मंगलवार, 27 फ़रवरी 2007

पर्यावरण परिक्रमा


प्रदूषण रोकने में चीन विफल रहा

चीन सरकार की नई रिपोर्ट के मुताबिक चीन पर्यावरण संरक्षण और इसमें सुधार की राह में आगे बढ़ने में नाकाम रहा है। इस रिपोर्ट में चीन को पर्यावरण प्रदूषण फैलाने वाले में काफी ऊपर रखा गया है और वर्ष 2004 के बाद इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है।

शैक्षिक और सरकारी विशेषज्ञों द्वारा तैयार इस रिपोर्ट में 118 देशों में से चीन को 100वें स्थान पर रखा गया है। पारिस्थितिकी मानकों का स्तर तय करने के लिए करीब 30 सूचकों का इस्तेमाल किया गया। इनमें कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन, गंदे पानी की निकासी और पीने के पानी की सफाई भी शामिल है।

शोधकर्ता दल के निदेशक ही चुआनकी ने कहा - सामाजिक और आर्थिक आधुनिकीकरण के मुकाबले चीन पारिस्थितिकी सुधारों में बहुत पीछे हैं। दुनिया की कुल आबादी का पाँचवा हिस्सा रखने के बावजूद चीन प्रतिदिन दुनिया के कुल तेल उत्पादन की तीन करोड़ बैरल आयात करता है, यानी सिर्फ चार फीसदी खपत करता है। लेकिन तेज आर्थिक विध्दि से उसकी ऊर्जा जरुरतों में दिन-प्रतिदिन इजाफा हो रहा है। चीन की मौजूदा योजना के अनुसार हर हफ्ते एक नई ऊर्जा परियोजना शुरु की जानी है, इनमें से अधिकांश योजनाएँ कोयला आधारित है।

विश्व बैंक का अनुमान है कि चीन में अगले 15 वर्षो में आर्थिक वृध्दि की दर हर साल छः फीसदी के लगभग रहेगी, जो कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की अनुमानित दर की दुगुनी है।

चीन अक्षय ऊर्जा पर भारी निवेश कर रहा है और उसकी योजना है कि कुल ऊर्जा खपत में 15 फीसदी हिस्सा अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं से हो। बिजिंग से बीबीसी संवाददाता डेनियल ग्रीफिथ्स का कहना है कि यह रिपोर्ट उन नेताओं के लिए चिंता का विषय है जो प्रदूषण कम करने का लगातार वादा करते रहे हैें।

सचमुच की जेन चिम्पांजियो की

एक वह जेन थी टार्जन की सखी। एक यह जेन है, जेन गुडाल के कॉमिक्स की दीवानी थी। बड़ी होकर यह जेन भी अफ्रीका के जंगलों में जा पहुँची। सन् 1960 की बात है जब 20 वर्षीय जेन ने प्रोफेसर लेविस लीकी का चिम्पांजियों पर भाषण सुना। वह उनसे इतनी प्रभावित हुई कि सब छोड़छाड़ कर वह तंजानिया के गोम्बे राष्ट्रीय उद्यान जा पहुँची। उसने वर्षो तक वहीं रहकर चिम्पांजियों का इतने पास से अध्ययन किया कि वह उन्हीं के साथ रहने लगी। उसने एक-एक चिम्पांजी को उसका नाम दिया। सन् 1997 में उसने जेन गुडाल संस्था बनाई और चिम्पांजियों को खत्म होने से बचाने का अभियान शुरु कर दिया। उसी का नतीजा है कि अफ्रीका में अभी भी चिम्पांजी हैं। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व सचिव कोफी अन्नान, पहले वाले जेम्स बॉण्ड पियर्स ब्रोस्नान, एंजेलिना जोली जैस दोस्तों की मदद से जेन दुनियाभर में जंगलों और वन्य प्राणियों को बचाने के काम में लगी है। इसके लिए वह देश-देश घूमकर अपने संस्मरण सुनाती हैं, अफ्रीका के जंगलों की रोचक तस्वीरें दिखाती है ताकि लोगों को पता चले कि उनके शहरो से बाहर क्या कुछ हो रहा है।

मानसून की भविष्यवाणी में एक और कदम

पुणे के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मिटिरियोलॉजी (भारतीय कटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान) के कृष्ण कुमार ने पिछले करीब सवा सौ वर्षो के आंकड़ों का अध्ययन करके भारतीय मानसून पर असर डालने वाला एक कारक खोज निकाला है। यह कारक पूर्वी प्रशांत महासागर में स्थित है।

यह तो जानी-मानी बात है कि एल नीनो नामक प्राकृतिक घटना के साथ जब प्रशांत महासागर गर्म होता है तो इसका असर भारत के मानसून पर पड़ता है। यह देखा गया है कि मानसून उन्हीं वर्षो में असफल रहा है जिन वर्षो मं एल नीनो होता है। मगर इसी से संबंधित तथ्य यह है कि हर एल नीनो वर्ष में मानसून असफल नहीं होता। एल नीनो और मानसून की इस कड़ी को बेहतर समझने के लिए कृष्ण कुमार और उनके सहयोगियों ने 1871 से सारे आंकड़ों की खाक छानी। इनमें भारत में वर्षा की मात्रा और भूमध्य रेखा के आसपास प्रशांत महासागर की सतह के तापमान के आंकड़े खात तौर से देखे।

