प्रदेश चर्चा
रजनी दीक्षित
आधुनिक युग में मनुष्य ने अपने विकास और आराम के लिए प्रकृति के साथ विशानकारी छेड़छाड़ की है। इसके कारण वन, वनौषधि जैसी प्राकृतिक संपदा को अपूरणीय क्षति हुई है। फिर भी यह संतोष का विषय है कि मध्यप्रदेश अभी भी देश के चंदन वन बहुल राज्यों में से एक हैं जहां कई हिस्सों में सनातनी जैव विविधता अपने मूल रुप में कायम है। लेकिन अब तेजी से वनों का विनाश हो रहा है, इस कारण प्रकृति प्रदत्त बहुमूल्य औषधि संपदा खतरे में पड़ गई हैं।
अमरकंटक क्षेत्र में विलुप्तप्राय वनौषधियां ः- मध्यप्रदेश के अमरकंटक क्षेत्र में सैकड़ों प्रजातियों के औषधीय पौधे पाए जाते है। पुराणों में वर्णन मिलता है कि प्राचीनकाल से ऋषि-मुनि, योगी तपस्वी अमरकंटक की औषधिक वनस्पतियों का प्रयोग शरीर को निरोध रखने और रोगोपचार के लिए करते आए हैं। आज भी बड़ी संख्या में साधक इस क्षेत्र में औषधीय वनस्पतियों की खोज, अनुसंधान और उनसे औषधीय निर्माण के कार्य में मौन साधना कर रहे हैं। इस भू-भाग में रहने वाले वनवासी और जनजातियां तो चिकित्सा और औषधि की दृष्टि से प्राकृतिक वन संपदा पर ही निर्भर है।
सन् 1998 के बाद मध्यप्रदेश सरकार ने आयुर्वेद और भारतीय चिकित्सा पध्दति के साधकों की मांग पर मध्यप्रदेश की वनौषधि संपदा के अध्ययन ओर संरक्षण की ओर ध्यान दिया है। सरकारी वन विभाग और सन् 2002 के बाद जैव विविधता एवं जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने भी इस विषय में काम करना शुरु कर दिया है। लेकिन यह जानकर आश्चर्य और दुःख होता है कि सघन वन क्षेत्रों वाले इस विशाल राज्य में निर्मम वन विनाश के कारण बड़ी संख्या में वनौषधियों की प्रजातियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा हे। कई तो लुप्त हो चुकी है और कई लुप्त होने के कगार पर हैं। वनौषधि विशेषज्ञों के अनुसार क्षेत्र विशेष में पायी जाने वाली प्राकृतिक वनस्पति औषधियों का अपना महत्व होता है।
वनौषधि विशेषज्ञों के अनुसार क्षेत्र विशेष में पायी जाने वाली प्राकृतिक वनस्पति औषधियों का अपना महत्व होता है। भौगोलिक प्रभाव से इन औषधि वनस्पतियों में जिन गुणों और विशेषताओं का सहज विकास होता है, वह कृत्रिम रुप से किसी अन्य क्षेत्र में उगाई जाने वाली इन्हीं वनस्पतियों में नहीं होता है। अब तक वन विभाग ने वन औषधि विशेषज्ञों की सहायता से अस्सी से अधिक औषधि वनस्पतियों का पता लगाया है। इनके अलावा अमरकंटक क्षेत्र में पाई जाने वाली लगभग 51 औषधि वनस्पतियों की प्रजातियों को लुप्त होने के खतरे के अन्तर्गत बताया गया है। अमरकंटक में जिन वनौषधि प्रजातियों को विलुप्ति के कगार के अन्तर्गत माना गया है, उनके नाम इस प्रकार हैं ः-
श्याम (काली हल्दी), गुलबकावली, मजीठ, मजीष्ठा, वनजीरा, ममीरा, चिरायता, मालकांगनी, पातालकुम्हड़ा, शिवलिंगी, सरपुंखा, तेजराज, जटामासी, मैदा वृक्ष, धरहर, बनधनिया, तेलबल, सालपर्णी, कलिहारी, वन सूरन, गिलोय, कामराज-कनिहाकांधा, बराती दमगढ़, गरुड़ वृक्ष/कटोरी, गुड़मार, हसियाडाबर, हड़जोड़, हड़जुड़ी, जलराज, भुईनीम, नवगंवा/रुद्रगंगा, गजपसारण, गंधप्रियंगू, दहिमन, रामदतून, धरहर, देवसेमर, लाल अमरबेल, वन सेमी, करकटी, करकट, कोयली खम्हार, पड़ोरा, बड़ी चिप्पी, नागकेशर (बेला), वनढेई (ब्रह्म राक्षस), वन तुलस, वन चना, जंगली केला और हंसराज।
चित्रकूट क्षेत्र की लुप्त हो रहीं वनौषधि प्रजातियां ः रामायणकालीन पवित्र भूमि चित्रकूट वर्तमान मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में फैली हुई है। इस सैकड़ों वर्ग किलोमीटर विस्तृत क्षेत्र में अनेक दुर्लभ जड़ी-बूटियों और वनोषधियों का भण्डारा बिखरा पड़ा हुआ हे। लेकिन खेद है कि सरकार और समाज की उपेक्षा के कारण यह बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा लुप्त होने के कगार पर है।
आयुर्वेद महाविद्यालय अतर्रा के वरिष्ठ चिकित्सक डॉक्टर संतोष गुप्ता ने इस बारे में अध्ययन किया है। उनके अध्ययन के अनुसार चित्रकूट के अनुसूईया क्षेत्र में कई वर्ग किलोमीटर में निर्गुण्डी, पारिजात, विदारकन्द, श्वेत पुनर्नवा, गुड़मार, अर्जुन, गुडच्ची, अश्वगंधा आदि प्राकृतिक औषधियां मिलती हैं। इनमें सफेद पुनर्नवा अत्यंत दुर्लभ है। चित्रकूट के पयस्वनी तट पर गुणकारी दशमूल औषधियों का अक्षय भण्डार है, इनमें सालपर्णी, प्रश्नपर्णी, गोक्षुर-वृहती, पटाला, गुम्भारी, बिल्व, अग्निमंथ और रचोनाक जैसी औषधियां शामिल हैं। उत्तरप्रदेश में स्थित कार्लीजर क्षेत्र में हरीतकी, चेतकी नामक वनस्पति प्रजातियां अन्य किसी भी स्थान पर उपलब्ध नहीं होती हैं। कार्लीजर में ही दुर्लभ शिवलिंगी के बीज मिलते हैं, जो स्त्रियों में बांझपन के दोष को दूर करने की अचूल औषधि है। लेकिन ये सभी औषधियां ब अपने अस्तित्व के संकट को झेल रही हैं।
नर्मदा घाटी में विलुप्त होतीं औषधीय वनस्पतियां ः
नर्मदा घाटी
इस कारण इस क्षेत्र में अनेक भौतिक गुण और विशेषता वाली वनौषधियों के विलुप्त हो जाने का खतरा बढ़ गया है। वनस्पति विज्ञान के विशेषज्ञ प्रोफेसर एम. उमाचन और डॉ. एस.के. मसीह ने 1991-92 में नर्मदा घाटी में 83 कुलों के 233 और डॉ. जे.पी. पलहर्य ने 135 पौधों का अध्ययन कर उन्हें सूचीबध्द किया हैं। डॉ. पलहर्य ने 3-7 जनवरी 1991 में एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में सस्टेनेबल फारेस्ट इन द नर्मदा वेली स्पेशली इन इंदिरा सागर एट पुनासा, मध्यप्रदेश प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार नर्मदा घाटी की सफेद मूसली, काली मूसली, पाताल जड़ी ब्राह्मी, शतावर, दारु हल्दी, गुड़बेल, तेजराज, कामराज, भोगराज, रजतल, अकरकारा, खरासानी अजवाइन, मुलेठीय, सर्पगंधा, रोशा घास, खस और अश्वगंधा जैसी औषधीय वनस्पतियां खतरे में हैं।
एक अन्य अध्ययन के अनुसार भू-गर्भ में पाई जाने वाली कंदमूल जड़ी-बूटियों का इस क्षेत्र में ठीक-ठाक अध्ययन नहीं किया जा सका है लेकिन आज भी इस अंचल के आदिवासी और वनवासी इन दुर्लभ बड़ी-बूटियों और कंदमूल फलों का औषधियों के रुप में उपयोग करते हैं।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के निकट मण्डीदीप औद्योगिक क्षेत्र के विकास की प्रक्रिया में प्राकृतिक रुप से इस क्षेत्र में पाई जाने वाली कई प्रकार की बेरझाड़ियां, सीताफल और गूलर के वृक्ष पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं और अब इस क्षेत्र में इन वानस्पतिक प्रजातियों के दर्शन भी नहीं होते हैं।
चंदन वन खतरे में ः मध्यप्रदेश के सिवनी जिले में लगभग 200 वर्ष पूर्व चंदन वृक्षों का रोपण किया गया था लेकिन आज यह चंदनवन खतरे में आ चुके हैं और अब बहुत कम मात्रा में चंदन के वृक्ष बचे हुए हैं। यदि इनकी सुरक्षा नहीं की गई तो मध्यप्रदेश में एकमात्र स्थान पर पाये जाने वाले चंदन वृक्ष वनों से लुप्त हो जाएंगे। सिंचाई, बजली, उद्योग, शहरीकरण और चारागाहों के विस्तार के कारण मध्यप्रदेश के वन बहुल क्षेत्रों का भारती विनाश हुआ है और इस विनाश के कारण कई महत्वपूर्ण औषधीय वनस्पतियों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। कहीं-कहीं इस बारे में अध्ययन भी हुआ है और वनस्पतियों की प्रजातियों को अन्य स्थान पर जीवित रखने के प्रयास भी हुए हैं। लेकिन अभी भी बचे-खुचे वन क्षेत्र और औषधीय संपदा की सुरक्षा के लिए हमें बहुत कुछ करना होगा। इसके लिए सरकार और समाज को सचेत होकर योजनाबध्द तरीके से काम करने की जरुरत है। ***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें