सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

आवरण




संपादकीय

कान्हा में पर्यटको की बढ़ती संख्या से जुड़े सवाल
विश्वविख्यात कान्हा टाईगर रिजर्व इस वर्ष भी पर्यटकों को भी आकर्षित करने में सफल रहा है। पर्यटन वर्ष २००६-०७ में देशी सैलानियों की संख्या में पिछले वर्ष की तुलना में लगभग दो गुना वृद्धि दर्ज की गयी है । जबकि विदेशी पर्यटकों की संख्या लगभग बराबर रही है । देश के २८ टाईगर रिजर्व में सर्वश्रेष्ठ कान्हा टाईगर रिजर्व में पर्यटकों की बढ़ती संख्या से भविष्य में होने वाले नुकसान को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये । देश के हृदय स्थल मध्यप्रदेश में लगभग १९४७ वर्ग किलोमीटर में फेलायह वन्य जीवन संरक्षित क्षेत्र एशिया का सर्वश्रेष्ठ पर्यटन स्थल है । जैव विविधता से परिपूर्ण इस टाईगर रिजर्व में स्तनधारियों की ४० तथा पक्षियों की ३०० से अधिक प्रजातियां पायी जाती है । बाघ दर्शन के लिए प्रसिद्ध इस टाईगर रिजर्व की प्रमुख विशेषता है विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाने वाली अतिसंकटग्रस्त वन्यजीव प्रजाति का दलदली हिरण, बारहसिंघा विलुप्त् होने की कगार पर खड़ी इस ब्रेडरी उपप्रजाति के बारहसिंगों की संख्या कान्हा में ३०० के आसपास है । बाघों के दर्शन के लिए प्रसिद्ध इस टाईगर रिजर्व में बाघों की संख्या ९० तथा गुलबाघों की संख्या ९८ है । पर्यटन वर्ष २००६-०७ में ९५,६४६ घरेलू तथा १०,६५१ विदेशी यानि कुल १,०६,२९७ पर्यटकों ने कान्हा टाईगर रिजर्व का भ्रमण किया है । कान्हा टाईगर रिजर्व में पर्यटकों की संख्या में लगातार वृद्धि राजस्व प्रािप्त् की दृष्टि से यह एक अच्छी खबर हो सकती है लेकिन वन्यजीव विशेषज्ञ और वन्य जीव प्रेमी इस खबर से ज्यादा हर्षित नहीं है । वर्षो से जैविक दबाव झेल रहा कान्हा टाईगर रिजर्व पर्यटकों के इस बढ़ते दबाव को किस हद तक सहन कर पायेगा यह देखा जाना जरूरी है । रिजर्व का छोटा पर्यटन जोन तथा इको पर्यटन की सीमित सुविधाएं इस तरह से बढ़ती पर्यटकों की भीड़ को सम्हालने में असमर्थ दिखायी देते है । यद्यपि कान्हा उद्यान प्रबंधन पर्यटकों की इस भीड़ को नियंत्रित करने की दिशा में समुचित प्रयास कर रहा है लेकिन इको पर्यटन की अवधारणा को लेकर आगे आये पर्यटन व्यवसायियों की भागीदारी इस दिशा में शून्य है । एक सीमित वन क्षेत्र में तेजी से बढ़ रही पर्यटन गतिविधियों से वन्यजीवों के प्राकृतिक रहवास पर तो असर पड़ेगा ही वन्यजीव भी सुरक्षित नहीं रह पायेंगे। वन्य जीवन के प्रति बढ़ती जनजागरूकता व रूचि के कारण आगामी वर्षो में पर्यटकों की संख्या में और भी वृद्धि होने की संभावना है । विश्व के पर्यटन मानचित्र पर तेजी से एक वन्यजीव पर्यटन स्थल के रूप में स्थान बना रहे कान्हा टाईगर रिजर्व में भारतीय भौगोलिक परिस्थितियों के अनुकूल विश्वस्तरीय पर्यटन सुविधाएं विकसित करना आवश्यक है । यद्यपि किसी भी वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र का उद्देश्य पर्यटन से राजस्व की प्राप्त् न होकर जैवविधिता का संरक्षण करना है लेकिन वन्य प्राणियों और इंसान के बीच प्रेम पूर्ण रिश्ता कायम कर इस प्राकृतिक सम्पदा के संरक्षण के साथ राजस्व प्रािप्त् भी की जा सकती है ।

प्रसंगवश

सही जानकारी
भारत में सिंचाई क्षेत्र की क्षमता में लगातार वृद्धि

पर्यावरण डाइजेस्ट के दिसम्बर ०७ अंक में प्रकाशित संपादकीय सामग्री में सिंचित क्षेत्र मेंकमी के आंकड़ों पर कुछ जागरूक पाठको ने हमारा ध्यान आकर्षित किया है । वास्तव में यह सामग्री सर्वोदय प्रेस सर्विस (सप्रेस) के १९ अक्टूबर ०७ के बुलेटिन से ली गयी थी । सप्रेस ने इसे बांधों, नदियों एवं लोगों का दक्षिण एशिया नेटवर्क द्वारा जारी विज्ञिप्त् एवं रिपोर्ट के आधार पर जारी किया था । हम अपने पाठकों को सही जानकारी मिल सके इस हेतु भारत सरकार द्वारा जारी आंकड़े सविस्तार दे रहे हैं । भारत सरकार के एक दस्तावेज में कहा गया है कि मौजूद प्रणालियों को सुदृढ़ करने के साथ-साथ सिंचाई सुविधाआे का विस्तार खाद्यान उत्पादन बढ़ाने की रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा रहा है । सिंचाई सुविधा के प्रणालीबद्ध विकास के साथ बड़ी मध्यम और छोटी सिंचाई परियोजनाआे की कुल क्षमता १९५१ में २२.६ मिलियन हेक्टेयर (एम.एच.ए.) से बढ़कर वर्ष २००४-०५ के अंत तक लगभग ९८.८४ मिलियन हेक्टेयर हो गयी है । इसमें २००० में १०,००० हेक्टेयर के बीच के क्षेत्र मध्यम परियोजना और १०,००० हेक्टेयर से ऊपर के क्षेत्र बड़ी परियोजनाआे के अंतर्गत आते है । दसवींयोजना की शुरूआत में १६२ बड़ी परियोजनायें थी जिन पर कुल व्यय १४०९६८.७९ करोड़ रूपये अनुमानित था, जबकि २२१ मध्यम परियोजनाआे पर १२७६८.७७ करोड़ रूपये व्यय तथा ८५ विस्तार नवीनीकरण और आधुनिकीकरण परियोजनाआेपर २१२५६.५० करोड़ रूपये कुल व्यय होने का अनुमान था ।

आशा है हमारे पाठकों को इससे सही जानकारी प्राप्त् हो गयी होगी । इसी प्रकार जागरूक पाठकों से पत्रिका की संपादकीय सामग्री पर उनके विचार आमंत्रित है ।
-प्र. संपादक

१ पुण्य स्मरण

सर एडमंड हिलेरी : प्रकृति पुत्र का अवसान
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
विश्व की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर पहली बार कदम रखने वाले न्यूजीलैंड के सर एडमंड हिलेरी का ऑकलैंड अस्पताल में १० जनवरी को दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया । वे ८८ वर्ष के थे । आपका जन्म २० जुलाई १९१९ को हुआ था । श्री हिलेरी ने १९५३ में एवरेस्ट पर विजय पाकर एक नया इतिहास रचा था । वे पिछले कुछ समय से बीमार थे । न्यूजीलैंड के सर्वाधिक लोकप्रिय सर हिलेरी का छायाचित्र सम्मान स्वरूप न्यूजीलैंड के ५ डॉलर के नोट पर अंकित किया जाता है। अपने जीवन को नेपाली शेरपाआे को समर्पित करने वाले सर हिलेरी ने नेपाल में ६३ विद्यालयों के अतिरिक्त अनेक अस्पतालों, पुलों व हवाई पट्टी का भी निर्माण किया । उनके हिमालय ट्रस्ट ने नेपाल के लिए प्रति वर्ष ढाई लाख अमेरिकन डॉलर जुटाए और हिलेरी ने निजी तौर पर नेपाल अभियान में मदद दी । सर एडमंड हिलेरी और नेपाल के पर्वतारोही शेरपा तेनिजंग नोर्गे ने २९ मई १९५३ में माउंट एवरेस्ट पर विजय प्राप्त् की थी । सर हिलेरी कई सफलताआे, उल्लेखनीय साहसिक कारनामों, खोज और रोमांच के अलावा अपने विनम्र भाव के लिए जाने जाते थे। उन्होंने कभी अहंकार को अपने पास नहीं फटकने दिया । दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर ध्वज फहराकर ब्रिटिश क्लाइम्बिंग एक्सपीडीशन के तहत जब उन्होंने सफलता हासिल की तब वे केवल ३३ साल के थे । उनकी सफलता पर ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने उन्हें नाइट की उपाधि दी । लेकिन एडमंड एवरेस्ट में उनके साथ पहुंचे नोर्गे शेरपा के देश नेपाल में स्कूल और चिकित्सा क्लीनिक खोलने में अधिक गौरव महसूस करते रहे । सर एडमंड हिलेरी ने हिमालय की तलहटी में रहने वाले नेपाल के शेरपाआे के कल्याण के लिए अपना पूरा जीवन लगाया था । श्री हिलेरी जब १९३५ में स्कूल के एक पर्वतारोहण दल में शामिल हुए तब कोई नहीं कह सकता था कि कमजोर-सा दिखने वाला एक छात्र जबरदस्त इच्छाशक्ति का धनी है और मधुमक्खी पालन से जीविकापार्जन में लगे उस बालक के इरादे कुछ कर दिखाने के हैं । बीसवीं सदी के महान पर्वतारोहियों में एक हिलेरी ने न्यूजीलैंड की चोटियां चढ़ने के बाद आल्पस को लक्ष्य बनाया और फिर हिमालय पर्वत श्रृंखला की ११ विभिन्न चोटियां फतह करने के बाद उनका आत्मविश्वास और दृढ़ हो चुका था । एवरेस्ट रिकनेसेन्स एक्सपीडीशन के सदस्य के रूप में हिलेरी की प्रतिभा पर नजर १९५१ में एवरेस्ट फतह करने जा रहे अभियान दल के नेता सर जान हंट की पड़ी । मई में जब अभियान साउथ पीक पहुंचा तब केवल दो को छोड़कर शेष सदस्य थकान के कारण वापस लौटने को मजबूर हो गए । ये दो थे हिलेरी और नेपाली पवर्तरोही तेंजिंग नोर्गे । उन्होंने आखिरकार २९ मई १९५३ को समुद्र की सतह से २९,०२८ फुट ऊंची चोटी पर अपने पांव रख कर पर्वतारोहण क्षेत्र के कालपुरूष बन गए । इन उपलब्धि पूर्ण क्षणों में दोनों ने चोटी पर मात्र १५ मिनट बिताए । हिलेरी ने तेंजिग की फोटो ली । उन्होंने चोटी पर अपना क्रास उतारकर चढ़ाया । बाद में उन्होंने कहा था, हम नहीं जानते थे कि चोटी पर मानव का पहुंचना संभव है । शुरू में दोनों ने कहा था कि उन्होंने एक साथ चोटी चढ़ी लेकिन १९८६ में शेरपा की मौत के बाद सर एडमंड ने खुलासा किया कि वह अंतिम रिज में करीब १० फुट आगे थे । एवरेस्ट फतह की खबर ब्रिटेन में महारानी के अभिषेक के दिन पहुंची थी । श्री हिलेरी न्यूजीलैंड के थे और इस तरह वे राष्ट्रमंडल के नागरिक हुए, लिहाजा ब्रिटेन में भी उनकी उपलब्धि पर जश्न मनाया गया और उनकी सफलता के लिए नाइट की उपाधि दी गई । अगले दो दशकों के दौरान हिलेरी ने हिमालय में दस अन्य चोटियां फतह की । वे कामनवैल्थ ट्रांस : अंटार्कटिक एक्सपीडिशन के तहत दक्षिणी ध्रुव भी पहुंचे । उन्होंने १९७७ में गंगा नदी एक अभियान (जेटबोट एक्सपीडिशन) का भी नेतृत्व किया । सर हिलेरी ने अपने जीवन का अधिकांश भाग उन शेरपाआें के कल्याण में लगाया जो उनके विभिन्न अभियानों के दौरान उनसे मिले । भारत में दो साल तक न्यूजीलैंड के उच्चयुक्त रहने के दौरान उन्होंने १९६४ में हिमालय ट्रस्ट की स्थापना की थी । यह संस्था क्लीनिक, अस्पताल और स्कूल बनाने में मदद करती है । सर हिलेरी नेपालियोें की सेवा करने में गर्व महसूस करते थे । उन्होंने कहा था, मेरा सबसे बेहतर काम रहा स्कूलोंऔर क्लीनिकों का निर्माण । किसी चोटी की सतह से अधिक आनंद की अनुभूति मुझे इस कार्य से मिलती है । उन्हें उनकेदेश न्यूजीलैंड में काफी सम्मान दिया। न्यूजीलैंड और विदेशो में कई स्कूलों और संगठनों के नाम उन पर रखे गए । भारत में सेंट पाल्स स्कूल दार्जिलिंग में एक प्राथमिक खंड का नाम उनके नाम पर है । सर एडमंड शर्मीले स्वभाव के थे । इतने कि सितंबर १९५३ में अपनी होने वाली पत्नी लुसी मेरी रोस के समक्ष विवाह का प्रस्ताव उन्होंने अपनी सास के जरिए रखा था । वे अपने सेलीब्रिटी स्तर को लेकर भी काफी शर्मीले थे । अपनी सफलता की ५०वीं वर्षगांठ पर उन्होंने महारानी का निमंत्रण ठुकरा दिया और नेपाल में अपने शेरपा मित्रों के साथ इस अवसर को याद किया । सन् १९७५ वे नेपाल के फाफलू गाँव में अस्पताल का निर्माण करा रहे थे। तभी वहाँ आते हुए उनकी पत्नी और एक बच्च्े की विमान हादसे में मौत हो गई । परंतु हिलेरी का काम नहीं रुका । २१ दिसंबर १९८९ में उन्होने जून मलग्रु से विवाह किया, जो उनके स्वर्गवासी मित्र पीटर की पत्नी है । इस सेवाभावी व्यक्ति के ६ पोते-पोतियाँ हैं । इनमें से एमिलिया हिलेरी तो उनके ट्रस्ट का ही काम देख रही हैं । एवरेस्ट की पहली फतह की पंचासवीं बरसी पर उनके बेटे पीयर और तेजिंग नोर्गे के पुत्र जेमलिंग तेनजिंग नोर्गे ने भी अप्रैल २००३ में एवरेस्ट फतह किया। इस प्रकार प्रकृति पुत्रों ने अपनी परंपरा अपनी संतानों को विरासत में दी। वे अमेरिका हिमालयन फाउंडेशन के अध्यक्ष थे । यह अमेरिका की अलाभकारी संस्था है, जो हिमालय में लोगों के जीवनयापन तथा पारिस्थितकीय तंत्र को सुधारने में मदद करती है । सर हिलेरी की मृत्यु पर दुनियाभर में शोक मनाया गया और उन्हें शताब्दी के महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में आदर दिया गया । ***

२ सामयिक

नदियों की जिंदगी का सवाल
प्रमोद भार्गव
जीवनदायनी नदियां हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। नदियों के किनारे ही सभी आधुनिकतम सभ्यताएं विकसित हुई हैं । जिन पर हम गर्व कर सकते हैं । सिंधु घाटी और सारस्वत (सरस्वती) सभ्यताएं इसके उदाहरण हैं । भारत के सांस्कृतिक उन्नयन के नायकोंमें भागीरथ, राम और कृष्ण का नदियों से गहरा संबंध रहा है । भारतीय वांगमय में इन्द्र विपुल जल राशि के प्राचीनतम वैज्ञानिक प्रबंधक रहे हैं । भारत भू-खंड में आग, हवा और पानी को सर्वसुलभ नियामत माना गया है। हवा और पानी की शुद्धता व सहज उपलब्धता नदियों से है । आज नदियों के जल बंटवारे को लेकर राज्यों में परस्पर विवाद हैं । दूसरे औद्योगिक कचरे शहरी मल-मूत्र बहा देने का क्रम जारी रहने से नदियां प्रदूषित होकर अपना अस्तित्व ही खो रही हैं । ऐसे में केन्द्रीय जलसंसाधन मंत्री सैफुद्दीन सोज का यह सुझाव कि देश की प्रमुख नदियों को राष्ट्रीय नदियां और राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर भारत सरकार अपने अधिकार में ले, स्वागत योग्य है । यह जलसंकट के भयावह दौर से गुजर रहे राष्ट्र को जल समस्या से किसी हद तक निजात दिलाने का ठोस उपाय बन सकता है । जरुरत है हठधर्मिता छोड़ सम्यक, समन्वयवादी रवैया अपनाने और सर्वागीण विकासोन्मुखी दृष्टिकोण प्रचलन में लाने की । होने को तो दुनिया के महासागरों, हिमखंडो, नदियों और बड़े जलाशयों में अकूत जल भंडार हैं । लकिन मानव के लिए उपयोगी जीवनदायी जल और बढ़ती आबादी के बीच जल की उपलब्धता का बिगड़ता अनुपात चिंता का बड़ा कारण बना हुआ है । ऐसे मेें बढ़ते तापमान के कारण हिमखंडो के पिघलने और अवर्षा के चलते जल स्त्रोतों के सूखने का सिलसिला जारी है । वर्तमान में जल की खपत कृषि, उद्योग, विद्युत और पेयजल के रुप में सर्वधिक हो रही है । हालांकि पेयजल की खपत मात्र आठ फीसदी है । जिसका मुख्य स्त्रोत नदियां और भू-जल हैं । औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और बढ़ती आबादी के दबाव के चलते एक ओर तो नदियां सिकुड़ रही हैं दूसरी ओर औद्योगिक कचरा और मल मूत्र बहाने का सिलसिला जारी रहने से गंगा और यमुना जैसी नदियां इतनी प्रदूषित हो गई हैं कि एक पर्यावरण संस्था ने यमुना को मरी हुई नदी तक घोषित कर दिया । मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात जलविद् राजेन्द्र सिंह ने यमुना के किनारे राष्ट्रमंडल खेलों और मेट्रो को इस जीवनदायी नदी की मौत बताते हुए इन प्रस्तावों के विरुद्ध संघर्ष ही छेड़ा हुआ है । यह सही भी है यदि यमुना के जल-भरण वाले चार से पांच किलोमीटर चौड़े तटांे पर स्थायी सीमेंट-कांक्रीट के जंगल खड़े किए जाते हैं तो नदी की जल संग्रहण क्षमता निर्विवाद रुप से प्रभावित होगी । अक्षरधाम मंदिर का विशाल परिसर इस नदी के तट पर पहले ही खड़ा किया जा चुका है । राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ४० प्रतिशत जल की आपूर्ति यमुना से ही होती है । गंगा, यमुना वाले पूरे दोआब क्षेत्र में जल का विशालतम भंडार है जो इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) के भू-जल से अंत: सलिला के रुप में जु़़डा है । भू-जल के इन भंडारों का विस्तार हस्तिनापुर तक है। यमुना के जिन तटों पर खेल परिसर, पंचतारा होटल और सड़कों के निर्माण प्रस्तावित हैं, यदि वे आकार लेते हैं तो निश्चित ही उपरोक्त जल भंडारों में प्राकृतिक तौर से जारी जल पुनर्भरण की प्रक्रिया बाधित होगी । केन्द्रीय बोर्ड भी कहता है कि खुले मैदानों में जल पुर्नभरण की गतिविधियां तेजी से चलती हैं । एक तरफ तो दिल्ली सरकार हस्तिनापुर के भू-जल भंडारों से दिल्ली की प्यास बुझाने की कोशिश में लगी है । वहीं दूसरी तरफ यमुना के विशाल तटों को सीमेंट-कांक्रीट से पाटकर हस्तिनापुर के भूजल भंडारो के पुर्नभरण में अवरोध करने के प्रस्ताव ला रही है । वर्तमान हालातोंमें वैसे भी यमुना बाईस किलोमीटर लंबे नाले में तब्दील हो चुकी है । इसे प्रदूषण मुक्त बनाए रखने के लिए दो हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात ही रहा बल्कि इसके उलट प्रदूषण दो गुना तक बढ़ गया है । नदियों में प्रतिदिन औद्योगिक अवशेष और मानव उत्सर्जन के रुप में तीन सौ करोड़ लीटर गंदा पानी छोड़ा जा रहा है । ८० प्रतिशत गंदा पानी शहरों से निकलता है । नदियों की प्रदूषण ग्रहण करने की स्वाभाविक क्षमता सेे यह गंदा पानी कई गुना अधिक है । इसलिए नदियों का जल मनुष्य और जलीय जीवों के लिए रोगजन्य साबित हो रहा है । हाल ही में चंबल नदी में ३१ घड़ियाल मरे पाए गए। वन विशेषज्ञों ने दावा किया है कि ये घड़ियाल चंबल का पानी जहरीला हो जाने के कारण लीवर सिरोसिस की बीमारी से मरे । अब तक यह बीमारी मनुष्यों में ही रेखांकित की गई थी । शायद ऐसे ही हालातों के संदर्भ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अंतत: यह कहना पड़ रहा है कि नदियों कि प्रदूषित होने के कारण सकल घरेलू उत्पाद में चार प्रतिशत का घाटा उठाना पड़ रहा है । केन्द्रीय भू-जल बोर्ड ने राष्ट्र के लगभग ८०० ऐसे भू-खंड को चिन्हित किया है, जिनमें भू-जल का स्तर निरंतर घट रहा है । ये भू-खंड दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, गुजरात और तमिलनाडु में हैं । यदि भू-जल स्तर के गिरावट में निरंतरता बनी रहती है तो भविष्य में भयावह जल संकट तो पैदा होगा ही भारत का पारिस्थितिकी तंत्र भी गड़बड़ा जाएगा । केन्द्र सरकार ने ४३ भू-खंडो से जल निकासी पर प्रतिबंध लगा दिया है। भू-जल संवर्धन की दृष्टि से यह एक कारगर पहल है । केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री ने फिलहाल १२ नदियों को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने का सुझाव दिया है । १३५०० किलोमीटर लंबी ये नदियां भारत के संपूर्ण मैदानी क्षेत्रों में अठखेलियां करती हुई मनुष्य और जीव-जगत के लिए प्रकृति का अनूठा और बहुमूल्य वरदान बनी हुई हैं । २५२८ लाख हेक्टेयर भू-खंड़ों और वन प्रांतरों में प्रवाहित इन नदियों में प्रति व्यक्ति ६९० घनमीटर जल है । कृषि योग्य कुल १४११ लाख हेक्टेयर भूमि में से ५४६ लाख हेक्टेयर भूमि इन्हीं नदियों की बदौलत प्रतिवर्ष सिंचित की जाकर फसलों को लहलहाती है । वैसे `पानी' हमारे संविधान में राज्यों के क्षेत्राधिकार में आता है । परंतु जो नदियों एक से अधिक राज्यों में बहती हैं उन्हें संपत्ति घोषित किए जाने में राज्यों को आपत्ति नहीं होनी चाहिए । हालांकि कावेरी जल विवाद पिछले १७ साल से उलझन में है । चंबल सिंचाई हेतु जल को लेकर भी राजस्थान और मध्यप्रदेश में हर साल विवाद छिड़ता है । वहीं महानदी और ब्रह्मपुत्र अंतर्राष्ट्रीय विवाद का कारण भी बनती हैं । इन विवादों का राष्ट्रीय स्तर पर निपटारा गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, चंबल, सिंधु, महानदी, ब्रह्मपुत्र, ताप्ती, दामोदर, सतलज, झेलम और साबरमती नदियों को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर किया जा सकता है । दरअसल हमारे देश में बड़ी और राष्ट्रीय मुश्किल यह है कि सरकारी क्षेत्र में जल, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी समस्याएं न तो राष्ट्रीयता को बोध कराने वाली प्राथमिक सूची में है । ***

३ हमारा भूमण्डल

एक जटिल समस्या है, जलवायु परिवर्तन
मार्टिन खोर
नोबल पुरस्कार प्राप्त् जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय सरकारों की पेनल (आय.पी.सी.सी.) की ताजा रपट का सार पढ़ लेने मात्र से पर्यावरण परिवर्तन के बारे में नवीनतम जानकारियां संक्षिप्त् और सटीक रूप में हम सबके सामने है। मात्र २३ पृष्ठीय यह रपट (विज्ञान पर प्रभाव, पर्यारण परिवर्तन के असर एवं पर्यावरण परिवर्तन को कम करने के लिए आवश्यक नीतियां) आय.पी.सी.सी. द्वारा पूर्व में जारी की गई हजारों पृष्ठों में फैली तीन अलग-अलग रपटों का निचोड़ है। यह गंभीर संकलित रपट हमें आसन्न चुनौतियों के बीच पृथ्वी पर जीवन को बचाए रखने के बारे में सुझाव भी देती है । उदाहरण के लिए पेनल अध्यक्ष राजेन्द्र पचौरी का कथन कि हम भले ही उत्सर्जन को बहुत सीमित कर लें और वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को इसी स्तर पर बनाए रखें तो भी समुद्री जलस्तर ०.०४ मीटर से १.४ मीटर तक बढ़ने की आशंका बनी रहेगी क्योंकि समुद्री जल के गर्म होने की क्रिया तो जारी रहेगी ही जिसके फलस्वरूप समुद्री क्षेत्र में फैलाव होना लाजमी है । उन्होंने बताया कि यह खोज बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी वजह से तटीय क्षेत्रों में बड़े परिवर्तन संभावित है जैसे निचले क्षेत्रों में जल प्लावन के खतरे होंगे और नदियों के डेल्टा प्रदेशों एवं निचले द्वीपों में भी इस वजह से बड़े दुष्प्रभाव प्रकट होंगे । इस कार्य में शामिल २५०० विशेषज्ञ वैज्ञानिक विश्लेषकों, १२५० लेखकों और १३० देशों के नीति निर्माताआें के साझा प्रयासों ने इसे इतना महत्वपूर्ण दस्तावेज बनाया है। इस रपट का मुख्य संदेश यह है कि तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी में संदेह की गुंजाईश नहीं है और इस वजह से हवाआें की रफ्तार और समुद्री जल का तापमान भी साथ-साथ ही बढ़ेगा । जिसके परिणामस्वरूप समुद्रों का जलस्तर बढ़ेगा और बर्फबारी और पहाड़ों पर जमी बर्फ में और कमी आएगी । समुद्रों के जलस्तर की बढ़ती रफ्तार जो सन् १९६१ के १.८ मिलीमीटर प्रतिवर्ष की तुलना में सन् १९९३ में ३.१ मिलिमीटर प्रतिवर्ष तक जा पहुंची है इस समय सर्वाधिक चिंता का विषय है। इसकी मुख्य वजह है बढ़ते तापमान से हो रही घनत्व वृद्धि और ग्लेशियरों व पहाड़ी चोटियों पर जमी बर्फ और धु्रवों की बर्फ की चादरों का पिघलाव । अनुमान है कि २१वीं सदी के अंत तक समुद्री जलस्तर में वृद्धि का आंकड़ा १८ से ५९ सेंटीमीटर का स्तर छू लेगा । श्री पचौरी चेतावनी देते हुए कहते हैं कि तापमान में वृद्धि के कुछ असर आकस्मिक और अपरिवर्तनीय भी होंगे । उदाहरण के लिए ध्रुवों की बर्फ की चादर में हुआ थोड़ा-सा पिघलाव भी समुद्र के जलस्तर में कई मीटर की वृद्धि कर देगा। जिसके फलस्वरूप तटीय क्षेत्रों में बड़े परिवर्तन होंगे । निचले क्षेत्रों में जल भराव होगा, नदियों के डेल्टा प्रदेशों और निचले टापुआें में भी जलप्लावन की सी स्थितियां निर्मित होंगी । यह रपट तापमान वृद्धि के असर पर क्षेत्रवार प्रकाश डालती है । जैसे अफ्रीका में २०२० तक ७.५ करोड़ से लेकर २५ करोड़ लोगो को इसके दुष्परिणाम भुगतना होंगे । कुछ देशों में तो वर्षा आधारित कृषि घटकर ५० प्रतिशत रह जाएगी । एशिया में आने वाली मुख्य परेशानियां इस तरह है संभावना है कि २०५० तक मध्य, दक्षिण, पूर्व एवं दक्षिण पूर्व एशिया में खासतौर से बड़े नदी संग्रहणों में मीठे जल में भारी कमी होगी । दक्षिण पूर्व एवं दक्षिण पूर्वी एशिया के तटीय क्षेत्रों खास तौर से बड़ी आबादी वाले वृहद डेल्टा प्रदेशों में समुद्रों और नदियों की बाढ़ का सबसे ज्यादा खतरा होगा । संभावित जलवायु चक्र परिवर्तन की वजह से पूर्वी दक्षिण एवं दक्षिण पूर्वी एशिया में बाढ़ और सूखा जनित डायरिया की वजह से प्रदूषण और मृत्युदर में वृद्धि होगी । रपट चेतावनी देती है कि तापमान वृद्धि की शुरूआत हो चुकी है। सन् १९८० से अब तक के सर्वाधिक १२ गरम वर्षो की गणना करें तो हम पाएंगे कि सन् १९९५ से लेकर २००६ तक के बारह में से ग्यारह वर्ष पिछले १०० वर्षो में सर्वाधिक गरम थी, साथ ही पिछले १०० वर्षो में तापमान में ०.७४ डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हुई है । आर्कटिक की बर्फ का दायरा २.७ प्रतिशत प्रति दशक की दर से सिकुड़ता जा रहा है । गर्मियों में तो यह ७.४ प्रतिशत दशक की दर से सिकुड़ रहा है । पृथ्वी के दोनोंही गोलार्धो में ग्लेशियरों एवं बर्फ की मात्रा में कमी आई है । रपट लगातार चेताती है कि यदि अब भी अगर कदम न उठाए गए तो वैश्विक उत्सर्जन की मात्रा में सन् २००० और २०३० के बीच २५ से ९० प्रतिशत की वृद्धि होने की संभावना है । अगले बीस सालों में ०.२ डिग्री सेंटीग्रेड प्रति दशक की दर से तापमान वृद्धि की आशंका जताई गई है और अगर ग्रीन हाउस गैसों और एयरोसोल के घनत्व को सन् २००० के स्तर पर स्थित भी रख लिया जाए तब भी इसके ०.१ डिग्री सेंटीग्रेड प्रति दशक की दर से बढ़ने का आकलन किया गया है । उसके बाद के तापमान वृद्धि के आकलन उत्सर्जन के स्तर पर निर्भर करते हैं । रपट के अनुसार मौजूदा स्थिति आई.पी.सी.सी. द्वारा कुछ वर्ष पूर्व कराए गए आकलन से भी काफी खराब है । इसमें चिंता के पांच आधार बिंदु तय किए है । प्रकृति के लिए खतरा : १९८०-१९९९ के स्तर से तापमान का वैश्विक औसत अगर १.५ डिग्री सेंटीग्रेड से २.५ डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ता है तो वनस्पति और पशुआे की २० से ३० प्रतिशत प्रजातियों पर विलुप्त् होने के खतरे बढ़ जाएंगे । प्राकृतिक आपदाआे के खतरे : सूखा, गर्म हवाएं, बाढ़ में वृद्धि और अनेक अन्य दूरगामी परिणाम भी अनुमानित है । प्रभावों के प्रति सहनीयता: विभिन्न क्षेत्रों में असर भी भिन्न-भिन्न होगा, खासतौर से आर्थिक आधार पर पिछड़े लोगों पर पर्यावरण परिवहन का असर सर्वाधिक हुआ करता है । सामूहिक प्रभाव : कम गर्म होने वाले क्षेत्रों में पर्यावरण परिवर्तन के प्रारंभिक बाजार आधारित लाभ ज्यादा होने का अनुमान किया गया है जबकि ज्यादा गर्म होने वाले क्षेत्रों में सर्वाधिक नुकसान आकलित है । एक बड़ा कारण और उसके खतरे : सैकड़ों वर्षो से जारी तापमान वृद्धि के परिणाम स्वरूप हुई घनत्व वृद्धि की वजह से समुद्री जलस्तर में वृद्धि बीसवीं सदी की अपेक्षा बहुत ज्यादा आकलित है, जिससे तटीय क्षेत्रों में कमी होगी और इससे जुड़े अन्य प्रभाव भी सामने आएंगे। रपट समक्ष बड़े खतरे से निपटने के उपायों पर जिसमें - शमन (ऊर्जा, परिवहन, उद्योग आदि क्षेत्रों में निवारक उपाय अपनाकर स्थिति को बदतर होने से रोकना), अनुकूलन (दुष्प्रभावों को कम करने के उपाय) वित्त प्रबंध एवं तकनीक शामिल हैं पर चर्चा के साथ खत्म होती है । ***

४ ऊर्जा जगत

परमाणु ऊर्जा के और भी विकल्प हैं
रिचर्ड महापात्र
विश्व के किसी भी देश को इस बात की जानकारी नहींहै कि रेडियोएक्टिव अपशिष्ट का सुरक्षित व स्थायी निपटान किस प्रकार किया जा सकता है । दूसरे शब्दों में कहें तो काम में आ चुके यूरेनियम की कम से कम १५००० वर्षो तक और प्लूटोनियम की ७५००० से १००००० वर्षो तक निगरानी रखनी पड़ेगी । विश्व में ४४२ परमाणु संयंत्र प्रतिवर्ष १२ हजार टन रेडियोएक्टिव अपशिष्ट उत्पन्न करते हैं। अगर परमाणु हथियारों को नष्ट किया गया तो इससे ५० हजार टन प्लूटोनियम की वृद्धि होगी । सन् २००४ में ओबनिन्स में दुनिया के पहले परमाणु ऊर्जा केन्द्र की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर विश्व में ३२ देशों के ५०० वैज्ञानिक व नीति निर्माताआे ने एक स्वर में यह तय किया कि परमाणु ऊर्जा को २१वीं शताब्दी में एकमात्र विश्वसनीय ऊर्जा स्त्रोत के रूप में प्रोत्साहित किया जाए । परमाणु ऊर्जा क्षेत्र के पुनरूद्धार की बात उस समय उठी है जबकि विश्व के ४४२ परमाणु रिएक्टरों में से ७० प्रतिशत की आयु सीमा समािप्त् पर है । परमाणु ऊर्जा विश्व के ऊर्जा उत्पादन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में भी असफल रही है और २००२ में इन सभी रिएक्टरों का सम्मिलित ऊर्जा उत्पादन ३६० गीगावाट इलेक्ट्रिकल (जीडब्ल्यूई) था जो कि विश्व विद्युत उत्पादन का मात्र १६ प्रतिशत है । इतना ही नहीं यह अनुपात १९८७ से स्थिर है । अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी का कहना है कि वर्ष २०१५ तक उपरोक्त में मात्र १० जीडब्ल्यूई की वृद्धि संभव है। इतना ही नहीं वर्ष २०३० तक अपनी आयु सीमा पूर्ण कर चुके ४०० पुराने रिएक्टरों को नए रिएक्टरों से बदलना होगा अन्यथा विद्युत आपूर्ति में जबरदस्त कमी आ सकती है । चूंकि विकसित देशों की घरेलू आबादी अपने यहां नए संयंत्र खोलने की अनुमति नहीं दे रही है अतएव विकसित देश अपने पुराने रिएक्टरों की आयु सीमा को बढ़ा रहे हैं । अमेरिका के परमाणु नियामक आयोग ने १९७७ से अब तक ९६ रिएक्टरों की क्षमता २० प्रतिशत तक बढ़ाने की अनुमति दी है । स्विजरलैंड ने अपने पांच रिएक्टरों की क्षमता में १२.३ प्रतिशत की वृद्धि की है। वहीं जापान ने अपने संयंत्रों की आयु सीमा ७० वर्ष तक और बढ़ाने का निश्चय किया है । वहीं आईएईए के परमाणु ऊर्जा तकनीक विकास विभाग के रोनाल्ड स्टेडर का कहना है कि `हमें अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए प्रतिवर्ष चार नए रिएक्टरों की स्थापना करनी होगी । परंतु क्या यह व्यवहारिक है ?' इस संबंध में यूरोप में अजीब-सी स्थिति उत्पन्न हो गई है । एक ओर जर्मनी है जो कि सुरक्षा और इससे उत्पन्न अपशिष्ट के मद्देनजर २०५० तक परमाणु ऊर्जा से छुटकारा पा लेना चाहता है । वहीं दूसरी ओर फ्रांस के कुल विद्युत उत्पादन का ८० प्रतिशत परमाणु ऊर्जा से आता है वह इस क्षमता में और वृद्धि करना चाहता है । इन दो चरम स्थितियों की बीच अन्य देश अवस्थित है । पिछले वर्षो में यूरोपियन यूनियन की सदस्यता लेने वाले देशों में से चेक गणराज्य, स्लोवाक गणराज्य, स्लोवेनिया, हंगरी और लिथुएनिया मुख्यता रूस में निर्मित रिएक्टरों का प्रयोग कर रहे हैं । चंूकि अगले २० से ३० वर्षो में यूरोप की आयातित ऊर्जा पर निर्भरता ७० प्रतिशत तक बढ़ जाएगी अतएव उसने अनुशंसा की है कि वह परमाणु ऊर्जा को व्यापक स्वीकृति प्रदान करते हुए ऊर्जा सुरक्षा पर एक पर्यावरणीय लेखाजोखा (ग्रीन पेपर) जारी करें । इसी बीच अमेरिका ने इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए अमेरिकन परमाणु ऊर्जा २०१० कार्यक्रम के अंतर्गत वहां की सरकार एवं निजी कंपनियों ने एक साथ कार्य करते हुए नए परमाणु संयंत्रों हेतु स्थानों का चयन किया है । इस कार्यक्रम के अंतर्गत घोषित प्रथम संयंत्र इस दशक के अंत तक बनकर तैयार हो जाएगा । हालांकि एशिया को परमाणु ऊर्जा का भविष्य माना जा रहा है । अमेरिका स्थित ऊर्जा सूचना प्रशासन ने २००४ में जारी रिपोर्ट में कहा है कि २०२५ तक एशिया की क्षमता में ४४ जीडब्ल्यूई की वृद्धि संभावित है । जो कि पूरे विकासशील विश्व की दर्शाई गई क्षमता का ९६ प्रतिशत है । इसमें से चीन १९ जीडब्ल्यूई, दक्षिण कोरिया १५ जीडब्ल्यूई,जापान ११ जीडब्ल्यूई और भारत और रूस ६ जीडब्ल्यूई की वृद्धि करेंगे । परमाणु ऊर्जा को पर्यावरणीय व राजनीतिक, दोहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है । पर्यावरण के प्रति चिंता इसे सार्वजनिक स्वीकृति प्रदान नहीं कर पा रही है । वहीं ९/११ सितंबर के पश्चात यह एक राजनीतिक विषय वस्तु के रूप में तब्दील हो गई है । पुरानी पड़ती अधिसंरचना और इसके अबाध प्रवाह को रोकने हेतु विकसित तकनीक इसकी अन्य चुनौतियां हैं । इतना ही नहीं विभिन्न राष्ट्रों के बीच तकनीक के संबंध में बन रहा गतिरोध व नए संयंत्रों की स्थापना के स्थानों को लेकर भी अंतर्विरोध बना हुआ है । रूस और चीन चाहते हैं कि यह रिएक्टर काडाराची,फ्रांस में लगे तो अमेरिका, दक्षिण कोरिया व जापान चाहते हैं कि यह रोक्काशोमुरा, जापान में स्थापित हो । परंतु रेडियोएक्टिव अपशिष्ट निपटान की पर्यावरणीय समस्या दिन-ब-दिन व्यापक रुप लेती जा रही है । आईएईए के उपनिदेशक जनरल का कोई सर्वमान्य ही ढूंढ ही लेना होगा अन्यथा परमाणु ऊर्जा की नकारात्मक छवि से छुटकारा पाना नामुमकिन है । परमाणु ऊर्जा की राह में सबसे बड़ा रोड़ा इसके उत्पादन तकनीक में लगने वाली लागत है । विद्युत बाजार पर नियंत्रण समाप्त् होेने से इसे कोयले, गैस व जल विद्युत परियोजनाआें से प्रतिस्पर्था करना पड़ा रही है । वर्तमान में कार्यरत संयंत्रों की लागत का या तो भुगतान हो गया है अथवा उन्हे सब्सिडी के माध्यम से चुका दिया गया है । अतएव वर्तमान में कार्यरत अधिकांश संयंत्र जा विकसित देशों में है और अच्छा लाभ भी दे रहें हैं । परंतु नये संयंत्रो की स्थापना अब दुष्कर होती जा रही हैं । जीवाश्म इंर्धन आधारित संयंत्रों की तुलना में परमाणु संयंत्रो की लागत तीन गुना अधिक है । इसके निर्माण में कम से कम १२ से १५ वर्ष लगते हैं । इससे पूंजी के प्रवाह में अवरोध आ जाता है । अपने आकल्पन से कार्य में आने तक के लिए एक संयंत्र को २५ से ३० वर्ष चाहिए । इस तरह से निवेश पर किसी भी तरह की वापसी हेतु तीन दशकों तक इंतजार करना पड़ता है । अतएव कोई आश्चर्य नहीं कि पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में हाल ही में ऊर्जा के क्षेत्र में हुए निवेश प्राकृतिक गैस आधारित संयंत्रो की ओर मुड़े हैं । भारत का परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम वर्तमान में उसकी ३ प्रतिशत की भागीदारी को २०५० तक २५ प्रतिशत की सीमा पर ले जाना चाहता है । इस हिसाब से ऊर्जा बाजार पर प्रतिवर्ष आधा प्रतिशत के हिसाब से कब्जा करना है । भारत अपने परमाणु कार्यक्रम पर बड़ी मात्रा में धन लगा चुका है । वह अब तक इस क्षेत्र में १० लाख करोड़ रुपए का निवेश कर चुका है । इस निवेश के मुकाबले मात्र तीन प्रतिशत का विद्युत उत्पादन संसाधनों का बड़ी मात्रा में अपव्यय नहीं तो और क्या है ? आज सबसे बड़ी चुनौती परमाणु ऊर्जा को प्रतिस्पर्धात्मक बनाने की है । वैसे भारतीय परमाणु ऊर्जा निगम लिमिटेड के विश्लेषण में कहा गया है कि परमाणु संयंत्र अपने प्रारंभ होने के ४ से ५ वर्ष पश्चात कोयले आधारित संयंत्र के मुकाबले सस्ता पड़ने लगता है । परंतु इस हेतु बड़ी मात्रा में सरकारी निवेश की आवश्यकता पड़ती है और बिजली उत्पादन में बड़ी मात्रा में छूट की दरकार भी होती है । अपनी बाध्यता को सनक में परिवर्तित न होने देने हेतु भारत का ऊर्जा के क्षेत्र में अपने विकल्पो को खुला रखना चाहिए । परमाणु ऊर्जा कोई अनिवार्यता नहीं है, अतएव भारत को परमाणु ऊर्जा से सम्मोहित भी नहीं हो जाना चाहिए ।***

५ जन जीवनवन

अधिकार कानून : अभी तो अंगड़ाई है
राजु कुमार
एक लंबे अंतराल के बाद आखिरकार केन्द्र सरकार को इस बात की चिंता हुई कि आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय से उन्हें मुक्ति दिलाने और जंगल पर उनके अधिकरों को मान्यता देने के लिए संसद ने दिसम्बर, २००६ में जिस कानून अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, २००६ का पारित कर दिया था, उसे अंतत: लागू कर दिया जाए। १ जनवरी २००८ से यह कानून लागू हो गया है । निश्चय ही यह कहा जा सकता है कि पीढ़ियों से अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत जंगल में निवासरत समुदाय को कानूनी रुप मे पहली बार कुछ हासिल हुआ है । इस तरह देखा जाए तो आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को यह आस जगी है कि अब उन्हें न सिर्फ वन विभाग और वन माफिया के अत्याचारोंसे मुक्ति मिलेगी बल्कि वे जंगल का उपयोग भी अपने जीविकोपार्जन के लिए कर सकेंगे । कानून के लागु हो जाने के बाद भी कई ऐसी बातें हैं, जिस पर बहस चलाए जाने की जरुरत है । सबसे बड़ी बात तो यह है कि क्या वास्तव में सरकार की यह मंशा रही है कि आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को जंगल पर अधिकार मिल जाएं ? या फिर विभिन्न दबावों के कारण सरकार ने इस कानून के मार्फत बीच का रास्ता निकालने का प्रयास किया है ? जंगल में रहने वालों और उस पर आश्रितों को लगभग पिछली दो सदियों से बड़े पैमाने पर अत्याचारों का सामना करना पड़ा है । जंगल के संसाधनों का दोहन कानूनी और गैर कानूनी रुप से सैकड़ो सालों से होता रहा है । यह दोहन तथाकथित मुख्यधारा के लोग करते रहे हैं और खमियाजा आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को भुगतान पड़ता रहा है । हालात कुछ ऐसे हुए कि विकास के नाम पर कुछ लोगों की कुर्बानी की जायज ठहराये जाने की स्वीकार्यता बढ़ाने में शासन एवं प्रशासन दोनों ने प्रमुख भूमिका निभाई । इसके बावजूद इस तथ्य को छिपाना किसी के लिए भी आसान नहीं रहा कि विकास के नाम पर जिनसे कुर्बानी की अपेक्षा की जाती रही है या फिर जिन्हें कुर्बान होना पड़ा है, उनमें से ९० फीसदी आदिवासी एवं अन्य जंगलवासी हैं । यह आश्चर्य की बात है कि एक ओर विकास एवं औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया तेज की जा रही है और इसके लिए जंगल और जमीनों के अधिग्रहण किए जा रहे हैं और दूसरी ओर इस कानून के माध्यम से आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को अधिकार संपन्न बनाया जा रहा है । इन पहलुआें को देखते हुए इस कानून के लागू हो जाने के बाद भी यह शंका बरकरार रह जाती है कि क्या आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को वांस्तविक रुप में जंगल पर अधिकार मिला पाएगा ? कानून के संसद से पारित होने के बाद से इसे लागू करने के बीच के अंतराल को यदि देखा जाए, ता भी बात को बल मिलता है । संसद ने इस कानून को दिसंबर, २००६ में ही पारित कर दिया था । लम्बे समय तक सरकार ने न तो इस कानून को अधिसूचित किया और न ही इसके क्रियान्वन हेतु नियमों को बनाया । ऐसी परिस्थिति में जंगलों में निवासरत लाखों-लाख लोगों को कानून बन जाने के बाद भी अपने अधिकारों से वंचित रहना पड़ा, साथ ही वे पहले की तुलना में इन दिनों वन अधिकारियों से ज्यादा प्रताड़ित हुए । जन संगठनों ने साफ तौर से इस बात को रेखांकित किया है कि इस कानून को लागू करने में सरकार जान बूझकर लेटलतीफी कर रही थी पर विभिन्न जन संगठनों के दबाव के बाद उसके लिए और देर करना संभव नहीं रह गया था । इसके पहले भी सरकार ने घोषणा की थी कि कानून को २ अक्टूबर को अधिसूचित कर दिया जाएगा पर ऐसा नही हो पाया था । कानून बन जाने के बाद इतने दिनों तक उसे अधिसूचित नहीं कर करने और नियम नहीं बनाने के पीछे की कहानी की ओर इशारा करते हुए विभिन्न आदिवासी संगठनों का कहना है कि कानून में संरक्षित क्षेत्र के निवासियों को जो अधिकार हैं उन्हें कमजोर करने के लिए प्रस्तावित नियमों में प्रावधान करने के प्रयास किए जाने के कारण ही इस कानून को लागू करने में सरकार देर करती रही । साथ ही नियमो में ग्राम सभा के अधिकारों को सीमित कर अफसरशाही को बढ़ावा देने का प्रयास भी किया गया है । पिछले दिनों मध्यप्रदेश में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जो यह साबित करती हैं कि कानून बन जाने के बाद भी उसके अधिसूचित नहीं होने और नियम नहीं बन पाने के कारण बीच की अवधि में आदिवासियों पर व्यापक अत्याचार हुए हैं। ऐसा इसलिए किया गया ताकि कानून के अधिसूचित होने से पहले ही जंगल के दावेदारोंको जंगल से खदेड़ दिया जाए और जब उन्हें अधिकार मिले, तब वे दावा करने के लिए जंगल में ही न हों । यानी कानून लागू होने के बाद उन्हें अधिकार तो मिल जाए पर दावेदारी नहीं रहे, क्योंकि तब वे जंगलो में निवासरत ही नहीं माने जाएंगे । यह आशंका इसलिए जाहिर की जाती रही है कि वन विभाग ने नियमों के बनने तक इंतजार करने के बजाय आदिवासियों को जंगल से खदेड़ने में ही रुचि दिखाई है । हाल ही में म.प्र. के बुरहानपुर जिले की नेपानगर तहसील के विभिन्न गांवोंमें निवासरत आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों पर वन विभाग के हमले ने क्रूर अत्याचार कर आदिवासियों को जंगल से बेदखल कर दिया था, जिसकी व्यापक भर्त्सना हुई । इस तरह की घटनाएं अन्य जगहों पर भी हुई हैं । आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को जंगल पर वास्तविक अधिकार मिल जाने से सबसे ज्यादा नुकसान वन माफिया, खदान माफिया और भू-माफिया का होगा, साथ ही वन आधिकारियो की मानमानियों पर भी अंकुश लग जाएगा । इन्हीं कारणों से कानून को कमजोर करने का प्रयास किया जाता रहा है , साथ ही अदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को जंगल से खदेड़ने के लिए उनके ऊपर वन विभाग द्वारा कई झूठे मुकदमे लगाए जाते रहे हैं। १ जनवरी २००८ को जारी हुए नियमों में यह कहा गया है कि ग्रामसभा गांव के लोगों के अधिकारों की पहचान करेगी । कई आदिवासी समुदाय खासतौर से सहरिया, सामान्य गांव में एक बस्ती के सीमित दायरे में रहते हैं । परंतु अपनी जीविका के लिए पूर्णत: वनों पर आश्रित हैं । साथ ही यह ध्यान देने योग्य है कि इन्हें पूर्व में वनों से विस्थपित किया जा चुका है । ऐसे में इन्हें इस कानून का लाभ कैसे मिल पाएगा? यह सवाल बरकरार है। क्योंकि इस कानून में वनवासियों की पृथक बस्ती, फलिया, टोला या मजरा को इकाई के रुप में मान्यता नहीं दी गई है । संयुक्त संसदीय समिति ने भी कहा था कि आदिवासियों की बस्ती को इस कानून में मान्यता दी जाये,पर ऐसा नही हुआ । कानून के नियमों में ग्राम सभा को जमीनों पर अधिकारों की सूची बनाने का दायित्व तो मिला है किन्तु गांव में कितनी जमीन पर अधिकार बांटे जायेंगे, इसकी जानकारी और नक्शे उपलब्ध करवाने का जिम्मा विभाग के पास है । उल्लेखनीय है कि वर्तमान में अनेकों राज्यों में राज्य स्तर पर जंगल के क्षेत्र की सीमाआे (क्षेत्रफल) के बारे में पुख्ता और विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं है। अन्य सवाल जो आदिवासियों की भावी पीढ़ियों के अधिकार से जुड़ा हुआ है वह यह है कि इस कानून के अनुसार जंगल में निवास कर रहे निवासियों को चार हैक्टेयर तक की जमीन पर अधिकार मिल जायेगा । पर अधिकांश आदिवासियों के पास इतनी जमीनें नहीं है और यदि अधिकतम सीमा के आधार पर जिन आदिवासियों को इतनी जमीनें मिल भी जाएं, तो क्या उनकी भावी पीढ़ियों के लिए उतनी जमीन पर्याप्त् होगी? इस तरह से जंगल पर सीमित संख्या में आदिवासियों को अधिकार मिल पाएगा और उनका बड़े पैमाने पर पलायन तो जारी रहेगा साथ में उन पर शोषण करना भी आसान होगा । उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए कहना मुश्किल है कि आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय से यह कानून मुक्ति दिला सकता है । अब देखना तो यह है कि राज्य सरकारें जंगल के दावेदारों की वाजिब हक दिलाने कि दिशा में किस तरह से अपने प्रदेशो में इस कानून का लागू करती हैं, क्योंकि कानून को लागू करने का जिम्मा राज्य सरकारों के ऊपर ही है । यह भी देखना जरुरी है कि राज्य सरकारें अपने राज्य के हितग्राहियों के हितों की रक्षा किस तरह करती हैं और अपने-अपने राज्यों में वन माफिया एवं खदान माफिया पर अंकुश लगाने के लिए क्या ठोस प्रयास करती हैं? राज्य सरकारों को एक महत्वपूर्ण काम यह भी करना होगा कि कानून बननेे के बाद से अब तक जिन आदिवासियों को जंगल से बेदखल किया गया है, उन्हें भी उनके परंपरागत निवास स्थान पर बसाने के लिए गंभीर प्रयास करें। फिलहाल यह आशा ही की जा सकती है कि इस कानून का समुचित लाभ अधिकतम लागों को मिलेगा । वैसे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस अधिनियम के लागू हो जाने के बाद वन विभाग द्वारा किए जाने वाले रोज-रोज के अत्याचारों से आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को कुछ मुक्ति मिल पाएगी । ***

६ पर्यावरण परिक्रमा

जंगल और जमीन पर अब आदिवासियों का अधिकार
वर्षो तक अन्याय और शोषण के शिकार रहे आदिवासियों को अन्तत: जंगल और जमीन पर अधिकार मिल गया है । अनुसूचित जनजाति और पारंपरिक रुप से जंगल में रहने वाले अन्य वनवासी, वनाधिकार मान्यता कानून को लागू करने सम्बंधी नियम और विनियमों को एक जनवरी २००८ को अधिसूचित कर दिया गया है । इस कानून के तहत जंगल में रहने वाले लोगों को वन भूमि पर खेती करने, पशुआे को चराने, मामूली वनोत्पादों का इकट़्ठा करने का अधिकार होगा । ये अधिकार उन्हीं आदिवासियों को मिलेंगे जो १३ दिसंबर २००५ के पहले से अपनी आजीविका के लिए वनों पर निर्भर हैं और वहीं रह भी रहे है । अन्य वनवासियों में इन अधिकारों का फायदा वहीं उठा सकेंगे जिनकी तीन पीढ़िया १३ दिसम्बर २००५ के पहले से अपना जीविकोपार्जन वनोत्पादों से कर रही हों । एक पीढ़ी २६ वर्ष की मानी जायेगी । ये अधिकार अधिकतम चार हेक्टेयर क्षेत्र पर लागू होंगे। इस कानून से जुड़े दावों का निपटारा ग्राम पंचायत की वनाधिकार समिति करेगी जिसमें ग्राम पंचायत के १०-१५ सदस्य होंगे । समिति के एक तिहाई सदस्य अनूसूचित जनजाति के और एक तिहाई महिलाएं रहेंगी। यह समिती कानून के दावों की जांच के लिये सम्बद्ध क्षेत्र में जाकर इसकी पहचान करेगी । दावे के बारे में संतुष्ट होने के बाद वह अपनी सिफारिश तहसील स्तर की समिति को भेजेगी और वह उन पर विचार के बाद अपनी अनुशंसा जिला स्तर की समिति को भेजेगी । जिला स्तर की समिति में जिला पंचायत के तीन सदस्य होंगे जिनमें से दो अनुसूचित जनजाति के होंगे इस कानून के तहत मिले अधिकार राष्ट्रीय उद्यानों और पक्षी विहारों पर भी लागू रहेंगे । सरकार इस कानून के तहत वन क्षेत्रों में स्कूल, अस्पताल, आंगनबाड़ी केन्द्र की स्थापना, पेयजल की आपूर्ति तथा बिजली और टेलीफोन की लाइन बिछाने जैसे काम कर सकेगी । इस कानून के तहत प्राप्त् हक उत्तराधिकार में तो दिये जा सकते है लेकिन किसी को हस्तांतरित नहीं किये जा सकेंगे । यदि सम्बन्धित व्यक्ति शादी शुदा होगा तो इस कानून से प्राप्त् संपत्ति पति.पत्नी के नाम संयुक्त रुप से होगी लेकिन अविवाहित होने की स्थिति में यह एक ही व्यक्ति के नाम पर होगी । उत्तराधिकारी नहीं होने की स्थिति में यह संपत्ति मालिक के निकटतम सम्बन्धी को मिलेगी । संपत्ति में पत्नी का भी नाम होने से महिलाआे का सशक्तिकरण होगा । मामूली वनोपज एवं वनोत्पादों में बांस, झाड़ी, बेत, टेसर, रेशम के कीड़े बूटियां जैसी चीजें शामिल की गई हैं । अवैध रुप से जमीन से बेदखल किये गये अनुसूचित जनजाति और अन्य वनवासियों का पुनर्वास का अधिकार होगा। वनभूमि के हकदारो की पहचान और पुष्टि की प्रक्रिया पूरी होने के पहले अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासियों को मिलने वाले अधिकारों के लिए उनके दांवो की पहचान की प्रक्रिया शुरु करने का जिम्मा ग्रामसभा को सौपा गया है । इससे १९९६ के पंचायत सम्बन्धी कानून के प्रावधानों के अनुरुप स्थानीय समुदायों का अपने प्राकृतिक संसाधन के प्रबंन्धन का अधिकार रहेगा । जंगल में रहने वाले लोग सरकार की विभिन्न योजनाआें का फायदा उठाने के भी हकदार होंगे । जंगल में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासियों को जंगल और जमीन का अधिकार मिलने से वन्य जीव, वन और जैव विविधता के संरक्षण सुरक्षा और उन्हें समृद्ध करने की जिम्मेदारी इन्ही लोगों की होगी ।
दिल्ली में चौराहों पर १०० करोड़ का तेल जलता है
क्या आप जानते हैं कि दिल्ली की चौराहों पर जब लालबत्ती होती है तो वाहनों में १००० करोड़ रुपये का ईधन फूंक चुका होता है । देशभर के चौराहों, रेल फाटकों और जाम में फंसे वाहन खड़े-खड़े करीब साल भर में ५००० करोड़ रुपये का तेल फूंक चुके होते हैं। बढ़ते तेल मूल्यों से आज पूरी दुनिया चिंतित है । भारत और चीन में जिस तेजी से पेट्रोलियम पदार्थो की खपत बढ़ती जा रही है उतनी तेजी के साथ इनकी खपत में किफायत के बारे में जागरुकता नहीं बढ़ रही है । हर साल हम करीब १० करोड़ टन कच्च्े तेल का आयात कर रहे हैं इस पर खरबों रुपये की विदेशी मुद्रा खर्च होती है। तैल भंडार दिनों दिन सिकुड़ते जा रहे हैं इसलिये सभी को पेट्रोलियम उत्पादों की खपत में किफायत बरतनी चाहिये । पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने तेल संरक्षण के लिये देश भर में जागरुकता बढ़ाने के लिये एक लाख रुपये का पुरस्कार कार्यक्रम शुरु करने की घोषणा की है । श्री देवड़ा ने कहा कि पेट्रोलियम उत्पादों की बचत कीजिये ताकि देश में लंबे समय तक इनकी उपलब्धता बनी रहे । सभी को लगातार तेल संरक्षण के प्रयास करते रहने चाहिये । देश में पेट्रोलियम उत्पादों की खपत में हर साल करीब ढाई प्रतिशत वृद्धि का अनुमान है । इसमें से यदि दो से ढाई प्रतिशत खपत की भी बचत की जाती है तो सालाना ८००० से १०००० करोड़ रुपयांे की बचत की जा सकती है ।
इको फ्रैंडली लाइफ का नया मंत्र
इन दिनों चारों ओर पर्यावरण बचाने की बात कही जा रही है, ऐसे में वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के असिटंेट वाइस चांसलर ने पर्यावरण हितैषी जीवन जीने का आसान उपाय सुझाया है जिसमें कोई खर्च भी नहीं आता हैं । सेंट लुईस स्थित वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के असिटेंट वाइस चांसलर मेट मेल्टन कहते हैं कि पर्यावरण मित्र जीवन जिया जा सकता है । इसके लिए उन्होने कुछ उपाय सुझाए है । उनका कहना है कि सबसे पहले अपने हर दिन की बिजली और पानी की खपत में कटौती करना चाहिए । साथ ही घरों से निकलने वाले कचरे की मात्रा को भी नियंत्रित करना चाहिए । इतना करने से ही पर्यावरण बचाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया जा सकता है । श्री मेट का कहना है कि घरों में पारंपरिक बल्बों की बजाय फ्लोरोसेंट बल्ब (सीएफल) का उपयोग करना चाहिए। ये महँगे जरुर होते है लेकिन बिजली के बिल में ३० फीसदी से ज्यादा की कटौती की जा सकती है । अमेरिका पर्यावरण संरक्षण एजेंसी स्टार के अनुसार सीएफएल में पारंपरिक बल्बों की तुलना में ७५ फीसदी कम ऊर्जा लगती है और ये १० गुना ज्यादा समय तक चलते भी हैं । इससे दोतरफा बचत होती है, बिजली का बिल कम आता है और बल्ब की कीमत भी वसूल हो जाती है । इलेक्ट्रीक उपकरणों जैसे टीवी, एसी की जरुरत न होने पर स्विच ऑफ करके रखें और प्लग भी निकाल लें । बॉटल का पानी इस्तेमाल करने की बजाय अपना पानी खुद फिल्टर करें । क्योंकि प्लास्टिक बॉटलों का निर्माण पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक है । उपयोग की हुई बॉटलो को फेंकने की बजाय दोबारा भरकर इस्तेमाल करें । श्री मेट के अनुसार दूसरा टिप्स यह है कि अपनी कार या दोपहिया वाहन को हमेशा अच्छी कंडीशन में रखें और ट्रैफिक के नियमों का पालन करें । शहर और हाइवे पर निर्धारित गति से कार चलाने पर इंर्धन की खपत कम होती है । इसके अलावा डिशवाशर, वाशिंग मशीन और ड्रायर को चलाने से पहले उन्हें पूरा भर लें, क्यों की इन मशीनों में ऊर्जा की खपत ज्यादा होती है । एक बार में पूरा भरकर उपयोग करने से इन्हें बार-बार चलाने की जरुरत नहीं पड़ेगी । इसके अलावा वाशिंग मशीन में गर्म पानी की बजाय ठंडा पानी इस्तेमाल करना चाहिए, इससे बिजली की काफी बचत हो जाती है ।
मंगल पर जीवन के नये सबूत
अमेरिका अंतरिक्ष एजेंसी नासा के वैज्ञानिकों द्वारा चार वर्ष पूर्व मंगल ग्रह (लाल ग्रह) पर भेजे गए दो यान से हाल ही में एसे चित्र प्राप्त् हुए हैं, जिनमें वहाँ जीवन व एलियन होने के प्रमाण मिलते है । नासा ने लाल ग्रह पर दो यान स्प्रिट और अपॉच्यूनिटी को चार वर्ष के मिशन पर भेजा था । इसी दौरान यानों के कैमरों से खींचे गए चित्रों में मंगल पर जीवन होन के सबूत मिले हैं । यान ने लाल ग्रह पर पहाड़ी से नीचे की ओर उतर रहे हरी ड्रेस पहने मानव जैसे दिखने वाले आदमी का फोटो खींचा है । ब्रिटिश अखबारों की माने तो अंतरिक्ष यान द्वारा खींचे गए चित्र एलियन के दिखाई देते हैं, जो वर्ष २००७ में खींचे गए थे । नासा के दोनो यानो ने अप्रेल २००४ में सफलतापूर्वक मंगल ग्रह का पूरा चक्कर लगा लिया था । इस दौरान एकत्र सबूतों मे भू-वैज्ञानिक वहाँ पानी, पर्यावरण और जीवन की खोज कर रहे हैं। जून और जुलाई २००३ में फ्लोरिडा के कैप कैनवेरल से प्रक्षेपित दोनों यानों ने ४८७ मिलियन और ४५६ मिलियन किमी की यात्रा पूरी करने के बाद लाल ग्रह के पीछे की और गति थामी थी । इस दौरान उन्हें कई धूल भरी जगहों से परेशानी पूर्वक गुजरना पड़ा । मंगल ग्रह पर घूमने के लिए यान को सौर ऊर्जा से संचालित होने वाला बनाया गया था । उनमें अनजान ग्रह की सतह पर चलने के लिए विशेष प्रकार के छ: मशीनी पैर लगाए गए थे । यान के सभी ओर उच्च् क्षमता वाले कैमरे लगाए गए थे, जिससे ३६० डिग्री और स्टीरियो पेनिक परिणाम मिल सके । लगभग ८२० मिलियम डॉलर वाले इस मिशन की सफलता फिलहाल जाहिर नहीं की गई है । लेकिन यह जो चित्र नासा द्वारा पिछले दिनों जारी किए गए, उससे दुनियाभर के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों मंे उत्साह और बढ़ गया है । इन चित्रो के अध्ययन से यह बात जाहिर की गई है कि लाखों वर्ष पहले लाल ग्रह पर पानी हुआ करता था । अब वहाँ के पूर्व और वर्तमान के और कई राज खुलने की संभावना बढ़ गई है । ***

७ दृष्टिकोण

सेतु समुद्रम परियोजना और पर्यावरण

डॉ. सी.पी. राजेंद्रन

सेतु समुद्रम नौ परिवहन परियोजना भारत और श्रीलंका के मध्य निर्मित की जा रही वह परियोजना है जो लगभग १५२ किमी लंबी है और इसमें ७५ किमी सागर के उथले हिस्से को गहरा बनाकर नौ परिवहन के उपयुक्त बनाया जाएगा । उपरी तौर पर योजना बहुत अच्छी है, इसमें जहाजों को आवागमन के लिए अब श्रीलंका की परिक्रमा नहीं करनी पड़ेगी और भारत के पूर्वीतट से पश्चिमी तट की ओर जाने में महाजों को ३३५ नाटिकल मील की दूरी कम तय करनी पड़ेगी । प्रस्तावित २४२८ करोड़ रूपये लागत मूल्य की इस परियोजना की लागत भी अब बढ़ गई है । इस परियोजना के प्रति भारत सरकार के जहाज रानी परिवहन मंत्रालय का उत्साह देखते ही बनता है । मंत्रालय इतना उत्साहित है कि उसे इस परियोजना के कारण होने वाले पर्यावरणीय नुकसानों की कोई चिंता नहीं है और न हीं इस संदर्भ में वह इस परियोजना पर वैज्ञानिकों के साथ परामर्श के लिए ही बहुत इच्छुक है । नेशनल एन्वायरमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी) ने २००४ में इस परियोजना के पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन अर्थात इआईए को स्वीकृति प्रदान की लेकिन इसके गंभीर दुष्प्रभावों की ओर वस्तुत: ध्यान नहीं दिया गया । परियोजना में सिर्फ ७५ किमी खुदाई की जाएगी शेष मार्ग नौपरिवहन के लिए उपयुक्त हैं । अनेक गैर सरकारी संगठनों को अनेक बातों पर आपत्ति है । इनका मानना है कि ईआईए में ठीक प्रकार से आपत्तियों का निराकरण नहीं गया है । इस पूरे समुद्री क्षेत्र में विभिन्न नदियों से जो बालू आदि तलछट का प्रवाह आता है उसकी विशाल मात्रा के बारे में पर्यावरण अध्ययन मूल्यांकन में नीरी ने पूरा ध्यान नहीं दिया है । इस संदर्भ आंकड़ों के न होने का मतलब ही है कि पाल्क स्ट्रेट में जमा होने वाले बालू आदि तलछट के संदर्भ में संपूर्ण अध्ययन विरोधाभासी रहेगा । वैसे भी तमिलनाडु का समुद्री तट तथा विशेष रूप से परियोजना मार्ग का क्षेत्र चक्रवाती तूफानों की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है । यहां इन मौसमी तूफानों के कारण सदा खतरा मंडराता रहता है । दिसंबर १९६४ में आए ऐसे ही एक समुद्री तुफान में पंबन का पुल जो रामेश्वरम् और धनुष्कोटि द्वीप को जोड़ता है, धराशायी हो गया था । इस प्रकार से चक्रवाती समुद्री तुफान संपूर्ण तलछट और चैनल निर्माण के समय खोदी गई सामग्री को इधर से उधर कर सकने में सक्षम है । ईआईए की रपट में इन चक्रवाती तुफानों की ओर ध्यान नहीं दिया गया है। इस कारण से जितनी मात्रा में खुदाई का संभावित आकलन किया गया है वह और भी ज्यादा हो सकता है इससे खुदाई के कार्य का लागत मूल्य तो सहज ही बढ़ने वाला है और खोदी गई सामग्री को विशाल मात्रा के व्यवस्थापन में भी तमाम दिक्कतें खड़ी हो जाएगी । ईआईए रिपोर्ट में सूनामी की भयावहता पर भी कोई मूल्यांकन नहीं किया गया । यह रिपोर्ट सन् २००४ में आई सुनामी के पूर्व ही तैयार हो गई थी और सरकार के सम्मुख प्रस्तुत कर दी गई थी । सुनामी के दुष्प्रभावों के संदर्भ में कुछ अध्ययनों में यह स्पष्ट हुआ है कि सुनामी लहरें पाल्क स्ट्रेट में दक्षिण दिशा के साथ-साथ उत्तर दिशा से भी प्रवेश करती है । संयोग से सुनामी के मार्ग में ही यह परियोजना निर्माणाधीन है । प्रो. टाइ एस. मूर्ति जो कनाड़ा स्थित ओटावा िशिववद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग से जुड़े हैं और जिनका सुनामी पर विशेष अध्ययन है, वे इस परियोजना को लेकर चिंतित है । उनका मानना है कि भविष्य में आने वाली सुनामी लहरों के लिए यह परियोजना डीप वाटर चेनल का काम करेगी और इसके कारण सुनामी लहरों की भयावहता और भी खतरनाक हो जाएगी । समुद्र की तलहटी के बारे में भी ईआईए रिपोर्ट में बहुत जानकारी नहीं दी गई है । इसके कारण यह स्पष्टत: समझ पाना कठिन है कि नहर निर्माण के लिए खुदाई या विस्फोटकों का प्रयोग, इनमें से कौन सा तरीका ज्यादा की होगा ताकि खुदाई में निकलने वाली सामग्री का उचित व्यवस्थापन हो सके । ईआईए रिपोर्ट इस बारे में भी विरोधाभासी है कि खुदाई के मलबे और अन्य सामग्री को कहां डम्प किया जाएगा ताकि उसका समुद्री पर्यावरण पर कोई दुष्प्रभाव न पड़े । अभियंताआे के पास इस संदर्भ मेंभी बहुत कम जानकारी है कि कैनाल का कौन सा हिस्सा भूस्खलन की दृष्टि से कमजोर साबित होगा और जहां भूस्खलन की संभावनाएं भी ज्यादा बनी रहेंगी । परियोजना के क्षेत्र में सागर उथला है और यहां प्राकृतिक रूप से तलछट जमता रहता है । यह तलछट समुद्री पर्यावरण की दृष्टि से अत्यंत महत्व का है, इसमें कोरल आदि अनेक सागरीय दृष्टि से उपयोगी पदार्थ जमा है, यह क्षेत्र सागरीय वनस्पतियों और जीवों की दृष्टि से अत्यंत महत्व का क्षेत्र माना जाता है । पहल ही यहां मनुष्यों द्वारा काफी मात्रा में दोहन हो चुका है अब यह परियोजना इस पूरे सागर क्षेत्र के लिए किसी आपदा से कम सिद्ध नहीं होगी । परियोजना के कारण की जाने वाली खुदाई और सागर में विस्फोटकों के प्रयोग से सागर का संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र उलट-पुलट जाएगा । स्थानीय स्तर पर मछलियों सहित अन्य सागरीय जीवों की बड़ी मात्रा में हानि होगी । इसके अतिरिक्त जब इस मार्ग से जहाजों का आवागमन प्रारंभ होगा तो सागर के शांत जैविक और प्राकृतिक वातावरण में हलचल मच जाएगी, ये जहाज इस क्षेत्र में प्रदूषण फैलाएंगे, इनसे निकलने वाले प्रदूषण तत्व जो समुद्र में इधर उधर फैलेंगे, उनसे यहां का प्राकृतिक जीवन पूरी तरह का तबाह हो जाएगा । पेट्रोलियम पदार्थ जो समुद्री जीवों के लिए सदा खतरा माने जाते हैं वे जहाजों के आवागमन के कारण इस सागर में फैल सकते है । दूसरे, यदि इस मार्ग में जहाजों को खींचकर ले जाया जाएगा जैसा कि प्रस्तावित है तो इसका वित्तीय खर्च पर सीधा असर होगा । इससे तो जहाजों को श्रीलंका की परिक्रमा कर जाना ही बेहतर, कम खर्चीला और समय की बचत के लिहाज से भी ज्यादा सुगम होगा । दूसरे शब्दों में, सरकार ने परियोजना का लाभकारी और वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया है । जरूरी है कि सरकार इस परियोजना पर की गई आपत्तियों को गंभीरता से लें,इस पर पुनर्विचार कर देशहित हित में कोई निर्णय करे । ***

८ सामाजिक पर्यावरण

दूध-दही की नदियों वाले देश में बिकता पानी
जगदीश प्रसाद शर्मा
कम आबादी के कारण प्राचीन भारत वन बाहुल्य था । भारतीय संस्कृति में वनस्पति को सजीव माना है, जिस कारण हमारी संस्कृति में वृक्षों और वनों को संरक्षण दिया गया है । इसीलिए प्राचीन भारत देश का ५० प्रतिशत से अधिक भू-भाग हमेशा वनाच्छादित रहा है । हरे-भरे वनों के कारण ही इस देश में भरपूर वर्षा होती थी, बारहमासी नदी-नाले और झरने पूरे देश में मौजूद थे, भू-जल का कोई अभाव नहीं था, जिस कारण भरपूर कृषि उत्पादन होता था। कृषि एवं वन क्षेत्रों में पशुआें के लिए पर्याप्त् चारा उपलब्ध होने के कारण दूध-दही का भी भरपूर उत्पादन होता था । शायद यही कारण था कि प्राचीन भारत में दूध-दही की नदियां बहने की कहावत चरितार्थ हुई । आज से ५० साल पूर्व तक भी खेती को ही उत्तम कर्म माना जाता था। हरियाणा और पंजाब जैसे कृषि प्रधान प्रांतों में वन भूमि नहीं के बराबर है, क्योंकि यहां बहुत पहले वनों का सफाया करके वन भूमि को कृषि भूमि में बदल लिया गया है । आज जिन प्रांतों में वन बचे हैं, वहां बढ़ती आबादी एवं निजी तथा राजस्व भूमि की अनुपलब्धता के कारण वन भूमि पर लोगों की गिद्धदृष्टि हमेशा बनी रहती है । परिवार बढ़ने के कारण अब प्राय: प्रति परिवार (पति, पत्नि और उसके बच्च्े) आधा हेक्टेयर भूमि भी नहीं रही है। ऐसे में गरीब परिवारों की गुजर-बसर के लिये वन भूमि पर किये गये अतिक्रमण का समय-समय पर व्यवस्थापन करना एक मानवीय आवश्यकता महसूस की जाती रही है । अधिकतर लोगों की धारणा है कि शायद इसीलिए ``अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, २००६'' दिनांक ३१ दिसम्बर २००७ से प्रभावशील हुआ है । वर्तमान में देश का लगभग २३ प्रतिशत भू-भाग ही संरक्षित एवं आरक्षित वन घोषित है, जिसका लगभग दो तिहाई भाग ही वन आच्छादित है, जबकि पर्यावरण सुरक्षा हेतु राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार देश का ३३ प्रतिशत भू-भाग वन आच्छादित होना चाहिए । उपरोक्त परिस्थितियों में यह लक्ष्य शायद ही कभी प्राप्त् हो सके । यह सभी जानते हैं कि वनों के नष्ट होने के कारण हमारे वातावरण में परिवर्तन आ रहा है । वर्षा कम हो गई है और अनियमित भी हो गई है । हमारे बारहमासी जल स्त्रोत सूख रहे हैं । सर्दी के दिनों में आने वाली बरसात नहीं के बराबर हो गई है, जिस कारण जहां पहले रबी की फसल थोड़ी सी सिंचाई से हो जाती थी, अब उनमें ज्यादा सिंचाई करनी पड़ती है । इस तरह बरसात की कमी तथा भू- जल का अनियंत्रित एवं अंधाधुंध दोहन होने से भू-जल स्तर गिरता जा रहा है । देश के हर शहर में प्रति लीटर के माप से प्लास्टिक की बोतलों में पीने का पानी बिक रहा है । हरियाणा के जिन गांवो में बच्च्े कभी कुआे मंे छलांग लगाकर नहाते थे, आज वहां पीने के पानी का गंभीर संकट पैदा होने के कारण गांव खाली करने का भय लोगों को सता रहा है, क्योंकि वहां का भू-जल स्तर ४०० से ५०० फुट नीचे खिसक गया है और पानी की उपलब्ध मात्रा भी कम हो गयी है, जिस कारण रहट, ढेकली और चरस जैसे सिंचाई के पुराने साधनों का स्थान अब सबमर्सिबल पम्पस ने ले लिया है । अगर कुछ दिनों के लिए इन गांवों में बिजली नहीं आये तो फसलों की सिंचाई करना तो दूर रहा, पीने का पानी भी उपलब्ध नहीं हो सकेगा, क्योंकि बिजली के बिना सबमर्सिबल पम्पस नहीं चल पायेंगे । यह हैरानी की बात है कि जहां गांवों में दूध बेचना पुत्र बेचने के समान मानते थे, बिना पैसे लिए एक-दूसरे को दूध दे देते थे और राहगीरों हेतु पीने के पानी की धमार्थ प्याऊ लगाते थे, अब वहां भी ऊंटगाड़ियों और बैलगाड़ियों से पीने का पानी बिक रहा है । इसके आगे क्या होगा, भगवान ही जाने । वन वास्तव में धरती माता के केश हैं, ठीक किसी महिला के केश की तरह । वनों के नष्ट होने से बरसात का पानी जमीन में पहले की तरह पर्याप्त् मात्रा में नहीं समा पाता और ऊपरी सतह को ही गीला करते हुए बहकर चला जाता है, ठीक उसी तरह जैसे किसी गंजे व्यक्ति के सिर पर डाला हुआ सारा पानी सिर को गीला करते हुए फिसल जाता है, जबकि केश वाले सिर में कुछ पानी रूक जाता है और केश जितने घने होते हैं, सिर में उतना ही ज्यादा पानी रूकता है । यही कारण है कि घने वनों से बाहरमासी झरनो, नालों और नदियों का उद्गम होता है और इसीलिये विख्यात पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा ने वनों को जिन्दा जलाशय की उपमा दी है । खेती करने हेतु जब से ट्रेक्टरों ने बैलों का स्थान लिया है, तब से निजी कृषि भूमि में भी वृक्षों की संख्या काफी घट गई है । इस तरह धरती पर वृक्षों के अभाव में एक तो वर्षा कम हो रही है, दूसरा भूमि में पानी कम मात्रा में समा रहा है तथा तीसरा फसलों की सिंचाई के लिए मशीनों से अधिक मात्रा में भू-जल निकाला जा रहा है, जिस कारण भू-जल स्तर गिरता जा रहा है और झरने तथा नदी-नाले सूखते जा रहे हैं । मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र के संबंध में कहावत रही है, ``मालवा की धरती, गहन गंभीर । पग-पग रोटी, डग-डग नीर ।।'' वनों के घटते क्षेत्रफल एवं घनत्व के कारण पैदा हुए पानी के अभाव में अब यह कहावत झूठी पड़ चुकी है और भगवान महाकाल एवं राजा विक्रमादित्य की पवित्र नगरी उज्जैन से गुजरने वाली कभी बारहमासी रही क्षिप्रा नदी भी सूख गई है । इस कारण अब उज्जैन में कुंभ मेले के आयोजन के समय क्षिप्रा नदी में श्रद्धालुआे के स्नान हेतु मानव निर्मित जलाशयों से पानी छोड़ने की व्यवस्था करनी पड़ती है । मध्यप्रदेश का उज्जैन जिला कृषि प्रधान होने के कारण हरियाणा और पंजाब की तरह यहां के वन भी बढ़ती आबादी के कारण कई वर्ष पहले ही कट चुके हैं और इस जिले में आज केवल ०.५१ प्रतिशत वन भूमि है और वह भी वृक्षाच्छादित नहीं है । आज से ६०-७० वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश में वन बाहुल्य रहे बड़वानी जिले में जो नाले बारहमासी थे, वे अब वनों के घटने से सूख चुके हैं तथा वर्षा ऋतु में कभी-कभी ही बहते हैं । इस कारण पानी के अभाव में कृषि उत्पादन घट गया है तथा वन आवरण हटने से भूक्षरण के कारण मिट्टी के बह जाने से वन विहीन पहाड़ियां अब वृक्षारोपण के लायक भी नहीं रह गई है अर्थात सारे सोने के अंडे एक साथ पाने के लिये मुर्गी का पेट काट डाला, जिस कारण अब न तो मुर्गी रही और न ही सोने का अंडा । मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ प्रांतों के खरगोन, बड़वानी, मंडला शहडोल, बालाघाट, सरगुजा, बस्तर आदि वन बाहुल्य जिलों में वनों के घटने के कारण अनेक झरनों और नदी-नालों के सूखने की वहां के वनवासियों के मुख से आंखों देखी बातें सुनने से उक्त तथ्यों की पुष्टि भी होती है । यही हाल देश के अन्य क्षेत्रों में भी है । अगर वनों के घटने एवं नष्ट होने का सिलसिला ऐसे ही जारी रहा तो देश के वनों से निकलने वाली सभी नदियों सूख जाएंगी । पवित्र मानी जाने वाली नदियों में से मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा नदी, जिसका उद्गम धार्मिक स्थल अमरकंटक की साल वनों से आच्छादित पहाड़ियों से होता है भी एक दिन सूख जाएगी, जिसके फलस्वरूप इस नदी का पानी पीने वाले कई शहर और गांव प्यास से तड़पने लगेंगे, सिंचाई के अभाव में अन्न उत्पादन में गिरावट आयेगी, पन-बिजली उत्पादन बंद हो जायेगा, जिससे मध्यप्रदेश में आर्थिक विकास की गति अवरूद्ध होगी । भारत वर्ष के मेघालय प्रांत में स्थित दुनिया के सबसे अधिक वर्षा वाले क्षेत्र चेरापंूजी के निवासी वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण पीने के पानी के लिए तरस रहे हैं । इस क्षेत्र के लोगों की प्यास बुझाने के लिए अब बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कर पुन: वन लगाने और इजराइली तकनीक से वर्षा के पानी को भंडारित करने के प्रयास प्रारंभ कर दिए गए है । वर्ष २००७ में नोबल शांति पुरस्कार प्राप्त् करने वाली संस्था यू.एन.आई. पी.सी.सी. (यूनाइटेड नेशन्स इंटर गवर्नमेन्टल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज) के अध्यक्ष एवं भारतीय वैज्ञानिक डॉ. राजेन्द्र पचौरी का मानना है कि ``ग्लोबल वार्मिंग'' के कारण दुनिया का तापमान बढ़ जाने से वातावरण में बड़ा परिवर्तन आयेगा । बर्फ के पहाड़ों पर स्थित ग्लेशियर्स से निकलने वाली बाहरमासी सतलुज, गंगा और यमुना जैसी नदियां सूख जाएंगी और इन नदियों पर बने बांध सूखने से उत्तर भारत में नहरों द्वारा सिंचाई व्यवस्था और शहरों की पेयजल व्यवस्था ठप्प हो जायेगी तथा पन-बिजली उत्पादन बंद होने से देश में आर्थिक विकास की गति अवरूद्ध होगी । बर्फ पिघलने से समुद्रों का जल स्तर बढ़ेगा, जिससे समुद्रों के किनारे बसे मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता और विशाखापट्टनम जैसे कई शहर जलमग्न हो जाएंगे । उल्लेखनीय है कि वातावरण में अन्य गैसों के साथ-साथ मुख्य रूप से कार्बन डाय आक्साइड गैस बढ़ने से ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण ``ग्लोबल वार्मिंग'' होती है । कार्बन डाय आक्साइड गैस कम करने में वनों का सबसे बड़ा योगदान रहता है । इसीलिये बर्फीले पहाड़ों पर स्थित ग्लेशियर्स से निकलने वाली बारहमासी नदियों के अस्तित्व और समुद्रतटीय क्षेत्रों को जल मग्न होने से बचाने के लिए पृथ्वी पर वनों का बना रहना अति आवश्यक है। जिन वन बाहुल्य क्षेत्रों में गर्मियों में कभी पंखे चलाने की आवश्यकता नहीं होती थी, आज वहां वनों के कटने से तापमान इतना बढ़ गया है कि उन क्षेत्रों में एयर कूलर्स और एयर कंडिशनर्स चल रहे हैं । धरती से अनाज पैदा करने के लिए पानी भी आवश्यक है । इसीलिये गुरू ग्रन्थ साहिब में धरती को बड़ी माता और पानी को पिता की उपाधि दी गई है। अगर थोड़ी देर के लिये यह मान लिया जाए कि देश को भुखमरी से बचाने के लिये पूरे जंगल की जमीन गरीबों में खेती करने के लिए बांट दी जाए तो क्या देश में भुखमरी और गरीबी दूर हो सकेगी । वनों के कटने से बारहमासी झरनें तथा नदी-नाले, चाहे उनका उद्गम वनों से हो या फिर ग्लेशियर से हो, सूख जाएंगे, भू-जल स्तर धीरे-धीरे नीचे खिसक जायेगा तथा वर्षा और जलवायु भी अनियमित हो जायेंगी, सिंचाई के लिए बिजली उपलब्ध नहीं होगी, जिस कारण देश में जितना अनाज आज पैदा होता है, उतना भी पैदा नहीं हो पायेगा । इससे स्पष्ट है कि वन भूमि को कृषि भूमि में बदलने से भुखमरी मिटेगी नहीं, बल्कि बढ़ेगी । न केवल भुखमरी बढ़ेगी नदी-नालों के सूख जाने और भू-जल स्तर में भारी गिरावट आने और बिजली उपलब्ध न होने से पीने के पानी का भी उपलब्ध नहीं हो सकेगा, जिस कारण भविष्य में शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में भूख से होने वाली मौतों के साथ-साथ प्यास से भी मौतें होने लगेंगी । समुद्रों का जल स्तर बढ़ने से तटीय शहरों की आबादी जलमग्न होकर खत्म हो जायेगी । जब ऐसी स्थिति है तो क्या वनों को अच्छी तरह समझ लिया है, जिस कारण वहां आबादी पर सफल एवं प्रभावी नियंत्रण के साथ-साथ वृक्षों और वनों को इतनी सुरक्षा प्रदान की गई है कि पशु अवरोधक खन्ती तथा चेनलिंग या कांटेदार तार की बागड़ के बिना ही सफलतापूर्वक वृक्षारोपण किए जा रहे हैं, जबकि भारत में आबादी और पशु संख्या के दबाव के कारण अनेक तरीके अपनाने के बाद भी वृक्षारोपणों को सफल बनाना एक टेढ़ी खीर बनी हुई है । जब चीन ऐसा कर सकता है तो सारे जहां से अच्छा हमारा हिन्दुस्तान क्यों नहीं कर सकता ? कमी कहां है ? ऐसी स्थिति में देश की इस समस्या का समाधान क्या है ? अगर इस ओर गहराई से सोच-विचार किया जाए तो हमें कहीं दूर झाकने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि अपने पड़ौस में ही इसका समाधान साफ नजर आ रहा है । जिस तरह चीन ने इस समस्या पर काबू पाया है, दुनिया के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश भारत वर्ष को भी इसी रास्ते पर चलना होगा तथा धर्म, जाति सम्प्रदाय आदि को भुलाकर केवल राष्ट्र धर्म को सर्वोपरि रखते हुए आबादी नियंत्रण और वन क्षेत्र बढ़ाने हेतु कानून बनाना होगा । अन्यथा जिस तरह आज की पीढ़ी के लिए यह आश्चर्य है कि प्राचीन भारत में दूध-दही की नदियां कैसे बहती थी, उसी तरह आने वाली पीढ़ियां भी यह विश्वास नहीं कर पाएंगी कि इस देश की धरती पर कभी पानी की नदियां भी बहती थी । आज तो पानी बिक रहा है, लेकिन भविष्य में खरीदने के लिए रूपए लेकर घूमते रहेंगे तो पीने के लिए भी पानी नहीं मिलेगा । आजकल नगर पालका और नगर निगम के नलों पर पीने के पानी के लिए झगड़ों में मौतें होना आम बात हो गई है । नवम्बर २००७ में मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड के किसानों ने हथियारों से लैस होकर उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती महोबा जिले में स्थित उर्मिल बाँध से पानी लूट लिया । इन सब परिस्थितियों को देखा जाए तो शायद यह सच ही है कि अगर इस धरती पर तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो वह पानी के लिए ही लड़ा जायेगा । कुछ अमीर और प्रभावशील लोग तो जिंदा रहने के लिए शायद किसी समृद्ध देश में चले जायें, लेकिन गरीबों और आम जनता को तो उक्त परिस्थितियों में लकड़ी के अभाव में यही दफन होना पड़ेगा । इसलिए सकारात्मक परिवर्तन लाने और इस देश की धरती को प्राचीन भारत की तरह पुन: खुशहाली से जीने लायक बनाने के लिए जनता को ही जल, जंगल और जमीन को बचाने की पहल करनी होगी । अत: यह पहल आज से ही क्यों न प्रारंभ कर दें और फिर से इस भारत देश को सबसे अच्छा देश बना दें । ***

९ वैकल्पिक ऊर्जा

सौर ऊर्जा के व्यावहारिक कदम
हिमांशु ठक्कर
ऊर्जा के असीमित एवं स्वच्छ स्त्रोत के तौर पर उपलब्ध सौर ऊर्जा का दोहन विश्व भर में अभी सीमित स्तर पर ही किया जा सका है । कच्च्े तेल की दिनों-दिन बढ़ती कीमतों एवं ग्लोबल वार्मिंग की आशंका के तहत ऊर्जा के मौजूदा पारंपरिक स्त्रोतों की प्रासंगिकता कम होती जा रही है । ऐसे में बेहतर विकल्प के तौर पर सौर ऊर्जा के प्रति लोगों का रूझान बढ़ा है लेकिन सौर ऊर्जा के उपकरणों की ज्यादा लागत के कारण यह साधन अभी तक लोकप्रिय नहीं हो पाया था । यदि तकनीकी विकास के बल पर सौर ऊर्जा की लागत कम हो जाय तो यह काफी लोकप्रिय हो सकती है और हम स्वच्छ व टिकाऊ ऊर्जा के रूप में सौर ऊर्जा को अपना सकते हैं। जहां तक सौर ऊर्जा की लागत की बात है तो जापान, कैलीफोर्निया एवं इटली में, जहां पर बिजली की खुदरा दर सर्वाधिक है, सौर ऊर्जा पारंपरिक बिजली के लागत के लगभग करीब है एवं कुछ मामलों में प्राकृतिक गैस एवं आणविक ऊर्जा के मुकाबले सस्ती है । यह कुछ नये तकनीकी विकास के कारण संभव हो सका है । सन १९५४ में जब से बेल लैब्स द्वारा पहले फोटोवोलेटिक (पीवी) सेल का निर्माण किया गया तब से वह इस तकनीक का आधार बना हुआ है । इस आधार पर सूर्य के प्रकाश के कुछ हिस्सों को ही बिजली में परिवर्तित किया जा सकता था । उसी बेल लैब्स ने ऐसे सिलीकॉन की खोज भी की जो कि सस्ता एवं सुलभ है । पिछले दशक में सस्ते सेल के माध्यम से सूर्य की ऊर्जा को २० प्रतिशत तक बिजली में परिवर्तित करने में सफलता मिली । वहीं पिछले वर्ष न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में शोधकर्ताआें ने एक ऐसे सेल का निर्माण किया जिससे ४२.८ प्रतिशत ऊर्जा परिवर्तन क्षमता हासिल हुई। आस्ट्रेलिया में न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय के मार्टिन ग्रीन का मानना है कि अन्य विकसित पदार्थोसे निर्मित सेल में ७४ प्रतिशत तक क्षमता विकसित किया जाना संभव है । जबकि सांइंटिफिक अमेरिकन जर्नल में दावा किया गया है कि मौजूदा समय में न्यूनतम लागत वाली प्रक्रिया है कैडमियम टेलूराइड से निर्मित पतली फिल्म । सन् २०२० तक ६ सेंट प्रति किलोवाट की दर पर बिजली प्रदान करने के लिए कैडमियम टेलूराइड प्रक्रिया को १३४ प्रतिशत बिजली कार्यक्षमता के लिए सक्षम बनाना होगा । तकनीकी विकास के साथ प्रयोगशाला में कैडमियम टेलूराइड सेल की क्षमता १६.५ प्रतिशत तक पहुंच चुकी है । लेकिन व्यावसायिक उपयोग में अभी यह क्षमता १० प्रतिशत तक पहुंच पाई है । सन् १९८८ से अमेरिका के कैलिफोर्निया के नेवादा रेगिस्तान के सौर ऊर्जा पार्क में १ वर्ग किमी क्षेत्र में परावलीय आकार की ९ तश्तरियों द्वारा ३५४ मेगावाट बिजली पैदा की जाती है। कैलिफोर्निया पब्लिक यूटिलिटिज कमीशन ने सन २००५ में लॉस एंजेल्स के उत्तर पूर्व में मोजावे रेगिस्तान में विश्व के सबसे बड़े सौर डिश संकेन्द्रण फार्म स्थापित करने की मंजूरी दी है । सन २०१० में बनकर तैयार हो जाने के बाद २०००० डिश से युक्त इस फार्म की उत्पादन क्षमता ५०० मेगावाट होगी । लेकिन इस प्रकार के संयंत्रों को तेज हवा एवं तूफान की स्थिति में नुकसान पहुंचने की आशंका रहती है। सिडनी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डेविड मिल्स ने अपने एक शोधपत्र में सूर्य की रोशनी को आइने के ऊपर स्थित ट्यूब पर किरण को केन्द्रित करने वाले लगभग पूर्णतया समतल आइने का जिक्र किया है । ऐसे आइने परावलीय आकार की डिश में मुकाबले सुलभ एवं सस्ते होते हैं एवं फ्लोरिडा में आने वाले तूफानों में मजबूती से टिके रह सकते है । इस तकनीक में सूर्य की उष्मा द्वारा पानी को सीधे वाष्प में बदला जा सकता है । यह दावा किया जाता है कि इस तकनीक से पैदा होने वाली बिजली की तुलना कोयला आधारित बिजली संयंत्र की लागत से की जा सकती है । इस तकनीक के आधार पर औसरा नामक एक कम्पनी कैलिफोर्निया में एक वर्ग मील क्षेत्र में १७७ मेगावाट की स्थापित क्षमता का सौर तापीय संयंत्र लगाएगी । नवम्बर २००७ में हुए समझौते के अनुसार संयंत्र २०१० में बिजली आपूर्ति प्रारंभ कर देगा । शुरूआती दावा यह है कि यह है कि यह संयंत्र १०.४ सेंट प्रति यूनिट की दर पर बिजली आपूर्ति करेगा । औसरा का कहना है कि वह तीन साल में लागत में ७.९ सेंट प्रति यूनिट (किलोग्राम प्रति घंटा) तक कटौती कर सकती है । (एक अमेरिकी डालर करीब रूपये ४० के बराबर है एवं एक सेंट रूपये ४ के बराबर) विश्व भर में कई प्रमुख देश अपने यहां सौर ऊर्जा को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न रियायते दे रहे हैं, जिनमें जर्मनी सबसे आगे है । जर्मनी के बाद इटली एवं स्पेन भी अपने देश में सौर ऊर्जा के लिए सब्सिडी दे रहे हैं । कैलिफोर्निया में २.८ अरब डालर आर्थिक सहायता के माध्यम से २०१६ तक ३०० मेगवाट सौर ऊर्जा स्थापित करने का लक्ष्य है । इजराइल की सोलेल सोलर सिस्टम ने भविष्य में ५५३ मेगावाट बिजली प्रदान करने के लिए समझौता किया है । इसी तरह अल्जीरिया, चीन एवं जापान आदि देशों ने अपने यहां सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न सहायता कार्यक्रम शुरू किये हैं । इस तरह सौर ऊर्जा का बाजार विश्व के सबसे बढ़ने वाले बाजार के रूप में उभर रहा है । सौर ऊर्जा के माध्यम से जब आकाश में बादल छाये हों तब बिजली का उत्पादन कम एवं रात को बिजली का उत्पादन नहीं होता है । अर्थात जब सूर्य की रोशनी ज्यादा हो तो ज्यादा बिजली पैदा किया जाना चाहिए एवं उसे बाद के समय के लिए संजोकर रखा जाना चाहिए । बिजली संजोकर रखे जाने वाले उपकरण जैसे बैटरी आदि काफी महंगे होते हैं, हालांकि इस समस्या का भी निराकरण हो रहा है । नवीनेय ऊर्जा की वैश्विक स्थिति पर २००७ की रिपोर्ट देखें तो सौर फोटोवोलेटिक (पीवी) के बिजली ग्रिड में जुड़ने की गति ५०-६० प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ रही है जो कि ८००० मेगावाट के करीब हो गई है । सौर ऊर्जा के माध्यम से विश्व भर में करीब ५ करोड़ घरों में गरम पानी की उपलब्धता हो रही है । वैश्विक स्तर पर सौर ऊर्जा तकनीक पर खर्च सन् २००३ में २ अरब डालर के मुकाबले सन् २००६ में १५ अरब डालर हो चुका है जबकि सन् २०१५ में इसके १०० अबर डालर तक पहुंचने की संभावना है । जहां तक भारत में सौर ऊर्जा के प्रसार का सवाल है तो वह काफी धीमा है । नव एवं नवीनेय ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार ३० सितम्बर २००७ तक भारत में मात्र २.१२ मेगावाट की सौर ऊर्जा ही ग्रिड से जोड़ी जा सकी है । जबकि विकेन्द्रित तौर पर सौर पीवी कार्यक्रम की स्थापित क्षमता ११० मेगावाट है । इसके अलावा सौर स्ट्रीट लाइट प्रणाली, सौर घरेलू ऊर्जा प्रणाली एवं सौर लालटेन की कुल संख्या ९८९६५१ है । सौर ऊर्जा द्वारा जल गर्म करने की प्रणाली एवं सौर ऊर्जा वाले कुकर एवं पंपों की संख्या भी काफी कम है । जहां एक तरफ विश्व की कई प्रमुख सौर ऊर्जा उपकरण निर्माता कंपनियां भारत को एक बेहतर बाजार के तौर पर देख रही हैं वहीं भारत में सौर ऊर्जा क्षेत्र में प्रसार की गति बहुत धीमी है । भारत में सौर ऊर्जा फोटोवेलैटिक के माध्यम से प्रति यूनिट बिजली की लागत १५ रू. प्रति किलोवाट आती है । लेकिन यदि सौर तापीय आधारित बिजली संयंत्र का विकास किया जाय तो प्रति यूनिट बिजली की लागत भी कम हो सकती है । इसलिए आवश्यकता है कि भारत सरकार सौर ऊर्जा के विकास को प्रोत्साहित करने वाली नीति बनाये । इसके अंतर्गत ऋण की आसान शर्ते, सब्सिडी आदि के साथ-साथ बेहतर बिजली दर की शर्ते भी निर्धारित करे । हाल में सरकार ने एक नई योजना की घोषण की है जिसके अंतर्गत सौर ऊर्जा से ग्रिड में बिजली पहुंचाने के लिए सरकार १०-१२ रू. प्रति यूनिट की सहायता देगी । इस योजना के अंतर्गत ऐसी सहायता १० साल तक दी जाएगी । अगले पांच साल में सरकार का लक्ष्य है कि इस योजना के अंतर्गत ५० मेगावाट क्षमता के संयंत्र लगेंगे । सहायता की यह मात्रा काफी ज्यादा है और लक्ष्य क्षमता काफी कम लेकिन सौर ऊर्जा संयंत्रों की शुरूआत के लिए शायद ये जरूरी हैं । वास्तव में जितना खर्च व ध्यान सरकार नाभकीय तथा बड़ी जलविद्युत परियोजनाआे के लिए दे रही है, वह संसाधन और ऊर्जा के विकास में लगाए तो यह जनता एवं पर्यावरण के भविष्य के लिए काफी फायदेमंद होगा । ***

१० ज्ञान विज्ञान

अब भुट्टे खाने से कद बढ़ेगा
सड़क किनारे कोयले की आँच पर सिक रहे भुट्टों से मुँह में पानी भर आता है, लेकिन अब वही भुट्टे शाकाहारी भारतीयों का कद बढ़ाने में मददगार साबित होने जा रहे हैं । देश में तीसरा सबसे अधिक खपत वाला अनाज मक्का है । मक्के की रोटी और सरसों की साग हमारे देश में काफी प्रसिद्ध है । लेकिन हमारे देश की मक्का में एमिनो एसिड और प्रोटीन की कमी महसूस की जा रही थी ।
केन्द्र सरकार के बायो टेक्नोलॉजी विभाग से प्रायोजित एक परियोजना के तहत अल्मोड़ा स्थित विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने प्रोटीन और एमिनो एसिड की यह कमी पूरी कर दी है और मार्कर टेक्नोलॉजी से साधारण मक्का में ४० प्रतिशत अधिक एमिनो एसिड वाली मक्का तैयार कर दी है । विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने उच्च् प्रोटीनयुक्त मक्का के विकास की पिछले दिनों घोषणा करते हुए बताया कि ५०० करोड़ रू. की लागत से मक्का के अलावा आठ और डिजाइनर फसलों का विकास किया जा रहा है । श्री सिब्बल ने कहा कि भारत और दक्षिण एशिया के अन्य देशों में मक्का में बढ़ा हुआ प्रोटीन क्रांति ला सकता है, क्योंकि इस क्षेत्र के लोग अमूमन शाकाहारी हैं और प्रोटीन की कमी की वजह से उनका कद छोटा रह जाता हैं । मक्का इस कमी को पूरा कर सकती है । मक्का की बहुतायत में खेती हिमाचल प्रदेश, उत्तारांचल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में होती है । परंपरागत मक्का देरी से पकती थी, लेकिन विवेक हाइब्रिड ९ किस्म की नई मक्का की फसल जल्दी पक जाती है । नई किस्म के प्रयोग काफी सफल साबित हुए हैं और कृषि वैज्ञानिक अब १०० प्रतिशत अधिक एमिनो एसिड वाली मक्का तैयार करने में जुट गए हैं ।
दीवार के पार देख सकेंगे पुलिस अधिकारी
तकनीकी विशेषज्ञों ने एक ऐसा नया एक्स-रे स्कैनर तैयार कर लिया है जो कस्टम ऑफिसर और पुलिस का काम बेहद आसान बना देगा । इस तकनीक के जरिए पुलिस अधिकारी किसी सुपर हीरो की तरह दीवार के पार भी देख सकेंगे । `लेक्सिड' एक्स-रे की खोज करने वाले वैज्ञानिक का कहना है कि इसके जरिए हथियार, बम और छुपे हुए आतंकवादियों के बारे में जानकारी पता की जा सकेगी। इसकी निगाह से कोई भी चीज छुप नहीं सकेगी । फिजिकल ऑप्टिक्स कारपोरेशन के अमेरिकन वैज्ञानिक रिकी शेई इस तकनीक के बारे में बताते हैं कि इस एक्स-रे में लो लेवल की एक्स किरणें भेजी जाती हैं जो एक लेंसर आधारित लोबोस्टर आई में एकत्रित हो जाती हैं । यही से तकनीक काम करना शुरू करती है । लोबोस्टर आई से परिवर्तित होने वाली किरणें एक स्क्रीन पर उस वस्तु का चित्र उकेर देती हैं । उल्लेखनीय है कि लोबोस्टर आई का उपयोग गहराई, गंदे पानी और अंधेरे में देखने के लिए किया जाता है । इसमें लगे छोटे-छोटे चौकोर लैंस किसी भी चीज से प्रकाश को परावर्तित करके छुपी चीजों को देखना संभव बनाते हैं । रिकी शेई कहते हैं कि उनकी टीम इस तकनीक का सफलतापूर्वक परीक्षण कर चुकी है, अब अमेरिकी सरकार इसका परीक्षण करेगी और फिर कुछ ही दिनों में इसे सुरक्षा के लिहाज से एरपोर्ट, रक्षा विभाग जैसे महत्वपूर्ण ठिकानों पर लगा दिया जाएगा ।
प्लास्टिक ऑप्टिकल फाइबर ताँबे का स्थान लेंगे

ब्रॉडबैंड इंटरनेट कनेक्शन के लिए ताँबे के तार की इन दिनों भारी माँग है । परंतु एक नया शोध सामने आया है, जिसके तहत कहा गया है कि प्लास्टिक के ऑप्टिकल फाइबर न केवल सस्ते होंगे, वरन आसान भी होंगे । इसके अलावा इससे ब्रॉडबैंड की स्पीड भी तुलनात्मक रूप से ज्यादा तेज होगी । इस तकनीक के शोधकर्ताआें का कहना है कि अगले १५ साल में योरप के ८० प्रतिशत घरों में प्लास्टिक आधारित ब्रॉडबैंड होंगे और यह वर्तमान की तुलना में ५० गुना ज्यादा तीव्र गति से चलेंगे । ये प्लास्टिक ऑप्टिकल फाइबर जल्द ही ग्लास आधारित ऑप्टिकल फाइबर का स्थान लेंगे । अभी जिस ऑप्टिकल फाइबर का प्रयोग किया जा रहा है, वह काफी महँगा है और उसे घरों और कार्यालयों में लगे ताँबे के कनेक्शन से स्थान पर प्रयुक्त नहीं किया जा सका है । कारण पूरी वायरिंग को बदलना काफी महँगा होगा । विशेषज्ञों ने काफी समय पहले ही इसकी भविष्यवाणी कर दी थी कि ऑप्टिकल फाइबर की कीमतें घटेगी और वायरलैस सेवा केबल का स्थान लेगी । योरपीय संघ ने इस बात को समझते हुए इससे संबंधित शोधकर्ताआे को आर्थिक सहायता दी, ताकि वे प्लास्टिक ऑप्टिकल फाइबर तैयार कर सकें । इस प्रोजेक्ट को नाम दिया गया पीओएफ ऑल (पेविंग द ऑप्टिकल फ्यूचर विद एफोर्डेबल लाइटनिंग फास्ट लिंक्स) इसमें इटली के तोरिनो के इंस्टीट्यूट सुप्रीयो के मारियो बोएला को प्रमुख बनाया गया । ल्यूसेट जैसी नेटवर्क कंपनी के संस्थापक एलसेंड्रोल नोसिवेली का कहना है कि प्लास्टिक ऑप्टिकल फाइबर आसानी से ताँबे का स्थान ले लेंगे । न्यू सांइटिस्ट का कहना है कि यदि अधिक मात्रा में ऑप्टिकल फाइबर लगाना हो तो प्लास्टिक ऑप्टिकल फाइबर का इस्तेमाल करना सस्ता पड़ेगा । इससे स्पीड भी बढ़ सकती है । इसकी स्पीड प्रति सेकंड १०० मेगाबाइट्स से ३०० मेगाबाइट्स की है । ऑप्टिकल फाइबर सुपर कूलिंग लिक्विड (ग्लास) का होता है । इसके कारण इसमें टोटल इंटरनल रिफ्लैक्शन होता है । इसमें पारेषण प्रकाश किरण के रूप में होता है । पॉवर लाइन कम्युनिकेशन्स के लिए कार्य कर रहे मयंक पाल के मुताबिक क्रिटिकल एंगल से ज्यादा प्रकाश किरण को इस ऑप्टिकल फाइबर की भीतरी सतह पर टकराते हैं तो उसमें से प्रकाश किरण दूसरे माध्यम से जाने की बजाय उसी माध्यम में प्रयुक्त हो जाती है। इसी कारण से उसी प्रक्रिया को अपनाते हुए आगे तक ले जाती है । ऑप्टिकल फाइबर में चूँकि प्रकाश किरण का प्रयोग होता है तो स्पीड काफी तेज होती है और इसका उपयोग ज्यादा दूरी के लिए किया जा सकता है । सूचना भेजने के लिए माध्यम प्रकाश किरण होती है । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसमें दो कानून हैं । इनमें से एक है स्नेल और दूसरा है ब्रूस्टर । १ मिलीमीटर मोटी प्लास्टिक फाइबर लचीली होती है और इलेक्ट्रिकल हस्तक्षेप से प्रभावित नहीं होती है । यह इलेक्ट्रिक वायरिंग में आसानी से डाली जा सकती है । साथ ही इसे लगाने में ग्लास ऑप्टिकल फाइबर की तरह तकनीशियनों की जरूरत भी नहीं होती है। इससे कई अरब रूपयों की बचत की जा सकती है ।
सबसे ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ने वाले देश

ताईवान में ताइचुंग शहर में एक बिजली घर है जो प्रति वर्ष ३.७ करोड़ टन कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जित करता है । यह दुनिया भर के किसी भी बिजली घर से ज्यादा है । इसी प्रकार से बिजली उत्पादन की प्रक्रिया में सर्वाधिक प्रति व्यक्ति कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ने वाला देश ऑस्ट्रेलिया है । मगर आज भी यदि कुल कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा देखें तो यू.एस. के बिजलीघर सबसे ऊपर है। यह सारी जानकारी एक नए डैटाबेस में प्रस्तुत की गई । इस डैटाबेस में दुनिया भर की ४००० बिजली कंपनियों और करीब ५०,००० बिजली संयंत्रों के ऊर्जा उत्पादन और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के आंकड़े संकलित है । इस डैटाबेस का निर्माण वॉशिंगटन स्थित सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट ने हाल ही में किया है । यू.एस. में लगभग ८००० बिजलीघर हैं जो प्रति वर्ष २.५ अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड पैदा करते हैं । इसको मिलाकर यू.एस. दुनिया में उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड में से २५ प्रतिशत के लिए जवाबदेह है । चीन बहुत पीछे नहीं है और यहां का कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन २.४ अरब टन है । मगर प्रति व्यक्ति के लिहाज से देखें तो चीन यू.एस. से बहुत पीछे है । चीन के बाद रूस का नंबर आता है मगर वह बहुत पीछे है और उसका उत्सर्जन मात्र ६० करोड़ टन है ।

११ विशेष लेख

जलवायु परिवर्तन और हम
सुश्री रेशमा भारती
अंतर्राष्ट्रीय मंचो पर प्राय: विकसित और विकासशील देशों के बीच मूलत: वाद-विवाद का विषय बनकर रह गई जलवायु परिवर्तन की चुनौती भले ही रोजमर्रा के आजीविका के संघर्ष व व्यस्त दिनचर्या में लीन लोगों के लिए महज खबर या अकादमिक विषय सामग्री मात्र ही हो; पर सच्चई तो यह है कि हवा, पानी, खेती, भोजन, स्वास्थ्य, आजीविका, आवास आदि सभी पर प्रतिकूल असर डालने वाली इस समस्या से देर-सवेर, कम-ज्यादा हम सभी का जीवन प्रभावित होना है । चाहे वे समुद्री जलस्तर बढ़ने से प्रभावित होते तटीय या द्वीपीय क्षेत्रों के लोग हों या असमान्य मानसून अथवा जल संकट से त्रस्त किसान । विनाशकारी समुद्री तूफान का कहर झेलते तटवासी हों अथवा सूखे की विकट स्थितियों से त्रस्त लोग असमान्य मौसम से जनित अजीबो गरीब बीमारियां झेलते लोग हों या विनाशकारी बाढ़ में अपना आवास व सब कुछ गवां बैठे तथा दूसरे क्षेत्रों को पलायन करते लोग ये तमाम लोग जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं । बढ़ते समुद्री जलस्तर से डूबते क्षेत्र, असमान्य मानसून अथवा बाढ़ सा सूखे की विकट स्थिति से नष्ट होती खेती, विनाशकारी समुद्री तूफान, मलेरिया-डेंगू जैसे कई रोगों का फूटना, अन्य जीव प्रजातियों का लुप्त् होना इन तमाम स्थिति का जिक्र जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की चर्चा करते वैज्ञानिकों ने समय-समय पर किया है । प्रसिद्ध अर्थशास्त्री निकोलस स्टर्न इस संकट का एक आयाम मानव इतिहास में सर्वाधिक पलायन के दौर के रूप में भी देखते हैं । हाल ही में जलवायु परिवर्तन संबंधी बाली सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम व जर्मन एडवाइजरी कांऊसिल ऑन ग्लोबल चेंज द्वारा पेश की गई एक नई रिपोर्ट भी यही कहती है कि जलवायु परिवर्तन खाद्य उपलब्धि, जल आपूर्ति और भूमि स्त्रोतों में कमी लाकर और पर्यावरण विस्थापितों की संख्या में बढ़ोतरी करके दुनिया में तनाव बढ़ा सकता है और लड़ाइयोंं को भड़का सकता है । अर्थशास्त्री निकोलस स्टर्न ने यह भी चेताया था कि जलवायु परिवर्तन विश्व अर्थव्यवस्था के लिए भी गंभीर खतरे व अनिश्चितताएं पैदा करता है । स्पष्ट है कि सभी लोगों की बुनियादी जरूरतें जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होगी । सबसे बढ़कर यह धरती पर जीवन के अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौती है । आधुनिक औद्योगीकृत, मशीनीकृत आर्थिक व्यवस्था और बढ़ते हुए उपभोक्तावाद की स्वाभाविक परिणति है प्रकृति का दोहन और जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए बहुत प्रभावपूर्ण कदम तो नहीं उठा सकते पर व्यक्तिगत स्तर पर लालच, उपभोग, ऐश्वर्य प्रदर्शन, असीमित महत्वकांक्षाआे और संसाधनों को हड़पने की प्रवृत्ति पर नियंत्रण करके तथा सादगीपूर्ण, यथासंभव प्रकृतिसम्मत जीवन शैली अपनाकर हम इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास कर सकते हैं । अमीरों की उपभोक्तावादी जीवन शैली और इंर्धन-ऊर्जा की बेइंतहा खपत पर्यावरण पर ज्यादा बोझ डालतरी है । इसके वितरीत गरीबों की सीमित क्रय क्षमता उन्हें अपेक्षाकृत कम उपभोगी बनाती है पर सुरक्षा व संसाधनों के अभाव या प्रकृति पर सीधा निर्भर आजीविका के चलते गरीब लोग जलवायु परिवर्तन की मार भी प्राय: सर्वाधिक झेलते हैं और तो और प्रदूषण नियंत्रण या वैकल्पिक संसाधनों के प्रसार के नाम पर भी कई बार गरीबों को आजीविका या जरूरी संसाधनों से वंचित होना पड़ता है । भारत के संदर्भ में ही हाल के समय में ग्रीनपीस की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि भारत में सर्वाधिक आमदनी वाले वर्ग के एक फीसदी लोग सबसे कम आमदनी वाले ३८ फीसदी लोगों के मुकाबले कार्बन डाइऑक्साइड सा साढ़े चार गुना उत्सर्जन करते हैं । रिपोर्ट के मुताबिक तीस हजार रूपए मासिक आमदनी वाले सबसे ज्यादा आय वाले वर्ग के व्यक्तियों का औसत कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन, तीन हजार रूपए मासिक आमदनी वाले सबसे कम आय वर्ग के व्यक्तियों की तुलना में साढ़े चार गुना ज्यादा है । ग्रीन पीस इण्डिया के कार्यकारी निदेशक जी अनंत पद्मनाभन ने कहा कि भारत की प्रति व्यक्ति औसत उत्सर्जन की मात्रा कम होने के मुख्य वजह इसकी ८० करोड़ गरीब आबादी हैं जो न के बराबर उत्सर्जन करती है जबकि देश की चौदह फीसदी जनसंख्या की आमदनी आठ हजार रूपए मासिक से ज्यादा है और देश के कुल कार्बन उत्सर्जन में इसका हिस्सा चौबीस फीसदी है । ज्यादा आय वर्ग के लोगों के लिए अनिवार्य न्यूनतम क्षमता मानदंड नहीं बनाए गए हैं । ऊर्जा की फिजूलखर्ची करने वाले अनेक घरेलू उपकरणों व कारों का इस्तेमाल यह वर्ग भरपूर करता है । देश की गरीब आबादी जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरों को सहती काफी है । पर्यावरण विनाश व जलवायु परिवर्तन उसी तथाकथित विकास का नतीजा है जो विषमता और गरीबी को भी जन्म देता है । इनकी आधारभूत जड़ें लालच, उपभोक्तावाद, आधिपत्य व हड़पने की प्रवृत्ति में निहित हैं । अंधाधुंध औद्योगीकरण, मशीनीकरण और उपभोक्तावाद प्रेरित यह विकास प्रक्रिया यदि यूं ही जारी रही तो जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं सचमुच इतनी विकट हो जाएंगी कि धरती पर जीवन का अस्तित्व ही मिट सकता है । जलवायु परिवर्तन की गंभीर समस्या से निपटने के लिए राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ठोस कदम उठाए जाने जरूरी हैं पर अपने आर्थिक हितों के चलते बड़े उद्योग व कॉर्पोरेट सेक्टर इस संदर्भ में होने वाले अंतर्राष्ट्रीय संधि-समझौतों तथा राष्ट्रीय नीति-निर्णयों में दखलअंदाजी करते रहते हैं । अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी इस समस्या के निदान की जिम्मेदारी विकसित और विकासशील देश एक-दूसरे पर लादते अधिक नजर आते हैं । जीवाश्म इंर्धनों की खपत और ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में कौन कितनी कमी करेगा इसको लेकर इन खेमों में बहस ही अधिक होती रहती है । इस प्रकार सभी के जीवन को प्रभावित करने वाली यह गंभीर चुनौती एक अंतहीन वाद-विवाद और कहीं ले जाती बहस का विषय भर बन कर अधिक रह जाती है । जबकि समस्या चिंताजनक रूप से बढ़ चुकी है । वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर तापमान मौजूदा दर से बढ़ता रहा तो यह सदी बीतते-बीतते करोड़ों लोगों को भुखमरी, बेघर और बीमारियों की स्थिति में ला सकता है । ग्रीन हाऊस गैसों में कटौती के दायित्व को जिस आर्थिक विकास की दुहाई देकर टाला जाता है वह समूचा आर्थिक विकास भी धरा का धरा रह सकता है । अर्थशास्त्री निकोलस स्टर्न की रिपोर्ट यह बताती है कि जलवायु परिवर्तन आर्थिक विकास को उल्लेखनीय रूप से कम करेगा। अगर समय रहते कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो जलवायु परिवर्तन का खतरा इतना होगा जितना हर वर्ष कम से कम लगभग ५% सकल घरेलू उत्पाद का खोना । जबकि समय रहते जलवायु परिवर्तन को कम करना इतना खर्चीला नहीं है । जितने ठोस व जल्द से जल्द कदम उठाए जाएंगे उससे जलवायु परिवर्तन से जूझना उतना ही कम खर्चीला रहेगा । जापान के शहर क्योटो में जन्मी प्रसिद्ध पर्यावरण संधि क्योटो संधि में लक्ष्य रखा गया था कि ३६ औद्योगिक देशों द्वारा ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में १९९० के स्तर से ५ प्रतिशत की कमी लायी जाएगी । हाल के बाली (इंडोनेशिया) सम्मेलन तक इस संधि पर १७२ सदस्य देशों के हस्ताक्षर हो गए थे। बाली सम्मेलन की शुरूआत में ही आस्ट्रेलिया भी इस संधि में शामिल हो गया, हालांकि उसने यह स्पष्ट कर दिया कि वह अगले साल तक ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन में कटौती को लेकर किसी प्रकार का वादा नहीं कर सकता । खैर इसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका ही एकमात्र ऐसा समृद्ध देश बचा जिसने क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं । हाल के बाली सम्मेलन में भी अमरीका ने ही विकसित देशों द्वारा ग्रीन हाऊस गैसों में कटौती का कोई निर्धारित लक्ष्य तय करने में अड़चने डालींं । सन् २०१२ तक जलवायु परिवर्तन से जूझने का जो बाली रोड मैप इस सम्मेलन में तैयार हो रहा था अमरीका की अड़चनों से वह पूर्ण रूप नहीं ले सका । हालांकि २००९ तक इसमें ग्रीन हाऊस गैसों में कटौती के लिए कदम उठाने, जलवायु परिवर्तन के असरों के अनुरूप विकासशील देशों को स्वयं को ढालने में मदद करने, इको फ्रैंडली तकनीक अपनाने और स्थिति से अनुकूलन के व तकनीकी उपायों को आर्थिक आधार उपलब्ध कराने संबंधी लक्ष्य तो निर्धारित हो गए हैं । पर ग्रीन हाऊस गैसों में विकसित देशेां द्वारा कटौती की दिशा में किसी ठोस कदम की बात इस सम्मेलन में नहीं हो पायी । अमरीका (जो इस संदर्भ में सर्वाधिक अड़ियल रूख अपनाए था) कि मुख्य चिंता थी कि भारत और चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाआें को ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में बड़ी कटौती करने को बाध्य किया जाए । सच तो यह है कि ग्लोबल वॉर्मिंग व जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में अब विकसित और विकासशील देशों के बीच झगड़े का समय नहीं बचा है । समस्या इतना विकराल रूप ले चुकी है कि यदि जलवायु परिवर्तन के खतरों से धरती को बचाना है तो पूरी दुनिया को एक होना होगा । ***

१२ कविता

`प्रकृति एवं पर्यावरण पर हाइकु'
राजीव नामदेव `राना लिधौरी'
पर्यावरण,
की उथल-पुथल ।
महा विनाश ।।
जल के स्त्रोत,

जंगल औ बादल ।
जीवन ज्योति ।।
साफ जंगल,

नदिया प्रदूषित ।
कैसे मंगल ।।
जीवन दवा,

जल,जमीन, हवा ।
बिकने लगी ।।
टेढ़ी नज़र,

जब प्रकृति की होती ।
सब रोते हैं ।।
जाड़े के दिन,
ये कुनकुनी धूप ।
हमें सुहाती ।।
फागुन आया,

फूली है कचनार ।
आम बौराया ।।
आकाश पाना,

चाहता हँू मैं तो हँू,
धरा की धूल ।।
उड़ान भरी,

कि आसमां छू ले देखा ।
जमीं अंदर ।।
जीवन यात्रा,

अहसास की राहें ।
पथरीली है ।।
***

१३ पर्यावरण समाचार

दस साल में ५८ फीसदी घटे घड़ियाल
दुनिया भर में घड़ियाल लुप्त् होने की कगार पर है । पिछले दस सालों में वयस्क घड़ियालों की संख्या ५८ फीसदी घट गई है । इस खतरे के मद्देनजर वर्ल्ड कंजर्वेशन यूनियन (आईयूसीएन) ने घड़ियालों को अत्यंत संकटग्रस्त प्राणियों की रेडलिस्ट में शामिल कर लिया है । यूनियन के मुताबिक पाकिस्तान में सिंध, भूटान में ब्रह्मपुत्र और बांग्लादेश में गंगा नदी से घड़ियाल लगभग गायब हो चुके हैं । पर्यावरण और वन्यप्राणियों के चाहने वालों के लिए यह बुरी खबर है और यही हाल रहा तो भविष्य में घड़ियाल सिर्फ तस्वीरों में जिंदा रहेंगे । आईयूसीएन ने घड़ियालों को `संकटग्रस्त' से `अति संकटग्रस्त' प्राणियों की सूची में शामिल किया है । यूनियन के मुताबिक १९९७ में भारत और नेपाल में बचे-खुचे परंपरागत आशियानों में वयस्क घड़ियालों की संख्या ४३६ थी, जो पिछले साल हुई गणना में घटकर १८२ रह गई है । चालीस के दशक में वयस्क घड़ियाल पांच से १० हजार के बीच थे, जो ७० के दशक में दो सौ से कम बचे । तीस साल के दौरान करीब ९६ फीसदी घड़ियालों का सफाया हो चुका था । इसके बाद ही विश्व स्तर पर घड़ियालों को बचाने की पहल शुरू हुई और १९९७ में इनकी संख्या चार सौ के पार जा पहुंची । लेकिन एक बार फिर घड़ियालों का वजूद खतरे में है । यूनियन से जुड़े घड़ियाल विशेषज्ञों के मुताबिक भारत से फिलहाल घड़ियाल ही सर्वाधिक खतरे में पड़ी प्राणियों की प्रजाति है ।
प्रदूषण से बढ़ सकता है मधुमेह का खतरा
अमेरिका के वैज्ञानिकोंका कहना है कि प्रदूषण के कारण मधुमेह की बीमारी बढ़ सकती है । कैब्रिज के वैज्ञानिक ओलिवर जोन्स और जूलियन ग्रिफिन ने प्रदूषण और मधुमेह के बीच संभावित संबंधों के बारे में शोध की आवश्यकता पर बल दिया है । इस संबंध में लासेंट के ताजा अंक में एक लेख प्रकाशित हुआ है । वहीं दूसरी ओर कैब्रिज विश्वविद्यालय की वेबसाइड में भी इस संबंध में रिपोर्ट प्रकाशित हुई है । मधुमेह को लेकर इससे पहले शोध कार्यो में कहा गया था कि उन लोगों में मधुमेह होने की संभावना ज्यादा होती है जो पतले होते हैं और साथ ही उनके खून में परसिसटेंट ओरगेनिक पॉल्यूटेंट्स (पीओपी) की मात्रा अधिक होती है । वहीं मोटे लोग जिनमें पीओपी की मात्रा कम होती है, उन्हें मधुमेह का खतरा कम होता है । पीओपी एक तरह का रसायन है जो पर्यावरण में मौजूद रहता है तथा यह खतरनाक माना जाता है ।