धन की बौछार करती बस्तियां
अंकुर पालीवाल
राजीव आवास योजना ऐसी पहली गृहयोजना है जो बस्ती निवासियो को संपत्त्ति के अधिकार प्रदान करती है और इसमेें १० लाख करोड रूपये के निवेश की संभावना है । वही मीडिया रिपोर्ट इशारा कर रही है कि इस योजना को धन कौन उपलब्ध कराएगा इसे लेकर मंत्रालयोंं मे मतभेद है । राजीव आवास योजन अथवा रे कहलाने वाली इस योजना के लिए केन्द्रीय आवास एवं शहरी गरीबी निवारण मंत्रालय व योजना आयोग चाहते है कि इस हेतु निजी नियोजकोें को आमंत्रित किया जाए या निजी सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) मॉडल को अपनाया जाए । वित्त मंत्रालय चाहता है कि परियोजना लागत केन्द्र व राज्य सरकार वहन करें । बैंगलुरू के शोधार्थी विनय बेंडुर ९० के दशक में मुंबई में प्रचलित पीपीपी मॉडल का उदाहरण देते हुए कहते है कि पीपीपी मॉडल न तो लोकतांत्रिक हैं और न ही जवाबदेह । तत्कालीन झुग्गी पुर्नवास योजना की शुरूआत पांच वर्षो में ४० १लाख परिवारों को घर उपलब्ध करवाने हेतु की गई थी । तब मुंबई में झुग्गी बस्तियों की आबादी १२ लाख थी । अब तक मात्र ८५,००० परिवारों को घर उपलब्ध हो पाए हैं और इस दौरान आबादी पांच गुना बढ़ गई है । मुंबई की शहरी योजना और आवास के सलाहकार वी.के.पाठक का कहना है कि पीपीपी मॉडल का प्रयोग निम्न आय वर्ग समुह के लिए हर्र्गिज नही किया जाना चाहिए । निजी निवेशक इस क्षेत्र में तभी उतरते है कि जब इसमें प्रयुक्त होने वाली भूमि मुल्यवान हो और लाभ की सुनिििचशतता भी हो । मुंबई के ही घर बचाआें, घर बनाआें आंदोलन के सिमप्रीत सिंह का कहना है धारावी के अनुभव से हमने यह सिखा की गरीबों के पुर्नवास नाम पर मूल्यवान भूमि को छीनकर निजी बिल्डरों को बजाए झुग्गीवासियों के लिए घर बनाने के, व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए हस्तांतरित कर दिया गया । निजी बिल्डर झुग्गीवासियों के लिए घर बनाने के बजाए उनका रहवास भी हड़प लेंगे । केन्द्रीय आवास मंत्रालय के निदेशक डी.पी.एस. नेगी के अनुसार निजी निवेशकों को शामिल किए जाने के संंबंध में केन्द्र सरकार को स्पष्टता है । केन्द्र परियोजना की कुल लागत का अधिकतम ५० प्रतिशत योगदान देगा । बाकी का राज्य सरकार को पी.पी.पी. के माध्यम से इकट्ठा करना होगा । मुंबई जैसे शहरों में तो केन्द्र का हिस्सा ४० प्रतिशत से अधिक नही होगा । बाकी का भूमि को संसाधन के रूप में मानकर इकट्ठा किया जाए । मंत्रालय के अनुसार सन् २०१२ में २ करोड़ ६५ लाख घरों की कमी होगी । इसमें से ९९ प्रतिशत कम आय वर्ग के लिए है । यह तब है जबकि जे.एन.एन. आर.यू.एम.एवं अन्य योजनाआेंं के माध्यम से कम लागत के २० लाख से अधिक घरों का निर्माण हो चुका है । इसी के साथ १० लाख अतिरिक्त मकान जे.एन.एन. आर.यू.एम.की लागत वहन कर सकने वाली गृह भागीदारी योजना के अंर्तगत बनाए गए है । विशेषज्ञों की जिज्ञासा है कि इतनी सारी योजनाए प्रचलन में है तो किसी नई योजना की आवश्यकता ही क्यों है क्योंकि इन योजनाआें में भी रे की तरह शहरी गरीबों को घर उपलब्ध कराने का प्रावधान है । इस पर श्री नेगी का कहना है कि हमने वर्तमान में विद्यमान सभी गृह निर्माण योजनाआें को मिलाकर रे को प्रारंभ किया है । केवल उन शहरों मेंे जहां पूर्ववर्ती योजनाए अभी भी कार्यशील है वहां वे पूर्ण होने तक चलती रहेगी । वहीं दुसरी ओर दिल्ली स्थित स्कूल ऑफ प्लानिंग एण्ड आर्किटेक्चर के विभागाध्यक्ष पी.एस.उन. राव कर कहना है अनेक शहरों में शहरी गरीबो को मूलभूत सुविधाएं (बीयूएसपी) और अन्य गृह निर्माण परियोजनाआें के माध्यम से धन इकट्ठा कर कार्य किया जा रहा है । ऐसे में इन सबका रे में समाहित करना समझ से परे है । बीयूपीएसपी की सीमा को लेकर कोई वायदा नहीं किया है । अगर समयबद्धता ही पैमाना है तो बीयूपीएसपी की सीमा बड़ाई जा सकती थी या सरकार इसकी समािप्त् का इंतजार करती है और उसके बाद नई योजना प्रारंभ करती । अमेरिका के पापुलेशन रेफरेंस ब्यूरो द्वारा २००६ में भारतीय शहरों में गंदी बस्तियों मे रह रहे नागरिको के आंकड़े जारी किये थे । इसके अनुसार मुंबई में ६५ लाख, दिल्ली में १९ लाख, कोलकाता में १५ लाख, चैन्नई में ९ लाख और नागपुर मेंे ७ लाख लोग गंदी बस्तियों में रह रहे है । वही मंत्रालय का कहना है कि बीयूपीएसपी के अंर्तगत किए गए वायदे पहले ही पुरे किए जा चुके है, अब तो सिर्फ उनकी निगरानी ही करना है । श्री नेगी का कहना है बीयूपीएसपी रे की शाखा के रूप में कार्य करती रहेगी, परंतु नई परियोजना रे के अंर्तगत ही स्वीकृत होगी । बीयूपीएसपी के अंर्तगत प्राप्त् आंकड़े राज्य सरकारों द्वारा उपलब्ध कराए गए है । रे के अंर्तगत भी हम बायोमीट्रिक सर्वेक्षण करवाते रहेंगे और प्रत्येक लक्षित हितग्राही को परिचय पत्र भी जारी करेंगे । श्री राव का कहना है कि वैचारिक दृष्टि से यह सोचना ही बेहूदा है कि भारतीय शहर गंदी बस्ती मुक्त हो पाएंगे । गंदी बस्ती निर्माण एक सतत प्रक्रिया है क्योंकि लोग तो शहरों में आते ही रहेंगे परुतु इसका यह अर्थ नहीं है कि हम शहरी गरीबों के लिए रहने की बेहतर व्यवस्था ही न करें । एक अन्य विशेषज्ञ फाटक का कहना है कि आज की आवश्यकता झुग्गी मुक्त भारत नहीं बल्कि इन गंदी बस्तियों को पानी , सेनीटेशन व प्रभावकारी ठोस अपशिष्ठ निवारण जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाकर रहने योग्य बनाने की है । विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार गंदी बस्ती में रहने वालों को स्वयं गृह निमार्ण के लिए मूलभूत सुविधाआें से युकत भूमि उपलब्ध कराएं । कम लागत के सामूहिक गृह निर्माण क्षेत्र में गंदी बस्ती निवासीयों की भागीदारी अनिवार्य है । सिमप्रीत सिंग का कहना है कि बजाए मुफ्त घर देने के सरकार ऐसे घर बनाए जिनकी लागत कम आय वर्ग वाले दे सकें । इस प्रक्रिया में बस्ती के रहवासियोंको शामिल करना चाहिए और उनसे श्रम के साथ आर्थिक योगदान देने को भी कहना चाहिए । ***मामूली निवेश से जल प्रबंधन संभवृ विश्व बैंक ने दावा किया है कि भारत के व्यापक भूमिगत जल संकट से मामूली निवेश और बेहतर प्रबंधन से निपटा जा सकता है । विश्व बैंक ने एक रिपोर्ट ड्रीप वेल्स एंड प्रूडेंस में आंध्रप्रदेश में चलाई गई एक योजना का उल्लेख करते हुए कहा है कि मात्र २२०० डॉलर (लगभग ९९ हजार रूपए )प्रतिवर्ष प्रति गाँव खर्च करके भूमिगत जल स्तर में सुधार किया गया है इससे न केवल जल संबंधी परेशानियों से निजात मिली, बल्कि किसानों की आमदनी भी बढ़ गयी है ।
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