मंगलवार, 27 फ़रवरी 2007

टेडी बेयर कोआला

प्राणी जगत


डॉ. चंद्रशीला गुप्ता

कोआला को अक्सर ऑस्ट्रेलियाई भालू समझ लिया जाता है। जबकि यह भालू न होकर कंगारु समूह यानी मार्सूपीलिया का सदस्य है।

वैज्ञानिक इसे फेस्कोलेक्टस सिनेरियस कहते हैं। इसका ठिगना, गठीला शरीर स्लेटी रंग के फर से ढंका रहता है। तकरीबन 10-12 किलोग्राम के बिना पूंछ वाले इस जंतु के गोल चेहरे पर हास्यापद नाक व 2 बड़े-बड़े कान होते हैं। यह कोई जीवित प्राणी नहीं बल्कि टेडी बियर ही दिखाई देता है।

एक समय यह पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में लाखों की तादाद में पाया जाता था क्योंकि स्थानीय निवासी धार्मिक विश्वासों के चलते कोआला का शिकार नहीं करते थे। लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी में जब सभ्य समाज को इसके फर का महत्व पता चला, तो सामूहिक संहार होने लगा। शिकारी कुत्तों द्वारा पहले इन्हें जंगल से मैदानों की तरफ खदेड़ा जाता था, जहां शिकारी इनका काम तमाम कर देते थे। जैसे इतना ही काफी नहीं तो प्राकृतिक प्रकोप भी इन नन्हें प्राणियों पर टूटा और एक महामारी ने इन्हें विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया।

बाद में विभिन्न संरक्षण योजनाओं व सख्त नियमों की वजह से ये बचे। बीसवीं शताब्दी में इन्हें एक फ्रांसीसी द्वीप पर ले जाया गया। बेरोक वृध्दि से वहां इनकी संख्या इतनी ज्यादा हो गई कि वहा अनेक वृक्ष खत्म होते नज़र आने लगे। तब वहां से इन्हें आस-पास के टापुओं व मुख्य द्वीप पर स्थानांतरित किया गया।

पहले इनका भोजन युकेलिप्टस की पत्तियां एवं कलियां माना गया था लेकिन बाद में ज्ञात हुआ कि इस वंश की अन्य प्रजातियां भी इनके भोज्य वृक्षों में शामिल है। अपने पैने नाखूनों की मदद से ये आसानी से पेड़ों पर चढ़ जाते हैं और मौसम के अनुसार श्रेष्ठ पत्तियां या कलियां चुनकर खाते हैं।

युकेलिप्टस की पत्तियों में एक तीखी गंध वाला तेल होता है जो इनकी आंतों में अवशोषित होकर रक्त द्वारा गंध पैदा होती है। यह गंध परजीवियों को विकर्षित करती है। कोआला मूत्र में ग्लूकोरोनिक अम्ल की काफी मात्रा उत्सर्जित करता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि यह युकेलिप्टस के तेल को निर्विष करने के दौरान पैदा होता है।

कोआला एक ऑस्ट्रेलियाई जनजातीय शब्द है जिसका अर्थ जल विहिन होता है जो इसके पानी न पीने की आदत की तरफ इंगित करता है। दरअसल इसकी खाद्य पत्तियों में पर्याप्त मात्रा में पानी होता है। अतः इसे पानी पीने की जरुरत नहीं होती है। वैसे कोआला एक अच्छा तैराक है और पानी में जाता रहता है और पानी से निकलने के बाद यह फर में लगा पानी चाटता है। कभी-कभी यह वर्षा के बाद पोखरों में जमा पानी पीते भी देखा गया है।

मार्सूपीलिया समूह का होने के कारण इसमें भी कंगारु जैसी बच्चे पालने वाली थैली यानी मार्सूपियम पाई जाती है। कोआला का गर्भकाल छोटा (30-35 दिन का) होता है। जन्म के समय शिशु मात्र 5 ग्राम का व कुछ से.मी. लम्बा होता है। यह इतना अपरिपक्व होता है कि यदि इसे थैली में पहुंचने में घण्टा भर देरी हो जाए तो यह जीवित नहीं रह पाता है। लेकिन ऐसा होता नहीं है, यह जन्म स्थान से फर में रेंगता हुआ तुरंत थैली में पहुंच जाता है जो मात्र कुछ से.मी. की दूरी पर स्थित होती हैं।

कोआला की थैली विशिष्ट होती है, कंगारु से ठीक उलट इसका मुंह नीचे की ओर होता है। बच्चा इसमें से गिरता नहीं है क्योंकि मां बहुत सावधान रहती है और पैरों पर झुकते हुए चलती है। करीब 4-5 माह यह इस थैली (प्राकृतिक इन्क्यूबेटर) में रहता है व 450 ग्राम का हो जाता है। इसके बाद भी यह मां का दूध पीने थैली में आता-जाता रहता है। शेष समय मां की पीठ पर लदा रहता है। शिशुओं को मां के मलद्वार से निकलते द्रव को चाटते भी देखा गया है। इस द्रव की संरचना मल से भिन्न होती है, इसमें पत्तियों के पेप्टोन्स पाए गए हैं। एक वर्ष की आयु से पहले यह पेड़ पर नहीं चढ़ते हैं। करीब 4 वर्ष में शिशु प्रजनन के काबिल हो जाते हैं और इनकी औसत आयु लगभग 20 वर्ष है।

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