उन्होंने पाया कि जिन वषो्र में एल नीनो की वजह से मध्य प्रशांत सागर खूब तपा उन वर्षो में भारत में सूखे की स्थिति रही। दूसरी ओर जब तापमान में वृध्दि पूर्वी प्रशांत सागर तक सीमित रही, उन वर्षो में एल नीनो के बावजूद सामान्य वर्षा हुई।

मानसून की भविष्यवाणी एक कठिन काम है। इसका एक कारण यह है कि मानसून कोई स्थानीय घटना नहीं है। इस पर तमाम दूर-दूर के कारकों का असर पड़ता है। दूसरा कारण यह है कि मानसून के मामले में कार्य-कारण संबंध स्थापित करना मुश्किल है। हम इतना ही देख पाते हैं कि कई चीजें होने से मानसून अच्छा या खराब रहता है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि उनके कारण ऐसा होता है। इसलिए कृष्ण कुमार के दल द्वारा एक और कारक पहचाना जाना महत्वपूर्ण है। वैसे इस इल के एक सदस्य यू.एस. नेशनल ओशिएनिक एण्ड एट्मॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के मार्टिन होर्लिंग का कहना है कि उपरोक्त अन्तर्सम्बंध का कारण यह है कि जब मध्य प्रशांत सागर गर्म होता है तो उसके ऊपर की हवा गर्म होकर ऊपर उठती है। इसकी वजह से सूखी हवा का एक पिण्ड भारत के ऊपर उतर आता है और बारिश नहीं हो पाती। इन शोधकर्ताओं का मत है कि धरती गर्माने के साथ मानसून तेज होगा, जो कि पिछले कुछ वर्षो में दुर्बल पड़ता नजर आ रहा है।

पेड़ अधिकतम कितने ऊंचे हो सकते है ?

बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर। यह मुहावरा दर्शाता है कि पेड़ों की ऊंचाई हमेशा से अचंभे का विषय रहा है। यह सवाल बार-बार उठता है कि दुनिया का सबसे ऊंचा पेड़ कौन-सा है। और अभी हाल तक सबसे ऊंचा पेड़ होने का रिकार्ड उत्तरी कैलिफोर्निया के एक रेडवुड वृक्ष के नाम था जिसकी ऊंचाई 112.8 मीटर है। मगर फिर हम्बोल्ट स्टेट विश्वविद्यालय के एक दल ने कैलिफोर्निया रेडवुड नेशनल पार्क में रेडवुड का एक और पेड़ खोज निकाला जिसकी ऊंचाई 115.2 मीटर निकली। यानी इसने पुराने रिकार्ड को पूरे 2.4 मीटर से ध्वस्त कर दिया। सवाल यह उठता है कि क्या पेड़ों की ऊंचाई की कोई सीमा है।

चीन के त्सिंगहुआ विश्वविद्यालय के क्वानशुई जेंग का मत है कि ऊंचाई की एक अधिकतम सीमा निश्चित तौर पर है। नेचर में प्रस्तुत अपने पर्चे में उन्होंने इसके कारण भी स्पष्ट किए हैं। जेंग ने बताया कि पेड़ों की अधिकतम ऊंचाई की सीमा का संबंध पानी और कोशिकाओं की स्थिति से है।

यह तो सभी जानते है कि पत्तियों से पानी का वाष्पन होता रहता है। जब पानी भाप बनकर उड़ता है तो इसकी पूर्ति के लिए पानी की जरुरत होती हैं। जड़ें जमीन से पानी खींचती है, जिसे ठेठ ऊपर की पत्तियों तक पहुचाना होता है। इसका मतलब है कि ऊंचाई बढ़ने के साथ यह काम कठिन होता जाता हैं क्योंकि इतने पानी को गुरुत्व बल को विरुध्द ऊपर चढ़ाना होता है। जेंग के दल ने इसी प्रक्रिया का विश्लेषण पेड़ों की 22 प्रजातियों के संदर्भ में करके अधिकतम ऊंचाई की सीमा पहचानी ।

होता यह है कि पत्ती पेड़ पर जिनती अधिक ऊंचाई पर होगी, उसकी मीजोफिल कोशिकाओं में ऋणात्मक दबाव उतना ही कम होता है। इसी ऋणात्मक दबाव के कारण पानी ऊपर चढ़ता है। यदि यह दबाव बहुत कम हो जए तो कोशिकाएं पिचक जाती हैं। यानी इस दबाव को कम करते जाने की एक हद है। इसी कारण से ऊपरी पत्तियों में मीजोफिल कोशिकाएं बहुत छोटी होती हैं। इससे छोटी वे हो नहीं सकतीं और यही पेड़ की ऊंचाई की सीमा है।

वैसे जेंग ने पाया कि भूजल के स्तर, हवा में नमी की मात्रा, तापमान वगैरह का प्रभाव मीजोफिल कोशिकाओं के ऋणात्मक दबाव पर होता है। इसीलिए एक ही प्रजाति के वृक्ष अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग ऊंचाई तक पहुंचते हैं।

***

कोई टिप्पणी नहीं: