाया जाए । वित्त मंत्रालय चाहता है कि परियोजना लागत केन्द्र व राज्य सरकार वहन करें । बैंगलुरू के शोधार्थी विनय बेंडुर ९० के दशक में मुंबई में प्रचलित पीपीपी मॉडल का उदाहरण देते हुए कहते है कि पीपीपी मॉडल न तो लोकतांत्रिक हैं और न ही जवाबदेह । तत्कालीन झुग्गी पुर्नवास योजना की शुरूआत पांच वर्षो में ४० १लाख परिवारों को घर उपलब्ध करवाने हेतु की गई थी । तब मुंबई में झुग्गी बस्तियों की आबादी १२ लाख थी । अब तक मात्र ८५,००० परिवारों को घर उपलब्ध हो पाए हैं और इस दौरान आबादी पांच गुना बढ़ गई है । मुंबई की शहरी योजना और आवास के सलाहकार वी.के.पाठक का कहना है कि पीपीपी मॉडल का प्रयोग निम्न आय वर्ग समुह के लिए हर्र्गिज नही किया जाना चाहिए । निजी निवेशक इस क्षेत्र में तभी उतरते है कि जब इसमें प्रयुक्त होने वाली भूमि मुल्यवान हो और लाभ की सुनिििचशतता भी हो । मुंबई के ही घर बचाआें, घर बनाआें आंदोलन के सिमप्रीत सिंह का कहना है धारावी के अनुभव से हमने यह सिखा की गरीबों के पुर्नवास नाम पर मूल्यवान भूमि को छीनकर निजी बिल्डरों को बजाए झुग्गीवासियों के लिए घर बनाने के, व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए हस्तांतरित कर दिया गया । निजी बिल्डर झुग्गीवासियों के लिए घर बनाने के बजाए उनका रहवास भी हड़प लेंगे । केन्द्रीय आवास मंत्रालय के निदेशक डी.पी.एस. नेगी के अनुसार निजी निवेशकों को शामिल किए जाने के संंबंध में केन्द्र सरकार को स्पष्टता है । केन्द्र परियोजना की कुल लागत का अधिकतम ५० प्रतिशत योगदान देगा । बाकी का राज्य सरकार को पी.पी.पी. के माध्यम से इकट्ठा करना होगा । मुंबई जैसे शहरों में तो केन्द्र का हिस्सा ४० प्रतिशत से अधिक नही होगा । बाकी का भूमि को संसाधन के रूप में मानकर इकट्ठा किया जाए । मंत्रालय के अनुसार सन् २०१२ में २ करोड़ ६५ लाख घरों की कमी होगी । इसमें से ९९ प्रतिशत कम आय वर्ग के लिए है । यह तब है जबकि जे.एन.एन. आर.यू.एम.एवं अन्य योजनाआेंं के माध्यम से कम लागत के २० लाख से अधिक घरों का निर्माण हो चुका है । इसी के साथ १० लाख अतिरिक्त मकान जे.एन.एन. आर.यू.एम.की लागत वहन कर सकने वाली गृह भागीदारी योजना के अंर्तगत बनाए गए है । विशेषज्ञों की जिज्ञासा है कि इतनी सारी योजनाए प्रचलन में है तो किसी नई योजना की आवश्यकता ही क्यों है क्योंकि इन योजनाआें में भी रे की तरह शहरी गरीबों को घर उपलब्ध कराने का प्रावधान है । इस पर श्री नेगी का कहना है कि हमने वर्तमान में विद्यमान सभी गृह निर्माण योजनाआें को मिलाकर रे को प्रारंभ किया है । केवल उन शहरों मेंे जहां पूर्ववर्ती योजनाए अभी भी कार्यशील है वहां वे पूर्ण होने तक चलती रहेगी । वहीं दुसरी ओर दिल्ली स्थित स्कूल ऑफ प्लानिंग एण्ड आर्किटेक्चर के विभागाध्यक्ष पी.एस.