मंगलवार, 27 फ़रवरी 2007

संपादक परिचय - व्यक्तिगत

व्यक्तिगत

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

जन्म तिथि - १० जून १९५५

शिक्षा - एम.ए.(हिन्दी), पी.एच.डी.(पत्रकारिता),डी.लिट् (पर्यावरण)

पत्रकारिता -

सन् १९७२- साप्ताहिक मालव समाचार में प्रतिनिधि। १९७४ - दैनिक स्वदेश इंदौर में जिला प्रतिनिधि।

१९७५-हिन्दुस्तान समाचार संवाद एजेंसी में जिला संवाददाता।१९७५ - दैनिक इंदौर समाचार में अति.प्रतिनिधि।

१९७७-दैनिक स्वदेश इंदौर में सह-संपादक।

स्वतंत्र पत्रकार के रुप में युगवार्ता, सप्रेस और सी.एन.एफ. फीचर एजेस्यिों के माध्यम से हिन्दी के प्रतिष्ठित पत्रो में सम-सामयिक विषयों पर अनेक लेख प्रकाशित। इंदौर प्रेस क्लब एवं रतलाम प्रेस क्लब के सदस्य। प्रादेशिक मंत्री म.प्र. आंचलिक पत्रकार संघ, भोपाल। १९८४ पहली पुस्तक विश्व युवा वर्ष : संदर्भ चुनौतियां का प्रकाशन। १९८७ पहली हिन्दी पर्यावरण पत्रिका पर्यावरण डाइजेस्ट का प्रकाशन। १९८८पर्यावरण के जनसुलभ सिाहत्य के अन्तर्गत पर्यावरण को बचाईये - स्वयं को बचाईये, हमारे जल संसाधनों का संरक्षण और पर्यावरण और जन सामान्य पुस्तकों का प्रकाशन। १९९१ मालवा के पर्यावरण की पहली नागरिक रिपोर्ट मालवा का पर्यावरण का प्रकाशन।

सम्मान पुरस्कार-

१. १९९४ पर्यावरण सम्मान - रोटरी मंडलाध्यक्ष जगमोहन कटारिया द्वारा प्रदत्त।

२. १९९७ पर्यावरण संरक्षक सम्मान - म.प्र. के कृषिमंत्री महेन्द्रसिंह कालूखेड़ा द्वारा प्रदत्त।

३. १९९७ राष्ट्रीय पर्यावरण सेवा सम्मान - महामहिम डॉ. शंकरदयाल शर्मा द्वारा प्रदत्त।

४. १९९८ राष्ट्रगौरव सम्मान - उ.प्र. के पूर्व राज्यपाल वी. सत्यनारायण रेड्डी द्वारा प्रदत्त।

५. १९९९ समाजहित पत्रकारिता पुरस्कार - प्रो. रामकिशोर पसीने, नागपुर द्वारा प्रदत्त।

६. २००० पर्यावरण मित्र सम्मान - म.प्र. के मत्स्य पालन मंत्री हीरालाल सिलावट द्वारा प्रदत्त।

७. २००० पर्यावरणविद् सम्मान - अध्यक्ष राजपुरोहित समाज, रतलाम द्वारा प्रदत्त।

८. २००० भूमण्डलीय हिन्दी सेवी सहस्राब्दी सम्मान - केन्द्रीय गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी

द्वारा प्रदत्त।

९. २००१ पर्यावरण रत्न सम्मान - उ.प्र. के मुख्यमंत्री राजनाथसिंह द्वारा प्रदत्त।

१०. २००१ पीस अवार्ड २००१- जगतगुरु शंकराचार्य प्रयागपीठाधीश्वर स्वामी माधवानंद सरस्वती

द्वारा प्रदत्त।

११. २००४ वरिष्ठ पत्रकार सम्मान - मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती द्वारा प्रदत्त।

१२. २००६ रामेश्वर गुरु पत्रकारिता पुरस्कार - केन्द्रीय राज्यमंत्री सुरेश पचोरी द्वारा प्रदत्त।

सामाजिक क्षेत्र -

१९७७ आचार्य विनोबाभावे से भेंट बाद समाज सेवा में जीवन की शक्ति लगाने का निश्चय।

१९८१ संयोजक - आंतर-भारती बाल आनंद महोत्सव समिति।

१९८८ अध्यक्ष - उपभोक्ता परिषद्, रतलाम।

१९८९ सदस्य - जिला भारत ज्ञान-विज्ञान समिति, रतलाम।

१९८९ इन्टेक (दि इण्डियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एण्ड कल्चर हेरिटेज) प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य।

२००० सदस्य - प्रबंध समिति, जन शिक्षण संस्थान, रतलाम।

२००२ सदस्य - प्रबंध समिति, केन्द्रीय विद्यालय, रतलाम।

२००६ सदस्य - प्रबंध समिति, जन शिक्षण संस्थान, रतलाम।

पर्यावरण -

१९८१ संस्थापक सचिव पर्यावरण परिषद्, रतलाम।

१९८४ रतलाम शहर के पर्यावरण की पहली नागरिक रिपोर्ट का संयोजन।

१९८६ सदस्य, मालवा पर्यावरण सोसायटी, उज्जैन संभाग।

१९८९ सदस्य, रतलाम जिला पर्यावरण संरक्षण दल, रतलाम ।

१९८९ एक रासायनिक कारखाने के विरुद्ध लंबे संघर्ष के बाद सर्वोच्य न्यायालय में लोकहित याचिका।

१९९० पर्यावरण की गतिविधियों का विस्तार समूचे मालवा-निमाड़ के किया गया।

१९९२ मालवा के पर्यावरण की पहली नागरिक रिपोर्ट का संयोजन-सम्पादन।

१९९३ सदस्य, सरदार सरोवर पुनर्बसाहट एजेन्सी, बड़ोदरा गुजरात।

१९९५ संयोजक, जिला पर्यावरण वाहिनी, रतलाम।

१९९५ कल्पवृक्ष संरक्षण एवं विकास अभियान की शुरुआतका संयोजन।

१९९८ मानसेवी, वन्य प्राणी अभिरक्षक।

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित - एक परिचय

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित - डी. लिट्.

प्रसिद्ध पर्यावरणविद् डॉ. खुशालसिंह पुरोहित का जन्म १० जून १९५५ को म.प्र. में एक किसान परिवार में हुआ। आप पर्यावरण संरक्षण, पर्यावरण जागरुकता और पर्यावरण शिक्षा के क्षैत्र में पिछले ढाई दशक से कार्यरत है।

महान सर्वोदयी नेता आचार्य विनोबा भावे का आपके जीवन और कार्यो पर गहरा प्रभाव है। आपको युग मनीषी डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन का आशीर्वाद मिला है, डॉ. सुमन के निर्देशन में आपने अपनी पी.एच.डी. उपाधि भी ली। तरुणावस्था से ही आपका झुकाव पर्यावरण के प्रति हो गया, समय के साथ-साथ इसी में सक्रियता बढ़ती गयी। डॉ. पुरोहित के लिए पर्यावरण के प्रश्न केवल हवा, पानी, मिट्टी, वन-कटाई या जनसंख्या तक सीमित नहीं है। आप पर्यावरण के प्रश्नों को मनुष्य और उसके सरोकार से जोड़ते हुए मानव और प्रकृति के प्रेमपूर्ण रिश्तों की वापसी पर जोर देते रहे है। पर्यावरण विषय में लिखे शोध प्रबंध पर नीदरलैंड से आपने डी.लिट् की उपाधि प्राप्त की है।

केन्द्रीय सरकार के पर्यावरण जागरुकता अभियान से शुरुआत से ही आप सम्बद्ध रहे है। इस अभियान के विस्तार में विद्यालयीन कार्यक्रमों, पंच-सरपंच शिविरों और संगोष्ठियों के साथ ही पश्चिमी म.प्र. के ग्रामीण शिक्षको के लिए शिक्षक शिविर, जैसे लोकचेतना के बहुआयामी कार्यक्रमों का आपके द्वारा सफल संचालन किया गया। इन कार्यक्रमों में नि:शुल्क साहित्य वितरण के साथ-साथ पौधा भेंट करने की परंपरा ने वानिकी के प्रति प्रेम का नया वातावरण बनाने में योगदान दिया। रतलाम शहर के पेयजल के प्रमुख स्त्रोत धोलावाड़ बांध को प्रदूषित करने वाले उद्योग के खिलाफ अनेक स्तरों पर प्रतिकार करते हुए अन्तत: आपने सर्वोच्य न्यायालय में जनहित याचिका के माध्यम से जनमत को अभिव्यक्ति दी, इसकी राष्ट्रीय स्तर पर सराहना हुई।

