मंगलवार, 27 फ़रवरी 2007

खेती, हमारी जीवन पध्दति

कृषि जगत


राजेन्द्र सिंह

हमारी जीवन पध्दति और संस्कृति का दूसरा नाम खेती है। राष्ट्रीय स्तर पर नैसर्गिक खेती, ऋषि खेती, सजीव खेती, विरासत खेती, बाजारमुक्त खेती आदि कई नामों से खेती का नामकरण होता है।

खेती को किसी के नाम से पुकारो, खेती खश्म शेती है। जो हाथ से काम करता है, उसकी खेती है। इनको जन्माने का काम सृष्टि का है। कोई व्यक्ति इसे पैदा नहीं कर सकता। इसलिए खेती का कोई नामकरण मत करो। यह धरती के अर्पण-समर्पण का नाम है। हम श्रम का अर्पण करते हैं, इसके बदले धरती हमें अपना सब कुछ समर्पण करती है। आज हम धरती के समर्पण से खिलवाड़ करके दुष्टता कर रहे हैं। इससे खेती और संस्कृति नष्ट हो रही है।

आज खेती को खेती की तरह ही करेंगे तो हमारे देश की धरती पर सेज नामक हमले तथा जल के नीजिकरण के हमले से बच सकते है। अन्यथा नामी खेती तो सेज बनाएगी। जल का नीजिकरण करेगी। श्रम विहीन खेती मशीन से पैदा करके केवल बाजार के लिए होगी। खेती को बाजार बनाने का काम तो जोरों से चल ही रहा है।

अब ठेकेदारी प्रथा से खेती कराने का सरकारी प्रयास हिन्दुस्तान और भारत के युवाओं को इण्डियन बनाने की कोशिश कर रहा है। सब कुछ बिना श्रम के पैदा नहीं होता। मशीन रुपांतरण करती हैं। उत्पादन नहीं। खेती से उत्पादन होता है। हमारे युवा खेती को भी मशीन से रुपांतरण करने वाली बनाना चाहते हैं।

इण्डियन 20 प्रतिशत है, ये हिन्दुस्तान और भारत के 80 प्रतिशत संसाधनों के मालिक हैं। 40 प्रतिशत हिन्दुस्तान के पास 15 प्रतिशत जमीन और संसाधन है। इस देश के युवा अभी तक खेती में थे। लेकिन अब इन्हें इण्डियन बनने का चश्का जोरो से लगा हैं। यहाँ इनका चरित्र बिल्कुल राष्ट्रभक्त जैसा बनाया जा रहा है। जैसा कुत्ता मालिक भक्त होता है। वैसा ही हन्हें बनाने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। मालिक कुत्ते को सफेद सूखा हाड़ कभी-कभी उसके मुँह में देता है। वह उसे चबाता हैं। उसके मुँह का खून उसके पेट में जाता रहता हैं उसको उसका चश्का लगता है। जबकि उसके पेट में उसीका खून जाता है। वह अपने ही खून से आनन्दित होता रहता है। आज यही हाल है हिन्दुस्तान के युवाओं का।

यह आनन्द आज के हिन्दुस्तान के युवा किसानों में बैठा दिया है। ये केवल 40 प्रतिशत ही है, जिन्हें ऊपर का कुछ हिस्सा कम्पयुटर - मशीनों आदि के मिलता दिखता है। ये अब सब इससे प्रसन्न दिखते हैं। प्रसन्न है नहीं, लेकिन इन्हें प्रसन्न रहना और दिखना सीखा दिया है। इसलिए आज चल रहे जनविरोधी किसी काम पर सवाल और आवाज इनके मन में खड़ी नहीं हो रही हैं। ये आज की व्यवस्था से संतुष्ट बनने के लिए प्रशिक्षित हो रहे हैं।

केन्द्रीय सरकार ने पचीस हजार करोड़ रुपये प्रति वर्ष रोजगार देने के नाम पर राष्ट्रीय रोजगार गारन्टी योजना चलाई हैं। इस राशि में इनके कल्याण हेतु कुछ होगा। लेकिन 5 प्रतिशत संसाधनों पर 40 प्रतिशत भारत कैसे जी रहा है ? उसे जल्दी खत्म होना चाहिए, क्योंकि सरकारों को उसे जिन्दा रखने का बोझ उठाना पड़ता है। इसलिए उसका घर-बार सब कुछ उजाड़कर उसे जल्दी खत्म करने में विश्व बैंक तो जुटा ही है। यह महान भारत है, कि खत्म हो ही नहीं रहा है। इसको खत्म नहीं होने का एक मात्र कारण है, भारत की खेती।

अब विश्व बैंक ने मान लिया है कि भारत को खत्म करने हेतु यहाँ की खेती खत्म करनी होगी। इसको ठेकेदारों और बाजार के हाथों में देंगे तो खेती भी मशीन और बाजार से हिन्दुस्तान और भारत समाज के कब्जे से निकल कर इण्डियन (रिलायन्स और टाटा) जैसों हाथों में जाकर उनके शिकंजे में सुरक्षित हो जायेगी। देश भर के किसी राज्य में भी सरकारे अब खेती को लाचार-बेकार-बीमार भारत के हाथों में नहीं रहने देगी। ये तो खेती को रिलायन्स जैसे सक्षम-समृध्द-सुपालकों के हाथों में देकर समृध्द बनाना चाहती हैं। ये हमारी चिंता क्यों कर रहें ? स्पष्ट है। इसे बाजार चाहिए। बाजार में खरीदने वाले चािहए। खरीदने की क्षमता जिनमें हैं, उन्हें बचाना चाहते हैं। शेष को मारना है।

शेष भारत में जहाँ-तहाँ कुछ किसान खेती को खेती बनाकर लाचार-बेकार-बीमार बनते भारत को स्वावलम्बी भारत बनाने की चिंता में चिंतित होकर आपस में ही लड़ रहे हैं। यह लड़ाई हो सकता है भारत के समाज को खड़ा करके-श्रमनिष्ठ-शोषण और बाजार मुक्त खेती करने में जुटा सकेगी ? जो लोग इस विचार और काम में लगे हैं, इनकी मंशा तो अच्छी है। पर स्वयं की पहचान बनाने की चाह प्रबल है। पहचान की प्रबल चाह हमें कहाँ पहुंचा सकेगी? इन्हें सफलता मिले या नहीं, लेकिन भारत को बचना है तो श्रमनिष्ठ, बाजार मुक्त खेजी ही अपनानी होगी।

बाजार मुक्त खेती करना विश्व बैंक से लड़ना है। वह तो केवल खेती को बाजारु ही बनाना चाहता है। हरित क्रांति और बाजार क्रांति ने अब भारत को दुनिया के असर हीन बना दिया है। दुनियासत्ता को हमारे असर से चिन्तित दिखाना भी विश्व सत्ता की चालाकी है। अब भारत तो केवल दुनिया हेतु बाजार है। इसके अपने ज्ञान की गहराई और स्वाभिमान और स्वावलम्बन नष्ट हो रहा है। हमारा स्वावलम्बन नष्ट हो गया तो फिर और क्या बचा है? हरित क्रांति से अन्न में स्वावलम्बन कहना बिल्कुल झूठ है। जब अन्न पैदा करने वाली दवाई-खाद-बीज सभी कुछ बाजार से खरीदना पड़े तो किसान की खेती अपनी कैसी? ठीक इसी तरह अब ठेकेदारी वाली खेती पुरानी बाजारु खेती से अगला कदम है। यह गुलाम खेती कामना विश्व सत्ता का यही अन्तिम लक्ष्य है। इण्डिया और हिन्दुस्तान 60 प्रतिशत बाजार हेतु खरीदने की क्षमता वाला इण्डियन और हिन्दुस्तान बचाना तथा 40 प्रतिशत भारत, जो बाजार से खरीद नहीं सकता है उसे मारना।

विश्व सत्ता भारत के पशुपालन और खेती का उक्त सिध्दांत को मानकर खत्म करने में सफल हो रही है। इसने हमारे बाजार पर कब्जा करके खेती पशुपालन से जीवन यापन की संस्कृति को नष्ट करके, खेती को उद्योग का दर्जा दिया है। इस दर्जे को दिलाने का काम अभी तक हरित क्रांति कर रही थी। अब इनकी आबरु तो खत्म हुई अब ऐसे ही नये कामों की लड़ाई चालू है। अन्त में भारत को बचाने वाला खेती ही बचेगा। भारत की अपनी खेती, भारत का अपना लेन-देन व्यवहार और संस्कार ही भारत को बचा सकता है।

उत्तर खेती मध्यम बान, निषिध्द चाकरी-भीख निदान, यह बात घाघ ने तब कही थी, जब भारत अपने श्रम से स्वाभिमान के साथ स्वावलम्बी होकर काम करता था। उस समय खेती संस्कृति थी, बाजार नहीं, तब का बाजार भी आज जैसा नहीं था। बाजार में शुभ् के साथ मर्यादित् लाभ का व्यवहार और संस्कार था। उस समय उत्पादक और उपभोक्ता को जोड़ने वाले व्यापार में कुल 2 प्रतिशत लाभ इसमें से भी शुभहेतु 10 प्रतिशत धर्मादा जलदान गोदान पर खर्च होता था। आज शुभ की चिंता मुक्त मर्यादा विहीन बाजार ने गो और जल दोनो ही खेती से अलग कर दिये है। गो को खेती से अलग करने में बाजार ने सफलता पा ली है। असीम लाभ का लालच बाला बाजार। आज सभी से ऊपर है। यह ही अब पानी का नया बाजार भी बना रहा है।

अर्पण-समर्पण वाली खेती में लगा भारत भी आज चाकरी को उत्तम मानने लगा है। बाजार तो राजा बन गया है। बाजार में इण्डिया लगा हुआ है। इस इण्डिया का लक्ष्य है, हिन्दुस्तान और भारत को अपने अधीन बनाकर चाकरी को उत्तम कहकर अपनी सेवा में जुटा लें। बस फिर खेती की चिंता किसे? हिन्दुस्तान तो आज खेती करना ही नहीं चाहता। भारत के पास खेती पशुपालन के अलावा और दुसरा कोई रास्ता नहीं हैं। जबकि जमीन इनके हाथ में ही नहीं रही है। जमीन तो निकल गई, उनका शरीर और श्रम इनके पास हैं। इससे शरीर को बचाने हेतु काम की चाह भी है। काम मशीन छीन रही है। मशीन ने इसे बेकार और लाचार बनाया। पेट और प्रदूषण ने इसे बीमार बनाया है।

लाचारी-बेकारी-बीमारी का निदान भीख है। यह तो आज हम कर रहे है। भीखारी भीख से अपनी लाचारी-बीमारी मिटाता हैं? कितने भिखारियों ने अपनी भीख से दुर्दशा को बदला है? मैं नहीं जानता। सहारा पाकर बेकार-लाचार-बीमार ईन्सान पोषित हो जाता है। आगे बढ़ जाता है। यदि हम भीख को निदान मानकर उसे केवल बैसाखी की तरह टूटी-टांग को जोड़ने तक उपयोग करके फैंक दे तो हमारी लाचारी भीख से बैसाखी की तरह सहारा बनकर मिट जाती है। आज हमारी सरकारें हमें केवल भीख मांगना सीखाकर इण्डिया को 10 प्रतिशत विकास दर से बढ़ते की गति बताकर चमकदार भविष्य वाला राष्ट्र कह रही है। किसका भविष्य चमकदार है? आज हिन्दुस्तान के लिए उत्तम चाकरी, भारत के हाथों से भीख मांगना निदान बन गया है।

भारत को तो बस निषिध्द खेती ही बची है। इस निषध्द खेती में बस लाचार-बेकार और बीमार बनकर लगे रहना ही अब भारत की नियति है। उत्तम खेती से निष्ध्दि खेती तक पहुंचने की लम्बी यात्रा का वर्णन करना यहाँ अच्छा लगता है। खेती उत्तम तब तक थी। जब तक धरती की सेहत सहज-सरलता और मानव की सेहत में भी स्वावलम्बन बनाये रखने वाली बनी रही। मानवीय श्रम अर्पण के बदले धरती का समर्पण मानकर ही मानव अपने जीवन को जीता रहा। जैसे ही जीवन में लालच ने जटिलताओं का जाल बुना, तभी से मानव ने धरती के अर्पण-समर्पण को शोषण में बदलना शुरु किया। यह शोषण केवल धरती का ही नहीं, मानव का भी जारी हो गया है। यह काम करने वाला केवल बाजार और मशीने हैं। बाजार और मशीने ने मानव पर और प्रकृति पर अपना शिकंजा कसा तो बस! फिर क्या बचा?... लालच... आज के लालच ने भारतीय मानव और धरती के रिश्तों को बदल दिया हैं। खेती अब संस्कृति की जगह औद्योगिक-बाजारु ही बन गई है।

बजारु खेती के कारण ही मेरे मित्रों में भी नामों की लड़ाई बढ़ेगी। इसे कुमारप्पा की विक्रेन्द्रित व्यवस्था, महात्मा गांधी का ग्राम स्वावलम्बन और स्वदेशीपन से रोका जा सकता है? हमारी धरती और प्रकृति की समझ और समरसता ही लालच और लूट को रोक सकती है। यह विविधता के सम्मान से ही सम्भव है। आज वैश्वीकरण से हमारी मिटती विविधता हमें केन्द्रीकृत बनाकर लूट और नियंत्रण सीखा रही है। यहाँ विनोबा जी का जयजगत और आज के जागतिककरण की दूरी को समझना भी जरुरी है। विविधता का सम्मान करके पूरी दुनिया का भविष्य शांत और समृध्द बना सकते है।

विविधता विरुध एकरुपता वाला जगत या वैश्वीकरण और एकीकरण से हमारा भविष्य शांत और समृध्द नहीं बन सकता। उल्टा विकास के नाम पर निनाश होगा। खेती तो नियंत्रण और लूट के विरुध्द है। खेती विविधता संरक्षण से ही सम्भव है। भू-सांस्कृतिक विविधता ही खेती का प्राण हे। वैश्वीेकरण विविधता का दुश्मन है। वैश्वीकरण ही आज हमारे साझे भविष्य की बात करता है। लेकिन साझा भविष्य सादगी-सहजता, समता से ही बनता और टिकता है। वैश्वीकरण समता की दुहाई देकर समता और साझे भविष्य को बिगाड़ रहा है। इसके चलते हमारी खेती और हमारा भविष्य बिगड़ रहा है। भारत का भविष्य खेती और भू-सांस्कृतिक विविधता के सम्मान में समाहित है।

दुनिया को बेहत्तर बनाने का काम तथा साझा भविष्य को सुरक्षित और समृध्द बनाने का सपना हम हमारी विविधता का सम्मान करके ही साकार बना सकता है। दुनिया को एक मंच पर इकट्ठा करने से नहीं, बल्कि दुनिया की विविधता वाली खेती और संस्कृति को बचाकर ही जय जगत और वसुदैव कुटम्बकम् बनाया जा सकता है। इसी से विश्व सत्ता की लूट को रोका जा सकता है।

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