उन. राव कर कहना है अनेक शहरों में शहरी गरीबो को मूलभूत सुविधाएं (बीयूएसपी) और अन्य गृह निर्माण परियोजनाआें के माध्यम से धन इकट्ठा कर कार्य किया जा रहा है । ऐसे में इन सबका रे में समाहित करना समझ से परे है । बीयूपीएसपी की सीमा को लेकर कोई वायदा नहीं किया है । अगर समयबद्धता ही पैमाना है तो बीयूपीएसपी की सीमा बड़ाई जा सकती थी या सरकार इसकी समािप्त् का इंतजार करती है और उसके बाद नई योजना प्रारंभ करती । अमेरिका के पापुलेशन रेफरेंस ब्यूरो द्वारा २००६ में भारतीय शहरों में गंदी बस्तियों मे रह रहे नागरिको के आंकड़े जारी किये थे । इसके अनुसार मुंबई में ६५ लाख, दिल्ली में १९ लाख, कोलकाता में १५ लाख, चैन्नई में ९ लाख और नागपुर मेंे ७ लाख लोग गंदी बस्तियों में रह रहे है । वही मंत्रालय का कहना है कि बीयूपीएसपी के अंर्तगत किए गए वायदे पहले ही पुरे किए जा चुके है, अब तो सिर्फ उनकी निगरानी ही करना है । श्री नेगी का कहना है बीयूपीएसपी रे की शाखा के रूप में कार्य करती रहेगी, परंतु नई परियोजना रे के अंर्तगत ही स्वीकृत होगी । बीयूपीएसपी के अंर्तगत प्राप्त् आंकड़े राज्य सरकारों द्वारा उपलब्ध कराए गए है । रे के अंर्तगत भी हम बायोमीट्रिक सर्वेक्षण करवाते रहेंगे और प्रत्येक लक्षित हितग्राही को परिचय पत्र भी जारी करेंगे । श्री राव का कहना है कि वैचारिक दृष्टि से यह सोचना ही बेहूदा है कि भारतीय शहर गंदी बस्ती मुक्त हो पाएंगे । गंदी बस्ती निर्माण एक सतत प्रक्रिया है क्योंकि लोग तो शहरों में आते ही रहेंगे परुतु इसका यह अर्थ नहीं है कि हम शहरी गरीबों के लिए रहने की बेहतर व्यवस्था ही न करें । एक अन्य विशेषज्ञ फाटक का कहना है कि आज की आवश्यकता झुग्गी मुक्त भारत नहीं बल्कि इन गंदी बस्तियों को पानी , सेनीटेशन व प्रभावकारी ठोस अपशिष्ठ निवारण जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाकर रहने योग्य बनाने की है । विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार गंदी बस्ती में रहने वालों को स्वयं गृह निमार्ण के लिए मूलभूत सुविधाआें से युकत भूमि उपलब्ध कराएं । कम लागत के सामूहिक गृह निर्माण क्षेत्र में गंदी बस्ती निवासीयों की भागीदारी अनिवार्य है । सिमप्रीत सिंग का कहना है कि बजाए मुफ्त घर देने के सरकार ऐसे घर बनाए जिनकी लागत कम आय वर्ग वाले दे सकें । इस प्रक्रिया में बस्ती के रहवासियोंको शामिल करना चाहिए और उनसे श्रम के साथ आर्थिक योगदान देने को भी कहना चाहिए । ***मामूली निवेश से जल प्रबंधन संभवृ विश्व बैंक ने दावा किया है कि भारत के व्यापक भूमिगत जल संकट से मामूली निवेश और बेहतर प्रबंधन से निपटा जा सकता है । विश्व बैंक ने एक रिपोर्ट ड्रीप वेल्स एंड प्रूडेंस में आंध्रप्रदेश में चलाई गई एक योजना का उल्लेख करते हुए कहा है कि मात्र २२०० डॉलर (लगभग ९९ हजार रूपए )प्रतिवर्ष प्रति गाँव खर्च करके भूमिगत जल स्तर में सुधार किया गया है इससे न केवल जल संबंधी परेशानियों से निजात मिली, बल्कि किसानों की आमदनी भी बढ़ गयी है ।