हिन्दी में पर्यावरण की पहली पत्रिका पर्यावरण डाइजेस्ट का प्रकाशन कर डॉ. पुरोहित ने लोकचेतना का महत्वपूर्ण कार्य किया है। पर्यावरण पर आपकी पुस्तकें प्रकाशित हुई है, देश के राष्ट्रीय एवं क्षैत्रीय समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेखों के माध्यम से आप पर्यावरण संरक्षण, सतत् विकास और वानिकी की महत्ता के बारे में व्यापक जन जागृति पैदा करने में अग्रणी रहे हैं। पर्यावरणीय पत्रकारिता के क्षैत्र में अभूतपूर्व एवं सफल योगदान के लिए आपको महामहिम डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने राष्ट्रीय पर्यावरण सेवा सम्मान प्रदान किया। पर्यावरण संरक्षण की लोकचेतना के कार्यो के लिए आपको अब तक पर्यावरण रत्न एवं राष्ट्र गौरव सम्मान सहित राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित उन बिरले व्यक्तियों में से है, जिन्होंने पर्यावरण संरक्षण के महान उद्देश्य के लिए अपना जीवन समर्पित किया है। पिछले ढाई दशक से आप अपना सम्पूर्ण समय लोक चेतना के विविध आयामी प्रयासों में लगा रहे हैं।

पर्यावरण जनसंचार के क्षेत्र में आपके उपलब्धिपूर्ण कार्यो के लिए महामहिम डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने षष्टम पर्यावरण विश्व कांग्रेस के अवसर पर नई दिल्ली में राष्ट्रीय पर्यावरण सेवा सम्मान से सम्मानित किया। पर्यावरण के क्षेत्र में हिन्दी पत्रिका प्रकाशन के लिये गाजियाबाद में अ.भा. हिन्दी साहित्य सम्मेलन में उ.प्र. के पूर्व राज्यपाल डॉ. वी. सत्यनारायण रेड्डी द्वारा राष्ट्र गौरव सम्मान प्रदान किया गया। इसी क्रम में लखनऊ में एक समारोह में मुख्यमंत्री राजनाथसिंह द्वारा पर्यावरण रत्न सम्मान से सम्मानित किया गया। केन्द्रीय गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा नई दिल्ली में प्रदत्त भूमण्डलीय हिन्दी सेवी सहस्राब्दी सम्मान, म.प्र. के कृषि मंत्री महेन्द्रसिंह कालूखेड़ा एवं मत्स्य पालन मंत्री हीरालाल सिलावट द्वारा प्रदत्त पर्यावरण संरक्षक सम्मान एवं पर्यावरण मित्र सम्मान के साथ ही म.प्र. की मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती द्वारा प्रदत्त वरिष्ठ पत्रकार सम्मान एवं केन्द्रीय राज्यमंत्री सुरेश पचोरी द्वारा प्रदत्त रामेश्वर गुरु पुरस्कार आपके विचारो एवं कार्यो की सामाजिक स्वीकृति के परिचायक हैं।

डॉ. पुरोहित पर्यावरण कार्यकर्ता के साथ ही स्वतंत्र पत्रकार भी है। हिन्दी दैनिक नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, प्रदीप, आज, सन्मार्ग, विश्वामित्र, वीर अर्जुन, ट्रिब्यून, स्वदेश, नईदुनिया, दैनिक भास्कर और नवभारत आदि पत्रों में आपके लेख प्रकाशित हो चुके हैं। आपको हिन्दी पत्रकारिता विषय पर मूर्धन्य साहित्यकार डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन के निर्देशन में लिखे शोध-प्रबंध पर विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से पी.एच.डी. की उपाधि मिली है। इसके बाद पर्यावरण विषय में आपने नीदरलैंड से डी.लिट् की उपाधि प्राप्त की है।

केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के राष्ट्रीय जागरुकता अभियान से आप शुरुआत से ही सम्बद्ध रहे हैं, इसी क्रम में आपके द्वारा विद्यालयीन कार्यक्रमों, पंच-सरपंच शिविरों और संगोष्ठियों के साथ ही पश्चिमी म.प्र. के आदिवासी अंचल के ग्रामीण शिक्षकों के लिए शिक्षक प्रशिक्षण शिविरों की श्रृंखला जैसे बहुआयामी कार्यो का सफल संचालन किया गया। शिक्षक शिविर और पर्यावरण पर राष्ट्रीय हिन्दी मासिक पर्यावरण डाइजेस्ट का प्रकाशन तो ऐसे नवाचारी एवं नवोन्मेषकारी प्रकल्प हैं, जिनसे पर्यावरण संरक्षण के विचारों को लोकप्रियता मिली है। पर्यावरण संबंधी अनेक सम्मेलनों, संगोष्ठियों और शिविरों में संबोधन के साथ ही रेडियो और टी.वी. पर आपकी वार्ताएं भी प्रसारित हो चुकी है। इस प्रकार पर्यावरण पर लेख, फोल्डर एवं पुस्तिकाआें के प्रकाशन के माध्यम से जन शिक्षण में आपका महत्वपूर्ण अवदान है।

हिन्दी में पर्यावरण की पहली पत्रिका पर्यावरण डाइजेस्ट का जनवरी १९८७ से नियमित प्रकाशन कर आपने लोकचेतना का एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। यहां यह उल्लेख भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि पर्यावरण डाइजेस्ट ने कभी किसी सरकार, संस्थान या आंदोलन का मुखपत्र बनने का प्रयास नहीं किया, पत्रिका की प्रतिबद्धता सदैव सामान्य पाठक के प्रति रही है। डॉ. पुरोहित के पर्यावरण क्षेत्र में लोकचेतना के योगदान के लिये महामहिम राष्ट्रपतिजी, उपराष्ट्रपतिजी, राष्ट्रीय एवम् प्रादेशिक सतर पर विभिन्न राजनीतिक व्यक्तियों, प्रशासनिक अधिकारियों एवम् स्वयंसेवी संस्थाआें द्वारा आपके कार्यो की प्रशंसा की गयी। पत्रिका के दशकपूर्ति पर जनसम्पर्क, भोपाल की विज्ञप्ति के निम्न अंश भी उल्लेखनीय है - यह एक अव्यवसायिक प्रकाशन है, जो पर्यावरण संरक्षण की लोक चेतना के लिये पिछले एक दशक से सक्रिय है पत्रिका के सम्पादक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित है जो पर्यावरण संरक्षण पर विगत् कई वर्षो से सक्रिय हैतथा इस विषय पर अपनी आक्रामक शैली के लेखन के कारण अपनी अलग पहचान रखते हैं। यही कारण है कि पर्यावरण में जिस विचार को डाइजेस्ट करना मुश्किल समझा जाता है, पत्रिका उसका सरलीकरण करने में सफल हुई हैं। इसमें आलेखों की सारगर्भिता, संक्षिप्तता और भाषा की प्रवाहमयता अपने आप में अनूठी है। पर्यावरण से जुड़े हर पहलू का स्पर्श इसमें शामिल होता है।

मालवा के पर्यावरण की पहली नागरिक रिपोर्ट के सघन सर्वेक्षण हेतु सन् १९९१ में आपने १०,००० कि.मी. की यात्रा की थी, रिपोर्ट के प्रकाशन पर पुस्तक के लोकार्पण समारोह में २८ जन. ९३ को युगमनीषी डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन ने अपना आशीर्वाद इन शब्दों में दिया था - रतलाम पर्यावरण के लिए सहज भाव से सारे म.प्र. का केन्द्र हो गया है, इसके लिये मैं खुशालसिंह पुरोहित को बधाई देता हँू, यहां के कार्य से प्रेरणा लेकर प्रदेश के दूसरे क्षेत्रों में भी इस प्रकार का कार्य होगा। मेरी राय में बंकिमचंदजी का जो गान है, सुजलाम्, सुफलाम् अब उसमें रतलाम भी जुड़ गया है।

आपके जीवन और कार्यो पर आचार्य विनोबा भावे के प्रभाव के कारण गैर-राजनीतिक और रचनात्मक गतिविधियों की उपलब्धियों के लिये समाजसेवा के क्षेत्र में अपना अलग स्थान है। आपको पर्यावरण संबंधी अनेक लेखों एवं मासिक पत्रिका के नियमित प्रकाशन तथा पश्चिमी म.प्र. में फैले पर्यावरण कार्यो के साथ ही रतलाम शहर के पेयजल के प्रमुख स्त्रोत धोलावाड़ बांध के जलग्रहण क्षेत्र में एक रासायनिक उद्योग द्वारा प्रदूषण फैलाने के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में लोकहित याचिका लगाने जैसे विशिष्ट प्रयासों के कारण समाज के सभी वर्गो का स्नेह, आदर और सहयोग मिला है। अब तक आपको अनेक संस्थाआें ने पुरस्कृत और सम्मानित किया है, वह अपने मिशन में आपकी निरंतर सक्रियता का परिचायक है।

पर्यावरण समाचार


भारत ब्रह्मांड के रहस्यमय कणों की खोज करेगा

ब्रह्मांड की रचना कैसे और कब हुई है इस विषय पर लगातार खोज होती रही है और शायद आगे भी होती रहेगी। कारण इसका साफ है क्योंकि केवल ब्रह्मांड को जानने की लालसा युग-युगांतर से सबके मन में बनी हुई है।

इसी लालसा में फिर कुछ तथ्य जोड़ने और जानने के लिए ब्रह्मांड की रचना करने वाले कणों के रहस्यों का पता लगाने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल करते हुए भारत सरकार ने एक भूमिगत वेधशाला स्थापित करने की योजना बनाई है। इस पर 670 करोड़ रुपए के खर्च का अनुमान है। ब्रह्मांड का निर्माण करने वाले मौलिक कणों में न्यूट्रिनों नामक कण अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन्हीं कणों के अध्ययन के लिए मैसूर से करीब 100 किलोमीटर दूर स्थित पठानी सिंगारा गाँव में वेधशाला बनाई जा रही हैं। इस वेधशाला के भूमिगत होने के कारण वहाँ कॉस्मिक किरणों की उपस्थिति काफी घट जाएगी क्योंकि इन किरणों को जमीन के पत्थरों द्वारा अवशोषित कर लिया जाएगा।

न्यूट्रिनो के बारे में अभी वैज्ञानिकों को बहुत कम पता है। इन्हें इलेक्ट्रान के समान माना जाता है। इन दोनों के बीच एक मुख्य अंतर यह ळे कि इलेक्ट्रान पर विद्युत जैसा आवेश होता है जबकि न्यूट्रिनो पर कोई आवेश नहीं होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार न्यूट्रिनो के अनावेशित होने के कारण यह वैद्युत चुम्बकीय तरंगों, इलेक्ट्रो मैग्नेटिक, तरंगों से प्रभावित नहीं होता है। यह केवल इलेक्ट्रान की तरह काम करने वाले निर्बल उप परमाण्विक बलों से प्रभावित होता है, इसलिए यह किसी भी पदार्थ के भीतर बहुत गहराई तक आसानी से प्रवेश कर जाता है।

अभी तक ज्ञात बलों की तुलना में इसका गुरुत्वाकार्षण बल सबसे कम होता है। अभी तक तीन तरह के न्यूट्रिनो का पता चला है। इस बात के कोई पक्के प्रमाण नहीं मिले है कि इनके अलावा और भी न्यूट्रिनो का अस्तित्व है। हर किस्म के न्यूटिनो किसी अवेशित कण से संबंधित होते हैं।

भारतीय न्यूटिनो वेधशाला से संबध्द नोवामंडल के अनुसार न्यूटिनो का पता लगाना अत्यंत मुश्किल काम है क्योंकि इनकी किसी भी पदार्थ के साथ किसी तरह की प्रतिक्रिया ही नहीं होती है। इन्हें पता लगाने के लिए वैसे स्थान पर विशाल डिटेक्टर लगाने की जरुरत पड़ती है जहां अन्य कणों की पहुँच नहीं हो सके। यही कारण है कि न्यूट्रिनो डिटेक्टर जमीन के भीतर, दक्षिणी ध्रुव के नीचे या समुद्र की गहराई में लगाए जाते हैं। ***

टेडी बेयर कोआला

प्राणी जगत


डॉ. चंद्रशीला गुप्ता

कोआला को अक्सर ऑस्ट्रेलियाई भालू समझ लिया जाता है। जबकि यह भालू न होकर कंगारु समूह यानी मार्सूपीलिया का सदस्य है।

वैज्ञानिक इसे फेस्कोलेक्टस सिनेरियस कहते हैं। इसका ठिगना, गठीला शरीर स्लेटी रंग के फर से ढंका रहता है। तकरीबन 10-12 किलोग्राम के बिना पूंछ वाले इस जंतु के गोल चेहरे पर हास्यापद नाक व 2 बड़े-बड़े कान होते हैं। यह कोई जीवित प्राणी नहीं बल्कि टेडी बियर ही दिखाई देता है।

एक समय यह पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में लाखों की तादाद में पाया जाता था क्योंकि स्थानीय निवासी धार्मिक विश्वासों के चलते कोआला का शिकार नहीं करते थे। लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी में जब सभ्य समाज को इसके फर का महत्व पता चला, तो सामूहिक संहार होने लगा। शिकारी कुत्तों द्वारा पहले इन्हें जंगल से मैदानों की तरफ खदेड़ा जाता था, जहां शिकारी इनका काम तमाम कर देते थे। जैसे इतना ही काफी नहीं तो प्राकृतिक प्रकोप भी इन नन्हें प्राणियों पर टूटा और एक महामारी ने इन्हें विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया।

बाद में विभिन्न संरक्षण योजनाओं व सख्त नियमों की वजह से ये बचे। बीसवीं शताब्दी में इन्हें एक फ्रांसीसी द्वीप पर ले जाया गया। बेरोक वृध्दि से वहां इनकी संख्या इतनी ज्यादा हो गई कि वहा अनेक वृक्ष खत्म होते नज़र आने लगे। तब वहां से इन्हें आस-पास के टापुओं व मुख्य द्वीप पर स्थानांतरित किया गया।

पहले इनका भोजन युकेलिप्टस की पत्तियां एवं कलियां माना गया था लेकिन बाद में ज्ञात हुआ कि इस वंश की अन्य प्रजातियां भी इनके भोज्य वृक्षों में शामिल है। अपने पैने नाखूनों की मदद से ये आसानी से पेड़ों पर चढ़ जाते हैं और मौसम के अनुसार श्रेष्ठ पत्तियां या कलियां चुनकर खाते हैं।

युकेलिप्टस की पत्तियों में एक तीखी गंध वाला तेल होता है जो इनकी आंतों में अवशोषित होकर रक्त द्वारा गंध पैदा होती है। यह गंध परजीवियों को विकर्षित करती है। कोआला मूत्र में ग्लूकोरोनिक अम्ल की काफी मात्रा उत्सर्जित करता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि यह युकेलिप्टस के तेल को निर्विष करने के दौरान पैदा होता है।

कोआला एक ऑस्ट्रेलियाई जनजातीय शब्द है जिसका अर्थ जल विहिन होता है जो इसके पानी न पीने की आदत की तरफ इंगित करता है। दरअसल इसकी खाद्य पत्तियों में पर्याप्त मात्रा में पानी होता है। अतः इसे पानी पीने की जरुरत नहीं होती है। वैसे कोआला एक अच्छा तैराक है और पानी में जाता रहता है और पानी से निकलने के बाद यह फर में लगा पानी चाटता है। कभी-कभी यह वर्षा के बाद पोखरों में जमा पानी पीते भी देखा गया है।

