बुधवार, 16 सितंबर 2015



मंगलवार, 15 सितंबर 2015

प्रसंगवश
सबके बच्च्े पढ़ेंगे, तभी सुधरेंगे हमारे सरकारी स्कूल
जीवनसिंह ठाकुर
इलाहबाद हाइ कोर्ट ने कहा है कि उत्तरप्रदेश के शासकीय अधिकारी व कर्मचारी अपने बच्चें को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं । न्यायालय का यह निर्णय देश की अंतरात्मा की आवाज भी है । शिक्षा के क्षेत्र में दो वर्ग स्पष्ट है - सरकारी तथा निजी । आज अच्छी शिक्षा के मायने ही यही हो गए हैं कि निजी (गैरसरकारी) संस्थाआें में शिक्षा दिलाई जाए । जब तमाम अच्छी या उच्च्स्तरीय शिक्षा के मानक गढ़ लिए गए हों, तो सरकारी स्कूल या संस्थाएं अपने आप दोयम दर्जे पर धकेल दी गई । शिक्षा के क्षेत्र मेंसभी ओर यह देखा जा रहा है कि सरकारी अफसर, कर्मचारी, पार्षद, विधायक, सांसद, मंत्री के बच्च्े सरकारी के बजाय प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं । स्वयं शाला प्रधानों, शिक्षकों के बच्च्े भी खुद उन्हीं के स्कूलोंके बजाय निजी विद्यालयों में अध्ययनरत हैं । इससे समाज में सरकारी स्कूलोंके प्रति उपेक्षा, हिकारत या खीझ का भाव पैदा हो गया है । जबकि हकीकत यह है कि सबसे ज्यादा शिक्षित-प्रशिक्षित, अनुभवी शिक्षक सरकारी स्कूलों में हैं । फिर क्या बात हैं ? यह बड़ा सवाल है। 
शिक्षा से जूड़े लोगों द्वारा पिछले तीस वर्षोंा में विद्यालयों में किए गए सर्वे से यह चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं कि सरकारी शालाआें को निजी स्कूलोंकी तुलना में अध्यापन हेतु बहुत कम दिन मिलते हैं । राष्ट्रीय स्तर पर यह तय है कि २१० दिन का अध्यापन होता होना चाहिए । निजी स्कूलोंमें तो ऐसा होता है, लेकिन सरकारी विद्यालयों में गैर-शिक्षकीय कार्योंा, मीटिंग, सर्वे, प्रशिक्षण, निरीक्षण तथा अन्य समस्याआें के चलते ५० से ७५ दिन ही उपलब्ध हैं । इस तरह शैक्षिक स्तर पर फर्क स्पष्ट सामने आता है । 
मप्र शासन हर वर्ष परीक्षा परिणामों निरीक्षण रिपोर्ट्स देखकर अफसोस करने की आदत बना चुका है । प्रदेश में बेहतर प्राचार्योंा, श्रेष्ठ शिक्षकों की फौज है । सवाल उन्हें ठीक से मौका देने का है । हमारे प्रदेश के उत्कृष्ट विद्यालय हैं । वे श्रेष्ठ शिक्षण, बेहतर परिणाम इसी सरकारी तंत्र में दे रहे हैं । यदि हमारे शासकीय अधिकारियों, श्रेष्ठि नागरिकों के बच्च्े सरकारी स्कूलोंमें दाखिल होंगे, तो इससे सामाजिक एकजुटता भी पैदा होगी और हमारे जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों का जुड़ाव संस्था से होगा । प्रदेश सरकार को गंभीरता से फैसला कर दूरगामी नीति तैयार करते हुए परिणाममूलक शिक्षा व्यवस्था बनानी होगी ।        
सम्पादकीय
दुनिया का पहला सोलर पॉवर्ड एयरपोर्ट 
 केरल का कोिच्च् इंटरनेशनल एयरपोर्ट पूरी तरह से सौर ऊर्जा से चलने वाला दुनिया का पहला एयरपोर्ट बन गया है । यहां ४५ एकड़ कार्गो एरिया में करीब ४७ हजार सोलर पैनल लगाए गए है । इससे हर दिन करीब ५० से ६० हजार यूनिट बिजली मिलेगी । ये सौर ऊर्जा आने वाले समय में ३ लाख मैट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन रोकेगी । जो करीब ३० लाख पेड़ लगाने के बराबर है । सोलर एयरपोर्ट वीजे कुरियन की दिमाग की उपज है । कुरियन कोिच्च् इंटरनेशनल एयरपोर्ट के मैनेजिंग डायरेक्टर  है । सन् १९९२ में एयरपोर्ट का प्रोजेक्ट बना था । जमीन चुनने से लेकर कब्जा लेने में राजनीतिक गतिरोध, मुकदमेबाजी, फंड की कमी... जैसी  तमाम दिक्कतों को दूर किया । फंड की कमी की वजह से प्रोजेक्ट रद्दी की टोकरी मेंजाने के कगार पर था । वहां से निकालने के लिए पीपीपी का आइडिया दिया । 
एक समय सीआईएएल प्रोजेक्ट की लागत एक हजार करोड़ रूपए आंकी गई थी । एक विदेशी कंपनी ने तो सिर्फ निर्माण कार्योके लिए ५०० करोड़ से ज्यादा का टेंडर दिया था । लेकिन कुरियन ने यह प्रोेजेक्ट ३०० करोड़ रूपए से भी कम में पूरा किया । उन्होनें बड़े-बड़े कंस्ट्रक्शन कार्यो को छोटी-छोटी कंपनियों में बांटा और लागत को सीमित रखा गया । 
कर्मचारियों को प्रोत्साहित करने के लिए कुरियन ने बोर्ड की मदद से कर्मचारियों को शेयर दिए । शुरूआत में कुछ लोग हिचके । लेकिन कंपनी की वित्तीय स्थिति सुधरी तो कर्मचारियों को भी लाभ हुआ । इससे युनियनबाजी खत्म करने में भी मदद मिली । कोिच्च् एयरपोर्ट की संघर्ष गाथा में वीजे कुरियन के प्रयासों पर आइ्रआईएम कोझिकोड के दो प्रोफेसर डॉ.पी रमेशन और डॉ. एस जेयावेलू ने ६२ पेज की केस स्टडी तैयार की है । यह स्टडी बताती है कि कुरियन ने किस तरह मजबूत इरादों के दम पर विश्वपटल पर कोिच्च् एयरपोर्ट को स्थान दिलाया । 
सामयिक
श्रम की निर्विवाद महत्ता
शुभू पटवा
महात्मा गांधी ने शारीरिक एवं मानसिक श्रम, दोनों को बराबर माना और समान महत्ता भी दी । आज की दुनिया रोबोट के माध्यम से भविष्य रचने का प्रयास कर रही है । परंतु शारीरिक श्रम का महत्व हमेशा बना रहेगा ।
यह समझना निरी भूल ही है कि श्रम केवल शरीर से ही होता है । मानसिक श्रम भी श्रम है । यह श्रम विलास नहीं है । परन्तु महात्मा गांधी ने शरीर श्रम को जो महत्व दिया और उसे अपने एकादश व्रत में जोड़ा तो ऐसा उन्होंने शरीर श्रम को प्रतिष्ठा प्रदान करने के लिए ही किया    होगा । उन्हें मानसिक श्रम और शरीर श्रम के मध्य किसी तरह की होड़ नहीं करनी थी । गांधीजी ने यह इसलिए भी किया होगा कि शरीर श्रम की महत्ता दोयम दर्जे की न मानी जाए । दोनों का अपना अपना महत्व है । दोनों प्रतिस्पर्धी नहीं बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं एवं समतुल्य हैं । 
हमारे समाज का यह दुर्भाग्य ही रहा है कि शरीर श्रम को आज भी दोयम ही माना जाता रहा है । यंत्रांे के अपरिमित उपयोग के पीछे का यह भी एक कारण है । छोटे से छोटे स्तर पर जहां यंत्रों का बेहिसाब उपयोग होता है वहां नमबुद्धि का काम है और न शरीर की क्षमता का । एक बार यंत्र को चाहे अनुसार स्थिर करके निश्ंचित हुआ जा सकता है । उस यंत्र से फिर जो भी निकलेगा वह वांछित हो या न हो उस पर किसी का काबू नहीं है । 
मिसाल के तौर पर कपड़े धोने की मशीन को लें या चाहे तो रसोई में काम आने वाली मिक्सी ले लें । कपड़े का कोई दाग छूटा या नहीं मशीन को इससे कोई सरोकार   नहीं । ठीक यही बात मिक्सी की    है । वह कम, अधिक मोटा या बारीक खुद कहां तय कर पाती है । जो डाला गया है उसे पीस कर मशीन को निकाल देना है । वह मोटा है या बारीक कोई सुघड़ नारी यदि बीच बीच में जांच ले तो बात अलग है पर मिक्सी या चक्की का इन बातों से कोई सरोकार नहीं ।
गांधीजी के बारे में कहा जाता है कि वह यंत्र विरोधी थे । वे केवल उन यंत्रों के विरुद्ध थे जो मनुष्य की नैसर्गिक श्रम क्षमता का ह्रास करते हैं । वैसे तो गांधीजी ने चश्मा, घड़ी और चरखा को भी यंत्र ही माना है । वे उबाऊ शरीर श्रम के विरोधी थे । इसीलिए सिलाई मशीन के विरोधी वे नहीं थे । क्या इन सबके उपयोग मे केवल शरीर श्रम ही लगता है बुद्धि नहीं । सिलाई की मशीन से कपड़ा सिलना क्या कला नहीं है ? आपका मन और बुद्धि दोनों जब तक एक साथ जुड़ी न हो और मशीन को चलाने की शरीर क्षमता जब तक न आ जाए तब तक क्या कपड़ा सिला जा सकता है ? इस तरह शरीर मन और बुद्धि का अनूठा तादात्म हम इसमें देख सकते हैं। गांधीजी ऐसे यंत्रों के कभी विरोधी नहीं रहे । 
एक बोध कथा है कि किसी संपन्न व्यक्ति के बगीचे का माली बड़ी सतर्क दृष्टि और पूरी तन्मयता से बगीचे की देखभाल करता है । बगीचे का मालिक भी उसके काम काज से बड़ा संतुष्ट रहता है । हरे भरे बगीचे से खुश मालिक माली से बाग में अंजीर का पौधा लगाने की इच्छा प्रकट करता है । 
मालिक की इच्छानुसार माली अंजीर का पौधा रोप देता है । समय के साथ पौधा पेड़ बन जाता है । पर मालिक की इच्छा तो पेड़ से फल प्राप्त करने की होती है । जो पूरी न होने से मालिक निराश हो जाता है । क्षुब्ध हुआ मालिक बगीचे के रखवाले अपने माली से कहता है कि इस पेड़ ने तो एक भी फल नहीं दिया और निरर्थक ही जमीन घेर ली है । अंजीर के इस पेड़ की क्या जरूरत है इसे हटा दो, काट डालो । माली के धैर्य की यह परीक्षा ही थी । माली बोला मालिक एक साल और रहने दीजिए । मैं थोड़ी कोशिश और कर लेता हूं शायद आपकी आशा फलवती हो जाए । माली की ईमानदारी, काम के प्रति लगन और समझ के आगे मालिक की सहमति स्वाभाविक थी । माली ने उस पेड़ की परवरिश पर कुछ अधिक ध्यान दिया । खाद पानी का पूरा खयाल किया । साल भर बीतते  उसमें फल आने लगे । 
यह कहानी एक ओर जहां माली के श्रम का प्रतिफल बताती है वहीं उसकी समझ और बुद्धि की झलक भी देती है । बगीचे का मालिक नहीं जानता था कि फल कब लगते हैं । कब कैसा और कितना खाद-पानी दिया जाना चाहिए । मालिक की समझ और बुद्धि अपनी जगह महत्वपूर्ण है और उसे उसका सिद्धहस्त भी माना जा सकता है । पर उस माली की समझ और बुद्धि ही अंजीर के पेड़ से फल प्राप्त करने में कामयाब हो सकी । 
यह बात हमें स्वीकार करना चाहिए । यह बोध कथा हमें यह मानने को विवश करती है कि शरीर श्रम, मन और बुद्धि ऐसे मिले जुले युग्म हैं कि किसी एक का नहीं पूर्ण युग्म की महत्ता ही इसमें निहित है। श्रम शरीर और मन के साथ ही उपर्युक्त बोध कथा हमें धैर्य की सीख भी देती है। कोई भी श्रम निरर्थक नहीं होता । पर उसके अपेक्षित फल सदा धैर्य में ही निहित हैं ।  
हम जानते हैं कि यंत्र का संचालन कभी उसकी अपनी समझ से नहीं होता । संचालन तो कोई हाथ ही करता है । यानी कि मनुष्य ही उसे संचालित करता है । यंत्र के  संचालित होने के बाद ही वह चलता है पर अपनी समझ से नहीं बेसमझी से । समझ मनुष्य के मस्तिष्क में ही होती है । गरज यह कि मस्तिष्क से बड़ा कोई यंत्र नहीं और मस्तिष्क मनुष्य के ही पास है । मनुष्य के ही पास दो हाथ और दो टांगे हैंजो शरीर श्रम के प्रतीक हैं । 
स्पष्ट है इन  तीनों के तालमेल से होने वाला श्रम ही सार्थक श्रम है। जो यंत्र इस तालमेल को बिगाड़ते हैं वे न श्रम की महत्ता बढ़ाते हैं और न इस प्रकृति के संपोषक हो सकते हैं । केवल विलास के पोषक हैं । इसीलिए गांधी के ग्यारह व्रतों में शरीर श्रम को एक माना गया कि विलास बेकाबू न    हो । आज इसी के बेकाबू हुए जाने को दंश यह जगत झेल रहा है ।                     
भगवान महावीर ने जिन पांच महाव्रतों की बात की है उनके  दो सूत्र अहिंसा और अपरिग्रह हैं ।  ये दोनों सूत्र किसी भी स्तर पर शोषण का निषेध करते हैं । शोषण न करना प्रकारांतर से श्रम की प्रतिष्ठा करना ही है । जैन मत का विश्वास पुरुषार्थवाद में है । आचार्यश्री महाप्रज्ञजी तो यहां तक मानते रहे हैं कि मनुष्य ने जिन सचाइयों का पता लगाया है वह सब मानवीय श्रम और पुरुषार्थ के द्वारा ही हुआ है । वे तो यहां तक कहते हैं कि श्रम निष्ठा का सिद्धांत जीवनशैली का मुख्य अंग होना चाहिए । आजकल दुनिया भर के मजदूरों क एक होने की आवाज उठतीहै । यह आवाज इस रूप में भी उठनी चाहिए कि हमारी जीवनशैली का मुख्य अंग श्रम निष्ठा ही होगा । यही आज के वक्त का तकाजा है ।
हमारा भूमण्डल 
जलवायु सम्मेलन की राह में रोड़े
मार्टिन खोर 
इस वर्ष की सबसे बड़ी वैश्विक गतिविधियों में से एक दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र संघ जलवायु सम्मेलन के रूप में पेरिस में होगी । 
उम्मीद है कि इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक नया समझौता संभव हो पाएगा । परंतु इसके पहले अनेक बाधाओं को पार करना आवश्यक है । पेरिस समझौते हेतु इस समय बॉन में बातचीत चल रही है । इस बीच पुराने अनसुलझे मुद्दे पुन: उभर आए हैंऔर विकसित देश (उत्तर) एवं विकासशील देशों (दक्षिण) के बीच तीखे मतभेद भी सामने आ रहे हैं। अब यह अत्यन्त कठिन प्रतीत हो रहा है कि बाकी की बची तीन बैठकों जिसमें पेरिस सम्मेलन भी शामिल है, में ये मुद्दे कैसे सुलझ पाएंगे ? परंतु पेरिस में समझौता होना एक राजनीतिक अनिवार्यता है । अतएव येनकेन प्रकारेण मतभेदों को दूर करना होगा अन्यथा कागजी कार्यवाही भर हो पाएगी ।
एक बेहतर जलवायु समझौते हेतु दो अपेक्षाएं हैं । पहला यह कि इसे पर्यावरण को लेकर दूरंदेशी होना पड़ेगा । मतलब यह कि विश्व को उत्सर्जन में इतनी कमी लानी होगी जिससे कि तापमान औद्योगिक काल के पूर्व तापमान से २ डिग्री सेल्सियस (कुछ के अनुसार १.५ डिग्री) से अधिक नहीं बढ़ना चाहिए । वर्तमान में तापमान ०.८ डिग्री सेंटीगे्रड बढ़ चुका है । चूंकि वैश्विक उत्सर्जन एक वर्ष में करीब ५० अरब टन बढ़ रहा है तो इस उत्सर्जन को वातावरण में सोखने का बचा हुआ ''स्थान'' अगले तीन दशकों में (२ डिग्री सेल्सियस की सीमा से पहले ही) ही भर जाएगा ।
यह भी आवश्यक है कि समझौता उचित एवं न्यायसंगत हो । चूंकि मुख्यतया उत्तर भूतकाल में (ऐतिहासिक तौर पर) हुए उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है और आर्थिक तौर पर भी अधिक उन्नत है, ऐसे में उसे उत्सर्जन में कमी लाने के साथ ही साथ दक्षिण को अधिक धन और तकनीक के हस्तांतरण में भी पहल करनी होगी जिससे कि वह कम कार्बन उत्सर्जन वाली विकास राह पर चल सके । समदृष्टि का यह सिद्धांत वास्तव में संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में सन्निहित है और इसे नए पेरिस समझौते में रखा जाएगा । गौरतलब है इसी सिद्धांत के तहत वर्तमान में बातचीत चल रही है । 
दक्षिण के देश इस बात पर जोर दे रहे हैंकि इस सिद्धांत को नए समझौते के केन्द्र में रखा जाए । वास्तव में यह जरुरी भी है क्योंकि यह सम्मेलन के आधीन आता है। लेकिन उत्तरी देश इसे लेकर अत्यन्त अनिच्छुक हैं । उनका दावा है कि अब दुनिया बदल गई है और सभी देशों (अत्यन्त अल्पविकसित देशों को छोड़कर) के साथ एक ही तरह का बर्ताव किया जाए । इससे उनका तात्पर्य है कि एक ऐसी पद्धति निर्मित की जाए जिससे कि सभी देश वर्तमान या भविष्य में उत्सर्जन घटाने के लिए एक से वायदे करें । इसके अलावा अंतरिम रूप से भी सभी देश अनेक तरीकों से अपने वर्तमान व भविष्य में होने वाले उत्सर्जनों में कमी लाएं और वह ऐसा तब भी करें जबकि उनके द्वारा चाही गई तकनीक व धन उन्हें प्राप्त न हो । 
विकासशील देशों का तर्क है कि इस तरह के बर्ताव का अर्थ है कि उत्तर के देश पिछले सम्मेलन में तय अपने वायदों से मुकर रहे हैंऔर इसके परिणाम स्वरूप वह सम्मेलन के सिद्धांतों और प्रावधानों को न केवल नष्ट कर रहे हैं बल्कि नए सिरे से नियम भी लिख रहे हैं। उनकी चिंता का लक्ष्य है कि सारा बोझ उत्तर की बजाय दक्षिण पर डाल देना चाहिए और वर्तमान में उपलब्ध सस्ती तेल आधारित प्रणाली से हटकर रिन्युबल ऊर्जा और अन्य नई तकनीकों के आधार पर स्वयं को रूपांतरित करना । इस हेतु सामाजिक, आर्थिक व तकनीकी क्रांति की आवश्यकता है जो कि अत्यंत महंगी है ।
क्या यह रवैया विकास लक्ष्यों को प्रभावित करेगा ? इसकी लागत का भुगतान कौन करेगा ? इन तकनीकों को सस्ते में कैसे प्राप्त किया जाए ? पेरिस समझौते के अन्तर्गत यदि उत्तर मदद करने के अपने वायदों पर खरा नहीं उतरता है तो दक्षिण कौन से वायदे करे ? वर्तमान बॉन सत्र में ऐसे मसौदे पर उठापटक चल रही है जिसमें इस तरह के अनेक विचार शामिल हैं। इसके कुछ मुख्य मुद्दे हैं :- 
एक सरीखा या अलग-अलग बर्ताव : उत्सर्जन को समाप्त करने या वित्त उपलब्ध करवाने हेतु सभी देशों पर एक सी बाध्यता हो, (जिसकी पैरवी उत्तर ने की है) या देशों की ऐतिहासिक जिम्मेदारियांे एवं विकास के वर्तमान स्तर (जैसा कि दक्षिण का विचार है) के आधार पर अलग-अलग बाध्यताएं हों । 
न्यूनीकरण, अनुकूलन, हानि एवं क्षति में संतुलन : सामान्यतया उत्तर अधिक न्यूनीकरण संबंधी दायित्व (उत्सर्जन कम करना) से संबंधित समझौते पर एकाग्र है । जबकि दक्षिण अनुकूलन (जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के उपाय) और हानि और क्षति (जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप होने वाली हानि व क्षति जैसे तूफान, अतिवृष्टि, बाढ़, अकाल आदि) को लेकर ज्यादा चिंतित है । वहीं उत्तर विशेष रूप से हानि और क्षति संबंधी चर्चाओं का विरोध कर रहा है ।
वित्तीय व्यवस्था : उत्तर ने वायदा किया था कि वह दक्षिण के लिए सन् २०२० तक प्रतिवर्ष १०० अरब डालर उपलब्ध करवाएगा । परंतु अभी तक इसका बहुत कम उपलब्ध कराया गया है । दक्षिण चाहता है कि वित्तीय दायित्व को लेकर पेरिस समझौते में पक्का वायदा किया जाए और ऐसा नक्शा तैयार किया जाए कि किस तरह अब से लगाकर सन् २०२० तक १०० अरब डालर उन तक पहुंचेंगे । लेकिन उत्तर इसका भी प्रतिरोध कर रहा है । 
तकनीक : दक्षिण चाहता है कि उत्तर उन तकनीकों के हस्तांतरण हेतु ठोस प्रतिबद्धता जताए जिनकी भी न्यूनीकरण एवं अनुकूलन में आवश्यकता है। इसमें धन की कमी और बौद्धिक संपदा से संबंधित ऐसे तमाम रोड़े दूर करना जरुरी है जिसकी वजह से लागत में वृद्धि होती है । जबकि उत्तर चाहता है कि दक्षिण व्यावसायिक आधार पर तकनीक प्राप्त करे । इतना ही नहीं वह समझौते में बौद्धिक संपदा जैसे मुद्दों का उल्लेख ही नहीं करना चाहता ।
राष्ट्रों का योगदान : राष्ट्रों से उम्मीद की जा रही है कि वैश्विक जलवायु कार्यवाही हेतु अपने ''योगदान'' की राशि का आंकड़ा प्रकट करें। उत्तर चाहता है कि विकासशील देश भी अधिकतम न्यूनीकरण दायित्व हेतु अपनी राशि का विवरण प्रस्तुत करें । विकासशील देश इस बात को लेकर विचलित हैं कि उत्तर वित्तीय संसाधनांे हेतु अपनी प्रतिबद्धता जाहिर नहीं कर रहा है । इस बीच अनेक विकासशील देशों द्वारा न्यूनीकरण को लेकर बताई गई प्रतिबद्धताएं भी काफी कम स्तर की प्रतीत हो रही हैं । 
वैधानिक बाध्यता : पेरिस समझौते के परिणाम स्वरूप सामने आने वाला समझौता संलेख  (प्रोटोकाल), अथवा कानूनी तौर पर बाध्य समझौता या एक कानूनी ताकत हो सकता है । अभी भी अंतिम रूप से तय नहीं हुुआ है कि यह देशों पर किस प्रकार से बाध्यकारी होगा और यदि कोई इसका पालन नहीं करेगा तो इसके क्या परिणाम    होंगे ।
विकसित और विकासशील देशों के अनेक मत सामने आ रहे   हैं। लेकिन मुख्य मुद्दा यही है कि उत्तर-दक्षिण की तर्ज पर क्या यह व्यापक मतभेद बने रहेंगे ? क्या पेरिस सम्मेलन से पहले यह खाई भर पाएगी और कोई सेतु बन पाएगा ? हमारी जलवायु और मनुष्यता के भविष्य की नियति काफी कुछ इसी पर निर्भर करती है । 
विशेष लेख 
मालवा क्षेत्र मेंरतनजोत की खेती एवं इंर्धन पार्क
उमेश सिंह 
रक्षा जैव ऊर्जा अनुसंधान संस्थान हल्द्वानी (उत्तराखंड) द्वारा डी.आर.डी.ओ. आर्मी बायोडीजल प्रोग्राम के अन्तर्गत सैन्य फार्म महू (मध्यप्रदेश) के १०० हेक्टेयर भूमि में अप्रेल २००७ से एक परियोजना स्थल प्रारंभ किया गया जिसका एक उद्देश्य जट्रोफा की खेतीं कर जैव ईधन पार्क बनाना भी था । 
जट्रोफा पौधरोपण सैन्य फार्म, महू के हरसोला प्रक्षेत्र पर ६० एवं ४० हेक्टेयर के दो भूखण्ड में किया गया है जो महू-सिमरोल सड़क के उतर तथा दक्षिण मेंक्रमश: स्थित है । 
मालवा क्षेत्र में सैन्य फार्म की इस १०० हेक्टेयर की वीरान एवं बंजर भूमि में आज जट्रोफा के पौधे मानसून आते ही हरे-भरे होकर लह-लहा उठते हैंजिनकी संख्या एक लाख से अधिक है । मानसून ऋतु में इस हरे-भरे जैव ईधन पार्क का मनोरम दृश्य देखते ही बनता है । एक ही स्थान पर इतने जट्रोफा पौधों के साथ इतने बड़े क्षेत्रफल में जट्रोफा के अतिरिक्त ५०० करंज के पेड़ भी लगाए गए हैं । करंज के बीज का तेल भी बायोडीजल के लिए उपयुक्त है । 
विदेश से आयातित व इस संस्थान द्वारा प्रविष्टकैमेलिना सेटाइवा (साईबेरियाई सरसों) को जट्रोफा के साथ अंतरफसल के रूप में उगाने पर भी प्रयोग हुआ है । इसका भी तेल अखाद्य श्रेणी में आता है तथा बायोडीजल के लिए उपयुक्त है । जट्रोफा की खेती को लाभकारी बनाने के लिए कई अन्य फसलों की अंतरफसल के रूप में उपयुक्तता का परीक्षण करने हेतु भी प्रयोग किये हैं जिनमें अल्प अवधि वाली अरहर प्रजाति अच्छी उपज के साथ लाभकारी सिद्ध हुई है । अंतरफसल ३-५ वर्ष की अवधि तक ली जा सकती है । 
जट्रोफा (रतनजोत) को जंगली अरंड, व्याघ्र अरंड, रतनजोत, चन्द्रजोत, जमालगोटा आदि नाम से भी जाना जाता है । इसका वानस्पतिक नाम जट्रोफा करकस    है । 
जट्रोफा आमतौर परविश्व के कटिबंधीय तथा उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाता है । इसके प्राकृतिक स्त्रोतोंमें दक्षिणी अमेरिका, मेक्सिको, अफ्रीका, म्यानमार, श्रीलंका, पाकिस्तान तथा भारत प्रमुख हैं । जट्रोफा (रतनजोत) एक बहुवर्षीय छोटे आकार एवं चौड़ी पत्तियों वाला झाड़ीनुमा वृक्ष है । यह ३-५ मीटर लंबा पतझड़ी, नरम छाल युक्त वतेजी से बढ़ने की प्रकृति वाला पौधा है । 
जट्रोफा का अखाद्य तेल डीजल की तरह भौतिक एवं रासायनिक विशेषतायें रखने के कारण एक विश्वसनीय एवं व्यापारिक सहज डीजल का विकल्प होने की क्षमता रखता है । इसे डीजल में ५-२० प्रतिशत तक मिलाकर इंजन की बनावट में बिना कोई परिवर्तन किए प्रयोग किया जा सकता है । 
सामान्यतय जट्रोफा की खेती की संस्तुति बंजर भूमि, जो फसलों की खेती के लिए सर्वथा उपयुक्त न हो, में करने के लिए की जाती है । इसकी खेती सभी प्रकार की भूमियों, जिसमें कम से कम दो फीट गहरी मिट्टी हो, पर आसानी से की जा सकती है । इसे शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है । जिन क्षेत्रों में औसतन वार्षिक वर्षा ६००-७०० मि.मी. तक होती है, वहाँ भी इसकी खेती की जा सकती है । 
जट्रोफा का प्रवर्धन मुख्यत: बीजों द्वारा होता है । इसके अलावा जट्रोफा का प्रवर्धन वानस्पतिक विधि द्वारा भी होता है । जट्रोफा के बीजों के ऊपर का छिलका बहुत कठोर होता है जिसके कारण अंकुरण में काफी देरी तथा कमी आ जाती है । इस समस्या से बचने के लिए इसके बीजों को पूरी रात पानी में भिगोकर रखा जाता है । बीजों को बोने से पहले बारह घंटे गोबर के घोल में रखने तथा अगले बारह घंटे तक गीले बीजों को बोरे में रखने से अंकुरण शीघ्र व अधिक होता है । 
पॉलिथीन की थैलियों में मिट्टी, कम्पोस्ट खाद तथा बालू की मात्रा उपयुक्त अनुपात (२:१:१) में सुनिश्चित कर लें या मृदा क्यारी बना लें । बीज कोइन तैयार थैलियों में  एक से ड़ेढ़ इंच गइराई पर बो देना चाहिए । मृदा क्यारी में बीज की बुवाई पंक्तिबद्ध तरीके से करनी चाहिए । पंक्ति से पंक्ति २० से.मी. व बीज से बीज १० से.मी. की दूरी रखनी चाहिए । जुन-जुलाई माह में रोपाई करने के उद्देश्य से बीजों की बुआई सामान्यत: फरवरी-मार्च के महीनों में कर देनी चाहिए । पॉलिथीन में उगाई गयी नर्सरी के पौधों का रोपण के बाद भी मूसला जड़ बना रहता है जिससे पौधे शीघ्र स्थापित हो जाते हैं तथा बाद में भी सशक्त व जोरदार दिखते हैं । 
इसके लिए जट्रोफा के पूर्ण विकसित पौधे से १५-२० से.मी. लम्बी तथा ३-४ से.मी. मोटी ऐसी कलमें तैयार करनी चाहिए जिनमें कम से कम २-३ गांठें व आखें उपलब्ध हों । इन कलमों द्वारा फरवरी-अप्रैल में पौधे तैयार किए जाते हैं । इन कलमों को सीधे ही पॉलिथीन या क्यारियों में लगा दिया जाता है । लगभग तीन माह बाद पौधे रोपण के लिए तैयार हो जाते हैं । 
सामान्यतया जट्रोफा की खेती असिंचित क्षेत्रों के लिए ही अनुमोदित की जाती है । रोपण करने की शुरूआती अवस्था में पानी देना बहुत ही आवश्यक होता है । लम्बे दिनों तक बरसात न होने की स्थिति में हल्की सिंचाई करनी चाहिए । शुष्क मौसम (मार्च से मई) में दो-तीन सिंचाइयां आवश्यक रहती हैं । 
कोमल पौधों में जड़-सड़न तथा विगलन रोग मुख्य है, इसके उपाय हेतु केप्टान ५० प्रतिशत के ०.२ प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए । वन वृक्ष घास पद्धति से खेती करने पर मालवा क्षेत्र में चूहों के द्वारा पौधे के ग्रीवा के ऊपर की खाल उतारने की समस्या पायी गयी है जिससे पौधे सूख जाते हैंऔर भारी नुकसान का सामना करना पड़ता है परन्तु ऐसी स्थिति में चूहों का किसी भी तरह से रोकथाम कारगर साबित नहीं हो पाता । घास समाप्त् करने पर ही चूहों की रोकथाम संभव हो पाती हैं । 
अधिक से अधिक शाखायें विकसित करने के लिए हमें समय-समय पर कटाई-छंटाई करनी पड़ती है । पहली बार हमें छंटाई १ फीट की ऊँचाई पर करनी है । इससे काफी संख्या में शाखाएं फूटती हैं । दूसरे वर्ष में दो तिहाई ऊँचाई तक की शाखाएं काटनी हैं और ऊपर की एक तिहाई शाखाएं छोड़ देनी है । पौधों के बढ़ने के अनुसार समय-समय पर छंटाई करते रहने चाहिए । फरवरी मार्च का महीना छंटाई के लिए श्रेष्ठ होता है क्योंकि इस समय पौधे सुपुप्त अवस्था में रहते हैं । कटाई-छंटाई से हम जट्रोफा के पौधों को उचित आकार दे पाते हैं जिससे बीजत उत्पादन में भी बढ़ता है तथा पौधों की ऊंचाई नियंत्रण में रहने से फल तोड़ाई भी आसान हो जाती है । 
सामान्य तौर पर जट्रोफा का पौधा दूसरे या तीसरे वर्ष फलना शुरू कर देता है । अप्रैल-मई तथा जुलाई-अगस्त के महीनों में फूल व फल आते हैं । बरसात के समय होने वाले पुष्पन से ही जट्रोफा की मुख्य फसल प्राप्त् होती है । इसके फल अगस्त, सितम्बर एवं अक्टूबर में पक जाते  हैं । बरसात होते ही पौधे में फूल आना प्रारंभ हो जाता है तथा सितम्बर-अक्टूबर माह में हरे रंग के फल पीले होकर काले पड़ने लगते हैं । जब फल का ऊपरी भाग काला पड़ने लगे, तब उसे तोड़ा जा सकता है । जट्रोफा के सभी फलों के एक साथ नहीं पकने की वजह से इनकी तोड़ाई पर खर्च अधिक लग जाता है । 
पांच-छ: वर्ष बाद उत्तम गहराई की कृष्ण कपासी मृदा में उचित देखभाल करने पर जट्रोफा के पौधों से सिंचित अवस्था में ५००-१००० ग्राम बीज प्रतिपौधा तथा असिंचित अवस्था में २५०-५०० ग्राम बीज प्रति पौधा औसत उपज प्राप्त् हो पाती है । यह उपज मध्यम व कम गहराई वाली मृदा में क्रमश: और भी कम हो जाती है । इस प्रक्षेत्र के अनुभव से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि जट्रोफा के पौधे की उत्पादन क्षमता काफी कम है । सिंचित अथवा असिंचित अवस्था के लिए जट्रोफा की अधिक उपज वाली कोई भी प्रजाति अभी तक रिलीज नहीं हो पायी है । 
यही कारण है कि जट्रोफा की खेती लाभकारी सिद्ध नहीं हो पा रही है । मृदा अच्छी होने पर अंतवर्तीय फसल भी ३-५ वर्ष तक ही ली जा सकती हैं । इसके लिए भी बारिश न होने की स्थिति तथा रबी व ज्यादा ऋतु में सिंचाई की उपलब्धता होनी चाहिए जो कि प्राय: संभव नहीं   रहता । यद्यपि जट्रोफा की खेती करने से बंजर, परती व कम पैदावरी भूमि भी उर्वर बन जाती है । अंतत: यह कहना सर्वथा उचित होगा कि जब तक कोई अधिक उपज वाली प्रजाति विकसित न हो जाए, जट्रोफा की खेती के प्रसार पर जोर नहीं देना चाहिए । इसके बीजों में तेल की मात्रा ३०-३५ प्रतिशत तक होती है । 
जट्रोफा के बीजों को साधारणतया १५-२० रूपये प्रति किलोग्राम (या उससे अधिक जैसा बाजार भाव हो) की दर से बेचा जा सकता है । जैव इंर्धन पार्क को पर्यावरण की दृष्टि से देखें तो कार्बन प्रच्छादन होने से कार्बन साख बढ़ने का लाभ मिलेगा तथा जैव इंर्धन पार्क के पर्यावरण मैत्री होने से प्रदूषण भी कम होगा । अगर सही सोच-विचार के साथ हम प्रयत्न करते रहें तो एक न एक दिन हम सस्ती प्रौघोगिकी विकसित कर जैव इंर्धन उत्पादन को किफायती बना पाने में अवश्य कामयाब होंगे जिससे देश की ऊर्जा सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी तथा पेट्रोलियम पदार्थो का आयात घटने में विदेशी मुद्रा की भी बचत होगी । 
रक्षा जैव ऊर्जा अनुसंधान संस्थान हल्द्वानी (उत्तराखंड) द्वारा रक्षा अनुसंधान तथा विकास संगठन के इस कार्यक्रम के अन्तर्गत दो अन्य परियोजना स्थल सैन्य फार्म अहमदनगर (महा.) एवं सिंकदराबाद (तेलंगाना) की क्रमश: २०० से ५० हेक्टेयर भूमि में भी स्थापित किए गए हैं । डीबेर परियोजना स्थल, सैन्य फार्म, सिकंदराबाद में बायोडीजल बनाने हेतु ट्रांसएस्टेरीफीकेशन प्लांट भी स्थापित किया गया है जहां पर जट्रोफा बीज से तेल निकालकर बायोडीजल बनाया जाता है । 
वानिकी-जगत
अनमोल पेड़ों का मोल
डॉ.ओ.पी. जोशी
पेड़ों की उपयोगिता एवं मूल्य का आंकलन नकद मुद्रा में करना कमोवेश असंभव है। अनिवार्यता के चलते यदि पेड़ काटना भी पड़े तो उसका मूल्य उपयोगिता के अनुरूप ही होना चाहिए । कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कहना है कि हरा भरा वृक्ष जी डी पी में योगदान नहीं करता लेकिन कटे वृक्ष से बना फर्नीचर हमारी जी डी पी में योगदान करता है ।
केे न्द्र में एन. डी. ए. सरकार के एक वर्ष पूर्ण होने पर केन्द्रीय वन व पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने अपने मंत्रालय की उपलब्धियांे की जानकारी देते समय यह कहा कि सरकार मौजूदा वन कानून में संशोधन कर पेड़ काटने पर जुर्माना राशि बढ़ायेगी । वर्तमान में यह राशि मात्र एक हजार रुपये है । आजादी के बाद हमने कई क्षेत्रों में अंग्रेजों के बनाये कानून यथावत ही मान    लिये । 
वन कानून के संबंध में भी शायद यही हुआ । अंग्रेजांे के लिए वृक्ष का मतलब केवल लकड़ी या काष्ठ था । सम्भवत: लकड़ी का तात्कालिक बाजार भाव के अनुसार यह जुर्माना तय किया होगा । तब सस्ता जमाना था एवं नौकरियों में लोगों को सौ-दो सौ रुपये मासिक वेतन मिलता था । 
इस सस्ते जमाने में एक हजार रुपये की राशि काफी बड़ी एवं भारी लगती थी । इसीलिए पेड़ों का काटना काफी कम होता था । उस समय पर्यावरण विज्ञान एवं पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) भी अपने प्रारम्भिक चरण में थे । विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों की जानकारी उस समय भी प्राप्त थी । वनों एवं पेड़ांे के पर्यावरणीय योगदान के संदर्भ में ज्यादा शोध, सर्वेक्षण एवं अध्ययन आदि तब तक नहीं हुए थे, या कम हुए थे या उनकी जानकारी प्रचार माध्यमों से लोगों तक नहीं पहुंची   थी । 
सम्भवत: देश में पहली बार जनवरी १९८७ मेंवाराणसी में आयोजित भारतीय विज्ञान कांग्रेस के सम्मेलन में कलकत्ता वि.वि. के प्रो. टी. एम. दास ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया था कि एक पच्चस वर्षीय पेड़ अपने जीवनकाल में १५ लाख ७० हजार रुपये की सेवा प्रदान करता है। इन सेवाओं मंे प्राणवायु देना, ताप नियंत्रण करना, भूमि कटाव रोकना व उपजाऊपन बढ़ाना, पशुओं को प्रोटीन एवं वायु प्रदूषण को कम करना आदि शामिल थे । डा. दास की यह गणना भी लगभग तीन दशक पुरानी है । वर्ष १९८७ से अब तक महंगाई कई गुना बढ़ गयी हैं एवं इस आधार पर यह सेवा एक करोड़ रुपये की है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि अमिताभ बच्च्न के प्रसिद्ध कार्यक्रम कौन बनेगा करोड़पति की हाट सीट पर बैठे बगैर ही पुराने पेड़ करोड़पति हैं ।  
पर्यावरण पर फिल्म बनाने वाले माइक पांडे का तो स्पष्ट कहना है कि एक पेड़ यानी एक करोड़ बायोवेद शोध संस्थान इलाहाबाद के एक अध्ययन के अनुसार एक मनुष्य को वर्ष भर मंे लगभग ५५००० लीटर प्राणवायु (ऑक्सीजन) की जरुरत होती है । १५० रुपये प्रति लीटर के मूल्य से प्राणवायु की कीमत जोड़ी जाए तो यह ८२ लाख रुपये से ज्यादा होती है । इसका तात्पर्य यह है कि केवल प्राणवायु देकर ही एक पेड़ करोड़पति होने के नजदीक है । 
पेड़ों की पर्यावरण में प्रदान की जाने वाली ये सेवाएं मौसम के अनुसार थोड़ी बहुत बदलती रहती    हैं । पतझड़ी वृक्षों में पत्तियों के झड़ने के साथ ही यह सेवा न्यूनतम हो जाती है । सदाबहार पेड़ों में यह सेवा वर्ष भर लगातार समान रूप से चलती रहती है। धूल प्रदूषण भी पर्यावरणीय सेवाओं को थोड़ा प्रभावित करता है । धूल के महीन कण पत्तियों की सतह पर जमा होकर गैसों का आदान प्रदान एवं वाष्पोर्त्सजन को कम कर देते  हैं । 
पेड़ या पेड़ांे के कटते ही उनकी पर्यावरणीय सेवाएं समाप्त हो जाती  है । पर्यावरणीय सेवाओं का जितना मूल्य, कटने पर उतनी ही हानि । वर्तमान में एक पुराना पेड़ काटने पर एक करोड़ की हानि । अमेरीकी वन सेवा के न्यूयार्क स्थित शोध संस्थान के प्रोजेक्ट डायरेक्टर प्रो. डेविड नोवक के अनुसार एक बड़ा पुराना पेड़ छोटे नए पेड़ की अपेक्षा ज्यादा पर्यावरणीय सेवा प्रदान कर ७५ से ८० प्रतिशत प्रदूषण नियंत्रण की क्षमता रखता है । जून २०१५ में दिल्ली सरकार ने भी अपनी केबिनेट बैठक मंे पेड़ हटाने की राशि २८००० से बढ़ाकर ३४५०० रुपये प्रति पेड़ करने की मंजूरी दी है। यह कार्य १९९४ के पेड़ बचाओ अधिनियम के  तहत किया गया है । इसमें यह सुविधा भी दी गयी है कि हटाये गये पेड़ को दूसरी जगह रोपित करने पर १५००० रुपये की राशि वापस की जावेगी ।
पर्यावरणीय मूल्यों को जोड़कर यदि पेड़ काटने की राशि निर्धारित की जाती है तो यह काफी ज्यादा होगी एवं इसका बहुत विरोध भी होगा । लकड़ी के बाजार मूल्य के आधार पर जुर्माना राशि तय की जा सकती है । वैसे राशि इतनी तो होना ही चाहिये कि काटने वाला इस बारे में सोचे एवं उसके मन में एक बार यह विचार आये कि इससे तो अच्छा है कि पेड़ को बचा लिया जाए ।
सामाजिक पर्यावरण
गैर सरकारी संगठनों की विश्वसनीयता
राजकुमार कुम्भज
भाजपा नीत सरकार के केन्द्र में सत्तारूढ़ होने के बाद गैर सरकारी संगठनों को ''लाइन'' पर लाने का कार्य जोरो शोरों से जारी   है । असहमति की आवाज से घबराने की यह परंपरा यू.पी.ए. शासनकाल मंे ही प्रारंभ हो चुकी थी । एनडीए शासन ने इसे नई ऊँचाई प्रदान की है ।
केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने कुछ समय पूर्व जांच पड़ताल के बाद ४४७० गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) के लायसेंस रद्द कर दिए । इसी बरस सरकार ने १३४७० एन. जी. ओ. के लाईसेंस रद्द किए थे । इनमें कई संगठन शामिल हैं जो देश के नामी शिक्षण संस्थाओं और चिकित्सा संस्थानों के संचालन से ताल्लुक रखते हैं । इस सभी के लायसेंस इस आधार पर रद्द किए गए हैंकि इन्होंने विदेशी सहायता नियमन कानून (एफ.सी.आर.ए.) का उल्लंघन किया था । 
गृह मंत्रालय द्वारा इन एन.जी.ओ. को नोटिस का जवाब देने के लिए पर्याप्त समय भी दिया गया था । किन्तु इनमें से ज्यादातर ऐसे रहे जो अपना सालाना रिटर्न ही दाखिल नहीं कर पाए और जिन्होने अपना रिटर्न दाखिल किया उनमें से कई ने आधे अधूरे रिटर्न ही दाखिल करे । 
गृह मंत्रालय ने अपनी जांच में इन संस्थाओं के खिलाफ कई अनियमितताएं पाई थीं जिनका सही-सही निराकरण संस्थाएं नहीं कर  पाई ।  गौरतलब है कि केन्द्र सरकार इससे पहले भी ग्रीन पीस सहित कई नामीगिरामी संगठनों के खिलाफ लायसेंस रद्द करने की कारवाई कर चुकी है । हालांकि इन संस्थाओं का सरकार विरुद्ध विरोध जारी है और मामला आदालत में विचाराधीन है । लायसेंस रद्द हो जाने की वजह से अब येे संगठन विदेशी चंदा नहीं ले सकेंगे । इस अवधारणा से असहमति नहीं है कि गैर सरकारी संगठनों को आज लोकतंत्र का पांचवाँ स्तंभ माना जाता हैं । इसमें भी दो मत नहीं हैं कि कार्पोरेट दुनिया में इन संगठनों की मांग में तेजी से इजाफा हुआ    है । 
इसके बावजूद अभी भी ऐसे संगठनों की संख्या कम नहीं है जोे पूरी ईमानदारी, लगन, सेवाभाव, समर्पण और मानवीय प्रतिबद्धता से अपने काम को अंजाम दे रहे हैं । ये संगठन वंचित तबकों को उनके  हिस्से का न्याय, अधिकार और लोकतंत्र दिलाने की लड़ाई भी सच्च्े आशय से लड़ रहे हैं लेकिन ऐसे एन.जी.ओ. की आड़ में कुछ ऐसे भी पल बढ़ रहे हैंजिनकी गतिविधियां संदिग्ध प्रतीत होती है ।
कुछ ऐसे ही संदिग्ध एन.जी.ओ. के लिए तथाकथित सामाजिक गतिवधियों का संचालन करना एक लाभकारी उद्योग बन गया है। ये धंधेबाज लोेग एक से अधिक संस्थाओं का अलग-अलग नामों से पंजीकरण करवा लेते हैंऔर देश-विदेश से भारी चंदा उगाही करने में सक्रिय हो जाते हैं । कुछ निपुण दलाल लोगों ने इस परोपकार में अपने हिस्से का भी परोपकार ढूंढ लेने का जुगाड़ कर लिया है । ये लोग अपना कमीशन लेकर किसी भी व्यक्ति के लिए अलग-अलग नामों से कई-कई संस्थाओं का पंजीकरण कराने से लेकर अनुदान दिलाने, कागजों में खर्च दिखाने और फिर तमाम रकम आपस में खुशी-खुशी बांट लेने तक का हुनर बखूबी जानते हैं । 
यही वजह है कि आज एक ही व्यक्ति की जेब में ऐसे कई-कई एन.जी.ओ. रखे हुए हैं और इनके कर्ताधर्ताओं के पास अकूत धन संपदा एकत्रित हो रही है। इस अपार घपलेबाजी के तमाम उदाहरण उपलब्ध हैं। वैसे इसका प्रारंभ उदारीकरण के प्रारंभ से माना जा सकता है । इन तमाम घपलेबाजियों को जानने समझाने की ना तो किसी को फूरसत है और न ही चिंता कि इस सबसे आखिर किस असल सरोकार को सिरे से ध्वस्त किया जा रहा है ?  
इस बात से भी किसी को कोई मतलब नहीं है कि वंचितों के असल अधिकारों को कौन किस तरीके से लूटने में लगा है ? देश-विदेश से धन एेंठने में ये एन.जी.ओ. कितनी बेईमानी, कितने झूठ और कितनी मतलब परस्ती से काम लेते है ? ये जानते हैं कि उनके द्वारा एकत्रित किए गए धन का हिसाब-किताब पूछने वाला कोई नहीं है ? इसलिए ये लोग खर्चों का झूठा-हिसाब किताब सिर्फ कागजों पर तैयार करके सारा धन खुद हड़प कर जाते हैं ।  
संभव है कि इन संदिग्ध एन.जी.ओ. के लायसेंस रद्द करने की इस सरकारी कार्यवाई का खामियाजा उन असंदिग्ध एन.जी.ओ. को भी भुगतना पड़ सकता है जो अपने कर्तव्यों का निर्वहन संपूर्ण संकल्प, ईमानदारी और प्रतिबद्धता से करते रहे हैं । बहुत संभव है कि समर्पित एन.जी.ओ. के पारदर्शी क्रियाकलापों में सरकार की इस कारवाई से कुछ बाधाएं भी पैदा हांे । सूचना, शिक्षा, भोजन और रोजगार का अधिकार ऐसे ही समर्पित गैर सरकारी संगठनों की गंभीर लड़ाई का नतीजा हैं । इन्हें पाने की खातिर कुछ लोगों का अपनी जान तक से हाथ धोना पड़ा है । इसलिए जरूरी हो जाता है कि विश्वसनीयता पारदर्शिता और प्रतिबद्धता के सम्मान के रक्षार्थ फर्जी एन.जी.ओ. को सिरे से न सिर्फ प्रतिबंधित किया जाए बल्कि उनके विरुद्ध सख्त से सख्त वैधानिक कारवाई भी की जाए ।
अभी हाल-फिलहाल में जिन एन.जी.ओ. के लायसेंस रद्द किए गए हैं उनमें महाराष्ट्र के सबसे ज्यादा ९६४ हैं । इसी तरह उत्तरप्रदेश के ७४०, कर्नाटक के ६१४ और तमिलनाडु के ८८ एन.जी.ओ. के लायसेंस केन्द्र सरकार के  गृहमंत्रालय से रद्द हो जाने के बाद ये संगठन अब विदेशी चंदा नहीं ले सकेंगे । तमाम आरोप प्रत्यारोपों के मध्य यह बात आम जनता तक पहुंचनी चाहिए कि गैर सरकारी संगठन अंतत: किसके हित में कार्य कर रहे हैं । 
प्रदेश चर्चा 
हिमाचल प्रदेश : वन अधिकार कानून का मखौल
कुलभूषण उपमन्यु
हिमाचल प्रदेश सरकार वन अधिकार अधिनियम का उल्लंघन कर वनवासियों को जबरन बेदखल कर रही है। ऐसा उच्च् न्यायालय के फैसले की आड़ में किया जा रहा     है । आवश्यकता इस बात की है कि वन अधिकार कानून का अनुपालन उसकी मूल भावना के अनुरूप ही   हो ।
पिछले दिनों में हिमाचल प्रदेश के वन विभाग ने ऊपरी शिमला के रोहडू व अन्य स्थानों में वन भूमि पर लगे सेब के बगीचों, जिसमें सेब की फसल तैयारी थी, को निर्ममता से काट डाला । अप्रैल माह में गोहर में भी एकऐसे बगीचे को काटा गया था, जिसमें फूल लग रहे थे । कांगडा तथा प्रदेश के अन्य हिस्सों में घरों से बिजली व पानी के कनेक्शन काटे गए तथा कुछ घरों को तोड़ दिया  गया । यह घृणित कार्य सरकार के ही एक विभाग ने हिमाचल उच्च् न्यायालय के ६ अप्रैल २०१५ व इससे पहले के आदेशों की आड़ मंे किया । 
इसमें सरकार द्वारा छोटे व गरीब किसानों पर ही गाज गिराई, जबकि बड़े किसानों तथा प्रभावशाली लोगों पर यह कार्यवाही नहीं की   गई । यह मामला उच्च् न्यायालय में वर्ष २००८ से चल रहा है जिस पर इससे पहले भी न्यायालय ने कई आदेश जारी किए थे । दूसरी ओर प्रदेश सरकार ने आज तक इस पर वन अधिकार कानून की बाध्यता संबंधी पक्ष न्यायालय मंे नहीं रखा । ऐसे में केवल आदेश के आधार पर वन विभाग की सक्रियता पर शंक पैदा होता है और सरकार की वन अधिकार कानून को न लागू करने की नियत को भी दर्शाता है ।
सरकार के संज्ञान में यह बात आनी चाहिए थी कि उच्च् न्यायालय का यह फैसला कानून संगत नहीं है क्योंकि वनाधिकार कानून २००६ इसके आड़े आता है। उक्त कानून के प्रावधानों के मुताबिक जब तक वन अधिकारी की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती तब तक आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासी को किसी भी तरह से उनके परंपरागत वन संसाधनों से बेदखल नहीं किया जा सकता । नियमगिरी के फैसले में उच्च्तम न्यायालय ने भी यह प्रस्थापना दी है । सरकार को उच्च् न्यायालय में इस पर दखल व पुनरावलोकन याचिका दायर करनी चाहिए थी । 
गौरतलब है वन अधिकार कानून के तहत मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली राज्यस्तरीय निगरानी समिति ने अगस्त २०१४ में प्रस्ताव पारित करके सरकार से अनुरोध किया था कि इस निर्णय पर उच्च् न्यायालय में पुनरावलोकन याचिका दायर करे परंतु सरकार की ओर से ऐसी कोई भी पहल नहीं हुई । जिसका कब्जा हटाया गया है ऐसा कब्जाधारी वन अधिकारी समिति व ग्रामसभा में अपने दखल को सही व १३ दिसंबर २००५ से पहले का साबित करवा लेता है तो ऐसी स्थिति में कब्जा हटाने, घर तोड़ने व सेब के हरे पेड़ काटने वाले पुलिस व वन विभाग के कर्मचारियोंे के खिलाफ उच्च्तम न्यायालय के हरे पेड़ काटने पर प्रतिबंध निर्देशों, अधिकार व कानून के प्रावधानों तथा वन संरक्षण अधिनियम १९८० के तहत कानूनी कार्यवाही भी हो सकती हैं।
यह मामला पिछली सरकार के वक्त से चल रहा है। ज्यादातर कब्जे २००२ के हैं । उस समय की सरकार ने नाजायज कब्जे बहाल करने के आदेश दिए थे । दूसरी बार भी सत्ता में आने के बावजूद वह अपने इस फैसले को लागू नहीं करा सकी । वन अधिकार कानून को लागू करने पर पिछली सरकार ने भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई । वर्तमान प्रदेश सरकार तो आज भी वनाधिकार कानून २००६ के अनुसान सोचने को तैयार नहीं है । इसलिए सरकार का यह कहना अनुचित है कि हम छोटे किसानों के कब्जे बचाना चाहते हैंऔर उन्हें नौतोड़ दंेगे। उनसे पूछना चाहिए कि किस कानून के तहत कब्जों को बहाल किया जा सकता है व नौतोड़ दी जा सकती है ? आज ऐसा कोई भी कानूनी प्रावधान नहीं है । केवल वन अधिकार कानून तथा भारत सरकार की वर्ष १९९० की  अधिसूचना के तहत ही कब्जों का नियमितीकरण हो सकता है । यह भी तथ्य है कि जब से वन संरक्षण अधिनियम १९८० लागू हुआ है तभी से प्रदेश में नौतोड़ बांटना बंद हुआ है जो आज भी लागू है । 
इसलिए सरकारी बयान असत्य व तथ्यों से परे हैं । वन भूमि खेती के लिए ऐसे में लीज पर भी नहीं दी जा सकती । इस हेतु वन संरक्षण अधिनियम १९८० में संशोधन होना चाहिए परंतु यह संसद में ही पारित हो सकता है जो आज संभव नहीं है । ऐसे में  एक ही रास्ता है कि सरकार वन अधिकार कानून २००६ को ईमानदारी से लागू करे और १३ दिसंबर २००५ तक के उचित कब्जों व वन भूमि पर आजीविका के लिए वन निवासियांें द्वारा किया दखल का अधिकार का पत्र किसानों को दिलवाया जाए । 
वन अधिकार कानून के तहत प्रदेश के किसान, जो आदिवासी हों या गैर आदिवासी, के १३ दिसंबर २००५ से पहले के कब्जे नहीं हटाए जा सकते बल्कि उन्हें इसको अधिकार पत्र का पट्टा मिलेगा बशर्ते वह इस पर खुद काश्त करते हों या उनका रिहायशी मकान हो । प्रदेश के सभी गैरआदिवासी किसान भी    इस कानून के तहत अन्य परंपरागत वन निवासी की परिभाषा में आते   हैं क्याोंकि वे यहां तीन पुश्तों से    रह रहे हैं और आजीविका की जरुरतों के लिए वन भूमि पर निर्भर हंै । 
इसलिए पूरे प्रदेश के तकरीबन सभी किसानों पर यह कानून प्रभावी है । ऐसे में वन भूमि पर दखल को नाजायज कब्जा नहीं कहा जा सकता । यह आजीविका की मूल जरुरतों के लिए किया गया दखल है जिस पर ग्रामसभा निर्णय लेने का अधिकार रखती है । ग्रामसभा ही इसे नाजायज कब्जा या निजी वन संसाधन के अधिकार के रूप मंे मान्यता दे सकती है ।
कब्जा हटाने का यह आदेश किसानों के ही विरुद्ध लिया गया एकतरफा फैसला है । जबकि जल विद्युत परियोजनाओं, निजी उद्योगों ने कई जगह कई बीघा वन भूमि पर नाजायज कब्जा कर रखा है । उस पर न्यायालय व सरकार द्वारा आज तक कोई भी दंडात्मक कार्यवाही नहीं की गई । इसी तरह के हजारों नाजायज कब्जे सरकारी उद्योगों तथा सरकारी प्रतिष्ठानांे ने भी कर रखे हैं। 
हिमाचल सरकार ने उच्च् न्यायालय में उसके आदेश में आंशिक संशोधन के लिए २५ जुलाई २०१५ को आग्रह पत्र दायर किया है और न्यायालय से आग्रह किया कि नाजायज कब्जे से छीनी गई भूमि के पेड़ों को वन विभाग को सौंपा जाए । यह आग्रह ही अपने आप में गैरकानूनी व असंवैधानिक है । क्योंकि वन निवासी का वन भूमि पर दखल अगर १३ दिसंबर २००५ से पहले का है तो उस भूमि पर उसी किसान का कानूनी अधिकार बनता है । उच्च् न्यायालय का इस पर दिया गया २७ जुलाई का फैसला भी अनुचित है और इसे कानून सम्मत नहीं माना जा  सकता । 
सरकार को चाहिए कि हिमाचल उच्च् न्यायालय के इस आदेश के स्थगन हेतु उच्च्तम न्यायालय में याचिका दायर करे । वन अधिकार कानून को पूरे प्रदेश में अक्षरश: लागू करे व वन अधिकार के लंबित पड़े सभी दावों का तुरंत निपटारा किया जाए । इस पर भारत सरकार ने प्रदेश सरकार को १० जून २०१५ को आदेश जारी किया है और कहा है कि छ: माह के अंदर इस कानून को लागू करने की सभी प्रक्रियाएं  पूरी की जाएं । १३ दिसंबर २००५ से पहले के सभी कब्जे/दखल जो खेती व आवासीय घर के लिए दिए गए हैंके अधिकार पत्र के पट्टे प्रदेश के किसानों को सौंपे जाने चाहिए । 
जिन किसानों के विरुद्ध वन व राजस्व विभाग द्वारा नाजायज कब्जे की प्राथमिकी दर्ज की हैंवे सभी गैरकानूनी हैं उन्हें तुरंत वापस किया जाना चाहिए । वन अधिकार कानून संसद में पारित एक विशेष अधिनियम है जिसके तहत जब तक वन अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती तब तक इस तरह की बेदखली की कार्यवाही गैरकानूनी है ।
पर्यावरण परिक्रमा
हम जहर खाने को मजबूर
हमारी थाली में जहर परोसा जा रहा है, इसका भान दूसरे देशों से आ रहीं खबरों से हो रहा हैं । हाल ही में भारतीय फल, सब्जियों और चाय का यूरोपियन यूनियन देशों और सऊदी अरब ने जहरीला बताते हुए आयात पर अस्थाई प्रतिबंध लगा दिया । यह आश्चर्य का विषय हैं कि भारतीय चाय में अभी भी डी.डीटी. की मात्रा पाई जाती है । 
अपने देश में अब तक लगभग १९० प्रकार के रसायनों, कीटनाशकों या फंफूदी नाशकोंका पंजीयन हुआ है जिनमें से केवल ५० की बर्दाश्त क्षमता से हम भिज्ञ हैं । शेष के बारे में अंधेरे में हैं । इनके अलावा नकली दवाआें की लम्बी सूची भी हैं । मासलेकर समिति की सिफारिश पर संसद में संशोधन विशेयक यही सोच कर लाया गया था कि कुछ नकेल लगे पर बात न बनी । डी.डी.टी., बी.एच.सी., काबानेट, इन्डोसल्फान, डेलड्रीन जैसे रसायन, कृषि एवं स्वास्थ्य क्षेत्र में धड़ल्ले से प्रयुक्त हो रहे हैं जो विदेशों में प्रतिबंधित हैं । इस प्रकार देश में कुल ४० ऐसी दवाएं कृषि क्षेत्र में प्रयोग में लायी जा रही हैं जो बाहर प्रतिबंधित हैं । हमारे यहां कीटनाशकों का बेचना या खरीदना, नियंत्रित नहीं है । सल्फास की गोलियां पंसारी की दुकान पर भी मिल जाती हैं । 
कीटनाशकों के प्रयोग में जैसी लापरवाही बरती जा रही हैं, उससे न केवल प्रयोगकर्ता के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है अपितु हवा, पानी और सभी प्रकार के खाद्य पदार्थ विषैले हो रह हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार मां के दुध में डी.डी.टी. की मात्रा, मनुष्य के शरीर के निर्धारित सामान्य मात्रा से ७७ गुना अधिक हो चुकी है । 
कीटनाशकोंके प्रयोग से पानी विषैला हो रहा है । पानी के विषैले होने के कारण जमीन की ऊर्वरकता घट रही है । पानी में रहने वाले तमाम उपयोगी जीव-जन्तु जैसे घोंघा, सीपी, मेढ़क और छोटी-छोटी मछलियों की प्रजातियां हमेशा के लिए समाप्त् हो रही हैं । 
हमारे देश के ज्यादातर किसान अशिक्षित हैं । तमाम कीटनाशकों की खरीद और प्रयोग वे दूसरे किसानों से पूछ कर करते हैं । पानी और उनमें मिलाए जाने वाले कीटनाशकों की मात्रा उचित नहीं रखी जाती । दवाआें के साथ दिए गए निर्देशों को ज्यादातर किसान पढ़ नहीं पाते । इस कारण अंदाज से घोल तैयार किए जात हैं । 
छिड़काव के समय और बाद जरूरी सावधानियां नहीं बरती जाती  हैं । सब्जियों के ऊपर कीटनाशको को छिड़कने के कितने दिनोंबाद बाजार में लाया जाना चाहिए, इसका ख्याल नहीं रखा जाता । इस प्रकार सब्जियों और फलों के छिलकों में घुला कीटनाशक हमारे शरीर में पहुंच रहा है । दुधारू पशुआें के स्तनों में आक्सीटोक्सीन सूई लगाकर दूध निकाला जा रहा है जो हारमोन्स अंसतुलन, गुर्दे की खराबी, कैंसर और बच्चें में मानसिक विकृतियां पैदा कर रहा है । कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण हमारे देश में गुर्दे, त्वचा, बांझपन, अल्सर और कैंसर की बीमारियां तेजी से बढ़ी हैं । इसलिए जरूरी है कीटनाशकों का अधिक प्रयोग रोका जाए । 
नर्मदा बचाओ आंदोलन के तीन दशक
संघर्ष सिर्फ इतना है-विकास चाहिए, विनाश नहीं । यह छोटी सी बात को समझाते, लड़ते, जूझते तीन दशक बीत गए । नर्मदा घाटी में ३० साल पहले गांव-गांव में शुरू हुई यह चिंगारी एक बड़े आंदोलन के रूप में सामने आई । नर्मदा घाटी और यहां के लोगोंको बचाने का आंदोलन । तब से यह लंबा संघर्ष चल रहा है । आंदोलनकारियों की लंबी लड़ाई अभी चल रही है । 
गुजरात में सरदार सरोवर बांध के निर्माण की शुरूआत के साथ ही आंदोलन शुरू हुआ । तीन राज्यों को प्रभावित करने चाले बांध से होने वाले असर को लेकर शुरूआत से ही विरोध के स्वर उठने थे । ऊंचाई के साथ-साथ विरोध के स्वर भी बढ़ते गए । नर्मदा पर छोटे-बड़े बांध बने तो उतने ही विस्थापितों की आवाज का दमन भी । लाठीचार्ज, जेल और कई और यातनाएं । नर्मदा बचाओ आंदोलन एक ऐसा आंदोलन जिसकी कोई जरूरत नहीं होती अगर सरकारी नीतियां सही होती, नीयत सही होती । गरीब मजदूरों के अधिकरों पर संवेदनशीलता होती । देश की यह ऊर्जा किसी अन्य कार्य में लगाई जा सकती थी । 
आंदोलन ने दुनिया को बहुत कुछ नया सोचने पर मजबूर कर दिया 
पुनर्वास के बिना बांध की बात नहीं :  अब दुनिया में कहीं भी बांध की बात होती तो है तो पहले पुनर्वास की बात होगी । 
विश्व बैंक ने पैनल बनाया : फंडिग प्रोजेक्ट से प्रभावितों के लिए एक पैनल विश्व बैंक ने बनाया है। यह पैनल प्रोजेक्ट से होने वाले प्रभावें का अध्ययन करता हैं । नेपाल में ऐसे ही एक बांध का काम रोक दिया गया ।
कोर्ट ने दिए हक के फैसले : यह अंादोलन की कोशिश ही रही कि सुप्रीम कोर्ट भी विस्थापितों की बात से सहमत हुआ । १९९४ के एक फैसले में पूरा निर्माण ही रोक दिया गया । चार साल बाद सशर्त निर्माण की अनुमति दी । २००५ में व्यस्क पुत्र को अलग से जमीन की पात्रता मिली । २०११ सरकार ने इस पर अपील की । 
जमीन का अधिकार : संघर्ष का नतीजा है कि विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन मिली । 
नागरिक शक्ति का उदय : आंदोलन से एक गैर राजनीतक शक्ति का उदय हुआ । डूब प्रभावित और आदिवासी बहुल गांवों में जागरूक ता बढ़ी । लोग अपने अधिकारों के लिए आगे आए । 
पहले खुद अमल करता है ग्रीन ट्रिब्यूनल
सेन्ट्रल जोन का नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) महज आदेश जारी करने वाला कोर्ट नहीं है। ट्रिब्यूनल के कैंपस में भी पर्यावरण का ख्याल रखा जाता है । वह भी आदेश से नहीं, अनुशासन से । भोपाल स्थित कैंपस में जस्टिस, वकील, कर्मचारी सबकी गाड़ी पर पॉल्यूशन अंडर कन्ट्रोल सर्टिफिकेट चस्पा है । पॉलीथिन का इस्तेमाल नहीं होता । एनजीटी बार एसोसिएशन के वकील और कर्मचारी भी घर से दफ्तर तक पर्यावरण के प्रति इतने सजग रहते  हैं । अप्रैल २०१३ से भोपाल में स्थापित इस सेन्ट्रल बेंच ने ४०० से ज्यादा मामलों में आदेश दिए हैं । उन पर अमल हो रहा है या नहीं इसकी निगरानी भी करती है । सेन्ट्रल जोन के दायरे में तीन राज्य मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान आते हैं । 
यहां प्रिंट नहीं निकाले जाते - प्रिंट लेने की सख्त मनाही   है ।  जरूरी होने पर ही इक्का-दुक्का प्रिंट लिए जाते हैं । जरूरी दस्तावेज की सॉफ्ट कॉपी मेल या पेन ड्राइव पर ही मिलती है । आखिर पेड काटकर ही तो कागज बनते है । 
पॉलिथिन बैन नहीं, पर अनुशासन - लगता है कि कैंपस में पॉलीथिन पर रोक है । पर यह आदेश  नहीं अनुशासन है । स्टाफ टिफिन बॉक्स भी जूट बैग में लाते है । खुद न्यायाधीश भी । फाइलों के कवरतक के पॉलीथिन वर्जित है । 
दिन मेंकमरे में लाइट नहीं जलती - दिन के वक्त लाइट के स्विच ऑफ रहते हैं । रोशनी के लिए खिड़कियां ही खुली रखी जाती है । देर शाम तक काम चला तो लाइट का इस्तेमाल होता है वो भी कम से   कम ।
एसी कूलिंग २४ डिग्री से कम नहीं - साफ आदेश है कि एसी की कूलिंग २४ डिग्री से कम नहीं होगी । आखिर इससे भी तो जरूरत से ज्यादा बिजली लगेगी । न्यायाधीश के कक्ष में कूलिंग २६ डिग्री पर रखी जाती है । 

पानी में डूबी जमीन भी रहेगी सूखी 

आपने पानी में तैरते और डूबते उतराते ऐसे जीव देखे होगे, जो पानी की सतह पर रहते हुए भी भीगते नहीं है । अधिकतर मछलियां भी पानी में रहते हुए भी भीगती नहीं है । यह बात आपको चौकाने वाली लग सकती है, लेकिन ऐसा बिलकुल संभव है । नई तकनीक से पानी में रहकर भी वस्तुआें या जमीन को सूखा रखा जा सकेगा । 
इस तकनीक से पानी में डूबी सामग्री को भीगने से बचाया जा सकेगा । यहां तक कि पानी मेंडूबी वस्तुएं या धरातल को भी सूखा रखा जा  सकेगा । यह तकनीक विकसित की है अमेरिका में भारतवंशी थ्यूरेटिकल मैकेनिकल इंजीनियर नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के नीलेश ए. पाटनकर   ने । नीलेश ए. पाटनकर के अनुसार हमने सबसे पहले ठोस पदार्थ की पहचान की, जिसमें वाष्पीकरण की प्रक्रिया हो सके । इसमें गैसों का ऐसा भंडारण होगा, जो धरातल को भीगने से रोकेगा । नैनो टेक्नोलॉजी पर आधारित यह ऐसा टेक्सचर है, जिसके नीचे पानी रत्तीभर भी नही पसीजेगा । जिस सतह पर इसे चस्पा कर दिया जाए, वह सूखी रहेगी । इसकी मोटाई एक माइक्रोन से भी कम है । एक-एक मीटर का दस लाखवें हिस्से से भी कम है । 
यह टेक्सचर वास्तव में गैसों का ऐसा मिश्रण अपने साथ लिए हुए है, जिससे पानी रिसने की बजाय वाष्पीकृत होगा और कोटेट मटेरियल को संरक्षित करेगा । नैनो तकनीक पर आधारित होने से इसे कोटिंग की तरह धरातल या किसी भी सतह पर लगाया जा सकेगा । 
कविता
पर्यावरणीय दोहे 
डॉ.मेहता नगेन्द्र सिंह

नदी किनारे सभ्यता, उपजी पहली बार । 
साथ-साथ विकसित हुआ, मानव का संसार । । 
मानव करता है अधिक, धरती का उपभोग । 
दोहन का कारण यही, ऐसा है संयोग ।।
धूल-धुआँ से भर गया, यह नीला आकाश ।
मैली हालत देखकर, धरती हुई उदास ।।
बंजर धरती रो रही, सिसक-सिसक बेजार ।
इसको तो बस चाहिए, हरियाली का प्यार ।।
धरती माँ के वक्ष पर, कैसे पड़ी दरार । 
कारक इसका कौन है, पूछ रहा संसार ।।
पादप खड़ा पहाड़ पर है बरसाता मेघ ।
वृक्षविहीन जमीन पर, कभी न छाता मेघ ।।
गरमी इतनी तेज हैं, नहीं गगन में मेह ।
नदी-ताल सब रेत हैं, कौन जताए नेह ।। 
मेघ बिना बारिश नहीं, कैसे उपजे धान ।
ताक रहा आकाश को, धरती-पुत्र किसान ।।
पादप की पूजा करें, देता जीवन-दान ।
इसीलिए यह जान लें, होता वृक्ष महान ।।
धुआँ उगलती चिमनियाँ रहती हैं दिनरात ।
अक्सर करती हैं यहाँ, अम्लों की बरसात ।।
अम्लों की बरसात से, होता नष्ट अनाज ।
दीिप्त्, धवलता खो रहा, शाहजहाँ का ताज ।। 
कृषि जगत
आ रही हैंअधिक उपज देने वाली फसलें 
डॉ. अरविन्द गुप्त्े
सायनोबैक्टीरिया नामक सूक्ष्मजीवों का एक बहुत प्राचीन समूह है । इनमें क्लोरोफिल नामक हरा पदार्थ पाया जाता है और इसकी सहायता से वे सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करते हुए कार्बन डाईऑक्साइउ और पानी से कार्बोहाइड्रेट समूह का स्टार्च (मंड) नामक पदार्थ बना सकते हैं । 
इस प्रक्रिया को प्रकाश संश्लेषण  कहते हैं । इस पदार्थ का उपयोग वे भोजन के रूप में करते   हैं । दूसरे शब्दों में, वे सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करके अपनी शारीरिक गतिविधियों के लिए ऊर्जा प्राप्त् करते हैं । यह प्रक्रिया रूबिस्को नामक एन्जाइम के कारण संभव हो पाती है । यह एन्जाइम संसार का सबसे महत्वपूर्ण एन्जाइम है क्योंकि यह उस अभिक्रिया को उत्प्रेरित करता है जिसमें वातावरण में स्थित कार्बन डाईऑक्साइड को स्टार्च में बदला जाता है । किनतु रूबिस्को के साथ दिक्कत यह है कि यह बहुत धीरे काम करता है । यह एक सेकंड में केवलतीन अभिक्रियाएं करवा सकता है जबकि दूसरे एन्जाइम हजारोंकरवा देते हैं । 
आज से कोई दस करोड़ वर्ष पहले पानी में रहने वाले कुछ जीवधारियों ने इन सायनोबैक्टीरिया को निगल लिया और तब एक चमत्कार हुआ । बैक्टीरिया का जीवन समाप्त् नहीं हुआ, वे उन्हें खाने वाले जीवधारियों के शरीर में कैद हो कर रह गए और कैद करने वालोंके लिए सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करते हुए स्टार्च बनाने लगे । यही बैक्टीरिया पौधोंकी कोशिकाआें में आजकल पाए जाने वाले हरितलवक यानी क्लोरोप्लास्ट हैं । भोजन बना सकने वाले इन कैदियों की बदौलत इन्हें आत्मसात करने वाले जीवधारियों की पौबारह हो गई । वे एक कोशिकीय से बहुकोशिकीए बन गए, आकार और संख्या में तेजी से बढ़ने लगे और कालांतर में पानी से बाहर निकल कर सारी पृथ्वी पर फैल कर उसे हरा-भरा बना दिया । इन्हीं जीवधारियों को हम पौधे कहते हैं । 
किन्तु इस सारी प्रक्रियामें एक समस्या पैदा हो गई । रूबिस्को का विकास तब हुआ था जब वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की बहुतायत थी और ऑक्सीजन नहीं थी । वर्तमान में ऑक्सीजन बहुत है और कार्बन डाईऑक्साइड कम, जिसका परिणाम यह होता है कि जितनी ऊर्जा खर्च होती है उस अनुपात में स्टार्च का उत्पादन नहीं हो पाता है । इस कमजोरी के कारण पौधे सूर्य की ऊर्जा का अधिक कार्यक्षम तरीके से उपयोग नहीं कर पाते हैं । 
कैद में बंद सायनो-बैक्टीरिया, जो अब क्लोरोप्लास्ट बन बए हैं, को विकास का अवसर नहीं मिला जबकि स्वतंत्र रूप से रहने वाले उनके भाईबंधु, यानी सायनोबैक्टीरिया, विकसित होकर अपनी प्रकाश संश्लेषण की मशीनरी को अधिक कार्यक्षम बनाने में सफल हो गए । इसके फलस्वरूप वे सूर्य की अधिक ऊर्जा का उपयोग कर सकते हैं । उनमें कार्बोक्सिसोम नामक अंग विकसित हो गए जो एन्जाइम को अपने अंदर लपेट लेते है और उसके ईद-गिर्द कार्बन डाईऑक्साइड युक्त ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं जिससे एन्जाइम की कार्यक्षमता बढ़ जाती है और प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया तेज हो जाती है । 
एक लम्बे समय से वैज्ञानिकों का प्रयास रहा है कि फसलों के पौधों की कोशिकाआें में स्वतंत्र रूप से रहने वाले सायनोबैक्टीरिया का रूबिस्को रोपित कर दिया जाए ताकि उनकी उत्पादन क्षमता बढ़ सके । कई असफल प्रयासों के बाद यह उम्मीद बंधी है कि इसमें सफलता मिल जाएगी । अमेरिका के कॉर्नेल विश्वविघालय और ब्रिटेन की रॉदमस्टेड अनुसंधान प्रयोगशाला ने तंबाकू के पौधे में सायनोबैक्टीरिया के अधिक कार्यक्षम एन्जाइम को रोपित कर दिया है । किन्तु सायनोबैक्टीरिया का एन्जाइम तो कार्बन डाईऑक्साइड की बहुतायता वाले वातावरण में, यानी कार्बोक्सिसोम के साथ ही काम कर सकता है । अत: वैज्ञानिकों ने तंबाकू के ऐसे पौधे विकसित किए जो कार्बोक्सिसोम के समान संरचनाआें का विकास कर सकते थे । 
अब अगला चरण होगा कि दोनों प्रयोगों को मिला कर ऐसे पौधे बनाएं जाएं जिनके क्लोरोप्लास्ट अधिक कार्यक्षम हो और जो कार्बोक्सिसोम का निर्माण भी कर सके । यह अनुमान है कि यह अगले पांच वर्षो में संभव हो  सकेगा । 
न्यू साइंटिस्ट में प्रकाशित एक लेख के अनुसार यदि फसलों के पौधों में सायनोबैक्टीरिया की प्रकाश संश्लेशण की मशीनरी को डाला जा सके तो खाघान्नों का उत्पादन २५ प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है । कुछ वैज्ञानिकोंका मानना है कि यह बढ़ोतरी ६० प्रतिशत भी हो सकती   है । एक और फायदा यह होगा कि पौधों को अपने छिद्रों (स्टेमेटा) को कम समय तक खुला रखना    पड़ेगा । इससे उनमें अधिक समय तक पानी बना रह सकेगा और उन्हें बाहर से कम पानी लेना पड़ेगा यानी सिंचाई के लिए कम पानी लगेगा । 
चूंकि यह अनुसंधान काफी आगे बढ़ चुका है, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ ही दशकों में अधिक तेज प्रकाश संश्लेषण कर सकने वाली फसलें उगाई जाने लगेंगी । बढ़ती हुई आबादी की खाघान्न, कपास और खाद्य तेलों की बढ़ती जरूरतों को देखते हुए यह एक वरदान साबित हो सकता है । इसके अलावा, नए पौधे वातावरण से अधिक कार्बन डाईऑक्साइड लेंगे और इसके परिणामस्वरूप ग्लोबल वॉर्मिग के कारण मौसम मेंहोने वाले परिवर्तनों और इनके कृषि पर होने वाले विपरीत परिणाम से भी राहत मिल सकेगी । 
किन्तु इस आशाजनक संभावना में एक पेंच भी है । कुछ वैज्ञानिकोंऔर पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाआें का जीन्स में परिवर्तन करके बनाए गए पौधों के प्रति हमेशा विरोध रहा है । जीएम कपास और जीएम बैंगन पर हमारे देश में चल रहा विवाद इसका उदाहरण है । विरोध का आधार यह है कि यदि परिवर्तित जीन जंगली पौधों में पहुंच गए तो इन पर नियंत्रण करना कठिन हो जाएगा । जीएम का पक्षधर तबका सोचता है कि यह डर निराधार है । 
संसार के कईभागों में कुछ पौधे अनियत्रिंत तरीके से बढ़ रहे हैं और उपयोगी वनस्पतियों के लिए खतरा बने हुए है । हमारे देश में जलकुंभीऔर गाजरघास इसके उदाहरण हैं। किन्तु ये जीएम पौधे नहीं हैं, ये दूसरे देशों से लाए गए हैं और अनियंत्रित हो गए हैं । यह तय है कि बढ़ते हुए शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण कृषि और जंगल की जमीन का रकबा कम होता जाएगा । ऐसे मेंअधिक उपज देने वाली फसलें वरदान ही साबित होगी । यदि कुछ परिवर्तित जीन जंगली पौधों की अनापशनाप वृद्धि होने लगी तो भी यह एक अच्छी बात हो सकती है । 
आखिर जंगल में रहने वाले जीवधारी भी भोजन और आश्रय के लिए जंगल की वनस्पतियों पर ही निर्भर रहते हैं । घास परिवार पौधों का एक समूह ऐसा है जिसने लगभग तीन करोड़ वर्षो पहले ही अधिक कार्यक्षम प्रकाश संश्लेषण का तरीका अपना लिया था । इसके कारण संख्या की दृष्टि से पूरे वनस्पति जगत का केवल ४ प्रतिशत होने के बावजूद इस समूह की जैवमात्रा (बायोमास) वनस्पति जगत की २५ प्रतिशत है । घास परिवार के पौधे सभी प्रकार के जंतुआेंके लिए भोजन का स्त्रोत है । अत: यह चिंता करने की आवश्यकता नहीं है कि कुछ अनचाहे पौधों में अधिक कार्यक्षम प्रकाश संश्लेषण की व्यवस्था विकसित हो गई तो कोई बहुत बड़ा संकट आ जाएगा । 
वनस्पति जगत
देसी पर भारी अमेरिकन भुट्टा 
डॉ. किशोर पंवार
बचपन में यह लाइन खूब गाई है पानी बाबा आएगा ककड़ी भुट्टा लाएगा । पानी बाबा ने इस बार कुछ ज्यादा ही इंतजार कराया  था । हालांकि जिनके खेतोंमें सिंचाई की व्यवस्था थी उन्होंने ककड़ी-भुटटे समय रहते ही बो दिए थे । 
नतीजा हमारे सामने है । गली-मोहल्लों में ककड़ी-भुट्टों की आवाज और रसोई में इनकी महक आने लगी है । बारिश में ककड़ी-भुट्टे का चोली दामन का साथ है । दोनों खरीफ की फसलें हैं । आज से कुछ वर्षो पूर्व बाजार में भुट्टे की भरमार थी । सेंककर खाओ या भुट्टे का कीस बनाओ । कभी भुट्टे मीठे निकलते थे तो कभी फीके । कभी पर्यटक स्थलोंपर जैसे कुल्लु-मनाली, रोहतांग दर्रा और मुम्बई में अमेरिकन भुट्टे खाने का मौका मिला । वाकई गजब के मीठे थे वे भुट्टे । अब तो हर कहीं अमेरिकन भुट्टे मिलने लगे हैं । 
वर्तमान में तो शहरों में ये हाल है कि देसी भुट्टे मिलते ही नहीं है । जिसे देखो वह अमेरिकन भुट्टे बो रहा है, बेच रहा है । देसी भुट्टे पर अमेरिकन भुट्टे भारी पड़ रहे    हैं । पर ये देसी और अमेरिकन का चक्कर क्या है ? और ये मक्का क्या है ? कहां की है । आइए इन सवालों को बूझते हैं ।
मक्का सदियों से गरीबों और आदिवासियों का मुख्य भोजन रहा है परन्तु जब पता चला कि मक्का तो हमारी नहीं है और हमसे इसकी मुलाकात कुछ ही सैकड़ों वर्षो की है, इससे मुझ्े तो बड़ा झटका लगा । हालांकि मक्का को इंडियन कॉर्न कहा जाता है । तो अब दो कॉर्न हो गए - इंडियन और अमेरिकन । इंडियन फीका-मीठा और अमेरिकन मीठा-मीठा, कभी फीका नहीं । क्या है इसके मीठेपन का राज ? अमेरिकन कॉर्न का एक नाम है स्वीट कॉर्न यानी मीठी मक्का । इसके मीठे होने में एक जीन की भूमिका है । 
मक्का एक बड़ी घास 
दुनिया के महत्वपूर्ण अनाजों की गिनती में एक मात्र अमरीकी देन मक्का है । जंगली अवस्था में यह संभवत: ट्रॉपिकल दक्षिणी अमेरिका में उत्पन्न हुई है । वहां से एंडीज तक फैली । प्रसिद्ध यात्री कोलबंस इसे युरोप में ले गया । एशिया में इसे पुर्तगाली शासक लाए । भारत में भी मक्का को लाने का श्रेय पुर्तगालियों को ही जाता है । वर्तमान में तो लगभग पूरी दुनिया में इसकी खेती बड़े पैमाने पर होती है । 
मक्का एक बड़ी वार्षिक घास है जो लगभग १ से १.५ मीटर तक लंबी होती है तथा गांठदार है । इसका तना शुरूआत की युवा अवस्था में मीठा होता है । पत्तियां बड़ी-बड़ी एकांतर क्रम में लगी होती है । फूल दो तरह के आते हैं । शीर्ष पर नर पुष्पक्रम लगा होता है जिसे मांज कहते हैं । नीचे की ओर पत्तियों की कक्ष में मादा पुष्पक्रम पाया जाता    है । जिसे काव या इधर कहते हैं । इसमें सैकड़ों की संख्या में अंडाशय लगे होते हैं जिनसे बारीक लंबे रेशे के रूप में स्टाइल (वर्तिका) निकलती है जिसे हम भुट्टे की मूंछ या बाल कहते हैं । 
दरअसल ये इसके मादा फूलोंकी वर्तिकाएं ही हैं । वनस्पति जगत में ये सबसे लंबी वर्तिकाएं हैं । अंडाशय ही पकने पर मक्का का दाना कहलाता है । ये भुट्टे पर कतार में लगे होते हैं । भुट्टा पतीनुमा बे्रक्ट से ढंका रहता है । इन्हें ही पोगरे कहते हैं । 
मक्का तरह-तरह की 
पॉडकार्न (वेराइटी ट्यूनिकेटा) सबसे पुरानी मक्का है । उसके दाने फूलोंमें ब्रेक्ट से ढंके होते हैं । यह गेहूं, ज्वार की तरह उगाई जाती है परन्तु दक्षिण अमेरिका के इंडियन्स का मानना है कि इसमें कुछ जादुई शक्ति है ।
पॉपकार्न (वेरायटी इवेरेटा) - बच्च्े बूढ़े सभी इससे परिचित है । इसका दाना छोटा परन्तु कड़क होता है । भट्टी में गर्म करने से इसमें पॉपिंग होती है अर्थात धानी बनती   है । 
फिन्टकॉर्न (वेरायटी इन्ड्रयूरेटा) - इसके दाने कई रंगों के और छोटे होते हैं । यूरोप, एशिया, अमेरिका और अफ्रीका में मुख्य रूप से उगाई जाती । 
सॉफ्ट कार्न (वेरायटी एमायलेसिया) ही वह मक्का है जिससे आटा बनता है । इसका स्टार्च मुलायम होता है । उसकी उत्पत्ति मक्का के दूसरे गुणसूत्र पर हुए एक उत्परिवर्तन से हुई है । 
स्वीट कॉर्न (जिआमेज, वेरायटी रूगोसा) जिसे इंडियन कॉर्न, स्वीट कॉर्न, शुगर कॉर्न और सिर्फ कॉर्न भी कहा जाता है । स्वीट कॉर्न दरअसल मक्का की एक किस्म है जो प्राकृतिक रूप से एक अप्रभावी जीन के उत्परिवर्तन का नतीजा है । दरअसल इस उत्परिवर्तन के कारण इसकी शकर स्टार्च मेंनहीं बदलती और वह मीठी ही बनी रहती है । यह उत्परिवर्तन उस जीन में होता है जो शकर को स्टार्च में परिवर्तित करने का काम करती है । 
इसका दाना मोती-सा चमकदार लगभग पारभासी होता  है । शकर से भरपूर फील्ड कॉर्न की कटाई भुट्टे के सूखने पर की जाती है । स्वीट कॉर्न को कच्च यानी सूखने के पूर्व ही तोड़ लिया जाता   है । इसे सब्जी की तरह ज्यादा उपयोग किया जाता है या सेंककर या स्टीम करके खाया जाता है । यदि यह घर पर कुछ दिनोंतक पड़ा रहे तो इसके दाने अन्य मक्का की तरह सूखते नहींसिकुड़ जाते हैं । यह भी उसी जीन का असर है जो इसे मीठा बनाता है । 
किसी अन्य अनाज की तुलना में मक्का के ज्यादा विविध उपयोग हैं । भुट्टे कच्च्े या सेंककर खाए जाते हैं । सूखे दानों से आटा बनाकर रोटी बनाई जाती है । दानों को चपटा कर लोकप्रिय बे्रकफास्ट कॉर्न फ्लेक्स बनाया जाता है । पत्तियां और हरा तना पशुआें के लिए हरे चारे के रूप मेंकाम आता है । 
अमेरिकन कॉर्न को तो सब्जी के रूप में या कच्च ही खाया जाता है इससे आटा नहीं बनता । अमेरिका में मक्का का उपयोग सूअर पालन केन्द्रों पर मुख्य रूप से पशु आहार के रूप में किया जाता है । इससे कॉर्न स्टार्च बनता है । इससे ग्लूकोज व कॉर्न सिरप भी बनाया जाता है । दानों से किण्वित पदार्थ भी बनाए जाते हैं । 
इसके प्रोटीन से कृत्रिम रेशा भी बनाया जाता है जिसकी प्रकृति ऊन जैसी होती है । इसके पिथ का उपयोग हल्के पेकिंग मटेरियल के रूप मेंकिया जाता है । इस तरह हम देखते हैं कि मक्का भोजन, चारा, रेशा और एल्कोहल बनाने में भी काम आती है । हाल ही में इससे बायो डीजल बनाने के प्रयास भी हुए है । 
ज्ञान-विज्ञान
सामान्य बनाम सीज़ेरियन प्रसूति 
आधुनिक चिकित्सा में उपचार का निर्णय मरीज द्वारा करना एक मान्य बात है, लेकिन निर्णय के लिए जरूरी जानकारी भी तो होना चाहिए । सवाल है कि जब बाकी मामलों में निर्णय मरीज के हाथों में होता है तो इस सिद्धांत को प्रसूति के समय लागू क्यों नहीं किया जाता ? 
यह चिंता व्यक्त की गई की कई देशों में सीजेरियन ऑपरेशन (सी-सेक्शन) से होने वाली प्रसूतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है । पश्चिमी देशों में ही नहीं, चीन और ब्राजील में आधी से ज्यादा प्रसूतियों इसी रास्ते पर हैं । यूके में कथित रूप से महिलाआें को सी-सेक्शन चुनने की अनुमति है, यहां तक कि जब कोई इसके लिए जरूरी एक भी चिकित्सीय कारण न हो । 
   हाल ही में रॉयल कॉलेज ऑफ आब्सटेट्रिशियन एंड गायनेकोलॉजिस्ट (आरसीओजी) ने सलाह पक निकाला है  सी-सेक्शन का चुनाव  । कुछ लोगों का कहना है कि यह सी-सेक्शन के खिलाफ   है । जैसे टाइन हॉस्पिटल के प्रसूति विज्ञानी पॉल आयुक का कहना है कि यह पत्रक एक-तरफा है । उक्त पत्रक में ज्यादा जानकारी सी-सेक्शन के जोखिमों और सामान्य प्रसूति के लाभों के बारे में  दी गई है । जो महिलाएं यह तय करना चाहती हैं कि वे कौन-सा विकल्प चुनें तो उन्हें दोनों के बारे में पूरी जानकारी दी जानी चाहिए । 
दूसरी ओर, आरसीओजी के चिकित्सकीय गुणवत्ता उपाध्यक्ष एलन केमेरॉन को ऐसा नहींलगता । उनका कहना है कि इसमें सामान्य प्रसूति सम्बंधी जोखिमों की चर्चा भी शामिल है हालांकि सी-सेक्शन के जोखिमों के बराबर नहीं । 
गौरलतब है कि सामन्य प्रसव में भी मां और बच्च्े को जोखिम हो सकता है । कभी-कभी प्रसूति में गंभीर गड़बड़ियों के चलते बच्च्े को दिमागी क्षति हो जाती है । एक परेशानी यह है कि सामान्य प्रसूति के बाद बढ़ती उम्र में मां को मूत्र असंयम की परेशानी का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि बच्च्े को जन्म देते समय कूल्हे की मांस-पेशियों, तंत्रिकाआें और लिगामेंट्स की क्षति होती है । एक स्वीडिश अध्ययन में पता चला कि सामान्य प्रसव के २० वर्ष बाद ४० प्रतिशत महिलाआें को मूत्र असंयम की परेशानी हुई जबकि सी-सेक्शन के बाद मात्र २९ प्रतिशत महिलाआें को। 
अन्य ऑपरेशनों के समान सी-सेक्शन चुनने वाली महिलाआें को उसके जोखिमों की जानकारी दी जानी चाहिए मगर आयुक का मानना है कि सामान्य प्रसव के बारे में भी ऐसी जानकारी देना जरूरी है मगर ऐसा होता नहीं है क्योंकि सामान्य प्रसूति को प्राकृतिक माना जाता है । 
अब यूके कोर्ट का एक फैसला इस सोच को चुनौती दे रहा है । नाडिन मॉन्टगोमरी ने एक अस्पताल पर १६ साल बाद मुकदमा दायर किया कि सामान्य प्रसूति के दौरान उनके बेटे को गंभीर रूप से दिमागी-क्षति हुई थी । कोर्ट ने फैसला दिया है कि डॉक्टरों को मॉन्टगोमरी को सामान्य प्रसूति के जोखिमोंके बारे मेंबताना चाहिए था । डॉक्टर का जवाब था कि मॉन्टगोमरी को यह जानकारी नहीं दी क्योंकि आम तौर पर यह जानकारी मिलने पर महिला सी-सेक्शन चुनती हैं और वह महिला के लिए खतरनाक हो सकता है । 
वैसे मॉन्टगोमरी का मामला विशेष है - उसमें सामान्य प्रसूति के दो जोखिम मौजूद थे - उसका कद कम था, यानी उसके कूल्हे सामान्य से छोटे रहे होंगे और उसे डायबिटीज भी थी मगर कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि यह फैसला जोखिम-मुक्त महिलाआें पर भी लागू होता    है । केमेरॉन का मानना है कि अब सामान्य प्रसूति से सम्बंधित जोखिमों के बारे में भी महिलाआें को बताना जरूरी हो जाएगा । 
स्मार्ट सिटी के संभावित खतरे 
आजकल भारत और दुनिया भर में स्मार्ट सिटी की बातें चल रही हैं । दुनिया भर के शहर ऐसी टेक्नॉलॉजी अपनाने पर आमादा हैं जिनकी मदद से सेवाआें को स्व-चालित बनाया जा सकें । जैसे ट्रॉफिक कंट्रोल या सड़क पर रोशनी की व्यवस्था । इस संदर्भ में यह सवाल उठने लगा है कि ऐसे शहरों पर सायबर हमले से बचने के क्या इन्तजाम किए जा रहे हैं । 
ये सवाल सुरक्षा सम्बंधी शोधकर्ता उठा रहे हैं जिन्होंने कंप्यूटर चालित व्यवस्थाआेंमें सेंध लगाने की कोशिश की है ताकि इनकी सुरक्षा को जांचा जा सके । इनमें एटीएम से लेकर पॉवर ग्रिड तक शामिल हैं । 
ऐसे ही शोधकर्ता हैं सिएटल की सुरक्षा सलाहकार कंपनी आईओ एक्टिव लैबस के सेसार सेरूडो । जब उन्होंने देखा कि हैकर्स ने कितनी आसानी से एक शहर के ट्राफिक लाइट्स को अपनी मर्जी से संचालित करने में सफलता पा ली हैं, तो उनके कानखड़े हो गए । जांच करने पर पता चला कि इन उपकरणों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि यह पता चल सके कि जो आदेश आ रहा है । यानी इनमें कोई भी व्यक्ति आंकड़े डालकर इन्हें अपने मनमाफिक ढंग से चला सकता है । 
सेरूडो इतने चौंक गए कि उन्होंने सीक्योरिंग स्मार्ट सिटी पहल का गठन किया । उन्होंने पाया कि नगरीय अधिकारी किसी टेक्नॉलॉजी का आकलन करते वक्त मात्र यह देखते हैं कि क्या-क्या काम कर सकती है, वे यह नहीं देख्ते कि वह कितनी सुरक्षित है । 
उनका ख्याल है कि हैकर कई स्तरों पर हमला कर सकते हैं । वे अधिकारियों के ईमेल अकाउंट्स से लेकर सड़क पर अंडरग्राउंड कैबल्स तक में घुसपैठ कर सकते हैं । उदाहरण के लिए यदि हैकर्स किसी शहर की बिजली सप्लाई पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं, तो हाल बुरे हो सकते हैं । जैसे अगस्त २०१३ में उत्तर-पूर्वी यूएस में बिजली गुल हो गई थी । हालांकि वह घटना किसी बदनीयती से नहीं की गई थी मगर सच्चई यह है कि वह घटना सॉफ्टवेयर में एक वायरस की वजह से हुई थी । इसका अर्थ है कि हैकर्स किसी वायरस के जरिए ऐसी घटना को अंजाम दे सकते हैं । पानी सप्लाई को भी निशाना बनाया जा सकता   है । उदाहरण के लिए, पिछले वर्ष देखा गया था कि हैकर्स का एक समूह अमरीका के एक शहर में पानी सप्लाई तंत्र में घुसपैठ करने की कोशिश कर रहा था । कहने का मतलब यह है कि कुछ लोग इन कमजोरियों का फायदा उठाने से नहीं चूकेंगे । लिहाजा स्मार्ट शहरों के नारे के साथ-साथ स्मार्ट शहरों को सुरक्षित बनाने पर भी विचार होना जरूरी है ।

क्या सपनों में आखें चीजों को देखती है ?
आप चुपचाप, बगैर हिले-डुले सो रहे है मगर आपकी आंखें लगातार हरकत कर रही है । ऐसी नींद को त्वरित नेत्र गति यानी रैपिड आई मूवमेंट (आरईएम) की अवस्था कहते है । ऐसी ही नींद के दौरान आप सबसे साफ सपने देखते हैं । मगर वैज्ञानिकों के सामने सवाल यह था कि क्या हमारी गतिशील आंखें वास्तव में उन चीजों को देखती हैं ?
आरईएम नींद का पता सबसे पहले १९५० के दशक में चला था । तब यह विचार बना था कि ऐसी हरकत करते हुए हमारी आंखे किसी काल्पनिक नजारे को स्कैन करती    है । इस्त्राइल के तेल अवीव विश्वविघालय के युवाल निर का मत है कि यह विचार मूलत: सहजबोध पर टिका था, इसका कोई प्रमाण नहींथा । जो भी प्रमाण थे वे सुनी-सुनाई बातों पर आधारित थे । जैसे यदि नींद में किसी व्यक्ति की आंखें दाएं-बाएं डोल रही थी और उसे जगाया गया तो उसने बताया कि वह टेनिस के खेल का सपना देख रहा था । 
    सपने मेंआंखों द्वारा वास्तव में चीजें देखे जाने के कुछ प्रमाण उन लोगों के अवलोकन से मिले थे जो सपना देखते समय शारीरिक हरकतें भी करते हैं । यह देखा गया कि ८० प्रतिशत बार उनकी आंखों की गति और शारीरिक गतियों में तालमेल होता है । मगर ऐसे लोग बहुत कम होते हैं । प्राय: सपने देखते हुए लोगों का शरीर एकदम निश्चल रहता है । 
विरासत 
खादी को असरकारी बनाने का उद्यम
डॉ. सुगन बरंठ
खादी को असरकारी बनाना समय व पर्यावरण दोनों की आवश्यकता है । 
खादी वस्त्र और विचार की वर्तमान बुरी स्थिति के लिये सरकार और हम खादी संस्थावाले बराबर के जिम्मेदार हैं । दूसरी भाषा में कहंे तो अ-सरकारी खादी को असरकारी बनाने की दिशा में मनन, चिंतन और सारी शक्ति लगाना है। अब हमें अपनी लकीर बड़ी करना है और जो भी साथ आए उन्हें जोड़ना है । हमारी आत्मिक शक्ति सकारात्मक है। खादी विचार और वस्त्र को सर्वोदय दर्शन का अविभाज्य अंग मानकर इसका संरक्षण व संवर्धन हमारी जिम्मेदारी हैं ।
असरकारी खादी का काम करना चाहने वालों के सामने निम्न चुनौतियां दिखाई पड़ती हैंपहली चुनौती - असरकारी खादी विचारक उत्पादक और विक्रेताओं का भातृमंडल खड़ा करना, इसे स्थापित करना और बढाना । आज असरकारी खादी उत्पादन और बिक्री करने वाले बिखरे हुए हैं । हमंे एकत्रित आकर सर्व सेवा संघ के अंतर्गत अपना स्वायत्त संगठन खडा करना होगा । जिस तरह अनेक संस्थान सरकार के अंतर्गत होने पर भी स्वायत्त होते हैं, और सरकार उनकी कार्यनीति में हस्तक्षेप नहीं करती तथा उन्हें संसद द्वारा से सीधे मान्यता दी गयी होती है । उसी तरह यह संगठन सर्व सेवा संघ के अंतर्गत होते हुए की स्वायत्त हो । दूसरी बात है, हम अभी जितने हैं उतने मिलकर यह संगठन खडा करें और चलते चले । संख्या का भूत सर पर न बैठने दें । जिन्हंे खादी विचार और वस्त्र की शुद्धता की कदर है वे साथ में आ ही जाएंगे ।
दूसरी चुनौती - खादी की शुद्धता स्थापित करना । हमें यह भी देखना और समझना होगा की गैर पारंपारिक ऊर्जा (पवन, सौर ऊर्जा, कचरे से और बायोेगेस से उत्पादित ऊर्जा) का खादी उत्पादन में उपयोग करें या नहीं करे ? करे तो किस सैद्धान्तिक आधार पर ? इस पर बहस होकर निर्णय भी हो । इसी तरह इन्ही ऊर्जा के आधार पर अब करघे भी चलाने का तंत्रज्ञान विकसित हुआ है । इससे कताई, बुनाई के श्रम में राहत, आय में बढ़ोत्तरी और सूत एवम कपड़े की गुणवत्ता में सुधार को हम किस नजर से देखते है ? आज न गांधी की आंधी है न आजादी की लड़ाई । आज तो हमंे इसे पर्यावरण और स्थायी विकास की नजर से देखना और लोगों के सामने रखना है। इसलिये इस पर चर्चा अत्यावश्यक है । साथ ही हमारी अपनी प्रमाणपत्र व्यवस्था कैसी हो । 
तीसरी चुनौती - असरकारी खादी की बिक्री व्यवस्था एक तरह से यह चुनौती भी है और अवसर भी । आज का समाज खादी को एक तरफ पवित्र वस्त्र के रूप में देखता है दूसरी तरफ उससे भी कहीं ज्यादा वह इसे स्वास्थ्य और पर्यावरण के नजरिये से देखता है । पवित्र इस माने में कि यह राष्ट्रपिता और आजादी से तथा ग्रामीण गरीबों की महिलाओं, परित्यक्ताओं का आजीविका से जुड़ा वस्त्र है । पर उत्तर औद्योगिक व्यवस्था और जागतिकीकरण के दौर में मानव अब इतना संवेदनशील नहीं है । अत: खादी की पवित्रता केवल मानने भर की है । स्वास्थ्य आज के व्यक्ति को ज्यादा करीबी विषय लगता है । हम देखते हैंकि भाग दौड़ की इस जिंदगी में वह स्वास्थ्य के बारे में बहुत कुछ कर रहा है । इसी तरह एक वर्ग विशेष की सजीव व रसायन रहित खेती उत्पादनों में रुचि बढ़ रही है। इसी कड़ी में यह वर्ग विशेष वस्त्रों में खादी को महत्व देता है । यह वर्ग खादी बिक्री में हर तरह से हमारी मदद कर सकता है । यह हैं प्रदर्शनी लगाना, प्रचार-प्रसार करना, विचार फैलाना या अपनी संस्था में स्थायी केन्द्र खडे करना । परंतु बिक्री व्यवस्था से पहले हमारे सदस्यों के उत्पादन, विशेषता की जानकारी हो ।
चौथी चुनौती - स्वावलंबी खादी का क्या करंे ? पहले हर खादी संस्था अन्य कार्यकर्ताओं को सूत की बुनाई खुद के खर्चे से कर देती थी, जो स्वावलंबन हेतु कातते थे । अब ऐसे कार्यकर्ताओं की व नियमित पेटी चरखा पर कातने वालोें की संख्या कम हो रही है । अंबर पर फिर भी लोग स्वावलंबन के लिये कात रहे हैंऔर ऐसी संस्थाए बढ रही हैं । इसमें कुछ धर्मगुरू  हमसे आगे निकल रहे हैं । अंबर चरखे पर कताई में गांव में अधिक समय रहने वाले युवा रुचि ले रहे हैं । हमंे इन्हें पूनी की पूर्ति और इनके सूत की बुनाई न्यूनतम दरों पर करनी ही होगी । पेटी चरखा का सूत को आजकल कारागीर बुनाई में नहीं लेते उनका कहना है, यह सूत कच्च आता है । पर असरकारी खादी संस्थाओं को स्वावलंबन के लिये कातने वालांे के लिए न्यूनतम दरांे पर व्यवस्था करनी ही होगी । यदि खादी विचार जिन्दा रहना है और उसे मात्र वस्त्र नहीं बनने देना है तो यह जरुरी है । 
पांचवीं चुनौती - आज खादी पर प्रबोधन करने वाले काफी लोग उपलब्ध हैं । वे चरखे के पीछे का सारा तत्वज्ञान, स्वावलंबन, समता, सामूहिकता, आत्मविश्वास से पर्यावरण तक खादी की सारी सैद्धान्तिकी लिखते हैं । इनकी क्षमता और चरखे निर्माता, देखभाल, दुरूस्ती, स्पेअर पार्ट, आदि का ज्ञान रखने वालों की क्षमता की जोड़कर हमें त्वरित खादी कोर्स/खादी विद्यालय शुरु करना होगा । आज तो इन दोनों में (प्रबोधक और तंत्रज्ञ) कोई आपसी संपर्क नहीं है । देश भर में इनमें समन्वय की आवश्यकता न हमें महसूस होती है न इस तरफ हमारा ध्यान ही है, इसका परिणाम यह है कि दोनांे कुशलतायें हमारे अपनों के पास होते हुए भी हम खादी का विस्तार नहीं कर पा रहे है । 
खादी आयोग ने या केन्द्र सरकार ने जो इस तंत्रज्ञान, यंत्रज्ञान संशोधन के लिए व्यवस्था खड़ी की है वे और खादी संस्थायंे, तथा खादी प्रबोधक (सर्वोदय वाले) एक दूजे को जानते तक नहीं हैं जैसे एमगिरी और सर्व सेवा संघ तथा ग्राम सेवा मंडल तीनों वर्धा में है, पर तीनों एक दूजे को पहचानते तक नहीं हैं । यह जगह आज खाली है। वहां मांग है । पर भरेगा कौन ?