१२ कविता

मेरा शहर

डॉ. किशोरी लाल व्यास

मेरा शहर---
बाग़ बगीचों को
हरे भरे उपवनों को
पारदर्शी सरोवरों को
खेल मैदानों को
चबाकर
कचड्... कचड् खा रहा है
और लोहे-सीमेंट की
गगन चुंबी अट्टालिकाएं
उगा रहे !
आक्टोपस-सा/बढ़ता ही आ रहा है ।

मेरा शहर
चिमनियों-वाहनों के धुएं में
अपने घाव, अपने नासूर
छिपा रहा है
और गर्द-गुबार में
धूल मे लिपटा खाँस रहा है !
मेरे शहर के उदर में
कूडे-कर्कट के ढ़ेर
उग आये हैं
कुकुरमुत्ते की तरह
और इसके फेंफडों में
रेंगते है
राजयक्ष्मा के अदृश्य कीटाणु ।
मेरे शहर की रगों में
दौड़ती है गंध भरी नालियाँ
और निश्वास में
फूट पड़ता है ज़हरीला प्रदूषण ।

मेरे शहर के बच्च्े
खाँसते है
खाते है, टी.वी. देखते है
खेलते नहीं
खेलेंगे भी कहाँ
सारे मैदान/सारे बाग बगीचे/सरोवर-तड़ाग
गगन चुम्बी अट्टीलिकाआें में
हो गये है तब्दील।

टूटने की हद तक
बोझ ढो रहा है
मेरा शहर !

बिसुर रहा है
विधवा-सा
श्रीहीन होकर
रो रहा है मेरा शहर !
***

१३ आवरण कथा

पशु-पक्षियों के प्रेम प्रसंग

नरेन्द्र देवांगन

नर वन-बिलाप बड़ा मनमौजी जीव है । एंकात पंसद । अकेले रहेगा, लेकिन दुसरे के पास नहीं जाएगा ।
मादा वन बिलाव बड़ी भावुक है । प्रणय के मामले मेंपहले कदम वही उठाती है प्रेम -विह्वल मादा अपनी मांद छोड़ प्रियतम की खोज में चल पड़ती है और बावली बनी वह तब तक वन-वन की खाक छानती फिरती है जब तक उसे प्रेमी के चरण चिन्ह नहीं दिख जाते । यदि ये चिन्ह ताज़े हुए, तो तेजी से वह उन्ही पद चिन्हों पर दौड़ने लगती है उसका अनुमान सही हो, तो प्रियतम से निकट भेंट हो जाती है । लेकिन थोड़ी मान-मनौवल के उपरांत । अगर ये चिन्ह ताज़े न हुए तो वह उन्हीं के निकट बैठकर प्रतीक्षा करती है । कि कभी तो प्रिय इस राह से गुज़रेंगे ।
जान की बाजी
मानव जाति के इतिहास में एक समय ऐसा था जब प्रेमिका को पाने के लिए लोगो को युद्ध करना पड़ता था और जान की बाजी लगानी पड़ती थी । आज यदि प्रेमिका के लिए जान यदि कोई जान की बाजी लगा सकता है तो वह है पानी का खुखार जानवर घड़ियाल । घड़ियाल को प्रेमिका पाने के लिए अपने प्रतिद्वंद्धि से घमासान युद्ध करना पड़ता है जो प्राय: घंटो चलता है । इस युद्ध में कभी-कभी एक को जान से हाथ भी धोना पड़ता है । जीतने वाला घड़ियाल आत्म विभोर होकर पूंछ और सिर को पानी के बाहर निकाले हुए अपनी प्रेयसी के चारों और चक्कर लगाता है और गले से ज़ोर की आवाज निकालता है , जो दरअसल उसकी प्रेम पुकार होती है ।
सेवा भाव
प्रियतमा कोे रिझाने के लिए हर तरह की खुशामद यदि कोई करता है, तो वह है हाथी । जी-तोड़ खुशामद करने पर भी हाथी को प्र्रेमिका से प्रणय की स्वीकृति प्राप्त् करने में हफ्तों या महिनों लग जाते हैं । इस अवधि में हाथी हथिनी का साथ कभी नहीं छोड़ता है । कभी बढ़िया खाद्य पदार्थ खोजकर उसे देता है, उसके स्नान में सहायक बनता है, तो कभी विश्राम के लिए आरमदेह स्थान खोजने में उसकी मदद करता है अंतत: वह हथिनी को इस बात
का विश्वास दिलाकर रहता है कि
उसका सच्च प्रेमी वही है , कोई दुसरा नहीं ।
प्रणय की भुख, नर को गर्भ
प्रियतमा से प्रणय की भीख मांगने का सबसे विचित्र तरीका अपनाता है समुद्री घोड़ा । यह समुद्री घोड़ा समुद्र में रहने वाली एक मछली है । इसके मुंह की बनावट घोड़ो से बहुत कुछ मिलती-जुलती है इसलिए इसे समुद्री घोड़ा कहा जाता है आकार में यह दरियाई घोड़ो के एक लाखंवा हिस्सा भी नहीं होता है । नर समुद्री घोड़े के पेट पर एक वैसी ही थैली होती है, जैसी मादा कंगारू के । नर बड़े ही दीन-भाव से अपनी प्रेमिका के पास जाकर खड़ा हो जाता है बड़ी खुशामद और मिन्नत से प्रेमिका का दिल पसीजता है और वे अपने अंडे नर की थैली में दे देती है तब नर अंडों के निषेचन की क्रिया करता है थैली बंद हो जाती है प्रेमी गर्भवान हो जाता
है ।
पक्षियों में प्रणय निवेदन
पीलक और बटेर जैसे पक्षियों के अपवाद को छोड़कर प्राय: नर पक्षी को ही मादा को रिझाने पड़ता है । वे अपने संगीत, सुंदर पंखों या अपनी योग्यता का प्रर्दशन करके अपनी प्रेयसी से प्रणय की भीख मांगते है नर पक्षियों के रंग-बिरंगे चमकीले पर मादा को अपनी और आकृष्ट करने में काफी मदद देते है जोड़ा बनाने के समय तो उनके पंख और भी भड़किले हो जाते है मोर में यह परिर्वतन बड़ी आसानी से देखा जा सकता है । जिन पक्षियों को अपने सुंदर पंखों पर गर्व होता, वे घंटों तक अपने परों को फुला-फुलाकर संवारते है । फिर मादा के सामने पहुंचकर नाचते है । इसके बाद हाव-भाव, नृत्य और मनुहारों का क्रम तब तक चलता है । जब तक कि मादा रीझ नहींजाती ।
वर्षा ऋतु में मेघों को देख मोर नाच उठता है । प्रणय काल में मोर बड़ी संख्या में किसी पेड़ पर एकत्र ह्ो जाते है अपनी-अपनी प्रेयसी के सामने इठलाते, अपने पंखों को झिलमिलाकर कंपाते है वे पंखों को लंबा करके पीछे की ओर कर लेते है मोरनी न तो मोर की तरह सुंदर होती है और न ही उसके पास मोर जैसे शानदार लंबे पर होते है ।
गाने वाले पक्षी पेड़ की डालपर बैठकर ज़ोर-ज़ोर से गाते हैं । इन दिनों उनके गले में एक साज़ और स्वर में एक अजीब मधुरता आ जाती है और वे दिन-रात प्रणय गीत गाते रहते हैं ।जिन पक्षियों को गाना नही आता है, वे केवल गले से आवाज करते हैं ज़ोर-ज़ोर से बोलते है इन सबके बावजूद इनमे प्रणय भावना के प्रकट करने की मर्यादाएं निश्चित हैं ।
साथ ही जीना-मरना
प्रिय के बिछार मेंप्राण त्याग देने केे लिए प्रसिद्ध है सारस का प्रेम । नर और मादा सारस दोनों सच्च्े अर्थां में जन्म मरण के साथी होते हैं । सारस के जोड़ें में से जब एक की मृत्यु हो जाती है तो दूसरा भी खाना-पीना छोड़ देता है और अंतत: अपने प्राण त्याग देता है । सारस अपनी प्रणय लीला के लिए भी प्रसिद्ध है । वर्षा काल में नर-मादा दोनों उल्लास से भरे एक-दूसरे के आसपास उछलते, चक्कर लगाते और अपने चौड़े पंख फैलाकर तथा गर्दन नीची करके हवा में ऊंची छलांग लगाते है । बीच-बीच मे ंवे ज़ोर-ज़ोर से तुरही की सी आवाज निकालते भी लगाते हैं ।
पक्षी स्वयंवर
स्वयंवर में जिस तरह विवाह की इच्छुक युवती अपना पति स्वयं चुनती थी ।, इसी तरह रफस नामक मादा पक्षी अपना वर चुनती है । कई नर पक्षी प्रणयोन्मत होकर समूहबद्ध नृत्य करते है कई नर काफी बड़ी संख्या में दलदली भूमी के बीच किसी सूखे स्थान पर एकत्र होकर नाचना-कुदना शुरू कर देते है । और यह तब तक चलता चलता रहता है जब तक कोई मादा नहीं आ जाती । मादा बारी-बारी से सबके पास जाती है । हरेक का निरीक्षण करने केबाद किसी एक को चुनती लेती है ।
बहु पत्नी प्रथा
हंस एक ऐसा पक्षी है, जो बहुपत्नी प्रथा में विश्वास रखता है हंस अपने सौंदर्य, नीर-क्षीर विवेक और ठुमकती चाल के लिए प्रसिद्ध रहा है । यह एक निर्भीक तथा रोमांच प्रिय पक्षी है । यह स्वभाव से बहुत नाजुक, एक ऊचे दर्जे का प्रेमी, साथ ही ऊचे उर्जे का घृणा करवे वाला जीव भी
है । नर हंस एक साथ कई पत्नियां रखता है ।
दांपत्य का आदर्श
पक्षियों में कबूतर सबसे प्रेमी जीव माना जाता है प्रणय मग्न कबूतर अपनी प्रियतमा को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए गुटरगू का अलमस्त राग अलापता हुआ उसके चारों ओर घुमकर नाचता है और प्रणय याचना करता है । आम तौर एक ही बार में जोड़े का चुनाव हो जाता है । और जीवन पर्यंत निभाया जाता है । इसीलिए कपोत-कपोती हमेशा जोड़े में ही दिखते हैं ।
प्रणय गायक
भारतीय साहित्य में जिन पक्षियों की सवार्धिक चर्चा हुई है, उनमें कोयल और चातक (पपीहा) मुख्य है । वस्तुत: ये प्रणय गीत के गायक पक्षी माने जाते हैं । बसंत ऋतु में प्रणय की पुकार नर कोकिल के ही कंठ से फुटती है । नर कोकिल आम की डाल पर उन्मत्त कंठ से अपनी तान छेड़ देता है । आसपास कहीं बैठी हुई कोकिला प्रणय निवेदन सुनती है । तो वह स्वयं नर की और खिची चली जाती है ।
इसी प्रकार नर पपीहा भी मौसम आने पर अनेक हाव-भाव का चित्त हरने की कोशिश करता है । नर पहले मादा के
पास आकर इस तरह से बैठ जाता है मानो प्यार की भीख मांग रहा हो । फिर मधुर स्वर में अपना प्रणय गीत आरंभ करता है माद चुपचाप बैठी यह लीला देखती और प्रणय गीत सुनती रहती है ।
कलाकार पक्षी
कलाप्रिय पक्षी नर बया घोंसला भी बहुत ही कलापुर्ण और प्रेयसी की रूचि के अनुकूल बनाता है नर नया जोड़ा बनाने के समय को छोड़कर, बाकी महीने मादा की ही शक्ल का रहता है । पर जोड़ा बनाने का समय आने पर, सुंदर और भडकिले हो जाते है । तब उसकी आँख के निचे से लेकर सीने के ऊपर तक का हिस्सा गहरा भुरा हो जाता है । सिर का ऊपरी हिस्सा और सीना पीला हो जाता है, जो पेट तक पहुंचते-पहुंचते सफेदी में बदल जाता है । वर्षा काल आरंभ होेने पर नर नया एक घोसला बनाता है । वह पहले केवल घोसलों का बाहरी ढांचा तैयार करता है । और जब मादा उसका निरीक्षण करके उसे पास कर देती है, तो समझिए उसने पर का प्रणय प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ।
मरने का अभिनय
नर और मादा नीलकंठ एक ही शक्ल के होते है । नर नीलकंठ मादा को खुश करने के लिए उसके आगे अपने करतब दिखाता हुआ । पहले तो ऊपर उड़ जाता है, फिर नीचे की ओर ऐसे गिरता है मानो मर गया हो । पर जमींन पर आने से पहले ही वह संभलकर फिर ऊपर उड़ जाता है इस प्रकार यह मादा को खुश करके जोड़ा बना लेता है । ***

१४ पर्यावाण समाचार

प्रधानमंत्री ने थामी शेर बचाने की कमान
बाघ बचाआें मुहिम की



कमजोरियों को दुरस्त करने की कमान अब सीधे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने थाम ली है इस कवायद में उन्होंने उत्तराखंड, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियोंको चिट्ठी लिख कर तत्काल टाइगर रिजर्व क्षेत्रों की सुध लेने को कहा है ।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश चंद्र पोखरियाल निशंक को लिखी चिट्ठी में प्रधानमंत्री ने कार्बेट क्षेत्र में मानव-बाघ टकराव की घटना पर चिंता जताई । साथ ही राज्य सरकार से बाघ क्षेत्रों पर स्थानीय लोगों की निर्भरता कम करने के लिए कहा गया है । ताकि टकराव की स्थिति से बचा जा सके ।
प्रधानमंत्री ने बीते दिनों कार्बेट क्षेत्र में बाघों को बचाने के लिए किए गए प्रयासों को तेज करने के साथ-साथ राज्य को कार्बेट में पर्यटन को नियंत्रित करने की सलाह दी है । साथ ही कार्बेट के आसपास के क्षेत्र को पर्यावरण संरक्षण कानून के तहत पारिस्थितिकीय दृष्टि से संवेदनशील घोषित करने के लिए भी कहा है ।
प्रधानमंत्री मनमोहन ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोंक चह्वाण को भी चिट्ठी लिखी है । उन्हौने तड़ोबा रिजर्व मेंे यथाशीघ्र बफर क्षेत्र रेखांकित करने का आग्रह किया साथ ही स्पेशल टाइगर फोर्स के गठन को भी गति देने का कहा । मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से भी प्रधानमंत्री ने ऐसा ही कहा है । प्रधानमंत्री ने तीनों राज्यों से बाघ संरक्षण के मोर्चे पर तैनात फील्ड स्टाफ के खाली पड़े पद भी जल्द भरने का आग्रह किया ।
गौरतलब है कि बीते दिनों राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की पांचवी बैठक में प्रधानमंत्री ने बाघों को बचाने के लिए चल रही मुहिम के कील-कांटे दुरूस्त करने को कहा था इसी बैठक में प्रधानमंत्री ने वन और पर्यावरण मंत्रालय के तहत वन्यजीवों के लिए अलग विभाग बनाने के प्रस्ताव को भी मंजूरी दी थी ।
बाघों की लगातार घटती संख्या
पर अंकुश लगाने के लिए केन्द्र सरकार ने कई मशक्कत शुरू कर दी है । इसके तहत महराष्ट्र, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में बाघों के संरक्षण के लिए अभयारण्य बनाने का फैसला लिया गया है । वर्ष २००८ में हुई गणना के अनुसार, देश में कुल १४११ बाघ ही बचे है । लगातार घटती संख्या के दो मुख्य कारण अभी सामने आए है । पहला, बाघों का बड़े पैमाने पर शिकार होना है । जबकि दूसरा , जगल में भोजन का अभाव भी उन्हें भूखे मरने पर मजबूर कर रहा है । ऐसे में सरकार कुछ विशेष स्थान बनाने पर विचार कर रही है जहां बाघों को पर्याप्त् संरक्षण और सुरक्षा मिल सके ।
भूकंप की चेतावनी देते हैं मेंढक
बरसों पहले मनुष्य ने एक ऐसा उपकरण तैयार किया, जो विनाशकारी भूकंप से पृथ्वी के दहलने की पूर्व चेतावनी दे सकता है । यदि बुधवार को प्रकाशित हुए वैज्ञानिकों की एक रिपोर्ट कर पुष्टि हो जाती है तो हमें भूकंप की पूर्व चेतावनी देने वाला एक सजीव माध्यम मिल जाएगा । रिपोर्ट के मूताबिक उम्मीद की जा रही है कि भूकंप की चेतावनी देने वाला यह माध्यम एक छोटा, भुरा उभयचर हो सकता है । अध्ययन में बताया गया है कि मध्य इटली में छ: अप्रैल २००९ को ला अक्विला शहर में आए भूकंप के बारे में नर मेंढक (बुफो बुफो ने पांच दिन पहले चेतावनी दी थी । इस प्राकृतिक आपदा में ३०० लोगों की मौत हो गई थी और ४०,००० अन्य विस्थापित हो गए थे ।
ब्रिटेन मुक्त विश्वविद्यालय के जीव विज्ञानी राशेल ग्रांट ने ला आक्विला से ७४ किलोमीटर दूर सान रफिलों लेक में मेंढक पर निगरानी रखने की एक परियोजना शुरू की । इसके कुझ दिन बाद ही ला आक्विला में ६.३ तीव्रता का भूकंप आया था वैज्ञानिकों के दो सदस्यीय इल ने इस स्थान का २९ दिनों तक मुआयना किया था मेंढकों की संख्या गिनी तापमान, आर्द्रता, हवा की गति, बारिश और अन्य परिस्थितियों की माप की ।
ग्रांट ने पाया कि दो बाद ही उनकी संख्या में कमी हो गई । वही, भूकंप से पांच दिन पहले एक अप्रैल को ९६ फीसदी नर मेंढक वहां से भाग चुके थे । उनमें से कई दर्जन नौ अप्रैल को पूर्णमासी की रात वापस लौटे । इस बीच, प्रजनन स्थल पर मेंढकों के जोड़ियों की संख्या भूकंप से तीन दिन पहले घटकर शुन्य हो गई और छ: अप्रैल से लेकर भूकंप के बाद तक वहां उनका एक भी नया अंडा नहीं पाया गया । ***