मार्सूपीलिया समूह का होने के कारण इसमें भी कंगारु जैसी बच्चे पालने वाली थैली यानी मार्सूपियम पाई जाती है। कोआला का गर्भकाल छोटा (30-35 दिन का) होता है। जन्म के समय शिशु मात्र 5 ग्राम का व कुछ से.मी. लम्बा होता है। यह इतना अपरिपक्व होता है कि यदि इसे थैली में पहुंचने में घण्टा भर देरी हो जाए तो यह जीवित नहीं रह पाता है। लेकिन ऐसा होता नहीं है, यह जन्म स्थान से फर में रेंगता हुआ तुरंत थैली में पहुंच जाता है जो मात्र कुछ से.मी. की दूरी पर स्थित होती हैं।

कोआला की थैली विशिष्ट होती है, कंगारु से ठीक उलट इसका मुंह नीचे की ओर होता है। बच्चा इसमें से गिरता नहीं है क्योंकि मां बहुत सावधान रहती है और पैरों पर झुकते हुए चलती है। करीब 4-5 माह यह इस थैली (प्राकृतिक इन्क्यूबेटर) में रहता है व 450 ग्राम का हो जाता है। इसके बाद भी यह मां का दूध पीने थैली में आता-जाता रहता है। शेष समय मां की पीठ पर लदा रहता है। शिशुओं को मां के मलद्वार से निकलते द्रव को चाटते भी देखा गया है। इस द्रव की संरचना मल से भिन्न होती है, इसमें पत्तियों के पेप्टोन्स पाए गए हैं। एक वर्ष की आयु से पहले यह पेड़ पर नहीं चढ़ते हैं। करीब 4 वर्ष में शिशु प्रजनन के काबिल हो जाते हैं और इनकी औसत आयु लगभग 20 वर्ष है।

***

हुआ सबेरा

बाल गीत


दुर्गाप्रसाद शुक्ल आजाद


लगता जैसे धुऑं सबेरा।

हुआ सबेरा हुआ सबेरा॥

सूरज आया, भोर हुआ,

चिड़ियां फिर से बोली।

अन्धकार को दूर भगा,

दुनिया ने आंखें खोली।

हरा-हरा सा सुआ सबेरा।

हुआ सबेरा, हुआ सबेरा।

नई उमंगे नई तरंगें,

नई रोशनी लायी।

महकी-महकी प्रकृति सुहानी,

ले मधुर अंगड़ाई॥

छुई, मुई ने छुआ सबेरा।

हुआ सबेरा, हुआ सबेरा॥

अपना सपना टूट गया,

धुप्प अंधेरा फूट गया।

चले काम पर सब प्राणी,

ताजापानी कुऑं सबेरा।

हुआ सबेरा, हुआ सबेरा॥

***

बांग्लादेश ः डूबता हुआ एक देश

विदेश


अजंलि कवत्रा

जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक नुकसान उठाने वाले देशों में बांग्लादेश भी एक है। यह छोटा सा एशियाई देश समुद्र की सतह में वृध्दि, लगातार बाढ़ के आने और नदी द्वारा होने वाले भू-सक्षरण के संकट का सामना कर रहा है।

जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करने वाली अन्तरराष्ट्रीय समिति इंटरनेशनल पेनल ऑन क्लायमेट चेंज ने आशंका व्यक्त की है कि वर्ष 2100 तक यहां की समुद्री सतह 9 से लेकर 95 सेमी तक बढ़ सकती है। यदि समुद्र सतह इस अनुमान के उच्चतम स्तर तक पहुंचती है तो बांग्लादेश की लगभग 18 प्रतिशत भूमि जलमग्न हो जायेगी। बांग्लादेश में लगभग 3.5 करोड़ लोग समुद्र तट पर रहते हैं। जैसे ही सागर अपनी सीमाओं को लांघ कर जमीन को निगलेगा, तो इतनी बड़ी आबादी को देश के भीतरी भागों में शरण लेनी होगी।

किंतु देश के भीतरी भागों पर भी जलवायु परिवत्रन की मार पड़ेगी और वहां बाढ़ और नदी द्वारा होने वाला भू-क्षरण उनके जीवन को अधिक कठिन बना देगा। इंटरनेशनल पेनल ऑन क्लायमेट चेंज के प्रारुप से संकेत मिलता है वर्ष 2030 तक बांग्लादेश को 10 से 15 प्रतिशत अधिक वर्षा का सामना करना होगा। जैसे-जैसे वायुमंडल में तापमान बढ़ेगा वैसे-वैसे गर्मियों के मौसम में भारत और नेपाल में फैले हिमालय की बर्फ भी पिघलेगी और वह नदियों से बहती हुई बांग्लादेश में तबाही मचायेगी।

बांग्लादेश के प्रमुख पर्यावरण शोध संस्थान, सेंटर फॉर एडवांस स्टडीज के कार्यकारी निदेशक डॉ. आतिक रहमान कहते हैं, पिछले कुछ वर्षो में बरसात और बाढ़ की तरीकों एवं चक्र में भी परिवर्तन हुआ है। पहले 20 सालों में एक बार भारी बाढ़ आती थी मगर अब प्रत्येक 5-7 वर्षो में ही देश को भारी बाढ़ का सामना करना पड़ता है।

सन् 1988 और 1998 में साल भर तक देश का कुल दो-तिहाई हिस्सा जलमग्न रहा। सन् 2004 में आई भीषण बाढ़ से 3 करोड़ निवासी या तो बह गये या बेघर हुए।

बाढ़ और भू-क्षरण ने लोगों को अत्यन्त गरीबी में धकेल दिया है। तीस्ता नदी की बाढ़ में जमीन बह जाने के बाद 35 वर्षीया माजेदा बेगम ने अपना पूरा जीवन उत्तरी बांग्लादेश के गांव बालाशिघाट में बिताता था। परंतु लगातार तीन सालों तक प्रतिवर्ष चौड़ी होती नदी के कारण मजबूरन उन्हें वहां भी अपना मकान कुछ पीछे हटकर ही बनाना पड़ा था।

अन्ततः वर्ष 2000 में नदी उनकी सारी जमीन निगल गई और उन्हें गांव पर सवार होकर भागना पड़ा। अब वे सरकार द्वारा निर्मित ऊँचे बाढ़रोधी तटबंध पर रहती है।

गेहूूं और धान उपजाने वाले अपने खेत गंवा देने के बाद अब उनके पास आमदनी का अन्य कोई स्त्रोत नहीं है, इसलिए माजेदा ने मजबूर होकर अपनी नौ साल की बेटी को राजधानी ढाका में नौकरानी का काम करने के लिए भेज दिया। उसका कहना है, हमारे पास अपने पूरे परिवार का पेट भरने के लिए अब कोई भी साधन नहीं बचा है, इसलिए मेरे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था।

सुश्री माजेदा जलवायु परिवर्तन और वायुमंडल तापमान वृध्दि जैसे शब्दों से अपरिचित है। वह आज तक कार में भी नहीं बैठी है। लेकिन उसके जैसे हाशिये पर पड़े लोग ही जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक आघात झेल रहे हैं।

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खास खबर


ओजोन परत में क्षति पर्यावरण के लिए संकट

(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)

सूरज की घातक पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा करने वाली ओजोन परत में उत्तरी अमेरिका से भी बड़े आकार का छिद्र बनने से यह रिकॉर्ड क्षति की कगार पर जा पहँची है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी (नासा)और नेशनल ओशनिक एंड एटमोस्फयीरिक एडमिनिस्टेशन (नोआ) की ओर से हाल में जारी की गई संयुक्त रिपोर्ट के मुताबिक 21 सितम्बर से लेकर 30 सितम्बर के बीच अंटाकर्टिक यानी दक्षिणी ध्रुव के ऊपर वायुमंडल में ओजोन की परत में अब तक का सबसे बड़ा छिद्र देखा गया है।

धरती के वायुमंडल की स्थिति पर निगरानी रखने वाले नासा के मौसम उपग्रह (ओरा) से प्राप्त ऑंकड़ो के मुताबिक इस अवधि में दक्षिणी ध्रुव के ऊपर समपात मंडल (स्ट्रैटस्फयीर) में ओजोन परत में 1 करोड़ 60 लाख वर्ग मील का छिद्र देखा गया जो कि अब तक का एक रिकॉर्ड है।

मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि ओजोन परत को यह नुकसान वायुमंडल में ब्रोमाइन और क्लोरिन जैसी ग्रीन हाउस गैसों के बड़ी मात्रा में उत्सर्जन से पहुँचा है। मेरीलैंड के ग्रीनबेल्ट स्थित नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर के वैज्ञानिक पाल न्यूमैन के मुताबिक इस क्षति की वजह से ओजोन परत की मोटाई इस क्षेत्र में 300 डाब्सन यूनिट के सामान्य स्तर से घटकर 83 डाब्सन यूनिट तक जा पहुँची है। डाब्सन यूनिट ओजोन परत की नाप का एक अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक पैमाना है।

नोआ के निदेशक डेविड हाफ्मैन के मुताबिक ओजोन में आई इस क्षति का साफ मतलब इस क्षेत्र में समताप मंडल में इस गैस का नहीं के बराबर रह जाना है या फिर दूसरे शब्दों में यह पूरी तरह खत्म हो चुकी है। पर वाशिंगटन के कार्नेगी संस्थान के वैश्विक पारिस्थितिकी विभाग में कार्यरत् वैज्ञानिक श्री केन कैलडेरिया मानते है कि वर्तमान स्थिति इतनी ज्यादा गंभीर भी नहीं है, क्योंकि ओजोन परत में क्षरण होने के बावजूद कुछ समय बाद स्वतः सामान्य स्थिति में आ जाने की प्राकृतिक क्षमता विद्यमान है। हालाँकि यह रफ्तार बेहद धीमी होती है और ऐसे में माजूदा छिद्र भी अगले दशक में 0.1 या .0.2 प्रतिशत की रफ्तार से ही भर सकेगा और पूरी तरह भरने में इसे कई वर्षो का सामना लग सकता है।

हल्के नीले रंग की तीव्र गंध वाली ओजोन गैस वायुमंडल की सबसे ऊपरी परत समताप मंडल में धरती से 9 से 30 मील की दूरी तक पाई जाती है। धरती पर बसने वाले जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के साथ-साथ मानवों के लिए भी यह सुरक्षा कवच की तरह काम करती है। इसकी परत में प्रवेश करते ही सूर्य की घातक पराबैंगनी किरणों का दुष्प्रभाव खुद ही नष्ट हो जाता है। पृथ्वी के ध्रुवीय क्षेत्रों में यह परत ज्यादा मोटी और अन्य क्षेत्रों में अपेक्षाकृत पतली होती है।

ओजोन की अनुपस्थिति में सूर्य की पराबैंगनी किरणें यदि सीधे धरती पर पड़ने लगें तो यह मानवों में चर्म कैंसर के साथ-साथ जीवन की संरचना के मूल आधार डीएनए को भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर सकती है। ओजोन की प्राकृतिक संरचना कुछ ऐसी ही है कि गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों में हानिकारक गैसो का दुष्प्रभाव ओजोन पर ज्यादा तेजी से होता है। लिहाजा उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के क्षेत्रों में हानिकारक ग्रीन हाउस गैसों इसके लिए एक बड़ा खतरा होती है।

वैज्ञानिकों के मुताबिक आमतौर पर ग्रीन हाउस गैसें खासतौर पर औद्योगिक प्रतिष्ठानों और वातानुकूलित उपकरणों में इस्तेमाल की जाने वाली क्लोरोफ्लोरो कार्बन (सीएफसी) ओजोन परत के लिए सबसे ज्यादा हानिकारक होती हैं। पर दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र में ओजोन परत में आए मौजूदा क्षरण के लिए वैज्ञानिक ब्रोमाइन और क्लोरिन जैसी गैसों के बड़ी मात्रा में उत्सर्जन और मौसम में आए अप्रत्याशित बदलावों को मूल रुप से जिम्मेदार मान रहे हैं।

सन् 1985 में विएना समझौते और बाद में 1987 की मांट्रियल घोषणा के तहत प्रतिबंध लगाया जा चुका है, लेकिन विश्व मौसम संगठन और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा ओजोन के क्षरण के कारणों और इसके सुरक्षा के उपायों की आलकन रिपोर्ट में कहा गया है कि ओजोन को बचाने के लिए सिर्फ ये प्रयास पर्याप्त नहीं है।

इसके लिए जरुरती है कि दुनिया के सभी देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसा समझौता करें, जिसके तहत ओजोन को नुकसान पहुँचाने वाली हानिकारक गैसों में इस्तेमाल पर कड़ाई से प्रतिबंध लगाया जाए।

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पर्यावरण परिक्रमा


प्रदूषण रोकने में चीन विफल रहा

चीन सरकार की नई रिपोर्ट के मुताबिक चीन पर्यावरण संरक्षण और इसमें सुधार की राह में आगे बढ़ने में नाकाम रहा है। इस रिपोर्ट में चीन को पर्यावरण प्रदूषण फैलाने वाले में काफी ऊपर रखा गया है और वर्ष 2004 के बाद इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है।

शैक्षिक और सरकारी विशेषज्ञों द्वारा तैयार इस रिपोर्ट में 118 देशों में से चीन को 100वें स्थान पर रखा गया है। पारिस्थितिकी मानकों का स्तर तय करने के लिए करीब 30 सूचकों का इस्तेमाल किया गया। इनमें कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन, गंदे पानी की निकासी और पीने के पानी की सफाई भी शामिल है।

शोधकर्ता दल के निदेशक ही चुआनकी ने कहा - सामाजिक और आर्थिक आधुनिकीकरण के मुकाबले चीन पारिस्थितिकी सुधारों में बहुत पीछे हैं। दुनिया की कुल आबादी का पाँचवा हिस्सा रखने के बावजूद चीन प्रतिदिन दुनिया के कुल तेल उत्पादन की तीन करोड़ बैरल आयात करता है, यानी सिर्फ चार फीसदी खपत करता है। लेकिन तेज आर्थिक विध्दि से उसकी ऊर्जा जरुरतों में दिन-प्रतिदिन इजाफा हो रहा है। चीन की मौजूदा योजना के अनुसार हर हफ्ते एक नई ऊर्जा परियोजना शुरु की जानी है, इनमें से अधिकांश योजनाएँ कोयला आधारित है।

विश्व बैंक का अनुमान है कि चीन में अगले 15 वर्षो में आर्थिक वृध्दि की दर हर साल छः फीसदी के लगभग रहेगी, जो कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की अनुमानित दर की दुगुनी है।

चीन अक्षय ऊर्जा पर भारी निवेश कर रहा है और उसकी योजना है कि कुल ऊर्जा खपत में 15 फीसदी हिस्सा अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं से हो। बिजिंग से बीबीसी संवाददाता डेनियल ग्रीफिथ्स का कहना है कि यह रिपोर्ट उन नेताओं के लिए चिंता का विषय है जो प्रदूषण कम करने का लगातार वादा करते रहे हैें।

सचमुच की जेन चिम्पांजियो की

एक वह जेन थी टार्जन की सखी। एक यह जेन है, जेन गुडाल के कॉमिक्स की दीवानी थी। बड़ी होकर यह जेन भी अफ्रीका के जंगलों में जा पहुँची। सन् 1960 की बात है जब 20 वर्षीय जेन ने प्रोफेसर लेविस लीकी का चिम्पांजियों पर भाषण सुना। वह उनसे इतनी प्रभावित हुई कि सब छोड़छाड़ कर वह तंजानिया के गोम्बे राष्ट्रीय उद्यान जा पहुँची। उसने वर्षो तक वहीं रहकर चिम्पांजियों का इतने पास से अध्ययन किया कि वह उन्हीं के साथ रहने लगी। उसने एक-एक चिम्पांजी को उसका नाम दिया। सन् 1997 में उसने जेन गुडाल संस्था बनाई और चिम्पांजियों को खत्म होने से बचाने का अभियान शुरु कर दिया। उसी का नतीजा है कि अफ्रीका में अभी भी चिम्पांजी हैं। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व सचिव कोफी अन्नान, पहले वाले जेम्स बॉण्ड पियर्स ब्रोस्नान, एंजेलिना जोली जैस दोस्तों की मदद से जेन दुनियाभर में जंगलों और वन्य प्राणियों को बचाने के काम में लगी है। इसके लिए वह देश-देश घूमकर अपने संस्मरण सुनाती हैं, अफ्रीका के जंगलों की रोचक तस्वीरें दिखाती है ताकि लोगों को पता चले कि उनके शहरो से बाहर क्या कुछ हो रहा है।

मानसून की भविष्यवाणी में एक और कदम

पुणे के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मिटिरियोलॉजी (भारतीय कटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान) के कृष्ण कुमार ने पिछले करीब सवा सौ वर्षो के आंकड़ों का अध्ययन करके भारतीय मानसून पर असर डालने वाला एक कारक खोज निकाला है। यह कारक पूर्वी प्रशांत महासागर में स्थित है।

यह तो जानी-मानी बात है कि एल नीनो नामक प्राकृतिक घटना के साथ जब प्रशांत महासागर गर्म होता है तो इसका असर भारत के मानसून पर पड़ता है। यह देखा गया है कि मानसून उन्हीं वर्षो में असफल रहा है जिन वर्षो मं एल नीनो होता है। मगर इसी से संबंधित तथ्य यह है कि हर एल नीनो वर्ष में मानसून असफल नहीं होता। एल नीनो और मानसून की इस कड़ी को बेहतर समझने के लिए कृष्ण कुमार और उनके सहयोगियों ने 1871 से सारे आंकड़ों की खाक छानी। इनमें भारत में वर्षा की मात्रा और भूमध्य रेखा के आसपास प्रशांत महासागर की सतह के तापमान के आंकड़े खात तौर से देखे।

उन्होंने पाया कि जिन वषो्र में एल नीनो की वजह से मध्य प्रशांत सागर खूब तपा उन वर्षो में भारत में सूखे की स्थिति रही। दूसरी ओर जब तापमान में वृध्दि पूर्वी प्रशांत सागर तक सीमित रही, उन वर्षो में एल नीनो के बावजूद सामान्य वर्षा हुई।

मानसून की भविष्यवाणी एक कठिन काम है। इसका एक कारण यह है कि मानसून कोई स्थानीय घटना नहीं है। इस पर तमाम दूर-दूर के कारकों का असर पड़ता है। दूसरा कारण यह है कि मानसून के मामले में कार्य-कारण संबंध स्थापित करना मुश्किल है। हम इतना ही देख पाते हैं कि कई चीजें होने से मानसून अच्छा या खराब रहता है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि उनके कारण ऐसा होता है। इसलिए कृष्ण कुमार के दल द्वारा एक और कारक पहचाना जाना महत्वपूर्ण है। वैसे इस इल के एक सदस्य यू.एस. नेशनल ओशिएनिक एण्ड एट्मॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के मार्टिन होर्लिंग का कहना है कि उपरोक्त अन्तर्सम्बंध का कारण यह है कि जब मध्य प्रशांत सागर गर्म होता है तो उसके ऊपर की हवा गर्म होकर ऊपर उठती है। इसकी वजह से सूखी हवा का एक पिण्ड भारत के ऊपर उतर आता है और बारिश नहीं हो पाती। इन शोधकर्ताओं का मत है कि धरती गर्माने के साथ मानसून तेज होगा, जो कि पिछले कुछ वर्षो में दुर्बल पड़ता नजर आ रहा है।

पेड़ अधिकतम कितने ऊंचे हो सकते है ?

बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर। यह मुहावरा दर्शाता है कि पेड़ों की ऊंचाई हमेशा से अचंभे का विषय रहा है। यह सवाल बार-बार उठता है कि दुनिया का सबसे ऊंचा पेड़ कौन-सा है। और अभी हाल तक सबसे ऊंचा पेड़ होने का रिकार्ड उत्तरी कैलिफोर्निया के एक रेडवुड वृक्ष के नाम था जिसकी ऊंचाई 112.8 मीटर है। मगर फिर हम्बोल्ट स्टेट विश्वविद्यालय के एक दल ने कैलिफोर्निया रेडवुड नेशनल पार्क में रेडवुड का एक और पेड़ खोज निकाला जिसकी ऊंचाई 115.2 मीटर निकली। यानी इसने पुराने रिकार्ड को पूरे 2.4 मीटर से ध्वस्त कर दिया। सवाल यह उठता है कि क्या पेड़ों की ऊंचाई की कोई सीमा है।

चीन के त्सिंगहुआ विश्वविद्यालय के क्वानशुई जेंग का मत है कि ऊंचाई की एक अधिकतम सीमा निश्चित तौर पर है। नेचर में प्रस्तुत अपने पर्चे में उन्होंने इसके कारण भी स्पष्ट किए हैं। जेंग ने बताया कि पेड़ों की अधिकतम ऊंचाई की सीमा का संबंध पानी और कोशिकाओं की स्थिति से है।

यह तो सभी जानते है कि पत्तियों से पानी का वाष्पन होता रहता है। जब पानी भाप बनकर उड़ता है तो इसकी पूर्ति के लिए पानी की जरुरत होती हैं। जड़ें जमीन से पानी खींचती है, जिसे ठेठ ऊपर की पत्तियों तक पहुचाना होता है। इसका मतलब है कि ऊंचाई बढ़ने के साथ यह काम कठिन होता जाता हैं क्योंकि इतने पानी को गुरुत्व बल को विरुध्द ऊपर चढ़ाना होता है। जेंग के दल ने इसी प्रक्रिया का विश्लेषण पेड़ों की 22 प्रजातियों के संदर्भ में करके अधिकतम ऊंचाई की सीमा पहचानी ।

होता यह है कि पत्ती पेड़ पर जिनती अधिक ऊंचाई पर होगी, उसकी मीजोफिल कोशिकाओं में ऋणात्मक दबाव उतना ही कम होता है। इसी ऋणात्मक दबाव के कारण पानी ऊपर चढ़ता है। यदि यह दबाव बहुत कम हो जए तो कोशिकाएं पिचक जाती हैं। यानी इस दबाव को कम करते जाने की एक हद है। इसी कारण से ऊपरी पत्तियों में मीजोफिल कोशिकाएं बहुत छोटी होती हैं। इससे छोटी वे हो नहीं सकतीं और यही पेड़ की ऊंचाई की सीमा है।

वैसे जेंग ने पाया कि भूजल के स्तर, हवा में नमी की मात्रा, तापमान वगैरह का प्रभाव मीजोफिल कोशिकाओं के ऋणात्मक दबाव पर होता है। इसीलिए एक ही प्रजाति के वृक्ष अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग ऊंचाई तक पहुंचते हैं।

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परमाणु निरस्त्रीकरण का क्या हुआ ?

आवरण


एस. फैज़ी

वक्त आ गया है कि परमाणु अस्त्रों के अप्रसार संबंधी संधि के प्रावधानों के चुन-चुनकर क्रियांवयन को कारगर चुनौती दी जाए। 1968 में परमाणु अप्रसार संधि की रचना में भाग लेने वाले अधिकांश देशों के दिमाग में लक्ष्य यह था कि अन्ततः दुनिया से परमाणु हथियारों का पूरी तरह खात्मा करना है। परमाणु अप्रसार संधि की भूमिका में और अनुच्छेद 6 में भी स्पष्ट कहा गया है कि इसका लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण के जरिए परमाणु निरस्त्रीकरण का है।

इस संधि में एक निहित यह है कि उन्हीं देशों को परमाणु हथियार रखने की इज़ाजत थी जो 1967 से पूर्व इन्हें हासिल कर चुके थे। हालांकि परमाणु अस्त्रों से लैस देशों ने ऐसा कोई वचन नहीं दिया था कि वे इन हथियारों का इस्तेमाल अन्य देशों के खिलाफ नहीं करेंगे मगर परमाणु शस्त्र विहीन देशों ने इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को उस समय यह सोचकर स्वीकार कर लिया था कि इस संधि के अहम लक्ष्य यानी परमाणु हथियारों के खात्मे पर गंभीरता से अमल किया जाएगा।

औपनिवेशिक जमाने के बाद रची गई यह एकमात्र ऐसी बहुपक्षीय संधि है जिसमें अप्रजातांत्रिक वीटो अधिकार सुरक्षा परिषद में भी मिला हुआ है। अर्थात् परमाणु अप्रसार संधि में किसी संशोधन के मामले में इन देशों को वीटो अधिकार प्राप्त है।

पिछले दशक के अंतिम कुछ वर्षो में परमाणु अप्रसार संधि के अनुच्छेद 6 को क्रियान्वित करने की दिशा में कुछ कूटनीतिक प्रयास हुए हैं। हालांकि कुछ परमाणु राष्ट्रों ने इसका विरोध भी किया है। जब 1995 के समीक्षा सम्मेलन में इस संधि की अवधि को अनिश्चितकाल तक बढ़ाने का प्रस्ताव आया तो विकासशील देशों ने इस आशा में सहमति दे दी कि इससे अनुच्छेद 6 के क्रियांवयन में मदद मिलेगी और हिरोशिमा व नागासाकी की त्रासद पुनरावृत्ति को रोका जा सकेगा।

सन् 1996 में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा था कि परमाणु हथियार का इस्तेमाल या इस्तेमाल करने की धमकी गैर-कानूनी है। न्यायालय ने अप्रसार संधि में शामिल पक्षों से आव्हान किया था कि वे परमाणु अस्त्रों के खात्में का अपना दायित्व पूरा करें। इस पूरी प्रक्रिया को पाश्चात्य कार्पोरेट मीडिया ने तो बिलकुल जगह नहीं दी मगर नागरिक संगठनों ने इसमें अहम भूमिका निभाई।

अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के फैसले के बाद राष्ट्र संघ की आम सभा ने 1997 में एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें एक परमाणु अस्त्र संधि तैयार करने का आव्हान किया गया था। 1999 में एक और प्रस्ताव पारित किया गया। यह प्रस्ताव भी जोरदार बहुमत से पारित हुआ था और इसमें राष्ट्रों से आग्रह किया गया था कि वे परमाणु अस्त्र संधि पर विचार विमर्श वर्ष 2000 में शुरु कर दें।

अलबत्ता, बाद के वर्षो में यह जोश व उत्साह क्षीण पड़ता गया। भारत स्वयं भी वैश्विक परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए मुहिम चलाने में अगुवा रहा था मगर उसने भी अपनी इस परंपरा को तिलांजलि दे दी। यह देश के शासक वर्ग में आए सोच के परिवर्तन का द्योतक माना जा सकता है।

वैसे तो परमाणु अप्रसार संधि काफी भेदभावपूर्ण है ही मगर इसके प्रावधानों को भी चुन-चुनकर लागू किया गया जो इस संधि की भावा के विपरीत था। इसके चलते आज दुनिया एक खतरनाक जगह बन गई है। कुछ देशों ने इतने परमाणु हथियार जमा कर रखे हैं कि वे इस दुनिया को दर्जनों बार तबाह कर सकते हैं। ये देश दुनिया के विकाशील देशों को यह उपदेश नहीं दे सकते कि वे अपने परमाणु कार्यक्रमों को छोड़ दें। कई बार तो इन परमाणु कार्यक्रमों का कोई वास्तविक वजूद नहीं होता, बल्कि ये विकसित देशों की कल्पना की उड़ान होते हैं। वैसे यदि विकासशील देशों में ये कार्यक्रम कहीं चल रहे हैं, तो गरीबी में फंसे देशों में एक भौंडा कलंक ही लगते हैं।

बहरहाल, यह दुनिया महाविनाश के इन भयानक हथियारों के खात्में का इंतजार बहुत लंबे समय तक नहीं कर सकती। राष्ट्रों की सरहदों से ऊपर उठकर एक जन आंदोलन ही मुगालतों से घिरे इन राष्ट्रों को परमाणु हथियारों की संधि पर बातचीत के लिए मजबूर कर सकता है।

इसका पहला अनिवार्य कदम यह होगा कि परमाणु हथियारों से लैस राष्ट्र का यह पक्का वचन दें कि वे इन हथियारों का इस्तेमाल उन देशों के खिलाफ नही करेंगे जिनके पास ऐसे हथियार नहीं हैं। गुट निरपेक्ष आंदोलन ने भी यही मांग की थी। ***

ज्ञान विज्ञान


बड़े मस्तिष्क वाले पक्षी ज्याता जीते हैं

क्या मस्तिष्क का बड़ा होना भी उम्र बढ़ाने में मददगार है? शोधकर्ताओं की मानें तो शरीर के मुकाबले बड़े मस्तिष्क वाले पक्षियों की उम्र अपनी ही प्रजाति के उन पक्षियों से ज्यादा होती है, जिनका मस्तिष्क अपेक्षाकृत छोटा होता है। ऐसे पक्षी न सिर्फ ज्यादा समय तक जिंदा रहते है, बल्कि उनका दिमाग भी अत्यधिक तेज होता है और संभावित खतरों के प्रति वे ज्यादा सचेत रहते हैं।

कुल 220 विभिन्न प्रजाति के पक्षियों पर आधारित शोध में इंग्लैंड की बाथ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने उनके मस्तिष्क, शरीर और उनकी उम्र का गहराई से अध्ययन किया। इस शोध में वैज्ञानिकों ने खासकर धु्रवीय तापमान और तराई वाले क्षेत्रों के पक्षियों को शामिल किया। इसमें उन्हें कई चौंकाने वाले तथ्य पता लगे। उन्होंने पाया कि जिन पक्षियों का मस्तिष्क उनके शरीर के अनुपात में बड़ा है, वे जयादा समय तक जिंदा रहे। जबकि छोटे मस्तिष्क वाले पक्षी असमय ही मौत के शिकार हो गए। वैज्ञानिकों के अनुसार शरीर के अन्य अंगों की तुलना में मस्तिष्क को पूरे शरीर का संचालन करने और उनके समुचित विकास के लिए अधिक ऊर्जा की जरुरत होती है। इसलिए बड़े मस्तिष्क वाले पक्षियों में मेटाबोलिक प्रक्रिया उच्च होती है और यही कारण है कि उनके स्वस्थ रहने का समय भी बढ़ जाता है और इस कारण उनकी उम्र निश्चित रुप से ज्यादा होती है।

संजीवनी बूटी के जीन की खोज में वैज्ञानिक

रावण की सेना द्वारा भगवान राम के अनुज लक्ष्मण पर हुए वार के कारण उन्हें मूर्छित अवस्था से निकालने के लिए संजीवनी बूटी का प्रयोग किया गया था। तभी से संजीवनी को सभी जानते हैं मगर इसकी पहचान करने के लिए वैज्ञानिक इन दिनों काफी मेहनत कर रहे हैं।

वैज्ञानिकों ने इस सिलसिले में अपना विशेष शोध भी प्रारंभ कर दिया है। संजीवनी बूटी की यह विशेषता होती है कि यह सूखने पर भी नहीं मरती और थोड़ी सी ही नमी मिलने पर फिर तरोताजा हो जाती है। संजीवनी बूटी के इन विशेष गुणों के मद्देनजर लखनऊ स्थित वनस्पति अनुसंधान (एनबीआरआई) के वैज्ञानिक आजकल इसके विशिष्ट जीन की पहचान करने में जुटे हैं।

संजीवनी बूटी का वैज्ञानिक नाम सेलाजिनेला ब्राहपटेर्सिस है और इसकी उत्पत्ति लगभग तीस अरब वर्ष पहले कार्बोनिफेरस युग से मानी जाती हैं। एनबीआरआई में संजीवनी बूटी के जीन की पहचान पर कार्य कर रहे पाँच वनस्पति वैज्ञानिको में से एक डॉ. पी.एन. खरे ने बताया कि संजीवनी का सम्बंध पौधों के टेरीडोफिया समूह से है जो पृथ्वी पर पैदा होने वाले संवहनी पौधे थे। उन्होंने बताया कि नमी नहीं मिलने पर संजीवनी मुरझाकर पपड़ी जैसी हो जाती है लेकिन इसके बावजूद यह जीवित रहती है और बाद में थोड़ी सी ही नमी मिलने पर यह फिर खिल जाती है। यह पत्थरों तथा शुष्क सतह पर भी उग सकती है।

उन्होंने कहा कि ऐसे वातावरण में अन्य पौधों के अस्तित्व की कल्पना करना मुश्किल है। इसके इसी गुण के कारण वैज्ञानिक इस बात की गहराई से जाँच कर रहे है कि आखिर संजीवनी में ऐसा कौन सा जीन पाया जाता है जो इसे अन्य पौधों से अलग और विषेष दर्जा प्रदान करता है। हालाँकि वैज्ञानिकों का कहना है कि इसकी असली पहचान भी काफी कठिन है क्योंकि जंगलों में इसके समान ही अनेक ऐसे पौधे और वनस्पतियाँ उगती है जिनसे आसानी से धोखा खाया जा सकता है। मगर कहा जाता है कि चार इंच के आकार वाली संजीवनी लम्बाई में बढ़ने के बजाए सतह पर फैलती है।

यह उत्तरप्रदेश उत्तराखंड और उड़ीसा समेत भारत के लगभग सभी राज्यों में पाई जाती है। डॉ. खरे ने बताया संजीवनी का पुराणों में भी जिक्र है। आयुर्वेद में इसके औषधीय लाभों के बारे में वर्णन है। यह न सिर्फ पेट के रोगों में बल्कि मानव के कद में वृध्दि में भी लाभदायक होती है। वरिष्ठ वनस्पति वैज्ञानिक ने बताया कि संजीवनी के जीन का पता लग जाने पर हम इसके लम्बे समय तक जीवित रहने के गुण को पहँचाने के लिए अन्य पौधों को इसका इंजेक्शन दे सकेंगे। इसके साथ ही देश के विभिन्न क्षेत्रों में पानी और सिंचाई की सुविधाओं में कमी के मद्देनजर संजीवनी बूटी के जीन की पहचान वरदान साबित हो सकती है। यही कारण है कि वैज्ञानिक आजकल संजीवनी बूटी के विशेष जीन की खोज में लगे हुए हैं।

अल नीनो के कारण से 2007 सबसे गर्म साल होगा

अब एक सच से रुबरु हो जाएँ। 2007 दुनिया के लिए सबसे गर्म साल साबित होगा, इसका मुख्य कारण है अल नीनो।

ब्रिटेन के मौसम विभाग ने यह भविष्यवाणी की है। विशेषज्ञों का कहना है कि प्रशांत महासागर में अल नीनो के असर से गर्मी का मौसम लंबा खिंचेगा और तापमान बढ़ेगा। 1998 में वैश्विक भूतल तापमान जो था, वह इस साल और भी आगे निकल जाएगा। इस बात की 60 प्रश. से ज्यादा आशंका है। ब्रिटेन में 1914 से तापमान का रेकॉर्ड रखा जा रहा है और 2006 में यहाँ का तापमान सबसे ज्यादा होने की चेतावनी दी गई थी, जो सही साबित हुई।

ब्रिटिश हेडली सेंटर में मौसम परिवर्तन शोध विभाग के प्रमुख श्री क्रिस फॉलैंड का कहना है कि ये आकलन प्रमुख रुप से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन और अल नीनो के असर के आधार पर किया गया है। ग्रीनहाउस गैसों के कारण गर्मी बढ़ती है। दक्षिण अमेरिका के तट की ओर से कभी-कभी समुद्र में गर्म पानी का बहाव होने लगता है और ये तेज होने पर गर्मी बढ़ती चली जाती है। इस साल अल नीनो पहने से ही प्रशांत महासागर में पहँच चुका है। वहीं गैसों के उत्सर्जन से ओजोन परत को क्षति पहुँची है, जिससे तापमान बढ़ता जाता है।

ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंजलिया के निदेशक प्रोफेसर फिलजोन्स का कहना है कि ब्रिटेन के तापमान का आकलन करना अभी संभव नहीं है। यह वैश्विक औसत के आधार पर निकाला जा कसता है। फिर भी इस साल यहाँ गर्मी का असर जबर्दस्त रहेगा। हमारे आसपास का समुद्री तापमान काफी गर्म है। यह तापमान 1961 से 1990 की अवधि के तापमान से भी ज्याद है। हर दस साल में 0.2 डिग्री तापमान बढ़ रहा है।

अल नीनों की वजह से दुनिया में अमेरिका के पश्चिमी तट पर बाढ़ आदि का असर और ऑस्ट्रेलिया में सूखे का प्रभाव देखने का मिल सकता हैं। उत्तरी अटलांटिक में यह तूफान ला सकता है तो प्रशांत क्षेत्र में यह हलचल मचा सकता है।

इलेक्ट्रॉनिक कचरे का खतरा

कम्प्यूटरों का उपयोग बढ़ता जा रहा है और इसके साथ-साथ कम्प्यूटरों का कचरा एक चिंता का विषय बनता जा रहा है। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संगठन ग्रीनपीस द्वारा किए गए एक अध्ययन से चिंताजनक परिणाम सामने आए हैं।

ग्रीनपीस ने कुछ चुनिंदा कम्पनियों के कुछ नए लैपटॉप्स खरीदकर उनके पुर्जे अलग-अलग किए। पहले तो इनकी तहकीकात एक्सरे वगैरह के माध्यम से की गई। फिर हरेक पुर्जे में प्रयुक्त रसायनों की जांच गैस क्रोमेटोग्राफी व मास स्पेक्ट्रोमेट्री की मदद से की गई। ये सारे परीक्षण डेनमार्क की यूरोफिन्स प्रयोगशाला में किए गए। परीक्षण में एसर, एपल, डेल, हेवलेट, और सोनी द्वारा निर्मित लैपटॉप्स शामिल किए गए थे। परीक्षण में एक बात यह सामने आई कि कई ब्राण्ड्स में जो लपटरोधी रसायन इस्तेमाल किए गए हैं वे या तो प्रतिबंधित है या अनुमतिशुदा तो है मगर उनकी बहुत अधिक मात्रा का उपयोग किया गया थां जैसे डेका- बी.डी.ई. नामक प्रतिबंधित रसायन का उपयोग एक ब्राण्ड में हुआ था, इसी प्रकार से एक अन्य ब्राण्ड में टी.बी.बी.पी.ए. का इस्तेमाल अधिक मात्रा में होना पाया गया। ये सारे ब्रोमीनयुक्त लपट-रोधी हैं और स्वास्थ्य का पर्यावरण के लिए घातक माने जाते हैं। यदि जलाया जाए तो इनसे एक अन्य पदार्थ डॉयक्सिन बनता है जो हानिकारक है।

ग्रीनपीस की राय है कि आजकल कम्प्यूटर के पूर्जे काफी मात्रा में फेंके जाते है। शायद भारत जैसे देशों की स्थिति इतना खराब नहीं है मगर इलेक्ट्रॉनिक कचरा तो जमा होने ही लगा है। जब ये पुर्जे कचरे में खुले ढेरों या भराव स्थलो पर फेंके जाते है तो इनमें प्रयुक्त रसायन घुल-घुलकर नदी-नालों और भूजल में पहुंच सकते हैं।

इस रिपोर्ट के संदर्भ में कम्पनियों ने जरुर कहा है कि अपनी उत्पादन प्रक्रिया पर गौर करेंगी। दूसरी ओर सिएटल स्थित बेसल संधि एक्शन नेटवर्क ने भी इन नतीजों का गंभीरता से लिया। यह नेटवर्क राष्ट्र संघ की बेसल संधि के तहत विकसित देशों से विकासशील देशों में पटके जाने वाले घातक पदार्थो के नियमन के लिए बना है। एक तथ्य यह भी प्रकाश में आया है कि इन कम्प्यूटरों में प्रयुक्त घातक रसायनों के सुरक्षित विकल्प उपलब्ध हैं और कम्पनियों को उनका उपयोग करना चाहिए। ***